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नमाज़े आयात पढ़ने का तरीक़ा

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1516। नमाज़े आयात की दो रकअतें हैं और हर रकअत में पाँच रुकूअ हैं। इस के पढ़ने का तरीक़ा यह है कि नियत करने के बाद इंसान तकबीर कहे और एक दफ़ा अलहम्द और एक पूरा सूरह पढ़े और रुकूअ में जाए और फिर रुकूअ से सर उठाए फिर दोबारा एक दफ़ा अलहम्द और एक सूरह पढ़े और फिर रुकूअ में जाए। इस अमल को पांच दफ़ा अंजाम दे और पांचवें रुकूअ से क़्याम की हालत में आने के बाद दो सज्दे बजा लाए और फिर उठ खड़ा हो और पहली रकअत की तरह दूसरी रकअत बजा लाए और तशह्हुद और सलाम पढ़ कर नमाज़ तमाम करे।

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1517। नमाज़े आयात में यह भी मुम्किन है कि इंसान नियत करने और तकबीर और अलहम्द पढ़ने के बाद एक सूरह की आयतों के पांच हिस्से करे और एक आयत या उस से कुछ ज़्यादा पढ़े और बल्कि एक आयत से कम भी पढ़ सकता है लेकिन एहतियात की बिना पर ज़रुरी है कि मुकम्मल जुमला हो और उस के बाद रुकूअ में जाए और फिर खड़ा हो जाए और अलहम्द पढ़े बग़ैर उसी सूरह का दूसरा हिस्सा पढ़े और रुकूअ में जाए और इसी तरह इस अमल को दोहराता रहे यहां तक कि पांचवें रुकूअ से पहले सूरे को ख़त्म कर दे मसलन सूरए फ़लक़ में पहले बिसमिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम। क़ुल अऊज़ू बिरब्बिलफ़लक़। पढ़े और रुकूअ में जाए उस के बाद खड़ा हो और पढ़े मिन शर्रे मा ख़लक़। और दोबारा रुकूअ में जाए और रुकूअ के बाद खड़ा हो और पढ़े। व मिन शर्रे ग़ासेक़िन इज़ा वक़ब। फिर रुकूअ में जाए और फिर खड़ा हो और पढ़े व मिन शर्रिन्नफ़्फ़साति फ़िल उक़द और रुकूअ में चला जाए और फर खड़ा हो जाए और पढ़े व मिन शर्रि हासिदिन इज़ा हसद। और उस के बाद पांचवें रुकूअ में जाए और (रुकूअ से) खड़ा होने के बाद दो सज्दे करे और दूसरी रकअत भी पहली रकअत की तरह बजा लाए और उस के दूसरे सज्दे के बाद तशह्हुद और सलाम पढ़े। और यह भी जाएज़ है कि सूरे को पांच से कम हिस्सों में तक़सीम करे लेकिन जिस वक़्त भी सूरह ख़त्म करे लाज़िम है कि बाद वाले रुकूअ से पहले अलहमद पढ़े।

1518। अगर कोई शख़्स नमाज़े आयात की एक रकअत में पांच दफ़ा अलहम्द और सूरह पढ़े और दूसरी रकअत में एक दफ़ा अलहम्द पढ़े और सूरे को पाँच हिस्सों में तक़सीम कर दे तो कोई हरज नहीं है।

1519। जो चीज़ें यौमिया नमाज़ में वाजिब और मुस्तहब हैं अलबत्ता अगर नमाज़े आयात जमाअत के साथ हो रही हो तो अज़ान और अक़ामत की बजाए तीन दफ़ा बतौर रजा "अस्सलात"कहा जाए लेकिन अगर यह नमाज़ जमाअत के साथ न पढ़ी जा रही हो तो कुछ कहने की ज़रुरत नहीं।

1520। नमाज़े आयात पढ़ने वाले के लिए मुस्तहब है कि रुकूअ से पहले और उस के बाद तकबीर कहे और पांचवीं और दसवीं रुकूअ के बाद तकबीर से पहले "समे अल्लाहु लेमन हमिदह"भी कहे।

1521। दूसरे, चौथे, छठे, आठ्वें और दस्वें रुकूअ से पहले क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है और अगर क़ुनूत सिर्फ़ दस्वें रुकूअ से पहले पढ़ लिया जाए तब भी काफ़ी है।

1522। अगर कोई शख़्स नमाज़े आयात में शक करे कि कितनी रकअतें पढ़ी हैं और किसी नतीजे पर न पहुंच सके तो उस की नमाज़ बातिल है।

1523। अगर (कोई शख़्स जो नमाज़े आयात पढ़ रहा हो) शक करे कि वह पहली रकअत के आख़िरी रुकूअ में है या दूसरी रकअत के पहले रुकूअ में और किसी नतीजे पर न पहुंच सके तो उस की नमाज़ बातिल है लेकिन अगर मिसाल के तौर पर शक करे कि चार रुकूअ बजा लाया है या पाँच और उस का यह शक सज्दे में जाने से पहले हो तो जिस रुकूअ के बारे में उसे शक हो कि बजा लाया है या नहीं उसे अदा करना ज़रुरी है लेकिन अगर सज्दे के लिए झुक गया हो तो ज़रुरी है कि अपने शक की परवा न करे।
1524। नमाज़े आयात का हर रुकूअ रुक्न है और अगर उन में अमदन कमी या बेशी हो जाए तो नमाज़ बातिल है। और यही हुक्म है अगर सहवन कमी हो या एहतियात की बिना पर ज़्यादा हो।



बुढ़ापा माँ बाप का नौजवानों के लिए अल्लाह की तरफ से इम्तेहान है |

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वृद्धावस्था भी मनुष्य के जीवन की परिपूर्णता का एक चरण है और इसमें एवं जवानी में अंतर यह है कि बाल्यकाल और जवानी इंसान के अंदर ऊर्जा से समृद्ध होती है परंतु वृद्धावस्था में ऊर्जा कम हो चुकी होती है और दिन- प्रतिदिन कम ही होती जाती है। बाल्याकाल और जवानी का समय बीत जाने के बाद इंसान वृद्धावस्था में क़दम रखता है। इंसान जब वृद्ध हो जाता है तो वह बहुत सारे अनुभव प्राप्त कर चुका होता है। दूसरे शब्दों में वृद्ध अनुभवों का अनमोल खजाना होता है। वृद्धावस्था बहुत ही संवेदनशील होती है और इस पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्कता होती है। वृद्धावस्था में स्वयं वृद्धों को और उनके निकटवर्ती लोगों को उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
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वृद्धावस्था वह काल है जिसमें पहुंचकर माता- पिता कमज़ोर बल्कि शक्तिहीन हो जाते हैं और उस समय उन्हें अपने बच्चों की अधिक आवश्यकता होती है। बहुत से माता- पिता ऐसे होते हैं जो अपने जीवन में और इसी प्रकार वृद्धावस्था में उन्हें अपने बच्चों की आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि उन्हें जिस चीज़ की आवश्यकता है वह बच्चों की ओर से हाल -चाल पूछना है। हर माता- पिता को आशा होती है कि उनके बच्चे उनके साथ अच्छा व्यहार करेंगे। वृद्धावस्था में बहुत से लोग किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त होते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने बच्चों की अधिक आवश्यकता होती है। यह एक वास्तविकता है कि इंसान वृद्धावस्था में कमज़ोर हो जाता है। यही नहीं उसके शरीर के कुछ अंग काम करना थी छोड़ देते हैं।

इंसान वृद्धावस्था के कारण बहुत सी चीज़ें भूल जाता है जिसके कारण उसके परिजनों को नाना प्रकार की समस्याओं का सामना होता है। इस आधार पर वृद्धावस्था के समय की और वृद्धों की आवश्यकताओं की सही पहचान से उनके साथ अच्छा व्यवहार करने में संतान को सहायता मिलती है। कभी ऐसा भी होता है कि कुछ जवान अनुभव और हौसला कम होने, या घमंड एवं समय न होने के कारण अपने वृद्ध मां- बाप के साथ वह व्यवहार नहीं करते जिसके वे पात्र होते हैं। कभी- कभी ऐसा भी होता है कि वे अपने माता- पिता के समक्ष इतराते एवं गर्व करते हैं परंतु इस बात को नहीं भूलना चाहिये कि मां –बाप के सामने घमंड करना महान ईश्वर की नेअमतों को नकारना है। पवित्र कुरआन इंसानों को माता- पिता के साथ बुरे व्यवहार से मना करता है और उनसे विनम्रता से अच्छी तरह बात करने के लिए कहता है। पवित्र कुरआन के सूरे इसरा की २३वीं एवं २४वीं आयत में महान ईश्वर कहता है” जब भी माता- पिता या उन दोनों में से कोई एक बूढ़ा हो जाये तो लेशमात्र भी उनका अपमान नहीं करना, उन पर चीखो- चिल्लाओ नहीं, नर्म अंदाज़ में उनसे बात करो और उनके साथ प्रेम एवं विन्रमता से बात करो”

इस्लामी इतिहास में आया है कि माता- पिता के प्रति यह सम्मान है कि उनका नाम लेकर न बुलाया जाये, उनके सम्मान में खड़े हो जाना चाहिये, उनके आगे नहीं  चलना चाहिए , उनसे ऊंची आवाज़ में बात नहीं करना चाहिये, उनकी आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिये और वृद्धावस्था में उनका ध्यान रखना चाहिये।

इस्लामी संस्कृति में वृद्धों को विशेष स्थान प्राप्त है। पूरे परिवार के सदस्य अपने वृद्धों का सम्मान करते हैं।  कार्यों में उनसे विचार -विमर्श करते हैं और विवाद व झगड़े के समय उनके फैसले का सम्मान करते हैं। कभी वृद्धों की एक बात से लड़ाई- झगड़े समाप्त हो जाते हैं और झगड़ा कर रहे लोग एक दूसरे से मिल जाते हैं। वृद्ध जब तक जीवित हैं उनके जीवित होने की नेअमत ज्ञात नहीं होती है। ऐसा बहुत होता है कि घर के बड़े- बूढे के निधन के बाद परिवार में विवाद शुरू हो जाते हैं। इसी कारण पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” स्थाई व टिकाऊ विभूति तुम्हारे वृद्धों के साथ है” इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर फरमाते हैं” वृद्ध अपने परिवार के बीच वैसा है जैसे पैग़म्बर अपने अनुयाइयों व क़ौम के मध्य होता है।“

यह उस केन्द्रीय व महत्वपूर्ण भूमिका की ओर संकेत है जो वृद्ध के अस्तित्व में निहित है। तो अगर वृद्ध परिवार में संपर्क, एकता एवं समरसता के चेराग़ हैं तो उनके स्थान की रक्षा की जानी चाहिये। बच्चों और संतान की ओर से वृद्धों के स्थान पर ध्यान दिये जाने से स्वयं उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी कारण इस्लाम ने इस मामले व समस्या पर विशेष ध्यान दिया है।

संतान की ओर से वृद्धों पर ध्यान दिया जाना इस बात का कारण बनता है कि वह परिवार के भीतर स्वयं को अलग- थलग महसूस नहीं करता । दूसरी ओर घर के दूसरे सदस्य और जवान उनके मूल्यवान अनुभवों से लाभ उठाते हैं। चूंकि वृद्ध, परिवार में समरसता का चेराग़ होते हैं इसलिए उनके स्थान का सम्मान किया जाना चाहिये। उनसे प्रेम किया जाना चाहिये। उन्हें दुःखी नहीं किया जाना चाहिये और उनकी नसीहतों एवं अनुभवों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये। बड़ों का आदर करना और छोटों पर दया करना इस्लाम धर्म के नैतिक आदेशों में से है और यह वह चीज़ है जो परिवार के वातावरण को बेहतर, स्नेहिल और मधुर बनाती है।

इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम इस संबंध में फरमाते हैं” वह हमसे नहीं है जो बड़ों का आदर और छोटों पर दया न करे।“

हज़रत अली अलैहिस्सलाम भी फरमाते हैं” विद्वान का उसके ज्ञान के कारण और बड़े का उसकी आयु के कारण आदर करना चाहिये।“ अगर जवान बूढ़ों के मूल्य को न पहचानें और उनका आदर- सम्मान न करें तो मानवीय व भावनात्मक संबंध समाप्त हो जायेंगे और जवान बूढ़ों के मूल्यवान अनुभवों से भी वंचित हो जायेंगे।


वृद्धों के आदर- सम्मान का एक लाभ यह है कि इस संस्कृति को भावी पीढ़ी में स्थानांतरित किया जाता है। एक संस्कृति को भावी पीढ़ी तक स्थानांतरित करने का बेहतरीन तरीक़ा, माता-पिता और शिक्षक व प्रशिक्षक का व्यवहार है। जब बच्चे बड़ों के व्यवहार को देखते हैं तो उसे वे आदर्श बना लेते हैं। अगर बड़ों का आदर व सम्मान हमारे व्यवहार से ज़ाहिर हो जाये यानी हम बड़ों का सम्मान करने लगें तो हमारे बच्चे भी हमसे बड़ों का सम्मान करना सीख जायेंगे। जिस व्यक्ति को यह अपेक्षा हो कि उसके बच्चे शिष्टाचार सीखें उसे चाहिये कि वह अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करे और उनका मान -सम्मान करे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” अपने बड़ों का आदर- सम्मान करो ताकि तुम्हारे छोटे भी तुम्हारा सम्मान करें।“

हज़रत इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम भी फरमाते हैं” अपने पिता के साथ भलाई करो ताकि तुम्हारी संताने भी तुम्हारे साथ भलाई करें।“

इसमें महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि इस बात की शिक्षा अमल के माध्यम से देने की बात कही गयी है। बच्चे वे छात्र हैं जो अमल के माध्यम से चीज़ों को तेज़ी से सीखते हैं। अगर हम वृद्धों का आदर- सम्मान नहीं करते हैं तो हमें अपने बच्चों से भविष्य में अपने आदर- सम्मान की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये।


दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि वृद्ध लोगों का आत्मिक व मानसिक स्वास्थ्य भी बहुत महत्वपूर्ण है। यह वह विषय है जिस पर विशेषकर स्वयं वृद्धों की ओर से ध्यान दिया जाना चाहिये। ईरानी मनोवैज्ञानिक अहमद बेह पजूह की एक टिप्पणी से आज के कार्यक्रम को समाप्त कर रहे हैं। वह कहते हैं वृद्ध लोगों को प्रयास करना चाहिये कि वे अपने जीवन को सकारात्मक अर्थ प्रदान करें। ख़ाली समय का सही प्रयोग करें और सामाजिक एवं स्वेच्छा से किये जाने वाले कार्यों में भाग लें। दूसरों के साथ संबंध स्थापित करके और सामाजिक गुटों में सदस्यता ग्रहण करके वृद्धों की सहायता कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर वे ग़ैर सरकारी संगठनों या धार्मिक संस्थाओं में भाग लेकर अच्छे कार्य कर सकते हैं। एक अच्छे कार्य के चयन या किसी कार्य की ज़िम्मेदारी स्वीकार करने से उनकी आत्मिक क्षमता में वृद्धि हो सकती है। कला या लिखने के कार्यों में भाग लेना या मित्रों व परिवार के साथ यात्रा पर जाना वृद्धों के लिए लाभदायक हो सकता है।


हज़रत अली अलैहिस्सलाम की 600 हदीसें

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ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम से हज़रत अली अलैहिस्सलाम की 600 हदीसें


संकलनकर्ता : अब्दुल वाहिद बिन मुहम्मद तमीमी आमदी

अनुवादक: सैयद क़मर ग़ाज़ी

इस संकलन के बारे में
मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की पाक सुन्नत, वास्तविक्ता को जानने वाले इंसानों के लिए ईमान व श्रेष्ठता की एक ऐसी विरासत है जो उनके दिलो को आध्यात्म और बुद्धी को बुद्धिमत्ता से भर देती है। हक़ीक़त को जानने और अल्लाह तक पहुँचने की उत्सुकता रखने वाले लोग, हमेशा ही मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की हदीसों की रौशनी में अमर रहने वाली नेकी व पाकी के रास्ते पर चलते रहे हैं। मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की हदीसों से जहाँ होशियार लोगों ने पूर्ण रूप से बुद्धिमत्ता प्राप्त की, वहीं अन्य लोगों ने ज्ञान लाभ प्राप्त किया है। इसी लिए हम देखते हैं कि "सुन्नत" क़ुरआन के बाद मुसलमानों के दीन का दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत है और दीन की वास्तविक्ता को व्यक्त करने तथा इस्लामिक ज्ञान को उच्चता व महत्ता प्रदान करने में इसका विशेष योगदान रहा है।

वर्तमान समय में इंसानों में आध्यात्म व अख़लाक की आवश्यक्ता बढ़ी है और यह भी स्वीकार कर लिया गया है कि हदीसें दीन का आधार भूत अंग है, लेकिन इन सब बातों के होते हुए भी हदीस के क्षेत्र में बहुत कम काम हुआ है। हदीसों को जिस प्रकार आगे बढ़ाना चाहिए था नही बढ़ाया गया है, नई नस्ल में इसका उचित रूप से प्रचार व प्रसार नही हुआ है।

दूसरी ओर रिवायतों व हदीसों की अधिकता और उनमें  पाये जाने वाले झूठे व समय से ताल मेल न खाने वाले आश्य तथा वर्तमान समय में प्रयोग होने वाली भाषा में उनके अनुवाद का अभाव आदि इस बात का कारण बनें हैं कि जो लोग इस विषय पर कोई संक्षिप्त व संकलित किताब पढ़ना चाहते हैं, वह नही पढ़ पाते।

इस बात में कोई संदेह नही है कि अगर उपरोक्त वर्णित कमियों को दूर कर दिया जाये और हदीसों को एक नये रूप व एक नई शैली में प्रस्तुत किया जाये तो यह कार्य जनता में हदीस के प्रचार व प्रसार में सहायक सिद्ध होगा। अतः इन्हीँ बातों को नज़र में रखते हुए हदीसों के इस संकलन में एक विशेष शैली को अपनाया गया है। चूँकि इस शैली का प्रयोग साहित्य जैसे अन्य विषयों में भी लाभ प्रद रहा है, अतः उम्मीद की जाती है कि हदीसों के प्रकाशन में भी उचित ही रहेगा। अभी तक जनता के लिए धार्मिक किताबों में इस शैली को बहुत कम प्रयोग किया गया है।

यह शैली, अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की हदीसों से जनता को पूर्ण रूप से परिचित कराने के लिए अधिक उपयुक्त है। इस शैली के द्वारा प्रथम चरण में अध्ययनकर्ताओं में इन हदीसों को समझने की उत्सुक्ता पैदा करके बाद के चरण में हदीसों के संदर्भ में उनका व्यापक स्तर पर मार्ग दर्शन किया जा सकता है। अतः इस संकलन को इसी उद्देशय से इस शैली में व्यवस्थित किया गया है। उम्मीद है कि हदीसों को सही करने व उन्हें जीवित रखने की अन्य अनेकों कोशिशों के साथ, हदीसों का यह संकलन भी जनता को हदीसों से परिचित कराने के लिए एक ऐसा दरवाज़ा बनेगा जिससे लोग हदीसों के शहर में प्रवेश करेंगे।

इस संकलन की विशेषताएं

इस संकलन की महत्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है।

1- इस संकलन के लिए महत्वपूर्ण हदीसों को ही चुना       गया है।

2- हदीसों के चुनाव में उनके ऐतिहासिक क्रम को दृष्टि में नही रखा गया है बल्कि हदीसों की पुरानी व नई सभी महत्वपूर्ण किताबों से इन हदीसों को चुना गया है।

3- इस श्रृंख्ला की हर किताब अनुवाद के साथ एक सौ से दो सौ पेज तक है।

4- इस श्रृंख्ला की हर किताब एक ही साईज़ व डिज़ाईन में प्रस्तुत की जायेगी।

5- प्रत्येक संकलन प्रस्तावना, मूल लेख व विषय बोध पर आधारित होगा। प्रस्तावना में किताब के लेखक के जीवन परिचय के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी, उसकी शैक्षिक योग्यताएं, किताब की विषय सामग्री और हदीस की किताबों के मध्य उस किताब के स्थान आदि का उल्लेख किया जायेगा। मूल लेख में अरबी की मूल हदीसें, उनकी मात्राएं, अनुवाद व आवश्यक्तानुसार उनकी व्याख्या का उल्लेख होगा। विषय बोध में प्रत्येक संकलन के अंत में उसमें वर्णित हदीसों के विषयों की पूर्ण सूची दी जायेगी, जिसके द्वारा विभिन्न विषयों पर आधारित हदीसों को आसानी से ढूँढा जा सकेगा।

6- हदीस के स्रोतों का यथा संभव उल्लेख किया गया है और उन्हें प्रत्येक पेज पर रेफ़रैंस में लिख दिया गया है, उन हदीसों की किताबों के अतिरिक्त जिनकी गनणा प्राथमिक स्रोतों में होती है।

7- प्रत्येक संकलन में विषयों को क्रमबद्ध वर्णन करने की यथासंभव कोशिश की जायेगी है। अगर किसी  अवसर पर किसी विशेष शैली को अपनाया जायेगा तो उस संकलन की प्रस्तावना में उसका व्याख्यात्मक वर्णन कर दिया जायेगा।

8- हदीसों के चुनाव में निम्न लिखित बातों को आधार बनाया गया है।

अ-  ऐसे विषय जिनकी सब लोगों को आवश्यक्ता हो।

आ- हदीस छोटी, स्पष्ट व अधिक काम आने वाली हो।

इ-  एतेक़ाद (आस्था), इबादत, अखलाक़, तरबियत एवं  समाजिक व आर्थिक व ..... पहलुओं से संबंधित हो, जिंदगी की उम्मीदों को बढ़ाती हो और अखलाक़ व इंसान की ज़िन्दगी के आधारों को मज़बूत बनाने वाली हो।

9- हदीसों के अनुवाद में गद्य के नियमों का पालन करने की कोशिश की गई है।

10- प्रत्येक संकलन, सामूहिक कार्य का फल है और यह एक संचीव के निर्देशन में व्यवस्थित होता है। प्रत्येक संकलन में उसको व्यवस्थित करने वालों के नामों का उल्लेख किया जाता है।

उम्मीद की जाती है कि विभिन्न संकलनों पर आधारित यह श्रृंख्ला मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की हदीसों की परिचायक बन कर चाहने वालों को उनकी हदीसों से परिचित करायेगी।

इस किताब को व्यवस्थित करने में जिन लोगों ने सहायता प्रदान की है हम उनका शुक्रिया करते हुए यहाँ पर उनके नामों का उल्लेख कर रहे हैं, जनाब मुहम्मद अली सुलतानी, सैयद काज़िम तबातबाई, क़ासिम जवादी, मुहम्मद हादी खालक़ी इन्होंने इस किताब को छपने से पहले पढ़ा और अपनी लाक्षप्रद राय से अवगत कराया। हम इन सबका एक बार फिर शुक्रिया करते है।

हादी रब्बानी

प्रचार संचिव

तहक़ीक़ाते दारुल हदीस





प्रस्तावना
संकलनकर्ता

नासेहुद्दीन अबुल फ़तह अब्दुल वाहिद पुत्र मुहम्मद तमीमी आमदी, पाँचवी हिजरी शताब्दी के अंतिम चरण व छठी हिजरी शताब्दी के प्रथम पाँच दशकों में एक बड़े शिआ आलिम रहे हैं। उन्होंने ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम नामक किताब लिख कर अपना नाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बुद्धिमत्ता पर आधारित कथनों का संकलन करने वालों में अमर कर लिया है। परन्तु जीवन परिचय कराने वाली किताबों में उनके बारे में बहुत कम  जानकारी उपलब्ध है और जो जानकारी उपलब्ध है भी उसमें आशंकाएं पाई जाती हैं।

जीवन परिचयों से संबंधित किताबों में मिलता है कि इब्ने शहरे आशोब माज़न्दरानी उनके ही शिष्य थे। कुछ लोगों ने अहमद ग़ज़्ज़ाली को उनका उस्ताद उल्लेख किया है।  आमदी की मृत्यु छठी हिजरी शताब्दी के मध्य में हुई।



रचनाएं

आमदी के जीवन का एक अप्रत्यक्ष पहलु उनकी रचनाओं की गणना है। ग़ु-ररुल हिकम के अतिरिक्त उनकी अन्य किताबों में जवाहेरुल कलाम फ़िल हुक्मे व अल-अहकाम का नाम लिया जाता है।

किताब की विशेषताएं
यह किताब ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम हज़रत अली अलैहिस्साम के 11050 छोटे व महत्वपूर्ण कथनों पर आधारित है। इन कथनों का विषय नसीहत, उत्साह व भय का वर्णन करते हुए सदाचारिक विशेषताओं को अपनाने व सदाचारिक बुराईयों से दूर रहने का उपदेश हैं।

आमदी ने अपनी इस किताब की प्रस्तावना में इस किताब को लिखने का कारण यह उल्लेख किया है कि जाहिज़ द्वारा लिखी गई किताब मिअतु कलमतिन (सौ कथन) में बहुत कम कथनों को चुना गया था। उन्होंने  जाहिज़ पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि "चूँकि उसको अच्छी परख नही थी इस लिए उसने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कथनों के समुन्द्र से नसीहत के असंख्य मोतियों में से बहुत कम को चुना और उन्हें ही अधिक समझा।" जाहिज़ के काम में इस कमी को देखने के बाद उन्होंने अपनी कमर को कसा और हिम्मत करके यह महत्वपूर्ण किताब लिखी।

उन्होंने इन कथनों को इकठ्ठा करने में साहित्यिक विशेषताओं व सौन्दर्यों को दृष्टिगत रखते हुए कथनों की सनद (अर्थात इन कथनों का क्रमशः किन लोगों ने उल्लेख किया है)  को छोड़ दिया और कथनों को ढूँढने में सरलता के लिए कथनों को अरबी वर्ण माला के क्रमानुसार व्यवस्थित किया।



किताब का महत्व
आमदी, हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कथनों को एकत्रित करने वाले प्रथम व अंतिम व्यक्ति नही हैं, बल्कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बुद्धिमत्ता पर आधारित इन कथनों को एकत्रित करने का काम इस्लाम के प्रारम्भिक दशको में आरम्भ हो गया था।  परन्तु आमदी द्वारा हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कथनों को सुव्यवस्थित करके उन्हें एक नये रूप में प्रस्तुत करने के कारण इस किताब को विशेष ख्याति प्राप्त हुई।

 अल्लामा मजलिसी, इस किताब को अपनी किताब बिहारुल अनवार के स्रोतों में उल्लेख करते हुए इसके बारे में लिखते हैं कि यह किताब बहुत मशहूर है और एक से  दूसरे हाथ में घूमती रहती है।  इसी तरह मुस्तदरकुल वसाइल नामक किताब के लेखक मिर्ज़ा हुसैन नूरी, इस किताब के लेखक के शिआ होने की दलीलों का उलेलेख करते हुए लिखते हैं कि "अगर कोई शिआ आलिमों की हदीसों की किताबों से परिचित आदमी इस किताब को ध्यान पूर्वक पढ़े तो वह समझ जायेगा कि आमदी ने इस किताब में उल्लेखित हदीसों को शिआ किताबों से ही चुना है।"

मरहूम मुहद्दिस उरमवी, इस किताब की आध्यात्मिक महत्ता और इसके एक नस्ल से दूसरी नस्ल की ओर हस्तान्त्रित होने और एक हाथ से दूसरे हाथ में घूमने का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि

"इस आशय पर सबसे बड़ा तर्क, इस किताब की लिपियों का अधिक संख्या में पाया जाना है: क्योंकि जब हम दुनिया के बड़े पुस्तकालयों विशेष रूप से उन इस्लामिक पुस्तकालयों को देखते हैं जो विभिन्न घटनाओं व परिस्थितियों से अपने अस्तित्व को बचाते हुए नई नस्ल तक पहुँचे हैं, तो पाते हैं कि इस किताब की बहुत सी लिपियाँ या कम से कम एक लिपि वहाँ मौजूद हैं।"



किताब का परिचय
ग़ु-ररुल हिकम उन किताबों में से है, जो बहुत से लोगों की रिसर्च का विषय बन चुकी है।  इस किताब के निम्न लिखित पहलुओं की ओर इशारा किया जा रहा है।

अ- अनुवाद

1- ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम, अनुवाद व व्याख्या जमालुद्दीन मुहम्मद खुवानसारी, प्रस्तावना, शुद्धीकरण: मीर जलालुद्दीन हुसैनी उरमवी (मुहद्दिस)

प्रकाशक:  तेहरान विश्वविद्यालय, तेहरान, सन् 1998 ई., 7 जिल्द।

2- ग़ु-ररुल हिकम मजमुआ ए कलमाते क़िसार हज़रत अली अलैहिस्सलाम, अनुवाद: मुहम्मद अली अंसारी क़ुम्मी, 2 जिल्द,

3- गुफ़्तारे अमीरुल मोमेनीन अली अलैहिस्सलाम, अनुवाद: सैयद हुसैन शेखुल इस्लामी,

प्रकाशक: अंसारियान पब्लिकेशन, क़ुम, सन् 1995 ई., 2 जिल्द।

4- ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम, अनुवाद: सैयद हाशिम रसूली महल्लाती,

प्रकाशक: फरहंगे इस्लामी पब्लिकेशन तेहरान, सन् 1999 ई., 2 जिल्द।

आ- संकलन

5- मुन्तख़ब उल ग़ु-रर: हज़रत अली अलैहिस्सलाम की 2400 हदीसें, संकलनकर्ता: फ़ज़लुल्लाह कम्पनी,

प्रकाशक: मुफ़ीद पब्लिकेशन, तेहरान, सन् 1983 ई.,1 जिल्द 471 पेज पर आधारित।

इ- विषय सूचियाँ

6- शरहे फार्सी ग़ु-रर व दु-ररे आमदी, विषय सूची, सैयद जलालुद्दीन मुहद्दिस,

प्रकाशक: तेहरान विश्वविद्यालय पब्लिकेशन, तेहरान, सन् 1981 ई., 1 जिल्द 434 पेज पर आधारित।

7- हिदायतुल अलम फ़ी तनज़ीमे ग़ु-ररुल हिकम, सैयद हुसैन शेखुल इस्लामी,

प्रकाशक: अंसारियान पब्लिकेशन, क़ुम, सन् 1992 ई., 1 जिल्द 704 पेज पर आधारित।

8- तस्नीफ़े ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम, मुस्तफ़ा दरायती।

प्रकाशक: तबलीग़ाते इस्लामी पब्लिकेशन, क़ुम, 1 जिल्द 562 पेज पर आधारित।



ई- शाब्दिक सूचियाँ

9- अल-मोजमुल मुफ़हरस लिअलफ़ाज़ि ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम, अली रिज़ा बराज़िश।

प्रकाशक: अमीरे कबीर पब्लिकेशन, तेहरान, सन् 1992 ई., 3 जिल्द।

10-मो-जमु अलफ़ाज़ि ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम, मुस्तफ़ा दरायती,

प्रकाशक:तबलीग़ाते इस्लामी पब्लिकेशन, क़ुम, सन् 1992 ई., 1 जिल्द 1533 पेज पर आधारित।



इस संकलन के बारे में
यह संकलन, मीर जलालुद्दीन मुहद्दिल उरमवी द्वारा परिमार्जित लिपी (जिसका वर्णन "किताब का परिचय"नामक शीर्षक में हुआ है) के आधार पर व्यवस्थित किया गया है। उस किताब में मौजूद 11050 हदीसों में से 600 हदीसों को उन आधारों पर चुना गया है जिनका वर्णन दो शब्द नामक शीर्षक में हो चुका है। समस्त हदीसों को अरबी वर्ण माला के अक्षरों के क्रमानुसार 14 भागों में विभाजित करके व्यवस्थित किया गया है।

हदीस के असली न. को उसके सामने कोष्ठक में लिख दिया गया है।      









अनुवादक के शब्द
प्रियः पाठको ! हज़रत अली अलैहिस्सलाम की कुछ हदीसों के अनुवाद के साथ हम एक बार फिर आपकी सेवा में हैं।

इस भौतिकता के युग में इंसान निरन्तर सदाचारिक पतन की ओर बढ़ रहा है। अगर इस पतन को न रोका गया तो  हमारी आने वाली नस्लें सदाचार से बहुत दूर हो जायेगी। आज विज्ञान के वर्दानों का खुल कर दुरूपयोग हो रहा है जिसके नतीजे में हमारे चारों ओर अश्लीलता फैलती जा रही है। विभिन्न टी. वी. चैनलों और इन्टरनेट साईटों ने मानवीय मर्यादाओं को तबाही के कगार पर खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में आध्यात्मिक्ता का ज्ञान ही हमें सदाचारिक पतन से रोक कर मानवीय उच्चताओं तक पहुँचा सकता है। अल्लाह ने इंसान के लिए जो विधान निश्चित किया है अगर उस पर चला जाये तो इंसानी समाज निश्चित रूप से विघटन से बचेगा और विकास की ओर अग्रसर होगा। क़ुरआने करीम अल्लाह के विधान का सबसे महत्वपूर्ण व अन्तिम स्रोत है। क़ुरआन की शिक्षाएं इंसान को उसकी वास्तविक्ता का बोध कराते हुए उसे उसकी उत्पत्ति के उद्देश्यों से परिचित कराती हैं और उसे सही मार्ग पर चलने का निर्देश देती हैं। अतः अगर इंसान क़ुरआने करीम की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए अल्लाह के आदेशों का पालन करे तो वह उच्च सदाचारी बन जायेगा। सदाचारिक मार्गदर्शन का दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत पैग़म्बर (स.) और उनके अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के वह महत्वपूर्ण कथन हैं,  जिनको इस्लामिक भाषा में हदीस कहा जाता है। इन कथनों में उच्च कोटि के सदाचारिक उपदेश निहित हैं। उन्होंने इंसान की ज़िन्दगी से संबंधित हर पहलु पर अपने विचार प्रकट किये हैं और जीवन के हर क्षेत्र में इंसानों का मार्गदर्शन किया है। चूँकि वह सब मासूम हैं और उन्हें क़ुरआन पर आथारिटी है इस लिए उनकी हर बात क़ुरआन पर आधारित है और उनके कथनों में कोई संदेह व संशय नही पाया जाता है। चूँकि वह स्वयं उच्च सदाचारिक गुणों के मालिक थे इस लिए उनकी जीवन शैली सदाचार का उच्चतम नमूना है। अतः अगर उनका अनुसरण किया जाये और उनके बताये मार्ग पर चला जाये तो इंसान का जीवन उज्वल बन जायेगा है।

इस किताब के अनुवाद का उद्देश्य अपने जवान भईयों को मासूम (अ.) के कथनों से परिचित कराना है ताकि वह इन कथनों को पढ़ने के बाद इन्हें अपने दैनिक जीवन में अपनाये तथा अपने जीवन को उनके अनुरूप ढाल कर वास्तविक जीवन का आनंद लें और समाज में फैली हुई बुराईयों से स्वयं भी दूर रहे और दूसरों को भी दूर रखने की कोशिश करे।

इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमने तहक़ीक़ाते दारुल हदीस नामक संस्था द्वारा संकलित इस किताब का अनुवाद कर इसे अपने जवान भाईयों तक पहुँचाने की कोशिश की है

 हमें उम्मीद है कि अगर कोई इन स्वर्णिम हदीसों व कथनों को पढ़ने के बाद इन पर क्रियान्वित होगा तो उसका सांसारिक जीवन ख़ुशियों से भर जायेगा और परलोकीय जीवन भी सफलता से परिपूर्ण होगा।

इस किताब में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की जिन हदीसों को चुना गया है वह इस दुनिया व आख़ेरत की सफ़लता के रहस्यों की ओर इशारा करती है और सदाचारिक उपदेशों से परिपूर्ण हैं। इन कथनों में बुद्धिमत्ता पाई जाती और इन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के वह तजुर्बे भी निहित हैं जो उन्होंने अपने उतार चढ़ाव वाले जीवन में किये हैं। इसी लिए उन्होंने समस्त इंसानों को इस सांसारिक जीवन की वास्तविक्ता से परिचित कराते हुए परलोक के लिए कार्य करने की नसीहत की है।

सैय्यद क़मर ग़ाज़ी











पहला भाग


1. اَلدُّنيا أمَدٌ، الآخِرَةُ أبَدٌ: (4)

1. दुनिया ख़त्म होने वाली है और आख़िरत हमेशा बाक़ी रहने वाली है।

2. اَلتَّواضُعُ يَرفَعُ، اَلتَّكبُّرُ يَضَعُ : (11)

2. (दूसरों के) आदर व सत्कार की भावना, (इंसान को) उच्चता प्रदान करती है और घमंड मिट्टी में मिला देता है।

3. اَلظَّفَرُ بِالحَزمِ وَالحَزِمُ بِالتَّجارِبِ: (42)

3. सफलता दूर दर्शिता से और दूर दर्शिता तजुर्बे से प्राप्त होती है।

4. اَلحازِمُ يَقظانُ، اَلغافِلُ وَسنانُ: (100)

4. दूर दर्शी जागा हुआ है और ग़ाफिल नींद के प्रथम चरण में है।

5. اَلعِلمُ يُنجيكَ، الجَهلُ يُرديكَ: (150)

5. ज्ञान आपको बचाता है और ज्ञानता आपका विनाश करती है।

6. اَلعَفوُ أحسَنُ الإحسانِ: (259)

6. क्षमा, सब से अच्छी नेकी व भलाई है।

7. اَلإنسانُ عَبدُ الإحسانِ: (263)

7. इन्सान एहसान का गुलाम है।



8. اَللَّهوُ مِن ثِمارِ الجَهلِ: (267)

8. व्यर्थ कार्य मूर्खता का परिणाम होते हैं।

9. اَلسَّخاءُ يَزرَعُ المَحَبَّةَ:(306)

9. सख़ावत (दान) मोहब्बत के बीज बोती है।

10. اَلهَدِيَّةُ تَجلِبُ المَحَبَّةَ: (316)

10.    उपहार मोहब्बत को अपनी तरफ़ खींचता है।

11. اَلمَواعِظُ حَياةُ القُلُوبِ: (321)

11.    नसीहत (सद उपदेश) दिलों की ज़िन्दगी है।

12. اَلعُجبُ رَأسُ الحَماقَةِ: (348)

12.    घमंड, मूर्खता की जड़ है।

13. أخُوكَ مُواسِيَكَ فِي الشِّدَّةِ: (420)

13.    तुम्हारा भाई वह है जो मुशकिल के समय जान व माल से तुम्हारी सहायता करे।

14. اَلعَجَلُ يُوجِبُ العِثارَ: (432)

14.    जल्दी, गल्तियों का कारण बनती है।

15. اَلمَرءُ ابنُ ساعَتِهِ: (447)

15.    आदमी अपने समय की संतान है।

16. اَلحازِمُ مَن دارى زَمانَهُ: (503)

16.    दूर दर्शी वह है जो अपने समय से प्यार करे।

17. اَلمطامِعُ تُذِلُّ الرِّجالَ: (633)

17.    लालच मर्दों को ज़लील करा देता है।

18. اَلمَنُّ يُفِسدُ الإحسانَ: (784).

18.    एहसान जताना, नेकियों को बर्बाद कर देता है।

19. اَلطَّيشُ يُنَكِّدُ العَيشَ: (789)

19.    मूर्खता, जीवन को कठिन बना देती है।

20. اَلاِعتِبارُ يُثمِرُ العِصمَةَ: (879)

20.    (विभिन्न घटनाओं से) शिक्षा लेना, (गुनाहों से) सुरक्षित रहने का परिणाम है।

21. اَلنَّدمُ عَلَى الخَطيئَةِ يَمحُوها: (894)

21.    (अपनी) ग़लती पर लज्जित होना, गलतियों को ख़त्म कर देता है।

22. اَلغيبَةُ آيَةُ المُنافِقِ: (899)

22.    चुग़ली, मुनाफ़िक़ की पहचान है।

23. اَلقَناعَةُ أهنَأُ عَيش: (933)

23.    क़िनाअत (कम पर खुश रहना), सब से अच्छी ज़िन्दगी है।

24. اَلعُيُونُ مَصائِدُ الشَّيطانِ: (950)

24.    आँखें, शैतान का जाल हैं।

25. اَلمَرءُ مَخبُوءٌ تَحتَ لِسانِهِ: (978)

25.    आदमी अपनी ज़बान के पीछे छिपा होता है।



26. اَلمَرءُ لا يَصحَبُهُ إلاَّ العَمَلُ: (999)

26.    आदमी का उसके कार्यों के अलावा कोई साथी नहीं होता।

27. اَلحَسُودُ لا يَسُودُ: (1017)

27.    ईर्ष्यालू को कोई फायदा नहीं होता।

28. اَلاِستِشارَةُ عَينُ الهِدايَةِ: (1021)

28.    मशवरा करना, मार्गदर्शन का स्रोत है।

29. اَلبَشاشَةُ حِبالَةُ المَوَدَّةِ: (1075)

29.    प्रफुलता, मोहब्बत का जाल है।

30. إضاعَةُ الفُرصَةِ غُصَّةٌ: (1083)

30.    फ़ुर्सत को खो देना, दुख का कारण बनता है।





31. اَلحَليمُ مَنِ احتَمَلَ إخوانَهُ: (1111)

31.    संयमी वह है जो अपने भाईयों की (गलतियों को) बर्दाश्त करले।

32. اَلكِبرُ مِصيَدةُ إبليسِ العُظمى: (1132)

32.    घमंड, शैतान का सब से बड़ा जाल है।

33. اَلمُحسِنُ مَن صَدَّقَ أقوالَهُ أفعالُهُ: (1138)

33.    नेक वह है, जिसके काम, उसकी बात को सत्यापित करें।

34. إظهارُ التَّباؤُسِ يَجلِبُ الفَقرَ: (1141)

34.    परेशानियों को ज़ाहिर करना, फ़क़ीरी लाता है।

35. اَلمُعينُ عَلَى الطّاعَةِ خَيرُ الأصحابِ: (1142)

35.    सब से अच्छे साथी वह हैं जो (अल्लाह की) आज्ञा पालन में मदद करें।

36. اَلغِنى وَالفَقرُ يَكشِفانِ جَواهِرَ الرِّجالِ وَأوصافَها: (1154)

36.    समृद्धता और निर्धनता, दोनों ही मर्दों के जौहरों और विशेषताओं को प्रकट कर देती हैं।

37. اَلسُّكُوتُ عَلَى الأحمَقِ أفضَلُ جَوابِهِ: (1160)

37.    जाहिल के सामने चुप हो जाना उसका सब से अच्छा जवाब है।

38. اَلسّامِعُ لِلغيبَةِ كَالمُغتابِ: (1171)

38.    चुग़ली सुनने वाला, चुग़ली करने वाले के समान है।

39. اَلجَمالُ الظّاهِرُ حُسنُ الصُّورَةِ، اَلجَمالُ الباطِنُ حُسنُ السَّريرَةِ: (1193)

39.    बाह्य ख़ूबसूरती अच्छी शक्ल में और आन्तरिक ख़ूब सूरती अच्छे व्यक्तित्व में निहित है।

40. آلَةُ الرِّیاسَةِ سِعَةُ الصَّدرِ: (1256)

40.    सत्ता का यन्त्र, सीने का बड़ा होना है, अर्थात जो सबको अपने सीने से लगाता है, वही सत्ता पाता है।

41. أوَّلُ العِبادَةِ اِنتِظارُ الفَرَج بِالصَّبرِ: (1257)

41.    सब्र के साथ आराम मिलने का इन्तेज़ार करना, सब से अच्छी इबादत है।

42. اَلبُخلُ بِالمَوجُودِ سُوءُ الظَّنِّ بِالمَعبودِ: (1258)

42.    मौजूद चीज़ के बारे में कंजूसी करना, माबूद पर बद गुमानी करना है।

43. اَلغِشُ مِن أخلاقِ اللِّئامِ: (1299)

43.    धोखेबाज़ी, नीच लोगों का व्यवहार है।

44. َالأيّامُ تُوضِحُ السَّرائِرَ الكامِنَةَ: (1306)

44.    समय, छुपे हुए भेदों को खोल देता है।

45. اَلعَجَلُ قَبلَ الإمكانِ يُوجِبُ الغُصَّةَ: (1333)

45.    (किसी काम को करने के लिए उसके) साधनों (की छान बीन करने) से पहले (उसमें) जल्दी करना, दुख का कारण बनता है।

46. اَلتَّوَدُّدُ إلَى النّاسِ رَأسُ العَقلِ: (1345)

46.    लोगों से मोहब्बत करना, अक्लमंदी की जड़ है।

47. اَلمُجاهِدُونَ تُفتَحُ لَهُم أبوابُ السَّماءِ: (1347)

47.    मुजाहिदों (धर्मयोधाओं) के लिये आसमान के दरवाज़े खोल दिये जाते हैं।

48. اَلتَّوبَةُ تُطَهِّرُ القُلُوبَ وَتَغسِلُ الذُّنُوبَ: (1355)

48.    तौबा, दिलों को पाक करती है और गुनाहों को धो डालती है।

49. الَغضَبُ يُفسِدُ الألبابَ وَيُبعِدُ مِنَ الصَّوابِ: (1356)

49.    ग़ुस्सा, अक्ल को खराब और (इंसान को) सही रास्ते से दूर करता है।

50. إدمانُ الشَّبَعِ يُورِثُ أنواعَ الوَجَعِ: (1363)

50.    हर वक्त पेट का भरा रहना, तरह तरह के दुखों को जन्म देता है।

51. اَلفِكرُ فِي الخَيرِ يَدعُو إلَى العَمَلِ بِهِ: (1395)

51.    नेकी के बारे में सोचना, (आदमी को) नेकी करने का निमन्त्रण देता है।

52. اَلتَّدبِيرُ قَبلَ العَمَلِ يُؤمِنُ النَّدَمَ: (1417)

52.    काम से पहले सोच विचार करना, लज्जा से बचाता है।

53. اَلتَّقريعُ اَشَدُّ مِن مَضَضِ الضَّربِ: (1429)

53.    निंदा झेलना, मार पीट के दर्द से भी बुरा है।

54. اَلمُؤمِنُ هَيِّنٌ لَيِّنٌ سَهلٌ مُؤتَمَنٌ: (1454)

54.    मोमिन, सरल स्वभावी, विनम्र, आसानी से काम लेने वाला और भरोसेमंद होता है।

55. اَلمُؤمِنُ سِيرَتُهُ القَصدُ وَسُنَّتُهُ الرُّشدُ: (1501)

55.    मोमिन की जीवन शैली, समस्त कामों में बीच का रास्ता अपनाना और उसकी सुन्नत विकास करना है।

56. اَلبِشرُ اِسداءُ الصَّنيعَةِ بغیر مَؤُونَةِ: (1503)

56.    प्रफुलता, बगैर खर्च की नेकी है।

57. اَلطُّمَأنينَةُ قَبلَ الخُبرَةِ خِلافُ الحَزمِ: (1514)

57.    परीक्षा किये बिना, किसी पर भरोसा करना दूर दर्शिता के ख़िलाफ है।

58.  اَلإحسانُ اِلَى المُسيءِ يَستَصلِحُ العَدُوَّ: (1517)

58.    बुरे के साथ भलाई करना, दुश्मन का सुधार करना है।

59. اَلحَياءُ مِنَ اللهِ يَمحوُ كثيراً مِنَ الخَطايا: (1548)

59.    अल्लाह से शर्माना, बहुत से गुनाहों को मिटा देता है।

60. اَلصِّدقُ مُطابَقَةُ المَنطِقِ لِلوَضعِ الإلهِيِّ: (1552)

60.    सच बोलना, उस बात के अनुसार है जो अल्लाह ने (प्रत्येक व्यक्ति के अस्तित्व में) रखी है।

61. اَلمُرائي ظاهِرُهُ جَميلٌ وَباطِنُهُ عَليلٌ: (1577)

61.    पाखंड़ी (दिखावा करने वाले) का बाह्य रूप अच्छा और आन्तरिक रूप बुरा होता है।

62. اَلمَطَلُ وَالمَنُّ مُنَكِّدَ الإحسانِ: (1595)

62.    एहसान जताना, नेकी की महत्ता को कम कर देता है।

63. اَلدُّعاءُ لِلسّائِلِ إحدَى الصَّدَقَتَينِ: (1620)

63.    ज़रुरतमंद के लिये दुआ करना, दो सदकों में से एक है।

64. اَلإنصافُ يَرفَعُ الخِلافَ وَيُوجِبُ الاِئتِلافَ: (1702)

64.    इंसाफ लड़ाई झगड़ों को खत्म कर देता है और मोहब्बत बढ़ाता है।

65. اَلصَّبرُ عَلى طاعَةِ اللهِ أهوَنُ مِنَ الصَّبرِ عَلى عُقُوبَتِهِ: (1731)



65.    अल्लाह की आज्ञा पालन पर सब्र करना, उसकी सज़ा पर सब्र करने से आसान है।

66. اَلعالِمُ مَن لا يَشبَعُ مِنَ العِلمِ وَلا يَتَشَبَعُ بِهِ: (1740)

66.    ज्ञानी कभी ज्ञान से तृप्त नही होता और न ही अपनी तृप्तता को प्रकट करता।

67. اَلكَمالُ فِي ثَلاث: اَلصَبرُ عَلَى النَّوائِبِ وَالتَوَرُّعُ فِي المَطالِبِ وَإسعافُ الطّالِبِ: (1777)

67.    (इन्सान का) कमाल तीन चीज़ों में है, परेशानियों पर सब्र करना, इच्छाओं के होते हुए पारसा बने रहना, और माँगने वाले की आवश्यक्ता को पूरा करना।

68. اَلعارِفُ مَن عَرَفَ نَفسَهُ فَأَعتَقَها وَنَزَّهَها عَن كُلِّ ما يُبَعِّدُها وَيُوبِقُها: (1788)

68.    आरिफ (ब्रह्मज्ञानी) वह है जो स्वयं को पहचाने और स्वयं को हर उस चीज़ से बचाये रखे जो उसे सही रास्ते से दूर करे और विनाश की ओर ले जाए।

69. اَلإخوانُ فِي اللهِ تَعالى تَدُومُ مَوَدَّتُهُم لِدَوامِ سَبَبِها: (1795)

69.    जो किसी को अल्लाह के लिए भाई बनाता है उसकी मोहब्बत स्थाई हो जाती है, क्यों कि दोस्ती व भाई चारे का कारण अमर है।

70. اَلكُيِّسُ مَن كانَ يَومُهُ خَيراً مِن أمسِهِ وَعَقَلَ الذَّمَّ عَن نَفسِهِ: (1797)

70.    चतुर वह है, जिस का आज, बीते हुए कल से अच्छा हो और जो स्वयं को बुराइयों से रोक ले।

71. اَلتَّقَرُّبُ إلَى اللهِ تَعالى بِمَسأَلَتِهِ وَإِلَى النّاسِ بِتَركِها:(1801)

71.    अल्लाह का समीपयः उस से कुछ माँगने पर प्राप्त होता है और इंसानों का समीपयः  उनसे कुछ न माँगने पर।

72. إخوانُ الصِّدقِ  زِينَة ٌفی السراء وعدۃ فی الضراء: (1805)

72.    सच्चा भाई खुशी में शोभा होता है और दुख दर्द में (सहायता के लिए हर तरह से) तैयार रहता है।

73. اَلمُرُؤَةُ اجتِنابُ الرَّجُلِ ما يَشينُهُ وَاكتِسابُهُ ما يَزينُهُ: (1815)

73.    मर्दानंगी इसमें है कि मर्द उन चीज़ों से दूर रहे जो उसे बुरा बनायें और उन चीज़ों को अपनाये जो उसे शौभनीय बनायें।

74. اَلحاسِدُ يَرى أنَّ زَوالَ النِّعمَةِ عَمَّن يَحسُدُهُ نِعمَةٌ عَلَيهِ: (1832)

74.    ईर्ष्यालु जिस से ईर्ष्या करता है, उसकी नेमतों के विनाश को अपने लिये नेमत (धन दौलत) समझता है।

75. اَلعامِلُ بِجَهل كَالسَّائِرِ عَلى غَيرِ طَريق فَلا يَزيدُهُ جِدُّهُ فِي السَّيرِ إلاّ بُعداً عَن حاجَتِهِ: (1847)

75.    अज्ञानता के साथ किसी काम को करने वाला, ग़लत रास्ते पर चलने वाले की तरह है, उसकी आगे बढ़ने की कोशिश से गंतव्य से दूर होने के अलावा उसे कोई फायदा नहीं होता।

76. الذُّنُوبُ الدّاءُ وَالدَّواءُ الاِستِغفارُ وَالشَّفاءُ أن لا تَعُودَ: (1890)

76.    गुनाह, दर्द है और उसकी दवा इस्तगफार (अल्लाह से क्षमा याचना करना) है और उसका इलाज उसे न दोहराना है।

77. اَلصَّبرُ صَبرانِ: صَبرٌ عَلى ما تَكَرَهُ وَصَبرٌ عَمّا تُحِبُّ: (1892)

77.    सब्र दो तरह के हैं: एक वह सब्र जो उन चीज़ों पर करते हों जिन्हें अच्छा नहीं समझते हो और दूसरा वह सब्र जो उन चीज़ों पर करते हों जो तुम्हें अच्छी लगती हो।

78. إكمالُ المَعرُوفِ أحسَنُ مِنِ ابتِدائِهِ: (1899)

78.    नेकियों को पूरा करना, उनको शुरु करने से भी अच्छा है।

79. اَلصَّديقُ الصَّدوُقُ مَن نَصَحَكَ فِي عَيبِكَ وَحَفِظَكَ فِي غَيبِكَ وَآثَرَكَ عَلى نَفسِهِ: (1904)

79.    तुम्हारा सच्चा दोस्त वह है जो तुम्हें तुम्हारी बुराइयों के बारे में नसीहत करे, तुम्हारे पीछे तुम्हारी रक्षा करे और तुम्हें अपने ऊपर वरीयता दे।

80. اَلحَزمُ النَّظَرُ فِي العَواقِبِ ومُشاوَرَةُ ذَوِي العُقُولِ: (1915)

80.    दूर दर्शिता, (किसी काम के) परिणामों पर ग़ौर करना और बुद्धिमान लोगों से परामर्श करने का नाम है।

81. اَلدَّهرُ يَومانِ: يَومٌ لَكَ وَيَومٌ عَلَيكَ فَإذا كانَ لَكَ فَلا تَبطَر وَإذا كانَ عَلَيكَ فَاصطَبِر: (1917)

81.    दुनिया दो दिन की है, एक दिन तुम्हारे पक्ष में और दूसरा तुम्हारे विरुद्ध है, जब तुम्हारे पक्ष में हो तो उपद्रव न करो और जब तुम्हारे विरुद्ध हो तो सब्र से काम लो।

82. اَلعِلمُ خَيرٌ مِنَ المالِ، اَلعِلمُ يَحرُسُكَ وَأنتَ تَحرُسُ المالَ: (1923)

82.    ज्ञान, माल से अच्छा है, क्यों कि ज्ञान तुम्हारी रक्षा करता है और माल की तुम रक्षा करते हो।

83. اَلتَّثَبُّتُ خَيرٌ مِنَ العَجَلَةِ إلاّ فِي فُرَصِ البِرِّ: (1949)

83.    सुअवसर के अतिरिक्त (कार्यों में)  देर करना, जल्दी करने से अच्छा है,

84. اَلجُنُودُ عِزُّ الدِّينِ وَحُصُونُ الوُلاةِ: (1953)

84.    फौज, दीन के लिए इज़्ज़त और शासकों के लिए किला है।

85. اَلأمرُ بِالمَعروفِ أفضَلُ أعمالِ الخَلقِ: (1977)

85.    अम्र बिल मअरुफ (इंसानों को अच्छे काम करने की सलाह देना), लोगों का सब से अच्छा काम है।

86. اَلطُّمَأنِينَةُ اِلى كُلِّ أحَد قَبلَ الاِختِبارِ مِن قُصُورِ العَقلِ: (1980)

86.    परीक्षा करने से पहले, हर एक पर भरोसा करना कम बुद्धी की निशानी है।

87. اَلبُكاءُ مِن خَشَيَةِ اللهِ يُنيرُ القَلبَ وَيَعصِمُ مِن مُعاوَدَةِ الذَّنبِ: (2016)

87.    अल्लाह से डर कर रोना, दिल को प्रकाशित करता  है और गुनाह की पुनरावर्त्ति से रोकता है।

88. اَلحِدَّةُ ضَربٌ مِنَ الجُنُونِ لأَنَّ صاحِبَها يَندَمُ فَإن لَمِ يَندَم فَجُنونُهُ مُستَحكَمٌ: (2040)

88.    क्रूरता, एक तरह का पागलपन है, क्योंकि ऐसा करने वाला लज्जित होता है और अगर वह लज्जित न हो तो उसका पागल पन पक्का है।

89. اَلأيّامُ صَحائِفُ آجالِكُم، فَخَلِّدُوها أحسَنَ أعمالِكُم: (2049)

89.    हर दिन तुम्हारी उम्र का रजिस्टर है अतः उन्हें अपने अच्छे कामों से अमर बनाओ।

90. اَلتَّيَقُّظُ فِي الدِّينِ نِعمَةٌ عَلى مَن رُزِقَهُ: (2058)

90.    धार्मिक जागरूकता, एक ऐसी नेमत है जो नसीब से मिलती है।

91. اَلمُتَعَبِّدُ بِغَيِر عِلم كَحِمار الطّاحُونَةِ، يَدُورُ وَلا يَبرَحُ مِن مَكانِهِ: (2070)

91.    ज्ञान के बिना इबादत करने वाला, उस चक्की चलाने वाले गधे के समान है जो घूमता रहता है लेकिन अपनी जगह से बाहर नहीं निकलता।

92.  اَلكَريمُ مَن صانَ عِرضَهُ بِمالِهِ وَاللَّئيمُ مَن صانَ مالَهُ بِعِرضِهِ: (2159)

92.    करीम (महान) वह है जो अपनी इज़्ज़त को माल से बचाता है और नीच वह है जो इज़्ज़त खो कर माल बचाता है।

93. اَلصَّلاةُ حِصنُ مِن سَطَواتِ الشَّيطانِ: (2212)

93.    नमाज़ शैतान के हमलों (से बचने के लिए) किला है।

दूसरा भाग
94. اِنسَ رِفدَكَ اُذكُر وَعدَك: (2249)

94.    दी हुई चीज़ों को भूल जाओं और अपने वादों को याद करो।

95. أعِن أخاكَ عَلى هِدايَتِهِ: (2281)

95.    (नेकी के) मार्गदर्शन में अपने भाई की मदद करो।

96. أحسِن إلى مَن أساءَ إِلَيكَ وَاعفُ عَمَّن جَنى عَلَيكَ: (2287)

96.    जिसने तुम्हारे साथ बुराई की उसके साथ भलाई करो और जिसने तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार किया उसे क्षमा कर दो।

97. أصلِحِ المُسيءَ بِحُسنِ فِعالِكَ وَدُلَّ عَلَى الخَيرِ بِجَميلِ مَقالِكَ: (2304)

97.    बुरे इन्सान को अपने अच्छे व्यवहार से सुधारो और अपनी अच्छी बातों के द्वारा उसका नेकी की ओर मार्गदर्शन करो।

98. اِحفَظ أمرَكَ وَلا تُنكِح خاطِباً سِرَّكَ: (2305)

98.    अपने कार्यों को छुपाओ और अपने राज़ों को हर चाहने वाले की दुल्हन न बनाओ। अर्थात हर किसी से अपने रहस्यों का वर्णन न करो।

99. اِرضَ لِلنّاسِ بِما تَرضاهُ لِنَفسِكَ تَكُن مُسلِماً: (2329)

99.    जो अपने लिये पसन्द करते हो, वही दूसरों के लिये भी पसंद करो, ताकि मुसलमान रहो।

100. اِرضَ مِنَ الرِّزقِ بِما قُسِمَ لَكَ تَعِش غَنِيّاً: (2332)

100.   जो धन तुम्हारे हिस्से में आया है उस पर खुश रहो (और) मालदारी में जीवन व्यतीत करो।

101. أكرِم ضَيفَكَ وَإن كانَ حَقيراً وَقُم عَن مَجلِسِكَ لاَِبِيكَ وَمُعَلِّمِكَ وَإن كُنتَ أميراً: (2341)

101.   अपने मेहमान की इज़्ज़त करो चाहे वह नीच ही हो और अपने बाप व उस्ताद के आदर में अपनी जगह से खड़े हो जाओ चाहे तुम शासक ही क्यों न हो।

102. اِغتَنِم مَنِ استَقرَضَكَ في حالِ غِناكَ لِيَجعَلَ قَضاءَهُ في يَومِ عُسرَتِكَ: (2370)

102.   (अगर) कोई तुम्हारे मालदार होने की स्थिति में तुम से कर्ज़ माँगे तो उसे अच्छा समझो, वह तुम्हारी आवश्यक्ता के समय तुम्हें उसका बदला देगा।

103. أكثِرِ النَّظرَ إلى مَن فُضِّلتَ عَلَيهِ فَإنَّ ذلِكَ مِن أبوابِ الشُّكرِ: (2375)

103.   तुम्हें जिन लोगों पर श्रेष्ठता दी गई है उनकी ओर अधिक देखो, (अर्थात उनका अधिक ध्यान रखो) क्योंकि यह, शुक्र करने का एक तरीका है।

104. أشعِر قَلبَكَ الرَّحمَةَ لِجَميعِ النّاسِ وَالإحسانِ إلَيهِمَ وَلا تُنِلهُم حَيفاً وَلا تَكُن عَلَيهِم سَيفاً: (2392)

104.   समस्त लोगों के साथ मोहब्बत और भलाई करने को अपने दिल का नारा बना लो और न उन्हें नुक्सान पहुंचाओ और न ही उन पर तलवार खींचो।

105. اِستَفرغ جُهدَكَ لِمَعادِكَ تُصلِح مَثواكَ وَلا تَبع آخِرَتَكَ بِدُنياكَ: (2411)

105.   अपनी पूरी मेहनत व कोशिश को आख़ेरत के लिये खर्च करो ताकि तुम्हारा ठिकाना अच्छा बने और अपनी आख़ेरत को दुनिया के बदले न बेचो।

106. اِجعَل لِكُلِّ إنسان مِن خَدَمِكَ عَمَلاً تَأخُذهُ بِهِ فَإنَّ ذلِكَ أحرى أن لا يَتَواكَلُوا فِي خِدمَتِكَ: (2432)

106.   अपने तमाम मातहतों को काम पर लगाओ और उनसे, उनके कार्यों के बारे में पूछ ताछ करो, (ताकि वह अपनी ज़िम्मेदारियों का जवाब दें) यह काम (इस लिए) अच्छा है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी को एक दूसरे के कांधे पर न डाल सकें।

107. اُبذل لِصَديقِكَ كُلَّ المَوَدَّةِ وَلا تَبذُل لَهُ كُلَّ الطُّمَأنينَةِ وأَعطِهِ مِن نَفسِكَ كُلَّ المُواساةِ وَلا تَقُصَّ اِلَيهِ بِكُلِّ أسرارِكَ: (2463)

107.   अपनी पूरी मोहब्बत को अपने दोस्त पर निछावर कर दो, लेकिन उस पर आँख बन्द कर के भरोसा न करो, दिल से उसके साथ रहो लेकिन अपने सारे राज़ उसे न बताओ।

108. اِصبِر عَلى مَرارَةِ الحَقِّ وَإيّاكَ أن تَنخَدِعَ لِحَلاوَةِ الباطِلِ: (2472)

108.   हक़ (सच्चाई) की कडवाहट पर सब्र करो और खबरदार बातिल (झूठ) की मिठास से धोखा न खाना।

109. أطِع مَن فَوقَكَ يُطِعكَ مَن دُونَكَ: (2475)

109.   अपने बड़ों का कहना मानों ताकि तुम्हारे छोटे तुम्हारा कहना मानें।

110. اِكتَسِبُوا العِلمَ يَكسِبكُمُ الحَياةَ: (2486)

110.   ज्ञान प्राप्त करो ताकि वह तुम्हें ज़िन्दगी दें।

111. اِلزَمُوا الجَماعَةَ وَاجتَنِبُوا الفُرقَةَ: (2488)

111.   सब के साथ मिल कर रहो और अलग रहने से बचो।

112. اِنتَهِزُوا فُصَ الخَيرِ فَإنَّها تَمُرُّ مَرَّ السَّحابِ: (2501)

112.   सुअवसर से फ़ायदा उठाओ क्यों कि वह बादलों की तरह गुज़र जाती है।

113. اِتَّقُوا مَعاصِيَ الخَلَواتِ فَإنَّ الشّاهِدَ هُوَ الحاكِمُ: (2524)

113.   तन्हाई के गुनाहों से बचो, क्योंकि उन्हें देखने वाला हाकिम है।

114. اُطلُبُوا العِلمَ تُعرَفُوا بِهِ وَاعمَلُوا بِه تَكُونُوا مِن أهلِهِ: (2531)

114.   ज्ञान प्राप्त करो ताकि उसके द्वारा पहचाने जाओ और उस पर क्रियान्वित रहो ताकि उसके योग्य बने रहो।

115. اِضرِبُوا بَعضَ الرَّأيِ بِبَعض يَتَوَلَّد مِنهُ الصَّوابُ: (2567)

115.   अपनी राय को एक दूसरे के सामने रखो ताकि उस से एक अच्छा नतीजा निकले।

116. أجمِلُوا فِي الخِطابِ تَسمَعُوا جَميلَ الجَوابِ: (2568)

116.   अपनी बात चीत को सुन्दर बनाओ ताकि अच्छा जवाब सुनो।

117. اِتَّهِمُوا عُقُولَكُم فَإنَّهُ مِنَ الثِّقَةِ بِها يَكُونُ الخَطاءُ: (2570)

117.   अपनी बुद्धी को ग़लती करने वाली मान कर चलो, क्योंकि उस पर अधिक भरोसा करना ग़लती हो सकती है।

118. اِحذَر كُلَّ عَمَل يَرضاهُ عامِلُهُ لِنَفسِهِ وَيَكرَهُهُ لِعامَّةِ المُسلِمينَ: (2596)

118.   हर उस काम से बचो जिस का करने वाला उसे अपने लिये तो पसंद करता हो लेकिन आम मुसलमानों के लिये पसंद न करता हो।

119. اِحذَر كُلَّ قَول وَفِعل يُؤدِّي إلى فَسادِ الآخِرَةِ وَالدِّينِ: (2597)

119.   हर उस बात व काम से बचो, जो आख़ेरत व दीन को बर्बादी की ओर ले जायें।

120. اِحذَر مُجالَسَةَ قَرينِ السُّوءِ فَإنَّهُ يُهلِكُ مُقارِنَهُ وَيُردي مُصاحِبَهُ: (2599)

120.   बुरे दोस्त के पास बैठने से बचो, क्योंकि वह अपने दोस्त को बर्बाद और अपने साथी को ज़लील करता है।

121. اِحذَرُوا ضِياعَ الأعمارِ فِيما لا يَبقى لَكُم فَفائِتُها لايَعُودُ: (2618)

121.   जो चीज़ें तुम्हारे पास बाक़ी रहने वाली नहीं हैं, उनमें अपनी उम्र बर्बाद करने से बचो, क्योंकि जो उम्र बीत जाती है, वह वापस नहीं आती।

122. إيّاكَ وَالهَذَرَ فَمَن كَثُرَ كَلامُهُ كَثُرَت آثامُهُ: (2637)

122.   अधिक बोलने से बचो क्योंकि अधिक बोलने वाले के गुनाह भी अधिक होते हैं।

123. إيّاكَ وَالنَّميمَةَ فَإنَّها تَزرَعُ الضَّغينَةَ وَتُبَعِّدُ عَنِ اللهِ وَالنّاسِ: (2663)

123.   चुग़ल खोरी से बचो, क्योंकि यह दुश्मनी का बीज बोती है और अल्लाह व इन्सानों से दूर करती है।

124. إيّاكَ وَالمَنَّ بِالمَعرِّوفِ فَإنَّ الاِمتِنانَ يُكَدِّرُ الإحسانَ: (2673)

124.   भलाई करने के बाद उसका एहसान जताने से बचो, क्योंकि एहसान जताना नेकी को बर्बाद कर देता है।

125. إيّاكَ وَالنِّفاقَ فَإنَّ ذَا الوَجهَينِ لا يَكُونُ وَجيهاً عِندَ اللهِ: (2694)

125.   निफ़ाक से बचो, क्योंकि अल्लाह (की नज़र में) मुनाफिक की कोई इज़्ज़त नहीं है।

126. إيّاكَ أن تَجعَلَ مَركَبَكَ لِسانَكَ في غِيبَةِ إخوانِكَ أو تَقُولَ ما يَصيرُ عَلَيكَ حُجَّةً وَفِي الإساءَةِ إِلَيكَ عِلَّةً: (2724)

126.   अपनी ज़बान को अपने भाई की चुग़ली की सवारी बनाने से बचओ और ऐसी बात कहने से भी दूर रहो जो तुम्हारे लिये दलील और तुम्हारे साथ बुराई करने का कारण व बहाना बने।

127. إيّاكُم وَالبِطنَةَ فَإنَّها مَقساةٌ لِلقَلبِ مَكسَلَةٌ عَنِ الصَّلاةِ وَمَفسَدَةٌ لِلجَسَدِ: (2742)

127.   पेट भर कर भोजन करने से बचो, क्योंकि इस से दिल सख़्त होता है, नमाज़ में सुस्ती पैदा होती है और यह शरीर के लिये भी हानिकारक है।

128. إيّاكُمِ وَالفُرقَةَ فَإنَّ الشّاذَّ عَن أهلِ الحَقِّ لِلشَّيطانِ كَما أنَّ الشّاذَّ مِنَ الغَنَمِ لِلذِّئبِ: (2747)

128.   अलग होने से बचो, क्योंकि हक़ से अलग होने वाला शैतान का (शिकार बन जाता है) जिस तरह रेवड़ से अलग होने वाली भेड़, भेड़िये का शिकार बन जाती है।

129. ألا مُستَيقِظٌ مِن غَفلَتِهِ قَبلَ نَفادِ مُدَّتِهِ: (2752)

129.   क्या कोई नहीं है, जो उम्र पूरी होने से पहले ग़फ़लत से जाग जाए।

130. ألا وَإنَّ مِنَ البَلاءِ الفاقَةَ وَأشَدُّ مِنَ الفاقَةِ مَرَضُ البَدَنِ وَأشَدُّ مِن مَرَضِ البَدَنِ مَرَضُ القَلبِ: (2775)

130.   जान लो कि भुखमरी एक विपत्ति है और शारीरिक बीमारी भुखमरी से भयंकर है और दिल की बीमारी (अर्थात कुफ़्र, निफ़ाक़ व शिर्क) शारीरिक बीमारी से भी भंयकर है।



131. ألا لايَستَحيِيَنَّ مَن لا يَعلَمُ أن يَتَعَلَّمَ فَإنَّ قِيمَةَ كُلِّ امرِئ مَا يَعلَمُ: (2787)

131.   समझ लो कि तुम जिस चीज़ के बारे में नहीं जानते हो उसे सीखने में शर्म न करो, क्योंकि हर इन्सान का महत्व उस चीज़ में है जिसे वह जानता है।

132. ألا لا يَستَقبِحَنَّ مَن سُئِلَ عَمَا لا يَعلَمُ أن يَقُولَ لا أعلَمُ: (2788)

132.   जान लो कि जब किसी से कोई सवाल पूछा जाये और वह उसका जवाब न जानता हो तो यह कहने में कोई बुराई नही है कि मैं नहीं जानता हूँ।

133. أفضَلُ العِبادَةِ غَلَبَةُ العادَةِ: (2873)

133.   सब से अच्छी इबादत आदतों पर क़ाबू पाना है।

134. أفضَلُ الإِيمانِ الأمانَةُ: (2905)

134.   सब से अच्छा ईमान आमानतदारी है।

135. اَسوَءُ النّاسِ عَيشاً الحَسُودُ: (2931)

135.   इंसानों में सब से बुरा जीवन ईर्ष्यालु का होता है।

136. أَشَدُّ القُلُوبِ غِلاًّ قَلبُ الحَقُودِ: (2932)

136.   दिलों में सब से बुरा दिल, कीनः (ईर्ष्या) रखने वाले का होता है।

137. أَفضَلُ العَمَلِ ما اُرِيدَ بِهِ وَجهُ اللهِ: (2958)

137.   सब से अच्छा काम वह है जिस के द्वारा अल्लाह की ख़ुशी को प्राप्त करने की इच्छा की जाये।

138. أَفضَلُ المَعرُوفِ إغاثَةُ المَلهُوفِ: (2959)

138.   सब से श्रेष्ठ भलाई, पीड़ित की फ़रियाद सुनना है।

139. أَكبَرُ الحُمقِ الإغراقُ فِي المَدحِ وَالذَّمِ: (2985)

139.   सब से बड़ी मूर्खता, (किसी की) बुराई या प्रशंसा में अधिक्ता से काम लेना है।

140. أَفضَلُ النّاسِ أنفَعُهُمِ لِلنّاسِ: (2989)

140.   सब से अच्छा इन्सान वह है, जिस से इन्सानों को सबसे अधिक फ़ायदा पहुंचता है।

141. أَقبَحُ الغَدرِ إذاغَةُ السِّرِّ: (3005)

141.   सब से बड़ी गद्दारी (किसी के) रहस्यों को खोलना  है।

142. أَفضَلُ الوَرَعِ حُسنُ الظَّنِّ: (3027)

142.   सब से अच्छी पारसाई, खुश गुमान रहना है।

143. أَسرَعُ شَيء عُقُوبَةً اليَمينُ الفاجِرَةُ: (3041)

143.   जिस चीज़ की सज़ा बहुत जल्दी मिलती है, वह झूठी क़सम है।

144. أَكثَرُ النّاسِ أمَلأ أقَلُّهُم لِلمَوتِ ذِكراً: (3053)

144.   सब से अधिक इच्छायें उन लोगों की होती है, जो मौत को बहुत कम याद करते हैं।

145. أَبصَرُ النّاسِ مَن أبصَرَ عُيُوبَهُ وَأقلَعَ عَن ذُنُوبِهِ: (3061)

145.   सब से अधिक दृष्टिवान इन्सान वह है जो अपनी बुराइयों को देखे और गुनाहों से रुक जाये।

146. أَقوَى النّاسِ مَن غَلَبَ هَواهُ: (3074)

146.   सब से अधिक शक्तिशाली इन्सान वह है जो अपनी हवस पर काबू पा ले।

147. أَصلُ المُرُوءَةِ الحَياءُ وَثَمَرَتُهَا العِفَّةُ: (3101)

147.   मर्दांगी की जड़ शर्म है, और उसका फल पारसाई है।

148. أَفضَلُ النّاسِ مَن كَظَمَ غَيظَهُ وَحَلُمَ عَن قُدرَة: (3104)

148.   सब से अच्छा इन्सान वह है जो अपने गुस्से को पी जाए और ताक़त के होते हुए संयम से काम ले।

149. أَغبَطُ النّاسِ المُسارِعُ إلَى الخَيراتِ: (3122)

149.   सब से खुश हाल इन्सान वह है जो नेकियों की तरफ़ दौड़े।

 150. أَعظَمُ الذُّنُوبِ عِندَ اللهِ ذَنبٌ اَصَرَّ عَلَيهِ عامِلُهُ: (3131)

150.   अल्लाह के नज़दीक सब से बड़ा गुनाह वह है, जिसे गुनहगार बार बार करे।

151. أَدَلُّ شَيء عَلى غَزارَةِ العَقلِ حُسنُ التَدبيرِ: (3151)

151.   बुद्धिमान होने की सब से बड़ी दलील, अच्छी तदबीर व उपाय है।

152. أَفضَلُ النّاسِ رَأياً مَن لا يَستَغنِي عَن رَأي مُشير: (3152)

152.   सब से अच्छी राय उस इन्सान की है जो स्वयं को  मशवरा देने वाले की राय से मुक्त न समझता हो।

153. أَفضَلُ الجُودِ اِيصالُ الحُقُوقِ إلى اَهلِها: (3153)

153.   सब से बड़ा दान व सखावत, हकदारों तक उनके हक पहुंचाना है।

154. أَكبَرُ الكُلفَةِ تَعَنُيكَ فِيما لا يَعنيكَ: (3166)

154.   सब से बड़ा दुख व तकलीफ़, उस चीज़ में मेहनत करना है जिस से तुम्हें कोई फ़ायदा न हो।

155. أَكبَرُ العَيبِ أن تَعيبَ غَيرَكَ بِما هُوَ فيكَ: (3167)

155.   सब से बड़ी बुराई, दूसरों की उस बुराई को पकड़ना है जो स्वयं में भी पाई जाती है।

156. أَخسَرُ النّاسِ مَن قَدَرَ عَلى اَن يَقُولَ الحَقَّ وَلَم يَقُل: (3178)

156.   सब से अधिक नुक़्सान में वह लोग हैं जो हक़ बात कहने की ताक़त रखते हुए, हक़ बात न कहें।

157. أَبخَلُ النّاسِ مَن بَخِلَ بِالسَّلامِ: (3200)

157.   सब से अधिक कंजूस वह लोग हैं जो सलाम करने में कंजूसी करें।

158. أَشَدُّ مِنَ المَوتِ طَلَبُ الحاجَةِ مِن غَيرِ أَهلِها: (3213)

158.   नीच से कोई चीज़ माँगना, मौत से भी अधिक कठिन है।

159. أَعقَلُ النّاسِ مَن كانَ بِعَيبِهِ بَصيراً وَعَن عَيبِ غَيرِهِ ضَريراً: (3233)

159.   सब से अधिक बुद्धिमान इन्सान वह है जो अपनी बुराइयों को देखे और दूसरों की बुराइयों को न देखे।

160. أَفضَلُ الأدَبِ أن يَقِفُ الإنسانُ عِندَ حَدِّهِ وَلا يَتَعدَّى قَدرَهُ: (3241)

160.   सब से अच्छा सदाचार यह है कि इन्सान अपनी हद में रहे और उस से बाहर न निकले।

161. إِنَّ أهنَأَ النّاسِ عَيشاً مَن كانَ بِما قَسَمَ اللهُ لَهُ راضِياً: (3397)

161.   सब से अच्छा जीवन उसका है जो उस पर प्रसन्न रहे, जो उसे अल्लाह ने दिया है।





162. اِنَّ مِنَ العِبادَةِ لِينَ الكَلامِ وَإفشاءَ السَّلامِ: (3421)

162.   नर्मी के साथ बात करना और ऊँची आवाज़ में सलाम करना इबादतों में से है।

163. إِنَّ هذِهِ القُلُوبَ اَوعِيَةٌ فَخَيرُها اَوعاها لِلخَيرِ: (3449)

163.   यह दिल बर्तन (के समान) हैं और इन में सब से अच्छा बर्तन वह है जिस में नेकियां अधिक आयें।

164. إِنَّ بِشرَ المُؤمِنِ فِي وَجهِهِ، وَقُوَّتَهُ فِي دينِهِ وَحُزنَهُ فِي قَلبِهِ: (3454)

164.   मोमिन की खुशी उसके चेहरे पर, उसकी ताक़त उसके दीन में और उसका ग़म उसके दिल में होता है।

165. إنَّ هذِهِ القُلُوبَ تَمِلُّ کما تمل الأبدانُ فَابتَغُوا لَها طَرائِفَ الحِكَمِ: (3549)

165.   दिल, बदन की तरह थक जाते हैं, उन्हें खुश करने के लिये नया ज्ञान व बुद्धिमत्ता तलाश करो।

166. إنَّ أفضَلَ الخَيرِ صَدَقَةُ السِّرِّ وَبِرُّ الوالِدَينِ وَصِلَةُ الرَّحِمِ: (3550)

166.   सब से अच्छी नेकी छिपा कर सदका देना, माँ बाप के साथ भलाई करना और सिला –ए- रहम (रिश्तेदारों के साथ मेल जोल से रहना) करना है।

167. إنَّ النّاسَ إلى صالِحِ الأدَبِ أحوَجُ مِنهُم إلَى الفِضَّةِ وَالذَّهَبِ: (3590)

167.   लोगों को सदाचार की ज़रुरत, सोने चांदी से अधिक है।

168. إنَّ حَوائِجَ النّاسِ إلَيكُم نِعمَةً مِنَ اللهِ عَلَيكُم فَاغتَنِمُوها وَلا تَمَلُّوها فَتَتَحَوَّلَ نَقَماً: (3599)

168.   तुम से लोगों की ज़रुरतों का जुडा होना, तुम्हारे लिए अल्लाह की नेमत है, उसे अच्छा समझो और उस से दुखी न हो वर्ना वह निक़मत  में बदल जायेगी। (निक़मत शब्द हर प्रकार की बुराई को सम्मिलित है)

169. اِن كُنتُم تُحِبُّونَ اللهَ فَأخِرِجُوا مِن قُلُوبِكُم حُبَّ الدُّنيا: (3747)

169.   अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत करते हो तो अपने दिल से दुनिया की मोहब्बत निकाल दो।

170. إن تَنَزَّهُوا عَنِ المَعاصِي يُحبِبكُمُ اللهُ: (3759)

170.   अगर तुम गुनाहों से पाक हो जाओ तो अल्लाह तुम से मोहब्बत करेगा।

171. إنَّكَ إن أطَعتَ اللهَ نَجّاكَ وأصلَحَ مَثواكَ: (3806)

171.   अगर तुम अल्लाह की आज्ञा का पालन करो तो वह तुम्हें निजात (मुक्ति) देगा और तुम्हारे ठिकाने को अच्छा बना देगा।

172. إنَّكَ لَن يُغنِي عَنَكَ بَعدَ المَوتِ إلاّ صالِحُ عَمَل قَدَّمتَهُ فَتَزَوَّد مِن صالِحِ العَمَلِ: (3815)

172.   मरने के बाद, तुम्हें तुम्हारे उन कार्यों के अलावा कोई चीज़ फायदा नहीं पहुंचायेगी जो तुम ने आगे भेज दिये हैं अतः नेक कामों को तुम अपना तोशा बना लो। (यात्रा के दौरान काम आने वाली हर चीज़ को तोशा कहते हैं, यहाँ पर इस बात की ओर इशारा किया गया है कि परेलोक की यात्रा के लिए अच्छे कार्यों को इकठ्ठा करो ताकि वह इस यात्रा में तुम्हारे काम आयें।)

173. اِنَّمَا العاقِلُ مَن وَعَظَتَهُ التَّجارِبُ: (3863)

173.   बुद्धिमान वह है जो अपने तजुर्बों से शिक्षा ले।

174. إنَّما سُمِّيَ العَدُوُّ عَدُوّاً لاَِنَّهُ يَعدُو عَلَيكَ فَمَن داهَنَكَ فِي مَعايِبِكَ فَهُوَ العَدُوُّ العادي عَلَيَكَ: (3876)

174.   दुश्मन को दुश्मन इस लिये कहा जाता है, क्योंकि वह तुम्हारे ऊपर अत्याचार करता है, अतः जो तुम्हें तुम्हारी बुराइयाँ बाताने से बचे, वह तुम्हारा दुश्मन है क्योंकि उसने तुम पर अत्याचार किया है।

175. إنَّما زُهدَ النّاسِ في طَلَبِ العِلمِ كَثرَةُ ما يَرَونَ مِن قِلَّةِ مَن عَمِلَ بِما عَلِمَ: (3895)

175.   जिस चीज़ ने इंसानों को ज्ञान प्राप्ति से रोका है, वह यह है कि बहुतसे देखते हैं कि अपने अपने इल्म पर अमल करने वाले अर्थात अपने ज्ञान पर क्रियान्वित होने वाले कम हैं।

176. إنَّما قَلبُ الحَدَثِ كَالأرضِ الخالِيَةِ مَهما أُلقِيَ فيها مِن كُلِّ شَيء قَبِلَتهُ: (3901)

176.   नौजवान का दिल उस ज़मीन के समान है जिस में अभी खेती न की गई हो अतः उस में जो कुछ डाला जायेगा वह उसे ही स्वीकार कर लेगा।

177. إذا صَنَعتَ مَعرُوفاً فَاستُرهُ: (3981)

