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कठिनाइयों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है यह मजलिसें ,नमाज़ और हज |

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हममें से हर व्यक्ति नाना प्रकार की समस्याओं में गस्त है। दूसरे शब्दों में हममें से कोई भी एसा नहीं है जो किसी न किसी समस्या में गिरफ्तार न हो बस अंतर केवल इतना है कि कोई किसी समस्या में गिरफ्तार है तो कोई किसी में। इंसान के जीवन में कठिनाइयां और समस्याएं एसी वास्तविकताएं हैं जिनसे भागना संभव नहीं है और हम चाहें या न चाहें हमें उनमें ग्रस्त होना ही है परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि हम किस प्रकार समस्याओं व कठिनाइयों का सामना करें और सही ढंग से इन समस्याओं का समाधान करें। आज के संसार में हर इंसान और विभिन्न धर्मों व पंथों के लोग बहुत सी समस्याओं का अलग अलग हल बताते हैं किन्तु इनमें से कोई भी विशेष प्रभावी नहीं रहे हैं जबकि धार्मिक शिक्षाएं इंसान को यह बताती हैं कि वह नाना प्रकार की समस्याओं से मुकाबले में प्रतिरोध की अपनी क्षमता को किस प्रकार अधिक कर सकता है। आज के कार्यक्रम में हम कुछ उन मार्गों की समीक्षा व चर्चा करेंगे कि समस्याओं के समाधान और उनके मुकाबले के लिए ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने क्या सुझाव दिये हैं।      


कठिनाइयों के मुकाबले में एक चीज़ जो इंसान की प्रतिरोधक क्षमता को अधिक करती है धार्मिक शिक्षाओं पर विश्वास है। स्पष्ट है कि महान व सर्वसमर्थ ईश्वर पर ईमान और भरोसा इंसान के अंदर प्रतिरोध की क्षमता को अधिक करता है। समस्त ईश्वरीय दूतों के निमंत्रण में पहली चीज़ महान ईश्वर पर ईमान था। ईश्वर पर ईमान रखने का एक चिन्ह यह है कि इंसान कठिनाइयों में महान ईश्वर पर भरोसा करे। जिस इंसान को इस बात का विश्वास हो कि समूचा ब्रह्मांड महान ईश्वर के नियंत्रण में है और वह हर कार्य करने में पूर्ण सक्षम है और वही उपासना के योग्य है तो वह कभी भी स्वयं को इस बात की अनुमति नहीं देगा कि वह ईश्वर को छोड़कर किसी और से सहायता मांगे बल्कि हमेशा वह अपने पालने और पैदा करने  वाले पर विश्वास व भरोसा करेगा और केवल उससे सहायता मांगेगा। उदाहरण स्वरूप अगर कोई इंसान बीमार है तो वह अपना उपचार कराने का प्रयास करता है परंतु उसका वास्तविक ईमान यह होता है कि महान ईश्वर ही उसे ठीक करेगा और जब वह किसी मुसीबत में फंसा होता है तो वह केवल अपने पालनहार से यह आशा करता है कि वह उसकी समस्या को दूर कर सकता है। महान ईश्वर सूरे आलेइमरान की 122वीं आयत में ईश्वर पर भरोसे को मोमिन व ईमानदार व्यक्तियों की विशेषता बताते हुए कहता है” केवल ईमानदार व्यक्ति ही ईश्वर पर भरोसा करते हैं”


स्पष्ट है कि महान ईश्वर पर भरोसा रखने वाले व्यक्तियों को उस पर भरोसा रखने के कारण शांति मिलती है और वे कठिनाइयों से नहीं डरते हैं।
एक दूसरी चीज़ जो कठिनाइयों के मुकाबले में इंसान की प्रतिरोधक क्षमता को अधिक करती है, धार्मिक कार्यक्रमों में उपस्थिति है। जैसे सामूहिक रूप से पढ़ी जाने वाली नमाजों में उस्थिति या हज करने के लिए जाना। यह वह चीज़ें हैं जिनका मनुष्य के जीवन में अत्यधिक प्रभाव है और ये चीज़ें दूसरे इंसानों के साथ सामाजिक संबंधों को मज़बूत करती हैं और मनुष्य के अंदर यह भावना उत्पन्न होती है कि वह कठिनाइयों के मुकाबले में अकेला नहीं है और दूसरे भी हैं जो समय पड़ने पर उसकी सहायता करेंगे। दूसरे मुसलमान भी कुरआन और इस्लाम के आदेशानुसार दूसरों की कठिनाइयों के समाधान में स्वयं को जिम्मेदार समझें और यथासंभव उनके समाधान के लिए प्रयास करें।  
मज़बूत पारिवारिक संबंध भी वह चीज़ है जिससे समस्याओं से मुकाबले में इंसान की प्रतिरोधक क्षमता अधिक हो सकती है। अगर इंसान का पारिवारिक संबंध मजबूत हो तो परिवार के सदस्य दूसरों की अपेक्षा एक दूसरे की समस्याओं को अधिक बेहतर ढंग से समझते और उनका समाधान कर सकते हैं। पारिवारिक संबंधों को मज़बूत करने का एक तरीक़ा यह है कि परिवार के लोग एक दूसरे से झूठ न बोलें एक दूसरे के साथ सच्चाई से पेश आयें। स्पष्ट है कि जब पारिवारिक संबंध मजबूत होगा तो परिवार के सदस्य एक दूसरे की समस्या सुनेंगे और उसके समाधान का प्रयास करेंगे।


कठिनाइयों का सही प्रबंधन और उनका नियंत्रण लोगों में आशा के समाप्त न होने का कारण बनता है। जब पारिवारिक संबंध मजबूत होते हैं तो कोई भी सदस्य व्यक्तिगत हित के बजाये पारिवारिक के हित के बारे में सोचता है। यही नहीं जब पारिवारिक संबंध मज़बूत होते हैं तो कठिनाई और ग़ैर कठिनाइ के समय परिवार के सदस्य एक दूसरे से विचार विमर्श करते हैं और मामले के समाधान का प्रयास करते हैं।
ईश्वरीय धर्म इस्लाम परिवार के सदस्यों से सिफारिश करता है कि वे एक दूसरे से प्रेम करें। क्योंकि परिवार से प्रेम ईश्वरीय उपहार है और परिवार के सदस्यों का एक दूसरे से प्रेम ईश्वरीय कृपा का कारण बनता है। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने एक अनुयाई को संदेश भेजा कि सचमुच हमारी जान, माल और हमारा परिवार ईश्वरीय उपहार है” यहां पर इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि महान ईश्वर ने जान, माल और संतान की जो नेअमत हमें दी गयी हैं वह सीमित समय के लिए है और कुछ समय के बाद वह हमसे वापस ले ली जायेंगी।


परिवार के सदस्यों का एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारी का एहसास वह चीज़ है जो नैतिक विशेषताओं व मूल्यों के मजबूत होने का कारण बनता है। स्पष्ट है कि जिस परिवार में नैतिक मूल्य मजबूत होंगे और समस्त लोग एक दूसरे के प्रति अपने दायित्वों का आभास करेंगे वे कठिनाई व समस्या के समय एक दूसरे की सहायत करेंगे और सुख-दुःख की घड़ी में एक दूसरे के साथ होते हैं। महान ईश्वर सूरे तहरीम की आयत नंबर ६ में कहता है हे ईमान लाने वालों स्वयं को और अपने परिजनों को उस आग से बचाओ जिसके ईंधन लोग और पत्थर हैं” एक व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम से पूछा कि  किस प्रकार अपने परिवार को नरक की आग से बचायें? आपने फरमाया अच्छा कार्य अंजाम दो और उसे अपने परिजनों को भी सिखाओ और ईश्वरीय आदेशों के अनुसार  उनकी प्रशिक्षा करो”


समस्याओं से मुकाबले के लिए एक चीज़ सिलहे रहम अर्थात ,
निकट परजनों व सगे संबंधियों के साथ अच्छा व्यवहार है। सिलये रहम लोगों के मध्य संबंधों को मजबूत करता है। इस प्रकार के परिवार समय पड़ने पर शीघ्र ही एक दूसरे की सहायता करके समस्या का समाधान करने का प्रयास करते हैं। सिलये रहम के बारे में यही बस है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने इसके लिए समस्त मुसलमानों से सिलये रहम की सिफारिश की है और चाहे लोगों को इस दिशा में काफी समस्या का भी सामना क्यों न हो और एक दूसरे का रास्ता एक दूसरे के घर से बहुत दूर ही क्यों न हो। पैगम्बरे इस्लाम ने फरमाया है” अपने उपस्थित व अनुपस्थित अनुयाइयों से यहां तक प्रलय तक के लोगों से सिफारिश करता हूं कि वे सिलये रहम करें। यद्यपि एक दूसरे की ओर रास्ते की दूरी एक वर्ष ही क्यों न हो क्योंकि सिलये रहम धर्म की सिफारिश है”
सिलये रहम का एक फायदा उम्र का अधिक होना, व्यवहार का अच्छा होना, आत्मा की शुद्धि, द्वेष का समाप्त हो जाना, मुसीबतों का खत्म हो जाना और पूंजी का अधिक हो जाना है।


अगर हम यह चाहते हैं कि व्यक्तिगत और सामाजिक मुसीबतों से दूर रहें तो बेहरीन मार्ग सिलये रहम है। हजरत इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फरमाते हैं सिलये रहम कार्यों को शुद्ध करता है धन को बहुत अधिक करता है मुसीबतों को दूर करता है कर्मों के हिसाब को सरल कर देता है और मौत को पीछे कर देता है”
जब निकट संबंधी और परिवार के लोग एक दूसरे को देखने के लिए जायें और निकट से एक दूसरे को देंखे और उनके मध्य संबंध स्थापित रहे तो उनके मध्य प्रेम और निष्ठा अधिक होगी और जब किसी एक के लिए कोई समस्या पेश आ जायेगी तो दूसरे उनकी सहायता के लिए जायेंगे।


एक दूसरे को उपहार देने से भी एक दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ता है और यह वह कार्य है जो विभिन्न अवसरों पर होता है और इससे उपहार देने और लेने वालों के मध्य संबंध मजबूत होता है। पैगम्बरे इस्लाम फरमाते हैं” एक दूसरे को उपहार दो क्योंकि उपहार मनमोटाव को दूर कर देता है और द्वेष और शत्रुता को समाप्त कर देता है”
स्पष्ट है कि कठिनाइ के समय लोगों को एक दूसरे की अधिक आवश्यकता होती है और उनके मध्य मज़बूत संबंध इस बात का कारण बनता है कि कठिन घड़ी में वे एक दूसरे के साथ रहते हैं।    


मेहर क्या है? और ये कब तय किया और कब दिया जाता है?

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मेहर वो रक़म है जो किसी लड़की का  होने वाला शौहर लड़की तो तोहफे के तौर पे दिया करता है लेकिन यह रक़म लड़की तय किया करती है | इस मेहर को न तो वापस लिया जा सकता है और ना ही माफ़ करने के लिए लड़की पे दबाव डाला जा सकता है | इस रक़म के निकाह के पहले अदा किया जाना चाहिए या फिर लड़की जैसी शर्त रखे उसके अनुसार अदा किया जाना चाहिए |

लड़की अगर यह रक़म बाद में लेने के लिए तैयार अपनी मर्ज़ी से है तो ठीक वरना इस रकम को अदा किये बिना आप उसके साथ शौहर बीवी की हैसीयत से नहीं रह सकते अगर लड़की इनकार कर दे तो |

और महिलाओं का मेहर उन्हें उपहार स्वरूप और इच्छा से दो यदि उन्होंने अपनी इच्छा से उसमें से कोई चीज़ तुम्हें दे दी तो उसे तुम आनंद से खा सकते हो। (4:4)

सभी जातियों व राष्ट्रों के बीच परिवार के गठन के महत्वपूर्ण विषयों में एक पति द्वारा अपनी पत्नी को मेहर के रूप में उपहार दिया जाना है परंतु कुछ जातियों व समुदायों विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के काल के अरबों के बीच, जहां व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में महिलाओं का कोई विशेष स्थान नहीं था, अनेक अवसरों पर पुरुष या तो मेहर देते ही नहीं थे या फिर मेहर देने के पश्चात उसे ज़बरदस्ती वापस ले लेते थे।

महिला के पारिवारिक अधिकारों की रक्षा में क़ुरआन पुरुषों को आदेश देता है कि वे मेहर अदा करें और वह भी स्वेच्छा तथा प्रेम से न कि अनिच्छा से और मुंह बिगाड़ के। इसके पश्चात वह कहता है कि जो कुछ तुमने अपनी पत्नी को मेहर के रूप में दिया है उसे या उसके कुछ भाग को वापस लेने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है बल्कि यदि वह अपनी इच्छा से तुम्हें कुछ वापस दे दे तो वह तुम्हारे लिए वैध है।

इस आयत में प्रयोग होने वाले एक शब्द नहलह के बारे में एक रोचक बात यह है कि यह शब्द नहल से निकला है जिसका अर्थ मधुमक्खी होता है। जिस प्रकार से मुधमक्खी लोगों को बिना किसी स्वार्थ के मधु देती है और उनके मुंह में मिठास घोल देती है उसी प्रकार मेहर भी एक उपहार है जो पति अपनी पत्नी को देता है ताकि उनके जीवन में मिठास घुल जाये। अत: मेहर की वापसी की आशा नहीं रखनी चाहिये।
मेहर पत्नी की क़ीमत और मूल्य नहीं बल्कि पति की ओर से उपहार और पत्नी के प्रति उसकी सच्चाई का प्रतीक है। इसी कारण मेहर को सेदाक़ भी कहते हैं जो सिद्क़ शब्द से निकला है जिसका अर्थ सच्चाई होता है।


मेहर पत्नी का अधिकार है और वह उसकी स्वामी होती है। पति को उसे मेहर देना ही पड़ता है और उससे वापस भी नहीं लिया जा सकता।

किसी को कुछ देने में विदित इच्छा पर्याप्त नहीं है बल्कि स्वेच्छा से और मन के साथ देना आवश्यक है। यदि पत्नी विवश होकर या अनमनेपन से अपना मेहर माफ़ कर दे तो उसे लेना ठीक नहीं है चाहे वह विदित रूप से राज़ी ही क्यों न दिखाई दे।


कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं |

१) मेहर शादी के पहले तय होता है जिसके तय किये बिना निकाह संभव नहीं क्यूँ की निकाह के समय लड़की कहती है "मैंने खुद को तुम्हारे निकाह में दिया एक तय की हुयी मेहर की रक़म पे| (An Kah’tu nafsaka a’lal mah’ril ma’loom’)

और लड़का फ़ौरन कहता है मैंने कुबूल किया | ‘Qabiltun Nikaha’

यह कहे बिना निकाह नहीं हो सकता |

हाँ अगर किसी कारणवश लड़की महर तय नहीं कर सकी या तय ना करना  चाहे तो भी महर की एक रक़म खुद से तय हो जाती है जिसे "महरुल मिसल"कहते हैं और इसकी रक़म ज़िम्मेदार और इल्म रखने वाले बुज़ुर्ग तय करते हैं | लेकिन  लड़की ने अगर कह दिया की यह रक़म वो खुद तय करेकी तो किसी और को तय करने का अधिकार नहीं रहता |

२) इस मेहर को अदा करने के दो तरीके हैं अ) मुअज्जल जिसका मतलब है फ़ौरन निकाह के पहले ब) मुवज्जल जिसका मतलब होता है जब पत्नी मेहर की डिमांड करे |

इस्लाम में शादी एक कॉन्ट्रैक्ट हुआ करती है इसलिए मेहर अगर लड़की चाहे तो अदा बाद में किया जा सकता है लेकिन तय पहले ही किया जाता है |


