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अपने लिये और अपने दोस्तों के लिये इमाम सज्जाद अस की दुआ ( सहीफ़ ऐ सज्जदिया पांचवी दुआ |

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अपने लिये और अपने दोस्तों के लिये इमाम सज्जाद अस की दुआ ( सहीफ़ ऐ सज्जदिया पांचवी दुआ |

बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम


ऐ वह जिसकी बुज़ुर्गी व अज़मत के अजाएब ख़त्म होने वाले नहीं। तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें अपनी अज़मत के परदों में छुपाकर कज अन्देशियों से बचा ले।

 ऐ वह जिसकी शाही व फ़रमाँरवाई की मुद्दत ख़त्म होने वाली नहीं तू रहमत नाज़िल कर मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और हमारी गर्दनों को अपने ग़ज़ब व अज़ाब (के बन्धनों) से आज़ाद रख। 

ऐ वह जिसकी रहमत के ख़ज़ाने ख़त्म होने वाले नहीं। रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और अपनी रहमत में हमारा भी हिस्सा क़रार दे। 

ऐ वह जिसके मुशाहिदे से आँखें क़ासिर हैं, रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और अपनी बारगाह से हमको क़रीब कर ले। 

ऐ वह जिसकी अज़मत के सामने तमाम अज़मतें पस्त व हक़ीर हैं, रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और हमें अपने हाँ इज़्ज़त अता कर। 

ऐ वह जिसके सामने राज़हाए सरबस्ता ज़ाहिर हैं रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और हमें अपने सामने रूसवा न कर। 

बारे इलाहा! हमें अपनी बख़्शिश व अता की बदौलत बख़्शिश करने वालों की बख़्शिश से बेनियाज़ कर दे और अपनी पोस्तगी के ज़रिये क़तअ ताअल्लुक़ करने वालों की बेताअल्लुक़ी व दूरी की तलाफ़ी कर दे ताके तेरी बख़्शिष व अता के होते हुए दूसरे से सवाल न करें और तेरे फ़ज़्ल व एहसान के होते हुए किसी से हरासाँ न हों। 

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमारे नफ़े की तदबीर कर और हमारे नुक़सान की तदबीर न कर और हमसे मक्र करने वाले दुश्मनों को अपने मक्र का निशाना बना और हमें उसकी ज़द पर न रख। और हमें दुश्मनों पर ग़लबा दे, दुश्मनों को हम पर ग़लबा न दे। 

बारे इलाहा! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें अपने नाराज़गी से महफ़ूज़ रख और अपने फ़ज़्ल व करम से हमारी निगेहदाश्त फ़रमा और अपनी जानिब हमें हिदायत कर और अपनी रहमत से दूर न कर के जिसे तू अपनी नाराज़गी से बचाएगा वही बचेगा। और जिसे तू हिदायत करेगा वही (हक़ाएक़ पर) मुत्तेलअ होगा और जिसे तू (अपनी रहमत से) क़रीब करेगा वही फ़ायदे में रहेगा। 


ऐ माबूद! तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें ज़माने के हवादिस की सख़्ती और शैतान के हथकण्डों की फ़ित्ना अंगेज़ी और सुलतान के क़हर व ग़लबे की तल्ख़ कलामी से अपनी पनाह में रख। बारे इलाहा! बेनियाज़ होने वाले तेरे ही कमाले क़ूवत व इक़्तेदार के सहारे बे नियाज़ होते हैं। रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और हमें बेनियाज़ कर दे और अता करने वाले तेरी ही अता व बख़्शिश के हिस्सए दाफ़र में से अता करते हैं। 


रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और हमें भी (अपने ख़ज़ानए रहमत से) अता फ़रमा। और हिदायत पाने वाले तेरी ही ज़ात की दर की दरख़्शिन्दगियों से हिदायत पाते हैं। रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और हमें हिदायत फ़रमा। 

बारे इलाहा! जिसकी तूने मदद की उसे मदद न करने वालों का मदद से महरूम रखना कुछ नुक़सान नहीं पहुंचा सकता और जिसे तू अता करे उसके हाँ रोकने वालों के रोकने से कुछ कमी नहीं हो जाती। और जिसकी तू ख़ुसूसी हिदायत करे उसे गुमराह करने वालों का गुमराह करना बे राह नहीं कर सकता। रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और अपने ग़लबे व क़ूवत के ज़रिये बन्दों (के शर) से हमें बचाए रख और अपनी अता व बख़्शिश के ज़रिये दूसरों से बेनियाज़ कर दे और अपनी रहनुमाई से हमें राहे हक़ पर चला। 

ऐ माबूद! तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमारे दिलों की सलामती अपनी अज़मत की याद में क़रार दे और हमारी जिस्मानी फ़राग़त (के लम्हों) को अपनी नेमत के शुक्रिया में सर्फ़ कर दे और हमारी ज़बानों की गोयाई को अपने एहसान की तौसीफ़ के लिये वक़्फ़ कर दे ऐ अल्लाह! तू रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर और हमें उन लोगों में से क़रार दे जो तेरी तरफ़ दावत देने वाले और तेरी तरफ़ का रास्ता बताने वाले हैं और अपने ख़ासुल ख़ास मुक़र्रेबीन में से क़रार दे ऐ सब रहम करने वालों से ज़्यादा रहम करने वाले।




हमारे समाज में बहुत सी ईदें आती हैं ,आज जानिये ईद ए ज़हर के बारे में --मौलाना पैग़म्बर नौगांवी

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ईदे ज़हरा क्या है ?  ‌‌‌लेखक: पैग़म्बर नौगांवी

हमारे समाज में बहुत सी ईदें आती हैं जैसे ईद उल फि़त्र, ईदे क़ुरबान, ईदे मुबाहिला और ईदे ज़हरा वग़ैरह, यह सारी ईदें किसी वाक़ए की तरफ़ इशारा करती हैं।

ईद उल फि़त्रः पहली शव्वाल को एक महीने के रोज़े पूरे करने का शुकराना और फि़तरा निकाल कर ग़रीबों की ईद का सामान फ़राहम करने का ज़रिया है।

ईदे क़ुरबानः 10 जि़लहिज्जा हज़रत इसमाईल को ख़ुदा ने ज़बहा होने से बचा लिया था और उनकी जगह दुंबा ज़बहा हो गया था जिस की याद मुसलमानों पर हर साल मनाना सुन्नत है।

ईदे ग़दीरः 18 जि़लहिज्जा को ग़दीरे क़ुम में मौला ए कायनात हज़रत अली (अ0स0) की ताज पोशी की याद में हर साल मनाई जाती है, इस दिन रसूल अल्लाह ने अपने आख़री हज से वापसी पर ग़दीरे ख़ुम के मैदान में इमाम अली (अ0स0) को सवा लाख हाजियों के दरमियान अल्लाह के हुक्म से अपना जानशीन व ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया था।
ईदे मुबाहिलाः 24 जि़लहिज्जा को मनाई जाती है इस रोज़ अहले बैत (अ0स0) के ज़रिये इस्लाम को ईसाइयत पर फ़तह नसीब हुई थी।

ईदे ज़हराः 9 रबी उल अव्वल को मनाई जाती है और इस ईद को मनाने की बहुत सी वजहें बयान की जाती हैं। जैसेः

बाज़ लोग कहते हैं कि 9 रबी उल अव्वल को हज़रत फ़ातेमा (अ0स0) ज़हरा का दुश्मन हलाक हुआ था, लेहाज़ा यह ख़ुशी का दिन है इसी वजह से इस रोज़ को ‘‘ईदे ज़हरा‘‘ के नाम से जाना जाता है।

इस बारे में उलोमा व मुअर्रेख़ीन के दरमियान इख़्तलाफ़ पाया जाता है, बाज़ कहते हैं कि हज़रत उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को फ़ौत हुए और बाज़ दीगर कहते हैं कि इनकी वफ़ात 26 जि़लहिज्जा को हुई।
जो लोग यह कहते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउल अव्वल को फ़ौत हुए उनका क़ौल क़ाबिले एतबार नहीं है, अल्लामा मजलिसी इस बारे में इस तरह वज़ाहत फ़रमाते है किः

उमर इब्ने ख़त्ताब के क़त्ल किये जाने की तारीख़ के बारे में शिया और सुन्नी उलोमा में इख़तलाफ़ पाया जाता है (मगर) दोनों के दरमियान यही मशहूर है कि उमर इब्ने ख़त्ताब 26 या 27 जि़लहिज्जा को फ़ौत हुए।
(ज़ादुल मआद, पेज 470)

अल्लामा मजलिसी ने बिहारुल अनवार में भी इब्ने इदरीस की किताब ‘‘सरायर‘‘ के हवाले से लिखा है किः
हमारे बाज़ उलोमा के दरमियान उमर इबने ख़त्ताब की रोज़े वफ़ात के बारे में शुबहात पाए जाते हैं (यानी) यह लोग यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को फ़ौत हुए, यह नज़रया ग़लत है।
(बिहारुल अनवार , जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान)


अल्लामा मजलिसी किताब अनीस उल आबेदीन के हवाले से मज़ीद लिखते हैं कि:

अकसर शिया यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को क़त्ल हुए और यह सही नहीं है ... बतहक़ीक़ उमर 26 जि़लहिज्जा को क़त्ल हुए ... और इस पर साहिबे किताबे ग़र्रह, साहिबे किताबे मोजम, साहिबे किताबे तबक़ात, साहिबे किताबे मसारु उल शिया और इब्ने ताऊस की नस के अलावा शियों और सुन्नियों का इजमा भी हासिल है। (बिहारुल अनवार , जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान)

अगर यह फर्ज़ भी कर लिया जाए कि वह 9 रबीउल अव्वल को फ़ौत हुए ( जो कि ग़लत है ) तब भी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) की शहादत पहले हुई और आप के दुश्मन एक के बाद एक हलाक हुए ... तो फि़र अपने दुश्मनों की हलाकत से हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) किस तरह ख़ुश हुईं... लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह ग़ैर माक़ूल है।

बाज़ लोग यह कहते हैं कि 9 रबीउलअव्वल को जनाबे मुख़्तार ने इमाम हुसैन (अ0स0) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया ... लेहाज़ा यह रोज़ शियों के लिए सुरुर व शादमानी का दिन है।
हमने मोतबर तारीख़ की किताबों में बहुत तलाश किया लेकिन कहीं यह बात नज़र न आई कि जनाबे मुख़्तार ने 9 रबी उलअव्वल को इमाम हुसैन (अ0स0) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया था ... लेहाज़ा यह वजह भी ग़ैरे माक़ूल है।

बाज़ लोग यह भी कहते हैं कि जनाब मुख़्तार ने इब्ने जि़याद का सर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ0स0) की खि़दमत में मदीना भेजा और जिस रोज़ यह सर इमाम की खि़दमत में पहुँचा वह रबीउलअव्वल की 9 तारीख़ थी, इमाम (अ0स0) ने इब्ने जि़याद का सर देख कर ख़ुदा का शुक्र अदा किया और मुख़्तार को दुआऐं दीं और उसी वक़्त से अहलेबैत की ख़्वातीन ने बालों में कंघी और सर में तैल डालना और आँखों में सुरमा लगाना शुरु किया जो वाक़ए कर्बला के बाद से इन चीज़ों को छोड़े हुए थीं।


बिलफ़रज़ अगर सही मान भी लिया जाए तब भी यह ईद जनाबे ज़ैनब (अ0स0) और जनाबे सय्यदे सज्जाद (अ0स0) से मनसूब होनी चाहिए थी न की हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) ... और हमें भी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ0स0) की पैरवी करते हुए जि़यादा से जि़यादा शुक्रे ख़ुदा करना चाहिए था और जनाबे मुख़्तार के लिए दुआए ख़ैर करना चाहिए थी कि उन्होंने इमाम (अ0स0) और उनके चाहने वालों का दिल ठंडा किया, लेकिन यह ईद न तो चैथे इमाम (अ0स0) से मनसूब हुई और ना जनाबे ज़ैनब के नाम से मशहूर है, लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह भी ग़ैर माक़ूल है, अगर इस रिवायत को सही मान लिया जाए तो इस पर यह एतराज़ होता है कि जिनके घर में शरीयत नाजि़ल हुई, जिनके सामने अहकाम नाजि़ल हुए, जो अख़्लाक़े इस्लामी का नमूना थे, जिनहोंने सफ़ाई सुथराइ की बहुत ताकीद की है वह इतने दिन तक किस तरह बग़ैर सर साफ़ किए हुए रहे ? और किस समाज में सर को साफ़ करना या आँखों में सुर्मा डालना ख़ुशी की अलामत समझा जाता है ? जो अहले बैत (अ0स0) ने वाक़ए कर्बला के बाद एक अरसे तक न किया ? लेहाज़ा इस कि़स्से पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

बाज़ उलोमा की तहक़ीक़ के मुताबिक़ 9 रबी उल अव्वल को जनाबे रसूले ख़ुदा (स0अ0) की शादी जनाबे ख़दीजा (स0अ0) से हुई थी और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) हर साल इस शादी की सालगिरह मनाती थीं और जशन किया करती थीं, नए लिबास और तरह तरह के खाने मुहय्या करती थीं, लेहाज़ा आपकी सीरत पर अमल करते हुए शिया ख़्वातीन ने भी यह सालगिरह मनानी शुरु की और यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा, आपके बाद यह ख़ुशी आप से मनसूब हो गई और इस तरह 9 रबी उल अव्वल का रोज़ शियों के दरमियान ईदे ज़हरा के नाम से मनसूब हो गया, लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह मुनासिब मालूम होती है, एक शख़्स ने आयतुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता से सवाल किया कि:

मशहूर है कि रबी उल अव्वल की नवीं तारीख़ जनाबे फ़ातेमा ज़हरा की ख़ुशी का दिन था और है और इस हाल में है कि उमर इब्ने ख़त्ताब के 26 जि़लहिज्जा को ज़ख़्म लगा और 29 जि़लहिज्जा को फ़ौत हुए लिहाज़ा यह तारीख़ हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) से बाद की तारीख़ है तो फि़र हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) (अपने दुश्मन के फ़ौत होने पर ) किस तरह ख़ुश हुईं ?

इसका जवाब आयातुल्लाह काशेफुल ग़ेता ने इस तरह दिया किः

श्यिा पुराने ज़माने से रबीउलअव्वल की नवीं तारीख़ को ईद की तरह ख़ुशी मनाते हैं किताबे इक़बाल में सैय्यद इब्ने ताऊस ने फ़रमाया है कि 9 रबीउलअव्वल की ख़ुशी इस लिए है कि इस तारीख़ में उमर इब्ने ख़त्ताब फ़ौत हुए हैं और यह बात एक ज़ईफ़ रिवायत से ली गयी है जिस को शैख़ सदूक़ ने नक़्ल किया है, लेकिन हक़ीक़ते अमर यह है कि 9 रबीउलअव्वल को शियों की ख़ुशी शायद इस वजह से है कि 8 रबी उल अव्वल को इमाम हसन असकरी (अ0स0) शहीद हुए और 9 रबीउलअव्वल इमामे ज़माना (अ0स0) की इमामत का पहला रोज़ है

 .....इस ख़ुशी का दूसरा एहतमाल यह है कि 9 और 10 रबी उल अव्वल पैग़म्बरे इस्लाम (स0अ0) की जनाबे ख़दीजा से शादी का रोज़ है और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) हर साल इस रोज़ ख़ुशी मनाती थीं और शिया भी आपकी पैरवी करते हुए इन दिनों में ख़ुशी मनाने लगे, मगर शियों को इस ख़ुशी की यह वजह मालूम नहीं है।

( आयातुल्लाह काशेफ़ूल ग़ेता, सवाल व जवाब, पेज 10 व 11, तरजुमा मौलाना डा0 सै0 हसन अख़तर साहब नौगांवी, मिनजानिब इदारा ए तबलीग़ व इशाअत नौगावां सादात ) इस सिलसिले में बाज़ हज़रात व ख़्वातीन ग़लत बयानी करते हुए कहते हैं कि इस दिन जो चाहें गुनाह करें उस पर अज़ाब नहीं होता और फ़रिश्ते लिखते भी नहीं और यह लोग अल्लामा मजलिसी की किताब बिहारुल अनवार की उस तवील हदीस का हवाला देते हैं जिसको अल्लामा मजलिसी ने सै0 इब्ने ताऊस की किताब ज़वाएदुल फ़वायद से नक़ल किया है ... हां बिहारुल अनवार में एक हदीस ऐसी ज़रुर लिखी हुई है, मगर यह हदीस चन्द वजहों की बिना पर क़ाबिले एतबार नहीं हैः

1- इस हदीस में लिखा है कि 9 रबीउलअव्वल को जो गुनाह चाहें करें उस को फ़रिश्ते नहीं लिखते और न ही अज़ाब किया जाता है।

मगर हम कऱ्ुआने मजीद के सूरा ए ज़लजला की आयत 7 और 8 में पढ़ते हैं किः
यानी जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर नेकी की वह उसे देख लेगा और जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर बदी की है तो वह उसे देख लेगा।

और हमारे सामने रसूले ख़ुदा (स0अ0) की वह हदीस भी है जिस का मफ़हूम यह है किः
जब तुम्हारे पास मेरी कोई हदीस आए तो उसे किताबे ख़ुदा के मेयार पर परखो अगर कऱ्ुआन के मुआफि़क़ है तो उसे क़बूल कर लो और अगर उसके खि़लाफ़ है तो दीवार पर दे मारो (यानी क़बूल न करो)
(मिरज़ा हबीबुल्ला हाशमी, मिनहाजुल बराअत फ़ी, शरह नहजुल बलाग़ा, जिल्द 17, पेज 246, तरजमा हसन ज़ादा आमली, मतबूआ तेहरान )

मज़कूरा रिवायत कऱ्ुआन से टकरा रही है लेहाज़ा क़ाबिले अमल नहीं है। 2- इस हदीस के रावी मोतबर नहीं हैं, इस के बारे में जब मैंने क़ुम में आयातुल्ला शाहरुदी से दरयाफ़्त किया था तो आपने यही फ़रमाया था किः
इस रिवायत को अल्लामा मजलिसी ने किताबे इक़बाल से नक़्ल किया है और इसके रावी मोतबर नहीं हैं ... 9 रबी उल अव्वल का मरफ़ू उल क़लम न होना ( यानी इस दिन भी गुनाह लिखे जाते हैं ) अज़हर मिनश शम्स (यानी बहूत वाज़ेह ) है।
लेहाज़ा यह रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।


3- इस रिवायत में एक जुमला इस तरह आया हैः
रसूल अल्लाह (स0अ0) ... ने इमाम हसन (अ0स0) और इमाम हुसैन (अ0स0) (जो कि 9 रबीउलअव्वल को आपके पास बैठे थे ) से फ़रमाया कि इस दिन की बरकत और सआदत तुम्हारे लिए मुबारक हो क्योंकि आज के दिन ख़ुदावन्दे आलम तुम्हारे और तुम्हारे जद के दुश्मनों को हलाक करे गा।
रसूले इस्लाम अगर आने वाले ज़माने में रुनुमा होने होने वाले किसी वाक़ए या हादसे की ख़बर दें तो सौ फी़ सद सही , सच, और होने वाला है जिस में किसी शक व शुबह की गुनजाइश नहीं है क्योंकि आप सच्चा वादा करने वाले हैं।

लेकिन मोतबर तारीख़ की किताब में किसी भी दुश्मने रसूल व आले रसूल की हलाकत 9 रबीउलअव्वल के रोज़ नहीं मिलती, लेहाज़ा रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।


4- इस रिवायत के आखि़र में इमाम अली (अ0स0) के हवाले से 9 रबीउलअव्वल के 57 नाम जि़क्र किए गए हैं जिन में यौमो रफ़इल क़लम (गुनाह न लिखे जाने का दिन), यौमो सबीलिल्लाहे तआला (अल्लाह के रास्ते पर चलने का दिन ) यौमो कतलिल मुनाफि़क़ (मुनाफि़क़ के क़त्ल का दिन ) यौमु ज़्ज़ोहदे फि़ल कबाइरे (गुनाहे कबीरा से बचने का दिन ), यौमुल मौएज़ते (वाज़ व नसीहत का दिन), यौमुल इबादते (इबादत का दिन) भी शामिल हैं जो आपस में एक दूसरे से टकरा रहे हैं यानी 9 रबीउलअव्वल को गुनाह न लिखने का दिन कह कर सब कुछ कर डालने का शौक़ दिलाया है तो यौमे नसीहत व इबादत व ज़ोहोद कह कर गुनाहों से रोका भी गया है और यह तज़ाद कलामे मासूम (अ0स0) से बईद है, इसके अलावाह क़त्ले मुनाफि़क़ का दिन भी कहा गया है जिस की तरदीद आयातुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता और आयातुल्लाह शाहरुदी के हवाले से हम कर ही चुके हैं, लेहाज़ा यह रिवायत मोतबर नहीं कही जा सकती।


5- इस रिवायत में एक जुमला यह भी आया है किः
अल्लाह ने वही के ज़रिए हज़रत रसूल (स0अ0) से कहलाया किः ऐ मुहम्मद (स0अ0) मैंने किरामे कातेबीन को हुकम दिया है कि वह 9 रबी उल अव्वल को आप और आपके वसी के एहतराम में लोगों के गुनाहों और उनकी ख़ताओं को न लिखें।


जबकि दूसरी तरफ़ कऱ्ुआने मजीद में ख़ुदावन्दे आलम इस तरह इरशाद फ़रमाता है किः
यह हमारी किताब (नामा ए आमाल) है जो हक़ के साथ बोलती है और हम इसमें तुम्हारे आमाल को बराबर लिखवा रहे थे।
(सूरा ए जासेया, आयत 29 )
इस से मालूम होता है कि इन्सानों के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं और किसी भी दिन को इस से अलग नहीं किया गया है।

और जब नामाए आमाल सामने रखा जाएगा तो देखोगे देख कर ख़ौफ़ज़दा होंगे और कहेंगे हाय अफ़सोस! इस किताब (नामाए आमाल) ने तो छोटा बड़ा कुछ नहीं छोड़ा है और सब को जमा कर लिया है और सब अपने आमाल को बिलकुल हाजि़र पाऐंगे और तुम्हारा परवरदिगार किसी एक पर भी ज़ुल्म नहीं करता है।
(सूरा ए कहफ़, आयत 49)

इस आयत से भी साफ़ ज़ाहिर होता है कि इनसानों के आमाल बराबर लिखे जाते हैं और कोई भी मौक़ा और दिन इस से अलेहदा नहीं है।


इस रोज़ सारे इनसान गिरोह गिरोह क़ब्रों से निकलेंगे ताकि अपने आमाल को देख सकें फिर जिस शख़्स ने ज़र्रा बराबर नेकी की है वह उसे देखेगा और जिसने ज़र्रा बराबर बुराई की है वह उसे देख लेगा।
( सूरा ए ज़लज़ला, आयत 5 व 18 )
इस आयत से भी ज़ाहिर होता है कि इन्सानों के छोटे बड़े हर कि़स्म के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं।


यह रिवायत कऱ्ुआन से टकरा रही है लेहाज़ा मोतबर नहीं है।
हो सकता है बाज़ हज़रात यह एतराज़ करें कि इतनी मोतबर शख़सियात जैसे अल्लामा इब्ने ताऊस, शैख़ सदूक़ और अल्लामा मजलिसी वग़ैरा ने किस तरह ज़ईफ़ रिवायतों को अपनी किताबों में जगह देदी ?
इसका जवाब यह है कि शिया उलोमा ने कभी भी अहले सुन्नत की तरह यह दावा नहीं किया है कि हमारी किताबों में जो भी लिखा है वह सब सही है, बलकि हमें इनकी छान बीन की ज़रुरत रहती है, क्योंकि जिस ज़माने में यह किताबें मुरततब कि गईं वह पुर आशोब दौर था और शियों की जान व माल, इज़्ज़त व आबरु के साथ साथ कलचर भी ग़ैर महफ़ूज़ था जिसकी मिसालों से तारीख़ का दामन भरा हुआ है, मुसलमान हुकमरान शियों के इलमी सरमाए को नज़रे आतिश करना हरगिज़ न भूलते थे, ऐसे माहौल में हमारे उलमा ए किराम ने हर उस रिवायत और बात को अपनी किताबों मं जगह दी जो शियों से ताअल्लुक़ रखती थी, जिसमें बाज़ ग़ैर मोतबर रिवायात का शामिल हो जाना बाइसे ताअज्जुब नहीं है, चूँकि उस ज़माने में छान फटक का मौक़ा न था इस लिए यह काम बाद के उलोमा ने फ़ुरसत से अन्जाम दिया, इसी लिए तो आयातुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता और आयातुल्लाह शाहरुदी के अलावा दीगर मराजऐ किराम 9 रबीउलअव्वल वाली इस रिवायत को ज़ईफ़ मानते हैं।
हमें चाहिए कि इस दिन भी इसी तरह अपने आप को गुनाहों से दूर रखें जिस तरह दूसरे दिनों में बचाना वाजिब है, हमारे आइम्मा और फ़ुक़हा ए इज़ाम व मराजऐ किराम का यही हुक्म है, जब मेंने इस बारे में मराजऐ किराम आयातुल्लाहिल उज़मा सै0 अली ख़ामनई, आयातुल्लााह मुकारिम शीराज़ी, आयातुल्लाह फ़ाजि़ल लंककरानी,


आयातुल्लाह अराकी और आयातुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी से क़ुम में सवाल किया किः

बाज़ लोग आलिम व ग़ैर आलिम इस बात के मोतकि़द हैं कि 9 रबीउलअव्वल से (जो कि ईदे ज़हरा से मनसूब है) 11 रबीउलअव्वल तक इन्सान जो चाहे अनजाम दे चाहे वह काम शरअन नाजायज़ हो तब भी गुनाह शुमार नहीं होगा और फ़रिश्ते उसे नहीं लिखंेगे, बराए मेहरबानी इस बारे में क्या हुक्म है बयान फ़रमाइए।
आयातुल्लाहिल उज़मा सै0 अली ख़ामनई साहब ने इस तरह जवाब दिया किः शरीअत की हराम की हुई वह चीज़ें जो जगह और वक़्त से मख़सूस नहीं हैं किसी मख़सूस दिन की मुनासबत से हलाल नहीं हांेगी बलकि ऐसे मुहर्रेमात हर जगह और हर वक़्त हराम हैं और जो लोग बाज़ अय्याम में इनको हलाल की निसबत देते हैं वह कोरा झूट और बोहतान है और हर वह काम जो बज़ाते ख़ुद हराम हो या मुसलमानों के दरमियान तफ़रक़े का बाइस हो शरअन गुनाह और अज़ाब का बाइस है।

आयातुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी साहब का जवाब यह थाः

यह बात (कि 9 रबीउलअव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) सही नहीं है और किसी भी फ़क़ीह ने ऐसा फ़तवा नहीं दिया है, बलकि इन अय्याम में तज़किया ए नफ़स और अहलेबैत (अ0स0) के अख़लाक़ से नज़दीक होने और फ़ासिक़ व फ़ाजिरों के तौर तरीक़ों से दूर रहने की ज़्यादा कोशिश करनी चाहिए।

आयातुल्लाह फ़ाजि़ल लंककरानी साहब ने यूँ जवाब दिया कि:
यह एतक़ाद (कि 9 रबी उल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) सही नहीं है, इन दिनों में भी गुनाह जायज़ नहीं है, मज़कूरा ईद (ईदे ज़हरा) बग़ैर गुनाह के मनाई जा सकती है।

आयातुल्लाह अराकी साहब ने तहरीर फ़रमाया कि:
वह काम जिनको शरीअते इस्लाम ने मना किया है और मराजऐ किराम ने अपनी तौज़ीहुल मसाइल में जि़क्र किया है किसी भी वक़्त जायज़ नहीं हैं और यह बातें कि (9 रबीउल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) मोतबर नहीं हैं।
आयातुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी साहब का जवाब यह था किः

यह बात कि (9 रबीउलअव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) अदिल्ला ए अहकाम के उमूमात व इतलाक़ात के मनाफ़ी है और ऐसी मोतबर रिवायत कि जो इन उमूमी व मुतलक़ दलीलों को मख़सूस या मुक़य्यद करदे साबित नहीं है बिलफ़र्ज़ अगर ऐसी कोई रिवायत होती भी तो यह बात अक़्ल व शरीअत के मनाफ़ी है और ऐसी मुक़य्यद व मुख़ससिस दलीलें मुनसरिफ़ है ...।

यह बात वाज़ेह होजाने के बाद अब एक सवाल और बाक़ी रह जाता है वह यह कि इस ख़ुशी को किस तरह मनाऐं ... ? इसी तरह जैसे अकसर बसतियों में मनाई जाती है ? या फि़र इसमें तबदीली होनी चाहिए ?
यह ख़ुशी इमामे ज़माना (अ0स0) और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) से मनसूब है तो क्या हमें उन मासूमीन (अ0स0) के शायाने शान इस ख़ुशी को नहीं मनाना चाहिए ?... हमें क्या हो गया है! अपने जि़न्दा इमाम (अ0स0) की ख़ुशी को इस अन्दाज़ से मनाते हैं ? दुनिया की जाहिल तरीन क़ौमें भी अपने रहबर की ख़ुशी इस तरह न मनाती होंगी ...

अफ़सोस! आज कल अगर किसी सियासी व समाजी शख़सीयत के एज़ाज़ में जलसे जलूस मुनअकि़द किए जाते हैं तो उनको उसी के शायाने शान तरीक़े से इख़तताम तक पहुँचाने की कोशिश भी की जाती है।
लेकिन ईदे ज़हरा (अ0स0) जो ख़ातूने जन्नत, जिगर गोशए रसूल (स0अ0), ज़ौजा ए अली ए मुरतज़ा (स0अ0) उम्मुल अइम्मा ज़हरा बतूल (स0अ0) के नाम से मनसूब है उसके  साथ  इन्साफ नहीं  किया जाता |

इसके अलावा आलमे इस्लाम पर जिस तरह ख़तरात के बादल छाए हुए हैं वह अहले नज़र से पोशीदा नहीं है, कितना अच्छा हो अगर ईदे ज़हरा अपने हक़ीक़ी माना में इस तरह मनाई जाए जिस में तमाम मुसलेमीन शरीक हो सकें।

तबर्रा फ़ुरु ए दीन से तअल्लुक़ रखता है और फ़ुरु ए दीन का दारो मदार अमल से है ... अगर कोई मुसलमान सिर्फ़ ज़बान से कहे कि नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, ख़ुम्स वग़ैरा वाजिब हैं तो यह तमाम वाजेबात जब तक अमाली सूरत में अदा न हो जाऐं गरदन पर क़ज़ा ही रहेंगे ... फ़ुरु ए दीन के वाजिबात वक़्त और ज़माने से मख़सूस हैं, जिस तरह नमाज़ के औक़ात बताए गए हैं इसी तरह रोज़ा, ज़कात, हज और ख़ुम्स वग़ैरा का ज़माना भी मुअय्यन है, लेकिन अम्रबिल मारुफ़, नही अनिल मुनकर, तवल्ला और तबर्रा यह दीन के ऐसे फ़ुरु हैं जिनके लिए कोई वक़्त और ज़माना मुअय्यन नहीं है, बिल ख़ुसूस तवल्ला और तबर्रा से तो एक लम्हे के लिए भी ग़ाफि़ल नहीं रह सकते, यानी हम यह नहीं कह सकते कि एक लम्हे के लिए भी मुहब्बते अहलेबैत (स0अ0) को दिल से निकाल दिया गया है, या एक लमहे के लिए दुश्मनाने अहलेबैत (स0अ0) के दुश्मनों के किरदार को अपना लिया गया है, जब ऐसा है ... तो फिर तबर्रा को 9 रबी उलअव्वल से कियों मख़सूस कर दिया गया ? इसी दिन इसकी क्यांे ताकीद होती है ? बाक़ी दिनों में इस तरह क्यों याद नहीं आता ? वह भी सिर्फ़ ज़बानी ! ...

ज़बान से तबर्रा काफ़ी नहीं है बलकि अमाली मैदान में आकर तबर्रा करें यानी अहले बैत (अ0स0) के दुश्मनों की इताअत व हुक्मरानी दिल से क़बूल न करें और इनके पस्त किरदार को न अपनाऐं। यह कैसे हो सकता है कि कोई शिया जो ख़्ुाम्स न निकालता हो और बेटियों को मीरास से महरुम रखता हो वह ग़ासेबीन पर लानत करे और उस लानत में ख़ुद भी शामिल न होजाए।

वह शिया जो अपने अमले बद से अहले बैत (अ0स0) को नाराज़ करता हो और वह अहलेबैत (अ0स0) को सताने वालों पर लानत करे और उस लानत के दायरे में ख़ुद भी न आ जाए।
याद रखिए ! लानत नाम पर नहीं, किरदार पर होती है इसी लिए उसका दायरा बहुत बड़ा होता है।

इस्लाम में सेक्स की हकीकत भाग -१

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इस्लाम वह बड़ा और अच्छा धर्म है जिसने ज़िन्दगी के सभी हिस्सों से सम्बन्घित हर बात को विस्तार से बयान किया है ताकि एक सच्चे मुसलमान को ज़िन्दगी के किसी भी हिस्से मे नाकामयाबी या मायूसी ना हो। इन्ही सब हिस्सो मे से एकहिस्सा सेक्स का भी है।

आम तौर से समाज मे सेक्स से सम्बन्धित कुछ बाते करना, सोचना, पढ़ना बहुत ही बुरा समझा जाता है और फिर इस हस्सास (संवेदनशील) विषय पर कुछ लिखना----- लेकिन इस्लाम सेक्स से सम्बन्धित अमल (कार्य)  विस्तार से बयान करता है ताकि मनुष्य गुमराही और बुराई से बचकर संयम नियम का पालन करने तथा इद्रिंयों को वश मे करने वाला (तक़्वा और परहेज़गारी करने वाला) बन सके।

सेक्स एक ऐसी वास्तविकता है जिसे बुरा ज़रुर समझा जाता है लेकिन इससे इन्कार नही किया जा सकता। क्योकि इस संसार मे नर का मादा और मादा का नर की तरफ सेक्सी लगाव केवल मनुषयों और जानवरों मे नही है बल्कि यह सेक्सी लगाव पेड़ पौधों मे भी देखा जा सकता है।

इस्लाम मे जवानी (बालिगो) की पहचान मे लडकी की आयु कम से कम चौदह वर्ष और लडकी की आयु कम से कम नौ वर्ष पूरा हो जाना बताया है। लेकिन अगर किसी को अपनी आयु मालूम नही है तो इसकी आसान पहचान यह है कि लडके के चेहरे पर दाढी और मूंछ निकलने लगे और लडकी के सीने (अर्थात छाती) पर उभार आने लगे। साथ ही साथ दोनों की आवाज़ भारी हो जाये। इसके अलावा दोनों की बग़लों और नाभि के नीचे बाल उग आयें, लडके के सोते या जागते मे वीर्य (मनी)(5) निकल आये इसी तरह लडकी के मसिक धर्म का खून (हैज़, आर्तव)(6) आने लगे।

यही वह मौका होता है जब जवान लडके और लडकियों मे प्यार व मुहब्बत की भावना पैदा होती है और उसके अन्दर प्राकृतिक तौर पर एक तूफानी ताक़त जोश मारना शुरु कर देती है। उसके अन्दर सेक्सी इच्छा पैदा होती है। एक उमंग उठती है एक न दबने वाली भावना और न रुकने वाला जोश उसके सीने मे उठता है। वह खुद इस बात को समझ नही पाता है कि यह सब कुछ क्या है? उस समय उसे प्राकृतिक तौर पर यह अहसास होता है कि उसे एक साथी की आव्श्यकता है। पुरुष स्त्री की तरफ खिंचता है और स्त्री पुरुष की तरफ खिंचती चली जाती है। ज़िन्दगी के यही वह दिन होते हैं जब नौजवान रास्ता भटक जाते हैं। उन्हे उस समय न धर्म का डर होता है न रवाज का खौफ़, न माली रुकावट आती है, न परिवार के राज़ी होंने की फिक्र। उसे हर समय यही अहसास और ख्याल रहता है कि उसे अपनी ज़िन्दगी का साथी चाहिए।

ऐसे में यदी शादी न हो सके तो स्त्री और पुरुषों के भटकने का डर बना रहता है और समाज की बंदिशों के कारण नौजवान हस्त मैथुन, गुदा मैथुन और समलिंगी सेक्स जैसी बुरी आदतों में पड़ जाया करते हैं | वीर्य जैसी क़ीमती चीज़ को हस्त मैथुन के ज़रिए बराबर नष्ट करते रहने से नौजवान में वह क़ुव्वत, सहत, मर्दानगी. जवांमर्दी, अक्लमंदी और जोश व ख़रोश बाक़ी नही रहता है जो वीर्य को बचाए रखने से प्राकृतिक तौर पर हासिल होता है। बराबर हस्त मैथुन करते रहने से संवेदन शक्ति (ज़कावते हिस) बढ जाती है, वीर्य पतला हो जाता है, नौजवान बहुत जल्द वीर्यपात का मरीज़ हो जाता है, निगाह खराब हो जाती है, स्मरण शक्ति कमज़ोर हो जाती है, खाना पच नही पाता, चेहरा पीला दिखाई देता है, आँखें अन्दर को धंस जाती हैं, टाँगों और कमर में दर्द रहने लगता है, बदन थका थका सा रहने लगता है, चक्कर आते हैं, ख़ौफ, घबराहट, परेशानी और लज्जा हर वक्त बनी रहती है---- संक्षिप्त यह कि नौजवान चलती फिरती लाश बनकर रह जाता है। वह इस बात पर गौर नही करता कि हस्त मैथुन से एक या दो मिनट तक महसूस होने वाले मज़े का नुकसान पूरी ज़िन्दगी सहना पडता है, मर्दानः शक्ति बर्बाद हो जाती है। शरीयत में यह सब अप्राकृतिक सेक्स हराम है और इसके नतीजे सेहत को खराब कर देते हैं |

हज़रत अली (अ.) ने इरशाद फरमाया हैः-“वह मज़ा जिससे शर्मिन्दगी (लज्जा) मिले। वह सेक्स और इच्छा जिससे दर्द में बढोतरी हो, उसमे कोई अच्छोई नही है”।

कुर्आने करीम में यह वाकेया मौजूद है कि शैतान ने क़ौमे-ए-लूत (14) को एक ऐसे बुरे काम में फसा दिया जो उनसे पहले दुनिया की किसी क़ौम का फर्द (मनुष्य) ने नही किया था और न किसी को उसकी खबर थी। वह बुरा काम यह था कि मर्द नौजवान लड़कों के साथ बुरा काम करते थे और अपनी सेक्सी इच्छा को औरतों के बजाए लड़कों से पूरा करते थे। इस पर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर हज़रत लूत (अ.) को आदेश दिया कि वह इन लोंगो को इस से बचे रहने की नसीहत करें। आपने अल्लाह के आदेश का पालन करते हुए, अपनी कौंम को, कौंम की लड़कियों से निकाह करने के लिए कहा। लेकिन इस काम में फंसे लोगों ने आप की एक न सुनी। आख़िर कार लूत (अ,) की कौम पर खुदा का अज़ाब (पाप) आया और इस काम में फंसे लोग अपने पूरे माल व असहाब (अर्थात सामान) और शान व शौकत के साथ हमेशा-हमेशा के लिए ग़र्क हो (डूब) गए।
जब किसी क़ौम में गुद मैथुन की ज़्यादती हो जाती है तो खुदा उस क़ौम से अपना हाथ उठा लेता है और उसे इसकी परवाह (ख्याल) नही होती कि यह क़ौम किसी जंगल में हल़ाक कर दी जाए”

इसी लिए इस्लाम जहाँ हस्त मैथुन, गुद मैथुन और बलात्कारी जैसे बुरे और हराम कामों पर सख्त पाबन्दी लगाता है। वहीं प्राकृतिक सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति के लिए शादी (विवाह) का आदेश भी देता है।




इस्लाम में सेक्स करें और कब ना करें | भाग -2

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मैथुन के तरीक़े


 https://www.facebook.com/jaunpurazaadari/चूँकि इस्लाम की दृष्टि में शादी का वास्तविक और बुनियादी तात्पर्य शिष्टाचार (अख़्लाक़) और पाकदामनी (इस्मत) की हिफाज़त करते हुए औरत और मर्द का एक दूसरे के उचित (जाएज़, हलाल) अंगों से सेक्सी इच्छा की पूर्ति करना है। जिसका सम्बन्ध औऱत और मर्द के पूरे जीवन से रहता है। इसीलिए इस्लाम धर्म ने रोज़े की हालत में, एतिक़ाफ़ (एकान्त वास अर्थात एकान्त में ईश्वर की तपस्या) की सूरत में और औरत के खूने हैज़ (अर्थात मासिकधर्म) निफास (रक्त स्राव जो प्रसूतिका के शरीर से बच्चा जनने के चालिस दिन तक होता रहता है) आने की सूरत के अतिरिक्त किसी और समय पर एक दूसरे से सेक्सी इच्छा की पूर्ति करने में रूकावट नही डाली है। मगर यह कि इस्लाम के शिक्षकों (आइम्मः-ए-मासूमीन (अ.) ने कुछ ऐसे अवसरों या हलाल की ओर इशारा ज़रूर किया है जिसका असर (प्रभाव) पति या पत्नी या संतान पर पड़ता है। जिसके नतीजे में पति और पत्नी में जुदाई (अलगाव) या औलाद नेक, बुरी होती है, और अधिकतर अवसरों में संतान में कुछ शारीरिक कमीयां भी हो जाती हैं। जबकि सेक्सी मिलाप के द्वारा मिलने वाले औलाद जैसे महान फल के नेक और हर प्रकार की शारीरिक कमियों से दूर होने के प्रत्येक माता-पिता तमन्ना (इच्छा) करते हैं। अतः ज़रूरी है कि पति और पत्नी दोनों को सेक्सी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए संभोग के शरई (धार्मिक) तरीकों का ज्ञान होना चाहिए ताकि वह हराम (मनाही), मक्रूह (घ्रणित), मुस्तहिब (पुनीत) और वाजिब (अनिवार्य) को ध्यान में रखते हुवे एक दूसरे से स्वाद और आन्नद उठा सकें। पाकीज़गी बाक़ी रख सकें और सेक्सी मिलाप से मिलने वाला फल (औलाद) नेक और हर तरह की शारीरिक बुराईयों और कमियों से पाक हो।

मैथुन की मनाही

याद रखना चाहिए कि इस्लामी शरीअत के उसूलों और क़ानूनों के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाले सच्चे मुसलमान का एक-एक क़दम और एक-एक कार्य अज्र व सवाब (पुण्य) के लिए होता है। जिसमें जीवन के सभी हिस्सों के साथ-साथ औरत और मर्द की मैथुन क्रिया भी है। इसमें भी इस्लामी शरीअत ने पवित्रता (तक़द्दुस) का रंग भर दिया है।