177.   जब कोई नेकी करो तो उसे छिपा लो।

178. إذا صُنِعَ اِلَيكَ مَعرُوفٌ فَاذكُر: (4000)

178.   जब तुम से कोई भलाई करे तो उसे याद रखो।

179. إذا تَمَّ العَقلُ نَقَصَ الكَلامُ: (4011)

179.   जब बुद्धी पूर्ण हो जाती है तो बातें कम हो जाती हैं।

180. إذا أَضَرَّتِ النَّوافِلُ بِالفَرائِضِ فَارفُضُوها: (4015)

180.   जब मुस्तहब चीज़ें, वाजिब चीज़ों को नुक्सान पहुंचाने लगें तो उन्हें छोड़ दो।

181. إذا ظَهَرَتِ الجِناياتُ ارتَفَعَتِ البَرَكاتُ: (4030)

181.   जब बुरे काम व गुनाह खुले आम होने लगते हैं तो बरकत ख़त्म हो जाती है।

182. إذا رَأيتَ عالِماً فَكُن لَهُ خادِماً: (4044)

182.   जब आलिम को देखो तो उसकी सेवा करो।

183. إذا قامَ أحَدُكُم إِلَى الصَّلاةِ فَليُصَلِّ صَلاةَ مُوَدِّع: (4050)

183.   जब तुम में से कोई नमाज़ के लिये खड़ा हो तो इस तरह नमाज़ पढ़े जैसे वह उसकी आखरी नमाज़ है।

184. إذا أبصَرَتِ العَينُ الشَّهوَة عَمِيَ القَلبُ عَنِ العاقِبَةِ: (4063)

184.   जब आँख हवस की तरफ़ देखती है तो दिल उसके नतीजे को देखने से अंधा हो जाता हैं।

185. إذا رَاَيتَ مَظُلوماً فَاَعِنهُ عَلَى الظّالِمِ: (4068)

185.   जब किसी मज़लूम को देखो तो ज़ालिम के मुक़ाबले में उसकी मदद करो।

186. اِذا رَغِبتَ فِي المَكارِمِ فَاجتَنِبِ المَحارِمَ: (4069)

186.   अगर बुज़ुर्गी व सम्मान चाहतें हो तो हराम काम से दूर हो जाओ।

187. إذا أكرَمَ اللهُ عَبداً شَغَلَهُ بِمَحَبَّتِهِ: (4080)

187.   जब अल्लाह किसी बन्दे का आदर करता है तो उसे अपनी मोहब्बत में व्यस्त कर देता है।

188. إذا عَلَوتَ فَلا تُفَكِّر فِيمَن دُونَكَ مِنَ الجُهّالِ ولكِنِ اقتَدِ بِمَن فَوقَكَ مِنَ العُلَماءِ: (4092)

188.   जब किसी उच्चता पर पहुंचो तो अपने से नीचे के जाहिलों के बारे में न सोचो, बल्कि अपने से ऊपर वाले आलिमों का अनुसरण करो।

189. إذا رَأيتَ في غَيرِكَ خُلقاً ذَمياً فَتَجَنَّب مِن نَفسِكَ اَمثالَهُ: (4098)

189.   जब तुम किसी में कोई अख़लाकी बुराई देखो तो स्वयं को उस जैसी बुराईयों से दूर रखो।

190. إذا أرادَ اللهُ بِعَبد خَيراً ألهَمَهُ القَناعَةُ وأصَلَحَ لَه زَوجَهُ: (4115)

190.   जब अल्लाह किसी बन्दे की भलाई चाहता है तो उसके दिल में क़िनाअत (कम को अधिक समझना) डाल देता है और उसकी बीवी को नेक बना देता है।

191. إذا أرادَ اللهُ سُبحانَهُ صَلاحَ عَبد ألهَمَهُ قِلَّةَ الكَلامِ وَقِلَّةَ الطَّعامِ وَقِلَّةَ المَنامِ: (4117)

191.   जब अल्लाह किसी बन्दे का सुधार व भलाई चाहता है तो उसके दिल में कम बोलने, कम खाने, कम सोने की बात डाल देता है।

192. اِذا هَمَمتَ بِآمر فَاجتَنِب ذَميمَ العَواقِبِ فِيهِ: (4119)

192.   जब किसी काम का इरादा करो तो उसके बुरे नतीजे से बचो।

193. إذا سَأَلتَ فَاسأل تَفَقُّهاً وَلا تَسأَل تَعَنُّتاً: (4147)

193.   जब कोई सवाल पूछो तो समझने व जानने के लिये पूछो, दूसरों का इम्तेहान लेने के लिये नहीं।

194. إذا كَتَبتَ كِتاباً فَأَعِد فيهِ النَّظَرَ قَبلَ خَتمِهِ فَإنَّما تَختِمُ عَلى عَقِلِكَ: (4167)

194.   जब तुम कोई चीज़ लिखो तो उस पर मोहर लगाने से पहले उसे एक बार फिर पढ़ कर देख लो क्योंकि तुम अपनी बुद्धी पर मोहर लगा रहे हो।

195. إذا رَغِبتَ في صَلاحِ نَفسِكَ فَعَلَيكَ بِالاِقتِصادِ وَالقُنُوعِ وَالتَّقَلُّلِ: (4172)

195.   अगर स्वयं को सुधारना चाहते हो तो मयानारवी (न कम न अधिक) से खर्च करो, जो मिले उस पर खुश रहो और इच्छाओं को कम कर दो।





तीसरा भाग
196. بِحُسنِ العِشرَةِ تَدوُمُ المَوَدَّةُ: (4200)

196.   अच्छे व्यवहार से मोहब्ब्त मज़बूत होती है।

197. بِالعَدلِ تَتَضاعَفُ البَرَكاتُ: (4211)

197.   इन्साफ से बरकतें दोगुनी हो जाती हैं।

198. بِالدُّعاءِ يُستَدفَعُ البَلاءُ: (4240)

198.   दुआ से, विपत्तियाँ दूर होती हैं।

199. بِحُسنِ الاَخلاقِ يَطيبُ العَيشُ: (4263)

199.   अच्छे अखलाक से जीवन आनंन्दायक बनता है।

200. بِصِحَّةِ المِزاجِ تُوجَدُ لَذَّةُ الطَّعمِ: (4289)

200.   स्वास्थ सही होता है जो खाने के मज़े का एहसास होता है।

201. بِحُسنِ العَمَلِ تُجنى ثَمَرَةُ العِلمِ لا بِحُسنِ القَولِ: (4296)

201.   इल्म का फल, अच्छे अमल से मिलता है, अच्छी बातों से नहीं।

202. بِالتَّوبَةِ تُمَحَّصُ السَّيِّئاتُ: (4324)

202.   तौबा से गुनाह धुल जाते हैं।

203. بِالتَّعَبِ الشَّديدِ تُدرَكُ الدَّرَجاتُ الرَّفيعَةُ وَالرّاحَةُ الدّائِمَةُ: (4345)

203.   कठिन परिश्रम के द्वारा ऊँचे पद और सदैव का आराम प्राप्त करो।

204. بِادرِ الفُرصَةَ قَبلَ اَن تَكُونَ غُصَّةَ: (4362)

204.   अवसर से फ़ायदा उठाओ, इससे पहले कि उसके हाथ से निकल जाने के बाद अफ़सोस करो।

205. بِادِرُوا قَبلَ قُدُومِ الغائِبِ المُنتَظَرِ: (4368)

205.   जल्दी करो, उस ग़ायब के आने से पहले जिसका इन्तेज़ार हो रहा है।

206. بادِر شَبابَكَ قَبلَ هَرَمِكَ وَصِحَّتَكَ قَبلَ سُقمِكَ: (4381)

206.   अपनी जवानी से, बुढ़ापे से पहले और अपनी सेहत से, बीमारी से पहले फायदा उठाओ।

207. بِرُّ الرَّجُلِ ذَوَيَ رَحِمِهِ صَدَقَةٌ: (4427)

207.   मर्द का, अपने रिशतेदारों के साथ भलाई करना, (एक प्रकार का) सदका हैं।

208. بُكاءُ العَبدِ مِن خَشيَةِ اللهِ يُمَحِّصُ ذُنُوبَهُ: (4432)

208.   बंदे का अल्लाह से डर कर रोना, गुनाहों को खत्म कर देता है।

209. باكِرُوا فَالبَرَكَةُ فِي المُباكَرَةِ وَشاوِرُوا فَالنُّجحُ فِي المُشاوَرَةِ: (4441)

209.   सुबह सवेरे कमाने खाने के लिये निकलो, सुबह के काम में बरकत होती है और मशवरा करो क्योंकि मशवरे में सफलता है।



210. بَرُّوا آباءَكُم يَبَرَّكُم أبناؤُكُم: (4448)

210.   अपने माँ बाप के साथ भलाई करो ताकि तुम्हारी औलाद तुम्हारे साथ भलाई करे।

211. بَينَكُم وَبَينَ المَوعِظَةِ حِجابٌ مِنَ الغَفلَةِ وَالغِرَّةِ: (4450)

211.   तुम्हारे और नसीहत के बीच ग़फ़लत व अचेतना के पर्दे हैं।

212. تَضييعُ المَعرُوفِ وَضعُهُ فِي غَيرِ عَرُوف: (4470)

212.   किसी ऐसे (इंसान) के साथ भलाई करना जो उस भलाई के महत्व को न जानता हो, उस भलाई को बर्बाद करना है।

213. تَقَرُّبُ العَبدِ إلَى اللهِ سُبحانَهُ بِإخلاصِ نِيَّتِهِ: (4477)

213.   बन्दा अल्लाह से ख़ालिस नीयत के साथ क़रीब होता है।

214. تَمامُ العِلمِ العَمَلُ بِمُوجَبِهِ: (4482)

214.   ज्ञान की पूर्णता, उसके अनुसार कार्य करना है।

215. تَهويِنُ الذَّنبِ اَعظَمُ مِن رُكُوبِ الذِّنبِ: (4490)

215.   गुनाह को छोटा समझना, गुनाह करने से भी बड़ा (गुनाह) है।

216. تَدَبَّرُوا آياتِ القُرآنِ وَاعتَبِرُوا بِهِ فَإنَّهُ أبلَغُ العِبَرِ: (4493)

216.   कुरआन की आयतों पर चिंतन करो और उससे शिक्षा (नसीहत) लो क्योंकि वह बहुत अधिक शिक्षाएं देने वाला हैं।

217. تَركُ جَوابِ السَّفيهِ أبلَغُ جَوابِهِ: (4498)

217.   मुर्ख की बात का जवाब न देना ही उसका सब से अच्छा जवाब है।

218. تَمَسَّك بِكُلِّ صَدِيق أفادَتكَهُ الشِّدَّةُ: (4508)

218.   सब से दोस्ती करो, वह कठिन समय में तुम्हारे काम आयेंगे।

219. تَفَكَّر قَبلَ أن تَعزِمُ وَشاور قَبلَ أن تُقدِمَ وَتَدَبَّر قَبلَ أن تَهجُمَ: (4545)

219.   (किसी काम का) इरादा करने से पहले अच्छी तरह विचार करो, उसे शुरु करने से पहले मशवरा करो और काम में हाथ डालने से पहले उसके परिणाम पर ध्यान दो।

220. تَوقَّوا البَردَ في أوَّلِهِ وَتَلَقَّوهُ فِي آخِرِهِ، فَإنَّهُ يَفعَلُ فِي الأبدانِ كَما يَفعَلُ فِي الأغصانِ أوَّلُهُ يُحرِقُ وَآخِرُهُ يُورِقُ: (4551)

220.   आती हुई सर्दी से बचो और जाती हुई सर्दी को गले से लगाओ, क्योंकि सर्दी शरीर के साथ वही करती है जो पेड़ की डालियों के साथ करती है, शुरु में उन्हें सुखा देती है और अंतिम समय में उन्हें हरा भरा बना देती है।

221. تَجاوَز عَنِ الزَّلَلِ وَأقِلِ العَثَراتِ تُرفَع لَكَ الدَّرَجاتُ: (4566)

221.   ग़लती देख कर आँख बन्द कर लो और दूसरे की ग़लती को अनदेखा कर दो ताकि तुम्हारा मान सम्मान बढ़े।

222. تَعجيِلُ البِرِّ زِيادَةٌ فِي البِرِّ: (4568)

222.   अच्छे काम में जल्दी करना, अच्छाई को बढ़ाना है।

223. تَدارَك في آخِرِ عُمرِكَ ما أضَعتَهُ فِي أوَّلِهِ تَسعَد بِمُنقَلَبِكَ: (4572)

223.   जिस चीज़ को अपनी उम्र के पहले हिस्से में बर्बाद किया है उसे आखरी हिस्से में पूरा कर लो ताकि लौटते समय (अर्थात मौत के वक्त) सफल बन सको।

224. ثَمَرَةُ الحَزْمِ السَّلامَةُ: (4590)

224.   दूर दर्शिता का परिणाम, सुरक्षित रहना है।

225. ثَمَرَةُ العِفَّةِ الصِّيانَةُ: (4593)

225.   पाक दामन रहने का नतीजा, सुरक्षा है।

226. ثَمَرَةُ التَّواضُعِ المَحَبَّةُ: (4613)

226.   इन्केसारी (दूसरों के सम्मुख स्वयं को छोटा समझना) का नतीजा, मोहब्बत है।

227. ثَمَرَةُ التَّجرِبَةِ حُسنُ الاِختِيارِ: (4617)

227.   अनुभव का परिणाम, उचित चुनाव है।

228. ثَمَرَةُ القَناعَةِ الإجمالُ فِي المُكتَسَبِ وَالعُزُوفُ عَنِ الطَّلَبِ: (4634)

228.   क़िनाअत (निस्पृहता) का परिणाम, कमाने खाने में मध्य क्रम को अपनाना और माँगने को बुरा समझना है।

229. ثَلاثٌ لايُستَحيى مِنهُنَّ: خِدمَةُ الرَّجُلِ ضَيفَهُ وَقِيامُهُ عَن مَجلِسِهِ لاَِبيهِ وَمُعَلِّمِهِ وَطَلَبُ الحَقِّ وَإن قَلَّ: (4666)

229.   तीन चीज़ों से नहीं शर्माना चाहिये: मेहमान की आव भगत से, बाप और उस्ताद के आदर में अपनी जगह से खड़े होने से और अपना अधिकार माँगने से चाहे वह कम ही हो।

230. ثَلاثَةٌ تَدُلُّ عَلى عُقُولِ أربابِها: الرَّسُولُ وَالكِتابُ وَالهَدِيَّةُ: (4681)

230.   तीन चीज़े अपने मालिक की बुद्धिमत्ता पर तर्क करती हैं: दूत, पत्र और उपहार।

231. ثَلاثٌ يُوجِبنَ المَحَبَّةَ: حُسنُ الخُلقِ وَحُسنُ الرِّفقِ وَالتَّواضُعُ: (4684)

231.   तीन चीज़ें मोहब्बत का कारण बनती हैं: अच्छा अख़लाक़, विनम्रता और दूसरों के सामने स्वयं को छोटा समझना।

232. ثابِرُوا عَلى صَلاحِ المُؤمِنِينَ وَالمُتَّقِينَ: (4703)

232.   मोमिन व मुत्तकीन की भलाई को हमेशा नज़र में रखो।



चौथा भाग
233. جالِسِ العُلَماءَ تَزدَد عِلماً: (4721)

233.   ज्ञानियों के पास बैठो ताकि तुम्हारा ज्ञान बढ़े।

234. جُودُوا بِما يَفنى تَعتاضُوا عَنهُ بِما يَبقى: (4732)

234.   (इस दुनिया में) ख़त्म होने वाली चीज़ों को दान कर दो (ताकि आख़ेरत में) उनके बदले में कभी खत्म न होने वाली चीज़े पाओ।

235. جاوِر مَن تَأمَنُ شَرَّهُ، وَلا يَعدُوكَ خَيرُه: (4737)

235.   तुम उसके पड़ोस में रहो, जिसकी भलाई तो तुम तक पहुँचे परन्तु उसकी बुराई तुम से दूर रहे।

236. جَمالُ العِلمِ نَشرُهُ وَثَمَرَتُهُ العَمَلُ بِهِ، وَصِيانَتُهُ وَضعُهُ فِي أهلِهِ: (4754)

236.   ज्ञान की सुन्दरता उसका प्रसारण और उसका फल उस पर क्रियान्वित होना है, उसकी सुरक्षा उसे किसी योग्य के हवाले करना है।

237. جِماعُ المُرُؤَةِ أن لا تَعمَلَ فِي السِّرِّ ما تَستَحيي مِنهُ فِي العَلانِيَةِ: (4785)

237.   सारी मर्दांगी इस में है कि जिसे खुले आम करने में शर्माते हों उसे छुप कर भी न करो।

238. حُسنُ الظَّنِّ راحَةُ القَلبِ وَسَلامَةُ الدِّينِ: (4816)

238.   अच्छा गुमान, दिल का चैन और दीन की सलामती है।

239. حُسنُ اللِّقاءِ يَزيِدُ فِي تَأَكُّدِ الإخاءِ: (4827)

239.   अच्छा व्यवहार, भाई चारे को बढ़ाता है।

240. حُسنُ الاِستِدراكِ عُنوانُ الصَّلاحِ: (4867)

240.   अच्छाई की ओर बढ़ना, सुधार की निशानी है।

241. حُبُّ الاِطراءِ وَالمَدحِ مِن اَوثَقِ فُرَصِ الشَّيطانِ: (4877)

241.   अतिशयोक्ति व प्रशंसा को पसंद करने की स्थिति, शैतान के लिए सब से अच्छा मौक़ा है।

242. حَلاوَةُ الظَّفَرِ تَمحُو مَرارَةَ الصَّبرِ: (4882)

242.   सफलता की मिठास, सब्र की कड़वाहट को मिटा देती है।

243. حِراسَةُ النِّعَمِ فِي صِلَةِ الرَّحِمَ: (4929)

243.   नेमतों का बाक़ी रहना, सिला ए रहम में (निहित) है।

244. حَياءُ الرِّجُلِ مِن نَفسِهِ ثَمَرَةُ الاِيمانِ: (4944)

244.   मर्द का अपनी आत्मा से शर्माना, ईमान का नतीजा है।

245. خَيرُ اَموالِكَ ما وَقى عِرضَكَ: (4958)

245.   तुम्हारा सब से अच्छा माल वह है जो तुम्हारे मान सम्मान की रक्षा करे।

246. خَيرُ الضِّحكِ التَّبسُّمُ: (4964)

246.   सब से अच्छी हँसी, मुस्कुराहट है।

247. خَيرُ مَن شاوَرتَ ذَوُو النُّهى وَالعِلمِ، وَاُولُوا التَّجارِبِ وَالحَزمِ: (4990)

247.   मशवरा करने के लिये सब से अच्छे लोग:  बुद्धिमान, ज्ञानी, अनुभवी और दूरदर्शी लोग हैं।

248. خَيرُ الإخوانِ مَن لَم يَكُن عَلى إخوانِهِ مُستَقصِياً: (4997)

248.   सब से अच्छे भाई वह हैं जो अपने भाईयों से अधिक उम्मीदें न रखते हों और कामों में सख्ती न करते हों।

249. خَيرُ إخوانِكَ مَن سارَعَ إلَى الخَيرِ وَجَذَبَكَ إلَيهِ وَأمَرَكَ بِالبِّرِ وَأعانَكَ عَلَيهِ: (5021)

249.   तुम्हारा सब से अच्छा भाई वह है जो नेक कामों की तरफ़ दौडता हो और तुम्हें भी उन की तरफ़ खैंचता हो और नेक कामों का हुक्म देता हो और उनको करने में तुम्हारी मदद करता हो।

250. خزيرُ ما وَرَّثَ الآباءُ الابناءَ الأدَبَ: (5036)

250.   सब से अच्छी चीज़ जो बाप औलाद के लिये विरसे में छोड़ते हैं, अदब है।

251. خُذِ القَصدَ فِي الاُمُورِ، فَمَن اَخَذَ القَصدَ خَفَّت عَلَيهِ المُؤَنَ: (5042)

251.   कामों में बीच का रास्ता अपनाओ, जो बीच का रास्ता अपनाता है, उसका खर्च कम हो जाता है।

252. خُذِ الحِكمَةَ مِمَّن أتاكَ بِهِا، وَانظُر إلى ما قالَ وَلا تَنظُر إلى مَن قالَ: (5048)

252.   तुम्हें जो कोई भी बुद्घिमत्ता दे, ले लो, यह देखो कि क्या कह रहा है यह न देखो कि कौन कह रहा है।

253. خَيرُ الاَعمالِ إعتِدالُ الرَّجاءِ وَالخَوفِ: (5055)

253.   सब से अच्छे काम, उम्मीद और डर का बराबर (एहसास) है।

254. خالِف مَن خالَفَ الحَقَّ اِلى غَيرِهِ، وَدَعهُ وَما رَضِىَ لِنَفسِهِ: (5057)

254.   जो हक़ का विरोध करे उसका विरोध करो और वह जिस पर राज़ी हो, उसे उसी पर छोड़ दो।

255. خالِطُوا النّاسَ مُخالَطَةُ إن مِتُّم بَكَوا عَلَيكُم وَإن غِبتُم حَنُّوا إلَيكُم: (5070)

255.   लोगों से इस प्रकार व्यवहार करो कि अगर तुम मर जाओ तो वह तुम पर रोयें और अगर तुम ग़ायब हो जाओ तो वह तुम से मिलने की इच्छा करें।

256. خُلُوُّ الصَّدرِ مِنَ الغِلِّ وَالحَسَدِ مِن سَعادَةِ العَبدِ: (5083)

256.   सीने का ईर्ष्या व कीनेः से खाली होना, बन्दे की भाग्यशालिता है।

257. خَوافِي الأخلاقِ تَكشِفُهَا المُعاشَرَةُ: (5099)

257.   एक साथ रहने से छुपी हुई आदतें सामने आ जाती है।





पाँचवां भाग
258. دارِ النّاسَ تَأمَن غَوائِلُهُم، وَتَسلَم مِن مَكائِدِهِم: (5128)

258.   लोगों से मोहब्बत करो ताकि उनके उपद्रव से सुरक्षित और उनकी बुराइयों से बचे रहो।

259. دَع ما لايَعنِيكَ، وَاشتَغِل بِمُهِمِّكَ الَّذي يُنجِيَكَ: (5133)

259.   जो चीज़ तुम्हारे काम न आये, उसे छोड़ दो और जो चीज़ तुम्हें मुक्ति दे उस में व्यस्त हो जाओ।

260. ذِكرُ اللهِ مَطرَدَةُ الشَّيطانِ: (5162)

260.   अल्लाह की याद, शैतान को दूर करती है।

261. ذُروَةُ الغاياتِ لا يَنالُها إلاّ ذَوُوا التَّهذيبِ وَالمُجاهَداتِ: (5190)

261.   सदाचारी और कोशिश करने वाले के अतिरिक्त कोई भी अपने उद्देश्य की चोटी को नहीं छू पाता।

262. ذُو الكَرَمِ جَميلُ الشِّيَمِ مُسد لِلنِّعَمِ وَصُولٌ لِلرَّحِمِ: (5196)

262.   करीम, वह है जिस का अखलाक अच्छा हो, हर नेमत के लिये उचित हो और सिल ए रहम करता हो।

263. ذَوُوا العُيُوبِ يُحِبُّونَ إشاعَةَ مَعايِبِ النّاسِ لِيَتّسِعَ لَهُمُ العُذرُ فِي مَعايِبِهِم: (5198)

263.   बुरे लोग यह चाहते हैं कि लोगों की बुराइयां आम हो जायें ताकि उन्हें अपनी बुराइयों के बारे में और अधिक बहाना मिले।

छटा भाग
264. رَحِمَ اللهُ امرَءٌ عَرَفَ قَدرَهُ وَلَم يَتَعَدَّ طَورَهُ: (5204)

264.   अल्लाह रहमत करे उस मर्द पर जो अपने महत्व को पहचाने और अपनी हद से आगे न बढ़े।

265. رَحِمَ اللهُ امرءً أحيا حَقَّاً وَأماتَ باطِلاً وَأدحَضَ الجَورَ وَأقامَ العَدلَ: (5217)

265.   अल्लाह रहमत करे उस इंसान पर जो हक़ (सत्यता) को ज़िन्दा करे और बातिल (असत्य) को मौत के घाट उतार दे, अत्यचार को मिटाये और न्याय को फैलाये।

266. رَأسُ الفَضائِلِ مِلكُ الغَضَبِ وَاِماتَةُ الشَّهوَةِ: (5237)

266.   श्रेष्ठता की जड़ गुस्से पर कंट्रोल करना और हवस को मारना है।

267. رَأسُ الجَهلِ مُعاداةُ النّاسِ: (5247)

267.   लोगों से दुश्मनी करना, मूर्खता की जड़ है।

268. رَأسُ السِّياسَةِ استِعمالُ الرِّفقِ: (5266)

268.   मोहब्बत से काम लेना, सियासत की जड़ है।

269. رُبَّ مُتَوَدِّد مُتَصَنِّع: (5277)

269.   बहुत सी दोस्तियाँ दिखावटी होती है।

270. رُبَّ كَلِمَة سزلَبَت نِعمَةً: (5282)

270.   बहुत सी बातें, नेमत को रोक देती हैं।

271. رُبَّ كَلام جَوابُهُ السُّكُوتُ: (5303)

271.   बहुत सी बातों का जवाब, चुप रहना है।

272. رُبَّ واعِظِ غَيرُ مُرتَدِع: (5361)

272.   बहुत से नसीहत करने वाले ऐसे हैं जो खुद को गुनाहों से नहीं रोकते।

273. رَغبَتُكَ فِي زاهِد فيِكَ ذُلٌّ: (5383)

273.   जो तुम से दूर रहना चाहता है, उस से मिलना अपमान है।

274. رَدعُ النَّفسِ عَن زَخارِفِ الدُّنيا ثَمَرَةُ العَقلِ: (5399)

274.   अपनी आत्मा को इस दुनिया की शोभाओं से दूर रखना, बुद्धी का परिणाम है।

275. رَوِّ قَبلَ العَمَلِ تَنجُ مِنَ الزَّلَلِ: (5401)

275.   काम करने से पहले सोचो, ताकि गलतियों से बच सको।

276. رَضِيَ بِالذُّلِ مَن كَشَفَ ضُرَّهُ لِغَيرِهِ: (5414)

276.   वह इंसान अपमानित होने पर राज़ी हो गया, जिसने अपनी परेशानियों को दूसरों पर प्रकट कर दिया।

277. رَأيُ الرَّجُلِ عَلى قَدرِ تَجرِبَتِهِ: (5426)

277.   हर इंसान की राय उसके अनुभव के अनुसार होती है।

278. رِضَا المَرءِ عَن نَفسِهِ بُرهانُ سَخافَةِ عَقلِهِ: (5441)

278.   आदमी का स्वयं से राज़ी होना, कम बुद्धी की दलील है।

279. زَكاةُ الجَمالِ العَفافُ: (5449)

279.   खूब सूरती की ज़कात, पाक दामन रहना है।

280. زِلَّةُ العالِمِ كَانكِسارِ السَّفينَةِ، تَغرَقُ وَتُغَرَّقُ مَعَها غَيرَها: (5474)

280.   ज्ञानी की ग़लती, किश्ती के टूटने के समान है, वह स्वयं भी डूबती है और दूसरों को भी डुबाती है।

281. زِيادَةُ الشُّحِّ تَشينُ الفُتُوَّةَ وَتُفسِدُ الأُخُوَّةَ: (5508)

281.   अधिक कंजूसी, बहादुरी को ख़त्म और भाई चारे को ख़राब कर देती है।



सातवां भाग
282. سَبَبُ الاِئتِلافِ الوَفاءُ: (5511)

282.   वफा, मोहब्बत का कारण बनती है।

283. سَبَبُ المَحَبَّةِ البِشرُ: (546)

283.   प्रफुल्लता, मोहब्बत का कारण बनती है।

284. سِلاحُ المُؤمِنِ الدُّعاءُ: (5559)

284.   दुआ, मोमिन का हथियार है।

285. سُوسُوا أنفُسَكُمِ بِالوَرَعِ وَداوُوا مَرضاكُمِ بِالصَّدَقَةِ: (5588)

285.   पाक दामनी के द्वारा अपनी जान की रक्षा करो और अपने बीमारों का सदक़े से इलाज करो।

286. سِياسَةُ العَدلِ ثَلاثٌ: لِينٌ في حَزم، وَاستِقصاءٌ في عَدل، وَإفضالٌ في قَصد: (5592)

286.   न्याय पर आधारित सियासत के तीन स्तम्भ हैं, दूर दर्शिता के साथ नर्मी, न्याय को अंतिम सीमा तक पहुंचाना, और मध्य क्रम में लोगों को धन देना अर्थात न बहुत कम न अत्याधित।

287. سَل عَنِ الجارِ قَبلَ الدّارِ: (5598)

287.   घर (खरीदने) से पहले पड़ोसी के बारे में पूछ ताछ करो।

288. سالِمِ النّاسَ تَسلَم، وَاعمَل لِلآخِرَةِ تَغنَم: (5605)

288.   लोगों के साथ मोहब्बत से रहो ताकि सुरक्षित रहो और आख़ेरत के लिये काम करो ताकि तुम्हें ग़नीमत मिले।

289. سَلامَةُ العَيشِ فِي المُداراةِ: (5607)

289.   ज़िन्दगी का आराम, प्यार मोहब्बत में है।

290. سَيِّئَةُ تَسُوؤُكَ خَيرٌ مِن حَسَنَة تُعجِبُكَ: (5615)

290.   जो गुनाह तुम्हें ग़मगीन कर दे, वह उस नेकी से अच्छा है जो तुम में घमंड पैदा कर दे।

291. سَمعُ الاُذُنِ لايَنفَعُ مَعَ غَفَلَةِ القَلبِ: (5618)

291.   दिल के ग़ाफ़िल होते हुए, कानों से सुनने का कोई फ़ायदा नहीं है।

292. سِرُّكَ اَسيِرُكَ فَإن اَفشَيتَهُ صِرتَ اَسيرَهُ: (5630)

292.   तुम्हारा राज़, तुम्हारा कैदी है, अगर तुम ने उसे खोला तो तुम उसके कैदी बन जाओगे।

293. سُوءُ الخُلقِ نَكَدُ العَيشِ وَعَذابُ النَّفسِ: (5639)

293.   बुरा अखलाक ज़िन्दगी के लिए कठिनाई और जान के लिए अज़ाब है।

294. سَلُوا القُلُوبَ عَنِ المَوَدّاتِ فَإنَّها شَواهِدُ لا تَقبَلُ الرُّشا: (5641)

294.   दोस्ती व मोहब्बत को दिलों से पूछो, क्योंकि दिल ऐसा गवाह हैं जो रिशवत नहीं लेते।

295. شُكرُ المُؤمِنِ يَظهَرُ فِي عَمَلِهِ: (5661)

295.   मोमिन का शुक्र, उसके कार्यों से प्रकट होता है।

296. شَرُّ النّاسِ مَن لا يَقبَلُ العُذرَ، وَلا يُقيِلُ الذَّنبَ: (5685)

296.   सब से बुरा इंसान वह हैं जो किसी मजबूरी को क़बूल नही करता और गलतियों को माफ नहीं करता।

297. شَرُّ العَمَلِ ما أفسَدتَ بِهِ مَعادَكَ: (5695)

297.   सब से बुरा काम वह है, जिस से तुम अपनी आख़ेरत बर्बाद कर लो।

298. شَرُّ النّاسِ مَن يَرى أَنَّهُ خَيرُهُم: (5701)

298.   सब से बुरा इंसान वह है, जो स्वयं को दूसरों से अच्छा समझे।

299. شَرُّ النّاسِ مَن لا يُبالِي أن يَراهُ النّاسُ مُسِيئاً: (5702)

299.   सब से बुरा इंसान वह हैं, जो इस बात की परवाह न करें कि लोग उसे गुनाहगार के रूप में देखें।

300. شَرُّ اَصدِقائِكَ مَن تَتَكَلَّفُ لَهُ: (5706)

300.   तुम्हारा सब से बुरा दोस्त वह है, जिसकी वजह से तुम किसी मुसिबत में फँस जाओ।

301. شَرُّ الاَوطانِ مالَم يَأمَن فيهِ القُطّانُ: (5712)

301.   सब से बुरा वतन वह है, जिसमें रहने वाले लोग सुरक्षित न हों।

302. شَرُّ النّاسِ مَن لا يُرجى خَيرُهُ وَلا يُؤمَنُ شَرُّهُ: (5732)

302.   सब से बुरे लोग वह है जिन से किसी भलाई की उम्मीद न हो और उनकी बुराई से न बचा जा सकता हो।

303. شَرُّ الاَصحابِ السَّريعُ الاِنقِلابِ: (5742)

303.   सब से बुरे साथी वह हैं जो जल्दी ही रंग बदल दें।

304. شاوِر قَبلَ أن تَعزِمُ، وَفَكِّر اَن تُقدِمَ: (5754)

304.   इरादा करने से पहले मशवरा करो और काम शुरु करने से पहले सोचो।

305. شَيئانِ لاَيعرِفُ فَضلَهُما اِلاَّ مَن فَقَدَهُما: الشَّبابُ وَالعافِيَةُ: (5764)

305.   दो चीज़ें ऐसी हैं जिनके महत्व को केवल वही जानता है, जिसके पास से वह चली जाती है:  जवानी और स्वास्थ।

306. شَيئانِ لا يُوزَنُ ثَوابُهُما: اَلعَفوُ وَالعَدلُ: (5769)

306.   दो चीज़ें ऐसी हैं जिनके सवाब (पुणय) का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है: क्षमा और न्याय।

307. شارِكُوا الَّذِي قَد أقبَلَ الرِّزقُ فَإنَّهُ أجدَرُ بِالحَظِّ وَأخلَقُ بِالغِنى: (5790)

307.   जिसकी ओर धन बढ़ जाये, उसके साझीदार बन जाओ, क्योंकि वह   लाभान्वित होने के लिए योग्य व मालदारी के लिए उपयुक्त है।





आठवां भाग


308. صَلاحُ العَمَلِ بِصَلاحِ النِّيَّةِ: (5792)

308.   कार्यों का सही होना, नीयत के सही होने पर आधारित है।

309. صَلاحُ العِبادَةِ التَّوَكُّلُ: (5802)

309.   तवक्कुल (अल्लाह पर भरोसा), इबादत को सवांरता है।

310. صَلاحُ الاِنسانِ فِي حَبسِ اللِّسانِ وَبَذلِ الإحسانِ: (5809)

310.   इन्सान की भलाई, ज़बान को काबू में रखने और नेकी करने में है।

311. صِحَّةُ الاَجسامِ مِن أهنَإ الأقسامِ: (5812)

311.   तन्दरुस्ती, सब से बड़ी नेमत है।

312. صِيانَةُ المَرأةِ أنعَمُ لِحالِها وَأدوَمُ لِجَمالِها: (5820)

312.   औरत का पर्दा, उसके लिये लाभदायक है और उसकी सुन्दरता को हमेशा बाकी रखता है।

313. صاحِبُ السَّوءِ قِطعَةٌ مِنَ النّارِ: (5824)

313.   बुरा साथी दोज़ख की आग का एक अंगारा होता है।

314. صِلَةُ الأرحامِ تُثمِرُ الأموالَ وَتُنسِىءُ فِي الآجالِ: (5847)

314.   सिला ए रहम (रिश्तेदारों के साथ मिलने जुलने) से माल बढ़ता है और मौत टलती है।

315. صَدَقَةُ السِّرِّ تُكَفِّرُ الخَطيئَةَ، وَصَدَقَةُ العَلانِيَةِ مَثراةٌ فِي المالِ: (5848)

315.   छिपा कर दिया जाने वाला सदक़ा, गुनाहों को छिपाता है और खुले आम दिये जाने वाले सदक़े से माल बढ़ाता है।

316. صُن دينَكَ بِدُنياكَ تَربَحهُما وَلا تَصُن دُنياكَ بِدِينِكَ فَتَخسَرَهُما: (5861)

316.   अपने दीन की दुनिया के द्वारा रक्षा करो ताकि दोनों से फ़ायदा उठाओ और अपनी दुनिया को दीन के द्वारा न बचाओ वरन दोनों का नुक़्सान होगा।

317. صُمتٌ يُعقِبُكَ السَّلامَةَ خيرٌ مِن نُطق يُعقِبُكَ المَلامَةَ: (5865)

317.   जिस खामोशी के परिणाम में तुम्हारी सुरक्षा हो, वह उस बोलने से अच्छी है जिसके नतीजे में तुम्हें बुरा कहा जाये।

318. صِيامُ القَلب عَنِ الفِكرِ فِي الآثامِ أفضَلُ مِن صِيامِ البَطنِ عَنِ الطَّعامِ: (5873)

318.   दिल का रोज़ा, पेट के रोज़े से अच्छा है (अर्थात पेट को खाने से रोकने से अच्छा यह है कि दिल को गुनाह की फिक़्र से रोका जाये।

319. صَدرُ العاقِلِ صُندُوقُ سِرِّهِ: (5875)

319.   बुद्धिमान का सीना, उसके रहस्यों का सन्दूक होता है।

320. ضَرُوراتُ الاَحوالِ تُذِلُّ رِقابَ الرِّجالِ: (5892)

320.   आवश्यक्तायें, मर्दों की गर्दनों को झुका देती हैं।

321. ضادُّوا التَّوانِي بِالعَزمِ: (5927)

321.   आलस्य को दृढ़ संकल्प से खत्म करो।

322. طُوبى لِلمُنكَسِرَةِ قُلوبُهُم مِن أجلِ اللهِ: (5937)

322.   खुशी है उनके लिये जिनके दिल अल्लाह के लिये टूटे हैं।

323. طُوبى لِمَن خَلا مِنَ الغِلِّ صَدرُهُ وَسَلِمَ مِنَ الغِشِّ قَلبُهُ: (5941)

323.   खुशी है उनके लिये जिनके सीने किनः (ईर्ष्या) से ख़ाली और दिल धोखे बाज़ी से साफ़ हैं।

324. طُوبى لِمَنَ قَصَّرَ أمَلَهُ وَاغتَنَمَ مَهَلَهُ: (5948)

324.   खुशी है उनके लिये जो अपनी इच्छाओं को कम करते हैं और मोहलत (उम्र) को ग़नीमत मानते हैं।

325. طَلَبُ الجَنَّةِ بِلا عَمِل حُمقٌ: (5991)

325.   (अच्छे) कार्य किये बिना, जन्नत की चाहत मूर्खता है।

326. طَلَبُ الجَمعِ بَينَ الدُّنيا وَالآخِرَةِ مِن خِداعِ النَّفسِ: (5995)

326.   दुनिया और आख़ेरत दोनों को इकठ्ठा करने की चाहत आत्मा का एक धोखा है।

327. طَلَبُ المَراتِبِ وَالدَّرَجاتِ بِغَيرِ عَمَل جَهلٌ: (5997)

327.   (उचित) कार्यों के बिना ऊँचे स्थान की इच्छा, मूर्खता है।

328. طَريقَتُنا القَصدُ، وَسُنَّتُنا الرُّشدُ: (6008)

328.   हम अहले बैत का तरीक़ा मध्य क्रम को अपना और हमारी सुन्नत विकास करना है।

329. طَعنُ اللِّسانِ أمَضٌ مِن طَعنِ السِّنانِ: (6011)

329.   ज़बान का ज़ख्म, भाले के जख्म से अधिक दर्द दायक होता है।

330. طَهِّرُوا أنفُسَكُم مِن دَنَسِ الشَّهَواتِ تُدرِكُوا رَفيعَ الدَّرَجاتِ: (6020)

330.   अपनी आत्मा को हवस की गंदगी से पाक करो, ऊँचे दर्जे पाओ।

331. ظُلمُ الضَّعيفِ أفحَشُ الظُّلمِ: (6054)

331.   कमज़ोर पर ज़ुल्म करना, सब से बुरा ज़ुल्म है।

332. ظَلَمَ المَعروفَ مَن وَضَعَهُ فِي غَيرِ أهلِهِ: (6063)

332.   किसी अयोग्य के साथ भलाई करना, भलाई पर ज़ुल्म है।

333. ظُلمُ اليَتامى وَالاَيامى يُنزِلُ النِّقَمَ وَيَسلُبُ النِّعَمَ أهلَها: (6079)

333.   यतीमों और बेवा औरतों पर ज़ुल्म करने से विपत्तियाँ आती है और नेमत वालों से नेमतें छीन ली जाती हैं।



नौवां भाग
334. عَلَيكَ بِالاخِرَةِ تَأتِكَ الدُّنيا صاغِرَةً: (6080)

334.   आख़ेरत के लिये काम करो, ताकि दुनिया ज़लील हो कर तुम्हारे पास आये।

335. عَلَيكَ بِالسَّكينَةِ فَإنَّها أفضَلُ زينَة: (6088)

335.   गंभीरता के साथ रहो क्यों कि गंभीरता सब से अच्छी शोभा है।

336. عَلَيكَ بِالشُّكرِ فِي السَّرّاءِ وَالضَّرّاءِ: (6092)

336.   सुख दुख में अल्लाह का शुक्र करते रहो।

337. عَلَيكَ بِالبَشاشَةِ فَإنَّها حِبالَةُ المَوَدَّةِ: (6101)

337.   हँस मुख रहो, क्योंकि हँस मुखी दोस्ती का जाल है।

338. عَلَيكَ بِإخوانِ الصَّفاءِ فَإنَّهُم زينَةٌ فِي الرَّخاءِ وَعَونٌ فِي البَلاءِ: (6128)

338.   (बुराईयों से) पाक साफ़ भाईयों (दोस्तों) के साथ रहो, क्योंकि वह खुशियों में शोभा और विपत्तियों में सहायक होते हैं।

339. عَلى قَدرِ المَؤُنَةِ تَكُونُ مِنَ اللهِ المَعُونَةُ: (6172)

339.   जितना खर्च होता है, अल्लाह की तरफ़ से उतनी ही मदद मिलती है।

340. عَلَى التَّواخِي فِي اللهِ تَخلُصُ المَحَبَّةُ: (6191)

340.   अल्लाह के लिये भाई चारे का संबंध स्थापित करने से, निस्वार्थ मोहब्बत होती है।

341. عَلَى المُشيرِ الاِجتِهادُ فِي الرَّأيِ وَلَيسَ عَلَيهِ ضَمانُ النُّجحِ: (6194)

341.   मशवरा देने वाले का काम सही राय देने की कोशिश करना है, उस पर सफ़लता की ज़िम्मेदारी नहीं है।

342. عِندَ تَعاقُبِ الشّدائِدِ تَظهَرُ فَضائِلُ الإنسانِ: (6204)

342.   एक के बाद एक कठिनाई पड़ने की स्थिति में इन्सान के गुण व श्रेष्ठता प्रकट होती हैं।

343. عِندَ نُزُولِ الشَّدائِدِ يُجَرَّبُ حِفاظُ الإخوانِ: (6205)

343.   दोस्ती व भाई चारे की लाज रखने वालों की परख कठिनाई के समय होती है।

344. عِندَ بَديهَةِ المَقالِ تُختَبَرُ عُقُولُ الرِّجالِ: (6221)

344.   तुरंत बात कहने के समय मर्दों की बुद्धियों को परखा जाता है।

345. عِندَ حُضُورِ الشَّهَواتِ وَاللَّذّاتِ يَتَبَيَّنُ وَرَعُ الأتقِياءِ: (6224)

345.   पारसाओं की पारसाई, हवस और मज़े के समय प्रकट होती है।

346. عَوِّد نَفسَكَ السَّماحَ وَتَجَنُّبَ الإلحاحِ يَلزَمكَ الصَّلاحُ: (6235)

346.   अपने अन्दर दूसरों को चीज़ देने और ज़िद न करने की आदत डालो, तुम्हारे ऊपर सुधार व इस्लाह वाजिब है।

347. عادَةُ اللِّئامِ المُكافاةُ بِالقَبيحِ عَنِ الإحسانِ: (6238)

347.   नीच लोगों की आदत, अच्छाई का जवाब बुराई से देना है।

348. عَجِبتُ لِمَن يَرى أنَّهُ يَنقُصُ كُلَّ يَوم فِي نَفسِهِ وَعُمُرِهِ وَهُوَ لا يَتَأَهَّبُ لِلمَوتِ: (6253)

348.   मुझे आश्चर्य है उन लोगों पर जो देखते हैं कि हर दिन उनकी उम्र व जान कम हो रही है, परन्तु वह फिर भी मरने के लिये तैयार नहीं होते।

349. عَجِبتُ لِمَن يَحتَمِي الطَّعامَ لاِذيَّتِهِ كَيفَ لا يَحتَمِي الذَّنبَ لاِليمِ عُقُوبَتِهِ: (6254)

349.   मुझे आश्चर्य है उन लोगों पर जो बीमारी के डर से  (अनुचित चीज़ें) खाने पीने से बचते हैं, परन्तु दर्द दायक अज़ाब के डर से गुनाह से नहीं बचते !।

350. عَجِبتُ لِمَن يَرجُو فَضلَ مَن فَوقَهُ كَيفَ يَحرِمُ مَن دُونَهُ: (6285)

350.   मुझे आश्चर्य है उन लोगों पर जो अपने से ऊपर वाले लोगों से भलाई की अम्मीद रखते हैं, वह अपने से नीचे वालों को किस तरह वंचित करते हैं।

351. عِلمٌ بِلا عَمَل كَشَجَر بِلا ثَمَر: (6290)

351.   ज्ञान के अनुरूप कार्यों का न होना, बिना फल के  पेड़ के समान है।  अर्थात अगर ज्ञान के अनुरूप कार्य न हों तो ज्ञान का कोई लाभ नही है।

352. عَلِّمُوا صِبيانَكُم الصَّلاةَ وَخُذُوهُم بِها إذا بَلَغُوا الحُلُمَ: (6305)

352.   अपने बच्चों को नमाज़ सिखाओ और जब वह बालिग हो जायें तो उनसे नमाज़ के बारे में पूछ ताछ करो।

353. عَينُ المُحِبِّ عَمِيَّةٌ عَن مَعايِبِ المَحبُوبِ، وَأُذُنُهُ صَمَاءُ عَن قِبحِ مَساويهِ: (6314)

353.   आशिक की आँखें, माशूक की बुराईयों को नहीं देखतीं और उसके कान उसकी बुराई को नहीं सुनते।

354. عاص يُقِرُّ بِذَنبِهِ خَيرٌ مِن مُطيع يَفتَخِرُ بِعَمَلِهِ: (6334)

354.   अपने गुनाहों को स्वीकार करने वाला गुनहगार, उस आज्ञाकारी से अच्छा है जो अपने कार्यों पर गर्व करता है।

355. عامِل سائِرَ النّاسِ بِالإنصافِ وَعامِلِ المُؤمِنينَ بِالإيثارِ: (6342)

355.   समस्त लोगों के साथ न्याय पूर्वक व्यवहार करो  और मोमिनों से त्याग के साथ।

356. غايَةُ الخِيانَةِ خِيانَةُ الخِلِّ الوَدُودِ وَنَقضُ العُهُودِ: (6374)

356.   ग़द्दारी की अन्तिम सीमा, अपने पक्के दोस्त को धोखा देना और प्रतिज्ञा को तोड़ना है।

357. غَضُّ الطَّرفِ مِن أفضَلِ الوَرَعِ: (6400)

357.   सब से बड़ी पारसाई, स्वयं को बुरी नज़र से रोकना है।

358. غَيِّرُوا العاداتِ تَسهُل عَلَيكُمُ الطّاعاتُ: (6405)

358.   अपनी आदतों को बदलो ताकि आज्ञा पालन तुम्हारे लिये सरल हो जाये।

359. غَلَبَةُ الهَزلِ تُبطِلُ عَزيمَةَ الجِدِّ: (6416)

359.   हँसी मज़ाक़ की अधिकता, गंभीरता को खत्म कर देती है।





दसवां भाग
360. فِي تَصاريفِ الدُّنيَا اعتِبارٌ: (6453)

360.   दुनिया में होने वाले परिवर्तनों में शिक्षाएं (निहित) हैं।

361. فِي تَصاريفِ الأحوالِ تُعرَفُ جَواهِرُ الرِّجالِ: (6470)

361.   स्थितियों के बदलने पर मर्दों के जौहर पहचाने जाते हैं।

362. فِي الضِّيقِ يَتَبَيَّنُ حُسنُ مُواساةِ الرَّفيقِ: (6473)

362.   तंगी के समय, दोस्त की ओर से होने वाली सहायता का पता लगता है।

363. فِي لُزومِ الحَقِّ تَكونُ السَّعادَةُ: (6489)

363.   हक़ की पाबन्दी से खुशी नसीब होती है।

364. فِي المَواعِظِ جَلاءُ الصُّدُورِ: (6509)

364.   नसीहत से दिल चमकते हैं।

365. فازَ مَن أصلَحَ عَمَلَ يَومِهِ وَاستَدرَكَ فَوارِطَ أمسِهِ: (6540)

365.   जिसने अपने आज के कार्यों को सुधार कर, कल की ग़लतियों का बदला चुकाया, वह सफल हो गया।

366. فازَ مَن تَجَلبَبَ الوَفاءَ وَادَّرَعَ الأمانَةَ: (6556)

366.   जिसने वफ़ादारी का वेश धारण किया और अमानत का कवच पहना, वह सफल हो गया। अर्थात जिसने वफादारी और अमानतदारी को अपनाया वह सफल हो गया।

367. فَضِيلَةُ السُّلطانِ عِمارَةُ البُلدانِ: (6562)

367.   बादशाह की श्रेष्ठता शहरों को आबाद करने में है।

368. قَد جَهِلَ مَنِ استَنصَحَ أعداءَهُ: (6663)

368.   जिसने अपने दुशमनों से नसीहत चाही उसने मूर्खता की।

369. قَد تُورِثُ اللَّجاجَةُ ما لَيسَ لِلمرَءِ إِلَيهِ حاجَةٌ: (6680)

369.   कभी कभी इंसान को ज़िद के नतीजे में वह मिलता है, जिसकी उसे ज़रूरत नही होती।

370. قَد كَثُرَ القَبيحُ حَتّى قَلَّ الحَياءُ مِنهُ: (6710)

370.   बुराईयाँ इतनी फैल गईं हैं कि अब बुराईयों से शर्म कम हो गई है।

371. قَليلٌ تَدُومُ عَلَيهِ خَيرٌ مِن كَثير مَملُول: (6740)

371.   निरन्तर चलते रहने वाला कम कार्य, उस अधिक कार्य से अच्छा है, जिससे तुम उकता जाओ।

372. قَدرُ الرَّجُلِ عَلى قَدرِ هِمَّتِهِ، وَعَمَلُهُ عَلى قَدرِ نِيَّتِهِ: (6743)

372.   आदमी का महत्व उसकी हिम्मत के अनुरूप होता है और उसके कार्यों का महत्व उसकी नीयत के अनुसार होता है।

373. قَولُ «لا اَعلَمُ» نِصفُ العِلمِ: (6758)

373.   यह कहना कि "मैं नही जानता हूँ।" स्वयं आधा ज्ञान है।

374. قارِن أهلَ الخَيرِ تَكُن مِنهُم، وَبايِن أهلَ الشَّرِّ تَبِن عَنهُم: (6805)

374.   अच्छे लोगों से मिलो ताकि तुम भी उन्हीं जैसे बन जाओ और बुरे लोगों से दूर रहो ताकि उनसे अलग रह सको।

375. قِوامُ العَيشِ حُسنُ التَّقديرِ وَمِلاكُهُ حُسنُ التَّدبيرِ: (6807)

375.   जीवन अच्छी योजना से आरामदायक बनता है और उसे अच्छे प्रबंधन से प्राप्त किया जा सकता है।



ग्यारहवां भाग
376. كُلُّ ذي رُتبَة سَنِيَّة مَحسودٌ: (6862)

376.   हर ऊँचे पद (मान सम्मान) वाले से ईर्ष्या की जाती है।

377. كُلُّ امرِء يَميلُ إلى مِثلِهِ: (6865)

377.   हर इंसान अपने जैसे इंसान की तरफ़ झुकता है।

378. كُلُّ داء يُداوى اِلاّ سُوءَ الخُلقِ: (6880)

378.   बद अख़लाक़ी (दुष्टता) के अतिरिक्त हर बीमारी का इलाज है।

379. كُلُّ شَيء   يَنقُصُ عَلَى الإنفاقِ إلاَّ العِلمَ: (6888)

379.   ज्ञान के अलावा हर चीज़ ख़र्च करने से कम होती है।

380. كُلُّ شَيء لا يُحسُنُ نَشرُهُ أمانَةٌ وَإن لَم يُستَكتَم: (6897)

380.   जिस चीज़ का प्रचार करना सही न हो, वह अमानत है, चाहे उसके छिपाने का आग्रह भी न किया गया हो।

381. كَم مِن صَعب تَسَهَّلَ بِالرِّفقِ: (6946)

381.   बहुत सी कठिनाईयाँ प्यार मोहब्बत से हल हो जाती हैं।

382. كَم مِن مُسَوِّف بِالعَمَلِ حَتّى هَجَمَ عَلَيهِ الأجَلُ: (6954)

382.   ऐसे बहुत से लोग हैं जो काम करने में आज कल करते रहते हैं, यहाँ तक कि उन पर मौत हमला कर देती है।

383. كَيفَ تَصفُو فِكرَةُ مَن يَستَديِمُ الشِّبَعَ؟!: (6975)

383.   उसके विचार किस तरह साफ़ हो सकते हैं, जिसका पेट हमेशा भरा रहता हो?!

384. كَيفَ يُفرَحُ بِعُمر تَنقُصُهُ السّاعات؟!: (6983)

384.   उस उम्र से किस तरह खुशी मिल सकती है, जिसमें हर पल कमी होती रहती है?

385. كَيفَ يَجِدُ لَذَّةَ العِبادَةِ مَن لا يَصُومُ عَنِ الهَوى؟!: (6985)

385.   वह इबादत का मज़ा कैसे चख सकता है जो स्वयं को हवस से न रोक सकता हो?!

386. كَيفَ يُصلِحُ غَيرَهُ مَن لا يُصلِحُ نَفسَهُ؟!: (6995)

386.   वह दूसरों को कैसे सुधार सकता है, जिसने स्वयं को न सुधारा हो ?!

387. كَيفَ يَدَّعِي حُبَّ اللهِ مَن سَكَنَ قَلبَهُ حُبُّ الدُّنيا؟!: (7002)

387.   वह अल्लाह से मोहब्बत का दावा कैसे कर सकता है, जिसके दिल में दुनिया की मोहब्बत बस गई हो?!

388. كَفى بِالشَّيبِ نَذيِراً: (7019)

388.   डरने के लिए, बालों का सफ़ेद होना काफ़ी है।

389. كَفى بِالمَرءِ فَضيلَةً أن يُنَقِّصَ نَفسَهُ: (7039)

389.   आदमी की श्रेषठता के लिए यही काफ़ी है कि स्वयं को अपूर्ण माने।

390. كَفى بِالمرء كَيِّساً أن يَعرِفَ مَعايِبَهُ: (7040)

390.   आदमी की होशिआरी के लिए यही काफ़ी है कि वह अपनी बुराइयों को जानता हो।

391. كَفى بِالمَرءِ جَهلاً أن يَضحَكَ مِن غَيرِ عَجَب: (7051)

391.   आदमी की मूर्खता के लिए बेमौक़े हँसना काफ़ी है।

392. كَفى مُخبِراً عَمّا بَقِيَ مِنَ الدُّنيا ما مَضى مِنها:(7057)

392.   जो (लोग) दुनिया में बच गये हैं, उनकी जानकारी के लिए वह काफ़ी हैं जो दुनियाँ से चले गये हैं।

393. كَفى بِالمَرئِ غَفلَةً أن يَصرِفَ هِمَّتَهُ فيما لا يَعنيهِ: (7074)

393.   आदमी की लापरवाही के लिए यही काफ़ी है कि वह अपनी ताक़त को काम में न आने वाली चीज़ों में व्यय कर दे।

394. كَفاكَ مُؤَدِّباً لِنَفسِكَ تَجَنُّبُ ما كَرِهتَهُ مِن غَيرِكَ: (7077)

394.   स्वयं को शिष्टाचारी बनाने के लिए यह काफ़ी है कि दूसरों की जो बातें पसंद न आयें, उनसे स्वयं भी दूर रहे।

395. كَثرَةُ المُزاحِ تُسقِطُ الهَيبَةَ: (7101)

395.   अधिक मज़ाक़, रौब को ख़त्म कर देता है।

396. كَثرَةُ الغَضَبِ تُزرِي بِصاحِبِهِ وَتُبدِي مَعايِبَهُ: (7107)

396.   अधिक क्रोध, क्रोधी को अपमानित करा देता है और उसकी बुराइयों को प्रकट कर देता है।

397. كُن سَمِحاً وَلا تَكُن مُبَذِّراً: (7138)

397.   दानी बनो, लेकिन व्यर्थ ख़र्च करने वाले न बनो।

398. كُن مَشغُولاً بِما أنتَ عَنهُ مَسئُولٌ: (7143)

398.   तुम उस काम में व्यस्त रहो जिसके बारे में तुम से पूछ ताछ की जायेगी।

399. كُن لِلمَظلذومِ عَوناً، وَلِلظّالِمِ خَصماً: (7153)

399.   पीड़ित के सहायक और अत्याचारी के दुश्मन बनो।

400. كُن بَعيدَ الهِمَمِ إذا طَلَبتَ، كَريمَ الظَّفَرِ إذا غَلَبتَ: (7161)

400.   जब किसी चीज़ को प्राप्त करना चाहो तो उच्च हिम्मत से काम करो और जब किसी चीज़ पर अधिपत्य जमा लो तो अपनी सफला में महानता का परिचय दो।

401. كُن بِأسرارِكَ بَخيلاً، وَلا تُذِع سِرّاً اُودِعتَهُ فَإنَّ الإذاعَةَ خِيانَةٌ: (7175)

401.   अपने रहस्यों के बारे में कँजूस बन जाओ (अर्थात किसी को न बताओ) और अगर कोई तुम्हें अपना राज़ बता दे तो उसके राज़ को न खोलो, क्योंकि किसी के राज़ को खोलना, ग़द्दारी है।

402. كُلَّما كَثُرَ خُزّانُ الأسرارِ كَثُرَ ضِياعُها: (7197)

402.   जितने राज़दार बढ़ते जायेंगे, उतने ही राज़ खुलते  जायेंगे।

403. كَما تَدينُ تُدانُ: (7208)

403.   जिसे तुम कर्ज़ दोगे वह तुम्हें कर्ज़ देगा।

404. كَما تَزرَعُ تَحصُدُ: (7215)

404.   जैसा बोओगे, वैसा काटोगे।

405. كُفرانُ النِّعَمِ يُزِلُّ القَدَمَ وَيَسلُبُ النِّعَمَ: (7239)

405.   नेमत की नाशुक्री पैरों को लड़ खड़ा देती है और नेमत को रोक देती है।

406. لِكُلِّ ضَيق مَخرَجٌ: (7266)

406.   हर तंग जगह से बाहर निकलने का रास्ता है।

407. لِكُلِّ مَقامِ مَقالٌ: (7293)

407.   हर जगह के लिए एक बात है।

408. لِكُلِّ شَيء زَكاةٌ وَزَكاةُ العَقلِ احتِمالُ الجُهّالِ: (7301)

408.   हर चीज़ के लिए एक ज़कात है और बुद्धी की ज़कात मूर्ख लोगों को बर्दाश्त करना है।

409. لِطالِبِ العِلمِ عِزُّ الدُّنيا وَفَوزُ الآخِرَةِ: (7349)

409.   तालिबे इल्म (शिक्षार्थी) के लिए दुनिया में सम्मान और आख़ेरत में सफलता है।

410. لِلمُؤمِنِ ثَلاثُ ساعات: ساعَةٌ يُناجي فيها رَبَّهُ وَساعَةٌ يُحاسِبُ فِيها نَفسَهُ، وَساعَةٌ يُخَلِّي بَينَ نَفسِهِ وَلَذَّتِها فِيما يَحِلُّ وَيَجمُلُ: (7370)

410.   मोमिन के लिए तीन वक़्त हैं: एक वक़्त वह जिसमें अल्लाह की इबादत करता है, दूसरा वक़्त वह जिसमें (अपने कार्यों का) हिसाब करता है, तीसरा वक़्त वह जिसमें वह हलाल व अच्छी लज़्ज़तो का आनंनद लेता है।

411. لِيَكُن أبغَضُ النّاسِ إلَيكَ وَأبعَدُهُم مِنكَ أطلَبَهُم لِمَعايِبِ النّاسِ: (7378)

411.   तुम्हें सबसे ज़्यादा क्रोध उस इंसान पर करना चाहिए, और सबसे ज़्यादा दूर उस इंसान से रहना चाहिए, जो लोगों की बुराईयों की तलाश में अधिक रहता हो।

412. لَن يَفُوزَ بِالجَنَّةِ إلاَّ السّاعِي لَها: (7404)

412.   जन्नत में उन लोगों के अलावा कोई नही जायेगा जो उसमें जाने के लिए कोशिश करते हैं।

413. لَن يُجدِيَ القَولُ حَتّى يَتَّصِلَ بِالفِعلِ: (7413)

413.   किसी भी बात का उस समय तक फ़ायदा नही है, जब तक उसके अनुसार कार्य न किया जाये।

414. لَن تُدرِكَ الكَمالَ حَتّى تَرقى عَنِ النَّقصِ: (7423)

414.   तुम उस समय तक कमाल पर नही पहुँच सकते, जब तक (अपनी) कमियों को दूर न कर लो।

415. لَيسَ مَعَ قَطيعَةِ الرَّحِمِ نَماءٌ: (7455)

415.   क़त- ए- रहम (संबंधियों से नाता तोड़ना) के साथ विकास नही है।

416. لَيسَ لاِنفُسِكُم ثَمَنٌ إلاَّ الجَنَّةُ فَلا تَبيعُوها إلاّ بِها: (7492)

416.   तुम्हारी जान की क़ीमत जन्नत के अलावा कुछ नही है, इस लिए तुम उसे जन्नत के अलावा किसी चीज़ के बदले में न बेंचो।

417. لَيسَ مِنَ العَدلِ القَضاءُ عَلَى الثِّقَةِ بِالظَّنِّ: (7500)

417.   अमानतदार, इंसान के बारे में किसी आशंका के आधार पर कोई फैसला करना न्यायपूर्वक नही है।

418. لَيسَ لَكَ بِأخ مَنِ احتَجتَ إلى مُداراتِهِ: (7503)

418.   वह तुम्हारा भाई नही है, जिसके प्रेम पूर्वक व्यवहार की तुम्हें ज़रूरत हो।

419. لَيسَ لَكَ بِأخ مَن أحوَجَكَ إلى حاكِم بَينَكَ وَبَينَهُ: (7505)

419.   वह तुम्हारा भाई नही है जो तुम्हें अपने व तुम्हारे बीच फ़ैसले के लिए (किसी तीसरे फ़ैसला करने वाले का) मोहताज बना दे।

420. لَيسَ لِلعاقِلِ أن يَكُونَ شاخِصاً إلاّ فِي ثَلاث: خُطوَة في مَعاد، أو مَرَمَّةِ لِمَعاش أو لَذَّة في غَيرِ مُحَرَّم: (7524)

420.   बुद्धिमान के लिए शौभनीय नही है कि वह निम्न- लिखित तीन कामों के अतिरिक्त कोई अन्य काम करे: क़ियामत के लिए काम करना, जीविका कमाना और हलाल तरीक़े से मज़ा लेना।

421. لَم يَعقِل مَواعِظَ الزَّمانِ مَن سَكَنَ إلى حُسنِ الظَّنِّ بِالأيّامِ: (7549)

421.   जो समय के बारे में ख़ुश गुमान रहता है उस आदमी को ज़माने की शक्षाएं व नसीहतें बुद्धिमान नही बना सकती हैं।

422. لَم يَعقِل مَن وَلِهَ بِاللَّعِبِ وَاستُهتِرَ بِاللَّهوِ وَالطَّرَبِ: (7568)

422.   जो खेल कूद, नाच गाने और व्यर्थ बातों का आशिक़ बन जाये, वह बुद्धिमान नही है

423. لَوِ اعتَبَرتَ بِما أضَعتَ مِن ماضِي عُمرِكَ لَحَفِظتَ ما بَقِيَ: (7589)

423.   अगर तुम अपनी व्यर्थ बीती हुई उम्र से शिक्षा लो तो शेष उम्र की रक्षा करो।

424. لَو يَعلَمُ المُصَلّي ما يَغشاهُ مِنَ الرَّحمَةِ لَما رَفَعَ رَأسَهُ مِنَ السُّجُودِ: (7592)

424.   अगर नमाज़ पढ़ने वाला यह जान जाये कि उसे कौनसी रहमत (अनुकम्पा) घेरे हुए है तो वह सजदे से सर न उठाये।

425. لَو بَقِيَتِ الدُّنيا عَلى أحَدِكُم لَم تَصِل إلى مَن هِيَ فِي يَدَيهِ: (7608)

425.   अगर दुनिया तुम में से किसी एक के पास बाक़ी रहती तो जिसके पास आज है, उसके पास कभी न पहुँचती।

426. لِيَكُن مَركَبُكَ القَصدَ وَمَطلَبُكَ الرُّشدَ: (7619)

426.   मध्य चाल के घोड़े पर सवार होकर अपने विकास की ओर बढ़ो।  अर्थात अपने ख़र्च को सीमित करो न अधिक ख़र्च करो और न बहुत कम।

427. لِن لِمَن غالَظَكَ فَإنَّهُ يُوشِكُ اَن يَلينَ لَكَ: (7620)

427.   जो तुम्हारे साथ सख़्ती करे, तुम उसके साथ नर्मी करो, वह भी तुम्हारे लिए नर्म हो जायेगा।

428. لِقاءُ أهلِ المَعرِفَةِ عِمارَةُ القُلُوبِ وَمُستَفادُ الحِكمَةِ: (7635)

428.   अहले मारेफ़त (आध्यात्मिक लोग) से मिलने जुलने पर दिल खुश होता है और हिकमत (बुद्धी) बढ़ती है।

429. لَذَّةُ الكِرامِ فِي الإطعامِ، وَلَذَّةُ اللِّئامِ فِي الطَّعامِ: (7638)

429.   करीम (श्रेष्ठ) लोगों को खिलाने में मज़ा आता है और नीच लोगों को खाने में मज़ा आता है।





बारहवां भाग
430. مَن أنصَفَ أُنصِفَ: (7692)

430.   जो इंसाफ़ करता है, उसके साथ इंसाफ़ होता है।

431. مَن أحسَنَ المَسأَلَةَ أُسعِفَ: (7693)

431.   जो अच्छे ढंग से माँगता है, उसे मिलता है।

432. مَن مَدَحَكَ فَقَد ذَبَحَكَ: (7766)

432.   जिसने तुम्हारी प्रशंसा की, उसने तुम्हें क़त्ल कर दिया।

433. مَن دَخَلَ مَداخِلَ السُّوءِ اتُّهِمَ: (7778)

433.   जो बुरी जगह जाता है, उस पर आरोप लगते हैं।

434. مَن نَسِيَ اللهَ أنساهُ نَفسَهُ: (7797)

434.   जो अल्लाह को भूल जाता है, अल्लाह उसे ख़ुद उससे भुला देता है।

435. مَن أساءَ خُلقَهُ عَذَّبَ نَفسَهُ: (7798)

435.   जो स्वयं को दुष्ट बना लेता है, वह कठिनाईयाँ झेलता है।

436. مَن عَجِلَ كَثُرَ عِثارُهُ: (7838)

436.   जो जल्दी करता है, उसकी ग़लतियाँ अधिक होती हैं।

437. مَن أحَبَّ شَيئاً لِهِجَ بِذِكرِهِ: (7851)

437.   जो जिस चीज़ से मोहब्बत करता, उसकी ज़बान पर उसका नाम रहता है।

438. مَن قَبَضَ يَدَهُ مَخافَةَ الفَقرِ فَقَد تَعَجَّلَ الفَقرَ: (7877)

438.   जो निर्धनता के डर से अपने हाथ को (दान देने से) रोक ले, समझो वह तेज़ी के साथ निर्धनता की ओर बढ़ रहा है।

439. مَن نَظَرَ فِي العَواقِبِ سَلِمَ: (7921)

439.   जो (किसी काम के) परिणाम पर विचार करता है, वह सुरक्षित रहता है।

440. مَن جَهِلَ مَوضِعَ قَدَمِهِ زَلَّ: (7920)

440.   जो अपने रास्ते को न जानता हो, वह भटक जाता है।

441. مَن وَعَظَكَ أحسَنَ إلَيكَ: (7924)

441.   जिसने तुम्हें नसीहत की, उसने तुम्हारे साथ भलाई की।

442. مَن وافَقَ هَواهُ خالَفَ رُشدَهُ: (7957)

442.   जिसने अपनी इच्छाओं का समर्थन किया, उसने अपने विकास को अवरुद्ध किया।

443. مَن أحسَنَ إلى جِيرانِهِ كَثُرَ خَدَمُهُ: (7967)

443.   जो अपने पड़ौसियों के साथ भलाई करता है, उसके सेवक ज़्यादा हो जाते हैं।

444. مَن أظهَرَ عَزمَهُ بَطَلَ حَزمُهُ: (7980)

444.   जो अपने इरादे को प्रकट कर देता है, उसकी दूरदर्शिता समाप्त हो जाती है।

445. مَن غَشَّ نَفسَهُ لَم يَنصَح غَيرَهُ: (8008)

445.   जो स्वयं को धोखा देता है, वह दूसरों को नसीहत नही कर सकता।

446. مَن عُرِفَ بِالكِذبِ لَم يُقبَل صِدقُهُ: (8010)

446.   जो झूठा मशहूर हो जाता है, उसकी सच्ची बात भी स्वीकार नही की जाती।

447. مَن أعمَلَ اجتِهادَهُ بَلَغَ مُرادَهُ: (8058)

447.   जो कोशिश व मेहनत करता है, वह अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है।

448. مَن ظَنَّ بِكَ خَيراً فَصَدِّق ظَنَّهُ: (8066)

448.   जो तुम्हारे बारे में अच्छा विचार रखता है, (तुम अपने व्यवहार से) उसके विचार को सत्य कर दिखाओ।

449. مَن رَجاكَ فَلا تُخَيِّب أمَلَهُ: (8067)

449.   जो तुम से कोई उम्मीद रखता हो, उसे ना उम्मीद  न करो।

450. مَن عَلِمَ أنَّهُ مُؤاخَذٌ بِقَولِهِ فَليُقَصِّر فِي المَقالِ: (8124)

450.   जिसे यह पता हो कि उससे उसकी बात चीत के बारे में पूछ ताछ की जायेगी,  उसे कम बोलना चाहिए।

451. مَن خَلا بِالعِلمِ لَم تُوحِشهُ خَلوَةٌ: (8125)

451.   जो ज्ञान के साथ रहता है, उसे कोई तन्हाई नही डरा सकती।

452. مَن تَسَلَّى بِالكُتُبِ لَم تَفُتهُ سَلَوةٌ: (8126)

452.   जिसे किताबों से आराम मिलता है, समझो उसने आराम का कोई साधन नही खोया है।

453. مَن أُعطِىَ الدُّعاءَ لَم يُحرَمِ الإجِابَةَ: (8143)

453.   जिसे दुआ की तौफ़ीक़ दी जाती है, उसे दुआ के क़बूल होने से महरूम (वंचित) नही रखा जाता।

454. مَن جانَبَ الإخوانَ عَلى كُلِّ ذَنبِ قَلَّ أصدِقاؤُهُ: (8166)

454.   जो अपने दोस्तों से, उनकी ग़लतियों की वजह से अलग हो जाता है, उसके दोस्त कम हो जाते हैं।

455. مَن أبانَ لَكَ عَيبَكَ فَهُوَ وَدُودُكَ: (8210)

455.   जो तुम्हें, तुम्हारी बुराइयों के बारे में बताये, वह तुम्हारा दोस्त है।

456. مَن عَرَفَ النّاسَ لَم يَعتَمِد عَلَيهِم: (8232)

456.   जो लोगों को जान जाता है, उन पर भरोसा नहीं करता।

457. مَن سَألَ فِي صِغَرِهِ أجابَ فِي كِبَرِهِ: (8273)

457.   जो बचपन में पूछता है, वह बड़े होकर जवाब देता है। अर्थात जो बचपन में ज्ञान प्राप्त करता है, वह बड़ा होने पर लोगों के प्रश्नों के उत्तर देता है।

458. مَن قَرَعَ بابَ اللهِ فُتِحَ لَهُ: (8292)

458.   जो अल्लाह के दरवाज़े को खटखटाता है, उसके लिए दरवाज़ा खुल जाता है।

459. مَن شَرُفَت هِمَّتُهُ عَظُمَت قِيمَتُهُ: (8320)

459.   जिसमें जितनी अधिक हिम्मत होती है, उसका उतना ही अधिक महत्व होता है।

460. مَن أطاعَ هَواهُ باعَ آخِرَتَهُ بِدُنياهُ: (8354)

460.   जिसने अपनी हवस व इच्छाओं का अनुसरण किया, उसने अपनी आख़ेरत को दुनिया के बदले बेंच दिया।

461. مَن حُسُنَت عِشرَتُهُ كَثُرَ إخوانُهُ: (8392)

461.   जिसका व्यवहार अच्छा होता है, उसके भाई (दोस्त) अधिक होते हैं।

462. مَنِ اتَّجَرَ بِغَيرِ عِلم فَقَدِ ارتَطَمَ فِي الرِّبا: (8401)

462.   जो ज्ञान (फ़िक़्ह) को जाने बिना व्यापार करता है, वह सूद में डूब जाता है।

463. مَن قالَ مالا يَنبَغي سَمِعَ مالا يَشتَهِي: (8417)

463.   जो अनुचित बात कहता है, वह बुरी भली सुनता है।

464. مَن كَظَّتهُ البِطنَةُ حَجَبَتهُ عَنِ الفِطنَةِ: (8459)

464.   जो अधिक खाने के दुख में घिर जाता है, वह बुद्धिमत्ता से दूर रह जाता है।

465. مَن دارَى النّاسَ أمِنَ مَكرَهُم: (8465)

465.   जो लोगों का मान सम्मान करता है, वह उनकी धोखे धड़ी से सुरक्षित रहता है।

466. مَن أحَبَّنا فَليَعمَل بِعَمَلِنا وَليَتَجَلبَبِ الوَرَعَ: (8483)

466.   जो हम (अहलेबैत) से मोहब्बत करता है, उसे चाहिए कि वह हमारी तरह व्यवहार करे और मुत्तक़ी बन जाये।

467. مَن طَلَبَ شَيئاً نالَهُ أو بَعضَهُ: (8490)

467.   जो किसी चीज़ को चाहता है, वह उसे पूर्ण रूप से या उसके कुछ हिस्से को प्राप्त कर लेता है।

468. مَن يَطلُبِ الهِدايَةَ مِن غَيرِ أهلِها يَضِلُّ: (8501)

468.   जो किसी अयोग्य व्यक्ति से मार्गदर्शन चाहता है, वह भटक जाता है।

469. مَن جالَسَ الجُهّالَ فَليَستَعِدَّ لِلقيلِ وَالقالِ: (8505)

469.   मूर्खों के साथ उठने बैठने लाले को, व्यर्थ की बातें सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए।

470. مَن رَقى دَرَجاتِ الهِمَمِ عَظَّمَتهُ الأُمَمُ: (8526)

470.   जो हिम्मत के द्वारा उन्नति करता है, लोग उसे बड़ा मानते हैं।

471. مَن كَشَفَ ضُرَّهُ لِلنّاسِ عَذَّبَ نَفسَهُ: (8542)

471.   जिसने अपनी कठिनाई को लोगों पर प्रकट कर दिया, उसने स्वयं को अज़ाब में डाल लिया।

472. مَن أظهَرَ فَقرَهُ أذَلَّ قَدرَهُ: (8555)

472.   जिसने अपनी निर्धनता को दूसरों के सामने प्रकट कर दिया, उसने अपना महत्व घटा लिया।

473. مَن كَثُرَ فِكرُهُ فِي المَعاصِيَ دَعَتهُ إلَيها: (8561)

473.   जो गुनाहों के बारे में अधिक विचार करता है, उसे गुनाह अपनी तरफ़ खीँच लेते हैं।

474. مَنِ استَنكَفَ مِن أبَوَيهِ فَقَد خالَفَ الرُّشدَ: (8623)

474.   जिसने घमंड के कारण अपने माँ बाप की अवज्ञा की, उसने अपने विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया।

475. مَن بَخِلَ عَلى نَفسِهِ كانَ عَلى غَيرِهِ أبخَلَ: (8625)

475.   जो स्वयं अपने बारे में कंजूसी करता है, वह दूसरों के बारे में अधिक कंजूसी करता है।

476. مَن ظَلَمَ العِبادَ كانَ اللهُ خَصمَهُ: (8637)

476.   जो अल्लाह के बंदों पर अत्याचार करता है, अल्लाह उसका दुश्मन है।

477. مَن أسرَعَ فِي الجَوابِ لَم يُدرِكِ الصَّوابَ: (8640)

477.   जो जवाब देने में जल्दी करता है, वह सही जवाब नही दे पाता।

478. مَن عَمِلَ بِالحَقِّ مالَ إلَيهِ الخَلقُ: (8646)

478.   जो हक़ (सच्चाई) के साथ काम करता है, लोग उसकी तरफ़ झुकते हैं।

479. مَن مَدَحَكَ بِما لَيسَ فيكَ فَهُوَ خَليقٌ أن يَذُمَّكَ بِما لَيسَ فِيكَ: (8658)

479.   जो तुम्हारी उस बारे में प्रशंसा करे जो बात तुम्हारे अन्दर नहीं पाई जाती है, उसे अधिकार है कि वह तुम्हारी उस बारे में बुराई भी करे जो तुम्हारे अन्दर नही पाई जाती है।

480. مَن كافَأَ الإحسانَ بِالإساءَةِ فَقَد بَرِيءَ مِنَ المُرُوَّةِ: (8674)

480.   जो भलाई का बदला बुराई से देता है, उसमें मर्दानगी नही पाई जाती।

481. مَن كَرُمَت عَلَيهِ نَفسُهُ لَم يُهِنها بِالمَعصِيَةِ: (8730)

481.   जो इज़्ज़तदार होता है, वह स्वयं को गुनाहों के द्वारा अपमानित नही करता।

482. مَن ضَعُفَ عَن سِرِّهِ فَهُوَ عَن سِرِّ غَيرِهِ أضعَفُ: (8757)

482.   जो अपने राज़ छिपाने में कमज़ोर होता है, वह दूसरों के राज़ को छिपाने में अधिक कमज़ोर होता है।

483. مَن أسهَرَ عَينَ فِكرَتِهِ بَلَغَ كُنهَ هِمَّتِهِ: (8784)

483.   जो अपने विचार की आँखों को खुला रखता है, वह अपने उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है।

484. مَن تَطَلَّعَ عَلى أسرارِ جارِهِ انهَتَكَت أستارُهُ: (8798)

484.   जो अपने पड़ोसी के रहस्यों को जानने की कोशिश करता है, उसका पर्दा फट जाता है, अर्थात उसके स्वयं के राज़ खुल जाते हैं।

485. مَن كَثُرَ في لَيلِهِ نَومُهُ فاتَهُ مِنَ العَمَلِ مالا يَستَدرِكُهُ في يَومِهِ: (8827)

485.   जो रात में अधिक सोता है, उसके कुछ ऐसे काम छुट जाते हैं, जिन्हें वह दिन में पूरा नही कर सकता।

486. مَن كانَت هِمَّتُهُ ما يَدخُلُ بَطنَهُ كانَت قيمَتُهُ ما يَخرُجُ مِنهُ: (8830)

486.   जिस इंसान की पूरी ताक़त उस चीज़ में ख़र्च होती है, जो उसके पेट में जाती है, उसका महत्व उस चीज़ के बराबर है जो पेट से बाहर निकलती है।

487. مَن أصلَحَ أمرَ آخِرَتِهِ أصلَحَ اللهُ لَهُ أمرَ دُنياهُ: (8857)

487.   जो अपने आख़ेरत के कामों को सुधारता है, अल्लाह उसके दुनिया के कामों को सुधार देता है।

488. مَن يَكتَسِب مالاً مِن غَيرِ حِلِّهِ يَصرِفهُ في غَيرِ حَقَّهِ: (8883)

488.   जो हराम तरीक़े से माल कमाता है, वह उसे ग़लत कामों में ख़र्च करता है।

489. مَنِ استَعانَ بِذَوِي الألبابِ سَلَكَ سَبيلَ الرَّشادِ: (8912)

489.   जो बुद्धिमान लोगों से सहायता माँगता है, वह उन्नती के मार्ग पर चलता है।

490. مَن لَم يَتَعَلَّم فِي الصِّغَرِ لَم يَتَقَدَّم فِي الكِبَرِ: (8937)

490.   जो बचपन में नही पढ़ता, वह बड़ा होने पर आगे नही बढ़ता।

491. مَن لَم تَسكُنِ الرَّحمَةُ قَلبَهُ قَلَّ لِقاؤُها لَهُ عِندَ حاجَتِهِ: (8974)

491.   जिसके दिल में मुहब्बत नही होती, उसके पास ज़रूरत के वक़्त कम लोग आते हैं।

492. مَن طَلَبَ رِضَى اللهِ بِسَخَطِ النّاسِ رَدَّ اللهُ ذامَّهُ مِنَ النّاسِ حامِداً: (9035)

492.   जो लोगों की नाराज़गी के साथ भी अल्लाह की खुशी चाहता है, अल्लाह बुराई करने वाले लोगों को भी उसका प्रशंसक बना देता है।

493. مَنِ اقتَصَدَ فِي الغِنى وَالفَقرِ فَقَدِ استَعَدَّ لِنَوائِبِ الدَّهرِ: (9048)

493.   जो मालदारी व ग़रीबी दोनों में मध्य मार्ग को अपनाता है, वह सांसारिक कठिनाईयों का सामना करने के लिए तैयार रहता है।

494. مَنِ افتَخَرَ بِالتَّبذيرِ احتُقِرَ بِالإفلاسِ: (9057)

494.   जो व्यर्थ ख़र्च पर गर्व करता है, वह निर्धनता के हाथों अपमानित होता है।

495. مَن دَنَت هِمَّتُهُ فَلا تَصحَبهُ: (9086)

495.   कम हिम्मत लोगों के साथी न बनों।

496. مَن هانَت عَلَيهِ نَفسُهُ فَلا تَرجُ خَيرَهُ: (9087)

496.   जो स्वयं को ज़लील समझता हो, उससे किसी भलाई की उम्मीद न रखो।

497. مَن نَقَلَ إلَيكَ نَقَلَ عَنكَ: (9133)

497.   जो दूसरों की बातें तुम्हें बताता है, वह तुम्हारी बातें दूसरों को बताता है।

498. مَن بَرَّ والِدَيهِ بَرَّهُ وَلَدُهُ: (9145)

498.   जो अपने माँ बाप के साथ भलाई करता है, उसकी संतान उसके साथ भलाई करती है।

499. مَن لَم يَتَغافَل وَلا يَغُضَّ عَن كَثير مِنَ الأُمُورِ تَنَغَّصَت عِيشَتُهُ: (9149)

499.   जो बहुत से कार्यों से अचेत न बने और बहुत से कार्यों को अनदेखा न करे उसकी ज़िन्दगी अंधेरी हो जाती है।

500. مَن شَبَّ نارَ الفِتنَةِ كانَ وَقُوداً لَها: (9163)

500.   जो उपद्रव की आग भड़काता है, वह स्वयं उसका ईंधन बनता है।

501. مَنِ ادَّعى مِنَ العِلمِ غايَتَهُ فَقَد أظهَرَ مِن جَهلِهِ نِهايَتَهُ: (9193)

501.   जिसने यह दावा किया कि मैं ज्ञान की अंतिम सीमा तक पहुंच गया हूँ, उसने अपनी मूर्खता की अंतिम सीमा को प्रकट कर दिया।

502. مِن شَرائِطِ الإيمانِ حُسنُ مُصاحَبَةِ الإخوانِ: (9282)

502.   ईमान की शर्तों में से एक शर्त भईयों के साथ सद्व्यवहार भी है।

503. مِن أحسَنِ الفَضلِ قَبُولُ عُذرِ الجانِي: (9294)

503.   उच्च श्रेष्ठताओं में से एक श्रेष्ठता ग़लती करने वाले की मजबूरी को स्वीकार करना भी है।

504. مِن أشرَفِ أفعالِ الكَريمِ تَغافُلُهُ عَمّا يَعلَمُ: (9321)

504.   करीम इंसान के श्रेष्ठ कार्यों में से एक काम किसी बात को जानते हुए उसे अनदेखा करना है।

505. مِن أماراتِ الخَيرِ الكَفُّ عَنِ الأذى: (9330)

505.   (लोगों को) पीड़ा पहुँचाने से दूर रहना, नेकी व भलाई की एक निशानी है।

506. مِن أماراتِ الدَّولَةِ اليَقَظَةُ لِحِراسَةِ الأُمُورِ: (9360)

506.   हुकूमत की (मज़बूती) की एक निशानी, कामों की देख रेख के लिए जागना है।

507. مِن كَمالِ السَّعادَةِ السَّعِيُ في إصلاحِ الجُمهُورِ: (9361)

507.   साधारण जनता के सुधार की कोशिश करना सबसे बड़ी भाग्यशालिता है।

508. مِن أعظَمِ الشَّقاوَةِ القَساوَةُ: (9376)

508.   हृदय की कठोरता सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

509. مِنَ الاِقتِصادِ سَخاءٌ بَغَيرِ سَرَفِ، وَمُرُوَّةٌ مِن غَيرِ تَلَف: (9419)

509.   व्यर्थ खर्च किये बिना दान देना और तोड़ फोड़ के बिना मर्दानगी दिखाना, मध्यक्रम की निशानी है।

510. مِن كَمالِ الإنسان وَوُفُورِ فَضلِهِ استِشعارُهُ بِنَفسِهِ النُقصانَ: (9442)

510.   अपने नफ़्स के नुक़्सान के बारे में जानकारी लेना, इंसान के कमाल व अत्याधिक श्रेष्ठ होने की निशानी है।

511. ما عَزَّ مَن ذَلَّ جيرانَهُ: (9486)

511.   अपने पड़ोसी को ज़लील करने वाला, इज़्ज़त नही पा सकता।

512. ما تَزَيَّنَ مُتَزَيِّنٌ بِمِثلِ طاعَةِ اللهِ: (9489)

512.   कोई भी श्रृंगार करने वाला, अल्लाह की आज्ञा का पालन करने वाले के समान सुशौभित नही है।

513. ما أكثَرَ العِبَرَ وَأقَلَّ الاِعتِبارَ: (9542)

513.   नसीहतें कितनी अधिक हैं और नसीहत लेना कितना कम।

514. مَا اتَّقى أحَدٌ إلاّ سَهَّلَ اللهُ مَخرَجَهُ: (9565)

514.   कोई मुत्तक़ी ऐसा नही है, जिसके कठिनाईयों से बाहर निकलने के रास्ते को अल्लाह ने आसान न बनाया हो।

515. ما حُفِظَتِ الأُخُوَّةُ بِمِثلِ المُواساةِ: (9578)

515.   जिस प्रकार जान व माल के द्वारा सहायता, दोस्ती व भाईचारे को रक्षा करती है, उस तरह कोई भी चीज़ दोस्ती को बाक़ी नही रखती।

516. مَا اختَلَفَت دَعوَتانِ إلاّ كانَت إحداهُما ضَلالَةً: (9592)

516.   दो निमन्त्रण परसपर विरोधी नही हो सकते, जब तक उनमें से एक भ्रमित करने वाला न हो।

517. لا يَنبَغي أن تَفعَلَهُ فِي الجَهرِ فَلا تَفعَلهُ فِي السِّرِّ: (9636)

517.   जिस काम को तुम खुले आम नही कर सकते हो, उसे छुपकर करना भी उचित नही है।

518. ما أكثَرَ الإخوانَ عِندَ الجِفانِ، وَأقَلَّهُم عِندَ حادِثاتِ الزَّمانِ: (9657)

518.   जब इंसान के पास प्याला (भरा) होता है अर्थात उसके पास दुनिया का माल होता है तो उसके दोस्त अत्याधिक होते हैं और जब वह कठिनाईयों में घिरता हैं तो दोस्त बहुत कम दिखाई देते हैं !!।

519. ما تَزَيَّنَ الإنسانُ بِزينَةِ أجمَلَ مِنَ الفُتُوَّةِ: (9659)

519.   इंसान बहादुरी से ज़्यादा किसी भी आभूषण से सुसज्जित नही हुआ है।

520. ما لُمتُ أحَداً عَلى إذاعَةِ سِرِّي اِذ كُنتُ بِهِ أضيَقَ مِنهُ: (9706)

520.   जिसने मेरा राज़ खोला, मैंने उसे बुरा भला नही कहा, क्योंकि उसे छिपा कर रखने में मैं उससे भी अधिक तंग था।

521. مِلاكُ الأُمُورِ حُسنُ الخَواتِمِ: (9729)

521.   कार्यों की अच्छाई का आधार, उनके अच्छे समापन पर है।

522. مُذيعُ الفاحِشَةِ كَفاعِلِها: (9759)

522.   बुरी बातों को फैलाने वाला, बुरे काम करने वाले के समान है।

523. مَرارَةُ اليَأسِ خَيرٌ مِنَ التَّضَرُّعِ إلَى النّاسِ: (9795)

523.   नाउम्मीदी की कड़वाहट को (बर्दाश्त करना) लोगों के सामने रोने से अच्छा है।

524. مَجالِسُ اللَّهوِ تُفسِدُ الإيمانَ: (9815)

524.   व्यर्थ सभायें ईमान को ख़राब करती हैं।

525. مَثَلُ الدُّنيا كَظِلِّكَ إن وَقَفتَ وَقَفَ وَإن طَلَبتَهُ بَعُدَ: (9818)

525.   दुनिया की मिसाल तुम्हारी स्वयं की परछाई जैसी है, जब तुम खड़े होते हो तो वह रुक जाती है और जब तुम उसके पीछे चलते हो तो वह तुम से दूर हो जाती है।

526. نِعمَ زادُ المَعادِ الإحسانُ إلَى العِبادِ: (9912)

526.   लोगों के साथ भलाई करना, क़ियामत के लिए कितना अच्छा तौशा है। (इंसान किसी यात्रा पर जाते समय जो आवश्यक चीज़े अपने साथ ले जाता है उन्हें तौशा कहते हैं।)

527. نِعمَ عَونُ الدُّعاءِ الخُشُوعُ: (9945)

527.   ख़ुशू-उ, (स्वयं को बहुत छोटा समझना व रोना) दुआ के लिए कितना अच्छा मददगार है। !