इमाम हुसैन का भारतप्रेम

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यह एक सर्वमान्य सत्य है कि इतिहास को दोहराया नहीं जा सकता है और न बदलाया जा सकता है ,क्योंकि इतिहास कि घटनाएँ सदा के लिए अमिट हो जाती है .लेकिन यह भी सत्य है कि विज्ञान कि तरह इतिहास भी एक शोध का विषय होता है .क्योंकि इतिहास के पन्नों में कई ऐसे तथ्य दबे रह जाते हैं ,जिनके बारे में काफी समय के बाद पता चलता है .ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना हजरत इमाम हुसैन के बारे में है वैसे तो सब जानते हैं कि इमाम हुसैन मुहम्मद साहिब के छोटे नवासे ,हहरत अली और फातिमा के पुत्र थे .और किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं ,उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबें मिल जाएँगी .काफी समय से मेरे एक प्रिय मुस्लिम मित्र हजरत इमाम के बारे में कुछ लिखने का आग्रह कर रहे थे ,तभी मुझे अपने निजी पुस्तक संग्रह में एक उर्दू पुस्तक "हमारे हैं हुसैन " की याद आगई ,जो सन 1960 यानि मुहर्रम 1381 हि० को इमामिया मिशन लखनौउसे प्रकाशित हुई थी .इसकी प्रकाशन संख्या 351 और लेखक "सय्यद इब्न हुसैन नकवी "है .इसी पुस्तक के पेज 11 से 13 तक से कुछ अंश लेकर ,उर्दू से नकवी जी के शब्दों को ज्यों का त्यों दिया जा रहा , जिस से पता चलता है कि इमाम हुसैन ने भारत आने क़ी इच्छा प्रकट क़ी थी (.फिर इसके कारण संक्षिप्त में और सबूत के लिए उपलब्ध साइटों के लिंक भी दिए जा रहे हैं .)
 1-इमाम क़ी भारत आने क़ी इच्छा 
नकवी जी ने लिखा है "हजरत इमाम हुसैन दुनियाए इंसानियत में मुहसिने आजम हैं,उन्होंने तेरह सौ साल पहले अपनी खुश्क जुबान से ,जो तिन रोज से बगैर पानी में तड़प रही थी ,अपने पुर नूर दहन से से इब्ने साद से कहा था "अगर तू मेरे दीगर शरायत को तस्लीम न करे तो , कम अज कम मुझे इस बात की इजाजत दे दे ,कि मैं ईराक छोड़कर हिंदुस्तान चला जाऊं"
नकवी आगे लिखते हैं ,"अब यह बात कहने कि जरुरत नहीं है कि ,जिस वक्त इमाम हुसैन ने हिंदुस्तान तशरीफ लाने की तमन्ना का इजहार किया था ,उस वक्त न तो हिंदुस्तान में कोई मस्जिद थी ,और न हिंदुस्तान में मुसलमान आबाद थे .गौर करने की बात यह है कि,इमाम हुसैन को हिंदुस्तान की हवाओं में मुहब्बत की कौन सी खुशबु महसूस हुई थी ,कि उन्होंने यह नहीं कहा कि मुझे चीन जाने दो ,या मुझे ईरान कि तरफ कूच करने दो ..उन्होंने खुसूसियत से सिर्फ हिंदुस्तान कोही याद किया था 
गालिबन यह माना जाता है कि हजरत इमाम हुसैन के बारे में हिन्दुस्तान में खबर देने वाला शाह तैमुर था .लेकिन तारीख से इंकार करना नामुमकिन है .इसलिए कहना ही पड़ता है कि इस से बहुत पहले ही "हुसैनी ब्राह्मण "इमाम हुसैन के मसायब बयाँ करके रोया करते थे .और आज भी हिंदुस्तान में उनकी कोई कमी नहीं है .यही नहीं जयपुर के कुतुबखाने में वह ख़त भी मौजूद है जो ,जैनुल अबिदीन कि तरफ से हिन्दुतान रवाना किया गया था .
इमाम हुसैन ने जैसा कहा था कि ,मुझे हिंदुस्तान जाने दो ,अगर वह भारत की जमीन पर तशरीफ ले आते तो ,हम कह नहीं सकते कि उस वक्त कि हिन्दू कौम उनकी क्या खिदमत करती"
2-इमाम हुसैन की भारत में रिश्तेदारी 
इस्लाम से काफी पहले से ही भारत ,इरान ,और अरब में व्यापार होता रहता था .इस्लाम के आने से ठीक पहले इरान में सासानी खानदान के 29 वें और अंतिम आर्य सम्राट "यज्देगर्द (590 ई ) की हुकूमत थी .उस समय ईरान के लोग भारत की तरह अग्नि में यज्ञ करते थे .इसी लिए "यज्देगर्द"को संस्कृत में यज्ञ कर्ता भी कहते थे .
प्रसिद्ध इतिहासकार राज कुमार अस्थाना ने अपने शोधग्रंथ "Ancient India "में लिखा है कि सम्राट यज्देगर्द की तीन पुत्रियाँ थी ,जिनके नाम मेहर बानो , शेहर बानो , और किश्वर बानो थे .यज्देगर्द ने अपनी बड़ी पुत्री की शादी भारत के राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय से करावा दी थी .जिसकी राजधानी उज्जैन थी ..और राजा के सेनापति का नाम भूरिया दत्तथा .जिसका एक भाई रिखब दत्त व्यापर करता था . .यह लोग कृपा चार्य के वंशज कहाए जाते हैं .चन्द्रगुप्त ने मेहर बानो का नाम चंद्रलेखा रख दिया था .क्योंकि मेहर का अर्थ चन्द्रमा होता है ..राजाके मेहर बानो से एक पुत्र समुद्रगुप्त पैदा हुआ .यह सारी घटनाएँ छटवीं शताब्दी की हैं
. यज्देगर्द ने दूसरी पुत्री शेहर बानो की शादी इमाम हुसैन से करवाई थी . और उस से जो पुत्र हुआ था उसका नाम "जैनुल आबिदीन " रखा गया .इस तरह समुद्रगुप्त और जैनुल अबिदीन मौसेरे भाई थे .इस बात की पुष्टि "अब्दुल लतीफ़ बगदादी (1162 -1231 ) ने अपनी किताब "तुहफतुल अलबाब "में भी की है .और जिसका हवाला शिशिर कुमार मित्र ने अपनी किताब "Vision of India " में भी किया है .
3-अत्याचारी यजीद का राज 
इमाम हुसैन के पिता हजरत अली चौथे खलीफा थे . और उस समय वह इराक के शहर कूफा में रहते थे . हजरत prm अली सभी प्रकार के लोगों से प्रेमपूर्वक वर्ताव करते थे . उन के कल में कुछ हिन्दू भी वहां रहते थे .लेकिन किसी पर भी इस्लाम कबूल करने पर दबाव नहीं डाला जाता था .ऐसा एक परिवार रिखब दत्त का था जो इराक के एक छोटे से गाँव में रहता था ,जिसे अल हिंदिया कहा जाता है . जब सन 681 में हजरत अली का निधन हो गया तो , मुआविया बिन अबू सुफ़यान खलीफा बना . वह बहुत कम समय तक रहा .फउसके बाद उसका लड़का यजीद सन 682 में खलीफा बन गया . यजीद एक अय्याश , अत्याचारी . व्यक्ति था .वह सारी सत्ता अपने हाथों में रखना चाहता था .इसलिए उसने सूबों के सभी अधिकारीयों को पत्र भेजा और उनसे अपने समर्थन में बैयत ( oth of allegience ) देने पर दबाव दिया .कुछ लोगों ने डर या लालच के कारण यजीद का समर्थन कर दिया . लेकिन इमाम हुसैन ने बैयत करने से साफ मना कर दिया .यजीद को आशंका थी कि यदि इमाम हुसैन भी बैयत नहीं करेंगे तो उसके लोग भी इमाम के पक्ष में हो जायेंगे .यजीद तो युद्ध कि तय्यारी करके बैठा था .लेकिन इमाम हुसैन युद्ध को टालना चाहते थे ,यह हालत देखकर शहर बानो ने अपने पुत्र जैनुल अबिदीन के नाम से एक पत्र उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त को भिजवा दिया था .जो आज भी जयपुर महाराजा के संग्राहलय में मौजूद है .बरसों तक यह पत्र ऐसे ही दबा रहा ,फिर एक अंगरेज अफसर Sir Thomas Durebrught ने 26 फरवरी 1809 को इसे खोज लिया और पढ़वाया ,और राजा को दिया , जब यह पत्र सन 1813 में प्रकाशित हुआ तो सबको पता चल गया . 
उस समय उज्जैन के राजा ने करीब 5000 सैनिकों के साथ अपने सेनापति भूरिया दत्त को मदीना कि तरफ रवाना कर दिया था .लेकिन इमाम हसन तब तक अपने परिवार के 72 लोगों के साथ कूफा कि तरफ निकल चुके थे ,जैनुल अबिदीन उस समय काफी बीमार था ,इसलिए उसे एक गुलाम के पास देखरेख के लिए छोड़ दिया था .भूरिया दत्त ने सपने भी नहीं सोचा होगा कि इमाम हुसैन अपने साथ ऐसे लोगों को लेकर कुफा जायेंगे जिन में औरतें , बूढ़े और दुधापीते बच्चे भी होंगे .उसने यह भी नहीं सोचा होगा कि मुसलमान जिस रसूल के नाम का कलमा पढ़ते हैं उसी के नवासे को परिवार सहित निर्दयता से क़त्ल कर देंगे .और यजीद इतना नीच काम करेगा . वह तो युद्ध की योजना बनाकर आया था . तभी रस्ते में ही खबर मिली कि इमाम हुसैन का क़त्ल हो गया . यह घटना 10 अक्टूबर 680 यानि 10 मुहर्रम 61 हिजरी की है .यह हृदय विदारक खबर पता चलते ही वहां के सभी हिन्दू( जिनको आजकल हुसैनी ब्राहमण कहते है ) मुख़्तार सकफी के साथ इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने को युद्ध में शामिल हो गए थे .इस घटना के बारे में "हकीम महमूद गिलानी"ने अपनी पुस्तक "आलिया "में विस्तार से लिखा है 
4-रिखब दत्त का महान बलिदान 
कर्बला की घटना को युद्ध कहना ठीक नहीं होगा ,एक तरफ तिन दिनों के प्यासे इमाम हुसैन के साथी और दूसरी तरफ हजारों की फ़ौज थी ,जिसने क्रूरता और अत्याचार की सभी सीमाएं पर कर दी थीं ,यहाँ तक इमाम हुसैन का छोटा बच्चा जो प्यास के मारे तड़प रहा था , जब उसको पानी पिलाने इमाम नदी के पास गए तो हुरामुला नामके सैनिक ने उस बच्चे अली असगर के गले पर ऐसा तीर मारा जो गले के पार हो गया . इसी तरह एक एक करके इमाम के साथी शहीद होते गए .
और अंत में शिम्र नामके व्यक्ति ने इमाम हुसैन का सी काट कर उनको शहीद कर दिया , शिम्र बनू उमैय्या का कमांडर था . उसका पूरा नाम "Shimr Ibn Thil-Jawshan Ibn Rabiah Al Kalbi (also called Al Kilabi (Arabic: شمر بن ذي الجوشن بن ربيعة الكلبي) था. यजीद के सैनिक इमाम हुसैन के शरीर को मैदान में छोड़कर चले गए थे .तब रिखब दत्त ने इमाम के शीश को अपने पास छुपा लिया था .यूरोपी इतिहासकार रिखब दत्त के पुत्रों के नाम इसप्रकार बताते हैं ,1सहस राय ,2हर जस राय 3,शेर राय ,4राम सिंह ,5राय पुन ,6गभरा और7 पुन्ना .बाद में जब यजीद को पता चला तो उसके लोग इमाम हुसैन का सर खोजने लगे कि यजीद को दिखा कर इनाम हासिल कर सकें . जब रिखब दत्त ने शीश का पता नहीं दिया तो यजीद के सैनिक एक एक करके रिखब दत्त के पुत्रों से सर काटने लगे ,फिर भी रिखब दत्त ने पता नहीं दिया .सिर्फ एक लड़का बच पाया था . जब बाद में मुख़्तार ने इमाम के क़त्ल का बदला ले लिया था तब विधि पूर्वक इमाम के सर को दफनाया गया था .यह पूरी घटना पहली बार कानपुर में छपी थी .story had first appeared in a journal (Annual Hussein Report, 1989) printed from Kanpur (UP) .The article ''Grandson of Prophet Mohammed (PBUH

रिखब दत्त के इस बलिदान के कारण उसे सुल्तान की उपाधि दी गयी थी .और उसके बारे में "जंग नामा इमाम हुसैन "के पेज 122 में यह लिखा हुआ है ,"वाह दत्त सुल्तान ,हिन्दू का धर्म मुसलमान का इमान,आज भी रिखब दत्त के वंशज भारत के अलावा इराक और कुवैत में भी रहते हैं ,और इराक में जिस जगह यह लोग रहते है उस जगह को आज भी हिंदिया कहते हैं यह विकी पीडिया से साबित है 
Al-Hindiya or Hindiya (Arabic: الهندية‎) is a city in Iraq on the Euphrates River. Nouri al Maliki went to school there in his younger days. Al-Hindiya is located in the Kerbala Governorate. The city used to be known as Tuwairij (Arabic: طويريج‎), which gives name to the "Tuwairij run" (Arabic: ركضة طويريج‎) that takes place here every year as part of the Mourning of Muharram on the Day of Ashura.
http://en.wikipedia.org/wiki/Hindiya

तबसे आजतक यह हुसैनी ब्राह्मण इमाम हुसैन के दुखों को याद करके मातम मनाते हैं .लोग कहते हैं कि इनके गलों में कटने का कुदरती निशान होता है .यही उनकी निशानी है .
5-सारांश और अभिप्राय 
यद्यपि मैं इतिहास का विद्वान् नहीं हूँ ,और इमाम हुसैन और उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबे लिखी जा सकती हैं ,चूँकि मुझे इस विषय पर लिखने का आग्रह मेरे एक दोस्त ने किया था ,इसलिए उपलब्ध सामग्री से संक्षिप्त में एक लेख बना दिया था , मेरा उदेश्य उन कट्टर लोगों को समझाने का है ,कि जब इमाम हुसैन कि नजर में भारत एक शांतिप्रिय देश है ,तो यहाँ आतंक फैलाकर इमाम की आत्मा को कष्ट क्यों दे रहे हैं .भारत के लोग सदा से ही अन्याय और हिंसा के विरोधी और सत्य के समर्थक रहे हैं .इसी लिए अजमेर की दरगाह के दरवाजे पार लिखा है ,
"शाहास्त हुसैन बदशाहस्त हुसैन ,दीनस्त हुसैन दीं पनाहस्त हुसैन 
सर दाद नादाद दस्त दर दस्ते यजीद ,हक्का कि बिनाये ला इलाहस्त हुसैन "
इतिहास गवाह है कि अत्याचार से सत्य का मुंह बंद नहीं हो सकता है ,वह दोगुनी ताकत से प्रकट हो जाता है ,जैसे कि ,
"कत्ले हुसैन असल में मर्गे यजीद है "
6-संदर्भित किताबें और साइटें
अपने लेख को प्रमाणित करने के लिए यह सूचि दी जा रही है , ताकि लोग भी विस्तार से जान सकें और सच्चाई को स्वीकार करें

नजफ़ ऐ हिन्द जोगीपुरा के मुआज्ज़ात और जियारत और क्या मिलता है वहाँ जानिए |

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हर सच्चे मुसलमान की ख्वाहिश हुआ करती है की उसे अल्लाह के नेक बन्दों की जियारत करने का मौक़ा  मिले और इसी को अल्लाह से  मुहब्बत कहा जाता है | अल्लाह के नेक बन्दे  अपनी ज़िन्दगी में भी अल्लाह के नेक बन्दों के आस पास रहना पसंद करते हैं और मौत के बाद उनके रोजों , क़ब्रों पे जा के अकीदत पेश किया करते हैं और उनकी ज़िन्दगी से ,उनके कौल और अमल से अपनी ज़िन्दगी संवारा करते हैं |


इस बार जब मैं लखनऊ आया तो मुझसे मेरे परिवार वालों ,भाई बहनों ने कहा चलो इस बार मौला अली (अ.स) के दरबार नजफ़ ऐ हिन्द जोगीपुरा जियारत को चला जाए | बस आनन फानन में ये तय हो गया और हम सभी चल पड़े मौला के दरबार जोगी पूरा की तरफ अपनी अकीदत पेश करने और अपने दिल में अपनी मुरादें लिए |
 



जोगीपुरा जाने के लिए सबसे बेहतरीन दिन होता है शब् ऐ जुमा और जायरीन के लिए जितना बेहतरीन इंतज़ाम मैंने वहाँ देखा शायद कहीं नहीं देखा था | जोगीपुरा जाने के लिए आपको उत्तेर प्रदेश वेस्ट के नजीबाबाद रेलवे स्टेशन पे उतरना होता है |

अगरआपकेपास जोगीपुरा दरगाह का फ़ोन नंबर है तो वहाँ से आप टैक्सी भी बुला सकते हैं और अगर नहीं है तो आप ३००/- रुपये दे के स्टेशन के बाहर टैक्सी मिलती है उस से १५मिन में रौज़ा ऐ मौला अली (अ.स ) पे पहुँच जाते हैं | कुछ बस की सुविधाएं भी हैं लेकिन उनका वक़्त तय नहीं होने के कारन नए जायरीन को मुश्किल हो जाया करती है |

नजीबाबाद रेलवे स्टेशन स्टेशन से जोगीपुरा ७-८ किलोमीटर की दूरी पे है | जैसे ही टैक्सी जोगीपुरा दरगाह के  गेट पे पहुंची तो दिल में एक ख़ुशी सी महसूस हुयी और ऐसा लगा दुनिया के सारे ग़मऔर मुश्किलात दूर हो गयीं क्यूँ हम पहुँच चुके थे मौला मुश्किल कुशा हज़रत अली (अ.स ) के दरबार में |

दरगाह के दफ्तर में पहुँचते ही वहाँ लोगों से जब कमरे के बारे में पुछा तो उन्होंने के कई कमरे दिखाए जिन्हें और १००-१५०-२०० जैसे हदिये पे ले सकते हैं | और मौला की तरफ से दो  वक़्त आप को बेहतरीन साफ़ सफाई के साथ खाना भी मुफ्त में दिया जाता है |



क्यूँ जोगीपुरा को नजफ़ इ हिन्द कहा जाता है और यहाँ कौन सा मुआज्ज़ा हुआ था जानिये |

१६५७ सितम्बर के महीने में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ बीमार पड़ा तो ये मशहूरहोगयाकी शाहजहाँका इन्तेकाल हो गया | बादशाहत इस सेकमज़ोर होने लगी लेकिन उनका बेटा औरंगजेब तो सियासत में तेज़ था उसने अपने बड़े भाई जो वारिस था शाहजहाँ का उसे एकसाल के अंदर ही इस दौड़ से अलग कर दिया |

रौज़ा मौला अली (अ.स ), जोगी पूरा |

औरंगजेब ने शाहजहाँ के किले में ही क़ैद कर लिया और बादशाह बन बैठा | तख़्त पे बीतते ही उसने शाहजहाँ के वफादार कमांडर और गवर्नर को जान से मार दिए जाने का हुक्म सुना दिया |
ज़री मुबारक मौला अली (अस)

उन्हें कमांडर में से एक थे राजू दादा जिन्होंने ने औरंगजेब को पसंद नहीं किया | औरंगजेब से बचने के लिए राजू दादा अपने वतन जोगी राम पूरा , बिजनौर वापस चले आये | वहां उन्होंने अपने गाँव वालों को बता दिया की औरंगजेब के फ़ौज से उनकी जान को खतरा है | राजू दादा की इमानदारी और गरीब परवर मिज़ाज ने उन्हें गाँव में अच्छी इज्ज़त दे रखी थी| गाँव वाले उनकी हिफाज़त करने लगे और बहुत ही सावधान रहते थे की कहीं औरंगजेब के लोग राजू दादा का कोई नुकसान ना कर दें |


राजू दादा अपने गाँव के पास वाले जंगल में छुपे रहते थे | राजू दादा मौला अली (अ.स ) के चाहने वाले थे और उन्होंने मौला अली (अ.स) को मदद के लिए नाद ऐ अली और या अली अद्रिकनी पढ़ के बुलाना शुरू किया | एक दिन एक बूढ़े हिन्दू ब्राह्मण जो घास काट रहा था और इतना बुध था की ठीक से देख भी नहीं सकता था उसने एक आवाज़ सुनी और जब नज़र डाली तो उसे महसूस हुआ की कोई शख्स घोड़े पे सवार है और उस से कह रहा है कहा है राजू दादा जो मुझे बुलाया करता था ? जाओ उस से कह दो मैंने मिलने को बुलाया है | उस बूढ़े ने कहा मैं ठीक से देख नहीं सकता और कमज़ोर भी हूँ जंगले में कैसे जाऊं उन्हें बुलाने ?