रसूल-ए-खुदा (स,) ने इर्शाद फ़र्मायाः

तुम लोग जो अपने बीवीयों के पास जाते हो यह भी पुण्य का कारण है। सहाबा ने पूछा या रसूल्लाह (स.)। हम में का कोई व्यक्ति अपनी सेक्सी इच्छा की पूर्ति करता है और इसमें क्या उसको सवाब (पुण्य) मिलेगा? आप ने फ़र्माया तुम्हारा क्या ख़्याल (विचार) है, यदि वह अपनी इच्छा हराम (ग़लत) तरीक़े से पूरी करे तो गुनाह (पाप) होगा या नही ? सहाबा जवाब दिया हाँ, गुनाह होगा। आप ने फ़र्माया तो इसी तरह जब वह हलाल (सहीह) तरीक़े से अपनी सेक्सी इच्छा पूरी करे तो उस से सवाब मिलेगा। (सहीह मुस्लिम आदाब ए ज़वाज पेज (61) व आदाब ए इज़दिवाज पेज 15
)

 इस्लाम धर्म ने जहाँ औरत और मर्द का एक दूसरे से अपनी सेक्सी इच्छा को पूरा करना सवाब और पुण्य का कारण हुवा करता है वहीं कुछ मौकों पर हराम होने की वजह से पाप और अज़ाब का कारण हो जाता है।

1.याद रखना चाहिए की औरत की योनि (जहाँ संभोग के समय मर्द अपना लिंग दाखिल करता है) के रास्ते से प्राकृतिक तौर पर प्रत्येक माह  तीन से दस दिन तक खूने हैज़ (अर्थात मासिक धर्म) आता है। उस हालत में औरत से संभोग करना हराम है। क्योंकि उस हालत में संभोग करना औरत और मर्द दोनों के लिए शारीरिक तकलीफों और आतशक व सोज़ाक जैसी भयानक बीमारियों के पैदा होने और गर्भ ठहरने पर बच्चे में कोढ़ और सफेद दाग की बीमारी होने का कारण होता है। जबकि इस्लाम धर्म मनुष्य को तन्दुरूस्त और निरोग देखना चाहता है। इसी लिए इस्लाम धर्म ने हैज़ आने के दिनों में संभोग को हराम (अर्थात वह काम जिसके करने पर पाप हो) करार दिया है। क़ुर्आन-ए-करीम में मिलता हैः

(ए रसूल (स)) तुम से लोग हैज़ के बारे में पूछते हैं। तुम उनसे कह दो कि यह गन्दगी और घिन बीमारी है तो हैज़ (के दिनों) में तुम औरतों से अलग रहो और जब तक वह पाक (अर्थात खून आना बन्द) न हो जाए उनके पास न जाओ। फिर जब वह पाक हो जायें तो जिधर से तुम्हे खुदा ने आदेश (हुक्म) दिया है उनके पास जाओ। बेशक खुदा तौबहः करने वालों और साफ सुथरे लोगों को पसन्द करता है। ( क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-बकरा आयत न. (222) व हाशिया)

चूँकि हैज़ के ज़माने में औरत की तबीअत खून निकलने की ओर लगी रहती है और मैथुन से कार्य करने की कुव्वत में हैजान (बेचैनी) होती है और दोनों कुव्वतों के एक दूसरे के विपरीत होने की वजह से तबीअत को जो बदन की बादशाह है हैजान होता है और उसी की वजह से विभिन्न तरह की बीमारियां होती हैं। इसके अतिरिक्त मर्द की सेक्सी इच्छा मैथुन के समय मनी (वीर्य) निकालने की तरफ लगी रहती है और शरीर के रोम-कूप (मसामात) खुल जाते है और खूने हैज़ से बुखारात (भाप) बुलन्द (ऊपर उठकर) हो कर बुरे असर (प्रभाव) डालती है। इसके अलावा खुद खून भी मर्द के लिंग के सूराख़ में दाखिल होकर सोजाक आदि जैसी बीमारी पैदा करने का कारण होता है। इन्ही कारणों से शरीअत ने हैज़ की हालत मे मैथुन क्रिया को पूरी तरह से हराम करार दिया है। ( क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-बकरा आयत न. (222) व हाशिया)

-आदाब-ए-ज़वाज- के लेखक ने लिखा है कि हायजः औरत (अर्थात वह औऱत जिसके खूने हैज़ आ रहा हो) से मैथुन करने की मनाही (हराम होने, हुरमत) में दो युक्तियाँ हैं। एक मासिक धर्म की गन्दगी जिससे मनुष्य की तबीयत घ्रणित (कराहियत) करती है। दूसरे यह कि मर्द और औरत को बहुत से शारीरिक नुक़सान पहुँचते है। चुनाँचे आधुनिक चिकित्सा ने हायजः औरत से मैथुन की जिन हानियों व बिमारियों को स्पष्ट किया है उनमे से दो मुख्य और अहम हैं। एक यह कि औरत के लिंग में दर्द पैदा हो जाता है औऱ कभी कभी गर्भाशय में जलन पैदा हो जाती है। जिससे गर्भाशय खराब हो जाता है और औरत बांझ हो जाती है। दूसरा यह कि हैज़ के कीटाणु (मवाद) मर्द के लिंग में पहुँच जाते हैं जिस से कभी कभी पीप जैसा माददः (पदार्थ) बनकर जलन पैदा करता है। और कभी कभी यह पदार्थ फैलता हुआ अंडकोष तक पहुँच जाता है और उनको तकलीफ देता है। आखिरकार (अन्त में) मर्द बांझ हो जाता है, इस प्रकार की और भी बीमारियाँ और तकलीफें पैदा होती है। जिसको दृष्टिगत रखते हुवे सभी आधुनिक चिकित्सक इस बात को मानते हैं कि हैज़ आने की हालत में मैथुन क्रिया से दूर रहना अनिवार्य है। यह ऐसी वास्तविकता है जिसे हज़ारों साल पहले कुर्आन-ए-हकीम ने बताया था यह भी कुर्आन-ए-करीम का मौजिजः है|

ऐसी (अर्थात खूने हैज़ आने की) सूरत (हालत) में इस्लामी शरीअत ने यह अनुमति (इजाज़त) ज़रूर दे रखी है कि संभोग के अलावा औरत के शरीर का बोसा लेना, प्यार करना छातियों से खेलना, साथ लेटना और सोना, शरीर से शरीर मिलाना संक्षिप्त यह कि किसी भी तरह से स्वाद व आन्नद उठाना जाएज़ है।

वरना संभोग के कर गुज़रने का खतरा होने की सूरत में बीवी से दूर रहना ही बेहतर (उचित) है। लेकिन फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपनी सेक्सी इच्छाओं को काबू न कर पाने की सूरत में संभोग कर बैठे तो शरीअत ने उस पर कफ्फारः (जुर्माना) लगाया है।

मसाएल में यहाँ तक मिलता है कि हायज़ः औरत की योनि (अर्थात आगे के सूराख) में मर्द के लिंग के खतरे वाली जगह से कम हिस्सा भी दाखिल न हो। (191)

2.खूने हैज़ आने की हालत में मर्द कभी-कभी (बीमारी आदि के डर से) औरत के आगे के सूराख को छोड़कर पीछे के सूराख में अपना लिंग इस ख्याल से दाखिल कर देता है कि खूने हैज़ पीछे के सूराख से नही आ रहा है अर्थात वह पाक है। या यह कहा जाए कि वह आगे और पीछे दोनों सूराखों को एक ही जैसा समझता है। जबकि कुछ आलिमों (विद्वानों) ने पीछे के सूराख में लिंग को दाखिल करना हराम और कुछ ने सख्त मकरूह माना है। रसूल-ए-खुदा का इर्शाद है किः-

उस व्यक्ति पर अल्लाह की लानत है जो अपनी औरत के पास उसके पीछे के रास्ते में आता है। (मसनद अहमद, 444/2, 479, अबू दाऊद भाग (1) किताब अल निकाह, बाब फी जेमाअ अल निकाह, जिमाअ के आदाब, सुल्तान अहमद इस्लामी पेज 28-29 अल कलम प्रेस एण्ड पब्लीकेशन्स, नई दिल्ली, 1991 ई. से नक़्ल।.
)

और जामेअ तिरमिज़ी में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत है किः

अल्लाह तआला (क़यामत के दिन) उस व्यक्ति की ओर निगाह उठा कर नही देखेगा जो किसी मर्द या किसी औरत के पास पीछे के रास्ते में आएगा। (तिरमिज़ी भाग 1, अबवाब अल रिज़ाअ, जिमाअ के आदाब पेज. (250) से नक़्ल।)

क्योंकि पीछे के रास्ते में लिगं दाखिल करने और वीर्य के निकलने से वीर्य नष्ट (बेकार) हो जाता है और इस्लामी शरीअत कदापि पसन्द नही करती कि प्राकृतिक तौर पर तैय्यार होने वाले क़ीमती जौहर (मूल्यवान वीर्य) को नष्ट होने दिया जाए। इसीलिए इस्लाम ने गुदमैथुन को हराम करार दिया है। क्योंकि इसमें वीर्य नष्ट हो जाता है। ध्यान देने योग्य बात है कि अगर हैज़ आने के दिनों में औरत के पीछे के सूराख में लिंग को दाखिल करने की अनुमति होती तो हैज़ आने के दिनों में औरत से दूर रहने (अर्थात मैथुन न करने) का हुक्म नही दिया जाता और यह कहा जाता किः

फिर जब वह पाक हो जाए तो जिधर से तुम्हे खुदा ने हुक्म दिया है उनके पास जाओ। बेशक खुदा तौबा करने वालों और पाक व पाकीज़ा लोगों को पसन्द करता है। ( क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-बकरा आयत न. 222)

अर्थात हर हालत में औरत के पास जाने का आदेश केवल उनके आगे के सूराख मे है----- और पाक होने का अर्थ विद्वानों ने खूने हैज़ का आना बन्द हो जाना माना है न कि स्नान करना।

मसाएल में मिलता है किः

जब औरत हैज़ से पाक हो जाए चाहे अभी स्नान न किया हो उसको तलाक़ देना सहीह है और उसका पति उस से संभोग भी कर सकता है और उचित यह है कि संभोग से पहले योनि के स्थान को धो ले, फिर भी यह मुसतहिब है कि स्नान करने से पहले संभोग करने से बचा रहे। लेकिन दूसरे काम जो हैज़ की हालत में हराम थे (अर्थात जिसकी मनाही थी) जैसे मस्जिद में ठहरना, क़ुर्आन के शब्दों को छूना अब भी हराम है जब तक स्नान न कर ले। (तौज़ीह अल मसाएल, खुई पेज (51) व गुलपाएगानी पेज 80-81)

अर्थात खूने हैज़ आना बन्द हो जाने की सूरत में शर्मगाह (योनि) को धोकर संभोग किया जा सकता है। विद्वानों ने यह भी लिखा है कि उचित यह है कि स्नान के बाद ही संभोग करे।

3.खूने हैज़ की तरह खूने नफ़ास (रक्तस्राव, अर्थात वह खून जो बच्चा पैदा होने के बाद औरत की योनि से निकलता है) आने की हालत में भी औरत से संभोग करना हराम है। मसाएल में मिलता है किः

नफ़ास की हालत में औरत को तलाक़ देना और उससे संभोग करना हराम है लेकिन यदि उस से संभोग किया जाये कफ्फारः (जुर्मानः) वाजिब नहीं है। (तौज़ीह अल मसाएल खूई पेज 58, जबकि आकाए गुलपाएगानी ने कफ्फारः अदा करने को अहतियाते मुसतहिब बताया है। मिलता है किः

निफास की हालत में औरत को तलाक़ देना बातिल है और उससे संभोग करना हराम है और अगर शौहर उस से संभोग कर ले तो अहतियाते मुसतहिब यह है कि जिस तरह अहकामे हैज़ में बयान हो चुका है कफ्फारः अदा करे। (देखिए तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) आकाए गुलपाएगानी पेज 92))

4.इस्लामी शरीअत ने औरत और मर्द को सेक्सी इच्छा की पूर्ति की पूरी आज़ादी देने के साथ-साथ रोज़े की हालत में संभोग की मनाही की है। क्योंकि रोज़ः बातिल (टूट) हो जाता है। मसाएल में मिलता है किः

संभोग से रोज़ः टूट जाता है। चाहे केवल खतने का हिस्सः ही अन्दर दाखिल हो और वीर्य भी बाहर न निकले। ( तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) खूई, पेज 172)

जबकि रोज़ो (अर्थात रमज़ान के महीने और रोज़ो) की रातों में अपनी बीवी से संभोग करना जाएज़ और हलाल है।

क़ुर्आन-ए-करीम में हैः

(मुस्लमानों) तुम्हारे लिए रोज़ों की रातों मे अपनी बीवीयों के पास जाना हलाल कर दिया गया, औरतें तुम्हारी चोलीं है और तुम उसके दामन हो, खुदा ने देखा तुम (पाप करके) अपनी हानि करते थे (कि आँख बचाके अपनी बीवी के पास चले जाते थे) तो उसने तुम्हारी तौबः कुबूल की (स्वीकृति कर ली) और तुम्हारी ग़लती को माफ कर दिया। अब तुम उस से संभोग करो और (संतान से) जो कुछ खुदा ने तुम्हारे लिए (भाग्य में) लिख दिया है उसे मांगो और खाओ पियो। यहाँ तक कि सुबह की सफ़ेद धारी (रात की) काली धारी से आसमान पर पूर्व की ओर तुम्हें साफ दिखाई देने लगे। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो और (हाँ) जब तुम मस्जिदों में एतिकाफ़ (एकान्त में ईशवर की तपस्या) करने बैठो तो उनसे (रात को भी) संभोग न करो। यह खुदा की (तय की हुवी) हदें हैं। तो तुम उनके पास भी न जाना यूँ बिल्कुल स्पष्ट रूप से खुदा अपने क़ानूनों को लोगो के सामने बयान करता है ताकि वह लोग (क़ानून उल्लघंन) से बचें। (क़ुर्आन-ए-करीम सूरः-ए-बकरा आयत न. 187)

5.क़ुर्आन की उपर्युक्त आयत से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि एतिकाफ़ की हालत में संभोग की मनाही की गयी है। मसाएल में यह भी मिलता है किः

औरत से संभोग करना और सावधानी (अहतियात) के रूप में उसे छूना, सेक्स के साथ बोसा देना (प्यार करना) चाहे मर्द हो या औरत हराम है। ( तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) खूई पेज 190)

औरः

मुस्तहिब (पुनीत) सावधानी यह है कि एकान्त में ईश्वर की तपस्या करने वाला हर उस चीज़ से बचा करे जो हज के मौक़े पर एहराम (अर्थात वह वस्त्र जो हाजी हज के मौक़े पर पहनते हैं) की हालत में हराम हैं। ( तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) खूई पेज 190)

6.याद रखना चाहिए कि हाजी जब मीक़ात (अर्थात एहराम बांधने की जगह) से हज की नीयत कर लेता है और तकबीर पढ़ लेता है तो कुछ मुबाह (जाएज़) चीज़े उस पर हराम हो जाती है। इन ही मुबाह चीज़ों में पति और पत्नी भी है जो एक दूसरे पर एहराम की हालत में हराम हो जाते हैं। मिलता है किः

एहराम की हालत में अपनी पत्नी से संभोग करना, बोसा (चुम्मा, प्यार) लेना, सेक्स की निगाह से देखना बल्कि हर तरह का स्वाद और आन्नद हासिल करना हराम है। (दस्तूर ए हज, मसाएल ए हज मुताबिक फतवाए अबू अल कासिम अल खूई, रूह अल्लाह खुमैनी, अनुवादक सैय्यद मुहम्मद सालेह रिज़वी, पेज 39, निज़ामी प्रेस, लखनऊ, 1980 ई.।)

और यह हराम, हलाल में उस समय बदलता है जब तवाफें निसाअ  कर लिया जाए। मसाएल में है किः

तवाफ़े निसाअ और नमाज़े तवाफ के बाद औरत पर पति और पति पर पत्नी हलाल हो जाती है। (दस्तूर ए हज, पेज (82) व 83)

याद रखना चाहिए किः

तवाफ़े निसाअ केवल मर्दों से मख़सूस (के लिए) नहीं है बल्कि औरतों. नपुंस्कों, नामर्दों और तमीज़ रखने वाले (अर्थात अच्छा-बुरा समझने वाले) बच्चों के लिए भी ज़रूरी है। अगर व्यक्ति तवाफ़े निसाअ न करे तो पत्नी हलाल न होगी। जैसा कि पूर्व में बयान किया जा चुका है। इसी तरह अगर औरत तवाफ़े निसाअ न करे तो पति हलाल न होगा। बल्कि अगर अभिभावक तमीज़ न रखने वाले बच्चे के एहराम बाँधे तो अहतियात वाजिब (ज़रूरी एहतीयात) यह है कि उसको तवाफ़े निसाअ करना चाहिए ताकि बालिग़ होने के बाद औरत या मर्द उस पर हलाल हो जाऐं। (दस्तूर ए हज, पेज (82) व 83)


इस्लाम में घ्रणित सेक्स कौन कौन से हैं ? भाग -३

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घ्रणित मैथुनः


फक़ीहों (विद्धानों) ने आठ मौकों पर मैथुन करने को मक्रूह करार दिया है।

1.चन्द्र ग्रहण की रात

2.सूर्य ग्रहण का दिन

3.सूर्य के पतन (गिराव अर्थात (12) बजे के आस-पास) के समय (ब्रहस्पतिवार के अतिरिक्त किसी दिन में)।

4.सूर्य के डूबते समय, जब तक की लाली न छट जाये।

5.मुहाक़ की रातों में (अर्थात चाँद के महीने की उन दो या तीन रातों में जब चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता)

6.सुबह होने से लेकर सूरज निकलने तक।

7.रमज़ान के अतिरिक्त हर चाँद के महीने की चाँद रात को

8.हर माह की पन्द्रहवीं रात को इस के अतिरिक्त विद्धानों ने कुछ और मौक़ो पर भी मैथुन को घ्रणित बताया है।

1.जैसे सफर की हालत में जब कि स्नान के लिए पानी न हो।

2.काली, पीली या लाल आंधी चलने के समय।

3.ज़लज़ले (भूकंप) के समय। (205)

मोअतबर हदीस (यक़ीन करने योग्य हदीसों) में मिलता है कि निम्नलिखित मौक़ों पर मैथुन करना मक्रूह (घ्रणित) है।

1.सुबह से सूर्य निकलने (सूर्योदय) तक (206)

2.सूर्यास्त से लेकर लाली खत्म होने तक

3.सूर्य ग्रहण के दिन

4.चन्द्र ग्रहण के दिन

5.उस रात या दिन में जिसमें काली, पीली या लाल आँधी आये या भूकंप मसहूस हो, खुदा की क़सम यदि कोई व्यक्ति इन मौकों पर मैथुन करेगा और उससे सन्तान पैदा होगी तो उस संतान में एक भी आदत ऐसी नहीं देखेगा जिस से (प्रसन्ता) हासिल हो क्योंकि उसने खुदा के ग़ज़ब की निशानियों को कम समझा। ( तहज़ीब अल इस्लाम पेज 115)

इन क़ानूनो के ज़ाहरी कारण यह है कि चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण ज़मीनी निज़ाम पर लाज़मी (अनिवार्य) रूप से अपना असर छोड़ते हैं। अतः इस बात का डर है कि ऐसे मौके पर गर्भ ठहरने की सूरत में बच्चे मे कुछ ऐसी कमियाँ पैदा हो जायें जो माता-पिता के ज़हनी सुकून को बरबाद कर दें, जिसको प्राकृतिक धर्म (इस्लाम) पसन्द नहीं करता----- शायद इसी लिए इस्लाम धर्म ने उपर्युक्त मौक़ो पर मैथुन क्रिया को घ्रणित करार दिया गया है।




विवाह मं लड़की की स्वीकृति इस्लाम की नज़र मं

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विवाह मं लड़की की स्वीकृति इस्लाम की नज़र मं
nihal3हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़र्माते हैं- मैं पैग़म्बर के पास गया और चुप-चाप उनके सम्मुख बैठ गया।पैग़म्बर ने पूछा – अबूतालिब के पुत्र क्यों आए हो?पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने तीन बार अपना प्रश्न दोहराया। फिर फ़र्माया- लगता है फ़ातेमा का हाथ मांगने आए हो।

मैंने कहा- जी हॉ।पैग़म्बर ने फ़र्माया- तुमसे पहले भी कुछ लोग फ़ातेमा का हाथ मांगने आए थे, लेकिन फ़ातेमा ने स्वीकार नहीं किया, ठहरो- पहले मैं उनसे पूछ लूं।फिर वे घर के अन्दर गए और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की इच्छा को हज़रत फ़ातेमा के सम्मुख रखा। हर बार के विपरीत कि फ़ातेमा अपना मुंह फेर लेती थीं, इस बार शान्तिपूर्वक और चुप बैठी रहीं। पैग़म्बर ने फ़ातेमा के चेहरे पर जब प्रसन्नता के चिन्ह देखे, तो तक्बीर कहते हुए हज़रत अली के पास वापस लौटे और प्रसन्नता से फ़र्माया – उनका मौन उनके हॉं (इच्छा) का चिन्ह है।विवाह एक मज़बूत हार्दिक बन्धन है जो एक सन्तुलित समाज के आधार को बनाता है। इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि यह बन्धन , दोनों पक्षों की चेतना, एक दूसरे की पहचान तथा इच्छा के बाद ही बॉंधा जाए। इस पवित्र बन्धन के लिए उक्त बातों को इस्लाम ने बहुत महत्व दिया है। इसी लिए रसूले ख़ुदा ने अपनी सुपुत्री के विवाह के अवसर पर उनकी इच्छा जानना चाहि थी। क्योंकि बेटी के विवाह के समय पिता की अनुमति इस्लाम में अनिवार्य है।


हमने तेहरान स्थित शहीद बेहिश्ती विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डा.मोहक़िक़ दामाद के सम्मुख जब यह प्रश्न रखा तो उन्होंने उत्तर दिया- सबसे पहले मैं यह कहना चाहूंगा जिस लड़की का विवाह एक बार हो चुका हो, और पति की मृत्यु या तलाक़ के कारण वो फिर से विवाह करना चाहे तो पिता की अनुमति ज़रूरी नहीं है। और इस्लामी क़ानून में पुत्री के विवाह पर पिता की अनुमति किसी भी प्रकार उसकी स्वतन्त्रता में बाधा नहीं बनती। कभी कभी क़ानून बनाने वाले और उनसे भी ऊपर धर्म, सार्वजनिक व्यवस्था, अधिकारों के उचित सन्तुल और व्यक्तियों के बीच संबंधों के लिए कुछ सीमाएं निर्धारित करते हैं जिनमें से एक यही हमारी चर्चा का विषय है।
परन्तु यह समाज में संकल्प की स्वतन्त्रता में बाधा के रूप में नहीं है। इसी लिए इस क्षेत्र में विश्व की लगभग सभी क़ानूनी पद्धतियों में यह सीमाएं विदित हैं जैसे फ़्रांस और दूसरी क़ानूनी व्यवस्थाओं में।इस्लाम में बेटी के विवाह के लिए पिता की अनुमति स्वंय एक क़ानून है, और यह बेटी पर पिता के वर्चस्व के अर्थ में नहीं है तथा उसकी स्वतन्त्रता को कमज़ोर नहीं करता । बड़े बड़े धार्मिक गुरूओं ने भी इस पर विभिन्न दृष्टिकोंण प्रस्तुत किए हैं। एक लड़की की मानसिक और शारिरिक व्यवस्था को देखते हुए इमाम ख़ुमैनी ने बेटी के विवाह में पिता की अनुमति को अनिवार्य माना है और नागरिक क़ानूनों ने भी इसे स्वीकार किया है। इस विषय को भली भॉंति समझने के लिए अच्छा है कि हम समकाली विद्वान शहीद मुतह्हरी के विचारों को देखें – वे कहते हैं-

पिता की अनुमति की शर्त का यह अर्थ नहीं है कि लड़का बौद्धिक, वैचारिक और सामाजिक विकास में एक पुरूष से कम है, क्योंकि इस विषयका संबंध नर तथा नारी के मनोविज्ञान से है। किसी भी बात पर शिघ्र ही विश्वास करने की अपनी प्रवृत्रि के कारण महिलाएं पुरूषों के प्रेम पूर्ण शब्दों पर भरोसा कर लेती हैं। और कभी कभी लोभी पुरूष, नारी की इसी भावना का अनुचित लाभ उठाते हैं। बहुत सी अनुभव हीन युवतियॉं पुरूषों के जाल में फँस जाती हैं। यही पर इस बात की आवश्यकता कि पिता, जो कि स्वंय पुरूषों की भावनाओं से भली भांति परिचित हैं, अपनी अनुभवहीन बेटी के जीवन साथी के चयन पर नियन्त्रण रखें। इस प्रकार क़ानून ने न केवल यह कि नारी का अनादर नहीं किया हैं बल्कि एक वास्तविक दृष्टिकोंण से उसका समर्थन भी किया है.

सेक्स का दिन समय और तरीके के असरात बच्चे पे क्या होते हैं जानिए |

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इस्लाम  में शादी (निकाह) का तात्पर्य सेक्सी इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ सदैव नेक व सहीह व पूर्ण संतान का द्रष्टिगत रखना भी है। इसी लिए आइम्मः-ए-मासूमिन (अ.) ने मैथुन के लिए महीना, तारीख, दिन, समय और जगह को द्रष्टिगत रखते हुवे अलग-अलग असरात (प्रभाव) बताये है जिसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है।

कमर दर अक्रब (अर्थात जब चाँद व्रश्चिक राशि मे हो) और तहतशशुआअ (अर्थात चाँद के महीने के वह दो या तीन दिन जब चाँद इतना महीन होता है कि दिखाई नही देता) में मैथुन करना घ्रणित है। (तहज़ीब अल इस्लाम पेज 108)

तहतशशुआअ में मैथुन करने पर बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव से सम्बनधित इमाम-ए-मूसी-ए-काज़िम (अ.) ने इर्शाद फ़र्माया किः

जो व्यक्ति अपनी औरत से तहतशशुआअ में मैथुन करे वह पहले अपने दिल में तय करले कि पैदाइश (हमल, गर्भ, बच्चा) पूर्व होने से पहले गर्भ गिर जायेगा। (औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन में यही हदीस इमाम ए जाफर ए सादिक (अ.) से नक्ल है )

तारीख से सम्बन्धित इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ.) ने फ़र्मायाः

महीने के आरम्भ, बीच और अन्त में मैथुन न करो क्योंकि इन मौकों में मैथुन करना गर्भ के गिर जाने का कारण होता है और अगर संतान हो भी जाए तो ज़रूरी है कि वह दीवानगी (पागलपन) में मुब्तला (ग्रस्त) होगी या मिर्गी में। क्या तुम नहीं देखते कि जिस व्यक्ति को मिर्गी की बीमारी होती है, या उसे महीने के शुरू में दौरा होता है या बीच में या आखिर में। (तहज़ीब अल इस्लाम पेज 108- 109)

दिनों के हिसाब से बुद्धवार की रात में मैथुन करना घ्रणित बताया गया है इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक (अ.) का इर्शाद है किः

बुद्धवार की शाम को मैथुन (संभोग) करना उचित नहीं है। (तोहफत अल अवामपेज 430)

जहाँ तक समय का सम्बन्ध है उसके लिए ज़वाल (बारह बजे के आस पास) औऱ सूर्यास्त के समय सुबह शुरू होने के समय से सूर्योदय तक के अलावा पहली घड़ी में संभोग नही करना चाहिए। क्योंकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनियां को आख़िरत पर इख़्तियार करे। 

यह बात रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ.) को वसीयत करते हुवे इर्शाद फर्मायी किः

या अली (अ.) रात की पहली घड़ी (पहर) में संभोग न करना क्योंकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनियां को आख़िरत पर इख्तियार करे। या अली (अ.) यह वसीयतें (शिक्षाऐं) मुझ से सीख लो जिस तरह मैने जिबरईल से सीखी है। (तहज़ीब अल इस्लामपेज 113)

वास्तव में रसूल-ए-खुदा (स.) की यह वसीयत (अन्तिम कथन) केवल हज़रत अली (अ,) से नही है बल्कि पूरी उम्मत से है। इसी वसीयत में रसूल-ए-खुदा (स,) ने मक्रूहात (घ्रणित मैथुन) की सूची इस तरह गिनाई हैः

.......ऐअली (अ.) उस दुल्हन को सात दिन दूध, सिरका, धनिया और खटटे सेब न खाने देना। हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ.) ने कहा किः या रसूलल्लाह (स.) इसका क्या कारण है ? फ़र्माया कि इन चीज़ो के खाने से औरत का गर्भ ठंडा पड़ जाता है और वह बाँझ हो जाती है और उसके संतान नही पैदा होती।

या अली (अ.) अपनी बीवी से महीने के शुरू, बीच, आखिर में संभोग न किया करो कि उसको और उसके बच्चों को दीवानगी, बालखोरः (एक तरह की बीमारी) कोढ़ और दिमाग़ी ख़राबी होने का डर रहता है।

 या अली (अ,) ज़ोहर की नमाज़ के बाद संभोग न करना क्योंकि बच्चा जो पैदा होगा वह परेशान हाल होगा। 

या अली (स,) संभोग के समय बातें  करना अगर बच्चा पैदा होगा तो इसमें शक नहीं कि वह गूँगा हो। और कोई व्यक्ति अपनी औरत की योनि की तरफ न देखे बल्कि इस हालत में आँखें बन्द रखे। क्योंकि उस समय योनि की तरफ देखना संतान के अंधे होने का कारण होता है।


बातें न करने से सम्बन्धित ही इमाम ए जाफऱ ए सादिक (अ) ने इर्शाद फर्माया किः
अगर संभोग के समय बात किया जाए तो ख़ौफ है कि बच्चा गूँगा पैदा हो और अगर उस हालत में मर्द औरत की तरफ देखे तो खौफ है कि बच्चा अन्धा पैदा हो। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 109)

 या अली (अ,) जब किसी और औरत के देखने से सेक्स या इच्छा पैदा हो तो अपनी औरत से संभोग न करना क्योंकि बच्चा जो पैदा होगा नपुंसक या दिवाना होगा। 

या अली (अ.) जो व्यक्ति जनाबत (वीर्य निकलने के बाद) की हालत में अपनी बीवी के बिस्तर में लेटा हो उस पर लाज़िम है कि क़ुर्आन-ए-करीम न पढ़े क्योंकि मुझे डर है कि आसमान से आग बरसे और दोनों को जला दे।

 या अली (अ,) संभोग करने से पहले एक रूमाल अपने लिए और एक अपने बीवी के लिए ले लेना। ऐसा न हो कि तुम दोनों एक ही रूमाल प्रयोग करो कि उस से पहले तो दुश्मनी पैदा होगी और आखिर में जुदाई तक हो जाएगी

 या अली (अ.) अपनी औरत से खड़े खड़े संभोग न करना कि यह काम गधों का सा है। अगर बच्चा पैदा होगा तो वह गधे ही की तरह बिछौने पर पेशाब किया करेगा

 या अली (अ,) ईद-उल-फितर की रात संभोग न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उससे बहुत सी बुराईयां प्रकट होंगी। 

या अली (अ,) ईद-उल-क़ुर्बान की रात संभोग न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो उसके हाथ में छः उँगलियाँ होंगी या चार। या अली (अ,) फलदार पेड़ के नीचे संभोग न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो या क़ातिल व जल्लाद (हत्यारा) होगा या ज़ालिमों (अत्याचारों) का लीडर। 


या अली (अ,) सूर्य के सामने संभोग न करना मगर यह कि परदः डाल लो क्योंकि अगर बच्चा पैदा होगा तो मरते दम तक बराबर बुरी हालत और परेशानी में रहेगा। 

या अली (अ,) अज़ान व अक़ामत के बीच संभोग न करना। अगर बच्चा पैदा होगा तो उसकी प्रव्रति खून बहाने की ओर होगी।

या अली (अ,) जब तुम्हारी बीवी गर्भवती हो तो बिना वज़ू के उस से संभोग न करना वरना बच्चा कनजूस पैदा होगा। 


या अली (अ,) शाअबान की पन्द्रहवीं तारीख को संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो लुटेरा और ज़ुल्म (अत्याचार) को दोस्त रखता होगा और उसके हाथ से बहुत से आदमी मारें जायेंगे। 

या अली (अ. कोठे पर संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो मुनाफिक़ और दग़ाबाज़ होगा। 

या अली (अ.) जब तुम यात्रा (सफर) पर जाओ तो उस रात को संभोग न करना वरना बच्चा पैदा होगा तो नाहक़ (बेजा) माल खर्च करेगा और बेजा खर्च करने वाले लोग शैतान के भाई हैं और अगर कोई ऐसे सफर में जायें जहाँ तीन दिन का रास्ता हो तो संभोग करे वरना अगर बच्चा पैदा हुआ तो अत्याचार को दोस्त रखेगा।(तहज़ीब अल इस्लाम पेज 111-112)

जहाँ रसूल-ए-खुदा (स.) ने उपर्युक्त बातें इर्शाद फ़र्मायीं हैं वहीं किसी मौक़े पर यह भी फ़र्माया किः

उस खुदा कि कसम जिस की क़ुदरत में मेरी जान है अगर कोई व्यक्ति अपनी औरत से ऐसे मकान में संभोग करे जिस में कोई जागता हो और वह उनको देखे या उनकी बात या सांस की आवाज़ सुने तो संतान जो उस मैथुन से पैदा होगी नाजी न होगी (अर्थात उसे मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकती) बल्कि बलात्कारी होगी। 

शायद इसी लिए इमाम-ए-ज़ैनुल आबिदीन (अ,) जिस समय संभोग का इरादः करते तो नौकरों को हटा देते, दरवाज़ा बन्द कर देते, पर्दः डाल देते और फिर किसी नौकर को उस कमरे के करीब आने की इजाज़त (आज्ञा, अनुमति) नहीं होती थी। ( तहज़ीब अल इस्लाम पेज 110, 115)

अतः ज़रूरी अहतेयात यह है कि अच्छे और बुरे की तमीज़ (समझ) न रखने वाले बच्चे के सामने भी मैथुन न करें। क्योंकि इस से बच्चे के बलात्कार की ओर आकर्षित होने का डर है।

यह भी घ्रणित है कि कोई एक आज़ाद (स्वतन्त्र) औरत के सामने दूसरी आज़ाद औरत से संभोग करे।

और आप ही ने इर्शाद फ़र्माया किः

तीन चीज़ शरीर के लिए बहुत खतरनाक (हानिकारक) बल्कि कभी हलाक करने वाली (प्राण घातक) भी होती है। पेट भरे होने की हालत में हमाम में जाना (अर्थात स्नान करना) पेट भरा होने की हालत में संभोग और बूढ़ी औरत से संभोग करना। (हयात ए इन्सान के छः मरहले पेज 38)


संभोग के समय इसका भी ख्याल (ध्यान) रखना चाहिए किः

अगर किसी के पास कोई ऐसी अंगूठी हो जिस पर कोई नामे खुदा हो उस अंगूठी को उतारे बिना संभोग न करे। (तहज़ीब अल इस्लाम पेज 115-116, 110-111)

जहाँ यह सभी चीज़े हैं वहीं काबे की तरफ मुँह करके संभोग करना घ्रणित है। इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ.) से सवाल करने वाले ने सवाल किया किः

क्या मर्द नंगा (निर्वस्त्र) होकर संभोग कर सकता है। फ़र्माया नहीं। इसके अतिरिक्त न ही क़िब्ले की ओर मुँह करके संभोग कर सकता है न काबे की ओर पीठ करके और न ही किश्ती में। (225)



जबकि आधुनिक युग के अधिकतर जोड़े पूरे नंगे होकर (अर्थात पूरे कपड़े उतार कर) संभोग करने से अधिक स्वाद और आन्नद महसूस करते हैं और यह कहते हैं कि इस से संभोग में कई गुना बढ़ोतरी हो जाती है। लेकिन उन्हे यह मालूम नहीं कि इस तरह मैथुन क्रिया से पैदा होने वाले बच्चे बेशर्म होते हैं। रसूल-ए-अकरम ने फ़र्मायाः

जंगली जानवरों की तरह नंगे न हो, क्योंकि नंगे होकर संभोग करने से संतान बेशर्म पैदा होती है। (कानून ए मुबाशरत पेज 12)

बहरहाल अगर बहुत ज़्यादा ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होगा कि सभी मकहूरात (घ्रणित मैथुन) संभोग से अधिकतर बच्चे का फायदः (अर्थात शारीरिक कमीयों से पाक) होगा और कुछ (जैसे संभोग के बाद लगी हुई गंदगी को दूर करने के लिए मर्द और औरत से अलग-अलग रूमाल होने) में औरत और मर्द का फायदः (अर्थात दुश्मनी या जुदाई न होना) होगा।

याद रखना चाहिए कि जिस तरह घ्रणित मैथुन से मर्द और औरत या बच्चे का लाभ होगा उसी तरह पुनीत मैथुन (मुस्तहिबाते जिमाअ) से औरत और मर्द या बच्चे का ही लाभ होगा।


पुनीत मैथुनः पिछले अध्याय में लिखा जा चुका है कि संभोग के समय वज़ू किये होना और बिस्मिल्लाह कहना पुनीत है। वास्तव में यह इस्लाम धर्म की सर्वोच्च शिक्षाऐं है कि वह व्यक्ति को ऐसे हैजानी, जज़बाती और भावुक माहौल (संभोग के समय) में भी अपने खुदा से बेखबर नही होने देना चाहता। जिसका अर्थ यह है कि एक सच्चे मुस्लमान का कोई काम खुदा की याद या खुदा के क़ानून से अलग हट कर नही होता है। उसके दिमाग़ में हर समय यह बात रहती है कि वह दुनियां का हर काम (यहाँ तक कि मैथुन भी) खुदा कि खुशनूदी के लिए करता है ------ यही कारण है कि ऐसा खुदा का नेक, अच्छा व्यक्ति जिस समय सेक्सी इच्छा की पूर्ति कर रहा होता है उस समय खुदा अपने छिपे हुए खज़ाने से, उसके लिए संतान जैसी वह महान नेअमत (अर्थात ईश्वर का दिया हुआ वह महान धन) तय करता है जो दीन (धर्म) और दुनिया के लिए लाभदायक और प्रयोग योग्य सिद्ध होती है।


दिन के हिसाब से सेक्स करने के नतीजे |

उसी नेक औऱ लाभदायक और प्रयोग योग्य संतान प्राप्त करने के लिए जहाँ रसूल-ए-खुदा (स.) ने हज़रत अली (अ,) को घ्रणित मैथुन की शिक्षा दी है वहीं पुनीत मैथुन से सम्बन्धित बताया है किः

या अली (अ,) सोमवार की रात को मैथुन करना अगर संतान पैदा हुवी तो हाफिज़े क़ुर्आन और खुदा की नेअमत पर राज़ी व शाकिर होगी। 

या अली (अ,) अगर तुम ने मंगलवार की रात को मैथुन किया तो जो बच्चा पैदा होगा वह इस्लाम की सआदत (प्रताप) प्राप्त करने के अलावा शहादत का पद (मरतबा) भी पायेगा। मुँह से उसके खुशबूँ आती होगी। दिल उसका रहम (दया) से भरा होगा। हाथ का वह सखी (दाता) होगा। और ज़बान उसकी दूसरों की बुराई और उनसे सम्बन्धित ग़लत बात कहने से रूकी रहेगी। 

या अली (अ,) अगर तुम ब्रहस्पतिवार की रात को मैथुन करोगे तो जो बच्चा पैदा होगा वह शरीअत का हाकिम (पदाधिकारी) होगा या विद्धान और अगर ब्रहस्पतिवार के दिन ठीक दोपहर के समय मैथुन करोगे तो आखिरी समय तक शैतान उस के पास न आ सकेगा और खुदा उसको दीन और दुनिया में तरक्की देगा। 

या अली (अ,) अगर तुम ने शुक्रवार की रात को मैथुन किया तो बच्चा जो पैदा होगा वह बात चीत में बहुत मीठा और सरल व सुन्दर मंजी हुवी भाषा के बोलने वालों में प्रसिद्ध होगा और कोई बोलने वाला (व्याखता) उसकी बराबरी न कर सकेगा और अगर शुक्रवार के दिन अस्र की नमाज़ के बाद मैथुन करे तो बच्चा जो पैदा होगा वह ज़माने के बहुत ही बुद्धिजीवीयों में गिना जाएगा। अगर शुक्रवार की रात इशाअ की नमाज़ के बाद मैथुन किया तो उम्मीद है कि जो बच्चा पैदा होगा वह पूर्ण उत्तराधिकारियों (वली-ए-कामिल) में गिना जाएगा। (तहज़ीब अल इस्लामपेज 112-113 व तोहफः ए अहमदया भाग (2) पेज 141)

पुनीत मैथुन से सम्बन्धित यह भी मिलता है कि छुप कर मैथुन करना चाहिए जैसा कि ऊपर भी वर्णन किया जा चुका है कि इमाम-ए-ज़ैनुल आबेदीन (अ,) जब भी संभोग का इरादः करते थे तो दरवाज़े बन्द करते, उन पर पर्दः डालते और किसी को कमरे की तरफ न आने देते थे। छुप कर संभोग करने ही से सम्बन्धित उन घ्रणित मैथुन को भी दृष्टिगत रखा जा सकता है जिसमें अच्छे और बुरे की पहचान न रखने वाले बच्चे के सामने भी संभोग करने को मना किया गया है। या एक आज़ाद (स्वतन्त्र) और से मौजूदगी (उपस्थिति) में दूसरी आज़ाद औरत के साथ मैथुन करने को भी घ्रणित बताया गया है। अतः इस से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि छुप कर मैथुन करना ही पुनीत (मुस्तहिब) है। इसी से सम्बन्धित रसूल-ए-खुदा (स.) ने इर्शाद फ़र्माया किः

कव्वे की सी तीन आदतें सीखो। छुप कर मैथुन करना, बिल्कुल सुबह रोज़ी की तलाश में जाना, दुश्मनों से बहुत बचे रहना। (तहज़ीब अल इस्लाम पेज (114) व (109) व औराद अल मोमिनीन व वज़ाएफ अल मुत्तकीन पेज 314)

पुनीत मैथुन में यह भी मिलता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी औरत से फौरन संभोग न करे। बल्कि पहले छाती, रान आदि को मसले, सहलाए, (अर्थात मसास करे) छेड़-छाड़ और मज़ाक करे। इस बात को सेक्सी शिक्षा के विद्धानों ने माना है। उनकी दृष्टि में एकदम से संभोग करने पर मर्द का वीर्य शीघ्र ही निकल जाता है जिसके कारण मर्द की इच्छा तो पूरी हो जाती है लेकिन औरत की इच्छा पूरी नहीं हो पाती। जिसकी वजह से औरत अपने मर्द से नफ़रत करने लगती है। शायद इसी लिए प्राकृतिक धर्म इस्लाम ने मसास (मसलना, सहलाना) चूमना चाटना छेड़-छाड़, हंसी-मज़ाक, प्यार व मुहब्बत की बातें आदि को पुनीत करार दिया है ताकि औरत उपर्युक्त कार्यों से संभोग के लिए पूरी तरह तैय्यार हो जाए और जब उससे संभोग किया जाए तो वह भी मर्द की तरह से पूरी तरह सेक्सी संतुष्टि (अर्थात स्वाद और आन्नद) प्राप्त कर सके। इसीलिए रसूल-ए-खुदा ने इर्शाद फ़र्माया किः

जो व्यक्ति अपनी औरत से संभोग करे वह मुर्ग़ की तरह उस के पास न जाए बल्कि पहले मसास और छेड़-छाड़ी हंसी मज़ाक करे उसके बाद संभोग करे। (229)

यही वजह है कि जिस समय इमाम-ए-जाफ़र-ए-सादिक़ (अ,) से किसी ने पूछा किः

अगर कोई व्यक्ति हाथ या उंगली से अपनी बीवी  की योनि के साथ छेड़-छाड़ करे तो कैसा ? फ़र्माया कोई नुकसान नहीं लेकिन बदन (शरीर) के हिस्सों (अंगों) के अलावा कोई और चीज़ (वस्तु) उस स्थान में प्रवेश न करे। (231)

अर्थात औरत को संभोग के लिए पूरी तरह तैय्यार करने और गर्म करने के लिए मर्द औरत की योनि (शर्मगाह) में अपनी उंगली या शरीर के किसी अंग से छेड़-छाड़ कर सकता है ताकि औरत और मर्द को पूरी तरह से सेक्सी स्वाद और आन्नद प्राप्त हो सके।

याद रखना चाहिए कि इमाम ए जाफर ए सादिक (अ) से संभोग से सम्बन्धित निम्नलिखित बातें भी पूछी गयी कि
(अ) अगर संभोग के समय औरत या मर्द के मुँह से कपड़ा हट जाए तो कैसा। फर्माया कुछ हर्ज नहीं।
(ब) अगर कोई संभोग करने की हालत में अपनी औरत का बोसा ले (प्यार करे) तो कैसा। फर्माया कुछ हर्ज नही। (इस तरह करने से सेक्सी स्वाद व आनन्द काफी हद तक बढ़ जाता है। जिसका अहसास (अनुभव) औरत और मर्द दोनों को होता है।) (तकी अली आबदी)
(स) अगर कोई व्यक्ति अपनी औरत को नंगा कर के देखे तो कैसा। फर्माया न देखने में स्वाद व आनन्द ज़्यादा है।
(द) क्या पानी में संभोग कर सकते हैं। फर्माया कोई हर्ज नहीं।
और इमाम रज़ा (अ) से पूछा गया कि हम्माम (स्नानग्रह) में संभोग कर सकते हैं। फर्माया कुछ हर्ज नहीं। (देखिए तहज़ीब अल इस्लामपेज (109) व 110)
तौज़ीह अल मसाएल (उर्दू) मुहम्मद रज़ा गुलपाएगानी पेज (391) और अबू अल कालिस अल खूई के अमलये मे मिलता है कि
मर्द को अपनी जवान और विवाहित बीवी से चार महीनें में एक बार ज़रूर संभोग करना चाहिए। (देखिए तौज़ीह अल मसाएल अल खूई पेज 287
वर्तमान युग में कुछ जगह ज़रूर यह देखने में आया है कि अगर मर्द पहली रात (अर्थात सुहाग रात) में अपनी नई नवेली दुल्हन से किसी वजह से संभोग नही करता तो लड़की के घर वाले (मुख्य रूप से माँ) मर्द के नामर्द (नपुन्सक) होने का यकीन करके विभिन्न प्रकार की बातें करने लगते है जबकि उन्हे दो चार दिन हालात को देख कर ही फैसला करना चाहिए न कि पहले ही दिन।

 इमाम ए ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने इर्शाद फर्मायाः तुम पर औरत का हक़ यह है कि उसके साथ मेहरबानी करो क्योंकि वह तुम्हारी देख भाल में है उसके खाने कपड़े का इन्तिज़ाम करोउसकी ग़लतीयों को माँफ करो। (देखिए बिहार अल अनवार भाग (47) पेज 5, खानदान का अख्लाक पेज (198) से नक्ल)



रसूल ए खुदा (स) ने इर्शाद फर्मायाः

औरत की मिसाल पसली की हड्डी सी है कि अगर उसके हाल पर रहने दोगे तो फायदः पाओगे और अगर सीधा करना चाहोगे तो सम्भव है कि वह टूट जाऐ। (संक्षिपत यह है कि ज़रा ज़रा सी अप्रसन्ताओं पर सब्र करो।) (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 122)

जिस शहर में किसी व्यक्ति की पत्नी मौजूद हो वह उस शहर में रात को किसी दूसरे व्यक्ति के मकान में सोये और अपनी बीवी के पास न आये तो यह बात उस मकान मालिक की हलाकत (मर जाने) का कारण होगा। (देखिए तहज़ीब अल इस्लाम पेज 121,)


ज़बान और हदीस |

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1. इमाम अली (अ.स.)
जो शख्स भी कोई चीज़ अपने दिल मे छुपाने की कोशिश करता है तो उसके दिल की बात उसकी जबानी ग़लतीयो और चेहरे से मालूम हो जाती है।
(नहजुल बलाग़ा, हदीस न. 25)
 
   رسول اكرم صلى الله عليه و آله
    مَنْ كانَ يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَ الْيَوْمِ الْآخِرِ فَلْيَقُلْ خَيْراً أَوْ لِيَسْكُتْ.
 