528. نَفَسُ المَرءِ خُطاهُ إلى أجَلِهِ: (9955)

528.   इंसान की साँस, उसके मौत की तरफ़ बढ़ते हुए क़दम हैं।

529. نِعمَةٌ لا تُشكَرُ كَسَيِّئَةِ لا تُغفَرُ: (9959)

529.   नेमत पर शुक्र न करना, माफ़ न होने वाले गुनाह जैसा है।

530. نُصحُكَ بَينَ المَلاَِ تَقريعٌ: (9966)

530.   लोगों के बीच (किसी को) नसीहत करना, उसकी निंदा है।

531. نِظامُ الدِّينِ خَصلَتانِ: إنصافُكَ مِن نَفسِكَ، وَمُواساةُ إخوانِكَ: (9983)

531.   धार्मिक व्यवस्था की दो विशेषताएं हैं, स्वयं अपने साथ इंसाफ़ करना और अपने भाईयों की जान व माल से सहायता करना।

532. نَزِّل نَفسَكَ دُونَ مَنزِلَتِها تُنَزِّلكَ النّاسُ فَوقَ مَنزِلَتِكَ: (9985)

532.   अपने मान सम्मान से नीची जगह पर बैठो ताकि लोग तुम्हें तुम्हारे मान सम्मान से भी ऊँची जगह पर बैठायें।

533. نِفاقُ المَرءِ مِن ذُلٍّ يَجِدُهُ في نَفسِهِ: (9988)

533.   इंसान का निफ़ाक़ (द्विवादिता) एक ऐसी नीचता है, जिसे वह अपने अन्दर पाता है।





तेरहवां भाग
534. هُدِيَى مَن تَجَلبَبَ جِلبابَ الدّينِ: (10012)

534.   जिसने दीन की पोशाक पहन ली, वह हिदायत पा गया। अर्थात जिसने दीन को अपना लिया वह सफल हो गया।

535. هَلَكَ مَن لَم يَعرِف قَدرَهُ: (10020)

535.   जिसने अपने महत्व को न समझा, वह बर्बाद हो गया।

536. وَلَدُ السُّوءِ يَهدِمُ الشَّرَفَ، وَيَشينُ السَّلَفَ: (10065)

536.   बुरी संतान, प्रतिष्ठा को मिटा देती है और बुज़ुर्गों के अपमान का कारण बनती है।

537. وَقِّروا كِبارَكُم يُوَقِّركُم صِغارُكُم: (10069)

537.   तुम अपने से बड़ों का आदर करो ताकि तुम से छोटे तुम्हारा आदर करें।

538. وَيلٌ لِمَن غَلَبَت عَلَيهِ الغَفلَةُ فَنَسِيَ الرِّحلَةَ وَلَم يَستَعِدَّ: (10088)

538.   धिक्कार है उस पर जो इतना लापरवाह हो जाये कि अपने कूच (प्रस्थान) को भूल जाये और तैयार न हो।

539. وَحدَةُ المَرءِ خَيرٌ لَهُ مِن قَرينِ السُّوءِ: (10136)

539.   बुरे इंसान के पास बैठने से, आदमी का तन्हा रहना अच्छा है।





चौदहवां भाग
540. لا تَأسَ عَلى ما فاتَ: (10153)

540.   जो खो दिया, उस पर अफ़सोस न करो।

541. لا تَطمَع فِيما لا تَستَحِقُّ: (10157)

541.   जिसके तुम हक़दार नही हो, उसका लालच न करो।

542. لا تَثِقَنَّ بِعَهدِ مَن لا دينَ لَهُ: (10163)

542.   किसी बेदीन के साथ किये हुए समझौते पर भरोसा न करो।

543. لا تُحَدِّث بِما تَخافُ تَكذيبَهُ: (10173)

543.   जिस बात के झुठलाये जाने का डर हो, उसे न कहो।

544. لا تَعِد بِما تَعجِزُ عَنِ الوَفاءِ بِهِ: (10177)

544.   तुम में जिस बात को पूरा करने की ताक़त न हो, उसके बारे में वादा न करो।

545. لا تَعزِم عَلى ما لَم تَستبِنِ الرَّشدَ فيهِ: (10183)

545.   उस काम को करने का संकल्प न करो, जिसकी उन्नति व विकास के बारे में तुम्हें जानकारी न हो।

546. لا تُمسِك عَن إظهارِ الحَقِّ اِذا وَجَدتَ لَهُ أهلاً: (10188)

546.   हक़ बात कहने से न रुको, जब तुम्हें कोई हक़ बात सुनने योग्य मिल जाये।

547. لا تُمارِيَنَّ اللَّجُوجَ في مَحفِل: (10203)

547.   झगड़ालु स्वभव वाले आदमी से भरी सभा में न उलझो।

548. لا تُعاتِبِ الجاهِلَ فَيَمقُتَكَ، وَعاتِبِ العاقِلَ يُحبِبِكَ: (10215)

548.   मूर्ख की निंदा न करो क्योंकि वह तुम्हारा दुश्मन बन जायेगा और बुद्धिमान की निंदा करो वह तुम से मोहब्बत करेगा।

549. لا تَستَصغِرَنَّ عَدُوّاً وَاِن ضَعُفَ: (10216)

549.   किसी भी दुश्मन को छोटा न समझो चाहे वह कमज़ोर ही क्यों न हो।

550. لا تُلاحِ الدَّنِيَّ فَيَجتَرِىءَ عَلَيكَ: (10221)

550.   नीच इंसान से मत झगड़ो, वह तुम्हारे साथ दुष्टता करेगा।

551. لا تُؤيِسِ الضُّعَفاءَ مِن عَدلِكَ: (10225)

551.   कमज़ोर लोगों को अपने न्याय से नाउम्मीद न करो।

552. لا تَعمَل شَيئاً مِنَ الخَيرِ رِياءُ وَلا تَترُكهُ حَياءً: (10254)

552.   किसी भी नेक काम को दिखावे के लिए न करो और न शर्म की वजह से उसे छोड़ो।

553. لا تَثِقِ بِالصَّديقِ قَبلَ الخُبرَةِ: (10257)

553.   परखे बिना दोस्त पर भरोसा न करो।

554. لا تَستَحيِ مِن إعطاءِ القَليلِ: فَإنَّ الحِرمانَ أقَلُّ مِنهُ: (10263)

554.   कम (दान) देने में शर्म न करो, क्योंकि उससे वंचित रखना तो उससे भी कम है।

555. لا تَظلِمَنَّ مَن لا يَجِدُ ناصِراً إلاَّ اللهَ: (10284)

555.   जिसका अल्लाह के अलावा कोई सहायक न हो उस पर अत्याचार न करो।

556. لا يَشغَلَنَّكَ عَنِ العَمَلِ لِلآخِرَةِ شُغلٌ: فَإنَّ المُدَّةَ قَصيرَةٌ: (10286)

556.   (याद रखो) आख़ेरत के कामों से (रोकने के लिए) कोई काम तुम्हें स्वयं में व्यस्त न कर ले, क्योंकि समय बहुत कम है।

557. لا تَفرِحَنَّ بِسَقطَةِ غَيرِكَ لا تَدري ما يُحدِثُ بِكَ الزَّمانُ: (10290)

557.   किसी के हारने या गिरने से खुश न हो, क्योंकि तुम्हें नही पता कि आने वाले समय में तुम्हारे साथ क्या घटित होने वाला है।

558. لا تَجعَل عِرضَكَ غَرَضاً لِقَولِ كُلِّ قائِلِ: (10304)

558.   अपनी इज़्ज़त को हर बोलने वाले के तीर का निशाना न बनने दो।

559. لا تَستَبِدَّ بِرَأيِكَ، فَمَنِ استَبَدَّ بِرَأيِهِ هَلَكَ: (10311)

559.   स्वेच्छाचारी न बनों, क्योंकि स्वेच्छाचारी मौत के घाट उतर जाता है।

560. لا تُسِيءِ الخِطابَ فَيَسُوءَكَ نَكيرُ الجَوابِ: (10324)

560.   किसी को बुरी बात न कहो कि बुरा जवाब सुनने को मिले।

561. لا تَستَبطِيء اِجابَةَ دُعائِكَ وَقد سَدَدتَ طَريقَهُ بِالذُّنُوبِ: (10329)

561.   अपनी दुआ के देर से क़बूल होने की (उम्मीद में न रहो) जब गुनाहों के द्वारा उसके क़बूल होने के रास्ते को बंद कर दिया हो।

562. لا تُدخِلَنَّ في مَشوَرَتِكَ بِخيلاً فَيَعدِلَ بِكَ عَنِ القصدِ، وَيَعِدَكَ الفَقرَ: (10348)

562.   कभी भी कंजूस से मशवरा न करो, क्योंकि वह तुम्हें मध्य मार्ग से दूर कर देगा और निर्धनता से डरायेगा।

563. لا تُشرِكَنَّ في رَأيِكَ جَباناً يُضَعِّفُكَ عَنِ الأمرِ وَيُعَظِّمُ عَلَيكَ ما لَيسَ بِعَظيمِ: (10349)

563.   किसी भी डरपोक से मशवरा न करना, क्योंकि वह तुम्हारी काम करने की शक्ति को कमज़ोर बना देगा और जो काम बड़ा नही है उसे तुम्हारे सामने बड़ा बनाकर पेश करेगा।

564. لا تَستَشِرِ الكَذّابَ: فَإنَّهُ كَالسَّرابِ يُقَرِّبُ عَلَيكَ البَعيدَ: وَيُبَعِّدُ عَلَيكَ القَريبَ: (10351)

564.   झूठे से मशवरा न करना, वह सराब (मरीचिका) के समान होता है, वह दूर को तुम्हारे लिए समीप व समीप को दूर कर देगा।

565. لا تُشرِكَنَّ في مَشوَرَتِكَ حَريصاً يُهَوِّنُ عَلَيكَ الشَّرَّ وَيُزَيِّنُ لَكَ الشَّرَهَ: (10353)

565.   किसी भी लालची से मशवरा न करना, वह तुम्हारे सामने बुराई को आसान और लालच को सुसज्जित कर के पेश करेगा।

566. لا تُؤَخِّر إنالَةَ المُحتاجِ إلى غَد: فَإنَّكَ لا تَدري ما يَعرِضُ لَكَ وَلَهُ في غَد: (10364)

566.   निर्धन की आवश्क्ताओं की पूर्ति को कल पर मत टालो, क्योंकि तुम्हें नही पता कि आने वाले कल में तुम्हारे या उसके साथ क्या होने वाला है।

567. لا تَنقُضَنَّ سُنَّةً صالِحَةٌ عُمِلَ بِها وَاجتَمَعَتِ الأُلفَةُ لَها وَصَلَحَتِ الرَّعِيَّةُ عَلَيها: (10377)

567.   उस अच्छी सुन्नत को न मिटाओ जिसे लोग अपनाये हुए हों और जिसके द्वारा आपस में एक दूसरे से मिलते हों और जिसमें उनके लिए भलाई हो।

568. لا تَصحَب مَن يَحفَظُ مَساوِيَكَ، وَيَنسى فَضائِلَكَ وَمَعالِيَكَ: (10419)

568.   जो तुम्हारी बुराईयों को याद रखे और तुम्हारी विशेषताओं व उच्चताओं को भुला दे, उसे दोस्त न बनाओ।

569. لا تَقُل مالا تَعلَمُ فَتُتَّهَمَ بِإِخبِارِكَ بِما تَعلَمُ: (10426)

569.   तुम जिस चीज़ के बारे में नही जानते हो, उसके बारे में कुछ न कहो, ताकि तुम्हारी उन बातों के बारे में शक न हो जिनके बारे में तुम अच्छी तरह जानते हो।

570. لا فِطنَةَ مَعَ بِطنَةِ: (10528)

570.   भरा हुआ पेट व बुद्धिमत्ता एक साथ इकठ्ठा नही होते है।

571. لا جِهادَ كَجِهادِ النَّفسِ: (10551)

571.   कोई जिहाद, नफ़्स से जिहाद करने के समान नही  है, अर्थात अपनी इच्छाओं से लड़ी जाने वाली जंग जैसी कोई जंग नही है।

572. لا يَجِتَمِعُ الباطِلُ وَالحَقُّ: (10584)

572.   हक़ व बातिल, झूठ व सच एक साथ इकठ्ठा नही होते है।

573. لا لِباسَ أجمَلُ مِنَ السَّلامَةِ: (10635)

573.   स्वास्थ से सुन्दर कोई वेश नही है।

574. لا دِينَ لِمُسَوِّف بِتَوبَتِهِ: (10660)

574.   जो तौबा करने में आज कल करता है, वह दीनदार नही है।

575. لا عَيشَ لِمَن فارَقَ أحِبَّتَهُ: (10661)

575.   जो अपने दोस्तों से अलग हो जाये उसके लिए आराम नही है।

576. لا يُدرَكُ العِلمُ بِراحَةِ الجِسمِ: (10684)

576.   शारीरिक आराम के साथ ज्ञान प्राप्त नही होता।

577. لا يَشبَعُ المُؤمِنُ وَأخُوهُ جائِعٌ: (10691)

577.   मोमिन खाना नही खाता, (अगर) उसका भाई भूखा हो।

578. لا يَستَغنِي العاقِلُ عَنِ المُشاوَرَةِ: (10693)

578.   बुद्धिमान यह नही सोचता कि उसे परामर्श व मशवरे की ज़रूरत नही है।

579. لا خَيرَ في لَذَّة لا تَبقى: (10707)

579.   जो मज़ा बाक़ी रहने वाला न हो, उसमें भलाई नही है।

580. لا عَيشَ أهنَأُ مِنَ العافِيَةِ: (10728)

580.   सेहत व स्वस्थता से अच्छा कोई आनंद नही है।

581. لا خَيرَ فيمَن يَهجُرُ أخاهُ مِن غَيرِ جُرمِ: (10741)

581.   उसके लिए भलाई नही है जो अपने दोस्तों से उनकी किसी ग़लती के बिना ही अलग हो जाये।

582. لا تَكمُلُ المَكارِمُ إلاّ بِالعَفافِ وَالإيثارِ: (10745)

582.   पारसाई व त्याग के बिना अख़लाक़ पूरा नही होता।

583. لا عَدُوَّ أعدى عَلَى المَرءِ مِن نَفسِهِ: (10760)

583.   आदमी का उसके नफ़्स से बड़ा कोई दुश्मन नही है।

584. لا يُغتَبَطُ بِمَوَدَّةِ مَن لا دينَ لَهُ: (10803)

584.   बेदीन से दोस्ती पर ख़ुश नही होते।

585. لا يَرضَى الحَسُودُ عَمَّن يَحسُدُهُ إلاّ بِالمَوتِ أو بِزَوالِ النِّعمَةِ: (10812)

585.   ईर्ष्यालु उस समय तक खुश नही होता जब तक जिससे वह ईर्ष्या करता है वह मर न जाये या उसका धन दौलत न छिन जाये।

586. لا يَكُونُ الصَّديقُ صَديقاً حَتَّى يَحفَظَ أخاهُ في غَيبَتِهِ وَنَكبَتِهِ وَوَفاتِهِ: (10821)

586.   दोस्त उस समय तक दोस्त (कहलाने के योग्य) नही है, जब तक अपने दोस्त की उनुपस्थिति में, उसकी परेशानी में और उसकी मौत पर दोस्ती का हक़ अदा न करे।

587. لا طاعَةَ لِمَخلوق في مَعصِيَةِ الخالِقِ: (10839)

587.   पैदा करने वाले की अवज्ञा करने के लिए किसी की भी आज्ञा का पालन आवश्यक नही है।

588. لا يَفوزُ بِالجَنَّةِ اِلاّ مَن حَسُنَت سَريرَتُهُ وَخَلُصَت نِيَّتُهُ: (10868)

588.   जिनकी आत्मा अन्दर से पाक व नीयत साफ़ है उनके अतिरिक्त कोई जन्नत में नही जा सकता।

589. لا خَيرَ في قَوم لَيسُوا بِناصِحينَ وَلا يُحِبُّونَ النّاصِحينَ: (10884)

589.   जो क़ौम नसीहत करने वाली न हो और जो नसीहत करने वालों से मोहब्बत न करती हो, उसके लिए भलाई नही है।

590. لا خَيرَ في أخ لا يُوجِبُ لَكَ مِثلَ الَّذي يُوجِبُ لِنَفسِهِ: (10891)

590.   उस भाई व दोस्त से कोई फ़ायदा नही है, जो जिस चीज़ को अपने लिए ज़रूरी समझता है, उसे तुम्हारे लिए ज़रूरी न समझे।

591. لا نِعمَةَ أهنَأُ مِنَ الأمنِ: (10911)

591.   शांति से बढ़कर कोई भी नेमत सुख देने वाली नही है।

592. لا خَيرَ في قَلب لا يَخشَعُ، وَعَين لا تَدمَعُ، وَعِلم لا يَنفَعُ: (10913)

592.   जो दिल अल्लाह से न डरता हो, जो आँख न रोती हो और जो ज्ञान फ़ायदा न पहुँचाता हो, उसमें कोई भलाई नही है।

593. يُستَدَلُّ عَلى عَقلِ كُلِّ امرِء بِما يَجرِي عَلى لِسانِهِ: (10957)

593.   जो बात इंसान की ज़बान पर आती है, वह उसकी बुद्धी पर तर्क बनती है।

594. يُستَدَلُّ عَلى كَرَمِ الرَّجُلِ بِحُسنِ بِشرِهِ، وَبَذلِ بِرِّهِ: (10963)

594.   मर्द का सदव्यवहार और उसकी भलाई व नेकी, उसकी श्रेष्ठता का तर्क है।

595. يَسيرُ الرِّياءُ شِركٌ: (10976)

595.   लोगों को दिखाने के लिए किया जाने वाला थोड़ा काम भी शिर्क है।

596. يَسيرُ العَطاءِ خَيرٌ مِنَ التَّعَلُّلِ بِالاِعتِذارِ: (10991)

596.   थोड़ा दान दे देना, बहाना बनाने व माफ़ी माँगने से अच्छा है।

597. يَبلُغُ الصّادِقُ بِصِدقِهِ مالا يَبلُغُهُ الكاذِبُ بِاحتِيالِهِ: (11006)

597.   सच बोलने वाला, अपनी सच्चाई से उस चीज़ तक पहुँच जाता है, जिस तक झूठ बोलने वाला धोखे बाज़ी के द्वारा नही पहुँच पाता।

598. يُمتَحَنُ الرَّجُلُ بِفِعلِهِ لا بِقَولِهِ: (11026)

598.   मर्दों को उनके कामों से परखो, उनकी बातों से नही।

599. يَومُ المَظلومِ عَلَى الظّالِمِ أشَدُّ مِن يَومِ الظّالِمِ عَلَى المَظلومِ: (11029)

599.   ज़ालिम पर मज़लूम का दिन, मज़लूम पर ज़ालिम के दिन से कठिन है। अर्थात अत्याचारी के लिए अत्याचार की सज़ा पाने का दिन, अत्याचार करने के दिन से कठिन है।

600. يَكتَسِبُ الصّادِقُ بِصِدقِهِ ثَلاثاً: حُسنَ الثِّقَةِ بِهِ، وَالمَحَبَّةَ لَهُ، وَالمَهابَةَ عَنهُ: (11038)

600.   सच बोलने वाले को अपने सच से तीन फ़ायदे होते हैं:  (लोग) उस पर भरोसा करते हैं, उसके लिए दिलों में मोहब्बत पैदा होती है और उसको बड़ा मानते हुए उससे डरते हैं।





हदीसों के विषयों की सूची
अक़्ल:

अक़्ल पर अधिक खाने का दुषप्रभाव: हदीस न.464 व 570

अख़लाक़:

बुरे अखलाक़ से दूरी: हदीस न.189, जीवन पर अच्छे अख़लाक़ का प्रभाव: हदीस न.199,

अच्छी चीज़ का चुनाव:

अच्छी चीज़ के चुनाव में अनुभव की भूमिका: हदीस न.227

अच्छी बीवी:

अच्छी बीवी नेमत के रूप में: हदीस न.191

अच्छे कार्य:

अच्छे कार्यों के द्वारा सुधार: हदीस न.97

अच्छे दोस्त: हदीस न.35

अज़ाब

अज़ाब आने के कारण: हदीस न.333,

अत्याचार

लोगों पर अत्चार, अल्लाह से दुश्मनी: हदीस न.474, अत्याचार से दूरी: हदीस न.104, सबसे बुरा अत्याचार: हदीस न.331, विधवा पर अत्याचार: हदीस न.333, निस्सहाय पर अत्याचार: हदीस न.555, नेकी पर अत्याचार: हदीस न.332, यतीम पर अत्याचार: हदीस न.33, अत्याचार का विरोध: हदीस न.65, दुश्मन का अत्याचार: हदीस न.174

अत्याचारी

अत्याचारी से दुश्मनी: हदीस न.399,अत्याचारी का दिन: हदीस न.599,

अधिक खना

अधिक खाने का बुद्धी पर दुष्प्रभाव: हदीस न.464, अधिक खाने से दूरी: हदीस न.127, अधिक खाने का शरीर पर दुष्प्रभाव: हदीस न.127, अधिक खाने का दिल पर दुष्प्रभाव: हदीस न.127, अधिक खाने के नुक़्सान: हदीस न.50

अधिक बोलना

अधिक बोलने का गुनाहों पर प्रभाव : हदीस न.122, अधिक बोलने से बचना 122,

अनभिज्ञ बनना

अनभिज्ञ बनने का फ़ायदा: हदीस न.499

अनुचित जगह जाने का परिणाम: हदीस न.433

अनुभव

अनुभव से शिक्षा: हदीस न.173, अच्छे चुनाव में अनुभव का योगदान: हदीस न.227

अनुभावी

अनुभवी से मशवरा करना: हदीस न.246

अपनी इज़्ज़त स्वयं करना

अपनी इज़्ज़त करने का परिणाम: हदीस न.481

अपमान

अपमान में आवश्यक्ताओं की भूमिका: हदीस न.320, अपमान में क्रोध की भूमिका: हदीस न.396, अपमान को स्वीकार करना: हदीस न.276, बचने वाले से मिलना अपमान है: हदीस न.273, अपमान में लालच की भूमिका: हदीस न.17, निर्धनता से अपमान: हदीस न.494, स्वयं को अपमानित समझने वाला: हदीस न.496

अपमान का आधार: हदीस न.536

अम्र बिल मारूफ़  (अच्छे कार्य करने के लिए कहना)

अम्र बिल मारूफ़ का महत्व: हदीस न.85

अमानतदारी

मुक्ति व निजात पर अमानतदारी का प्रभाव: हदीस न.365, अमानतदारी का महत्व: हदीस न.135

अमीन

अमीन आदमी के बारे में फैसला करना: हदीस न.417

अलग रहना

अलग रहने से दूरी: हदीस न.111, दोस्तों से अलग होने के नुक़्सान: हदीस न.575 अल्लाह

अल्लाह से दूरी के कारण: हदीस न. 123 व 125, अल्लाह से मुहब्बत के प्रभाव: हदीस न.169, अल्लाह को भूलने के परिणाम: हदीस न.434

अल्लाह की आज्ञा का पालन

मुक्ति व निजात में अल्लाह की आज्ञा पालन का प्रभाव: हदीस न.171

अल्लाह का दरवाज़ा

अल्लाह के दरवाज़े को खटखटाना: हदीस न.458

अल्लाह का दुश्मन

लोगों पर अत्याचार के कारण अल्लाह से दुश्मनी: हदीस न.476

अल्लाह की याद

शैतान को भगाने में अल्लाह की याद का असर: हदीस न.260,

अल्लाह की रहमत पाने वाले: हदीस न.264 व 265

अल्लाह के महबूब (प्रियः)

अल्लाह के महबूब बनने वाले कारक: हदीस न.170

अल्लाह को ख़ुश करना

लोगों की नाराज़गी की परवाह न करके अल्लाह को ख़ुश करना: हदीस न. 492

अल्लाह से क़रीब होना

अल्लाह से क़रीब होने का तरीक़ा: हदीस न.71 व 213

अल्लाह से डरना  

अल्लाह के डर से रोना: हदीस न.208

अल्लाह से शर्माना

अल्लाह से शर्माना गुनाहों से दूर करता: हदीस न. 59,

अशाँती

अशाँती की बुराईयाँ: हदीस न.301

अशौभनीय कार्य

अशौभनीय कार्यों से दूरी: हदीस न.118

अहले बैत अलैहिमुस्सलाम

अहले बैत की (अ.) मुहब्बत: हदीस न.466, अहले बैत (अ.) की पैरवी (अनुसरण): हदीस न.466, अहले बैत (अ.) की सीरत: हदीस न.327, अहले बैत (अ.) का मध्य मार्ग को अपनाना।

आख़ेरत (परलोक)

बुराईयाँ, आखेरत को बर्बाद करती है: हदीस न. 297, आख़ेरत को बर्बाद करने वाली बातों से दूरी: हदीस न.119, आख़ेरत के लिए मेहनत करना: हदीस न.288, 334, 420, 556, आख़ेरत के रास्ते का ख़र्च: हदीस न. 526, आख़ेरत की अमरता: हदीस न.1, दुनिया और आख़ेरत को इकठ्ठा करना: हदीस न. 326, आख़ेरत के कार्यों को व्यवस्थित करना: हदीस न. 487

आख़ेरत को बेंचना

आख़ेरत को हवस के बदले बेंचना: हदीस न.460, आख़ेरत को बेंचने से बचना: हदीस न.105

आँख

न रोने वाली आँख: हदीस न.592

आँखें बंद करना

जान बूझ कर अनभिज्ञ बनना: हदीस न.504

आत्म सुधार

आत्म सुधार में, अपनी क़िस्मत पर राज़ी रहने के प्रभाव: हदीस न.195, आत्म सुधार में संतुलन के प्रभाव: हदीस न.195, आत्म सुधार के उपाय: हदीस न.195

आदत

आदत का बदलना: हदीस न.358, दूसरों को चीज़ देने की आदत: हदीस न.346, ज़िद्द न करने की आदत: हदीस न.346, आदतों पर क़ाबू: हदीस न.133

आदर

आदर में खड़े होना: हदीस न.101 व 299, पिता का आदर: हदीस न. 101, उस्ताद का आदर: हदीस न.101, मेहमान का आदर: हदीस न. 101, उच्चता पाने में आदर की भूमिका: हदीस न.2 व 532, दोस्ती पर आदर सत्कार के प्रभाव: हदीस न.226 व 231

आध्यात्मिक लोग

आध्यात्मिक लोगों से लाभान्वित होना: हदीस न.428, आध्यात्मिक लोगों से मिलना: हदीस न.428

आबादी

आबादी में बादशाहों की भूमिका: हदीस न. 367

आभूषण

सबसे अच्छा आभूषण: हदीस न.519

आराम व आसानी

तवक़े से आराम व आसानी: हदीस न.514

आरिफ़  (ब्रह्मज्ञानी)

आरिफ़ का अपनी आत्मा को पाक रखना: हदीस न. 68, आरिफ़ का स्वयं को पहचानना: हदीस न.68, आरिफ़ का स्वयं को बुरी बातों से दूर रखना: हदीस न. 68

आरोप

आरोप लगने का कारण: हदीस न.433

आलस्य

आलस्य से मुक़ाबला: हदीस न.321

आवश्यक्ता

माँगने वाले की आवश्यक्ता को पूरा करना: हदीस न.67, नीच के सामने अपनी आवश्यक्ता को प्रकट करना: हदीस न.158

आशिक़

आशिक़ का माशूक़ की बुराई न सुनना: हदीस न.353, आशिक़ का माशूक़ की बुराई न देखना: हदीस न.353

आज्ञाकारी

गर्व करने वाला आज्ञाकारी: हदीस न.354

आज्ञा पालन

बड़ों की आज्ञा का पालन: हदीस न.109, आज्ञा पालन का आसान रास्ता: हदीस न.358, अल्लाह की अवज्ञा के लिए इंसानों की आज्ञा का पालन करना: हदीस न.587,  अल्लाह की आज्ञा पालन की अच्छाई: हदीस न.512

औरत (स्त्री)

औरत को छुपाने का फ़ायदा: हदीस न.312

इच्छा

सबसे अधिक इच्छायें रखने वाले लोग: हदीस न.144

इच्छाएं

इच्छाओं को पूरा करने के उपाय: हदीस न.447

इज़्ज़त

इज़्ज़त की रक्षा: हदीस न. 558, माल के द्वारा इज़्ज़त की रक्षा: हदीस न. 245,

इज़्ज़त में बाधक चीज़ें: हदीस न.511,

इबादत

इबादत के सही होने पर तवक्कुल का असर: हदीस न.309, सबसे अच्छी इबादत: हदीस न.41, इबादत का मज़ा: हदीस न.385, धीमे बोलना, इबादत: हदीस न.162

इबादत करने वाला

इल्म के बिना इबादत करने वाला: हदीस न. 91

इम्तेहान

कार्यों से इम्तेहान: हदीस न.598

इस्तग़फ़ार (क्षमा याचना)

इस्तग़फ़ार का दवा होना: हदीस न.76

इंसान

इंसान का महत्व: हदीस न.131 व 372, इंसान एहसान का ग़ुलाम होता है: हदीस न.7, इंसान अपनी ज़बान के पीछे छुपा होता है: हदीस न.25, इंसान की भलाई: हदीस न.310, इंसान के काम: हदीस न.26, इंसान का झुकाव: हदीस न.377, इंसान का साथी: हदीस न. 26

इंसानों से निकटता

इंसानों से निकटता का साधन: हदीस न.71

इंसाफ़

इंसाफ़ का प्रभाव: हदीस न.430, अपने साथ इंसाफ़: हदीस न.531, लोगों के साथ इंसाफ़: हदीस न. 355, मुहब्बत पर इंसाफ़ का प्रभाव: हदीस न.64, मत भेद को दूर करने में इंसाफ़ की भूमिका: हदीस न. 64

ईमान

सबसे अच्छा ईमान: हदीस न.134, ईमान की शर्तें: हदीस न.502, ईमान को बर्बाद करने वाली चीज़ें: हदीस न.524, ईमान का नतीजा: हदीस न.244

ईर्ष्या

ईर्ष्या न होने का खुशहाली पर प्रभाव: हदीस न.256

ईर्ष्यालु

ईर्ष्यालु के विचार: हदीस न.74, ईर्श्यालु की ख़ुशी: हदीस न.585, ईर्ष्यालु  का बुरा जीवन: हदीस न.135, ईर्ष्यालु का लाभ से वंचित रहता है: हदीस न. 27

उच्च अधिकारी

उच्च अधिकारियों की ज़िम्मेदारियाँ: हदीस न.188

उच्चता

हवस, उच्चता के मार्ग में बाधक है: हदीस न.442, उच्चता प्राप्ति के प्रयास: हदीस न. 426, उच्चता पर पहुँचने का मार्ग: हदीस न.489, उच्चता प्राप्त करने के तरीक़े: हदीस न.330

उच्च हिम्मत

कार्य व उच्च हिम्मत: हदीस न.400

उपाय व युक्ति

कार्य करने से पहले उपाय: हदीस न.52

उपद्रव

उपद्रव की आग भड़काना: हदीस न.500,

उम्मीद

उम्मीद से दूरी: हदीस न.248

उम्मीदवार

उम्मीदवार को निराश न करना: हदीस न.449

उम्र

उम्र पर सिला –ए- रहम का प्रभाव: हदीस न.415, उम्र से फ़ायदा उठाना: हदीस न.423, उम्र बर्बाद करने वाली चीज़ों से बचना: हदीस न.121, उम्र से नसीहत लेना: हदीस न.423, उम्र का रजिस्टर: हदीस न.89, हर दिन उम्र का कम होना: हदीस न.347, उम्र का घटना: हदीस न.384

उम्र का रजिस्टर: हदीस न. 89

उस्ताद

उस्ताद का आदर: हदीस न.101 व 229

एहसान

एहसान जताने से बचना: हदीस न.124, एहसान जताने से भलाई व नेकी का बर्बाद होना: हदीस न.124

कठिनाई

कठिनाई में दोस्ती को परखना: हदीस न.343, कठिनाई, प्यार मुहब्बत से आसान बन जाती है: हदीस न.381, आराम में कठिनाई व परिश्रम की भूमिका 203, कठिनाई में गुण प्रकट होते हैं: हदीस न.342, उच्च पदों की प्राप्ति में कठिनाई व परिश्रम का योगदान: हदीस न.203, कठिनाई में शुक्र: हदीस न.336

कठिनाईयाँ

कठिनाईयों के कारण: हदीस न. 19, कठिनाईयों को प्रकट करने के नुक़्सान: हदीस न.276

कठोरता

कठोरता व दुर्भाग्य: हदीस न.508,

कंजूस

कंजूस से मशवरा न करना: हदीस न.562, कंजूस मध्य मार्ग से रोक देता है: हदीस न.562, कंजूस निर्धनता से डराता है: हदीस न.562, सब से बड़ा कंजूस: हदीस न.157

कंजूसी

कंजूसी बहादुरी को ख़त्म कर देती है: हदीस न.281, भाई चारे पर कंजूसी का प्रभाव: हदीस न.281, कंजूसी, अल्लाह पर बद गुमानी: हदीस न.42, अपने बारे में कंजूसी करना: हदीस न. 475, रहस्यों के बारे में कंजूसी करना: हदीस न.401, अधिक कंजूसी: हदीस न.281

कम इच्छाएं

कम इच्छाओं का महत्व: हदीस न.324

कमज़ोर

कमज़ोर को निराश न करना: हदीस न.551, कमज़ोर पर अत्याचार: हदीस न.331

कम खाना

कम खाने की श्रेष्ठता: हदीस न.191

कम बोलना

कम बोलने की श्रेष्ठता: हदीस न.191, बात चीत में कम बोलना: हदीस न. 195

कम सोना

कम सोने की श्रेष्ठता: हदीस न.191

कमाल

कमाल पाने का तरीक़ा: हदीस न.414, कमाल की निशानियाँ: हदीस न.67 व 510

कमी को जानना

कमी को जानना चतुरता: हदीस न.390

क़र्ज़ (ऋण)

क़र्ज़ वापसी की मोहलत देना: हदीस न.102,

कर्म का फल

जैसा बोना वैसा काटना: हदीस न.404

करीम (महान)

करीम का अख़लाक़: हदीस न.262, करीम का भोजन कराना: हदीस न.429, करीम का सगे संबंधियों से मिलना: हदीस न.62, करीम का नेमतो के लिए उचित होना: हदीस न.262, करीम की विशेषताएं: हदीस न.262, करीम के शराफ़त के काम: हदीस न.504, करीम का मज़ा: हदीस न.429

कार्य  

कार्य करने से पहले उस पर विचार करना: हदीस न.275, सबसे बुरा कार्य: हदीस न.297, सबसे अच्छा कार्य: हदीस न.137 व 253, अज्ञानता के साथ किये जाने वाले कार्य: हदीस न.75, आख़ेरत को बर्बाद करने वाले कार्य: हदीस न.119, कार्यों का सही होना: हदीस न.308, अनुचित कार्य: हदीस न.517, कार्य का आधार: हदीस न.517, कार्य की नीयत: हदीस न.372, कार्यों का नतीजा व फल: हदीस न.521, कार्यों का आधार: हदीस न.521

कार्य करने में देर करना: हदीस न.382

किताब

किताब से आराम: हदीस न.452

क़िनाअत  (कम पर संतोष करना)

क़िनाअत का पैदा होना: हदीस न.190, क़िनाअत की ख़ुशी: हदीस न.23, मध्य मार्ग में क़िनाअत की भूमिका: हदीस न.228

क़ियामत

क़ियामत में काम आने वाली चीज़ें: हदीस न.526

क़ियामत का हाकिम: हदीस न.113

कीनः (ईर्ष्या)

कीनः से खुशी का अंत: हदीस न.256, कीनः से दूरी: हदीस न.323, कीनः और चुग़लख़ोरी का संबंध: हदीस न.123

कीनःबाज़ (ईर्ष्यालु)

कीनः बाज़ के दिल का साफ़ न होना: हदीस न.136

क़ुरआन

क़ुरआन से नसीहत लेना: हदीस न.216, क़ुरआन में चिंतन करना: हदीस न.216

वह क़ौम जिसमें भलाई नही पाई जाती: हदीस न.589

सख़्ती

सख़्ती करने वाले के साथ नर्मी करना: हदीस न.427,

क्रूरता

क्रूरता पागलपन है: हदीस न.88,

क्रोध

क्रोध के परिणाम: हदीस न. 396, क्रोध को रोकना: हदीस न. 148, क्रोध पर क़ाबू पाना: हदीस न.266, बुद्धी के विनाश में क्रोध की भूमिका: हदीस न.49

ख़त

ख़त, अक़्लमंदी की निशानी: हदीस न.230

ख़बर

ग़लत खबर देने के ग़लत प्रभाव: हदीस न.569

ख़र्च

ख़र्च और अल्लाह की मदद: हदीस न.339

ख़ुद को अधूरा समझना

ख़ुद को अधूरा समझने की श्रेष्ठता: हदीस न.389

ख़ुश गुमानी (दूसरों के बारे में सुविचार रखना)

शाँति पर ख़ुश गुमानी का प्रभाव: हदीस न.238, दीन के सालिम रहने में ख़ुश गुमानी की भूमिका: हदीस न.238, ज़माने के बारे में ख़ुश गुमान रहना: हदीस न.421, खुश गुमानी की श्रेष्ठता: हदीस न.142

ख़ुशी

लोगों की हार पर, खुशी न मनाना: हदीस न. 557

ख़ुशू

दुआ करते हुए रोना: हदीस न.527

खेल कूद

खेल कूद का दीवाना होना: हदीस न.422

ग़द्दारी

ग़द्दारी से बचना: हदीस न.323, दोस्त से ग़द्दारी: हदीस न.356, सबसे बड़ी ग़द्दारी: हदीस न. 356

गर्व करना

व्यर्थ ख़र्च पर गर्व करने के दुष्परिणाम: हदीस न.494

ग़म

खोई हुई चीज़ का ग़म: हदीस न.540, मोमिन का ग़म: हदीस न.164, ग़म के कारण: हदीस न.45

गंभीरता

गंभीरता शोभा के रूप में: हदीस न.335

ग़लती

ग़लती को अनदेखा करना: हदीस न.221, ग़लती पर जल्दी का प्रभाव: हदीस न.436, ग़लती पर न जानने का प्रभाव: हदीस न.440, ग़लती और नाशुक्री: हदीस न.440, ग़लती पर नेमत की नाशुक्री का प्रभाव: हदीस न. 405, ग़लती से बचने का तरीक़ा: हदीस न.275, ग़लती को माफ़ न करने वाला: हदीस न.296, ग़लती के कारण: हदीस न.14

गुनाह

गुनाह को ख़त्म करने में तौबा की भूमिका: हदीस न.48 व 202, गुनाह पर रोने का प्रभाव: हदीस न.208, ज़लील होने में गुनाहों की भूमिका: हदीस न.481, दुआ पर गुनाहों का प्रभाव: हदीस न. 561, लगातार गुनाह करना: हदीस न.150, गुनाह के बारे में सोचना 473, सबसे बड़ा गुनाह: हदीस न.150, गुनाह से बचना: हदीस न.145 व 349, छुप कर गुनाह करने से बचना: हदीस न.113, गुनाह से शर्माना: हदीस न.21, गुनाह का बदला चुकाना: हदीस न.240, गुनाहों का दर्द: हदीस न.76, गुनाहों के दर्द का इलाज: हदीस न. 76, गुनाह की तरफ़ खीँचने वाली चीज़ें: हदीस न.473, उदास करने वाले गुनाह: हदीस न.290, गुनाहों से बचने का फ़ायदा: हदीस न.170, गुनाह को छोटा समझना: हदीस न.215, गुनाह से पाक होने का आधार: हदीस न.315, गुनाहों पर अधिक बोलने का प्रभाव: हदीस न.122, गुनाहों से दूर रहने का शिक्षा लेने पर प्रभाव: हदीस न.20, गुनाहों से दूरी में रोने की भूमिका: हदीस न.87

गुनाहगार

स्वयं को गुनाहगार के रूप में प्रस्तुत करने की बुराई: हदीस न.299, अपने गुनाहों को स्वीकार करने वाला गुनाहगार: हदीस न.54,

घमंड

घमंड शैतान का जाल: हदीस न.24 व 32, आदमी के अपमान में घमंड की भूमिका: हदीस न.2

चक्की के गधे: हदीस न.91

चिंतन

उद्देश्यों की प्राप्ति में चिंतन की भूमिका: हदीस न.483, कार्य करने से पहले चिंतन करना: हदीस न.275, सही चिंतन का जन्म: हदीस न.115, क़ुरआन में चिंतन: हदीस न.216, कार्य शुरू करने से पहले चिंतन: हदीस न.219

चुग़ली

चुग़ली से बचना: हदीस न.126, चुग़ली सुनने वाला: हदीस न.38, चुग़ली निफ़ाक़ की पहचान: हदीस न.22, चुग़ली से दूरी: हदीस न.123, चुग़ली अल्लाह से दूर करती है: हदीस न. 123, चुग़ली कीनः व ईर्ष्या पैदा करती है: हदीस न.123

चुग़ल ख़ोर

चुग़लख़ोर की विशेषता: हदीस न.497

चुप रहना

चुप रहकर जवाब देना: हदीस न.271, मूर्ख के सामने चुप रहना: हदीस न. 37, वह चुप जो सुरक्षित रखता है: हदीस न.317,

जगह

सबसे बुरी जगह: हदीस न.301

जनता

लोगों के साथ भलाई करना: हदीस न.104, लोगों के कार्यों को सुधारना: हदीस न.507, सबसे कंजूस लोग: हदीस न.140 व 157, सबसे बुरे लोग: हदीस न.296 व 298 व 299 व 302, सबसे अच्छे लोग: हदीस न.140 व 148 व 152, अधिक इच्छाएं रखने वाले लोग: हदीस न.144, लोगों पर ज़ुल्म करने से बचना: हदीस न.104, सबसे अधिक बुद्धिमान लोग: हदीस न.159, लोगों से दुश्मनी: हदीस न.267, लोगों से दोस्ती: हदीस न.46, लोगों के साथ व्यवहार 355, सबसे अधिक नुक़्सान पहुँचाने वाले लोग: हदीस न.156, सबसे अधिक फ़ायदा पहुँचाने वाले लोग: हदीस न.140, लोगों से दूरी की वजह: हदीस न.123, सबसे अधिक ताक़तवर लोग: हदीस न.146, सबसे अधिक नफ़रत योग्य लोग: हदीस न.411, लोगों से प्यार मुहब्बत करना: हदीस न.258 व 465, लोगों के साथ रहना: हदीस न.255, लोगों पर दया करना: हदीस न.104, लोगों के क़रीब रहना: हदीस न.71, अच्छी हालत वाले लोग: हदीस न.149

जन्नत

अच्छे कार्यों के बिना जन्नत की इच्छा: हदीस न.325, जन्नत में जाने वाले इंसान: हदीस न. 412, जन्नत पाने के उपाय: हदीस न.588

ज़बान

ज़बान बुद्धी की परिचायक: हदीस न.593, ज़बान पर कन्ट्रोल: हदीस न.310,

ज़बान का ज़ख़्म

ज़बान के ज़ख़्म का दर्द: हदीस न. 329

ज़रूरत

मर्द की बेइज़्ज़ती में ज़रूरत की भूमिका: हदीस न.320

ज़रूरतमंद

ज़रूरतमंद को देना: हदीस न.566

जल्दी

जल्दी का ग़लतियों पर प्रभाव: हदीस न.436, जल्दी पर देरी को वरियता: हदीस न.83, जवाब देने में जल्दी करना: हदीस न., नेकी में जल्दी करना: हदीस न.83 व 322, काम के समय से पहले जल्दी करना: हदीस न.45, जल्दी से ग़लतियाँ पैदा होती हैं: हदीस न.14

जवान

जवान का दिल: हदीस न.176

जवानी

जवानी से लाभ उठाना: हदीस न.206, जवानी नेमत है: हदीस न.305

जवाब

जवाब देने में जल्दी करना: हदीस न.477

जान

जान की क़ीमत: हदीस न.416, तक़वे के द्वारा जान की रक्षा: हदीस न.285, जान को जन्नत के बदले बेंचना: हदीस न.416, जान का हर दिन कम होना: हदीस न.348

ज़िद्द

ज़िद्द का नुक़्सान: हदीस न.369

ज़िद्दी

ज़िद्दी से बहस करना: हदीस न.547

जिन पर ज़्यादा ग़ुस्सा होना चाहिए: हदीस न.411

जिहाद

स्वयं से जिहाद करना (अपनी इच्छाओं से लड़ना): हदीस न.571, उद्देश्यों तक पहुंचने में स्वयं से जिहाद का योगदान: हदीस न.261

जीवन

सफल जीवन की प्राप्ति के उपाय: हदीस न.375, जीवन पर सदव्यवहार के प्रभाव: हदीस न.199, जीवन पर बुरे व्यवहार के प्रभाव: हदीस न.293, जीवन की सरलता पर  मध्य मार्गीय खर्च के प्रभाव: हदीस न.251, जीवन के लिए योजना: हदीस न.375, जीवन की मज़बूती: हदीस न.75, जीवन के लिए मेहनत व कोशिश 420, सबसे अच्छा जीवन: हदीस न.161, जीवन का प्रबंधन: हदीस न.375, जीवन में ज्ञान की भूमिका: हदीस न.110

जीविका कमाना

जीविका के लिए सुबह के समय प्रयास करना: हदीस न.209, जीविका प्राप्त करने में मध्य मार्ग को अपनाना: हदीस न. 288

झुकाव

इंसान का झुकाव: हदीस न.377

झूठा

झूठ बोलने के बुरे प्रभाव: हदीस न.446, झूठे से मशवरा न करो: हदीस न.564, झूठे का आचरण: हदीस न. 564, झूठे का धोखेबाज़ होना: हदीस न.564

झूठी क़सम

झूठी क़सम का परिणाम: हदीस न.143

डरपोक

डरपोक से मशवरा न करो: हदीस न.563, डरपोक हर चीज़ को बड़ा बना देता है: हदीस न.563

डर व उम्मीद

डर व उम्मीद दोनों को बराबर बनाये रखना: हदीस न.253

तक़वा

कार्यों की सरलता पर तक़वे का प्रभाव: हदीस न.514, सबसे अच्छा तक़वा: हदीस न.375, इच्छाओं में तक़वा: हदीस न.67, तक़वा कमाल की निशानी के रूप में: हदीस न.67, तक़वे के द्वारा जान की रक्षा: हदीस न.285, तक़वे की रिआयत: हदीस न.466,

तन्हाई

सबसे अच्छी तन्हाई: हदीस न.539

तंगी

तंगी से बाहर निकलने का रास्ता: हदीस न.406 , तंगी के समय भलाई: हदीस न.362

त्याग

मोमिन के लिए त्याग: हदीस न.355

तुरंत बोलना

बुद्धी की परख में तुरंत बोलने की भूमिका: हदीस न.344

तोहफ़ा (उपहार)

दोस्ती में तोहफ़े की भूमिका: हदीस न.10

तौबा

गुनाहों को ख़त्म करने में तौबा की भूमिका: हदीस न.48 व 202, तौबा करने में देरी: हदीस न.574, दिल की सफ़ाई में तौबा की भूमिका: हदीस न.48

दृढ़ संकल्प

आलस्य का सामना करने में दृढ़ संकल्प का योगदान: हदीस न.321

दान

दान का महत्व: हदीस न. 397, कम दान: हदीस न.554, व्यर्थ किये बिना दान देना: हदीस न. 509, निर्धन को दान देना: हदीस न.566, कम देना बहाना करने से अच्छा है: हदीस न. 596, सबसे अच्छा दान: हदीस न.153, दान का परिणाम: हदीस न.234, दान देने में देर करना: हदीस न.566

दिखावटी दोस्त: हदीस न. 269

दिल

पाक दिलों की श्रेष्ठता: हदीस न.322

टूटे हुए दिलों की श्रेष्ठता: हदीस न.322

दिल

दिल का आराम: हदीस न.238, दिल को साफ़ करने में नसीहत का योगदान: हदीस न.346, दिल को ज़िन्दा करने में नसीहत की भूमिका: हदीस न. 11, दिल की उदासी: हदीस न.165, सबसे अच्छा दिल: हदीस न.163, दिल की बीमारी: हदीस न.130, दिल को बुद्धिमत्ता की शिक्षा देना: हदीस न.165, दिल रिश्वत नही लेता: हदीस न.294, दिल का रोज़ा: हदीस न.318, दिल अच्छाई व भलाई का बर्तन होता है: हदीस न. 163, दिल को नूरानी (प्रकाशित) बनाने वाली चीज़ें: हदीस न.87, दिल को आबाद करने वाली चीज़ें: हदीस न.428, दिल को अंधा बनाने वाली चीज़े: हदीस न.184, दिल की ग़फ़लत: हदीस न.291, दिल की कठोरता: हदीस न.127, न रोने वाला दिल: हदीस न.592, ईर्ष्यालु दिल: हदीस न.136, सबसे बुरा दिल: हदीस न.136, दिल की पवित्रता में तौबा की भूमिका: हदीस न.48

दीन

दीन को बर्बाद करने वाली चीज़ों से दूरी: हदीस न. 119, दीन के द्वारा दुनिया की रक्षा: हदीस न.316, दुनिया के द्वारा दीन बचाना: हदीस न.316, दीन का आधार: हदीस न.531, दीन की रक्षा: हदीस न.238, दीन की इज़्ज़त: हदीस न.84, दीन के संबंध में जागरूकता: हदीस न.90

दीनदारी

हिदायत व मार्गदर्शन पर दीनदारी का प्रभाव: हदीस न.534

दुआ

विपत्तियों पर दुआ के प्रभाव: हदीस न.198, दुआ का क़बूल होना: हदीस न.453, रोते हुए दुआ करना: हदीस न.527, दुआ मोमिन का हथियार है: हदीस न.284, गुनाह के साथ दुआ क़बूल नही होती: हदीस न.561

दुःख

सबसे बड़ा दुःख: हदीस न.154, बे फ़ायदा दुख उठाना: हदीस न. 154

दुश्मन

सबसे बुरा दुश्मन: हदीस न.583, दुश्मन को छोटा  न समझो: हदीस न.549, दुश्मन का अत्याचार: हदीस न. 174, दुश्मन से भलाई चाहना: हदीस न.368, दुश्मन की दुश्मनी का रास्ता: हदीस न.174, दुश्मन का अत्याचार 174, दुश्मन को दुश्मन कहने का कारण: हदीस न.174, दुश्मन के साथ भलाई करना: हदीस न.58,

दुश्मनी

लोगों से दुश्मनी 267

दूत

दूत, बुद्धिमात्ता का परिचायक: हदीस न. 230

दुनिया

दुनिया के परिणाम की जानकारी : हदीस न.392, दुनिया की सुन्दरता से दूर रहना: हदीस न.274, आख़ेरत व दुनिया का एक जगह इकठ्ठा होना: हदीस न.326, दुनिया की उपमा: हदीस न.525, दुनिया को ज़लील करने का तरीक़ा: हदीस न.334, दुनिया का नश्वर होना: हदीस न.1, दुनिया का विनाश: हदीस न.425, दुनिया परछाई के रूप में: हदीस न. 525, दुनिया से मुहब्बत नही: हदीस न.169, दुनिया की मुहब्बत अल्लाह की मुहब्बत से रोकती है: हदीस न.387

दुर्भाग्य

सबसे बड़ा दुर्भाग्य: हदीस न.508

दूर-दर्शिता

दूरदर्शिता का आत्म रक्षा पर प्रभाव : हदीस न.224, दूर दर्शिता के सियासी प्रभाव: हदीस न.286, परिणाम के बारे में दूरदर्शिता: हदीस न. 80, दूर दर्शिता का विनाश करने वाली चीज़ें: हदीस न. 444, दूर दर्शिता के बारे में मशवरा: हदीस न. 80, सफलता में दूर दर्शिता की भूमिका: हदीस न. 3

दूरदर्शी

दूर दर्शी की जागरूकता: हदीस न.4, दूर दर्शी का आदर सत्कार: हदीस न.16, दूर दर्शी से मशवरा करना: हदीस न.246

दूर रहना

दोस्त से दूर रहना: हदीस न.458 व 581

दोस्त

सबसे बुरा दोस्त: हदीस न.300, दोस्त पर पूरा भरोसा करने से बचो: हदीस न.107, दोस्त के साथ पूरी दोस्ती: हदीस न.107, दोस्त को पूरे राज़ बताने से बचो: हदीस न.107, दोस्त की ग़लतियाँ: हदीस न.454, दोस्त के साथ ग़द्दारी: हदीस न.356, सच्चा दोस्त: हदीस न.586, दोस्त पर कब भरोसा किया जाये: हदीस न.553, सदव्यवहार और दोस्तों की अधिकता: हदीस न.461, दोस्तों का कम होना: हदीस न.454, दोस्तों से अलग होना: हदीस न. 454 व 581

दोस्ती

दोस्ती पर आदर सत्कार का प्रभाव: हदीस न.226, दोस्ती पर सख़ावत का प्रभाव: हदीस न.9, दोस्ती पर हँस मुखी का प्रभाव: हदीस न.29, दोस्ती पर उपहार का प्रभाव: हदीस न.10, दोस्ती पर प्रफुल्लता का प्रभाव: हदीस न.283 व 337, दोस्त का नाम ज़बान पर रहता है: हदीस न.437, दोस्ती पर सच बोलने का प्रभाव: हदीस न.600, दोस्ती करना: हदीस न.218, दिल दोस्ती का गवाह: हदीस न.294, बेदीन से दोस्ती: हदीस न.584, अल्लाह से दोस्ती: हदीस न.387, अच्छाइयाँ भूलने वाले से दोस्ती: हदीस न.567, अनुपस्थिति में दोस्ती: हदीस न.586, जिस दोस्ती से रोका गया है: हदीस न.567, दोस्ती को मज़बूत बनाने का तरीक़ा: हदीस न.196, दोस्ती को अमर बनाने वाली चीज़ें: हदीस न.69, दोस्ती के कारण: हदीस न.231, अल्लाह के लिए दोस्ती: हदीस न.35

दृष्टि

दृष्टिवान इंसान: हदीस न.145,

धनवान (नेमत वाले)

धनवानों के साथ साझेदारी: हदीस न.307

धोखेबाज़ी

धोखेबाज़ी नीच लोगों का काम: हदीस न.43

नफ़्स (आत्मा)

नफ़्स की दुश्मनी: हदीस न.583, नफ़्स का धोखा: हदीस न.326

नमाज़

बच्चों को नमाज़ सिखाना: हदीस न.352, नमाज़ क़िले के रूप में: हदीस न.93, नमाज़ में सुस्ती के कारण: हदीस न.127, सबसे अच्छी नमाज़: हदीस न.183, औलाद को नमाज़ का शौक़ दिलाना: हदीस न.352

नमाज़ी

नमाज़ी पर रहमत: हदीस न.424

नर्मी

सख्ती करने वाले के साथ नर्मी: हदीस न.427

नसीहत

क़ुरआन से नसीहत लेना: हदीस न.216, किसी को लोगों के बीच में नसीहत करना: हदीस न.530, ज़माने से नसीहत लेना: हदीस न.421, उम्र से नसीहत लेना: हदीस न.423, सबसे अच्छी नसीहत: हदीस न.216, नसीहत बुराई के रूप में: हदीस न.530, नसीहत गुनाहों से रोकती है: हदीस न.20, नसीहत लेने वालों का कम होना: हदीस न.513, नसीहतों का अधिक होना: हदीस न.513, नसीहत से लापरवाही: हदीस न.211, दिल पर नसीहत का असर: हदीस न.346, जीवन पर नसीहत का असर: हदीस न.11



नसीहत करने वाला

नसीहत करने वाला गुनहगार: हदीस न.272, नसीहत करने वाले का नेक होना: हदीस न.441

नही जानता

"मैं नही जानता"यह कहना ज्ञानता की निशानी: हदीस न. 373, "मैं नही जानता"कहना बुरी बात नही है: हदीस न.132

ना अहल (अयोग्य)

अयोग्य के साथ भलाई करना: हदीस न.332, अयोग्य से मार्ग दर्शन चाहना: हदीस न.467

ना उम्मीदी

ना उम्मीदी की कड़वाहट: हदीस न.523

नाता तोड़ना

नाता तोड़ने से उम्र का घटना: हदीस न.415

निंदा

अधिक निंदा करना: हदीस न.139, निंदा का दर्द: हदीस न.53, नसीहत के साथ निंदा करना: हदीस न.530

निफ़ाक़ (द्विरूपता)

निफ़ाक़ से दूरी: हदीस न.125, निफ़ाक़ की जड़: हदीस न.533, अल्लाह से दूरी में निफ़ाक़ की भूमिका: हदीस न.125

निरोग्यता

सुख समृद्धी में निरोग्यता की भूमिका: हदीस न. 580

निर्धनता

अपनी निर्धनता को प्रकट करने के बुरे परिणाम: हदीस न.471, निर्धनता विपत्ति है: हदीस न.130, निर्धनता के कारण अपमान: हदीस न.494, निर्धनता और महत्व का कम होना: हदीस न.472, निर्धनता के कारण: हदीस न.34 व 437, निर्धनता में मध्यमार्ग  को अपनाना: हदीस न.493, इंसान के गुणों व अवगुणों को प्रकट करने में निर्धनता की भूमिका: हदीस न.36, निर्धनता से डराना: हदीस न.562

निर्धनता को प्रकट करना

निर्धनता को प्रकट करने की बुराई: हदीस न.34

निमन्त्रण

दो विरोधी निमन्त्रण: हदीस न.516

निश्चय

अपने निश्चय को प्रकट करने का परिणाम: हदीस न.444, निश्चय से पहले विचार: हदीस न.219, बुरे काम को करने का निश्चय: हदीस न.545, निश्चय से पहले मशवरा: हदीस न.304

नीच

नीच को अच्छाई के साथ जवाब देना: हदीस न.47, नीच का अपने माल की रक्षा करना: हदीस न.92, नीच की आदत: हदीस न.43, नीच का पेट भरना: हदीस न.429, नीच के मज़े: हदीस न.429, नीच के साथ झगड़ना: हदीस न.55

नीयत

काम पर नीयत के सही होने का असर: हदीस न.8, जन्नत पर नीयत का असर: हदीस न.588

नुक़्सान उठाने वाले: हदीस न.156

नेक

नेक की बात व काम में एक रूपता का होना: हदीस न.33, नेक के साथ रहना: हदीस न.374

नेकी

दूसरों की नेकियों को ज़ाहिर करना: हदीस न.178, नेकी को पूरा करना: हदीस न.78, नेकी करना: हदीस न.310, अपनी नेकियों को छुपाना: हदीस न.177, माँ बाप के साथ नेकी करने का असर: हदीस न.210, नेकी के ज़रिये क़ियामत के लिए सवाब जुटाना: हदीस न.172, नेकी के बदले बुराई: हदीस न.480, नेकी की सिफ़ारिश: हदीस न.249, नेकी में जल्दी करना: हदीस न.149, घमंड पैदा करने वाली नेकी का नुक़्सान: हदीस न.290, नेकी पर ज़ुल्म: हदीस न.332, नेकी में जल्दी: हदीस न.83 व 322, नेकी करना: हदीस न.51, नेकी के बारे में सोचने का फ़ायदा: हदीस न.51, दुश्मन के साथ नेकी करने का फ़ायदा: हदीस न.58, बुरे के साथ नेकी करना: हदीस न.96, माँ बाप के साथ नेकी करना: हदीस न.166, व 498, रिश्तेदारों के साथ नेकी करना: हदीस न.207, पड़ौसियों के साथ नेकी करना: हदीस न.443, तंगी में नेकी करना: हदीस न.362, अयोग्य के साथ नेकी करना: हदीस न.332, सबसे अच्छी नेकी: हदीस न.166, दिखावे के लिए नेकी करने से दूरी: हदीस न.552, शर्म के कारण नेकी को छोड़ना: हदीस न.552, नेकी की निशानी: हदीस न.505, निरन्तर आगे बढ़ने वाली कम नेकी: हदीस न.371, नेकी का बुरा नतीजा: हदीस न.212, सबसे अच्छी नेकी: हदीस न.138, नेकी की बर्बादी: हदीस न.212

नेमत  (अल्लाह के उपहार)

नेमत की रक्षा: हदीस न.243, नेमत छीनने वाले: हदीस न.270, नेमत योग्य: हदीस न.262, नेमत छिनने के कारण: हदीस न.333, नेमत की नाशुक्री: हदीस न.405 व 529, शाँती की नेमत 591, लोगों का किसी इंसान से अपनी ज़रूरतो का सवाल करना, नेमत: हदीस न.168, वह नेमते जिनका महत्व नही पहचाना जाता: हदीस न.305

नेमत की नाशुक्री करना

नेमत की नाशुक्री का नेमत पर प्रभाव: हदीस न.405

निगाह

निगाह, शैतान का जाल: हदीस न.24, ग़लत निगाह से दूरी: हदीस न.357

नींद

अधिक सोने के नुक़्सान: हदीस न.485

न्याय व इंसाफ़

मत भेदों को दूर करने में न्याय की भूमिका: हदीस न.64, बरकत पर न्याय का प्रभाव: हदीस न.197, न्याय स्थापित करना: हदीस न.265, न्याय का सवाब: हदीस न.306, सियासत में न्याय: हदीस न.286

पड़ोसी

पड़ोसी के राज़ों को जानने का ग़लत असर: हदीस न.484, पड़ोसी को अपमानित करने का ग़लत असर: हदीस न.511, मकान के लिए पड़ोसी की पहचान: हदीस न.287, पड़ोसी के साथ भलाई का फ़ायदा: हदीस न.443, अच्छे पड़ोसी की निशानी: हदीस न. 235

पदाधिकारी

पदाधिकारियों से ईर्ष्या: हदीस न.376

प्राप्त करना

हराम माल प्राप्त करना: हदीस न.488

परिणाम पर विचार करना

सुरक्षित रहने के लिए परिणाम पर विचार: हदीस न.349, परिणाम के बारे में दूर दर्शिता: हदीस न.80,  कार्यों के परिणाम पर विचार: हदीस न.192, परिणामों पर विचार बुद्धिमत्ता का लक्षण: हदीस न.151

पाक भाई (दोस्त)

पाक दोस्त शोभा होते हैं: हदीस न.338, पाक दोस्त सहायक होते हैं: हदीस न.338

पारसाई

सबसे अच्छी पारसाई: हदीस न.142

पिछले कार्यों की पूर्ति: हदीस न.323,

पतझड़

पतझड़ की सर्दी: हदीस न.220

परिवर्तन

परिवर्तन का लाभ: हदीस न.361, सांसारिक परिवर्तनों से शिक्षा: हदीस न.360,

पवित्रता

कमाल की प्राप्ति में पवित्रता की भूमिका: हदीस न.582, पवित्रता का महत्व: हदीस न.279, बहादुरी पर पवित्रता का प्रभाव: हदीस न.147, आत्मरक्षा में पवित्रता की भूमिका: हदीस न.225

पवित्रता

स्वयं को हवस से पवित्र करने का फ़ायदा: हदीस न.330,

पिता

पिता का आदर: हदीस न.101 व 229, पिता के साथ भलाई करने का परिणाम: हदीस न.210

पीड़ित

पीड़ित की सहायता: हदीस न.138

पेड़

बिना फल का पेड़: हदीस न.351

पेट

केवल पेट भरने के चक्कर में लगे रहने के दुष्परिणाम: हदीस न.486, पेट के अधिक भरे होने के बुद्धिमत्ता पर प्रभाव: हदीस न.570, पेट के अधिक भरे होने का नुक़्सान: हदीस न.50

पेट को भरना

अधिक पेट भरने से विचारों का प्रभावित होना: हदीस न. 383

प्रतिज्ञा

प्रतिज्ञा को तोड़ना: हदीस न.356

प्यार

कठिनाईयों के हल में प्यार मुहब्बत की भूमिका: हदीस न.381, सुख समृद्धि में प्यार मुहब्बत की भूमिका: हदीस न.289, धोखेबाज़ी से बचाने में प्यार मुहब्बत की भूमिका: हदीस न.258, बुराई से मुक्त रखने में प्यार मुहब्बत की भूमिका: हदीस न.58, धोखे धड़ी से बचाने में प्यार मुहब्बत की भूमिका: हदीस न.465, सियासत में प्यार मुहब्बत की भूमिका: हदीस न.268, दूर्दर्शी का प्यार: हदीस न.16

प्रश्न

कुछ जानने के लिए प्रश्न पूछना: हदीस न.193, दूसरों को परखने के लिए प्रश्न पूछना: हदीस न.193

प्रशंसा

प्रशंसा के दुष्प्रभाव: हदीस न.432, प्रशंसा में अधिक्ता: हदीस न.139, प्रशंसा की चाहत: हदीस न.241, अनुचित प्रशंसा: हदीस न.479

प्रसन्न चित्त

दोस्ती पर प्रसन्न चित्ता का प्रभाव: हदीस न.283 व 337, प्रसन्न चित्ता महानता की निशानी 594

फ़ुर्सत

फ़ुर्सत से फ़ायदा उठाना: हदीस न.112, फ़ुर्सत को गवांने का नुक़्सान: हदीस न.30, फ़ुर्सत को ग़नीमत समझना: हदीस न.204, शैतान की फ़ुर्सत: हदीस न.241, फ़ुर्सत को गवांना: हदीस न.112

फ़ैसला

अन्यायपूर्ण फ़ैसला: हदीस न.417

फौज

फौज, दीन की इज़्ज़त: हदीस न.84

बग़ावत (विद्रोह)

बग़ावत से दूरी: हदीस न.82,

बड़े

बड़ों के आदर का परिणाम: हदीस न.537

बच्चा

बच्चे को नमाज़ सिखाना: हदीस न.352

बचपन

बचपन में पढ़ाना लिखाना: हदीस न.490, बचपन में सीखना: हदीस न.457,

बद अख़लाक़ी

बद अख़लाक़ी से स्वयं को दुख होता है: हदीस न.435, बद अख़लाक़ी और जीवन कठिनाईयाँ: हदीस न.293,  बद अख़लाक़ी से आत्म पीड़ा होती है: हदीस न.293, बद- अख़लाक़ी का कोई इलाज नहीं है: हदीस न.378

बद गुमानी

अल्लाह पर बद गुमानी: हदीस न.42

बरकत (वृद्धी)

बरकत पर न्याय का प्रभाव: हदीस न.197, बरकत ख़त्म होने के कारण: हदीस न.181

बसंत

बसंत की हवा: हदीस न.220

बहादुरी

बहादुरी पर कंजूसी का प्रभाव: हदीस न.281, बहादुरी शोभा व सुन्दरता है: हदीस न.519

बंदे का आदर

अल्लाह की मुहब्बत का पैदा होना 187





बात चीत

आखेरत को विनाश करने वाली बातों से दूरी: हदीस न.119, बुरी बातों से दूरी: हदीस न.126, बात कहने की जगह: हदीस न.407, अच्छी बात का जवाब: हदीस न.116, कुछ बात का जवाब नही देना चाहिए: हदीस न.271, जिन बातों से नेमत रुक जाती हैं: हदीस न.270, बुरी बात: हदीस न.317, अनुचित बात: हदीस न.463, अच्छी बात: हदीस न.116, कम बोलना: हदीस न.450, बातों के बारे में पूछ ताछ होना: हदीस न.450, मीठी बात करना: हदीस न.162, कही हुई बात पर अमल करना: हदीस न.413, लाभदायक बात चीत: हदीस न. 413

बातिन (अंतरात्मा)

जन्न की प्राप्ति में अंतरात्मा की भूमिका: हदीस न.588

बातिल (असत्य व अवास्तविक)

बातिल को मिटाना: हदीस न.265, बातिल की ओर झुकने से बचना: हदीस न.108, हक़ व बातिल का एक साथ इकठ्ठा न होना: हदीस न.572

बादशाह

बादशाह की श्रेष्ठता: हदीस न.367,  बादशाह का क़िला फौज: हदीस न.84

बेदीन

बेदीन पर भरोसा न करना: हदीस न.542





बेवफ़ाई

सबसे बुरी बेवफ़ाई: हदीस न.141

बेहिम्मत

बेहिम्मत इंसानों के साथ न रहो: हदीस न.495

बीमारी

शारीरिक बीमारी: हदीस न.130, दिल की बीमारी: हदीस न.130, बीमारी का सदक़े से इलाज: हदीस न.285

बुद्धी

बुद्धी की परख तुरंत बोलने से: हदीस न. 344, बुद्धी का आधार: हदीस न.46, बुद्धी की ग़लतियाँ: हदीस न.117, बुद्धी को परखने का तरीक़ा: हदीस न.344, बुद्धी की निशानी: हदीस न.593, बुद्धी की ज़कात: हदीस न.408, बुद्धी को आरोपित करना: हदीस न.117, बुद्धी के ख़राब होने के कारण: हदीस न.49, बुद्धी के पूर्ण होने की निशानी: हदीस न.179

बुद्धिमत्ता

बुद्धिमत्ता की शिक्षा: हदीस न.252, दिल के लिए बुद्धिमत्ता की शिक्षा: हदीस न.165, बुद्धिमत्ता का परिणाम: हदीस न.274, बुद्धिमत्ता का तर्क: हदीस न.151, बुद्धिमत्ता की निशानी: हदीस न.230

बुद्धिमान

बुद्धिमान के कार्य, जीवन के लिए: हदीस न.420, बुद्धिमान के कार्य, क़ियामत के लिए: हदीस न.420, बुद्धिमान के कार्य, हलाल मज़े के लिए: हदीस न.420, बुद्धिमान का सीना: हदीस न. 319, बुद्धिमान के रहस्यों का संदूक़: हदीस न. 319, बुद्धिमान का कम बोलना: हदीस न. 179, बुद्धिमान से मशवरा करना: हदीस न. 80 व 246, बुद्धिमान के लिए शौभनीय कार्य: हदीस न. 420, बुद्धिमान को मशवरे की ज़रूरत: हदीस न. 578, बुद्धिमान से मदद माँगना: हदीस न. 489, बुद्धिमान का अनुभवों को इकठ्ठा करना: हदीस न.173, बुद्धिमान की निंदा: हदीस न.458

बुराई

खुले आम बुराई होने के नुक़्सान: हदीस न.181, बुराईयों के फैलने का नुक़्सान: हदीस न.370, बुराई को प्रकट करने में क्रोध की भूमिका: हदीस न.396, सबसे बड़ी बुराई: हदीस न.155, अपनी बुराई को देखना: हदीस न.159, बुराईयों को प्रकट करने वाला दोस्त: हदीस न.455, अपनी बुराईयों को देखना: हदीस न.145, बुरे होते हुए दूसरों की बुराइयों को तलाश करना: हदीस न.155, दूसरों की बुराइयों को अन देखा करना: हदीस न.159, बुराई फैलाना: हदीस न. 522

बुराइयाँ खोजना

बुराइयों की खोज से दूर रहना: हदीस न.411,

बुराइयों का फ़ैलाना : हदीस न.522





बुरी संतान

बुरी संतान इज़्ज़त को खो देती है: हदीस न.534, समय की संतान होना: हदीस न.15

बुरे इंसान

बुरों की बुराई: हदीस न.302, बुरों से बचना: हदीस न. 374, बुरे लोगों का बुराई फैलाने की कोशिश करना: हदीस न. 263

बुरे कार्य करने वाले

बुरे कार्य करने वालों को सुधारना: हदीस न.97, बुरे लोगों को माफ़ करना: हदीस न.96, बुरे के साथ अच्छा व्यवहार: हदीस न.96

बुरे दोस्त: हदीस न.303,

बोलना

ग़लत बात कहने से बचना: हदीस न.560, अच्छे अन्दाज़ में अच्छी बात कहना: हदीस न.116

भटकना

भटकाव के कारण: हदीस न.468

भरोसा

भरोसे पर सच बोलने के प्रभाव: हदीस न.600, परीक्षा से पहले भरोसा करना: हदीस न. 6 व 7, दोस्त पर पूरा भरोसा करने से बचना: हदीस न.107, दोस्त पर भरोसा करने का समय: हदीस न.553





भलाई

अपने मातहतों के साथ भलाई: हदीस न. 350, आम जनता के साथ भलाई: हदीस न.104 व 526, भलाई आख़ेरत के तोशे (यात्रिक) के रूप में: हदीस न.526, भलाई का महत्व: हदीस न.7, सबसे अच्छी भलाई: हदीस न.6, भलाई करके एहसान जताना: हदीस न.62, भलाई के महत्व को कम करने वाली चीज़ें: हदीस न.62, भलाई के बर्बाद होने का कारण: हदीस न.18, भलाई के बिना बुराई: हदीस न.302, भलाई को छोड़ने का बुरा परिणाम: हदीस न. 89,

भलाई चाहना

दुश्मन से भलाई चाहना: हदीस न. 368, अल्लाह से भलाई चाहना: हदीस न.190

भाई

वह भाई जिनमें अच्छाई नही पाई जाती: हदीस न.590, सबसे अच्छे भाई: हदीस न.248 व 249, भाई चारे को स्थाई बनाने वाली चीज़ें: हदीस न.69, भाईयों की सहायता करना: हदीस न.13 व 95 व 515 व 431,  भाई की जान से सहायता करना: हदीस न.531, भाई के साथ उठना बैठना: हदीस न.502

भाई चारा (दोस्ती)

भाई चारे की परख कठिनाई में होती है: हदीस न.343, भाई चारे पर कंजूसी का प्रभाव: हदीस न.281, भाई चारे की मज़बूती: हदीस न.239, अल्लाह के लिए भाई चारा स्थापित करना: हदीस न.69 व 340, कठिनाई में भाई चारा: हदीस न.518, खुश हाली में भाई चारा: हदीस न.518, भाई चारे की रक्षा: हदीस न.515, भाई चारे को मज़बूत बनाने का आधार: हदीस न.239

भाग्य

भग्य पर ख़ुश रहना: हदीस न.161 व 195

भोग विलास

भोग विलास की लिपसा: हदीस न.422

भोजन

स्वास्थ के साथ भोजन का मज़ा: हदीस न.200

मजबूरी

किसी की मजबूरी को स्वीकार न करने की बुराई: हदीस न.296, मजबूरी को स्वीकार करना:

हदीस न.503

मज़लूम

मज़लूम का दिन: हदीस न.599, मज़लूम की मदद करना: हदीस न.185 व 399

मज़ा

मज़ा बिना भलाई: हदीस न.579

मज़ाक़

मज़ाक़ रोब को मिटा देता है: हदीस न.395

मध्य मार्ग

जीवन की खुशियों में मध्य मार्ग का योगदान: हदीस न.251, मध्य मार्ग की रिआयत करना : हदीस न.426, कंजूस का मध्य मार्ग को अपनाने से मना करना: हदीस न.562, मध्य मार्ग के अवसर: हदीस न.9, अहले बैत (अ) का मध्य मार्ग को अपनाना: हदीस न.27, कार्यों में मध्य मार्ग को अपनाना: हदीस न.251, जीवन में मध्य  मार्ग: हदीस न.195, सियासत में मध्य मार्ग 286, जीविका कमाने में मध्य मार्ग: हदीस न.228, मोमिन का मध्य मार्ग अपनाना: हदीस न.55

मर्दानगी

मर्दानगी और पारसाई: हदीस न.147, पूरी मर्दानगी: हदीस न.237, मर्दानगी से दूरी: हदीस न.480, मर्दानगी का आधार: हदीस न.147, मर्दानगी व शर्म 147, बग़ैर ख़र्च के मर्दानगी: हदीस न.509, मर्दानगी का फल: हदीस न.147, मर्दानगी की निशानी

मर्दों का जौहर

मर्दों के जौहर की पहचान: हदीस न.361

मरने के बाद

मरने के बाद का तोशा (यात्रिक): हदीस न.172

मशवरा (परामर्श)

सफलता में मशवरे का योगदान: हदीस न.209, कंजूस से मशवरा करने से बचना: हदीस न.562, डर पोक से मशवरा करने से बचना: हदीस न.563, लालची से मशवरा करने से बचना: हदीस न.565, झूठे से मशवरा करने से बचना: हदीस न.564, मशवरे का फ़ायदा: हदीस न.28, बुद्धिमान से मशवरा करना: हदीस न.246, दूर दर्शी से मशवरा करना: हदीस न.246, अनुभवी से मशवरा करना: हदीस न.246, ज्ञानी से मशवरा करना: हदीस न.246, मशवरे में दूर दर्शिता: हदीस न.80, काम शुरू करने से पहले मशवरा करना: हदीस न.219, किसी काम का पक्का इरादा करने से पहले मशवरा करना: हदीस न.304, मशवरे की ज़रूरत: हदीस न.152 व 578

महत्व

महत्व को कम करने वाले कारण: हदीस न.472, महत्व को बढ़ाने में हिम्मत का योगदान: हदीस न.470, महत्व का आधार: हदीस न.131 व 486

महान

महान का अपनी इज़्ज़त को बचाना: हदीस न.92

महानता

सफलता में महानता: हदीस न.400, महानता पाने का तरीक़ा: हदीस न.186, महानता, इफ़्फ़त (अश्लीलता से दूरी) से पूर्ण होती है: हदीस न. 594,

मातहत

मातहतों पर ध्यान देना: हदीस न.103, मातहतों के साथ भलाई करना: हदीस न.350, मातहतों को ज़िम्मेदारी सोंपना: हदीस न.106

माफ़ करना

माफ़ करने का सवाब: हदीस न.306, बुरे को माफ़ करना: हदीस न.96, ग़लती को माफ़ करना: हदीस न.221, माफ़ करना सबसे अच्छी नेकी के रूप में: हदीस न.6

