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Channel: हक और बातिल
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सजा देने और माफ़ करने का एक बेहतरीन उदाहरण |

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 इरान में एक हत्यारे पे अपने दोस्त की हत्या का आरोप था और उसे फँसी की सजा सुनायी गयी | जिस समय हत्यारे को फँसी की सजा दी जा रही थी | हत्यारे के अब बचने का कोई रास्ता नहीं केवल इसके की पीड़ित की परिवार वाले जैसे माता पिता उसे माफ़ कर दें | इस्लाम के कानून में हत्या की सजा मौत है और पीड़ित के पास यह अधिकार होता है की वो चाहे तो उसे माफ़ कर दे |

अचानक पीड़ित की माँ वहाँ आयी और उसने हत्यारे को पहले एक कसकर थप्पड़ मारा और उसके बाद उसके गले से फंदा निकाल दिया  और उसे माफ़ कर दिया क्यूंकि हत्यारा उसके पुत्र का मित्र था और पीड़ित  की माँ को ऐसा लगा की हत्या जोश में हो गयी वरना हत्यारा अपने मित्र की हत्या नहीं करना चाहता था |

इसे कहते हैं इन्साफ और माफ़ करने की बेहतरीन मिसाल |



क्या है अज़ादारी, अलम, ताजिया ,तुर्बत और ज़ुल्जिनाह ?

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1) अज़ादारी क्या है ?

मुसलमानों का एक  फिरका है शिया ऐ अहलेबय्त जो कर्बला में इमाम हुसैन (अ.स) (अहलेबय्त) के क़त्ल पे दुःख प्रकट करता है और उनका ग़म मनाता है और दुनिया वालों को भी बताता है की कर्बला में क्या हुआ था और क्यूँ हुआ था ? इस से मकसद सिर्फ इतना है की यह फिरका हजरत मुहम्मद (स.अ.व) से अपनी मुहब्बत का इज़हार करता है और कहता है या रसूल ऐ खुदा (स.अ.व) हम आपके नवासे के क़त्ल पे दुखी हैं और उनके कातिल यज़ीद को ज़ालिम और मुजरिम मानते हैं |और अल्लाह से कहता है ऐ अल्लाह तूने जिन अहलेबय्त के एहतेराम का हुक्म दिया था उसे भूखा प्यासा यजीद के हुक्म के उसके लश्कर के क़त्ल कर दिया हम ऐसे ज़ालिम यजीद के साथी नहीं हैं और अहलेबय्त पे हुए ज़ुल्म पे दुखी हैं |ऐसा करने के लिए अपनी अकीदत पेश करने के लिए वो अज़ादारी करता है| अज़ादारी के तरीकों में नौहा करना, मर्सिया करना , अलम ताजिया तुर्बत , ज़ुल्जिनाह के जुलुस निकालके लोगों को बताना की क्या हुआ था कर्बला  में और ज़ालिम यजीद ने कितना ज़ुल्म किया था अहलेबय्त पे ,शामिल है | इनमे से कोई ही  तरीका न तो बिद्दत है ना हराम  और न ही शिर्क क्यूँ की अहलेबय्त के चाहने वालों से ऐसा कोई तसव्वुर करना ही गलत होगा |

हकीकत में यजीद एक ज़ालिम बादशाह था जिसे डर से मुसलमानों ने खलीफा बना दिया था और उसने हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के घराने (अहलेबय्त) पे जूम किया और जब मुसलमानों में बगावत होने लगी सत्य जान के तो उनको क़ैद से आज़ाद कर दिया | उस समय यजीद ने यह बहुत चाहा की उसके इस ज़ुल्म की कहानी कर्बला और कूफे की दीवारों में दफन ही जाये और इसकी नाकाम कोशिश उसने की लेकिन आजादी की खबर सुनते ही हजरत अली (अ.स) की बेटी जनाब ऐ जैनब ने सबसे पहले उसी यजीद से एक जगह मांगी और कहा कर्बला में उनके घराने वालों की शहादत के बाद ज़ालिम फ़ौज ने उन्हें उनपे रोने भी नहीं दिया इसलिए वो एक जगह चाहती हैं जहाना वो उनपे रो सकें और यजीद ने उन्हें एक जगह दे दी | यही ग़म ऐ हुसैन में पहली मजलिस थी और पहली अज़ादार जनाब ऐ जैनब  थीं | इस मजलिस का हिस्सा थे हुसैन और उनके परिवार में हुए ज़ुल्म को बनाय करते हुए नौहा करना और मसायब पढना |

आज भी यजीद की उस कोशिश की उसके ज़ुल्म के बारे में दुनिया ना जान सके पे चलने वाले लोग मौजूद हैं | इनमे से कुछ ऐसे हैं जो यजीद की साजिश उसका जुर्म छुपाने की समझ नहीं सके और अनजाने में अज़ादारी के खिलाफ बोलते और इसे रोकने की कोशिश करते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो जानते हैं लेकिन उनके दिलों में ज़ालिम यजीद की मुहब्बत है और अहलेबय्त से नफरत और इसी वजह से वो अज़ादारी के खिलाफ बोला करते हैं |यहाँ यह बताता चलूँ की यजीद का कहना था की न कोई वही हजरत मुहम्मद (स.अ.व० ) पे आयी थी और न की कोई अहलेबय्त की अफ्ज़लियत की बात थी यह सब अहलेबय्त का फैलाया ढोंग था और इसी बात को आज कुछ मुसलमान  आज भी मानते है |यह गिनती में कम अवश्य हैं लेकिन सौदिया में इनकी तादात अधिक है जिसकी वजह से यह गुमराह करने में अक्सर कामयाब हो जाया करते हैं |

मेरे इस लेख का मकसद सिर्फ दुनिया के सारे मुसलमानों को यह समझाना है की पहचान लो कौन है वो जो अहलेबय्त से मुहब्बत करने वालों का दुश्मन है और उनके दुःख में होने वाली अज़ादारी का दुश्मन है उअर इन अज़दारो के लिए कभी बिद्दत, कभी शिर्क कभी ताजिया देखने पे निकाह टूटने इत्यादि के फतवे देता रहता है | आज भी वो अपनी कौम को हिदायत देता है की अहलेबय्त के चाहने वालों से अज़ादारी करने वालों से बात मत करो क्यूँ की यजीद वाका डर आज भी उसके दिलों में मौजूद है की कहीं यजीद की जालिमाना हरकत दुनिया को पता ना लगने पाए लेकिन हक का और मजलूम का साथ अल्लाह देता है और आज सिर्फ मुसलमान ही नहीं गैर मुसलमान भी यजीद का नाम नफरत से और हुसैन (अहलेबय्त) का नाम इज्ज़त से लेता है |

आज जो लोग इस अज़ादारी , अलम ताजिये , तुर्बत ,नौहा , सोग ,मर्सिया को बिद्दत , शिर्क ,हराम  बताते हैं हैं वो इसे उनके मुल्लाओं के फतवे से ही साबित करते हैं | कुरान या हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की अहादीस से वो कभी साबित नहीं कर पाते |  और जब भी यह इसे कुरान के खिलाफ बताने की कोशिश करते हैं तो वैसे ही नाम होते हैं जैसे यजीद हुआ था | जब अहलेबय्त को कैदी बना के दरबार ऐ यजीद  में लाया गया तो यजीद ने हजरत अली (अ.स) की बेटी जनाब ऐ जैनब से कहा की देखो अल्लाह कुरान में फरमाता है “ मैं जिसे चाहे इज्ज़त देता हूँ और जिसे चाहे ज़िल्लत “ और देखो मैं बादशाह के तख़्त पे इज्ज़त से बैठा हूँ और तुम कैदी हो | ज़ाहिरी तौर पे देखने में यह सही भी लगता था लेकिन हकीकत में जिसने अल्लाह की राह में कुराबी दी उसी को इज्ज़त मिलती है और जिसने ज़ुल्म किया उसे बेईज्ज़ती | आज नाम ऐ यजीद नफरत से लिया जाता है और वो ज़लील है और नाम ऐ हुसैन (अ.स) इज्ज़त से लिए जाता है जो हकीकत में कुरान की उस आयात की तफसीर है जिसे यजीद ने अपने हक में इस्तेमाल करने की भूल की थी |