अचानक उस बूढ़े को महसूस हुआ की उसे सब कुछ दिखाई देने लगा और उसके जिस्म में ताक़त भी आ गयी | फिर हजरत अली (अ.स ) ने कहा अब जाओ और राजू दादा से कहो मैं आया हूँ | जब राजू दादा ने उस किसान से सुना तो वो समझ गए कीहजरतअली (अ.स)आयेहैंऔर राजूदादा दौड़ के उस  मुकाम की तरफ चले | गाँव वालों ने  जब राजू दादा को दौड़ते देखा तो समझे औरंगजेब के सिपाही आये हैं और राजू दादा की मादा के लिए उनके पीछे भागने लगे |

राजू दादा जब उस जगह पे पहुंचे तो वहाँ कोई नहीं था लेकिन घोड़े के खड़े होने के निशाँ बाकी थे | लोगों से उस जगह को घेर दिया लेकिन राजू दादा उसी जगह पे  जहां मौला अली (अ.स ) आये थे वहाँ बिना कुछ खाए पिए सात दिन तक नाद ऐ अली पढ़ पढ़ के मौला अली (अ.स ) को बुलाने लगे |


मिटटी में यहाँ की शेफा है |

सातवें दिन मौला अली (अ.स० ) ने राजू दादा को बशारत दी और कहा मत घबराओ औरंगजेब तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता तुम्हे उस से डरने की ज़रुरत नहीं है | राजू दादा ने मौला अली (अ.स ) से कहा की वो चाहते हैं की आप ऐसी कोई चीज़ दे जायें जिस से कौम को शेफा हो उनका भला हो |

तो मौला मौला अली (अ.स ) के मुआज्ज़े से वहाँ एक पानी का चश्मा फूटा जो आज भी मौजूद है | जहां मौला अली (अ.स) खड़े थे वहाँ की मिटटी में आज भी शेफा है और वहाँ एक दूध का चश्मा निकला था जो अब नहीं है |

वो जगह जहाँ पानी का चश्मा फूटा था |
दरगाह के दफ्तर में पहुँचते ही वहाँ लोगों से जब कमरे के बारे में पुछा तो उन्होंने के कई कमरे दिखाए जिन्हें और 100-१५०-२०० जैसे हदिये पे ले सकते हैं | और मौला की तरफ से तो वक़्त आप को बेहतरीन साफ़ सफाई के साथ खाना भी मुफ्त में दिया जाता है |


ज़िन्दान बीबी सकीना

मश्क ज़िन्दान बीबी सकीना  के पास 
रौज़ा हज़रत अब्बास अलमदार


रौज़ा इमाम हुसैन ,राजू दादा के रौज़े के पास 
मस्जिद

रौज़ा हज़रात अब्बास अलमदार

मौला अली (अ.स)

दरगाह का दफ्तर

मौला अली (अस) के रौज़े का शेर दरवाज़ जहां से शेर सलाम करने आता था\

मौला अली (अस) का रौज़ा

दुआओं और मुरादों के बाद आराम और बेफिक्री के कुछ पल |

                                                             लेखक : एस एम् मासूम

रिश्तेदारों से कुर्बत अल्लाह का हुक्म है मशविरा नहीं |

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इस्लाम एक सामाजिक धर्म है और कुरान में अल्लाह ने सामाजिक रिश्तों को बनाने पे बहुत जोर दिया और यहाँ तक की रिश्तेदारों के,पड़ोसियों के,काबिले , देशदुनियाकेलोगोंसेकैसेताल्लुकात रखे जाएँइसकी होदय्तें दी है |

इन में सेअल्लाह और बन्दे के रिश्ते के बाद रिश्ता है वो माँ बाप का रिश्ता है जहां अल्लाह ने हुक्म दिया है कि माँ बाप के खिलाफ मुह से उफ्फ भी न करना ज़ुल्म और न इंसाफी तो दूर की बात है |

अल्लाह सूरा ऐ निसा की पहली आयत में फरमाता है :-

अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है। हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया तथा उस ईश्वर से डरो जिसके द्वारा तुम एक दूसरे से सहायता चाहते हो और रिश्तों नातों को तोड़ने से बचो (कि) नि:संदेह ईश्वर सदैव तुम्हारी निगरानी करता है। (4:1)



 यह सूरा, जो पारीवारिक समस्याओं के बारे में है, ईश्वर से भय रखने के साथ आरंभ होता है और पहली ही आयत में यह सिफारिश दो बार दोहराई गई है क्योंकि हर व्यक्ति का जन्म व प्रशिक्षण परिवार में होता है और यदि इन कामों का आधार ईश्वरीय आदेशों पर न हो तो व्यक्ति और समाज के आत्मिक व मानसिक स्वास्थ्य की कोई ज़मानत नहीं होगी।

ईश्वर मनुष्यों के बीच हर प्रकार के वर्चस्ववाद की रोकथाम के लिए कहता है कि तुम सब एक ही मनुष्य से बनाये गये हो और तुम्हारा रचयिता भी एक है अत: ईश्वर से डरते रहो और यह मत सोचो कि वर्ण, जाति अथवा भाषा वर्चस्व का कारण बन सकती है, यहां तक कि शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से अंतर रखने वाले पुरुष व स्त्री को भी एक दूसरे पर वरीयता प्राप्त नहीं है क्योंकि दोनों की सामग्री एक ही है और सबकी जड़ एक ही माता पिता हैं।
 क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में ईश्वर ने माता-पिता के साथ भलाई का उल्लेख अपने आदेश के पालन के साथ किया है और इस प्रकार उसने मापा-पिता के उच्च स्थान को स्पष्ट किया है परंतु इस आयत में न केवल माता-पिता बल्कि अपने नाम के साथ उसने सभी नातेदारों के अधिकारों के सममान को आवश्यक बताया है तथा लोगों को उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है।

 इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। अत: वह परिवार तथा समाज में मनुष्यों के आपसी संबंधों पर ध्यान देता है और ईश्वर ने भय तथा अपनी उपासना का आवश्यक भाग, अन्य लोगों के अधिकारों के सम्मान को बताया है।

 मानव समाज में एकता व एकजुटता होनी चाहिये क्योंकि लोगों के बीच वर्ण, जाति, भाषा व क्षेत्र संबंधी हर प्रकार का भेद-भाव वर्जित है। ईश्वर ने सभी को एक माता पिता से पैदा किया है।

 सभी मनुष्य एक दूसरे के नातेदार हैं क्योंकि सभी एक माता-पिता से हैं। अत: सभी मनुष्यों से प्रेम करना चाहिये और अपने निकट संबंधियों की भांति उनका सम्मान करना चाहिये।

 ईश्वर हमारी नीयतों व कर्मों से पूर्ण रूप से अवगत है। अत: न हमें अपने मन में स्वयं के लिए विशिष्टता की भावना रखनी चाहिये और न व्यवहार में दूसरों के साथ ऐसा रवैया रखना चाहिये।


सहीह हदीस और महापुरुषों के कथन से ये साबित होता है की रिश्तेदार की श्रेणी में सबसे पहले आते हैं माता पिता फिर भाई बहन और उसके बात मामू चाचा ,ममेरे, चहेरे भाई बहन और उसके बाद दुसरे रिश्तेदार और अपने रिश्तेदारों का सुख दुःख भी इसे सिलसिले से बांटा जाता है |


सूरा ऐ नहल की ९० आयत में अल्लाह फरमाता है :-

निश्चित रूप से ईश्वर न्याय, भलाई और अपने निकटवर्ती लोगों के साथ उपकार का आदेश देता है तथा बुरे व अप्रिय कर्मों एवं दूसरों पर अतिक्रमण से रोकता है। वह तुम्हें उपदेश देता है कि शायद तुम्हें समझ आ जाए। (16:90)

यह आयत, जो क़ुरआने मजीद की सबसे अधिक व्यापक आयतों में से एक है, इस संसार में ईमान वालों के मानवीय एवं सामाजिक संबंधों को, न्याय व भलाई तथा हर प्रकार के अत्याचार व अतिक्रमण से दूरी पर आधारित बताती है और इसे एक ईश्वरीय उपदेश का नाम देती है जिसका पालन प्रत्यके व्यक्ति को हर स्थिति में करना चाहिए।

न्याय तथा न्याय प्रेम समस्त इस्लामी शिक्षाओं का आधार है। ईश्वर न किसी पर अत्याचार करता है और न इस बात की अनुमति देता है कि कोई किसी पर अत्याचार करे या उसके अधिकार का हनन करे। न्याय के लिए कथनी व करनी में हर प्रकार की कमी व अतिशयोक्ति से बचना आवश्यक है जिससे व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवहार में संतुलन आता है।

अल्बत्ता इस्लामी शिष्टाचार में मनुष्य को सामाजिक समस्याओं के संबंध में कभी कभी न्याय से भी आगे बढ़ कर काम करना पड़ता है और अन्य लोगों की ग़लतियों को क्षमा करना पड़ता है, यहां तक कि मनुष्य, अन्य लोगों को उनके अधिकार से भी अधिक प्रदान कर सकता है कि जो भलाई और उपकार का चिन्ह है। ईश्वर, जिसने मनुष्यों के प्रति सबसे अधिक भलाई और उपकार किया है, उन्हें अन्य लोगों के संबंध में यही व्यवहार अपनाने का निमंत्रण देता है।

दूसरी ओर ईश्वर ने मनुष्य की आत्मा के स्वास्थ्य तथा समाज की शांति व सुरक्षा को सुनिश्चित बनाने के लिए कुछ बातों को वर्जित किया है जिन्हें बुरे व अप्रिय कर्म कहा जाता है। हर बुद्धिमान व्यक्ति, इन बातों की बुराई को भली भांति समझता है।

इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक संबंधों में न्याय के साथ ही भलाई व उपकार भी आवश्यक है ताकि समाज के सदस्यों के बीच प्रेम व घनिष्टता बाक़ी रहे।

धर्म के आदेश मानवीय बुद्धि एवं प्रवृत्ति से समन्वित हैं। न्याय व भलाई की ओर झुकाव तथा बुराई व अप्रिय बातों से दूरी, सभी मनुष्यों की इच्छा है और धर्म भी इन्हीं बातों का आदेश देता है।

लोगों को भलाई का आदेश देने तथा बुराई से रोकने में हमें इस बात की आशा नहीं रखनी चाहिए कि वे हमारी सभी बातों को स्वीकार कर लेंगे। ईश्वर भी जब उपदेश देता है तो कहता है कि शायद तुम्हें समझ आ जाए और तुम स्वीकार कर लो।


और अल्लाह यही नहीं रुका कह के कि रिश्तेदारों से मुहब्बत करो बल्कि उसने ये भी बताया की अपने रिश्तेदारों का हक ना देने वाला, मुहब्बत ना करने वाला , और रिश्तेतोड़ देने वाले का हश्र क्या होगा ?

और उन लोगों पर ईश्वर की धिक्कार है जो ईश्वरीय प्रतिज्ञा को दृढ़ करने के पश्चात उसे तोड़ देते हैं, जिन (नातों) को जोड़े रखने का ईश्वर ने आदेश दिया है, उन्हें तोड़ देते हैं तथा धरती में बिगाड़ पैदा करते हैं। ऐसे लोगों के लिए (प्रलय में) अत्यंत बुरा घर है। (13:25)

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा उनके परिजनों के कथनों में आया है कि ईश्वर ने जिन बातों की अत्यधिक सिफ़ारिश की है, उनमें से एक अपने परिजनों तथा नातेदारों से मेल जोल रखना तथा उनकी समस्याओं का निवारण करना है। प्रायः जो लोग ईश्वरीय धर्म पर कटिबद्ध नहीं होते वे अपने परिवार का भी अधिक ध्यान नहीं रखते।

इस आयत से हमने सीखा कि संसार में ईमान वालों तथा अवज्ञाकारियों के अंत की तुलना करने से सत्य और असत्य के मार्ग की पहचान सरल हो जाती है।मनुष्य की सभी बुराइयों और पथभ्रष्टता का आरंभ, ईश्वर तथा आसमानी धर्मों से दूर रहने से होता है।

और अल्लाह ने रिश्तेदारों से मुहब्बत का हुक्म और उनसे रिश्ते तोड़ने की सजा बता के कुछ ज़िम्मेदारी मोमिनो पे भी दाल दी और सूरा ऐ हुजरात की ९-१० आयात में फ़रमाया :)

यदि मोमिनों में से दो गिरोह आपस में लड़ पड़े तो उनके बीच सुलह करा दो। फिर यदि उनमें से एक गिरोह दूसरे पर ज़्यादती करे, तो जो गिरोह ज़्यादती कर रहा हो उससे लड़ो, यहाँ तक कि वह अल्लाह के आदेश की ओर पलट आए। फिर यदि वह पलट आए तो उनके बीच न्याय के साथ सुलह करा दो, और इनसाफ़ करो। निश्चय ही अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है (9)

मोमिन तो भाई-भाई ही है। अतः अपने दो भाईयो के बीच सुलह करा दो और अल्लाह का डर रखो, ताकि तुमपर दया की जाए (10)

एलान ऐ विलायत ,हजरत अली (अ.स ) ,ग़दीर और कुरान |

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हे पैग़म्बर! आपके पालनहार की ओर से जो आदेश आप पर उतारा गया है उसे (लोगों तक) पहुंचा दीजिए और यदि आपने ऐसा न किया तो मानो आपने उसके संदेश को पहुंचाया ही नहीं और (जान लीजिए कि) ईश्वर आपको लोगों से सुरक्षित रखेगा। निसन्देह, ईश्वर काफ़िरों का मार्गदर्शन नहीं करता। (5:67)


इस आयत में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो इसे, पहले और बाद की आयतों से अलग करती हैं। इसकी पहली विशेषता यह है कि इसमें पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को या अय्योहर्रसूल कह कर संबोधित किया गया है। इस प्रकार का संबोधन पूरे क़ुरआन में केवल दो बार ही आया है और दोनों बार इसी सूरए माएदा में इसका उल्लेख है।


दूसरी विशेषता यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम को एक ऐसे विषय को पहुंचाने का दायित्व सौंपा गया है जिसे उनकी समस्त पैग़म्बरी के बराबर बताया गया है। इस प्रकार से कि यदि उन्होंने इस बात को लोगों तक नहीं पहुंचाया तो मानो उन्होंने ईश्वरीय दायित्व को पूरा ही नहीं किया।

तीसरी विशेषता यह है कि ईश्वर के निकट इस विषय का अत्यधिक महत्त्व होने के बावजूद, इसे पहुंचाने के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम चिन्तित हैं। उन्हें इस बात का भय है कि लोग इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

आयत के अंत में ईश्वर उन लोगों को, जो द्वेष और शत्रुता के कारण इस महत्त्वपूर्ण बात का इन्कार करें, धमकी देता है कि वे लोग ईश्वर के विशेष मार्गदर्शन से वंचित हो जाएंगे।


अब यह देखना चाहिए कि यह कौन सा महत्त्वपूर्ण विषय था जिसे बिना किसी डर के लोगों तक पहुंचाने का पैग़म्बर को दायित्व सौंपा गया था और कहा गया था कि इस बारे में वे लोगों के विरोध से न डरें?


पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के जीवन के अन्तिम वर्ष में इन आयतों के उतरने के दृष्टिगत स्पष्ट है कि यह विषय नमाज़, रोज़ा, हज, जेहाद या और कोई अन्य अनिवार्य धार्मिक कर्म नहीं था क्योंकि इन सब बातों के बारे में पहले के वर्षों में बयान किया जा चुका था और उन पर कार्य भी हो रहा था।
तो फिर पैग़म्बरे इस्लाम की पवित्र आयु के अन्तिम दिनों में यह कौन सा इतना महत्त्वपूर्ण विषय है जिस पर ईश्वर बल देता है और पैग़म्बर भी मिथ्याचारियों की ओर से उसके विरोध को लेकर चिन्तित हैं?



यह एकमात्र मामला, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी और इस्लाम व मुसलमानों के भविष्य का हो सकता है जिसमें यह सारी विशेषताएं हों। इसी कारण सुन्नी मुसलमानों में क़ुरआन के बड़े-बड़े व्याख्याकारों ने इस आयत की संभावनाओं के रूप में पैग़म्बर के उत्तराधिकार को स्वीकार किया है और इससे संबंधित घटनाओं तथा कथनों का अपनी तफ़सीरों में उल्लेख किया है।


अलबत्ता शीया मुसलमानों का, जो क़ुरआन की व्याख्या को पैग़म्बर के परिजनों के कथनों के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार करते हैं, यह मानना है कि यह आयत हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का उत्तराधिकारी बनाने के बारे में उतरी है। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने अंतिम हज से वापस होते समय ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर हाजियों को रोका और उसके पश्चात वे एक ऊंचे स्थान पर गए और उन्होंने अपने स्वर्गवास के निकट आने की घोषणा करने के पश्चात अपनी पैग़म्बरी के 23 वर्षों में अपने सबसे निकट अनुयायी अर्थात हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित किया और कहाः
मन कुंतो मौलाहो फ़हाज़ा अलीयुन मौलाहो अर्थात जिस-जिस का मैं स्वामी और अभिभावक था, मेरे पश्चात अली उसके स्वामी और अभिभावक हैं। फिर आपने कहा जो कोई इस समूह में उपस्थित है वह, अनुपस्थित लोगों तक यह समाचार पहुंचा दे।


पैग़म्बर के कथनों के समाप्त होते ही उस समय के बड़े-बड़े मुसलमानों तथा उपस्थित सभी लोगों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बर का उत्तराधिकारी बनने की बधाई दी और उन्हें पैग़म्बर के पश्चात अपना अभिभावक स्वीकार किया।

कुछ लोगों का कहना है कि पैग़म्बर का तात्पर्य हज़रत अली से मित्रता और प्रेम रखने से था न कि उनकी अभिभावकता तथा नेतृत्व से। स्पष्ट है कि किसी भी मुसलमान को हज़रत अली अलैहिस्सलाम से पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से प्रेम के बारे में कोई संदेह नहीं था कि पैग़म्बर उतने बड़े समूह में और वह भी अपनी आयु के अंतिम दिनों में इस बात पर बल देते तथा उनके बड़े-बड़े अनुयायी इसे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए एक बड़ी सफलता मानते।

प्रत्येक दशा में इस आयत का उतरना और इसकी विशेषताएं यह दर्शाती हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तरदायित्व, प्रेम और मित्रता की घोषणा से कहीं बढ़कर था। यह बात किसी भावनात्मक विजय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी। यह विषय इस्लामी समुदाय से संबंधित था और वह भी सबसे महत्वपूर्ण विषय अर्थात पैग़म्बर के पश्चात इस्लामी समाज के नेतृत्व और मार्गदर्शन का विषय।
इस आयत से हमने सीखा कि यदि इस्लामी समुदाय का नेतृत्व ऐसे भले लोगों के हाथों में न हो, जिन्हें ईश्वर ने निर्धारित किया हो, तो धर्म का आधार ख़तरे में है।


पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को जिस बात से चिंता थी वह बाहरी शत्रुओं का ख़तरा नहीं था बल्कि आंतरिक दंगों, विरोधों और उल्लंघनों का ख़तरा था।

वयस्क का अकेले रहना इस्लाम की नज़र में उचित नहीं |

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इंसान अकेले नहीं रह सकता उसे हर उम्र में एक साथी की आवश्यकता होती है | कोई भी इंसान जब वयस्क हो जाता है या बालिग़ हो जाता है तो उसे अकेले जीवन गुज़ारने का हुक्म नहीं है | इस उम्र में शादी करने का हुक्म इतना सख्त है की अगर शादी में देर की जाए और औलादकिसी तरह के अनैतिक संबंधों की तरफ चला जाए तो उसके इन सभी गुनाहों की सजा उसमे माता पिता को मिलेगी अगर वो जीवित हैं तो |

आज के सामाजिक परिवेश में देखने से पता चलता है की आज का नौजवान बालिग़ होने के १० से १५ साल बाद ही शादी कर पाता है और इसी कारणवश शादी के पहले शारीरिक संबंथ बना लेने की दर आज बढती जा रही है | यकीनन शादी के पहले अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध पाप हैं और इस से बचने के उपाय तलाशने की आज आवश्यकता है |

हमारा ये सोंचना सही नहीं की शादी पढ़ाई में बाधा पैदा कर सकती है या नौकरी से नहीं है लड़का तो कैसे शादी करें ? रिजक अल्लाह देता है और आपने वाली अपने साथ अपना रिजक लाती है और यकीन जानिये शादी के बाद पढाई लड़का और आसानी से कर सकेगा क्यूंकि उसका मन का बहकना बंद हो जाएगा |

ऐसे बहुत से लोग होते हैं जिनकी किसी कारन वश शादी सही उम्र में नहीं हो पाती और वो अकेले जीवन गुज़ारने के बाध्य होते हैं या ऐसे बहुत से लोग हैं जो विधुर हो गए या महिलाएं विधवा हो गयीं और वो भी अकेले जीवन गुज़ारने को बाध्य होते हैं | ऐसे लोगों को विवाह अवश्य कर लेना चाहिए क्यूँ की अकेले जीवन गुजारना बड़ा ही तकलीफ वाला हुआ करता है और बहकने या पाप में पड़ने की आशंका भी बनी रहती है |

हमारे समाज के दस्तूर ने शादियाँ और तलाक के बाद शादी को इतना मुश्किल बना दिया है की हमें ऐसा लगता है की शादी करना भी एक बड़ी मुश्किल है और बेहद खर्चीला काम है जबकि इस्लाम में शादी करनाआसान हैं और किसी तरह का की खर्च इसमें नहीं है | जोड़े मर्ज़ी से और अल्लाह की कुर्बत की नीयत से बनाए जाते हैं बस इसे ही शादी कहते हैं |

विधवा या वो जिनकी शादी उम्र गुजरने के बाद भी नहीं हुयी उनके लिए मुताह का प्राविधान भी है और इसका सबसे बड़ा कारण है की इंसान गुनाहों में पड़ने से बचा रहे और जीवन अकेला गुज़ारने पे मजबूर ना हो |

आप ये कह सकते हैं की किसी भी हाल में इस्लाम में इंसान के वयस्क होने के बाद अकेला रहना पसंद नहीं किया जाता क्यूँ की ये इंसान को पाप की और धकेलता है |


हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की श्रेष्ठता -कुछ हदीसें

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हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की श्रेष्ठता साबित करने वाली हदीसें

हम अपने इस लेख में केवल उन हदीसों को बयान कर रहे हैं जो अहले सुन्नत की किताबों में दर्ज हैं, स्पष्ट रहे कि यह उस सभी हदीसों का संग्रह नहीं है बल्कि हमने केवल कुछ हदीसों का चुनाव किया है।