2. रसूले अकरम (स.अ)
जो कोई भी खुदा और आखेरत पर ईमान रखता हो उसे चाहिये कि सिर्फ अच्छी बात बोले या खामोश रहे।
(उसूले काफी, जिल्द 2 पेज न. 667)
 
 امام باقر عليه السلام
    إِنَّ هذَا اللِّسانَ مِفتاحُ كُلِّ خَيرٍ و شَرٍّ فَيَنبَغى لِلمُؤمِنِ أَن يَختِمَ عَلى لِسانِهِ كَما يَختِمُ عَلى ذَهَبِهِ وَ فِضَّتِهِ
3.  इमाम बाक़िर (अ.स)
बेशक जबान हर अच्छाई और बुराई की चाबी है पस मोमीन के लिऐ ज़रूरी है कि अपनी जबान की निगरानी करे जैसे अपने सोने और चांदी की निगरानी करता है।
(तोहफुल उक़ूल, पेज न. 298)

    امام سجاد عليه السلام
    حَقُّ اللِّسَانِ إِكْرَامُهُ عَنِ الْخَنَى وَ تَعْوِيدُهُ الْخَيْرَ وَ تَرْكُ الْفُضُولِ الَّتِي لَا فَائِدَةَ

4. इमाम सज्जाद (अ.स)
जबान का हक ये है कि इसे बुरी बातो के कहने से दूर रखो और इसे अच्छी बातो की आदत डालो और उन बातो क छोड़ दो कि जिन का कोई फायदा नही है।
(मकारिमुल अखलाक़, पेज न. 419)
 

 امام على عليه السلام
    اَللِّسانُ سَبُعٌ إِن خُلِّىَ عَنهُ عَقَرَ.
5. इमाम अली (अ.स)
ज़बान एक दरिन्दा है, ज़रा आजाद कर दिया जाए को काट खाएगा।
(नहजुल बलाग़ा, हदीस न. 59)
    
امام على عليه السلام
    اِحبِس لِسانَكَ قَبلَ أَن يُطيلَ حَبسَكَ وَ يُردىَ نَفسَكَ فَلا شَىءَ أَولى بِطولِ سَجنٍ مِن لِسانٍ يَعدِلُ عَنِ الصَّوابِ و يَتَسَرَّعُ إِلَى الجَوابِ.
6. इमाम अली (अ.स)
अपनी जबान को कैद कर दो इस से पहले की ये तुम्हे एक लम्बी क़ैद मे डाल दे क्योकि कोई चीज़ भी उस जबान से ज़्यादा कैद होने की हकदार नही है कि जो सही रास्ते को छोड़ दे और हमेशा जवाब देने को बेताब रहती है।
(गुरारुल हिकम, पेज न. 214, हदीस न. 4180)

رسول اكرم صلى الله عليه و آله
    يُعَذِّبُ اللَّهُ اللِّسَانَ بِعَذَابٍ لَا يُعَذِّبُ بِهِ شَيْئاً مِنَ الْجَوَارِحِ فَيَقُولُ أَيْ رَبِّ عَذَّبْتَنِي بِعَذَابٍ لَمْ تُعَذِّبْ بِهِ شَيْئاً فَيُقَالُ لَهُ خَرَجَتْ مِنْكَ كَلِمَةٌ فَبَلَغَتْ مَشَارِقَ الْأَرْضِ وَ مَغَارِبَهَا فَسُفِكَ بِهَا الدَّمُ الْحَرَامُ وَ انْتُهِبَ بِهَا الْمَالُ الْحَرَامُ وَ انْتُهِكَ بِهَا الْفَرْجُ الْحَرَامُ
7. रसूले अकरम (स.अ)
खुदा वंदे आलम जबान पर ऐसा अज़ाब नाज़िल करेगा कि जो बदन के किसी दूसरे हिस्से पर नाज़िल नही किया होगा तो जबान परवरदिगार से शिकवा करेगी कि बारे इलाहा। तूने (क्यो) मुझ पर ऐसा अज़ाब नाज़िल किया जो जो बदन के किसी दूसरे हिस्से पर नाज़िल नही किया तो अल्लाह उसे जवाब देगा कि तुझसे ऐसी बाते निकली है कि जो पूरब से पश्चिम तक फैल गई और उनकी वजह से (बहुत से) खूने नाहक़ बहे और बहुत से माल नाहक़ गारत हुऐ।
(उसूले काफी,  जिल्द 2, पेज न.115, हदीस न. 16)

  پيامبر صلى ‏الله ‏عليه ‏و ‏آله
     إِنَّ لِسَانَ الْمُؤْمِنِ وَرَاءَ قَلْبِهِ فَإِذَا أَرَادَ أَنْ يَتَكَلَّمَ بِشَيْ‏ءٍ يُدَبِّرُهُ بِقَلْبِهِ ثُمَّ أَمْضَاهُ بِلِسَانِهِ وَ إِنَّ لِسَانَ الْمُنَافِقِ أَمَامَ قَلْبِهِ فَإِذَا هَمَّ بِالشَّيْ‏ءِ أَمْضَاهُ بِلِسَانِهِ وَ لَمْ يَتَدَبَّرْهُ بِقَلْبِه‏
8. रसूले अकरम (स.अ)
मोमीन की जबान उसके दिल के पीछे है वो पहले सोचता है फिर बोलता है लेकिन मुनाफिक की जबान उसके दिल के आगे है जब भी बोलना चाहता है बोल देता है उसके बारे मे सोचता नही है।
(तंबीहुल खवातिर, जिल्द न. 1, पेज न. 106)

امام على علیه السلام
    وَرَعُ الْمُنَافِقِ لَا يَظْهَرُ إِلَّا عَلَى لِسَانِه‏
 9. इमाम अली (अ.स)
मुनाफिक़ की परहेज़गारी सिर्फ उसकी ज़बान से जाहिर होती है।
(गुरारुल हिकम, पेज न. 459, हदीस न. 10509)

   امام على علیه السلام
    عِلمُ المُنافِقِ في لِسانِهِ وَ عِلمُ المُؤمِنِ في عَمَلِهِ
10.  इमाम अली (अ.स)
मुनाफिक़ का इल्म उसकी ज़बान पर और मोमीन का इल्म उसके किरदार मे दिखाई देता है।

امام على عليه‏ السلام
     عَوِّدْ لِسَانَكَ لِينَ الْكَلَامِ وَ بَذْلَ السَّلَامِ يَكْثُرْ مُحِبُّوكَ وَ يَقِلَّ مُبْغِضُوك
11. इमाम अली (अ.स)
अपनी ज़बान को मीठी बातो और सलाम करने की आदत डालो ताकि तुम्हारे दोस्त ज़्यादा और दुश्मन कम हो।
(गुरारुल हिकम, पेज न. 435, हदीस न. 9946)

 پيامبر صلی الله علیه و آله
 مَن دَفَعَ غَضَبَهُ دَفَعَ اللّه‏ُ عَنهُ عَذابَهُ وَ مَن حَفِظَ لِسانَهُ سَتَرَ اللّه‏ُ عَورَتَهُ
12. रसूले अकरम (स.अ)
जो अपने गुस्से को कंट्रोल कर लेता है खुदा उससे अजाब को हटा लेता है और जो अपनी ज़बान को कंट्रोल कर लेता है खुदा उसके ऐबो को छुपा लेता है।
(नहजुल फसाहा, पेज न. 767, हदीस न. 3004)

  امام باقر عليه‏ السلام
    لا یَسلَمُ أحَدٌ مِنَ الذُّنوبِ حَتَّی یَخزُنَ لِسانَهُ
13.  इमाम बाक़िर (अ.स)
जब तक इंसान अपनी ज़बान पर कंट्रोल नही कर लेता, गुनाहो से नही बच सकता।
(तोहफुल उक़ूल, पेज न. 298)
  

 امام صادق عليه‏ السلام
     إِنَّ أَبْغَضَ خَلْقِ اللَّهِ عَبْدٌ اتَّقَى النَّاسُ لِسَانَه‏
14.  इमाम सादिक़ (अ.स)
बेशक खुदा वंदे आलम उस बंदे से सबसे ज़्यादा नफरत करता है जिसके ज़बान के शर से लोग उससे बचते हो।
(उसूले काफी,  जिल्द 2, पेज न. 323)

   امام علی عليه‏ السلام
     لا تَقُل ما لا تُحِبُّ أن يُقالَ لَكَ
15. इमाम अली (अ.स)
किसी को ऐसी बात मत कहो कि जो तुम अपने बारे मे सुनना नही चाहते।
(तोहफुल उक़ूल, पेज न. 74)




नमाज़ और अहादीस |

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1.    रसूले अकरम (स.अ.व.व)

हमेशा मेरे उम्मती खैरो बरकत को देखेंगे जब तक की एक दूसरे से मौहब्बत करते रहे, नमाज पढ़ते रहे, जकात देते रहे और मेहमान की इज़्ज़त करते रहे।
(अमाली शेख तूसी पेज न. 647 हदीस न. 1340)

رسول اكرم صلى الله عليه و آله 
الدّعاء مفتاح الرّحمة و الوضوء مفتاح الصّلاة و الصّلاة مفتاح الجنّة
2.    रसूले अकरम (स.अ.व.व)
दुआ रहमत की चाबी है। और वुज़ु नमाज़ की चाबी और नमाज़ जन्नत की चाबी है।
(नहजुल फसाहा पेज न. 485 हदीस न. 1588)

رسول اكرم صلى الله عليه و آله
 أَوَّلُ الْوَقْتِ رِضْوَانُ اللَّهِ وَ آخِرُهُ عَفْوُ اللَّه
3.    रसूले अकरम (स.अ.व.व)
अव्वले वक्त मे नमाज़ पढ़ना खुशनूदीऐ खुदा और आखिरे वक्त मे नमाज़ पढ़ना बखशिशे खुदा है।
(मनला यहज़रोहुल फक़ीह जिल्द 1 पेज न. 217 हदीस न. 651)

امام على عليه السلام
لَو يَعلَمُ المُصَلّى ما يَغشاهُ مِنَ الرَّحمَةِ لَما رَفَعَ رَأسَهُ مِنَ السُّجودِ
4.    इमाम अली (अ.स)
अगर नमाज़ पढ़ने वाला जान ले कि नमाज़ पढ़ते वक्त उस पर कितनी रहमते खुदा बरस रही है तो हरगिज़ सजदे से सर नही उठाऐगा।
(गुरारूल हिकम पेज न. 175 हदीस न.  3347)

امام على عليه السلام
اُنظُر فيما تُصَلّى و َعَلى ما تُصَلّى اِن لَم يَكُن مِن وَجهِهِ و َحِلِّهِ فَلا قَبولَ

5.    इमाम अली (अ.स)
देखो कि तुम किस लिबास मे और किस चीज़ पर नमाज़ पढ़ रहे हो अगर हलाल माल से खरीदे हुऐ नही है तो नमाज़ कुबुल नही होगी।
(तोहफुल उक़ूल पेज न.  174)

امام صادق عليه السلام
مَن قَبِلَ اللّه مِنهُ صَلاةً واحِدَةً لَم يُعَذِّبهُ و َمَن قَبِلَ مِنهُ حَسَنَهً لَم يُعَذِّبهُ
6.    इमाम सादिक़ (अ.स)
परवरदिगारे आलम जिस की एक नमाज़ को कुबुल कर लेगा या उसकी एक नेकी को कुबुल कर लेगा तो उसको कभी अज़ाब नही करेगा।
(उसूले काफी जिल्द न. 3 पेज न. 266 हदीस न.  11)

 امام صادق عليه السلام
يُعرَفُ مَن يَصِفُ الحَقَّ بِثَلاثِ خِصالٍ: يُنظَرُ اِلى اَصحابِهِ مَن هُم؟ و َاِلى صَلاتِهِ كَيفَ هىَ؟ و َفى اَىِّ وَقتٍ يُصَلّيها
7.    इमाम सादिक़ (अ.स)
जो शख्स भी अपनी हक्कानियत का दम भरता हो तो उसकी पहचान के तीन तरीक़े हैः
1.    देखो कि उसके दोस्त कैसे लोग है।
2.    उसकी नमाज़ कैसी है।
3.    और वो किस वक्त नमाज़ पढ़ता है।
(महासिन पेज न. 254 हदीस न. 281)

امام صادق علیه السلام
أَقرَبُ ما یَکُونُ العَبدُ إلَی اللهِ وَ هُوَ ساجِدٌ
8.    इमाम सादिक़ (अ.स)
बंदे को परवरदिगार के सबसे ज्यादा नजदीक कर देने वाली हालत, हालते सजदा है।
(उसूले काफी जिल्द 3 पेज न. 324 हदीस 11)

 امام صادق علیه السلام
أَثَافِيُّ الْإِسْلَامِ ثَلَاثَةٌ الصَّلَاةُ وَ الزَّكَاةُ وَ الْوَلَايَةُ لَا تَصِحُّ وَاحِدَةٌ مِنْهُنَّ إِلَّا بِصَاحِبَتَيْهَا
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9.    इमाम सादिक़ (अ.स)
इस्लाम की बुनयाद तीन चीज़ो पर हैः
1)    नमाज़
2)    ज़कात
3)    और विलायत
और उनमे से कोई एक भी दूसरे के बग़ैर सही नही है।
(काफी जिल्द न. 2 पेज न. 18 हदीस न. 4)

 امام صادق علیه السلام
اِنَّ مِن تَمامِ الصَّومِ اِعطاءُ الزَّکاةِ یَعنى الفِطرَة کَما اَنَّ الصَّلَاةَ عَلَى النَّبِى (صلی الله علیه و آله و سلم) مِن تَمامِ الصَّلَاةِ
10.    इमाम सादिक़ (अ.स)
रोज़े की तकमील फितरा अदा करना है इसी तरह नमाज़ की तकमील नबी पर सलवात भेजना है।
(मनला यहज़रोहुल फक़ीह जिल्द 2 पेज न. 183 हदीस न. 2085)

امام کاظم علیه السلام
اَفضَلُ ما یَتَقَرَّبُ به العَبدُ اِلی اللهِ بَعدِ المَعرِفَةِ به، الصَلاةُ
11.    इमाम काज़िम (अ.स)
मारेफते खुदा के बाद अफज़लतरीन चीज़ के जो बंदे को खुदा के क़रीब करती है, नमाज़ है।
(तोहफुल उक़ूल पेज न. 391)

 امام علی علیه السلام
لِکُلِّ شَیءٍ وَجهٌ وَ وَجهُ دینِکم الصَّلاةُ؛
12.     इमाम अली (अ.स)
हर चीज का एक चेहरा है और तुम्हारे दीन का चेहरा नमाज़ है।
(उसूले काफी जिल्द न. 3 पेज न. 270 हदीस न. 16)

رسول اكرم صلى الله عليه و آله
لا یَنالُ شَفاعَتی مَن اَخَّرَ الصَّلاةَ بَعدَ وَقتِها
13.     रसूले अकरम (स.अ.व.व)
जो शख्स भी नमाज़ को उस वक्त के बाद पढ़ेगा उसे हमारी शफाअत नसीब नही होगी।
(बिहारूल अनवार जिल्द न. 80 पेज न. 20, हदीस न. 35)

امام علی علیه السلام
مَن صَلّی رَکعَتَینِ یَعلَمُ مایَقولُ فِیهما اِنصَرَفَ وَ لَیسَ بَینَه وَ بَینَ اللهِ - عَزَّ وَ جَلَّ - ذَنبٌ
14.     इमाम अली (अ.स)
जो शख्स भी दो रकअत नमाज़ इस हाल मे पढ़े कि जानता हो (और समझता हो) कि क्या कह रहा है। और इसी हाल मे नमाज़ को खत्म करे तो उसके और खुदा के दरमियान कोई गुनाह बाकि नही है।
(यानी उसके तमाम गुनाह जो खुदा से ताल्लुक़ रखते थे माफ कर दिये गऐ।)
(मकारिमुल अखलाक़ पेज न. 300)

امام صادق علیه السلام
لا یَنالُ شَفاعَتَنا مَن استَخَفَّ بِالصَّلاة
15.    इमाम सादिक़ (अ.स)
जिसने नमाज़ को हल्का समझा उसे हमारी शिफाअत नसीब नही होगी।
(उसूले काफी जिल्द 3 पेज न. 270, हदीस न. 15)

امام علی علیه السلام
الصَّلاةُ حِصنٌ مِن سَطَواتِ الشَّیطانِ
16.     इमाम अली (अ.स)
नमाज़ एक मज़बूत किला है कि जो बंदे को शैतान के हमलो से बचाता है।
(गुरारूल हिकम पेज. न. 175 हदीस न. 3343)

 حضرت زهرا سلام الله علیها
فَجَعلَ اللهُ الایمانَ تَطهیراً لَکم مِنَ الشِّرکِ ، وَ الصَّلاةَ تَنزیهاً لَکم عَن الکِبرِ
17.    जनाबे फातेमा ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा)
खुदा वंदे आलम ने ईमान को शिर्क से पाकीज़गी और नमाज़ को तकब्बुर से दूर रखने के लिऐ करार दिया है।
(अहतेजाजे तबरसी जिल्द न. 1 पेज न. 99)

پیامبراکرم صلی الله علیه و آله
اَحَبُّ الاعمالِ اِلَی اللهِ الصَّلاةُ لِوَقتِها ثُمَّ بِرُّ الوالِدَین ثُمَّ الجِهادُ فی سَبیلِ اللهِ
18.     रसूले अकरम (स.अ.व.व)
खुदा वंदे आलम के नज़दीक सबसे महबूब तरीन अमल नमाज़ को उसके वक्त पर पढ़ना है उसके बाद माँ-बाप से नेकी करना और खुदा की राह मे जंग करना है।
(नहजुल फसाहा, पेज न. 167, हदीस न. 70)


जनाब ऐ फातिमा (स.अ ) का ख़ुतब ए फ़िदक|

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प्रिय पाठकों हम आपके सामने पैग़म्बर की इकलौती बेटी वह बेटी जिसे आपने अम्मे अबीहा कहा , वह बेटी जो सारे संसार की औरतों की सरदार हैं, वह बेटी जो सच्ची है, वह बेटी जो पवित्र है वह बेटी जिसका क्रोध पैग़म्बर का क्रोध हैं और जिसकी प्रसन्नता पैग़म्बर की प्रसन्नता है, के फ़िदक के ख़ुतबे का कुछ भाग प्रस्तुत कर रहे हैं।

स्पष्ट रहे कि यह फ़िदक के पूरे ख़ुतबे का अनुवाद नहीं है बल्कि हम केवल उस भाग के कुछ अंशों को यहां पर अनुवादित कर रहे हैं जिसमें आपने फ़िदक और अपनी मीरास के सम्बंध में फ़रमाया है। अगर ईश्वर ने चाहा और हमको तौफ़ीक़ दी तो किसी दूसरे मौक़े पर हम आपके सामने पूरे ख़ुतबे का अनुवाद प्रस्तुत करेंगे

और तुम यह समझते हो कि हम अहलेबैत का मीरास में कोई हक़ नहीं है!  क्या तुम लोग जाहेलियत का आदेश जारी कर रहे हो?! और ईमान वालों के लिए ईश्वरीय आदेश से बेहतर क्या आदेश हो सकता है? क्या तुम लोग नहीं जानते हो? निःसंदेह चमकते हुए सूर्य की भाति (यह बात) तुम्हारे लिए रौशन है कि मैं उनकी (पैग़म्बर) बेटी हूं। तुम मुसलमानों से यह आशा नहीं थी! क्या मेरे पिता की मीरास मुझ से बलपूर्वक छीनी जाएगी?

हे अबू क़हाफ़ा के बेटे, क्या कुरआन में लिखा है कि तुम तो अपने पिता से मीरास पाओ लेकिन मुझे अपनी पिता की मीरास न मिले? आश्चर्यजनक बात पेश की है या दीदादिलेरी के साथ रसूले ख़ुदा (स) के परिवार से क़ते रहम और वादे को तोड़ने के लिए यह कार्य किया है! क्या तुम ने जानबूझकर क़ुरआन को छोड़ दिया है और उसे अपनी पीठ के पीछ फेंक दिया है? ख़ुदा क़ुरआन में फ़रमाता है सुलैमान ने दाऊद से मीरास पाई” (1) और जब यहया और ज़करिया की कहानी कहते हुए जहां ज़करिया ने फ़रमाया ख़ुदाया... मुझे एक बेटा दे जो मुझ से और आले याक़ूब से मीरास पाए” (2)  और फ़रमाया है और मृत्कों के रिश्तेदारों में कुछ लोग दूसरों से क़ुरआन में मीरास पाने में दूसरों पर प्राथमिक्ता रखते हैं” (3)  और फ़रमायाः ख़ुदा तुम्हारी औलादों के सिलसिले में सिफ़ारिश करता है कि बेटे बेटियों से दोगुनी मीरास पाएंगे। (4) और फ़रमाया है अगर मरने वाला अपने पीछे कोई चीज़ छोड़ जाए तो माता पिता और परिवार वालों के लिए अच्छी वसीयत करे, यह वह हक़ हैं जिसे मुत्तक़ियों को पूरा करना चाहिए। (5)
क्या तुम लोग यह समझते हो कि मेरे लिए मीरास में कोई हिस्सा नहीं है और मुझ तक मेरे पिता से कोई मीरास नहीं पहुंचेगी और मेरे औरे मेरे पिता के बीच कोई संबंध नहीं है?! क्या ख़ुदा ने तुम पर कोई आयत उतारी है कि जिससे मेरे पिता को उस (मीरास के क़ानून से) से निकाल दिया है? या तुम यह कह रहे हो कि हमारा दीन अलग अलग है
(क्योंकि यह इस्लामी क़ानून है कि अगर किसी मुसलमान की कोई औलाद काफ़िर हो जाए तो उसको मीरास में से कुछ नहीं मिलेगा और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा यहां पर यहीं बताना चाह रही हैं कि हे मुसलमानों क्या तुमको यह लगता है कि नबी की बेटी नबी के दीन से फिर गई है जो तुम उसको नबी की मीरास नहीं दे रहे हो,  हज़रते ज़हरा के यह शब्द एक वास्तविक्ता को दिखा रहे हैं, यह कोई छोटी बात नहीं थी, और बाद के ज़माने ने यह दिखा भी दिया कि यह लोग पैग़म्बर के परिवार वालों को मुसलमान भी नहीं मानते थे उनके अतिरिक्त सम्मान की तो बाद ही दूर हैं, आप क्या समझते हैं कि कर्बला के मैदान में हुसैन का गला ऐसे ही काट दिया गया नहीं!बल्कि यह नारा दिया गया कि यह एक ख़ारेजी है, यह मुसलमान नहीं है, हुसैन के बाद अहलेहरम को ग़ुलामों को बेचे जाने वाले बाज़ार में लाया गया ताकि उनको बेचा जा सके। यह क्या था? इस्लामी क़ानून के आधार पर किसी मुसलमान को तो नहीं बेचा जा सकता है। यह यज़ीदी लोग अपने इस कार्य से बताना चाहते थे कि हम तो अहलेबैत को मुसलमान ही नहीं मानते हैं, सोंचिए कि जो लोग अहलेबैत को मुसलमान मानने के लिए तैयार न हो अगर वह इस्लाम के नाम पर मुसलमानों के ख़लीफ़ा बन जाए तो क्या होगा, और शायद इसीलिए इमाम हुसैन (अ) ने फ़रमाया था कि अगर यज़ीद जैसा इन्सान मुसलमानों का ख़लीफ़ा हो जाए तो इस्लाम पर फ़ातेहा पढ़ लेना चाहिए)
जो एक दूसरे से मीरास नहीं पाएंगे?! क्या मैं और मेरे पिता दोनों एक दीन के मानने वाले नहीं हैं?! या फिर तुम लोग क़ुरआन के आम और ख़ास के बारे में मेरे पिता (पैग़म्बर) और मेरे चचाज़ाद (अली) से अधिक जानते हो?!
अब जबकि तुम लोग फ़िदक को नहीं दे रहे हो तो ज़ीन और लगाम से सज़ी हुई इस सवारी को ले जाओ ताकि क़ब्र में यह तुम्हारी साथी हो और क़यामत के दिन तुम्हारी जान का वबाल हो। ईश्वर बेहतरीन फ़ैसला करने वाला और हज़रत मोहम्मद (स) बेहतरीन सरपरस्त और क़यामत बेहतरीन वादा स्थल है। थोड़े ही समय के बाद तुम लज्जित होगे, और क़यामत के दिन अन्याय करने वाले हानि उठाएंगे। और तुम उस समय लज्जित होगे जब उसका तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा, और हर महत्वपूर्ण ख़बर के घटने  का एक समय है, और शीघ्र ही तुम समझ जाओगे कि अपमानित कर देने वाला अज़ाब किसके गरेबान को पकड़ेगा और कौन है वह जिस पर सदैव अज़ाब नाज़िल होगा।

पैग़म्बर (स) को सम्बोधित किया
फ़िर हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) ने अपने पिता की क़ब्र पर निगाह डाली और आपका दिल भर आया और आपने कुछ शेरों को पढ़ते हुए यह फ़रमायाः
हे पिता! आपकी वफ़ात के बाद बड़ी बड़ी घटनाएं और कठिन बातों ने सर उठा लिया, कि अगर आप उस समय होते तो दुख हमारे लिए बड़ा नहीं होता।
हम उस धरती की भाति जिसने मूसलाधार बारिश को खो दिया हो आपको को खो दिया, और आपकी क़ौम ख़राब (फ़ासिद) हो गई, तो आप इनपर गवाह रहे और गायब न हो। और हर हक़दार के लिए ख़ुदा के नज़दीक बरतरी है दूसरे रिश्तेदारों से। जब आप चले गए और मिट्टी हमारे और आपके बीच आ गई तो लोगों ने अपने कीनों को हम पर ज़ाहिर कर दिया।
अब जब्कि आप हमारे बीच से चले गए हैं और सारी ज़मीन छीन ली गई है तो लोग बने हुए चेहरों के साथ हमारे सामने आते हैं और हम ज़लील हो चुके हैं, और शीघ्र ही क़यामत के दिन हमारे परिवार पर अत्याचार करने वाला समझ जाएगा कि वह कहां जाएगा।
आप चौदहवी के चांद और रौशनी थे कि आपसे प्रकाश लिया जाता था और ख़ुदा की तरफ़ से आसमानी किताबें सम्मान के साथ आप पर नाज़िल होती थीं।
और जिब्रईल ईश्वरीय आयतों को लाने से हमसे मानूस थे और अपने जाने से आपने नेकियों एवं भलाइयों के सारे द्वार बंद कर दिए। मेरा शहर अपने सारे फैलाव के साथ मुझ पर तंग हो गया है और आपके दो नवासे ज़लील हो गए हैं जो मेरे लिए बला है।
काश आपके जाने से पहले हमको मौत आ गई होती जब आप हमारे बीच से जाते और  मिट्टी का ढेर आप तक पहुंचने में रुकावट हो गया। हम अपने उस प्यारे के चले जाने के ग़म की मुसीबत में गिरफ़्तार हुए हैं जैसा ग़म किसी ने भी अरब और अजम में नहीं देखा है और ऐसे प्यारे के जाने का दुख नहीं देखा है।
तो जितना भी इस दुनिया में जीवित रहें और जब तक हमारी आँखें बाक़ी हैं आपके लिए बहते हुए आसुओं के साथ रोएंगे।
फिर आपने यह शेर पढ़ेः
जिस दिन तक आप जीवित थे मेरी हिमायत और समर्थन करने वाला था और मैं सुकून के साथ आती जाती थी और आप मेरे बाज़ू और सहायक थे, लेकिन आज एक व्यक्ति के सामने छोटी हो गई हूं और मैं उससे दूरी करूंगी और अपने हाथों से अत्याचारियों को दूर करूंगी।
जबकि क़ुमरी (फ़ाख़्ते की तरह का एक पक्षी) दुख के कारण रात के अंधेरे में डाली पर रोती है, मैं दिन को उजाले में अपनी मुसीबतों पर आंसू बहाती हूं।

अंसार से सम्बोधन
फ़िर आपने अंसार की तरफ़ निगाह की और फ़रमायाः
हे पैग़म्बर के ज़माने की निशानियों, और हे दीन की सहायता करने वालों और इस्लाम को पनाह देने वालों! मेरी सहायता करने में यह कैसी सुस्ती हैं और मेरी मदद में यह कैसी कमज़ोरी है और मेरे हक़ के बारे में यह कैसी कौताही है और यह कैसी नींद है जो मुझ पर अत्याचार के सिलसिले में तुम पर छाई हुई है?!
क्या पैग़म्बर मेरे पिता ने नहीं फ़रमायाः हर इन्सान का सम्मान उसके बच्चों के सामने बचाए रखो? कितनी जल्दी तुम लोगों ने अपना काम कर दिया, और कितनी तीव्रता से जिस कार्य का अभी समय नहीं आया ता उसको कर दिया!
और मैं जो मदद मांग रही हूं तुम्हारे पास उसकी शक्ति और जिस हक़ को मैं लेना चाहती हूं उसको लेने की ताक़त तुम्हारे पास हैं। क्या तुम आसानी से कह रहे हो कि मोहम्मद अल्लाह के रसूल इस दुनिया से चले गए? ख़ुदा की क़सम यह बहुत बड़ी घटना है जिसमें बड़ा शिगाफ़ है और हर रोज़  बढ़ता जा रहा है, और खाई पैदा हो रही है, पैग़म्बर के जाने से धरती पर अंधेर हो गया, और ईश्वर के ख़ास बंदे दुखी हो गए, और उन के जाने के दुख में चांद और सूरज पर ग्रहण लग गया और सितारे बिखर गए, उनकी वफ़ात से आशाएं निराशा में बदल गईं, माल बरबाद हो गए और पहाड़ टूट फूट गए , आपके अहले हमर का सम्मान नहीं किया गया, और आपकी हुर्मत का अपमान किया गया, उनके जाने से उम्मत फ़ितने में पड़ गई और अंधेरे ने हर स्थान को घेर लिया और सच्चाई मर गई।
ख़ुदा की क़सम पैग़म्बर की वफ़ात एक बहुत बड़ा दुख था के जिसके जैसी मुसीबत और दुख दुनिया में नहीं होगा और इस बड़ी मुसीबत के बारे में ईश्वरीय किताब (क़ुरआन) तुम्हारे घरों में और हर सुबह और शाम बता रही है और इसके बारे में तुम्हारे कान आवाज़ और फ़रियाद, तिलावत और समझाने की सूचना दी है।
और बताया है उस चीज़ के बारे में जो नबियों और ख़ुदा के दूतों को भूत में मिला था कि अन्तिम फ़ैसला और क़ज़ा एवं क़द्र निश्चिंत है। (जैसा कि फ़रमाया) और मोहम्मद (स) केवल ख़ुदा के रसूल हैं उनसे पहले भी पैग़म्बर आए हैं, क्या अगर (वह) मर जाएं या क़त्ल कर दिए जाएं तो तुम अपनी जाहेलियत की तरफ़ पलट जाओगे और दीन से पलट जाओगे? और जो दीन से पलट जाए वह ख़ुदा को कोई हानि नहीं पहुंचाता है, और ख़ुदा शुक्र करने वालों को नेक अज्र देता है। (6)

लोगों के सामने फ़ातेमा (स) पर अत्याचार
हे क़ैला (औस एवं ख़ज़रज के क़बीले वाले) के बेटों तुम से यह आशा नहीं थी! क्या यह सही है कि मेरे पिता की मीरास के सम्बंध में मुझ पर अत्याचार हो जब्कि तुम मेरी हालत को देख रहे हो और मेरी आवाज़ को सुन रहे हो और तुममे एकता है और मैं तुमको सहायता के लिए पुकार रही हूं और मेरी मज़लूमियत से तुम्हारे सामने है और तुम उसकी जानकारी रखते हो। और तुम घटना को जानते भी हो।
ऐसा उस समय है कि जब्कि तुम्हारे पास संसाधन भी है और तुम्हारी संख्या भी अधिक है घर भी है और ज़िरह भी, हथियार भी है और सुरक्षा की चीज़ें भी, मैं तुमको पुकार रही हूं लेकिन तुम जवाब नहीं देते! मेरी फ़रियाद तुम तक पहुंच रही है लेकिन तुम लेकिन सहायता नहीं करते!
तुम प्रसिद्ध हो इस बात के लिए कि शत्रु पर बिना ढाल और ज़िरह के आक्रमण करते हो और नेकी एवं भलाई के लिए मशहूर हो, और तुम वह लोग हो जो हम अहलेबैत के लिए ख़ुदा के चुने हुए हो। तुम वही हो जो अरब से लड़े, और स्वंय को कठोर कार्यों में झोंक दिया और कठिनाईयां और परेशानियां झेलीं और तुमने उम्मतों से युद्ध किया और सूरमाओं से टकराए।
हम और तुम ऐसे थे कि हम तुमको आदेश देते थे और तुम पालन करते थे, यहां तक कि हमारे माध्यम से तुमको स्थिर स्थान मिल गया और हमारे माध्यम से इस्लाम की चक्की तुम्हारे लिए चलने लगी और नेमतें व बरकतें अधिक हो गईं, शिर्क का घमंड अपमान में बदल गया, और असत्य का सम्मान और जोश ठंडा पड़ गया, और जंग की आग ठंडी हो गई, और दीन का निज़ाम शक्तिशाली हो गया। (7)

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(1)    सूरा नमल आयत 16
(2)    सूरा मरयम आयत 4,5,6
(3)    सूरा अनफ़ाल आयत 75
(4)    सूरा निसा आयत 11
(5)    सूरा बक़रा आयत 180
(6)    सूरा आले इमरान आयत 144
(7) असरारे फ़िदक पेज 246 से 251

हज़रत फातिमा ज़हरा स.अ की तस्बीह की फ़ज़ीलत |

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हज़रत फातिमा ज़हरा स.अ की तस्बीह की फ़ज़ीलत |

तस्बीह के बारे मै अयातुल्लाह सय्यद अली नकी नकवी (नक्कन साहब)फरमाते है :कहीं से माले गनीमत में कुछ कनीज़े आई और वोह असहाब को तकसीम की जा रही थी -तो रिवायत बताती है के हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अ.स ने घर मै आकर फ़रमाया :तुम्हारे वालिद बुज़ुर्गवार स.अ.व.व के पास कनीज़े आयी है और मुख्तलिफ सहाबा को दे रहे हैं तो जितना सबको हक है उतना तो तुम्हे भी है -लिहाज़ा अपने अपने वालिद के पास आप जाइए और खुआहिश करिए के एक कनीज़ तुम्हारे सुपुर्द करदें -अब किन लफ्जों मै कहाँ होगा वोह रिवायत ने नहीं बताया |

मैं समझता हूँ कि हाथ दिखा दिए होंगें यही काफी है -हज़रत मोहम्मद स.अ.व.व ने फ़रमाया बेटी हाँ ठीक है  मुतालेबा तुम्हारा ठीक है -मगर तुम खुद बताओ कनीज़ लोगी या एक ऐसी तस्बीह सिखादूं जो आस्मां के मालिक  को बहुत पसंद है  -हज़रत फातिमा अ.स कहने लगी बाबाजान बस तस्बीह सिखा दीजिये -और वोह तस्बीह थी ३४ बार अल्लाहो अकबर ,३३ बार अल्हम्दोलिल्लाह ,३३ बार सुभान अल्लाह -इसलिए इस तस्बीह का नाम तस्बीह-ऐ-फातिमा ज़हर स.अ पढ़ गया -

हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर अ.स का फरमान :
हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह से बढ़ कर कोई इबादत नहीं है इस लिए के अगर के अगर उससे बढ़ कर कोई और शै(चीज़ ) होती तो रसूल स.अ.व.व हज़रत फातिमा अ.स वही चीज़ अता फरमाते -
इमाम जफ़र सादिक अ.स का फरमान :


जो शख्स वाजिबी नमाज़ के बाद हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह को बजा लाये और वोह उस हल मै हो के उसने अभी तक अपने दाये पाओ को बाये पाओ पर से उठाया भी न हो ...उसके तमाम gunah माफ़ करदिये जाते है -और इस तस्बीह का आगाज़ अल्लाहोअक्बर से किया जाये-(तहज़ीबुल अहकाम जिल्द २ पेज 105)
हर रोज़ हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह का हर नमाज़ के बाद बजालाना मेरे नजदीक रोजाना एक हज़ार रकत नमाज़ अदा करने से ज़्येदा महबूब है- (फुरु-ऐ-काफी किताब सलत पेज ३४३ हदीस 15)
रात को सोने से पहले तस्बीह पढ़ने कि फ़ज़ीलत
हज़रत इमाम जफ़र सादिक अ.स ने फ़रमाया :जो शख्स रात को सोने से पहले हज़रत फातिमा अ.स की तस्बीह को पढ़े तो वोह उन मर्दों और औरतो मै शुमार होगा जो अल्लाह को ज्यादा याद करते है -(वासिल उष शिया जिल्द ४ पेज 1026).
हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर अ.स ने फ़रमाया :जो शख्स तस्बीह के बाद अस्ताग्फार करे ...उसके गुनाह माफ़ करदिये जाते है -और उसके दानो की अदद १०० है -और उसका सवाब मीज़ान-ऐ-अमल मै हज़ार दर्जा है