यजीद और इमाम हसन (अ.स० ) के फर्क को जाने के लिए किताब शहीदे करबला और यज़ीद लेखकः मौलाना क़ारी तैयब साहब रह., पूर्व मोहतमिम दारूल उलूम देवबन्द अवश्य पढ़ें | शहीदे करबला और यज़ीद’ नामक किताब एक सुन्नी आलिम की लिखी हुई किताब है। दारूल उलूम देवबन्द के संस्थापक मौलाना क़ासिम नानौतवी साहब रह. का क़ौल भी इसके पृष्ठ 85 पर दर्ज है। जो उनके एक ख़त (क़ासिमुल उलूम, जिल्द 4 मक्तूब 9 पृष्ठ 14 व 15) से लिया गया है। इसमें मौलाना क़ासिम साहब रह. ने ‘यज़ीद पलीद’ लिखा है। आलिमों की अक्सरियत ने यज़ीद को फ़ासिक़ माना है और जिन आलिमों पर यज़ीद की नीयत भी खुल गई। उन्होंने उसे काफ़िर माना है। इमाम अहमद बिन हम्बल रहमतुल्लाह अलैहि एक ऐसे ही आलिम हैं। सुन्नी समुदाय में उनका बहुत बड़ा रूतबा है। इस किताब के पृष्ठ 109 पर इस बात का भी तज़्करा है। इमाम हुसैन शिया और सुन्नी के लिए ही इमाम (मार्गदर्शक) नहीं हैं बल्कि हरेक इंसान के लिए मार्गदर्शक हैं।

‘...और क़त्ले हुसैन और उनके साथियों के क़त्ल के बाद उसने मुंह से निकाला कि मैंने (हुसैन वग़ैरह से) बदला ले लिया है जो उन्होंने मेरे बुज़ुर्गों और रईसों के साथ बदर में किया था।’
-शहीदे करबला और यज़ीद, पृष्ठ 109, लेखकः मौलाना क़ारी तैयब साहब रह., पूर्व मोहतमिम दारूल उलूम देवबन्द,


‘तो ज़ैद (बिन अरक़म) रोने लगे तो इब्ने ज़ियाद ने कहा ख़ुदा तेरी आंखों को रोता हुआ ही रखे। ख़ुदा की क़सम अगर तू  बुड्ढा न होता जो सठिया गया हो और अक्ल तेरी मारी गई न होती तो मैं तेरी गर्दन उड़ा देता, तो ज़ैद बिन अरक़म खड़े हो गए और यहां से निकल गए, तो मैंने लोगों को यह कहते हुए सुना। वे कह रहे थे अल्लाह, ज़ैद बिन अरक़म ने एक ऐसा कलिमा कहा कि अगर इब्ने ज़ियाद उसे सुन लेता तो उन्हें ज़रूर क़त्ल कर देता। तो मैंने कहा, क्या कलिमा है जो ज़ैद बिन अरक़म ने फ़रमाया। तो कहा कि ज़ैद बिन अरक़म जब हम पर गुज़रे तो कह रहे थे कि ऐ अरब समाज! आज के बाद समझ लो कि तुम ग़ुलाम बन गए हो। तुमने फ़ातिमा के बेटे को क़त्ल कर दिया और सरदार बना लिया इब्ने मरजाना (इब्ने ज़ैद) को। जो तुम में के बेहतरीन लोगों को क़त्ल करेगा और बदतरीन लोगों को पनाह देगा।’
-शहीदे करबला और यज़ीद, पृष्ठ 101 लेखकः मौलाना क़ारी तैयब साहब रह., पूर्व मोहतमिम दारूल उलूम देवबन्द


हज़रत ज़ैद बिन अरक़म रज़ि. ने जो कहा था। वह हरफ़ ब हरफ़ सच साबित हुआ। इसी किताब के पृष्ठ 106 पर मशहूर अरबी किताब ‘अल-बदाया वन्-निहाया’ जिल्द 8 पृष्ठ 191 के हवाले से क़ारी तैयब साहब ने लिखा है कि जब इमाम हुसैन रज़ि. के क़त्ल पर इब्ने ज़ियाद ख़ुश हो रहा था। तब उसे हज़रत अब्दुल्लाह बिन अफ़ीफ़ अज़दी ने टोक दिया। इब्ने ज़ियाद ने उसे वहीं फांसी दिलवा दी।

आज उनके लिए जो हक की तलाश में रहते हैं मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ की इमामबाडा , अज़ादारी, मर्सिया, नौहा, अलम , ताजिया , तुर्बत क्या है और क्या है यह अज़ादारी का जुलूस क्या है ? जिस से मुसलमान गुमराही से बच सकें और अल्लाह की रहमत के करीब रहे |

२) इमामबाडा क्या है ?


इमामबाडा कर्बला में इमाम हुसैन (अ.स) के रौज़े की नकल है ठीक उसी तरह जिस तरह मस्जिदों बनती हैं जो मस्जिद इ नबवी या मस्जिद ऐ अक्सा की नकल हैं | बस इन इमामबाड़ों में हर कौम के इंसानों को आने की इजाज़त है जिस से वो जान सकें इस्लाम क्या था, ज़ुल्म और ज़ालिम इस्लाम का हिस्सा नहीं और क्यूँ यजीद से मुसलमान नफरत  करता है और हुसैन (अ.स) से मुहब्बत ? अहलेबय्त -इमाम हुसैन (अ.स) से मुहब्बत और ज़ालिम से नफरत अल्लाह का हुक्म भी है और रसूल ए खुदा (स.अ.व) की सुन्नत भी है ,जिसके इज़हार के लिए इमामबाड़े हैं और इसलिए  इबादतगाह भी माना गया है क्यूँ की अल्लाह और रसूल (स.अ.व) के हुक्म और उनकी सुन्नत पे चलना इबादत है |
जौनपुर का शार्की समय का इमामबाडा इमाम पुर 
lucknow का छोटा इमामबाडा
lucknow का बड़ा इमामबाडा .

अगले लेख का इंतज़ार करें जिसमे आप सभी को बताऊंगा कि अलम, ताज़ा ,तुर्बत और ज़ुल्जिनाह क्या है ? यदि मिसी समझदार मुसलमाना भाई को इसमें से कुछ हराम , बिद्दत, शिर्क लगे तो अवश्य बताएं ?

इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की विलादत और उनकी ज़िन्दगी |

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इमाम  मुहम्मद बाकिर (अ.स) की विलादत एक रबीउल अव्वल रोज़ ऐ जुमा   सन ५७ हिजरी को मदीने में हुयी | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की माँ इमाम हसन (अ.स) की बेटी  थीं जिनका नाम फातिमा था और पिता इमाम जैनुल आबेदीन (अ.स) थे | यह वाहिद इमाम हैं जिनकी माँ और बाप दोनों हजरत अली (अ.स) और जनाब इ फातिमा की औलाद थे | रवायतों में मिलता है की इमाम मुहम्मद बाकिर (अ,स) की विलादत वाकये कर्बला से ३ -४ या 5 साल पहले हुयी | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) ऐसे इमाम हैं जिन्हें रसूल ऐ खुदा (स.अ.व) ने अपने सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी से सलाम भिजवाया था और इनका नाम मुहम्मद और लक़ब बाकिर रखने की हिदायत  दी थी | बाकिर का मतलब होता है कुशादा इल्म | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की शक्ल और सीरत रसूल ऐ खुदा (.स.अव० ) से मिलती थी और क़द दरमियाना ,गेन्हुवा रंग ,चेहरे में तिल था | इमाम के हाथों पे उनके दादा इमाम हुसैन (अ.स) की अंगूठी हुआ करती थी |इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) कर्बला  में मौजूद थे और उम्र २ से 5 साल के बीच में बताई जाती है | अबु हनीफा जो अहले सुन्नत के हनफी लोगों के इमाम हैं इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) के शागिर्द हुआ करते थे. सन 95 हिजरी में इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) इमामत मिली जो सिर्फ १९ साल रही जब उनकी वफात ज़हर देने से मदीने में सन ११४ में हो गयी | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) 5 साल तक इमाम हुसैन (अ.स) की गोद में खेले और बकी 34 साल अपने वलीद इमाम जैनुल आबेदीन (अ.स) के साथ रहे |

इमाम महम्मद बाकिर (अ.स) का अखलाक और नर्म दिली बहुत मशहूर थी और उन्होंने अपने शियों को समाज में किस तरह रहा जाए बार बार समझाया | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) ने अपने शियों को यह हिदायत दी की जितना   भी मुमकिन हो इल्म हासिल  करो और उसका इस्तेमाल खुद अपना किरदार बनाने में ओर लोगों में बांटने में करो | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की अहादीस है की जो कोई दीन ऐ इस्लाम से मुताल्लिक कोई इल्म लोगों को बिना खुद इल्म हासिल किये देता है उसपे अल्लाह के फ़रिश्ते लानत भेजते हैं |

इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स)  ने कहा को जो इंसान किसी दुसरे इंसान के लिए अशब्दों का इस्तेमाल करे वो हममे से नहीं |  सुमा'आ कहता है कि इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) के पास जब वो गया तो हुज़ूर ने बगैर उस से कुछ पूछे कहा की तुम्हारे और ऊंट वाले के बीच यह क्या वाकेया हुआ और तुम खुद को चिलाने, गलियाँ देने, लानत मलामत करने से खुद को बचाओ | सुमा'आ ने कहा खुदा की क़सम उसने मुझपे ज़ुल्म किया था |इमाम ने कहा की अगर उसने तुम पे ज़ुल्म किया तो चिल्ला के गालियाँ देके तुमने भी उस पे ज़ुल्म किया है और यह हमारे चाहने वालों का तरीका नहीं और हम इस बात की इजाज़त किसी को नहीं देते ,जाओ और इस्तेगफार (अल्लाह से माफ़ी माँगो) करो | सुमा'आ कहता है उसने तौबा की और अल्लाह से माफी मांगी और फिर ऐसा ना करने का वादा किया | ...अल काफी वोल २ पेज ३२८

इमाम का कौल है की कोई भी ख़ुशी ऐसी दीवानगी के साथ ना मनाओ की तुम हराम और हलाल का फर्क ही भूल जाओ और कभी भी ऐसा गुस्सा ना करो की तो हलाल और हराम का फर्क ही भूल जाओ |

एक बार इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) अपने खजूर के बाग़ में जा रहे थे | यह गर्मी के दिन थे जब खजूर के पत्ते भी सूख जाते हैं ऐसे में सह्दीद गर्मी से इमाम का चेहरा लाल हो रहा था और पसीने से तर  बतर था | एक शख्स ने इमाम को देखा और इमाम से उसे हमदर्दी पैदा हुयी की यह कौन शख्स है जो इतनी शदीद गर्मी में भी कुछ पैसों के लिए इतनी म्हणत कर रहा है | वो शख्स जिसका नाम मुहम्मद था जब पास पहुंचा तो उसने पहचान लिया की यह इमाम हैं | उसने ताज्जुब से पुछा या इमाम आपके जैसा समझदार इंसान इतनी गर्मी में चाँद सिक्कों के लिए घर से बाहर इतनी म्हणत कर रहा है कहीं ऐसे में आपको मौत आ गयी तो अल्लाह को आप क्या जवाब देंगे ?

इमाम (अ.स) ने कहा तुमको लगता है की सिर्फ नमाज़ रोज़ा हज ज़कात ही इबादत है ? मैं इस वक़्त रोज़ी की तलाश में हूँ जिसका दर्जा इबादतों में सबसे ऊपर है क्यूँ की इसी से मैं अपने परिवार का पेट भरूँगा | ऐसे में अगर मुझे मौत आ गयी तो इबादत करते हुए दुनिया से गया अमाल नामे में लिखा जाएगा | इंसान को अपने गुनाहों को अंजाम देते वक़्त डरना चाहिए की कहीं ऐसे में उसे मौत आ गयी तो उसका क्या होगा ?

इमाम मुहम्मद बाकिर (अ. स.) ने फरमाया: एक ज़माना वह आयेगा कि जब लोगों का इमाम ग़ायब होगा, ख़ुश नसीब है वह इंसान जो उस ज़माने में हमारी दोस्ती पर साबित क़दम रहे | हज़रत इमाम मुहम्मद बाकिर (अ. स.) ने फरमाया :हज़रत इमाम महदी (अ. स.) और उनके मददगार अम्र बिल मअरुफ़ और नही अनिल मुनकर करने वाले होंगे।

अल अमाली में मुहम्मद इब्ने सुलेमान से रवायत है की उनके वलीद के ज़माने में एक सीरिया का रहने वाला ऐसा इंसान था जो अह्लेबय्त का दुश्मन था लेकिन इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) के इल्म और शराफत की कद्र करता था | एक बार वो बहुत बीमार पड़ गया तो उसने वसीयत करी की इमाम (अ.स) उसकी नमाज़ ऐ जनाज़ा पढाएं | दुसरे दिन जब उसका बदन ठंडा पद गया तो इमाम को बुलाया गया लेकिन इमाम ने दो रकत नमाज़ पढ़ी और उस बीमार को उसके नाम से पुकारा | वो शख्स उठ के बैठ गया | इमाम उसके बाद अपने घर चली आये लेकिन वो शख्स इमाम के घर पहुंचा और उसने कहा की जब वो आधी नींद में था की उसने एक आवाज़ सुनी “ लौटा दो इसकी रूह को क्यूँ की इमाम मुहम्मद बाकिर ने अल्लाह से इसे लौटाने की दुआ की है “ और वो शख्स ईमान ले आया |


हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर अ.स ने फ़रमाया :जो शख्स तस्बीह के बाद अस्ताग्फार करे ...उसके गुनाह माफ़ करदिये जाते है -और उसके दानो की अदद १०० है -और उसका सवाब मीज़ान-ऐ-अमल मै हज़ार दर्जा है-जो शख्स वाजिबी नमाज़ के बाद हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह को बजा लाये और वोह उस हल मै हो के उसने अभी तक अपने दाये पाओ को बाये पाओ पर से उठाया भी न हो ...उसके तमाम gunah माफ़ करदिये जाते है -और इस तस्बीह का आगाज़ अल्लाहोअक्बर से किया जाये-(तहज़ीबुल अहकाम जिल्द २ पेज 105)

एक बहुत ही दिलचस्प कहानी अंजुम शेख की हिजाब पर एक चर्चा |

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अंजुम शेख द्वारापेश की गयी यह चर्चा एक बार लोगों को सोंचने पे अवश्य मजबूर कर देगी | आप भी पढ़ें उनके ब्लॉग से साभार ली गयी यह चर्चा |


"मैं बहुत थक गई हूँ" 
"किस बात से थक गई हो?" 
"इन सभी लोगों से जो मुझे राय देते हैं" 
"कौन राय देता है?" 
"वह औरत हर बार जब भी मैं उसके साथ बैठती हूँ, वह मुझे हिजाब पहनने के लिए कहती है." 
"ओह, हिजाब और संगीत! यह तो सभी विषयों की माँ है! " 
"हाँ! मैं हिजाब के बिना संगीत सुनती हूँ ... हा हा हा! " 

"हो सकता है वह सिर्फ आपको सलाह दे रही हो." 
"मुझे उसकी सलाह की जरूरत नहीं है. मैं अपने धर्म को जानती हूँ. वह अपने खुद के काम में मन नहीं लगा सकती है?" 
"शायद तुमने गलत समझा. वह सिर्फ तुम्हारे भले के लिए ही कह रही हो?" 
"अगर वह मेरी बातों से दूर रहे तो अच्छा होगा..." 
"लेकिन क्या यह उसका फ़र्ज़ नहीं है कि लोगों को अच्छे कामो के लिए प्रोत्साहित करे." 
"मेरा यकीन करो, वह कोई प्रोत्साहन नहीं था. और तुम्हारा 'अच्छे कामों'से क्या मतलब है? " 
"हिजाब पहनना एक अच्छी बात है." 
"कौन कहता है?"
"यह कुरान में है, है ना?"
"हाँ, उसने मुझे कुछ उदहारण दिए थे. " 
"उसने मुझे सुरह नूर और कुरान की कुछ और आयातों के बारे में बताया था." 
"हाँ, लेकिन यह एक बड़ा गुनाह वैसे भी नहीं है.लोगों की मदद करना और नमाज़ पढना (पूजा करना) अधिक महत्वपूर्ण है. " 
"यह सच है. लेकिन बड़ी बातें छोटी चीज़ों के साथ शुरू होती हैं. " 
"यह एक अच्छी बात है, लेकिन आप क्या पहनते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है. एक नेक इंसान और लोगो से सहानुभूति रखने वाला होना जरूरी है.
"तुम क्या पहनती हो, क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है?" 
"बिलकुल नहीं" 
"तो फिर तुम क्यों हर सुबह एक घंटा जिम में खर्च करती हो?" 
"आपका क्या मतलब है?" 
"आप सौंदर्य प्रसाधनों पर पैसे खर्च करती हैं? कहने की ज़रूरत नहीं है कि हर समय आप अपने बाल, चेहरा, शरीर और भोजन पर ध्यान देती हैं." 
"तो?" 
"तो, इसका मतलब यह की आपका व्यक्तित्व महत्वपूर्ण है." 

"नहीं. मेरे हिसाब से हिजाब पहनना इस्लाम धर्म में एक महत्वपूर्ण बात नहीं है. " 
"यदि यह एक महत्वपूर्ण बात नहीं है, तो क्यों यह पवित्र कुरआन में वर्णित है?" 
"मुझे लगता है कि मैं कुरआन की हर बात का पालन नहीं कर सकती हूँ." 
"तुम्हारा मतलब है कि खुदा तुम्हें कुछ करने के लिए कहता है, और तुम उसकी बात नहीं मानती हो, यह ठीक है?" 
"हाँ, खुदा माफ़ करने वाला है. " 
"खुदा कहता कि वह उन लोगो को माफ़ कर देता है, जो लोग पश्चाताप करते हैं और अपनी गलतियों को नहीं दोहराते हैं." 
"कौन कहता है?" 
"ऐसा वही किताब बताती है जो कि आप को अपना शरीर ढंकने के लिए कहती हैं." 
"मैं हिजाब पसंद नहीं करती हूँ, क्योंकि यह मेरी आज़ादी को छीनता है." 