रसूले ख़ुदा (स.) के हवाले से हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा की फ़ज़ीलत में कुछ हदीसेः
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः क़यामत के दिन आवाज़ देने वाला आवाज़ देगा ऐ लोगों!अफनी आँखें बन्द कर लो फ़ातेमा (स.) का गुज़र होने वाला है। (कनज़ुल उम्माल, जिल्द 13, सफ़्हा 91,

रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः जब कभी मुझे जन्नत की ख़ुशबू की तलब और चाहत महसूस होती तो फ़ातेमा को सूंघ लेता था | (मुनतख़बे कनज़ुल उम्माल जिल्द 5 शफ़्हा 97)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः दुनिया की औरतों में चार बेहतरीन औरतें हैः मरयम, ख़दीजा, आसीया और फ़ातेमा। (मुसतदरक जिल्द 3, बाबे मनाक़िबे फ़ातेमा सफ़्हा 171)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः ऐ अली! जिब्रईल ने मुझे अभी ख़बर दी है कि ख़ुदा ने फ़ातेमा के साथ तुम्हारी शादी कर दी है। (मनाक़िबे इमाम अली लेइब्ने मग़ाज़ली सफ़्हा, 342)


रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः मैं कभी भी राज़ी नहीं होता था जब तक कि फ़ातेमा राज़ी नहीं होतीं। (मनाक़िबे इमाम अली लेइब्ने मग़ाज़ली 342)

रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः ऐ अली! ख़ुदा ने मुझे हुक्म दिया है कि तुम्हारी शादी फ़ातेमा से कर दूँ। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा बाब 11, सफ़्हा 142, तज़केरतुल ख़वास सफ़्हा, 276)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः ख़ुदा वन्दे आलम ने अली और फ़ातेमा को शादी के बंधन में बांधा है। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़्हा 173)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः मेरे ख़ानदान वालों में फ़ातेमा सब से ज़्यादा महबूब हैं। (जामेउस सग़ीर जिल्द 1, हदीस 203, सफ़्हा 37)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः जन्नत की औरतों की सरदार फ़ातेमा हैं। (कनज़ुल उम्माल जिल्द 13, सफ़्हा 94
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः अली और फ़ातेमा सब से पहले जन्नत में दाखिल होंगे। (नूरुल अबसार सफ़्हा 52, कनज़ुल उम्माल जिल्द 13, सफ़्हा 95)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः आयत-ए-ततहीर पाँच लोगों पर नाज़िल हुई हैः मुझ पर और अली पर और हसन व हुसैन और फ़ातेमा पर (असआफ़ुर्राग़ेबीन सफ़्हा 116)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः जन्नत की चार बेहतरीन औरतें हैः मरयम, आसिया, ख़दीजा, और फ़ातेमा।
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः जन्नत में सब से पहले फ़ातेमा दाखिल होंगी। (यनाबिउल मोवद्दत जिल्द 2 सफ़्हा 126)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः महदी का ताअल्लुक़ मेरी इतरत और औलादे फ़ातेमा में से है। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़्हा 237)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः ख़ुदा वन्दे आलम ने मेरी बेटी फ़ातेमा, उन के बच्चों और उन के चाहने वालों को आग से दूर और उसके तकलीफ़ पोहचाने से रोका है, इसी लिये उन का नाम फ़ातेमा है। (कनज़ुल उम्माल जिल्द 6 सफ़्हा 219
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः ऐ मेरी बेटी फ़ातेमा, मेरी इतरत में मेरे बाद सब से पहले तुम मुझ से मिलोगी। (सही बुख़ारी किताबे फ़ज़ाएल, कनज़ुल उम्माल जिल्द 13 सफ़्हा 93)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः फ़ातेमा मेरे जिगर का टुकटा है, जो इन्हें खुश करेगा वोह मुझे ख़ुश करेगा। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़्हा 180, व 232,)
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः फ़ातेमा जन्नत की औरतों की सरदार हैं। (सही बुख़ारी जिल्द 3 किताब बाबे मुनाक़िबे फ़ातेमा सफ़्हा 1374)

नि:संदेह ईश्वर इतराने वाले और घमंडी लोगों को पसंद नहीं करता।

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और ईश्वर की उपासना करो और किसी को उसका शरीक न ठहराओ और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो और इसी प्रकार निकट परिजनों, अनाथों, मुहताजों, निकट और दूर के पड़ोसी, साथ रहने वाले, राह में रह जाने वाले यात्री और अपने दास-दासियों सबके साथ भला व्यवहार करो। नि:संदेह ईश्वर इतराने वाले और घमंडी लोगों को पसंद नहीं करता। (4:36)

एक ईमान वाले व्यक्ति को ईश्वर पर आस्था रखने और उसकी उपासना करने के अतिरिक्त अपने माता-पिता, परिजनों और इसी प्रकार मित्रों, पड़ोसियों, मातहतों और सबसे बढ़ के समाज के अनाथों और मुहताजों के प्रति दायित्व का आभास करना चाहिये और उनके साथ किसी भी प्रकार की भलाई से हिचकिचाना नहीं चाहिये।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज के अनेक युवा अपना दाम्पत्य जीवन आरंभ करने के पश्चात माता-पिता को भूल जाते हैं और परिवार तथा परिजनों से संबंध नहीं रखते। इस आयत में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें मनुष्य के दायित्व को एहसान अर्थात नेकी या भलाई कहा गया है जिसका अर्थ आर्थिक सहायता से कहीं व्यापक है। आर्थिक सहायता का शब्द, जिसे अरबी भाषा में इन्फ़ाक़ कहते हैं, साधारणत: ग़रीबी व दरिद्रता के लिए प्रयोग किया जाता है परंतु भलाई के लिए दरिद्रता की शर्त नहीं है बल्कि मनुष्य द्वारा किसी के लिए और किसी के भी साथ किया गया अच्छा काम भलाई कहलाता है। अत: माता-पिता से प्रेम करना, उनके साथ सबसे बड़ी भलाई है जैसा कि आयत के अंतिम भाग में माता-पिता, मित्रों और पड़ोसियों के साथ भलाई न करने वाले को घमंडी और इतराने वाला व्यक्ति कहा गया है।

इस आयत से हमने सीखा कि इस आयत में ईश्वर के अधिकार का भी वर्णन है कि जो उसकी उपासना है और ईश्वर के बंदो के भी अधिकार का उल्लेख है जो नेकी और भलाई है तथा यह इस्लाम की व्यापकता और व्यापक दृष्टि की निशानी है।

केवल नमाज़ और उपासना पर्याप्त नहीं है जीवन के मामलों में भी ईश्वर को दृष्टिगत रखना चाहिये और उसे प्रसन्न रखने के प्रयास में रहना चाहिये अन्यथा हम ईश्वर के बंदों को उसका शरीक व भागीदार बनाने के दोषी बन जायेंगे।
हमारी सृष्टि में ईश्वर के पश्चात माता-पिता की मूल भूमिका है। अत: अपने दायित्वों के निर्वाह में हमें भी ईश्वर के पश्चात उनकी मर्ज़ी प्राप्त करने और उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये।
मनुष्य पर उसके मित्रों, पड़ोसियों तथा मातहतों के भी अधिकार होते हैं जिनकी पूर्ति आवश्यक है।

तकलीद किसकी करें -ज़रूरी मसायल |

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हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अहमद अली आबेदी साहब के मुंबई खोजा जामा मस्जिद के तारीखी ख़ुत्बे  के बाद उम्मत ए तशय्यो में एक ज़िम्मेदाराना बदलाव देखने में आ रहा है. लोग कई बातो पर इल्मी बहस करते दिखाई दिए और सोशल नेटवर्क साइट्स पर भी एक ज़िम्मेदाराना गुफ्तगू का आग़ाज़ हुआ है।

ज़्यादातर लोग क़ुम के ओलमा की अंजुमन “जामे मुदर्रिसीन” के बारे में इल्म हासिल करने की कोशिश करते दिखे वही पर लोग ओलमा की तरफ से शाया दीनी मरजा की फेहरिस्त पर भी गुफ्तगू करते दिखाई दिए।

अल्लाह के फ़ज़लो करम से मौलाना के ख़ुत्बे ने तक़लीद और मरजईयत को हिंदुस्तान में, ख़ुसूसन मुंबई में, एक नया जोश और रास्ता दिया है।

अभी तक लोग इस बात से ग़ाफ़िल थे कि  हमारे ओलमा इस तरह का इज्तेमाई फैसला भी लेते है और ऐसी कोई ओलमा की अंजुमन भी है जो अवाम के बारे में इतना सोचती है और उसके मुताबिक़ फैसले भी लेती है।

अल्हम्दुलीलाह मौलाना ने अपने ख़ुत्बे  में इस बात को वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर कर के लोगो को सोचने और इस सिम्त में आगे बढ़ने का एक नया रास्ता दिया है। इस चीज़ से ख़ुसूसन क़ौम के नौजवान काफी जोश और जज़्बे के साथ इल्मी गुफ्तगू में आगे दिखाई दे रहे है।

एक तरफ जहाँ क़ौम को मरजईयत से दूर ले जाने की कोशिश की जा  रही है और साथ में कई सारे शक  और शुबे नौजवानो के ज़हन में डाले जा रहे है, मसलन:

  • एक मुजतहिद जिसे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा का दर्जा दिया है, उसे मुजतहिद न समझना
  • दूसरे मुजतहिद जिन्हे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है उनकी तक़लीद करना
  • अगर किसी आम इंसान को समझ नहीं आ रहा है कि आलम कौन है, तो  वह इंसान किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करे
  • और बहोत से सवलात

लेकिन अल्लाह के फज़ल से, मौलाना आबेदी ने अपने जुमे के ख़ुत्बे में इन सब बातो को एक बुनियादी बात से रद्द कर दिया कि मरजा कोई भी मुजतहिद नहीं बन सकता, जब तक जामे मुदर्रिसीन उस मुजतहिद को मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं कर लेती।

अब सवाल ये उठता है कि लोग अपनी मनघडत बातो को दीन का हिस्सा कैसे बना लेते है? और इन गलत फ़हमियों को कैसे दूर किया जाए?

जिस तरह से मौलाना अहमद अली आबेदी साहब ने आगे बढ़ कर क़ौम के दर्द और ज़रूरत को समझा और एक अहम मसला लोगो के सामने पेश किया, ओलमा को चाहिए कि वो भी इसी तरह अवामुन्नास के ज़रूरी मसाइल को समझ कर खुलके बात करे।

हालांके मौलाना आबेदी साहब ने अपने ख़ुत्बे के आखरी हिस्से में चंद  दीगर मुजतहिद के नाम भी लिए थे, जो की क़ाबिले एहतेराम मुजतहिद और ओलमा है, लेकिन जामे मुदर्रिसीन ने उन्हें मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है।

ये आज अहम चीज़ है की हम इस मसले की अहमियत को समझे और बारीकी से इसका मुतालेआ करे कि क्या किसी ग़ैर मुजतहिद को ये हक़ बनता है कि वो मरजा का अपने मन से ऐलान करे? क्या किसी राह चलते आम आदमी को ये इख्तियार है कि वो जिसे चाहे अपना मरजा मान ले और दुसरो को भी उसे मानने को कहे?

ऐसी कई चीज़े है जो क़ौम को आगे बढ़कर सीखनी होगी और आगे आने वाली नस्लों तक तक़लीद की अज़ीम नेमत पहुचानी  होगी।

एक और मसला आजकल कुछ लोग आम कर रहे है वो ये है कि ऐसे मुजतहिद की तक़लीद करो जिसके मसले मेरे मन से ज़्यादा मिलते है। मसलन अगर मै चाहता हु कि बैंक का सुद (interest) इस्तेमाल करू और फ़र्ज़ करे की आलम उसे हराम जानता है, तो मै किसी ऐसे मुजतहिद को तलाश करू जो उसे जायज़ जाने और फिर मै उसकी तक़लीद करू। ये हरकत बिलकुल गलत है और असलन फिकरे मरजईयत के खिलाफ है।

अस्ल में हमें चाहिए कि आलम को तलाश करे और उसके मसाइल के हिसाब से अपनी ज़िन्दगी बसर करे।

अल्लाह का करम और अहसान है की उसने हमें ज़िम्मेदार और बबसीरत ओलमा से नवाज़ा है जो क़ौम की ज़रूरत समझ कर मसाइल को पेश करते है।

अल्लाह हमें अपने  ओलमा की पैरवी करने की तौफ़ीक़ अता करे और हमारे मुज्तहेदीन ओ ओलमा की हमेशा हिफाज़त करे। 
 

जैसा के हम सब जानते है के आज कल हिंदुस्तान के शिओ में तक़लीद को  ले कर काफी सारी फ़िक्रे उभर रही है, इस को हल करने की कोशिश आली जनाब हुज्जतुल इस्लाम मौलाना सय्यद अहमद अली आबेदी साहबने अपने पिछले हफ्ते (28/11/2014)  खोजा मस्जिद, डोंगरी, मुंबई के जुमे के ख़ुत्बे में की. 

मौलाना आबेदी ने अपने ख़िताब का आग़ाज़ में लोगो को ईरान के शहर, क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा की अंजुमन, “जामा ए मुदर्रिसीन”, से आश्ना कराया और इस बात पर ज़ोर दिया की ये रस्ते पर चलने वाले लोगो की नहीं बल्कि हक़ीक़तन बुज़ुर्ग ओलमा की जमाअत है. 
मौलाना आबेदी साहब के बक़ौल, जामे मुदर्रिसीन क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा जिसमे आयतुल्लाह मकरेम शिराज़ी, आयतुल्लाह सफी गुलपैगानी, आयतुल्लाह नूरी हमदानी, आयतुल्लाह ख़ामेनईऔर  दीगर  मुज्तहेदीन की जमात है. इस जमात का एक अहम काम है कि सारी दुनिया के लिए “आलम” का इन्तेखाब है.


आलमकौन होता है?और क्या हमें उसे जान कर मानना ज़रूरी है?

फ़िक्रे मरजईयत के मुताबिक़ हर शिया के लिए दीनी कामियाबी के तीन राहे हल है:

  1. खुद इज्तिहाद करे और मुजतहिद बने (दिनी पढाई कर के)
  2. एहतियात पर अमल करे (ये काफी मुश्किल अमल है जिसमे हमे सारे बुज़ुर्ग मुजतहिद के फतवो को सामने  रखते हुए सबसे मुश्किल फतवे पर अमल करना होता है)
  3. ऐसे शख्स की तरफ रुजू करे (तक़लीद करे) जो दिनी लिहाज़ से सबसे ज़्यादा  इल्म रखता हो

यहाँ पर हमे इस बात की तरफ ध्यान देने की ज़रूरत है की अवाम कैसे जान सकती  कि सबसे ज़्यादा  इल्म किस आलिम के पास है?

इस सवाल को हल करने के लिए जामे मुदर्रिसीन काम करती है. क़ौम के बुज़ुर्ग ओलमा एक साथ जमा हो कर फैसला करते है कि कौन कौन  मुजतहिद मरजा बनने के दर्जे पर फ़ाइज़ होते है.  फिर इन ओलमा के नामो का  अवाम में ऐलान किया जाता है.

जामे मुदर्रिसीन ने जो फेहरिस्त आज अवाम को दी है उनमे इन मुज्तहेदीन के नाम है:

  1. आयतुल्लाह सीस्तानी (द अ)
  2. आयतुल्लाह ख़ामेनई (द अ)
  3. आयतुल्लाह मकारेम शिराज़ी (द अ)
  4. आयतुल्लाह नूरी हमदानी (द अ)
  5. आयतुल्लाह ज़न्जानी (द अ)
  6. आयतुल्लाह साफी गुलपैगानी (द अ)
  7. आयतुल्लाह वहीद खोरासानी (द अ)

इस फेहरिस्त को तैयार करते वक़्त बहोत सारे मुज्तहेदीन के नामो पर गौरोफिक्र की जाती  है और काफी बहसों तज़्कीरे के बाद फैसला लिया जाता है; ताकि शिया क़ौम अपने “आलम” को पहचान कर सही शख्स की तक़लीद कर सके.

यहाँ एक और सवाल उठता है, क्या हम इस फेहरिस्त से हट कर किसी और की तक़लीद कर सकते है?

ये सवाल करने से पहले हमे सोचना चाहिए कि जिस शख्स को हम तक़लीद के लायक समझते है उनका नाम भी जामे मुदर्रिसीन के पास गया होगा जिस पर बहसों तज़्कीरे के बाद उसे रद्द किया गया हो. जामे मुदर्रिसीन किसी अहल को उस मक़ाम पर पहुचने से नहीं रोकती इसलिए हमें चाहिए कि  हम इस ओलमा की जमात  (जामे मुदर्रिसीन) पर अपना भरोसा क़ायम रखे और इनके दिए हुए मराजेइन की फेहरिस्त में से किसी मरजा की तक़लीद करे.

अगर हमारे पास किसी और मुजतहिद की जानकारी और हम समझते है की वो मरजा होने के लायक है तो ये हमारा फ़रीज़ा है कि इसकी इत्तेला हम जामे मुदर्रिसीन को दे और ये साबित करे कि उस मुजतहिद का इल्मी  मेयार काफी बुलंद है; जो जामे की नज़रो से छुपा रह गया; जिसके बाद जामे  मुदर्रिसीन उस नाम पर फिर से गौरोफिक्र कर सकती है. अपने मन से किसी  मुजतहिद का इंतेखाब करके जामे ओलमा की दी हुई फेहरिस्त को नज़रअंदाज़ करना गलत काम होगा.

इसके साथ ही मौलाना आबेदी ने एक अहम पहलु की तरफ भी हमे आगाह कराया की अगर  किसी मसले में हमारा मरजा कोई फतवा  सादिर नहीं करता है, तो इस जगह हम किसी भी मुजतहिद  की बात नहीं मान सकते; बल्कि जिन मुज्तहेदीन की फेहरिस्त जामे मुदर्रिसीन ने दी उन्ही में से किसी / दूसरे दर्जे के मुजतहिद की बात पर अमल करना ज़रूरी होगा।

अल्लाह हम सब को इन ज़रूरी बातो पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता करे ताकि हमारा ज़रूरी अमल  “तक़लीद” अच्छी तरह से मुकम्मल हो सके.

अल्लाह पूरी शिया क़ौम को अपने बुज़ुर्ग ओलमा ए दीन पर मुकम्मल भरोसा   करने की और उनके दीनी फरमान पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फर्माए.

अल्लाह हमें एक बनकर उसके दीन पर मुकम्मल तौर पर अमल पैरा होने की ताक़त और क़ूवत दे ताकि हम अपने ज़माने की इमाम के  जल्द ज़हूर के लिए काम कर सके.

इन सब का सिला अल्लाह हमें अपने वली-ए-हुज्जत वली-ए-अम्र इमाम महदी (अ) के ज़हूर की शक्ल में अता फर्माए.
 

ख़ुत्बा और बानियाने मजलिस के नाम एक महत्वपूर्ण अनुरोध

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ख़ुत्बा और बानियाने मजलिस के नाम एक महत्वपूर्ण अनुरोध

यह वोह वक़्त है जब जनता सुनने के लिए तैयार होती है! कर्बला का वाक़िया एक मोएज्ज़ा है! और मुहर्रम वोह वक़्त है जब लोग दीने इस्लाम का पैगाम सुनते हैं! समाज के हर वर्ग और विभाग के लोग अपने मौला इमाम हुसैन (अ:स) की मुहब्बत के लिए मजलिस में शिरकत करते हैं! कोई और मौक़ा ऐसा नहीं होता की लोग मजलिस या धार्मिक व्याख्यान सुनने के लिए इतना वक़्त देते हैं! ज़्याराते अर'बईन में इमाम हुसैन (अ:स) की कुर्बानी का मकसद लोगों को जेहालत से निकालना पाया जाता है! यह हमारी ज़िम्मेदारी है की इस अज़ीम मकसद के हसूल के लिए हम अपनी कोशिशेंजारी  सारी रखें!