मार्गदर्शन

अच्छी बातों के द्वारा मार्गदर्शन: हदीस न.97, अयोग्य से मार्ग दर्शन चाहना: हदीस न. 468, मार्ग दर्शन दीन के साथ: हदीस न.534

माल

माल पर ज्ञान को वरीयता: हदीस न.2, माल की रक्षा: हदीस न.82, माल की अधिकता का आधार: हदीस न.315, सबसे अच्छा माल: हदीस न.245

मालदार

मालदार बनने का तरीक़ा: हदीस न.100,

मालदारी

मालदारी में मध्य क्रम को अपनाना: हदीस न.493

माँगना

अच्छे तरीक़े से माँगने का प्रभाव: हदीस न.431

माँगने वाला पाता है: हदीस न.467

माँ बाप

माँ बाप के साथ भलाई करने का परिणाम: हदीस न.498, माँ बाप की अवज्ञा का परिणाम: हदीस न.474, माँ बाप के साथ भलाई: हदीस न.166 व 498

मीरास

सबसे अच्छी मीरास: हदीस न.250

मुजाहिद

मुजाहिदों के लिए आसमान के दरवाज़ों का खुलना: हदीस न.47

मुत्तक़ीन

इच्छाओं के होते हुए मुत्तक़ियों के तक़वे का ज़ाहिर होना: हदीस न.345, मुत्तक़ियों के तकवे का लज्जतों के साथ ज़ाहिर होना: हदीस न.345, मुत्तक़ियों की राय की रियाअत करना: हदीस न.232,

मुनाजात (विनती)

मोमिन की मुनाजात: हदीस न.410

मुनाफ़िक़

मुनाफ़िक़ की निशानी: हदीस न.22

मुशाविर (परामर्शदाता)

सबसे अच्छा मशवरा देने वाला: हदीस न.246, मशवरा देने वाले का गंभीर होना: हदीस न.341

मुहब्बत

ख़ालिस मुहब्बत  का आधार: हदीस न.47, मुहब्बत पर वफ़ादारी का प्रभाव: हदीस न.282, मुहब्बत पर न्याय का प्रभाव: हदीस न.64

मुस्तहब

वाजिब से टकराने वाले मुस्तहब: हदीस न.180, वाजिब को नुक़्सान पहुँचाने वाले मुस्तहब: हदीस न.180,

मुसलमान

मुसलमान बने रहने का आधार: हदीस न.99

मूर्ख

मूर्ख से दुश्मनी: हदीस न.548, मूर्ख की निंदा: हदीस न.548, मूर्ख के साथ उठना बैठना: हदीस न.469, मूर्ख को बर्दाश्त करना: हदीस न.408, मूर्ख की बात का जवाब न देना: हदीस न.217, मूर्खों के सामने चुप रहना: हदीस न. 37

मूर्खता

मूर्खता की कठिनाईयाँ: हदीस न.19, मूर्खता की निशानी: हदीस न.278, मूर्खता की जड़: हदीस न.267 व 12, विनाश में मूर्खता का योगदान: हदीस न.5, मूर्खता का परिणाम: हदीस न.8, सबसे बड़ी मूर्खता: हदीस न.139, मूर्खता के कार्य: हदीस न.325, बे मौक़े हँसना मूर्खता की निशानी: हदीस न.391, मूर्खता का लक्षण: हदीस न.422, मूर्खता उल्टी सीधी बातों का परिणाम: हदीस न.359, मूर्खता की ओर झुकाव: हदीस न.422

मेल जोल

सुरक्षित रहने में मेल जोल की भूमिका: हदीस न. 288

मेहनत व परिश्रम

उद्देश्यों की प्राप्ति में मेहनत की भूमिका: हदीस न.447, आख़ेरत के लिए मेहनत 105,

मेहमान

मेहमान का आदर: हदीस न.101, मेहमान की आव भगत: हदीस न.229

मेहरबानी (दया)

दया का दोस्ती पर प्रभाव: हदीस न.231, लोगों पर दया करना: हदीस न.104

मोमिन

मोमिन का आसानी से काम लेना: हदीस न.54, मोमिन का ग़म: हदीस न.164, मोमिन की समय सारणी: हदीस न.401, मोमिन का जीवन 55, मोमिन का चेहरा: हदीस न.164, मोमिन की राय का सम्मान: हदीस न.232, मोमिन के साथ व्यवहार: हदीस न.355, मोमिन का हथियार: हदीस न.286, मोमिन की खुशी: हदीस न.164, मोमिन का शुक्र: हदीस न.259, मोमिन की ताक़त: हदीस न.164, मोमिन का अपने कामों का हिसाब करना: हदीस न.410, मोमिन का भरोसेमंद होना: हदीस न.54, मोमिन की मुनाजात: हदीस न.410, मोमिन का मध्य मार्ग को अपनाना: हदीस न.55, मोमिन का भूखों के बारे में सोचना: हदीस न.577, मोमिन का सरल स्वभावी होना: हदीस न.54, मोमिन का मज़ा लेने का वक़्त 410

मोहलत

जिन्दगी की मोहलत से फ़ायदा उठाना: हदीस न.324

मौत

मौत के लिए तैयार रहना: हदीस न.348, मौत पर सिला ए रहम का असर: हदीस न.314, मौत से भी बुरा: हदीस न.158, मौत की तरफ़ क़दम बढ़ाना: हदीस न.528, मौत की याद: हदीस न.144,

यतीम

यतीम पर ज़ुल्म से नेमतों का छिनना: हदीस न.333, यतीम पर ज़ुल्म से अज़ाब का आना: हदीस न.333

युग (समय व ज़माना)  

ज़माने का बदलना: हदीस न.81, समय के विपरीत होने पर सब्र: हदीस न.81, राज़ व रहस्यों के खोलने में समय की भूमिका: हदीस न.44 व 402

राज़ (रहस्य)

पड़ोसी के राज़ को जानना: हदीस न.484, किसी का राज़ खोलना: हदीस न.141 व 520, राज़ के बारे में कंजूसी करना: हदीस न.401, राज़ खोलने से बचना: हदीस न.401, दोस्त को राज़ बताने से बचना: हदीस न.107, राज़ के खुलने का कारण: हदीस न.402, राज़ खुलने का नुक़्सान: हदीस न.292

राज़ खोलना

राज़ खोलने से बचना: हदीस न. 401, राज़ खोलना विश्वासघात: हदीस न. 401

राज़दारी

राज़दारी का महत्व: हदीस न.98, राज़ को छुपाने की ताक़त का न होना: हदीस न.482,

राय मशवरा

राय का महत्व: हदीस न.277, राय मशवरे का फ़ायदा: हदीस न. 115

रिया (पाखंड व दिखावा)

रिया का शिर्क होना: हदीस न.595

रियाकार (पाखंड़ी)

पाखंडी की आन्तरिक बीमारी: हदीस न.61, पाखंड़ी की बाह्य सुन्दरता: हदीस न. 61

रिश्तेदार

रिश्तेदारों से मिल कर रहना: हदीस न. 243 व 262, रिश्तेदारों के साथ भलाई करना: हदीस न. 207

रूह का अज़ाब

दुरव्यवहार आत्मा के लिए अज़ाब है: हदीस न.293

रोज़ा

दिल का रोज़ा: हदीस न. 318

रोज़ी (जीविका)

रोज़ी पर सिला ए रहम का प्रभाव: हदीस न.314, अपनी रोज़ी पर खुश रहना: हदीस न.100

रोना

लोगों के सामने रोने की कड़वाहट: हदीस न.523

रोना

गुनाहों पर रोने का प्रभाव: हदीस न.208, अल्लाह के डर से रोना: हदीस न.87 व 208, रोने से गुनाहों से दूरी: हदीस न.87, रोने से दिल का नूरानी होना: हदीस न.87

लड़ना

झगड़ालु स्वभव वाले से लड़ना: हदीस न.547

लापरवाह

लापरवाह का नींद में होना: हदीस न.4

लापरवाही

मौत के लिए तैयार न होने पर लापरवाही का प्रभाव: हदीस न.538, लापरवाही से जागना: हदीस न.129, नसीहत से लापरवाह रहना: हदीस न.211, शक्ति का अनुचित प्रयोग, लापरवाही की निशानी: हदीस न.393, दिल की लापरवाही: हदीस न.291

लाभ

लाभ से वंचित होना: हदीस न.27

लालच

अनुचित लालच: हदीस न.541, अपमान में लालच की भूमिका: हदीस न.17

लालची

लालची के मशवरे से बचो: हदीस न.565, लालची का लालच को सुसज्जित करना: हदीस न.565

लेख

लेख पर ध्यान देना: हदीस न.194

लेन देन : हदीस न.403

लोगों की नारज़गी

लोगों की नाराज़गी की परवाह न करके अल्लाह को ख़ुश करना: हदीस न. 492

लोगों की पहचान

लोगों की पहचान व भरोसा: हदीस न.456

लोगों की ज़रूरत

लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना: हदीस न.168

लोगों को आकर्षित करना

लोगों को आकर्षित करने के साधन: हदीस न.478

वफ़ादारी

मुहब्बत पर वफ़ादारी का असर: हदीस न.282

वादा

ना होने वाले काम का वादा करने से बचना: हदीस न.544, वादे को याद रखना: हदीस न.94

विकास व उन्नति

विकास का विरोध: हदीस न.474,

विचार

अधिक खाने से विचारों का प्रभावित होना: हदीस न.383

विधवा

विधवा पर अत्याचार का परिणाम: हदीस न.333

विनम्रता

सियासत में विनम्रता: हदीस न.286, मोमिन की विनम्रता: हदीस न.54

विनाश

विनाश के कारण: हदीस न.5

विपत्ति

निर्धनता विपत्ति है: हदीस न.130, दुआ से विपत्ति दूर होती है: हदीस न.198,

विलंब (देरी)

जल्दी पर देरी को वरीयता: हदीस न.83

वेश

स्वास्थ का वेश: हदीस न.573

व्यर्थ

व्यर्थ काम करने में मूर्खता की भूमिका: हदीस न.8

व्यर्थ कार्य

व्यर्थ कार्यों से बचना: हदीस न.259

व्यर्थ ख़र्च

व्यर्थ ख़र्च से बचना: हदीस न.397, व्यर्थ ख़र्च पर गर्व करना: हदीस न.494

व्यर्थ की सभायें

व्यर्थ की सभाओं का परिणाम: हदीस न.524

व्यस्तता

अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने में व्यस्त रहना: हदीस न. 398

व्यापार

फ़िक़्ह पढ़े बिना व्यापार करना: हदीस न.462

शर्म

गुनाह से शर्माना: हदीस न.21, शर्म ईमान की निशानी: हदीस न.244, स्वंय से शर्माना 244, अनावश्यक शर्म: हदीस न.229, कम दान देने से शर्माना: हदीस न. 554, शर्म व पारसाई: हदीस न. 147, हुनर सीखने में शर्माना: हदीस न. 131,

शर्म के कार्य

शर्म के कार्यों से बचना: हदीस न.237

शराफ़त

शराफ़त ख़त्म होने के कारण: हदीस न.536,

शरीर

शारीरिक रोग का कारण: हदीस न.127, शारीरिक स्वास्थ: हदीस न.311

शाँति

शाँति नेमत के रूप में: हदीस न.591, शाँति पर ख़ुश गुमानी का प्रभाव: हदीस न.238, शाँति पर किताब पढ़ने का प्रभाव

शिष्टाचार

उद्देश्यो की प्राप्ति में शिष्टाचार की भूमिका: हदीस न.261, सबसे अच्छा शिष्टाचार: हदीस न.160, स्वयं को शिष्टाचारी बनाने के उपाय: हदीस न.394, शिष्टाचार की ज़रूरत: हदीस न.167

शिक्षार्थी

शिक्षार्थी की आखेरत में सफलता: हदीस न.409,शिक्षार्थी की दुनिया में इज़्ज़त: हदीस न.409

शुरू करना

मौक़े पर शुरू करना: हदीस न.205, शुरू करने से पहले विचार करना: हदीस न.304

शुक्र

शुक्र करने का तरीक़ा: हदीस न.103, समृद्धी में शुक्र: हदीस न.336, कठिनाई में शुक्र: हदीस न.336, मोमिन का शुक्र: हदीस न.295



शैतान

शैतान का जाल: हदीस न.24 व 32, अल्लाह की याद से शैतान दूर होता है: हदीस न.260

शोभा

सबसे अच्छी शोभा: हदीस न.335, बुराईयों से दूर रहने वाले भाईयों का शोभा होना: हदीस न.338

सख़ावत (खुले हाथों खर्च करना)

दोस्ती में सख़ावत की भूमिका: हदीस न.9

सच्चाई

सच्चाई की वास्तविक्ता: हदीस न.60

सच बोलना

सच बोलने का भरोसे पर प्रभाव: हदीस न.600, सच बोलने का दोस्ती पर प्रभाव: हदीस न.600, सच बोलने का रोब पर प्रभाव: हदीस न.600, सच बोलने का फ़ायदा: हदीस न.597

सच्चे दोस्त

सच्चे दोस्त की क़ुर्बानी: हदीस न.79, सच्चे दोस्त से नसीहत: हदीस न.79, सच्चे दोस्त बुराई से दूर रखते हैं: हदीस न.79,

सच्चे भाई (दोस्त)

सच्चे दोस्त शोभा बनते हैं: हदीस न.72, सच्चे दोस्त सहायक होते है: हदीस न.72

सत्ता

सत्ता के यन्त्र: हदीस न.40, सत्ता के लिए सीने का बड़ा होना: हदीस न.40

सताना

किसी को सताने से दूर रहना: हदीस न.505

सदक़ा

छुपा कर सदक़ा देने के गुनाह पर प्रभाव: हदीस न.315, खुले आम सदक़ा देने के माल की वृद्धी पर प्रभाव: हदीस न.315, सदक़े से इलाज: हदीस न.285, सदक़ा नेकी के रूप में: हदीस न.207, छुपा कर सदक़ा देने की श्रेष्ठता: हदीस न.166

सदव्यवहार

दोस्ती की मज़बूती पर सदव्यवहार का प्रभाव: हदीस न.239

सदाचार

दोस्ती पर सदाचार का प्रभाव: हदीस न.231

सफलता

सफलता के समय सयंम से काम लेना: हदीस न.400, सफलता की मिठास: हदीस न.242, सफलता में दूरदर्शिता का योगदान: हदीस न.3, सफलता पर अमानतदारी का प्रभाव: हदीस न.365, सफलता पर पिछले कार्यों की पूर्ति का प्रभाव: हदीस न.365, सफलता में वफ़ादारी का योगदान: हदीस न.365, सफलता के कारकों का प्रबंध: हदीस न. 259, शिक्षार्थी की परलोकीय सफलता: हदीस न.409, प्रति दिन के कार्यों के द्वारा सफलता: हदीस न.365, सफलता के कारक 171, सफलता में मशवरे का योगदान: हदीस न.209

सफ़ेद बाल

सफ़ेद बालों की चेतावनी: हदीस न.388

सब्र

सब्र के साथ समृद्धि का इंतज़ार: हदीस न.41, सब्र की कड़वाहट: हदीस न.242, हक़ की कड़वाहट पर सब्र: हदीस न.108, सब्र के प्रकार: हदीस न.77, कठिनाईयों पर सब्र: हदीस न.77, समय के विपरीत होने की स्थिति में सब्र: हदीस न.77, सब्र कमाल की निशानी: हदीस न.67, दुर्घटनाओं पर सब्र: हदीस न.67, अल्लाह की आज्ञा पालन पर सब्र: हदीस न.65

सबसे अच्छे इंसान: हदीस न.84

सबसे बड़ा बुद्धिमान: हदीस न.159

सबसे बुरे लोग: हदीस न.296, 298, 299, 302

समझौता

वह समझौता जिस पर भरोसा नही करना चाहिए: हदीस न.542,

समय

समय का विभाजन: हदीस न.410,

सम्मिलित  होना

धनवानो के साथ सम्मिलित होना: हदीस न.307,

समूह

समूह के साथ रहना: हदीस न.111

समृद्धता

इंसान की विशेषताओं को प्रकट करने में समृद्धता की भूमिका: हदीस न.36

समृद्धि

अच्छी समृद्धि: हदीस न.560, समृद्धि पर परिश्रम का प्रभाव: हदीस न. 203, समृद्धि पर शाँति का प्रभाव: हदीस न. 580, समृद्धि पर सम्मान व सत्कार का प्रभाव: हदीस न.289, समृद्धि हीन लोग: हदीस न.575

सर्दी

बसंत की सर्दी को गले से लगाना: हदीस न.220,

आती सर्दी से बचना: हदीस न.220,

सरलता

मोमिन का सरलता से काम लेना: हदीस न.54

सलाम

सलाम को प्रकट रूप में करना: हदीस न.162, सलाम करने में कंजूसी: हदीस न.157

सहायता

सहायता को भूल जाना: हदीस न.94,

सहायता करना

भाई की सहायता करना: हदीस न.515 व 531, जान व माल से सहायता करना: हदीस न. 515 व 531,

सहायता करने की श्रेष्ठता: हदीस न.138

संतान

संतान को नमाज़ पढ़ने का शौक़ दिलाना: हदीस न.352

संबंध

भाई चारे का संबंध: हदीस न. 418 व 419

संयम

बदला लेने में संयम से काम लेना: हदीस न.148

संयमी

सयंमी की बर्दाश्त: हदीस न.31

साथ बैठना

भाईयों के साथ बैठना: हदीस न.502, आलिमों (ज्ञानियों) के साथ बैठना: हदीस न.232,

साथ रहना

साथ रहने से आदतों की जानकारी होना: हदीस न.257,

साथी

बुरे साथी: हदीस न.539, बुरे साथी दोज़ख की आग: हदीस न.313, बुरे साथियों के पास बैठने से दूरी: हदीस न.120, बुरे साथियों के नुक़्सान: हदीस न.120

साफ़ नीयत

साफ़ नीयत का निकटता पर असर: हदीस न.231

सामाजिक महत्व

सामाजिक महत्व को बढ़ाने वाली चीज़ें: हदीस न.459 व 470 व 532

सार्वजनिक व्यवहार

सार्वजनिक व्यवहार का आधार: हदीस न.99

साँस लेना

साँस लेना मौत की तरफ़ बढ़ना: हदीस न.528

सियासत

सियासत में दूर दर्शिता: हदीस न.286, सियासत का आधार: हदीस न.268, न्याय पर आधारित सियासत: हदीस न. 286, सियासत में न्याय: हदीस न. 286, सियासत में प्यार मुहब्बत: हदीस न. 268, सियासत में मध्य मार्ग को अपनाना: हदीस न. 286, सियासत में विनीतता: हदीस न.286

सिला –ए- रहम

सिला –ए- रहम का मौत पर प्रभाव: हदीस न. 314, सिला –ए- रहम का धन की वृद्धी पर प्रभाव: हदीस न.314,  सिला –ए- रहम की श्रेष्ठता: हदीस न.166

सीने का बड़ा होना

सत्ता व सीने का बड़ा होना: हदीस न.40

सुख चैन का इन्तेज़ार

सब्र के साथ सुख चैन का इन्तेज़ार: हदीस न.41

सुधार

लोगों के कार्यों का सुधार: हदीस न.507, अच्छे कार्यों के द्वारा सुधार: हदीस न.97, अपना सुधार: हदीस न. 386, दूसरों के सुधार के तरीक़े: हदीस न.386, आत्म सुधार के उपाय: हदीस न.346, सुधार की निशानी: हदीस न.240, बन्दो का सुधार: हदीस न.191

सुन्दरता

सुन्दरता और अल्लाह की आज्ञा का पालन: हदीस न.512

सुन्दरता

सुन्दरता की ज़कात: हदीस न.279, आन्तरिक सुन्दरता: हदीस न. 39, बाह्य सुन्दरता: हदीस न.39, ज्ञान प्रसार की सुन्दरता: हदीस न.236

सुनना

दिल की ग़फ़लत के साथ सुनना: हदीस न.391

सुन्नत

अच्छी सुन्नत: हदीस न.567, इंसानों को आपस में मिलाने वाली सुन्नत: हदीस न.567

सुन्नत को मिटाना

सुन्नत को मिटाने से बचना: हदीस न. 567

सुरक्षा

सुरक्षा में दूर दर्शिता की भूमिका: हदीस न.24,

सुविचार

सुविचारों को सत्य रूप देना: हदीस न.448

सौभाग्य

हक़ के द्वारा सौभाग्य की प्राप्ति: हदीस न.363, भाग्यशाली बनाने वाली चीज़ें: हदीस न.256, ग़लतियों की पूर्ति का सौभाग्य पर प्रभाव: हदीस न.  323, पूर्ण सौभाग्य: हदीस न.507

स्वयं को यातना देना

स्वयं को यातना देने में बद अख़लाक़ी की भूमिका: हदीस न.435

स्वयं को भूल जाना

अल्लाह को भूलाने का परिमाम स्वयं को भूलना: हदीस न. 434

स्वयं से प्रसन्न रहना

ख़ुद से राज़ी रहना, मंद बुद्धी: हदीस न.278

स्वेच्छाचारिता

स्वेच्छा चारिता बर्बादी: हदीस न.559, स्वेच्छाचारिता मूर्खता की जड़ है: हदीस न.12

हक़

हक़ को प्रकट करना: हदीस न.546, ख़ुशी पर हक़ का प्रभाव: हदीस न.363, हक़ को ज़िन्दा करना: हदीस न.265, हक़ व बातिल का इकठ्ठा न होना: हदीस न.572, हक़ की कड़वाहट को बर्दाश्त करना: हदीस न.108, हक़ के साथ काम करना: हदीस न.478, हक़ बात न कहने का नुक़्सान: हदीस न.156, हक़ देना: हदीस न.153

हक़ के मुख़ालिफ़

हक़ के मुख़ालिफ़ों की मुख़ालेफ़त: हदीस न.254

ह्रदय की कठोरता

ह्रदय की कठोरता के कारण: हदीस न.127

हराम

हराम से बचने के फ़ायदे: हदीस न.186

हराम माल

हराम माल का ख़र्च: हदीस न.488, हराम माल कमाना: हदीस न.488

हलाल मज़ा

हलाल मज़े को तलाश करना: हदीस न.420

हवस

हवस का आँखो पर प्रभाव: हदीस न.184, हवस को मारना: हदीस न.266, रूह को हवस से पाक करने का फ़ायदा: हदीस न.330, हवस के बुरे प्रभाव: हदीस न.442, इबादत के मज़े पर हवस के प्रभाव: हदीस न.385, हवस की पैरवी का नुक़्सान: हदीस न. 460, हवस पर हावी होना: हदीस न.146

हँस मुख होना

हँस मुख होने का दोस्ती पर प्रभाव: हदीस न.29, हँस मुख होना का नेकी पर प्रभाव: हदीस न.56

हँसी

सबसे अच्छी हँसी: हदीस न.245, बेमौक़े हँसना: हदीस न.391

हिम्मत

उच्च स्थान पाने में हिम्मत की भूमिका: हदीस न. 459 व 470, हिम्मत का महत्व: हदीस न.372, हिम्मत का दुरुपयोग: हदीस न.393, पेट भरने में हिम्मत जुटाना: हदीस न.486

हुकूमत

हुकूमत के मज़बूत होने की निशानी: हदीस न.506

हैबत (रोब)

हैबत पर सच बोलने का असर: हदीस न.600, हैबत पर मज़ाक़ का असर: हदीस न.395

होशियार

होशियार की पहचान: हदीस न.70

होशियारी

कमियों को जानना होशियारी: हदीस न.390

श्रेष्ठ

श्रेष्ठ की निशानी: हदीस न.510

श्रेष्ठता

सबसे बड़ी श्रेष्ठता: हदीस न.503, श्रेष्ठता का आधार: हदीस न.266

ज्ञान

ज्ञान को माल पर वरीयता: हदीस न.82, ज्ञान से लापरवाह रहना: हदीस न.175, ज्ञान का ज्ञानी का रक्षक होना: हदीस न.82, ज्ञान का पूर्ण होना: हदीस न.214, पूर्ण ज्ञानी होने का दावा मूर्खता: हदीस न.501, ज्ञान की रक्षा: हदीस न.236, ज्ञान के साथ रहना: हदीस न.451, ज्ञान की सुन्दरता: हदीस न.236, ज्ञान प्राप्ति की कठिनाईयाँ: हदीस न.576, ज्ञान के अनुसार व्यवहार न करने के नुक़्सान: हदीस न.175, ज्ञान को बढ़ने वाली चीज़ें: हदीस न.232, ज्ञान व्यवहार के बिना: हदीस न.351, ज्ञान बिना फल: हदीस न.592, ज्ञान महत्ता का आधार: हदीस न.131, ज्ञान के अनुसार व्यवहार: हदीस न.114 व 201 व 214, ज्ञान प्राप्त करने के फ़ायदे: हदीस न.110, ज्ञान का कम न होना: हदीस न.379, ज्ञान का बढ़ना: हदीस न. 236, ज्ञान का फल: हदीस न.210 व 236, प्रसिद्धी में ज्ञान की भूमिका: हदीस न.114, मुक़्ति व निजात में ज्ञान की भूमिका: हदीस न.5

ज्ञानी

ज्ञानी की सेवा: हदीस न.82, ज्ञानी का ज्ञान से तृप्त न होना: हदीस न.66, ज्ञानी के भटकने का नुक़्सान: हदीस न.280, ज्ञानी से मशवरा करना: हदीस न.246, ज्ञानी के पास बैठना: हदीस न.233,





किताब के स्रोत

1) बिहारुल अनवार अलजामिअतु लिदु-ररि अख़बारिल आइम्मातिल अतहार अलैहिमुस्सलाम, मुहम्मद बाक़िर बिन मुहम्मद तक़ी अल-मजलिसी (स्व. सन् 1110 हिजरी क़मरी) प्रकाशक: मोअस्ससा अलवफ़ा, बैरूत, दूसरा संस्करण, सन् 1403 हिजरी क़मरी

2) ख़ाति-मतु मुस्तद-रकुल वसाइल, हुसैन नूरी तबरसी(स्व. सन् 1320 हिजरी क़मरी) प्रकाशक:  मोअस्ससा ए आलुल बैत अलैहिमुस्सलाम, क़ुम, प्रथम संस्करण, सन् 1415 हिजरी क़मरी,

3) दानिश नामा ए इमाम अली अलैहिस्सलाम, अली अकबर रशाद, प्रकाशक: दानिश व अनदेशा ए मआसिर, तेहरान, प्रथम संस्करण, सन् 2001 ई.

4) अज़्ज़रीअतु इला तसानीफ़िश्शीआ, आक़ा बुज़ुर्ग तेहरानी, (स्व. सन् 1389 हिजरी क़मरी) प्रकाशक:  दारुल अज़वा, बैरूत, तीसरा संस्करण, सन् 1403 हिजरी क़मरी

5) रोज़ातुल जिनान फ़ी अहवालिल उलमा ए व अस्सादात, मुहम्मद बाक़िर ख़वानसारी, तहक़ीक़ असदुल्लाह इसमाईलयान, प्रकाशक:  इस्माईलयान तेहरान व क़ुम, सन् 1391 हिजरी क़मरी

6) रिहा-नतुल अदब, मुहम्मद अली मुदर्रिस तबरेज़ी, प्रकाशक:  किताब फ़रोशी ख़य्याम, तीसरा संस्करण, सन् 1990 ई.

7) रियाज़ुल उ-लमा व हियाज़ुल फ़ुज़ला, अब्दुल्लाह आफ़ंदी इस्फ़हानी, तहक़ीक़: सैय्यिद अहमद हुसैनी, प्रकाशक: किताब खाना ए आयतुल्लाह मर-अशी नजफ़ी, सन् 1401 हिजरी क़मरी

8) ग़ु-ररुल हिकम व दु-ररुल कलिम, अब्दुल वाहिद बिन मुहम्मद तमीमी आमदी, अनुवाद व व्याख्या: मालुद्दीन मुहम्मद ख़वानसारी, प्रस्तावना व शुद्धीकरण: मीर जलालुद्दीन हुसैनी अरमवी (मुहद्दिस), प्रकाशक:  तेहरान यूनिवर्सिटी तेहरान, तीसरा संस्करण, सन् 1981 ई.


9) अल-मुहक़्क़िक़ तबातबाई फ़ी ज़िकराहुस् सनवियतुल ऊला, सामूहिक लेख, प्रकाशक: मोअस्ससातुल आलुल बैत अलैहिमुस्सलाम, क़ुम, प्रथम संस्करण, सन् 1417 हिजरी क़मरी



हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की कुछ ख़ास बातें |

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इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के वंश से थे और उन्होंने अपनी छोटी सी आयु में ज्ञान और परिज्ञान के मूल्यवान ख़ज़ाने छोड़े हैं। वह इमाम जिसकी दया व दान के सागर से सबने लाभ उठाये हैं और अत्यधिक दानी होने के कारण आप जवाद अर्थात दानी की उपाधि से प्रसिद्ध हो गये जबकि आपका नाम मोहम्मद तक़ी था। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की दया, मधुर समीर की भांति है जो पीड़ित एवं संकटग्रस्त लोगों की जानों को तरुणई प्रदान करती है।

 https://www.facebook.com/jaunpurazaadari/हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्लाम जिनकी सबसे प्रसिद्ध उपाधि जवाद अर्थात दानी है, हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के सुपुत्र हैं और १९५ हिजरी क़मरी में आपका जन्म पवित्र नगर मदीना में हुआ था। हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्लाम के जन्म के समय आपके पिता हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने आपके जन्म के समय आपके स्थान के बारे में कहा"ईश्वर ने मुझे ऐसा पुत्र प्रदान किया है जो मूसा की भांति ज्ञान के सागर को चीरने वाला है और ईसा की भांति उसकी मां पवित्र है"हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने अपने पिता हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद लोगों के मार्गदर्शन के ईश्वरीय दायित्व अर्थात "इमामत"का पदभार १७ वर्ष की आयु में संभाला और लोगों के मध्य विशुद्ध इस्लामी शिक्षाएं व संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए काम किया। 


हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के पावन एवं विभूतिपूर्ण जीवन काल में दो अब्बासी शासकों मामून और मोतसिम की सरकारें थीं। उस समय पवित्र नगर मदीना इस्लामी शिक्षा व संस्कृति के प्रचार- प्रसार का महत्वपूर्ण केन्द्र था। हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम स्वयं अपने नगर मदीना एवं हज के दिनों में पवित्र नगर मक्का की यात्रा करके हर संभव अवसर से लाभ उठाते और इस्लाम की वास्तविकताओं को बयान करते थे। आप इसी प्रकार राजनीतिक एवं सामाजिक मामलों के सुधार की दिशा में काम करते और अपने समय के अत्याचारी शासकों के क्रिया- कलापों पर टीका- टिप्पणी करते थे। क्योंकि आप देख रहे थे कि भ्रष्ठ, अत्याचारी और अयोग्य शासक इस्लामी समाज पर शासन कर रहे हैं तथा पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम की परम्परा भुला दी गई है। दूसरी ओर इमाम देख रहे थे कि निर्धनता, भ्रष्टाचार और अन्याय के कारण लोग धर्म की मूल शिक्षाओं से दूर हो गये हैं। सदाचार, पवित्रता, ज्ञान और हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का महान व्यक्तित्व इस प्रकार था कि मामून लोगों के मध्य इमाम के प्रति प्रेम एवं उनके प्रभाव से डरता था। इसी कारण उसने हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को पवित्र नगर मदीना से अपनी सरकार के केन्द्र बग़दाद में बुला लिया। अलबत्ता हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम कुछ समय के बाद दोबारा मदीना लौट गये। सुन्नी मुसलमान धर्मगुरू कमालुद्दीन शाफ़ेई हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के बारे में कहते हैं"इमाम जवाद अलैहिस्सलाम का मूल्य व स्थान बहुत ऊंचा है। उनका नाम लोगों की ज़बानों पर है। 

क्षमाशीलता, विस्तृत दृष्टि और उनके मीठे बयान ने सबको अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है। जो भी उनसे मिलता है बरबस ही आपकी सराहना करने लगता है और बुद्धियां आपके ज्ञान व परिज्ञान से लाभ उठाती हैं"हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम कम आयु के बावजूद अपने समय के सबसे बड़े ज्ञानी थे और लोग विशेषकर ज्ञान व परिज्ञान के प्यासे निकट व दूर से आपकी सेवा में आते थे। आप ज्ञान के महत्व के बारे में कहते हैं"ज्ञान प्राप्त करो क्योंकि ज्ञान प्राप्त करना सब पर अनिवार्य है और ज्ञान एवं उसके विश्लेषण के बारे में बात करना अच्छा कार्य है। ज्ञान मित्रों एवं भाईयों के बीच संपर्क का कारण बनता है और वह उदारता का चिन्ह है। ज्ञान संगोष्ठियों व सभाओं का उपहार है और यात्रा एवं एकांत में वह मनुष्य का साथी है"


मोहम्मद बिन मसऊद अयाशी नामक व्यक्ति जो पवित्र क़ुरआन का व्यख्याकर्ता एवं विचारक भी है, कहता है"अब्बासी ख़लीफ़ा मोतसिम के काल में एक दिन सरकार के कारिंन्दों ने कुछ चोरों व लुटेरों को गिरफ्तार कर लिया। इन चोरों व लुटेरों ने नगरों के मध्य के सार्वजनिक रास्तों को यात्रियों एवं हज पर जाने वाले कारवानों के लिए असुरक्षित बना दिया था। कारिन्दों ने मोतसिम की केन्द्र सरकार से प्रश्न किया कि चोरों को किस प्रकार का दंड दिया जाये। मोतसिम ने इस संबंध में परामर्श बैठक बुलाई और उसमें धर्मशास्त्रियों को आमंत्रित किया। उसने हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम से भी परामर्श बैठक में भाग लेने का आह्वान किया। मोतसिम यह कल्पना कर रहा था कि कम आयु होने के कारण इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम विद्वानों के समक्ष अक्षमता का आभास करेंगे और उनके ज्ञान एवं धर्मशास्त्र की श्रेष्ठता के संबंध में संदेह उत्पन्न हो जायेगा। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम न चाहते हुये भी इस बैठक में उपस्थित हुए। धर्मशास्त्रियों ने पवित्र क़ुरआन की आयत को आधार बना कर चोरों व लुटेरों को मुत्यदंड सुनाया। इमाम, जो उस समय तक मौन धारण किये हुए थे, जब यह समझ गये कि धर्मशास्त्रियों ने निर्णय देने में ग़लती की है तो बोले"आप लोगों ने निर्णय देने में ग़लती की है। आरंभ में समस्त पहलुओं पर ध्यान देना चाहिये। उस समय इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने परामर्श सभा में बैठे लोगों के लिए पवित्र क़ुरआन की उस आयत के विभिन्न रूपों को बयान किया और उसकी व्याख्या की जिसे धर्मशास्त्रियों ने आधार बनाया था। उसके पश्चात इमाम ने चोरों के अपराधों के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा की और उनमें से हर एक के दंड को विस्तार से बयान किया। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम इस प्रकार तर्कपूर्ण बात कर रहे थे कि हर सही बुद्धि वाला व्यक्ति उनकी बात को स्वीकार करता था। मोतसिम ने जब हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के ठोस व तर्कसंगत प्रमाणों को देखा तो विवश होकर उसने इमाम के दृष्टिकोण को स्वीकार कर लिया और परामर्श सभा में बैठे विद्वानों एवं धर्मशास्त्रियों की शैक्षिक कमज़ोरी स्पष्ट हो गयी। इस प्रकार हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने ग़लत निर्णय जारी होने से रोक लिया।


हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को अपनी इमामत के काल में बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना था। विशेषकर उस समय जब विवश होकर मोतसिम के सत्ताकाल में आपको दोबारा बग़दाद में रहना पड़ा। लोगों के साथ संपर्क बनाये रखने के लिए आपके लिए आवश्यक था कि अब्बासी शासकों के पूरे शासन क्षेत्र में आपके प्रतिनिधि हों। आपने अपने कुछ समर्थकों व चाहने वालों को सरकारी पदों को स्वीकार करने की अनुमति दी थी ताकि इस मार्ग से वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पवित्र परिजनों के चाहने वालों की सहायता कर सकें। इनमें से एक व्यक्ति कूफा नगर का न्यायधीश था। हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम द्वारा वैचारिक एवं राजनीतिक ढंग से लोगों को बेहतर बनाने की कार्यवाही पूर्णरूप से गोपनीय थी। आप इस प्रकार कार्य करते थे कि कभी आपके निकट प्रतिनिधि भी आपके कार्यों के विवरण से अवगत नहीं हो पाते थे। उदाहरण स्वरूप एक दिन इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने इब्राहीम बिन मोहम्मद नाम के व्यक्ति को पत्र लिखकर दिया और कहा कि जब तक यहिया बिन इमरान जीवित है तब तक तुम इस पत्र को न खोलना। यहिया बिन इमरान एक क्षेत्र में इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के प्रतिनिधि थे। कई वर्षों के बाद जब यहिया बिन इमरान का निधन हो गया तो इब्राहीम बिन मोहम्मद ने इमाम द्वारा दिये गये पत्र को खोला। पत्र पढ़ने के बाद इब्राहीम बिन मोहम्मद समझे कि इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने लिखा है कि अब यहिया बिन इमरान की ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है"यह बात समय की घुटन के वातावरण में इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की दूरदर्शिता एवं समझदारी की सूचक है। 

हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जीवन काल कम था परंतु विभूतिपूर्ण था और आपका प्रयास यह था कि कठिन से कठिन परिस्थिति में भी लोगों के साथ संपर्क बनाये रखें। निर्धन एवं आवश्यकता रखने वाले लोगों को दान देना स्वयं एक प्रकार से लोगों के साथ संपर्क था और इससे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पवित्र परिजनों की दया व गरिमा स्पष्ट होती है। हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने दान की यह शैली अपने बाल्याकाल में अपने पिता की सिफारिश से आरंभ की थी। जब हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम मर्व क्षेत्र में थे तो उन्होंने सुना कि उनके सुपुत्र इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के सेवक उन्हें एक ऐसे दरवाज़े से घर से बाहर ले जा रहे हैं जहां से कोई आता- जाता नहीं है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्र के नाम पत्र में, जो उस समय छोटे थे, लिखा कि तुम्हें सौगन्द है कि बड़े दरवाज़े से बाहर आओ और अपने साथ कुछ पैसे रखो ताकि आवश्यकता रखने वालों को दे सको"हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम धन- सम्पत्ति को सर्वसमर्थ व महान ईश्वर की थाती समझते थे कि यदि इससे लाभ उठाया जाये तो प्रसन्नता की बात है और यदि इससे दूसरे लाभान्वित हों तो यह हमारे लिए पुण्य का कारण है"एक दिन एक व्यक्ति हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की सेवा में पहुंचा इस स्थिति में कि वह बहुत प्रसन्न था। इमाम ने उससे प्रसन्नता का कारण पूछा तो उसने कहा"आज हमें आवश्यकता रखने वाले १० व्यक्तियों की समस्याओं के समाधान का अवसर मिला। इस कारण मैं प्रसन्न हूं"हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने कहा कि अच्छी बात है कि आज प्रसन्न रहो इस शर्त के साथ कि अपनी भलाई को तबाह न करो। ईश्वर ने कहा है कि हे ईमान लाने वालो दूसरों को कष्ट देकर और उन पर एहसान जताकर अपने दान को तबाह मत करो"हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के जीवन के अंतिम दो वर्ष बहुत कठिन परिस्थिति में गुज़रे। क्योंकि जनता को धोखा देने वाली मामून की नीतियों के विरूद्ध मोतसिम ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से अपनी शत्रुता स्पष्ट कर दी थी। 

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की श्रेष्ठता व प्रतिष्ठा इस प्रकार थी कि अब्बासी ख़लीफ़ा मोतसिम इस बात को सहन न कर सका कि इमाम का आध्यात्मिक व्यक्तित्व लोगों के प्रेम व ध्यान का केन्द्र बना रहे। विशेषकर इसलिए कि इमाम के साथ लोगों की समरसता उनकी हार्दिक इच्छा और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के पवित्र परिजनों से गहरे प्रेम का परिमाण थी। मोतसिम हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को अपनी अत्याचारी सरकार और सांसारिक हितों के मार्ग में बाधा समझता था इसलिए उसने इमाम को अपने मार्ग से हटाने का निर्णय किया। उसने अपने इस निर्णय को सन् २२० हिजरी क़मरी में व्यवहारिक बना दिया और इस प्रकार हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम २५ वर्ष की आयु में शहीद हो गये।

सारांश 
हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की कुछ ख़ास बातें |

१.हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के सुपुत्र हैं और १९५ हिजरी क़मरी में आपका जन्म पवित्र नगर मदीना में हुआ था।

२.हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्लाम जिनकी सबसे प्रसिद्ध उपाधि जवाद अर्थात दानी है

3.हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के  जीवन काल में दो अब्बासी शासकों मामून और मोतसिम की सरकारें थीं।

४.इमामत"का पदभार १७ वर्ष की आयु में संभाला और लोगों के मध्य विशुद्ध इस्लामी शिक्षाएं व संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए काम किया। 

५.हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की अहम् हिदायत |
ज्ञान प्राप्त करो क्योंकि ज्ञान प्राप्त करना सब पर अनिवार्य है और ज्ञान एवं उसके विश्लेषण के बारे में बात करना अच्छा कार्य है। ज्ञान मित्रों एवं भाईयों के बीच संपर्क का कारण बनता है और वह उदारता का चिन्ह है। ज्ञान संगोष्ठियों व सभाओं का उपहार है और यात्रा एवं एकांत में वह मनुष्य का साथी है"

६ सन् २२० हिजरी क़मरी में अब्बासी ख़लीफ़ा मोतसिम ने  हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को २५ वर्ष की आयु में शहीद किया |


एक मुनाज़ेरा इमाम तक़ी अ.स. का |

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इमाम रज़ा अ.स. को शहीद करने के बाद मामून चाहता था कि किसी तरह से इमाम तक़ी अ.स. पर भी नज़र रखे और इस काम के लिये उसने अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह इमाम तक़ी  से करना चाहा।
 https://www.facebook.com/hamarajaunpur/इस बात पर तमाम अब्बासी मामून पर ऐतेराज़ करने लगे और कहने लगे कि अब जबकि अ़ली इब्ने मूसा रिज़ा अ.स. इस दुनिया से चले गये और खि़लाफ़त दुबारा हमारी तरफ़ लौटी है तो तू चाहता है कि फिर से खि़लाफ़त को अ़ली की औलाद को दे दे हम किसी भी हाल में यह शादी नहीं होने देगें।
मामून ने पूछाः तुम क्या चाहते हो? उन लोगों ने कहा ये लड़का नौजवान है और न ही इसके पास कोई इल्मो हिक्मत है तो मामून ने जवाब मे कहा तुम इस ख़ानदान को नहीं पहचानते अगर तुम चाहो तो आज़मा कर देख लो और किसी आलिम को बुला लाओ और इन से बहस करा लो ताकि मेरी बात की सच्चाई रौशन हो जाये।

अब्बासी लोगों ने याहिया बिन अक़सम नामक व्यक्ति को उसके इल्म की शोहरत की वजह से इमाम तक़ी अ.स. से मुनाज़रे के लिये चुना।

मामून ने एक जलसा रखा कि जिस में इमाम तक़ी अ.स. के इल्म और समझ को तौला जा सकता है। जब सब लोग हाज़िर हो गये तो याहिया ने मामून से पूछाः

क्या आपकी इजाज़त है कि मैं इस लड़के से सवाल करूं?

मामून ने कहा ख़ुद इन से इजाज़त लो, याहिया ने इमाम से इजाज़त ली तो इमाम ने फ़रमायाः जो कुछ भी पूछना चाहता है पूछ ले।

याहिया ने कहाः उस शख़्स के बारे में आप की क्या नज़र है कि जिसने अहराम की हालत में शिकार किया हो?


इमाम  ने फ़रमायाः इस शख़्स ने शिकार को हिल मे मारा है या हरम में?

वो शख़्स अहराम की हालत में शिकार करने की मनाही को जानता था या नहीं जानता था??

उसने जानवर को जान के मारा है या ग़लती से??

ख़ुद वो शख़्स आज़ाद था या ग़ुलाम?

वह शख़्स छोटा था या बड़ा?

पहली बार यह काम किया था या पहले भी कर चुका था?

शिकार परिन्दा था या ज़मीनी जानवर?

छोटा जानवर था या बड़ा?

फिर से इस काम को करना चाहता है या अपनी ग़लती पर शरमिंदा है?

शिकार दिन में किया था या रात में?
अहराम उमरे का था या हज का?

याहिया बिन अक़सम अपने सवाल के अंदर होने वाले इतने सारे सवालों को सुन कर सकते में आ गया, उसकी कम इल्मी और कम हैसियती उसके चेहरे से दिखाई दे रही थी उसकी ज़बान ने काम करना बंद कर दिया था और तमाम मौजूदा लोगों ने उसकी हार को मान लिया था।


कुरान में तलाक और हलाला कहाँ है ?

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सूरए बक़रह की आयत नंबर २२८ इस प्रकार है।

और तलाक़ पाने वाली स्त्रियां तीन बार मासिक धर्म आने तक स्वयं को प्रतीक्षा मे रखें और यदि वे ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान रखती हें तो उनके लिए वैघ नहीं है कि वे (किसी और से विवाह करने के लिए) जिस वस्तु की ईश्वर ने उनके गर्भाशयों में सृष्टि की है, उसे छिपाएं अलबत्ता इस अवधि में उनके पति उन्हें लौटा देने का अधिक अधिकार रखते हैं यदि वे सुधार का इरादा रखते हों और (पुरुषों को जान लेना चाहिए कि) जितना दायित्व महिलाओं पर है उतना ही उनके लिए अच्छे अधिकार हैं, और (महिलाओं को जान लेना चाहिए कि घर चलाने में) पुरुषों को उन पर एक वरीयता प्राप्त है और ईश्वर प्रभुत्वशाली तथा तत्वदर्शी है। (2:228)


 परिवार और बच्चों की सुरक्षा के लिए यह आयत कहती है कि तलाक़ की दशा में महिला तीन महीनों तक धैर्य करे और किसी से निकाह न करे ताकि प्रथम तो यदि उसके गर्भ में बच्चा हुआ तो इस अवधि में स्पष्ट हो जाएगा और शिशु के अधिकारों की रक्षा होगी और शायद यही बच्चा दोनों की जुदाई को रोकने की भूमि समतल कर दे और दूसरे यह कि इस बात की भी संभावना पाई जाती है कि पति-पत्नी को अलग होने के अपने निर्णय पर पश्चाताप हो और वे पुनः संयुक्त जीवन बिताना चाहें कि स्वाभाविक रूप से इस दशा में पति को अन्य लोगों पर वरीयता प्राप्त है।
 अंत में यह आयत पति-पत्नी के बीच कटुता समाप्त करने तथा भलाई उत्पन्न करने के मार्ग के रूप में एक महत्वपूर्ण बात बताती है और वह यह है कि पहले पुरुषों से कहती है कि यद्यपि घर और परिवार के बारे में महिलाओं का कुछ दायित्व बनता है परन्तु उतना ही वे अपने बारे में तुम पर मानवीय अधिकार रखती हैं जिन्हें तुम्हें बेहतर ढंग से पूरा करना चाहिए।
 इसके पश्चात यह आयत महिलाओं को संबोधित करते हुए कहती है कि घर चलाना तथा उससे संबन्धित अन्य बातों की व्यवस्था पुरुषों के ज़िम्मे है और इस मार्ग में वे बेहतर ढंग से काम कर सकते हैं। अतः इस संबन्ध में उन्हें तुमपर वरीयता प्राप्त है।


सूरए बक़रह की आयत संख्या २२९ इस प्रकार है।

(हर पुरूष के लिए अपनी पहली पत्नी के पास लौटने और) तलाक़ (देने का अधिकार) दो बार है अतः (हर स्थिति में या तो) अपनी पत्नी को भले ढंग से रोक लेना चाहिए या भले ढंग से उसे छोड़ देना चाहिए और (तुम पुरूषों के लिए) वैध नहीं है कि जो कुछ तुम अपनी पत्नियों को दे चुके हो वो (उनपर कड़ाई करके) वापस लेलो, सिवाए इसके कि दोनों को भय हो कि वे ईश्वरीय आदेशों का पालन न कर सकेंगे तो यदि तुम भयभीत हो गए कि वे दोनों ईश्वरीय सीमाओं को बनाए न रख सकेंगे तो इस बात में कोई रुकावट नहीं है कि तलाक़ का अनुरोध पत्नी की ओर से होने की दशा में वे इसका बदला दें और अपना मेहर माफ़ कर दे। यह ईश्वरीय देशों की सीमाए हैं इनसे आगे न बढ़ो, और जो कोई ईश्वरीय सीमाओं से आगे बढ़े, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी हैं। (2:229)


 पिछली आयत में कहा गया था कि तलाक़ के पश्चात पत्नी को तीन महीने तक किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं करना चाहिए ताकि यदि वह गर्भवती हो तो स्पष्ट हो जाए और यदि पति को तलाक़ पर पछतावा हो तो पत्नी को वापस बुलाने की संभावना रहे। उसके पश्चात यह आयत कहती है कि अलबत्ता पति केवल दो बार ही अपनी पत्नी को तलाक़ देने और उससे "रुजू"करने अर्थात उसके पास वापस जाने की अधिकार रखता है और यदि उसने अपनी पत्नी को तीसरी बार तलाक़ दिया तो फिर रुजू की कोई संभावना नहीं है।
इसके पश्चात यह आयत पुरूषों को घर चलाने के लिए एक अति आवश्यक सिद्धांत बताते हुए कहती है कि या तो जीवन को गंभीरता से लो और अपनी पत्नी के साथ अच्छे ढंग से जीवन व्यतीत करो और यदि तुम उसके साथ अपना जीवन जारी नहीं रख सकते तो भलाई और अच्छे ढंग से उसे स्वतंत्र कर दो। अलबत्ता तुम्हें उसका मेहर देना पड़ेगा।
 इसी प्रकार यदि पत्नी तलाक़ लेना चाहती है तो उसे अपना मेहर माफ़ करके तलाक़ लेना होगा परन्तु हर स्थिति में पति को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी पत्नी को सता कर उसे मेहर माफ़ करने और तलाक़ लेने पर विवश करे।

सूरए बक़रह की आयत संख्या २३०, २३१ और २३२ इस प्रकार है।

यदि (पति ने दो बार रुजू करने के पश्चात तीसरी बार अपनी पत्नी को) तलाक़ दे दी तो फिर वह स्त्री उसके लिए वैध नहीं होगी जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह न कर ले, फिर यदि दूसरा पति उसे तलाक़ दे दे तो फिर इन दोनों के लिए एक दूसरे की ओर पलट आने में कोई दोष नहीं होगा। अलबत्ता उस स्थिति में, जब उन्हें आशा हो कि वे ईश्वरीय सीमाओं का आदर कर सकेंगे। यह अल्लाह की सीमाएं हैं जिन्हें वह उन लोगों के लिए बयान कर रहा है जो जानना चाहते हैं। (2:230) और जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दो और वे "इद्दत"अर्थात अपने नियत समय की सीमा (के समीप) पहुंच जाए तो या तो उन्हें भले ढंग से अपने ही पास रोक लो या फिर अच्छे ढंग से उन्हें विदा और स्वतंत्र कर दो। उन्हें सताने के लक्ष्य से न रोको कि उनपर अत्याचार करो और जिसने भी ऐसा किया वास्तव में उसने स्वयं पर ही अत्याचार किया और ईश्वर की आयतों का परिहास न करो बल्कि सदैव याद करते हरो उस विभूति को जो ईश्वर ने तुम्हें दी है और किताब तथा हिकमत को जिसके द्वारा वह तुम्हें नसीहत करता है और ईश्वर से डरते रहो और जान लो कि वह हर बात का जानने वाला है। (2:231) और जब तुम अपनी स्त्रियों को तलाक़ दे चुको और वे अपनी "इद्दत"पूरी कर लें तो उन्हें अपने पुराने पतियों से पुनः विवाह करने से न रोको जबकि वे अच्छे ढंग से आपस में राज़ी हों। ईश्वर के इन आदेशों द्वारा तुम में से उन लोगों की नसीहत होती है जो ईश्वर और प्रलय पर ईमान रखते हैं। यह आदेश (तुम्हारी आत्मा की) पवित्रता के लिए अधिक प्रभावशाली तथा (समाज को पाप से) साफ़ करने के लिए अधिक लाभदायक है। ईश्वर (तुम्हारे भले को) जानता है और तुम नहीं जानते। (2:232)


 चूंकि इस्लाम वैध और स्वाभाविक इच्छाओं का सम्मान करता है और पति-पत्नी के एक-दूसरे के पास वापस आने और उनकी छाया में बच्चों के प्रशिक्षण व प्रगति का स्वागत करता है अतः उसने इस बात की अनुमति दी है कि यदि पत्नी ने किसी अन्य व्यक्ति से विवाह कर लिया और बाद में उससे भी अलग हो गई तथा पुनः अपने पहले पति के साथ जीवन बिताने पर सहमत हो गई तो वे पुनः विवाह कर सकते हैं। इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि उनका जीवन आनंदमयी हो जाए। स्पष्ट सी बात है कि इस स्थिति में पति-पत्नी के अभिभावकों या अन्य लोगों को ये अधिकार नहीं है कि वे इस विवाह में बाधा डालें, बल्कि पुनः पति-पत्नी की सहमति ही विवाह के लिए पर्याप्त है।

आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
पत्नी के मानवाधिकारों के साथ ही साथ उसके आर्थिक अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए तथा पति को यह अधिकार नहीं है कि वह पत्नी की संपत्ति या उसके मेहर को अपने स्वामित्व में ले ले।
 आवश्यकता पड़ने पर यदि तलाक़ हो तो उसे भलाई के साथ होना चाहिए न कि द्वेष और प्रतिरोध के साथ।
 सौभाग्यपूर्ण परिवार वह है जिसके सदस्यों के संबन्ध ईश्वरीय आदेशों पर आधारित हों परन्तु यदि वे पाप के आधार पर जीवन जारी रखना चाहते हों तो बेहतर है कि वे तलाक ले लें।
पति के चयन में महिला की राय आवश्यक और सम्मानीय है तथा मूल रूप से विवाह का आधार अच्छे ढंग से दोनों पक्षों की आपस में सहमति है।

तलाक की प्रक्रिया को पहले समझें फिर संशोधन की बात करें |

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तीन तलाक का मज़ाक इसलिए बन रहा है क्यूँ की आज इस्लाम धर्म के कानून को कुरान की नज़र से बहुत कम लोग जानते हैं | कुरान में उन महिलाओं के लिए कहा गया है जिन्हें तलाक दिया जा चूका है की तीन महीने तक इंतज़ार करें और दूसरी शादी न करें और इस बीच में यदि पति पत्नी आपस में एक दूसरे के साथ समझौता करना चाहे शिकायत दूर कर के तो वो रह सकते हैं किसी निकाह की आवश्यकता नहीं |

अब आप खुद ही बताएं क्या यह तलाक हुआ है ? यदि नहीं तो इतना झमेला किस बात का का है ? तलाक में गवाह की ज़रुरत भी हुआ करती है यह नहीं की गुस्सा आया और बोल दिया तलाक तलाक और यदि बोल देने पे कोई मानता भी है की तलाक हुआ तो तीन महीने तक वापस लौटने के सारे रास्ते खुले हैं बिना किसी मुफ़्ती मौलवी के पास जाय |

कुरान में इस बात का भी ज़िक्र है की तलाक़ का अनुरोध पत्नी भी कर सकती है केवल पति ही तलाक नहीं दे सकता |

और अंत में यह भी सभी मुसलमान मानते हैं की तलाक हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की नज़र में सब से बुरा अमल है बस इसकी इजाज़त मजबूरी की हालत में है जब किसी भी तरह पति पत्नी साथ न रह सकें |
अब इसमें जनाब क्या संशोधन करेंगे ?

संशोधन की जगह केवल वहाँ है जहां इस्लाम के कानून जहालत के कारन ना समझ पाने से एक साथ एक वक़्त में तीन बार तलाक कह के तलाक दे दिया जाता है |

हवाला : सूरए बक़रह की आयत संख्या 228 से २३२ तक |



कुरान में मेहर कहाँ है ?

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और महिलाओं का मेहर उन्हें उपहार स्वरूप और इच्छा से दो यदि उन्होंने अपनी इच्छा से उसमें से कोई चीज़ तुम्हें दे दी तो उसे तुम आनंद से खा सकते हो। (4:4)


 सूरए निसा पारिवारिक आदेशों और विषयों से आरंभ होता है। सभी जातियों व राष्ट्रों के बीच परिवार के गठन के महत्वपूर्ण विषयों में एक पति द्वारा अपनी पत्नी को मेहर के रूप में उपहार दिया जाना है परंतु कुछ जातियों व समुदायों विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के काल के अरबों के बीच, जहां व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में महिलाओं का कोई विशेष स्थान नहीं था, अनेक अवसरों पर पुरुष या तो मेहर देते ही नहीं थे या फिर मेहर देने के पश्चात उसे ज़बरदस्ती वापस ले लेते थे।

महिला के पारिवारिक अधिकारों की रक्षा में क़ुरआन पुरुषों को आदेश देता है कि वे मेहर अदा करें और वह भी स्वेच्छा तथा प्रेम से न कि अनिच्छा से और मुंह बिगाड़ के। इसके पश्चात वह कहता है कि जो कुछ तुमने अपनी पत्नी को मेहर के रूप में दिया है उसे या उसके कुछ भाग को वापस लेने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है बल्कि यदि वह अपनी इच्छा से तुम्हें कुछ वापस दे दे तो वह तुम्हारे लिए वैध है।

इस आयत में प्रयोग होने वाले एक शब्द नहलह के बारे में एक रोचक बात यह है कि यह शब्द नहल से निकला है जिसका अर्थ मधुमक्खी होता है। जिस प्रकार से मुधमक्खी लोगों को बिना किसी स्वार्थ के मधु देती है और उनके मुंह में मिठास घोल देती है उसी प्रकार मेहर भी एक उपहार है जो पति अपनी पत्नी को देता है ताकि उनके जीवन में मिठास घुल जाये। अत: मेहर की वापसी की आशा नहीं रखनी चाहिये।

मेहर पत्नी की क़ीमत और मूल्य नहीं बल्कि पति की ओर से उपहार और पत्नी के प्रति उसकी सच्चाई का प्रतीक है। इसी कारण मेहर को सेदाक़ भी कहते हैं जो सिद्क़ शब्द से निकला है जिसका अर्थ सच्चाई होता है।
इस आयत से हमने सीखा कि मेहर पत्नी का अधिकार है और वह उसकी स्वामी होती है। पति को उसे मेहर देना ही पड़ता है और उससे वापस भी नहीं लिया जा सकता।

किसी को कुछ देने में विदित इच्छा पर्याप्त नहीं है बल्कि स्वेच्छा से और मन के साथ देना आवश्यक है। यदि पत्नी विवश होकर या अनमनेपन से अपना मेहर माफ़ कर दे तो उसे लेना ठीक नहीं है चाहे वह विदित रूप से राज़ी ही क्यों न दिखाई दे।

Surat al-Nisa, verse 4




सबसे पहले हज़रत मूसा (अ) ने नमाज़ पढ़ी

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नमाज़ के महत्व के बारे मे केवल यही काफ़ी है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मिस्र मे अपने प्रतिनिधि मुहम्मद इब्ने अबी बकर के लिए लिखा कि लोगों के साथ नमाज़ को समय पर पढ़ना।
क्योंकि तुम्हारे दूसरे तमाम कार्य तुम्हारी नमाज़ के आधार हैं। रिवायत मे यह भी है कि अगर नमाज़ कबूल हो गई तो दूसरी इबादतें भी स्वीकार्य हो जायेंगी, लेकिन अगर नमाज़ क़बूल न हुई तो दूसरी इबादतें भी अस्वीकार्य जायेंगी।
दूसरी इबादतो के क़बूल होने का नमाज़ के क़बूल होने पर मुनहसिर होना(आधारित होना) नमाज़ के महत्व को उजागर करता है। मिसाल अगर पुलिस अफ़सर आपसे ड्राइविंग लैसन्स माँगे और आप उसके बदले मे कोई भी दूसरा महत्वपूर्ण काग़ज़ दिखाएं तो वह उसको स्वीकार नही करेगा।
जिस तरह ड्राइविंग के लिए डराइविंग लाइसन का होना ज़रूरी है और उसके अतिरिक्त तमाम काग़ज़ बेकार हैं। इसी तरह इबादत के क़बूल होने के लिए नमाज़ का कुबूल होना भी ज़रूरी है। कोई भी दूसरी इबादत नमाज़ की जगह नही ले सकती।

सबसे पहले हज़रत मूसा (अ) ने नमाज़ पढ़ी
एक बार हज़रत मूसा (अ) अपनी बीवी के साथ जा रहे थे। उन्होने अचानक एक तरफ आग देखी तो अपनी बीवी से कहा कि मैं जाकर तापने के लिए आग लाता हूँ तुम मेरी यही प्रतीक्षा करना।
जनाबे मूसा (अ) आग की तरफ़ बढ़े तो आवाज़ आई मूसा मै तुम्हारा अल्लाह हूँ और मेरे अलावा कोई माबूद नही है। मेरी इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो। (क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की आयत न.14) यानी तौहीद के बाद सबसे पहले नमाज़ का आदेश दिया गया।

(हे मूसा!) मैंने तुम्हें (पैग़म्बरी के लिए) चुन लिया तो जो कुछ वहि के रूप में तुम तक भेजा जा रहा है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। (20:13) निसंदेह मैं अल्लाह हूं और मेरे अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है तो मेरी ही उपासना करो और मेरे स्मरण के लिए नमाज़ स्थापित करो। (21:14)

यहाँ से यह बात समझ मे आती है कि तौहीद और नमाज़ के बीच बहुत क़रीबी और गहरा सम्बन्ध है। तौहीद का अक़ीदा हमको नमाज़ की तरफ़ ले जाता है।और नमाज़ हमारी यगाना परस्ती की रूह को ज़िंदा करती है।
हम नमाज़ की हर रकत मे दोनो सूरों के बाद,हर रुकूअ से पहले और बाद में हर सूजदे से पहले और बाद में, नमाज़ के शुरू मे और बाद मे अल्लाहु अकबर कहते हैं जो मुस्तहब है।
हालते नमाज़ मे दिल की गहराईयों के साथ बार बार अल्लाहु अकबर कहना रुकूअ और सजदे की हालत मे अल्लाह का ज़िक्र करना, और तीसरी व चौथी रकत मे तस्बीहाते अरबा पढ़ते हुए ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, यह तमाम क़ौल अक़ीदा-ए-तौहीद को चमकाते हैं।

क़ुरआने करीम के सूरा ए आलि इमरान की आयत न. 35 मे इरशाद होता है कि “कुछ लोग अपने बच्चों को मस्जिद मे काम करने के लिए छोड़ देते हैं।” जनाबे मरियम की माँ ने कहा कि अल्लाह मैं ने मन्नत मानी है कि मैं अपने बच्चे को बैतुल मुक़द्दस की खिदमत के लिए तमाम काम से आज़ाद कर दूँगी। ताकि मुकम्मल तरीक़े से बैतुल मुक़द्दस मे खिदमत कर सके। लेकिन जैसे ही बच्चे पर नज़र पड़ी तो देखा कि यह लड़की है। इस लिए अल्लाह की बारगाह मे अर्ज़ किया कि अल्लाह ये लड़की है और लड़की एक लड़के की तरह आराम के साथ खिदमत नही कर सकती। मगर उन्होने अपनी मन्नत को पूरा किया। बच्चे का पालना उठाकर मस्जिद मे लायीं और जनाबे ज़करिया के हवाले कर दिया।

* कुछ लोग नमाज़ के लिए हिजरत करते हैं, और बच्चों से दूरी को बर्दाशत करलेते हैं

क़ुरआने करीम के सूरा ए इब्राहीम की आयत न.37 मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बाल बच्चो को मक्के के एक सूखे मैदान मे छोड़ दिया। और अर्ज़ किया कि अल्लाह मैंने इक़ामे नमाज़ के लिए ये सब कुछ किया है। दिलचस्प बात यह है कि मक्का शहर की बुन्याद रखने वाला शहरे मक्का मे आया। लेकिन हज के लिए नही बल्कि नमाज़ के लिए क्योंकि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नज़र मे काबे के चारों तरफ़ नमाज़ पढ़ा जाना तवाफ़ और हज से ज़्यादा अहम था।

* कुछ लोग इक़ामए नमाज़ के लिए ज़्यादा औलाद की दुआ करते हैं

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरा ए इब्राहीम की चालीसवी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम ने दुआ की कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वालो मे से बना दे। नबीयों मे से किसी भी नबी ने जनाबे इब्राहीम की तरह अपनी औलाद के लिए दुआ नही की लिहाज़ा अल्लाह ने भी उनकी औलाद को हैरत अंगेज़ बरकतें दीँ। यहाँ तक कि रसूले अकरम (स) भी फ़रमाते हैं कि हमारा इस्लाम हज़रत इब्राहीम (अ) की दुआ का नतीजा है।

*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपनी बाल बच्चों पर दबाव डालते हैं

क़ुरआने करीम में इरशाद होता है कि अपने खानदान को नमाज़ पढने का हुक्म दो और खुद भी इस (नमाज़) पर अमल करो।इंसान पर अपने बाद सबसे पहली ज़िम्मेदारी अपने बाल बच्चों की है। लेकिन कभी कभी घरवाले इंसान के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं तो इस हालत मे चाहिए कि बार बार उनको इस के करने के लिए कहते रहें और उनका पीछा न छोड़ें।

· कुछ लोग अपना सबसे अच्छा वक़्त नमाज़ मे बिताते हैं

नहजुल बलाग़ा के पत्र संख्या 53 मे मौलाए काएनात मालिके अशतर को लिखते हैं कि अपना बेहतरीन वक़्त नमाज़ मे सर्फ़ करो। इसके बाद फरमाते हैं कि तुम्हारे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं।

· कुछ लोग दूसरों मे नमाज़ का शौक़ पैदा करते हैं।

कभी शौक़ ज़बान के ज़रिये दिलाया जाता है और कभी अपने अमल से दूसरों मे शौक़ पैदा किया जाता है।

अगर समाज के बड़े लोग नमाज़ की पहली सफ़ मे नज़र आयें, अगर लोग मस्जिद जाते वक़्त अच्छे कपड़े पहने और खुशबू का इस्तेमाल करें,

अगर नमाज़ सादे तरीक़े से पढ़ी जाये तो यह नमाज़ का शौक़ पैदा करने का अमली तरीक़ा होगा। हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे बुज़ुर्ग नबीयों को खानाए काबा की ततहीर(पाकीज़गी) के लिए मुऐयन किया गया। और यह ततहीर नमाज़ीयों के दाखले के लिए कराई गयी। नमाज़ीयों के लिए हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे अफ़राद से जो मस्जिद की ततहीर कराई गयी इससे हमारी समझ में यह बात आती है कि अगर बड़ी बड़ी शख्सियतें इक़ाम-ए-नमाज़ की ज़िम्मेदीरी क़बूल करें तो यह नमाज़ के लिए लोगों को दावत देने मे बहुत मोस्सिर(प्रभावी) होगा।

*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपना माल वक़्फ़ कर देते हैं

जैसे कि ईरान के कुछ इलाक़ो मे कुछ लोगों ने बादाम और अखरोट के कुछ दरख्त उन बच्चों के लिए वक़्फ़ कर दिये जो नमाज़ पढने के लिए मस्जिद मे आते हैं। ताकि वह इनको खायें और इस तरह दूसरे बच्चों मे भी नमाज़ का शौक़ पैदा हो।

· कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए सज़ाऐं बर्दाशत करते हैं। जैसे कि शाह(इस्लामी इंक़िलाब से पहले ईरान का शासक) की क़ैद मे रहने वाले इंक़िलाबी मोमेनीन को नमाज़ पढ़ने की वजह से मार खानी पड़ती थी।

* कुछ लोग नमाज़ के क़याम के लिए तीर खाते हैं

जैसे कि जनाबे ज़ुहैर व सईद ने रोज़े आशूरा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने खड़े होकर इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए तीर खाये।

*कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए शहीद हो जाते हैं

जैसे हमारे ज़माने के शौहदा-ए-मेहराब आयतुल्लाह अशरफ़ी इस्फ़हानी, आयतुल्लाह दस्ते ग़ैब शीराज़ी, आयतुल्लाह सदूक़ी, आयतुल्लाह मदनी और आयतुल्लाह तबा तबाई वग़ैरह।

* कुछ अफ़राद नमाज़ पढ़ते हुए शहीद हो जाते हैं

जैसे मौला-ए-`काएनात हज़रत अली अलैहिस्सलाम।
20-नमाज़ छोड़ने पर दोज़ख की मुसीबतें

क़ियामत मे जन्नती और दोज़खी अफ़राद के बीच कई बार बात चीत होगी। जैसे कि क़ुरआने करीम मे सूरए मुद्दस्सिर मे इस बात चीत का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि“ जन्नती लोग मुजरिमों से सवाल करेंगें कि किस चीज़ ने तुमको दोज़ख तक पहुँचाया? तो वह जवाब देंगें कि चार चीज़ों की वजह से हम दोज़ख मे आये (1) हम नमाज़ के पाबन्द नही थे।(2) हम भूकों और फ़क़ीरों की तरफ़ तवज्जुह नही देते थे।(3) हम फ़ासिद समाज मे घुल मिल गये थे।(4) हम क़ियामत का इन्कार करते थे।”

नमाज़ छोड़ने के बुरे नतीज़ों के बारे मे बहुत ज़्यादा रिवायात मिलती है। अगर उन सबको एक जगह जमा किया जाये तो एक किताब वजूद मे आ सकती है।

नमाज़ की अस्ल यह है कि उसको जमाअत के साथ पढ़ा जाये। और जब इंसान नमाज़े जमाअत मे होता है तो वह एक इंसान की हैसियत से इंसानो के बीच और इंसानों के साथ होता है। नमाज़ का एक इम्तियाज़ यह भी है कि नमाज़े जमाअत मे सब इंसान नस्ली, मुल्की, मालदारी व ग़रीबी के भेद भाव को मिटा कर काँधे से काँधा मिलाकर एक ही सफ़ मे खड़े होते हैं।
नमाज़े जमाअत इमाम के बग़ैर नही हो सकती क्योंकि कोई भी समाज रहबर के बग़ैर नही रह सकता। इमामे जमाअत जैसे ही मस्जिद मे दाखिल होता है वह किसी खास गिरोह के लिए नही बल्कि सब इंसानों के लिए इमामे जमाअत है। इमामे जमाअत को चाहिए कि वह क़ुनूत मे सिर्फ़ अपने लिए ही दुआ न करे बल्कि तमाम इंसानों के लिए दुआ करे।
इसी तरह समाज के रहबर को भी खुद ग़र्ज़ नही होना चाहिए। क्योंकि नमाज़े जमाअत मे किसी तरह का कोई भेद भाव नही होता ग़रीब,अमीर खूबसूरत, बद सूरत सब एक साथ मिल कर खड़े होते हैं। लिहाज़ा नमाज़े जमाअत को रिवाज देकर नमाज़ की तरह समाज से भी सब भेद भावों को दूर करना चाहिए। इमामे जमाअत का इंतिखाब लोगों की मर्ज़ी से होना चाहिए। लोगों की मर्ज़ी के खिलाफ़ किसी को इमामे जमाअत मुऐयन करना जायज़ नही है। अगर इमामे जमाअत से कोई ग़लती हो तो लोगों को चाहिए कि वह इमामे जमाअत को उससे आगाह करे। यानी इस्लामी निज़ाम के लिहाज़ से इमाम और मामूम दोनों को एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए।

इमामे जमाअत को चाहिए कि वह बूढ़े से बूढ़े इंसान का ख्याल रखते हुए नमाज़ को तूल न दे। और यह जिम्मेदार लोगों के लिए भी एक सबक़ है कि वह समाज के तमाम तबक़ों का ध्यान रखते हुए कोई क़दम उठायें या मंसूबा बनाऐं। मामूमीन(इमाम जमाअत के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले लोग) को चाहिए कि वह कोई भी कार्य इमाम से पहले अंजाम न दें।
यह दूसरा पाठ है जो आदर सत्कार और नज़म को बाक़ी रखने की तरफ़ इशारा करता है। अगर इमामे जमाअत से कोई ऐसा बड़ा गुनाह हो जाये जिससे दूसरे इंसान बा खबर हो जायें तो इमामे जमाअत को चाहिए कि वह फ़ौरन इमामे जमाअत की ज़िम्मेदारी से अलग हो जाये। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि समाज की बाग डोर किसी फ़ासिक़ के हाथ मे नही होनी चाहिए। जिस तरह नमाज़ मे हम सब एक साथ ज़मीन पर सजदा करते हैं इसी तरह हमे समाज मे भी एक साथ घुल मिल कर रहना चाहिए।

इमामे जमाअत होना किसी खास इंसान का विरसा नही है। हर इंसान अपने इल्म तक़वे और महबूबियत की बिना पर इमामे जमाअत बन सकता है। क्योंकि जो इंसान भी कमालात मे आगे निकल गया वही समाज मे रहबर है।


इमामे जमाअत क़वानीन के दायरे मे इमाम है। इमामे जमाअत को यह हक़ नही है कि वह जो चाहे करे और जैसे चाहे नमाज़ पढ़ाये। रसूले अकरम ने एक पेश नमाज़ को जिसने नमाज़े जमाअत मे सूरए हम्द के बाद सूरए बक़रा की तिलावत की थी उसको तंबीह करते हुए फ़रमाया कि तुम लोगों की हालत का ध्यान क्यों नही रखते बड़े बड़े सूरेह पढ़कर लोगों को नमाज़ और जमाअत से भागने पर मजबूर करते हो।



इमाम मुसा अल-काज़िम अलैहिसलाम की नमाज़

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यह दो रक्'अत नमाज़ है जिसकी हर रक्'अत में एक मर्तबा सुराः हम्द और बारह (12) मर्तबा सुरह तौहीद पढ़ें - नमाज़ के बाद हज़रात (अ:स) की यह दुआ पढ़ें
अल्लाहुम्मा सल्ले अला मोहम्मदीन व आले मोहम्मद 

बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम 

इलाही खशा-अतिल अस्वातु लका व ज़ल्लातिल अहलामु फ़ीका व वजिला कुल्लो शै'इन मिनका व हरबा कुल्लो शै'इन इलैका व ज़ा'क़तील अश्या'उ दूनाका व मला-अ कुल्लो शै'इन नूरुका फ़'अंतर रफ़ी'उ फ़ी जलालिका व अंतल बहिय्यु फी जमालिका व अंतल अज़ीमु फ़ी क़ुद'रतिका व अंतल लज़ी ला या उदूका शै-उन या मुन्ज़िला निआमति या मुफर'रिजा क़ुर्बती व या क़ाज़िया हां'जती आ'तिनि मास'अलाती बी ला इलाहा इल्ला अन्ता आमन्तु बिका मुखलिसन लका दीनी अस्बह्तु अला अहदिका व वादिका मस'तत'अतु अबू-उ लका बिन निआमति व अस्तग'फिरुका मीनज़-ज़ुनूबिल लाती ला यग्फेरोहा या मन हुवा फी उलुविही दा'ईन व फी ज़ुनू'विही आलीन व फी इशरा'क़िहि मुनीरून व फी सुल्तानिही क़वियुन सल्ले अला मोहम्मदीन व आले मोहम्मद 
अल्लाहुम्मा सल्ले अला मोहम्मदीन व आले मोहम्मद 

बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम 


ऐ माबूद! तेरी बारगाह में आवाजें लरज़ जाती हैं और तेरे हुज़ूर में तसव्वुरात गुम हो जाते हैं! हर चीज़ तुझ से खौफ खाती है और हर चीज़ तेरी तरफ दौड़ रही है तमाम अशिया तेरे सामने हेच हैं और तेरे नूर ने हर चीज़ को घेर लिया है, बस तू अपने जलाल में बुल्न्द्तर है और तू अपने जमाल में रौशंनतर है, तू अपनी कुदरत में बुज़ूर्ग्तर है और तू हो वोह है जिसे कोई चीज़ थकाती नहीं, ऐ मुझ पर नेमत नाजिल करने वाले ऐ मेरे दुख दूर करने वाले और ऐ मेरी हाजत बर लाने वाले मेरी ख्वाहिश पूरी करदे के तेरे सिवा कोई माबूद नहीं मैं तुझ पर ईमान लाया हूँ तेरे दीं में मुखलिस हूँ मैंने तेरे अहद व पैमान पर क़ायेम रहते हुए सुबह की है , अपनी हद तक तेरी नेमतें समेत रहा हूँ, मैं अपने गुनाहों पर तुझ से बख्श्सिश का तलबगार हूँ जिनको सिवाए तेरे कोई माफ़ नहीं कर सकता, ऐ वो जो अपनी बुलंदी में नज़दीक और नजदीकी में बुलंद है और रौशनी में मुनव्वर करने वाला है और सल्तनत में क़वी है, मोहम्मद (स:आ:वव) और आले मोहम्मद (अ:स) पर रहमत नाजिल फरमा 