"लेकिन लोशन, लिपस्टिक, मस्कारा और अन्य सौंदर्य प्रसाधनों क्या तुम्हे आज़ाद रखते हैं? तुम्हारी आजादी की परिभाषा क्या है? " 
"हम आज़ाद है वह सब करने के लिए जो हमें पसंद है." 
"नहीं! स्वतंत्रता सही काम करने में है, ना कि वह सब करने में जिसकी हमें करने की इच्छा होती है." 
"देखो! मैंने कितनी ही महिलाऐं को देखा है जो हिजाब नहीं पहनती हैं और एक अच्छी इंसान हैं, और बहुत सी जो हिजाब पहनती है परन्तु बुरी हैं." 
"तो क्या? बहुत सारे अच्छे लोग हैं जो कि शराबी हैं, तो क्या हम सभी को शराबी हो जाना चाहिए? यह एक बेवकूफी भरी बात है." 
"मैं एक अतिवादी या कट्टरपंथी नहीं बनना चाहती हूँ. मैं जैसी भी हूँ बिना हिजाब के ही ठीक हूँ."
"मतलब आप एक अतिवादी धर्मनिरपेक्ष तथा एक कट्टरपंथी नास्तिक हो" 
"आप समझी नहीं, अगर मैं हिजाब पहनती हूँ तो मुझसे शादी कौन करेगा?" 
"आपका मतलब, जो लड़कियां हिजाब पहनती है उनकी कभी शादी नहीं होती है?" 
"ठीक है! अगर मैं शादी करती हूँ और मेरे पति को यह पसंद नहीं हुआ तो क्या होगा? और उसने मुझे इसे उतारने के लिए कहा तो? " 
"क्या होगा? अच्छा एक बात बताओ आप क्या करोगी यदि आपका पति आपके साथ बैंक डकैती पर जाना चाहेगा?" 
"यह गलत है, बैंक डकैती के एक अपराध है." 
"क्या अपने पैदा करने वाले के हुक्म को ना मानना एक अपराध नहीं है?" 
"लेकिन फिर मुझे नौकरी कौन देगा?" 
"ऐसी कंपनी जो लोगों के व्यक्तित्व का सम्मान करती हो ना की उसका धर्म देखती हो." 
"9-11 के बाद भी?" 
"हाँ. 9-11 के बाद भी. क्या तुम हन्नान के बारे नहीं जानती, जिसको अभी मेड स्कूल में नौकरी मिली है? दूसरी एक और लड़की है, क्या नाम है उसका, जो हमेशा एक सफेद... हिजाब ummm पहनी थी ... " 
"यास्मीन?" 
"हाँ, यास्मीन, उसने अभी अपना एमबीए पूरा किया है और अब जीई (GE) में काम कर रही है" 
"आप क्यों धर्म को कपड़े के एक टुकड़े के साथ जोड़ रही हो?"
"आप क्यों ऊँची हील की चप्पल और लिपस्टिक के रंग को नारीत्व के साथ जोड़ रही हो?"
"तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया." 

"मैंने जवाब दे दिया है. 'हिजाब'सिर्फ कपड़े का एक टुकड़ा नहीं है. यह एक कठिन माहौल में खुदा के आदेश का पालन है. यह एक साहस, करने में यकीन तथा सच्चा नारीत्व है. लेकिन आपके छोटे आस्तीन, तंग पैंट... " 
"इसे फैशन 'कहा जाता है', आप एक गुफा में रहती हैं या कहीं और? पहली बात तो यह कि हिजाब मर्दों के द्वारा स्थापित किया गया था, जो कि महिलाओं को नियंत्रित करना चाहते हैं" 
"सचमुच? मुझे पता नहीं था कि पुरुष महिलाओं को हिजाब के द्वारा नियंत्रण कर सकते हैं?" 
"हाँ. यही सच है" 

 "उन महिलाओं के बारें क्या कहेंगी जो अपने पति से हिजाब पहनने के लिए लडती हैं? और फ्रांस में महिलाओं को पुरुषों के द्वारा हिजाब छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा हैं? इस बारे में आप क्या कहती हैं?" 

"यह अलग बात है." 
"क्या अंतर है? जो हिजाब पहनने के लिए कह रही है... वह औरत ही है, है ना? क्या उनके हक को दबाना सही है?" 
"ठीक है, लेकिन ..." 

"लेकिन क्या? पुरुष प्रधान निगमों द्वारा प्रोत्साहित फैशन डिजाइन आपको आज़ादी देते हैं? जो महिलाओं को छोटे-छोटे कपडे पहनाते हैं और उनको एक वस्तु के रूप में इस्तेमाल करते हैं? " 
"रुको, मुझे बात समाप्त करने दो, मैं कह रही थी..." 
"क्या कह रही थी? क्या आपको लगता है कि पुरुष हिजाब के द्वारा महिलाओं नियंत्रण में रखते हैं? " 
"हाँ". 
"कैसे?" 
"महिलाओं को यह बता कर कि क्या और कैसे पहने!" 
"क्या टी. वी. पत्रिकाएँ और फिल्में आपको यह नहीं बताते कि क्या पहनने और 'आकर्षक'कैसे बने?" 
"बेशक, यह फैशन है." 
"क्या यह नियंत्रण नहीं है? आपको वह पहनाने के लिए लिए दबाव नहीं डालते जो वे पहनाना चाहते हैं?"

शांति.................
 
"केवल तुमको ही नियंत्रित नहीं, बल्कि पुरे बाजार को नियंत्रित करते हैं." 
"क्या मतलब है तुम्हारा?" 
"मेरा मतलब है, तुम्हारे दिमाग में डाला जाता है कि पत्रिका के कवर पर छपी अथवा फैशन शो कर रही औरत की तरह बनो और यह सब पत्रिकाओं को डिजाइन करने वाले तथा फैशन शो चलने वालो के द्वारा किया जाता हैं, और ऐसा वह अपने उत्पादों को बेचने के लिए करते हैं." 

"मुझे समझ में नहीं आया. हिजाब का उन उत्पादों के साथ क्या ताल्लुक है?" 

"इस सबका पूरा सम्बन्ध इस बात से है. क्या आपको नज़र नहीं आता है? हिजाब उपभोक्तावाद के लिए खतरा है, महिलाऐं केवल पतली दिखने के लिए अरबों डॉलर खर्च करती है तथा पुरुषों के द्वारा डिजाइन फैशन के मानकों के तरीके से जीना चाहती हैं... और यहाँ इस्लाम, कह रहा है कि यह सब कचरा तथा बकवास है. हमें अपनी आत्मा पर ध्यान देना चाहिए, ना कि उपरी दिखावे पर. और चिंता मत करो कि पुरुषों क्या क्या सोचते हैं आपके बारे में." 

"क्या मुझे हिजाब खरीदने की ज़रूरत नहीं नहीं है? मतलब क्या हिजाब भी एक उत्पाद नहीं है?" 
"हाँ, यह एक ऐसा उत्पाद है जिससे कि आप पुरुष प्रधान उपभोक्तावाद से मुक्त होती है." 
"मुझे व्याख्यान देना बंद करो! मैं हिजाब नहीं पहनूँगी! यह अजीब है, पुराना है, और इस समाज के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं है... इसके अलावा, मैं अभी केवल 20 की हूँ और हिजाब पहनने के लिए बहुत कम उम्र की हूँ! " 
"ठीक है. यह अपने खुदा से कहना, जब आप इन्साफ के दिन उसका सामना करोगी". 
"ठीक है." 
"ठीक है." 

 शांति.................
"चुप रहो और मैं हिजाब, विजाब, निकाब के बारे में और अधिक सुनना नहीं चाहती!"

शांति.................
वह इस समय आईने में खुद के साथ शुरू हुई इस काफी सफल बहस से बहुत थक गई थी. , वह अपने दिल-ओ-दिमाग की आवाज को बंद करने में कामयाब रही थी, अपनी राय पर विजय के साथ इस मामले में उसकी जीत हुई थी. यह एक ऐसा निर्णय था जो कि आधुनिक समाज द्वारा स्वीकार्य, परन्तु खुदा के विश्वास के द्वारा अस्वीकार था: दुनिया के दिखावे के लिए बालों को कर्ल करने के लिए 'हाँ'और हिजाब के लिए 'नहीं'.