नमाज़े आयात पढ़ने का तरीक़ा | विडियो

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मसला अयातुल्लाह सीस्तानी

1516। नमाज़े आयात की दो रकअतें हैं और हर रकअत में पाँच रुकूअ हैं। इस के पढ़ने का तरीक़ा यह है कि नियत करने के बाद इंसान तकबीर कहे और एक दफ़ा अलहम्द और एक पूरा सूरह पढ़े और रुकूअ में जाए और फिर रुकूअ से सर उठाए फिर दोबारा एक दफ़ा अलहम्द और एक सूरह पढ़े और फिर रुकूअ में जाए। इस अमल को पांच दफ़ा अंजाम दे और पांचवें रुकूअ से क़्याम की हालत में आने के बाद दो सज्दे बजा लाए और फिर उठ खड़ा हो और पहली रकअत की तरह दूसरी रकअत बजा लाए और तशह्हुद और सलाम पढ़ कर नमाज़ तमाम करे।

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1517। नमाज़े आयात में यह भी मुम्किन है कि इंसान नियत करने और तकबीर और अलहम्द पढ़ने के बाद एक सूरह की आयतों के पांच हिस्से करे और एक आयत या उस से कुछ ज़्यादा पढ़े और बल्कि एक आयत से कम भी पढ़ सकता है लेकिन एहतियात की बिना पर ज़रुरी है कि मुकम्मल जुमला हो और उस के बाद रुकूअ में जाए और फिर खड़ा हो जाए और अलहम्द पढ़े बग़ैर उसी सूरह का दूसरा हिस्सा पढ़े और रुकूअ में जाए और इसी तरह इस अमल को दोहराता रहे यहां तक कि पांचवें रुकूअ से पहले सूरे को ख़त्म कर दे मसलन सूरए फ़लक़ में पहले बिसमिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम। क़ुल अऊज़ू बिरब्बिलफ़लक़। पढ़े और रुकूअ में जाए उस के बाद खड़ा हो और पढ़े मिन शर्रे मा ख़लक़। और दोबारा रुकूअ में जाए और रुकूअ के बाद खड़ा हो और पढ़े। व मिन शर्रे ग़ासेक़िन इज़ा वक़ब। फिर रुकूअ में जाए और फिर खड़ा हो और पढ़े व मिन शर्रिन्नफ़्फ़साति फ़िल उक़द और रुकूअ में चला जाए और फर खड़ा हो जाए और पढ़े व मिन शर्रि हासिदिन इज़ा हसद। और उस के बाद पांचवें रुकूअ में जाए और (रुकूअ से) खड़ा होने के बाद दो सज्दे करे और दूसरी रकअत भी पहली रकअत की तरह बजा लाए और उस के दूसरे सज्दे के बाद तशह्हुद और सलाम पढ़े। और यह भी जाएज़ है कि सूरे को पांच से कम हिस्सों में तक़सीम करे लेकिन जिस वक़्त भी सूरह ख़त्म करे लाज़िम है कि बाद वाले रुकूअ से पहले अलहमद पढ़े।

1518। अगर कोई शख़्स नमाज़े आयात की एक रकअत में पांच दफ़ा अलहम्द और सूरह पढ़े और दूसरी रकअत में एक दफ़ा अलहम्द पढ़े और सूरे को पाँच हिस्सों में तक़सीम कर दे तो कोई हरज नहीं है।

1519। जो चीज़ें यौमिया नमाज़ में वाजिब और मुस्तहब हैं अलबत्ता अगर नमाज़े आयात जमाअत के साथ हो रही हो तो अज़ान और अक़ामत की बजाए तीन दफ़ा बतौर रजा "अस्सलात"कहा जाए लेकिन अगर यह नमाज़ जमाअत के साथ न पढ़ी जा रही हो तो कुछ कहने की ज़रुरत नहीं।

1520। नमाज़े आयात पढ़ने वाले के लिए मुस्तहब है कि रुकूअ से पहले और उस के बाद तकबीर कहे और पांचवीं और दसवीं रुकूअ के बाद तकबीर से पहले "समे अल्लाहु लेमन हमिदह"भी कहे।

1521। दूसरे, चौथे, छठे, आठ्वें और दस्वें रुकूअ से पहले क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है और अगर क़ुनूत सिर्फ़ दस्वें रुकूअ से पहले पढ़ लिया जाए तब भी काफ़ी है।

1522। अगर कोई शख़्स नमाज़े आयात में शक करे कि कितनी रकअतें पढ़ी हैं और किसी नतीजे पर न पहुंच सके तो उस की नमाज़ बातिल है।

1523। अगर (कोई शख़्स जो नमाज़े आयात पढ़ रहा हो) शक करे कि वह पहली रकअत के आख़िरी रुकूअ में है या दूसरी रकअत के पहले रुकूअ में और किसी नतीजे पर न पहुंच सके तो उस की नमाज़ बातिल है लेकिन अगर मिसाल के तौर पर शक करे कि चार रुकूअ बजा लाया है या पाँच और उस का यह शक सज्दे में जाने से पहले हो तो जिस रुकूअ के बारे में उसे शक हो कि बजा लाया है या नहीं उसे अदा करना ज़रुरी है लेकिन अगर सज्दे के लिए झुक गया हो तो ज़रुरी है कि अपने शक की परवा न करे।
1524। नमाज़े आयात का हर रुकूअ रुक्न है और अगर उन में अमदन कमी या बेशी हो जाए तो नमाज़ बातिल है। और यही हुक्म है अगर सहवन कमी हो या एहतियात की बिना पर ज़्यादा हो।


इस्लाम का नजरिया मानवाधिकार के प्रति |

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इंसान का सामना हमेशा, न्याय और अन्याय, समानता और पक्षपात, आज़ादी और अत्याचार, युद्ध और शांति जैसे विरोधाभासी विषयों से होता है। इस संदर्भ मे बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, वह अभी आदर्श स्थिति तक नहीं पहुंचा है।समस्त इंसानों में संयुक्त बिंदु, ईश्वरीय सृष्टि है। इस प्रकार, इसी ईश्वरीय सृष्टि को आधार बनाकर, मानवाधिकारों का मूल स्रोत प्राप्त किया जा सकता है।

खेद की बात है कि इंसान के जीवन के इतिहास में धमकी, असुरक्षा, निर्धनता, भूख, अतिक्रमण, हत्या और नरसंहार वे चीज़ें हैं जो हमेशा समाजों की समस्याएं रही हैं और आज भी वे समाजों व राष्ट्रों के लिए समस्यायें बनी हुई हैं। मानव इतिहास इस बात का सूचक है कि शक्तिशाली लोगों, वर्गों और गुटों का वर्चस्व सदैव कमजोर लोगों पर रहा है। इस प्रकार समाज में शक्तिशाली लोगों के निर्बल लोगों पर वर्चस्व की संस्कृति प्रचलित हो गयी और इस प्रकार की संस्कृति से मानवीय प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा परंतु पूरे इतिहास में न्यायप्रेमी और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले संघर्ष व आंदोलन भी रहे हैं जिन्होंने इंसानों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बहुत अधिक प्रयास किये हैं। इसके अतिरिक्त हज़रत आदम से लेकर पैग़म्बरे इस्लाम तक के समस्त ईश्वरीय दूतों का प्रयास समाज में न्याय की स्थापना रहा है।



हर धर्म ने अपनी शिक्षाओं में मनुष्य पर विशेष ध्यान दिया है और उसके अधिकारों और दायित्वों का निर्धारण करके उसके कल्याम को दृष्टिगत रखा है। सभी धर्मों में मनुष्य को एक मूल्यवान व प्रतिष्ठित या दूसरे शब्दों में पवित्र अस्तित्व के रूप में देखा गया है। 

समस्त इंसानों के कुछ अधिकार हैं जिनकी रक्षा और उनसे लाभ उठाना सबकी ज़िम्मेदारी है।विश्व के समस्त इंसानों के लिए मानवाधिकारों का समान संदेश होना चाहिये। स्पष्ट है कि विभिन्न चीज़ें इस प्रकार के क़ानून का स्रोत नहीं हो सकतीं। इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार मानवाधिकार के स्रोत को समस्त इंसानों के मध्य संयुक्त होना चाहिये। क्योंकि अधिकार स्थाई चीज़ है और स्पष्ट है कि अधिकार के स्रोत को भी स्थाई होना चाहिये। मानवाधिकारों का एक स्रोत उस समय हो सकता है जब विश्व के समस्त लोग उसे स्वीकार करें और उसमें रंग, जाति, लिंग, शिष्टाचार और परम्परा आदि पर ध्यान न दिया जाये।

इस परिणाम पर पहुंचा जा सकता है कि यदि मनुष्य  क़ानून बनाता है तो उसे अत्यधिक कमियों और त्रुटियों का सामना करना पड़ता है। यही बातें इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मनुष्य, मानवाधिकारों के मानदंड का निर्धारण करने में अक्षम है।  इसके मुक़ाबले में ईश्वर की ओर से निर्धारित किये गए मानदंडों में कोई भी त्रुटि नहीं होती है।  


जिस दिन मनुष्य की रचना की गई उसी दिन से ईश्वर ने उसके सामने आसमानी किताबें रखी हैं ताकि उसके जीवन का मार्गदर्शन हो सके। इन मार्गदर्शक किताबों में मनुष्य को बताया गया है कि वह कहां से आया है, कहां जा रहा है  और उसे किस प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के लिए सीधे मार्ग पर चलना चाहिए। 


सूरए मुमतहना की आठवीं आयत में बयान हुआ है जिसमें मुसलमानों को भी आदेश दिया गया है कि वे वैश्विक परिवार के बाक़ी दो सदस्यों अर्थात ग़ैर मुस्लिम एकेश्वरवादियों और ईश्वर का इन्कार करने वालों के अधिकारों का सम्मान करें। यहां तक कि काफ़िरों के संबंध में न्याय से काम लेने के लिए प्रोत्साहित भी किया गया है। आयत कहती हैः ईश्वर तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निःसंदेह ईश्वर न्याय करने वालों को पसन्द करता है।

मूल रूप से इस्लाम का बुनियादी आदेश यह है कि मुसलमान, वैश्विक परिवार के सदस्यों को सम्मान और वफ़ादारी की नज़र से देखें और केवल उनकी ओर से मुंह मोड़ें जिन्होंने उन्हें राजनैतिक व सामाजिक दबाव में डाल रखा है। इसी कारण राजनैतिक रवैये के बारे में भी मुसलमानों को यह आदेश दिया गया है कि वे कभी भी अपने वचन को न तोड़ें और जब तक दूसरा पक्ष अपने वादे का पालन कर रहा है, वे भी अपने वादे का सम्मान करते रहें। सूरए तौबा की 7वीं आयत में कहा गया हैः जब तक वे अपने वादे पर कटिबद्ध रहें तुम भी अपने वादे का पालन करते रहो। सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 83 में कहा गया हैः लोगों से अच्छी बात (और अच्छा व्यवहार) करो। मुसलमानों को, वैश्विक परिवार के सदस्यों के अधिकारों के पालन का निमंत्रण देने वाली क़ुरआने मजीद की एक अन्य आयत जिसका तीन सूरों में तीन पैग़म्बरों की ज़बान से उल्लेख किया गया है, एक अत्यंत मूल्यवान व व्यापक आदेश है। सूरए आराफ़ की 85वीं, सूरए हूद की 85वीं और सूरए शोअरा की 183वीं आयत में कहा गया हैः और लोगों की वस्तुओं में से कुछ कम न करो

यहां पर एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मुसलमानों को यह अधिकार नहीं है कि वे इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए अन्य इंसानों से युद्ध करें जैसा कि आजकल कुछ चरमपंथी तथाकथित इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए कर रहे हैं। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जो मार्ग अपनाना चाहिए वह भलाइयों का आदेश देने और बुराइयों से रोकने का है। यह, वही शैली है जो क़ुरआने मजीद ने मुसलमानों को सिखाई है। सूरए हज की 41वीं आयत में कहा गया है। ये वही लोग हैं जिन्हें हमने जब भी धरती में सत्ता प्रदान की तो वे नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं, भलाई का आदेश देते हैं और बुराई से रोकते हैं और सभी मामलों का अंजाम तो ईश्वर ही के हाथ में है।


 मुसलमानों को यह अधिकार नहीं है कि वे इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए अन्य इंसानों से युद्ध करें जैसा कि आजकल कुछ चरमपंथी तथाकथित इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए कर रहे हैं। इस्लाम वैश्विक परिवार के सभी सदस्यों का सम्मान करता है और उसने अपने सभी अनुयाइयों को इस बात के लिए कटिबद्ध किया है कि वे इस परिवार के सदस्यों को सही व अच्छी बातों की ओर बुलाएं 



इस्लाम किसी भी स्थिति में हत्या को वैध नहीं ठहराता।

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लोगों के जीवन की सुरक्षा को विशेष महत्व प्राप्त है।  इस्लाम किसी भी स्थिति में हत्या को वैध नहीं ठहराता।  इस्लाम हत्या को बहुत ही बुरा काम समझता है और इसकी बहुत निंदा की गई है विशेषकर निर्दोषों की हत्या को पूरी मानवता की हत्या के समान बताया गया है।  इस प्रकार इस्लाम ने अपने अनुयाइयों को किसी भी मनुष्य की हत्या से रोका है।  पवित्र क़ुरआन के सुरए माएदा की आयत संख्या 32 में ईश्वर कहता हैः इसी कारण हमने बनी इस्राईल पर अनिवार्य कर दिया कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इनसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इनसानों को जीवन दान किया। उसके पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करने वाले हैं।
अब हम इस बात की समीक्षा करेंगे कि क्यों किसी की हत्या करने को मना किया गया है।  मनुष्य के अस्तित्व में आने के समय फरिश्तों के बीच यह बात हुई थी जिसमें मनुष्यों के बीच रक्तपात को घृणित कृत्य बताया गया था।  सूरे बक़रा की आयत संख्या 30 में कहा गया है कि और याद करो जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से कहा कि "मैं धरती में (मनुष्य को) खलीफ़ा बनानेवाला हूँ।"उन्होंने कहा, "क्या उसमें उसको रखेगा, जो उसमें बिगाड़ पैदा करे और रक्तपात करे और हम तो तेरा गुणगान करते और तुझे पवित्र कहते हैं?"उसने कहा, "मैं वह जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।  इसके जवाब में ईश्वर ने फ़रिश्तों से कहा था कि मैं उन वास्तविकताओं को जानता हूं जिनको तुम नहीं जानते।
इस बात से पता चलता है कि यदि फ़रिश्तों की बात सही न होती तो ईश्वर उसको स्वीकार नहीं करता। एसे में यह कहा जा सकता है कि फरिश्तों को इस बात की संभावना थी कि मनुष्य धरती पर रक्तपात कर सकता है।  यदि ध्यान दिया जाए तो पता चलता है कि हुआ भी कुछ एसा ही।  मनुष्य ने धरती पर पहुंचकर इस प्रकार के निंदनीय काम किये।  ईश्वर ने बनी इस्राईल से जो वचन लिए थे उनमें से एक, रक्तपात करने से बचना था।  सूरे बक़रा की आयत संख्या 84 में ईश्वर कहता है कि हमने तुमसे वचन लिया था कि तुम ख़ून नहीं बहाओगे।
हेज़ाज़ वासियों के लिए पैग़म्बरे इस्लाम जो पहला संदेश लाए थे उसमें भी हत्या न करने का उल्लेख मिलता है।  सूरए अनआम की आयत संख्या 151 में ईश्वर कहता हैः  कह दो, "आओ, मैं तुम्हें सुनाऊँ कि तुम्हारे रब ने तुम्हारे ऊपर क्या पाबन्दियाँ लगाई है? यह कि किसी चीज़ को उसका साझीदार न ठहराओ और माँ-बाप के साथ सद्व्यवहार करो और निर्धनता के कारण अपनी सन्तान की हत्या न करो; हम तुम्हें भी रोज़ी देते है और उन्हें भी। और अश्लील बातों के निकट न जाओ, चाहे वे खुली हुई हों या छिपी हुई हो। और किसी जीव की, जिसे अल्लाह ने आदरणीय ठहराया है, हत्या न करो। यह और बात है कि हक़ के लिए ऐसा करना पड़े। ये बाते है, जिनकी ताकीद उसने तुमसे की है, शायद कि तुम बुद्धि से काम लो।
ईश्वर के विशेष एवं उसके निकटतम दासों की विशेषता यह है कि वे अपने हाथों को दूसरों के ख़ून से रंगीन नहीं होने देते।  इस संदर्भ में सूरे फ़ुरक़ान की 68वीं आयत मे ईश्वर कहता हैः जो अल्लाह के साथ किसी दूसरे इष्ट-पूज्य को नहीं पुकारते और न नाहक़ किसी जीव को जिस (के क़त्ल) को अल्लाह ने हराम किया है, क़त्ल करते है। और न वे व्यभिचार करते है, जो कोई यह काम करे तो वह गुनाह के वबाल से दोचार होगा।
मनुष्य का सम्मान करना और हत्या जैसे कार्य की निंदा वह विषय है जिसका उल्लेख सभी धर्मों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।  सारे ही धर्मों में हत्या को महापाप बताया गया है।  इस्लाम का मानना है कि हर व्यक्ति का जीवन सम्मानीय है चाहे वह मुसलमान हो या ग़ैर मुसलमान।  किसी भी मनुष्य का जीवन उससे लेने का अधिकार केवल उसी को है जिसने उसे जीवन प्रदान किया है।
किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या के दुष्प्रभाव उस समाज पर ही पड़ते हैं जिसमें उसकी हत्या की जाती है।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता हे कि हत्या के कुछ सामाजिक दुष्प्रभाव होते हैं।  इन दुष्प्रभावों में से एक यह है कि जिस व्यक्ति की हत्या की जाती है उसका पूरा परिवार सदमें में रहता है।  मरने वाला यदि कुछ लोगों का सरपरस्त है तो फिर उसके परिवार के सदस्यों को जीवन बिताने में नाना प्रकार की समस्याएं आती हैं।  एसे में अभिभावक के न होने की स्थिति में उसी परिवार के कुछ लोग ग़लत रास्ते पर चल निकलते हैं।  इसका सबसे बड़ा नुक़सान समाज को भुगतना पड़ता है।
अन्तिम ईश्वरीय धर्म के रूप में इस्लाम ने हत्या करने वाले के लिए कड़े दंड का प्रावधान कर रखा है।  इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि हत्या जैसे पाप को रोका जा सके।  वैसे तो किसी भी व्यक्ति की हत्या करना बुरा काम एवं पाप है किंतु किसी मोमिन की हत्या करना बहुत बुरा और घृणित काम है।  इस बारे में सूरे नेसा की आयत संख्या 93 में कहा जा रहा है कि और जो व्यक्ति जान-बूझकर किसी मोमिन की हत्या करे, तो उसका बदला जहन्नम है, जिसमें वह सदा रहेगा; उसपर अल्लाह का प्रकोप और उसकी फिटकार है और उसके लिए अल्लाह ने बड़ी यातना तैयार कर रखी है।
हत्यारे का पहला दंड तो नरक है जबकि दूसरा दंड उसका नरक में सदैव रहना है।  दूसरा दंड, पहले वाले दंड से अधिक ख़तरनाक है।  पहले वाले की विशेषता यह है कि कुछ समय गुज़ारने के बाद अपराधी को निजात मिल जाएगी किंतु दूसरे वाले के अन्तर्गत वह सदैव ही नरक में रहेगा जो बहुत ख़तरनाक है।  तीसरा दंड यह है कि व्यक्ति जिस समय किसी की हत्या करता है उसी समय से ईश्वर का प्रकोप उसपर पड़ने लगता है जो हत्यारे के अंत तक उसके साथ रहता है बल्कि मृत्यु के बाद भी वह उसका पीछा नहीं छोड़ता।
हत्यारे के लिए जो दंड निर्धारित किये गए हैं उनमे से एक, ईश्वर की कृपा से दूरी है जो लानत है।  इस संदर्भ में अल्लामा मु. शफी उस्मानी लिखते हैं कि लानत अरबी भाषा का एक शब्द है।  इसका अर्थ होता है ईश्वरीय अनुकंपाओं से दूरी।  हर वह व्यक्ति जिसपर ईश्वर की लानत हो वह सदा के लिए ईश्वर की निकटता से दूर हो जाता है।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) सदैव ही लोगों के जीवन को विशेष महत्व दिया करते थे। वे हत्या और रक्तपात के प्रबल विरोधी थे।  अब्दुल्लाह बिन उमर का कहना है कि एक बार मैंने पैग़म्बरे इसलाम (स) को देखा जो काबे की परिक्रमा कर रहे थे।  वे पवित्र काबे को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि हे काबे! तू कितना आकर्षक है।  तू कितना महान है।  ईश्वर की सौगंध, मोमिन का महत्व और उसका जीवन ईश्वर के निकट अधिक महत्वपूर्ण है।
वे ग़ैर मुसलमानों की हत्या को भी कभी वैध नहीं मानते थे।  इस संदर्भ में उनका कहना है कि इस्लामी देशों में रहने वाले किसी भी ग़ैर मुस्लिम की यदि कोई हत्या करता है तो वह स्वर्ग की सुगंध तक नहीं सूंघ सकता।  सूरए अनआम की आयत संख्या 151 के एक भाग में ईश्वर कहता है किसी जीव की, जिसे अल्लाह ने आदरणीय ठहराया है, हत्या न करो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस्लाम में हत्या को अति निंदनीय कार्य बताया गया है।  खेद की बात है कि उसी इस्लाम के नाम पर, जो शांति का धर्म है और जिसमें हत्या को महापाप बताया गया है, कुछ लोग उसी के नाम पर हत्याएं कर रहे हैं।  यह लोग वहाबी विचारधारा से प्रभावित हैं और पूरी दुनिया में उन्होंने उत्पात मचा रखा है।  ऐसे में हर मुसलमान का दायित्व बनता है कि वह इस इस्लाम विरोधी कार्यवाही की निंदा करे और इसे रोकने के प्रयास करे।


भ्रूण हत्या इस्लाम की नज़र में अपराध है

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इंसान क़त्ल किए गए बच्चों के शवों को देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। लेकिन आज ख़ुद मां बाप एक बड़ी संख्या में अपने ही बच्चों को पैदा होने से पहले ही ख़त्म कर देते हैं और उन्हें दुनिया में आकर ज़िंदगी गुज़ारने के अधिकार से वंचित कर देते हैं।
क़ुराने मजीद के सूरए अनआम की 151वीं आयत में ईश्वर बच्चों की हत्या से रोकता है। ईश्वरीय दूत हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) की ज़िम्मेदारी है कि ईश्वर के संदेश को लोगों तक पहुंचाएं, कह दो, आओ तुम्हारे पालनहार ने जो तुम्हारे लिए हराम किया है, उसकी तुम्हें जानकारी दूं, ग़रीबी और भुखमरी के डर से अपने बच्चों की हत्या मत करो, यह वह चीज़ है जिसकी ईश्वर ने तुमसे सिफ़ारिश की है, शायत इसे समझ सको।
भ्रूण हत्या एक ऐसा अपराध है, जो प्राचीन काल से जाहिल समाजों में प्रचलित रहा है। अज्ञानता के ज़माने में बहुत से समुदाय अपने बच्चों की हत्या कर दिया करते थे। वे इसके विभिन्न कारण बयान करते थे। कभी अपनी लड़कियों की हत्या किया करते थे। इसलिए कि उनका मानना था कि अगर युद्ध भड़क उठे और उनकी बेटियों को बंदी बना लिया जाएगा तो यह उनके लिए कलंक होगा।
क़ुराने मजीद के सूरए नहल की 58वीं आयत में उल्लेख है, अरब में अज्ञानता के दौर में जब यह सूचना मिलती थी कि तुम्हारे यहां बेटी हुई है, तो ग़ुस्से से उनका चेहरा काला पड़ जाता था, इस बुरी ख़बर को सुनकर और आम लोग जो इसे बुरा समझते थे, उनके दबाव में आकर वे छुप जाते थे और गहरी चिंता में पड़ जाते थे कि क्या इस शिशु को ज़िंदा रहने दें और बेटी का बाप होने के अपमान को सहन करें या ज़िंदा ही उसे मिट्टी में दबा दें, जैसा कि अधिकांश लोग नवजात बेटियों के बारे में किया करते थे।
कभी कभी सूखा पड़ने के डर से अपने बच्चों की हत्या कर दिया करते थे। इस संदर्भ में क़ुरान उनसे कहता है, ग़रीबी के डर से अपने बच्चों की हत्या मत करो। हम उन्हें भी और तुम्हें भी आजीविका प्रदान करते हैं।
कभी कभी मूर्तियों के सामने अपने बच्चों की बलि चढ़ा दिया करते थे, ताकि उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर सकें। इस जघन्य अपराध से भी क़ुरान ने रोका है, सूरए अनआम की 140वीं आयत में ईश्वर कहता है, निश्चित रूप से जिन लोगों ने अज्ञानता और नादानी के कारण अपने बच्चों की हत्या की है, घाटे में हैं, इसलिए कि ईश्वर ने उन्हें जो रिज़्क़ दिया था, उन्होंने उसे ख़ुद से दूर कर दिया।
एक एकेश्वरवादी और ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त, बच्चों की हत्या न करना है। इस प्रकार से कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) से महिलाओं के बैयत करने की एक शर्त यह है कि उन्होंने अपने बच्चों की हत्या नहीं की हो। सूरए मुमतहना की 12 आयत में पैग़म्बरे इस्लाम से ईश्वर कहता है, हे ईश्वरीय दूत, जब महिलाएं तुम्हारे पास आएं और बैयत करें, वे अपने बच्चों की हत्या न करें, तो उनकी बैयजत स्वीकार कर लो।
इस्लाम ऐसे लोगों के कृत्य की कड़ी निंदा करता है, जो ग़रीबी और भुखमरी के डर से अपने बच्चों या बेटियों की हत्या कर देते हैं। इसके अलावा, इस्लाम भ्रूण हत्या को हराम क़रार देता है।
इस्लामी शिक्षाओं के मुताबिक़, भ्रूण हत्या विशेषकर उसमें जान पड़ने के बाद, एक प्रकार की नस्ल कुशी है और क़ुरान इसे महा पाप बताता है। क़ुराने मजीद के सूरए इसरा की 31वीं आयत में ईश्वर कहता है, ग़रीबी के डर से अपनी संतान की हत्या न करो, हम उन्हें और तुम्हें रिज़्क़ देते हैं, निश्चित रूप से उनकी हत्या महा पाप है।
भ्रूण हत्या से अभिप्राय यह है कि गर्भ में ही भ्रूण को मार देना और कोई भी ऐसा कार्य करना जिससे वह ज़िंदा न बच सके। भ्रूण हत्या संभव है गर्भवति महिला द्वारा जानबूझकर कुछ ऐसा करने या दवाई लेने के कारण हो, या डॉक्टर या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भ्रूण को नुक़सान पहुंचाकर यह अपराध किया जाए।
दूर्भाग्यवश आज भी हम देखते हैं कि प्रति वर्ष लाखों भ्रूण हत्याएं होती हैं। आज अधिकांश भ्रूण हत्याओं का कारण यह है कि आज के लोग निरंकुशता से जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। वर्षों से अनिच्छुक गर्भधारण के लिए गर्भपात कराने की समस्या आज के समाज में बहस का विषय बनी हुई है।
ख़राब स्वास्थ्य सेवाओं और अनाड़ी चिकित्सकों द्वारा गर्भपात के कारण विश्व में प्रतिवर्ष लाखों महिलाएं अपनी जान दे देती हैं और आज यह समस्या एक संकट का रूप धारण कर चुकी है। इससे महिलाओं के स्वास्थ्य को काफ़ी ख़तरा है।
फ़ेमिनिस्ट्स या नारीवादियों का कहना है कि इंसान होने के रूप में हर महिला को अपने शरीर और जान पर अधिकार प्राप्त है, इस वैध अधिकार के आधार पर उसे गर्भपात का हक़ हासिल है। इस दृष्टिकोण के मुताबिक़, भ्रूण जब तक गर्भ में है, उस समय तक वास्तव में वह मां के शरीर का ही एक भाग है और किसी भी समस्या के कारण मां को यह अधिकार हासिल है कि वह उसे ख़ुद से जुदा कर दे।
हालांकि वास्तविकता यह है कि भ्रूण मां के शरीह का हिस्सा नहीं है, बल्कि ख़ुद एक पूर्ण इंसान है या होने वाला है। इंसान होने के नाते उसका वही सम्मान है जो मां का है।
इस्लाम, गर्भ में पलने वाले बच्चे या भ्रूण के जीवन के लिए सम्मान का क़ायल है। इस्लामी दृष्टिकोण के मुताबिक़, भ्रूण भविष्य का एक व्यक्ति है, जिसमें मानवीय चरणों को तय करने की योग्यता पायी जाती है, अन्य इंसानों की भांति जीवन समेत उसे समस्त अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए गर्भपात द्वारा उसके जीवन का अंत करना एक अपराध है और जो यह अपराध करेगा, वह सज़ा का पात्र है। इसलिए कि इंसान का अस्तित्व दो सेल्स या कोशिकाओं के मिलने से वजूद में आता है, क़ुरान के मुताबिक़, किसी भी चरण में उसे नष्ट करना मानवता को नष्ट करने के समान है।
इसी प्रकार हर व्यक्ति की बुद्धि इस बात की पुष्टि करती है कि अत्याचार करना बुरा है। इसलिए कि अत्याचार से अत्याचारग्रस्त व्यक्ति के अधिकार का हनन होता है। जवीन, हर इंसान का अधिकार है। अगर किसी से यह अधिकार छीन लिया जाएगा तो यह उस पर अत्याचार होगा और उसके अधिकार का हनन। गर्भपात से भ्रूण के जीवन के अधिकार को छीन लिया जाता है, इसलिए यह अत्याचार है।
इस्लामी शिक्षाओं पर ध्यान देने से पता चलता है कि भ्रूण के विभिन्न चरण होते हैं, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण उसमें जान पड़ने से पहले और उसके बाद का चरण है। भ्रूण में जब जान पड़ चुकी होती है तो वह गर्भ में हिलने जुलने लगता है, सामान्य रूप से यह गर्भ धारण के चार महीने बाद होता है। जिस भ्रूण में जान पड़ चुकी होती है, वह इंसान की श्रेणी में आता है और उसकी हत्या करना एक इंसान की हत्या करने के समान है।
हालांकि कुछ इस्लामी विद्वानों के मुताबिक़, इस्लाम में विशेष परिस्थितियों में गर्भपात हराम नहीं है। ऐसी स्थिति में कि जब मां की जान को ख़तरा हो तो गर्भपात कराया जा सकता है। इसी प्रकार भ्रूण के गर्भ में रहने से मां की जान को गंभीर ख़तरा हो, इस प्रकार से कि या मां की जान बच सकती है या केवल भ्रूण की जान। ऐसी स्थिति में शरीअत की दृष्टि में मां की जान को बचाना अधिक महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार जब यह सुनिश्चित हो जाए कि मां के गर्भ में मौजूद भ्रूण पूरा नहीं है।



उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद की परीक्षाएं 16 अप्रैल से आरम्भ होकर 28 अप्रैल तक चलेगी।

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उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद की मुंशी, मौलवी, आलिम, कामिल और फाजिल की परीक्षाएं अगले महीने 16 अप्रैल से आरम्भ होगी। मदरसा परीक्षाएं प्रदेश के लगभग 700 परीक्षा केंद्रों पर होगी। परीक्षा केंद्रों के चयन की प्रक्रिया जारी है और इसी सप्ताह केंद्रों का चयन कर सूची जारी कर दी जाएगी।

 https://www.facebook.com/masoomsmमदरसा बोर्ड के रजिस्ट्रार राहुल गुप्ता ने बताया कि बोर्ड परीक्षाएं 16 अप्रैल से आरम्भ होकर 28 अप्रैल तक चलेगी। प्रदेश के विभिन्न परीक्षा केंद्रों पर आयोजित होने वाली परीक्षा में 2 लाख 95 हजार से अधिक परीक्षार्थियों ने ऑनलाइन आवेदन किया है। मदरसा परिषद की परीक्षा में शामिल होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या में 75 हजार से अधिक की कमी आयी है। बीते वर्ष प्रदेश भर से 3 लाख 71 हजार से अधिक परीक्षार्थियों ने परिषद की विभिन्न परीक्षाओं के लिए ऑनलाइन आवेदन किया था।


गुप्ता ने बताया कि मुंशी, मौलवी, आलिम, कामिल औैर फाजिल परीक्षाओं की स्कीम बोर्ड की वेबसाइट http://madarsaboard.upsdc.gov.inपर उपलब्ध है। 16 अप्रैल से आरम्भ होने वाली परीक्षाएं दो पालियों में होगी। सुबह की पाली 8 बजे से आरम्भ होकर 11 बजे तक चलेगी, जबकि दोपहर की पाली की परीक्षा दोपहर 2 बजे से आरम्भ होकर शाम 5 बजे तक आयोजित होगी।


पैगम्बर(स.) ने ज़बान काटने का आदेश दिया तो हजरत अली ने क्या किया ?

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एक मरतबा पैगम्बर मोहम्मद(स.) अपने सहाबियों के साथ मस्जिद में बैठे हुए थे कि वहाँ एक अनजान शख्स आया और उन्हें अपशब्द कहने लगा। पैगम्बर(स.) ने अपने सहाबियों की तरफ देखा और कहने लगे तुममें से कौन है जो इसकी ज़बान काट सकता है? यह सुनकर दो तीन लोग तलवार व खंजर निकालकर खड़े हो गये। लेकिन पैगम्बर(स.) ने सबको आगे बढ़ने से रोक दिया और फिर अपना सवाल दोहराया। इसबार हज़रत अली(अ.) खड़े हुए लेकिन उनके हाथ में न तो तलवार थी और न ही खंजर। उन्होंने कहा अगर आपकी इजाज़त हो तो मैं उसकी ज़बान काट दूं। पैगम्बर(स.) ने हज़रत अली(अ.) को इजाज़त दे दी।

हज़रत अली(अ.) उस अपशब्द कहने वाले की तरफ बढ़े। उसका हाथ पकड़ा और दूर ले गये। कुछ देर अकेले में उससे बात करते रहे और फिर वह अपने रास्ते चला गया जबकि हज़रत अली(अ.) वापस आ गये। ये देखकर मजमे में कानाफूसी होने लगी कि जिस व्यक्ति की ज़बान काटने का पैगम्बर(स.) ने आदेश दिया था उसे हज़रत अली(अ.) ने यूं ही निकल जाने दिया। लेकिन पैगम्बर(स.) ने हज़रत अली(अ.) से कोई सवाल नहीं किया बस मन्द मन्द मुस्कुराते रहे।

फिर अगले दिन लोगों ने फिर उस अपशब्द कहने वाले को देखा लेकिन इस दशा में कि वो आज पैगम्बर(स.) की और इस्लाम की तारीफें कर रहा है। अब पैगम्बर(स.) ने मजमे के सामने हज़रत अली(अ.) से पूछा तो हज़रत अली(अ.) ने जवाब दिया कि कल मैंने इस व्यक्ति से अच्छा व्यवहार किया, इससे मोहब्बत से पेश आया और इस्लाम का पैगाम सुनाया तो इसने प्रभावित होकर इस्लाम कुबूल कर लिया। अब पैगम्बर(स.) ने मजमे की तरफ देखकर मुस्कुराते हुए फरमाया कि ज़बान काटने से मेरा मतलब यही था कि इसके दिल में अपने लिये इतना प्रेम जागृत कर दो कि जो ज़बान अपशब्द कह रही है वही ज़बान तारीफें करने लगे। अली(अ.) ने मेरी बात को समझा और यही किया। इस्लाम तलवार व खंजर के ज़ोर पर लोगों को अपने सामने सर झुकाने की बात नहीं सिखाता बल्कि प्रेम के बल पर दिलों पर राज करने का संदेश देता है। यही दीने इस्लाम की सच्ची शिक्षा है।