इस्लाम का सफ़र मक्का से कर्बला तक

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मुसलमानों का मानना है कि हर युग और हर दौर मैं अल्लाह ने इस धरती पर अपने दूत(संदेशवाहक/पैग़म्बर), अपने सन्देश के साथ इस उद्देश्य के लिए भेजे हैं कि अल्लाह के यह दूत इंसानों को सही रास्ता दिखायें और इंसान को बुरे रास्ते पर चलने से रोकें. इन्हीं संदेशवाहकों को इस्लाम में पैग़म्बर या नबी कहा जाता है. ईश्वर की तरफ से संदेशवाहकों की ज़रुरत इसलिए पड़ी क्योंकि ईश्वर ने इंसान को धरती पर पूरी आज़ादी देकर भेजा है. इंसान में इस दुनिया को बनाने के साथ साथ तबाह करने की भी क़ाबलियत है. वह परमाणु पावर से सारी दुनिया रोशन भी कर सकता है और इसी परमाणु अटम बोम्ब के सहारे लाखों लोगों को एक ही पल मैं मौत के मुह मैं भी पहुंचा सकता है.
मुसलमानों के मुताबिक अब तक कुल 313 रसूल/नबी, अल्लाह की तरफ से भेजे जा चुके हैं, इनमें से 5 रसूल बड़े रसूल हैं. जो कि हैं:
1. हज़रत Abraham(इब्राहीम)
2. हज़रत Moses(मूसा)
3. हज़रत David(दावूद)
4. हज़रत Jesus (ईसा)
5. हज़रत Muhammad(मोहम्मद)
हज़रत मोहम्मद इन सब नबियो में सबसे आखिरी नबी हैं.
कुछ और दुसरे नबियों के नाम हैं:
हज़रत Adam (आदम)
हज़रत Nooh (नूह)
हज़रत Ishaaq (इसहाक़)
हज़रत Yaaqub (याक़ूब)
हज़रत Joseph (युसुफ़)
हज़रत Ismail (इस्माइल)
इस्लाम क्या है?
इस्लाम धर्म के मानने वालों को मुस्लिम कहा जाता है. मुस्लिम शब्द सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के मानने वालों के लिए इस्तमाल किया गया था.
हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा:
पैग़म्बर हज़रत नूह के कई सौ साल बाद हज़रत इब्राहीम को अल्लाह ने अपना पैग़म्बर बनाया. हज़रत इब्राहीम के दो बेटे हुए, एक हज़रत इस्माइल और दुसरे हज़रत इस्हाक़. इस्हाक़ से बनी इसराइल की नस्ल चली और इस्माइल की नस्ल में हज़रत मोहम्मद ने जन्म लिया.
लेकिन हज़रत मोहम्मद के पूर्वजों में भी एक पूर्वज थे अब्दुल मनाफ़, जिनके यहाँ ऐसे जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए जो आपस में जुड़े हुए थे. इन दोनों में से केवल एक ही को बचाया जा सकता था. इसलिए यह फैसला किया गया कि तलवार से काट कर दोनों को अलग किया जाए लेकिन तलवार से अलग किये जाने के बाद दोनों ही बच्चे जीवित रहे. इनमें से एक का नाम हाशिम और दूसरे का नाम उमय्या रखा गया. इसी लिए इन दोनों बच्चों की नस्लों को बनी हाशिम और बनी उमय्या कहा जाने लगा. बनी हाशिम को मक्का के सब से पवित्र धर्म स्थल क़ाबा की देख भाल और धार्मिक कार्य अंजाम देने की ज़िम्मेदारी सोंपी गई थी.
पैग़म्बर मोहम्मद के दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अरब सरदारों में बहुत अहम समझे जाते थे, उन्हें सय्यदुल बतहा कहा जाता था. पैग़म्बर साहब के वालिद(पिता) का नाम हज़रत अब्दुल्लाह और वालिदा(माता) का नाम हज़रत आमिना था.
मोहम्मद साहब के पैदा होने से कुछ महीने पहले ही उनके वालिद का इंतिकाल हो गया और उनकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी दादा हज़रत मुत्तलिब को उठानी पड़ी. कुछ समय के बाद मोहम्मद साहब के दादा भी चल बसे और माँ का साया भी बचपन में ही उठ गया. अब इस यतीम बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी चाचा अबूतालिब ने उठाली और हज़रत हलीमा नाम की दाई के संरक्षण मे मोहम्मद साहब की परवरिश की.
बचपन में मोहम्मद साहब भेड़-बकरी को रेवड़ चराने जंगलो में ले जाते थे और इस तरह उनका बचपन गुज़र गया. बड़े होने पर उन्हें अरब की एक धनी महिला हज़रत ख़दीजा के यहाँ नौकरी मिल गई और वह हज़रत ख़दीजा का व्यापार बढ़ाने मे लग गये.
मोहम्मद साहब की ईमानदारी, लगन, निष्टा और मेहनत से हज़रत ख़दीजा का कारोबार रोज़-बरोज़ बढ़ने लगा. मोहम्मद साहब के आला किरदार से हज़रत ख़दीजा इतना प्रभावित हुईं कि उन्होनें एक सेविका के ज़रिए मोहम्मद साहब के पास शादी का पैग़ाम भिजवाया जिस को हज़रत मोहम्मद ने खुशी के साथ क़ुबूल लिया.
इस बीच हज़रत मोहम्मद अरब जगत में अपनी सच्चाई, लगन, इंसानियत-नवाज़ी, बिना किसी पक्षपात वाले तौर तरीक़ो, अमानतदारी और श्रेष्ठ चरित्र के लिए मशहूर हो चुके थे. एक ओर हज़रत मोहम्मद आम लोगो, ग़रीबों, लाचारों ज़रूरत मंदो और ग़ुलामों की मदद करने काम खामोशी से अंजाम दे रहे थे, दूसरी तरफ अरब जगत ज़ुल्म, अत्याचार, क्रूरता, झूठ, बेईमानी के अँधेरे में डूबता जा रहा था. हज़रत मोहम्मद ने पैग़म्बर होने का ऐलान करने से पहले अरब समाज में अपनी सच्चाई का लोहा मनवा लिया था. सारे अरब में उनकी ईमानदारी और अमानतदारी मशहूर हो चुकी थी. लोग उनको सच्चा और अमानतदार कहने लगे थे.
जब पेगंबर साहब 30 साल की उमर में पहुँचे तो उनके चाचा हज़रत अबूतालिब के घर में एक बच्चे का जन्म हुआ. पैग़म्बर साहब ने बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली. बाद में इसी बच्चे को दुनिया ने हज़रत अली के नाम से पहचाना. जब हज़रत अली 10 साल के हो गये तो लगभग चालीस साल की उमर में हज़रत मोहम्मद को अल्लाह की तरफ़ से पहली बार संदेश आया: “इक़्रा बिसमे रब्बीका” यानी पढ़ो अपने रब्ब के नाम के साथ. पैग़म्बर साहब यह सुन कर पानी-पानी हो गये और घर लौट कर सारा क़िस्सा अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा को बताया की किस तरह अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते ने उन्हें अल्लाह की खबर दी है. हज़रत ख़दीजा ने फ़ौरन ही यह बात मान ली कि हज़रत मोहम्मद अल्लाह द्वारा नियुक्त किये हुए पैग़म्बर हैं, फिर हज़रत अली ने भी फ़ौरन यह बात स्वीकार कर ली कि मोहम्मद साहब अल्लाह द्वारा भेजे हुए पैग़म्बर है.
शुरू में पैग़म्बर साहब ने ख़ामोशी से अपना अभियान चलाया और कुछ ख़ास मित्रों तक ही बात सीमित रखी. इस तरह तीन साल का वक़्त गुज़र गया. तब अल्लाह की और से सन्देश आया कि अब इस्लाम का प्रचार खुले आम किया जाए. इस आदेश के बाद पैग़म्बर साहब मक्का नगर कि पवित्र पहाड़ी “कोहे सफ़ा” पर खड़े हुए और जमा लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर मैं तुम से कहूँ कि पहाड़ के पीछे से एक सेना आ रही है तो क्या तुम मेरा यक़ीन करोगे? सब ने कहा : “हाँ, क्योंकि हम तुमको सच्चा जानते हैं”, उसके बाद जब पैग़म्बर साहब ने कहा कि अगर तुम ईमान न लाये तो तुम पर सख्त अज़ाब(प्रकोप) नाज़िल होगा तो सब नाराज़ हो कर चले गए. इनमें अधिकतर उनके खानदान वाले ही थे. इस ख़ुतबे(प्रवचन) के कुछ समय बाद पैगंबर साहब ने एक दावत में अपने रिश्तेदारों को बुलाया और उनके सामने इस्लाम का संदेश रखा लेकिन हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा परिवार जन हज़रत मोहम्मद को अल्लाह का संदेशवाहक मानने को तैयार नहीं था. तीन बार ऐसी ही दावत हुई और हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति पैगंबर साहब की हिमायत के लिए खड़ा नहीं हुआ, हालाँकि पैगंबर साहब इस बात का न्योता भी दे रहे थे कि जो उनकी बात मानेगा वही उनका उत्तराधिकारी होगा.
जिस समय मुसलमानो की तादाद चालीस हो गई तो पैगंबर साहब ने मक्का के पवित्र स्थल क़ाबा में पहुँच कर यह ऐलान कर दिया कि “अल्लाह के अलावा कोई इबादत के क़ाबिल नही है”. इस प्रकार की घोषणा से मक्का के लोग हक्का बक्का रह गए और उन्होनें चालीस मुसलमानों की छोटी सी टुकड़ी पर हमला कर दिया और एक मुस्लिम नवयुवक हारिस बिन अबी हाला को शहीद कर दिया. उसके बाद हज़रत यासिर को शहीद किया गया, खबाब बिन अलअरत को जलते अंगारों पर लिटा कर यातना दी गई. हज़रत बिलाल को जलती रेत पर लिटा कर अज़ीयत दी गई. सुहैब रूमी का सारा समान लूट कर उन्हें मक़्क़े से निकाल दिया गया. इस्लाम धर्म क़ुबूल करने वाली महिलाओं को भी परेशान किया जाने लगा. इनमें हज़रत यासिर की पत्नी सुमय्या, हज़रत उमर की बहन फातेमा, ज़ुनैयरा, नहदिया और उम्मे अबीस जैसी महिलाएं शामिल थीं. इनमे से कुछ को क़त्ल भी कर दिया गया. अल्लाह के आदेश पर अपने को पैगंबर घोषित करने के पाँचवे साल पैग़म्बर साहब को अपने अनेक साथियों को मक्का छोड़ कर हब्श(अफ्रीका) की और जाने के लिए कहना पड़ा और 16 मुसलमान हबश चले गये. कुछ समय बाद 108 लोगो पर आधारित मुसलमानों का एक और दल हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के नेतृत्व में मक्का छोड़ कर चला गया. मुसलमानों के पलायन से मक्के के काफ़िरों का होसला बढ़ गया. ख़ास तौर पर अबू जहल नामक सरदार पैग़म्बर साहब को प्रताड़ित करने लगा. यह देख कर मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया. उनके शामिल होने से मुसलमानों को बहुत हौसला मिला क्योंकि हज़रत हम्ज़ा बहुत मशहूर योद्धा थे. फिर भी मक्के वालो ने पैग़म्बर साहब का जीना दूभर किये रखा. बड़े तो बड़े, छोटे छोटे बच्चो को भी पैग़म्बर साहब पर पत्थर फेंकने पर लगा दिया गया. औरते छतों से कूड़ा फेंकने पर लगाईं गई. इस दुश्वार घडी में पत्थर मारने वाले बच्चों को खदेड़ने का काम कम आयु के हज़रत अली ने अंजाम दिया, कूड़ा फैंकने वाली औरत के बीमार पड़ने पर उसकी खैरियत पूछने की ज़िम्मेदारी स्वंय पैग़म्बर साहब ने और मक्का के बड़े बड़े सरदारों की साजिशों से हज़रत मोहम्मद को सुरक्षित रखने का काम हज़रत अली के पिता हज़रत अबू तालिब ने अपने सर ले रखा था. जब हज़रत मोहम्मद का एकेश्वरवाद का सन्देश तेजी से फैलने लगा तो दमनकारी शक्तियाँ और हिंसक होने लगीं और पैग़म्बर साहब के विरोधी खिन्न हो कर उनके चाचा हज़रत अबू तालिब के पास पहुंचे और कहा कि या तो वे हज़रत मोहम्मद को अपने धर्म के प्रचार से रोके या फिर हज़रत मोहम्मद को संरक्षण देना बंद कर दें. हज़रत अबू तालिब ने मोहम्मद साहब को समझाने की कोशिश की लेकिन जब मोहम्मद साहन ने उनसे साफ़ साफ़ कह दिया कि “अगर मेरे एक हाथ में चाँद और दूसरे हाथ में सूरज भी रख दिया जाए तो भी में अल्लाह के सन्देश को फैलाने से बाज़ नहीं आ सकता. खुदा इस काम को पूरा करेगा या मैं खुद इस पर निसार हो जाऊँगा.”
लोगों का मानना है कि इसी समय हज़रत अबू तालिब ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन मक्के के हालात देखते हुए उन्होंने इसकी घोषणा करना मुनासिब नहीं समझा. जब यह चाल भी नाकाम हो गई तो मक्के के सरदारों ने एक और चाल चली. उन्होंने अकबा बिन राबिया नाम के एक व्यक्ति को पैग़म्बर साहब के पास भेजा और कहलवाया कि “ऐ मोहम्मद! आखिर तुम चाहते क्या हो? मक्के की सल्तनत? किसी बड़े घराने में शादी? धन, दौलत का खज़ाना? यह सब तुम को मिल सकता है और बात पर भी राज़ी हैं कि सारा मक्का तुम्हे अपना शासक मान ले, बस शर्त इतनी है कि तुम हमारे धर्म मैं हस्तक्षेप न करो”. इस के जवाब में हज़रत मोहम्मद ने कुरआन शरीफ कि कुछ आयते(वचन) सुना दीं. इन आयातों का अकबा पर इतना असर हुआ कि उन्होंने मक्के वालों से जाकर कहा कि मोहम्मद जो कुछ कहते हैं वे शायरी नहीं है कुछ और चीज़ है. मेरे ख़याल में तुम लोग मोहम्मद को उनके हाल पर छोड़ दो अगर वह कामयाब हो कर सारे अरब पर विजय हासिल करते हैं तो तुम लोगो को भी सम्मान मिलेगा अन्यथा अरब के लोग उनको खुद इ९ ख़तम कर देंगे. लेकिन मक्के वाले इस पर राज़ी नहीं हुए और हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध ज़्यादा कड़े कदम उठाये जाने लगे. (हज़रत मोहम्मद को परेशान करने वालो में अबू सुफ्यान, अबू जहल और अबू लहब सबसे आगे थे). हज़रत मोहम्मद व उनके साथियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. कष्ट की इस घड़ी में एक बार फिर हज़रत मोहम्मद के चाचा हज़रत अबू तालिब ने एक शिविर का प्रबंध किया और मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की. इस सुरक्षा शिविर को शोएब-ए-अबू तालिब कहा जाता है. इस दौरान हज़रत अबू तालिब हज़रत मोहम्मद की सलामती को लेकर इतना चिंतित थे कि हर रात मोहम्मद साहब के सोने की जगह बदल देते थे और उनकी जगह अपने किसी बेटे को सुला देते थे. तीन साल की कड़ी परीक्षा के बाद मुसलमानों का बायकाट खत्म हुआ. लेकिन मुसलमानों को ज़ुल्म और सितम से छुटकारा नहीं मिला और मक्का वासियों ने मुसलामानों पर तरह तरह के ज़ुल्म जारी रखे.
हज़रत अबू तालिब के इंतिक़ाल के बाद इन ज़ुल्मो में इज़ाफा हो गया(इसी साल पैग़म्बर साहब की चहीती पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी इंतिक़ाल हो गया). और मोहम्मद साहब की जान के लिये खतरा पैदा हो गया. मक्के की मुस्लिम दुश्मन ताकतें मोहम्मद साहब को क़त्ल करने की साजिशें करने लगीं. लेकिन दस वर्ष के समय में पैग़म्बर साहब का फैलाया हुआ दीन मक्के की सरहदें पार कर के मदीने के पावन नगर में फ़ैल चुका था इसलिए मदीने के लोगो ने पैग़म्बर साहब को मदीने में बुलाया और उनको भरोसा दिया की वे मदीने में पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे. एक रात मक्के के लगभग सभी क़बीले के लोगो ने पैग़म्बर साहब को जान से मार देने की साज़िश रच ली लेकिन इस साज़िश की खबर मोहम्मद साहब को पहले से लग गई और वेह अपने चचेरे भाई हज़रत अली से सलाह मशविरा करने के बाद मदीने के लिए प्रस्थान करने को तैयार हो गए. लेकिन दुश्मनों ने उनके घर को चारो तरफ से घेर रखा था. इस माहोल में हज़रत अली मोहम्मद साहब के बिस्तर पर उन्ही की चादर ओढ़ कर सो गए और मोहम्मद साहब अपने एक साथी हज़रत अबू बक्र के साथ रात के अँधेरे में ख़ामोशी से मक्का छोड़ कर मदीने के लिए चले गये. जब इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के घर पर हमला किया और उनके बिस्तर पर हज़रत अली को सोता पाया तो खीज उठे. उन लोगों ने पैग़म्बर साहब का पीछा करने की कोशिश की और उन तक लगभग पहुँच भी गए लेकिन जिस गार(गुफा) में हज़रत मोहम्मद छुपे थे उस गुफा के बाहर मकड़ी ने जाला बुन दिया और कबूतर ने घोंसला लगा दिया जिससे कि पीछा करने वाले दुश्मन गुमराह हो गए और पैग़म्बर साहब की जान बच गई. कुछ समय बाद हज़रत अली भी पैग़म्बर साहब से आ मिले. इस तरह इस्लाम के लिए एक सुनहरे युग की शुरुआत हो गई. मदीने में ही पैग़म्बर साहब ने अपने साथियो के साथ मिल कर पहली मस्जिद बनाई. यह मस्जिद कच्ची मिट्टी से पत्थर जोड़ कर बनाई गई थी और इस पर सोने चांदी की मीनार और गुम्बद नहीं थे बल्की खजूर के पत्तों की छत पड़ी हुई थी.
मक्का छोड़ने के बाद भी इस्लाम के दुश्मनों ने मोहम्मद साहब के खिलाफ़ साजिशें जारी रखीं और उन पर लगातार हमले होते रहे. मोहम्मद साहब के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी. मदीने में आने के बाद जो पहली जंग हुई उसमे पैग़म्बर साहब के पास केवल तीन सो तेरह आदमी थे, तीन घोड़े, सत्तर ऊँट, आठ तलवारें, और छेह ज़िर्हे(ढालें) थी. इस छोटी सी इस्लामी फ़ौज का नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था, जो हज़रत अली के लिए पहला तजुर्बा था. लेकिन जिन लोगों को अल्लाह ने प्रशिक्षण दे कर दुनिया में उतारा हो, उन्हें तजुर्बे की क्या ज़रुरत? इतनी छोटी सी तादाद में होने के बावजूद मुसलमानों ने एक भरपूर लश्कर से टक्कर ली और अल्लाह पर अपने अटूट विश्वास का सबूत देते हुए मक्के वालों को करारी मात दी. इस जंग में काफ़िरो को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. जंगे-बद्र के नाम से मशहूर इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचाज़ाद भाई हज़रत अली और मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए और मक्के के फ़ौजी सरदार अबू सुफ्यान को काफ़ी ज़िल्लत(बदनामी) उठानी पड़ी. उसके साथ आने वाले बड़े बड़े काफिर सरदार और योद्धा मारे गए.
मोहम्मद साहब न तो किसी की सरकार छीनना चाहते थे न उन्हें देश और ज़मीन की ज़रुरत थी, वे तो सिर्फ इस धरती पर अल्लाह का सन्देश फैलाना चाहते थे. मगर उन पर लगातार हमले होते रहे जबकि खुद मोहम्मद साहब ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही इस्लामी सेना ने किसी देश पर चढाई की. इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बर साहब और उनके साथियों पर कुल मिला कर छोटे बड़े लगभग छियासी युद्ध थोपे गये और यह सारी लड़ाईयाँ मदीने के आस पास लड़ी गई. केवल जंगे-मौता के मौके पर इस्लामी फ़ौज मदीने से आगे बढ़ी क्योंकि रोम के बादशाह ने मुसलमानों के दूत को धोके से मार दिया था. मगर इस जंग में मुसलमानों की तादाद केवल तीन हज़ार थी और रोमन लश्कर(सेना) में एक लाख सैनिक् थे इसलिए इस जंग में मुसलमानों को कामयाबी नहीं मिली. इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई हज़रत जाफर बिन अबू तालिब और कई वीर मुसलमान सरदार शहीद हुए. यहाँ पर यह कहना सही होगा कि मोहम्मद साहब ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया, न ही इस्लामी शासन का विस्तार करने के लिए उन्होंने किसी मुल्क पर चढ़ाई की बल्कि उन को ही काफ़िरो(नास्तिको) ने हर तरह से परशान किया. जंगे-अहज़ाब के मौके पर तो काफ़िरो ने यहूदियों और दूसरी इस्लाम दुश्मन ताकतों को भी मिला कर मुसलमानों पर चढ़ाई की, लेकिन इस के बाद भी वे मुसलमानों को मात नहीं दे सके.
जंगे-उहद के मौके पर तो पैग़म्बर साहब को अभूतपूर्व क़ुरबानी देनी पड़ी. इस जंग में पैग़म्बर साहब के वीर चाचा हज़रत हम्ज़ा शहीद हो गए, उनकी शहादत के बाद पैग़म्बर साहब के सब से बड़े दुश्मन अबू सुफ्यान की पत्नी हिंदाह ने अपने ग़ुलाम की मदद से हज़रत हम्ज़ा का सीना काट कर उनका कलेजा निकाल कर उसे चबाया और उनके कान नाक कर कर अपने गले मैं हार की तरह पहना. इस के उलट हज़रत मोहम्मद ने जंग में मारे गए दुसरे पक्ष के मृत सैनिको की लाशों को अपमान करने की मनाही की.
इसके बाद भी लगातार मुसलमानों को हर तरह से परेशान किया जाता रहा मगर काफ़िरो को सफलता नहीं मिली. इस्लाम का नूर(रौशनी) दूर दूर तक फैलने लगा. खुले आम थोपी जाने वाली जंगो के साथ साथ पैग़म्बर साहब को चोरी छुपे मारने की कोशिशे भी होतीं रहीं. एक बार बिन हारिस नाम के एक काफिर ने मोहम्मद साहब को एक पेड़ के नीचे अकेला सोते हुए देख कर तलवार से हमला करना चाह और महोम्मद साहब को आवाज़ दे कर कहा कि “ऐ मोहम्मद इस वक़्त तुम को कोन बचा सकता है?” हज़रत ने इत्मीनान(आराम से/बिना किसी डर के) से जवाब दिया “मेरा अल्लाह”. यह सुन कर बिन हारिस के हाथ काँपने लगे और तलवार हाथ से छूट गई. हज़रत ने तलवार उठा ली और पूछा: “अब तुझे कौन बचा सकता है?”. वह बोला, “आप का रहम-ओ-करम”. हज़रत ने जवाब दिया ” तुझ को भी अल्लाह ही बचाएगा”. यह सुन कर बिन हारिस ने अपने सर पैग़म्बर साहब के पैरों पर रख दिया और मुसलमान हो गया.
मदीने में एक तरफ तो पैग़म्बर साहब पर काफ़िरो के हमले हो रहे थे तो दूसरी तरफ़ हज़रत का परिवार फल फूल रहा था. उन की इकलोती बेटी हज़रत फ़ातिमा की शादी हज़रत अली से होने के बाद हज़रत मोहम्मद के घर में दो चाँद हज़रत हसन और हज़रत हुसैन के रूप में चमकने लगे थे. जिन्हें हज़रत मोहम्मद अपने बेटों से भी ज्यादा अज़ीज़ रखते थे. पैग़म्बर साहब के इकलोते बेटे हज़रत क़ासिम बचपन में ही अल्लाह को प्यारे हो गए थे इसलिए भी पैग़म्बर साहब अपने नवासो से बहोत प्यार करते थे. पैग़म्बर साहब की दो नवासियाँ भी थी जिनको इस्लामी इतिहास में हज़रत जैनब और हज़रत उम्मे कुलसूम कहा जाता है.
मदीने में रह कर इस्लाम के प्रचार प्रसार में लगे हज़रत मोहम्मद को किसी भी तरह हरा देने की साज़िशे रचने वाले काफ़िरो ने कई बार यहूदी और अन्य वर्गों के साथ मिल कर भी मदीने पर चढाई की मगर हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी और उनके बड़े बड़े वीर योद्धा हज़रत अली के हाथों मारे गए. इन लडाइयों में जंगे-खैबर और जंगे-ख़न्दक का बहोत महत्त्व है. इस्लाम की हिफाज़त करने मैं हज़रत अली ने जिस बहादुरी और हिम्मत का सुबूत दिया, उससे इस्लाम का सर तो ऊँचा हुआ ही खुद हज़रत अली भी इस्लामी जगत मैं वीरता और बहादुरी के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने लगे और आज तक बहादुर और वीर लोग “या अली” कहकर मैदान में उतारते हैं. आम लोग संकट की घड़ी में “या अली” या “या अली मदद” कहकर उनको मदद के लिए आवाज़ देते हैं.
हज़रत अली ने इस्लाम की सुरक्षा और विस्तार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने बड़ी बड़ी जंगो मैं हिस्सा लिया और इस्लामी सेना को विजय दिलाई लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है की उनके हाथों कोई बेगुनाह नहीं मारा गया और न ही उन्होंने किसी निहत्थे पर वार किया. जो भी उनसे लड़ने आया उसको उन्होंने यही मशविरा(सलाह/राय) दिया की अगर वह चाहे तो जान बचाकर जा सकता है और जान बचा कर भाग लेने में कोई शर्त भी नहीं थी.
पैग़म्बर साहब और मुसलमानों पर लगातार हमलों के बावजूद इस्लाम रोज़ बरोज़ फैलता जा रहा था आखिर थक आर कर मक्के के अनेक क़बीलो ने पैग़म्बर साहब के साथ समझोता कर लिया. यह समझोता “सुलह-ए-हुदेबिया” के नाम से मशहूर है. पैग़म्बर साहब के शांति प्रिय होने का सबसे बड़ा सुबूत इस संधि के मौके पर देखने को मिला जब उन्होंने काफ़िरो के ज़ोर देने पर सहमती पत्र पर से अपने नाम के आगे से रसूल अल्लाह(अल्लाह के रसूल) काट दिया और केवल मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिखा रहने दिया हालांकि पैग़म्बर साहब के सहयोगी इस पर राज़ी नहीं थे की पैग़म्बर साहब के नाम के आगे से रसूल अल्लाह लफ्ज़ काटा जाए. कुछ दिन बाद इस संधि को तोड़ते हुए पैग़म्बर साहब के सहयोगी क़बीले बनी खिज़ाअ के एक व्यक्ति को काफ़िरो के एक क़बीले बनी बकर ने मक्का नगर की सबसे सबसे पाक पवित्र जगह क़ाबा के आँगन में ही मार डाला तो पैग़म्बर साहब ने दस हज़ार मुसलमानों को लेकर मक्के की तरफ़ प्रस्थान किया. मक्के की सीमा पर पहुँचने से पहले ही इस्लाम का कट्टर और सबसे बड़ा दुश्मन अबू सूफ़ियान मुसलमानों की जासूसी करने के लिए आया लेकिन घिर गया. लेकिन मुसलमानों ने उसे मारा नहीं और बल्कि पनाह दे दी. पैग़म्बर के चाचा हज़रत अब्बास ने सुफियान को मशविरा दिया की वह इस्लाम स्वीकार कर ले. अबू सुफियान ने मजबूरी मैं इस्लाम कुबूल कर लिया और मक्के वालों की और से किसी तरह के प्रतिरोध के बिना मुसलमान लगभग आठ साल के अप्रवास के बाद मक्के में दाखिल हुए. इस विजय की ख़ुशी में मुसलमानों का ध्वज उठा कर चल रहे सेनापति सअद बिन अबादा ने जोश में आकर यह ऐलान कर दिया कि आज बदले का दिन है और आज हर तरह का इंतिकाम जायज़ है. इस घोषणा से पैग़म्बर साहब इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने अलम(झंडे) को सअद से लेकर हज़रत अली को सोंप दिया और दुनिया को बता दिया की इस्लाम जोश नहीं होश की मांग करता है. इस जीत के मौके पर बदला या इंतिकाम लेने कि जगह पर पैग़म्बर साहब ने सभी मक्का वासियों को माफ़ कर दिया. पैग़म्बर साहब ने हिन्दा(अबू सूफ़ियान की पत्नी) नाम की उस औरत को भी माफ़ कर दिया जिसने मोहम्मद साहब के प्यारे चाचा हज़रत हम्ज़ा का कलेजा चबाने का जघन्य अपराध किया था. लगभग अठारह दिन मक्के में रहने के बाद मुसलमान जब वापस मदीने लौट रहे थे तो ताएफ़ नामक स्थान पर काफिरों ने उन्हें घेर लिया. पहले तो मुसलमानों में अफ़रातफरी फैल गई. लेकिन बाद में मुसलमानों ने जम कर मुकाबला किया और काफ़िरो को करारी मात दी. इस जंग को जंग-ए-हुनैन कहा जाता है.
जंगे-ए-मौता में मुसलमानों को मात देने वाली रोम की सेना के हौंसले एक बार फिर बढ़ गए थे. रोम के हरकुलिस(Harqulis) बादशाह ने इस्लाम को मिटा देने के इरादे से फिर एक बार फौजें जमा कर लीं और पैग़म्बर साहब ने भी सारे मुसलमानों से कह दिया की वह जान की बाज़ी लगाने को तैयार रहे. तबूक नामक स्थान पर इस्लामी सेनायें रोमियों का मुकाबला करने पहुँचीं. मगर रोम वाले मुसलामानों की ताक़त का अंदाज़ा लगा चुके थे इस लिए यह युद्ध टल गया. इस के बाद मुसलमानों के बीच घुस कर कुछ दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के ऊंट को घाटी में गिरा कर मार डालने की साज़िश रची लेकिन अल्लाह ने उनको बचा लिया.
मक्का की विजय के लगभग एक साल बाद नज़रान नामक जगह के ईसाई मोहम्मद साहब से वाद विवाद के लिए आये और हज़रत ईसा मसीह को खुदा का बेटा साबित करने की कोशिश करने लगे तो पैग़म्बर साहब ने उनको बताया की इस्लाम धर्म, ईसा मसीह को अल्लाह का पवित्र पैग़म्बर मानता है, ईश्वर का बेटा नहीं. क्योंकि अल्लाह हर तरह के रिश्ते से परे है. मगर मुसलमान हज़रत ईसा के चमत्कारिक जन्म पर यक़ीन रखते हैं और यह भी मानते हैं कि उनका कोई पिता नहीं था. जब ईसाइयों ने कहा की बिना बाप के कोई बच्चा कैसे जन्म ले सकता है तो हज़रत मोहम्मद ने कहा कि “वही अल्लाह जिसने हज़रत आदम(Adam) को बग़ैर माँ-बाप के पैदा किया, ईसा मसीह को बग़ैर पिता के क्यों पैदा नहीं कर सकता?” मगर ईसाईयों ने हट नहीं छोड़ी. इस पर हज़रत मोहम्मद ने क़ुरान में अल्लाह द्वारा कही गई आयत को आधार मानते हुए ईसाईयों को यह आयत सुना दी जिसमें अल्लाह ने कहा है कि “अगर यह लोग तुम से उलझते रहें, ऐसी विश्वस्निये दलीलों के बाद भी जो पेश हो चुकी हैं तो कह दो कि हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को बुलाओ और हम अपनी औरतों को बुलाएँ तुम अपनी औरतों को बुलाओ, हम अपने सबसे क़रीबी साथियों को बुलाएँ तुम अपने साथियों को बुलाओ फिर खुदा की तरफ(क़ाबे के तरफ़) रुख करें, और अल्लाह की लानत(अभिशाप/बद-दुआ) करार दें उन झूटों पर”. ईसाई इस पर राज़ी हो गए. यह वाद विवाद “मुबाहिला” के नाम से मशहूर है.
दूसरे दिन हज़रत मोहम्मद अपने छोटे छोटे नवासों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन, बेटी हज़रत फातिमा और दामाद हज़रत अली के साथ मैदान-ए-मुबाहिला मैं पहुँच गए. इन्हीं पवित्र लोगों को मुसलमान पंजतन कहते हैं. पाँच नूरानी व्यक्तित्व देख कर ईसाई घबरा गए और मुबाहिले के लिए तैयार हो गए. इस संधि के तहत ईसाई हर साल पैग़म्बर साहब को एक निश्चित रक़म टेक्स के रूप मैं देने पर राज़ी हो गए जिसके बदले मैं पैग़म्बर साहब ने वायदा किया कि वे ईसाइयों को उनके घर्म पर ही रहने देंगे.
इस्लाम के खिलाफ चलने वाले सारे अभियानों को नाकाम करने के बाद पैग़म्बर साहब ने हज़रत अली हो यमन देश मैं इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा. वहाँ जाकर हज़रत अली ने इस तरह प्रचार किया कि हमदान का पूरा क़बीला मुसलमान हो गया.
इसी साल हज़रत मोहम्मद अपनी अंतिम हज यात्रा पर गए. हज़रत अली भी यमन से सीधे मक्का पहुँच गए जहाँ से वो लोग हज करने के लिए मैदाने अराफ़ात, मुज्द्लिफ़ा और मीना गए और फिर हज के अंतिम चरण में मक्का पहुँचे.
हज से वापस लौटते समय पैग़म्बर साहब ने ग़दीर-ए- ख़ुम नाम के स्थान पर क़ाफिले को रोक कर इस बात का ऐलान किया कि अल्लाह का दीन अब मुक़म्मल(पूरा) हो गया है और आज से सब लोग बराबर हैं. अब किसी को किसी पर कोई बरतरी(वरीयता) प्राप्त नहीं हैं. अब न तो कोई क़बीले की बुनियाद पर ऊँचा है, न किसी को रंग और नसल के आधार पर कोई बुलंद दर्जा हासिल हैं. आज से ऊँचाई और बड़ाई का कोई मेअयार(मापदंड) अगर है तो बस यह है कि कोन चरित्रवान है और किस के दिल मैं अल्लाह का कितना खौफ़ है. इसके बाद पैग़म्बर साहब ने ऐलान किया कि “जिस जिस का मैं मौला(नेता/स्वामी) हूँ, यह अली भी उसके मौला हैं/”.
इसके लगभग दो महीने बाद 29 मई 632 में पैग़म्बर साहब का मदीने मैं ही निधन हो गया. पैग़म्बर साहब के दोस्त और अनेक वरिष्ठ साथी उनके निघन के समय मौजूद नहीं थे क्योंकि वे लोग सकीफ़ा नामक उस जगह पर उस मीटिंग में हिस्सा ले रहे थे जिसमें पैग़म्बर साहब का उत्तराधिकारी चुनने के लिए वाद विवाद चल रहा था. पैग़म्बर साहब को हज़रत अली ने केवल परिवार वालों कि मौजूदगी मैं दफ़न किया.
इस बीच मुसलमानों के उस गिरोह ने जो कि सकीफ़ा मैं जमा हुआ था, पैग़म्बर साहब के एक वरिष्ट मित्र हज़रत अबू बकर को मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.
इस घटना के बाद मुसलमानों मैं उत्तराधिकार के मामले को लेकर कलह पैदा हो गई. क्योंकि मुसलामानों के एक वर्ग का कहना था कि पैग़म्बर साहब ग़दीर-ए-खुम मैं हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं परन्तु दुसरे वर्ग का कहना था कि मौला का मतलब दोस्त भी होता है. इस लिए पैग़म्बर साहब की घोषणा उत्तराधिकारी के मामले मैं लागू नहीं होती.
जब पैग़म्बर साहब के मित्र और साथी वापस आये तो मोहम्मद साहब को दफ़न किया जा चुका था. शिया मुसलामानों की धार्मिक पुस्तकों के अनुसार पैग़म्बर साहब के निधन के बाद उनके परिवार जनों को काफ़ी प्रताड़ित किया गया. हज़रत अली के घर के दरवाज़े मैं आग लगाई गई. दरवाज़ा गिरने से पैग़म्बर साहब की पवित्र बेटी हज़रत फ़ातिमा की कोख में पल रहे हज़रत मोहसिन का निधन हो गया.
मगर इस्लाम मैं वीरता और साहस के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने वाले हज़रत अली, सहनशीलता और सब्र का प्रतीक बनकर हर दुःख को चुपचाप सह गए क्योंकि उस समय अगर हज़रत अली कि तलवार उठ जाती तो हज़रत अली दुश्मनों को तो ख़त्म कर देते, लेकिन उससे इस्लाम को भी नुक्सान पहुँचता क्योंकि उस समय हज़रत मोहम्मद द्वारा फैलाया हुआ इस्लाम शुरूआती दौर में था और मुसलामानों की तादाद आज की तरह करोड़ों-अरबों में न होकर केवल हज़ारों में थी. हज़रत अली सत्ता तो प्राप्त कर लेते लेकिन इस्लाम का कहीं नामों-निशान न होता, जोकि इस्लाम के दुश्मन चाहते थे. इसका सबूत यह है कि जब इस्लाम का घोर दुश्मन रह चुका अबू सुफियान हज़रत अली के पास आया और बोला कि अगर अली अपने हक के लिए लड़ना चाहते हैं तो वह मक्के की गलियों को हथियार बंद सिपाहियों और खुड़सवारों से भर सकता है. इस पर हज़रत अली ने जवाब दिया कि “ए अबू सुफियान, तू कब से इस्लाम का हमदर्द हो गया?”.
हज़रत अली और उनके परिवार को आतंकित करने की इस घटना का हज़रत फ़ातिमा पर इतना असर हुआ कि वे केवल अठारह साल कि उम्र मैं ही इस दुनिया से कूच कर गईं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हज़रत फ़ातिमा पैग़म्बर साहब के निधन के बाद केवल नौ दिन ही ज़िन्दा रहीं जबकि कुछ कहते हैं कि हज़रत फ़ातिमा बहत्तर दिनों तक ज़िन्दा रहीं. इस तरह पैग़म्बर साहब के परिवार जनों को खुद मुसलामानों द्वारा सताए जाने की शुरुआत हो गई.
अजीब बात यह है कि पैग़म्बर साहब के जीवन मैं उनके परिवार जन काफिरों के आतंकवाद का निशाना बनते रहे और मोहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद उन्हें ऐसे लोगों ने ज़ुल्मों सितम का निशाना बनाया जो खुद को मुसलमान कहते थे. हज़रत फातिमा को फिदक़ नामक बाग़ उनके पिता ने तोहफे के रूप में दिया था. इस बाग़ का हज़रत अबू बकर की सरकार ने क़ब्ज़ा कर लिया था. इस बात से भी हज़रत फ़ातिमा बहोत दुखी रहीं क्योंकि वह अपने पिता के दिए हुए तोहफे से बहोत प्यार करती थीं.
हज़रत फ़ातिमा के निधन के लगभग 6 महीने बाद तक हज़रत अली और हज़रत अबू बकर के बीच सम्बन्ध बिगड़े रहे. इस बीच हज़रत अली पवित्र क़ुरान कि प्रतियों को इकठ्ठा करते रहे और खुद को केवल धार्मिक कामों में सीमित रखा.
पैग़म्बर साहब के बाद मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए, एक वर्ग इमामत पर यकीन रखता था और दूसरा खिलाफत पर. इमामत पर यकीन रखने वाले दल का मानना था कि पैग़म्बर साहब के उत्तराधिकारी का फैसला केवल अल्लाह की तरफ से हो सकता है और हज़रत मोहम्मद अपने दामाद हज़रत अली को पहले ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे. जबकि दूसरे दल का मानना था कि केवल मदीने के पवित्र नगर में आबाद मुसलमान मिल कर पैग़म्बर साहब का उत्तराधिकारी चुन सकते हैं.
दो वर्ष बाद हज़रत अबू बक़र का निधन हो गया और मरते समय उन्होंने अपने दोस्त हज़रत उमर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया.
हज़रत उमर ने लगभग ग्यारह साल तक राज किया और एक जानलेवा हमले में घायल होने के बाद नए खलीफा का चयन करने के लिए छः सदस्यों की एक कमिटी बना दी. इस कमिटी के सामने खलीफा के पद के लिए दो नाम थे. एक हज़रत अली का और दूसरा हज़रत उस्मान का. इस कमिटी मैं एक व्यक्ति को वीटो पावर भी हासिल थी. समिति ने हज़रत अली से जब यह जानना चाहा कि वे अपने से पहले शासक रह चुके दो खलीफाओं की नीतियों पर चलेंगे? तो हज़रत अली ने कहा कि वे केवल पैग़म्बर साहब और पवित्र कुरान का अनुसरण करने को बाध्य हैं. इस जवाब के बाद और वीटो पावर की बुनियाद पर हज़रत उस्मान को ख़लीफा बना दिया गया. हज़रत उस्मान के शासन काल में उनकी नीतियों से मुसलमानों में बहोत असंतोष फैल गया. ख़ास तौर पर उनके द्वारा नियुक्त किये गए एक अधिकारी मर-वान ने लोगों को बहोत सताया. मुस्लिम समुदाय मर-वान के ज़ुल्मो के खिलाफ दुहाई देने के लिए मदीने में जमा हुआ मगर उनको इंसाफ के बदले धोखा मिला, तत्पश्चात मुसलमानों में उग्रवाद फैल गया और एक क्रुद्ध भीड़ ने हज़रत उस्मान की हत्या कर दी. शासक द्वारा आम जनता का खून बहाना तो सदियों से एक मामूली सी बात है लेकिन किसी शासक की आम जनता द्वारा हत्या अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना थी. इसने सारे मुस्लिम जगत को हिला कर रख दिया और शासको तक यह पैग़ाम भी पहुँच गया की किसी भी मुस्लिम शासक को शासन के दौरान अपनी नीतियों को लागू करने का अधिकार नहीं है बल्कि केवल कुरान और सुन्नत(पैग़म्बर साहब का आचरण) ही शासन की बुनियाद हो सकता है.
हज़रत अली और उनके विरोधी
हज़रत उस्मान की हत्या के बाद तीन दिन तक स्थिति बहोत ही ख़राब और शोचनिये रही. मदीने में अफरातफरी का माहोल था. ऐसे मैं जनता की उम्मीद का केंद्र एक बार फिर पैग़म्बर साहब का घर हो गया. हजारों नर-नारी बनू हाशिम के मोहल्ले में उस पवित्र घर पर आशा की नज़रें टिकाये थे, जहाँ हज़रत अली रहते थे. इन लोगो ने फ़रियाद की कि दुःख की इस घडी में हज़रत अली खिलाफत का पद संभालें. इस बार न तो सकीफ़ा जैसी चुनावी प्रक्रिया अपनाई गई न ही किसी ने हज़रत अली को मनोनीत किया और न कोई ऐसी कमिटी बनी जिसमें किसी को वीटो पावर प्राप्त थी. हज़रत अली ने जनता के आग्रह को स्वीकार किया और खिलाफत संभाल ली. लेकिन खलीफा के पद पर बैठते ही हज़रत अली के विरोधी सक्रिय हो गए. पहले तो पैग़म्बर साहब की एक पत्नी हज़रत आयशा को यह कह कर भड़काया गया की हज़रत उस्मान के क़ातिलों को हज़रत अली सजा नहीं दे रहे हैं और इस तरह के इलज़ाम भी लगाये गए की जैसे खुद हज़रत अली भी हज़रत उस्मान की हत्या में शामिल रहे हो. जब की हज़रत अली ने हज़रत उस्मान और उनके विरोधियों के बीच सुलह सफाई करवाने की पूरी कोशिश की और घेराव के दौरान उनके लिए खाना पानी अपने बेटों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन के हाथ लगातार भेजा. हज़रत आयशा जो पहले खलीफा हज़रत अबू बक़र की बेटी थीं, अनेक कारणों से हज़रत अली से नाराज़ रहती थीं. वो ख़िलाफ़त की गद्दी पर अपने पिता के पुराने मित्रों तल्हा और ज़ुबैर को देखना चाहती थीं. जब लोगों ने क़त्ले उस्मान को लेकर उनके कान भरे तो उन्हें हज़रत अली से पुरानी दुश्मनी निकालने का मौका मिल गया. उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली के इस्लामी शासन पर हमला कर दिया और इस अभीयान को क़त्ले-उस्मान का इंतिकाम लेने वाला जिहाद करार दिया. यहीं से जिहाद के नाम को बदनाम करने का सिलसिला शुरू हुआ. जबकि हज़त उस्मान का क़त्ल मिश्र देश के दूसरे भागों से आये हुए असंतुष्ट लोगो के हाथो हुआ था. मगर हज़रत आयशा इस का इंतिकाम हज़रत अली से लेना चाहती थीं.
उन्होंने हमले के लिए इराक के बसरा नगर को चुना क्योंकि वहां पर हज़रत अली के शिया मित्र बड़ी संख्या में रहते थे. बसरा के गवर्नर उस्मान बिन हनीफ़ को हज़रत आयशा की सेना ने बहोत अपमानित किया. हनीफ, हज़रत आयशा की सेना का सही ढंग से मुकाबला नहीं कर सके क्योंकि हज़रत अली की इस्लामी सेनाएँ उस वक़्त तक बसरा में पहुँच नहीं सकीं थीं. हुनैन ने इस घटना की जानकारी जीकार के स्थान पर मौजूद हज़रत अली तक पहुंचाई. हज़रत अली ने विभिन्न लोगो से हज़रत आयशा तक यह सन्देश भिजवाया की वो युद्ध से बाज़ आ जाए और अपने राजनितिक मकसद को पूरा करने के लिए मुसलामानों का खून न बहाएं मगर वो राज़ी नहीं हुई.
हिजरत के 36 वें वर्ष में ईराक के बसरा नगर में हज़रत अली और हज़रत आयशा की सेनाओ के बीच युद्ध हुआ. इस जंग को जंग-ए-जमल भी कहते हैं क्योंकि इस युद्ध में हज़रत आयशा ने अपनी सेना का नेतृत्व ऊँट पर बेठ कर किया था और ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहा जाता है.
इस जंग का नतीजा भी वही हुआ जो इस से पहले की तमाम इस्लामी जंगो का हुआ था, जिसमें नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था. हज़रत आयशा की सेना को मात मिली. हज़रत आयशा जिस ऊँट पर सवार थीं जंग के दौरान उस से नीचे गिरी. हज़रत अली ने उनको किसी प्रकार की सज़ा देने के बदले उनको पूरे सम्मान के साथ उनके छोटे भाई मोहम्मद बिन अबू बक़र और चालीस महिला सिपाहियों के संरक्षण में मदीने वापस भेज दिया. इस तरह उन इस्लामी आदर्शों की हिफ़ाज़त की जिनके तहत महिलाओं के मान सम्मान का ख्याल रखना ज़रूरी है. हज़रत अली की तरफ से अच्छे बर्ताव का ऐसा असर हुआ कि हज़रत आयशा राजनीति से अलग हो गईं. इस युद्ध के बाद और इस्लामी शासन के लिए लगातार बढ़ रहे खतरे को देखते हुआ हज़रत अली ने इस्लामी सरकार की राजधानी मदीने से हटा कर इराक के कूफा नगर में स्थापित कर दी.
इस जंग के बाद कबीले वाद की पुश्तेनी दुश्मनी ने एक बार फिर सर उठाया और उमय्या वंश के एक सरदार अमीर मुआविया ने हज़रत अली के इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया. इसका एक कारण यह भी था की पैग़म्बर साहब के निधन के बाद इस्लामी नेतृत्व दो हिस्सों में बँट गया था. एक को इमामत और दूसरे को ख़िलाफ़त कहा जाता था. इमामों पर विशवास रखने वाले दल को यकीन था की इमाम व पैग़म्बर सिर्फ अल्लाह द्वारा चुने होते हैं. जबकि खिलाफत पर विश्वास रखने वाले दल का मानना था की पैग़म्बर अल्लाह की तरफ से नियुक्त होते हैं लेकिन उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार जनता को प्राप्त है या कोई ख़लीफ़ा मरते वक़्त किसी को मनोनीत कर सकता था अथवा कोई ख़लीफ़ा मरते समय एक चयन समिति बना सकता था. इन्हीं मतभेदों को लेकर पैग़म्बर साहब के बाद मुस्लिम समाज दो बागों में बंट गया. खिलाफत पर यकीन रखने वाला दल संख्या में ज्यादा था और इमामत पर यकीन रखने वालों की संख्या कम थी. बाद में कम संख्या वाले वर्ग को शिया और अधिक संख्या वाले दल को सुन्नी कहा जाने लगा लेकिन जब हज़रत अली ख़लीफ़ा बने तो इमामत और खिलाफत सा संगम हो गया और मुसलमानों के बीच पड़ी दरार मिट गई. यही एकता इस्लाम के पुराने दुश्मनों को पसंद नहीं आई और उन्होंने मुसलामानों के बीच फसाद फैलाने की ग़रज़ से तरह तरह के विवाद को जन्म देना शुरू कर दिए और मुसलामानों का खून पानी की तरह बहने लगा. अमीर मुआविया ने पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त के लिए दावेदारी पेश कर दी. मुआविया ने ताक़त और सैन्य बल के ज़रिये सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तहत सीरिया के प्रान्त इस्लामी राज्य से अलग करने की घोषणा कर दी. मुआविया को हज़रत उस्मान ने सीरिया का गवर्नर बनाया था. दोनों एक ही काबिले बनी उम्म्या से ताल्लुक अखते थे. फिर मुआविया ने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली के इस्लामी शासन पर धावा बोल दिया और इस को भी जिहाद का नाम दिया. जबकि यह इस्लामी शासन के खिलाफ खुली बगावत थी.
हिजरत के 39वे वर्ष में सिफ्फीन नामन स्थान पर इस्लामी सेनाओं और सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया के सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ. मुआविया की सेनाओ ने रणभूमि में पहले पहुँच कर पानी के कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया और हज़रत अली की सेना पर पानी बंद करके मानवता के आदर्शो पर पहला वार किया. हज़रत अली की सेनाओं ने जवाबी हमला करके कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस बार किसी पर पानी बंद नहीं हुआ और मुआविया की फ़ौज भी उसी कुएं से पानी लेती रही जिस पर अली वालों का क़ब्ज़ा था. इस युद्ध में जब हज़रत अली की सेना विजय के नज़दीक पहुँच गई और इस्लामी सेना के कमांडर हज़रत मालिक-ए-अश्तर ने दुश्मन फ़ौज के नेता मुआविया को लगभग घेर लिया तो बड़ी चालाकी से सीरिया की सेना ने पवित्र कुरान की आड़ ले ली और क़ुरान की प्रतियों को भालो पर उठा कर आपसी समझोते की बात करना शुरू कर दी. अंत में शांति वार्ता के ज़रिये से युद्ध समाप्त हो गया.
हज़रत अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशरी के साथ धोका किये जाने के साथ ही सुलह का यह प्रयास विफ़ल हो गया और एक बार फिर जंग के शोले भड़क उठे. अबू मूसा के साथ धोका होने की वजह से हज़रत अली की सेना के सिपाहियों द्वारा फिर से युद्ध शुरू करने के आग्रह और समझोता वार्ता से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हज़रत अली के सेना का एक टुकड़ा बाग़ी हो गया. इस बाग़ी सेना से हज़रत अली को नहर-वान नामक स्थान पर जंग करनी पड़ी. हज़रत अली से टकराने के कारण इस दल को इस्लामी इसिहास मैं खारजी(निष्कासित) की संज्ञा दी गई है.
हज़रत अली की सेना में फूट और मुआविया के साथ शांति वार्ता नाकाम होने के बाद सीरिया में मुआविया ने सामानांतर सरकार बना ली. इन लडाइयों के नतीजे मैं मुस्लिम समाज चार भागो में बंट गया. एक वर्ग हज़रत अली को हर तरह से हक़ पर समझता था. इस वर्ग को शिया आने अली कहा जाता है. यह वर्ग इमामत पर यकीन रखता है और हज़रत अली से पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देता है. दूसरा वर्ग मुआविया की हरकातो को उचित करत देता था. इस ग्रुप को मुआविया का मित्र कहा जाता है. यह वर्ग मुआविया और यजीद को इस्लामी ख़लीफ़ा मानता है. तीसरा वर्ग ऐसा है जो कि मुआविया और हज़रत अली दोनों को ही अपनी जगह पर सही क़रार देता है और दोनों के बीच हुई जंग को ग़लतफ़हमी का नतीजा मानता है, इस वर्ग को सुन्नी कहा जाता है(लेकिन इस वर्ग ने भी मुआविया को अपना खलीफा नहीं माना). चौथे ग्रुप की नज़र में………………….
हज़रत अली की सेनाओं को कमज़ोर पाकर मुआविया ने मिश्र में भी अपनी सेनाएं भेज कर वह के गवर्नर मोहम्मद बिन अबू बक़र(जो पैग़म्बर साहब की पत्नी हज़रत आयशा के छोटे भाई और पहले खलीफा अबू बक़र के बेटे थे) को गिरफ्तार कर लिया और बाद में उनको गधे की खाल में सिलवा कर ज़िन्दा जलवा दिया. इसी के साथ मुआविया ने हज़रत अली के शासन के तहत आने वाले गानों और देहातो में लोगो को आतंकित करना शुरू कर दिया. बेगुनाह शहरियों को केवल हज़रत अली से मोहब्बत करने के जुर्म में क़त्ल करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया. इस्लामी इतिहास की पुस्तक अल-नसायह अल काफ़िया में हज़रत अली के मित्रो को आतंकित करने की घटनाओं का बयान इन शब्दों में किया गया है: “अपने गुर्गों और सहयोगियों की मदद से मुआविया ने हज़रत अली के अनुयाइयों में सबसे अधिक शालीन और श्रेष्ट व्यक्तियों के सर कटवा कर उन्हें भालों पर चढ़ा कर अनेक शहरो में घुमवाया. “इस युग में ज़्यादातर लोगों को हज़रत अली के प्रति घृणा प्रकट करने के लिए मजबूर किया जाता अगर वो ऐसा करने के इनकार करते तो उनको क़त्ल कर दिया जाता.
हज़रात अली की शहादत:-
अपनी जनता को इस आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हज़रत अली ने फिर से इस्लामी सेना को संगठित करना शुरू किया. हज़रत इमाम हुसैन, क़ेस बिन सअद और अबू अय्यूब अंसारी को दस दस हज़ार सिपाहियों की कमान सोंपी गई और खुद हज़रत अली के अधीन 29 हज़ार सैनिक थे और जल्द ही वो मुआविया की सेना पर हमला करने वाले थे, लेकिन इस के पहले कि हज़रत अली मुआविया पर हमला करते, एक हत्यारे अब्दुल रहमान इब्ने मुल्ज़िम ने हिजरत के 40वें वर्ष में पवित्र रमज़ान की 18वी तारीख़ को हज़रत अली कि गर्दन पर ज़हर में बुझी तलवार से उस समय हमला कर दिया जब वो कूफ़ा नगर की मुख्य मस्जिद में सुबह की नमाज़ का नेतृत्व(इमामत) कर रहे थे और सजदे की अवस्था में थे. इस घातक हमले के तीसरे दिन यानी 21 रमज़ान (28 जनवरी 661 ई०) में हज़रत अली शहीद हो गए. इस दुनिया से जाते वक़्त उनके होटों पर यही वाक्य था कि “रब्बे क़ाबा(अल्लाह) कि कसम, में कामयाब हो गया”. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने कई लड़ाइयाँ जीतीं. बड़े-बड़े शूरवीर और बहादुर योद्धा उनके हाथ से मारे गए मगर उन्होंने कभी भी अपनी कामयाबी का दावा नहीं किया. हज़रत अली की नज़र में अल्लाह कि राह मैं शहीद हो जाना और एक मज़लूम की मौत पाना सब से बड़ी कामयाबी थी. लेकिन जंग के मैदान में उनको शहीद करना किसी भी सूरमा के लिए मुमकिन नहीं था. शायद इसी लिए वो अपनी इस क़ामयाबी का ऐलान कर के दुनिया को बताना चाहते थे कि उन्हें शहादत भी मिली और कोई सामने से वार करके उन्हें क़त्ल भी नहीं कर सका. वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो क़ाबा के पावन भवन के अन्दर पैदा हुए और मस्जिद में शहीद हुए.
हज़रत अली ने अपने शासनकाल में न तो किसी देश पर हमला किया न ही राज्य के विस्तार का सपना देखा. बल्कि अपनी जनता को सुख सुविधाएँ देने की कोशिश में ही अपनी सारी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी थी. वो एक शासक की तरह नहीं बल्कि एक सेवक की तरह ग़रीबों, विधवा औरतों और अनाथ बच्चों तक सहायता पहुँचाते थे. उनसे पहले न तो कोई ऐसा शासक हुआ जो अपनी पीठ पर अनाज की बोरियाँ लादकर लोगों तक पहुँचाता हो न उनके बाद किसी शासक ने खुद को जनता की खिदमत करने वाला समझा.
हज़रत अली के बाद उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन ने सत्ता संभाली, लेकिन अमीर मुआविया की और से उनको भी चैन से बेठने नहीं दिया गया. इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन को ख़लीफ़ा के पद से अपदस्थ करने में कामयाबी हासिल कर ली. हज़रत हसन ने सत्ता छोड़ने से पहले अमीर मुआविया के साथ एक समझोता किया.
26 जुलाई 661ई० को इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई जिसमें यह तय हुआ कि मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा. (2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा. (3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा.(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त(सत्ता) पैग़म्बर साहब के परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी.
समझोते का एहतराम करने के स्थान पर मुआविया की और से पवित्र पैग़म्बर साहब के परिवार के सदस्यों और हज़रत अली के चाहने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया. इसी नापाक अभियान की एक कड़ी के रूप में इमाम हसन को केवल 47 वर्ष की उम्र में एक महिला के ज़रिये ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया गया.
अमीर मुआविया ने इमाम हसन के साथ की गई संधि को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के बाद इस को रद्दी की टोकरी में डाल कर अपने परिवार का शासन स्थापित कर दिया. मुआविया को अपने खानदान का राज्य स्थापित करने में तो कामयाबी मिल गई लेकिन मुआविया का खलीफा बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. मुआविया ने लगभग 12 वर्ष राज किया और जिहाद के नाम पर दूसरे देशों पर हमला करने का काम शुरू करके जिहाद जैसे पवित्र काम को बदनाम करना शुरू किया. इस के अलावा मुआविया ने इस्लामी आदर्शों से खिलवाड़ करते हुए एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसकी मिसाल नहीं मिलती. इस नजिस पॉलिसी के तहत उस ने हज़रत अली और उनके परिवार जनों को गालियाँ देने के लिए मुल्ला किराए पर रखे. अमीर मुआविया ने अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती यह की कि अपने जीवन में ही अपने कपूत यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.
इन सब हरकतों का नतीजा यह हुआ की समस्त मुसलामानों ने ख़िलाफ़त के सिलसिले को समाप्त मान कर इमाम हसन के बाद खिलाफत-ए-राशिदा(सही रास्ते पर चलने वाले शासकों) के ख़त्म हो जाने का ऐलान कर दिया. इस तरह मुआविया को सत्ता तो मिल गई लेकिन मुसलामानों का भरोसा हासिल नहीं हो सका.
यजीद की सत्ता:
अमीर मुआविया ने अपने क़बीले बनी उमय्या का शासन स्थापित करने के साथ साथ उस इस्लामी शासन प्रणाली को भी समाप्त कर दिया जिसमें ख़लीफ़ा एक आम आदमी के जैसी ज़िन्दगी बिताता था. मुआविया ने ख़िलाफ़त को राज शाही में तब्दील कर दिया और अपने कुकर्मी और दुराचारी बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित करके उमय्या क़बीले के अरबों और दूसरे मुसलामानों पर राज्य करने के पुराने ख्वाब को पूरा करने की ठान ली.
मुआविया को जब लगा कि मौत क़रीब है तो यज़ीद को सत्ता पर बैठाने के लिए अहम् मुस्लिम नेताओं से यज़ीद कि बैयत(मान्यता देने) को कहा.
यज़ीद को एक इस्लामी शासक के रूप में मान्यता देने का मतलब था इस्लामी आदर्शों की तबाही और बर्बादी. यज़ीद जैसे कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और बदमाश को मान्यता देने का सवाल आया तो सब से पहले इस पर लात मारी पैग़म्बर साहब के प्यारे नवासे और हज़रत अली के शेर दिल बेटे इमाम हुसैन ने. उन्होंने कहा कि वह अपनी जान क़ुर्बान कर सकते हैं लेकिन यज़ीद जैसे इंसान को इस्लामिक शासक के रूप में क़ुबूल नहीं कर सकते. इमाम हुसैन के अतिरिक्त पैगम्बर साहब की पत्नी हज़रात आयशा ने भी यज़ीद को मान्यता देने से इनकार कर दिया. कुछ और लोग जिन्होंने यज़ीद को मान्यता देने से इनकार किया वो हैं: अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, 2. अब्दुल्लाह बिन उमर, 3 उब्दुल रहमान बिन अबू बकर, 4, अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास. इनके आलावा अब्दुल रहमान बिन खालिद इब्ने वलीद और सईद बिन उस्मान ने भी यज़ीद की बेयत से इनकार किया. लेकिन इनमें से अब्दुल रहमान को ज़हर देकर मार डाला गया और सईद बिन उस्मान को खुरासान(ईरान के एक प्रान्त) का गवर्नर बना कर शांत कर लिया गया.
मुआविया की नज़र में इन सारे विरोधियों का कोई महत्व नहीं था उसे केवल इमाम हुसैन की फ़िक्र थी कि अगर वे राज़ी हो जाएँ तो यज़ीद की ख़िलाफ़त के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा. मुआविया ने अपने जीवन में इमाम हुसैन पर बहुत दबाव डाला कि वो यज़ीद को शासक मान लें मगर उसे सफ़लता नहीं मिली.
यज़ीद का परिचय:
यज़ीद बनी उमय्या के उस कबीले का कपूत था, जिस ने पैग़म्बर साहब को जीवन भर सताया. इसी क़बीले के सरदार और यज़ीद के दादा अबू सूफ़ियान ने कई बार हज़रत मोहम्मद की जान लेने की कौशिश की थी और मदीने में रह रहे पैग़म्बर साहब पर कई हमले किये थे. यज़ीद के बारे में कुछ इतिहासकारों की राय इस प्रकार है:
तारीख-उल-खुलफ़ा में जलाल-उद-दीन सियोती ने लिखा है की “यज़ीद अपने पिता के हरम में रह चुकी दासियों के साथ दुष्कर्म करता था. जबकि इस्लामी कानून के तहत रिश्ते में वे दासियाँ उसकी माँ के समान थीं.
सवाअक-ए-महरका में अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला ने लिखा है की “यज़ीद के दौर में हम को यह यकीन हो चला था की अब आसमान से तीर बरसेंगे क्योंकि यज़ीद ऐसा व्यक्ति था जो अपनी सौतेली माताओं, बहनों और बेटियों तक को नहीं छोड़ता था. शराब खुले आम पीता था और नमाज़ नहीं पढता था.”
जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि “यज़ीद ज़ालिम और ग़द्दार दोनों था उसके चरित्र में रहम और इंसाफ़ नाम की कोई चीज़ नहीं थी”.
एडवर्ड ब्रा ने हिस्ट्री और पर्शिया में लिखा है कि “यज़ीद ने एक बददु(अरब आदिवासी) माँ की कोख से जन्म लिया था. रेगिस्तान के खुले वातावरण में उस की परवरिश हुई थी, वह बड़ा शिकारी, आशिक़, शराब का रसिया, नाच गाने का शौकीन और मज़हब से कोसो दूर था.”
अल्लामा राशिद-उल-खैरी ने लिखा है कि “यज़ीद गद्दी पर बेठने के बाद शराब बड़ी मात्रा में पीने लगा और कोई पल ऐसा नहीं जाता था कि जब वह नशे में धुत न रहता हो और जिन औरतों से पवित्र कुरान ने निकाह करने को मना किया था, उनसे निकाह को जायज़ समझता था.”
ज़ाहिर है इमाम हुसैन यज़ीद जैसे अत्याचारी, कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और अधर्मी को मान्यता कैसे दे सकते थे. यजीद ने अपने चचाज़ाद भाई वलीद बिन अत्बा को जो मदीने का गवर्नर था यह सन्देश भेजा कि वह मदीने में रह रहे इमाम हुसैन, इब्ने उमर और इब्ने ज़ुबैर से उसके लिए बैयत(मान्यता) की मांग करे और अगर तीनों इनकार करें तो उनके सर काट कर यज़ीद के दरबार में भेजें.
इमाम हुसैन की हिजरत:
वलीद ने इमाम हुसैन को संदेसा भेजा कि वह दरबार में आयें उनके लिए यज़ीद का एक ज़रूरी पैग़ाम है. इमाम हुसैन उस समय अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर के साथ मस्जिद-ए-नबवी में बेठे थे.
जब यह सन्देश आया तो इमाम से इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय इस प्रकार का पैग़ाम आने का मतलब क्या हो सकता है? इमाम हुसैन ने कहा कि लगता है कि मुआविया कि मौत हो गई है और शायद यज़ीद की बैयत के लिए वलीद ने हमें बुलाया है. इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय वलीद के दरबार में जाना आपके लिए ख़तरनाक हो सकता है. इमाम ने कहा कि में जाऊँगा तो ज़रूर लेकिन अपनी सुरक्षा का प्रबंध करके वलीद से मिलूँगा. खुद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रातों रात मक्के चले गए.
इमाम अपने घर आये और अपने साथ घर के जवानों को लेकर वलीद के दरबार में पहुँच गए. लेकिन अपने साथ आये बनी हाशिम के(जोशीले और इमाम पर हर वक़्त मर मिटने के लिए तैयार रहने वाले) जवानों से कहा कि वे लोग बाहर ही ठहरे और अगर इमाम की आवाज़ बुलंद हो तो अन्दर आ जाएँ.
इमाम दरबार में गए तो उस समय वलीद के साथ मर-वान भी बैठा था जो पैग़म्बर साहब के परिवार वालों का पुराना दुश्मन था. जब इमाम हुसैन आये तो वलीद ने मुआविया की मौत कि ख़बर देने के बाद यज़ीद की बैयत के लिए कहा. इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैयत करने से साफ़ इनकार कर दिया और वापस जाने लगे तो पास बैठे हुए मर-वान ने कहा कि अगर तूने इस वक़्त हुसैन को जाने दिया तो फिर ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा यही अच्छा होगा कि इनको गिरफ़्तार करके बैयत ले ले या फिर क़तल कर के इनका सर यज़ीद के पास भेज दे. यह सुनकर इमाम हुसैन को ग़ुस्सा आ गया और वह चीख़ कर बोले “भला तेरी या वलीद कि यह मजाल कि मुझे क़त्ल कर सकें?” इमाम हुसैन की आवाज़ बुलंद होते ही उनके छोटे भाई हज़रत अब्बास के नेतृत्व मैं बनी हाशिम के जवान तलवारें उठाये दरबार में दाखिल हो गए लेकिन इमाम ने इन नौजवानों के जज़्बात पर काबू पाया और घर वापस आ कर मदीना छोड़ने के बारे मैं मशविरा करने लगे.
बनी हाशिम के मोहल्ले मैं इस खबर से शोक का माहौल छा गया. इमाम हुसैन अपने खानदान के लोगों को साथ लेकर मदीने का पवित्र नगर छोड़ कर मक्का स्थित पवित्र काबे की और प्रस्थान कर गए जिसको अल्लाह ने इतना पाक करार दिया है कि वहां किसी जानवर का खून बहाने कि भी इजाज़त नहीं है.
मक्का पहुँचने के बाद लगभग साढ़े चार महीने इमाम अपने परिवार सहित पवित्र काबा के निकट रहे लेकिन हज का ज़माना आते ही इमाम को सूचना मिली कि यज़ीद ने हाजियों के भेस में एक दल भेजा है जो इमाम को हज के दौरान क़त्ल कर देगा. वैसे तो हज के दौरान हथियार रखना हराम है और एक चींटी भी मर जाए तो इंसान पर कफ्फ़ारा(प्रायश्चित) अनिवार्य हो जाता है लेकिन यज़ीद के लिए इस्लामी उसूल या काएदे कानून क्या मायने रखते थे?
इमाम ने हज के दौरान खून खराबे को टालने के लिए हज से केवल एक दिन पहले मक्का को छोड़ने का फैसला कर लिया.
कर्बला में धर्म और अधर्म का टकराव:
इमाम हुसैन ने मक्का छोड़ने से पहले अपने चचेरे भाई हज़रत मुस्लिम को इराक के कूफ़ा नगर में भेज दिया था ताकि वह कूफे के असली हालात का पता लगाएँ. कूफा जो कि किसी समय में हज़रत अली कि राजधानी था, वहां भी यज़ीद के शासन के खिलाफ क्रांति की चिंगारियां फूटने लगी थीं. कूफ़े से लगातार आग्रह पत्र इमाम हुसैन के नाम आ रहे थे कि वह यज़ीद के खिलाफ चल रहे अभीयान का नेतृत्व करें. कूफ़े मैं इमाम हुसैन के भाई का बड़ा भव्य स्वागत हुआ और लगभग एक लाख लोगों ने इमाम हुसैन के प्रति अपनी वफादारी कि शपथ ली यह खबर सुन कर यज़ीद ग़ुस्से से पागल हो गया और कूफ़े के गवर्नर नोअमान बिन बशीर के स्थान पर यज़ीद ने कूफ़े में उबैद उल्लाह इब्ने ज़ियाद नामक सरदार को गवर्नर बना कर भेजा. इब्ने ज़ियाद हज़रत अली के परिवार का पुश्तैनी दुश्मन था. उसके कूफ़े में पहुँचते ही आतंक फ़ैल गया. कूफ़े के लोग यज़ीद की ताकत और सैन्य बल के आगे सारी वफ़ादारी भूल गए. इब्ने ज़ियाद ने इमाम हुसैन से वफ़ादारी व्यक्त करने वाले ओगों को चुन चुन कर मार डाला या गिरफ्तार करके सख्त यातनाएं दिन. उसने हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को बेदर्दी से क़त्ल करके उनकी लाश के पाँव में रस्सी बाँध कर कूफ़े की गली कूचों में घसीटे जाने का आदेश भी दिया. यही नहीं हज़रत मुस्लिम के साथ में गए हुए दो मासूम बच्चों, आठ साल के मोहम्मद और छे साल के इब्राहीम की भी निर्मम रूप से हत्या कर दी गई. बच्चो को शहीद करने की यह पहली आतंकवादी घटना थी.
इमाम हुसैन का क़ाफ़िला लगातार आगे बढ़ता रहा और रास्ते में ही उन्हें हज़रत मुस्लिम और उनके बच्चो कि शहादत की ख़बर मिली. उधर यज़ीद की सेनाएं भी लगातार इमाम हुसैन के उस कारवें क़ा पीछा कर रहीं थीं जिसमें लगभग साठ-सत्तर पुरुष, कुछ बच्चे और चंद औरतें शामिल थीं.
ज़ुहसम नाम के एक स्थान पर इमाम हुसैन क़ा सामना यज़ीद की फ़ौज के पहले दस्ते से हुआ. लगभग एक हज़ार फ़ौजियों के इस दस्ते क़ा सेनापति हुर्र बिन रियाही नाम क़ा अधिकारी कर रहा था. जब हुर्र की सैनिक टुकड़ी इमाम के सामने आई तो रेगिस्तान में भटकने के कारण सैनिकों क़ा प्यास के मारे बुरा हाल था. इमाम हुसैन ने इस बात क़ा ख़्याल किए बग़ैर कि यह दुश्मन के सिपाही हैं इस प्यासे दस्ते को पानी पिलाया और मानवता के नए कीर्तिमान क़ायम किये. अगर इमाम हुसैन हुर्र के सिपाहियों को पानी न पिलाते तो इस सैनिक टुकड़ी के सभी लोग प्यास से मर सकते थे और इमाम हुसैन के दुश्मनों में कमी हो जाती, लेकिन इमाम हुसैन उस पैग़म्बर के नवासे थे जो अपने दुश्मनों की तबियत खराब होने पर उनका हाल चाल पूछने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे.
लगभग 22 दिन तक रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद इमाम हुसैन क़ा काफ़िला (2 अक्तूबर 680 ई० या 2 मुहर्रम 61 हिजरी) इराक़ के उस स्थान पर पहुँचा, जिसको क़र्बला कहा जाता है. हुर्र की सैनिक टुकड़ी भी इमाम के पीछे पीछे कर्बला में आ चुकी थी. इमाम के यहाँ पड़ाव डालते ही यज़ीद की फौजें हज़ारों कि संख्या में पहुँचने लगीं. यज़ीदी सेनाओं ने सब से पहले फ़ुरात नदी(अलक़मा नहर) के किनारे से इमाम को अपने शिविर हटाने को बाध्य किया और इस तरह अपने नापाक इरादों क़ा आभास दे दिया.
पांच दिन बाद यानी सात मुहर्रम को नदी के अहातों(किनारों) पर पहरा लगा दिया गया और इमाम हुसैन के परिवार जनों और साथियों के नदी से पानी लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. रेगिस्तान की झुलसा देने वाली गर्मी में पानी बंद होने से इमाम हुसैन के बच्चे प्यास से तड़पने लगे. दो दिन बाद अचानक यज़ीदी सेनाओं ने इमाम के क़ाफिले पर हमला कर दिया. इमाम हुसैन ने यज़ीदी सेना से एक रात की मोहलत मांगी ताकि वह अपने मालिक की इबादत कर सकें. यज़ीदी सेना राज़ी हो गई क्योंकि उसे मालूम था कि यहाँ से अब इमाम और उनके साथी कहीं नहीं जा सकते और एक दिन की और प्यास से उनकी शारीरिक और मानसिक दशा और भी कमज़ोर हो जायेगी.
रात भर इमाम, उनके परिवार-जन और उनके साथी अल्लाह कि इबादत करते रहे. इसी बीच इमाम ने तमाम रिश्तेदारों और साथियों को एक शिविर में इकठ्ठा होने के लिए कहा और इस शिविर में अँधेरा करने के बाद सब से कहा कि: “तमाम तारीफ़ें खुदा के लिए हैं. मैं दुनिया में किसी के साथियों को इतना जाँबाज़ वफादार नहीं समझता जितना कि मेरे साथी हैं और न दुनिया में किसी को ऐसे रिश्तेदार मिले जैसे नेक और वफ़ादार मेरे रिश्तेदार हैं. खुदा तुम्हें अज्र-ए-अज़ीम(अच्छा फल) देगा. आगाह हो जाओ कि कल दुश्मन जंग ज़रूर करेगा. मैं तुम्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ कि तुम्हारा दिल जहाँ चाहे चले जाओ, मैं हरगिज़ तुम्हें नहीं रोकूंगा. शामी (यजीदी सेना) केवल मेरे खून की प्यासी है. अगर वह मुझे पा लेंगे तो तुम्हें को तलाश नहीं करेंगे”. इसके बाद इमाम ने सारे चिराग़ भुझाने को कहा और बोले इस अँधेरे मैं जिसका दिल जहाँ चाहे चला जाए. तुम लोगों ने मेरे प्रति वफ़ादार रहने कि जो क़सम खाई थी वह भी मैंने तुम पर से उठा ली है.” इस घटना पर टिप्पड़ी करते हुए मुंशी प्रेम चंद ने लिखा है कि अगर कोई सेनापति आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर कि राह लेते हुए नज़र आयें. मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ. ज़ुहैन इब्ने क़ेन जैसा भूढ़ा सहाबी कहता है कि “ऐ इमाम अगर मुझको इसका यकीन हो जाए कि मै आपकी तरफ़दारी करने की वजह से ज़िन्दा जलाया जाऊँगा, और फिर ज़िन्दा करके जलाया जाऊं तो यह काम अगर 100 बार भी करना पड़े तो भी में आपसे अलग नहीं हो सकता.
रिश्तेदार तो पहले ही कह चुके थे कि “हम आप को इस लिए छोड़ दें की आपके बाद जिंदा रहे? हरगिज़ नहीं, खुदा हम को ऐसा बुरा दिन दिखाना नसीब न करे”.
फिर इमाम ने अपने चाचा हज़रत अक़ील की औलाद से यह आग्रह किया कि वह वापस चले जाएँ क्योंकि उनके लिए हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील का ग़म अभी ताज़ा है और इस दुखी परिवार पर वह और ज़्यादा ग़म नहीं डालना चाहते लेकिन औलादें हज़रत अक़ील ने कह दिया कि वह अपनी जानें कुर्बान करके ही दम लेंगे.
हालांकि सब को पता था कि यज़ीद की सेनाएं हज़ारों की तादाद में हैं और 70 सिपाहियों(हज़रत हुर्र और उनके बेटे के शामिल होने के बाद यह तादाद बाद में 72 हो गई) की यह मामूली सी टुकड़ी शहादत के आलावा कुछ हासिल नहीं कर सकतीं लेकिन इमाम को छोड़ने पर कोई राज़ी न हुआ. यह लोग दुनिया को जिहाद का असली मतलब बताना चाहते थे ताकि क़यामत तक कोई यह न कह सके कि जिहाद किसी का बेवजह खून बहाने का नाम नहीं है या किसी देश पर चढाई करने का नाम नहीं हैं.
दूसरे दिन मुहर्रम की दसवीं तारीख़ थी. हुसैनी सिपाही रात भर की इबादत के बाद सुबह के इन्तिज़ार में थे कि यज़ीद की सेना से दो सितारे उभरे और लश्करे हुसैन की रौशनी में समां गए. यह हुर्र इब्ने रियाही थे जो अपने बेटे के साथ इमाम की पनाह में आये थे. जिस हुर्र को इमाम ने रास्ते में पानी पिलाया था आज वही हुर्र उस घडी में इमाम के लश्कर में शामिल होने आया था जबकि इमाम हुसैन के छोटे छोटे बच्चे पानी की बूँद बूँद को तरस रहे थे. हुर्र को मालूम था कि इमाम हुसैन की 72 सिपाहियों की एक छोटी सी टुकड़ी यज़ीद की शक्तिशाली सेना(जिसकी संख्या विभ्न्न्न इतिहासकारों ने तीस हज़ार से एक लाख तक बताई है) से जीत नहीं सकती थी, फिर भी दिल की आवाज़ पर हुर्र उस दल में शामिल हो कर हुर्र से हज़रते हुर्र बन गए. मौत और ज़िन्दगी की इस कड़ी मंजिल में बड़ों बड़ों के क़दम लड़खड़ा जाते हैं और आम आदमी जिंदा रहने का बहाना ढूँढता है मगर मौत को अपनी मर्ज़ी से गले लगाने वाले हुर्र जैसे लोग मरते नहीं शहीद होते हैं.
हज़रत हुर्र के आने के बाद यज़ीदी लश्कर से तीरों की बारिश शुरू हो गई. पहले इमाम हुसैन के मित्रों और दोस्तों ने रणभूमि में अपनी बहादुरी और वीरता के जौहर दिखाये. इमाम के इन चाहने वालों में नवयुवक भी थे और बूढ़े भी, पैसे वाले रईस भी थे, ग़ुलाम और सेवक भी. अफ्रीका के काले रंग वाले जानिसार भी थे तो एक से एक खूबसूरत सुर्ख-ओ-सफ़ेद रंग वाले गबरू जवान भी. इनमें उम्र का फ़र्क़ था, रंग-ओ-नस्ल का फ़र्क़ था सामाजिक और आर्थिक भिन्नता थी मगर उनके दिलों में इमाम हुसैन की मोहब्बत, उन पर जान लुटा देने का हौसला और इस्लाम को बचने के लिए अपने को कुर्बान कर देने का जज़्बा एक जैसा था.
जब सारे साथी और मित्र अपनी कुर्बानी दे चुके तो इमाम हुसैन के रिश्तेदारों ने अपने इस्लाम को बचाने वाले के लिए अपने प्राण निछावर करना शुरू कर दिए. कभी उनकी बहनों और माँओ ने तलवारें सजा कर मैदान में भेजा. कभी उनके भतीजे रणभूमि में अपने चाचा पर मर मिटने के लिए उतरे तो कभी भाई ने नदी के किनारे अपने बाजू कटवाए और कभी उनके 18 साल के कड़ियल जवान अली अकबर ने अपनी कुर्बानी पेश की. आखिर में हुसैन के हाथों पर उनके छे महीने के बच्चे अली असग़र ने गले पर तीर खाया और सब से आखिर में अल्लाह के सब से प्यारे बन्दे के प्यारे नवासे ने कर्बला की जलती हुई धरती पर तीन दिन की प्यास में जालिमों के खंजर तले खुदा के लिए सजदा करके अपनी कुर्बानी पेश की. यही नहीं तथाकथित मुसलामानों ने अपने ही पैग़म्बर के नवासे की लाश पर घोड़े दौड़ा कर अपने बदले की आग बुझाई.
इमाम हुसैन के साथ कर्बला में अपनी कुर्बानी देने वाले कुछ ख़ास रिश्तेदार और साथी यह थे:
अबुल फ़ज़लिल अब्बास: कर्बला में इमाम हुसैन की छोटी सी सेना का नेतृत्व हज़रत अब्बास के हाथों मैं था. वह इमाम हुसैन के छोटे भाई थे. इमाम हुसैन की माँ हज़रत फ़ातिमा के निधन के बाद हज़रत अली ने अपने भाई हज़रत अक़ील से कहा की में किसी ऐसे खानदान की लड़की से शादी करना चाहता हूँ जो अरब के बड़े बहादुरों में शुमार होता हो, जिससे की बहादुर और जंग-आज़मा(युद्ध में निपुण) औलाद पैदा हो. हज़रत अक़ील ने कहा की उम-उल-बनीन-ए-कलाबिया से शादी कीजिए. उनके बाप दादा से ज़्यादा कोई मशहूर सारे अरब में नहीं है. हज़रत अली ने इसी तथ्य की बुनियाद पर जनाबे उम-उल-बनीन से शादी की और उनसे चार बेटे पैदा हुए. हज़रत अब्बास उनमें सबसे बड़े थे. वह इमाम हुसैन को बेहद चाहते थे और इमाम हुसैन को हज़रत अब्बास से बेहद मोहब्बत थी. कर्बला की जंग में हज़रत अब्बास के हाथों में ही इस्लामी सेना का अलम(ध्वज) था. इसी लिए उन्हें अलमदार-ए-हुसैनी कहा जाता है. उनकी बहादुरी सारे अरब में मशहूर थी. कर्बला की जंग में हालांकि वह प्यासे थे लेकिन एक मौक़ा ऐसा आया की इमाम हुसैन की सेना के चार सिपाहियों का मैदान में यज़ीदी सेना ने चारों तरफ से घेर लिया तो उनको बचाने के लिए हज़रत अब्बास मैदान में गए और सारे लश्कर को मार भगाया और चारों को बाहर निकाला. इतने बड़े लश्कर से टकराने के बाद भी हज़रत अब्बास के बदन पर एक भी ज़ख्म नहीं लगा. उनकी बहादुरी का यह आलम था की जब इमाम हुसैन के सारे सिपाही शहीद हो गए तो खुद हज़रत अब्बास ने जिहाद करने के लिए मैदान में जाने की इजाज़त माँगी, इस पर इमाम हुसैन ने कहा कि अगर मैदान में जाना ही है तो प्यासे बच्चों के लिए पानी का इन्तिज़ाम करो. हज़रत अब्बास इमाम हुसैन की सब से छोटी बेटी सकीना जो 4 साल की थीं, को अपने बच्चों से भी ज़्यादा चाहते थे और जनाबे सकीना का प्यास के मारे बुरा हाल था. ऐसे में हज़रत अब्बास ने एक हाथ में अलम लिया और दूसरे हाथ में मश्क़ ली और दुश्मन की फौज़ पर इस तरह हमला नहीं किया कि लड़ाई के लिए बढ़ रहे हों बल्कि इस तरह आगे बढे जैसे की नदी की तरफ जाने के लिए रास्ता बना रहे हों. हज़रत अब्बास से शाम और कूफ़ा की सेनायें इस तरह डर कर भागीं जैसे की शेर को देख कर भेड़ बकरियां भागती हैं. हज़रत अब्बास इत्मिनान से नदी पर पहुँचे, मश्क़ में पानी भरा और जब नदी से वापस लौटने लगे तो भागी हुई फ़ौजें फिर से जमा हों गईं और सब ने हज़रत अब्बास को घेर लिया. हज़रत अब्बास हर हाल में पानी से भरी मश्क़ इमाम के शिविर तक पहुँचाना चाहते थे. वह फ़ौजों को खदेड़ते हुए आगे बढ़ते रहे तभी पीछे से एक ज़ालिम ने हमला करके उनका एक हाथ काट दिया. अभी वह कुछ क़दम आगे बढे ही थे कि पीछे से वार करके उनका दूसरा हाथ भी काट दिया गया. हज़रत अब्बास ने मश्क़ अपने दांतों में दबा ली. इसी बीच एक ज़ालिम ने मश्क़ पर तीर मार कर सारा पानी ज़मीन पर बहा दिया और इस तरह इमाम के प्यासे बच्चों तक पानी पहुँचने की जो आखिरी उम्मीद थी वह भी ख़त्म हों गई. एक ज़ालिम ने हज़रत अब्बास के सर पर गुर्ज़(गदा) मारकर उन्हें शहीद कर दिया. हज़रत अब्बास को तभी से सक्का-ए-सकीना(सकीना के लिए पानी का प्रबंध करने वाले) के नाम से भी याद किया जाता है. हज़रत अब्बास बेइंतिहा खूबसूरत थे, इसलिए उनको कमर-ए-बनी हाशिम(हाशिमी कबीले का चाँद) भी कहा जाता है. सारी दुनिया में मुहर्रम के दौरान जो जुलूस उठते हैं, वह हज़रत अब्बास की ही निशानी हैं.
क़ासिम बिन हसन: हज़रत क़ासिम इमाम हुसैन के बड़े भाई इमाम हसन के बेटे थे. कर्बला के युद्ध के समय उनकी उम्र लगभग तेरह साल थी. इतनी कम उम्र में भी हज़रत क़ासिम ने इतनी हिम्मत और बहादुरी से लड़ाई की कि यज़ीदी फ़ौज के छक्के छूट गए. क़ासिम की बहादुरी देख कर उम्रो बिन साअद जैसे बड़े पहलवान को हज़रत क़ासिम जैसे कम उम्र सिपाही के सामने आना पड़ा और इस ने हज़रत क़ासिम के सर पर तलवार मार कर शहीद कर दिया. क़ासिम की शहादत का इमाम को इतना दुःख हुआ कि इमाम खुद ही तलवार लेकर अपने भतीजे के क़ातिल कि तरफ झपटे, उधर से दुश्मन कि फ़ौज वालो ने क़ातिल को बचने के लिए घोड़े दौडाए, इस कशमकश में हज़रत कासिम की लाश घोड़ो से पामाल हो गई. इमाम खुद अपने भतीजे की लाश उठाकर लाये और हज़रत अली अकबर की लाश के पास क़ासिम की लाश को रख दिया.
हज़रत औन-ओ-मोहम्मद: कर्बला की जंग में आपसी रिश्तों की जो उच्च मिसालें और आदर्श नज़र आते हैं उनमें हज़रत औन बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र भी एक ऐसी मिसाल हैं जिनको रहती दुनिया तक याद किया जाता रहेगा. यह दोनों इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के बेटे थे. हज़रत औन इमाम हुसैन की चाहीती बहन हज़रत ज़ैनब के सगे बेटे थे जबकि हज़रत मोहम्मद की माँ का नाम खूसा बिन्ते हफसा बिन सक़ीफ़ था. दोनों भाइयों की देखभाल हज़रत ज़ैनब ने इस तरह की थी की लोग इन दोनों को सगा भाई ही समझते थे. दोनों भाइयों में भी इस क़दर मोहब्बत थी की इन दोनों के नाम आज तक इतिहास की पुस्तकों में एक ही साथ लिखे जाते हैं. मजलिसों मैं औन-ओ-मोहम्मद का ज़िक्र इस प्रकार किया जाता है कि सुनने वालों को यह नाम एक ही व्यक्ति का नाम लगता है.
मदीने से जब हुसैनी क़ाफ़िला चला तो हज़रत औन-ओ-मोहम्मद साथ नहीं थे. उनके पिता हज़रत जाफ़र ने अपने दोनों नवयुवकों को इमाम हुसैन पर जान देने के लिए उस समय भेजा जब इमाम हुसैन मक्का छोड़ कर इराक की और प्रस्थान कर रहे थे. इन दोनों भाइयों ने अपने मामूं हज़रत हुसैन के मिशन को आगे बढ़ाते हुए इस्लाम के दुश्मनों से इस तरह जंग की की शाम की फ़ौज को पैर जमाए रखना मुश्किल हों गया. यह दोनों भाई आगे आने वाली नस्लों के लिए यह पैग़ाम छोड़ कर गए कि हक़ और सच्चाई की लड़ाई लड़ने वालों का चरित्र ऐसा होना चाहिए की लोग मिसालों की तरह याद करें.
अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील के बेटे थे. उनकी माँ इमाम हुसैन की सौतेली बहन रुक़य्या बिन्ते अली थीं. यानी अब्दुल्लाह इमाम हुसैन के भांजे भी थे और भतीजे भी. उनकी उम्र शहादत के वक़्त बहुत कम थी, शायद चार या पांच वर्ष के रहे होंगे. जब बेटे हज़रत अली अकबर की लाश इमाम हुसैन से नहीं उठ सकी और उन्होंने बनी हाशिम के बच्चों को मदद के लिए पुकारा तो अब्दुल्लाह भी ख़ेमें(शिविर) से बाहर निकल आये. इसी समय उमरो बिन सबीह सद्दाई ने अब्दुल्लाह की तरफ़ तीर चलाया जो माथे की तरफ़ आता देख कर नन्हें बच्चे ने अपने माथे पर हाथ रखा तो तीर हाथ को छेद कर माथे में लग गया. उसके बाद ज़ालिम ने दूसरा तीर मारा जो अब्दुल्लाह के सीने पर लगा और बच्चे ने मौक़े पर ही दम तौड़ दिया.
मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह अब्दुल्लाह के भाई थे लेकिन दोनों की माताएँ अलग अलग थीं. जैसे ही नन्हे से अब्दुल्लाह ने दम तोड़ा, हज़रत अक़ील के बेटों और पोतों ने एक साथ हमला कर दिया उनके इस जोश और ग़ुस्से को देख कर इमाम हुसैन ने आवाज़ दी “हाँ! मेरे चाचा के बेटों मौत के अभियान पर विजय प्राप्त करो”. मोहम्मद जवाँ मर्दी से लड़ते हुए अबू मरहम नामक क़ातिल के हाथों शहीद हुए.
जाफ़र बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बात जाफ़र मैदान में उतरे. मैदाने जंग में कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद यह भी अल्लाह की
राह में शहीद हो गए. हज़रत जाफ़र को इब्ने उर्वाह ने शहीद किया.
अब्दुल रहमान बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बाद अब्दुल रहमान बिन अक़ील ने मैदान-ए-जिहाद में अपने जोश और ईमानी जज़्बे का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों पर धावा बोल दिया. इन को उस्मान बिन खालिद और बशर बिन खोत ने मिल कर घेर लिया और यह बहादुर शहीद हुए.
मोहम्मद बिन अबी सईद बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की दिल हिला देने वाली शहादत के बाद यह भी लश्करे यज़ीद पर टूट पड़े और लक़ीत बिन यासिर नामक कातिल ने मोहम्मद के सर पर तीर मार कर शहीद किया.
अबू बक़र बिन हसन: खानदान-ए-बनी हाशिम के जिन नौजवानों ने अपने चाचा पर अपनी जान कुर्बान की, उन में अबू बक़र बिन हसन का नाम भी सुनहरे शब्दों में लिखा है. इन को अब्दुल्लाह इब्ने अक़बा ने तीर मार कर शहीद किया.
मोहम्मद बिन अली: यह इमाम हुसैन के भाई थे, इनकी माँ का नाम इमामाह था. कहा जाता है की इमाम हुसैन की माँ हज़रत फ़ातिमा ने अपने निधन के समय इच्छा व्यक्त की थी की हज़रत अली इमामाह इब्ने अबी आस से शादी करें. मोहम्मद ने अपने भाई इमाम हुसैन के मकसद को बचाने के लिए भरपूर जंग की और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारा. बाद में बनी अबान बिन दारम नाम के एक व्यक्ति ने तीर मार कर शहीद कर दिया. इन्हें मोहम्मद उल असग़र(छोटे मोहम्मद) भी कहा जाता है.
अब्दुल्लाह बिन अली: अब्दुल्लाह हज़रत अली और जनाबे उम उल बनीन के बेटे थे और यह हज़रत अब्बास से छोटे थे. जनाबे उम उल बनीन के क़बीले, क़बालिया से ताल्लुक रखने वाला यज़ीद का एक कमांडर भी था जिसका नाम शिम्र था. उस ने क़बीले के नाम पर इब्ने ज़ियाद से जनाबे उम उल बनीन के चारों बेटों हज़रत अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह, हज़रत उस्मान और जाफ़र बिन अली के नाम अमान नामा(आश्रय पत्र) लिखवा लिया था. कर्बला पहुँचने के बाद शिम्र ने सबसे पहला काम यह किया वह इमाम हुसैन के शिविर के पास आया और आवाज़ दी की कहाँ हैं मेरी बहन के बेटे? यह सुन कर हज़रत अब्बास और उनके तीनों भाई सामने आये और पूछा की क्या बात है? इस पर शिम्र ने कहा की तुम लोग मेरी अमान(आश्रय) में हो, इस पर जनाबे उम उल बनीन के बेटों ने कहा की खुदा की लानत हो तुझ पर और तेरी अमान पर. हम को तो अमान है और पैग़म्बर के नवासे को अमान नहीं. इस तरह अली के यह चारों शेर दिल बेटे यह साबित कर रहे थे की सत्य के रास्ते में रिश्तेदारियाँ कोई मायने नहीं रखतीं और वह कर्बला में इस लिए नहीं आये हैं कि हुसैन उनके भाई हैं, बल्कि वह लोग इस लिए आये हैं कि उन्हें यकीन है कि इमाम हुसैन हक़ पर हैं. जब कर्बला का जिहाद शुरू हुआ और औलादे हज़रत अली हक़ के रास्ते में क़ुर्बान होने के लिए मैदान में उतरी तो अपने भाइयों में से हज़रत अब्बास ने सबसे पहले अब्दुल्लाह को मैदान में भेजा. हज़रत अब्दुल्लाह बिन अली मैदान में गए और वीरता से लड़ते हुए हानि बिन सबीत की तलवार से शहीद हुए.
उस्मान बिन अली: यह अब्दुल्लाह बिन अली से छोटे थे. उस्मान बिन अली को हज़रत अब्बास ने अब्दुल्लाह की शहादत के बाद मैदान में भेजा. उस्मान बिन अली ने दुश्मन से जम कर लोहा लिया. आखिर में लड़ते लड़ते खुली बिन यज़ीद अस्बेही के तीर से शहीद हुए.
जाफ़र बिन अली: यह उम उल बनीन के सबसे छोटे बेटे थे. उसमान बिन अली की शहादत के बाद हज़रत अब्बास ने जाफ़र से कहा की “भाई! जाओ और मैदान में जाकर हक़ परस्तों की इस जंग में अपनी जान दो ताकि जिस तरह मैंने तुम से पहले दोनों भाइयों का ग़म बर्दाश्त किया है उसी तरह तुम्हारा ग़म भी बर्दाश्त करूँ”. इसके बाद जाफ़र मैदान में गए और अपनी वीरता की गाथा अपने खून से लिख कर हानि बिन सबीत के हाथों शहीद हुए. इमाम हुसैन की सेना के आखिरी शहीद हज़रत अब्बास थे.
अली असग़र: हज़रत अब्बास की शहादत के बाद इमाम हुसैन ने एक ऐसी कुर्बानी दी जिसकी मिसाल रहती दुनिया तक मिलना मुमकिन नहीं. इमाम अपने छेह महीने के बच्चे हज़रत अली असग़र को मैदान में लाये. हज़रत अली असग़र पानी न होने के वजह से प्यास से बेहाल थे. पानी न मिलने के कारण अली असग़र की माँ जनाबे रबाब का दूध भी खुश्क हो गया था. हज़रत अली असग़र के लिए इमाम ने दुश्माओं से पानी तलब किया तो जवाब में हुर्मलाह नाम के एक मशहूर तीर अंदाज़ ने अली असग़र के गले पर तीर मार कर इस बात को साबित कर दिया की इमाम हुसैन से टकराने वाला लश्कर अमानविये हदों से भी आगे थे. यज़ीदी सेना की राक्षसों के साथ तुलना करना राक्षसों की बेईज्ज़ती करना है क्योंकि राक्षस सेना ने जो भी कुकर्म किया हो, जितने ही ज़ुल्म क्यों न किये हों कम से कम उन्होंने छः महीने के किसी प्यासे बच्चे के गले पर तीर तो नहीं मारा होगा.
इमाम हुसैन की शहादत: हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद अल्लाह का एक पाक बंदा, पैग़म्बर साहब का चहीता नवासा, हज़रत अली का शेर दिल बेटा, जनाबे फातिमा की गोद का पाला और हज़रत हसन के बाज़ू की ताक़त यानी हुसैन-ए-मज़लूम कर्बला के मैदान में तन्हा और अकेला खड़ा था.
इस आलम में भी चेहरे पर नूर और सूखे होंटों पर मुस्कराहट थी, खुश्क ज़ुबान में छाले पड़े होने के बावजूद दुआएँ थीं. थकी थकी पाक आँखों में अल्लाह का शुक्र था. 57 साल की उम्र में 71 अज़ीज़ों और साथियों की लाशें उठाने के बाद भी क़दमों का ठहराव कहता था की अल्लाह का यह बंदा कभी हार नहीं सकता. इमाम हुसैन शहादत के लिए तैयार हुए, खेमे में आये, अपनी छोटी बहनों जनाबे जैनब और जनाबे उम्मे कुलसूम को गले लगाया और कहा कि वह तो इम्तिहान की आखिरी मंज़िल पर हैं और इस मंज़िल से भी वह आसानी से गुज़र जाएँगे लेकिन अभी उनके परिवार वालों को बहुत मुश्किल मंज़िलों से गुज़रना है. उसके बाद इमाम उस खेमे में गए जहाँ उनके सब से बड़े बेटे अली इब्नुल हुसैन(जिन्हें इमाम ज़ैनुल आबिदीन कहा जाता है)थे. इमाम तेज़ बुखार में बेहोशी के आलम में लेटे थे. इमाम ने बीमार बेटे का कन्धा हिलाया और बताया की अंतिम कुर्बानी देने के लिए वह मैदान में जा रहें हैं. इस पर इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने पूछा कि “सारे मददगार, नासिर और अज़ीज़ कहाँ गए?”. इस पर इमाम ने कहा कि सब अपनी जान लुटा चुके हैं. तब इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने कहा कि अभी मै बाक़ी हूँ, में जिहाद करूँगा. इस पर इमाम हुसैन बोले कि बीमारों को जिहाद की अनुमति नहीं है और तुम्हें भी जिहाद की कड़ी मंजिलों से गुज़ारना है मगर तुम्हारा जिहाद दूसरी तरह का है.
इमाम खैमे से रुखसत हुए और मैदान में आये. ऐसे हाल में जब की कोई मददगार और साथी नहीं था और न ही विजय प्राप्त करने की कोई उम्मीद थी फिर भी इमाम हुसैन बढ़ बढ़ कर हमले कर रहे थे. वह शेर की तरह झपट रहे थे और यज़ीदी फ़ौज के किराए के टट्टू अपनी जान बचाने की पनाह मांग रहे थे. किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी की वह अकेले बढ़ कर इमाम हुसैन पर हमला करता. बड़े बड़े सूरमा दूर खड़े हो कर जान बचा कर भागने वालों का तमाशा देख रहे थे. इस हालत को देख कर यज़ीदी फ़ौज का कमांडर शिम्र चिल्लाया कि “खड़े हुए क्या देख रहे हो? इन्हें क़त्ल कर दो, खुदा करे तुम्हारी माएँ तुम्हें रोएँ, तुम्हे इसका इनाम मिलेगा”. इस के बाद सारी फ़ौज ने मिल कर चारों तरफ से हमला कर दिया. हर तरफ से तलवारों, तीरों और नैज़ों की बारिश होने लगी आखिर में सैंकड़ों ज़ख्म खाकर इमाम हुसैन घोड़े की पीठ से गिर पड़े. इमाम जैसे ही मैदान-ए-जंग में गिरे, इमाम का क़ातिल उनका सर काटने के लिए बढ़ा. तभी खैमे से इमाम हसन का ग्यारह साल का बच्चा अब्दुल्लाह बिन हसन अपने चाचा को बचाने के लिए बढ़ा और अपने दोनों हाथ फैला दिए लेकिन कर्बला में आने वाले कातिलों के लिए बच्चों और औरतों का ख्याल करना शायद पाप था. इसलिए इस बच्चे का भी वही हश्र हुआ जो इससे पहले मैदान में आने वाले मासूमों का हुआ था. अब्दुल्लाह बिन हसन के पहले हाथ काटे गए और बाद में जब यह बच्चा इमाम हुसैन के सीने से लिपट गया तो बच्चों की जान लेने में माहिर तीर अंदाज़ हुर्मलाह ने एक बार फिर अपना ज़लील हुनर दिखाया और इस मासूम बच्चे ने इमाम हुसैन की आग़ोश में ही दम तोड़ दिया.
फिर सैंकड़ों ज़ख्मों से घायल इमाम हुसैन का सर उनके जिस्म से जुदा करने के लिए शिम्र आगे बढ़ा और इमाम हुसैन को क़त्ल करके उसने मानवता का चिराग़ गुल कर दिया. इमाम हुसैन तो शहीद हो गए लेकिन क़यामत तक यह बात अपने खून से लिख गए कि जिहाद किसी पर हमला करने का नाम नहीं है बल्कि अपनी जान दे कर इंसानियत की हिफाज़त करने का नाम है.
शहादत के बाद:
इमाम हुसैन की शहादत के बाद यज़ीद की सेनाओं ने अमानवीय, क्रूर और बेरहम आदतों के तहत इमाम हुसैन की लाश पर घोड़े दौड़ाये. इमाम हुसैन के खेमों में आग लगा दी गई. उनके परिवार को डराने और आतंकित करने के लिए छोटे छोटे बच्चों के साथ मार पीट की गई. पैग़म्बर साहब के पवित्र घराने की औरतों को क़ैदी बनाया गया, उनका सारा सामन लूट लिया गया.
इसके बाद इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद होने वाले अज़ीज़ों और साथियों के परिवार वालों को ज़ंजीरों और रस्सियों में जकड़ कर गिरफ्तार किया गया. इस तरह इन पवित्र लोगों को अपमानित करने का सिलसिला शुरू हुआ. असल में यह उनका अपमान नहीं था, खुद यज़ीद की हार का ऐलान था.
इमाम हुसैन के परिवार को क़ैद करके पहले तो कूफ़े की गली कूचों में घुमाया गया और बाद में उन्हें कूफ़े के सरदार इब्ने ज़ियाद(इब्ने ज़ियाद यज़ीद की फ़ौज का एक सरदार था जिसे यज़ीद ने कूफ़े का गवर्नर बनाया था) के दरबार में पेश किया गया, जहाँ ख़ुशी की महफ़िलें सजाई गईं और और जीत का जश्न मनाया गया. जब इमाम हुसैन के परिवार वालों को दरबार में पेश किया गया तो इब्ने ज़ियाद ने जनाबे जैनब की तरफ इशारा करके पूछा यह औरत कौन है? तो उम्र सअद ने कहा की “यह हुसैन की बहन जैनब है”. इस पर इब्ने ज़ियाद ने कहा कि “ज़ैनब!, एक हुसैन कि ना-फ़रमानी से सारा खानदान तहस नहस हो गया. तुमने देखा किस तरह खुदा ने तुम को तुम्हारे कर्मों कि सज़ा दी”. इस पर ज़ैनब ने कहा कि “हुसैन ने जो कुछ किया खुदा और उसके हुक्म पर किया, ज़िन्दगी हुसैन के क़दमों पर कुर्बान हो रही थी तब भी तेरा सेनापति शिम्र कोशिश कर रहा था कि हुसैन तेरे शासक यज़ीद को मान्यता दे दें. अगर हुसैन यज़ीद कि बैयत कर लेते तो यह इस्लाम के दामन पर एक दाग़ होता जो किसी के मिटाए न मिटता. हुसैन ने हक़ कि खातिर मुस्कुराते हुए अपने भरे घर को क़ुर्बान कर दिया. मगर तूने और तेरे साथियों ने बनू उमय्या के दामन पर ऐसा दाग़ लगाया जिसको मुसलमान क़यामत तक धो नहीं सकते.”
उसके बाद इमाम हुसैन की बहनों, बेटियों, विधवाओं और यतीम बच्चों को सीरिया कि राजधानी दमिश्क़, यज़ीद के दरबार में ले जाया गया. कर्बला से कूफ़े और कूफ़े से दमिश्क़ के रास्ते में इमाम हुसैन कि बहन जनाबे ज़ैनब ने रास्तों के दोनों तरफ खड़े लोगों को संबोधित करते हुए अपने भाई की मज़लूमी का ज़िक्र इस अंदाज़ में किया कि सारे अरब में क्रांति कि चिंगारियां फूटने लगीं.
यज़ीद के दरबार में पहुँचने पर सैंकड़ों दरबारियों की मौजूदगी में जब हुसैनी काफ़िले को पेश किया गया तो यज़ीद ने बनी उमय्या के मान सम्मान को फिर से बहाल करने और जंग-ए-बद्र में हज़रत अली के हाथों मारे जाने वाले अपने काफ़िर पूर्वजों की प्रशंसा की और कहा की आज अगर जंग-ए-बद्र में मरने वाले होते तो देखते कि किस तरह मैंने इन्तिक़ाम लिया. इसके बाद यज़ीद ने इमाम ज़ैनुल आबिदीन से कहा कि “हुसैन कि ख्वाहिश थी कि मेरी हुकूमत खत्म कर दे लेकिन मैं जिंदा हूँ और उसका सर मेरे सामने है.” इस पर जनाबे ज़ैनब ने यज़ीद को टोकते हुए कहा कि तुझ को तो खुछ दिन बाद मौत भी आ जायेगी मगर शैतान आज तक जिंदा है. यह हमारे इम्तिहान कि घड़ियाँ थीं जो ख़तम हो चुकीं. तू जिस खुदा के नाम ले रहा है क्या उस के रसूल(पैग़म्बर) की औलाद पर इतने ज़ुल्म करने के बाद भी तू अपना मुंह उसको दिखा सकेगा”.
इधर इमाम हुसैन के परिवार वाले क़ैद मैं थे और दूसरी तरफ क्रांति की चिंगारियाँ फूट रही थी और अरब के विभिन्न शहरों मैं यज़ीद के शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही थी. इन सब बातों से परेशान हो कर यज़ीद के हरकारों ने पैंतरा बदल कर यह कहना शुरू कर दिया था की इमाम हुसैन का क़त्ल कूफ़ियों ने बिना यज़ीद की अनुमति के कर दिया. इन लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि इमाम हुसैन तो यज़ीद के पास जाकर अपने मतभेद दूर करना चाहते थे या मदीने मैं लौट कर चैन की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते थे. लेकिन सच तो यह है की इमाम हुसैन कर्बला के लिये बने थे और कर्बला की ज़मीन इमाम हुसैन के लिए बनी थी. इमाम हुसैन के पास दो ही रास्ते थे. पहला तो यह कि वह यज़ीद कि बैयत करके अपनी जान बचा लें और इस्लाम को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ता देखें. दूसरा रास्ता वही था कि इमाम हुसैन अपनी, अपने बच्चों और अपने साथियों कि जान क़ुर्बान करके इस्लाम को बचा लें. ज़ाहिर है हुसैन अपने लिए चंद दिनों कि ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी तलब कर ही नहीं सकते थे. उन्हें तो अल्लाह ने बस इस्लाम को बचाने के लिए ही भेजा था और वह इस मैं पूरी तरह कामयाब रहे.
क्रांति की आग:
कर्बला के शहीदों का लुटा काफ़िला जब दमिश्क से रिहाई पा कर मदीने वापस आया तो यहाँ क्रांति की चिंगारियाँ आग में बदल गईं और ग़ुस्से में बिफरे लोगों ने यज़ीद के गवर्नर उस्मान बिन मोहम्मद को हटा कर अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला को अपना शासक बना लिया. यज़ीद ने इस क्रांति को ख़तम करने के लिए एक बहुत बड़े ज़ालिम मुस्लिम बिन अक़बा को मदीने की ओर भेजा. मदीना वासियों ने अक़बा की सेना का मदीने से बाहर हर्रा नामक स्थान पर मुकाबला किया. इस जंग में दस हज़ार मुसलमान क़त्ल कर दिए गए ओर सात सो ऐसे लोग भी क़त्ल किये गए जो क़ुरान के हाफ़िज़ थे(जिन लोगों को पूरा क़ुरान बिना देखे याद हो, उन्हें हाफ़िज़ कहा जाता है). मदीने के लोग यज़ीद की सेना के सामने ठहर न सके और यज़ीदी सेनाओं ने मदीने में घुस कर ऐसे कुकर्म किये कि कभी काफ़िर भी न कर सके थे. सारा शहर लूट लिया गया. हज़ारों मुसलमान लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया, जिसके नतीजे में एक हज़ार ऐसे बच्चे पैदा हुए जिनकी माताओं के साथ बलात्कार किया गया था. मदीने के सारे शहरी इन ज़ुल्मों की वजह से फिर से यज़ीद को अपना राजा मानने लगे. इमाम ज़ैनुल आबिदीन इस हमले के दौरान मदीने के पास के एक देहात में रह रहे थे. इस मौके पर एक बार फिर इमाम हुसैन के परिवार ने एक ऐसी मिसाल पेश की कि कोई इंसान पेश नहीं कर सकता. जब मदीने वालों ने अपना शिकंजा कसा तो उसमें मर-वान की गर्दन भी फंस गई.(मर-वान वही सरदार था जिसने मदीने मे वलीद से कहा था कि हुसैन से इसी वक़्त बैयत ले ले या उन्हें क़त्ल कर दे). मर-वान ने इमाम ज़ैनुल-आबिदीन से पनाह मांगी और कहा कि सारा मदीना मेरे खिलाफ हो गया है, ऐसे में, मैं अपने बच्चों के लिए खतरा महसूस करता हूँ तो इमाम ने कहा की तू अपने बच्चों को मेरे गाँव भेज दे मैं उनकी हिफाज़त का ज़िम्मेदार हूँ. इस तरह इमाम ने साबित कर दिया कि बच्चे चाहे ज़ालिम ही के क्यों न हों, पनाह दिए जाने के काबिल हैं.
मदीने को बर्बाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा मक्के की तरफ़ बढ़ा. मक्के में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की हुकूमत थी. लेकिन अक़बा को वक़्त ने मोहलत नहीं दी और वह मक्का के रास्ते में ही मर गया. उस की जगह हसीन बिन नुमैर ने ली और चालीस दिन तक मक्के को घेरे रखा. उसने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को मात देने की कोशिश में काबे पर भी आग बरसाई गई. लेकिन जुबैर को गिरफ्तार नहीं कर सका. इस बीच यज़ीद के मरने की खबर आई और मक्के में हर तरफ़ जश्न का माहोल हो गया और शहर का नक्शा ही बदल गया. इब्ने जुबैर को विजय प्राप्त हुई और हसीन बिन नुमैर को भाग कर मदीने जाना पड़ा.
यज़ीद की मौत:
यज़ीद की मौत को लेकर इतिहासकारों में अलग अलग राय है. कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यज़ीद महल से शिकार खेलने निकला और फिर जंगल में शिकार का पीछा करते हुए अपने साथियों से अलग हो गया और रास्ता भटक गया और बाद में खुद ही जंगली जानवरों का शिकार बन गया. लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं 38 साल कि उम्र में क़ोलंज के दर्द(पेट में उठने वाला ऐसा दर्द जिसमें पीड़ित हाथ पैर पटकता रहता है) का शिकार हुआ और उसी ने उसकी जान ली.
जब यज़ीद को अपनी मौत का यकीन हो गया तो उस ने अपने बेटे मुआविया बिन यज़ीद को अपने पास बुलाया और हुकूमत के बारे में कुछ अंतिम इच्छाएँ बतानी चाहीं. अभी यज़ीद ने बात शुरू ही की थी कि उसके बेटे ने एक चीख मार कर कहा “खुदा मुझे उस सल्तनत से दूर रखे जिस कि बुनियाद रसूल के नवासे के खून पर रखी गई हो”. यज़ीद अपने बेटे के यह अलफ़ाज़ सुन कर बहुत तड़पा मगर मुविया बिन यज़ीद लानत भेज कर चला गया. लोगों ने उसे बहुत समझाया की तेरे इनकार से बनू उमय्या की सल्तनत का ख़ात्मा हो जाएगा मगर वह राज़ी नही हुआ. यज़ीद तीन दिन तक तेज़ दर्द में हाथ पाँव पटक पटक कर इस तरह तड़पता रहा कि अगर एक बूँद पानी भी टपकाया जाता तो वह तीर की तरह उसके हलक़ में चुभता था. यज़ीद भूखा प्यासा तड़प तड़प कर इस दुनिया से उठ गया तो बनू उमय्या के तरफ़दारों ने ज़बरदस्ती मुआविया बिन यज़ीद को गद्दी पर बिठा दिया. लेकिन वह रो कर और चीख़ कर भागा और घर में जाकर ऐसा घुसा की फिर बाहर न निकला और हुसैन हुसैन के नारे लगाता हुआ दुनिया से रुखसत हो गया. कुछ लोगों का मानना है कि 21 साल के इस युवक को बनू उमय्या के लोगों ने ही क़त्ल कर दिया क्योंकि गद्दी छोड़ने से पहले उसने साफ़ साफ़ कह दिया था कि उस के बाप और दादा दोनों ने ही सत्ता ग़लत तरीकों से हथियाई थी और इस सत्ता के असली हक़दार हज़रत अली और उनके बेटे थे. मुआविया बिन यज़ीद की मौत के बाद मर-वान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस बीच उबैद उल्लाह बिन ज़ियाद ने इराक पर क़ब्ज़ा कर लिया और मुल्क में पूरी तरह अराजकता फ़ैल गई.
यज़ीद की मौत की खबर सुन कर मक्के का घेराव कर रहे यजीदी कमांडर हसीन बिन नुमैर ने मदीने की ओर रुख किया और इसी आलम में उसका सारा अनाज और गल्ला ख़तम हो गया. भटकते भटकते मदने के करीब एक गाँव में इमाम हुसैन के बेटे हज़रत जैनुल आबिदीन मिले तो इमाम ने भूख से बेहाल अपने इस दुश्मन की जान बचाई. इमाम ने उसे खाना और गल्ला भी दिया और पैसे भी नहीं लिए. इस बात से प्रभावित हो कर हसीन बिन नुमैर ने यज़ीद की मौत के बाद इमाम से कहा की वह खलीफ़ा बन जाएँ लेकिन इमाम ने इनकार कर दिया और यह साबित कर दिया की हज़रत अली की संतान की लड़ाई या जिहाद खिलाफत के लिए नहीं बल्कि दुनिया को यह बताने के लिए थी कि इस्लाम ज़ालिमों का मज़हब नहीं बल्कि मजलूमों का मज़हब है.
इनतिकामे-ए-खूने का अभियान:
मक्के, मदीने के बाद कूफ़े में भी क्रांति की चिंगारियां भड़कने लगीं. वहाँ पहले एक दल तव्वाबीन(तौबा करने वालों) के नाम से उठा. इस दल के दिल में यह कसक थी कि इन्हीं लोगों ने इमाम हुसैन को कूफ़ा आने का न्योता दिया. लेकिन जब इमाम हुसैन कूफ़ा आये तो इन लोगों ने यज़ीद के डर और खौफ़ के आगे घुटने टेक दिए. और जिन 18 हज़ार लोगों ने इमाम हुसैन का साथ देने कि कसम खायी थी, वह या तो यज़ीद द्वारा मार दिए गए थे या जेल में डाल दिए गए थे. तव्वाबीन, खूने इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए उठे लेकिन शाम(सीरिया) की सैनिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सके.
इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने में सिर्फ़ हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी को कामयाबी मिली. जब इमाम हुसैन शहीद किए गए तो मुख्तार जेल में थे. इमाम हुसैन की शहादत के बाद हज़रत मुख़्तार को अब्दुल्लाह बिन उमर कि सिफ़ारिश से रिहाई मिली. अब्दुल्लाह बिन उमर, मुख़्तार के बहनोई थे और शुरू शुरू में यज़ीद की बैयत न करने वालों में आगे आगे थे लेकिन बाद में वह बनी उमय्या की ताक़त से दब गए.
मुख़्तार ने रिहाई मिलते ही इमाम हुसैन के क़ातिलों से बदला लेने की योजना बनाना शुरू कर दी. उन्होंने हज़रत अली के सब से क़रीबी साथी मालिके अशतर के बेटे हज़रत इब्राहीम बिन मालिके अशतर से बात की. उन्होंने इस अभियान में मुख्तार का हर तरह से साथ देने का वायदा किया. उन दिनों कूफ़े पर ज़ुबैर का क़ब्ज़ा था और इन्तिक़ामे खूने हुसैन का काम शुरू करने के लिए यह ज़रूरी था कि कूफ़े को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया जाए. कूफ़े को क्रांति का केंद्र बनाना इस लिए भी ज़रूरी था कि इमाम हुसैन के ज़्यादातर क़ातिल कूफ़े में ही मौजूद थे और अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर सत्ता पाने के बाद इन्तिक़ाम-ए-खूने हुसैन के उस नारे को भूल चुके थे जिसके सहारे उन्होंने सत्ता हासिल की थी. मुख्तार और इब्राहीम ने अपना अभियान कूफ़े से शुरू किया और इब्ने ज़ुबैर के कूफ़ा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन मुतीअ को कूफ़ा छोड़ कर भागना पड़ा.
इस के बाद हज़रत मुख़्तार और हज़रत इब्राहीम की फ़ौज ने इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को क़त्ल करने वाले क़ातिलों को चुन चुन कर मार डाला. इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने के लिए जो जो लोग भी उठे उन में हज़रत मुख्तार और इब्राहीम बिन मालिके अशतर का अभियान ही अपने रास्ते से नहीं हटा. इस अभियान की ख़ास बात यह थी कि इन लोगों ने सिर्फ़ क़ातिलों से बदला लिया, किसी बेगुनाह का खून नहीं बहाया.
उधर मदीने में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर पैग़म्बर साहब के परिवार वालों से नाराज़ हो चुके थे. यहाँ तक कि इब्ने ज़ुबैर ने इमाम हुसैन के छोटे भाई मोहम्मद-ए-हनफ़िया और पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई इब्ने अब्बास को एक घर में बंद करके ज़िन्दा जलाने की कोशिश भी कि लेकिन इसी बीच हज़रत मुख़्तार का अभियान शुरू हो गया और उन दोनों कि जान बच गई.
हज़रत मुख्तार और इब्ने ज़ुबैर की फ़ौजों में टकराव हुआ और मुख़्तार हार गए लेकिन तब तक वह क़ातिलाने इमाम हुसैन को पूरी तरह सजा दे चुके थे.