"और वह सफल हो गया जिसने उसे (अर्थात अपनी आत्मा को) विकसित किया." 
"और वह असफल हो गया जिसने उसे दबा दिया." [पवित्र कुरआन, 91: 9 -10]

क्या ज़हूर ऐ इमाम का वक़्त तय है ?

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जिस वक़्त ज़हूर की बातें होती हैं तो इंसान के दिल में एक बहुत सुन्दर एहसास पैदा होता है जैसे वह नहर के किनारे किसी हरे भरे बाग में बैठा हुआ है |


क्या ज़हूर ऐ इमाम का वक़्त तय है ?


हमेशा से लोगों के ज़ेहनों में यह सवाल पैदा होता है कि इमामे ज़माना (अ. स.) कब ज़हूर फरमायेंगे ? और क्या ज़हूर के लिए कोई वक़्त निश्चित है ? इस सवाल का जवाब मासूमीन (अ. स.) वर्णित रिवायत के आधार यह है कि ज़हूर का ज़माना निश्चित नहीं है।
इस बारे में हज़रत इमाम सादिक़ (अ. स.) फरमाते हैं कि “हमने न तो कभी पहले ज़हूर के लिए कोई वक़्त निश्चित किया है और न ही इसके लिए भविष्य में कोई वक़्त निश्चित करेंगे...।”
इस आधार पर ज़हूर के लिए कोई वक़्त निश्चित करने वाले लोग झूठे व धोखेबाज़ हैं और विभिन्न रिवायतों में इस बात की पुष्टी भी की गई है। हज़रत इमाम मुहम्मद बाकिर (अ. स.) के एक सहाबी ने उनसे ज़हूर के बारे में सवाल किया तो उन्होंने फरमाया :
जो लोग ज़हूर के लिए वक़्त निश्चित करें वह झूटे हैं।

इन्केलाब का आरम्भ

सब लोग ये जानना चाहते हैं कि हज़रत इमाम महदी (अ. स.) के इस विश्वव्यापी इंकेलाब में क्या क्या घटनाएं घटित होंगी ? इमाम का यह आन्दोलन कहाँ से और कैसे शुरु होग ? हज़रत इमाम महदी (अ. स.) अपने मुखालिफ़ों से कैसा व्यवहार करेंग ? वह  किस तरह पूरी दुनिया पर क़ब्ज़ा करेंगे ? और तमाम महत्वपूर्ण कामों की बाग ड़ोर अपने हाथों में कैसे संभालेंगे ? यह सवाल और इन्हीँ से मिलते जुलते अन्य सवाल ज़हूर का इन्तेज़ार करने वाले इंसानों के ज़हन में आते रहते हैं। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इंसानों की आखरी उम्मीद के ज़हूर के घटनाओं के बारे में बात करना बहुत मुशकिल काम है। क्योंकि भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के बारे में साधारण रूप से गहरी जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है।
अतः हम इस हिस्से में जो कुछ उल्लेख करेंगे वह हज़रत इमाम महदी (अ. स.) के ज़हूर के ज़माने की वह घटनाएं हैं जिनका वर्णन अनेकों किताबों में हुआ हैं और जिन में इमाम (अ. स.) के ज़हूर के ज़माने की घटनाओं की एक झक मिलती है।

क़ियाम की स्थिति

जब ज़ुल्म, सितम, अत्याचार व तबाही दुनिया की शक्ल को काला कर देगी, जब ज़ालिम व अत्याचारी लोग इस ज़मीन को एक बुरे मैदान में परिवर्तित कर देंगे, और पूरी दुनिया के लोग ज़ुल्म व सितम से परेशान होकर मदद के लिए हाथों को आसमान की तरफ़ उठायेंगे तो आचानक आसमान से आने वाली एक आवाज़ रात के अंधेरों को काफ़ूर कर देगी और रमज़ान के महीने में हज़रत इमाम महदी (अ. स.) के ज़हूर की खुश ख़बरी देगी। तब दिल घड़कने लगेंगे और आँखें चौधियाँ जायेंगी, रात भर अय्याशी करने वाले सुबह को ईमान के ज़ाहिर होने की वजह से परेशान होकर भागने का रास्ता ढूँढने की फ़िक्र में होंगे और हज़रत इमाम महदी (अ. स.) का इन्तेज़ार करने वाले अपने महबूब इमाम को तलाश करने और उनके मददगारों में शामिल होने के लिए बेचैन होंगे।

उस मौक़े पर सुफ़यानी जो कई देशों पर क़ब्ज़ा किये हुए होगा जैसे सीरिया, उर्दन, फ़िलिस्तीन, वह इमाम से मुक़ाबले के लिए एक फ़ौज तैयार करेगा और उसे इमाम के मुक़ाबले के लिए मक्के की ओर भेजेगा लोकिन सुफ़यानी की यह फ़ौज जैसे ही बैदा नामक जगह पर पहुँचेगी, ज़मीन में धँस कर भस्म हो जायेगी।

नफ्से ज़किया की शहादत के कुछ ही समय के बाद इमाम महदी (अ. स.) एक जवान मर्द की सूरत में मस्जिदुल हराम में ज़हूर फरमायेंगे। उनकी हालत यह होगी कि वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की क़मीज़ पहने होंगे और रसूले ख़ुदा (स.) का अलम अपने हाथ में लिए होंगे। वह खाना ए काबा की दीवार से टेक लगाये हुए रुक्न व मक़ाम के बीच ज़हूर का तराना गुनगुनायेंगे। वह ख़ुदा वन्दे आलम की हम्द व सना और मुहम्मद व आले मुहम्मद पर दुरुद व सलाम के बाद यह फरमायेंगे :

ऐ लोगों ! हम ख़ुदा वन्दे आलम से मदद माँगते हैं और जो इंसान दुनिया के किसी भी कोने से हमारी आवाज़ पर आगे बढ़ने के लिए तैयार हो उसे मदद के लिए पुकारते हैं।

इसके बाद वह अपनी और अपने खानदान की पहचान कराते हुए फरमायेंगे :
 فَالله الله فِینَا لاٰتَخْذُلوْنا وَ انصرُوْنا یَنْصُرْکمُ الله تعالیٰ
हमारे हक़ की रिआयत के बारे में ख़ुदा को नज़र में रखो और न्याय फैलाने व ज़ुल्म का मुक़ाबेला करने की प्रक़िया में हमें तन्हा न छोड़ो, तुम हमारी मदद करो, ख़ुदा वन्दे आलम तुम्हारी मदद करेगा।


इमाम (अ. स.) की बात पूरी होने के बाद आसमान वाले ज़मीन वालों से आगे बढ़ जायेंगे और गिरोह - गिरोह आकर इमाम (अ. स.) की बैअत करेंगे। लेकिन उन सब से पहले वही लाने वाला महान फरिशता जिब्रईल इमाम की खिदमत में हाज़िर हो जायेगा और उसके बाद ज़मीन के 313 सितारे विभिन्न स्थानों से वही की ज़मीन अर्थात मक्का ए मोज़्ज़मा में इकठ्ठा हो कर उस इमामत के सूरज के चारों तरफ़ घेरा बना लेंगे और उनसे वफ़ादारी का वादा करेंगे। इमाम के पास आने वाले लोगों का सिलसिला जारी रहेगा यहाँ तक कि दस हज़ार सिपाहियों पर आधारित एक फ़ौज इमाम (अ. स.) के पास पहुँच जायेगी और पैग़म्बर (स.) के इस महान बेटे की बैअत करेगी।
इमाम (अ. स.) अपने मददगारों के इस महान लशकर के साथ क़ियाम का परचम लहराते हुए बहुत तेज़ी से मक्का और आस पास के इलाक़ों पर क़ाबिज हो जायेंगे ताकि उनके बीच न्याय, समानता व मुहब्बत स्थापित करें और उन शहरों के सिरफिरे लोगों का सर नीचा करें। उस के बाद वह इराक़ का रुख करेंगे और वहाँ के शहर कूफ़े को अपनी विश्वव्यापी हुकूमत का केन्द्र बना कर वहाँ से उस महान इन्क़ेलाब की देख रेख करेंगे। वह दुनिया वालों को इस्लाम और कुरआन के क़ानूनों  के अनुसार काम करने और ज़ुल्म व सितम खत्म करने का निमन्त्रण देंगे और अपने नूरानी सिपाहियों को दुनिया के विभिन्न इलाक़ों की तरफ़ रवाना करेंगे।
इमाम (अ. स.) एक एक कर के दुनिया के बड़े बड़े मोर्चों को जीत लेंगे क्योंकि मोमिनों और वफ़ादार साथियों के अलावा फ़रिश्ते भी उनकी मदद करेंगे और वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की तरह अपने लशकर के रोब व दबदबे से फायदा उठायेंगे। ख़ुदा वन्दे आलम इमाम (अ. स.) और उनके लशकर का इतना डर दुशमनों के दिलों में डाल देगा कि बड़ी से बड़ी ताक़त भी उनका मुकाबेला करने की हिम्मत नहीं करेगी।


हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ. स.) ने फरमाया :
क़ाइमे आले मुहम्मद (अ. स.) की मदद दुशमनों के दिल में दहशत व रोब पैदा करके की जायेगी।

उल्लेखनीय है कि इमाम (अ. स.) के लशकर के ज़रिये फतह होने वाले इलाकों में से बैतुल मुकद्दस भी है। इस के बाद एक बहुत ही मुबारक घटना घटित होगी, जिस से इमाम महदी (अ. स.) का इंकेलाब एक अहम मोड़ पर पहुँच जायेगा और इससे उनके मोर्चे को और दृढ़ता मिलेगी। वह महान व मुबारक घटना हज़रत ईसा (अ. स.) का आसमान से ज़मीन पर तशरीफ़ लाना है। कुरआने करीम की आयतों के अनुसार हज़रत ईसा मसीह ज़िन्दा हैं और आसमान में रहते हैं, लेकिन उस मौक़े पर वह ज़मीन पर तशरीफ़ लायेंगे और हज़रत इमाम महदी (अ. स.) के पीछे नमाज़ पढेंगे। वह अपने इस काम से सबके सामने अपने ऊपर शियों के बारहवें इमाम हज़रत इमाम महदी (अ. स.) की फज़ीलत, श्रेष्ठता, वरीयता और उनकी पैरवी का एलान करेंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फरमाया :

उस अल्लाह की क़सम जिस ने मुझे नबी बनाया और समस्त संसार  के लिए रहमत बनाकर भेजा। अगर दुनिया की उम्र का एक दिन भी बाक़ी रह जायेगा तो ख़ुदा वन्दे आलम उस दिन को इतना लंबा कर देगा कि उस में मेरा बेटा महदी (अ. स.) क़ियाम कर सके, उस के बाद ईसा पुत्र मरियम (अ. स.) आयेंगे और हज़रत इमाम महदी (अ. स.) के पीछे नमाज़ पढेंगे।
इस काम के द्वारा हज़रत ईसा (अ. स.) ईसाइयों को (जिन की संख्या उस समय दुनिया में बहुत होगी) अल्लाह की इस आख़िरी हुज्जत और शियों के इमाम पर ईमान लाने का संदेश देंगे। ऐसा लगता है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने हज़रत ईसा (अ. स.) को इसी दिन के लिए ज़िन्दा रखा हुआ है ताकि हक़ चाहने वाले लोगों के लिए हिदायत का चिराग़ बन जायें।
वैसे हज़रत इमाम महदी (अ. स.) के द्वारा मोजज़ों (चमत्कारों) को दिखाना, इंसानों की रहनुमाई व मार्गदर्शन के लिए फिक्र को खोलने वाले उच्च विचारों को प्रकट करना आदि इस महान इन्क़ेलाब की योजनाओं में सम्मिलित है ताकि लोगों की हिदायत का रास्ता हमवार हो जाये।
उसके बाद इमाम (अ. स.) यहूदियों की मुकद्दस व पवित्र किताब तौरैत की असली (जिनमें परिवर्न नही हुआ है) तख्तियों को ज़मीन से निकालेंगे। यहूदी उन तख्तियों में उनकी इमामत की निशानियों को देखने, उनके महान इंकेलाब को समझने, इमाम (अ. स.) के सच्चे पैग़ाम को सुन्ने और उनके मोजज़ों को देखने के बाद गिरोह - गिरोह कर के उनके साथ मिल जायेंगे। इस तरह ख़ुदा वन्दे आलम का वादा पूरा हो जायेगा और इस्लाम पूरी दुनिया को अपने परचम के नीचे जमा कर लेगा।
ھُوَ الَّذِی اٴَرْسَلَ رَسُولَہُ بِالْہُدَی وَدِینِ الْحَقِّ لِیُظْہِرَہُ عَلَی الدِّینِ کُلِّہِ وَلَوْ کَرِہَ الْمُشْرِکُونَ
वह अल्लाह, वह है, जिसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चे दीन के साथ भेजा ताकि अपने दीन को तमाम धर्मों पर ग़ालिब बनाये चाहे मुशरिकों को कितना ही नागवार क्यों न हो।
प्रियः पाठकों ! इमाम ज़माना (अ. स.) के ज़हूर की इस मनज़र कशी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सिर्फ ज़ालिम व हठधर्म लोग ही हक़ व हकीकत के सामने नहीं झुकेंगे, लेकिन यह लोग भी मोमिनों और इंकेलाब के मुकाबले की हिम्मत नहीं जुटा पायेंगे और हज़रत महदी की न्याय व समानता फैलाने वाली तलवार से अपने शर्मनाक कामों की सज़ा भुगतेंगे इसके बाद ज़मीन और उस पर रहने वाले हमेशा के लिए बुराईयों व उपद्रवों से सुरक्षित हो जायेंगे।



. ग़ैबते तूसी, फसल न. 7, हदीस न. 412, पेज न. 426
. ग़ैबते तूसी, फसल न. 7, हदीस न. 411, पेज न. 425
. ग़ैबते तूसी, फसल न. 7, हदीस न. 414, पेज न. 426
. गैबते नोमानी, बाब न. 16, हदीस न. 13, पेज न. 305
. ग़ैबते नोमानी, बाब न. 14, हदीस न. 17
. बिहार उल अनवार, जिल्द न. 53, पेज न. 10
. ग़ैबते नोमानी, बाब न. 14, पेज न. 67
. कमालुद्दीन, जिल्द न. 1, बाब 32, हदीस 16, पेज न. 603 ।
. रोज़गारे रोबाई, जिल्द न. 1, पेज न. 554 ।
. बिहार उल अनवार, जिल्द न. 51, पेज न. 71
 रोज़गारे रिहाई, जिल्द न. 1, पेज न. 522
सूरः ए तौबा,आयत न. 33

कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:77-85

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सूरए निसा; आयतें 77-79

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया था कि अभी मक्के में जेहाद से अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ कायम रखो तथा ज़कात दो तो उन्हें आपत्ति हुई और वे युद्ध का आग्रह करने लगे परंतु जब मदीने में उन्हें जेहाद का आदेश दिया गया तो उनमें से एक गुट लोगों से इस प्रकार डरने लगा जिस प्रकार से ईश्वर से डरता हो या शायद उससे भी अधिक और उसने कहा कि प्रभुवर! तूने क्यों हम पर जेहाद अनिवार्य कर दिया? काश इसे थोड़े समय के लिए और टाल दिया होता। हे पैग़म्बर! आप उनसे कह दीजिये कि संसार की पूंजी थोड़ी है और ईश्वर का भय रखने वालों के लिए परलोक उत्तम स्थान है और जान लो कि तुम पर बाल बराबर भी अत्याचार नहीं होगा। (4:77)


इस्लामी इतिहास की किताबों में वर्णित है कि मक्के में मुसलमान अनेकेश्वरवादियों के कड़े दबाव में थे। अत: पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास आये और उनसे कहने लगे कि इस्लाम लाने से पूर्व हम बहुत सम्मानित थे परंतु अब हमारा सम्मान समाप्त हो चुका है और शत्रु हमें सदैव यातनाएं देते रहते हैं। आप हमें अनुमति दें कि हम उनसे युद्ध करके अपना सम्मान वापस ले लें। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि इस समय मुझे युद्ध का आदेश नहीं है और तुम लोग भी नमाज़ तथा ज़कात जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते रहो।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और मुसलमानों द्वारा मक्के से मदीने हिजरत के पश्चात जब ईश्वर की ओर से जेहाद का आदेश आया तो उन्हीं लोगों का एक गुट विभिन्न बहानों से जेहाद से आना कानी करने लगा तो यह आयत आई और उनके इस दोमुखी व्यवहार की आलोचना की। यद्यपि यह इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों के बारे में है परंतु इसके उदाहरण हर समय और काल में देखे जा सकते हैं। सदैव ऐसे लोग रहे हैं और अब भी हैं जो अपने सामाजिक व्यवहार में अतिशयोक्ति करते हैं। कभी तो वे समाज के नेताओं से आगे बढ़ जाते हैं और कभी समाज के साधारण लोगों से भी पीछे रह जाते हैं।
वास्तव में इस प्रकार के लोग अपने कर्तव्य के निर्धारण और उसके पालन के लिए प्रयासरत नहीं रहते बल्कि कभी वे समुद्र की लहर की भांति उफनते हैं परंतु जब वे तट पर पहुंचते हैं तो झाग की भांति, जिसकी आयु कुछ क्षण से अधिक नहीं होती, उनका कोई फल नहीं होता और बहुत ही शीघ्र शांत हो जाते हैं। ऐसे लोग ढ़ोल की भांति भीतर से खाली होते हैं बाहर से तो बहुत आवाज़ देते हैं परंतु उनके भीतर किसी भी काम का साहस नहीं होता।