ज़्यादातर  लोग ज़िम्मेदारी उठाना नहीं चाहतेबल्कि दुश्मनों की निंदा सुनने में दिलचस्पी लेते हैं और मज़ा उठाते हैं!

यह एक ऐसी मानव प्रकृति है की वो ऐसा कुछ नहीं सुनना चाहते हैं जहाँ इसे सोचने और इसके बाद अपने मिज़ाज के खिलाफ अमल करने की ज़रुरत पड़े! लोग अपने ऊपर ज़िम्मेदारी लेना पसंद नहीं करते हैंखासकर उस वक़्त जिसमे कारवाई करने या परिवर्तन लाने की मांग हो!  दूसरों की निंदा और अपने अकीदे और मान्याताओं की पुष्ठी को सुनना बहुत ही आसान और सुकूँ का काम है!  अलबत्ता इस बात का भी ख्याल रख़ा जाए की किसी भी तरह अनुचित भाषा का उपयोग जबकि वो किसी व्यक्ति विशेष या किसी ख़ास गिरोह के लिए इस्तेमाल की जाती हैवोह समाज में नफरत और हिंसा के इंधन का काम करती है!  यह बात इस्लाम के कमज़ोर होने का कारण भी बनती है! वर्तमान काल में यह आवश्यक है की इस्लाम में मुसलमानों के बीच आपस में शांती एवं एकता  हो! इसके अतिरिक्त बहुत सारे उलटे सीधे तर्क को आसानी से तार्किक चर्चा में मुकाबला करके रद किया जा सकता है! यह बता भी काफी गंभीरता से सोचनी चाहिए की बहुत सारी जगहों पर हमारी बहस नहीं बल्कि हमारी क्रिया और अमल लोगों को प्रभावित करती है! निंदा और ताना देने वाली बातों से  ही किसी अकेले इंसान में और न ही किसी समाज में सुधार लाया जा सकता है! लोग अपने आप को इस्लामी अध्यन करने में अपने वक़्त की बर्बादी समझते हैं! समय की पुकार है की हम अपने आप को और अपने समाज को बदलने की पुरो कोशिश करें! यह शायद संभव हो की अगर कोई खतीब (ज़ाकिर) केवल दूसरों की निंदा करे और लोगों को बदलने या अपना कर्त्तव्य निभाने पर ज़ोर न दे तो उसके मजलिस में मजमा (लोग) भी ज़्यादा होंगे और उसकी तारीफ भी बहुत होगी! परन्तु ईन सब बातों से वो मकसदे अहलेबैत को बढ़ावा देने में सहायक नहीं होगा! 

 अहलेबैत जो हम से चाहते है और उम्मीद रखते हैं - इसका क्या होगा?
इस में कोई शक नहीं है की हम अहलेबैत (अ:स) के माध्यम से ही अपने मोक्ष की उम्मीद करते हैं! अज़ादारी स्वयं अपने आप में एक ज़बरदस्त और बड़ी इबादत है! हमारी मजलिसों में हमारे विश्वास (अकीदा) और अहलेबैत (अ:स) का ज़िक्र होना चाहिए! एतिहासिक बातें भी होनी ज़रूरी हैं ताकि हमारी कौम और हमारे बच्चे अपने प्रशंसनीय इतिहास  को जान सकें और यह समझ सकें की किसी घटनायुद्ध और व्यक्ति विशेष का महत्त्व इस्लाम को बढाने और फैलाने और उजागर करने में क्या रहा है! यह तमाम बातें इस समय लाभदायक होंगी जब हम यह जाँ लेंगे की मजलिस के लिए हमारी जिम्मेदारियां क्या क्या हैं!
हमें मजलिस में अहलेबैत (अ:स) का पैगाम पहुंचाना है! अहलेबैत ने अपना सब कुछ इस्लाम की हिफाज़त में खर्च किया/लुटाया है! ईन की हर समय ताहि कोशिश रही की शरियते इस्लाम यानी सही अकीदे और अहकाम (नियम) जैसे हरामहलालमुस्तहबमकरूह और मोबाह की हिफाज़त हो सके! इन्हों ने हमेशा लोगों के सामने सही इस्लाम का प्रचार और प्रसार किया! तमाम अंबिया और इमामों की यही कोशिश रही है की तमाम मानवजाति अल्लाह की मर्ज़ी को पहचाने और इसके सामने अपनी इच्छाओं को झुकाए और शीश को नमन करे! 
अहलेबैत (अ:स) से मुहब्बत का तरीका है की हम उनका कहना मानेउनके बताये हुए रास्ते पर चलें जो की वास्तविकता में अल्लाह का बताया हुआ रास्ता है! इसके लिए ज़रूरी है की हम इनकी दी हुई शिक्षाओं को समझें! अगर हम अपनी ज़िंदगी इस तरह गुजारेंगे जैसे हम से इस्लाम चाहता है तो यकीनन हमारी दुन्या और आखेरत दोनों कामयाब हो जायेंगी! इसी कारणवश हमारी मजलिसें इस वक़्त कामयाब और लाभदायक होंगी जब हम ज़िक्रे विलायत के साथ साथ आइम्माए-मासूमीन (अ:स) की हम से आशाओं और उम्मीदों का भी तज़किरा करें!

मजलिसों में क्या होना चाहिए ?
हमें अपने आप को और समाज को बेहतर बनाना होगा! इस्लाम ने हमें वो तमाम तरीक़े बताएं हैंजिस से हम अपनी और समाज की संहिता  को बेहतर कर सकते हैं! जैसे बेहतर घरेलू ज़िंदगीगुनाहों से बचनादूसरों की मदद  और इस्लामी दुन्या के हालत से बाखबर रहना इत्यादि! परिवर्तन के लिए कुछ दिनों की मजलिस नाकाफी हैइसलिए मजलिस में आने वालों को यह याद दिलाना ज़रूरी है की इल्म हासिल करने का कार्य साल भर जारी रहना चाहिए! इस सिलसिले में इन्हें चाहिए की किताबोंकैसेटोंसीडीइन्टरनेट इत्यादि का प्रयोग करेंइस से लाभ उठायें जो आजकल आसानी से मिल जाती हैं! इस से निजी व्यक्तित्व और समाज की बढ़ोतरी होती है! जब हमारे इमाम-ज़माना (अ:त:फ) ज़हूर फरमाएंगे तो आप को ऐसे पाक लोगों की ज़रुरत होगी जो बाखबर भी हों और इस्लामी इल्म भी रखते हों! यह एक इस्लामी ज़िम्मेदारी है जाकिरों की भी और समाज का बा-असर लोगों की भी की वो मजलिस के ज़रिये लोगों में यह सारी सलाहियत और खूबी पैदा कर सकें!  यह ज़िम्मेदारी मजलिस में जाने वालों की भी है की वो किस किस्म की मजलिसों को बढ़ावा देते हैं और सराहते हैं!

कर्बला का पैग़ाम और कर्बला से मिली सीख

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कर्बला का पैग़ाम और कर्बला से मिली सीख

1. अमर बिल मारूफ और नही अनिल-मुनकर का महत्त्व
कर्बला का वाक़या हमें सिखाता है की सीधे रास्ते से न हटना और न ही अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना! आखेरत पर यक़ीन रखना और आखेरत में अपना अंजाम दिमाग में रखनाचाहे दुश्मन कितना ही ताक़तवर हो और चाहे इस से सामना करने के नतीजे कुछ भी हों! हाँ! मगर यह मुकाबला इल्म और शरियत के साथ हो! हिम्मत नहीं हारना और यह न कहना की हम क्या कर सकते हैं चाहे हमारे  दुश्मन (मीडिया और समाज में फैले हुए हों) के सामने हमारी औकात न हो हमें अपना काम करते रहना है और हमें यह हमेशा यक़ीन रखना है की हम इस पर काबू पा सकते हैं और लगातार जंग करते रहना हमारे बस में और ताक़त में है और परीणाम अल्लाह पर छोड़ना है!
2. तक़लीद और आलीम की सुहबत में रहनान की अपनी राये क़ायेम करना
एक बार अपने रहबर और आलिम पर यक़ीन होने के बाद इसकी राये पर अमल करना बगैर किसी झिझक के और बगैर अपनी राये के फ़िक़ह (इस्लामी क़ानून) की अहमियत बीबी ज़ैनब (स:अ) के हवालेहमें इस वाक्य में नज़र आती है के जब खैमे जल रहे थे और इमाम वक़्त (अ:स) से मस-अला पूछा जा रहा था!
3. क़ुरान का महत्व :
हत्ता की इमाम हुसैन (अ:स) का सरे-मुबारक नैज़े पर बुलंद है और तिलावत जारी है,
4. दीनी तालीम का महत्त्व और शरीके हयात क़ा चुनाव :
हमें दो मौकों पर नज़र आता है जब इमाम अली (अ:स) ने उम्मुल-बनीन (स:अ) का चुनाव किया हज़रत अब्बास (अ:स) के लिएऔर दूसरी जगह पर जहाँ इमाम हुसैन (अ:स) ने यजीदी फौजों को मुखातिब किया के यह ईन के पूर्वजों की तरबियत और गलतियों का नतीजा है की इमाम (अ:स) के मुकाबले पर जंग कर रहे हैं!
5. पति और पत्नी का रिश्ता
कर्बला हमें सिखाती है की पत्नीपाती के लिए राहत लायेजैसे इमाम हुसैन (अ:स) की कथनी है की रबाब (स:अ) और सकीना (स:अ) के बगैर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता! पत्नी अपने पती को खुदा का हुक्म मानने से न रोकेजैसे बीबी रबाब (स:अ) ने इमाम हुसैन (अ:स) को न रोका हज़रत असग़र (अ:स) को ले जाने से!  कभी कभार हमारी औरतें अपने पती को अपने बगैर हज पर जाने से रोकती हैं! औरतों को चाहिए की वो अपने पतियों के लिए मददगार बनें और उनकी हिम्मत बढायें हुकूक-अल्लाह (दैविक कर्त्तव्य) और हुकूक-अन्नास (सामाजिक कर्त्तव्य) को पूरा करने में!
6. इल्म (ज्ञान) की अहमियत (महत्त्व):
ताकि जिंदगियां अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक गुजारी जा सकें! इमाम (अ:स) की कुर्बानी का मकसद ज़्यारत अर-ब'ईन में चार अक्षरों में ब्यान किया गया है के "मैं गवाही देता हूँ के कुर्बानी का मुकम्मल (कुल) मकसद बन्दों को जहालत से बचाना था!
7. इखलास (भगवान् का कर्त्तव्य समझ करभगवान् की राह में अच्छा काम करो) :   
सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के लिए अपनी जिम्मेदारियों को अंजाम देनाबगैर किसी रबा (दिखावे) केकयामत पर मुकम्मल यक़ीन ही संसारिक फायदों और आराम को कुर्बान करके आखेरत के लिए हमेशा रहने वाला फायेदा हासिल करवा सकता है!
8. जज़्बात (भावनाओं) पर काबू
जब अल्लाह की ख़ातिर अमल होइस के साथ अपने जज़्बात (भावना) का प्रदर्शन बगैर सुलह के खुदा की ख़ातिर करो!
9. पर्दा का महत्त्व :
ना-महरमों (जो करीबी रिश्तेदार न हों)  से दूर रहना चाहे वोह करीबी रिश्तेदार ना-महरम हों या करीबी खानदानी दोस्त हों!
10. इमाम सज्जाद (अ:स) ने कहा की मेरा मानने वाला गुनाह से बचेदाढ़ी न मुडवाये और जुआ न खेले क्योंकि यह यज़ीदी काम हैं और हमें उस दिन की याद दिलाते हैं!
11. नमाज़ का महत्त्व : यह जंग के बीच में भी पढी गयी
12. अज़ादारी और नमाज़ दोनों मुस्तकिल वाजिब हैंऔर उनका टकराव नहीं जैसा की इमाम सज्जाद (अ:स) खुद सब से बड़े अजादार भी थे और सब से बड़े आबिद (नमाज़ी) भी!
13. ख़ुदा की मर्ज़ी के आगे झुकनाहर वक़्तहर जगह परइमाम (अ:स) ने सजदा-ए शुक्र बजा लाया जब की वोह मुसीबत में थेहमें भी चाहिए की पता करें की खुदा की मर्ज़ी क्या हैइस को माँ लेंऔर इस पर अमल करें!
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम व क़ियाम के उद्देश्य

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि----

1—
जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।

2—
एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।

3— 
जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तोआपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह कोप्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।

4—
एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है।
इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं-------

1-
इस्लामी समाज में सुधार।

2-
जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।

3-
जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।

4-
हज़रत पैगम्बर(स.) और हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) को किर्यान्वित करना।

5-
समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।

6-
अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में होजो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।
 
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम
1-बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।

2-
बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।

3-
कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुईकि हमने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।

4- 
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।

5-
इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।

6-
समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद

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इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद समाज से बुराईयों को दूर कर के अदालत (न्याय) को स्थापित करना और लोगों के जीवन को पवित्र बनाना है। यह उसी समय संभव हो सकता है जब इमामत का ओहदा लायक़आदिल व हक़ परस्त इंसान के पास हो। कोई समाज उसी समय अच्छा व सफ़ल बन सकता है जब उसके ज़िम्मेदार लोग नेक हों। इस बारे में हम आपके सामने दो हदीसे पेश कर रहे हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “ दीन को नुक़्सान पहुँचाने वाले तीन लोग हैं
१) बे अमल आलिमज़ालिम 
२)बदकार इमाम और 
३) जाहिल जो दीन के बारे में अपनी राय दे।


इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से रिवायत की है कि आपने फ़रमाया कि दो गिरोह ऐसे हैं अगर वह बुरे होंगे तो उम्मत में बुराईयाँ फैल जायेंगी और अगर वह नेक होंगे तो उम्मत भी नेक होगी। 

आप से पूछा गया कि या रसूलल्लाह वह दो गिरोह कौन हैं आपने जवाब दिया कि उम्मत के आलिम व हाकिम।

मुहम्मद ग़िज़ाली मिस्री ने बनी उमैय्याह के समय में हुकूमत में फैली हुई बुराईयों को इस तरह बयान किया है।
ख़िलाफ़त बादशाहत में बदल गयी थी।
हाकिमों के दिलों से यह एहसास ख़त्म हो गया थाकि वह उम्मत के ख़ादिम हैं। वह निरंकुश रूप से हुकूमत करने लगे थे और जनता को हर हुक्म मानने पर मजबूर करते थे।
कम अक़्लमुर्दा ज़मीरगुनाहगारगुस्ताख़ और इस्लामी तालीमात से ना अशना लोग ख़िलाफ़त पर क़ाबिज़ हो गये थे।
बैतुल माल (राज कोष) का धन उम्मत की ज़रूरतों व फ़क़ीरों की आवश्यक्ताओं पर खर्च न हो कर ख़लीफ़ाउसके रिश्तेदारों व प्रशंसको की अय्याशियों पर खर्च होता था।
तास्सुबजिहालत व क़बीला प्रथा जैसी बुराईयाँजिनकी इस्लाम ने बहुत ज़्यादा मुख़ालेफ़त की थीफिर से ज़िन्दा हो उठी थीं। इस्लामी भाई चारा व एकता धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही थी। अरब विभिन्न क़बीलों में बट गये थे। अरबों और अन्य मुसलमान के मध्य दरार पैदा हो गयी थी। बनी उमैय्याह ने इसमें अपना फ़ायदा देखा और इस तरह के मत भेदों को और अधिक फैलायाएक क़बीले को दूसरे क़बीले से लड़ाया। यह काम जहाँ इस्लाम के उसूल के ख़िलाफ़ था वहीं इस्लामी उम्मत के बिखर जाने का कारण भी बना।
चूँकि ख़िलाफ़त व हुकूमत ना लायक़बे हया व नीच लोगों के हाथों में पहुँच गई थी लिहाज़ा समाज से अच्छाईयाँ ख़त्म हो गयी थीं।
इंसानी हुक़ूक (आधिकारों) व आज़ादी का ख़ात्मा हो गया था। हुकूमत के लोग इंसानी हुक़ूक़ का ज़रा भी ख़्याल नही रखते थे। जिसको चाहते थे क़त्ल कर देते थे और जिसको चाहते थे क़ैद में डाल देते थे। सिर्फ़ हज्जाज बिन यूसुफ़ ने ही जंग के अलावा एक लाख बीस हज़ार इंसानों को क़त्ल किया था।
अखिर में ग़ज़ाली यह लिखते हैं कि बनी उमैय्याह ने इस्लाम को जो नुक़्सान पहुँचाया वह इतना भंयकर थाकि अगर किसी दूसरे दीन को पहुँचाया जाता तो वह मिट गया होता।

Maqsad e 9 Rabiul Awwal

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HUM 2 MAHINA 8 DIN GHUM MANANEY K BAAD JAB 9 RABILAWWAL AATA HAI JISKO HUM APNI ZUBAN ME EID-E-ZEHRA , EID-E-SHUJA KAHTE HAIN .
¨
JISKE MUTALLIQ TAREEKHON ME MILTA HAI K KHUN-E-IMAM  KA BADLA LENE K LIYE JANAB-E-MUKHTAR UTH KHADE HUE AUR UNHONE QATILAN-E-IMAM HUSAIN A.S. SE BADLA LENA SHURU KIA.
JISME SAB TO QATL HO GAYE MAGAR HURMULA MALOON JO QATIL-E-HUZRAT ALI ASGHAR THA WO HATH NHI A RAHA THA AKHIR KAAR WO EK DIN PAKDA GAYA AUR JANAB-E-MUKHTAR NE
USKO QATL KARNE K BAAD USKA SIR 4TH IMAM KI KHIDMAT ME PESH KIA.WO DIN 9 RABILAWWAL KA THA . IMAM NE APNI AURTON SE KAHA K APNA SOG (GHUM) KHATM KARO AUR KHUSHIYAN MANAO. AUR KUCH TAREEKHON ME MILTA HAI K 8 RABILAWAL KO HUMARE IMAM HASAN ASKARI A.S. KI SHAHADAT KI TAREEKH HAI AUR 9 RABILAWAL KO HUMARE 12TH IMAM KI TAAJ POSHI KA DIN HAI.