इस्लाम का सफ़र मक्का से कर्बला तक

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मुसलमानों का मानना है कि हर युग और हर दौर मैं अल्लाह ने इस धरती पर अपने दूत(संदेशवाहक/पैग़म्बर), अपने सन्देश के साथ इस उद्देश्य के लिए भेजे हैं कि अल्लाह के यह दूत इंसानों को सही रास्ता दिखायें और इंसान को बुरे रास्ते पर चलने से रोकें. इन्हीं संदेशवाहकों को इस्लाम में पैग़म्बर या नबी कहा जाता है. ईश्वर की तरफ से संदेशवाहकों की ज़रुरत इसलिए पड़ी क्योंकि ईश्वर ने इंसान को धरती पर पूरी आज़ादी देकर भेजा है. इंसान में इस दुनिया को बनाने के साथ साथ तबाह करने की भी क़ाबलियत है. वह परमाणु पावर से सारी दुनिया रोशन भी कर सकता है और इसी परमाणु अटम बोम्ब के सहारे लाखों लोगों को एक ही पल मैं मौत के मुह मैं भी पहुंचा सकता है.
मुसलमानों के मुताबिक अब तक कुल 313 रसूल/नबी, अल्लाह की तरफ से भेजे जा चुके हैं, इनमें से 5 रसूल बड़े रसूल हैं. जो कि हैं:
1. हज़रत Abraham(इब्राहीम)
2. हज़रत Moses(मूसा)
3. हज़रत David(दावूद)
4. हज़रत Jesus (ईसा)
5. हज़रत Muhammad(मोहम्मद)
हज़रत मोहम्मद इन सब नबियो में सबसे आखिरी नबी हैं.
कुछ और दुसरे नबियों के नाम हैं:
हज़रत Adam (आदम)
हज़रत Nooh (नूह)
हज़रत Ishaaq (इसहाक़)
हज़रत Yaaqub (याक़ूब)
हज़रत Joseph (युसुफ़)
हज़रत Ismail (इस्माइल)
इस्लाम क्या है?
इस्लाम धर्म के मानने वालों को मुस्लिम कहा जाता है. मुस्लिम शब्द सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के मानने वालों के लिए इस्तमाल किया गया था.
हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा:
पैग़म्बर हज़रत नूह के कई सौ साल बाद हज़रत इब्राहीम को अल्लाह ने अपना पैग़म्बर बनाया. हज़रत इब्राहीम के दो बेटे हुए, एक हज़रत इस्माइल और दुसरे हज़रत इस्हाक़. इस्हाक़ से बनी इसराइल की नस्ल चली और इस्माइल की नस्ल में हज़रत मोहम्मद ने जन्म लिया.
लेकिन हज़रत मोहम्मद के पूर्वजों में भी एक पूर्वज थे अब्दुल मनाफ़, जिनके यहाँ ऐसे जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए जो आपस में जुड़े हुए थे. इन दोनों में से केवल एक ही को बचाया जा सकता था. इसलिए यह फैसला किया गया कि तलवार से काट कर दोनों को अलग किया जाए लेकिन तलवार से अलग किये जाने के बाद दोनों ही बच्चे जीवित रहे. इनमें से एक का नाम हाशिम और दूसरे का नाम उमय्या रखा गया. इसी लिए इन दोनों बच्चों की नस्लों को बनी हाशिम और बनी उमय्या कहा जाने लगा. बनी हाशिम को मक्का के सब से पवित्र धर्म स्थल क़ाबा की देख भाल और धार्मिक कार्य अंजाम देने की ज़िम्मेदारी सोंपी गई थी.
पैग़म्बर मोहम्मद के दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अरब सरदारों में बहुत अहम समझे जाते थे, उन्हें सय्यदुल बतहा कहा जाता था. पैग़म्बर साहब के वालिद(पिता) का नाम हज़रत अब्दुल्लाह और वालिदा(माता) का नाम हज़रत आमिना था.
मोहम्मद साहब के पैदा होने से कुछ महीने पहले ही उनके वालिद का इंतिकाल हो गया और उनकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी दादा हज़रत मुत्तलिब को उठानी पड़ी. कुछ समय के बाद मोहम्मद साहब के दादा भी चल बसे और माँ का साया भी बचपन में ही उठ गया. अब इस यतीम बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी चाचा अबूतालिब ने उठाली और हज़रत हलीमा नाम की दाई के संरक्षण मे मोहम्मद साहब की परवरिश की.
बचपन में मोहम्मद साहब भेड़-बकरी को रेवड़ चराने जंगलो में ले जाते थे और इस तरह उनका बचपन गुज़र गया. बड़े होने पर उन्हें अरब की एक धनी महिला हज़रत ख़दीजा के यहाँ नौकरी मिल गई और वह हज़रत ख़दीजा का व्यापार बढ़ाने मे लग गये.
मोहम्मद साहब की ईमानदारी, लगन, निष्टा और मेहनत से हज़रत ख़दीजा का कारोबार रोज़-बरोज़ बढ़ने लगा. मोहम्मद साहब के आला किरदार से हज़रत ख़दीजा इतना प्रभावित हुईं कि उन्होनें एक सेविका के ज़रिए मोहम्मद साहब के पास शादी का पैग़ाम भिजवाया जिस को हज़रत मोहम्मद ने खुशी के साथ क़ुबूल लिया.
इस बीच हज़रत मोहम्मद अरब जगत में अपनी सच्चाई, लगन, इंसानियत-नवाज़ी, बिना किसी पक्षपात वाले तौर तरीक़ो, अमानतदारी और श्रेष्ठ चरित्र के लिए मशहूर हो चुके थे. एक ओर हज़रत मोहम्मद आम लोगो, ग़रीबों, लाचारों ज़रूरत मंदो और ग़ुलामों की मदद करने काम खामोशी से अंजाम दे रहे थे, दूसरी तरफ अरब जगत ज़ुल्म, अत्याचार, क्रूरता, झूठ, बेईमानी के अँधेरे में डूबता जा रहा था. हज़रत मोहम्मद ने पैग़म्बर होने का ऐलान करने से पहले अरब समाज में अपनी सच्चाई का लोहा मनवा लिया था. सारे अरब में उनकी ईमानदारी और अमानतदारी मशहूर हो चुकी थी. लोग उनको सच्चा और अमानतदार कहने लगे थे.
जब पेगंबर साहब 30 साल की उमर में पहुँचे तो उनके चाचा हज़रत अबूतालिब के घर में एक बच्चे का जन्म हुआ. पैग़म्बर साहब ने बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली. बाद में इसी बच्चे को दुनिया ने हज़रत अली के नाम से पहचाना. जब हज़रत अली 10 साल के हो गये तो लगभग चालीस साल की उमर में हज़रत मोहम्मद को अल्लाह की तरफ़ से पहली बार संदेश आया: “इक़्रा बिसमे रब्बीका” यानी पढ़ो अपने रब्ब के नाम के साथ. पैग़म्बर साहब यह सुन कर पानी-पानी हो गये और घर लौट कर सारा क़िस्सा अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा को बताया की किस तरह अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते ने उन्हें अल्लाह की खबर दी है. हज़रत ख़दीजा ने फ़ौरन ही यह बात मान ली कि हज़रत मोहम्मद अल्लाह द्वारा नियुक्त किये हुए पैग़म्बर हैं, फिर हज़रत अली ने भी फ़ौरन यह बात स्वीकार कर ली कि मोहम्मद साहब अल्लाह द्वारा भेजे हुए पैग़म्बर है.
शुरू में पैग़म्बर साहब ने ख़ामोशी से अपना अभियान चलाया और कुछ ख़ास मित्रों तक ही बात सीमित रखी. इस तरह तीन साल का वक़्त गुज़र गया. तब अल्लाह की और से सन्देश आया कि अब इस्लाम का प्रचार खुले आम किया जाए. इस आदेश के बाद पैग़म्बर साहब मक्का नगर कि पवित्र पहाड़ी “कोहे सफ़ा” पर खड़े हुए और जमा लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर मैं तुम से कहूँ कि पहाड़ के पीछे से एक सेना आ रही है तो क्या तुम मेरा यक़ीन करोगे? सब ने कहा : “हाँ, क्योंकि हम तुमको सच्चा जानते हैं”, उसके बाद जब पैग़म्बर साहब ने कहा कि अगर तुम ईमान न लाये तो तुम पर सख्त अज़ाब(प्रकोप) नाज़िल होगा तो सब नाराज़ हो कर चले गए. इनमें अधिकतर उनके खानदान वाले ही थे. इस ख़ुतबे(प्रवचन) के कुछ समय बाद पैगंबर साहब ने एक दावत में अपने रिश्तेदारों को बुलाया और उनके सामने इस्लाम का संदेश रखा लेकिन हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा परिवार जन हज़रत मोहम्मद को अल्लाह का संदेशवाहक मानने को तैयार नहीं था. तीन बार ऐसी ही दावत हुई और हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति पैगंबर साहब की हिमायत के लिए खड़ा नहीं हुआ, हालाँकि पैगंबर साहब इस बात का न्योता भी दे रहे थे कि जो उनकी बात मानेगा वही उनका उत्तराधिकारी होगा.
जिस समय मुसलमानो की तादाद चालीस हो गई तो पैगंबर साहब ने मक्का के पवित्र स्थल क़ाबा में पहुँच कर यह ऐलान कर दिया कि “अल्लाह के अलावा कोई इबादत के क़ाबिल नही है”. इस प्रकार की घोषणा से मक्का के लोग हक्का बक्का रह गए और उन्होनें चालीस मुसलमानों की छोटी सी टुकड़ी पर हमला कर दिया और एक मुस्लिम नवयुवक हारिस बिन अबी हाला को शहीद कर दिया. उसके बाद हज़रत यासिर को शहीद किया गया, खबाब बिन अलअरत को जलते अंगारों पर लिटा कर यातना दी गई. हज़रत बिलाल को जलती रेत पर लिटा कर अज़ीयत दी गई. सुहैब रूमी का सारा समान लूट कर उन्हें मक़्क़े से निकाल दिया गया. इस्लाम धर्म क़ुबूल करने वाली महिलाओं को भी परेशान किया जाने लगा. इनमें हज़रत यासिर की पत्नी सुमय्या, हज़रत उमर की बहन फातेमा, ज़ुनैयरा, नहदिया और उम्मे अबीस जैसी महिलाएं शामिल थीं. इनमे से कुछ को क़त्ल भी कर दिया गया. अल्लाह के आदेश पर अपने को पैगंबर घोषित करने के पाँचवे साल पैग़म्बर साहब को अपने अनेक साथियों को मक्का छोड़ कर हब्श(अफ्रीका) की और जाने के लिए कहना पड़ा और 16 मुसलमान हबश चले गये. कुछ समय बाद 108 लोगो पर आधारित मुसलमानों का एक और दल हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के नेतृत्व में मक्का छोड़ कर चला गया. मुसलमानों के पलायन से मक्के के काफ़िरों का होसला बढ़ गया. ख़ास तौर पर अबू जहल नामक सरदार पैग़म्बर साहब को प्रताड़ित करने लगा. यह देख कर मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया. उनके शामिल होने से मुसलमानों को बहुत हौसला मिला क्योंकि हज़रत हम्ज़ा बहुत मशहूर योद्धा थे. फिर भी मक्के वालो ने पैग़म्बर साहब का जीना दूभर किये रखा. बड़े तो बड़े, छोटे छोटे बच्चो को भी पैग़म्बर साहब पर पत्थर फेंकने पर लगा दिया गया. औरते छतों से कूड़ा फेंकने पर लगाईं गई. इस दुश्वार घडी में पत्थर मारने वाले बच्चों को खदेड़ने का काम कम आयु के हज़रत अली ने अंजाम दिया, कूड़ा फैंकने वाली औरत के बीमार पड़ने पर उसकी खैरियत पूछने की ज़िम्मेदारी स्वंय पैग़म्बर साहब ने और मक्का के बड़े बड़े सरदारों की साजिशों से हज़रत मोहम्मद को सुरक्षित रखने का काम हज़रत अली के पिता हज़रत अबू तालिब ने अपने सर ले रखा था. जब हज़रत मोहम्मद का एकेश्वरवाद का सन्देश तेजी से फैलने लगा तो दमनकारी शक्तियाँ और हिंसक होने लगीं और पैग़म्बर साहब के विरोधी खिन्न हो कर उनके चाचा हज़रत अबू तालिब के पास पहुंचे और कहा कि या तो वे हज़रत मोहम्मद को अपने धर्म के प्रचार से रोके या फिर हज़रत मोहम्मद को संरक्षण देना बंद कर दें. हज़रत अबू तालिब ने मोहम्मद साहब को समझाने की कोशिश की लेकिन जब मोहम्मद साहन ने उनसे साफ़ साफ़ कह दिया कि “अगर मेरे एक हाथ में चाँद और दूसरे हाथ में सूरज भी रख दिया जाए तो भी में अल्लाह के सन्देश को फैलाने से बाज़ नहीं आ सकता. खुदा इस काम को पूरा करेगा या मैं खुद इस पर निसार हो जाऊँगा.”
लोगों का मानना है कि इसी समय हज़रत अबू तालिब ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन मक्के के हालात देखते हुए उन्होंने इसकी घोषणा करना मुनासिब नहीं समझा. जब यह चाल भी नाकाम हो गई तो मक्के के सरदारों ने एक और चाल चली. उन्होंने अकबा बिन राबिया नाम के एक व्यक्ति को पैग़म्बर साहब के पास भेजा और कहलवाया कि “ऐ मोहम्मद! आखिर तुम चाहते क्या हो? मक्के की सल्तनत? किसी बड़े घराने में शादी? धन, दौलत का खज़ाना? यह सब तुम को मिल सकता है और बात पर भी राज़ी हैं कि सारा मक्का तुम्हे अपना शासक मान ले, बस शर्त इतनी है कि तुम हमारे धर्म मैं हस्तक्षेप न करो”. इस के जवाब में हज़रत मोहम्मद ने कुरआन शरीफ कि कुछ आयते(वचन) सुना दीं. इन आयातों का अकबा पर इतना असर हुआ कि उन्होंने मक्के वालों से जाकर कहा कि मोहम्मद जो कुछ कहते हैं वे शायरी नहीं है कुछ और चीज़ है. मेरे ख़याल में तुम लोग मोहम्मद को उनके हाल पर छोड़ दो अगर वह कामयाब हो कर सारे अरब पर विजय हासिल करते हैं तो तुम लोगो को भी सम्मान मिलेगा अन्यथा अरब के लोग उनको खुद इ९ ख़तम कर देंगे. लेकिन मक्के वाले इस पर राज़ी नहीं हुए और हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध ज़्यादा कड़े कदम उठाये जाने लगे. (हज़रत मोहम्मद को परेशान करने वालो में अबू सुफ्यान, अबू जहल और अबू लहब सबसे आगे थे). हज़रत मोहम्मद व उनके साथियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. कष्ट की इस घड़ी में एक बार फिर हज़रत मोहम्मद के चाचा हज़रत अबू तालिब ने एक शिविर का प्रबंध किया और मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की. इस सुरक्षा शिविर को शोएब-ए-अबू तालिब कहा जाता है. इस दौरान हज़रत अबू तालिब हज़रत मोहम्मद की सलामती को लेकर इतना चिंतित थे कि हर रात मोहम्मद साहब के सोने की जगह बदल देते थे और उनकी जगह अपने किसी बेटे को सुला देते थे. तीन साल की कड़ी परीक्षा के बाद मुसलमानों का बायकाट खत्म हुआ. लेकिन मुसलमानों को ज़ुल्म और सितम से छुटकारा नहीं मिला और मक्का वासियों ने मुसलामानों पर तरह तरह के ज़ुल्म जारी रखे.
हज़रत अबू तालिब के इंतिक़ाल के बाद इन ज़ुल्मो में इज़ाफा हो गया(इसी साल पैग़म्बर साहब की चहीती पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी इंतिक़ाल हो गया). और मोहम्मद साहब की जान के लिये खतरा पैदा हो गया. मक्के की मुस्लिम दुश्मन ताकतें मोहम्मद साहब को क़त्ल करने की साजिशें करने लगीं. लेकिन दस वर्ष के समय में पैग़म्बर साहब का फैलाया हुआ दीन मक्के की सरहदें पार कर के मदीने के पावन नगर में फ़ैल चुका था इसलिए मदीने के लोगो ने पैग़म्बर साहब को मदीने में बुलाया और उनको भरोसा दिया की वे मदीने में पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे. एक रात मक्के के लगभग सभी क़बीले के लोगो ने पैग़म्बर साहब को जान से मार देने की साज़िश रच ली लेकिन इस साज़िश की खबर मोहम्मद साहब को पहले से लग गई और वेह अपने चचेरे भाई हज़रत अली से सलाह मशविरा करने के बाद मदीने के लिए प्रस्थान करने को तैयार हो गए. लेकिन दुश्मनों ने उनके घर को चारो तरफ से घेर रखा था. इस माहोल में हज़रत अली मोहम्मद साहब के बिस्तर पर उन्ही की चादर ओढ़ कर सो गए और मोहम्मद साहब अपने एक साथी हज़रत अबू बक्र के साथ रात के अँधेरे में ख़ामोशी से मक्का छोड़ कर मदीने के लिए चले गये. जब इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के घर पर हमला किया और उनके बिस्तर पर हज़रत अली को सोता पाया तो खीज उठे. उन लोगों ने पैग़म्बर साहब का पीछा करने की कोशिश की और उन तक लगभग पहुँच भी गए लेकिन जिस गार(गुफा) में हज़रत मोहम्मद छुपे थे उस गुफा के बाहर मकड़ी ने जाला बुन दिया और कबूतर ने घोंसला लगा दिया जिससे कि पीछा करने वाले दुश्मन गुमराह हो गए और पैग़म्बर साहब की जान बच गई. कुछ समय बाद हज़रत अली भी पैग़म्बर साहब से आ मिले. इस तरह इस्लाम के लिए एक सुनहरे युग की शुरुआत हो गई. मदीने में ही पैग़म्बर साहब ने अपने साथियो के साथ मिल कर पहली मस्जिद बनाई. यह मस्जिद कच्ची मिट्टी से पत्थर जोड़ कर बनाई गई थी और इस पर सोने चांदी की मीनार और गुम्बद नहीं थे बल्की खजूर के पत्तों की छत पड़ी हुई थी.
मक्का छोड़ने के बाद भी इस्लाम के दुश्मनों ने मोहम्मद साहब के खिलाफ़ साजिशें जारी रखीं और उन पर लगातार हमले होते रहे. मोहम्मद साहब के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी. मदीने में आने के बाद जो पहली जंग हुई उसमे पैग़म्बर साहब के पास केवल तीन सो तेरह आदमी थे, तीन घोड़े, सत्तर ऊँट, आठ तलवारें, और छेह ज़िर्हे(ढालें) थी. इस छोटी सी इस्लामी फ़ौज का नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था, जो हज़रत अली के लिए पहला तजुर्बा था. लेकिन जिन लोगों को अल्लाह ने प्रशिक्षण दे कर दुनिया में उतारा हो, उन्हें तजुर्बे की क्या ज़रुरत? इतनी छोटी सी तादाद में होने के बावजूद मुसलमानों ने एक भरपूर लश्कर से टक्कर ली और अल्लाह पर अपने अटूट विश्वास का सबूत देते हुए मक्के वालों को करारी मात दी. इस जंग में काफ़िरो को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. जंगे-बद्र के नाम से मशहूर इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचाज़ाद भाई हज़रत अली और मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए और मक्के के फ़ौजी सरदार अबू सुफ्यान को काफ़ी ज़िल्लत(बदनामी) उठानी पड़ी. उसके साथ आने वाले बड़े बड़े काफिर सरदार और योद्धा मारे गए.
मोहम्मद साहब न तो किसी की सरकार छीनना चाहते थे न उन्हें देश और ज़मीन की ज़रुरत थी, वे तो सिर्फ इस धरती पर अल्लाह का सन्देश फैलाना चाहते थे. मगर उन पर लगातार हमले होते रहे जबकि खुद मोहम्मद साहब ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही इस्लामी सेना ने किसी देश पर चढाई की. इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बर साहब और उनके साथियों पर कुल मिला कर छोटे बड़े लगभग छियासी युद्ध थोपे गये और यह सारी लड़ाईयाँ मदीने के आस पास लड़ी गई. केवल जंगे-मौता के मौके पर इस्लामी फ़ौज मदीने से आगे बढ़ी क्योंकि रोम के बादशाह ने मुसलमानों के दूत को धोके से मार दिया था. मगर इस जंग में मुसलमानों की तादाद केवल तीन हज़ार थी और रोमन लश्कर(सेना) में एक लाख सैनिक् थे इसलिए इस जंग में मुसलमानों को कामयाबी नहीं मिली. इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई हज़रत जाफर बिन अबू तालिब और कई वीर मुसलमान सरदार शहीद हुए. यहाँ पर यह कहना सही होगा कि मोहम्मद साहब ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया, न ही इस्लामी शासन का विस्तार करने के लिए उन्होंने किसी मुल्क पर चढ़ाई की बल्कि उन को ही काफ़िरो(नास्तिको) ने हर तरह से परशान किया. जंगे-अहज़ाब के मौके पर तो काफ़िरो ने यहूदियों और दूसरी इस्लाम दुश्मन ताकतों को भी मिला कर मुसलमानों पर चढ़ाई की, लेकिन इस के बाद भी वे मुसलमानों को मात नहीं दे सके.
जंगे-उहद के मौके पर तो पैग़म्बर साहब को अभूतपूर्व क़ुरबानी देनी पड़ी. इस जंग में पैग़म्बर साहब के वीर चाचा हज़रत हम्ज़ा शहीद हो गए, उनकी शहादत के बाद पैग़म्बर साहब के सब से बड़े दुश्मन अबू सुफ्यान की पत्नी हिंदाह ने अपने ग़ुलाम की मदद से हज़रत हम्ज़ा का सीना काट कर उनका कलेजा निकाल कर उसे चबाया और उनके कान नाक कर कर अपने गले मैं हार की तरह पहना. इस के उलट हज़रत मोहम्मद ने जंग में मारे गए दुसरे पक्ष के मृत सैनिको की लाशों को अपमान करने की मनाही की.
इसके बाद भी लगातार मुसलमानों को हर तरह से परेशान किया जाता रहा मगर काफ़िरो को सफलता नहीं मिली. इस्लाम का नूर(रौशनी) दूर दूर तक फैलने लगा. खुले आम थोपी जाने वाली जंगो के साथ साथ पैग़म्बर साहब को चोरी छुपे मारने की कोशिशे भी होतीं रहीं. एक बार बिन हारिस नाम के एक काफिर ने मोहम्मद साहब को एक पेड़ के नीचे अकेला सोते हुए देख कर तलवार से हमला करना चाह और महोम्मद साहब को आवाज़ दे कर कहा कि “ऐ मोहम्मद इस वक़्त तुम को कोन बचा सकता है?” हज़रत ने इत्मीनान(आराम से/बिना किसी डर के) से जवाब दिया “मेरा अल्लाह”. यह सुन कर बिन हारिस के हाथ काँपने लगे और तलवार हाथ से छूट गई. हज़रत ने तलवार उठा ली और पूछा: “अब तुझे कौन बचा सकता है?”. वह बोला, “आप का रहम-ओ-करम”. हज़रत ने जवाब दिया ” तुझ को भी अल्लाह ही बचाएगा”. यह सुन कर बिन हारिस ने अपने सर पैग़म्बर साहब के पैरों पर रख दिया और मुसलमान हो गया.
मदीने में एक तरफ तो पैग़म्बर साहब पर काफ़िरो के हमले हो रहे थे तो दूसरी तरफ़ हज़रत का परिवार फल फूल रहा था. उन की इकलोती बेटी हज़रत फ़ातिमा की शादी हज़रत अली से होने के बाद हज़रत मोहम्मद के घर में दो चाँद हज़रत हसन और हज़रत हुसैन के रूप में चमकने लगे थे. जिन्हें हज़रत मोहम्मद अपने बेटों से भी ज्यादा अज़ीज़ रखते थे. पैग़म्बर साहब के इकलोते बेटे हज़रत क़ासिम बचपन में ही अल्लाह को प्यारे हो गए थे इसलिए भी पैग़म्बर साहब अपने नवासो से बहोत प्यार करते थे. पैग़म्बर साहब की दो नवासियाँ भी थी जिनको इस्लामी इतिहास में हज़रत जैनब और हज़रत उम्मे कुलसूम कहा जाता है.
मदीने में रह कर इस्लाम के प्रचार प्रसार में लगे हज़रत मोहम्मद को किसी भी तरह हरा देने की साज़िशे रचने वाले काफ़िरो ने कई बार यहूदी और अन्य वर्गों के साथ मिल कर भी मदीने पर चढाई की मगर हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी और उनके बड़े बड़े वीर योद्धा हज़रत अली के हाथों मारे गए. इन लडाइयों में जंगे-खैबर और जंगे-ख़न्दक का बहोत महत्त्व है. इस्लाम की हिफाज़त करने मैं हज़रत अली ने जिस बहादुरी और हिम्मत का सुबूत दिया, उससे इस्लाम का सर तो ऊँचा हुआ ही खुद हज़रत अली भी इस्लामी जगत मैं वीरता और बहादुरी के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने लगे और आज तक बहादुर और वीर लोग “या अली” कहकर मैदान में उतारते हैं. आम लोग संकट की घड़ी में “या अली” या “या अली मदद” कहकर उनको मदद के लिए आवाज़ देते हैं.
हज़रत अली ने इस्लाम की सुरक्षा और विस्तार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने बड़ी बड़ी जंगो मैं हिस्सा लिया और इस्लामी सेना को विजय दिलाई लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है की उनके हाथों कोई बेगुनाह नहीं मारा गया और न ही उन्होंने किसी निहत्थे पर वार किया. जो भी उनसे लड़ने आया उसको उन्होंने यही मशविरा(सलाह/राय) दिया की अगर वह चाहे तो जान बचाकर जा सकता है और जान बचा कर भाग लेने में कोई शर्त भी नहीं थी.
पैग़म्बर साहब और मुसलमानों पर लगातार हमलों के बावजूद इस्लाम रोज़ बरोज़ फैलता जा रहा था आखिर थक आर कर मक्के के अनेक क़बीलो ने पैग़म्बर साहब के साथ समझोता कर लिया. यह समझोता “सुलह-ए-हुदेबिया” के नाम से मशहूर है. पैग़म्बर साहब के शांति प्रिय होने का सबसे बड़ा सुबूत इस संधि के मौके पर देखने को मिला जब उन्होंने काफ़िरो के ज़ोर देने पर सहमती पत्र पर से अपने नाम के आगे से रसूल अल्लाह(अल्लाह के रसूल) काट दिया और केवल मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिखा रहने दिया हालांकि पैग़म्बर साहब के सहयोगी इस पर राज़ी नहीं थे की पैग़म्बर साहब के नाम के आगे से रसूल अल्लाह लफ्ज़ काटा जाए. कुछ दिन बाद इस संधि को तोड़ते हुए पैग़म्बर साहब के सहयोगी क़बीले बनी खिज़ाअ के एक व्यक्ति को काफ़िरो के एक क़बीले बनी बकर ने मक्का नगर की सबसे सबसे पाक पवित्र जगह क़ाबा के आँगन में ही मार डाला तो पैग़म्बर साहब ने दस हज़ार मुसलमानों को लेकर मक्के की तरफ़ प्रस्थान किया. मक्के की सीमा पर पहुँचने से पहले ही इस्लाम का कट्टर और सबसे बड़ा दुश्मन अबू सूफ़ियान मुसलमानों की जासूसी करने के लिए आया लेकिन घिर गया. लेकिन मुसलमानों ने उसे मारा नहीं और बल्कि पनाह दे दी. पैग़म्बर के चाचा हज़रत अब्बास ने सुफियान को मशविरा दिया की वह इस्लाम स्वीकार कर ले. अबू सुफियान ने मजबूरी मैं इस्लाम कुबूल कर लिया और मक्के वालों की और से किसी तरह के प्रतिरोध के बिना मुसलमान लगभग आठ साल के अप्रवास के बाद मक्के में दाखिल हुए. इस विजय की ख़ुशी में मुसलमानों का ध्वज उठा कर चल रहे सेनापति सअद बिन अबादा ने जोश में आकर यह ऐलान कर दिया कि आज बदले का दिन है और आज हर तरह का इंतिकाम जायज़ है. इस घोषणा से पैग़म्बर साहब इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने अलम(झंडे) को सअद से लेकर हज़रत अली को सोंप दिया और दुनिया को बता दिया की इस्लाम जोश नहीं होश की मांग करता है. इस जीत के मौके पर बदला या इंतिकाम लेने कि जगह पर पैग़म्बर साहब ने सभी मक्का वासियों को माफ़ कर दिया. पैग़म्बर साहब ने हिन्दा(अबू सूफ़ियान की पत्नी) नाम की उस औरत को भी माफ़ कर दिया जिसने मोहम्मद साहब के प्यारे चाचा हज़रत हम्ज़ा का कलेजा चबाने का जघन्य अपराध किया था. लगभग अठारह दिन मक्के में रहने के बाद मुसलमान जब वापस मदीने लौट रहे थे तो ताएफ़ नामक स्थान पर काफिरों ने उन्हें घेर लिया. पहले तो मुसलमानों में अफ़रातफरी फैल गई. लेकिन बाद में मुसलमानों ने जम कर मुकाबला किया और काफ़िरो को करारी मात दी. इस जंग को जंग-ए-हुनैन कहा जाता है.
जंगे-ए-मौता में मुसलमानों को मात देने वाली रोम की सेना के हौंसले एक बार फिर बढ़ गए थे. रोम के हरकुलिस(Harqulis) बादशाह ने इस्लाम को मिटा देने के इरादे से फिर एक बार फौजें जमा कर लीं और पैग़म्बर साहब ने भी सारे मुसलमानों से कह दिया की वह जान की बाज़ी लगाने को तैयार रहे. तबूक नामक स्थान पर इस्लामी सेनायें रोमियों का मुकाबला करने पहुँचीं. मगर रोम वाले मुसलामानों की ताक़त का अंदाज़ा लगा चुके थे इस लिए यह युद्ध टल गया. इस के बाद मुसलमानों के बीच घुस कर कुछ दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के ऊंट को घाटी में गिरा कर मार डालने की साज़िश रची लेकिन अल्लाह ने उनको बचा लिया.
मक्का की विजय के लगभग एक साल बाद नज़रान नामक जगह के ईसाई मोहम्मद साहब से वाद विवाद के लिए आये और हज़रत ईसा मसीह को खुदा का बेटा साबित करने की कोशिश करने लगे तो पैग़म्बर साहब ने उनको बताया की इस्लाम धर्म, ईसा मसीह को अल्लाह का पवित्र पैग़म्बर मानता है, ईश्वर का बेटा नहीं. क्योंकि अल्लाह हर तरह के रिश्ते से परे है. मगर मुसलमान हज़रत ईसा के चमत्कारिक जन्म पर यक़ीन रखते हैं और यह भी मानते हैं कि उनका कोई पिता नहीं था. जब ईसाइयों ने कहा की बिना बाप के कोई बच्चा कैसे जन्म ले सकता है तो हज़रत मोहम्मद ने कहा कि “वही अल्लाह जिसने हज़रत आदम(Adam) को बग़ैर माँ-बाप के पैदा किया, ईसा मसीह को बग़ैर पिता के क्यों पैदा नहीं कर सकता?” मगर ईसाईयों ने हट नहीं छोड़ी. इस पर हज़रत मोहम्मद ने क़ुरान में अल्लाह द्वारा कही गई आयत को आधार मानते हुए ईसाईयों को यह आयत सुना दी जिसमें अल्लाह ने कहा है कि “अगर यह लोग तुम से उलझते रहें, ऐसी विश्वस्निये दलीलों के बाद भी जो पेश हो चुकी हैं तो कह दो कि हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को बुलाओ और हम अपनी औरतों को बुलाएँ तुम अपनी औरतों को बुलाओ, हम अपने सबसे क़रीबी साथियों को बुलाएँ तुम अपने साथियों को बुलाओ फिर खुदा की तरफ(क़ाबे के तरफ़) रुख करें, और अल्लाह की लानत(अभिशाप/बद-दुआ) करार दें उन झूटों पर”. ईसाई इस पर राज़ी हो गए. यह वाद विवाद “मुबाहिला” के नाम से मशहूर है.
दूसरे दिन हज़रत मोहम्मद अपने छोटे छोटे नवासों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन, बेटी हज़रत फातिमा और दामाद हज़रत अली के साथ मैदान-ए-मुबाहिला मैं पहुँच गए. इन्हीं पवित्र लोगों को मुसलमान पंजतन कहते हैं. पाँच नूरानी व्यक्तित्व देख कर ईसाई घबरा गए और मुबाहिले के लिए तैयार हो गए. इस संधि के तहत ईसाई हर साल पैग़म्बर साहब को एक निश्चित रक़म टेक्स के रूप मैं देने पर राज़ी हो गए जिसके बदले मैं पैग़म्बर साहब ने वायदा किया कि वे ईसाइयों को उनके घर्म पर ही रहने देंगे.
इस्लाम के खिलाफ चलने वाले सारे अभियानों को नाकाम करने के बाद पैग़म्बर साहब ने हज़रत अली हो यमन देश मैं इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा. वहाँ जाकर हज़रत अली ने इस तरह प्रचार किया कि हमदान का पूरा क़बीला मुसलमान हो गया.
इसी साल हज़रत मोहम्मद अपनी अंतिम हज यात्रा पर गए. हज़रत अली भी यमन से सीधे मक्का पहुँच गए जहाँ से वो लोग हज करने के लिए मैदाने अराफ़ात, मुज्द्लिफ़ा और मीना गए और फिर हज के अंतिम चरण में मक्का पहुँचे.
हज से वापस लौटते समय पैग़म्बर साहब ने ग़दीर-ए- ख़ुम नाम के स्थान पर क़ाफिले को रोक कर इस बात का ऐलान किया कि अल्लाह का दीन अब मुक़म्मल(पूरा) हो गया है और आज से सब लोग बराबर हैं. अब किसी को किसी पर कोई बरतरी(वरीयता) प्राप्त नहीं हैं. अब न तो कोई क़बीले की बुनियाद पर ऊँचा है, न किसी को रंग और नसल के आधार पर कोई बुलंद दर्जा हासिल हैं. आज से ऊँचाई और बड़ाई का कोई मेअयार(मापदंड) अगर है तो बस यह है कि कोन चरित्रवान है और किस के दिल मैं अल्लाह का कितना खौफ़ है. इसके बाद पैग़म्बर साहब ने ऐलान किया कि “जिस जिस का मैं मौला(नेता/स्वामी) हूँ, यह अली भी उसके मौला हैं/”.
इसके लगभग दो महीने बाद 29 मई 632 में पैग़म्बर साहब का मदीने मैं ही निधन हो गया. पैग़म्बर साहब के दोस्त और अनेक वरिष्ठ साथी उनके निघन के समय मौजूद नहीं थे क्योंकि वे लोग सकीफ़ा नामक उस जगह पर उस मीटिंग में हिस्सा ले रहे थे जिसमें पैग़म्बर साहब का उत्तराधिकारी चुनने के लिए वाद विवाद चल रहा था. पैग़म्बर साहब को हज़रत अली ने केवल परिवार वालों कि मौजूदगी मैं दफ़न किया.
इस बीच मुसलमानों के उस गिरोह ने जो कि सकीफ़ा मैं जमा हुआ था, पैग़म्बर साहब के एक वरिष्ट मित्र हज़रत अबू बकर को मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.
इस घटना के बाद मुसलमानों मैं उत्तराधिकार के मामले को लेकर कलह पैदा हो गई. क्योंकि मुसलामानों के एक वर्ग का कहना था कि पैग़म्बर साहब ग़दीर-ए-खुम मैं हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं परन्तु दुसरे वर्ग का कहना था कि मौला का मतलब दोस्त भी होता है. इस लिए पैग़म्बर साहब की घोषणा उत्तराधिकारी के मामले मैं लागू नहीं होती.
जब पैग़म्बर साहब के मित्र और साथी वापस आये तो मोहम्मद साहब को दफ़न किया जा चुका था. शिया मुसलामानों की धार्मिक पुस्तकों के अनुसार पैग़म्बर साहब के निधन के बाद उनके परिवार जनों को काफ़ी प्रताड़ित किया गया. हज़रत अली के घर के दरवाज़े मैं आग लगाई गई. दरवाज़ा गिरने से पैग़म्बर साहब की पवित्र बेटी हज़रत फ़ातिमा की कोख में पल रहे हज़रत मोहसिन का निधन हो गया.
मगर इस्लाम मैं वीरता और साहस के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने वाले हज़रत अली, सहनशीलता और सब्र का प्रतीक बनकर हर दुःख को चुपचाप सह गए क्योंकि उस समय अगर हज़रत अली कि तलवार उठ जाती तो हज़रत अली दुश्मनों को तो ख़त्म कर देते, लेकिन उससे इस्लाम को भी नुक्सान पहुँचता क्योंकि उस समय हज़रत मोहम्मद द्वारा फैलाया हुआ इस्लाम शुरूआती दौर में था और मुसलामानों की तादाद आज की तरह करोड़ों-अरबों में न होकर केवल हज़ारों में थी. हज़रत अली सत्ता तो प्राप्त कर लेते लेकिन इस्लाम का कहीं नामों-निशान न होता, जोकि इस्लाम के दुश्मन चाहते थे. इसका सबूत यह है कि जब इस्लाम का घोर दुश्मन रह चुका अबू सुफियान हज़रत अली के पास आया और बोला कि अगर अली अपने हक के लिए लड़ना चाहते हैं तो वह मक्के की गलियों को हथियार बंद सिपाहियों और खुड़सवारों से भर सकता है. इस पर हज़रत अली ने जवाब दिया कि “ए अबू सुफियान, तू कब से इस्लाम का हमदर्द हो गया?”.
हज़रत अली और उनके परिवार को आतंकित करने की इस घटना का हज़रत फ़ातिमा पर इतना असर हुआ कि वे केवल अठारह साल कि उम्र मैं ही इस दुनिया से कूच कर गईं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हज़रत फ़ातिमा पैग़म्बर साहब के निधन के बाद केवल नौ दिन ही ज़िन्दा रहीं जबकि कुछ कहते हैं कि हज़रत फ़ातिमा बहत्तर दिनों तक ज़िन्दा रहीं. इस तरह पैग़म्बर साहब के परिवार जनों को खुद मुसलामानों द्वारा सताए जाने की शुरुआत हो गई.
अजीब बात यह है कि पैग़म्बर साहब के जीवन मैं उनके परिवार जन काफिरों के आतंकवाद का निशाना बनते रहे और मोहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद उन्हें ऐसे लोगों ने ज़ुल्मों सितम का निशाना बनाया जो खुद को मुसलमान कहते थे. हज़रत फातिमा को फिदक़ नामक बाग़ उनके पिता ने तोहफे के रूप में दिया था. इस बाग़ का हज़रत अबू बकर की सरकार ने क़ब्ज़ा कर लिया था. इस बात से भी हज़रत फ़ातिमा बहोत दुखी रहीं क्योंकि वह अपने पिता के दिए हुए तोहफे से बहोत प्यार करती थीं.
हज़रत फ़ातिमा के निधन के लगभग 6 महीने बाद तक हज़रत अली और हज़रत अबू बकर के बीच सम्बन्ध बिगड़े रहे. इस बीच हज़रत अली पवित्र क़ुरान कि प्रतियों को इकठ्ठा करते रहे और खुद को केवल धार्मिक कामों में सीमित रखा.
पैग़म्बर साहब के बाद मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए, एक वर्ग इमामत पर यकीन रखता था और दूसरा खिलाफत पर. इमामत पर यकीन रखने वाले दल का मानना था कि पैग़म्बर साहब के उत्तराधिकारी का फैसला केवल अल्लाह की तरफ से हो सकता है और हज़रत मोहम्मद अपने दामाद हज़रत अली को पहले ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे. जबकि दूसरे दल का मानना था कि केवल मदीने के पवित्र नगर में आबाद मुसलमान मिल कर पैग़म्बर साहब का उत्तराधिकारी चुन सकते हैं.
दो वर्ष बाद हज़रत अबू बक़र का निधन हो गया और मरते समय उन्होंने अपने दोस्त हज़रत उमर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया.
हज़रत उमर ने लगभग ग्यारह साल तक राज किया और एक जानलेवा हमले में घायल होने के बाद नए खलीफा का चयन करने के लिए छः सदस्यों की एक कमिटी बना दी. इस कमिटी के सामने खलीफा के पद के लिए दो नाम थे. एक हज़रत अली का और दूसरा हज़रत उस्मान का. इस कमिटी मैं एक व्यक्ति को वीटो पावर भी हासिल थी. समिति ने हज़रत अली से जब यह जानना चाहा कि वे अपने से पहले शासक रह चुके दो खलीफाओं की नीतियों पर चलेंगे? तो हज़रत अली ने कहा कि वे केवल पैग़म्बर साहब और पवित्र कुरान का अनुसरण करने को बाध्य हैं. इस जवाब के बाद और वीटो पावर की बुनियाद पर हज़रत उस्मान को ख़लीफा बना दिया गया. हज़रत उस्मान के शासन काल में उनकी नीतियों से मुसलमानों में बहोत असंतोष फैल गया. ख़ास तौर पर उनके द्वारा नियुक्त किये गए एक अधिकारी मर-वान ने लोगों को बहोत सताया. मुस्लिम समुदाय मर-वान के ज़ुल्मो के खिलाफ दुहाई देने के लिए मदीने में जमा हुआ मगर उनको इंसाफ के बदले धोखा मिला, तत्पश्चात मुसलमानों में उग्रवाद फैल गया और एक क्रुद्ध भीड़ ने हज़रत उस्मान की हत्या कर दी. शासक द्वारा आम जनता का खून बहाना तो सदियों से एक मामूली सी बात है लेकिन किसी शासक की आम जनता द्वारा हत्या अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना थी. इसने सारे मुस्लिम जगत को हिला कर रख दिया और शासको तक यह पैग़ाम भी पहुँच गया की किसी भी मुस्लिम शासक को शासन के दौरान अपनी नीतियों को लागू करने का अधिकार नहीं है बल्कि केवल कुरान और सुन्नत(पैग़म्बर साहब का आचरण) ही शासन की बुनियाद हो सकता है.
हज़रत अली और उनके विरोधी
हज़रत उस्मान की हत्या के बाद तीन दिन तक स्थिति बहोत ही ख़राब और शोचनिये रही. मदीने में अफरातफरी का माहोल था. ऐसे मैं जनता की उम्मीद का केंद्र एक बार फिर पैग़म्बर साहब का घर हो गया. हजारों नर-नारी बनू हाशिम के मोहल्ले में उस पवित्र घर पर आशा की नज़रें टिकाये थे, जहाँ हज़रत अली रहते थे. इन लोगो ने फ़रियाद की कि दुःख की इस घडी में हज़रत अली खिलाफत का पद संभालें. इस बार न तो सकीफ़ा जैसी चुनावी प्रक्रिया अपनाई गई न ही किसी ने हज़रत अली को मनोनीत किया और न कोई ऐसी कमिटी बनी जिसमें किसी को वीटो पावर प्राप्त थी. हज़रत अली ने जनता के आग्रह को स्वीकार किया और खिलाफत संभाल ली. लेकिन खलीफा के पद पर बैठते ही हज़रत अली के विरोधी सक्रिय हो गए. पहले तो पैग़म्बर साहब की एक पत्नी हज़रत आयशा को यह कह कर भड़काया गया की हज़रत उस्मान के क़ातिलों को हज़रत अली सजा नहीं दे रहे हैं और इस तरह के इलज़ाम भी लगाये गए की जैसे खुद हज़रत अली भी हज़रत उस्मान की हत्या में शामिल रहे हो. जब की हज़रत अली ने हज़रत उस्मान और उनके विरोधियों के बीच सुलह सफाई करवाने की पूरी कोशिश की और घेराव के दौरान उनके लिए खाना पानी अपने बेटों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन के हाथ लगातार भेजा. हज़रत आयशा जो पहले खलीफा हज़रत अबू बक़र की बेटी थीं, अनेक कारणों से हज़रत अली से नाराज़ रहती थीं. वो ख़िलाफ़त की गद्दी पर अपने पिता के पुराने मित्रों तल्हा और ज़ुबैर को देखना चाहती थीं. जब लोगों ने क़त्ले उस्मान को लेकर उनके कान भरे तो उन्हें हज़रत अली से पुरानी दुश्मनी निकालने का मौका मिल गया. उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली के इस्लामी शासन पर हमला कर दिया और इस अभीयान को क़त्ले-उस्मान का इंतिकाम लेने वाला जिहाद करार दिया. यहीं से जिहाद के नाम को बदनाम करने का सिलसिला शुरू हुआ. जबकि हज़त उस्मान का क़त्ल मिश्र देश के दूसरे भागों से आये हुए असंतुष्ट लोगो के हाथो हुआ था. मगर हज़रत आयशा इस का इंतिकाम हज़रत अली से लेना चाहती थीं.
उन्होंने हमले के लिए इराक के बसरा नगर को चुना क्योंकि वहां पर हज़रत अली के शिया मित्र बड़ी संख्या में रहते थे. बसरा के गवर्नर उस्मान बिन हनीफ़ को हज़रत आयशा की सेना ने बहोत अपमानित किया. हनीफ, हज़रत आयशा की सेना का सही ढंग से मुकाबला नहीं कर सके क्योंकि हज़रत अली की इस्लामी सेनाएँ उस वक़्त तक बसरा में पहुँच नहीं सकीं थीं. हुनैन ने इस घटना की जानकारी जीकार के स्थान पर मौजूद हज़रत अली तक पहुंचाई. हज़रत अली ने विभिन्न लोगो से हज़रत आयशा तक यह सन्देश भिजवाया की वो युद्ध से बाज़ आ जाए और अपने राजनितिक मकसद को पूरा करने के लिए मुसलामानों का खून न बहाएं मगर वो राज़ी नहीं हुई.
हिजरत के 36 वें वर्ष में ईराक के बसरा नगर में हज़रत अली और हज़रत आयशा की सेनाओ के बीच युद्ध हुआ. इस जंग को जंग-ए-जमल भी कहते हैं क्योंकि इस युद्ध में हज़रत आयशा ने अपनी सेना का नेतृत्व ऊँट पर बेठ कर किया था और ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहा जाता है.
इस जंग का नतीजा भी वही हुआ जो इस से पहले की तमाम इस्लामी जंगो का हुआ था, जिसमें नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था. हज़रत आयशा की सेना को मात मिली. हज़रत आयशा जिस ऊँट पर सवार थीं जंग के दौरान उस से नीचे गिरी. हज़रत अली ने उनको किसी प्रकार की सज़ा देने के बदले उनको पूरे सम्मान के साथ उनके छोटे भाई मोहम्मद बिन अबू बक़र और चालीस महिला सिपाहियों के संरक्षण में मदीने वापस भेज दिया. इस तरह उन इस्लामी आदर्शों की हिफ़ाज़त की जिनके तहत महिलाओं के मान सम्मान का ख्याल रखना ज़रूरी है. हज़रत अली की तरफ से अच्छे बर्ताव का ऐसा असर हुआ कि हज़रत आयशा राजनीति से अलग हो गईं. इस युद्ध के बाद और इस्लामी शासन के लिए लगातार बढ़ रहे खतरे को देखते हुआ हज़रत अली ने इस्लामी सरकार की राजधानी मदीने से हटा कर इराक के कूफा नगर में स्थापित कर दी.
इस जंग के बाद कबीले वाद की पुश्तेनी दुश्मनी ने एक बार फिर सर उठाया और उमय्या वंश के एक सरदार अमीर मुआविया ने हज़रत अली के इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया. इसका एक कारण यह भी था की पैग़म्बर साहब के निधन के बाद इस्लामी नेतृत्व दो हिस्सों में बँट गया था. एक को इमामत और दूसरे को ख़िलाफ़त कहा जाता था. इमामों पर विशवास रखने वाले दल को यकीन था की इमाम व पैग़म्बर सिर्फ अल्लाह द्वारा चुने होते हैं. जबकि खिलाफत पर विश्वास रखने वाले दल का मानना था की पैग़म्बर अल्लाह की तरफ से नियुक्त होते हैं लेकिन उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार जनता को प्राप्त है या कोई ख़लीफ़ा मरते वक़्त किसी को मनोनीत कर सकता था अथवा कोई ख़लीफ़ा मरते समय एक चयन समिति बना सकता था. इन्हीं मतभेदों को लेकर पैग़म्बर साहब के बाद मुस्लिम समाज दो बागों में बंट गया. खिलाफत पर यकीन रखने वाला दल संख्या में ज्यादा था और इमामत पर यकीन रखने वालों की संख्या कम थी. बाद में कम संख्या वाले वर्ग को शिया और अधिक संख्या वाले दल को सुन्नी कहा जाने लगा लेकिन जब हज़रत अली ख़लीफ़ा बने तो इमामत और खिलाफत सा संगम हो गया और मुसलमानों के बीच पड़ी दरार मिट गई. यही एकता इस्लाम के पुराने दुश्मनों को पसंद नहीं आई और उन्होंने मुसलामानों के बीच फसाद फैलाने की ग़रज़ से तरह तरह के विवाद को जन्म देना शुरू कर दिए और मुसलामानों का खून पानी की तरह बहने लगा. अमीर मुआविया ने पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त के लिए दावेदारी पेश कर दी. मुआविया ने ताक़त और सैन्य बल के ज़रिये सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तहत सीरिया के प्रान्त इस्लामी राज्य से अलग करने की घोषणा कर दी. मुआविया को हज़रत उस्मान ने सीरिया का गवर्नर बनाया था. दोनों एक ही काबिले बनी उम्म्या से ताल्लुक अखते थे. फिर मुआविया ने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली के इस्लामी शासन पर धावा बोल दिया और इस को भी जिहाद का नाम दिया. जबकि यह इस्लामी शासन के खिलाफ खुली बगावत थी.
हिजरत के 39वे वर्ष में सिफ्फीन नामन स्थान पर इस्लामी सेनाओं और सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया के सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ. मुआविया की सेनाओ ने रणभूमि में पहले पहुँच कर पानी के कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया और हज़रत अली की सेना पर पानी बंद करके मानवता के आदर्शो पर पहला वार किया. हज़रत अली की सेनाओं ने जवाबी हमला करके कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस बार किसी पर पानी बंद नहीं हुआ और मुआविया की फ़ौज भी उसी कुएं से पानी लेती रही जिस पर अली वालों का क़ब्ज़ा था. इस युद्ध में जब हज़रत अली की सेना विजय के नज़दीक पहुँच गई और इस्लामी सेना के कमांडर हज़रत मालिक-ए-अश्तर ने दुश्मन फ़ौज के नेता मुआविया को लगभग घेर लिया तो बड़ी चालाकी से सीरिया की सेना ने पवित्र कुरान की आड़ ले ली और क़ुरान की प्रतियों को भालो पर उठा कर आपसी समझोते की बात करना शुरू कर दी. अंत में शांति वार्ता के ज़रिये से युद्ध समाप्त हो गया.
हज़रत अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशरी के साथ धोका किये जाने के साथ ही सुलह का यह प्रयास विफ़ल हो गया और एक बार फिर जंग के शोले भड़क उठे. अबू मूसा के साथ धोका होने की वजह से हज़रत अली की सेना के सिपाहियों द्वारा फिर से युद्ध शुरू करने के आग्रह और समझोता वार्ता से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हज़रत अली के सेना का एक टुकड़ा बाग़ी हो गया. इस बाग़ी सेना से हज़रत अली को नहर-वान नामक स्थान पर जंग करनी पड़ी. हज़रत अली से टकराने के कारण इस दल को इस्लामी इसिहास मैं खारजी(निष्कासित) की संज्ञा दी गई है.
हज़रत अली की सेना में फूट और मुआविया के साथ शांति वार्ता नाकाम होने के बाद सीरिया में मुआविया ने सामानांतर सरकार बना ली. इन लडाइयों के नतीजे मैं मुस्लिम समाज चार भागो में बंट गया. एक वर्ग हज़रत अली को हर तरह से हक़ पर समझता था. इस वर्ग को शिया आने अली कहा जाता है. यह वर्ग इमामत पर यकीन रखता है और हज़रत अली से पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देता है. दूसरा वर्ग मुआविया की हरकातो को उचित करत देता था. इस ग्रुप को मुआविया का मित्र कहा जाता है. यह वर्ग मुआविया और यजीद को इस्लामी ख़लीफ़ा मानता है. तीसरा वर्ग ऐसा है जो कि मुआविया और हज़रत अली दोनों को ही अपनी जगह पर सही क़रार देता है और दोनों के बीच हुई जंग को ग़लतफ़हमी का नतीजा मानता है, इस वर्ग को सुन्नी कहा जाता है(लेकिन इस वर्ग ने भी मुआविया को अपना खलीफा नहीं माना). चौथे ग्रुप की नज़र में………………….
हज़रत अली की सेनाओं को कमज़ोर पाकर मुआविया ने मिश्र में भी अपनी सेनाएं भेज कर वह के गवर्नर मोहम्मद बिन अबू बक़र(जो पैग़म्बर साहब की पत्नी हज़रत आयशा के छोटे भाई और पहले खलीफा अबू बक़र के बेटे थे) को गिरफ्तार कर लिया और बाद में उनको गधे की खाल में सिलवा कर ज़िन्दा जलवा दिया. इसी के साथ मुआविया ने हज़रत अली के शासन के तहत आने वाले गानों और देहातो में लोगो को आतंकित करना शुरू कर दिया. बेगुनाह शहरियों को केवल हज़रत अली से मोहब्बत करने के जुर्म में क़त्ल करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया. इस्लामी इतिहास की पुस्तक अल-नसायह अल काफ़िया में हज़रत अली के मित्रो को आतंकित करने की घटनाओं का बयान इन शब्दों में किया गया है: “अपने गुर्गों और सहयोगियों की मदद से मुआविया ने हज़रत अली के अनुयाइयों में सबसे अधिक शालीन और श्रेष्ट व्यक्तियों के सर कटवा कर उन्हें भालों पर चढ़ा कर अनेक शहरो में घुमवाया. “इस युग में ज़्यादातर लोगों को हज़रत अली के प्रति घृणा प्रकट करने के लिए मजबूर किया जाता अगर वो ऐसा करने के इनकार करते तो उनको क़त्ल कर दिया जाता.
हज़रात अली की शहादत:-
अपनी जनता को इस आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हज़रत अली ने फिर से इस्लामी सेना को संगठित करना शुरू किया. हज़रत इमाम हुसैन, क़ेस बिन सअद और अबू अय्यूब अंसारी को दस दस हज़ार सिपाहियों की कमान सोंपी गई और खुद हज़रत अली के अधीन 29 हज़ार सैनिक थे और जल्द ही वो मुआविया की सेना पर हमला करने वाले थे, लेकिन इस के पहले कि हज़रत अली मुआविया पर हमला करते, एक हत्यारे अब्दुल रहमान इब्ने मुल्ज़िम ने हिजरत के 40वें वर्ष में पवित्र रमज़ान की 18वी तारीख़ को हज़रत अली कि गर्दन पर ज़हर में बुझी तलवार से उस समय हमला कर दिया जब वो कूफ़ा नगर की मुख्य मस्जिद में सुबह की नमाज़ का नेतृत्व(इमामत) कर रहे थे और सजदे की अवस्था में थे. इस घातक हमले के तीसरे दिन यानी 21 रमज़ान (28 जनवरी 661 ई०) में हज़रत अली शहीद हो गए. इस दुनिया से जाते वक़्त उनके होटों पर यही वाक्य था कि “रब्बे क़ाबा(अल्लाह) कि कसम, में कामयाब हो गया”. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने कई लड़ाइयाँ जीतीं. बड़े-बड़े शूरवीर और बहादुर योद्धा उनके हाथ से मारे गए मगर उन्होंने कभी भी अपनी कामयाबी का दावा नहीं किया. हज़रत अली की नज़र में अल्लाह कि राह मैं शहीद हो जाना और एक मज़लूम की मौत पाना सब से बड़ी कामयाबी थी. लेकिन जंग के मैदान में उनको शहीद करना किसी भी सूरमा के लिए मुमकिन नहीं था. शायद इसी लिए वो अपनी इस क़ामयाबी का ऐलान कर के दुनिया को बताना चाहते थे कि उन्हें शहादत भी मिली और कोई सामने से वार करके उन्हें क़त्ल भी नहीं कर सका. वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो क़ाबा के पावन भवन के अन्दर पैदा हुए और मस्जिद में शहीद हुए.
हज़रत अली ने अपने शासनकाल में न तो किसी देश पर हमला किया न ही राज्य के विस्तार का सपना देखा. बल्कि अपनी जनता को सुख सुविधाएँ देने की कोशिश में ही अपनी सारी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी थी. वो एक शासक की तरह नहीं बल्कि एक सेवक की तरह ग़रीबों, विधवा औरतों और अनाथ बच्चों तक सहायता पहुँचाते थे. उनसे पहले न तो कोई ऐसा शासक हुआ जो अपनी पीठ पर अनाज की बोरियाँ लादकर लोगों तक पहुँचाता हो न उनके बाद किसी शासक ने खुद को जनता की खिदमत करने वाला समझा.
हज़रत अली के बाद उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन ने सत्ता संभाली, लेकिन अमीर मुआविया की और से उनको भी चैन से बेठने नहीं दिया गया. इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन को ख़लीफ़ा के पद से अपदस्थ करने में कामयाबी हासिल कर ली. हज़रत हसन ने सत्ता छोड़ने से पहले अमीर मुआविया के साथ एक समझोता किया.
26 जुलाई 661ई० को इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई जिसमें यह तय हुआ कि मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा. (2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा. (3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा.(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त(सत्ता) पैग़म्बर साहब के परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी.
समझोते का एहतराम करने के स्थान पर मुआविया की और से पवित्र पैग़म्बर साहब के परिवार के सदस्यों और हज़रत अली के चाहने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया. इसी नापाक अभियान की एक कड़ी के रूप में इमाम हसन को केवल 47 वर्ष की उम्र में एक महिला के ज़रिये ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया गया.
अमीर मुआविया ने इमाम हसन के साथ की गई संधि को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के बाद इस को रद्दी की टोकरी में डाल कर अपने परिवार का शासन स्थापित कर दिया. मुआविया को अपने खानदान का राज्य स्थापित करने में तो कामयाबी मिल गई लेकिन मुआविया का खलीफा बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. मुआविया ने लगभग 12 वर्ष राज किया और जिहाद के नाम पर दूसरे देशों पर हमला करने का काम शुरू करके जिहाद जैसे पवित्र काम को बदनाम करना शुरू किया. इस के अलावा मुआविया ने इस्लामी आदर्शों से खिलवाड़ करते हुए एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसकी मिसाल नहीं मिलती. इस नजिस पॉलिसी के तहत उस ने हज़रत अली और उनके परिवार जनों को गालियाँ देने के लिए मुल्ला किराए पर रखे. अमीर मुआविया ने अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती यह की कि अपने जीवन में ही अपने कपूत यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.