इस आयत से हमने सीखा कि धार्मिक आदेश क्रमबद्ध होते हैं उसी में जेहाद और संघर्ष की क्षमता होगी जिसने पहले नमाज़ और ज़कात द्वारा अपना परीक्षण किया हो तथा अपनी आंतरिक इच्छाओं और शैतान से संघर्ष किया हो।
सामाजिक समस्याओं और संकटों में भावनात्मक व्यवहार नहीं करना चाहिये बल्कि न्यायप्रेमी और दूरदर्शी नेताओं के दृष्टिकोणों के अधीन रहना चाहिये।


सूरए निसा की 78वीं और 79वीं आयत

जान लो कि तुम जहां कहीं भी रहोगे मौत तुम्हें आ लेगी चाहे सुदृढ़ दुर्गों में ही क्यों न रहो। हे पैग़म्बर! इन मिथ्याचारियों की स्थिति यह है कि जब उन्हें कोई भलाई मिल जाती है तो कहते हैं कि यह ईश्वर की ओर से है और यदि कोई मुसीबत उनके सिर आ जाती है तो कहते हैं यह आपकी ओर से है। हे पैग़म्बर! उनसे कह दीजिये कि सब कुछ ईश्वर की ओर से है। तो इस गुट को क्या हो गया है यह कोई बात समझता ही नहीं है। (4:78)

तुम तक जो भी भलाई पहुंचती है वह ईश्वर की ओर से है और जो कुछ बुराई व मुसीबत पहुंचती है वह स्वयं तुम्हारी ओर से है और हे पैग़म्बर! हम ने आपको सभी लोगों के लिए पैग़म्बर बनाकर भेजा है और इस बारे में ईश्वर की गवाही काफ़ी है। (4:79)


पिछली आयतों की व्याख्या में कहा गया था कि कुछ डरपोक और कमज़ोर ईमान के मुसलमानों ने जेहाद का आदेश आने पर आपत्ति करते हुए उसे विलम्बित करने का आग्रह किया ताकि शायद उनकी जान बच जाये। इन आयतों में ईश्वर कहता है कि यह मत सोचो कि जेहाद से भाग कर तुम्हें मौत से भी मुक्ति मिल जायेगी। जान लो कि यदि मज़बूत से मज़बूत दरवाज़ों के पीछे भी जाकर छिप जाओ तब भी मौत तुम्हें आ लेगी। शाबाश है उन लोगों पर जो जेहाद जैसे सार्थक और मूल्यवान मार्ग में अपनी जान की भेंटे देते हैं और ईश्वर के मार्ग में शहीद होकर अपने अनंत जीवन को सुनिश्चित बना लेते हैं।

आगे चलकर ये आयतें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से मित्थाचारियों के ग़लत और अपमानजनक व्यवहार की ओर संकेत करते हुए कहती हैं। जब भी युद्ध में उन्हें विजय प्राप्त होती है तो वे उसे ईश्वर की कृपा मानते हैं पंरतु यदि उन्हें पराजय होती है तो वे उसे पैग़म्बर की अयोग्यता का परिणाम बताते हैं। उनके उत्तर में आयत कहती है इस संसार की हर वस्तु ईश्वर की इच्छा से है और उनके इरादे के बिना कोई बात नहीं होती चाहे विजय हो या पराजय किन्तु उसकी इच्छा भी बिना तर्क और हिसाब के नहीं होती। यदि तुम अपने कर्तव्यों का पालन करो तो ईश्वर भी तुम्हारे लिए भलाई और विजय का इरादा करता है यदि तुम बद्र के युद्ध की भांति ही सुस्ती करोगे तो ईश्वर तुम्हारे भाग्य में पराजय लिख देगा।

ईश्वर से मनुष्य का संबंध सूर्य से धरती के समान है। सूर्य के चारों ओर अपने परिक्रमण में धरती जहां कहीं अपना मुख सूर्य की ओर करती है वहां वो उसके प्रकाश और उष्मा से लाभांवित होती है और जहां कहां वह सूर्य की ओर से मुंह घुमा लेती है वहां वह अंधकार में ग्रस्त हो जाती है। मनुष्य भी इसी प्रकार से है जब भी वह ईश्वर की ओर मुख करता है और उसकी ओर आकृष्ट होता है तब वह ईश्वर की कृपा से लाभांवित होता है और जब कभी भी वह ईश्वर से मुंह मोड़ लेता है तो स्वयं को जीवन के स्रोत से वंचित कर लेता है।
अलबत्ता इस वास्तविकता को केवल पवित्र हृदय वाले लोग ही समझते और स्वीकार करते हैं परंतु रोगी हृदय वाले या तो इसे समझते नहीं या स्वीकार करना नहीं चाहते। क्योंकि वे ईश्वर को नहीं बल्कि स्वयं को केन्द्र समझते हैं। वे केवल स्वयं को सत्य पर समझते हैं और जो कोई उनके मुक़ाबले पर आता है उसे असत्य पर मानते हैं जबकि सत्य और असत्य का मापदंड ईश्वर है न कि वे।

इन आयतों से हमने सीखा कि जब मौत निश्चित है तो फिर युद्ध और जेहाद से भागने का क्या अर्थ है?
अपने पापों को दूसरों की गर्दन में नहीं डालना चाहिये और स्वयं को कर्तव्यहीन बताकर अपनी ग़लतियों का औचित्य नहीं दर्शाना चाहिये।
जीवन व मृत्यु, अच्छी व बुरी घटनायें सबकी सब ईश्वर के तत्वदर्शी नियमों के आधार पर हैं।
ईश्वरीय दृष्टि में, जो कुछ सुन्दरता और परिपूर्णता है, वह ईश्वर की ओर से है और जो कुछ कमी व अवगुण है वह हमारी ओर से है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी विश्वव्यापि है और किसी भी जाति या क्षेत्र से विशेष नहीं है।

सूरए निसा; आयतें 80-82

जिसने भी पैग़म्बर का आज्ञापालन किया तो निसंदेह उसने ईश्वर का आज्ञापालन किया और जिसने अवज्ञा की तो हे पैग़म्बर! जान लीजिए कि हमने आपको उन लोगों का रखवाला बनाकर नहीं भेजा है। (4:80)

किसी भी समाज के संचालन के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक सरकारी पदों के क्रम का निर्धारण और लोगों द्वारा उनका आज्ञापालन है। जैसाकि इस कार्यक्रम में हम अनेक बार कह चुके हैं कि इस्लाम केवल व्यक्तिगत उपासना संबंधी कुछ आदेशों का नाम नहीं है बल्कि इस्लाम व्यक्ति के कल्याण को समाज के कल्याण और विभिन्न सामाजिक मंचों पर उसकी उपस्थिति पर निर्भर समझता है।
ज़कात, हज और जेहाद जैसे आदेश इन सामाजिक सिद्धांतों का स्पष्ट उदाहरण हैं तथा इन सिद्धांतों और आदेशों के क्रियान्वयन के लिए शासन व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे इस्लाम ने पूर्णरूप से पेश किया है।
क़ुरआन की दृष्टि से पैग़म्बर का दायित्व केवल ईश्वरीय आदेशों को पहुंचाना नहीं है बल्कि वे स्वयं इस्लामी समाज के शासक हैं और उनका आज्ञापालन ईश्वर का आज्ञापालन है तथा उनकी अवज्ञा ईश्वर के इंकार के समान है। न केवल पैग़म्बर के प्रशासनिक आदेशों बल्कि उनके कथनों का भी विशेष महत्व है और उन्हें सुन्नत कहा जाता है।
यह आयत जिस रोचक बात की ओर संकेत करती है वह समाज के प्रति पैग़म्बर यहां तक कि शासक के रूप में उनके दायित्वों की सीमा है और वह यह कि पैग़म्बर लोगों को सत्य स्वीकार करने और उस पर कार्यबद्ध होने पर विवश करने के उत्तरदायी नहीं हैं उनका कर्तव्य और दायित्व केवल समाज का मार्गदर्शन तथा नेतृत्व है न कि ईश्वरीय आदेशों के पालन के लिए लोगों को विवश करना।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर का आज्ञापालन केवल नमाज़, रोज़ा करने के अर्थ में नहीं है बल्कि समाज के ईश्वरीय नेताओं का आज्ञापालन भी धर्म का दायित्व है।