Maqsad e 9 Rabiul Awwal

MASOOMEEN KA IRSHAD HAI K JIS DIN TUMSE KOI GUNAH SAR ZAD NA HO WO DIN TUMHARE LIYE EID KA DIN HAI . AB HUMKO YE JAAN LENA CHAIYE K EID KA MAQSAD HAI APNE APKO GUNAHO SE DUR RAKHNA. NA K GUNAHO ME INVOLVE HONA .  TO AGAR GHAUR KAREN TO DEKHETE HAIN K HUM IS DIN KYA - KYA KARTE HAIN BALKI YUN KAHU K KYA NHI KARTE HAIN KON AISA GUNAH HAI JO HUM IS DIN NHI KARTE . HUM 2 MAHINA 8 DIN K MAJLIS-O-MATAM AUR AZADARI K PAIGHAM KO BHUL KAR GHALAT KAMON KO KAR K SARE SAWAB KO KHAK ME MILA DETE HAIN. HUMARE MUASHREY ME PUTLA BANA KAR US DIN JALANE KA RIWAJ HAI HUM KUCH KAREN YA NA KAREN MAGAR GHAR ME PUTLA ZAROOR JALAYENGE. FAHASH BATEN ZAROOR BAKENGE YE SAB KYA HAI? JAHILIYAT HI TO HAI . ARAY HUM SAB PADHEY LIKHE INSAN HAIN AUR TARAQQI YAFTA DAUR ME ZINDAGI GUZAR RAHE HAIN .HUMARA KAAM ITNA JAHILANA K IN RASOOMAT PAR SHARM A JAI. KYA HUMARE IS KAAM SE AHLULBAIT KHUSH HOTE HAIN? YA RANJIDA HOTE HAIN?  TO DOSTO SUNO PUTLA JALANE KA MAQSAD HAI K HUM APNE ANDAR KI BURAIYON KO JALA RHE HAIN . TO AZEEZON USKO JALANE SE PAHLE APNE ANDAR KI BURAI AUR RUHANI AMRAZ KO JALAO  KHATM KARO. JAISE BEPARDAGI , HASAD , KEENA , GHEEBAT , CHUGHALKHORI WAGHARAH KO APNE ANDAR NA PANAPNE DO. AUR AGAR HAIN TO USKO KHATM KARO AGAR YE CHIZEN HUM ME PAI JATI HAIN TO JO BHI GALI HUM US KHABEES PUTLE KO BANA KAR DE RAHE HAIN TO WO PALAT KAR HUM PAR HI WAPAS AYEGI.  AUR AGAR HUME USKO GALI DENI HI HAI TO KHUD KO US SAY ACHA AUR UNCHA BANAYEN. TAB TO HUME USKO BURA KAHNE KA HUQ HAI WARNA NHI. LOG KAHTE HAIN K UNHONE BIBI KA HUQ GHASB KIA . AUR UNKE PAHLU PE JALTA HUA DARWAZA GIRAYA JIS SAY JANAB-E-MOHSIN KI SHAHADAT WAQEY HUI. ISLIYE HUM UNHE BURA KAHTE HAIN . MAIN LOGON KI IN SAB BATON SE ITTEFAQ RAKHTI HUN . MAGAR FIR BHI YE BAR-BAR KAHUNGI K HUMKO UNHE BURA  KAHNE KA HUQ NHI HAI. IS WASTEY K KYA WAQAI HUM KHUD AHLULBAIT ATHAR KA HUQ ADA KAR RAHE HAIN? JAISE KHUMS , ZAKAT WAGHAIRAH KO NIKAL KAR JO HUM PAR WAJIB HAI ADA KARTE HAIN TO BIBI KHUSH HONGI NA K UNKE DUSHMANO KO GALI DENE SE .IS LIYE HUMARA MAQSAD YE HONA CHAIYE K HUM AHLULBAIT K BATAYE HUE USOOLON PAR CHATE HUE APNI ZINDAGI GUZAREN.
 
Writer : Sister Falaq Zaidi
Sipaah Jaunpur  

हमारे समाज में बहुत सी ईदें आती हैं ,आज जानिये ईद ए ज़हर के बारे में --मौलाना पैग़म्बर नौगांवी

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ईदे ज़हरा क्या है ?  ‌‌‌लेखक: पैग़म्बर नौगांवी

हमारे समाज में बहुत सी ईदें आती हैं जैसे ईद उल फि़त्र, ईदे क़ुरबान, ईदे मुबाहिला और ईदे ज़हरा वग़ैरह, यह सारी ईदें किसी वाक़ए की तरफ़ इशारा करती हैं।

ईद उल फि़त्रः पहली शव्वाल को एक महीने के रोज़े पूरे करने का शुकराना और फि़तरा निकाल कर ग़रीबों की ईद का सामान फ़राहम करने का ज़रिया है।

ईदे क़ुरबानः 10 जि़लहिज्जा हज़रत इसमाईल को ख़ुदा ने ज़बहा होने से बचा लिया था और उनकी जगह दुंबा ज़बहा हो गया था जिस की याद मुसलमानों पर हर साल मनाना सुन्नत है।

ईदे ग़दीरः 18 जि़लहिज्जा को ग़दीरे क़ुम में मौला ए कायनात हज़रत अली (अ0स0) की ताज पोशी की याद में हर साल मनाई जाती है, इस दिन रसूल अल्लाह ने अपने आख़री हज से वापसी पर ग़दीरे ख़ुम के मैदान में इमाम अली (अ0स0) को सवा लाख हाजियों के दरमियान अल्लाह के हुक्म से अपना जानशीन व ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया था।
ईदे मुबाहिलाः 24 जि़लहिज्जा को मनाई जाती है इस रोज़ अहले बैत (अ0स0) के ज़रिये इस्लाम को ईसाइयत पर फ़तह नसीब हुई थी।
ईदे ज़हराः 9 रबी उल अव्वल को मनाई जाती है और इस ईद को मनाने की बहुत सी वजहें बयान की जाती हैं। जैसेः
बाज़ लोग कहते हैं कि 9 रबी उल अव्वल को हज़रत फ़ातेमा (अ0स0) ज़हरा का दुश्मन हलाक हुआ था, लेहाज़ा यह ख़ुशी का दिन है इसी वजह से इस रोज़ को ‘‘ईदे ज़हरा‘‘ के नाम से जाना जाता है।
इस बारे में उलोमा व मुअर्रेख़ीन के दरमियान इख़्तलाफ़ पाया जाता है, बाज़ कहते हैं कि हज़रत उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को फ़ौत हुए और बाज़ दीगर कहते हैं कि इनकी वफ़ात 26 जि़लहिज्जा को हुई।
जो लोग यह कहते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउल अव्वल को फ़ौत हुए उनका क़ौल क़ाबिले एतबार नहीं है, अल्लामा मजलिसी इस बारे में इस तरह वज़ाहत फ़रमाते है किः
उमर इब्ने ख़त्ताब के क़त्ल किये जाने की तारीख़ के बारे में शिया और सुन्नी उलोमा में इख़तलाफ़ पाया जाता है (मगर) दोनों के दरमियान यही मशहूर है कि उमर इब्ने ख़त्ताब 26 या 27 जि़लहिज्जा को फ़ौत हुए।
(ज़ादुल मआद, पेज 470)
अल्लामा मजलिसी ने बिहारुल अनवार में भी इब्ने इदरीस की किताब ‘‘सरायर‘‘ के हवाले से लिखा है किः
हमारे बाज़ उलोमा के दरमियान उमर इबने ख़त्ताब की रोज़े वफ़ात के बारे में शुबहात पाए जाते हैं (यानी) यह लोग यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को फ़ौत हुए, यह नज़रया ग़लत है।
(बिहारुल अनवार , जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान)
अल्लामा मजलिसी किताब अनीस उल आबेदीन के हवाले से मज़ीद लिखते हैं कि:
अकसर शिया यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को क़त्ल हुए और यह सही नहीं है ... बतहक़ीक़ उमर 26 जि़लहिज्जा को क़त्ल हुए ... और इस पर साहिबे किताबे ग़र्रह, साहिबे किताबे मोजम, साहिबे किताबे तबक़ात, साहिबे किताबे मसारु उल शिया और इब्ने ताऊस की नस के अलावा शियों और सुन्नियों का इजमा भी हासिल है। (बिहारुल अनवार , जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान)
अगर यह फर्ज़ भी कर लिया जाए कि वह 9 रबीउल अव्वल को फ़ौत हुए ( जो कि ग़लत है ) तब भी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) की शहादत पहले हुई और आप के दुश्मन एक के बाद एक हलाक हुए ... तो फि़र अपने दुश्मनों की हलाकत से हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) किस तरह ख़ुश हुईं... लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह ग़ैर माक़ूल है।
बाज़ लोग यह कहते हैं कि 9 रबीउलअव्वल को जनाबे मुख़्तार ने इमाम हुसैन (अ0स0) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया ... लेहाज़ा यह रोज़ शियों के लिए सुरुर व शादमानी का दिन है।
हमने मोतबर तारीख़ की किताबों में बहुत तलाश किया लेकिन कहीं यह बात नज़र न आई कि जनाबे मुख़्तार ने 9 रबी उलअव्वल को इमाम हुसैन (अ0स0) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया था ... लेहाज़ा यह वजह भी ग़ैरे माक़ूल है।
बाज़ लोग यह भी कहते हैं कि जनाब मुख़्तार ने इब्ने जि़याद का सर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ0स0) की खि़दमत में मदीना भेजा और जिस रोज़ यह सर इमाम की खि़दमत में पहुँचा वह रबीउलअव्वल की 9 तारीख़ थी, इमाम (अ0स0) ने इब्ने जि़याद का सर देख कर ख़ुदा का शुक्र अदा किया और मुख़्तार को दुआऐं दीं और उसी वक़्त से अहलेबैत की ख़्वातीन ने बालों में कंघी और सर में तैल डालना और आँखों में सुरमा लगाना शुरु किया जो वाक़ए कर्बला के बाद से इन चीज़ों को छोड़े हुए थीं।
बिलफ़रज़ अगर सही मान भी लिया जाए तब भी यह ईद जनाबे ज़ैनब (अ0स0) और जनाबे सय्यदे सज्जाद (अ0स0) से मनसूब होनी चाहिए थी न की हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) ... और हमें भी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ0स0) की पैरवी करते हुए जि़यादा से जि़यादा शुक्रे ख़ुदा करना चाहिए था और जनाबे मुख़्तार के लिए दुआए ख़ैर करना चाहिए थी कि उन्होंने इमाम (अ0स0) और उनके चाहने वालों का दिल ठंडा किया, लेकिन यह ईद न तो चैथे इमाम (अ0स0) से मनसूब हुई और ना जनाबे ज़ैनब के नाम से मशहूर है, लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह भी ग़ैर माक़ूल है, अगर इस रिवायत को सही मान लिया जाए तो इस पर यह एतराज़ होता है कि जिनके घर में शरीयत नाजि़ल हुई, जिनके सामने अहकाम नाजि़ल हुए, जो अख़्लाक़े इस्लामी का नमूना थे, जिनहोंने सफ़ाई सुथराइ की बहुत ताकीद की है वह इतने दिन तक किस तरह बग़ैर सर साफ़ किए हुए रहे ? और किस समाज में सर को साफ़ करना या आँखों में सुर्मा डालना ख़ुशी की अलामत समझा जाता है ? जो अहले बैत (अ0स0) ने वाक़ए कर्बला के बाद एक अरसे तक न किया ? लेहाज़ा इस कि़स्से पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
बाज़ उलोमा की तहक़ीक़ के मुताबिक़ 9 रबी उल अव्वल को जनाबे रसूले ख़ुदा (स0अ0) की शादी जनाबे ख़दीजा (स0अ0) से हुई थी और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) हर साल इस शादी की सालगिरह मनाती थीं और जशन किया करती थीं, नए लिबास और तरह तरह के खाने मुहय्या करती थीं, लेहाज़ा आपकी सीरत पर अमल करते हुए शिया ख़्वातीन ने भी यह सालगिरह मनानी शुरु की और यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा, आपके बाद यह ख़ुशी आप से मनसूब हो गई और इस तरह 9 रबी उल अव्वल का रोज़ शियों के दरमियान ईदे ज़हरा के नाम से मनसूब हो गया, लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह मुनासिब मालूम होती है, एक शख़्स ने आयतुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता से सवाल किया कि:
मशहूर है कि रबी उल अव्वल की नवीं तारीख़ जनाबे फ़ातेमा ज़हरा की ख़ुशी का दिन था और है और इस हाल में है कि उमर इब्ने ख़त्ताब के 26 जि़लहिज्जा को ज़ख़्म लगा और 29 जि़लहिज्जा को फ़ौत हुए लिहाज़ा यह तारीख़ हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) से बाद की तारीख़ है तो फि़र हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) (अपने दुश्मन के फ़ौत होने पर ) किस तरह ख़ुश हुईं ?
इसका जवाब आयातुल्लाह काशेफुल ग़ेता ने इस तरह दिया किः
श्यिा पुराने ज़माने से रबीउलअव्वल की नवीं तारीख़ को ईद की तरह ख़ुशी मनाते हैं किताबे इक़बाल में सैय्यद इब्ने ताऊस ने फ़रमाया है कि 9 रबीउलअव्वल की ख़ुशी इस लिए है कि इस तारीख़ में उमर इब्ने ख़त्ताब फ़ौत हुए हैं और यह बात एक ज़ईफ़ रिवायत से ली गयी है जिस को शैख़ सदूक़ ने नक़्ल किया है, लेकिन हक़ीक़ते अमर यह है कि 9 रबीउलअव्वल को शियों की ख़ुशी शायद इस वजह से है कि 8 रबी उल अव्वल को इमाम हसन असकरी (अ0स0) शहीद हुए और 9 रबीउलअव्वल इमामे ज़माना (अ0स0) की इमामत का पहला रोज़ है .....इस ख़ुशी का दूसरा एहतमाल यह है कि 9 और 10 रबी उल अव्वल पैग़म्बरे इस्लाम (स0अ0) की जनाबे ख़दीजा से शादी का रोज़ है और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स0अ0) हर साल इस रोज़ ख़ुशी मनाती थीं और शिया भी आपकी पैरवी करते हुए इन दिनों में ख़ुशी मनाने लगे, मगर शियों को इस ख़ुशी की यह वजह मालूम नहीं है।
( आयातुल्लाह काशेफ़ूल ग़ेता, सवाल व जवाब, पेज 10 व 11, तरजुमा मौलाना डा0 सै0 हसन अख़तर साहब नौगांवी, मिनजानिब इदारा ए तबलीग़ व इशाअत नौगावां सादात ) इस सिलसिले में बाज़ हज़रात व ख़्वातीन ग़लत बयानी करते हुए कहते हैं कि इस दिन जो चाहें गुनाह करें उस पर अज़ाब नहीं होता और फ़रिश्ते लिखते भी नहीं और यह लोग अल्लामा मजलिसी की किताब बिहारुल अनवार की उस तवील हदीस का हवाला देते हैं जिसको अल्लामा मजलिसी ने सै0 इब्ने ताऊस की किताब ज़वाएदुल फ़वायद से नक़ल किया है ... हां बिहारुल अनवार में एक हदीस ऐसी ज़रुर लिखी हुई है, मगर यह हदीस चन्द वजहों की बिना पर क़ाबिले एतबार नहीं हैः
1- इस हदीस में लिखा है कि 9 रबीउलअव्वल को जो गुनाह चाहें करें उस को फ़रिश्ते नहीं लिखते और न ही अज़ाब किया जाता है।
मगर हम कऱ्ुआने मजीद के सूरा ए ज़लजला की आयत 7 और 8 में पढ़ते हैं किः
यानी जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर नेकी की वह उसे देख लेगा और जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर बदी की है तो वह उसे देख लेगा।
और हमारे सामने रसूले ख़ुदा (स0अ0) की वह हदीस भी है जिस का मफ़हूम यह है किः
जब तुम्हारे पास मेरी कोई हदीस आए तो उसे किताबे ख़ुदा के मेयार पर परखो अगर कऱ्ुआन के मुआफि़क़ है तो उसे क़बूल कर लो और अगर उसके खि़लाफ़ है तो दीवार पर दे मारो (यानी क़बूल न करो)
(मिरज़ा हबीबुल्ला हाशमी, मिनहाजुल बराअत फ़ी, शरह नहजुल बलाग़ा, जिल्द 17, पेज 246, तरजमा हसन ज़ादा आमली, मतबूआ तेहरान )
मज़कूरा रिवायत कऱ्ुआन से टकरा रही है लेहाज़ा क़ाबिले अमल नहीं है। 2- इस हदीस के रावी मोतबर नहीं हैं, इस के बारे में जब मैंने क़ुम में आयातुल्ला शाहरुदी से दरयाफ़्त किया था तो आपने यही फ़रमाया था किः
इस रिवायत को अल्लामा मजलिसी ने किताबे इक़बाल से नक़्ल किया है और इसके रावी मोतबर नहीं हैं ... 9 रबी उल अव्वल का मरफ़ू उल क़लम न होना ( यानी इस दिन भी गुनाह लिखे जाते हैं ) अज़हर मिनश शम्स (यानी बहूत वाज़ेह ) है।
लेहाज़ा यह रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।


3- इस रिवायत में एक जुमला इस तरह आया हैः
रसूल अल्लाह (स0अ0) ... ने इमाम हसन (अ0स0) और इमाम हुसैन (अ0स0) (जो कि 9 रबीउलअव्वल को आपके पास बैठे थे ) से फ़रमाया कि इस दिन की बरकत और सआदत तुम्हारे लिए मुबारक हो क्योंकि आज के दिन ख़ुदावन्दे आलम तुम्हारे और तुम्हारे जद के दुश्मनों को हलाक करे गा।
रसूले इस्लाम अगर आने वाले ज़माने में रुनुमा होने होने वाले किसी वाक़ए या हादसे की ख़बर दें तो सौ फी़ सद सही , सच, और होने वाला है जिस में किसी शक व शुबह की गुनजाइश नहीं है क्योंकि आप सच्चा वादा करने वाले हैं।

लेकिन मोतबर तारीख़ की किताब में किसी भी दुश्मने रसूल व आले रसूल की हलाकत 9 रबीउलअव्वल के रोज़ नहीं मिलती, लेहाज़ा रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।


4- इस रिवायत के आखि़र में इमाम अली (अ0स0) के हवाले से 9 रबीउलअव्वल के 57 नाम जि़क्र किए गए हैं जिन में यौमो रफ़इल क़लम (गुनाह न लिखे जाने का दिन), यौमो सबीलिल्लाहे तआला (अल्लाह के रास्ते पर चलने का दिन ) यौमो कतलिल मुनाफि़क़ (मुनाफि़क़ के क़त्ल का दिन ) यौमु ज़्ज़ोहदे फि़ल कबाइरे (गुनाहे कबीरा से बचने का दिन ), यौमुल मौएज़ते (वाज़ व नसीहत का दिन), यौमुल इबादते (इबादत का दिन) भी शामिल हैं जो आपस में एक दूसरे से टकरा रहे हैं यानी 9 रबीउलअव्वल को गुनाह न लिखने का दिन कह कर सब कुछ कर डालने का शौक़ दिलाया है तो यौमे नसीहत व इबादत व ज़ोहोद कह कर गुनाहों से रोका भी गया है और यह तज़ाद कलामे मासूम (अ0स0) से बईद है, इसके अलावाह क़त्ले मुनाफि़क़ का दिन भी कहा गया है जिस की तरदीद आयातुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता और आयातुल्लाह शाहरुदी के हवाले से हम कर ही चुके हैं, लेहाज़ा यह रिवायत मोतबर नहीं कही जा सकती।


5- इस रिवायत में एक जुमला यह भी आया है किः
अल्लाह ने वही के ज़रिए हज़रत रसूल (स0अ0) से कहलाया किः ऐ मुहम्मद (स0अ0) मैंने किरामे कातेबीन को हुकम दिया है कि वह 9 रबी उल अव्वल को आप और आपके वसी के एहतराम में लोगों के गुनाहों और उनकी ख़ताओं को न लिखें।


जबकि दूसरी तरफ़ कऱ्ुआने मजीद में ख़ुदावन्दे आलम इस तरह इरशाद फ़रमाता है किः
यह हमारी किताब (नामा ए आमाल) है जो हक़ के साथ बोलती है और हम इसमें तुम्हारे आमाल को बराबर लिखवा रहे थे।
(सूरा ए जासेया, आयत 29 )
इस से मालूम होता है कि इन्सानों के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं और किसी भी दिन को इस से अलग नहीं किया गया है।

और जब नामाए आमाल सामने रखा जाएगा तो देखोगे देख कर ख़ौफ़ज़दा होंगे और कहेंगे हाय अफ़सोस! इस किताब (नामाए आमाल) ने तो छोटा बड़ा कुछ नहीं छोड़ा है और सब को जमा कर लिया है और सब अपने आमाल को बिलकुल हाजि़र पाऐंगे और तुम्हारा परवरदिगार किसी एक पर भी ज़ुल्म नहीं करता है।
(सूरा ए कहफ़, आयत 49)

इस आयत से भी साफ़ ज़ाहिर होता है कि इनसानों के आमाल बराबर लिखे जाते हैं और कोई भी मौक़ा और दिन इस से अलेहदा नहीं है।