इन सब हरकतों का नतीजा यह हुआ की समस्त मुसलामानों ने ख़िलाफ़त के सिलसिले को समाप्त मान कर इमाम हसन के बाद खिलाफत-ए-राशिदा(सही रास्ते पर चलने वाले शासकों) के ख़त्म हो जाने का ऐलान कर दिया. इस तरह मुआविया को सत्ता तो मिल गई लेकिन मुसलामानों का भरोसा हासिल नहीं हो सका.
यजीद की सत्ता:
अमीर मुआविया ने अपने क़बीले बनी उमय्या का शासन स्थापित करने के साथ साथ उस इस्लामी शासन प्रणाली को भी समाप्त कर दिया जिसमें ख़लीफ़ा एक आम आदमी के जैसी ज़िन्दगी बिताता था. मुआविया ने ख़िलाफ़त को राज शाही में तब्दील कर दिया और अपने कुकर्मी और दुराचारी बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित करके उमय्या क़बीले के अरबों और दूसरे मुसलामानों पर राज्य करने के पुराने ख्वाब को पूरा करने की ठान ली.
मुआविया को जब लगा कि मौत क़रीब है तो यज़ीद को सत्ता पर बैठाने के लिए अहम् मुस्लिम नेताओं से यज़ीद कि बैयत(मान्यता देने) को कहा.
यज़ीद को एक इस्लामी शासक के रूप में मान्यता देने का मतलब था इस्लामी आदर्शों की तबाही और बर्बादी. यज़ीद जैसे कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और बदमाश को मान्यता देने का सवाल आया तो सब से पहले इस पर लात मारी पैग़म्बर साहब के प्यारे नवासे और हज़रत अली के शेर दिल बेटे इमाम हुसैन ने. उन्होंने कहा कि वह अपनी जान क़ुर्बान कर सकते हैं लेकिन यज़ीद जैसे इंसान को इस्लामिक शासक के रूप में क़ुबूल नहीं कर सकते. इमाम हुसैन के अतिरिक्त पैगम्बर साहब की पत्नी हज़रात आयशा ने भी यज़ीद को मान्यता देने से इनकार कर दिया. कुछ और लोग जिन्होंने यज़ीद को मान्यता देने से इनकार किया वो हैं: अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, 2. अब्दुल्लाह बिन उमर, 3 उब्दुल रहमान बिन अबू बकर, 4, अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास. इनके आलावा अब्दुल रहमान बिन खालिद इब्ने वलीद और सईद बिन उस्मान ने भी यज़ीद की बेयत से इनकार किया. लेकिन इनमें से अब्दुल रहमान को ज़हर देकर मार डाला गया और सईद बिन उस्मान को खुरासान(ईरान के एक प्रान्त) का गवर्नर बना कर शांत कर लिया गया.
मुआविया की नज़र में इन सारे विरोधियों का कोई महत्व नहीं था उसे केवल इमाम हुसैन की फ़िक्र थी कि अगर वे राज़ी हो जाएँ तो यज़ीद की ख़िलाफ़त के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा. मुआविया ने अपने जीवन में इमाम हुसैन पर बहुत दबाव डाला कि वो यज़ीद को शासक मान लें मगर उसे सफ़लता नहीं मिली.
यज़ीद का परिचय:
यज़ीद बनी उमय्या के उस कबीले का कपूत था, जिस ने पैग़म्बर साहब को जीवन भर सताया. इसी क़बीले के सरदार और यज़ीद के दादा अबू सूफ़ियान ने कई बार हज़रत मोहम्मद की जान लेने की कौशिश की थी और मदीने में रह रहे पैग़म्बर साहब पर कई हमले किये थे. यज़ीद के बारे में कुछ इतिहासकारों की राय इस प्रकार है:
तारीख-उल-खुलफ़ा में जलाल-उद-दीन सियोती ने लिखा है की “यज़ीद अपने पिता के हरम में रह चुकी दासियों के साथ दुष्कर्म करता था. जबकि इस्लामी कानून के तहत रिश्ते में वे दासियाँ उसकी माँ के समान थीं.
सवाअक-ए-महरका में अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला ने लिखा है की “यज़ीद के दौर में हम को यह यकीन हो चला था की अब आसमान से तीर बरसेंगे क्योंकि यज़ीद ऐसा व्यक्ति था जो अपनी सौतेली माताओं, बहनों और बेटियों तक को नहीं छोड़ता था. शराब खुले आम पीता था और नमाज़ नहीं पढता था.”
जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि “यज़ीद ज़ालिम और ग़द्दार दोनों था उसके चरित्र में रहम और इंसाफ़ नाम की कोई चीज़ नहीं थी”.
एडवर्ड ब्रा ने हिस्ट्री और पर्शिया में लिखा है कि “यज़ीद ने एक बददु(अरब आदिवासी) माँ की कोख से जन्म लिया था. रेगिस्तान के खुले वातावरण में उस की परवरिश हुई थी, वह बड़ा शिकारी, आशिक़, शराब का रसिया, नाच गाने का शौकीन और मज़हब से कोसो दूर था.”
अल्लामा राशिद-उल-खैरी ने लिखा है कि “यज़ीद गद्दी पर बेठने के बाद शराब बड़ी मात्रा में पीने लगा और कोई पल ऐसा नहीं जाता था कि जब वह नशे में धुत न रहता हो और जिन औरतों से पवित्र कुरान ने निकाह करने को मना किया था, उनसे निकाह को जायज़ समझता था.”
ज़ाहिर है इमाम हुसैन यज़ीद जैसे अत्याचारी, कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और अधर्मी को मान्यता कैसे दे सकते थे. यजीद ने अपने चचाज़ाद भाई वलीद बिन अत्बा को जो मदीने का गवर्नर था यह सन्देश भेजा कि वह मदीने में रह रहे इमाम हुसैन, इब्ने उमर और इब्ने ज़ुबैर से उसके लिए बैयत(मान्यता) की मांग करे और अगर तीनों इनकार करें तो उनके सर काट कर यज़ीद के दरबार में भेजें.
इमाम हुसैन की हिजरत:
वलीद ने इमाम हुसैन को संदेसा भेजा कि वह दरबार में आयें उनके लिए यज़ीद का एक ज़रूरी पैग़ाम है. इमाम हुसैन उस समय अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर के साथ मस्जिद-ए-नबवी में बेठे थे.
जब यह सन्देश आया तो इमाम से इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय इस प्रकार का पैग़ाम आने का मतलब क्या हो सकता है? इमाम हुसैन ने कहा कि लगता है कि मुआविया कि मौत हो गई है और शायद यज़ीद की बैयत के लिए वलीद ने हमें बुलाया है. इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय वलीद के दरबार में जाना आपके लिए ख़तरनाक हो सकता है. इमाम ने कहा कि में जाऊँगा तो ज़रूर लेकिन अपनी सुरक्षा का प्रबंध करके वलीद से मिलूँगा. खुद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रातों रात मक्के चले गए.
इमाम अपने घर आये और अपने साथ घर के जवानों को लेकर वलीद के दरबार में पहुँच गए. लेकिन अपने साथ आये बनी हाशिम के(जोशीले और इमाम पर हर वक़्त मर मिटने के लिए तैयार रहने वाले) जवानों से कहा कि वे लोग बाहर ही ठहरे और अगर इमाम की आवाज़ बुलंद हो तो अन्दर आ जाएँ.
इमाम दरबार में गए तो उस समय वलीद के साथ मर-वान भी बैठा था जो पैग़म्बर साहब के परिवार वालों का पुराना दुश्मन था. जब इमाम हुसैन आये तो वलीद ने मुआविया की मौत कि ख़बर देने के बाद यज़ीद की बैयत के लिए कहा. इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैयत करने से साफ़ इनकार कर दिया और वापस जाने लगे तो पास बैठे हुए मर-वान ने कहा कि अगर तूने इस वक़्त हुसैन को जाने दिया तो फिर ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा यही अच्छा होगा कि इनको गिरफ़्तार करके बैयत ले ले या फिर क़तल कर के इनका सर यज़ीद के पास भेज दे. यह सुनकर इमाम हुसैन को ग़ुस्सा आ गया और वह चीख़ कर बोले “भला तेरी या वलीद कि यह मजाल कि मुझे क़त्ल कर सकें?” इमाम हुसैन की आवाज़ बुलंद होते ही उनके छोटे भाई हज़रत अब्बास के नेतृत्व मैं बनी हाशिम के जवान तलवारें उठाये दरबार में दाखिल हो गए लेकिन इमाम ने इन नौजवानों के जज़्बात पर काबू पाया और घर वापस आ कर मदीना छोड़ने के बारे मैं मशविरा करने लगे.
बनी हाशिम के मोहल्ले मैं इस खबर से शोक का माहौल छा गया. इमाम हुसैन अपने खानदान के लोगों को साथ लेकर मदीने का पवित्र नगर छोड़ कर मक्का स्थित पवित्र काबे की और प्रस्थान कर गए जिसको अल्लाह ने इतना पाक करार दिया है कि वहां किसी जानवर का खून बहाने कि भी इजाज़त नहीं है.
मक्का पहुँचने के बाद लगभग साढ़े चार महीने इमाम अपने परिवार सहित पवित्र काबा के निकट रहे लेकिन हज का ज़माना आते ही इमाम को सूचना मिली कि यज़ीद ने हाजियों के भेस में एक दल भेजा है जो इमाम को हज के दौरान क़त्ल कर देगा. वैसे तो हज के दौरान हथियार रखना हराम है और एक चींटी भी मर जाए तो इंसान पर कफ्फ़ारा(प्रायश्चित) अनिवार्य हो जाता है लेकिन यज़ीद के लिए इस्लामी उसूल या काएदे कानून क्या मायने रखते थे?
इमाम ने हज के दौरान खून खराबे को टालने के लिए हज से केवल एक दिन पहले मक्का को छोड़ने का फैसला कर लिया.
कर्बला में धर्म और अधर्म का टकराव:
इमाम हुसैन ने मक्का छोड़ने से पहले अपने चचेरे भाई हज़रत मुस्लिम को इराक के कूफ़ा नगर में भेज दिया था ताकि वह कूफे के असली हालात का पता लगाएँ. कूफा जो कि किसी समय में हज़रत अली कि राजधानी था, वहां भी यज़ीद के शासन के खिलाफ क्रांति की चिंगारियां फूटने लगी थीं. कूफ़े से लगातार आग्रह पत्र इमाम हुसैन के नाम आ रहे थे कि वह यज़ीद के खिलाफ चल रहे अभीयान का नेतृत्व करें. कूफ़े मैं इमाम हुसैन के भाई का बड़ा भव्य स्वागत हुआ और लगभग एक लाख लोगों ने इमाम हुसैन के प्रति अपनी वफादारी कि शपथ ली यह खबर सुन कर यज़ीद ग़ुस्से से पागल हो गया और कूफ़े के गवर्नर नोअमान बिन बशीर के स्थान पर यज़ीद ने कूफ़े में उबैद उल्लाह इब्ने ज़ियाद नामक सरदार को गवर्नर बना कर भेजा. इब्ने ज़ियाद हज़रत अली के परिवार का पुश्तैनी दुश्मन था. उसके कूफ़े में पहुँचते ही आतंक फ़ैल गया. कूफ़े के लोग यज़ीद की ताकत और सैन्य बल के आगे सारी वफ़ादारी भूल गए. इब्ने ज़ियाद ने इमाम हुसैन से वफ़ादारी व्यक्त करने वाले ओगों को चुन चुन कर मार डाला या गिरफ्तार करके सख्त यातनाएं दिन. उसने हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को बेदर्दी से क़त्ल करके उनकी लाश के पाँव में रस्सी बाँध कर कूफ़े की गली कूचों में घसीटे जाने का आदेश भी दिया. यही नहीं हज़रत मुस्लिम के साथ में गए हुए दो मासूम बच्चों, आठ साल के मोहम्मद और छे साल के इब्राहीम की भी निर्मम रूप से हत्या कर दी गई. बच्चो को शहीद करने की यह पहली आतंकवादी घटना थी.
इमाम हुसैन का क़ाफ़िला लगातार आगे बढ़ता रहा और रास्ते में ही उन्हें हज़रत मुस्लिम और उनके बच्चो कि शहादत की ख़बर मिली. उधर यज़ीद की सेनाएं भी लगातार इमाम हुसैन के उस कारवें क़ा पीछा कर रहीं थीं जिसमें लगभग साठ-सत्तर पुरुष, कुछ बच्चे और चंद औरतें शामिल थीं.
ज़ुहसम नाम के एक स्थान पर इमाम हुसैन क़ा सामना यज़ीद की फ़ौज के पहले दस्ते से हुआ. लगभग एक हज़ार फ़ौजियों के इस दस्ते क़ा सेनापति हुर्र बिन रियाही नाम क़ा अधिकारी कर रहा था. जब हुर्र की सैनिक टुकड़ी इमाम के सामने आई तो रेगिस्तान में भटकने के कारण सैनिकों क़ा प्यास के मारे बुरा हाल था. इमाम हुसैन ने इस बात क़ा ख़्याल किए बग़ैर कि यह दुश्मन के सिपाही हैं इस प्यासे दस्ते को पानी पिलाया और मानवता के नए कीर्तिमान क़ायम किये. अगर इमाम हुसैन हुर्र के सिपाहियों को पानी न पिलाते तो इस सैनिक टुकड़ी के सभी लोग प्यास से मर सकते थे और इमाम हुसैन के दुश्मनों में कमी हो जाती, लेकिन इमाम हुसैन उस पैग़म्बर के नवासे थे जो अपने दुश्मनों की तबियत खराब होने पर उनका हाल चाल पूछने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे.
लगभग 22 दिन तक रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद इमाम हुसैन क़ा काफ़िला (2 अक्तूबर 680 ई० या 2 मुहर्रम 61 हिजरी) इराक़ के उस स्थान पर पहुँचा, जिसको क़र्बला कहा जाता है. हुर्र की सैनिक टुकड़ी भी इमाम के पीछे पीछे कर्बला में आ चुकी थी. इमाम के यहाँ पड़ाव डालते ही यज़ीद की फौजें हज़ारों कि संख्या में पहुँचने लगीं. यज़ीदी सेनाओं ने सब से पहले फ़ुरात नदी(अलक़मा नहर) के किनारे से इमाम को अपने शिविर हटाने को बाध्य किया और इस तरह अपने नापाक इरादों क़ा आभास दे दिया.
पांच दिन बाद यानी सात मुहर्रम को नदी के अहातों(किनारों) पर पहरा लगा दिया गया और इमाम हुसैन के परिवार जनों और साथियों के नदी से पानी लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. रेगिस्तान की झुलसा देने वाली गर्मी में पानी बंद होने से इमाम हुसैन के बच्चे प्यास से तड़पने लगे. दो दिन बाद अचानक यज़ीदी सेनाओं ने इमाम के क़ाफिले पर हमला कर दिया. इमाम हुसैन ने यज़ीदी सेना से एक रात की मोहलत मांगी ताकि वह अपने मालिक की इबादत कर सकें. यज़ीदी सेना राज़ी हो गई क्योंकि उसे मालूम था कि यहाँ से अब इमाम और उनके साथी कहीं नहीं जा सकते और एक दिन की और प्यास से उनकी शारीरिक और मानसिक दशा और भी कमज़ोर हो जायेगी.
रात भर इमाम, उनके परिवार-जन और उनके साथी अल्लाह कि इबादत करते रहे. इसी बीच इमाम ने तमाम रिश्तेदारों और साथियों को एक शिविर में इकठ्ठा होने के लिए कहा और इस शिविर में अँधेरा करने के बाद सब से कहा कि: “तमाम तारीफ़ें खुदा के लिए हैं. मैं दुनिया में किसी के साथियों को इतना जाँबाज़ वफादार नहीं समझता जितना कि मेरे साथी हैं और न दुनिया में किसी को ऐसे रिश्तेदार मिले जैसे नेक और वफ़ादार मेरे रिश्तेदार हैं. खुदा तुम्हें अज्र-ए-अज़ीम(अच्छा फल) देगा. आगाह हो जाओ कि कल दुश्मन जंग ज़रूर करेगा. मैं तुम्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ कि तुम्हारा दिल जहाँ चाहे चले जाओ, मैं हरगिज़ तुम्हें नहीं रोकूंगा. शामी (यजीदी सेना) केवल मेरे खून की प्यासी है. अगर वह मुझे पा लेंगे तो तुम्हें को तलाश नहीं करेंगे”. इसके बाद इमाम ने सारे चिराग़ भुझाने को कहा और बोले इस अँधेरे मैं जिसका दिल जहाँ चाहे चला जाए. तुम लोगों ने मेरे प्रति वफ़ादार रहने कि जो क़सम खाई थी वह भी मैंने तुम पर से उठा ली है.” इस घटना पर टिप्पड़ी करते हुए मुंशी प्रेम चंद ने लिखा है कि अगर कोई सेनापति आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर कि राह लेते हुए नज़र आयें. मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ. ज़ुहैन इब्ने क़ेन जैसा भूढ़ा सहाबी कहता है कि “ऐ इमाम अगर मुझको इसका यकीन हो जाए कि मै आपकी तरफ़दारी करने की वजह से ज़िन्दा जलाया जाऊँगा, और फिर ज़िन्दा करके जलाया जाऊं तो यह काम अगर 100 बार भी करना पड़े तो भी में आपसे अलग नहीं हो सकता.
रिश्तेदार तो पहले ही कह चुके थे कि “हम आप को इस लिए छोड़ दें की आपके बाद जिंदा रहे? हरगिज़ नहीं, खुदा हम को ऐसा बुरा दिन दिखाना नसीब न करे”.
फिर इमाम ने अपने चाचा हज़रत अक़ील की औलाद से यह आग्रह किया कि वह वापस चले जाएँ क्योंकि उनके लिए हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील का ग़म अभी ताज़ा है और इस दुखी परिवार पर वह और ज़्यादा ग़म नहीं डालना चाहते लेकिन औलादें हज़रत अक़ील ने कह दिया कि वह अपनी जानें कुर्बान करके ही दम लेंगे.
हालांकि सब को पता था कि यज़ीद की सेनाएं हज़ारों की तादाद में हैं और 70 सिपाहियों(हज़रत हुर्र और उनके बेटे के शामिल होने के बाद यह तादाद बाद में 72 हो गई) की यह मामूली सी टुकड़ी शहादत के आलावा कुछ हासिल नहीं कर सकतीं लेकिन इमाम को छोड़ने पर कोई राज़ी न हुआ. यह लोग दुनिया को जिहाद का असली मतलब बताना चाहते थे ताकि क़यामत तक कोई यह न कह सके कि जिहाद किसी का बेवजह खून बहाने का नाम नहीं है या किसी देश पर चढाई करने का नाम नहीं हैं.
दूसरे दिन मुहर्रम की दसवीं तारीख़ थी. हुसैनी सिपाही रात भर की इबादत के बाद सुबह के इन्तिज़ार में थे कि यज़ीद की सेना से दो सितारे उभरे और लश्करे हुसैन की रौशनी में समां गए. यह हुर्र इब्ने रियाही थे जो अपने बेटे के साथ इमाम की पनाह में आये थे. जिस हुर्र को इमाम ने रास्ते में पानी पिलाया था आज वही हुर्र उस घडी में इमाम के लश्कर में शामिल होने आया था जबकि इमाम हुसैन के छोटे छोटे बच्चे पानी की बूँद बूँद को तरस रहे थे. हुर्र को मालूम था कि इमाम हुसैन की 72 सिपाहियों की एक छोटी सी टुकड़ी यज़ीद की शक्तिशाली सेना(जिसकी संख्या विभ्न्न्न इतिहासकारों ने तीस हज़ार से एक लाख तक बताई है) से जीत नहीं सकती थी, फिर भी दिल की आवाज़ पर हुर्र उस दल में शामिल हो कर हुर्र से हज़रते हुर्र बन गए. मौत और ज़िन्दगी की इस कड़ी मंजिल में बड़ों बड़ों के क़दम लड़खड़ा जाते हैं और आम आदमी जिंदा रहने का बहाना ढूँढता है मगर मौत को अपनी मर्ज़ी से गले लगाने वाले हुर्र जैसे लोग मरते नहीं शहीद होते हैं.
हज़रत हुर्र के आने के बाद यज़ीदी लश्कर से तीरों की बारिश शुरू हो गई. पहले इमाम हुसैन के मित्रों और दोस्तों ने रणभूमि में अपनी बहादुरी और वीरता के जौहर दिखाये. इमाम के इन चाहने वालों में नवयुवक भी थे और बूढ़े भी, पैसे वाले रईस भी थे, ग़ुलाम और सेवक भी. अफ्रीका के काले रंग वाले जानिसार भी थे तो एक से एक खूबसूरत सुर्ख-ओ-सफ़ेद रंग वाले गबरू जवान भी. इनमें उम्र का फ़र्क़ था, रंग-ओ-नस्ल का फ़र्क़ था सामाजिक और आर्थिक भिन्नता थी मगर उनके दिलों में इमाम हुसैन की मोहब्बत, उन पर जान लुटा देने का हौसला और इस्लाम को बचने के लिए अपने को कुर्बान कर देने का जज़्बा एक जैसा था.
जब सारे साथी और मित्र अपनी कुर्बानी दे चुके तो इमाम हुसैन के रिश्तेदारों ने अपने इस्लाम को बचाने वाले के लिए अपने प्राण निछावर करना शुरू कर दिए. कभी उनकी बहनों और माँओ ने तलवारें सजा कर मैदान में भेजा. कभी उनके भतीजे रणभूमि में अपने चाचा पर मर मिटने के लिए उतरे तो कभी भाई ने नदी के किनारे अपने बाजू कटवाए और कभी उनके 18 साल के कड़ियल जवान अली अकबर ने अपनी कुर्बानी पेश की. आखिर में हुसैन के हाथों पर उनके छे महीने के बच्चे अली असग़र ने गले पर तीर खाया और सब से आखिर में अल्लाह के सब से प्यारे बन्दे के प्यारे नवासे ने कर्बला की जलती हुई धरती पर तीन दिन की प्यास में जालिमों के खंजर तले खुदा के लिए सजदा करके अपनी कुर्बानी पेश की. यही नहीं तथाकथित मुसलामानों ने अपने ही पैग़म्बर के नवासे की लाश पर घोड़े दौड़ा कर अपने बदले की आग बुझाई.
इमाम हुसैन के साथ कर्बला में अपनी कुर्बानी देने वाले कुछ ख़ास रिश्तेदार और साथी यह थे:
अबुल फ़ज़लिल अब्बास: कर्बला में इमाम हुसैन की छोटी सी सेना का नेतृत्व हज़रत अब्बास के हाथों मैं था. वह इमाम हुसैन के छोटे भाई थे. इमाम हुसैन की माँ हज़रत फ़ातिमा के निधन के बाद हज़रत अली ने अपने भाई हज़रत अक़ील से कहा की में किसी ऐसे खानदान की लड़की से शादी करना चाहता हूँ जो अरब के बड़े बहादुरों में शुमार होता हो, जिससे की बहादुर और जंग-आज़मा(युद्ध में निपुण) औलाद पैदा हो. हज़रत अक़ील ने कहा की उम-उल-बनीन-ए-कलाबिया से शादी कीजिए. उनके बाप दादा से ज़्यादा कोई मशहूर सारे अरब में नहीं है. हज़रत अली ने इसी तथ्य की बुनियाद पर जनाबे उम-उल-बनीन से शादी की और उनसे चार बेटे पैदा हुए. हज़रत अब्बास उनमें सबसे बड़े थे. वह इमाम हुसैन को बेहद चाहते थे और इमाम हुसैन को हज़रत अब्बास से बेहद मोहब्बत थी. कर्बला की जंग में हज़रत अब्बास के हाथों में ही इस्लामी सेना का अलम(ध्वज) था. इसी लिए उन्हें अलमदार-ए-हुसैनी कहा जाता है. उनकी बहादुरी सारे अरब में मशहूर थी. कर्बला की जंग में हालांकि वह प्यासे थे लेकिन एक मौक़ा ऐसा आया की इमाम हुसैन की सेना के चार सिपाहियों का मैदान में यज़ीदी सेना ने चारों तरफ से घेर लिया तो उनको बचाने के लिए हज़रत अब्बास मैदान में गए और सारे लश्कर को मार भगाया और चारों को बाहर निकाला. इतने बड़े लश्कर से टकराने के बाद भी हज़रत अब्बास के बदन पर एक भी ज़ख्म नहीं लगा. उनकी बहादुरी का यह आलम था की जब इमाम हुसैन के सारे सिपाही शहीद हो गए तो खुद हज़रत अब्बास ने जिहाद करने के लिए मैदान में जाने की इजाज़त माँगी, इस पर इमाम हुसैन ने कहा कि अगर मैदान में जाना ही है तो प्यासे बच्चों के लिए पानी का इन्तिज़ाम करो. हज़रत अब्बास इमाम हुसैन की सब से छोटी बेटी सकीना जो 4 साल की थीं, को अपने बच्चों से भी ज़्यादा चाहते थे और जनाबे सकीना का प्यास के मारे बुरा हाल था. ऐसे में हज़रत अब्बास ने एक हाथ में अलम लिया और दूसरे हाथ में मश्क़ ली और दुश्मन की फौज़ पर इस तरह हमला नहीं किया कि लड़ाई के लिए बढ़ रहे हों बल्कि इस तरह आगे बढे जैसे की नदी की तरफ जाने के लिए रास्ता बना रहे हों. हज़रत अब्बास से शाम और कूफ़ा की सेनायें इस तरह डर कर भागीं जैसे की शेर को देख कर भेड़ बकरियां भागती हैं. हज़रत अब्बास इत्मिनान से नदी पर पहुँचे, मश्क़ में पानी भरा और जब नदी से वापस लौटने लगे तो भागी हुई फ़ौजें फिर से जमा हों गईं और सब ने हज़रत अब्बास को घेर लिया. हज़रत अब्बास हर हाल में पानी से भरी मश्क़ इमाम के शिविर तक पहुँचाना चाहते थे. वह फ़ौजों को खदेड़ते हुए आगे बढ़ते रहे तभी पीछे से एक ज़ालिम ने हमला करके उनका एक हाथ काट दिया. अभी वह कुछ क़दम आगे बढे ही थे कि पीछे से वार करके उनका दूसरा हाथ भी काट दिया गया. हज़रत अब्बास ने मश्क़ अपने दांतों में दबा ली. इसी बीच एक ज़ालिम ने मश्क़ पर तीर मार कर सारा पानी ज़मीन पर बहा दिया और इस तरह इमाम के प्यासे बच्चों तक पानी पहुँचने की जो आखिरी उम्मीद थी वह भी ख़त्म हों गई. एक ज़ालिम ने हज़रत अब्बास के सर पर गुर्ज़(गदा) मारकर उन्हें शहीद कर दिया. हज़रत अब्बास को तभी से सक्का-ए-सकीना(सकीना के लिए पानी का प्रबंध करने वाले) के नाम से भी याद किया जाता है. हज़रत अब्बास बेइंतिहा खूबसूरत थे, इसलिए उनको कमर-ए-बनी हाशिम(हाशिमी कबीले का चाँद) भी कहा जाता है. सारी दुनिया में मुहर्रम के दौरान जो जुलूस उठते हैं, वह हज़रत अब्बास की ही निशानी हैं.
क़ासिम बिन हसन: हज़रत क़ासिम इमाम हुसैन के बड़े भाई इमाम हसन के बेटे थे. कर्बला के युद्ध के समय उनकी उम्र लगभग तेरह साल थी. इतनी कम उम्र में भी हज़रत क़ासिम ने इतनी हिम्मत और बहादुरी से लड़ाई की कि यज़ीदी फ़ौज के छक्के छूट गए. क़ासिम की बहादुरी देख कर उम्रो बिन साअद जैसे बड़े पहलवान को हज़रत क़ासिम जैसे कम उम्र सिपाही के सामने आना पड़ा और इस ने हज़रत क़ासिम के सर पर तलवार मार कर शहीद कर दिया. क़ासिम की शहादत का इमाम को इतना दुःख हुआ कि इमाम खुद ही तलवार लेकर अपने भतीजे के क़ातिल कि तरफ झपटे, उधर से दुश्मन कि फ़ौज वालो ने क़ातिल को बचने के लिए घोड़े दौडाए, इस कशमकश में हज़रत कासिम की लाश घोड़ो से पामाल हो गई. इमाम खुद अपने भतीजे की लाश उठाकर लाये और हज़रत अली अकबर की लाश के पास क़ासिम की लाश को रख दिया.
हज़रत औन-ओ-मोहम्मद: कर्बला की जंग में आपसी रिश्तों की जो उच्च मिसालें और आदर्श नज़र आते हैं उनमें हज़रत औन बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र भी एक ऐसी मिसाल हैं जिनको रहती दुनिया तक याद किया जाता रहेगा. यह दोनों इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के बेटे थे. हज़रत औन इमाम हुसैन की चाहीती बहन हज़रत ज़ैनब के सगे बेटे थे जबकि हज़रत मोहम्मद की माँ का नाम खूसा बिन्ते हफसा बिन सक़ीफ़ था. दोनों भाइयों की देखभाल हज़रत ज़ैनब ने इस तरह की थी की लोग इन दोनों को सगा भाई ही समझते थे. दोनों भाइयों में भी इस क़दर मोहब्बत थी की इन दोनों के नाम आज तक इतिहास की पुस्तकों में एक ही साथ लिखे जाते हैं. मजलिसों मैं औन-ओ-मोहम्मद का ज़िक्र इस प्रकार किया जाता है कि सुनने वालों को यह नाम एक ही व्यक्ति का नाम लगता है.
मदीने से जब हुसैनी क़ाफ़िला चला तो हज़रत औन-ओ-मोहम्मद साथ नहीं थे. उनके पिता हज़रत जाफ़र ने अपने दोनों नवयुवकों को इमाम हुसैन पर जान देने के लिए उस समय भेजा जब इमाम हुसैन मक्का छोड़ कर इराक की और प्रस्थान कर रहे थे. इन दोनों भाइयों ने अपने मामूं हज़रत हुसैन के मिशन को आगे बढ़ाते हुए इस्लाम के दुश्मनों से इस तरह जंग की की शाम की फ़ौज को पैर जमाए रखना मुश्किल हों गया. यह दोनों भाई आगे आने वाली नस्लों के लिए यह पैग़ाम छोड़ कर गए कि हक़ और सच्चाई की लड़ाई लड़ने वालों का चरित्र ऐसा होना चाहिए की लोग मिसालों की तरह याद करें.
अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील के बेटे थे. उनकी माँ इमाम हुसैन की सौतेली बहन रुक़य्या बिन्ते अली थीं. यानी अब्दुल्लाह इमाम हुसैन के भांजे भी थे और भतीजे भी. उनकी उम्र शहादत के वक़्त बहुत कम थी, शायद चार या पांच वर्ष के रहे होंगे. जब बेटे हज़रत अली अकबर की लाश इमाम हुसैन से नहीं उठ सकी और उन्होंने बनी हाशिम के बच्चों को मदद के लिए पुकारा तो अब्दुल्लाह भी ख़ेमें(शिविर) से बाहर निकल आये. इसी समय उमरो बिन सबीह सद्दाई ने अब्दुल्लाह की तरफ़ तीर चलाया जो माथे की तरफ़ आता देख कर नन्हें बच्चे ने अपने माथे पर हाथ रखा तो तीर हाथ को छेद कर माथे में लग गया. उसके बाद ज़ालिम ने दूसरा तीर मारा जो अब्दुल्लाह के सीने पर लगा और बच्चे ने मौक़े पर ही दम तौड़ दिया.
मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह अब्दुल्लाह के भाई थे लेकिन दोनों की माताएँ अलग अलग थीं. जैसे ही नन्हे से अब्दुल्लाह ने दम तोड़ा, हज़रत अक़ील के बेटों और पोतों ने एक साथ हमला कर दिया उनके इस जोश और ग़ुस्से को देख कर इमाम हुसैन ने आवाज़ दी “हाँ! मेरे चाचा के बेटों मौत के अभियान पर विजय प्राप्त करो”. मोहम्मद जवाँ मर्दी से लड़ते हुए अबू मरहम नामक क़ातिल के हाथों शहीद हुए.
जाफ़र बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बात जाफ़र मैदान में उतरे. मैदाने जंग में कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद यह भी अल्लाह की
राह में शहीद हो गए. हज़रत जाफ़र को इब्ने उर्वाह ने शहीद किया.
अब्दुल रहमान बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बाद अब्दुल रहमान बिन अक़ील ने मैदान-ए-जिहाद में अपने जोश और ईमानी जज़्बे का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों पर धावा बोल दिया. इन को उस्मान बिन खालिद और बशर बिन खोत ने मिल कर घेर लिया और यह बहादुर शहीद हुए.
मोहम्मद बिन अबी सईद बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की दिल हिला देने वाली शहादत के बाद यह भी लश्करे यज़ीद पर टूट पड़े और लक़ीत बिन यासिर नामक कातिल ने मोहम्मद के सर पर तीर मार कर शहीद किया.
अबू बक़र बिन हसन: खानदान-ए-बनी हाशिम के जिन नौजवानों ने अपने चाचा पर अपनी जान कुर्बान की, उन में अबू बक़र बिन हसन का नाम भी सुनहरे शब्दों में लिखा है. इन को अब्दुल्लाह इब्ने अक़बा ने तीर मार कर शहीद किया.
मोहम्मद बिन अली: यह इमाम हुसैन के भाई थे, इनकी माँ का नाम इमामाह था. कहा जाता है की इमाम हुसैन की माँ हज़रत फ़ातिमा ने अपने निधन के समय इच्छा व्यक्त की थी की हज़रत अली इमामाह इब्ने अबी आस से शादी करें. मोहम्मद ने अपने भाई इमाम हुसैन के मकसद को बचाने के लिए भरपूर जंग की और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारा. बाद में बनी अबान बिन दारम नाम के एक व्यक्ति ने तीर मार कर शहीद कर दिया. इन्हें मोहम्मद उल असग़र(छोटे मोहम्मद) भी कहा जाता है.
अब्दुल्लाह बिन अली: अब्दुल्लाह हज़रत अली और जनाबे उम उल बनीन के बेटे थे और यह हज़रत अब्बास से छोटे थे. जनाबे उम उल बनीन के क़बीले, क़बालिया से ताल्लुक रखने वाला यज़ीद का एक कमांडर भी था जिसका नाम शिम्र था. उस ने क़बीले के नाम पर इब्ने ज़ियाद से जनाबे उम उल बनीन के चारों बेटों हज़रत अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह, हज़रत उस्मान और जाफ़र बिन अली के नाम अमान नामा(आश्रय पत्र) लिखवा लिया था. कर्बला पहुँचने के बाद शिम्र ने सबसे पहला काम यह किया वह इमाम हुसैन के शिविर के पास आया और आवाज़ दी की कहाँ हैं मेरी बहन के बेटे? यह सुन कर हज़रत अब्बास और उनके तीनों भाई सामने आये और पूछा की क्या बात है? इस पर शिम्र ने कहा की तुम लोग मेरी अमान(आश्रय) में हो, इस पर जनाबे उम उल बनीन के बेटों ने कहा की खुदा की लानत हो तुझ पर और तेरी अमान पर. हम को तो अमान है और पैग़म्बर के नवासे को अमान नहीं. इस तरह अली के यह चारों शेर दिल बेटे यह साबित कर रहे थे की सत्य के रास्ते में रिश्तेदारियाँ कोई मायने नहीं रखतीं और वह कर्बला में इस लिए नहीं आये हैं कि हुसैन उनके भाई हैं, बल्कि वह लोग इस लिए आये हैं कि उन्हें यकीन है कि इमाम हुसैन हक़ पर हैं. जब कर्बला का जिहाद शुरू हुआ और औलादे हज़रत अली हक़ के रास्ते में क़ुर्बान होने के लिए मैदान में उतरी तो अपने भाइयों में से हज़रत अब्बास ने सबसे पहले अब्दुल्लाह को मैदान में भेजा. हज़रत अब्दुल्लाह बिन अली मैदान में गए और वीरता से लड़ते हुए हानि बिन सबीत की तलवार से शहीद हुए.
उस्मान बिन अली: यह अब्दुल्लाह बिन अली से छोटे थे. उस्मान बिन अली को हज़रत अब्बास ने अब्दुल्लाह की शहादत के बाद मैदान में भेजा. उस्मान बिन अली ने दुश्मन से जम कर लोहा लिया. आखिर में लड़ते लड़ते खुली बिन यज़ीद अस्बेही के तीर से शहीद हुए.
जाफ़र बिन अली: यह उम उल बनीन के सबसे छोटे बेटे थे. उसमान बिन अली की शहादत के बाद हज़रत अब्बास ने जाफ़र से कहा की “भाई! जाओ और मैदान में जाकर हक़ परस्तों की इस जंग में अपनी जान दो ताकि जिस तरह मैंने तुम से पहले दोनों भाइयों का ग़म बर्दाश्त किया है उसी तरह तुम्हारा ग़म भी बर्दाश्त करूँ”. इसके बाद जाफ़र मैदान में गए और अपनी वीरता की गाथा अपने खून से लिख कर हानि बिन सबीत के हाथों शहीद हुए. इमाम हुसैन की सेना के आखिरी शहीद हज़रत अब्बास थे.
अली असग़र: हज़रत अब्बास की शहादत के बाद इमाम हुसैन ने एक ऐसी कुर्बानी दी जिसकी मिसाल रहती दुनिया तक मिलना मुमकिन नहीं. इमाम अपने छेह महीने के बच्चे हज़रत अली असग़र को मैदान में लाये. हज़रत अली असग़र पानी न होने के वजह से प्यास से बेहाल थे. पानी न मिलने के कारण अली असग़र की माँ जनाबे रबाब का दूध भी खुश्क हो गया था. हज़रत अली असग़र के लिए इमाम ने दुश्माओं से पानी तलब किया तो जवाब में हुर्मलाह नाम के एक मशहूर तीर अंदाज़ ने अली असग़र के गले पर तीर मार कर इस बात को साबित कर दिया की इमाम हुसैन से टकराने वाला लश्कर अमानविये हदों से भी आगे थे. यज़ीदी सेना की राक्षसों के साथ तुलना करना राक्षसों की बेईज्ज़ती करना है क्योंकि राक्षस सेना ने जो भी कुकर्म किया हो, जितने ही ज़ुल्म क्यों न किये हों कम से कम उन्होंने छः महीने के किसी प्यासे बच्चे के गले पर तीर तो नहीं मारा होगा.
इमाम हुसैन की शहादत: हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद अल्लाह का एक पाक बंदा, पैग़म्बर साहब का चहीता नवासा, हज़रत अली का शेर दिल बेटा, जनाबे फातिमा की गोद का पाला और हज़रत हसन के बाज़ू की ताक़त यानी हुसैन-ए-मज़लूम कर्बला के मैदान में तन्हा और अकेला खड़ा था.
इस आलम में भी चेहरे पर नूर और सूखे होंटों पर मुस्कराहट थी, खुश्क ज़ुबान में छाले पड़े होने के बावजूद दुआएँ थीं. थकी थकी पाक आँखों में अल्लाह का शुक्र था. 57 साल की उम्र में 71 अज़ीज़ों और साथियों की लाशें उठाने के बाद भी क़दमों का ठहराव कहता था की अल्लाह का यह बंदा कभी हार नहीं सकता. इमाम हुसैन शहादत के लिए तैयार हुए, खेमे में आये, अपनी छोटी बहनों जनाबे जैनब और जनाबे उम्मे कुलसूम को गले लगाया और कहा कि वह तो इम्तिहान की आखिरी मंज़िल पर हैं और इस मंज़िल से भी वह आसानी से गुज़र जाएँगे लेकिन अभी उनके परिवार वालों को बहुत मुश्किल मंज़िलों से गुज़रना है. उसके बाद इमाम उस खेमे में गए जहाँ उनके सब से बड़े बेटे अली इब्नुल हुसैन(जिन्हें इमाम ज़ैनुल आबिदीन कहा जाता है)थे. इमाम तेज़ बुखार में बेहोशी के आलम में लेटे थे. इमाम ने बीमार बेटे का कन्धा हिलाया और बताया की अंतिम कुर्बानी देने के लिए वह मैदान में जा रहें हैं. इस पर इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने पूछा कि “सारे मददगार, नासिर और अज़ीज़ कहाँ गए?”. इस पर इमाम ने कहा कि सब अपनी जान लुटा चुके हैं. तब इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने कहा कि अभी मै बाक़ी हूँ, में जिहाद करूँगा. इस पर इमाम हुसैन बोले कि बीमारों को जिहाद की अनुमति नहीं है और तुम्हें भी जिहाद की कड़ी मंजिलों से गुज़ारना है मगर तुम्हारा जिहाद दूसरी तरह का है.
इमाम खैमे से रुखसत हुए और मैदान में आये. ऐसे हाल में जब की कोई मददगार और साथी नहीं था और न ही विजय प्राप्त करने की कोई उम्मीद थी फिर भी इमाम हुसैन बढ़ बढ़ कर हमले कर रहे थे. वह शेर की तरह झपट रहे थे और यज़ीदी फ़ौज के किराए के टट्टू अपनी जान बचाने की पनाह मांग रहे थे. किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी की वह अकेले बढ़ कर इमाम हुसैन पर हमला करता. बड़े बड़े सूरमा दूर खड़े हो कर जान बचा कर भागने वालों का तमाशा देख रहे थे. इस हालत को देख कर यज़ीदी फ़ौज का कमांडर शिम्र चिल्लाया कि “खड़े हुए क्या देख रहे हो? इन्हें क़त्ल कर दो, खुदा करे तुम्हारी माएँ तुम्हें रोएँ, तुम्हे इसका इनाम मिलेगा”. इस के बाद सारी फ़ौज ने मिल कर चारों तरफ से हमला कर दिया. हर तरफ से तलवारों, तीरों और नैज़ों की बारिश होने लगी आखिर में सैंकड़ों ज़ख्म खाकर इमाम हुसैन घोड़े की पीठ से गिर पड़े. इमाम जैसे ही मैदान-ए-जंग में गिरे, इमाम का क़ातिल उनका सर काटने के लिए बढ़ा. तभी खैमे से इमाम हसन का ग्यारह साल का बच्चा अब्दुल्लाह बिन हसन अपने चाचा को बचाने के लिए बढ़ा और अपने दोनों हाथ फैला दिए लेकिन कर्बला में आने वाले कातिलों के लिए बच्चों और औरतों का ख्याल करना शायद पाप था. इसलिए इस बच्चे का भी वही हश्र हुआ जो इससे पहले मैदान में आने वाले मासूमों का हुआ था. अब्दुल्लाह बिन हसन के पहले हाथ काटे गए और बाद में जब यह बच्चा इमाम हुसैन के सीने से लिपट गया तो बच्चों की जान लेने में माहिर तीर अंदाज़ हुर्मलाह ने एक बार फिर अपना ज़लील हुनर दिखाया और इस मासूम बच्चे ने इमाम हुसैन की आग़ोश में ही दम तोड़ दिया.
फिर सैंकड़ों ज़ख्मों से घायल इमाम हुसैन का सर उनके जिस्म से जुदा करने के लिए शिम्र आगे बढ़ा और इमाम हुसैन को क़त्ल करके उसने मानवता का चिराग़ गुल कर दिया. इमाम हुसैन तो शहीद हो गए लेकिन क़यामत तक यह बात अपने खून से लिख गए कि जिहाद किसी पर हमला करने का नाम नहीं है बल्कि अपनी जान दे कर इंसानियत की हिफाज़त करने का नाम है.
शहादत के बाद:
इमाम हुसैन की शहादत के बाद यज़ीद की सेनाओं ने अमानवीय, क्रूर और बेरहम आदतों के तहत इमाम हुसैन की लाश पर घोड़े दौड़ाये. इमाम हुसैन के खेमों में आग लगा दी गई. उनके परिवार को डराने और आतंकित करने के लिए छोटे छोटे बच्चों के साथ मार पीट की गई. पैग़म्बर साहब के पवित्र घराने की औरतों को क़ैदी बनाया गया, उनका सारा सामन लूट लिया गया.
इसके बाद इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद होने वाले अज़ीज़ों और साथियों के परिवार वालों को ज़ंजीरों और रस्सियों में जकड़ कर गिरफ्तार किया गया. इस तरह इन पवित्र लोगों को अपमानित करने का सिलसिला शुरू हुआ. असल में यह उनका अपमान नहीं था, खुद यज़ीद की हार का ऐलान था.
इमाम हुसैन के परिवार को क़ैद करके पहले तो कूफ़े की गली कूचों में घुमाया गया और बाद में उन्हें कूफ़े के सरदार इब्ने ज़ियाद(इब्ने ज़ियाद यज़ीद की फ़ौज का एक सरदार था जिसे यज़ीद ने कूफ़े का गवर्नर बनाया था) के दरबार में पेश किया गया, जहाँ ख़ुशी की महफ़िलें सजाई गईं और और जीत का जश्न मनाया गया. जब इमाम हुसैन के परिवार वालों को दरबार में पेश किया गया तो इब्ने ज़ियाद ने जनाबे जैनब की तरफ इशारा करके पूछा यह औरत कौन है? तो उम्र सअद ने कहा की “यह हुसैन की बहन जैनब है”. इस पर इब्ने ज़ियाद ने कहा कि “ज़ैनब!, एक हुसैन कि ना-फ़रमानी से सारा खानदान तहस नहस हो गया. तुमने देखा किस तरह खुदा ने तुम को तुम्हारे कर्मों कि सज़ा दी”. इस पर ज़ैनब ने कहा कि “हुसैन ने जो कुछ किया खुदा और उसके हुक्म पर किया, ज़िन्दगी हुसैन के क़दमों पर कुर्बान हो रही थी तब भी तेरा सेनापति शिम्र कोशिश कर रहा था कि हुसैन तेरे शासक यज़ीद को मान्यता दे दें. अगर हुसैन यज़ीद कि बैयत कर लेते तो यह इस्लाम के दामन पर एक दाग़ होता जो किसी के मिटाए न मिटता. हुसैन ने हक़ कि खातिर मुस्कुराते हुए अपने भरे घर को क़ुर्बान कर दिया. मगर तूने और तेरे साथियों ने बनू उमय्या के दामन पर ऐसा दाग़ लगाया जिसको मुसलमान क़यामत तक धो नहीं सकते.”
उसके बाद इमाम हुसैन की बहनों, बेटियों, विधवाओं और यतीम बच्चों को सीरिया कि राजधानी दमिश्क़, यज़ीद के दरबार में ले जाया गया. कर्बला से कूफ़े और कूफ़े से दमिश्क़ के रास्ते में इमाम हुसैन कि बहन जनाबे ज़ैनब ने रास्तों के दोनों तरफ खड़े लोगों को संबोधित करते हुए अपने भाई की मज़लूमी का ज़िक्र इस अंदाज़ में किया कि सारे अरब में क्रांति कि चिंगारियां फूटने लगीं.
यज़ीद के दरबार में पहुँचने पर सैंकड़ों दरबारियों की मौजूदगी में जब हुसैनी काफ़िले को पेश किया गया तो यज़ीद ने बनी उमय्या के मान सम्मान को फिर से बहाल करने और जंग-ए-बद्र में हज़रत अली के हाथों मारे जाने वाले अपने काफ़िर पूर्वजों की प्रशंसा की और कहा की आज अगर जंग-ए-बद्र में मरने वाले होते तो देखते कि किस तरह मैंने इन्तिक़ाम लिया. इसके बाद यज़ीद ने इमाम ज़ैनुल आबिदीन से कहा कि “हुसैन कि ख्वाहिश थी कि मेरी हुकूमत खत्म कर दे लेकिन मैं जिंदा हूँ और उसका सर मेरे सामने है.” इस पर जनाबे ज़ैनब ने यज़ीद को टोकते हुए कहा कि तुझ को तो खुछ दिन बाद मौत भी आ जायेगी मगर शैतान आज तक जिंदा है. यह हमारे इम्तिहान कि घड़ियाँ थीं जो ख़तम हो चुकीं. तू जिस खुदा के नाम ले रहा है क्या उस के रसूल(पैग़म्बर) की औलाद पर इतने ज़ुल्म करने के बाद भी तू अपना मुंह उसको दिखा सकेगा”.
इधर इमाम हुसैन के परिवार वाले क़ैद मैं थे और दूसरी तरफ क्रांति की चिंगारियाँ फूट रही थी और अरब के विभिन्न शहरों मैं यज़ीद के शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही थी. इन सब बातों से परेशान हो कर यज़ीद के हरकारों ने पैंतरा बदल कर यह कहना शुरू कर दिया था की इमाम हुसैन का क़त्ल कूफ़ियों ने बिना यज़ीद की अनुमति के कर दिया. इन लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि इमाम हुसैन तो यज़ीद के पास जाकर अपने मतभेद दूर करना चाहते थे या मदीने मैं लौट कर चैन की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते थे. लेकिन सच तो यह है की इमाम हुसैन कर्बला के लिये बने थे और कर्बला की ज़मीन इमाम हुसैन के लिए बनी थी. इमाम हुसैन के पास दो ही रास्ते थे. पहला तो यह कि वह यज़ीद कि बैयत करके अपनी जान बचा लें और इस्लाम को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ता देखें. दूसरा रास्ता वही था कि इमाम हुसैन अपनी, अपने बच्चों और अपने साथियों कि जान क़ुर्बान करके इस्लाम को बचा लें. ज़ाहिर है हुसैन अपने लिए चंद दिनों कि ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी तलब कर ही नहीं सकते थे. उन्हें तो अल्लाह ने बस इस्लाम को बचाने के लिए ही भेजा था और वह इस मैं पूरी तरह कामयाब रहे.
क्रांति की आग:
कर्बला के शहीदों का लुटा काफ़िला जब दमिश्क से रिहाई पा कर मदीने वापस आया तो यहाँ क्रांति की चिंगारियाँ आग में बदल गईं और ग़ुस्से में बिफरे लोगों ने यज़ीद के गवर्नर उस्मान बिन मोहम्मद को हटा कर अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला को अपना शासक बना लिया. यज़ीद ने इस क्रांति को ख़तम करने के लिए एक बहुत बड़े ज़ालिम मुस्लिम बिन अक़बा को मदीने की ओर भेजा. मदीना वासियों ने अक़बा की सेना का मदीने से बाहर हर्रा नामक स्थान पर मुकाबला किया. इस जंग में दस हज़ार मुसलमान क़त्ल कर दिए गए ओर सात सो ऐसे लोग भी क़त्ल किये गए जो क़ुरान के हाफ़िज़ थे(जिन लोगों को पूरा क़ुरान बिना देखे याद हो, उन्हें हाफ़िज़ कहा जाता है). मदीने के लोग यज़ीद की सेना के सामने ठहर न सके और यज़ीदी सेनाओं ने मदीने में घुस कर ऐसे कुकर्म किये कि कभी काफ़िर भी न कर सके थे. सारा शहर लूट लिया गया. हज़ारों मुसलमान लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया, जिसके नतीजे में एक हज़ार ऐसे बच्चे पैदा हुए जिनकी माताओं के साथ बलात्कार किया गया था. मदीने के सारे शहरी इन ज़ुल्मों की वजह से फिर से यज़ीद को अपना राजा मानने लगे. इमाम ज़ैनुल आबिदीन इस हमले के दौरान मदीने के पास के एक देहात में रह रहे थे. इस मौके पर एक बार फिर इमाम हुसैन के परिवार ने एक ऐसी मिसाल पेश की कि कोई इंसान पेश नहीं कर सकता. जब मदीने वालों ने अपना शिकंजा कसा तो उसमें मर-वान की गर्दन भी फंस गई.(मर-वान वही सरदार था जिसने मदीने मे वलीद से कहा था कि हुसैन से इसी वक़्त बैयत ले ले या उन्हें क़त्ल कर दे). मर-वान ने इमाम ज़ैनुल-आबिदीन से पनाह मांगी और कहा कि सारा मदीना मेरे खिलाफ हो गया है, ऐसे में, मैं अपने बच्चों के लिए खतरा महसूस करता हूँ तो इमाम ने कहा की तू अपने बच्चों को मेरे गाँव भेज दे मैं उनकी हिफाज़त का ज़िम्मेदार हूँ. इस तरह इमाम ने साबित कर दिया कि बच्चे चाहे ज़ालिम ही के क्यों न हों, पनाह दिए जाने के काबिल हैं.
मदीने को बर्बाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा मक्के की तरफ़ बढ़ा. मक्के में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की हुकूमत थी. लेकिन अक़बा को वक़्त ने मोहलत नहीं दी और वह मक्का के रास्ते में ही मर गया. उस की जगह हसीन बिन नुमैर ने ली और चालीस दिन तक मक्के को घेरे रखा. उसने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को मात देने की कोशिश में काबे पर भी आग बरसाई गई. लेकिन जुबैर को गिरफ्तार नहीं कर सका. इस बीच यज़ीद के मरने की खबर आई और मक्के में हर तरफ़ जश्न का माहोल हो गया और शहर का नक्शा ही बदल गया. इब्ने जुबैर को विजय प्राप्त हुई और हसीन बिन नुमैर को भाग कर मदीने जाना पड़ा.
यज़ीद की मौत:
यज़ीद की मौत को लेकर इतिहासकारों में अलग अलग राय है. कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यज़ीद महल से शिकार खेलने निकला और फिर जंगल में शिकार का पीछा करते हुए अपने साथियों से अलग हो गया और रास्ता भटक गया और बाद में खुद ही जंगली जानवरों का शिकार बन गया. लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं 38 साल कि उम्र में क़ोलंज के दर्द(पेट में उठने वाला ऐसा दर्द जिसमें पीड़ित हाथ पैर पटकता रहता है) का शिकार हुआ और उसी ने उसकी जान ली.
जब यज़ीद को अपनी मौत का यकीन हो गया तो उस ने अपने बेटे मुआविया बिन यज़ीद को अपने पास बुलाया और हुकूमत के बारे में कुछ अंतिम इच्छाएँ बतानी चाहीं. अभी यज़ीद ने बात शुरू ही की थी कि उसके बेटे ने एक चीख मार कर कहा “खुदा मुझे उस सल्तनत से दूर रखे जिस कि बुनियाद रसूल के नवासे के खून पर रखी गई हो”. यज़ीद अपने बेटे के यह अलफ़ाज़ सुन कर बहुत तड़पा मगर मुविया बिन यज़ीद लानत भेज कर चला गया. लोगों ने उसे बहुत समझाया की तेरे इनकार से बनू उमय्या की सल्तनत का ख़ात्मा हो जाएगा मगर वह राज़ी नही हुआ. यज़ीद तीन दिन तक तेज़ दर्द में हाथ पाँव पटक पटक कर इस तरह तड़पता रहा कि अगर एक बूँद पानी भी टपकाया जाता तो वह तीर की तरह उसके हलक़ में चुभता था. यज़ीद भूखा प्यासा तड़प तड़प कर इस दुनिया से उठ गया तो बनू उमय्या के तरफ़दारों ने ज़बरदस्ती मुआविया बिन यज़ीद को गद्दी पर बिठा दिया. लेकिन वह रो कर और चीख़ कर भागा और घर में जाकर ऐसा घुसा की फिर बाहर न निकला और हुसैन हुसैन के नारे लगाता हुआ दुनिया से रुखसत हो गया. कुछ लोगों का मानना है कि 21 साल के इस युवक को बनू उमय्या के लोगों ने ही क़त्ल कर दिया क्योंकि गद्दी छोड़ने से पहले उसने साफ़ साफ़ कह दिया था कि उस के बाप और दादा दोनों ने ही सत्ता ग़लत तरीकों से हथियाई थी और इस सत्ता के असली हक़दार हज़रत अली और उनके बेटे थे. मुआविया बिन यज़ीद की मौत के बाद मर-वान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस बीच उबैद उल्लाह बिन ज़ियाद ने इराक पर क़ब्ज़ा कर लिया और मुल्क में पूरी तरह अराजकता फ़ैल गई.
यज़ीद की मौत की खबर सुन कर मक्के का घेराव कर रहे यजीदी कमांडर हसीन बिन नुमैर ने मदीने की ओर रुख किया और इसी आलम में उसका सारा अनाज और गल्ला ख़तम हो गया. भटकते भटकते मदने के करीब एक गाँव में इमाम हुसैन के बेटे हज़रत जैनुल आबिदीन मिले तो इमाम ने भूख से बेहाल अपने इस दुश्मन की जान बचाई. इमाम ने उसे खाना और गल्ला भी दिया और पैसे भी नहीं लिए. इस बात से प्रभावित हो कर हसीन बिन नुमैर ने यज़ीद की मौत के बाद इमाम से कहा की वह खलीफ़ा बन जाएँ लेकिन इमाम ने इनकार कर दिया और यह साबित कर दिया की हज़रत अली की संतान की लड़ाई या जिहाद खिलाफत के लिए नहीं बल्कि दुनिया को यह बताने के लिए थी कि इस्लाम ज़ालिमों का मज़हब नहीं बल्कि मजलूमों का मज़हब है.
इनतिकामे-ए-खूने का अभियान:
मक्के, मदीने के बाद कूफ़े में भी क्रांति की चिंगारियां भड़कने लगीं. वहाँ पहले एक दल तव्वाबीन(तौबा करने वालों) के नाम से उठा. इस दल के दिल में यह कसक थी कि इन्हीं लोगों ने इमाम हुसैन को कूफ़ा आने का न्योता दिया. लेकिन जब इमाम हुसैन कूफ़ा आये तो इन लोगों ने यज़ीद के डर और खौफ़ के आगे घुटने टेक दिए. और जिन 18 हज़ार लोगों ने इमाम हुसैन का साथ देने कि कसम खायी थी, वह या तो यज़ीद द्वारा मार दिए गए थे या जेल में डाल दिए गए थे. तव्वाबीन, खूने इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए उठे लेकिन शाम(सीरिया) की सैनिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सके.
इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने में सिर्फ़ हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी को कामयाबी मिली. जब इमाम हुसैन शहीद किए गए तो मुख्तार जेल में थे. इमाम हुसैन की शहादत के बाद हज़रत मुख़्तार को अब्दुल्लाह बिन उमर कि सिफ़ारिश से रिहाई मिली. अब्दुल्लाह बिन उमर, मुख़्तार के बहनोई थे और शुरू शुरू में यज़ीद की बैयत न करने वालों में आगे आगे थे लेकिन बाद में वह बनी उमय्या की ताक़त से दब गए.
मुख़्तार ने रिहाई मिलते ही इमाम हुसैन के क़ातिलों से बदला लेने की योजना बनाना शुरू कर दी. उन्होंने हज़रत अली के सब से क़रीबी साथी मालिके अशतर के बेटे हज़रत इब्राहीम बिन मालिके अशतर से बात की. उन्होंने इस अभियान में मुख्तार का हर तरह से साथ देने का वायदा किया. उन दिनों कूफ़े पर ज़ुबैर का क़ब्ज़ा था और इन्तिक़ामे खूने हुसैन का काम शुरू करने के लिए यह ज़रूरी था कि कूफ़े को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया जाए. कूफ़े को क्रांति का केंद्र बनाना इस लिए भी ज़रूरी था कि इमाम हुसैन के ज़्यादातर क़ातिल कूफ़े में ही मौजूद थे और अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर सत्ता पाने के बाद इन्तिक़ाम-ए-खूने हुसैन के उस नारे को भूल चुके थे जिसके सहारे उन्होंने सत्ता हासिल की थी. मुख्तार और इब्राहीम ने अपना अभियान कूफ़े से शुरू किया और इब्ने ज़ुबैर के कूफ़ा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन मुतीअ को कूफ़ा छोड़ कर भागना पड़ा.
इस के बाद हज़रत मुख़्तार और हज़रत इब्राहीम की फ़ौज ने इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को क़त्ल करने वाले क़ातिलों को चुन चुन कर मार डाला. इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने के लिए जो जो लोग भी उठे उन में हज़रत मुख्तार और इब्राहीम बिन मालिके अशतर का अभियान ही अपने रास्ते से नहीं हटा. इस अभियान की ख़ास बात यह थी कि इन लोगों ने सिर्फ़ क़ातिलों से बदला लिया, किसी बेगुनाह का खून नहीं बहाया.
उधर मदीने में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर पैग़म्बर साहब के परिवार वालों से नाराज़ हो चुके थे. यहाँ तक कि इब्ने ज़ुबैर ने इमाम हुसैन के छोटे भाई मोहम्मद-ए-हनफ़िया और पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई इब्ने अब्बास को एक घर में बंद करके ज़िन्दा जलाने की कोशिश भी कि लेकिन इसी बीच हज़रत मुख़्तार का अभियान शुरू हो गया और उन दोनों कि जान बच गई.
हज़रत मुख्तार और इब्ने ज़ुबैर की फ़ौजों में टकराव हुआ और मुख़्तार हार गए लेकिन तब तक वह क़ातिलाने इमाम हुसैन को पूरी तरह सजा दे चुके थे.