इस्लाम का ऐतिहासिक सफ़र मक्के से कर्बला तक |

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मुसलमानों का मानना है कि हर युग और हर दौर मैं अल्लाह ने इस धरती पर अपने दूत(संदेशवाहक/पैग़म्बर), अपने सन्देश के साथ इस उद्देश्य के लिए भेजे हैं कि अल्लाह के यह दूत इंसानों को सही रास्ता दिखायें और इंसान को बुरे रास्ते पर चलने से रोकें. इन्हीं संदेशवाहकों को इस्लाम में पैग़म्बर या नबी कहा जाता है। ईश्वर की तरफ से संदेशवाहकों की ज़रुरत इसलिए पड़ी क्योंकि ईश्वर ने इंसान को धरती पर पूरी आज़ादी देकर भेजा है। इंसान में इस दुनिया को बनाने के साथ साथ तबाह करने की भी क़ाबलियत है। वह परमाणु पावर से सारी दुनिया रोशन भी कर सकता है और इसी परमाणु अटम बोम्ब के सहारे लाखों लोगों को एक ही पल मैं मौत के मुह मैं भी पहुंचा सकता है।

     मुसलमानों के मुताबिक अब तक कुल 313 रसूल/नबी, अल्लाह की तरफ से भेजे जा चुके हैं, इनमें से 5 रसूल बड़े रसूल हैं. जो कि हैं:

1. हज़रत Abraham(इब्राहीम)
2. हज़रत Moses(मूसा)
3. हज़रत David(दावूद)
4. हज़रत Jesus (ईसा)
5. हज़रत Muhammad(मोहम्मद)
हज़रत मोहम्मद इन सब नबियो में सबसे आखिरी नबी हैं।
कुछ और दुसरे नबियों के नाम हैं:
हज़रत Adam (आदम)
हज़रत Nooh (नूह)
हज़रत Ishaaq (इसहाक़)
हज़रत Yaaqub (याक़ूब)
हज़रत Joseph (युसुफ़)
हज़रत Ismail (इस्माइल)

इस्लाम क्या है?
     इस्लाम धर्म के मानने वालों को मुस्लिम कहा जाता है। मुस्लिम शब्द सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के मानने वालों के लिए इस्तमाल किया गया था।

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा:
     पैग़म्बर हज़रत नूह के कई सौ साल बाद हज़रत इब्राहीम को अल्लाह ने अपना पैग़म्बर बनाया. हज़रत इब्राहीम के दो बेटे हुए, एक हज़रत इस्माइल और दुसरे हज़रत इस्हाक़. इस्हाक़ से बनी इसराइल की नस्ल चली और इस्माइल की नस्ल में हज़रत मोहम्मद ने जन्म लिया।

     लेकिन हज़रत मोहम्मद के पूर्वजों में भी एक पूर्वज थे अब्दुल मनाफ़, जिनके यहाँ ऐसे जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए जो आपस में जुड़े हुए थे. इन दोनों में से केवल एक ही को बचाया जा सकता था। इसलिए यह फैसला किया गया कि तलवार से काट कर दोनों को अलग किया जाए लेकिन तलवार से अलग किये जाने के बाद दोनों ही बच्चे जीवित रहे. इनमें से एक का नाम हाशिम और दूसरे का नाम उमय्या रखा गया। इसी लिए इन दोनों बच्चों की नस्लों को बनी हाशिम और बनी उमय्या कहा जाने लगा। बनी हाशिम को मक्का के सब से पवित्र धर्म स्थल क़ाबा की देख भाल और धार्मिक कार्य अंजाम देने की ज़िम्मेदारी सोंपी गई थी।

     पैग़म्बर मोहम्मद के दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अरब सरदारों में बहुत अहम समझे जाते थे, उन्हें सय्यदुल बतहा कहा जाता था। पैग़म्बर साहब के वालिद(पिता) का नाम हज़रत अब्दुल्लाह और वालिदा(माता) का नाम हज़रत आमिना था।

     मोहम्मद साहब के पैदा होने से कुछ महीने पहले ही उनके वालिद का इंतिकाल हो गया और उनकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी दादा हज़रत मुत्तलिब को उठानी पड़ी. कुछ समय के बाद मोहम्मद साहब के दादा भी चल बसे और माँ का साया भी बचपन में ही उठ गया. अब इस यतीम बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी चाचा अबूतालिब ने उठाली और हज़रत हलीमा नाम की दाई के संरक्षण मे मोहम्मद साहब की परवरिश की।

     बचपन में मोहम्मद साहब भेड़-बकरी को रेवड़ चराने जंगलो में ले जाते थे और इस तरह उनका बचपन गुज़र गया. बड़े होने पर उन्हें अरब की एक धनी महिला हज़रत ख़दीजा के यहाँ नौकरी मिल गई और वह हज़रत ख़दीजा का व्यापार बढ़ाने मे लग गये।

     मोहम्मद साहब की ईमानदारी, लगन, निष्टा और मेहनत से हज़रत ख़दीजा का कारोबार रोज़-बरोज़ बढ़ने लगा. मोहम्मद साहब के आला किरदार से हज़रत ख़दीजा इतना प्रभावित हुईं कि उन्होनें एक सेविका के ज़रिए मोहम्मद साहब के पास शादी का पैग़ाम भिजवाया जिस को हज़रत मोहम्मद ने खुशी के साथ क़ुबूल लिया।

     इस बीच हज़रत मोहम्मद अरब जगत में अपनी सच्चाई, लगन, इंसानियत-नवाज़ी, बिना किसी पक्षपात वाले तौर तरीक़ो, अमानतदारी और श्रेष्ठ चरित्र के लिए मशहूर हो चुके थे।
     एक ओर हज़रत मोहम्मद आम लोगो, ग़रीबों, लाचारों ज़रूरत मंदो और ग़ुलामों की मदद करने काम खामोशी से अंजाम दे रहे थे, दूसरी तरफ अरब जगत ज़ुल्म, अत्याचार, क्रूरता, झूठ, बेईमानी के अँधेरे में डूबता जा रहा था। हज़रत मोहम्मद ने पैग़म्बर होने का ऐलान करने से पहले अरब समाज में अपनी सच्चाई का लोहा मनवा लिया था। सारे अरब में उनकी ईमानदारी और अमानतदारी मशहूर हो चुकी थी। लोग उनको सच्चा और अमानतदार कहने लगे थे।

     जब पेगंबर साहब 30 साल की उमर में पहुँचे तो उनके चाचा हज़रत अबूतालिब के घर में एक बच्चे का जन्म हुआ. पैग़म्बर साहब ने बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली। बाद में इसी बच्चे को दुनिया ने हज़रत अली के नाम से पहचाना. जब हज़रत अली 10 साल के हो गये तो लगभग चालीस साल की उमर में हज़रत मोहम्मद को अल्लाह की तरफ़ से पहली बार संदेश आया: “इक़्रा बिसमे रब्बीका” यानी पढ़ो अपने रब्ब के नाम के साथ। पैग़म्बर साहब यह सुन कर पानी-पानी हो गये और घर लौट कर सारा क़िस्सा अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा को बताया की किस तरह अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते ने उन्हें अल्लाह की खबर दी है. हज़रत ख़दीजा ने फ़ौरन ही यह बात मान ली कि हज़रत मोहम्मद अल्लाह द्वारा नियुक्त किये हुए पैग़म्बर हैं, फिर हज़रत अली ने भी फ़ौरन यह बात स्वीकार कर ली कि मोहम्मद साहब अल्लाह द्वारा भेजे हुए पैग़म्बर है।

     शुरू में पैग़म्बर साहब ने ख़ामोशी से अपना अभियान चलाया और कुछ ख़ास मित्रों तक ही बात सीमित रखी. इस तरह तीन साल का वक़्त गुज़र गया. तब अल्लाह की और से सन्देश आया कि अब इस्लाम का प्रचार खुले आम किया जाए. इस आदेश के बाद पैग़म्बर साहब मक्का नगर कि पवित्र पहाड़ी “कोहे सफ़ा” पर खड़े हुए और जमा लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर मैं तुम से कहूँ कि पहाड़ के पीछे से एक सेना आ रही है तो क्या तुम मेरा यक़ीन करोगे? सब ने कहा: “हाँ, क्योंकि हम तुमको सच्चा जानते हैं”, उसके बाद जब पैग़म्बर साहब ने कहा कि अगर तुम ईमान न लाये तो तुम पर सख्त अज़ाब (प्रकोप) नाज़िल होगा तो सब नाराज़ हो कर चले गए. इनमें अधिकतर उनके खानदान वाले ही थे। इस ख़ुतबे (प्रवचन) के कुछ समय बाद पैगंबर साहब ने एक दावत में अपने रिश्तेदारों को बुलाया और उनके सामने इस्लाम का संदेश रखा लेकिन हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा परिवार जन हज़रत मोहम्मद को अल्लाह का संदेशवाहक मानने को तैयार नहीं था। तीन बार ऐसी ही दावत हुई और हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति पैगंबर साहब की हिमायत के लिए खड़ा नहीं हुआ, हालाँकि पैगंबर साहब इस बात का न्योता भी दे रहे थे कि जो उनकी बात मानेगा वही उनका उत्तराधिकारी होगा।

     जिस समय मुसलमानो की तादाद चालीस हो गई तो पैगंबर साहब ने मक्का के पवित्र स्थल क़ाबा में पहुँच कर यह ऐलान कर दिया कि “अल्लाह के अलावा कोई इबादत के क़ाबिल नही है”। इस प्रकार की घोषणा से मक्का के लोग हक्का बक्का रह गए और उन्होनें चालीस मुसलमानों की छोटी सी टुकड़ी पर हमला कर दिया और एक मुस्लिम नवयुवक हारिस बिन अबी हाला को शहीद कर दिया. उसके बाद हज़रत यासिर को शहीद किया गया, खबाब बिन अलअरत को जलते अंगारों पर लिटा कर यातना दी गई. हज़रत बिलाल को जलती रेत पर लिटा कर अज़ीयत दी गई. सुहैब रूमी का सारा समान लूट कर उन्हें मक़्क़े से निकाल दिया गया. इस्लाम धर्म क़ुबूल करने वाली महिलाओं को भी परेशान किया जाने लगा। इनमें हज़रत यासिर की पत्नी सुमय्या, हज़रत उमर की बहन फातेमा, ज़ुनैयरा, नहदिया और उम्मे अबीस जैसी महिलाएं शामिल थीं। इनमे से कुछ को क़त्ल भी कर दिया गया। अल्लाह के आदेश पर अपने को पैगंबर घोषित करने के पाँचवे साल पैग़म्बर साहब को अपने अनेक साथियों को मक्का छोड़ कर हब्श(अफ्रीका) की और जाने के लिए कहना पड़ा और 16 मुसलमान हबश चले गये. कुछ समय बाद 108 लोगो पर आधारित मुसलमानों का एक और दल हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के नेतृत्व में मक्का छोड़ कर चला गया।


     मुसलमानों के पलायन से मक्के के काफ़िरों का होसला बढ़ गया. ख़ास तौर पर अबू जहल नामक सरदार पैग़म्बर साहब को प्रताड़ित करने लगा. यह देख कर मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। उनके शामिल होने से मुसलमानों को बहुत हौसला मिला क्योंकि हज़रत हम्ज़ा बहुत मशहूर योद्धा थे. फिर भी मक्के वालो ने पैग़म्बर साहब का जीना दूभर किये रखा. बड़े तो बड़े, छोटे छोटे बच्चो को भी पैग़म्बर साहब पर पत्थर फेंकने पर लगा दिया गया। औरते छतों से कूड़ा फेंकने पर लगाईं गई. इस दुश्वार घडी में पत्थर मारने वाले बच्चों को खदेड़ने का काम कम आयु के हज़रत अली ने अंजाम दिया, कूड़ा फैंकने वाली औरत के बीमार पड़ने पर उसकी खैरियत पूछने की ज़िम्मेदारी स्वंय पैग़म्बर साहब ने और मक्का के बड़े बड़े सरदारों की साजिशों से हज़रत मोहम्मद को सुरक्षित रखने का काम हज़रत अली के पिता हज़रत अबू तालिब ने अपने सर ले रखा था. जब हज़रत मोहम्मद का एकेश्वरवाद का सन्देश तेजी से फैलने लगा तो दमनकारी शक्तियाँ और हिंसक होने लगीं और पैग़म्बर साहब के विरोधी खिन्न हो कर उनके चाचा हज़रत अबू तालिब के पास पहुंचे और कहा कि या तो वे हज़रत मोहम्मद को अपने धर्म के प्रचार से रोके या फिर हज़रत मोहम्मद को संरक्षण देना बंद कर दें. हज़रत अबू तालिब ने मोहम्मद साहब को समझाने की कोशिश की लेकिन जब मोहम्मद (स) ने उनसे साफ़ साफ़ कह दिया कि “अगर मेरे एक हाथ में चाँद और दूसरे हाथ में सूरज भी रख दिया जाए तो भी में अल्लाह के सन्देश को फैलाने से बाज़ नहीं आ सकता। खुदा इस काम को पूरा करेगा या मैं खुद इस पर निसार हो जाऊँगा.

लोगों का मानना है कि इसी समय हज़रत अबू तालिब ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन मक्के के हालात देखते हुए उन्होंने इसकी घोषणा करना मुनासिब नहीं समझा. जब यह चाल भी नाकाम हो गई तो मक्के के सरदारों ने एक और चाल चली. उन्होंने अकबा बिन राबिया नाम के एक व्यक्ति को पैग़म्बर साहब के पास भेजा और कहलवाया कि “ऐ मोहम्मद! आखिर तुम चाहते क्या हो? मक्के की सल्तनत? किसी बड़े घराने में शादी? धन, दौलत का खज़ाना? यह सब तुम को मिल सकता है और बात पर भी राज़ी हैं कि सारा मक्का तुम्हे अपना शासक मान ले, बस शर्त इतनी है कि तुम हमारे धर्म मैं हस्तक्षेप न करो”. इसके जवाब में हज़रत मोहम्मद ने कुरआन शरीफ कि कुछ आयते (वचन) सुना दीं. इन आयातों का अकबा पर इतना प्रभाव हुआ कि उन्होंने मक्के वालों से जाकर कहा कि मोहम्मद जो कुछ कहते हैं वे शायरी नहीं है कुछ और चीज़ है। मेरे ख़याल में तुम लोग मोहम्मद को उनके हाल पर छोड़ दो अगर वह कामयाब हो कर सारे अरब पर विजय हासिल करते हैं तो तुम लोगो को भी सम्मान मिलेगा अन्यथा अरब के लोग उनको खुद  ख़तम कर देंगे।
लेकिन मक्के वाले इस पर राज़ी नहीं हुए और हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध ज़्यादा कड़े कदम उठाये जाने लगे. (हज़रत मोहम्मद को परेशान करने वालो में अबू सुफ्यान, अबू जहल और अबू लहब सबसे आगे थे). हज़रत मोहम्मद और उनके साथियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. कष्ट की इस घड़ी में एक बार फिर हज़रत मोहम्मद के चाचा हज़रत अबू तालिब ने एक शिविर का प्रबंध किया और मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की।
इस सुरक्षा शिविर को शोएब-ए-अबू तालिब कहा जाता है. इस दौरान हज़रत अबू तालिब हज़रत मोहम्मद की सलामती को लेकर इतना चिंतित थे कि हर रात मोहम्मद साहब के सोने की जगह बदल देते थे और उनकी जगह अपने किसी बेटे को सुला देते थे. तीन साल की कड़ी परीक्षा के बाद मुसलमानों का बायकाट खत्म हुए। लेकिन मुसलमानों को ज़ुल्म और सितम से छुटकारा नहीं मिला और मक्का वासियों ने मुसलामानों पर तरह तरह के ज़ुल्म जारी रखे।

हज़रत अबू तालिब के देहांत के बाद अत्याचार और बढ़ गए (इसी साल पैग़म्बर साहब की चहीती पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी देहांत हो गया) और मोहम्मद साहब की जान के लिये खतरा पैदा हो गया।
मक्के की मुस्लिम दुश्मन शक्तियां मोहम्मद साहब को क़त्ल करने की साजिशें करने लगीं, लेकिन दस वर्ष के समय में पैग़म्बर साहब का फैलाया हुआ दीन मक्के की सरहदें पार कर के मदीने के पावन नगर में फ़ैल चुका था इसलिए मदीने के लोगो ने पैग़म्बर साहब को मदीने में बुलाया और उनको भरोसा दिया की वे मदीने में पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे।
एक रात मक्के के लगभग सभी क़बीले के लोगो ने पैग़म्बर साहब को जान से मार देने की साज़िश रच ली लेकिन इस साज़िश की खबर मोहम्मद साहब को पहले से लग गई और वेह अपने चचेरे भाई हज़रत अली से सलाह मशविरा करने के बाद मदीने के लिए प्रस्थान करने को तैयार हो गए।
लेकिन दुश्मनों ने उनके घर को चारो तरफ से घेर रखा था. इस माहोल में हज़रत अली मोहम्मद साहब के बिस्तर पर उन्ही की चादर ओढ़ कर सो गए और मोहम्मद साहब अपने एक साथी हज़रत अबू बक्र के साथ रात के अँधेरे में ख़ामोशी से मक्का छोड़ कर मदीने के लिए चले गये. जब इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के घर पर हमला किया और उनके बिस्तर पर हज़रत अली को सोता पाया तो खीज उठे।
उन लोगों ने पैग़म्बर साहब का पीछा करने की कोशिश की और उन तक लगभग पहुँच भी गए लेकिन जिस गार(गुफा) में हज़रत मोहम्मद छुपे थे उस गुफा के बाहर मकड़ी ने जाला बुन दिया और कबूतर ने घोंसला लगा दिया जिससे कि पीछा करने वाले दुश्मन गुमराह हो गए और पैग़म्बर साहब की जान बच गई. कुछ समय बाद हज़रत अली भी पैग़म्बर साहब से आ मिले।
इस तरह इस्लाम के लिए एक सुनहरे युग की शुरुआत हो गई. मदीने में ही पैग़म्बर साहब ने अपने साथियो के साथ मिल कर पहली मस्जिद बनाई. यह मस्जिद कच्ची मिट्टी से पत्थर जोड़ कर बनाई गई थी और इस पर सोने चांदी की मीनार और गुम्बद नहीं थे बल्की खजूर के पत्तों की छत पड़ी हुई थी।

मक्का छोड़ने के बाद भी इस्लाम के दुश्मनों ने मोहम्मद साहब के खिलाफ़ साजिशें जारी रखीं और उन पर लगातार हमले होते रहे. मोहम्मद साहब के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी. मदीने में आने के बाद जो पहली जंग हुई उसमे पैग़म्बर साहब के पास केवल तीन सो तेरह आदमी थे, तीन घोड़े, सत्तर ऊँट, आठ तलवारें, और छेह ज़िर्हे (ढालें) थी. इस छोटी सी इस्लामी फ़ौज का नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था, जो हज़रत अली के लिए पहला तजुर्बा था. लेकिन जिन लोगों को अल्लाह ने प्रशिक्षण दे कर दुनिया में उतारा हो, उन्हें तजुर्बे की क्या ज़रुरत? इतनी छोटी सी तादाद में होने के बावजूद मुसलमानों ने एक भरपूर लश्कर से टक्कर ली और अल्लाह पर अपने अटूट विश्वास का सबूत देते हुए मक्के वालों को करारी मात दी. इस जंग में काफ़िरो को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. जंगे-बद्र के नाम से मशहूर इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचाज़ाद भाई हज़रत अली और मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए और मक्के के फ़ौजी सरदार अबू सुफ्यान को काफ़ी ज़िल्लत(बदनामी) उठानी पड़ी. उसके साथ आने वाले बड़े बड़े काफिर सरदार और योद्धा मारे गए।

मोहम्मद साहब न तो किसी की सरकार छीनना चाहते थे न उन्हें देश और ज़मीन की ज़रुरत थी, वे तो सिर्फ इस धरती पर अल्लाह का सन्देश फैलाना चाहते थे. मगर उन पर लगातार हमले होते रहे जबकि खुद मोहम्मद साहब ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही इस्लामी सेना ने किसी देश पर चढाई की. इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बर साहब और उनके साथियों पर कुल मिला कर छोटे बड़े लगभग छियासी युद्ध थोपे गये और यह सारी लड़ाईयाँ मदीने के आस पास लड़ी गई. केवल जंगे-मौता के मौके पर इस्लामी फ़ौज मदीने से आगे बढ़ी क्योंकि रोम के बादशाह ने मुसलमानों के दूत को धोके से मार दिया था।
मगर इस जंग में मुसलमानों की तादाद केवल तीन हज़ार थी और रोमन लश्कर(सेना) में एक लाख सैनिक् थे इसलिए इस जंग में मुसलमानों को कामयाबी नहीं मिली. इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई हज़रत जाफर बिन अबू तालिब और कई वीर मुसलमान सरदार शहीद हुए. यहाँ पर यह कहना सही होगा कि मोहम्मद साहब ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया, न ही इस्लामी शासन का विस्तार करने के लिए उन्होंने किसी मुल्क पर चढ़ाई की बल्कि उन को ही काफ़िरो(नास्तिको) ने हर तरह से परशान किया. जंगे-अहज़ाब के मौके पर तो काफ़िरो ने यहूदियों और दूसरी इस्लाम दुश्मन ताकतों को भी मिला कर मुसलमानों पर चढ़ाई की, लेकिन इस के बाद भी वे मुसलमानों को मात नहीं दे सके।


जंगे-उहद के मौके पर तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) को अभूतपूर्व क़ुरबानी देनी पड़ी. इस जंग में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के वीर चाचा हज़रत हम्ज़ा शहीद हो गए, उनकी शहादत के बाद पैग़म्बर अकरम (स)  के सब से बड़े दुश्मन अबू सुफ्यान की पत्नी हिंदाह ने अपने ग़ुलाम की मदद से हज़रत हम्ज़ा का सीना काट कर उनका कलेजा निकाल कर उसे चबाया और उनके कान नाक काट कर अपने गले मैं हार की तरह पहना। इस के उलट हज़रत मोहम्मद (स) ने जंग में मारे गए दुसरे पक्ष के मृत सैनिको की लाशों को अपमान करने की मनाही की।

इसके बाद भी लगातार मुसलमानों को हर तरह से परेशान किया जाता रहा मगर काफ़िरो को सफलता नहीं मिली। इस्लाम का नूर(रौशनी) दूर दूर तक फैलने लगा। खुले आम थोपी जाने वाली जंगो के साथ साथ पैग़म्बरे इस्लाम (स) को चोरी छुपे मारने की कोशिशे भी होतीं रहीं। एक बार बिन हारिस नाम के एक काफिर ने मोहम्मद साहब को एक पेड़ के नीचे अकेला सोते हुए देख कर तलवार से हमला करना चाह और पैग़म्बर (स) को आवाज़ दे कर कहा कि “ऐ मोहम्मद इस वक़्त तुम को कोन बचा सकता है?” हज़रत ने इत्मीनान(आराम से/बिना किसी डर के) से जवाब दिया “मेरा अल्लाह”। यह सुन कर बिन हारिस के हाथ काँपने लगे और तलवार हाथ से छूट गई।
हज़रत ने तलवार उठा ली और पूछा: “अब तुझे कौन बचा सकता है?”। वह बोला, “आप का रहम-ओ-करम”। हज़रत ने जवाब दिया ” तुझ को भी अल्लाह ही बचाएगा”। यह सुन कर बिन हारिस ने अपने सर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पैरों पर रख दिया और मुसलमान हो गया।

मदीने में एक तरफ तो पैग़म्बर (स) पर काफ़िरो के हमले हो रहे थे तो दूसरी तरफ़ हज़रत का परिवार फल फूल रहा था. उन की इकलोती बेटी हज़रत फ़ातिमा की शादी हज़रत अली (अ) से होने के बाद हज़रत मोहम्मद (स) के घर में दो चाँद हज़रत हसन और हज़रत हुसैन (अ) के रूप में चमकने लगे थे। जिन्हें हज़रत मोहम्मद (अ) अपने बेटों से भी ज्यादा अज़ीज़ रखते थे, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बेटे हज़रत क़ासिम बचपन में ही अल्लाह को प्यारे हो गए थे इसलिए भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने नवासो से बहोत प्यार करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की दो नवासियाँ भी थी जिनको इस्लामी इतिहास में हज़रत जैनब और हज़रत उम्मे कुलसूम कहा जाता है।

मदीने में रह कर इस्लाम के प्रचार प्रसार में लगे हज़रत मोहम्मद को किसी भी तरह हरा देने की साज़िशे रचने वाले काफ़िरो ने कई बार यहूदी और अन्य वर्गों के साथ मिल कर भी मदीने पर चढाई की मगर हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी और उनके बड़े बड़े वीर योद्धा हज़रत अली के हाथों मारे गए. इन लडाइयों में जंगे-खैबर और जंगे-ख़न्दक का बहोत महत्त्व है। इस्लाम की हिफाज़त करने मैं हज़रत अली ने जिस बहादुरी और हिम्मत का सुबूत दिया, उससे इस्लाम का सर तो ऊँचा हुआ ही खुद हज़रत अली भी इस्लामी जगत मैं वीरता और बहादुरी के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने लगे और आज तक बहादुर और वीर लोग “या अली” कहकर मैदान में उतारते हैं. आम लोग संकट की घड़ी में “या अली” या “या अली मदद” कहकर उनको मदद के लिए आवाज़ देते हैं।

हज़रत अली (अ)ने इस्लाम की सुरक्षा और विस्तार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने बड़ी बड़ी जंगो मैं हिस्सा लिया और इस्लामी सेना को विजय दिलाई लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है की उनके हाथों कोई बेगुनाह नहीं मारा गया और न ही उन्होंने किसी निहत्थे पर वार किया। जो भी उनसे लड़ने आया उसको उन्होंने यही मशविरा(सलाह/राय) दिया की अगर वह चाहे तो जान बचाकर जा सकता है और जान बचा कर भाग लेने में कोई शर्त भी नहीं थी।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) और मुसलमानों पर लगातार हमलों के बावजूद इस्लाम रोज़ बरोज़ फैलता जा रहा था आखिर थक आर कर मक्के के अनेक क़बीलो ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथ समझोता कर लिया। यह समझोता “सुलह-ए-हुदेबिया” के नाम से मशहूर है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के शांति प्रिय होने का सबसे बड़ा सुबूत इस संधि के मौके पर देखने को मिला जब उन्होंने काफ़िरो के ज़ोर देने पर सहमती पत्र पर से अपने नाम के आगे से रसूल अल्लाह(अल्लाह के रसूल) काट दिया और केवल मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिखा रहने दिया हालांकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहयोगी इस पर राज़ी नहीं थे की पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नाम के आगे से रसूल अल्लाह लफ्ज़ काटा जाए।
कुछ दिन बाद इस संधि को तोड़ते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहयोगी क़बीले बनी खिज़ाअ के एक व्यक्ति को काफ़िरो के एक क़बीले बनी बकर ने मक्का नगर की सबसे सबसे पाक पवित्र जगह क़ाबा के आँगन में ही मार डाला तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने दस हज़ार मुसलमानों को लेकर मक्के की तरफ़ प्रस्थान किया। मक्के की सीमा पर पहुँचने से पहले ही इस्लाम का कट्टर और सबसे बड़ा दुश्मन अबू सूफ़ियान मुसलमानों की जासूसी करने के लिए आया लेकिन घिर गया। लेकिन मुसलमानों ने उसे मारा नहीं और बल्कि पनाह दे दी। पैग़म्बर के चाचा हज़रत अब्बास ने सुफियान को मशविरा दिया की वह इस्लाम स्वीकार कर ले। अबू सुफियान ने मजबूरी मैं इस्लाम कुबूल कर लिया और मक्के वालों की और से किसी तरह के प्रतिरोध के बिना मुसलमान लगभग आठ साल के अप्रवास के बाद मक्के में दाखिल हुए।
इस विजय की ख़ुशी में मुसलमानों का ध्वज उठा कर चल रहे सेनापति सअद बिन अबादा ने जोश में आकर यह ऐलान कर दिया कि आज बदले का दिन है और आज हर तरह का इंतिकाम जायज़ है। इस घोषणा से पैग़म्बरे इस्लाम (स) इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने अलम(झंडे) को सअद से लेकर हज़रत अली को सोंप दिया और दुनिया को बता दिया की इस्लाम जोश नहीं होश की मांग करता है. इस जीत के मौके पर बदला या इंतिकाम लेने कि जगह पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने सभी मक्का वासियों को माफ़ कर दिया. पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हिन्दा(अबू सूफ़ियान की पत्नी) नाम की उस औरत को भी माफ़ कर दिया जिसने मोहम्मद साहब के प्यारे चाचा हज़रत हम्ज़ा का कलेजा चबाने का जघन्य अपराध किया था।
लगभग अठारह दिन मक्के में रहने के बाद मुसलमान जब वापस मदीने लौट रहे थे तो ताएफ़ नामक स्थान पर काफिरों ने उन्हें घेर लिया. पहले तो मुसलमानों में अफ़रातफरी फैल गई। लेकिन बाद में मुसलमानों ने जम कर मुकाबला किया और काफ़िरो को करारी मात दी। इस जंग को जंग-ए-हुनैन कहा जाता है।

जंगे-ए-मौता में मुसलमानों को मात देने वाली रोम की सेना के हौंसले एक बार फिर बढ़ गए थे. रोम के हरकुलिस(Harqulis) बादशाह ने इस्लाम को मिटा देने के इरादे से फिर एक बार फौजें जमा कर लीं और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी सारे मुसलमानों से कह दिया की वह जान की बाज़ी लगाने को तैयार रहे। तबूक नामक स्थान पर इस्लामी सेनायें रोमियों का मुकाबला करने पहुँचीं. मगर रोम वाले मुसलामानों की ताक़त का अंदाज़ा लगा चुके थे इस लिए यह युद्ध टल गया। इस के बाद मुसलमानों के बीच घुस कर कुछ दुश्मनों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ऊंट को घाटी में गिरा कर मार डालने की साज़िश रची लेकिन अल्लाह ने उनको बचा लिया।

मक्का की विजय के लगभग एक साल बाद नज़रान नामक जगह के ईसाई मोहम्मद साहब से वाद विवाद के लिए आये और हज़रत ईसा मसीह को खुदा का बेटा साबित करने की कोशिश करने लगे तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनको बताया की इस्लाम धर्म, ईसा मसीह को अल्लाह का पवित्र पैग़म्बर मानता है, ईश्वर का बेटा नहीं. क्योंकि अल्लाह हर तरह के रिश्ते से परे है.
मगर मुसलमान हज़रत ईसा के चमत्कारिक जन्म पर यक़ीन रखते हैं और यह भी मानते हैं कि उनका कोई पिता नहीं था. जब ईसाइयों ने कहा की बिना बाप के कोई बच्चा कैसे जन्म ले सकता है तो हज़रत मोहम्मद ने कहा कि “वही अल्लाह जिसने हज़रत आदम(Adam) को बग़ैर माँ-बाप के पैदा किया, ईसा मसीह को बग़ैर पिता के क्यों पैदा नहीं कर सकता?” मगर ईसाईयों ने हट नहीं छोड़ी. इस पर हज़रत मोहम्मद ने क़ुरान में अल्लाह द्वारा कही गई आयत को आधार मानते हुए ईसाईयों को यह आयत सुना दी जिसमें अल्लाह ने कहा है कि “अगर यह लोग तुम से उलझते रहें, ऐसी विश्वस्निये दलीलों के बाद भी जो पेश हो चुकी हैं तो कह दो कि हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को बुलाओ और हम अपनी औरतों को बुलाएँ तुम अपनी औरतों को बुलाओ, हम अपने सबसे क़रीबी साथियों को बुलाएँ तुम अपने साथियों को बुलाओ फिर खुदा की तरफ(क़ाबे के तरफ़) रुख करें, और अल्लाह की लानत(अभिशाप/बद-दुआ) करार दें उन झूटों पर”. ईसाई इस पर राज़ी हो गए. यह वाद विवाद “मुबाहिला” के नाम से मशहूर है।

दूसरे दिन हज़रत मोहम्मद अपने छोटे छोटे नवासों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन, बेटी हज़रत फातिमा और दामाद हज़रत अली के साथ मैदान-ए-मुबाहिला मैं पहुँच गए. इन्हीं पवित्र लोगों को मुसलमान पंजतन कहते हैं. पाँच नूरानी व्यक्तित्व देख कर ईसाई घबरा गए और मुबाहिले के लिए तैयार हो गए. इस संधि के तहत ईसाई हर साल पैग़म्बरे इस्लाम (स) को एक निश्चित रक़म टेक्स के रूप मैं देने पर राज़ी हो गए जिसके बदले मैं पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने वायदा किया कि वे ईसाइयों को उनके घर्म पर ही रहने देंगे।

इस्लाम के खिलाफ चलने वाले सारे अभियानों को नाकाम करने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हज़रत अली हो यमन देश मैं इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा. वहाँ जाकर हज़रत अली ने इस तरह प्रचार किया कि हमदान का पूरा क़बीला मुसलमान हो गया।

इसी साल हज़रत मोहम्मद अपनी अंतिम हज यात्रा पर गए. हज़रत अली भी यमन से सीधे मक्का पहुँच गए जहाँ से वो लोग हज करने के लिए मैदाने अराफ़ात, मुज्द्लिफ़ा और मीना गए और फिर हज के अंतिम चरण में मक्का पहुँचे।

हज से वापस लौटते समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ग़दीर-ए- ख़ुम नाम के स्थान पर क़ाफिले को रोक कर इस बात का ऐलान किया कि अल्लाह का दीन अब मुक़म्मल हो गया है और आज से सब लोग बराबर हैं. अब किसी को किसी पर कोई बरतरी प्राप्त नहीं हैं. अब न तो कोई क़बीले की बुनियाद पर ऊँचा है, न किसी को रंग और नसल के आधार पर कोई बुलंद दर्जा हासिल हैं। आज से श्रेष्ठता और बड़ाई का कोई मेअयार (मापदंड) अगर है तो बस यह है कि कौन चरित्रवान है और किस के दिल मैं अल्लाह का कितना खौफ़ है. इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ऐलान किया कि “जिस जिस का मैं मौला (नेता/स्वामी) हूँ, यह अली भी उसके मौला हैं”।

इसके लगभग दो महीने बाद 29 मई 632 में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का मदीने मैं ही निधन हो गया. पैग़म्बरे इस्लाम (स) के दोस्त और अनेक वरिष्ठ साथी उनके निघन के समय मौजूद नहीं थे क्योंकि वे लोग सकीफ़ा नामक उस जगह पर उस मीटिंग में हिस्सा ले रहे थे जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकारी चुनने के लिए वाद विवाद चल रहा था। पैग़म्बरे इस्लाम (स) को हज़रत अली ने केवल परिवार वालों कि मौजूदगी मैं दफ़न किया।

इस बीच मुसलमानों के उस गिरोह ने जो कि सकीफ़ा मैं जमा हुआ था, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एक वरिष्ट मित्र हज़रत अबू बकर को मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

इस घटना के बाद मुसलमानों मैं उत्तराधिकार के मामले को लेकर कलह पैदा हो गई. क्योंकि मुसलामानों के एक वर्ग का कहना था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ग़दीर-ए-खुम मैं हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं परन्तु दुसरे वर्ग का कहना था कि मौला का मतलब दोस्त भी होता है. इस लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) की घोषणा उत्तराधिकारी के मामले मैं लागू नहीं होती।

जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मित्र और साथी वापस आये तो मोहम्मद साहब को दफ़न किया जा चुका था. शिया मुसलामानों की धार्मिक पुस्तकों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद उनके परिवार जनों को काफ़ी प्रताड़ित किया गया। हज़रत अली के घर के दरवाज़े मैं आग लगाई गई. दरवाज़ा गिरने से पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पवित्र बेटी हज़रत फ़ातिमा की कोख में पल रहे हज़रत मोहसिन का निधन हो गया।

मगर इस्लाम मैं वीरता और साहस के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने वाले हज़रत अली, सहनशीलता और सब्र का प्रतीक बनकर हर दुःख को चुपचाप सह गए क्योंकि उस समय अगर हज़रत अली कि तलवार उठ जाती तो हज़रत अली दुश्मनों को तो ख़त्म कर देते, लेकिन उससे इस्लाम को भी नुक्सान पहुँचता क्योंकि उस समय हज़रत मोहम्मद द्वारा फैलाया हुआ इस्लाम शुरूआती दौर में था और मुसलामानों की तादाद आज की तरह करोड़ों-अरबों में न होकर केवल हज़ारों में थी। हज़रत अली सत्ता तो प्राप्त कर लेते लेकिन इस्लाम का कहीं नामों-निशान न होता, जोकि इस्लाम के दुश्मन चाहते थे। इसका सबूत यह है कि जब इस्लाम का घोर दुश्मन रह चुका अबू सुफियान हज़रत अली के पास आया और बोला कि अगर अली अपने हक के लिए लड़ना चाहते हैं तो वह मक्के की गलियों को हथियार बंद सिपाहियों और खुड़सवारों से भर सकता है. इस पर हज़रत अली ने जवाब दिया कि “ए अबू सुफियान, तू कब से इस्लाम का हमदर्द हो गया?”।

हज़रत अली और उनके परिवार को आतंकित करने की इस घटना का हज़रत फ़ातिमा पर इतना असर हुआ कि वे केवल अठारह साल कि उम्र मैं ही इस दुनिया से कूच कर गईं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हज़रत फ़ातिमा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद केवल नौ दिन ही ज़िन्दा रहीं जबकि कुछ कहते हैं कि हज़रत फ़ातिमा बहत्तर दिनों तक ज़िन्दा रहीं। इस तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार जनों को खुद मुसलामानों द्वारा सताए जाने की शुरुआत हो गई।

अजीब बात यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जीवन मैं उनके परिवार जन काफिरों के आतंकवाद का निशाना बनते रहे और मोहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद उन्हें ऐसे लोगों ने ज़ुल्मों सितम का निशाना बनाया जो खुद को मुसलमान कहते थे. हज़रत फातिमा को फिदक़ नामक बाग़ उनके पिता ने तोहफे के रूप में दिया था. इस बाग़ का हज़रत अबू बकर की सरकार ने क़ब्ज़ा कर लिया था. इस बात से भी हज़रत फ़ातिमा बहुत दुखी रहीं क्योंकि वह अपने पिता के दिए हुए तोहफे से बहुत प्यार करती थीं।
हज़रत फ़ातिमा के निधन के लगभग 6 महीने बाद तक हज़रत अली और हज़रत अबू बकर के बीच सम्बन्ध बिगड़े रहे. इस बीच हज़रत अली पवित्र क़ुरान कि प्रतियों को इकठ्ठा करते रहे और खुद को केवल धार्मिक कामों में सीमित रखा।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए, एक वर्ग इमामत पर यकीन रखता था और दूसरा खिलाफत पर. इमामत पर यकीन रखने वाले दल का मानना था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के उत्तराधिकारी का फैसला केवल अल्लाह की तरफ से हो सकता है और हज़रत मोहम्मद अपने दामाद हज़रत अली को पहले ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे. जबकि दूसरे दल का मानना था कि केवल मदीने के पवित्र नगर में आबाद मुसलमान मिल कर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकारी चुन सकते हैं।

दो वर्ष बाद हज़रत अबू बक़र का निधन हो गया और मरते समय उन्होंने अपने दोस्त हज़रत उमर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया।

हज़रत उमर ने लगभग ग्यारह साल तक राज किया और एक जानलेवा हमले में घायल होने के बाद नए खलीफा का चयन करने के लिए छः सदस्यों की एक कमिटी बना दी. इस कमिटी के सामने खलीफा के पद के लिए दो नाम थे. एक हज़रत अली का और दूसरा हज़रत उस्मान का. इस कमिटी मैं एक व्यक्ति को वीटो पावर भी हासिल थी। समिति ने हज़रत अली से जब यह जानना चाहा कि वे अपने से पहले शासक रह चुके दो खलीफाओं की नीतियों पर चलेंगे? तो हज़रत अली ने कहा कि वे केवल पैग़म्बरे इस्लाम (स) और पवित्र कुरान का अनुसरण करने को बाध्य हैं। इस जवाब के बाद और वीटो पावर की बुनियाद पर हज़रत उस्मान को ख़लीफा बना दिया गया। हज़रत उस्मान के शासन काल में उनकी नीतियों से मुसलमानों में बहुत असंतोष फैल गया। ख़ास तौर पर उनके द्वारा नियुक्त किये गए एक अधिकारी मर-वान ने लोगों को बहुत सताया। मुस्लिम समुदाय मर-वान के ज़ुल्मो के खिलाफ दुहाई देने के लिए मदीने में जमा हुआ मगर उनको इंसाफ के बदले धोखा मिला, तत्पश्चात मुसलमानों में उग्रवाद फैल गया और एक क्रुद्ध भीड़ ने हज़रत उस्मान की हत्या कर दी. शासक द्वारा आम जनता का खून बहाना तो सदियों से एक मामूली सी बात है लेकिन किसी शासक की आम जनता द्वारा हत्या अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना थी. इसने सारे मुस्लिम जगत को हिला कर रख दिया और शासको तक यह पैग़ाम भी पहुँच गया की किसी भी मुस्लिम शासक को शासन के दौरान अपनी नीतियों को लागू करने का अधिकार नहीं है बल्कि केवल कुरान और सुन्नत(पैग़म्बरे इस्लाम (स) का आचरण) ही शासन की बुनियाद हो सकता है।

हज़रत अली और उनके विरोधी

हज़रत उस्मान की हत्या के बाद तीन दिन तक स्थिति बहुत ही ख़राब रही। मदीने में अफरातफरी का माहोल था, ऐसे में जनता की उम्मीद का केंद्र एक बार फिर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का घर हो गया. हजारों नर-नारी बनीहाशिम के मोहल्ले में उस पवित्र घर पर आशा की नज़रें टिकाये थे, जहाँ हज़रत अली (अ) रहते थे। इन लोगो ने फ़रियाद की कि दुःख की इस घडी में हज़रत अली (अ) खिलाफत का पद संभालें। इस बार न तो सकीफ़ा जैसी चुनावी प्रक्रिया अपनाई गई न ही किसी ने हज़रत अली (अ) को मनोनीत किया और न कोई ऐसी कमिटी बनी जिसमें किसी को वीटो पावर प्राप्त थी।
हज़रत अली (अ) ने जनता के आग्रह को स्वीकार किया और खिलाफत संभाल ली. लेकिन खलीफा के पद पर बैठते ही हज़रत अली (अ) के विरोधी सक्रिय हो गए. पहले तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की एक पत्नी हज़रत आयशा को यह कह कर भड़काया गया कि हज़रत उस्मान के क़ातिलों को हज़रत अली (अ) सजा नहीं दे रहे हैं और इस तरह के इलज़ाम भी लगाये गए की जैसे खुद हज़रत अली (अ) भी हज़रत उस्मान की हत्या में शामिल रहे हो। जब्कि हज़रत अली (अ) ने हज़रत उस्मान और उनके विरोधियों के बीच सुलह सफाई करवाने की पूरी कोशिश की और घेराव के दौरान उनके लिए खाना पानी अपने बेटों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन (अ) के हाथ लगातार भेजा. हज़रत आयशा जो पहले खलीफा हज़रत अबू बक़र की बेटी थीं, अनेक कारणों से हज़रत अली (अ) से नाराज़ रहती थीं. वह ख़िलाफ़त की गद्दी पर अपने पिता के पुराने मित्रों तल्हा और ज़ुबैर को देखना चाहती थीं।
जब लोगों ने क़त्ले उस्मान को लेकर उनके कान भरे तो उन्हें हज़रत अली (अ) से पुरानी दुश्मनी निकालने का मौका मिल गया. उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन पर हमला कर दिया और इस अभियान को क़त्ले-उस्मान का इंतिकाम लेने वाला जिहाद करार दिया। यहीं से जिहाद के नाम को बदनाम करने का सिलसिला शुरू हुआ। जब्कि हज़त उस्मान का क़त्ल मिस्र देश के दूसरे भागों से आये हुए असंतुष्ट लोगो के हाथो हुआ था. मगर हज़रत आयशा इस का इंतिकाम हज़रत अली (अ) से लेना चाहती थीं।

उन्होंने हमले के लिए इराक के बसरा नगर को चुना क्योंकि वहां पर हज़रत अली (अ) के शिया मित्र बड़ी संख्या में रहते थे। बसरा के गवर्नर उस्मान बिन हनीफ़ को हज़रत आयशा की सेना ने बहुत अपमानित किया। हनीफ, हज़रत आयशा की सेना का सही ढंग से मुकाबला नहीं कर सके क्योंकि हज़रत अली (अ) की इस्लामी सेनाएं उस वक़्त तक बसरा में पहुँच नहीं सकीं थीं।
हुनैन ने इस घटना की जानकारी जीकार के स्थान पर मौजूद हज़रत अली (अ) तक पहुंचाई। हज़रत अली (अ) ने विभिन्न लोगो से हज़रत आयशा तक यह सन्देश भिजवाया कि वह युद्ध से बाज़ आ जाए और अपने राजनितिक मकसद को पूरा करने के लिए मुसलामानों का खून न बहाएं मगर वो राज़ी नहीं हुई।

हिजरत के 36 वें वर्ष में इराक़ के बसरा नगर में हज़रत अली (अ) और हज़रत आयशा की सेनाओ के बीच युद्ध हुआ. इस जंग को जंग-ए-जमल भी कहते हैं क्योंकि इस युद्ध में हज़रत आयशा ने अपनी सेना का नेतृत्व ऊँट पर बेठ कर किया था और ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहा जाता है।

इस जंग का नतीजा भी वही हुआ जो इस से पहले की तमाम इस्लामी जंगो का हुआ था, जिसमें नेतृत्व हज़रत अली (अ) के हाथों में था। हज़रत आयशा की सेना को मात मिली। हज़रत आयशा जिस ऊँट पर सवार थीं जंग के दौरान उस से नीचे गिरी, हज़रत अली (अ) ने उनको किसी प्रकार की सज़ा देने के बदले उनको पूरे सम्मान के साथ उनके छोटे भाई मोहम्मद बिन अबू बक़र और चालीस महिला सिपाहियों के संरक्षण में मदीने वापस भेज दिया. इस तरह उन इस्लामी आदर्शों की हिफ़ाज़त की जिनके तहत महिलाओं के मान सम्मान का ख्याल रखना ज़रूरी है। हज़रत अली (अ) की तरफ से अच्छे बर्ताव का ऐसा असर हुआ कि हज़रत आयशा राजनीति से अलग हो गईं। इस युद्ध के बाद और इस्लामी शासन के लिए लगातार बढ़ रहे खतरे को देखते हुआ हज़रत अली (अ) ने इस्लामी सरकार की राजधानी मदीने से हटा कर इराक के कूफा नगर में स्थापित कर दी।

इस जंग के बाद कबीले वाद की पुश्तेनी दुश्मनी ने एक बार फिर सर उठाया और उमय्या वंश के एक सरदार अमीर मुआविया ने हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसका एक कारण यह भी था की पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद इस्लामी नेतृत्व दो हिस्सों में बँट गया था, एक को इमामत और दूसरे को ख़िलाफ़त कहा जाता था।
इमामों पर विशवास रखने वाले दल को यकीन था की इमाम व पैग़म्बर सिर्फ अल्लाह द्वारा चुने होते हैं। जबकि खिलाफत पर विश्वास रखने वाले दल का मानना था की पैग़म्बर अल्लाह की तरफ से नियुक्त होते हैं लेकिन उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार जनता को प्राप्त है या कोई ख़लीफ़ा मरते वक़्त किसी को मनोनीत कर सकता था अथवा कोई ख़लीफ़ा मरते समय एक चयन समिति बना सकता था. इन्हीं मतभेदों को लेकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद मुस्लिम समाज दो बागों में बंट गया।
खिलाफत पर यकीन रखने वाला दल संख्या में ज्यादा था और इमामत पर यकीन रखने वालों की संख्या कम थी। बाद में कम संख्या वाले वर्ग को शिया और अधिक संख्या वाले दल को सुन्नी कहा जाने लगा लेकिन जब हज़रत अली (अ) ख़लीफ़ा बने तो इमामत और खिलाफत सा संगम हो गया और मुसलमानों के बीच पड़ी दरार मिट गई। यही एकता इस्लाम के पुराने दुश्मनों को पसंद नहीं आई और उन्होंने मुसलामानों के बीच फसाद फैलाने की ग़रज़ से तरह तरह के विवाद को जन्म देना शुरू कर दिए और मुसलामानों का खून पानी की तरह बहने लगा।
अमीर मुआविया ने पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त के लिए दावेदारी पेश कर दी. मुआविया ने ताक़त और सैन्य बल के ज़रिये सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तहत सीरिया के प्रान्त इस्लामी राज्य से अलग करने की घोषणा कर दी। मुआविया को हज़रत उस्मान ने सीरिया का गवर्नर बनाया था। दोनों एक ही काबिले बनी उम्म्या से ताल्लुक अखते थे, फिर मुआविया ने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन पर धावा बोल दिया और इस को भी जिहाद का नाम दिया. जबकि यह इस्लामी शासन के खिलाफ खुली बगावत थी।

हिजरत के 39वे वर्ष में सिफ्फीन नामन स्थान पर इस्लामी सेनाओं और सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया के सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ. मुआविया की सेनाओ ने रणभूमि में पहले पहुँच कर पानी के कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया और हज़रत अली की सेना पर पानी बंद करके मानवता के आदर्शो पर पहला वार किया. हज़रत अली की सेनाओं ने जवाबी हमला करके कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस बार किसी पर पानी बंद नहीं हुआ और मुआविया की फ़ौज भी उसी कुएं से पानी लेती रही जिस पर अली वालों का क़ब्ज़ा था. इस युद्ध में जब हज़रत अली की सेना विजय के नज़दीक पहुँच गई और इस्लामी सेना के कमांडर हज़रत मालिक-ए-अश्तर ने दुश्मन फ़ौज के नेता मुआविया को लगभग घेर लिया तो बड़ी चालाकी से सीरिया की सेना ने पवित्र कुरान की आड़ ले ली और क़ुरान की प्रतियों को भालो पर उठा कर आपसी समझोते की बात करना शुरू कर दी. अंत में शांति वार्ता के ज़रिये से युद्ध समाप्त हो गया.

हज़रत अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशरी के साथ धोका किये जाने के साथ ही सुलह का यह प्रयास विफ़ल हो गया और एक बार फिर जंग के शोले भड़क उठे. अबू मूसा के साथ धोका होने की वजह से हज़रत अली की सेना के सिपाहियों द्वारा फिर से युद्ध शुरू करने के आग्रह और समझोता वार्ता से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हज़रत अली के सेना का एक टुकड़ा बाग़ी हो गया. इस बाग़ी सेना से हज़रत अली को नहर-वान नामक स्थान पर जंग करनी पड़ी. हज़रत अली से टकराने के कारण इस दल को इस्लामी इसिहास मैं खारजी(निष्कासित) की संज्ञा दी गई है.

हज़रत अली की सेना में फूट और मुआविया के साथ शांति वार्ता नाकाम होने के बाद सीरिया में मुआविया ने सामानांतर सरकार बना ली. इन लडाइयों के नतीजे मैं मुस्लिम समाज चार भागो में बंट गया. एक वर्ग हज़रत अली को हर तरह से हक़ पर समझता था. इस वर्ग को शिया आने अली कहा जाता है. यह वर्ग इमामत पर यकीन रखता है और हज़रत अली से पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देता है. दूसरा वर्ग मुआविया की हरकातो को उचित करत देता था. इस ग्रुप को मुआविया का मित्र कहा जाता है. यह वर्ग मुआविया और यजीद को इस्लामी ख़लीफ़ा मानता है. तीसरा वर्ग ऐसा है जो कि मुआविया और हज़रत अली दोनों को ही अपनी जगह पर सही क़रार देता है और दोनों के बीच हुई जंग को ग़लतफ़हमी का नतीजा मानता है, इस वर्ग को सुन्नी कहा जाता है(लेकिन इस वर्ग ने भी मुआविया को अपना खलीफा नहीं माना). चौथे ग्रुप की नज़र में………………….

हज़रत अली की सेनाओं को कमज़ोर पाकर मुआविया ने मिश्र में भी अपनी सेनाएं भेज कर वह के गवर्नर मोहम्मद बिन अबू बक़र(जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी हज़रत आयशा के छोटे भाई और पहले खलीफा अबू बक़र के बेटे थे) को गिरफ्तार कर लिया और बाद में उनको गधे की खाल में सिलवा कर ज़िन्दा जलवा दिया. इसी के साथ मुआविया ने हज़रत अली के शासन के तहत आने वाले गानों और देहातो में लोगो को आतंकित करना शुरू कर दिया. बेगुनाह शहरियों को केवल हज़रत अली से मोहब्बत करने के जुर्म में क़त्ल करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया. इस्लामी इतिहास की पुस्तक अल-नसायह अल काफ़िया में हज़रत अली के मित्रो को आतंकित करने की घटनाओं का बयान इन शब्दों में किया गया है: “अपने गुर्गों और सहयोगियों की मदद से मुआविया ने हज़रत अली के अनुयाइयों में सबसे अधिक शालीन और श्रेष्ट व्यक्तियों के सर कटवा कर उन्हें भालों पर चढ़ा कर अनेक शहरो में घुमवाया. “इस युग में ज़्यादातर लोगों को हज़रत अली के प्रति घृणा प्रकट करने के लिए मजबूर किया जाता अगर वो ऐसा करने के इनकार करते तो उनको क़त्ल कर दिया जाता.