इस रोज़ सारे इनसान गिरोह गिरोह क़ब्रों से निकलेंगे ताकि अपने आमाल को देख सकें फिर जिस शख़्स ने ज़र्रा बराबर नेकी की है वह उसे देखेगा और जिसने ज़र्रा बराबर बुराई की है वह उसे देख लेगा।
( सूरा ए ज़लज़ला, आयत 5 व 18 )
इस आयत से भी ज़ाहिर होता है कि इन्सानों के छोटे बड़े हर कि़स्म के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं।


यह रिवायत कऱ्ुआन से टकरा रही है लेहाज़ा मोतबर नहीं है।
हो सकता है बाज़ हज़रात यह एतराज़ करें कि इतनी मोतबर शख़सियात जैसे अल्लामा इब्ने ताऊस, शैख़ सदूक़ और अल्लामा मजलिसी वग़ैरा ने किस तरह ज़ईफ़ रिवायतों को अपनी किताबों में जगह देदी ?
इसका जवाब यह है कि शिया उलोमा ने कभी भी अहले सुन्नत की तरह यह दावा नहीं किया है कि हमारी किताबों में जो भी लिखा है वह सब सही है, बलकि हमें इनकी छान बीन की ज़रुरत रहती है, क्योंकि जिस ज़माने में यह किताबें मुरततब कि गईं वह पुर आशोब दौर था और शियों की जान व माल, इज़्ज़त व आबरु के साथ साथ कलचर भी ग़ैर महफ़ूज़ था जिसकी मिसालों से तारीख़ का दामन भरा हुआ है, मुसलमान हुकमरान शियों के इलमी सरमाए को नज़रे आतिश करना हरगिज़ न भूलते थे, ऐसे माहौल में हमारे उलमा ए किराम ने हर उस रिवायत और बात को अपनी किताबों मं जगह दी जो शियों से ताअल्लुक़ रखती थी, जिसमें बाज़ ग़ैर मोतबर रिवायात का शामिल हो जाना बाइसे ताअज्जुब नहीं है, चूँकि उस ज़माने में छान फटक का मौक़ा न था इस लिए यह काम बाद के उलोमा ने फ़ुरसत से अन्जाम दिया, इसी लिए तो आयातुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता और आयातुल्लाह शाहरुदी के अलावा दीगर मराजऐ किराम 9 रबीउलअव्वल वाली इस रिवायत को ज़ईफ़ मानते हैं।
हमें चाहिए कि इस दिन भी इसी तरह अपने आप को गुनाहों से दूर रखें जिस तरह दूसरे दिनों में बचाना वाजिब है, हमारे आइम्मा और फ़ुक़हा ए इज़ाम व मराजऐ किराम का यही हुक्म है, जब मेंने इस बारे में मराजऐ किराम आयातुल्लाहिल उज़मा सै0 अली ख़ामनई, आयातुल्लााह मुकारिम शीराज़ी, आयातुल्लाह फ़ाजि़ल लंककरानी,


आयातुल्लाह अराकी और आयातुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी से क़ुम में सवाल किया किः
बाज़ लोग आलिम व ग़ैर आलिम इस बात के मोतकि़द हैं कि 9 रबीउलअव्वल से (जो कि ईदे ज़हरा से मनसूब है) 11 रबीउलअव्वल तक इन्सान जो चाहे अनजाम दे चाहे वह काम शरअन नाजायज़ हो तब भी गुनाह शुमार नहीं होगा और फ़रिश्ते उसे नहीं लिखंेगे, बराए मेहरबानी इस बारे में क्या हुक्म है बयान फ़रमाइए।
आयातुल्लाहिल उज़मा सै0 अली ख़ामनई साहब ने इस तरह जवाब दिया किः शरीअत की हराम की हुई वह चीज़ें जो जगह और वक़्त से मख़सूस नहीं हैं किसी मख़सूस दिन की मुनासबत से हलाल नहीं हांेगी बलकि ऐसे मुहर्रेमात हर जगह और हर वक़्त हराम हैं और जो लोग बाज़ अय्याम में इनको हलाल की निसबत देते हैं वह कोरा झूट और बोहतान है और हर वह काम जो बज़ाते ख़ुद हराम हो या मुसलमानों के दरमियान तफ़रक़े का बाइस हो शरअन गुनाह और अज़ाब का बाइस है।

आयातुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी साहब का जवाब यह थाः

यह बात (कि 9 रबीउलअव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) सही नहीं है और किसी भी फ़क़ीह ने ऐसा फ़तवा नहीं दिया है, बलकि इन अय्याम में तज़किया ए नफ़स और अहलेबैत (अ0स0) के अख़लाक़ से नज़दीक होने और फ़ासिक़ व फ़ाजिरों के तौर तरीक़ों से दूर रहने की ज़्यादा कोशिश करनी चाहिए।

आयातुल्लाह फ़ाजि़ल लंककरानी साहब ने यूँ जवाब दिया कि:
यह एतक़ाद (कि 9 रबी उल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) सही नहीं है, इन दिनों में भी गुनाह जायज़ नहीं है, मज़कूरा ईद (ईदे ज़हरा) बग़ैर गुनाह के मनाई जा सकती है।

आयातुल्लाह अराकी साहब ने तहरीर फ़रमाया कि:
वह काम जिनको शरीअते इस्लाम ने मना किया है और मराजऐ किराम ने अपनी तौज़ीहुल मसाइल में जि़क्र किया है किसी भी वक़्त जायज़ नहीं हैं और यह बातें कि (9 रबीउल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) मोतबर नहीं हैं।
आयातुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी साहब का जवाब यह था किः

यह बात कि (9 रबीउलअव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) अदिल्ला ए अहकाम के उमूमात व इतलाक़ात के मनाफ़ी है और ऐसी मोतबर रिवायत कि जो इन उमूमी व मुतलक़ दलीलों को मख़सूस या मुक़य्यद करदे साबित नहीं है बिलफ़र्ज़ अगर ऐसी कोई रिवायत होती भी तो यह बात अक़्ल व शरीअत के मनाफ़ी है और ऐसी मुक़य्यद व मुख़ससिस दलीलें मुनसरिफ़ है ...।

यह बात वाज़ेह होजाने के बाद अब एक सवाल और बाक़ी रह जाता है वह यह कि इस ख़ुशी को किस तरह मनाऐं ... ? इसी तरह जैसे अकसर बसतियों में मनाई जाती है ? या फि़र इसमें तबदीली होनी चाहिए ?
यह ख़ुशी इमामे ज़माना (अ0स0) और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ0स0) से मनसूब है तो क्या हमें उन मासूमीन (अ0स0) के शायाने शान इस ख़ुशी को नहीं मनाना चाहिए ?... हमें क्या हो गया है! अपने जि़न्दा इमाम (अ0स0) की ख़ुशी को इस अन्दाज़ से मनाते हैं ? दुनिया की जाहिल तरीन क़ौमें भी अपने रहबर की ख़ुशी इस तरह न मनाती होंगी ...

अफ़सोस! आज कल अगर किसी सियासी व समाजी शख़सीयत के एज़ाज़ में जलसे जलूस मुनअकि़द किए जाते हैं तो उनको उसी के शायाने शान तरीक़े से इख़तताम तक पहुँचाने की कोशिश भी की जाती है।
लेकिन ईदे ज़हरा (अ0स0) जो ख़ातूने जन्नत, जिगर गोशए रसूल (स0अ0), ज़ौजा ए अली ए मुरतज़ा (स0अ0) उम्मुल अइम्मा ज़हरा बतूल (स0अ0) के नाम से मनसूब है उसके  साथ  इन्साफ नहीं  किया जाता |

इसके अलावा आलमे इस्लाम पर जिस तरह ख़तरात के बादल छाए हुए हैं वह अहले नज़र से पोशीदा नहीं है, कितना अच्छा हो अगर ईदे ज़हरा अपने हक़ीक़ी माना में इस तरह मनाई जाए जिस में तमाम मुसलेमीन शरीक हो सकें।

तबर्रा फ़ुरु ए दीन से तअल्लुक़ रखता है और फ़ुरु ए दीन का दारो मदार अमल से है ... अगर कोई मुसलमान सिर्फ़ ज़बान से कहे कि नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, ख़ुम्स वग़ैरा वाजिब हैं तो यह तमाम वाजेबात जब तक अमाली सूरत में अदा न हो जाऐं गरदन पर क़ज़ा ही रहेंगे ... फ़ुरु ए दीन के वाजिबात वक़्त और ज़माने से मख़सूस हैं, जिस तरह नमाज़ के औक़ात बताए गए हैं इसी तरह रोज़ा, ज़कात, हज और ख़ुम्स वग़ैरा का ज़माना भी मुअय्यन है, लेकिन अम्रबिल मारुफ़, नही अनिल मुनकर, तवल्ला और तबर्रा यह दीन के ऐसे फ़ुरु हैं जिनके लिए कोई वक़्त और ज़माना मुअय्यन नहीं है, बिल ख़ुसूस तवल्ला और तबर्रा से तो एक लम्हे के लिए भी ग़ाफि़ल नहीं रह सकते, यानी हम यह नहीं कह सकते कि एक लम्हे के लिए भी मुहब्बते अहलेबैत (स0अ0) को दिल से निकाल दिया गया है, या एक लमहे के लिए दुश्मनाने अहलेबैत (स0अ0) के दुश्मनों के किरदार को अपना लिया गया है, जब ऐसा है ... तो फिर तबर्रा को 9 रबी उलअव्वल से कियों मख़सूस कर दिया गया ? इसी दिन इसकी क्यांे ताकीद होती है ? बाक़ी दिनों में इस तरह क्यों याद नहीं आता ? वह भी सिर्फ़ ज़बानी ! ...

ज़बान से तबर्रा काफ़ी नहीं है बलकि अमाली मैदान में आकर तबर्रा करें यानी अहले बैत (अ0स0) के दुश्मनों की इताअत व हुक्मरानी दिल से क़बूल न करें और इनके पस्त किरदार को न अपनाऐं। यह कैसे हो सकता है कि कोई शिया जो ख़्ुाम्स न निकालता हो और बेटियों को मीरास से महरुम रखता हो वह ग़ासेबीन पर लानत करे और उस लानत में ख़ुद भी शामिल न होजाए।

वह शिया जो अपने अमले बद से अहले बैत (अ0स0) को नाराज़ करता हो और वह अहलेबैत (अ0स0) को सताने वालों पर लानत करे और उस लानत के दायरे में ख़ुद भी न आ जाए।
याद रखिए ! लानत नाम पर नहीं, किरदार पर होती है इसी लिए उसका दायरा बहुत बड़ा होता है।

अब सूरए इब्राहीम की आयत नंबर १२ - मानवीय समर्थकों पर भरोसा नुकसान का सौदा

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और हम ईश्वर पर भरोसा क्यों न करें जबकि उसी ने (कल्याण के) मार्गों की ओर हमारा मार्गदर्शन किया है और तुम्हारी ओर से दी जाने वाली यातनाओं पर हम धैर्य करेंगे और भरोसा करने वालों को तो केवल ईश्वर पर ही भरोसा करना चाहिए। (14:12)

क़ुरआने मजीद इस आयत में कहता है कि जिस ईश्वर के हाथ में मनुष्य का कल्याण व सौभाग्य है, उसके अतिरिक्त किस पर भरोसा एवं विश्वास किया जा सकता है? अल्बत्ता ईश्वर पर भरोसे का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य समाज से कट जाए और एकांत में रहने लगे, बल्कि ईश्वर पर भरोसे का अर्थ कठिनाइयों के समक्ष डटे रहना तथा यातनाओं को सहन करना है।
यातनाएं देना और समस्याएं खड़ी करना विरोधियों का काम है तथा सत्य के मार्ग पर डटे रहना, ईमान वालों की शैली है। इस संघर्ष में ईमान वालों को ईश्वर का समर्थन प्राप्त होता है जबकि विरोधी मानवीय समर्थकों पर भरोसा करते हैं कि जो ईश्वरीय संकल्प के मुक़ाबले में टिकने की क्षमता नहीं रखते।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का कथन है कि ईश्वर पर वास्तविक भरोसे का चिन्ह यह है कि तुम उसके अतिरिक्त किसी अन्य से न डरो, और यही ईमान की कुंजी है।
इस आयत से हमने सीखा कि जो ईश्वर मार्गदर्शन करता है वह सहायता भी करता है, अतः हमें केवल उसी पर भरोसा करना चाहिए।
ईश्वर के मार्ग पर चलने में कठिनाइयां सहन करनी ही पड़ती हैं, विरोधियों की यातनाओं और बाधाओं के कारण अपने ईमान को नहीं छोड़ना चाहिए। सच्चे ईमान वाला किसी भी स्थिति में सत्य पर आस्था और कर्म को नहीं छोड़ता।


कुछ अहम् सवालों के जवाब कुरान से |

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सवाल- आयते ततहीर किस सूरे में है
जवाब – सूर -ए- अहज़ाब आयत न. 33
सवाल- आयते विलायत किस सूरे में है ?
जवाब- सूर -ए- मायदा आयत न. 55
सवाल- ياا يها الرسول بلغ ما انزل اليك من ربك   किस सूरे की आयत है?
जवाब- सूर-ए- मायदा आयत न. 67
सवाल—आयते मुबाहेला किस सूरे में है?
जवाब- सूर-ए- आलि इमरान आयत न. 61
सवाल- يا ايها الذين امنوا اطيعوا الله و اطيعوا الرسول و اولي الامر منكم किस सूरे की आयत है?
जवाब- सूर-ए- निसा आयत न. 54
सवाल- तक़वे और सच्चों की पैरवी का हुक्म किस सूरे में दिया गया है?
जवाब- सूर-ए –तौबा आयत न.119
सवाल- अहले ज़िक्र से सवाल पूछने का हुक्म किस सूरे में है?
जवाब- सूर-ए- नहल आयत न.43
सवाल- ونريد ان نمن علي الذيناستضعفوا في الارض و نجعلهم ائمة و نجعلهم الوارثين  किस सूरे की आयत है?
जवाब- सूर -ए- क़िसस आयत न. 5
सवाल- नबी पर सलवात भेजने का हुक्म किस आयत में है?
जवाब- सूर-ए- अहज़ाब की आयत न.56 में।
सवाल- قل لا أسئلكم عليه اجرا الا المودة في القربيइस आयत का तर्जमा क्या?
जवाब- ऐ रसूल आप कह दीजिये कि मैं रिसालत का कोई अज्र नही चाहता मगर यह कि मेरे क़राबतदारों से मुहब्बत करो।
सवाल- वाजिब सजदों वाली आयतें किन किन सूरों में हैं और कौन कौनसी आयते है ?
जवाब-  
  1. सूर -ए- सजदा आयत न.15
  2. सूर -ए- फ़ुस्सेलत आयत न.38
  3. सूर -ए- नज्म आयत न.62
  4. सूर -ए- अलक़ आयत न.19  
सवाल- क्या आयते सजदा को जनाबत की हालत में पढ़ सकते हैं?
जवाब- नही, जनाबत की हालत में आयते सजदा को पढ़ना हराम है।
सवाल- क्या क़ुरआन में तहरीफ़ हुई है?
जवाब- नही, क़ुरआन में तहरीफ़ नही हुई है।
सवाल- दीन के कामिल होने का ऐलान किस आयत में हुआ है?
जवाब- सूर-ए- मायदा आयत न. 3
सवाल- सूर-ए- दहर किन की मदह में नाज़िल हुआ?
जवाब- सूर-ए- दहर अहलेबैत की मदह में नाज़िल हुआ।
सवाल- क़ुरआन के किस सूरे में सबसे ज़्यादा आयतें हैं ?
जवाब- सूर-ए-बक़रा में 286 आयतें।
सवाल- क़ुरआन का सबसे छोटा सूरा कौनसा है?
जवाब- सूर-ए- कौसर तीन आयतें।
सवाल- क़ुरआन मे रसूल के किस दुश्मन की नाम लेकर बुराई की गई है?
जवाब- अबुलहब की।
सवाल- कुरआन में कुल कितने सूरे हैं ?
जवाब- कुरआन में 114 सूरे हैं।
सवाल- सबसे पहले किस सूरे की आयतें नाज़िल हुईं ?
जवाब- सूर-ए- अलक़ की पहली सात आयतें।
सवाल- मक्की सूरे किन सूरों को कहा जाता है ?
जवाब- जो सूरे हिजरत से पहले नाज़िल हुए उनको मक्की कहा जाता है चाहे वह किसी भी मक़ाम पर नाज़िल हुए हो।
सवाल- मदनी सूरे किन सूरों को कहा जाता है?
जवाब- जो सूरे हिजरत के बाद नाज़िल हुए उनको मदनी कहा जाता है चाहे, फ़तहे मक्का के मौक़े पर मक्के में ही नाज़िल हुए हो।
सवाल- ग़दीर के मैदान में कौनसी आयतें नाज़िल हुईं ?  
जवाब- सूर-ए- मायदा की आयतन.3 और 67
सवाल- सबसे पहली वही कब नाज़िल हुई ?
जवाब- 27 रजब को।
सवाल- क़ुरआन पर ज़ेर ज़बर पेश किसने लगाये?
जवाब- हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शागिर्द अबु असवद दौइली ने।
सवाल- अबु असवद दौइली ने ज़ेर, ज़बर और पेश को किस तरह लिखा?
जवाब- ज़बर के लिए लाल रंग का एक नुक़्ता हर्फ़ के ऊपर, ज़ेर के लिए लाल रंग का एक नुक़्ता हर्फ़ के नीचे और   पेश के लिए लाल रंग का एक नुक़्ता हर्फ़ के आगे।
सवाल- क़ुरआन के हर्फ़ों पर नुक़्ते किस ने लगाये ?
जवाब- अबु असवद दौइली के शागिर्द याहिया बिन यामुर और नस्र बिन आसिम ने।
सवाल- क़ुरान में नुक़्तों की शक्ल में मौजूद ज़ेर, ज़बर पेश को मौजूदा सूरत किसने दी?
जवाब- ख़लील बिन अहमद फ़राहीदी ने। 

इस आयतल कुर्सी का सवाब उसे बक्श दें जिसने आपको इसे पढना सिखाया |

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दादी माँ ने ही उसे क़ुरआन पढ़ना सिखाया था और सूर-ए-हम्द, इन्ना आतैना और क़ुल हुवल्लाह याद कराने के बाद आयतलकुर्सी भी याद कराई थी। यह सोच कर उसने डेक्स पर रखा हुआ क़ुरआन खोल लिया और आयतलकुर्सी निकाल कर पढ़ने लगा।

"अल्लाहू ला-इला-ह इल्ला हु-व"

अल्लाह के अलावा कोई ऐसा नहीं है कि जिसकी इबादत की जाए और जिसे ख़ुदा माना जाए। इसका तो पहसला ही जुमला बहुत ख़ास है। अगर इस जुमले को फैला दिया जाए तो पूरा इस्लाम बन जाए और अगर पूरे इस्लाम को समेट कर एक जुमले में बयान करना चाहें तो यही जुमला पेश किया जा सकता है क्यों कि इस्लाम के हर अक़ीदे और अमल की बुनियाद यही तौहीद यानी एक ख़ुदा को मानना और उस पर ईमान लाना है।
तौहीद का मतलब सिर्फ़ यह नहीं है कि ख़ुदा दो नहीं है, एक है बल्कि इसका मतलब यह है कि हमारा ख़ालिक़ और मालिक और इस दुनिया को चलाने वाला जिस के हाथ में सब कुछ है वह सिर्फ़ ख़ुदा है। ख़ुदा की तरफ़ से हर आने वाले नबी और मासूम इमामों ने यही पैग़ाम पहुंचाया है।

"अल-हय-युल क़ैय-यूम"