इस्लाम का ऐतिहासिक सफ़र मक्के से कर्बला तक |

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मुसलमानों का मानना है कि हर युग और हर दौर मैं अल्लाह ने इस धरती पर अपने दूत(संदेशवाहक/पैग़म्बर), अपने सन्देश के साथ इस उद्देश्य के लिए भेजे हैं कि अल्लाह के यह दूत इंसानों को सही रास्ता दिखायें और इंसान को बुरे रास्ते पर चलने से रोकें. इन्हीं संदेशवाहकों को इस्लाम में पैग़म्बर या नबी कहा जाता है। ईश्वर की तरफ से संदेशवाहकों की ज़रुरत इसलिए पड़ी क्योंकि ईश्वर ने इंसान को धरती पर पूरी आज़ादी देकर भेजा है। इंसान में इस दुनिया को बनाने के साथ साथ तबाह करने की भी क़ाबलियत है। वह परमाणु पावर से सारी दुनिया रोशन भी कर सकता है और इसी परमाणु अटम बोम्ब के सहारे लाखों लोगों को एक ही पल मैं मौत के मुह मैं भी पहुंचा सकता है।

     मुसलमानों के मुताबिक अब तक कुल 313 रसूल/नबी, अल्लाह की तरफ से भेजे जा चुके हैं, इनमें से 5 रसूल बड़े रसूल हैं. जो कि हैं:

1. हज़रत Abraham(इब्राहीम)
2. हज़रत Moses(मूसा)
3. हज़रत David(दावूद)
4. हज़रत Jesus (ईसा)
5. हज़रत Muhammad(मोहम्मद)
हज़रत मोहम्मद इन सब नबियो में सबसे आखिरी नबी हैं।
कुछ और दुसरे नबियों के नाम हैं:
हज़रत Adam (आदम)
हज़रत Nooh (नूह)
हज़रत Ishaaq (इसहाक़)
हज़रत Yaaqub (याक़ूब)
हज़रत Joseph (युसुफ़)
हज़रत Ismail (इस्माइल)

इस्लाम क्या है?
     इस्लाम धर्म के मानने वालों को मुस्लिम कहा जाता है। मुस्लिम शब्द सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के मानने वालों के लिए इस्तमाल किया गया था।

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा:
     पैग़म्बर हज़रत नूह के कई सौ साल बाद हज़रत इब्राहीम को अल्लाह ने अपना पैग़म्बर बनाया. हज़रत इब्राहीम के दो बेटे हुए, एक हज़रत इस्माइल और दुसरे हज़रत इस्हाक़. इस्हाक़ से बनी इसराइल की नस्ल चली और इस्माइल की नस्ल में हज़रत मोहम्मद ने जन्म लिया।

     लेकिन हज़रत मोहम्मद के पूर्वजों में भी एक पूर्वज थे अब्दुल मनाफ़, जिनके यहाँ ऐसे जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए जो आपस में जुड़े हुए थे. इन दोनों में से केवल एक ही को बचाया जा सकता था। इसलिए यह फैसला किया गया कि तलवार से काट कर दोनों को अलग किया जाए लेकिन तलवार से अलग किये जाने के बाद दोनों ही बच्चे जीवित रहे. इनमें से एक का नाम हाशिम और दूसरे का नाम उमय्या रखा गया। इसी लिए इन दोनों बच्चों की नस्लों को बनी हाशिम और बनी उमय्या कहा जाने लगा। बनी हाशिम को मक्का के सब से पवित्र धर्म स्थल क़ाबा की देख भाल और धार्मिक कार्य अंजाम देने की ज़िम्मेदारी सोंपी गई थी।

     पैग़म्बर मोहम्मद के दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अरब सरदारों में बहुत अहम समझे जाते थे, उन्हें सय्यदुल बतहा कहा जाता था। पैग़म्बर साहब के वालिद(पिता) का नाम हज़रत अब्दुल्लाह और वालिदा(माता) का नाम हज़रत आमिना था।

     मोहम्मद साहब के पैदा होने से कुछ महीने पहले ही उनके वालिद का इंतिकाल हो गया और उनकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी दादा हज़रत मुत्तलिब को उठानी पड़ी. कुछ समय के बाद मोहम्मद साहब के दादा भी चल बसे और माँ का साया भी बचपन में ही उठ गया. अब इस यतीम बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी चाचा अबूतालिब ने उठाली और हज़रत हलीमा नाम की दाई के संरक्षण मे मोहम्मद साहब की परवरिश की।

     बचपन में मोहम्मद साहब भेड़-बकरी को रेवड़ चराने जंगलो में ले जाते थे और इस तरह उनका बचपन गुज़र गया. बड़े होने पर उन्हें अरब की एक धनी महिला हज़रत ख़दीजा के यहाँ नौकरी मिल गई और वह हज़रत ख़दीजा का व्यापार बढ़ाने मे लग गये।

     मोहम्मद साहब की ईमानदारी, लगन, निष्टा और मेहनत से हज़रत ख़दीजा का कारोबार रोज़-बरोज़ बढ़ने लगा. मोहम्मद साहब के आला किरदार से हज़रत ख़दीजा इतना प्रभावित हुईं कि उन्होनें एक सेविका के ज़रिए मोहम्मद साहब के पास शादी का पैग़ाम भिजवाया जिस को हज़रत मोहम्मद ने खुशी के साथ क़ुबूल लिया।

     इस बीच हज़रत मोहम्मद अरब जगत में अपनी सच्चाई, लगन, इंसानियत-नवाज़ी, बिना किसी पक्षपात वाले तौर तरीक़ो, अमानतदारी और श्रेष्ठ चरित्र के लिए मशहूर हो चुके थे।
     एक ओर हज़रत मोहम्मद आम लोगो, ग़रीबों, लाचारों ज़रूरत मंदो और ग़ुलामों की मदद करने काम खामोशी से अंजाम दे रहे थे, दूसरी तरफ अरब जगत ज़ुल्म, अत्याचार, क्रूरता, झूठ, बेईमानी के अँधेरे में डूबता जा रहा था। हज़रत मोहम्मद ने पैग़म्बर होने का ऐलान करने से पहले अरब समाज में अपनी सच्चाई का लोहा मनवा लिया था। सारे अरब में उनकी ईमानदारी और अमानतदारी मशहूर हो चुकी थी। लोग उनको सच्चा और अमानतदार कहने लगे थे।

     जब पेगंबर साहब 30 साल की उमर में पहुँचे तो उनके चाचा हज़रत अबूतालिब के घर में एक बच्चे का जन्म हुआ. पैग़म्बर साहब ने बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली। बाद में इसी बच्चे को दुनिया ने हज़रत अली के नाम से पहचाना. जब हज़रत अली 10 साल के हो गये तो लगभग चालीस साल की उमर में हज़रत मोहम्मद को अल्लाह की तरफ़ से पहली बार संदेश आया: “इक़्रा बिसमे रब्बीका” यानी पढ़ो अपने रब्ब के नाम के साथ। पैग़म्बर साहब यह सुन कर पानी-पानी हो गये और घर लौट कर सारा क़िस्सा अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा को बताया की किस तरह अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते ने उन्हें अल्लाह की खबर दी है. हज़रत ख़दीजा ने फ़ौरन ही यह बात मान ली कि हज़रत मोहम्मद अल्लाह द्वारा नियुक्त किये हुए पैग़म्बर हैं, फिर हज़रत अली ने भी फ़ौरन यह बात स्वीकार कर ली कि मोहम्मद साहब अल्लाह द्वारा भेजे हुए पैग़म्बर है।

     शुरू में पैग़म्बर साहब ने ख़ामोशी से अपना अभियान चलाया और कुछ ख़ास मित्रों तक ही बात सीमित रखी. इस तरह तीन साल का वक़्त गुज़र गया. तब अल्लाह की और से सन्देश आया कि अब इस्लाम का प्रचार खुले आम किया जाए. इस आदेश के बाद पैग़म्बर साहब मक्का नगर कि पवित्र पहाड़ी “कोहे सफ़ा” पर खड़े हुए और जमा लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर मैं तुम से कहूँ कि पहाड़ के पीछे से एक सेना आ रही है तो क्या तुम मेरा यक़ीन करोगे? सब ने कहा: “हाँ, क्योंकि हम तुमको सच्चा जानते हैं”, उसके बाद जब पैग़म्बर साहब ने कहा कि अगर तुम ईमान न लाये तो तुम पर सख्त अज़ाब (प्रकोप) नाज़िल होगा तो सब नाराज़ हो कर चले गए. इनमें अधिकतर उनके खानदान वाले ही थे। इस ख़ुतबे (प्रवचन) के कुछ समय बाद पैगंबर साहब ने एक दावत में अपने रिश्तेदारों को बुलाया और उनके सामने इस्लाम का संदेश रखा लेकिन हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा परिवार जन हज़रत मोहम्मद को अल्लाह का संदेशवाहक मानने को तैयार नहीं था। तीन बार ऐसी ही दावत हुई और हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति पैगंबर साहब की हिमायत के लिए खड़ा नहीं हुआ, हालाँकि पैगंबर साहब इस बात का न्योता भी दे रहे थे कि जो उनकी बात मानेगा वही उनका उत्तराधिकारी होगा।

     जिस समय मुसलमानो की तादाद चालीस हो गई तो पैगंबर साहब ने मक्का के पवित्र स्थल क़ाबा में पहुँच कर यह ऐलान कर दिया कि “अल्लाह के अलावा कोई इबादत के क़ाबिल नही है”। इस प्रकार की घोषणा से मक्का के लोग हक्का बक्का रह गए और उन्होनें चालीस मुसलमानों की छोटी सी टुकड़ी पर हमला कर दिया और एक मुस्लिम नवयुवक हारिस बिन अबी हाला को शहीद कर दिया. उसके बाद हज़रत यासिर को शहीद किया गया, खबाब बिन अलअरत को जलते अंगारों पर लिटा कर यातना दी गई. हज़रत बिलाल को जलती रेत पर लिटा कर अज़ीयत दी गई. सुहैब रूमी का सारा समान लूट कर उन्हें मक़्क़े से निकाल दिया गया. इस्लाम धर्म क़ुबूल करने वाली महिलाओं को भी परेशान किया जाने लगा। इनमें हज़रत यासिर की पत्नी सुमय्या, हज़रत उमर की बहन फातेमा, ज़ुनैयरा, नहदिया और उम्मे अबीस जैसी महिलाएं शामिल थीं। इनमे से कुछ को क़त्ल भी कर दिया गया। अल्लाह के आदेश पर अपने को पैगंबर घोषित करने के पाँचवे साल पैग़म्बर साहब को अपने अनेक साथियों को मक्का छोड़ कर हब्श(अफ्रीका) की और जाने के लिए कहना पड़ा और 16 मुसलमान हबश चले गये. कुछ समय बाद 108 लोगो पर आधारित मुसलमानों का एक और दल हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के नेतृत्व में मक्का छोड़ कर चला गया।


     मुसलमानों के पलायन से मक्के के काफ़िरों का होसला बढ़ गया. ख़ास तौर पर अबू जहल नामक सरदार पैग़म्बर साहब को प्रताड़ित करने लगा. यह देख कर मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। उनके शामिल होने से मुसलमानों को बहुत हौसला मिला क्योंकि हज़रत हम्ज़ा बहुत मशहूर योद्धा थे. फिर भी मक्के वालो ने पैग़म्बर साहब का जीना दूभर किये रखा. बड़े तो बड़े, छोटे छोटे बच्चो को भी पैग़म्बर साहब पर पत्थर फेंकने पर लगा दिया गया। औरते छतों से कूड़ा फेंकने पर लगाईं गई. इस दुश्वार घडी में पत्थर मारने वाले बच्चों को खदेड़ने का काम कम आयु के हज़रत अली ने अंजाम दिया, कूड़ा फैंकने वाली औरत के बीमार पड़ने पर उसकी खैरियत पूछने की ज़िम्मेदारी स्वंय पैग़म्बर साहब ने और मक्का के बड़े बड़े सरदारों की साजिशों से हज़रत मोहम्मद को सुरक्षित रखने का काम हज़रत अली के पिता हज़रत अबू तालिब ने अपने सर ले रखा था. जब हज़रत मोहम्मद का एकेश्वरवाद का सन्देश तेजी से फैलने लगा तो दमनकारी शक्तियाँ और हिंसक होने लगीं और पैग़म्बर साहब के विरोधी खिन्न हो कर उनके चाचा हज़रत अबू तालिब के पास पहुंचे और कहा कि या तो वे हज़रत मोहम्मद को अपने धर्म के प्रचार से रोके या फिर हज़रत मोहम्मद को संरक्षण देना बंद कर दें. हज़रत अबू तालिब ने मोहम्मद साहब को समझाने की कोशिश की लेकिन जब मोहम्मद (स) ने उनसे साफ़ साफ़ कह दिया कि “अगर मेरे एक हाथ में चाँद और दूसरे हाथ में सूरज भी रख दिया जाए तो भी में अल्लाह के सन्देश को फैलाने से बाज़ नहीं आ सकता। खुदा इस काम को पूरा करेगा या मैं खुद इस पर निसार हो जाऊँगा.