हज़रात अली की शहादत

अपनी जनता को इस आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हज़रत अली ने फिर से इस्लामी सेना को संगठित करना शुरू किया. हज़रत इमाम हुसैन, क़ेस बिन सअद और अबू अय्यूब अंसारी को दस दस हज़ार सिपाहियों की कमान सोंपी गई और खुद हज़रत अली के अधीन 29 हज़ार सैनिक थे और जल्द ही वो मुआविया की सेना पर हमला करने वाले थे, लेकिन इस के पहले कि हज़रत अली मुआविया पर हमला करते, एक हत्यारे अब्दुल रहमान इब्ने मुल्ज़िम ने हिजरत के 40वें वर्ष में पवित्र रमज़ान की 18वी तारीख़ को हज़रत अली कि गर्दन पर ज़हर में बुझी तलवार से उस समय हमला कर दिया जब वो कूफ़ा नगर की मुख्य मस्जिद में सुबह की नमाज़ का नेतृत्व(इमामत) कर रहे थे और सजदे की अवस्था में थे. इस घातक हमले के तीसरे दिन यानी 21 रमज़ान (28 जनवरी 661 ई०) में हज़रत अली शहीद हो गए. इस दुनिया से जाते वक़्त उनके होटों पर यही वाक्य था कि “रब्बे क़ाबा(अल्लाह) कि कसम, में कामयाब हो गया”. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने कई लड़ाइयाँ जीतीं. बड़े-बड़े शूरवीर और बहादुर योद्धा उनके हाथ से मारे गए मगर उन्होंने कभी भी अपनी कामयाबी का दावा नहीं किया. हज़रत अली की नज़र में अल्लाह कि राह मैं शहीद हो जाना और एक मज़लूम की मौत पाना सब से बड़ी कामयाबी थी. लेकिन जंग के मैदान में उनको शहीद करना किसी भी सूरमा के लिए मुमकिन नहीं था. शायद इसी लिए वो अपनी इस क़ामयाबी का ऐलान कर के दुनिया को बताना चाहते थे कि उन्हें शहादत भी मिली और कोई सामने से वार करके उन्हें क़त्ल भी नहीं कर सका. वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो क़ाबा के पावन भवन के अन्दर पैदा हुए और मस्जिद में शहीद हुए।

हज़रत अली ने अपने शासनकाल में न तो किसी देश पर हमला किया न ही राज्य के विस्तार का सपना देखा. बल्कि अपनी जनता को सुख सुविधाएँ देने की कोशिश में ही अपनी सारी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी थी. वो एक शासक की तरह नहीं बल्कि एक सेवक की तरह ग़रीबों, विधवा औरतों और अनाथ बच्चों तक सहायता पहुँचाते थे. उनसे पहले न तो कोई ऐसा शासक हुआ जो अपनी पीठ पर अनाज की बोरियाँ लादकर लोगों तक पहुँचाता हो न उनके बाद किसी शासक ने खुद को जनता की खिदमत करने वाला समझा।

हज़रत अली के बाद उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन ने सत्ता संभाली, लेकिन अमीर मुआविया की और से उनको भी चैन से बेठने नहीं दिया गया. इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन को ख़लीफ़ा के पद से अपदस्थ करने में कामयाबी हासिल कर ली. हज़रत हसन ने सत्ता छोड़ने से पहले अमीर मुआविया के साथ एक समझौता किया।

26 जुलाई 661ई० को इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई जिसमें यह तय हुआ कि मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा. (2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा. (3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा.(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त(सत्ता) पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी।

समझोते का एहतराम करने के स्थान पर मुआविया की और से पवित्र पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के सदस्यों और हज़रत अली के चाहने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया. इसी नापाक अभियान की एक कड़ी के रूप में इमाम हसन को केवल 47 वर्ष की उम्र में एक महिला के ज़रिये ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया गया।

अमीर मुआविया ने इमाम हसन के साथ की गई संधि को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के बाद इस को रद्दी की टोकरी में डाल कर अपने परिवार का शासन स्थापित कर दिया. मुआविया को अपने खानदान का राज्य स्थापित करने में तो कामयाबी मिल गई लेकिन मुआविया का खलीफा बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. मुआविया ने लगभग 12 वर्ष राज किया और जिहाद के नाम पर दूसरे देशों पर हमला करने का काम शुरू करके जिहाद जैसे पवित्र काम को बदनाम करना शुरू किया. इस के अलावा मुआविया ने इस्लामी आदर्शों से खिलवाड़ करते हुए एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसकी मिसाल नहीं मिलती. इस नजिस पॉलिसी के तहत उस ने हज़रत अली और उनके परिवार जनों को गालियाँ देने के लिए मुल्ला किराए पर रखे. अमीर मुआविया ने अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती यह की कि अपने जीवन में ही अपने कपूत यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।


इन सब हरकतों का नतीजा यह हुआ की समस्त मुसलामानों ने ख़िलाफ़त के सिलसिले को समाप्त मान कर इमाम हसन के बाद खिलाफत-ए-राशिदा(सही रास्ते पर चलने वाले शासकों) के ख़त्म हो जाने का ऐलान कर दिया. इस तरह मुआविया को सत्ता तो मिल गई लेकिन मुसलामानों का भरोसा हासिल नहीं हो सका।

यजीद ही  सत्ता  अगले लेख में


इस्लाम का सफ़र मक्के से कर्बला तक यजीद लइन की सत्ता |

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अमीर मुआविया ने अपने क़बीले बनी उमय्या का शासन स्थापित करने के साथ साथ उस इस्लामी शासन प्रणाली को भी समाप्त कर दिया जिसमें ख़लीफ़ा एक आम आदमी के जैसी ज़िन्दगी बिताता था। मुआविया ने ख़िलाफ़त को राज शाही में तब्दील कर दिया और अपने कुकर्मी और दुराचारी बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित करके उमय्या क़बीले के अरबों और दूसरे मुसलामानों पर राज्य करने के पुराने ख्वाब को पूरा करने की ठान ली।

मुआविया को जब लगा कि मौत क़रीब है तो यज़ीद को सत्ता पर बैठाने के लिए अहम् मुस्लिम नेताओं से यज़ीद कि बैयत(मान्यता देने) को कहा।

यज़ीद को एक इस्लामी शासक के रूप में मान्यता देने का मतलब था इस्लामी आदर्शों की तबाही और बर्बादी. यज़ीद जैसे कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और बदमाश को मान्यता देने का सवाल आया तो सब से पहले इस पर लात मारी पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्यारे नवासे और हज़रत अली (अ) के शेर दिल बेटे इमाम हुसैन (अ) ने कहा कि वह अपनी जान क़ुर्बान कर सकते हैं लेकिन यज़ीद जैसे इंसान को इस्लामिक शासक के रूप में क़ुबूल नहीं कर सकते।
इमाम हुसैन के अतिरिक्त पैगम्बर साहब की पत्नी हज़रात आयशा ने भी यज़ीद को मान्यता देने से इनकार कर दिया। कुछ और लोग जिन्होंने यज़ीद को मान्यता देने से इनकार किया वो हैं: अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, 2. अब्दुल्लाह बिन उमर, 3 उब्दुल रहमान बिन अबू बकर, 4, अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास. इनके आलावा अब्दुल रहमान बिन खालिद इब्ने वलीद और सईद बिन उस्मान ने भी यज़ीद की बैअत से इनकार किया लेकिन इनमें से अब्दुल रहमान को ज़हर देकर मार डाला गया और सईद बिन उस्मान को खुरासान(ईरान के एक प्रान्त) का गवर्नर बना कर शांत कर लिया गया।

मुआविया की नज़र में इन सारे विरोधियों का कोई महत्व नहीं था उसे केवल इमाम हुसैन (अ) की फ़िक्र थी कि अगर वे राज़ी हो जाएँ तो यज़ीद की ख़िलाफ़त के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा। मुआविया ने अपने जीवन में इमाम हुसैन (अ) पर बहुत दबाव डाला कि वो यज़ीद को शासक मान लें मगर उसे सफ़लता नहीं मिली।

यज़ीद का परिचय

यज़ीद बनी उमय्या के उस कबीले का कपूत था, जिस ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) को जीवन भर सताया. इसी क़बीले के सरदार और यज़ीद के दादा अबू सूफ़ियान ने कई बार हज़रत मोहम्मद (स) की जान लेने की कौशिश की थी और मदीने में रह रहे पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर कई हमले किये थे. यज़ीद के बारे में कुछ इतिहासकारों की राय इस प्रकार है:

तारीख-उल-खुलफ़ा में जलाल-उद-दीन सियोती ने लिखा है की “यज़ीद अपने पिता के हरम में रह चुकी दासियों के साथ दुष्कर्म करता था। जबकि इस्लामी कानून के तहत रिश्ते में वे दासियाँ उसकी माँ के समान थीं।

सवाअक-ए-महरका में अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला ने लिखा है की “यज़ीद के दौर में हम को यह यकीन हो चला था की अब आसमान से तीर बरसेंगे क्योंकि यज़ीद ऐसा व्यक्ति था जो अपनी सौतेली माताओं, बहनों और बेटियों तक को नहीं छोड़ता था. शराब खुले आम पीता था और नमाज़ नहीं पढता था.”

जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि “यज़ीद ज़ालिम और ग़द्दार दोनों था उसके चरित्र में रहम और इंसाफ़ नाम की कोई चीज़ नहीं थी”.

एडवर्ड ब्रा ने हिस्ट्री और पर्शिया में लिखा है कि “यज़ीद ने एक बददु(अरब आदिवासी) माँ की कोख से जन्म लिया था। रेगिस्तान के खुले वातावरण में उस की परवरिश हुई थी, वह बड़ा शिकारी, आशिक़, शराब का रसिया, नाच गाने का शौकीन और मज़हब से कोसो दूर था.”

अल्लामा राशिद-उल-खैरी ने लिखा है कि “यज़ीद गद्दी पर बेठने के बाद शराब बड़ी मात्रा में पीने लगा और कोई पल ऐसा नहीं जाता था कि जब वह नशे में धुत न रहता हो और जिन औरतों से पवित्र कुरान ने निकाह करने को मना किया था, उनसे निकाह को जायज़ समझता था.”


ज़ाहिर है इमाम हुसैन (अ) यज़ीद जैसे अत्याचारी, कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और अधर्मी को मान्यता कैसे दे सकते थे। यजीद ने अपने चचाज़ाद भाई वलीद बिन अत्बा को जो मदीने का गवर्नर था यह सन्देश भेजा कि वह मदीने में रह रहे इमाम हुसैन, इब्ने उमर और इब्ने ज़ुबैर से उसके लिए बैयत(मान्यता) की मांग करे और अगर तीनों इनकार करें तो उनके सर काट कर यज़ीद के दरबार में भेजें।


यज़ीद के दरबार में हज़रत ज़ैनब का ख़ुत्बा

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यज़ीद के दरबार में हज़रत ज़ैनब का ऐतिहासिक ख़ुत्बा


यज़ीद के दरबार में जब हज़रत ज़ैनब (स) की निगाह अपने भाई हुसैन के ख़ून से रंगे सर पर पड़ी तो उन्होंने दुख भरी आवाज़ में जो दिलों की दहला रही थी पुकाराः



हे हुसैन, हे रसूलुल्लाह (स) के चहीते, हे मक्का और मिला के बेटे, हे सारे संसार की महिलाओं की मलिका फ़ातेमा ज़हरा (स) के बेटे हो मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) की बेटी के बेटे।

रावी कहता हैः ईश्वर की सौगंध हज़रत ज़ैनब (स) की इस आवाज़ को सुनकर दरबार में उपस्थित हर व्यक्ति रोने लगा, और यज़ीद चुप था!!

यज़ीद ने आदेश दिया की उसकी छड़ी लाई जाए और वह उस छड़ी से इमाम हुसैन (अ) के होठों और पवित्र दांतो से मार रहा था।

अबू बरज़ा असलमी जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहाबी और उस दरबार में उपस्थित थे, ने यज़ीद को संबोधित करके कहाः हे यहीं तू अपनी छड़ी से फ़ातेमा (स) के बेटे हुसैन (अ) को मार रहा है? मैंने अपनी आँखों से देखा है कि पैग़म्बरे अकरम (स) हसन (अ) और हुसैन (अ) के होठों और दांतों को चूमा करते थे और फ़रमाते थेः


तुम दोनों स्वर्ग के जवानों के सरदार हो, ईश्वर तुम्हारे हत्यारे को मारे और उसपर लानत करे और उसके लिए नर्क तैयार करे और वह सबरे बुरा स्थान है।

यज़ीद ने जब असलमी की इन बातों को सुना तो क्रोधित हो गया और उसने आदेश दिया कि उनको दरबार से बाहर निकाल दिया जाए।

यज़ीद जो घमंड और अहंकार से चूर था, यह समझ रहा था कि उनसे कर्बला पर विजय प्राप्त कर ली है, उसने इन शेरों को पढ़ा जो उसके और बनी उमय्या के इस्लाम से दूर होने और इस्लामी शिक्षाओं को स्वीकार न करने का प्रमाण हैं:


काश मेरे वह पूर्वज जो बद्र के युद्ध में मारे गए थे आज देखते कि ख़ज़रज क़बीला किस प्रकार भालों के वार से रो रहा है।

वह लोग शुख़ी से चिल्लाह रहे थे और कह रहे थेः यज़ीद तेरे हाथ सलामत रहें!

मैं ख़िनदफ़ (2) की संतान नहीं हूँ अगर मैं अहमद (अल्लाह के रसूल (स)) के परिवार से इंतेक़ाम न लूँ

यज़ीद यह शेर पढ़ता जा रहा था और अपनी इस्लाम से दूरी और शत्रुता को दिखाता जा रहा था, और यही वह समय था कि जब अली (अ) की शेरदिल बेटी ज़ैनब (स) उठती है और वह एतिहासिक ख़ुत्बा पढ़ती हैं जिसे इतिहास कभी भुला न सकेगा। आप फ़रमाती हैं



प्रशंसा विशेष है उस ईश्वर के लिये जो संसारों का पालने वाला है, और ईश्वर की सलवात उसके दूत पर और उसके परिवार पर। ईश्वर ने सत्य कहा जब फ़रमायाः “वह लोग जिन्होंने पाप और कुकर्म किये उनका अंत (परिणाम) इस स्थान तक पहुँच गया कि उन्होंने ईश्वरीय आयतों को झुठलाना दिया और उनका उपहास किया”

हे यज़ीद! क्या अब जब कि ज़मीन और आसमान तो (विभन्न दिशाओं से) हम पर तंग कर दिया और और क़ैदियों की भाति हम को हर दिशा में घुमाया, तू समझता है कि हम ईश्वर के नज़दीक अपमानित हो गए और तू उसके नज़दीक सम्मानित हो जाएगा? और तूने समझा कि यह ईश्वर के नज़दीक तेरी शक्ति और सम्मान की निशानी है? इसलिये तूने अहंकार की हवा को नाक में भर लिया और स्वंय पर गर्व किया और प्रसन्न हो गया, यह देख कर कि दुनिया तेरी झोली में आ गई कार्य तुझ से व्यवस्थित हो गए और हमारी हुकूमत और ख़िलाफ़त तेरे हाथ में आ गई, तो थोड़ा ठहर! क्या तूने ईश्वर का यह कथन भुला दिया कि उसने फ़रमायाः “जो लोग काफ़िर हो गए वह यह न समझें कि अगर हम उनको मोहलत दे रहे हैं, तो यह उनके लाभ में है। हम उनको छूट देते हैं ताकि वह अपने पापों को बढ़ाएं और उनके लिये अपमानित करने वाला अज़ाब (तैयार) है”

आपने अली (अ) के लहजे में यज़ीद और दरबार में बैठे सारे लोगों को यह जता दिया कि देख अगर तू यह समझता है कि तूने हमारे मर्दों की हत्या करके और हम लोगों को बंदी बना कर अपमानित कर दिया है तो यह तेरी समझ का फेर है जान ले कि इज़्ज़त और सम्मान ईश्वर के हाथ में है, वह जिसको चाहता है उसकों सम्मान देता है और जिसको चाहता है अपमानित कर देता है।

इसी ख़ुत्बे में आपने एक स्थान पर फ़रमायाः



हे स्वतंत्र किये गए काफ़िरों के बेटे! (5) क्या यह न्याय है कि तू अपनी महिलाओं और दासियों को तो पर्दे में रखे, लेकिन अल्लाह के रसूल (स) की बेटियों को बंदी बनाकर इधर उधर घुमाता फिरे, जब कि तूने उनके सम्मान को ठेस पहुँचाई और उनको चेहरों के लोगों के सामने रख दिया, उनको शत्रुओं के माध्यम से विभिन्न शहरों में घुमाए ताकि हर शहर और गली के लोग उनका तमाशा देखें, और क़रीब, दूर शरीफ़ और तुच्छ लोग उनके चेहरों को देखें, जब कि उनके साथ मर्द और सुरक्षा करने वाले नहीं थे (लेकिन इन बातों का क्या लाभ, क्योंकि) कैसे उस व्यक्ति की सुरक्षा और समर्थन की आशा की जा सकती है कि (जिसकी माँ ने) पवित्र लोगों का जिगर खाया हो (आपने यज़ीद की माँ हिन्द की कहानी की तरफ़ इशारा किया है) और जिसका गोश्त शहीदों को रक्त से बना है?! और किस प्रकार वह हम अहलेबैत (अ) से शत्रुता में तेज़ी न दिखाए जो हम को अहंकार, नफ़रत, क्रोधित और प्रतिशोधात्मक नज़र से देखता है और फिर (बिना अपराध बोध और अपने अत्याचारों को देखे अहंकार के साथ) कहता हैः

काश मेरे पूर्वज होते और इस दृश्य को देखते और शुख़ी एवं प्रसंन्ता से कहतेः यज़ीद तेरे हाथ सलामत रहें।

इन शब्दों को उस समय कहता है कि जब अबा अब्दिल्लाह (अ) जो स्वर्ग के जवानों के सरदार हैं के होठ और पवित्र दांतों पर मारता है!

हां तू क्यों ऐसा नहीं कहेगा, जब कि तूने अल्लाह के रसूल के बेटों और अब्दुल मुत्तलिब के ख़ानदान के ज़मीनी सितारों का ख़ून बहाकर, हमारे दिलों के घवों को खोल दिया है, और तू हमारे ख़ानदान की जड़ ख़तरा बन गया है, तू अपने पूर्वजों को पुकारता है और समझता है कि वह तेरी आवाज़ को सुन रहे हैं?! (जल्दी न कर) बहुत जल्द तू भी उनके पास चला जाएगा, और उस दिन तू आशा करेगा कि काश तेरा हाथ शल होता और तेरी ज़बान गूँगी होती और तू यह बात न कहता और इन कुकर्मों को न करता)

फ़िर आप फ़रमाती हैं:


हे ईश्वर! हमारे अधिकार को ले, और हम पर अत्याचार कनरे वालों से इंतेक़ाम ले, और जिसने हमारे ख़ून को ज़मीन पर बहाया और हमारी साथियों की हत्या की उस पर अपना क्रोध उतार।

हे यज़ीद! ईश्वर की सौगंध (इस अपराध से) तूने केवल अपनी खाल उतारी है, और अपना गोश्त काटा है, और वास्तव में तूने स्वंय को बरबाद किया है, निःसंदेह वह बोझ – अल्लाह के रसूल (स) के बेटे की हत्या करके और उनके ख़ानदान और चहीतों का अपमान करके- अपने कांधे पर डाला है, तू पैग़म्बर के सामने जाएगा, वहां ईश्वर उन सबको इकट्ठा करेगा और उनकी परेशानी को दूर करेगा और उनके दिलों की आग को ठंडा करेगा, (हां) “यह न समझ कि जो लोग ईश्वर की राह में मार दिये गए, वह मर गए हैं, बल्कि वह जीवित है और ईश्वर से रोज़ी पाते हैं” यही काफ़ी है कि तू उस न्यायालय में हाज़िर होगा जिसका न्याय करने वाला ईश्वर है और अल्लाह का रसूल (स) तेरे मुक़ाबले में है और जिब्रईल गवाह और उनके साथे हैं।

बहुत जल्द जिसने हुकूमत को तेरे लिये निर्विघ्न किया और तुझे मुसलमानों की गर्दनों पर सवार कर दिया, जान जाएगा कि कितना बुरा अज़ाब अत्याचारियों के हिस्से में आएगा, और समझ जाएगा कि किसके ठहरे का स्थान बुरा है और किसकी सेना अधिक कमज़ोर और शक्तिविहीन है।

उसके बाद आपने अपने ख़ुत्बे के इस चरण में यज़ीद की धज्जियाँ उड़ा दीं:



अगर बुरे समय ने मुझे इस मक़ाम पर ला खड़ा किया है कि मैं तुझ से बात करूँ, लेकिन (जान ले) मैं निःसंदेह तेरी शक्ति को कम और तेरे दोष को बड़ा समझती हूँ और बहुत तेरी निंदा करती हूँ, लेकिन मैं क्या करूँ कि आख़े रोती और सीने जले हुए हैं।

बहुत आश्चर्य का स्थान है कि एक ईश्वरीय और चुना हुआ गुट, शैतान के चेलों और स्वतंत्र किये हुए दासों के हाथों क़त्ल कर दिया जाए और हमारा रक्त इन (अपवित्र) पंजों से टपके और हमारे गोश्त के टुकड़े तुम्हारे (अपवित्र) मुंह से बाहर गिरें, और तुम जंगली भेड़िये सदैव उन पवित्र शरीरों के पास आओ और उनके मिट्टी में मिलाओ!

अगर आज (हम पर विजय) को अपने लिये ग़नीमत समझता है, अतिशीघ्र उसके अपनी हानि और नुक़सान पाएगा, उस दिन अपने कुकर्मों के अतिरिक्त कुछ और नहीं पाएगा। और कदापि परवरदिगार अपने बंदों पर अत्याचार नहीं करेगा। मैं केवल ईश्वर से शिकायत करती हूँ और केवल उस पर विश्वास करती हूँ।

हे यज़ीद! जितनी भी मक्कारियां है उनका उपयोग कर ले, और अपनी सारी कोशिश कर ले और जितना प्रयत्न कर सकता है कर ले, लेकिन ईश्वर की सौगंध (इन सारी कोशिशों के बाद भी) हमारी यादों को (दिलों से) न मिटा सकेगा और वही (ईश्वरीय कथन) के (चिराग़ को) बुझा न सकेगा, और हमारे सम्मान और इज़्ज़ात को ठेस न पहुँचा सकेगा। इस घिनौने कार्य का धब्बा, तेरे दामन से कभी न मिट सकेगा। तेरी राय क्षीण और तेरी सत्ता का ज़माना कम है, और तेरी एकता का अंत अनेकता होगा जिस दिन आवाज़ देने वाला आवाज़ लगाएगाः “अत्याचारियों पर ईश्वर की लानत हो”

प्रशंसा और तारीफ़ विशेष है उस ईश्वर के लिये जो संसारों का परवरदिगार है। वही जिसने हमरे आरम्भ को सौभाग्य और मग़फ़िरत और अंत को शहादत और रहमत बनाया। ईश्वर से मैं उन शहीदों के लिये पूर्ण इन्आम और, इन्आमों पर अधिक चाहती हूँ (और उससे चाहती हूँ कि) हमको उनका अच्छा उत्तराधिकारी बनाए, वह दयालू और मोहब्बत करने वाला है, और ईश्वर हमारे लिये काफ़ी है और वह हमारा बेहतरीन समर्थक है। (7)

हज़रत ज़ैनब (स) का यह ख़ुत्बा इस्लामी इतिहास का सबसे बेहतरीन और मुह तोड़ ख़ुत्बा है, ऐसा लगता है कि यह सारा ख़ुत्बा इमाम अली (अ) की पवित्र आत्मा और उनकी वीरता की बूंदों से भीगकर उनकी महान बेटी के ज़बान से जारी हुआ है, कि सुनने वालों ने कहा कि ऐसा लगता है कि अली बोल रहे हैं।
शारांश

हज़रत ज़ैनब (स) ने अपने इस ख़ुत्बे में बहुत सी बातें कहीं है जिनको इस संक्षिप्त से लेख में बयान करना संभव नहीं है और न ही हम इस स्थान पर हैं कि इन सारी बातों को बयान कर सके, लेकिन संक्षेप में इस ख़ुत्बे के सारांश को बयान किया जाए तो कुछ इस प्रकार होगा

1.    इस्लामी इतिहास की इस वीर महिला ने सबसे पहले यज़ीद के अहंकार को चकनाचूर किया और क़ुरआन की तिलावत करके उसको बता दिया कि उसका स्थान ईश्वर के नज़दीन क्या है और बता दिया कि हे यज़ीदः तू हुकूमत दौलन, महल आदि को अपने लिये बड़ा न समझ तो उन लोगों में से है जिसे ईश्वर ने मोहलत दी है ताकि वह अपने पापों का बोझ बढ़ाते रहें और उसके बाद वह उन्हें नर्क के हलावे कर दे।

2.    उसके बाद आपने यज़ीद के पूर्वजों के साथ मक्के की विजय के समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) के व्यवहार के बारे में बयान किया है और बताया है कि जिस नबी ने उसके पूर्वजों को क्षमा कर के स्वतंत्र कर दिया था उसकी के बेटे ने पैग़म्बर (स) की औलाद की हत्या की उस परिवार की महिलाओं को एक शहर से दूसरे शहर फिराया और इस प्रकार आपने यज़ीद के माथे पर अपमान की मोहर लगा दी।

3.    उसके बाद आप यज़ीद के कुफ़्र भरे शब्दों के बारे में बयान करती है और बताती है कि यज़ीद का इस्लाम या मुसलमानों से कोई लेना देना नहीं है, और आपने बता दिया की यज़ीद भी बहुत जल्द अपने पूर्वजों की भाति नर्क पहुंच जाएगा।
4.    फिर आपने शहीदों विशेष कर पैगम़्बर (स) के ख़ानदान के शहीदों के महान स्थान के बारे में बयान किया है और बताया है कि इनकी शहादत इस ख़ानदान के लिये सम्मान की बात है।

5.    उसके बाद आप यज़ीद के सामने ईश्वर के न्याय की तरफ़ इशारा करती हैं और कहती है कि सोंच उस समय क्या होगा कि जब न्याय करने वाला ईश्वर होगा तेरा विरोध अल्लाह का रसूल (स) होगा औऱ गवाह अल्लाह के फ़रिश्ते होंगे।

6.    उसके बाद आपने यज़ीद का अदिर्तीय अपमान किया और कहाः हे यज़ीद अगर ज़माने ने मुझ पर अत्याचार किया और मुझे बंदी बनाकर देते सामने पेश कर दिया तो तू यह न समझ कि मैंने तुझे सम्मान दे दिया, मैं तो तुझे बात करने के लायक़ भी नहीं समझती हूँ, और अगर इस समय बोल रही हूँ तो यह केवल मजबूरी है और बस।

7.    सबसे अंत में हज़रत ज़ैनब (स) ने पैगम़्बर (स) के ख़ानदान पर ईश्वर की बेशुमान अनुकम्पाओं पर उसका धन्यवाद और प्रशंसा की है और फ़रमाया है उस ईश्वर ने हमारा आरम्भ सौभाग्य और अंत शहादत के सम्मान पर किया है।

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(1)    इस शेर का दूसरा मिसरा पैग़म्बरे इस्लाम से बहुत बड़े शत्रु अब्दुल्लाह बिन ज़बअरी का है जिसने इस शेक को ओहद की जंग में पैगम़्बर के साथियों की शाहादत के बार कहा था और आशा की थी कि काश बद्र के युद्ध में हमारे मारे जाने वाले लोग होते और देखते कि किस प्रकार ख़ज़रज (मदीना का एक मुसलमान) क़बीले वाले रोते हैं, यज़ीद ने इस शेर को मिलाया और बाक़ी शेर स्वंय कहे हैं।
(2)    ख़ुनदफ़ क़ुरैश और यज़ीद के सबसे बड़ा पूर्वज था (तारीख़े तबरी, जिल्द 1, पेज 24-25)
(3)    सूरा रूम आयत 10
(4)    सूरा आले इमरान आयत 178
(5)    आपने मक्के की विजय की तरफ़ ईशारा किया है कि जब पैगम़्बर ने अबू सुफ़ियान, मोआविया और क़ुरैश के दूसरे सरदारों को क्षमा कर दिया और फ़रमाया «إذْهَبُوا فَأَنتُمُ الطُّلَقاءُ»؛ जाओ तुम स्वतंत्र हो (बिहारुल अनवार जिल्द 21, पेज 106, तारीख़े तबरी, जिल्द 2, पेज 337)
(6)    सूरा आले इमरान आयत 169

(7)    मक़तलुल हुसैन मक़रम, पेज 357-359, बिहारुल अनवार जिल्द 45, पेज 132-135,


मक्के से कर्बला तक इमाम हुसैन (अ) की हिजरत

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इमाम हुसैन (अ) की हिजरत:

वलीद ने इमाम हुसैन (अ) को संदेसा भेजा कि वह दरबार में आयें उनके लिए यज़ीद का एक ज़रूरी पैग़ाम है। इमाम हुसैन (अ) उस समय अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर के साथ मस्जिद-ए-नबवी में बेठे थे।

जब यह सन्देश आया तो इमाम से इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय इस प्रकार का पैग़ाम आने का मतलब क्या हो सकता है? इमाम हुसैन (अ) ने कहा कि लगता है कि मुआविया कि मौत हो गई है और शायद यज़ीद की बैयत के लिए वलीद ने हमें बुलाया है। इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय वलीद के दरबार में जाना आपके लिए ख़तरनाक हो सकता है। इमाम ने कहा कि में जाऊँगा तो ज़रूर लेकिन अपनी सुरक्षा का प्रबंध करके वलीद से मिलूँगा। खुद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रातों रात मक्के चले गए।

इमाम अपने घर आये और अपने साथ घर के जवानों को लेकर वलीद के दरबार में पहुँच गए। लेकिन अपने साथ आये बनी हाशिम के(जोशीले और इमाम पर हर वक़्त मर मिटने के लिए तैयार रहने वाले) जवानों से कहा कि वे लोग बाहर ही ठहरे और अगर इमाम की आवाज़ बुलंद हो तो अन्दर आ जाएँ।

इमाम दरबार में गए तो उस समय वलीद के साथ मर-वान भी बैठा था जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार वालों का पुराना दुश्मन था। जब इमाम हुसैन (अ) आये तो वलीद ने मुआविया की मौत कि ख़बर देने के बाद यज़ीद की बैयत के लिए कहा। इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीद की बैयत करने से साफ़ इनकार कर दिया और वापस जाने लगे तो पास बैठे हुए मर-वान ने कहा कि अगर तूने इस वक़्त हुसैन को जाने दिया तो फिर ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा यही अच्छा होगा कि इनको गिरफ़्तार करके बैयत ले ले या फिर क़तल कर के इनका सर यज़ीद के पास भेज दे। यह सुनकर इमाम हुसैन (अ) को ग़ुस्सा आ गया और वह चीख़ कर बोले “भला तेरी या वलीद कि यह मजाल कि मुझे क़त्ल कर सकें?” इमाम हुसैन (अ) की आवाज़ बुलंद होते ही उनके छोटे भाई हज़रत अब्बास के नेतृत्व मैं बनी हाशिम के जवान तलवारें उठाये दरबार में दाखिल हो गए लेकिन इमाम ने इन नौजवानों के जज़्बात पर काबू पाया और घर वापस आ कर मदीना छोड़ने के बारे मैं मशविरा करने लगे।

बनी हाशिम के मोहल्ले मैं इस खबर से शोक का माहौल छा गया। इमाम हुसैन (अ) अपने खानदान के लोगों को साथ लेकर मदीने का पवित्र नगर छोड़ कर मक्का स्थित पवित्र काबे की और प्रस्थान कर गए जिसको अल्लाह ने इतना पाक करार दिया है कि वहां किसी जानवर का खून बहाने कि भी इजाज़त नहीं है।

मक्का पहुँचने के बाद लगभग साढ़े चार महीने इमाम अपने परिवार सहित पवित्र काबा के निकट रहे लेकिन हज का ज़माना आते ही इमाम को सूचना मिली कि यज़ीद ने हाजियों के भेस में एक दल भेजा है जो इमाम को हज के दौरान क़त्ल कर देगा। वैसे तो हज के दौरान हथियार रखना हराम है और एक चींटी भी मर जाए तो इंसान पर कफ्फ़ारा(प्रायश्चित) अनिवार्य हो जाता है लेकिन यज़ीद के लिए इस्लामी उसूल या काएदे कानून क्या मायने रखते थे?

इमाम ने हज के दौरान खून खराबे को टालने के लिए हज से केवल एक दिन पहले मक्का को छोड़ने का फैसला कर लिया।

कर्बला में धर्म और अधर्म का टकराव:

इमाम हुसैन (अ) ने मक्का छोड़ने से पहले अपने चचेरे भाई हज़रत मुस्लिम को इराक के कूफ़ा नगर में भेज दिया था ताकि वह कूफे के असली हालात का पता लगाएँ। कूफा जो कि किसी समय में हज़रत अली कि राजधानी था, वहां भी यज़ीद के शासन के खिलाफ क्रांति की चिंगारियां फूटने लगी थीं। कूफ़े से लगातार आग्रह पत्र इमाम हुसैन (अ) के नाम आ रहे थे कि वह यज़ीद के खिलाफ चल रहे अभीयान का नेतृत्व करें।
कूफ़े मैं इमाम हुसैन (अ) के भाई का बड़ा भव्य स्वागत हुआ और लगभग एक लाख लोगों ने इमाम हुसैन (अ) के प्रति अपनी वफादारी कि शपथ ली यह खबर सुन कर यज़ीद ग़ुस्से से पागल हो गया और कूफ़े के गवर्नर नोअमान बिन बशीर के स्थान पर यज़ीद ने कूफ़े में उबैद उल्लाह इब्ने ज़ियाद नामक सरदार को गवर्नर बना कर भेजा। इब्ने ज़ियाद हज़रत अली के परिवार का पुश्तैनी दुश्मन था। उसके कूफ़े में पहुँचते ही आतंक फ़ैल गया। कूफ़े के लोग यज़ीद की ताकत और सैन्य बल के आगे सारी वफ़ादारी भूल गए। इब्ने ज़ियाद ने इमाम हुसैन (अ) से वफ़ादारी व्यक्त करने वाले ओगों को चुन चुन कर मार डाला या गिरफ्तार करके सख्त यातनाएं दिन। उसने हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को बेदर्दी से क़त्ल करके उनकी लाश के पाँव में रस्सी बाँध कर कूफ़े की गली कूचों में घसीटे जाने का आदेश भी दिया। यही नहीं हज़रत मुस्लिम के साथ में गए हुए दो मासूम बच्चों, आठ साल के मोहम्मद और छे साल के इब्राहीम की भी निर्मम रूप से हत्या कर दी गई। बच्चो को शहीद करने की यह पहली आतंकवादी घटना थी।

इमाम हुसैन (अ) का क़ाफ़िला लगातार आगे बढ़ता रहा और रास्ते में ही उन्हें हज़रत मुस्लिम और उनके बच्चो कि शहादत की ख़बर मिली। उधर यज़ीद की सेनाएं भी लगातार इमाम हुसैन (अ) के उस कारवें क़ा पीछा कर रहीं थीं जिसमें लगभग साठ-सत्तर पुरुष, कुछ बच्चे और चंद औरतें शामिल थीं।

ज़ुहसम नाम के एक स्थान पर इमाम हुसैन (अ) क़ा सामना यज़ीद की फ़ौज के पहले दस्ते से हुआ। लगभग एक हज़ार फ़ौजियों के इस दस्ते क़ा सेनापति हुर्र बिन रियाही नाम क़ा अधिकारी कर रहा था। जब हुर्र की सैनिक टुकड़ी इमाम के सामने आई तो रेगिस्तान में भटकने के कारण सैनिकों क़ा प्यास के मारे बुरा हाल था। इमाम हुसैन (अ) ने इस बात क़ा ख़्याल किए बग़ैर कि यह दुश्मन के सिपाही हैं इस प्यासे दस्ते को पानी पिलाया और मानवता के नए कीर्तिमान क़ायम किये। अगर इमाम हुसैन (अ) हुर्र के सिपाहियों को पानी न पिलाते तो इस सैनिक टुकड़ी के सभी लोग प्यास से मर सकते थे और इमाम हुसैन (अ) के दुश्मनों में कमी हो जाती, लेकिन इमाम हुसैन (अ) उस पैग़म्बर के नवासे थे जो अपने दुश्मनों की तबियत खराब होने पर उनका हाल चाल पूछने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे।

लगभग 22 दिन तक रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद इमाम हुसैन (अ) क़ा काफ़िला (2 अक्तूबर 680 ई० या 2 मुहर्रम 61 हिजरी) इराक़ के उस स्थान पर पहुँचा, जिसको क़र्बला कहा जाता है। हुर्र की सैनिक टुकड़ी भी इमाम के पीछे पीछे कर्बला में आ चुकी थी। इमाम के यहाँ पड़ाव डालते ही यज़ीद की फौजें हज़ारों कि संख्या में पहुँचने लगीं। यज़ीदी सेनाओं ने सब से पहले फ़ुरात नदी(अलक़मा नहर) के किनारे से इमाम को अपने शिविर हटाने को बाध्य किया और इस तरह अपने नापाक इरादों क़ा आभास दे दिया।

पांच दिन बाद यानी सात मुहर्रम को नदी के अहातों(किनारों) पर पहरा लगा दिया गया और इमाम हुसैन (अ) के परिवार जनों और साथियों के नदी से पानी लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। रेगिस्तान की झुलसा देने वाली गर्मी में पानी बंद होने से इमाम हुसैन (अ) के बच्चे प्यास से तड़पने लगे। दो दिन बाद अचानक यज़ीदी सेनाओं ने इमाम के क़ाफिले पर हमला कर दिया। इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीदी सेना से एक रात की मोहलत मांगी ताकि वह अपने मालिक की इबादत कर सकें। यज़ीदी सेना राज़ी हो गई क्योंकि उसे मालूम था कि यहाँ से अब इमाम और उनके साथी कहीं नहीं जा सकते और एक दिन की और प्यास से उनकी शारीरिक और मानसिक दशा और भी कमज़ोर हो जायेगी।

रात भर इमाम, उनके परिवार-जन और उनके साथी अल्लाह कि इबादत करते रहे। इसी बीच इमाम ने तमाम रिश्तेदारों और साथियों को एक शिविर में इकठ्ठा होने के लिए कहा और इस शिविर में अँधेरा करने के बाद सब से कहा कि: “तमाम तारीफ़ें खुदा के लिए हैं। मैं दुनिया में किसी के साथियों को इतना जाँबाज़ वफादार नहीं समझता जितना कि मेरे साथी हैं और न दुनिया में किसी को ऐसे रिश्तेदार मिले जैसे नेक और वफ़ादार मेरे रिश्तेदार हैं। खुदा तुम्हें अज्र-ए-अज़ीम(अच्छा फल) देगा। आगाह हो जाओ कि कल दुश्मन जंग ज़रूर करेगा। मैं तुम्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ कि तुम्हारा दिल जहाँ चाहे चले जाओ, मैं हरगिज़ तुम्हें नहीं रोकूंगा। शामी (यजीदी सेना) केवल मेरे खून की प्यासी है। अगर वह मुझे पा लेंगे तो तुम्हें को तलाश नहीं करेंगे”। इसके बाद इमाम ने सारे चिराग़ भुझाने को कहा और बोले इस अँधेरे मैं जिसका दिल जहाँ चाहे चला जाए। तुम लोगों ने मेरे प्रति वफ़ादार रहने कि जो क़सम खाई थी वह भी मैंने तुम पर से उठा ली है।” इस घटना पर टिप्पड़ी करते हुए मुंशी प्रेम चंद ने लिखा है कि अगर कोई सेनापति आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर कि राह लेते हुए नज़र आयें। मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ। ज़ुहैन इब्ने क़ेन जैसा भूढ़ा सहाबी कहता है कि “ऐ इमाम अगर मुझको इसका यकीन हो जाए कि मै आपकी तरफ़दारी करने की वजह से ज़िन्दा जलाया जाऊँगा, और फिर ज़िन्दा करके जलाया जाऊं तो यह काम अगर 100 बार भी करना पड़े तो भी में आपसे अलग नहीं हो सकता।

रिश्तेदार तो पहले ही कह चुके थे कि “हम आप को इस लिए छोड़ दें की आपके बाद जिंदा रहे? हरगिज़ नहीं, खुदा हम को ऐसा बुरा दिन दिखाना नसीब न करे”।

फिर इमाम ने अपने चाचा हज़रत अक़ील की औलाद से यह आग्रह किया कि वह वापस चले जाएँ क्योंकि उनके लिए हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील का ग़म अभी ताज़ा है और इस दुखी परिवार पर वह और ज़्यादा ग़म नहीं डालना चाहते लेकिन औलादें हज़रत अक़ील ने कह दिया कि वह अपनी जानें कुर्बान करके ही दम लेंगे।

हालांकि सब को पता था कि यज़ीद की सेनाएं हज़ारों की तादाद में हैं और 70 सिपाहियों(हज़रत हुर्र और उनके बेटे के शामिल होने के बाद यह तादाद बाद में 72 हो गई) की यह मामूली सी टुकड़ी शहादत के आलावा कुछ हासिल नहीं कर सकतीं लेकिन इमाम को छोड़ने पर कोई राज़ी न हुआ। यह लोग दुनिया को जिहाद का असली मतलब बताना चाहते थे ताकि क़यामत तक कोई यह न कह सके कि जिहाद किसी का बेवजह खून बहाने का नाम नहीं है या किसी देश पर चढाई करने का नाम नहीं हैं।

दूसरे दिन मुहर्रम की दसवीं तारीख़ थी। हुसैनी सिपाही रात भर की इबादत के बाद सुबह के इन्तिज़ार में थे कि यज़ीद की सेना से दो सितारे उभरे और लश्करे हुसैन की रौशनी में समां गए। यह हुर्र इब्ने रियाही थे जो अपने बेटे के साथ इमाम की पनाह में आये थे। जिस हुर्र को इमाम ने रास्ते में पानी पिलाया था आज वही हुर्र उस घडी में इमाम के लश्कर में शामिल होने आया था जबकि इमाम हुसैन (अ) के छोटे छोटे बच्चे पानी की बूँद बूँद को तरस रहे थे। हुर्र को मालूम था कि इमाम हुसैन (अ) की 72 सिपाहियों की एक छोटी सी टुकड़ी यज़ीद की शक्तिशाली सेना(जिसकी संख्या विभ्न्न्न इतिहासकारों ने तीस हज़ार से एक लाख तक बताई है) से जीत नहीं सकती थी, फिर भी दिल की आवाज़ पर हुर्र उस दल में शामिल हो कर हुर्र से हज़रते हुर्र बन गए। मौत और ज़िन्दगी की इस कड़ी मंजिल में बड़ों बड़ों के क़दम लड़खड़ा जाते हैं और आम आदमी जिंदा रहने का बहाना ढूँढता है मगर मौत को अपनी मर्ज़ी से गले लगाने वाले हुर्र जैसे लोग मरते नहीं शहीद होते हैं।

हज़रत हुर्र के आने के बाद यज़ीदी लश्कर से तीरों की बारिश शुरू हो गई। पहले इमाम हुसैन (अ) के मित्रों और दोस्तों ने रणभूमि में अपनी बहादुरी और वीरता के जौहर दिखाये। इमाम के इन चाहने वालों में नवयुवक भी थे और बूढ़े भी, पैसे वाले रईस भी थे, ग़ुलाम और सेवक भी। अफ्रीका के काले रंग वाले जानिसार भी थे तो एक से एक खूबसूरत सुर्ख-ओ-सफ़ेद रंग वाले गबरू जवान भी। इनमें उम्र का फ़र्क़ था, रंग-ओ-नस्ल का फ़र्क़ था सामाजिक और आर्थिक भिन्नता थी मगर उनके दिलों में इमाम हुसैन (अ) की मोहब्बत, उन पर जान लुटा देने का हौसला और इस्लाम को बचने के लिए अपने को कुर्बान कर देने का जज़्बा एक जैसा था।

जब सारे साथी और मित्र अपनी कुर्बानी दे चुके तो इमाम हुसैन (अ) के रिश्तेदारों ने अपने इस्लाम को बचाने वाले के लिए अपने प्राण निछावर करना शुरू कर दिए। कभी उनकी बहनों और माँओ ने तलवारें सजा कर मैदान में भेजा। कभी उनके भतीजे रणभूमि में अपने चाचा पर मर मिटने के लिए उतरे तो कभी भाई ने नदी के किनारे अपने बाजू कटवाए और कभी उनके 18 साल के कड़ियल जवान अली अकबर ने अपनी कुर्बानी पेश की। आखिर में हुसैन के हाथों पर उनके छे महीने के बच्चे अली असग़र ने गले पर तीर खाया और सब से आखिर में अल्लाह के सब से प्यारे बन्दे के प्यारे नवासे ने कर्बला की जलती हुई धरती पर तीन दिन की प्यास में जालिमों के खंजर तले खुदा के लिए सजदा करके अपनी कुर्बानी पेश की। यही नहीं तथाकथित मुसलामानों ने अपने ही पैग़म्बर के नवासे की लाश पर घोड़े दौड़ा कर अपने बदले की आग बुझाई।

इमाम हुसैन (अ) के साथ शहीद होने वाले कुछ ख़ास रिश्तेदार और साथी:
अबुल फ़ज़लिल अब्बास: कर्बला में इमाम हुसैन (अ)  की छोटी सी सेना का नेतृत्व हज़रत अब्बास के हाथों मैं था. वह इमाम हुसैन (अ) के छोटे भाई थे. इमाम हुसैन (अ) की माँ हज़रत फ़ातिमा (स) के निधन के बाद हज़रत अली (अ) ने अपने भाई हज़रत अक़ील से कहा की में किसी ऐसे खानदान की लड़की से शादी करना चाहता हूँ जो अरब के बड़े बहादुरों में शुमार होता हो, जिससे की बहादुर और जंग-आज़मा(युद्ध में निपुण) औलाद पैदा हो. हज़रत अक़ील ने कहा की उम-उल-बनीन-ए-कलाबिया से शादी कीजिए. उनके बाप दादा से ज़्यादा कोई मशहूर सारे अरब में नहीं है. हज़रत अली (अ) ने इसी तथ्य की बुनियाद पर जनाबे उम-उल-बनीन से शादी की और उनसे चार बेटे पैदा हुए. हज़रत अब्बास उनमें सबसे बड़े थे. वह इमाम हुसैन (अ) को बेहद चाहते थे और इमाम हुसैन (अ) को हज़रत अब्बास से बेहद मोहब्बत थी. कर्बला की जंग में हज़रत अब्बास के हाथों में ही इस्लामी सेना का अलम(ध्वज) था. इसी लिए उन्हें अलमदार-ए-हुसैनी कहा जाता है. उनकी बहादुरी सारे अरब में मशहूर थी. कर्बला की जंग में हालांकि वह प्यासे थे लेकिन एक मौक़ा ऐसा आया की इमाम हुसैन (अ) की सेना के चार सिपाहियों का मैदान में यज़ीदी सेना ने चारों तरफ से घेर लिया तो उनको बचाने के लिए हज़रत अब्बास मैदान में गए और सारे लश्कर को मार भगाया और चारों को बाहर निकाला. इतने बड़े लश्कर से टकराने के बाद भी हज़रत अब्बास के बदन पर एक भी ज़ख्म नहीं लगा. उनकी बहादुरी का यह आलम था की जब इमाम हुसैन (अ) के सारे सिपाही शहीद हो गए तो खुद हज़रत अब्बास ने जिहाद करने के लिए मैदान में जाने की इजाज़त माँगी, इस पर इमाम हुसैन (अ) ने कहा कि अगर मैदान में जाना ही है तो प्यासे बच्चों के लिए पानी का इन्तिज़ाम करो. हज़रत अब्बास इमाम हुसैन (अ) की सब से छोटी बेटी सकीना जो 4 साल की थीं, को अपने बच्चों से भी ज़्यादा चाहते थे और जनाबे सकीना का प्यास के मारे बुरा हाल था. ऐसे में हज़रत अब्बास ने एक हाथ में अलम लिया और दूसरे हाथ में मश्क़ ली और दुश्मन की फौज़ पर इस तरह हमला नहीं किया कि लड़ाई के लिए बढ़ रहे हों बल्कि इस तरह आगे बढे जैसे की नदी की तरफ जाने के लिए रास्ता बना रहे हों. हज़रत अब्बास से शाम और कूफ़ा की सेनायें इस तरह डर कर भागीं जैसे की शेर को देख कर भेड़ बकरियां भागती हैं. हज़रत अब्बास इत्मिनान से नदी पर पहुँचे, मश्क़ में पानी भरा और जब नदी से वापस लौटने लगे तो भागी हुई फ़ौजें फिर से जमा हों गईं और सब ने हज़रत अब्बास को घेर लिया. हज़रत अब्बास हर हाल में पानी से भरी मश्क़ इमाम के शिविर तक पहुँचाना चाहते थे. वह फ़ौजों को खदेड़ते हुए आगे बढ़ते रहे तभी पीछे से एक ज़ालिम ने हमला करके उनका एक हाथ काट दिया. अभी वह कुछ क़दम आगे बढे ही थे कि पीछे से वार करके उनका दूसरा हाथ भी काट दिया गया. हज़रत अब्बास ने मश्क़ अपने दांतों में दबा ली. इसी बीच एक ज़ालिम ने मश्क़ पर तीर मार कर सारा पानी ज़मीन पर बहा दिया और इस तरह इमाम के प्यासे बच्चों तक पानी पहुँचने की जो आखिरी उम्मीद थी वह भी ख़त्म हों गई. एक ज़ालिम ने हज़रत अब्बास के सर पर गुर्ज़(गदा) मारकर उन्हें शहीद कर दिया. हज़रत अब्बास को तभी से सक्का-ए-सकीना(सकीना के लिए पानी का प्रबंध करने वाले) के नाम से भी याद किया जाता है. हज़रत अब्बास बेइंतिहा खूबसूरत थे, इसलिए उनको कमर-ए-बनी हाशिम (हाशिमी कबीले का चाँद) भी कहा जाता है. सारी दुनिया में मुहर्रम के दौरान जो जुलूस उठते हैं, वह हज़रत अब्बास की ही निशानी हैं.

क़ासिम बिन हसन: हज़रत क़ासिम इमाम हुसैन (अ) के बड़े भाई इमाम हसन के बेटे थे. कर्बला के युद्ध के समय उनकी उम्र लगभग तेरह साल थी. इतनी कम उम्र में भी हज़रत क़ासिम ने इतनी हिम्मत और बहादुरी से लड़ाई की कि यज़ीदी फ़ौज के छक्के छूट गए. क़ासिम की बहादुरी देख कर उम्रो बिन साअद जैसे बड़े पहलवान को हज़रत क़ासिम जैसे कम उम्र सिपाही के सामने आना पड़ा और इस ने हज़रत क़ासिम के सर पर तलवार मार कर शहीद कर दिया. क़ासिम की शहादत का इमाम को इतना दुःख हुआ कि इमाम खुद ही तलवार लेकर अपने भतीजे के क़ातिल कि तरफ झपटे, उधर से दुश्मन कि फ़ौज वालो ने क़ातिल को बचने के लिए घोड़े दौडाए, इस कशमकश में हज़रत कासिम की लाश घोड़ो से पामाल हो गई. इमाम खुद अपने भतीजे की लाश उठाकर लाये और हज़रत अली (अ) अकबर की लाश के पास क़ासिम की लाश को रख दिया.

हज़रत औन-ओ-मोहम्मद: कर्बला की जंग में आपसी रिश्तों की जो उच्च मिसालें और आदर्श नज़र आते हैं उनमें हज़रत औन बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र भी एक ऐसी मिसाल हैं जिनको रहती दुनिया तक याद किया जाता रहेगा. यह दोनों इमाम हुसैन (अ) के चचाज़ाद भाई हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के बेटे थे. हज़रत औन इमाम हुसैन (अ) की चाहीती बहन हज़रत ज़ैनब के सगे बेटे थे जबकि हज़रत मोहम्मद की माँ का नाम खूसा बिन्ते हफसा बिन सक़ीफ़ था. दोनों भाइयों की देखभाल हज़रत ज़ैनब ने इस तरह की थी की लोग इन दोनों को सगा भाई ही समझते थे. दोनों भाइयों में भी इस क़दर मोहब्बत थी की इन दोनों के नाम आज तक इतिहास की पुस्तकों में एक ही साथ लिखे जाते हैं. मजलिसों मैं औन-ओ-मोहम्मद का ज़िक्र इस प्रकार किया जाता है कि सुनने वालों को यह नाम एक ही व्यक्ति का नाम लगता है.

मदीने से जब हुसैनी क़ाफ़िला चला तो हज़रत औन-ओ-मोहम्मद साथ नहीं थे. उनके पिता हज़रत जाफ़र ने अपने दोनों नवयुवकों को इमाम हुसैन (अ) पर जान देने के लिए उस समय भेजा जब इमाम हुसैन (अ) मक्का छोड़ कर इराक की और प्रस्थान कर रहे थे. इन दोनों भाइयों ने अपने मामूं हज़रत हुसैन के मिशन को आगे बढ़ाते हुए इस्लाम के दुश्मनों से इस तरह जंग की की शाम की फ़ौज को पैर जमाए रखना मुश्किल हों गया. यह दोनों भाई आगे आने वाली नस्लों के लिए यह पैग़ाम छोड़ कर गए कि हक़ और सच्चाई की लड़ाई लड़ने वालों का चरित्र ऐसा होना चाहिए की लोग मिसालों की तरह याद करें.

अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह इमाम हुसैन (अ) के चचाज़ाद भाई हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील के बेटे थे. उनकी माँ इमाम हुसैन (अ) की सौतेली बहन रुक़य्या बिन्ते अली थीं. यानी अब्दुल्लाह इमाम हुसैन (अ) के भांजे भी थे और भतीजे भी. उनकी उम्र शहादत के वक़्त बहुत कम थी, शायद चार या पांच वर्ष के रहे होंगे. जब बेटे हज़रत अली (अ) अकबर की लाश इमाम हुसैन (अ) से नहीं उठ सकी और उन्होंने बनी हाशिम के बच्चों को मदद के लिए पुकारा तो अब्दुल्लाह भी ख़ेमें(शिविर) से बाहर निकल आये. इसी समय उमरो बिन सबीह सद्दाई ने अब्दुल्लाह की तरफ़ तीर चलाया जो माथे की तरफ़ आता देख कर नन्हें बच्चे ने अपने माथे पर हाथ रखा तो तीर हाथ को छेद कर माथे में लग गया. उसके बाद ज़ालिम ने दूसरा तीर मारा जो अब्दुल्लाह के सीने पर लगा और बच्चे ने मौक़े पर ही दम तौड़ दिया.

मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह अब्दुल्लाह के भाई थे लेकिन दोनों की माताएँ अलग अलग थीं. जैसे ही नन्हे से अब्दुल्लाह ने दम तोड़ा, हज़रत अक़ील के बेटों और पोतों ने एक साथ हमला कर दिया उनके इस जोश और ग़ुस्से को देख कर इमाम हुसैन (अ) ने आवाज़ दी “हाँ! मेरे चाचा के बेटों मौत के अभियान पर विजय प्राप्त करो”. मोहम्मद जवाँ मर्दी से लड़ते हुए अबू मरहम नामक क़ातिल के हाथों शहीद हुए.

जाफ़र बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बात जाफ़र मैदान में उतरे. मैदाने जंग में कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद यह भी अल्लाह की राह में शहीद हो गए. हज़रत जाफ़र को इब्ने उर्वाह ने शहीद किया.

अब्दुल रहमान बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बाद अब्दुल रहमान बिन अक़ील ने मैदान-ए-जिहाद में अपने जोश और ईमानी जज़्बे का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों पर धावा बोल दिया. इन को उस्मान बिन खालिद और बशर बिन खोत ने मिल कर घेर लिया और यह बहादुर शहीद हुए.

मोहम्मद बिन अबी सईद बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की दिल हिला देने वाली शहादत के बाद यह भी लश्करे यज़ीद पर टूट पड़े और लक़ीत बिन यासिर नामक कातिल ने मोहम्मद के सर पर तीर मार कर शहीद किया।



अबू बक़र बिन हसन: खानदान-ए-बनी हाशिम के जिन नौजवानों ने अपने चाचा पर अपनी जान कुर्बान की, उन में अबू बक़र बिन हसन का नाम भी सुनहरे शब्दों में लिखा है। इन को अब्दुल्लाह इब्ने अक़बा ने तीर मार कर शहीद किया।

मोहम्मद बिन अली: यह इमाम हुसैन (अ) के भाई थे, इनकी माँ का नाम इमामाह था। कहा जाता है की इमाम हुसैन (अ) की माँ हज़रत फ़ातिमा ने अपने निधन के समय इच्छा व्यक्त की थी की हज़रत अली इमामाह इब्ने अबी आस से शादी करें। मोहम्मद ने अपने भाई इमाम हुसैन (अ) के मकसद को बचाने के लिए भरपूर जंग की और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारा। बाद में बनी अबान बिन दारम नाम के एक व्यक्ति ने तीर मार कर शहीद कर दिया। इन्हें मोहम्मद उल असग़र(छोटे मोहम्मद) भी कहा जाता है।

अब्दुल्लाह बिन अली: अब्दुल्लाह हज़रत अली और जनाबे उम उल बनीन के बेटे थे और यह हज़रत अब्बास से छोटे थे। जनाबे उम उल बनीन के क़बीले, क़बालिया से ताल्लुक रखने वाला यज़ीद का एक कमांडर भी था जिसका नाम शिम्र था। उस ने क़बीले के नाम पर इब्ने ज़ियाद से जनाबे उम उल बनीन के चारों बेटों हज़रत अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह, हज़रत उस्मान और जाफ़र बिन अली के नाम अमान नामा(आश्रय पत्र) लिखवा लिया था। कर्बला पहुँचने के बाद शिम्र ने सबसे पहला काम यह किया वह इमाम हुसैन (अ) के शिविर के पास आया और आवाज़ दी की कहाँ हैं मेरी बहन के बेटे? यह सुन कर हज़रत अब्बास और उनके तीनों भाई सामने आये और पूछा की क्या बात है? इस पर शिम्र ने कहा की तुम लोग मेरी अमान(आश्रय) में हो, इस पर जनाबे उम उल बनीन के बेटों ने कहा की खुदा की लानत हो तुझ पर और तेरी अमान पर। हम को तो अमान है और पैग़म्बर के नवासे को अमान नहीं। इस तरह अली के यह चारों शेर दिल बेटे यह साबित कर रहे थे की सत्य के रास्ते में रिश्तेदारियाँ कोई मायने नहीं रखतीं और वह कर्बला में इस लिए नहीं आये हैं कि हुसैन उनके भाई हैं, बल्कि वह लोग इस लिए आये हैं कि उन्हें यकीन है कि इमाम हुसैन (अ) हक़ पर हैं। जब कर्बला का जिहाद शुरू हुआ और औलादे हज़रत अली हक़ के रास्ते में क़ुर्बान होने के लिए मैदान में उतरी तो अपने भाइयों में से हज़रत अब्बास ने सबसे पहले अब्दुल्लाह को मैदान में भेजा। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अली मैदान में गए और वीरता से लड़ते हुए हानि बिन सबीत की तलवार से शहीद हुए।

उस्मान बिन अली: यह अब्दुल्लाह बिन अली से छोटे थे। उस्मान बिन अली को हज़रत अब्बास ने अब्दुल्लाह की शहादत के बाद मैदान में भेजा। उस्मान बिन अली ने दुश्मन से जम कर लोहा लिया। आखिर में लड़ते लड़ते खुली बिन यज़ीद अस्बेही के तीर से शहीद हुए।

जाफ़र बिन अली: यह उम उल बनीन के सबसे छोटे बेटे थे। उसमान बिन अली की शहादत के बाद हज़रत अब्बास ने जाफ़र से कहा की “भाई! जाओ और मैदान में जाकर हक़ परस्तों की इस जंग में अपनी जान दो ताकि जिस तरह मैंने तुम से पहले दोनों भाइयों का ग़म बर्दाश्त किया है उसी तरह तुम्हारा ग़म भी बर्दाश्त करूँ”। इसके बाद जाफ़र मैदान में गए और अपनी वीरता की गाथा अपने खून से लिख कर हानि बिन सबीत के हाथों शहीद हुए। इमाम हुसैन (अ) की सेना के आखिरी शहीद हज़रत अब्बास थे।

अली असग़र: हज़रत अब्बास की शहादत के बाद इमाम हुसैन (अ) ने एक ऐसी कुर्बानी दी जिसकी मिसाल रहती दुनिया तक मिलना मुमकिन नहीं। इमाम अपने छेह महीने के बच्चे हज़रत अली असग़र को मैदान में लाये। हज़रत अली असग़र पानी न होने के वजह से प्यास से बेहाल थे। पानी न मिलने के कारण अली असग़र की माँ जनाबे रबाब का दूध भी खुश्क हो गया था। हज़रत अली असग़र के लिए इमाम ने दुश्माओं से पानी तलब किया तो जवाब में हुर्मलाह नाम के एक मशहूर तीर अंदाज़ ने अली असग़र के गले पर तीर मार कर इस बात को साबित कर दिया की इमाम हुसैन (अ) से टकराने वाला लश्कर अमानविये हदों से भी आगे थे। यज़ीदी सेना की राक्षसों के साथ तुलना करना राक्षसों की बेईज्ज़ती करना है क्योंकि राक्षस सेना ने जो भी कुकर्म किया हो, जितने ही ज़ुल्म क्यों न किये हों कम से कम उन्होंने छः महीने के किसी प्यासे बच्चे के गले पर तीर तो नहीं मारा होगा।

इमाम हुसैन (अ) की शहादत: हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद अल्लाह का एक पाक बंदा, पैग़म्बरे इस्लाम (स) का चहीता नवासा, हज़रत अली का शेर दिल बेटा, जनाबे फातिमा की गोद का पाला और हज़रत हसन के बाज़ू की ताक़त यानी हुसैन-ए-मज़लूम कर्बला के मैदान में तन्हा और अकेला खड़ा था।

इस आलम में भी चेहरे पर नूर और सूखे होंटों पर मुस्कराहट थी, खुश्क ज़ुबान में छाले पड़े होने के बावजूद दुआएँ थीं। थकी थकी पाक आँखों में अल्लाह का शुक्र था। 57 साल की उम्र में 71 अज़ीज़ों और साथियों की लाशें उठाने के बाद भी क़दमों का ठहराव कहता था की अल्लाह का यह बंदा कभी हार नहीं सकता। इमाम हुसैन (अ) शहादत के लिए तैयार हुए, खेमे में आये, अपनी छोटी बहनों जनाबे जैनब और जनाबे उम्मे कुलसूम को गले लगाया और कहा कि वह तो इम्तिहान की आखिरी मंज़िल पर हैं और इस मंज़िल से भी वह आसानी से गुज़र जाएँगे लेकिन अभी उनके परिवार वालों को बहुत मुश्किल मंज़िलों से गुज़रना है। उसके बाद इमाम उस खेमे में गए जहाँ उनके सब से बड़े बेटे अली इब्नुल हुसैन(जिन्हें इमाम ज़ैनुल आबिदीन कहा जाता है)थे। इमाम तेज़ बुखार में बेहोशी के आलम में लेटे थे।
इमाम ने बीमार बेटे का कन्धा हिलाया और बताया की अंतिम कुर्बानी देने के लिए वह मैदान में जा रहें हैं। इस पर इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अ) ने पूछा कि “सारे मददगार, नासिर और अज़ीज़ कहाँ गए?”। इस पर इमाम ने कहा कि सब अपनी जान लुटा चुके हैं। तब इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने कहा कि अभी मै बाक़ी हूँ, में जिहाद करूँगा। इस पर इमाम हुसैन (अ) बोले कि बीमारों को जिहाद की अनुमति नहीं है और तुम्हें भी जिहाद की कड़ी मंजिलों से गुज़ारना है मगर तुम्हारा जिहाद दूसरी तरह का है।

इमाम खैमे से रुखसत हुए और मैदान में आये। ऐसे हाल में जब की कोई मददगार और साथी नहीं था और न ही विजय प्राप्त करने की कोई उम्मीद थी फिर भी इमाम हुसैन (अ) बढ़ बढ़ कर हमले कर रहे थे। वह शेर की तरह झपट रहे थे और यज़ीदी फ़ौज के किराए के टट्टू अपनी जान बचाने की पनाह मांग रहे थे। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी की वह अकेले बढ़ कर इमाम हुसैन (अ) पर हमला करता। बड़े बड़े सूरमा दूर खड़े हो कर जान बचा कर भागने वालों का तमाशा देख रहे थे। इस हालत को देख कर यज़ीदी फ़ौज का कमांडर शिम्र चिल्लाया कि “खड़े हुए क्या देख रहे हो? इन्हें क़त्ल कर दो, खुदा करे तुम्हारी माएँ तुम्हें रोएँ, तुम्हे इसका इनाम मिलेगा”। इस के बाद सारी फ़ौज ने मिल कर चारों तरफ से हमला कर दिया। हर तरफ से तलवारों, तीरों और नैज़ों की बारिश होने लगी आखिर में सैंकड़ों ज़ख्म खाकर इमाम हुसैन (अ) घोड़े की पीठ से गिर पड़े।
इमाम जैसे ही मैदान-ए-जंग में गिरे, इमाम का क़ातिल उनका सर काटने के लिए बढ़ा। तभी खैमे से इमाम हसन का ग्यारह साल का बच्चा अब्दुल्लाह बिन हसन अपने चाचा को बचाने के लिए बढ़ा और अपने दोनों हाथ फैला दिए लेकिन कर्बला में आने वाले कातिलों के लिए बच्चों और औरतों का ख्याल करना शायद पाप था। इसलिए इस बच्चे का भी वही हश्र हुआ जो इससे पहले मैदान में आने वाले मासूमों का हुआ था। अब्दुल्लाह बिन हसन के पहले हाथ काटे गए और बाद में जब यह बच्चा इमाम हुसैन (अ) के सीने से लिपट गया तो बच्चों की जान लेने में माहिर तीर अंदाज़ हुर्मलाह ने एक बार फिर अपना ज़लील हुनर दिखाया और इस मासूम बच्चे ने इमाम हुसैन (अ) (अ) की आग़ोश में ही दम तोड़ दिया।

फिर सैंकड़ों ज़ख्मों से घायल इमाम हुसैन (अ) का सर उनके जिस्म से जुदा करने के लिए शिम्र आगे बढ़ा और इमाम हुसैन (अ) को क़त्ल करके उसने मानवता का चिराग़ गुल कर दिया। इमाम हुसैन (अ) तो शहीद हो गए लेकिन क़यामत तक यह बात अपने खून से लिख गए कि जिहाद किसी पर हमला करने का नाम नहीं है बल्कि अपनी जान दे कर इंसानियत की हिफाज़त करने का नाम है।

शहादत के बाद:

इमाम हुसैन की शहादत के बाद यज़ीद की सेनाओं ने अमानवीय, क्रूर और बेरहम आदतों के तहत इमाम हुसैन की लाश पर घोड़े दौड़ाये। इमाम हुसैन के खेमों में आग लगा दी गई। उनके परिवार को डराने और आतंकित करने के लिए छोटे छोटे बच्चों के साथ मार पीट की गई। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र घराने की औरतों को क़ैदी बनाया गया, उनका सारा सामन लूट लिया गया।

इसके बाद इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद होने वाले अज़ीज़ों और साथियों के परिवार वालों को ज़ंजीरों और रस्सियों में जकड़ कर गिरफ्तार किया गया। इस तरह इन पवित्र लोगों को अपमानित करने का सिलसिला शुरू हुआ। असल में यह उनका अपमान नहीं था, खुद यज़ीद की हार का ऐलान था।

इमाम हुसैन के परिवार को क़ैद करके पहले तो कूफ़े की गली कूचों में घुमाया गया और बाद में उन्हें कूफ़े के सरदार इब्ने ज़ियाद(इब्ने ज़ियाद यज़ीद की फ़ौज का एक सरदार था जिसे यज़ीद ने कूफ़े का गवर्नर बनाया था) के दरबार में पेश किया गया, जहाँ ख़ुशी की महफ़िलें सजाई गईं और और जीत का जश्न मनाया गया। जब इमाम हुसैन के परिवार वालों को दरबार में पेश किया गया तो इब्ने ज़ियाद ने जनाबे जैनब की तरफ इशारा करके पूछा यह औरत कौन है? तो उम्र सअद ने कहा की “यह हुसैन की बहन जैनब है”। इस पर इब्ने ज़ियाद ने कहा कि “ज़ैनब!, एक हुसैन कि ना-फ़रमानी से सारा खानदान तहस नहस हो गया। तुमने देखा किस तरह खुदा ने तुम को तुम्हारे कर्मों कि सज़ा दी”। इस पर ज़ैनब ने कहा कि “हुसैन ने जो कुछ किया खुदा और उसके हुक्म पर किया, ज़िन्दगी हुसैन के क़दमों पर कुर्बान हो रही थी तब भी तेरा सेनापति शिम्र कोशिश कर रहा था कि हुसैन तेरे शासक यज़ीद को मान्यता दे दें। अगर हुसैन यज़ीद कि बैयत कर लेते तो यह इस्लाम के दामन पर एक दाग़ होता जो किसी के मिटाए न मिटता। हुसैन ने हक़ कि खातिर मुस्कुराते हुए अपने भरे घर को क़ुर्बान कर दिया। मगर तूने और तेरे साथियों ने बनू उमय्या के दामन पर ऐसा दाग़ लगाया जिसको मुसलमान क़यामत तक धो नहीं सकते।”

उसके बाद इमाम हुसैन की बहनों, बेटियों, विधवाओं और यतीम बच्चों को सीरिया कि राजधानी दमिश्क़, यज़ीद के दरबार में ले जाया गया। कर्बला से कूफ़े और कूफ़े से दमिश्क़ के रास्ते में इमाम हुसैन कि बहन जनाबे ज़ैनब ने रास्तों के दोनों तरफ खड़े लोगों को संबोधित करते हुए अपने भाई की मज़लूमी का ज़िक्र इस अंदाज़ में किया कि सारे अरब में क्रांति कि चिंगारियां फूटने लगीं।

यज़ीद के दरबार में पहुँचने पर सैंकड़ों दरबारियों की मौजूदगी में जब हुसैनी काफ़िले को पेश किया गया तो यज़ीद ने बनी उमय्या के मान सम्मान को फिर से बहाल करने और जंग-ए-बद्र में हज़रत अली के हाथों मारे जाने वाले अपने काफ़िर पूर्वजों की प्रशंसा की और कहा की आज अगर जंग-ए-बद्र में मरने वाले होते तो देखते कि किस तरह मैंने इन्तिक़ाम लिया। इसके बाद यज़ीद ने इमाम ज़ैनुल आबिदीन से कहा कि “हुसैन कि ख्वाहिश थी कि मेरी हुकूमत खत्म कर दे लेकिन मैं जिंदा हूँ और उसका सर मेरे सामने है।” इस पर जनाबे ज़ैनब ने यज़ीद को टोकते हुए कहा कि तुझ को तो खुछ दिन बाद मौत भी आ जायेगी मगर शैतान आज तक जिंदा है। यह हमारे इम्तिहान कि घड़ियाँ थीं जो ख़तम हो चुकीं। तू जिस खुदा के नाम ले रहा है क्या उस के रसूल(पैग़म्बर) की औलाद पर इतने ज़ुल्म करने के बाद भी तू अपना मुंह उसको दिखा सकेगा”।

इधर इमाम हुसैन के परिवार वाले क़ैद मैं थे और दूसरी तरफ क्रांति की चिंगारियाँ फूट रही थी और अरब के विभिन्न शहरों मैं यज़ीद के शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही थी। इन सब बातों से परेशान हो कर यज़ीद के हरकारों ने पैंतरा बदल कर यह कहना शुरू कर दिया था की इमाम हुसैन का क़त्ल कूफ़ियों ने बिना यज़ीद की अनुमति के कर दिया। इन लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि इमाम हुसैन तो यज़ीद के पास जाकर अपने मतभेद दूर करना चाहते थे या मदीने मैं लौट कर चैन की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते थे। लेकिन सच तो यह है की इमाम हुसैन कर्बला के लिये बने थे और कर्बला की ज़मीन इमाम हुसैन के लिए बनी थी। इमाम हुसैन के पास दो ही रास्ते थे। पहला तो यह कि वह यज़ीद कि बैयत करके अपनी जान बचा लें और इस्लाम को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ता देखें। दूसरा रास्ता वही था कि इमाम हुसैन अपनी, अपने बच्चों और अपने साथियों कि जान क़ुर्बान करके इस्लाम को बचा लें। ज़ाहिर है हुसैन अपने लिए चंद दिनों कि ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी तलब कर ही नहीं सकते थे। उन्हें तो अल्लाह ने बस इस्लाम को बचाने के लिए ही भेजा था और वह इस मैं पूरी तरह कामयाब रहे।

क्रांति की आग:

कर्बला के शहीदों का लुटा काफ़िला जब दमिश्क से रिहाई पा कर मदीने वापस आया तो यहाँ क्रांति की चिंगारियाँ आग में बदल गईं और ग़ुस्से में बिफरे लोगों ने यज़ीद के गवर्नर उस्मान बिन मोहम्मद को हटा कर अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला को अपना शासक बना लिया। यज़ीद ने इस क्रांति को ख़तम करने के लिए एक बहुत बड़े ज़ालिम मुस्लिम बिन अक़बा को मदीने की ओर भेजा।
मदीना वासियों ने अक़बा की सेना का मदीने से बाहर हर्रा नामक स्थान पर मुकाबला किया। इस जंग में दस हज़ार मुसलमान क़त्ल कर दिए गए ओर सात सो ऐसे लोग भी क़त्ल किये गए जो क़ुरान के हाफ़िज़ थे(जिन लोगों को पूरा क़ुरान बिना देखे याद हो, उन्हें हाफ़िज़ कहा जाता है)। मदीने के लोग यज़ीद की सेना के सामने ठहर न सके और यज़ीदी सेनाओं ने मदीने में घुस कर ऐसे कुकर्म किये कि कभी काफ़िर भी न कर सके थे। सारा शहर लूट लिया गया। हज़ारों मुसलमान लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया, जिसके नतीजे में एक हज़ार ऐसे बच्चे पैदा हुए जिनकी माताओं के साथ बलात्कार किया गया था। मदीने के सारे शहरी इन ज़ुल्मों की वजह से फिर से यज़ीद को अपना राजा मानने लगे। इमाम ज़ैनुल आबिदीन इस हमले के दौरान मदीने के पास के एक देहात में रह रहे थे। इस मौके पर एक बार फिर इमाम हुसैन के परिवार ने एक ऐसी मिसाल पेश की कि कोई इंसान पेश नहीं कर सकता।
जब मदीने वालों ने अपना शिकंजा कसा तो उसमें मर-वान की गर्दन भी फंस गई।(मर-वान वही सरदार था जिसने मदीने मे वलीद से कहा था कि हुसैन से इसी वक़्त बैयत ले ले या उन्हें क़त्ल कर दे)। मर-वान ने इमाम ज़ैनुल-आबिदीन से पनाह मांगी और कहा कि सारा मदीना मेरे खिलाफ हो गया है, ऐसे में, मैं अपने बच्चों के लिए खतरा महसूस करता हूँ तो इमाम ने कहा की तू अपने बच्चों को मेरे गाँव भेज दे मैं उनकी हिफाज़त का ज़िम्मेदार हूँ। इस तरह इमाम ने साबित कर दिया कि बच्चे चाहे ज़ालिम ही के क्यों न हों, पनाह दिए जाने के काबिल हैं।

मदीने को बर्बाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा मक्के की तरफ़ बढ़ा। मक्के में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की हुकूमत थी। लेकिन अक़बा को वक़्त ने मोहलत नहीं दी और वह मक्का के रास्ते में ही मर गया। उस की जगह हसीन बिन नुमैर ने ली और चालीस दिन तक मक्के को घेरे रखा। उसने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को मात देने की कोशिश में काबे पर भी आग बरसाई गई। लेकिन जुबैर को गिरफ्तार नहीं कर सका। इस बीच यज़ीद के मरने की खबर आई और मक्के में हर तरफ़ जश्न का माहोल हो गया और शहर का नक्शा ही बदल गया। इब्ने जुबैर को विजय प्राप्त हुई और हसीन बिन नुमैर को भाग कर मदीने जाना पड़ा।

यज़ीद की मौत:

यज़ीद की मौत को लेकर इतिहासकारों में अलग अलग राय है। कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यज़ीद महल से शिकार खेलने निकला और फिर जंगल में शिकार का पीछा करते हुए अपने साथियों से अलग हो गया और रास्ता भटक गया और बाद में खुद ही जंगली जानवरों का शिकार बन गया। लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं 38 साल कि उम्र में क़ोलंज के दर्द(पेट में उठने वाला ऐसा दर्द जिसमें पीड़ित हाथ पैर पटकता रहता है) का शिकार हुआ और उसी ने उसकी जान ली।

जब यज़ीद को अपनी मौत का यकीन हो गया तो उस ने अपने बेटे मुआविया बिन यज़ीद को अपने पास बुलाया और हुकूमत के बारे में कुछ अंतिम इच्छाएँ बतानी चाहीं। अभी यज़ीद ने बात शुरू ही की थी कि उसके बेटे ने एक चीख मार कर कहा “खुदा मुझे उस सल्तनत से दूर रखे जिस कि बुनियाद रसूल के नवासे के खून पर रखी गई हो”। यज़ीद अपने बेटे के यह अलफ़ाज़ सुन कर बहुत तड़पा मगर मुविया बिन यज़ीद लानत भेज कर चला गया। लोगों ने उसे बहुत समझाया की तेरे इनकार से बनू उमय्या की सल्तनत का ख़ात्मा हो जाएगा मगर वह राज़ी नही हुआ। यज़ीद तीन दिन तक तेज़ दर्द में हाथ पाँव पटक पटक कर इस तरह तड़पता रहा कि अगर एक बूँद पानी भी टपकाया जाता तो वह तीर की तरह उसके हलक़ में चुभता था। यज़ीद भूखा प्यासा तड़प तड़प कर इस दुनिया से उठ गया तो बनू उमय्या के तरफ़दारों ने ज़बरदस्ती मुआविया बिन यज़ीद को गद्दी पर बिठा दिया। लेकिन वह रो कर और चीख़ कर भागा और घर में जाकर ऐसा घुसा की फिर बाहर न निकला और हुसैन हुसैन के नारे लगाता हुआ दुनिया से रुखसत हो गया।
कुछ लोगों का मानना है कि 21 साल के इस युवक को बनू उमय्या के लोगों ने ही क़त्ल कर दिया क्योंकि गद्दी छोड़ने से पहले उसने साफ़ साफ़ कह दिया था कि उस के बाप और दादा दोनों ने ही सत्ता ग़लत तरीकों से हथियाई थी और इस सत्ता के असली हक़दार हज़रत अली और उनके बेटे थे। मुआविया बिन यज़ीद की मौत के बाद मर-वान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस बीच उबैद उल्लाह बिन ज़ियाद ने इराक पर क़ब्ज़ा कर लिया और मुल्क में पूरी तरह अराजकता फ़ैल गई।

यज़ीद की मौत की खबर सुन कर मक्के का घेराव कर रहे यजीदी कमांडर हसीन बिन नुमैर ने मदीने की ओर रुख किया और इसी आलम में उसका सारा अनाज और गल्ला ख़तम हो गया। भटकते भटकते मदने के करीब एक गाँव में इमाम हुसैन के बेटे हज़रत जैनुल आबिदीन मिले तो इमाम ने भूख से बेहाल अपने इस दुश्मन की जान बचाई। इमाम ने उसे खाना और गल्ला भी दिया और पैसे भी नहीं लिए। इस बात से प्रभावित हो कर हसीन बिन नुमैर ने यज़ीद की मौत के बाद इमाम से कहा की वह खलीफ़ा बन जाएँ लेकिन इमाम ने इनकार कर दिया और यह साबित कर दिया की हज़रत अली की संतान की लड़ाई या जिहाद खिलाफत के लिए नहीं बल्कि दुनिया को यह बताने के लिए थी कि इस्लाम ज़ालिमों का मज़हब नहीं बल्कि मजलूमों का मज़हब है।

ख़ून के बदले का अभियान:

मक्के, मदीने के बाद कूफ़े में भी क्रांति की चिंगारियां भड़कने लगीं। वहाँ पहले एक दल तव्वाबीन(तौबा करने वालों) के नाम से उठा। इस दल के दिल में यह कसक थी कि इन्हीं लोगों ने इमाम हुसैन को कूफ़ा आने का न्योता दिया। लेकिन जब इमाम हुसैन कूफ़ा आये तो इन लोगों ने यज़ीद के डर और खौफ़ के आगे घुटने टेक दिए। और जिन 18 हज़ार लोगों ने इमाम हुसैन का साथ देने कि कसम खायी थी, वह या तो यज़ीद द्वारा मार दिए गए थे या जेल में डाल दिए गए थे। तव्वाबीन, खूने इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए उठे लेकिन शाम(सीरिया) की सैनिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सके।

इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने में सिर्फ़ हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी को कामयाबी मिली। जब इमाम हुसैन शहीद किए गए तो मुख्तार जेल में थे। इमाम हुसैन की शहादत के बाद हज़रत मुख़्तार को अब्दुल्लाह बिन उमर कि सिफ़ारिश से रिहाई मिली। अब्दुल्लाह बिन उमर, मुख़्तार के बहनोई थे और शुरू शुरू में यज़ीद की बैयत न करने वालों में आगे आगे थे लेकिन बाद में वह बनी उमय्या की ताक़त से दब गए।

मुख़्तार ने रिहाई मिलते ही इमाम हुसैन के क़ातिलों से बदला लेने की योजना बनाना शुरू कर दी। उन्होंने हज़रत अली के सब से क़रीबी साथी मालिके अशतर के बेटे हज़रत इब्राहीम बिन मालिके अशतर से बात की। उन्होंने इस अभियान में मुख्तार का हर तरह से साथ देने का वायदा किया। उन दिनों कूफ़े पर ज़ुबैर का क़ब्ज़ा था और इन्तिक़ामे खूने हुसैन का काम शुरू करने के लिए यह ज़रूरी था कि कूफ़े को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया जाए। कूफ़े को क्रांति का केंद्र बनाना इस लिए भी ज़रूरी था कि इमाम हुसैन के ज़्यादातर क़ातिल कूफ़े में ही मौजूद थे और अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर सत्ता पाने के बाद इन्तिक़ाम-ए-खूने हुसैन के उस नारे को भूल चुके थे जिसके सहारे उन्होंने सत्ता हासिल की थी। मुख्तार और इब्राहीम ने अपना अभियान कूफ़े से शुरू किया और इब्ने ज़ुबैर के कूफ़ा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन मुतीअ को कूफ़ा छोड़ कर भागना पड़ा।

इस के बाद हज़रत मुख़्तार और हज़रत इब्राहीम की फ़ौज ने इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को क़त्ल करने वाले क़ातिलों को चुन चुन कर मार डाला। इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने के लिए जो जो लोग भी उठे उन में हज़रत मुख्तार और इब्राहीम बिन मालिके अशतर का अभियान ही अपने रास्ते से नहीं हटा। इस अभियान की ख़ास बात यह थी कि इन लोगों ने सिर्फ़ क़ातिलों से बदला लिया, किसी बेगुनाह का खून नहीं बहाया।

उधर मदीने में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार वालों से नाराज़ हो चुके थे। यहाँ तक कि इब्ने ज़ुबैर ने इमाम हुसैन के छोटे भाई मोहम्मद-ए-हनफ़िया और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के चचेरे भाई इब्ने अब्बास को एक घर में बंद करके ज़िन्दा जलाने की कोशिश भी कि लेकिन इसी बीच हज़रत मुख़्तार का अभियान शुरू हो गया और उन दोनों कि जान बच गई।


हज़रत मुख्तार और इब्ने ज़ुबैर की फ़ौजों में टकराव हुआ और मुख़्तार हार गए लेकिन तब तक वह क़ातिलाने इमाम हुसैन को पूरी तरह सजा दे चुके थे।





मदीने से चला काफिला पहला सफर

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इस बात का ज़िक्र मुहर्रम में हर दिन होता है की कैसे मदीने से चला काफिला कर्बला में लुट के कैसे  मदीने वापस पहुंचा ? आखिर अपने वतन मदीने को हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) के घराने को क्यू छोड़ना पड़ा ।

कर्बला की कहानी ५ सफरों की  भरी कहानी है । 

ये बात २० रजब सन ६० हिजरी की है जब मुआव्विया की मृत्यु हो गयी और यज़ीद  ने खुद को मुसलमानो  का  खलीफा घोषित कर दिया ।

यहां ये बात बताता चलूँ कि जब इस्लाम के पैग़ाम हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) लोगो तक पहुंचा रहे थे तो इसी मुआव्विया का बाप अबु सूफियान सबसे अधिक उनको परेशान किया करता था लेकिन बाद में उसने इस्लाम धर्म क़ुबूल कर लिया लेकिन मुआव्विया यमन की तरफ भाग गया और इस्लाम को क़ुबूल नहीं किया लेकिन बाद में उसने भी इस्लाम को क़ुबूल कर लिया ।

लेकिन अपने बाप की तरह हमेशा मुआव्विया भी हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) और उनके घराने का दुश्मन रहा ।जब हज़रत अली (अ.स ) खलीफा बने तो मुआव्विया ने शाम से खुद की खिलाफत का ऐलान कर दिया । मुआव्विया को कभी इस्लाम धर्म में दिलचस्पी नहीं रही बल्कि सत्ता हासिल करने के लिए इसका इस्तेमाल किया करता था ।