वह ज़िन्दा है लेकिन दूसरों की तरह से नहीं यानी दूसरी ज़िन्दा मख़लूक़ की ज़िन्दगी अपनी नहीं है बल्कि उन को यह ज़िन्दगी ख़ुदा ने दी है और वह अपनी ज़िन्दगी बाक़ी रखने के लिए भी ख़ुदा की मोहताज हैं। लेकिन ख़ुदा ऐसा नहीं है क्यों कि वह किसी का मोहताज नहीं है और सब को उसकी ज़रूरत है और वही सब को बाक़ी रखे हुए है।

"ला ताख़ुज़ु-हू सि-न-तुँ वला नौम"

न तो उसे ऊँघ आती है और न ही नींद। हर ज़िन्दा मख़लूक़ को ऊँघ और नींद आती है जिसकी वजह से वह हर वक़्त काम नहीं कर सकते हैं लेकिन जो पूरी दुनिया का चलाने वाला हो उसे तो ऐसा ही होना चाहिए कि उसे ऊँघ और नींद न आए वरना यह दुनिया ख़त्म हो जाएगी।
और इसका मतलब यह है कि वह दोपहर का शोर-शराबा हो या रात का सन्नाटा, ख़ुदा को किसी भी वक़्त पुकारा जा सकता है और उस से हर वक़्त बात की जा सकती है।

"लहू मा फिस्समा-वाति वमा फ़िल अर्ज़"

ज़मीन और आसमान में जो कुछ है वह ख़ुदा का है। यह भी बहुत अहम जुमला है क्यों कि अगर हम दिल से मान लें कि ज़मीन व आसमान में जो कुछ है वह ख़ुदा का ही है तो, हम ने दुनिया की हर चीज़ के बारे में अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास हो जाएगा क्यों कि यह चीज़ें हमारी या हमारे जैसे दूसरों की नहीं बल्कि अस्ल में ख़ुदा की हैं। हम हर काम और हर चीज़ के बारे में ख़ुदा पर भरोसा करना सीख जाएंगे। हमें इस बात का भी एहसास हो जाएगा कि हम भी ख़ुदा के लिए ही हैं और उसी के बन्दे हैं।

"मन ज़ल-लज़ी यश-फ़उ इन्दहू इल्ला बि-इज़-निही"

उसकी इजाज़त के बिना कोई शिफ़ाअत नहीं कर सकता। इसका मतलब यह है कि शिफ़ाअत पार्टी बाज़ी नहीं है। शिफ़ाअत का मतलब है मीडियम बनना। अम्बिया और इमाम इंसानों तक ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचाने का ज़रिया हैं और इस तरह वह इस दुनिया में इंसानों की शिफ़ाअत करते हैं। इल पैग़ाम पर अमल करने में जो लोग ग़लतियां कर देते हैं अम्बिया और इमाम ख़ुदा के सामने उनकी शिफ़ाअत करेंगे।
शिफ़ाअत, शिफ़ाअत करने वाले और शिफ़ाअत होने वाले को एक दूसरे से नज़दीक करती है और इस तरह यह शिफ़ाअत होने वाले की तरबियत का एक ज़रिया है।

"यअ-लमु मा बैना ऐ-दी-हिम वमा ख़ल-फ-हुम"

आम तौर पर शिफ़ाअत करने वाले जिसकी शिफ़ाअत करते हैं उसके बारे में कोई नई बात पेश कर देते हैं लेकिन ख़ुदा के सामने ऐसा कुछ नहीं हो सकता क्यों कि वह शिफ़ाअत करने वालों के बारे में भी जानता है और जिन की शिफ़ाअत की जा रही है उन को भी अच्छी तरह जानता है।

"वला युहीतू-न बि-शै-इम मिन इल्मिहि इल्ला बिमा शा-अ"

ख़ुदा जिन बातों को जानता है वह उन बातों को नहीं जानते हैं मगर कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो ख़ुदा उन्हें बता देता है। शिफ़ाअत करने वालों का इल्म भी लिमिटेड है और उन के पास जो कुछ भी इल्म है वह ख़ुदा का ही दिया हुआ है।
"वसि-अ कुर-सि-य्यु हुस-समा-वाति वल अर्ज़"

ज़मीन व आसमान पर ख़ुदा का कंट्रोल है। इस दुनिया की कोई भी चीज़ उसके इल्म, उसकी ताक़त और कंट्रोल से बाहर नहीं है।
"वला यऊ-दुहु हिफ़्ज़ु-हुमा"

वह इस ज़मीन और आसमान की हिफ़ाज़त करने से थकता भी नहीं है। बहुत से बड़े-बड़े काम करने वाले थक जाते हैं लेकिन ज़मीन व आसमान को बनाने और उन्हें बाक़ी रखने वाला ख़ुदा कभी नहीं थकता।
"व-हुवल अलिय्युल अज़ीम"

हाँ! ऐसा ख़ुदा बहुत बुलंद और अज़ीम है।
अब अहमद सोच रहा था कि आयतल कुर्सी तो बहुत अहम आयत है जिस में बहुत कुछ बयान किया गया है। इसी वजह से रिवायतों में इस की इतनी फ़ज़ीलत और अहमियत बयान की गई है और इसे हर रोज़ पढ़ने के लिए कहा गया है।
यह सोचते हुए फिर अहमद को अपनी दादी माँ की याद आ गई जिन्हों ने उसे आयतल कुर्सी याद कराई थी और उस ने दिल ही दिल में उन का शुक्रिया अदा किया। फिर नम आँखों के साथ इसका सवाब उन्हें बख़्श दिया कि शायद इस तरह उनकी मुहब्बतों और मेहनतों का कुछ हक़ अदा हो सके।

जानिये जनाब ऐ खदीजा की उम्र और उनके दो कफ़न के बारे में |

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हज़रत ख़दीजा अ. के बाप ख़ुवैलद और मां फ़ातिमा बिंते ज़ाएदा बिंते असम हैं। जिस परिवार में आपका पालन पोषण हुआ वह परिवार अरब के सारे क़बीलों में सम्मान की नज़र से देखा जाता था और पूरे अरब में उसका प्रभाव था।
हज़रत ख़दीजा अ. अपनी क़ौम के बीच एक अलग स्थान रखती थीं जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। आपके स्वभाव में नम्रता थी और आपके अख़लाक़ व नैतिकता में भी कोई कमी नहीं थी इसी वजह से मक्के की औरतें आपसे जतलीं थी और आपसे ईर्ष्या करती थीं।
आप इतनी पवित्र थीं कि आपको जाहेलियत के ज़माने में भी ताहेरा (पवित्र), मुबारेका (शुभ) और सय्यदा-ए-ज़ेनान (औरतों की सरदार) के नाम से जाना जाता था। यह इस बात का प्रतीक भी है कि उस गंदे माहौल में भी आपकी ज़िंदगी पूरी तरह से पवित्र थी। ....(अल-एसाबः फ़ी मअरेफ़तिस सहाबा भाग 7 पेज 600)

ज़रत ख़दीजए कुबरा स. का स्थान ख़ुदा के नज़दीक इतना बड़ा था कि बहुत ज़्यादा अवसरों पर उसने आपको सलाम व दुरूद भिजवाया। जैसा कि हज़रत मोहम्मद बाक़िर अ. फ़रमाते हैं कि जब पैग़म्बरे अकरम स. मेराज से पलट रहे थे तो जिबरईल सामने आए और कहा कि ख़ुदा वन्द आलम ने फ़रमाया है कि मेरी तरफ़ से ख़दीजा को सलाम पहुँचा देना। .... (बेहारुल अनवार भाग 6 पेज 7)

ज़हबी आपकी श्रेष्ठता (महानता) में लिखते हैः वह महान, पवित्र, समझदार, उदार और जन्नती महिला थीं। हर तरह से एक पूर्ण महिला थीं। पैग़म्बरे अकरम स. हमेशा उनकी प्रशंसा व तारीफ़ करते रहते थे और उनको दूसरी बीवियों पर वरीयता देते थे और आपका बहुत सम्मान करते थे। यही वजह थी कि हज़रत आयशा कहती हैं कि मैं ख़दीजा से हसद (ईर्ष्या) करती थी क्योंकि पैग़म्बरे अकरम स. उनको बहुत चाहते थे।
आपकी फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) के लिये यही काफ़ी है कि पैग़म्बरे अकरम स. नें आपकी ज़िन्दगी में किसी दूसरी औरत से शादी नहीं की और ना ही कनीज़ रखी। सच्चाई यह है कि हज़रत ख़दीजा आप (स.) की सबसे अच्छी बीवी और साथी थीं। आपने अपना सारा माल व दौलत इस्लाम की तरक़्क़ी के लिये दान कर दिया और उस जगह पर पहुँच गईं कि ख़ुदा वन्दे आलम नें हज़रत रसूले अकरम स. को आदेश दिया कि ख़दीजा को जन्नत में आरामदायक घर मिलने की ख़बर दे दें।....... (सियरे आलामुन नुबलाअ भाग 2 पेज 110)

हज़रत अली अ. फ़रमाते हैं कि पैग़म्बरे अकरम स. नें फ़रमायाः जन्नत की सबसे महान औरतें, चार हैः ख़दीजा ख़ुवैलद की बेटी व फ़ातिमा स. मोहम्मद स.अ. की बेटी, मरियम इमरान की बेटी और फ़िरऔन की बीवी आसिया।.....(सही बुख़ारी भाग 3 पेज 1388)



हज़रत ख़दीजा बहुत मालदार थीं जोकि उन्होंने अपनी मेहनत और गुणवत्ता से हासिल किया था। आपकी सम्पत्ति और दौलत के बारे में अल्लामा मजलिसी कुछ रिवायतें बयान करते हैं कि जिनके अनुसार मक्का शहर में उनसे ज़्यादा अमीर कोई नहीं था। उनके बहुत से नौकर और मवेशी थे। 80 हज़ार से ज़्यादा ऊँट आपके पास थे जिनसे आप विभिन्न क्षेत्रों में व्यापार करती थीं। आपके बहुत से देशों में फ़ार्म थे जिनमें आपके आदमी व्यापारिक काम किया करते थे। मक्का शहर में आपका बहुत बड़ा घर था। कहा जाता है कि मक्के के सभी लोग इसमें आ सकते थे।.....(बिहारूल अनवार भाग 16 पेज 21 व 22)

आपने पैग़म्बरे अकरम स. से शादी के बाद अपनी सारी दौलत और सम्पत्ति इस्लाम की तरक़्की के लिये दान कर दी। ....(बिहारूल अनवार भाग 16 पेज 71)

या हज़रत ख़दीजा पैग़म्बर से शादी के समय कुँवारी थीं?

कुछ लोग कहते हैं कि हज़रत ख़दीजा नें पैग़म्बरे अकरम स. से शादी करने से पहले दो लोगों कि जिनके नाम अतीक़ बिन आएज़ मख़ज़ूमी और अबी हाला बिन अलमुज़िरुल असदी हैं, शादी की थी।
(बिहारूल अनवार भाग 16 पेज 10)
लेकिन बहुत से इतिहास कारों और विद्वानों नें जैसे अबुल क़ासिम कूफ़ी, अहमद बलाज़री, सय्यद मुर्तज़ा किताबे शाफ़ी में और शेख़ तूसी काफ़ी के सारांश में लिखते है कि ख़दीजा अ. नें जब पैग़म्बरे अकरम स. से शादी की तो वह कुँवारी थीं। कुछ समकालीन लेखक जैसे अल्लामा सय्यद जाफ़र मुर्तज़ा नें भी यही बात कही है और अपनी बात को साबित करने के लिये किताबें लिखी हैं।.....(अल-इस्तेग़ासा भाग 1 पेज 70)

हज़रत ख़दीजा की शादी के समय उनकी आयु शादी के समय आपकी आयु कितनी थी इस बार में मतभेद पाया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि आप चालीस साल की थी लेकिन बैहेक़ी कहते हैं-

यानी ख़दीजा नें 65 साल ज़िन्दगी की और कुछ लोग कहते हैं 50 साल ज़िन्दगी की, यही बात सही है। वह दूसरी जगह लिखते हैं-

यानी रसूले ख़ुदा स. की आयु शादी के समय 25 साल थी और उन्होंने बेसत से 15 साल पहले शादी की।
(दलाएलुन नुबूव्वः भाग 2, पेज 71 व 72)

इसलिये बैहिक़ी के कथन के अनुसार हज़रत ख़दीजा देहांत के समय 50 साल की थीं और आपका देहांत बेसत के 10 साल बाद हुआ और आपकी शादी बेसत से 15 साल पहले हुई इस तरह से आप की आयु शादी के समय 25 साल थी।
कुछ इतिहास कार शादी के समय आपकी आयु 28 साल बताते हैं।
शज़रातुज़्ज़हब में लिखा है- बहुत से इतिहास कारों नें इस बात वरीयता दी है कि वह शादी के समय 28 साल
की थीं।

इब्ने असाकिर नें तारीख़ो मदीनातिद दमिश्क़ (पेज 193, जिल्द 2) में, ज़हबी नें सियरे आलामुन नुबलाअ में और इरबेली ने कश्फ़ुल ग़म्मा में इब्ने अब्बास से नक़्ल किया है कि वह कहते हैं ख़दीजा शादी के समय 28 साल की थीं।


हज़रत ख़दीजा की तीन वसीयतें
जब हज़रत ख़दीजा की बीमारी बढ़ गई तो आपनें पैग़म्बरे अकरम से फ़रमाया कि उनकी वसीयत को सुन लें फिर आपनें फ़रमाया- ऐ रसूले ख़ुदा स. मेरी वसीयत यह है कि मेरी जो कमियां आपके हक़ को अदा करने में रह गईं हैं उनको माफ़ कर दें। पैग़म्बरे अकरम स. नें फ़रमाया- ऐसा बिल्कुल नहीं है मैंने तुम से किसी कमी को नहीं देखा है। तुमनें अपनी पूरी कोशिश और ताक़त रिसालत के अधिकारों के अदा करने में लगा दी है। सबसे ज़्यादा कठिनाइयां तुमनें मेरे साथ उठाईं हैं। अपने सारी दौलत को तुमनें ख़ुदा के रास्ते पर निछावर कर दिया है।
फिर आपनें फ़रमाया मैं आप स. से वसीयत करती हों अपनी बेटी फ़ातिमा स. के बारे में यह मेरे बाद यतीम और अकेली हो जाएगी बस कोई क़ुरैश की औरतों में से उसे परेशान न करे, कोई उसको थप्पड़ न मारे, कोई उसको डांटे नहीं, कोई उसके साथ सख़्ती न करे।
और मेरी तीसरी वसीयत जोकि मैं अपनी बेटी फ़ातिमा से करुँगी कि वह उस को बता दें क्योंकि मुझे आप (स.) के सामने कहते हुए शर्म आती है।
पैग़म्बरे अकरम कमरे से बाहर चले गए उस समय हज़रत ख़दीजा अ. नें हज़रत फ़ातिमा अ. से कहा- ऐ मेरी प्यारी बेटी पैग़म्बरे अकरम स. से कह देना मैं क़ब्र से डरती हूँ मुझे अपनी से चादर से जो आप स. वही के आने के समय ओढ़ते हैं, में कफ़न दें। जब हज़रत फ़ातिमा नें यह बात पैग़म्बर स. को बताई तो आप स. नें जल्दी से वह चादर फ़ातिमा स. को दे दी, उन्होंने अपनी माँ जनाबे ख़दीजा स. को ला कर दी। यह देख कर हज़रत ख़दीजा बहुत ख़ुश हुईं।

हज़रत ख़दीजा का कफ़न जन्नत से आया
जब हज़रत ख़दीजा का निधन हुआ और आपकी रूह जन्नत की तरफ़ चली गई तो पैग़म्बर स. नें आपको ग़ुस्ल दिया और काफ़ूर लगाया और जब यह चाहा कि उसी चादर से आपको कफ़न दें जिसकी वसीयत हज़रत ख़दीजा नें की थी, उसी समय जिबरईल आए और कहने लगे ऐ ख़ुदा के रसूल आप पर ख़ुदा का सलाम व दुरूद हो। ख़ुदा वन्दे आलम नें कहा है कि क्योंकि ख़दीजा नें अपनी सारी सम्पत्ति उसके लिये निछावर कर दी इसलिये उनका कफ़न ख़ुदा की तरफ़ से होगा। फिर जिबरईल नें कफ़न रसूल स. को दिया और कहा कि यह कफ़न जन्नत का है जिसको ख़ुदा नें हज़रत ख़दीजा को उपहार में दिया है। पैग़म्बर स. नें पहले अपनी चादर से जनाबे ख़दीजा को कफ़न दिया दिया उसके बाद उस कफ़न को जिसे जिबरईल लाये थे उस पर ओढ़ाया, इसी लिये हज़रत ख़दीजा दो कफ़न के साथ दफ़्न हुईं।

कुरान के बारे में हमारी गलतफहमियां और इसका पढना |

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लोग कहते हैं की कुरान किसी गैर मुसलमान के हाथ में नहीं जानी चाहिए लेकिन मैंने सुना है कि हमारे आखिरी रसुल मुह्म्मद सल्लाहॊं अलैह वस्ल्लम ग़ैर-मुसलमान राजाओं को खत लिखवाते थे जिसमे कुरान की आयतें लिखाई जाती थीं अजायबघर मे जिसके अन्दर अल्लाह के रसुल सुरह अल इमरान सु. ३ : आ. ६४ लिखवातें हैं उस मे ज़िक्र है "कहों अहलेकिताब (ईसाई) से की आऒ उस बात की तरफ़ जो आप और हम मे समान है सबसे पहली बात है की अल्लाह सुब्नाह वतआला एक है, अल्लाह के साथ किसी को शरीक न करें, हम आप और हम में से अल्लाह के अलावा किसी को रब ना बनायें, अगर वो फिर भी न मानें तो आप शहादत दो की हम मुस्लिम है"।

 हमारा फ़र्ज़ है की हम कुरआन को पढे, उसकों समझें, उस पर अमल करें और दुसरे लोगों तक कुरआन का पैगाम पहुचायें। अकसर कई मुस्लमान कहते है की कुरान मजीद को सिर्फ़ आलिम लोग ही समझ सकतें हैं, उन्हे ही पढना चाहिये, ये बहुत कठिन किताब है और इसको आलिम ही समझ सकते हैं। मैं आपको कुरआन मजीद की एक सुरह बताता हू जिसके अन्दर कम से कम चार बार दोहराते है, अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह कमर सु. ५४ : आ. १७, २२, ३२, ४०, में "हमनें कुरआन आपके लिये आसान बनाया ताकि आप इसें समझ सकें, आप इसे याद रख सकें, हमनें ये कुरआन मजीद आपकें समझनें के लिये आसान बनाया, आप में से कौन शख्स इसकी बात नही मानेगा"। जब अल्लाह तआला ने कुरआन मे कई आयतों मे फ़र्माया की हमनें कुरआन आपके लिये आसान बनाया तो आप किसकी बात मानेंगे अल्लाह की या उस मुस्लमान की जो कहतें हैं की सिर्फ़ उल्मा के लिये है। और अल्लाह तआला कई आयतों मे फ़र्मातें है सुरह बकरह सु. २ : आ. २४२ में "फ़िर आप नही समझोगें"। यानी अल्लाह तआला चाहतें है की आप कुरआन मजीद को समझ के पढॊं लेकिन अल्लाह तआला इसके साथ मे ये भी फ़र्माते है सुरह नहल सु. १६ : आ. ४३ और सुरह अम्बिया सु. २१ : आ. ७ में "अगर आप कुछ चीज़ को नही समझते है तो उनसे पूछिये जिसके पास इल्म है"।

 अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह अल इमरान सु. ३ : आ. १०३ में "आप अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकडीये और आपस मे फ़िरके मत बनाइये"। अल्लाह की रस्सी क्या है कुरआन मजीद ,मुह्म्मद सल्लाहो अलैह वसल्लम की और अह्लेबय्त की कही हुयी सही हदीस|
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