लोगों का मानना है कि इसी समय हज़रत अबू तालिब ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन मक्के के हालात देखते हुए उन्होंने इसकी घोषणा करना मुनासिब नहीं समझा. जब यह चाल भी नाकाम हो गई तो मक्के के सरदारों ने एक और चाल चली. उन्होंने अकबा बिन राबिया नाम के एक व्यक्ति को पैग़म्बर साहब के पास भेजा और कहलवाया कि “ऐ मोहम्मद! आखिर तुम चाहते क्या हो? मक्के की सल्तनत? किसी बड़े घराने में शादी? धन, दौलत का खज़ाना? यह सब तुम को मिल सकता है और बात पर भी राज़ी हैं कि सारा मक्का तुम्हे अपना शासक मान ले, बस शर्त इतनी है कि तुम हमारे धर्म मैं हस्तक्षेप न करो”. इसके जवाब में हज़रत मोहम्मद ने कुरआन शरीफ कि कुछ आयते (वचन) सुना दीं. इन आयातों का अकबा पर इतना प्रभाव हुआ कि उन्होंने मक्के वालों से जाकर कहा कि मोहम्मद जो कुछ कहते हैं वे शायरी नहीं है कुछ और चीज़ है। मेरे ख़याल में तुम लोग मोहम्मद को उनके हाल पर छोड़ दो अगर वह कामयाब हो कर सारे अरब पर विजय हासिल करते हैं तो तुम लोगो को भी सम्मान मिलेगा अन्यथा अरब के लोग उनको खुद  ख़तम कर देंगे।
लेकिन मक्के वाले इस पर राज़ी नहीं हुए और हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध ज़्यादा कड़े कदम उठाये जाने लगे. (हज़रत मोहम्मद को परेशान करने वालो में अबू सुफ्यान, अबू जहल और अबू लहब सबसे आगे थे). हज़रत मोहम्मद और उनके साथियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. कष्ट की इस घड़ी में एक बार फिर हज़रत मोहम्मद के चाचा हज़रत अबू तालिब ने एक शिविर का प्रबंध किया और मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की।
इस सुरक्षा शिविर को शोएब-ए-अबू तालिब कहा जाता है. इस दौरान हज़रत अबू तालिब हज़रत मोहम्मद की सलामती को लेकर इतना चिंतित थे कि हर रात मोहम्मद साहब के सोने की जगह बदल देते थे और उनकी जगह अपने किसी बेटे को सुला देते थे. तीन साल की कड़ी परीक्षा के बाद मुसलमानों का बायकाट खत्म हुए। लेकिन मुसलमानों को ज़ुल्म और सितम से छुटकारा नहीं मिला और मक्का वासियों ने मुसलामानों पर तरह तरह के ज़ुल्म जारी रखे।

हज़रत अबू तालिब के देहांत के बाद अत्याचार और बढ़ गए (इसी साल पैग़म्बर साहब की चहीती पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी देहांत हो गया) और मोहम्मद साहब की जान के लिये खतरा पैदा हो गया।
मक्के की मुस्लिम दुश्मन शक्तियां मोहम्मद साहब को क़त्ल करने की साजिशें करने लगीं, लेकिन दस वर्ष के समय में पैग़म्बर साहब का फैलाया हुआ दीन मक्के की सरहदें पार कर के मदीने के पावन नगर में फ़ैल चुका था इसलिए मदीने के लोगो ने पैग़म्बर साहब को मदीने में बुलाया और उनको भरोसा दिया की वे मदीने में पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे।
एक रात मक्के के लगभग सभी क़बीले के लोगो ने पैग़म्बर साहब को जान से मार देने की साज़िश रच ली लेकिन इस साज़िश की खबर मोहम्मद साहब को पहले से लग गई और वेह अपने चचेरे भाई हज़रत अली से सलाह मशविरा करने के बाद मदीने के लिए प्रस्थान करने को तैयार हो गए।
लेकिन दुश्मनों ने उनके घर को चारो तरफ से घेर रखा था. इस माहोल में हज़रत अली मोहम्मद साहब के बिस्तर पर उन्ही की चादर ओढ़ कर सो गए और मोहम्मद साहब अपने एक साथी हज़रत अबू बक्र के साथ रात के अँधेरे में ख़ामोशी से मक्का छोड़ कर मदीने के लिए चले गये. जब इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के घर पर हमला किया और उनके बिस्तर पर हज़रत अली को सोता पाया तो खीज उठे।
उन लोगों ने पैग़म्बर साहब का पीछा करने की कोशिश की और उन तक लगभग पहुँच भी गए लेकिन जिस गार(गुफा) में हज़रत मोहम्मद छुपे थे उस गुफा के बाहर मकड़ी ने जाला बुन दिया और कबूतर ने घोंसला लगा दिया जिससे कि पीछा करने वाले दुश्मन गुमराह हो गए और पैग़म्बर साहब की जान बच गई. कुछ समय बाद हज़रत अली भी पैग़म्बर साहब से आ मिले।
इस तरह इस्लाम के लिए एक सुनहरे युग की शुरुआत हो गई. मदीने में ही पैग़म्बर साहब ने अपने साथियो के साथ मिल कर पहली मस्जिद बनाई. यह मस्जिद कच्ची मिट्टी से पत्थर जोड़ कर बनाई गई थी और इस पर सोने चांदी की मीनार और गुम्बद नहीं थे बल्की खजूर के पत्तों की छत पड़ी हुई थी।

मक्का छोड़ने के बाद भी इस्लाम के दुश्मनों ने मोहम्मद साहब के खिलाफ़ साजिशें जारी रखीं और उन पर लगातार हमले होते रहे. मोहम्मद साहब के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी. मदीने में आने के बाद जो पहली जंग हुई उसमे पैग़म्बर साहब के पास केवल तीन सो तेरह आदमी थे, तीन घोड़े, सत्तर ऊँट, आठ तलवारें, और छेह ज़िर्हे (ढालें) थी. इस छोटी सी इस्लामी फ़ौज का नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था, जो हज़रत अली के लिए पहला तजुर्बा था. लेकिन जिन लोगों को अल्लाह ने प्रशिक्षण दे कर दुनिया में उतारा हो, उन्हें तजुर्बे की क्या ज़रुरत? इतनी छोटी सी तादाद में होने के बावजूद मुसलमानों ने एक भरपूर लश्कर से टक्कर ली और अल्लाह पर अपने अटूट विश्वास का सबूत देते हुए मक्के वालों को करारी मात दी. इस जंग में काफ़िरो को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. जंगे-बद्र के नाम से मशहूर इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचाज़ाद भाई हज़रत अली और मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए और मक्के के फ़ौजी सरदार अबू सुफ्यान को काफ़ी ज़िल्लत(बदनामी) उठानी पड़ी. उसके साथ आने वाले बड़े बड़े काफिर सरदार और योद्धा मारे गए।

मोहम्मद साहब न तो किसी की सरकार छीनना चाहते थे न उन्हें देश और ज़मीन की ज़रुरत थी, वे तो सिर्फ इस धरती पर अल्लाह का सन्देश फैलाना चाहते थे. मगर उन पर लगातार हमले होते रहे जबकि खुद मोहम्मद साहब ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही इस्लामी सेना ने किसी देश पर चढाई की. इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बर साहब और उनके साथियों पर कुल मिला कर छोटे बड़े लगभग छियासी युद्ध थोपे गये और यह सारी लड़ाईयाँ मदीने के आस पास लड़ी गई. केवल जंगे-मौता के मौके पर इस्लामी फ़ौज मदीने से आगे बढ़ी क्योंकि रोम के बादशाह ने मुसलमानों के दूत को धोके से मार दिया था।
मगर इस जंग में मुसलमानों की तादाद केवल तीन हज़ार थी और रोमन लश्कर(सेना) में एक लाख सैनिक् थे इसलिए इस जंग में मुसलमानों को कामयाबी नहीं मिली. इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई हज़रत जाफर बिन अबू तालिब और कई वीर मुसलमान सरदार शहीद हुए. यहाँ पर यह कहना सही होगा कि मोहम्मद साहब ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया, न ही इस्लामी शासन का विस्तार करने के लिए उन्होंने किसी मुल्क पर चढ़ाई की बल्कि उन को ही काफ़िरो(नास्तिको) ने हर तरह से परशान किया. जंगे-अहज़ाब के मौके पर तो काफ़िरो ने यहूदियों और दूसरी इस्लाम दुश्मन ताकतों को भी मिला कर मुसलमानों पर चढ़ाई की, लेकिन इस के बाद भी वे मुसलमानों को मात नहीं दे सके।


जंगे-उहद के मौके पर तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) को अभूतपूर्व क़ुरबानी देनी पड़ी. इस जंग में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के वीर चाचा हज़रत हम्ज़ा शहीद हो गए, उनकी शहादत के बाद पैग़म्बर अकरम (स)  के सब से बड़े दुश्मन अबू सुफ्यान की पत्नी हिंदाह ने अपने ग़ुलाम की मदद से हज़रत हम्ज़ा का सीना काट कर उनका कलेजा निकाल कर उसे चबाया और उनके कान नाक काट कर अपने गले मैं हार की तरह पहना। इस के उलट हज़रत मोहम्मद (स) ने जंग में मारे गए दुसरे पक्ष के मृत सैनिको की लाशों को अपमान करने की मनाही की।

इसके बाद भी लगातार मुसलमानों को हर तरह से परेशान किया जाता रहा मगर काफ़िरो को सफलता नहीं मिली। इस्लाम का नूर(रौशनी) दूर दूर तक फैलने लगा। खुले आम थोपी जाने वाली जंगो के साथ साथ पैग़म्बरे इस्लाम (स) को चोरी छुपे मारने की कोशिशे भी होतीं रहीं। एक बार बिन हारिस नाम के एक काफिर ने मोहम्मद साहब को एक पेड़ के नीचे अकेला सोते हुए देख कर तलवार से हमला करना चाह और पैग़म्बर (स) को आवाज़ दे कर कहा कि “ऐ मोहम्मद इस वक़्त तुम को कोन बचा सकता है?” हज़रत ने इत्मीनान(आराम से/बिना किसी डर के) से जवाब दिया “मेरा अल्लाह”। यह सुन कर बिन हारिस के हाथ काँपने लगे और तलवार हाथ से छूट गई।
हज़रत ने तलवार उठा ली और पूछा: “अब तुझे कौन बचा सकता है?”। वह बोला, “आप का रहम-ओ-करम”। हज़रत ने जवाब दिया ” तुझ को भी अल्लाह ही बचाएगा”। यह सुन कर बिन हारिस ने अपने सर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पैरों पर रख दिया और मुसलमान हो गया।

मदीने में एक तरफ तो पैग़म्बर (स) पर काफ़िरो के हमले हो रहे थे तो दूसरी तरफ़ हज़रत का परिवार फल फूल रहा था. उन की इकलोती बेटी हज़रत फ़ातिमा की शादी हज़रत अली (अ) से होने के बाद हज़रत मोहम्मद (स) के घर में दो चाँद हज़रत हसन और हज़रत हुसैन (अ) के रूप में चमकने लगे थे। जिन्हें हज़रत मोहम्मद (अ) अपने बेटों से भी ज्यादा अज़ीज़ रखते थे, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बेटे हज़रत क़ासिम बचपन में ही अल्लाह को प्यारे हो गए थे इसलिए भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने नवासो से बहोत प्यार करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की दो नवासियाँ भी थी जिनको इस्लामी इतिहास में हज़रत जैनब और हज़रत उम्मे कुलसूम कहा जाता है।

मदीने में रह कर इस्लाम के प्रचार प्रसार में लगे हज़रत मोहम्मद को किसी भी तरह हरा देने की साज़िशे रचने वाले काफ़िरो ने कई बार यहूदी और अन्य वर्गों के साथ मिल कर भी मदीने पर चढाई की मगर हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी और उनके बड़े बड़े वीर योद्धा हज़रत अली के हाथों मारे गए. इन लडाइयों में जंगे-खैबर और जंगे-ख़न्दक का बहोत महत्त्व है। इस्लाम की हिफाज़त करने मैं हज़रत अली ने जिस बहादुरी और हिम्मत का सुबूत दिया, उससे इस्लाम का सर तो ऊँचा हुआ ही खुद हज़रत अली भी इस्लामी जगत मैं वीरता और बहादुरी के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने लगे और आज तक बहादुर और वीर लोग “या अली” कहकर मैदान में उतारते हैं. आम लोग संकट की घड़ी में “या अली” या “या अली मदद” कहकर उनको मदद के लिए आवाज़ देते हैं।

हज़रत अली (अ)ने इस्लाम की सुरक्षा और विस्तार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने बड़ी बड़ी जंगो मैं हिस्सा लिया और इस्लामी सेना को विजय दिलाई लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है की उनके हाथों कोई बेगुनाह नहीं मारा गया और न ही उन्होंने किसी निहत्थे पर वार किया। जो भी उनसे लड़ने आया उसको उन्होंने यही मशविरा(सलाह/राय) दिया की अगर वह चाहे तो जान बचाकर जा सकता है और जान बचा कर भाग लेने में कोई शर्त भी नहीं थी।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) और मुसलमानों पर लगातार हमलों के बावजूद इस्लाम रोज़ बरोज़ फैलता जा रहा था आखिर थक आर कर मक्के के अनेक क़बीलो ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथ समझोता कर लिया। यह समझोता “सुलह-ए-हुदेबिया” के नाम से मशहूर है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के शांति प्रिय होने का सबसे बड़ा सुबूत इस संधि के मौके पर देखने को मिला जब उन्होंने काफ़िरो के ज़ोर देने पर सहमती पत्र पर से अपने नाम के आगे से रसूल अल्लाह(अल्लाह के रसूल) काट दिया और केवल मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिखा रहने दिया हालांकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहयोगी इस पर राज़ी नहीं थे की पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नाम के आगे से रसूल अल्लाह लफ्ज़ काटा जाए।
कुछ दिन बाद इस संधि को तोड़ते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहयोगी क़बीले बनी खिज़ाअ के एक व्यक्ति को काफ़िरो के एक क़बीले बनी बकर ने मक्का नगर की सबसे सबसे पाक पवित्र जगह क़ाबा के आँगन में ही मार डाला तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने दस हज़ार मुसलमानों को लेकर मक्के की तरफ़ प्रस्थान किया। मक्के की सीमा पर पहुँचने से पहले ही इस्लाम का कट्टर और सबसे बड़ा दुश्मन अबू सूफ़ियान मुसलमानों की जासूसी करने के लिए आया लेकिन घिर गया। लेकिन मुसलमानों ने उसे मारा नहीं और बल्कि पनाह दे दी। पैग़म्बर के चाचा हज़रत अब्बास ने सुफियान को मशविरा दिया की वह इस्लाम स्वीकार कर ले। अबू सुफियान ने मजबूरी मैं इस्लाम कुबूल कर लिया और मक्के वालों की और से किसी तरह के प्रतिरोध के बिना मुसलमान लगभग आठ साल के अप्रवास के बाद मक्के में दाखिल हुए।
इस विजय की ख़ुशी में मुसलमानों का ध्वज उठा कर चल रहे सेनापति सअद बिन अबादा ने जोश में आकर यह ऐलान कर दिया कि आज बदले का दिन है और आज हर तरह का इंतिकाम जायज़ है। इस घोषणा से पैग़म्बरे इस्लाम (स) इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने अलम(झंडे) को सअद से लेकर हज़रत अली को सोंप दिया और दुनिया को बता दिया की इस्लाम जोश नहीं होश की मांग करता है. इस जीत के मौके पर बदला या इंतिकाम लेने कि जगह पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने सभी मक्का वासियों को माफ़ कर दिया. पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हिन्दा(अबू सूफ़ियान की पत्नी) नाम की उस औरत को भी माफ़ कर दिया जिसने मोहम्मद साहब के प्यारे चाचा हज़रत हम्ज़ा का कलेजा चबाने का जघन्य अपराध किया था।
लगभग अठारह दिन मक्के में रहने के बाद मुसलमान जब वापस मदीने लौट रहे थे तो ताएफ़ नामक स्थान पर काफिरों ने उन्हें घेर लिया. पहले तो मुसलमानों में अफ़रातफरी फैल गई। लेकिन बाद में मुसलमानों ने जम कर मुकाबला किया और काफ़िरो को करारी मात दी। इस जंग को जंग-ए-हुनैन कहा जाता है।

जंगे-ए-मौता में मुसलमानों को मात देने वाली रोम की सेना के हौंसले एक बार फिर बढ़ गए थे. रोम के हरकुलिस(Harqulis) बादशाह ने इस्लाम को मिटा देने के इरादे से फिर एक बार फौजें जमा कर लीं और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी सारे मुसलमानों से कह दिया की वह जान की बाज़ी लगाने को तैयार रहे। तबूक नामक स्थान पर इस्लामी सेनायें रोमियों का मुकाबला करने पहुँचीं. मगर रोम वाले मुसलामानों की ताक़त का अंदाज़ा लगा चुके थे इस लिए यह युद्ध टल गया। इस के बाद मुसलमानों के बीच घुस कर कुछ दुश्मनों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ऊंट को घाटी में गिरा कर मार डालने की साज़िश रची लेकिन अल्लाह ने उनको बचा लिया।

मक्का की विजय के लगभग एक साल बाद नज़रान नामक जगह के ईसाई मोहम्मद साहब से वाद विवाद के लिए आये और हज़रत ईसा मसीह को खुदा का बेटा साबित करने की कोशिश करने लगे तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनको बताया की इस्लाम धर्म, ईसा मसीह को अल्लाह का पवित्र पैग़म्बर मानता है, ईश्वर का बेटा नहीं. क्योंकि अल्लाह हर तरह के रिश्ते से परे है.
मगर मुसलमान हज़रत ईसा के चमत्कारिक जन्म पर यक़ीन रखते हैं और यह भी मानते हैं कि उनका कोई पिता नहीं था. जब ईसाइयों ने कहा की बिना बाप के कोई बच्चा कैसे जन्म ले सकता है तो हज़रत मोहम्मद ने कहा कि “वही अल्लाह जिसने हज़रत आदम(Adam) को बग़ैर माँ-बाप के पैदा किया, ईसा मसीह को बग़ैर पिता के क्यों पैदा नहीं कर सकता?” मगर ईसाईयों ने हट नहीं छोड़ी. इस पर हज़रत मोहम्मद ने क़ुरान में अल्लाह द्वारा कही गई आयत को आधार मानते हुए ईसाईयों को यह आयत सुना दी जिसमें अल्लाह ने कहा है कि “अगर यह लोग तुम से उलझते रहें, ऐसी विश्वस्निये दलीलों के बाद भी जो पेश हो चुकी हैं तो कह दो कि हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को बुलाओ और हम अपनी औरतों को बुलाएँ तुम अपनी औरतों को बुलाओ, हम अपने सबसे क़रीबी साथियों को बुलाएँ तुम अपने साथियों को बुलाओ फिर खुदा की तरफ(क़ाबे के तरफ़) रुख करें, और अल्लाह की लानत(अभिशाप/बद-दुआ) करार दें उन झूटों पर”. ईसाई इस पर राज़ी हो गए. यह वाद विवाद “मुबाहिला” के नाम से मशहूर है।

दूसरे दिन हज़रत मोहम्मद अपने छोटे छोटे नवासों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन, बेटी हज़रत फातिमा और दामाद हज़रत अली के साथ मैदान-ए-मुबाहिला मैं पहुँच गए. इन्हीं पवित्र लोगों को मुसलमान पंजतन कहते हैं. पाँच नूरानी व्यक्तित्व देख कर ईसाई घबरा गए और मुबाहिले के लिए तैयार हो गए. इस संधि के तहत ईसाई हर साल पैग़म्बरे इस्लाम (स) को एक निश्चित रक़म टेक्स के रूप मैं देने पर राज़ी हो गए जिसके बदले मैं पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने वायदा किया कि वे ईसाइयों को उनके घर्म पर ही रहने देंगे।

इस्लाम के खिलाफ चलने वाले सारे अभियानों को नाकाम करने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हज़रत अली हो यमन देश मैं इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा. वहाँ जाकर हज़रत अली ने इस तरह प्रचार किया कि हमदान का पूरा क़बीला मुसलमान हो गया।

इसी साल हज़रत मोहम्मद अपनी अंतिम हज यात्रा पर गए. हज़रत अली भी यमन से सीधे मक्का पहुँच गए जहाँ से वो लोग हज करने के लिए मैदाने अराफ़ात, मुज्द्लिफ़ा और मीना गए और फिर हज के अंतिम चरण में मक्का पहुँचे।

हज से वापस लौटते समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ग़दीर-ए- ख़ुम नाम के स्थान पर क़ाफिले को रोक कर इस बात का ऐलान किया कि अल्लाह का दीन अब मुक़म्मल हो गया है और आज से सब लोग बराबर हैं. अब किसी को किसी पर कोई बरतरी प्राप्त नहीं हैं. अब न तो कोई क़बीले की बुनियाद पर ऊँचा है, न किसी को रंग और नसल के आधार पर कोई बुलंद दर्जा हासिल हैं। आज से श्रेष्ठता और बड़ाई का कोई मेअयार (मापदंड) अगर है तो बस यह है कि कौन चरित्रवान है और किस के दिल मैं अल्लाह का कितना खौफ़ है. इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ऐलान किया कि “जिस जिस का मैं मौला (नेता/स्वामी) हूँ, यह अली भी उसके मौला हैं”।

इसके लगभग दो महीने बाद 29 मई 632 में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का मदीने मैं ही निधन हो गया. पैग़म्बरे इस्लाम (स) के दोस्त और अनेक वरिष्ठ साथी उनके निघन के समय मौजूद नहीं थे क्योंकि वे लोग सकीफ़ा नामक उस जगह पर उस मीटिंग में हिस्सा ले रहे थे जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकारी चुनने के लिए वाद विवाद चल रहा था। पैग़म्बरे इस्लाम (स) को हज़रत अली ने केवल परिवार वालों कि मौजूदगी मैं दफ़न किया।

इस बीच मुसलमानों के उस गिरोह ने जो कि सकीफ़ा मैं जमा हुआ था, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एक वरिष्ट मित्र हज़रत अबू बकर को मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

इस घटना के बाद मुसलमानों मैं उत्तराधिकार के मामले को लेकर कलह पैदा हो गई. क्योंकि मुसलामानों के एक वर्ग का कहना था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ग़दीर-ए-खुम मैं हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं परन्तु दुसरे वर्ग का कहना था कि मौला का मतलब दोस्त भी होता है. इस लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) की घोषणा उत्तराधिकारी के मामले मैं लागू नहीं होती।

जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मित्र और साथी वापस आये तो मोहम्मद साहब को दफ़न किया जा चुका था. शिया मुसलामानों की धार्मिक पुस्तकों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद उनके परिवार जनों को काफ़ी प्रताड़ित किया गया। हज़रत अली के घर के दरवाज़े मैं आग लगाई गई. दरवाज़ा गिरने से पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पवित्र बेटी हज़रत फ़ातिमा की कोख में पल रहे हज़रत मोहसिन का निधन हो गया।

मगर इस्लाम मैं वीरता और साहस के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने वाले हज़रत अली, सहनशीलता और सब्र का प्रतीक बनकर हर दुःख को चुपचाप सह गए क्योंकि उस समय अगर हज़रत अली कि तलवार उठ जाती तो हज़रत अली दुश्मनों को तो ख़त्म कर देते, लेकिन उससे इस्लाम को भी नुक्सान पहुँचता क्योंकि उस समय हज़रत मोहम्मद द्वारा फैलाया हुआ इस्लाम शुरूआती दौर में था और मुसलामानों की तादाद आज की तरह करोड़ों-अरबों में न होकर केवल हज़ारों में थी। हज़रत अली सत्ता तो प्राप्त कर लेते लेकिन इस्लाम का कहीं नामों-निशान न होता, जोकि इस्लाम के दुश्मन चाहते थे। इसका सबूत यह है कि जब इस्लाम का घोर दुश्मन रह चुका अबू सुफियान हज़रत अली के पास आया और बोला कि अगर अली अपने हक के लिए लड़ना चाहते हैं तो वह मक्के की गलियों को हथियार बंद सिपाहियों और खुड़सवारों से भर सकता है. इस पर हज़रत अली ने जवाब दिया कि “ए अबू सुफियान, तू कब से इस्लाम का हमदर्द हो गया?”।

हज़रत अली और उनके परिवार को आतंकित करने की इस घटना का हज़रत फ़ातिमा पर इतना असर हुआ कि वे केवल अठारह साल कि उम्र मैं ही इस दुनिया से कूच कर गईं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हज़रत फ़ातिमा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद केवल नौ दिन ही ज़िन्दा रहीं जबकि कुछ कहते हैं कि हज़रत फ़ातिमा बहत्तर दिनों तक ज़िन्दा रहीं। इस तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार जनों को खुद मुसलामानों द्वारा सताए जाने की शुरुआत हो गई।

अजीब बात यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जीवन मैं उनके परिवार जन काफिरों के आतंकवाद का निशाना बनते रहे और मोहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद उन्हें ऐसे लोगों ने ज़ुल्मों सितम का निशाना बनाया जो खुद को मुसलमान कहते थे. हज़रत फातिमा को फिदक़ नामक बाग़ उनके पिता ने तोहफे के रूप में दिया था. इस बाग़ का हज़रत अबू बकर की सरकार ने क़ब्ज़ा कर लिया था. इस बात से भी हज़रत फ़ातिमा बहुत दुखी रहीं क्योंकि वह अपने पिता के दिए हुए तोहफे से बहुत प्यार करती थीं।
हज़रत फ़ातिमा के निधन के लगभग 6 महीने बाद तक हज़रत अली और हज़रत अबू बकर के बीच सम्बन्ध बिगड़े रहे. इस बीच हज़रत अली पवित्र क़ुरान कि प्रतियों को इकठ्ठा करते रहे और खुद को केवल धार्मिक कामों में सीमित रखा।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए, एक वर्ग इमामत पर यकीन रखता था और दूसरा खिलाफत पर. इमामत पर यकीन रखने वाले दल का मानना था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के उत्तराधिकारी का फैसला केवल अल्लाह की तरफ से हो सकता है और हज़रत मोहम्मद अपने दामाद हज़रत अली को पहले ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे. जबकि दूसरे दल का मानना था कि केवल मदीने के पवित्र नगर में आबाद मुसलमान मिल कर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकारी चुन सकते हैं।

दो वर्ष बाद हज़रत अबू बक़र का निधन हो गया और मरते समय उन्होंने अपने दोस्त हज़रत उमर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया।

हज़रत उमर ने लगभग ग्यारह साल तक राज किया और एक जानलेवा हमले में घायल होने के बाद नए खलीफा का चयन करने के लिए छः सदस्यों की एक कमिटी बना दी. इस कमिटी के सामने खलीफा के पद के लिए दो नाम थे. एक हज़रत अली का और दूसरा हज़रत उस्मान का. इस कमिटी मैं एक व्यक्ति को वीटो पावर भी हासिल थी। समिति ने हज़रत अली से जब यह जानना चाहा कि वे अपने से पहले शासक रह चुके दो खलीफाओं की नीतियों पर चलेंगे? तो हज़रत अली ने कहा कि वे केवल पैग़म्बरे इस्लाम (स) और पवित्र कुरान का अनुसरण करने को बाध्य हैं। इस जवाब के बाद और वीटो पावर की बुनियाद पर हज़रत उस्मान को ख़लीफा बना दिया गया। हज़रत उस्मान के शासन काल में उनकी नीतियों से मुसलमानों में बहुत असंतोष फैल गया। ख़ास तौर पर उनके द्वारा नियुक्त किये गए एक अधिकारी मर-वान ने लोगों को बहुत सताया। मुस्लिम समुदाय मर-वान के ज़ुल्मो के खिलाफ दुहाई देने के लिए मदीने में जमा हुआ मगर उनको इंसाफ के बदले धोखा मिला, तत्पश्चात मुसलमानों में उग्रवाद फैल गया और एक क्रुद्ध भीड़ ने हज़रत उस्मान की हत्या कर दी. शासक द्वारा आम जनता का खून बहाना तो सदियों से एक मामूली सी बात है लेकिन किसी शासक की आम जनता द्वारा हत्या अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना थी. इसने सारे मुस्लिम जगत को हिला कर रख दिया और शासको तक यह पैग़ाम भी पहुँच गया की किसी भी मुस्लिम शासक को शासन के दौरान अपनी नीतियों को लागू करने का अधिकार नहीं है बल्कि केवल कुरान और सुन्नत(पैग़म्बरे इस्लाम (स) का आचरण) ही शासन की बुनियाद हो सकता है।

हज़रत अली और उनके विरोधी

हज़रत उस्मान की हत्या के बाद तीन दिन तक स्थिति बहुत ही ख़राब रही। मदीने में अफरातफरी का माहोल था, ऐसे में जनता की उम्मीद का केंद्र एक बार फिर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का घर हो गया. हजारों नर-नारी बनीहाशिम के मोहल्ले में उस पवित्र घर पर आशा की नज़रें टिकाये थे, जहाँ हज़रत अली (अ) रहते थे। इन लोगो ने फ़रियाद की कि दुःख की इस घडी में हज़रत अली (अ) खिलाफत का पद संभालें। इस बार न तो सकीफ़ा जैसी चुनावी प्रक्रिया अपनाई गई न ही किसी ने हज़रत अली (अ) को मनोनीत किया और न कोई ऐसी कमिटी बनी जिसमें किसी को वीटो पावर प्राप्त थी।
हज़रत अली (अ) ने जनता के आग्रह को स्वीकार किया और खिलाफत संभाल ली. लेकिन खलीफा के पद पर बैठते ही हज़रत अली (अ) के विरोधी सक्रिय हो गए. पहले तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की एक पत्नी हज़रत आयशा को यह कह कर भड़काया गया कि हज़रत उस्मान के क़ातिलों को हज़रत अली (अ) सजा नहीं दे रहे हैं और इस तरह के इलज़ाम भी लगाये गए की जैसे खुद हज़रत अली (अ) भी हज़रत उस्मान की हत्या में शामिल रहे हो। जब्कि हज़रत अली (अ) ने हज़रत उस्मान और उनके विरोधियों के बीच सुलह सफाई करवाने की पूरी कोशिश की और घेराव के दौरान उनके लिए खाना पानी अपने बेटों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन (अ) के हाथ लगातार भेजा. हज़रत आयशा जो पहले खलीफा हज़रत अबू बक़र की बेटी थीं, अनेक कारणों से हज़रत अली (अ) से नाराज़ रहती थीं. वह ख़िलाफ़त की गद्दी पर अपने पिता के पुराने मित्रों तल्हा और ज़ुबैर को देखना चाहती थीं।
जब लोगों ने क़त्ले उस्मान को लेकर उनके कान भरे तो उन्हें हज़रत अली (अ) से पुरानी दुश्मनी निकालने का मौका मिल गया. उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन पर हमला कर दिया और इस अभियान को क़त्ले-उस्मान का इंतिकाम लेने वाला जिहाद करार दिया। यहीं से जिहाद के नाम को बदनाम करने का सिलसिला शुरू हुआ। जब्कि हज़त उस्मान का क़त्ल मिस्र देश के दूसरे भागों से आये हुए असंतुष्ट लोगो के हाथो हुआ था. मगर हज़रत आयशा इस का इंतिकाम हज़रत अली (अ) से लेना चाहती थीं।

उन्होंने हमले के लिए इराक के बसरा नगर को चुना क्योंकि वहां पर हज़रत अली (अ) के शिया मित्र बड़ी संख्या में रहते थे। बसरा के गवर्नर उस्मान बिन हनीफ़ को हज़रत आयशा की सेना ने बहुत अपमानित किया। हनीफ, हज़रत आयशा की सेना का सही ढंग से मुकाबला नहीं कर सके क्योंकि हज़रत अली (अ) की इस्लामी सेनाएं उस वक़्त तक बसरा में पहुँच नहीं सकीं थीं।
हुनैन ने इस घटना की जानकारी जीकार के स्थान पर मौजूद हज़रत अली (अ) तक पहुंचाई। हज़रत अली (अ) ने विभिन्न लोगो से हज़रत आयशा तक यह सन्देश भिजवाया कि वह युद्ध से बाज़ आ जाए और अपने राजनितिक मकसद को पूरा करने के लिए मुसलामानों का खून न बहाएं मगर वो राज़ी नहीं हुई।

हिजरत के 36 वें वर्ष में इराक़ के बसरा नगर में हज़रत अली (अ) और हज़रत आयशा की सेनाओ के बीच युद्ध हुआ. इस जंग को जंग-ए-जमल भी कहते हैं क्योंकि इस युद्ध में हज़रत आयशा ने अपनी सेना का नेतृत्व ऊँट पर बेठ कर किया था और ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहा जाता है।

इस जंग का नतीजा भी वही हुआ जो इस से पहले की तमाम इस्लामी जंगो का हुआ था, जिसमें नेतृत्व हज़रत अली (अ) के हाथों में था। हज़रत आयशा की सेना को मात मिली। हज़रत आयशा जिस ऊँट पर सवार थीं जंग के दौरान उस से नीचे गिरी, हज़रत अली (अ) ने उनको किसी प्रकार की सज़ा देने के बदले उनको पूरे सम्मान के साथ उनके छोटे भाई मोहम्मद बिन अबू बक़र और चालीस महिला सिपाहियों के संरक्षण में मदीने वापस भेज दिया. इस तरह उन इस्लामी आदर्शों की हिफ़ाज़त की जिनके तहत महिलाओं के मान सम्मान का ख्याल रखना ज़रूरी है। हज़रत अली (अ) की तरफ से अच्छे बर्ताव का ऐसा असर हुआ कि हज़रत आयशा राजनीति से अलग हो गईं। इस युद्ध के बाद और इस्लामी शासन के लिए लगातार बढ़ रहे खतरे को देखते हुआ हज़रत अली (अ) ने इस्लामी सरकार की राजधानी मदीने से हटा कर इराक के कूफा नगर में स्थापित कर दी।

इस जंग के बाद कबीले वाद की पुश्तेनी दुश्मनी ने एक बार फिर सर उठाया और उमय्या वंश के एक सरदार अमीर मुआविया ने हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसका एक कारण यह भी था की पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद इस्लामी नेतृत्व दो हिस्सों में बँट गया था, एक को इमामत और दूसरे को ख़िलाफ़त कहा जाता था।
इमामों पर विशवास रखने वाले दल को यकीन था की इमाम व पैग़म्बर सिर्फ अल्लाह द्वारा चुने होते हैं। जबकि खिलाफत पर विश्वास रखने वाले दल का मानना था की पैग़म्बर अल्लाह की तरफ से नियुक्त होते हैं लेकिन उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार जनता को प्राप्त है या कोई ख़लीफ़ा मरते वक़्त किसी को मनोनीत कर सकता था अथवा कोई ख़लीफ़ा मरते समय एक चयन समिति बना सकता था. इन्हीं मतभेदों को लेकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद मुस्लिम समाज दो बागों में बंट गया।
खिलाफत पर यकीन रखने वाला दल संख्या में ज्यादा था और इमामत पर यकीन रखने वालों की संख्या कम थी। बाद में कम संख्या वाले वर्ग को शिया और अधिक संख्या वाले दल को सुन्नी कहा जाने लगा लेकिन जब हज़रत अली (अ) ख़लीफ़ा बने तो इमामत और खिलाफत सा संगम हो गया और मुसलमानों के बीच पड़ी दरार मिट गई। यही एकता इस्लाम के पुराने दुश्मनों को पसंद नहीं आई और उन्होंने मुसलामानों के बीच फसाद फैलाने की ग़रज़ से तरह तरह के विवाद को जन्म देना शुरू कर दिए और मुसलामानों का खून पानी की तरह बहने लगा।
अमीर मुआविया ने पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त के लिए दावेदारी पेश कर दी. मुआविया ने ताक़त और सैन्य बल के ज़रिये सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तहत सीरिया के प्रान्त इस्लामी राज्य से अलग करने की घोषणा कर दी। मुआविया को हज़रत उस्मान ने सीरिया का गवर्नर बनाया था। दोनों एक ही काबिले बनी उम्म्या से ताल्लुक अखते थे, फिर मुआविया ने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन पर धावा बोल दिया और इस को भी जिहाद का नाम दिया. जबकि यह इस्लामी शासन के खिलाफ खुली बगावत थी।

हिजरत के 39वे वर्ष में सिफ्फीन नामन स्थान पर इस्लामी सेनाओं और सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया के सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ. मुआविया की सेनाओ ने रणभूमि में पहले पहुँच कर पानी के कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया और हज़रत अली की सेना पर पानी बंद करके मानवता के आदर्शो पर पहला वार किया. हज़रत अली की सेनाओं ने जवाबी हमला करके कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस बार किसी पर पानी बंद नहीं हुआ और मुआविया की फ़ौज भी उसी कुएं से पानी लेती रही जिस पर अली वालों का क़ब्ज़ा था. इस युद्ध में जब हज़रत अली की सेना विजय के नज़दीक पहुँच गई और इस्लामी सेना के कमांडर हज़रत मालिक-ए-अश्तर ने दुश्मन फ़ौज के नेता मुआविया को लगभग घेर लिया तो बड़ी चालाकी से सीरिया की सेना ने पवित्र कुरान की आड़ ले ली और क़ुरान की प्रतियों को भालो पर उठा कर आपसी समझोते की बात करना शुरू कर दी. अंत में शांति वार्ता के ज़रिये से युद्ध समाप्त हो गया.

हज़रत अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशरी के साथ धोका किये जाने के साथ ही सुलह का यह प्रयास विफ़ल हो गया और एक बार फिर जंग के शोले भड़क उठे. अबू मूसा के साथ धोका होने की वजह से हज़रत अली की सेना के सिपाहियों द्वारा फिर से युद्ध शुरू करने के आग्रह और समझोता वार्ता से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हज़रत अली के सेना का एक टुकड़ा बाग़ी हो गया. इस बाग़ी सेना से हज़रत अली को नहर-वान नामक स्थान पर जंग करनी पड़ी. हज़रत अली से टकराने के कारण इस दल को इस्लामी इसिहास मैं खारजी(निष्कासित) की संज्ञा दी गई है.

हज़रत अली की सेना में फूट और मुआविया के साथ शांति वार्ता नाकाम होने के बाद सीरिया में मुआविया ने सामानांतर सरकार बना ली. इन लडाइयों के नतीजे मैं मुस्लिम समाज चार भागो में बंट गया. एक वर्ग हज़रत अली को हर तरह से हक़ पर समझता था. इस वर्ग को शिया आने अली कहा जाता है. यह वर्ग इमामत पर यकीन रखता है और हज़रत अली से पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देता है. दूसरा वर्ग मुआविया की हरकातो को उचित करत देता था. इस ग्रुप को मुआविया का मित्र कहा जाता है. यह वर्ग मुआविया और यजीद को इस्लामी ख़लीफ़ा मानता है. तीसरा वर्ग ऐसा है जो कि मुआविया और हज़रत अली दोनों को ही अपनी जगह पर सही क़रार देता है और दोनों के बीच हुई जंग को ग़लतफ़हमी का नतीजा मानता है, इस वर्ग को सुन्नी कहा जाता है(लेकिन इस वर्ग ने भी मुआविया को अपना खलीफा नहीं माना). चौथे ग्रुप की नज़र में………………….

हज़रत अली की सेनाओं को कमज़ोर पाकर मुआविया ने मिश्र में भी अपनी सेनाएं भेज कर वह के गवर्नर मोहम्मद बिन अबू बक़र(जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी हज़रत आयशा के छोटे भाई और पहले खलीफा अबू बक़र के बेटे थे) को गिरफ्तार कर लिया और बाद में उनको गधे की खाल में सिलवा कर ज़िन्दा जलवा दिया. इसी के साथ मुआविया ने हज़रत अली के शासन के तहत आने वाले गानों और देहातो में लोगो को आतंकित करना शुरू कर दिया. बेगुनाह शहरियों को केवल हज़रत अली से मोहब्बत करने के जुर्म में क़त्ल करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया. इस्लामी इतिहास की पुस्तक अल-नसायह अल काफ़िया में हज़रत अली के मित्रो को आतंकित करने की घटनाओं का बयान इन शब्दों में किया गया है: “अपने गुर्गों और सहयोगियों की मदद से मुआविया ने हज़रत अली के अनुयाइयों में सबसे अधिक शालीन और श्रेष्ट व्यक्तियों के सर कटवा कर उन्हें भालों पर चढ़ा कर अनेक शहरो में घुमवाया. “इस युग में ज़्यादातर लोगों को हज़रत अली के प्रति घृणा प्रकट करने के लिए मजबूर किया जाता अगर वो ऐसा करने के इनकार करते तो उनको क़त्ल कर दिया जाता.

हज़रात अली की शहादत

अपनी जनता को इस आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हज़रत अली ने फिर से इस्लामी सेना को संगठित करना शुरू किया. हज़रत इमाम हुसैन, क़ेस बिन सअद और अबू अय्यूब अंसारी को दस दस हज़ार सिपाहियों की कमान सोंपी गई और खुद हज़रत अली के अधीन 29 हज़ार सैनिक थे और जल्द ही वो मुआविया की सेना पर हमला करने वाले थे, लेकिन इस के पहले कि हज़रत अली मुआविया पर हमला करते, एक हत्यारे अब्दुल रहमान इब्ने मुल्ज़िम ने हिजरत के 40वें वर्ष में पवित्र रमज़ान की 18वी तारीख़ को हज़रत अली कि गर्दन पर ज़हर में बुझी तलवार से उस समय हमला कर दिया जब वो कूफ़ा नगर की मुख्य मस्जिद में सुबह की नमाज़ का नेतृत्व(इमामत) कर रहे थे और सजदे की अवस्था में थे. इस घातक हमले के तीसरे दिन यानी 21 रमज़ान (28 जनवरी 661 ई०) में हज़रत अली शहीद हो गए. इस दुनिया से जाते वक़्त उनके होटों पर यही वाक्य था कि “रब्बे क़ाबा(अल्लाह) कि कसम, में कामयाब हो गया”. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने कई लड़ाइयाँ जीतीं. बड़े-बड़े शूरवीर और बहादुर योद्धा उनके हाथ से मारे गए मगर उन्होंने कभी भी अपनी कामयाबी का दावा नहीं किया. हज़रत अली की नज़र में अल्लाह कि राह मैं शहीद हो जाना और एक मज़लूम की मौत पाना सब से बड़ी कामयाबी थी. लेकिन जंग के मैदान में उनको शहीद करना किसी भी सूरमा के लिए मुमकिन नहीं था. शायद इसी लिए वो अपनी इस क़ामयाबी का ऐलान कर के दुनिया को बताना चाहते थे कि उन्हें शहादत भी मिली और कोई सामने से वार करके उन्हें क़त्ल भी नहीं कर सका. वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो क़ाबा के पावन भवन के अन्दर पैदा हुए और मस्जिद में शहीद हुए।

हज़रत अली ने अपने शासनकाल में न तो किसी देश पर हमला किया न ही राज्य के विस्तार का सपना देखा. बल्कि अपनी जनता को सुख सुविधाएँ देने की कोशिश में ही अपनी सारी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी थी. वो एक शासक की तरह नहीं बल्कि एक सेवक की तरह ग़रीबों, विधवा औरतों और अनाथ बच्चों तक सहायता पहुँचाते थे. उनसे पहले न तो कोई ऐसा शासक हुआ जो अपनी पीठ पर अनाज की बोरियाँ लादकर लोगों तक पहुँचाता हो न उनके बाद किसी शासक ने खुद को जनता की खिदमत करने वाला समझा।

हज़रत अली के बाद उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन ने सत्ता संभाली, लेकिन अमीर मुआविया की और से उनको भी चैन से बेठने नहीं दिया गया. इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन को ख़लीफ़ा के पद से अपदस्थ करने में कामयाबी हासिल कर ली. हज़रत हसन ने सत्ता छोड़ने से पहले अमीर मुआविया के साथ एक समझौता किया।

26 जुलाई 661ई० को इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई जिसमें यह तय हुआ कि मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा. (2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा. (3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा.(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त(सत्ता) पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी।

समझोते का एहतराम करने के स्थान पर मुआविया की और से पवित्र पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के सदस्यों और हज़रत अली के चाहने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया. इसी नापाक अभियान की एक कड़ी के रूप में इमाम हसन को केवल 47 वर्ष की उम्र में एक महिला के ज़रिये ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया गया।

अमीर मुआविया ने इमाम हसन के साथ की गई संधि को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के बाद इस को रद्दी की टोकरी में डाल कर अपने परिवार का शासन स्थापित कर दिया. मुआविया को अपने खानदान का राज्य स्थापित करने में तो कामयाबी मिल गई लेकिन मुआविया का खलीफा बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. मुआविया ने लगभग 12 वर्ष राज किया और जिहाद के नाम पर दूसरे देशों पर हमला करने का काम शुरू करके जिहाद जैसे पवित्र काम को बदनाम करना शुरू किया. इस के अलावा मुआविया ने इस्लामी आदर्शों से खिलवाड़ करते हुए एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसकी मिसाल नहीं मिलती. इस नजिस पॉलिसी के तहत उस ने हज़रत अली और उनके परिवार जनों को गालियाँ देने के लिए मुल्ला किराए पर रखे. अमीर मुआविया ने अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती यह की कि अपने जीवन में ही अपने कपूत यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।


इन सब हरकतों का नतीजा यह हुआ की समस्त मुसलामानों ने ख़िलाफ़त के सिलसिले को समाप्त मान कर इमाम हसन के बाद खिलाफत-ए-राशिदा(सही रास्ते पर चलने वाले शासकों) के ख़त्म हो जाने का ऐलान कर दिया. इस तरह मुआविया को सत्ता तो मिल गई लेकिन मुसलामानों का भरोसा हासिल नहीं हो सका।

यजीद ही  सत्ता  अगले लेख में


इमाम हुसैन (अ:स) के खुतबे - मदीना से कर्बला तक

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