मुआव्विया की मृत्यु के बाद जब यज़ीद ने खुद को मुसलमानो का खलीफा घोषित किया तो उसके सामने समस्या यह आई की वो हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) के घराने के लोगों की सहमति कैसे हासिल करे ? यज़ीद ने वलीद को यह ज़िम्मेदारी सौंपी और २७ रजब को वलीद ने इमाम हुसैन और उनके घराने वालों को बुला भेजा लेकिन वहाँ पे बैयत में मामले में बहस हो गयी और इमाम हुसैन इंकार करके चले आये लेकिन आने के साथ ही अपने घराने वालों से कहा सफर की तैयारी करो ।

इमाम हुसैन (अ.स ) हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) के नवासे थे और यह कैसे संभव था कि वो यज़ीद जैसे ज़ालिम और बदकार को खलीफा मान लेते ? इमाम हुसैन ने नेकी की दावत देने और लोगों को बुराई से रोकने के लिए अपना पहला सफर मदीने से मक्का का शुरू करने का फैसला कर लिया ।

पहला सफर 

इमाम हुसैन (अ.स ) मस्जिद ए नबवी  में गयी चिराग़ को रौशन किया और हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) की क़ब्र के किनारे बैठ गए और अपने गाल क़ब्र पे रख दिया यह सोंच के की क्या जाने फिर कभी मदीने वापस आना भी हो या नहीं और कहाँ नाना आपने जिस दीन  को फैलाया था उसे उसकी सही हालत में बचाने के लिए मुझे सफर करना होगा । अल्लाह से दुआ कीजेगा की मेरा यह सफर कामयाब हो ।

उसके बाद इमाम हुसैन अपनी माँ जनाब ऐ फातिमा स अ की क़ब्र पे आये और ऐसे आये जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के पास भागते हुए आता है और बस चुप चाप बैठ गए और थोड़ी देर के बाद जब वहाँ से जाने लगे तो क़ब्र से आवाज़ आई जाओ बेटा कामयाब रहो और घबराओ मत मैं भी तुम्हारे साथ साथ रहूंगी ।

  अपने नाना हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) और माँ जनाब ऐ फातिमा से  विदा लेने के बाद इमाम अपनी बहन जनाब ऐ ज़ैनब के पास पहुंचे और अपने बहनोई अब्दुल्लाह इब्ने जाफर ऐ तैयार इब्ने अबु तालिब से इजाज़त मांगी की ज़ैनब और दोनों बच्चों ऑन मुहम्मद को सफर में साथ जाने की इजाज़त दे दें । जनाब अब्दुल्लाह ने इजाज़त दे दी ।

इधर मर्दो में हज़रत अब्बास ,जनाब ऐ क़ासिम , सब सफर पे जाने की तैयारी करने लगे यहां तक की  ६ महीने के जनाब ऐ अली असग़र का झूला भी तैयार होने लगा । यह सब बिस्तर पे लेटी  इमाम हुसैन की ८ वर्षीय बेटी सुग़रा देख रही थी और इंतज़ार कर रही थी की बाबा हुसैन आएंगे और उसे भी चलने को कहेंगे ।

इमाम हुसैन बेटी सुग़रा के पास आये और कहा बेटी जब तुम पैदा हुयी थी तो तुम्हारा नाम मैंने अम्मा के नाम पे फातिमा रखा था और मेरी माँ साबिर थी तुम भी सब्र करना और यहीं मदीने में उम्मुल बनीन और उम्मे सलमा  के साथ रहना । बीमारी में सफर तुम्हारे लिए मुश्किल होगा और हम सब जैसे ही किसी मक़ाम पे अपना ठिकाना बना पाएंगे वैसे ही तुमको भी बुला लेंगे । बाबा का कहा बेटी कैसे टाल सकती थी बस आँख में आंसू आये और उन्हें पी गयी और चुप रही लेकिन एक आस थी की चाचा अब्बास है शायद उनके कहने से उसे बाबा साथ ले जाएँ ।

हज़रत अब्बास अलमदार और जनाब ऐ अली अकबर सुग़रा से मिलने आये लेकिन सुग़रा को वही जवाब दिया जो इमाम हुसैन ने दिया था और जब हर उम्मीद टूट गयी सुग़रा की तो बोली भैया अली अकबर जब तुम्हारी शादी हो जाय और मैं तुम्हारे मदीने वापस आने पे दुनया से चली जाऊं तो अपनी बीवी के साथ मेरी क़ब्र पे ज़रूर आना ।

हज़रत  अब्बास और जनाब ऐ अली अकबर ने आंसुओं से भरी आँखों से सुग़रा को रुखसत किया ।

काफिला सुबह का सूरज निकलते ही चलने के लिए तैयार हो गया । एक तरफ उम्मे सलमा थी तो दूसरी तरफ उम्मुल बनीन और सुग़रा ने सभी को अलविदा कहा और सुग़रा ने अपने भाई जिसके साथ खेल करती थी उसे भी प्यार किया और अली असग़र माँ लैला के हवाले कर दिया ।

काफिला चल पड़ा सुग़रा सबको मुस्करा के अलविदा कह रही थी और बाबा हुसैन मुड मुड़ के बेटी को देखते जाते थे और अली अकबर तो आंसुओं को कहीं सुग़रा देख ना ले इसलिए मुड़  भी नहीं रहे थे । जब काफिला नज़रों से दूर हो गया और इमाम को सुग़रा के लिए देख सकता मुमकिन ना था बस हुसैन आंसुओं से रो  पड़े उधर अली अकबर के आंसू बने लगे और बेटी को अलविदा कहा । िस्ञ्ा आसान नहीं होता बाप के लिए बेटी को छोड़ के जाना ।

  दिन बीते महीने बीते जनाब ऐ सुग़रा उम्मुल बनीन के पास आती जाती रहती थी फिर रमज़ान भी गया  ऐ मुहर्रम आ गया । एक दिन सुग़रा को रात में प्यास लगी और उसने पानी पीना चाह की पानी में कुछ देखा और चिल्ला के उम्मे सलमा की बाँहों में चली गयी । उम्मे सलमा ने पुछा क्या हुआ बीबी तो सुग़रा ने कहा नानी पानी में मुझे अली असग़र का चेहरा दिखा अपने दोनों हाथों से मेरे पास आना चाह रहा था लेकिन सूखे लबों पे ज़बान फेर के बोला "अल अतश या उक्ति फातिमा "ऐ बहन फातिमा मैं प्यासा हूँ ।


कर्बला के बाद बनी उमय्या की हुकूमत में शियों के हालात।

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सन 60 हिजरी में मुआविया की मौत के बाद उसका बेटा यज़ीद जिसे ख़ुद मुआविया ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और लोगों से उसकी बैअत भी ली थी, इस्लामी दुनिया का शासक बन बैठा। उसने मदीना वासियों ख़ास कर कुछ बड़ी हस्तियों, विद्वानों व बुद्धिजीवियों से बैअत लेने का फ़ैसला किया जिनमें इमाम हुसैन अ.ह भी शामिल थे। इमाम अ. ने बैअत करने से इंकार कर दिया और मदीने को छोड़ कर मक्के की ओर कूच कर गए|

सन 60 हिजरी में मुआविया की मौत के बाद उसका बेटा यज़ीद जिसे ख़ुद मुआविया ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और लोगों से उसकी बैअत भी ली थी, इस्लामी दुनिया का शासक बन बैठा। उसने मदीना वासियों ख़ास कर कुछ बड़ी हस्तियों, विद्वानों व बुद्धिजीवियों से बैअत लेने का फ़ैसला किया जिनमें इमाम हुसैन अ.ह भी शामिल थे। इमाम अ. ने बैअत करने से इंकार कर दिया और मदीने को छोड़ कर मक्के की ओर कूच कर गए। कुछ महीने मक्के में रहे लेकिन जब आपको यह सूचना मिली कि यज़ीद और उसके नौकर गुप्त रूप से हज के बीच आपको क़त्ल करके अपने अवैध हितों के रास्ते से सबसे बड़ी रूकावट को हटा देना चाहते हैं तो इमाम अ. ने मक्के को छोड़ कर कूफ़े की ओर जाने का इरादा किया। कूफ़े के चयन का कारण यह था कि वहाँ शिया बहुमत में थे और कूफ़ा वासियों ने इमाम अ. को दावत दी थी और हज़ारों चिठ्ठियां भेज कर आपकी वफ़ादारी और यज़ीद से दूर रहने का ऐलान किया था।
लेकिन यज़ीद की ओर से नियुक्त कूफ़ा के गवर्नर “उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद” की मक्कारियों, डर और लालच के कारण अधिकांश लोग अपने वादे से पीछे हट गए और इसी लिए कर्बला की घटना घटित हुई और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने वफ़ादार साथियों के साथ बहुत ज़्यादा  ज़ुल्म व अत्याचार के साथ परदेस में शहीद कर दिये गये, आपकी औरतों और बच्चों को यज़ीदियों ने बंदी बना लिया।
कर्बला की घटना में अगरचे देखने में यज़ीद और अमवी शासन को जीत मिली और इमाम हुसैन अ. और उनके साथियों को हार का सामना करना पड़ा लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है, कर्बला की घटना इस्लामी इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय बन गई और उसके नतीजे में इस्लामी दुनिया में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। मुसलमानों के सोई हुई अंतरात्माएं जाग उठीं। बनी उमय्या की नीचता, इस्लाम से दुश्मनी और इमाम हुसैन अ. की महानता व सच्चाई पूरी दुनिया के लिये स्पष्ट हो गई। इस महान आंदोलन ने मुआविया और उसके नौकरों की ओर से हज़रत अली अ. के परिवार का नाम मिटाने और शिया समुदाय को ग़लत व असत्य दीन बताने की बीस वर्षीय कोशिशों और षड़यंत्रों को मिट्टी में मिला दिया।
सभी शिया व सुन्नी इतिहासकारों ने इस बात को स्वीकार किया है कि कर्बला की घटना ने एक ओर यज़ीद और अमवी शासन के विरूद्ध मुसलमानों के दिलों को घृणा व तिरस्कार से भर दिया तो दूसरी ओर लोगों के दिल पैग़म्बर के अहलेबैत अ. की ओर खिंचने लगे और उनकी लोकप्रियता में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई।
इतिहासकार लिखते हैं कि कर्बला की घटना के बाद जब उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद ने बिगड़ती स्थिति और अमवी शासन की उखड़ती सांसों को देखा तो उसके नतीजे से घबरा कर उमर इब्ने साद से वह ख़त वापस मांगा जिसमें इब्ने ज़ियाद ने उमर सअद को इमाम हुसैन अ. को शहीद करने का आदेश दिया था लेकिन उमर साद ने वह ख़त वापस देने से इंकार कर दिया और जब इब्ने ज़ियाद की ज़िद्द बढ़ी तो उमर साद ने कहा “वह ख़त मैंने मदीना भेज दिया है ताकि लोगों को पढ़ कर सुना दिया जाए और मदीनावासी समझ जाएं कि मै इस अत्याचार को अंजाम देने पर मजबूर था। उमर साद ने यह भी कहाः अल्लाह की क़सम मैंने तुम्हें पहले ही इस काम के बुरे नतीजे से अवगत कर दिया था और इस बारे में तुमसे इस निष्ठा से बात की थी कि अगर ऐसी वार्ता अपने बाप से करता तो उसका हक़ अदा कर चुका होता। उबैदुल्लाह के भाई उस्मान ने उमर साद की बातों का समर्थन किया और कहाः ऐ काश ज़ियाद की संतान क़यामत तक अपमान की ज़िंदगी बिताती लेकिन हुसैन अ. के क़त्ल में शामिल न होती।
(तारीख़े तबरी भाग 6 पेज 268, तारीख़ुश्शिया पेज 29)
इब्ने असीर लिखते हैं कि जब इब्ने ज़ियाद ने इमाम हुसैन अ. का सिर यज़ीद के सामने लाया गया तो यज़ीद ख़ुश हुआ और इब्ने ज़ियाद का सम्मान किया लेकिन कुछ ही समय बाद जब माहौल यज़ीद के विरूद्ध हो गया और लोग यज़ीद पर धिक्कार करने लगे तो यज़ीद भी पश्चाताप व शर्मिंदगी का ऐलान करने लगा और इब्ने ज़ियाद की निंदा करने लगा। यज़ीद कहा करता था कि हुसैन अ. की हत्या में इब्ने ज़ियाद का ही हाथ है इसलिए कि हुसैन अ. ने तो इब्ने ज़ियाद से कहा था कि मुझसे यज़ीद की बैअत की बात न करो और मुझे किसी दूसरे इलाक़े में जाने दो लेकिन इब्ने ज़ियाद ने हुसैन अ. की  बात न सुनी और उन्हें क़त्ल कर दिया और इस तरह लोगों को मुझसे नाराज़ कर दिया।
(तारीख़े इब्ने असीर भाग 2 पेज 57)
यज़ीद की ओर से पश्चाताप व शर्मिंदगी वास्तविक हो या केवल दिखावटी, लेकिन इस वास्तविकता से इंकार सम्भव नहीं है कि इमाम हुसैन अ. के आंदोलन, आपकी और आपके साथियों की शहादत, औरतों व बच्चों को बंदी बनाए जाने ने लोगों के सामने सच्चाई को स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है यहाँ तक कि सीरिया जहाँ वर्षों हज़रत अली अ. और उनके परिवार के विरूद्ध ज़हरीला प्रोपेगंडा किया गया था, वह जगह जो मुआविया और यज़ीद की राजधानी थी उस जगह पर भी सार्वजनिक रूप से बनी उमय्या के विरूद्ध और अहलेबैत अ. के हक़ में माहौल बन गया था।
अब तक अमवी शासन इमाम हुसैन अ. और उनके साथियों को इस्लाम से ख़ारिज और पैग़म्बर के ख़लीफ़ा का बाग़ी कहा करता था और इस धोखे वाले नारे द्वारा अलवियों और शियों को गिरफ़्तार करने, बंदी बनाने और तरह तरह की यातनाएं देने में व्यस्त रहता था लेकिन इमाम हुसैन अ. ने अम्र बिल मअरूफ़ व नहि अनिल मुनकर, बिदअत और अमवी शासन की बुराईयों से मुक़ाबले और उम्मत के सुधार का न केवल यह कि नारा दिया बल्कि अपनी जान की क़ुर्बानी और अहलेबैत की गिरफ़्तारी के बल पर उस युग के मुसलमानों के रग रग में यह भावना भर दी कि जिसके बाद आज़ादी के लिये लड़ने वालों के लिए अमवियों के विरूद्ध उठ खड़े होने व जेहाद का दरवाज़ा खुल गया, न केवल यह कि शियों की ओर से एक के बाद एक आंदोलन हुये बल्कि क़दरिया और मोतज़ेला जैसे दूसरे संप्रदायों ने भी अमवियों के विरूद्ध आंदोलन किया।
सुलैमान बिन सुरद ख़ुज़ाई के नेतृत्व में कूफ़ा के शियों का आंदोलन, मुख़्तार और ज़ैद शहीद का आंदोलन सबके दृष्टिगत कर्बला की ही घटना थी और यह सब कर्बला के पदचिन्ह पर चल रहे थे।
सारांश यह कि कर्बला की घटना के बाद हिम्मत व बहादुरी, आज़ादी व शहादत की भावना मुसलमानों विशेष कर शियों में जाग गई और उसके बाद से उन्होंने अमवी शासकों को चैन की नींद नहीं सोने दिया हालांकि नतीजे में उन्हें गिरफ़्तारियों की कठिनाईयां और कोड़ों की तकलीफ़ सहन करना पड़ी और अल्लाह के रास्ते में शहादत को गले लगाना पड़ा। इस बीच भी बहुत से उतार चढ़ाव आये जिनको यहां बयान करने का अवसर नहीं है।
इस अवधि में एक और सच्चाई पर ध्यान देने और अनुसंधान की ज़रूरत है कि उन हालात में अहलेबैत अ. ने एक ओर अमवी शासन से मुक़ाबले और दूसरी ओर इस्लामी समाज की बौद्धिक, समाजिक और शैक्षणिक और प्रशिक्षणिक नेतृत्व के लिए किस शैली और तरीक़े का चयन किया? इमाम ज़ैनुल आबेदीन अ., इमाम हुसैन अ. की शहादत के बाद 35 साल तक इमामत के पद पर पदासीन रहे, आपने भी बनी उमय्या के साथ संघर्ष का सिलसिला जारी रखा लेकिन आपके मुक़ाबले की शैली भिन्न थी, आपकी कोशिश यह थी कि कर्बला की घटना लोगों की निगाह में अमर रहे, लोग इस घटना को भूलने न पायें ताकि लोगों के दिलों में बनी उमय्या के विरूद्ध आक्रोश और घृणा का लावा पकता रहे इसी लिए आप हर अवसर पर कर्बला के ह्रदयविदारक घटना को याद करके आंसू बहाते थे दूसरी ओर आप दुआवों के सहारे इस्लामी समाज में उच्च इस्लामी शिक्षा का प्रसार व प्रचार करते रहे। आपकी दुआएं ज्ञान व विज्ञान, शुद्धिकरण व स्व-शोधन, समाजिक व्यवहार व कर्तव्य के साथ साथ अत्याचार से मुक़ाबले जैसी बातों पर आधारित होती थीं। इस तरह अमवी शासन को एहसास भी नहीं हुआ और आप इस्लामी समाज का वास्तविक नेतृत्व व इमामत की भूमिका बेहतरीन शैली में अदा करते रहे। कर्बला की घटना के बाद इस्लामी समाज को इमाम मासूम के सशस्त्र आंदोलन और खुल्लम खुल्ला आपत्ति जताने की कोई ज़रूरत नहीं थी, इस कर्तव्य को इमाम हुसैन अ. बेहतरीन शैली से अदा कर चुके थे। उस ज़माने में इस्लामी समाज की मौलिक ज़रूरत यह थी कि इमाम हुसैन अ. के आंदोलन से इस्लाम व मुसलमानों के हितों के लिए भरपूर तरीक़े से फ़ायदा उठाया जाए और इमाम सज्जाद अ. ने यह काम बहुत अच्छे तरीक़े से अंजाम दिया।
इमाम सज्जाद (अ.ह) ने कर्बला की घटना को जिंदा रखने, दुआ की शक्ल में इस्लाम की वास्तविक शिक्षाओं को बयान करने के अतिरिक्त ऐसे शिष्यों और चेलों का भी प्रशिक्षण किया जो इस्लामी समाज की थेअलोजी, धर्मशास्त्र और क़ुरआन की तफ़सीर व व्याख्या से सम्बंधित ज़रूरतओं को पूरा कर सकें। जिस ज़माने में बनी उमय्या और अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर हुकूमत के मुद्दे में एक दूसरे से उलझे हुए थे, इमाम (अ.ह) ने अवसर का पूरा फ़ायदा उठाया।
(यज़ीद की मौत के बाद अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर ने मक्के बग़ावत का ऐलान कर दिया और सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया। यमन, हेजाज़, इराक़ और ख़ुरासान के लोगों ने उसकी बैअत कर ली लेकिन सीरिया और मिस्र के लोगों ने यज़ीद के बेटे मुआविया  की बैअत  की लेकिन मुआविया  इब्ने यज़ीद की हुकूमत ज़्यादा दिनों तक जारी नहीं रह सकी और सीरिया व मिस्र के लोगों ने भी अब्दुल्लाह  इब्ने ज़ुबैर की ही बैअत कर ली। उसकी हुकूमत का सिलसिला नौ साल तक जारी रहा और अनंततः  37 हिजरी में  हज्जाज के हाथों क़त्ल हुआ और अब्दुल मलिक इब्ने मरवान हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में ले  ली। तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 312)
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) के ज़माने में ग़ैर शिया फ़ुक़्हा (धर्मशास्त्री) अपने दृष्टिकोण के अनुसार इस्लामी हुक्म बयान करते थे इमाम अ. के ऐसे शिष्य भी थे जो इमाम अ. के दृष्टिकोण तो बयान करते लेकिन अपने शिया होने का पता नहीं चलने देते थे। क़स्साम बिन मुहम्मद बिन अबू बक्र और सईद बिन मुसय्यब ऐसे ही शिष्यों में से हैं।
(तारीख़ुश्शिया पेज 38)
इल्मे कलाम (थेअलोजी) के मशहूर शिया मुतकल्लिम क़ैस इब्ने मासिर ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) से ही इल्म हासिल किया था।
(उसूले काफ़ी भाग 1 किताबुल हुज्जा, बाबुल एज़तेरार इलल हुज्जा, हदीस 4।)
जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी, आमिर बिन वासेला केनानी, सईद बिन मुसय्यब, सईद बिन जहान केनानी, इमाम ज़ैनुल आबेदीन  के सहाबियों और शिष्यों में से हैं जबकि सईद बिन जुबैर, मुहम्मद बिन जुबैर बिन मतअम, अबू ख़ालिद काबुली, क़स्साम बिन औफ़, इस्माईल बिन अब्दुल्लाह बिन जाफ़र, मुहम्मद बिन हनफ़िया के बेटे इब्राहीम व हसन, हबीब इब्ने अबी साबित, अबू यहिया असदी, सलमा बिन दीनार और अबू हाज़िम आरज की गिनती आपके शिष्यों में होती है।
(मनाक़िबे इब्ने शहर आशोब भाग 4 पेज 174)
शेख़ तूसी (र.ह) ने अपनी इल्मे रेजाल (1) की किताब में इमाम सज्जाद (अ.) से रिवायत बयान करने वालों को वर्णमाला के क्रमानुसार बयान किया है और उनकी  संख्या  571 बताई है जिनमें से कुछ सहाबी और कुछ ताबेई (2) थे।
(रेजाले शेख़ तूसी पेज 81-101)
(1)    इल्मे रिजाल वह इल्म है कि जिसमें रावियों के हालात पर चर्चा की जाती है कि उनके कथन को स्वीकार किया जा सकता है या स्वीकार नहीं किया जा सकता और छानबीन की जाती है कि उसका चरित्र कैसा है वह झूठ बोलता है सच।
(2)    ताबेई उस इंसान को कहा जाता है जो रसूले इस्लाम स.अ के दौर में न रहा हो या उस समय मुसलमान न हुआ हो लेकिन रसूल स.अ. के किसी सहाबी के साथ रहने का अवसर मिला हो।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) के बाद आपके बेटे अबू जाफ़र मुहम्मद इब्ने अली (अ.) ने जिनकी उपाधि बाक़िर थी इमामत की बागडोर संभाली और 114 हिजरी में हेशाम इब्ने अब्दुल मलिक के हाथों शहीद होने तक शियों का नेतृत्व व  पथप्रदर्शन करते रहे। पिछले इमामों के युग के विपरीत आपके ज़माने में राजनीतिक हालात कुछ मुनासिब थे इसी लिए आम लोगों और ख़ास कर उल्मा व हदीस के विशेषज्ञों का आपसे सम्पर्क बना रहता था और रावियों ने आपके हवाले से बहुत सी रिवायतें बयान की हैं। जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी की रिवायत के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम अ.स. ने आपके जन्म की ख़बर दी थी और रसूले इस्लाम स.अ. ही ने आपको बाक़िर की उपाधि दी थी।
इमाम मुहम्मद बाक़िर अ. ने हाथ आए अवसर को भला जानते हुए ज्ञानात्मक व सांस्कृतिक क्रांति की नींव डाल दी और यह क्रांति आपके बाद इमाम जाफ़र सादिक़ अ. द्वारा अपने चरम पर पहुँच गई। जाबिर इब्ने यज़ीद जअफ़ी ने पचास हज़ार और मुहम्मद इब्ने मुस्लिम ने तीस हज़ार हदीसें इमाम मुहम्मद बाक़िर अ. के हवाले से बयान की हैं। शेख़ तूसी र.ह की रेजाल की किताबों के अनुसार इमाम बाक़िर अ. से हदीस बयान करने वाले सहाबी व ताबेईन की संख्या 466 है। आपके ज़माने में इस्लामी दुनिया के बहुत से धार्मिक व कलामी संप्रदाय भी वुजूद में आए। इमाम उनसे वाद विवाद और बहस भी करते रहे, इन बहसों के कुछ उदाहरण अल्लामा तबरसी र.ह ने अपनी किताब ”अल-एहतेजाज“ में बयान किए हैं।
(अल-फ़ुसूलुल मुहिम्मा पेज 210-221, अल-इरशाद पेज 157-168, तारीख़ुश्शिया पेज 42-43, आयानुश्शिया भाग 1 पेज 650-659,  अल-एहतेजाज भाग 2 पेज 321-331)
संक्षेप में यह कहा जाए कि इमाम हुसैन (अ.) के आंदोलन और इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के दौर में आने वाले परिवर्तनों और अमवी शासन के विरूद्ध शियों के आंदोलनों तथा दूसरे संप्रदायों के विद्रोहों ने कर्बला की घटना से पहले इस्लामी समाज पर तारी घुटन के माहौल को ख़त्म कर दिया और बौद्धिक चर्चा व बहस के नतीजे में बहुत से समुदाय दूसरे सम्प्रदाय वुजूद में आ गए चूँकि इमाम बाक़िर (अ.) इल्म व ज्ञान के मैदान में अपने ज़माने की सबसे बड़ी इल्मी हस्ती थे इसलिए इस्लामी दुनिया के मुहद्देसीन (हदीस के विशेषज्ञ), फ़ुक़्हा (धर्मशास्त्री) और बुद्धिजीवियों के विचार और दृष्टिकोण आपके दृष्टिकोण से प्रभावित होते, इस तरह इमाम को इस्लाम की वास्तविक शिक्षा आम करने का अवसर मिला। ऐसी स्थिति में स्पष्ट रूप से पिछले दौर के मुक़ाबले में शियों को राजनीतिक तौर पर कम मुश्किलों का सामना था। मगर फिर भी अमवी हुकूमत जिसकी नींव ही अली इब्ने अबी तालिब अ. के परिवार पर अत्याचार व ज़ुल्म पर डाली गई थी, अपने स्वभाव के अनुसार शियों या दूसरे आज़ाद इंसानों पर अत्याचार का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देती थी।
114 हिजरी में हेशाम इब्ने अब्दुल मलिक के हाथों इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की शहादत के साथ इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) की इमामत का सिलसिला शुरू हुआ। आपने अपने वालिद के हाथों शुरू की गई ज्ञानात्मक व सांस्कृतिक क्रांति को शीर्ष की चोटी तक पहुंचा दिया। हेशाम इब्ने अब्दुल मलिक की गिनती अमवी सम्राटों के सबसे अधिक शक्तिशाली और कठोर स्वभाव के सम्राटों में होती है। हेशाम अमवी शासन के विरूद्ध किसी भी तरह के आंदोलन या विद्रोह को कुचलने के लिए विरोधियों विशेष कर शियों के साथ सख़्त रूख अपनाता था, इसीलिए उसने इमाम मुहम्मद बाक़िर अ. और इमाम जाफ़र सादिक़ अ. पर हमेशा सख्ती के साथ नज़र रखी, वास्तव में वह इन दोनों इमामों के आध्यात्मिक प्रभाव से बहुत भयभीत रहता था कि कहीं मुसलमान इन महान हस्तियों की आध्यात्मिकता से प्रभावित न हो जाएं।
121 हिजरी में ज़ैद इब्ने अली (अ.) के आंदोलन और हेशाम के आदेश से उसके नौकरों द्वारा जनाबे ज़ैद की शहादत से हेशाम और अमवी शासन के विरूद्ध मुसलमानों के ग़ुस्से और घृणा में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई। इसी बीच ख़ुरासान के लोगों ने भी विद्रोह कर दिया, यह लोग बनी उमय्या के अत्याचार बयान करते और उनकी निंदा करते थे।
(तारीख़े याक़ूबी भाग 2 पेज 255-258)
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) को जनाबे ज़ैद इब्ने अली (अ.) की शहादत की सूचना से बहुत दुख पहुँचा और आपने जनाब ज़ैद और उनके साथ शहीद होने वालों के घर वालों की मदद की। अबू ख़ालिद वास्ती के कथन के अनुसार इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) ने एक हज़ार दीनार उन्हें दिए ताकि वह यह दीनार जनाब ज़ैद के आंदोलन में शहीद होने वालों के घरों तक पहुँचा दें।
(अल-इरशाद भाग 2 पेज 173)
125 हिजरी में हेशाम इब्ने अब्दुल मलिक की मौत के बाद बनी उमय्या की हुकूमत के पतन की निशानियां साफ़ दिखने लगी थीं, 125 हिजरी से 132 हिजरी में अमवी शासन के अंत तक केवल सात साल की अवधि में चार शासकों ने हुकूमत की।
(उनके नाम वलीद इब्ने यज़ीद इब्ने अब्दुल मलिक, यज़ीद इब्ने वलीद, इब्राहीम इब्ने वलीद और मरवान इब्ने मुहम्मद हैं।)
इस बीच अमवी शासन को अंदर से कमज़ोर और खोखले होने के अतिरिक्त अबू मुस्लिम ख़ुरासानी के आंदोलन और अब्बासियों के विद्रोह का भी सामना था अनंततः अंतिम अमवी शासक अब्बासियों के हाथों क़त्ल हुआ और अमवी शासन का काला अध्याय हमेशा के लिए बंद हो गया।
(अल-इमामः वस्सियासः भाग 2 पेज 110-117, तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 250-255, अल-कामिल फ़ित् तारीख़ भाग 3 पेज 448-486)
अमवी शासन की कमज़ोरी और राजनीतिक उथल पथल के कारण शियों के लिए माहौल अच्छा हो गया था और इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) ने वास्तविक इस्लाम की शिक्षाओं के प्रचार के लिए इस अवसर से भरपूर फ़ायदा उठाया। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) की इमामत की अवधि 34 साल थी (114 हिजरी से 148 हिजरी) जिसमें से अट्ठारह साल  (114 हिजरी से 132 हिजरी) अमवी शासन के दौर में गुज़रे। इस ज़माने में विशेष कर अंतिम कुछ वर्षों में अमवी शासन के पास कोई विशेष राजनीतिक व समाजिक ताक़त नहीं थी ऐसे राजनीतिक हालात के नतीजे में इल्मी और कल्चरल के लिए  हालात बहुत अच्छे थे चाहे वह शासन प्रणाली के विरूद्ध संघर्ष ही क्यों न हो। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) द्वारा शिया सिद्धांत व विश्वास के प्रचार और महत्वपूर्ण शिष्यों के प्रशिक्षण के कारण शिया समुदाय, मज़हबे जाफ़री (जाफ़री सम्प्रदाय) के नाम से मशहूर हो गया।
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) से हदीसें लेने वाले मुहद्देसीन (हदीसों के विशेषज्ञों) व रावी (हदीस बयान करने वाले) केवल शिया ही नहीं थे बल्कि दूसरे संप्रदायों और मज़हबों के मुहद्देसीन भी आपसे हदीसें लेते और बयान करते थे, इब्ने सब्बाग़ मालेकी कहते हैं कि बहुत सी बड़ी हस्तियों ने इमाम सादिक़ (अ.) से हदीसें ली और बयान की हैं जिनमें से यहिया इब्ने  सईद, इब्ने जुरैह, मालिक इब्ने अनस, सुफ़यान सौरी, अबू ऐनीयेह, अबू हनीफ़ा, अबू अय्यूब सजिस्तानी आदि हैं।
(अल-फ़ुसूलुल मुहिम्मा पेज 222)
इतिहासकारों के अनुसार इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.)  के शिष्यों की संख्या चार हज़ार है।

(अल-इरशाद भाग 2 पेज 179, अल-इमाम सादिक़ वल मज़ाहिबुल अरबआ भाग 1 पेज 67)



रसूल ऐ इस्लाम स.अ. के देहांत के बाद शिया एक इस्लामी समुदाय के रूप में उभरा- इतिहास के पन्नो से |

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शिया समुदाय के राजनीतिक और समाजिक इतिहास का पहला चरण रसूले इस्लाम स.अ. के देहांत से शुरू होकर अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.ह) की शहादत तक जारी रहा। इस चरण के शुरू से ही इमामत व ख़िलाफ़त का मुद्दा इस्लामी दुनिया के महत्वपूर्ण राजनीतिक और धार्मिक मुद्दों के रूप में उभर कर सामने आया और इस बारे में जो मतभेद सामने आये उनके आधार पर शिया एक ऐसे इस्लामी समुदाय के रूप में उभर कर सामने आया जो इमामत के लिए पैग़म्बरे इस्लाम की नस (हदीस) और आपकी ओर से नियुक्त किए जाने को मानते थे। जब कि दूसरी ओर जो मुहाजेरीन व अंसार रसूले इस्लाम स.अ के उत्तराधिकारी के चयन के लिए सक़ीफ़ा बनी साएदा में जमा हुए थे उन लोगों ने आपसी मतभेद और विचार विमर्श के बाद अबू बक्र को रसूले इस्लाम का ख़लीफ़ा स्वीकार कर लिया और इस्लामी शासन के शासक की हैसियत से उनकी बैअत कर ली, इस तरह अबू बक्र ने मुसलमानों के मामलों की बागडोर अपने हाथों में ले ली यह सिलसिला दो साल सात महीने तक जारी रहा।
इस चरण के आरम्भ में हज़रत अली और आपकी इमामत स्वीकार करने वालों ने अबू बक्र की बैअत से इंकार कर दिया और विभिन्न अवसरों पर अपने अक़ीदे को ज़ाहिर भी करते रहे। इब्ने क़तीबा के अनुसार अबू बक्र के आदेश से हज़रत अली (अ.ह) को बुलाया गया और आपसे अबू बक्र की बैअत करने की मांग की गई तो आपने अ. उनसे फ़रमायाः

)“انا احقّ بهذا الامر منكم، لا ابايعكم و انتم اولى بالبيعة لي”(

मैं इस ख़िलाफ़त के लिए तुमसे कहीं अधिक हक़दार हूं, मैं तुम्हारी बैअत नहीं कर सकता बल्कि तुम लोगों को मेरी बैअत करनी चाहिए।
 (अल-इमामः वस्सियासः 1/18)
इस अवसर पर उमर और अबू उबैदा जर्राह ने हज़रत अली (अ.ह) से कुछ बातें कहीं और अबू बक्र की बैअत करने के लिए दबाव डाला लेकिन इमाम (अ.ह) ने दोबारा उनके सामने यही फ़रमाया कि वह और पैग़म्बरे इस्लाम स. के अहलेबैत अ. ही ख़िलाफ़त व इमामत के सबसे ज़्यादा हक़दार हैं, इसलिए आपने फ़रमायाः
(فو اللّه يا معشر المهاجرين، لنحن احقّ الناس به، لأنّا اهل البيت و نحن أحقّ بهذا الأمر منكم ما كان فينا القارى ء لكتاب اللّه ، الفقيه في دين اللّه ، العالم بسنن رسول اللّه ، المضطلع بامر الرعية، المدافع عنهم الامور السيّئة، القاسم بينهم بالسويّة، و اللّه ، انه لفينا، فلا تتبعوا الهوى فتضلّوا عن سبيل اللّه ، فتزدا دوا من الحق بعدا)
”अल्लाह की क़सम ऐ मुहाजेरीन! हम ख़िलाफ़त व इमामत के सबसे ज़्यादा हक़दार हैं, क्यूँकि हम रसूले इस्लाम स. के अहलेबैत हैं और हम इस चीज़ के लिए तुमसे ज़्यादा हक़दार हैं जब तक हमारे बीच अल्लाह की किताब का क़ारी, अल्लाह की दीन का फ़क़ीह (शास्त्रवेत्ता) रसूले इस्लाम स. की सुन्नतों का जानने वाला, लोगों के पथप्रदर्शन व नेतृत्व पर सक्षम और अनुचित हालात में उनका प्रतिरक्षक, उनके बीच बैतुलमाल को बराबर से बाटने वाला मौजूद हो। अल्लाह की क़सम हम अहलेबैत (अ.ह) के बीच ही ऐसा इंसान मौजूद है, इसलिए अपनी इच्छाओं का अनुसरण न करना वरना अल्लाह के रास्ता से भटक जाओगे तो हक़ से दूर हो जाओगे।“
(अल-इमामः वस्सियासः 1/19)
हज़रत अली (अ.ह) के मानने वालों ने भी विभिन्न अवसरो पर अबू बक्र से बातचीत के बीच साफ़ शब्दों में हज़रत अली (अ.ह) की बिला फ़स्ल इमामत व ख़िलाफ़त के बारे में अपने विचारों को स्पष्ट किया है। शेख़ सदूक़ (र.ह) ने ऐसे बारह लोगों के नाम बयान किए हैं जिन लोगों ने अबू बक्र के सामने हज़रत अली (अ.ह) की इमामत के बारे में सबूत पेश किए।
(उनके नाम यह हैं :ख़ालिद बिन सईद बिन आस, मिक़दाद बिन असवद, अम्मार यासिर, अबूज़र ग़फ़्फ़ारी, सलमान फ़ारसी, अब्दुल्लाह  बिन  मसऊद, बुरैदा बिन अस्लमी (मुहाजेरीन) ख़ुज़ैमा बिन साबित, सह्ल बिन हुनैफ़, अबू अय्यूब  अन्सारी, अबुल हैसम बिन तैहान और ज़ैद बिन वहब (अंसार))
शेख़ सदूक़ ने बारह लोगों के बाद ग़ैरुहुम (و غيرهم) अर्थात बारह के अतिरिक्त की कैद लगाई है जिससे यह अनुमान भी होता है कि प्रमाण व सबूत प्रस्तुत करने वालों की संख्या केवल बारह नहीं थी। अंत में ज़ैद बिन वहब के भाषण की ओर इशारा करने के बाद फ़रमाते हैं
(فقام جماعة بعده فتكلّموا بنحو هذا)
उसके बाद एक जमाअत खड़ी हुई और उन लोगों ने भी इसी शैली में बात की। उन लोगों ने पहले आपस में सलाह, मशविरा किया, कुछ का ख़्याल यह था कि जब अबू बक्र मिम्बर पर जाएं तो उन्हें मिम्बर से नीचे उतार लिया जाए, लेकिन कुछ लोगों को यह राय पसंद नहीं आई और अनंततः उन्होंने यह तय किया कि इस सिलसिले में अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) से सलाह ली जाए, आपने उन लोगों को ख़लीफ़ा के साथ किसी सख़्त कार्यवाही से मना किया कि इस समय ऐसा काम इस्लाम के हित में नहीं है। जैसा कि स्वंय आप से भी ज़बरदस्ती बैअत लेने की कोशिश की गई थी। इसलिए आपने उन लोगों से यही फ़रमाया कि सब्र व सहनशीलता से काम लें लेकिन इस बारे में जो कुछ पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. से सुना है मस्जिद में जाकर उससे लोगों को अवगत कराते रहें ताकि उनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाए।
उन लोगों ने इमाम (अ.ह) की सलाह पर अमल किया और मस्जिद में गए और एक के बाद दूसरे ने अबू बक्र से वाद-विवाद किया, चूँकि यहां उनकी विस्तार पूर्वक वार्ता को बयान करना सम्भव नहीं है इसलिए केवल महत्वपूर्ण तथ्यों को प्रस्तुत किया जा रहा है:

1.    ख़ालिद बिन सईद: पैग़म्बरे इस्लाम स.अ ने फ़रमाया हैः
(انّ عليّا اميركم من بعدي و خليفتي فيكم. انّ اهل بيتي هم الوارثون امري و القائمون بأمر امتي.)
बेशक अली (अ.) मेरे बाद तुम्हारे अमीर और तुम्हारे बीच मेरे ख़लीफ़ा हैं केवल मेरे अहलेबैत (अ.ह) ही मेरे उत्तराधिकारी हैं और यही लोग उम्मत के मामलात को लागू करने वाले हैं।
2.    अबूज़र  ग़फ़्फ़ारी: पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है
(الامر لعلي بعدي ثم الحسن و الحسين ثم فى اهل بيتي من ولد الحسين.)
यह इमामत मेरे बाद अली (अ.ह) के लिए है फिर हसन (अ.) और फिर हुसैन (अ.) के लिए और फिर हुसैन (अ.) की संतान से मेरे अहलेबैत (अ.ह) में बाक़ी रहेगी।“
3.    सलमान फ़ारसीः
(تركتم امر النبي صلى الله عليه و آله و تناسيتم وصيّته، فعمّا قليل يصفوا اليكم الامر حين تزوروا القبور...)
तुम लोगों ने रसूलुल्लाह स. के आदेश को छोड़ दिया और उनकी वसीयत को भुला बैठे बहुत जल्द ही तुम्हारे  सामने  यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी जब तुम क़ब्रों का दर्शन करोगे।
4.    मिक़दाद बिन असवद:
(قد علمت ان هذا الامر لعلي عليه السلام و هو صاحبه بعد رسول اللّه صلى الله عليه و آله .)
तुम्हें अच्छी तरह से मालूम है कि यह ख़िलाफ़त व इमामत अली (अ.) का हक़ है और रसूले इस्लाम स.अ के बाद वही उसके योग्य हैं।
5.    बुरैदा बिन अस्लमीः
(يا ابابكر! اما تذكر اذا امرنا رسول اللّه صلى الله عليه و آله و سلّمنا على علي عليه السلام بإمرة المؤمنين.)
ऐ अबू बक्र क्या तुम्हें वह अवसर याद नहीं कि रसूल ने हमें आदेश दिया था और हम ने अली (अ.) को अमीरुल मोमिनीन कह कर सलाम किया था।“
6.    अब्दुल्लाह  बन  मसऊदः
(علي بن ابيطالب عليه السلام صاحب هذا الامر بعد نبيّكم فاعطوه ما جعله اللّه له و لا ترتدوا على اعقابكم فتنقلبوا خاسرين.)
”नबी के बाद इस ख़िलाफ़त के योग्य अली इब्ने अबी तालिब अ. हैं इसलिए अली (अ.) को वह हक़ दे दो जिसे अल्लाह ने अली (अ.) के लिए निर्धारित किया है और पलट कर मुरतद न हो जाओ कि इस तरह तुम नुक़सान उठाने वालों में से हो जाओगे।
7.    अम्मार यासिरः
(يا ابابكر لاتجعل لنفسك حقا، جعل اللّه عزّوجلّ لغيرك.)
”ऐ अबू बक्र ख़िलाफ़त को अपना हक़ न समझो यह हक़ अल्लाह ने तुम्हारे अतिरिक्त किसी और को दिया है।“
8.    ख़ुज़ैमा बिन साबितः
(انّي سمعت رسول اللّه يقول اهل بيتي يفرّقون بين الحق و الباطل و هم الأئمة الذين يقتدى بهم.)
मेंने पैग़म्बर को कहते सुना है कि मेरे अहलेबैत (अ.ह) सत्य व असत्य (हक़ व बातिल) का आधार हैं अहलेबैत अ. ही वह इमाम हैं जिनका अनुसरण किया जाना चाहिए।
9.    अबुल हैसम बिन तीहानः
(قال النبي صلى الله عليه و آله : اعلموا انّ اهل بيتي نجوم اهل الأرض فقدّموهم و لا تقدّموهم.)
नबी ने फ़रमाया मेरे अहलेबैत ज़मीन वालों के लिए तारे हैं इसलिये उन्हें प्राथमिकता दो और स्वंय को उन पर वरीयता न दो।“
10.    सह्ल बिन हुनैफ़ः
(اني سمعت رسول اللّه صلى الله عليه و آله قال: امامكم من بعدي على بن ابيطالب و هو انصح الناس لأمّتي.)
मैंने रसूले ख़ुदा स.अ. से सुना है कि आपने फ़रमायाः मेरे बाद तुम्हारे इमाम, अली इब्ने अबी तालिब हैं और वह मेरी उम्मत के सबसे अच्छे नसीहत करने वाले इंसान हैं।
11.    अबू अय्यूब अंसारीः
(قد سمعتم كما سمعنا في مقام بعد مقام من نبياللّه صلى الله عليه و آله انه (على) عليه السلام اولى به منكم)
विभिन्न अवसरों पर तुमने भी नबी से वही सुना है जो हम ने सुना कि वह (अली अ.) इस अम्र (ख़िलाफ़त) के लिए तुम से बेहतर हैं।
12.    ज़ैद बिन वहब और दूसरे लोगों ने भी इसी तरह की बातें कहीं।

(शेख़ सदूक़ की किताब अल-ख़ेसाल अबवाब इसना अशर हदीस 4)

हजरत उमर व उस्मान की ख़िलाफ़त के दौर में शियों के हालात।


दुनिया से जाने से पहले अबू बक्र ने उमर को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित कर दिया। इब्ने क़तीबा के कथानुसार अबू बक्र ने अपना वसीयतनामा (उत्तरपत्र) तय्यार कराया जिसमें उमर को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित किया, अबू बक्र बोलते जाते और उस्मान बिन अफ़्फ़ान वसीयतनामा लिखते जाते। वसीयतनामा पूरा हुआ तो पहले ख़लीफ़ा ने लोगों को जमा होने का आदेश दिया। लोग जमा हो गए तो ख़लीफ़ा ने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहाः
ऐ लोगों, जैसा कि तुम देख रहे हो मैं बहुत जल्दी दुनिया से विदा होने वाला हूं और तुम्हें ऐसे लीडर व पथप्रदर्शक की ज़रूरत है जो तुम्हारे मामलों को संभाल सके, नमाज़े जमाअत पढ़ा सके, तुम्हारे दुश्मनों से जंग करे (मानों जनाब अबू बक्र को पैग़म्बर से ज़्यादा उम्मत की चिंता थी कि उन्होंने अपने बाद किसी को नहीं चुना लेकिन जनाब अबू बक्र को डर था कि कहीं उम्मत बहक न जाए!!!!!!) अगर तुम लोग कहो तो में स्वंय फ़ैसला करके किसी इंसान को निर्वाचित कर दूँ, लोगों ने ख़लीफ़ा के दष्टिकोण से सहमति जताई। जब लोग दूर हो गए तो ख़लीफ़ा ने उमर को तलब किया और मांग की कि मेरा उत्तरपत्र लोगों को पढ़ कर सुना दो। एक इंसान ने उमर से पूछा कि वसीयतनामे में किया लिखा है? उमर ने उत्तर दिया कि मुझे नहीं मालूम किया लिखा है। उसने उत्तर दिया लेकिन मुझे पता है पहले दिन तुमने अबू बक्र को ख़लीफ़ा बनवाया था अब उन्होंने तुम्हें नामित कर दिया है।
(अल-इमामः वस्सियासः भाग 1 पेज 24-25)
यह भी पढ़ेंः जनाब अबू बक्र की ख़िलाफ़त के दौर में शियों के हालात।
उमर की ख़िलाफ़त का सिलसिला दस साल तक जारी रहा इस बीच शियों के हालात में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आया जिसे बयान किया जाए। अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) की सहनशीलता और ख़ामोशी के कारण आपके चाहने वाले शियों ने भी ख़लीफ़ा के साथ किसी भी तरह के टकराव से अपने को दूर रखा। सत्ताधारियों की ओर से भी अपने हितों की खातिर अमीरुल मोमिनीन या आपके शियों के साथ सख़्त व हिंसात्मक कार्रवाइयों की रिपोर्ट नहीं मिलती है बल्कि इसके विपरीत ज्ञानात्मक व राजनीतिक संकटों में अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.ह) से राये ली गई और आपके सुझावों और नसीहतों का सम्मान किया गया। यहां तक कि उमर ने सत्तर बार (لو لا علي، لهلك عمر) लौला अलीयुन ल हलका उमर जैसी इतिहासिक बात कही है अर्थात अगर अली अ. न होते तो उमर हलाक हो जाते। इसी तरह यह भी मिलता है कि उमर ने कहाः (اللهم لا تبقنى لمعظلة ليس لها ابن ابيطالب) ऐ मेरे अल्लाह मुझे किसी ऐसे संकट के लिये ज़िंदा न रखना जिसके हल करने के लिये अली मौजूद न हों।
(अल-ग़दीर भाग 3 पेज 79, तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 170-171, शरहे नह्जुल बलाग़ा इब्ने अबिल हदीद भाग 1 पेज 16 ख़ुत्बा न. 2)
नह्जुल बलाग़ा में भी यह इतिहासिक वास्तविकता मौजूद है कि ईरानियों के साथ जंग के अवसर पर उमर ने जंगी मामलों से सम्बंधित एक कमेटी का गठन किया था और अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) को भी इस का मिम्बर बनाया था। इस कमेटी के मिम्बरों ने अपने अपने विचार बयान किये और उमर ने हज़रत अली (अ.ह) के दृष्टिकोण को ही स्वीकार किया।
(नह्जुल बलाग़ा، ख़ुत्बा 146)
उमर के बाद ख़लीफ़ा द्वारा निर्वाचित छः सदस्यों पर आधारित परिषद ने उस्मान को ख़लीफ़ा बना दिया। और उस्मान बारह साल तक  ख़िलाफ़त की बागडोर अपने हाथों में लिए रहे। उनकी ख़िलाफ़त के बीच कुछ ऐसे काम अंजाम पाये जो न केवल पैग़म्बर की सुन्नत बल्कि पिछले दोनों खुलफ़ा की कार्यशैली के भी विरूद्ध थे इसलिए उनके विरूद्ध मुसलमानों में क्रोध बढ़ता गया। उन्होंने अपने   सम्बंधियों को सरकारी पद दिये और बैतुलमाल अर्थात राजकोष से दान देकर ख़ूब परिवारवाद किया। महान सहाबी जनाब अबूज़र को मदीने से शाम और फिर रबज़ह निर्वासित कर दिया। अम्र बिन आस को जिसे स्वंय पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. ने मदीने से बाहर किया था सम्मानपूर्वक वापस मदीने बुला कर उससे सम्बंध बनाए। वलीद बिन उक़्बा को कूफ़ा का गवर्नर बना दिया और जब उसने नशे की हालत में सुबह की नमाज़ दो के बजाए चार रकअत पढ़ा दी तब भी उसे नहीं हटाया। अब्दुल्लाह बिन मसऊद के साथ अनुचित और हिंसात्मक व्यवहार अपनाया, और इसी तरह की बहुत सी घटनाएं जो इतिहास में मौजूद हैं।
(तारीख़े याक़ूबी भाग 2 पेज 70, अल-इमामः वस् सियासः भाग 1 पेज 35, तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 157)
ऐसी घटनाओं से मुसलमानों में बेचैनी और ग़ुस्सा बढ़ता गया। ऐसे ख़राब माहौल में अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) के साथी जो अपनी आँखों से ख़िलाफ़त व नेतृत्व में गड़बड़ी के नतीजे में घटित होने वाले कड़वी घटनाओं को देख रहे थे, ख़ामोश रह कर इस्लाम की बरबादी के तमाशाई नहीं बन सकते थे इसलिए उन्होंने मुस्लिम वर्ग के नेतृत्व के लिये पैग़म्बर के वास्तविक उत्तराधिकारी हज़रत अली अ.ह की लीडरशिप व ख़िलाफ़त के प्रति लोगों जागरूक करने का बेड़ा उठाया, इसी संदर्भ में एक दिन जनाब अबूज़र ने मस्जिदुन नबी में भाषण दिया जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम स. के अहलेबैत अ. की श्रेष्ठता और महत्व को बयान किया और उसके बाद कहा ”अली इब्ने अबी तालिब मुहम्मद स.अ. के उत्तराधिकारी और नबी के इल्म के वारिस हैं।
ऐ वह लोगों !जो अपने पैग़म्बर के बाद ग़लत रास्ते पर चल पड़े, जिसे अल्लाह ने प्राथमिकता दी थी अगर तुम लोग भी उसी को दूसरों पर प्राथमिकता देते और अपने नबी के अहलेबैत (अ.ह) की विलायत और लीडरशिप को मान लेते तो बेहतरीन भौतिक व आध्यात्मिक ज़िंदगी बिता रहे होते लेकिन चूँकि तुम लोगों ने अल्लाह के आदेश के विरूद्ध रूख अपनाया है इसलिए अपने किये का नतीजा भुगतो।
(तारीख़े याक़ूबी भाग 12 पेज 67-68)“
अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) के साथियों व सहाबियों को उस्मान की ख़िलाफ़त के आरम्भिक दिनों में ही इन गड़बड़ियों का आभास हो गया था। इसलिए याक़ूबी लिखते हैं कि” उस्मान की ख़िलाफ़त के आरम्भिक दिनों में लोगों ने मस्जिदुन्नबी में मिक़दाद बिन  असवद को देखा जो बहुत ज़्यादा अफ़सोस और शोक में कह रहे थे। ”मुझे क़ुरैश पर आश्चर्य है कि उन्होंने अपने नबी के अहलेबैत से लीडरशिप को अलग कर दिया हालांकि सबसे पहला मोमिन, अल्लाह के दीन की सबसे ज़्यादा जानकारी रखने वाला और लोगों में सीधे और सही रास्ते का सबसे बड़ा जानकार अर्थात पैग़म्बर के चचा का बेटा उनके बीच मौजूद है। यह लोग इस मुद्दे में उम्मत की अच्छाई व भलाई के इच्छुक नहीं थे बल्कि  उन्होंने दुनिया को आख़ेरत पर वरीयता दी।
(तारीख़े याक़ूबी भाग 12 पेज 57)
उस्मान के बाद मुसलमानों ने अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.ह) के हाथों पर पैग़म्बर के ख़लीफ़ा और लीडर के रूप में बैअत की इस तरह पच्चीस साल के बाद आपको ख़िलाफ़त व इमामत मिली हालांकि अल्लाह व रसूल की ओर से आप ही को इमामत व ख़िलाफ़त के लिए नियुक्त किया गया था लेकिन इस पच्चीस साल में कुछ लोगों की अचेतना और कुछ लोग के षड़यंत्रों के नतीजे में आप अपने अधिकार अर्थात मुस्लिम वर्ग के नेतृत्व से वंचित रहे, ख़ुद आप भी इस्लाम व मुसलमानों के हितों की खातिर ख़ामोश रहे और ताकत का सहारा लेने से परहेज़ किया और केवल उचित अवसरों पर अपने अधिकार के छिन जाने को बयान करते रहे, पच्चीस साल के बाद आपको आपका हक़ मिला।
मगर अफ़सोस अब बहुत देर हो चुकी थी और उस ज़माने में हुकूमत व लीडरशिप के बारे में बहुत से शंकाऐं और गड़बड़ियां अपनी जड़ें मज़बूत कर चुकी थीं, बहुत सी सम्भावनाऐं और अवसर हाथ से निकल चुके थे।
ऐसे हालात में सही नेतृत्व अर्थात केवल और केवल किताब व सुन्नत के आधार पर हुकूमत करना बहुत मुश्किल मालूम होता था लेकिन चूँकि अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ.ह. का उद्देश्य अल्लाह की इच्छा और इस्लाम व मुसलमानों के हितों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था इसलिए आपने बैअत स्वीकार करना और इमामत व ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी संभालना अपने लिए ज़रूरी समझा। इसलिए आपने फ़रमायाः
«لولا حضور الحاضر و قيام الحجّة بوجود الناصر و ما اخذاللّه على العلماء الاّ يقارّوا على كظّة ظالم و لا سغب مظلوم لألقيت حبلها على غاربها و آخرها بكأس أوّلها و لألفيتم دنياكم هذه أزهد عندي من عفطة عنز».
अगर हाज़िर लोगों की मौजूदगी और अंसार के वुजूद से हुज्जत तमाम न हो गई होती और अल्लाह का उल्मा व विद्धानों से यह वादा न होता कि ख़बरदार अत्याचारियों के पेट भरने और मज़लूमों की भूक पर ख़ामोश न बैठना तो मैं आज भी इस ख़िलाफ़त की रस्सी को उसी की गर्दन पर डाल कर हंका देता और उसके आख़िर को उसके पहले ही के बर्तन से सैराब करता और तुम देख लेते कि तुम्हारी दुनिया मेरी निगाह में बकरी की छींक से भी ज़्यादा बेक़ीमत व मूल्यहीन है।
(नह्जुल बलाग़ा  ख़ुत्बए शक़शक़िया)
लेकिन इस चरण में भी एक ओर अचेतना व जेहालत और दूसरी ओर मक्कारी व शैतानों ने इस्मत, निर्दोषिता व कूटनीति के मज़बूत पेड़ को नेतृत्व व लीडरशिप के मैदान में मुस्लिम वर्ग पर भरपूर तरीक़े से छायादार नहीं होने दिया। शुरूआत से ही मुसलमानों को गृहयुद्धों में उलझाये रखा गया और अंत में आपको शहीद करके मुसलमानों को आपकी लीडरशिप से वंचित कर दिया गया। इस बारे में ख़ुद अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ. कहते हैः
«فلمّا نهضت بالامر نكثت طائفة و مرقت اخرى و قسط آخرون»
जब मैंने ख़िलाफ़त की बागडोर संभाली तो एक गुट ने बैअत तोड़ दी (नाकेसीन) और दूसरे ने विद्रोह किया (मारेक़ीन) और तीसरे नें अत्याचार (क़ासेतीन) किया। नाकेसीन से मुराद जमल की जंग वाले व मारेक़ीन नहरवान के ख़ारजी और क़ासेतीन से मुराद मुआविया और उसके साथी हैं।
नि:संदेह दुनियादारी ही इन फ़ितनों का मौलिक कारण था इस बात की ओर इशारा करते हुए आप फ़रमाते हैः जैसे कि उन लोगों ने अल्लाह का यह कलाम सुना ही नहीं
«تلك الدار الآخرة نجعلها للذين لايريدون علوّا فى الارض ولا فسادا و العاقبة للمتقين»
फिर आप फ़रमाते हैः क्यों नहीं। उन्होंने इस कलाम को सुना है लेकिन उनकी आँखों में तो दुनिया रची बसी है और दुनिया ने उनके दिलों पर क़ब्ज़ा कर रखा है।“
(नह्जुल बलाग़ा , ख़ुत्बए शक़शक़िया )

आपकी ख़िलाफ़त व हुकूमत के बीच हालांकि शियों को अपने अक़ीदों को ख़ुल्लम ख़ुल्ला बयान करने की आज़ादी थी और उन्हें सरकारी लोग या दूसरों से तक़य्या की कोई ज़रूरत नहीं थी और न ही वह तक़य्या करते थे लेकिन इस युग की अराजकताओं,  दुर्घटनाओं और हालात ने इतना अवसर ही नहीं दिया कि शिया अपने अक़ीदों व दृष्टिकोणों का प्रचार कर पाते। अगरचे अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ.ह ने न केवल यह कि अपने निर्दोष चरित्र द्वारा इस्लाम का वास्तविक चेहरा इंसानों के सामने पेश किया बल्कि महत्पूर्ण मालूमात से भी इंसानियत को परिचित कराया, आज आपके यही ख़ुतबे न केवल विद्धानों या इस्लामी दुनिया की मूल्यवान धार्मिक व ज्ञानात्मक पैत्रिक संपत्ति हैं बल्कि इंसानी सभ्यता व संस्क्रति की मूल्यवान पूँजी भी हैं।

बनी उमय्या के ज़माने में शियों पर किया गुज़री।


मुआविया इब्ने अबी सुफ़यान के हाथों सन 41 हिजरी में अमवी शासन की शुरूआत हुई और सन 132 हिजरी में मरवाने हेमार के शासन पर अमवी शासन का समापन्न हुआ। इस ज़माने में शियों को बहुत सख़्त और मुश्किल हालात में ज़िंदगी बितानी पड़ी अगरचे उतार व चढ़ाव आते रहे लेकिन इस ज़माने में ज़्यादातर अवसरों पर सख़्तियां और कठिनाइयाँ अपने चरम पर थीं।
कुल मिलाकर अमवी युग को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। 1. कर्बला  से पहले। 2. कर्बला के बाद।
यह विभाजन इस हिसाब से किया गया है कि इमाम हुसैन अ.ह के आंदोलन ने मुसलमानों के विचारों, दृष्टिकोणों और भावनाओं को बदल के रख दिया जिसके नतीजे में अमवी शासन को कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।
संक्षेप में यहां दोनों युगों में शियों के हालात को बयान किया जा रहा है।  
कर्बला की घटना से पहले
अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ. की शहादत के बाद इमाम हसन मुज्तबा अ.ह ने इमामत की ज़िम्मेदारी संभाली। मुआविया ने षड़यंत्र करके आपकी पत्नि जअदा बिन्ते अशअस बिन क़ैस द्वारा सन 50 हिजरी में आपको ज़हर दिलवा दिया जिससे आपकी शहादत हो गई इस तरह आपकी इमामत की अवधि दस साल थी लेकिन ख़िलाफ़त की बागडोर आपके मुबारक हाथों में कुछ महीनों से ज़्यादा नहीं रही।
(याक़ूबी ने दो महीना और एक कथन के अनुसार चार महीने बयान किया है। तारीख़े याक़ूबी भाग 2 पेज 121। लेकिन सिव्ती के कथनानुसार आपकी ख़िलाफ़त की ज़ाहिरी अवधि पाँच या छः महीनों पर आधारित थी। तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 192।)
मुआविया इब्ने अबी सुफ़यान ने पैग़म्बर के उत्तराधिकारी और मुसलमानों के इमाम की हैसियत से आपकी बैअत नहीं की बल्कि आपके विरूद्ध विद्रोह कर दिया, चूँकि लोग विभिन्न गुटों में बटे हुये थे और अक़ीदे, विश्वास व द़ष्टिकोणों के हिसाब से विभिन्न रुझान पाये जाते थे दूसरी ओर मुआविया ने भी अपनी मक्कारी व धूर्तता के सहारे आपकी बैअत करने वालों के बीच मतभेद पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके नतीजे में हालत यहाँ तक पहुँच गई कि कपटाचार और मोह माया के कारण उन्हीं बैअत करने वालों में से बहुत से लोग स्वंय अपने हाथों इमाम हसन अ. को मुआविया को सौंपने का संकल्प कर बैठे। ऐसे हालात में इमाम हसन अ. ने मुसलमानों के हितों के मद्देनज़र यही उचित समझा कि मुआविया की ओर से सुलह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाए। इसलिए इमाम अ. ने सुलह को स्वीकार कर लिया मगर इस शर्त के साथ कि सुलह की शर्तें इमाम हसन अ. की ओर से तय की जाएंगी। शर्तों में यह बातें भी शामिल थीं कि मुआविया और उसके पिट्ठुओं की ओर से अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ. पर गाली गलौच का सिलसिला ख़त्म होगा, इमाम हसन अ. के साथियों और शियों को परेशान नहीं किया जाएगा और बैतुलमाल से उनके अधिकार उन्हें दिये जाएंगे।
मुआविया ने इन शर्तों को स्वीकार तो कर लिया मगर उन पर अमल नहीं किया। जिस समय मुआविया नुख़ैला (कूफ़ा के निकट एक जगह) पहुँचा तो उसने लोगों के बीच भाषण दिया जिसमें स्पष्ट शब्दों में ऐलान किया “तुम्हारे साथ मेरी जंग इस लिए नहीं थी कि तुम लोग नमाज़ पढ़ो, रोज़े रखो, हज करो, ज़कात अदा करो, यह काम तो तुम लोग ख़ुद ही अंजाम देते हो। तुम्हारे साथ मेरी जंग तुम पर हुकूमत करने के लिए है और तुम लोगों की इच्छा के विपरीत अल्लाह तआला ने मुझे हुकूमत दी है अच्छी तरह जान लो कि हसन इब्ने अली अ. के साथ मैंने जो शर्तें तय की थीं उन पर अमल नहीं करूँगा।
(अल-इरशाद, शेख़ मुफ़ीद भाग 2 पेज 14)
सुलह के समझौते के बाद इमाम हसन मुज्तबा अ. मदीने चले गए और आख़री उम्र तक वहीं ज़िंदगी गुज़ारी और उचित शैली में शियों को नसीहत और उनका नेतृत्व करते रहे। जिस हद तक राजनीतिक हालात इजाज़त देते आपके शिया ज्ञानात्मक व धार्मिक मुद्दों में आपके इल्म से फ़ायदा उठाते लेकिन राजनीतिक द्रष्टिकोण से इस्लामी दुनिया बहुत सख़्त और मुश्किल हालात से दोचार थी यहाँ तक कि हज़रत अली अ. के परिवार से किसी भी तरह के दोस्ताना सम्बंध को मुआविया और अमवी शासन की निगाह में क्षमा न होने वाला अपराध माना जाता था।
इब्ने अबिल हदीद ने अबूल हसन मदाएनी के हवाले से “अलएहदास” नामक कताब से बयान किया है कि मुआविया ने मुसलमानों की हुकूमत की बागडोर हाथ में लेने के बाद इस्लामी राज्य के विभिन्न शहरों में मौजूद सरकारी अफ़सरों के नाम एक सरकारी आदेश जारी किया जिसमें उन्हें आदेश दिया गया था कि शियों के साथ सख़्ती से पेश आया जाए और उनके साथ सख़्त से सख़्त रवैया अपनाया जाये। रजिस्टर से उनके नाम निकाल दिये जायें और बैतुलमाल (राजकोष) से उनका भुगतान बन्द कर दिए जाये और जो इंसान भी अली इब्ने अबी तालिब अ. से मुहब्बत ज़ाहिर करे उसे सज़ा दी जाए। मुआविया के इस आदेश के बाद शियों विशेष कर कूफ़ा के शियों पर ज़िंदगी गुजारना बहुत मुश्किल हो गया था। मुआविया के जासूसों और नौकरों के डर से हर ओर बेचैनी, असंतोष और अशांति का माहौल था। यहाँ तक कि लोग अपने ग़ुलामों पर भी विश्वास नहीं करते थे।
मुआविया ने अली के शियों पर सख़्ती और हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अ. की प्रमुखता व श्रेष्ठता के बयान पर पाबंदी के साथ दूसरी ओर यह आदेश जारी किया कि उस्मान की प्रमुखता व श्रेष्ठता का ख़ूब प्रचार किया जाये और उस्मान के समर्थकों के साथ बहुत ज़्यादा प्यार व सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाए। इससे बढ़ कर मुआविया ने आदेश दिया कि हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अ. की प्रमुखता व श्रेष्ठता के मुक़ाबले में दूसरे अस्हाब ख़ास कर तीनों ख़लीफ़ाओं की महानता में झूठी बातें गढ़ कर उनका प्रचार किया जाये ताकि अली अ. की महानता को कम किया जा सके। इस आदेश के नतीजे में इस्लामी समाज में झूठी रिवायतें का बहुत अधिक प्रचलन हो गया।
मुआविया के बाद भी झूठी व मनगढ़त हदीसों का कारोबार चलता रहा। इब्ने अरफ़ा जो लफ़तवीया के नाम से मशहूर थे और जिनकी गिनती हदीसों के मुख्य विशेषज्ञों में होती है उनका कहना है कि सहाबा की प्रमुखता व श्रेष्ठता में अधिकतर झूठी हदीसें, बनी उमय्या के ज़माने में गढ़ी गई हैं। वास्तव में बनी उमय्या इस तरह बनी हाशिम  से बदला लेना चाहते थे।
(इब्ने अबिल हदीद, शरहे नह्जुल बलाग़ा भाग 11 पेज)
हज़रत अली अ. ने पहले ही इस दुर्घटना के बारे में सूचना दे दी थी, इसलिए आपने फ़रमाया थाः
امّا انّه سيظهر عليكم بعدي رجل رَحْبُ البُلعوم، مُنْدَحِقُ البطن،... الا و انّه سيأمركم بسبّي والبراءة منّي
जान लो कि बहुत जल्दी तुम पर एक इंसान सवार होगा जिसका गला फैला हुआ और पेट बड़ा होगा वह बहुत जल्दी तुम्हें मुझे गालियां देने का और मुझसे दूर रहने का आदेश देगा।
 (नह्जुल बलाग़ा  ख़ुत्बा 57 )
इस बारे में मतभेद है कि इस से मुराद कौन है। कुछ लोगों का कहना है कि इस से मुराद ज़ियाद बिन अबीह है कुछ कहते हैं कि मुराद हज्जाज बिन यूसुफ़ सक़फ़ी है और कुछ लोग इन विशेषताओं को मुआविया के लिये बयान करते हैं।
इब्ने अबिल हदीद की निगाह में यही कथन सही है इसलिए उन्होंने इस स्थान पर अली इब्ने तालिब अ. को बुरा भला कहने और आपसे दूर रहने के सम्बंधित मुआविया के आदेश को विस्तार से बयान किया है इसी संदर्भ में इब्ने अबिल हदीद ने इन हदीसों के विशेषज्ञों और रावियों का भी वर्णन किया है जिन्हें मुआविया ने हज़रत अली अ. की निन्दा में हदीसें गढ़ने के लिए मज़दूरी पर रखा था ऐसे ही बिके हुए रावियों में समरा बिन जुन्दब भी है।
(शरह नह्जुल बलाग़ा भाग 1 पेज 355)
मुआविया ने समरा बिन जुन्दब को एक लाख दिरहम दिये ताकि वह यह कह दे कि यह आयत (و من الناس من يعجبك قوله فى الحياة الدنيا) अमीरुल मोमिनीन अ.ह की शान में और आयत (و من الناس من يشرى نفسه ابتغاء مرضات اللّه) इब्ने मुलजिम मुरादी की शान में उतरी हुई है। (नऊज़ बिल्लाह)
सारांश यह कि सन 60 हिजरी तक जारी रहने वाले मुआविया की हुकूमत के बीच अली के शिया बहुत ज़्यादा सख़्त हालात में ज़िंदगी बिता रहे थे और मुआविया के आदेश से उसके कर्मचारी शियों पर क्रूर अत्याचार का सिलसिला जारी रखे हुए थे, इसी ज़माने में शियों की हुज्र बिन अदी, अम्र बिन हुम्क़ उल ख़ेजाई, रशीद हिजरी, अब्दुल्लाह अलहज़रमी जैसी मशहूर हस्तियां मुआविया के आदेश से शहीद की गईं।
(हयातुल इमाम हुसैन अ. भाग 2 पेज 167-175)
इन हालात के बावजूद शियों ने हर तरह की सख़्तियों व कठिनाइयोँ का सामना किया लेकिन अली इब्ने अबी तालिब अ. की विलायत व इमामत और आपके परिवार के अधिकार के प्रतिरक्षा में कोई कमी नहीं की। और सच्चाई के रास्ते में जान देने में भी पीछे नहीं रहे बल्कि हर्ष व उल्लास के साथ शहीद होते रहे।
मुआविया ने इमाम हसन (अ.ह) के साथ संधि प्रस्ताव में यह वादा करने के बावजूद कि वह किसी को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाएगा, अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बना दिया और लोगों से उसके लिए बैअत भी ले ली। अगरचे शुरूआती दिनों में इस्लामी दुनिया के मशहूर विद्वानों व बुद्धिजीवियों की ओर से इस काम का विरोध भी हुआ लेकिन मुआविया ने ऐसे विरोधों की कोई परवाह नहीं की बल्कि डराने धमकाने और लालच द्वारा अपनी मुराद को हासिल कर लिया।
सन 50 हिजरी में इमाम हसन अ. की शहादत के बाद इमामत की ज़िम्मेदारी इमाम हुसैन अ. के कांधों पर आ गई। चूँकि सुलह समझौते के अनुसार आप इमाम हसन अ. की कार्यशैली के पाबंद थे और इसीलिए आपने आंदोलन नहीं किया लेकिन उचित  अवसरों पर आप सच्चाई को बयान करते रहे तथा मुआविया और उसके नौकरों के अत्याचार और भ्रष्टाचार को भी लोगों से स्पष्ट तौर पर बयान करते रहते। मुआविया ने जब एक चिट्ठी लिख कर आपको अपने विरोध से दूर रहने को कहा तो आपने स्पष्ट व कड़े शब्दों में उत्तर दिया और निम्नलिखित बातों पर मुआविया की कड़े शब्दों में निंदा की।
1. तुम हुज्र बिन अदी और उनके साथियों के हत्यारे हो जो सबके सब अल्लाह की इबादत करने वाले, संयासी और बिदअतों के विरोधी थे और अम्र बिल मअरूफ़ (अच्छाईयों की दावत) व नहि अनिल मुनकर (बुराईयों से रोकना) किया करते थे।
2. तुमने ही अम्र बिन अलहुम्क़ को क़त्ल किया है जो महान सहाबी थे और बहुत ज़्यादा इबादत से जिनका बदन कमज़ोर हो गया था।
3. तुमने यज़ीद इब्ने अबीह (जैसे हरामज़ादे) को अपना भाई बना कर उसे मुसलमानों की जान व सम्पत्ति पर थोप दिया।
(ज़ियाद अबू सुफ़यान का अवैध लड़का था, उसकी माँ बनी अजलान की एक दासी थी जिससे अबू सुफ़यान के अवैध सम्पर्क के परिणाम में ज़ियाद का जन्म हुआ था। हालांकि इस्लामी का क़ानून यह है कि बेटा क़ानूनी बाप से ही जुड़ सकता है नाकि बलात्कारी से। इस बारे में तारीख़े याक़ूबी भाग 2 पेज 127 का अध्ययन करें।)
4. अब्दुल्लाह इब्ने यहिया हज़रमी को केवल इस अपराध के आधार पर शहीद कर दिया कि वह अली इब्ने अबी तालिब अ. की विचारधारा व उनके दीन के मानने वाले थे। क्या अली इब्ने अबी तालिब अ. का दीन पैग़म्बरे इस्लाम स. के दीन से अलग कोई दीन है? वही पैग़म्बर जिसके नाम पर तुम लोगों पर हुकूमत कर रहे हो।
5. तुमने अपने बेटे यज़ीद को जो शराबी और कुत्तों से खेलने वाला है मुसलमानों का ख़लीफ़ा निर्वाचित कर दिया है।
6. मुझे मुसलमानों के बीच दंगा व फ़साद फैलाने से डरा रहा है मेरी निगाह में मुसलमानों के लिए तेरी हुकूमत से बुरा और कोई दंगा नहीं है और मेरी दृष्टि में तेरे विरूद्ध जेहाद से उत्तम कोई काम नहीं है।
(अल-इमामः वस् सियासः भाग 1 पेज 155-157)




शिया मुसलमानों को कब से शिया कहा जाता है?

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अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.) को मानने वालों, आपको पैग़म्बर के दूसरे सहाबा से श्रेष्ठ स्वीकार करने और आपसे प्यार करने वाले मुसलमानों को शिया कहे जाने का इतिहास बहुत पुराना है इसका सम्बंध पैग़म्बरे इस्लाम स. के ज़माने से है। शिया व सुन्नी मुहद्देसीन ने पैग़म्बर से जो हदीसें इस बारे में बयान की हैं उनसे स्पष्ट रूप से यह पता चलता है कि हज़रत अली अ. के अनुगामी और चाहने वालों को स्वंय रसूले इस्लाम स. ने शिया कहा है|

अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.) को मानने वालों, आपको पैग़म्बर के दूसरे सहाबा से श्रेष्ठ स्वीकार करने और आपसे प्यार करने वाले मुसलमानों को शिया कहे जाने का इतिहास बहुत पुराना है इसका सम्बंध पैग़म्बरे इस्लाम स. के ज़माने से है। शिया व सुन्नी मुहद्देसीन ने पैग़म्बर से जो हदीसें इस बारे में बयान की हैं उनसे स्पष्ट रूप से यह पता चलता है कि हज़रत अली अ. के अनुगामी और चाहने वालों को स्वंय रसूले इस्लाम स. ने शिया कहा है, जलालुद्दीन सिव्ती ने आयत
 ان الذين آمنوا و عملوا الصالحات اولئك هم خير البريّة (सूरा-ए-बय्यनः आयत नम्बर 7) 
की व्याख्या में जाबिर इब्ने अब्दुल्लाहे अंसारी और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से पैग़म्बरे अकरम स. की कुछ हदीसे बयान की हैं कि आपने हज़रत अली अ. की ओर इशारा करके फ़रमायाः यह और उनके शिया क़यामत के दिन कामयाब होंगे। (अद्दुर्रुल मनसूर भाग 8 पृष्ठ 538)
 والذى نفسى بيده انّ هذا و شيعته هم الفائزون يوم القيامة 
इब्ने असीर ने हज़रत रसूले इस्लाम (स.) से हदीस बयान की है कि उन्होंने हज़रत अली अ. को सम्बोधित करके कहाः ستقدّم على اللّه 
انت و شيعتك راضين مرضيين، و يقدم عليه عدوّك غضبانا مقمحين 
तुम और तुम्हारे शिया क़यामत के दिन अल्लाह की बारगाह में इस हालत में जाओगे कि अल्लाह तआला तुमसे संतुष्ट और तुम अल्लाह से संतुष्ट और तुम्हारे दुश्मन क़यामत के दिन दुख व लज्जा के साथ अल्लाह की बारगाह में उपस्थित होंगे। (अन-निहायः भाग 4 पृष्ठ 106 ) ऐसी ही रिवायत शबलंजी ने भी अपनी किताब नूरुल-अबसार में बयान की है। (नूरुल अबसार पृष्ठ 159) 
सिव्ती ने एक और रिवायत इब्ने मुर्दवैह के माध्यम से हज़रत अली अ. के हवाले से बयान की है कि पैग़म्बरे अकरम स. ने हज़रत अली अ. से फ़रमायाः इस आयत
 انّ الذين آمنوا و عملوا الصالحات اولئك هم خير البريّة 
से मुराद तुम और तुम्हारे शिया हैं। मेरे और तुम्हारे वादे की जगह हौज़े कौसर है जब उम्मतें हिसाब किताब के लिए लाई जाएंगी और तुम ख़ुश और कामयाब होगे। (अद्दुर्रुल मनसूर भाग 8 पृष्ठ 538)
 انت و شيعتك و موعدي و موعدكم الحوض اذا جاءك الامم للحساب تدعون غرّا محجّلين 
इब्ने हजर ने उम्मे सलमा के हवाले से बयान किया है कि उम्मे सलमा ने कहाः रसूले अकरम स. मेरे पास थे, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा अ. और उनके बाद हज़रत अली अ. पैग़म्बर की सेवा में आए पैग़म्बर ने हज़रत अली से सम्बोधित होकर कहाः
 يا علي انت و اصحابك في الجنّة، انت و شيعتك في الجنّة 
ऐ अली तुम और तुम्हारे शिया और अस्हाब जन्नत में जाओगे। (अस्सवाएक़ुल मोहरेक़ा पृष्ठ 161) 
ख़तीबे ख़्वारज़मी अपनी किताब अल-मनाक़िब में हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अ. के हवाले से बयान करते हैं कि जब रसूले इस्लाम स. को मेराज हुई और आप जन्नत में गए तो वहाँ आपने एक पेड़ देखा जिसे तरह तरह की आभूषणों से सजाया गया था। पैग़म्बर स. ने जिबरईल से सवाल किया कि यह पेड़ किसके लिए है जिबरईल ने जवाब दियाः आपके चचेरे भाई अली इब्ने अबी तालिब की प्रापर्टी है। जब अल्लाह जन्नतियों को जन्नत में लाएगा तो अली के शिया को इस पेड़ के निकट लाया जाएगा और वह लोग इस पेड़ की बरकतों से फ़ायदा उठाएंगे उस समय कोई आवाज़ देगा कि यह लोग अली इब्ने अबी तालिब अ. के शिया हैं उन्होंने दुनिया में दुखों पर सब्र किया था अब उसके बदले में उन्हें यह उपहार दिए गए हैं। (अल-मनाक़िब अध्याय 6, पृष्ठ 73 हदीस नम्बर 52) 
उन्होंने दूसरे स्थान पर जाबिर से रिवायत की है कि हम लोग पैग़म्बर की सेवा में उपस्थित थे कि इतने में अली अ. आते हैं पैग़म्बर स. ने हम लोगों को सम्बोधित करके कहाः (أتاكم اخى) फिर काबे की ओर मुड़ कर फ़रमायाः 
ان هذا و شيعته هم الفائزون يوم القيامة 
अल्लाह की क़सम यह (अली) और उनके मानने वाले ही क़यामत के दिन कामयाब होने वाले हैं। (पिछला रीफ़्रेंस नवाँ अध्याय पृष्ठ 111 हदीस नम्बर 120) अहले सुन्नत की किताबों में इस सिलसिले में दूसरी रिवायतें भी मौजूद हैं जिन्हें यहां बयान करने का अवसर नहीं है। जो हदीसे हमने बयान की हैं वहीं हमारे दावे को सिद्ध करने के लिए काफ़ी हैं। (तारीख़ुश्शिया पृष्ठ 4-8 , बुहूसुन फ़िल मेलले वन्नहेल भाग 6 पृष्ठ 102-106) 
उल्लिखित हदीसों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अली अ. के चाहने वालों और उनका अनुसरण करने वालों को सबसे पहले पैग़म्बर अकरम स. ने ही शिया कहा है। चूँकि यह परिभाषा इस्लामी पैग़म्बर के ज़माने में प्रसिद्ध हो चुकी थी इसलिए पैग़म्बर के बाद भी प्रचारित रही। इसीलिए मसऊदी ने सक़ीफ़ा से सम्बंधित घटनाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सक़ीफ़ा में अबू बक्र की बैअत का मामला ख़त्म होने के बाद इमाम अली अ. और आपके कुछ शिया उनके घर में जमा हो गए। (इस्बातुल वसीयः पृष्ठ 121)
अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.) जमल की जंग के बारे में फ़रमाते हैः जमल वालों ने बसरा में मेरे शियों पर हमला कर दिया कुछ को छल कपट से शहीद कर दिया और कुछ उनके साथ मुक़ाबले के लिए उठ खड़े हुए। और अनंततः शहीद हो गए।
 (नह्जुल-बलागः ख़ुत्बा नम्बर 218) وثبوا على شيعتي، فقتلوا طائفة منهم غدراً، و طائفة عضّوا على اسيافهم، فضاربوا بها حتّى لقوا اللّه صادقين



हज़रते ज़हरा का मर्सिया पैग़म्बर की शहादत के बाद|

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पैग़म्बर की शहादत के बाद तीन दिन तक उनका जनाज़ा रखा रहा और मुसलमान सक़ीफ़ा नबी साएदा में अबूबक्र की ख़िलाफ़त में व्यस्त रहे, और यह केवल अली और उनके कुछ साथी ही थे जिन्होंने पैग़म्बर को दफ़्न किया।
आपके दफ़्न के बाद कुछ लोग हज़रते ज़हरा के पास आए और आपके सामने पैग़म्बर की वफ़ात पर शोक व्यक्त किया तो आपने फ़रमायाः कैसे तुम्हारे दिलों ने यह गवारा किया कि उनके पवित्र शरीर को दफ़्न कर दो? जब्कि वह नबी रहमत और لولاك لما خلقت الافلاك के मिस्दाक़ थे।
लोगों ने कहाः हे पैग़म्बर की बेटी हमें भी दुख हैं लेकिन ईश्वर की मर्ज़ी के आगे किसकी चलती है, यही वह समय था कि जब फ़ातेमा ने चीख़ मारी और पैग़म्बर की क़ब्र पर आईं और उसकी मिट्टी को उठाकर अपनी आँखों पर मली और आप बेताबी के साथ रोती जाती थी और आपकी क़ब्र के पास आपने इस प्रकार मरसिया पढ़ा।


जिसने अहमद (स) की पवित्र क़ब्र की ख़ुश्बू को सूंघा हैं उसको इत्र सूंघने की आवश्यकता नहीं है, मुझ पर वह मसाएब ढाए गए कि अगर दिनों पर पड़ते तो वह रात की तरह अंधेरे हो जाते, कह दो उससे जो मिट्टी के कपड़ों के नीचे छिप गया है, अगर होते तो मेरी फ़रियाद और नाले को सुनते, मैं मोहम्मद (स) के साये में समर्थित थी, और आपके परचम के नीचे मुझे किसी भी ज़ुल्म का डर नहीं था, लेकिन आज मैं तुच्छ लोगों से पामाल हो गई और मैं डरती हूं उस अत्याचार से जो मुझपर हो रहे हैं, और मैं अपनी चादर से ख़ुद की सुरक्षा कर रही हूं, और जिस प्रकार अंधेरी रात में चांद शाखाओं पर रोता है मैं भी ग़म के साथ सुबह और शाम रोती हूं, हे पिता आपके बाद मेरा हमदम मेरा ग़म है, यानी ग़म और दुखों को मैं आपके बाद आपना हमदम बना लिया है, और आपकी जुदाई में आसुओं को मैंने अपने गले की माला बना लिया है।


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