पैग़म्बरों का कर्तव्य धर्म को लोगों पर थोपना नहीं बल्कि उसका प्रचार है और मनुष्य को स्वेच्छा और अपने चयन से धर्म अपनाना चाहिये।

सूरए निसा की 81वीं आयत


और (हे पैग़म्बर! जब मिथ्याचारी आपके पास होते हैं तो) कहते हैं कि हम आज्ञापालन करने वाले हैं परंतु जब वे आपके पास से चले जाते हैं तो उनका एक गुट अपने कहे के विपरीत रातों की बैठकों में षड्यंत्र रचता है और उन बैठकों में वे जो कहते हैं ईश्वर उसे लिख रहा है तो तुम उनसे दूरी करो और ईश्वर पर भरोसा करो कि ईश्वर सहायता करने के लिए काफ़ी है। (4:81)

यह आयत भी मिथ्याचारियों की ओर से ख़तरों की ओर से सचेत करती है और पैग़म्बर तथा मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है होशियार रहो कि तुम्हारे बीच कमज़ोर ईमान वालों तथा मिथ्याचारियों का एक ऐसा गुट मौजूद है जो विदितरूप से तुम्हारे साथ होने और आज्ञापालन करने का दावा करता है परंतु रात की अपनी गुप्त बैठकों में वे कुछ और निर्णय लेते हैं तथा तुम्हारे कार्यक्रमों को विफल बनाने के लिए षड्यंत्र रचते हैं। ऐसे लोगों से मुक़ाबले का मार्ग उन्हें पहचान कर उनसे दूर रहना है। उनके अलग हो जाने या उनके उल्लंघनों से घबराना नहीं चाहिये क्योंकि ईश्वर उनकी बातों और निर्णयों को जानता है और उचित समय पर उन्हें विफल बना देगा तो केवल ईश्वर पर भरोसा करना चाहिये और उसी से सहायता मांगनी चाहिये।

इन आयतों से हमने सीखा कि आंतरिक शत्रुओं के षड्यंत्रों की ओर से निश्चेत नहीं रहना चाहिये और यह नहीं सोचना चाहिये कि शत्रु केवल सीमा पार ही है।
मनुष्य को भोला नहीं होना चाहिये और किसी की भी ओर से प्रेम के दावे पर शीघ्र ही भरोसा नहीं कर लेना चाहिये बल्कि इसके विपरीत जहां अधिक चापलूसी, मक्खनबाज़ी और प्रशंसा हो वहां घुसपैठ का ख़तरा अधिक समझना चाहिये।
ईश्वर वास्तविक ईमान वालों का रक्षक और समर्थक है तथा अपनी प्रत्यक्ष और परोक्ष सहायताओं से उनका समर्थन करता है।

 सूरए निसा की 82वीं आयत

क्या वे क़ुरआन में सोच विचार नहीं करते कि यदि वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता तो वे उसमें बहुत मतभेद पाते। (4:82)

इस्लाम के विरोधी, जिनके पास पैग़म्बरे इस्लाम के स्पष्ट तर्कों का कोई जवाब नहीं होता था, विभिन्न प्रकार के आरोप लगाते थे। उनमें से एक यह था कि क़ुरआन हज़रत मोहम्मद के विचारों का परिणाम या दूसरे से प्राप्त की हुई उनकी शिक्षाओं का फल है। इस आरोप के उत्तर में ईश्वर इस आयत में कहता है क्यों तुम लोग कुरआन की आयतों पर विचार नहीं करते? क़ुरआन 20 वर्षों से भी अधिक की अवधि में युद्ध और शांति की विभिन्न परिस्थितियों में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर उतरा है, यदि यह मानव के विचारों का परिणाम होता तो स्वाभाविक रूप से इसमें अनेक मतभेद होते चाहे विषय की दृष्टि से या कथन की पद्धति व क्रम की दृष्टि से।


मूल रूप से क़ुरआन के ईश्वरीय चमत्कार होने के तर्कों में से एक इतनी बड़ी अवधि में भी क़ुरआन के विषयों में समानता व समन्वय है क्योंकि बड़े से बड़े लेखक के आज के और २० वर्ष के बाद के लेखों में समानता नहीं होती और उसमें परिवर्तन आता रहता है क्योंकि मनुष्य की परिस्थितियों, ज्ञान और प्रकृति का प्रभाव पड़ता रहता है और इस प्रकार उसके सोचने और लिखने में विभिन्न प्रकार के अंतर और मतभेद आते ही रहते हैं परन्तु ईश्वर का कथन इन सब बातों से बहुत ऊपर है इसीलिए २३वर्षों में भी उसके विषयों और अन्दाज़ में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
इस आयत से हमने सीखा कि उन लोगों के विपरीत, जो धर्म को ज्ञान व विचार का विरोधी बताते हैं यह आयत स्पष्ट रूप से सभी को क़ुरआन की आयतों पर विचार का निमंत्रण देती है ताकि इस प्रकार वे इस्लाम की सहायता को समझ सकें।
क़ुरआन हर काल व हर पीढ़ी के लिए समझने योग्य है और सभी ईमान वालों का कर्तव्य है कि उस पर विचार करें।
यदि लोग क़ुरआन के ध्रुव पर एकत्रित हो जायें तो हर प्रकार के मतभेद और विवाद समाप्त हो जायेंगे क्योंकि क़ुरआन में ऐसी कोई चीज़ नहीं जो मतभेद का कारण हो।


सूरए निसा; आयतें 83-85 

और (मिथ्याचारियों की पद्धति यह है कि) जब भी उन्हें शांति या भय का समाचार मिलता है उसे फैला देते हैं जबकि यदि वे उसे पैग़म्बर या योग्य लोगों के पास ले जाएं तो वे लोग जो उसको जानने वाले हैं, उसकी वास्तविकता को समझ जाते हैं, और यदि तुम पर ईश्वर की कृपा न होती तो कुछ लोगों को छोड़कर तुम सब शैतान का अनुसरण करते। (4:83)


पिछली आयतों में पैग़म्बर व इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों के साथ मिथ्याचारियों के अनुचित व्यवहारों का वर्णन करने के पश्चात ईश्वर इस आयत में उनके एक अन्य व्यवहार का वर्णन करते हुए कहता है कि। अफ़वाहें फैलाना, विशेषकर युद्ध के समाचारों के बारे में जिनता बहुत महत्व होता है, मिथ्याचारियों की योजनाओं में से एक है। इस प्रकार की अफ़वाहें कभी लोगों के हृदयों में भय व आतंक उत्पन्न कर देती हैं तो कभी अनुचित रूप से उनके भीतर शांति व सुरक्षा की आशा जगा देती हैं।
इसके पश्चात ईश्वर शासकों के प्रति जनता के कर्तव्य के संबंध में एक मूल सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए कहता हैः समाज की व्यवस्था से संबंधित मामलों में जनता का कर्तव्य यह है कि वो इस प्रकार के समाचारों को नेताओं व शासकों तक पहुंचा दे ताकि वे उसका सही विश्लेषण करके लोगों को वास्तविक्ताओं से अवगत कराएं।
आगे चलकर आयत एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए कहती हैः मिथ्याचारियों की यह पद्धति मनुष्य को कुफ़्र एवं शैतान के अनुसरण की ओर ले जाती है और यदि ईश्वर की कृपा तथा पैग़म्बरों व अन्य ईश्वरीय मार्गदर्शकों का मार्गदर्शन न होता तो अधिकांश लोगों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता था और वे समाज की कठिनाइयों में शैतानी उकसावों और शैतानी विचारों से ग्रस्त हो जाते।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों के बीच अफ़वाहें फैलाना, मिथ्याचारियों का काम है। अतः उनकी ओर से सचेत रहना चाहिए।

सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समाचारों को नहीं फैलाना चाहिए बल्कि इस प्रकार के समाचारों को केवल शासक वर्ग तक सीमित रखना चाहिए।
केवल सोचने, समझने तथा चिंतन करने वाले लोग ही वास्तिविक्ता तक पहुंचते हैं तथा अन्य लोगों को उन्हीं से संपर्क करना चाहिए।

 सूरए निसा की आयत नंबर 84


(हे पैग़म्बर!) ईश्वर के मार्ग में युद्ध करो और ईमान वालों को भी इस काम पर प्रोत्साहित करो। (परंतु यह जान लो कि) तुम केवल अपने कर्तव्यों के उत्तरदायी हो। आशा है कि ईश्वर काफ़िरों की शक्ति और सत्ता को रोक देगा और ईश्वर की शक्ति भी अधिक है और दंड भी। (4:84)


ऐतिहासिक किताबों में वर्णित है कि ओहोद के युद्ध में मुसलमानों की पराजय के पश्चात अबू सुफ़ियान ने उन पर आक्रमण की अगली तारीख़ निर्धारित की। निश्चित समय पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मुसलमानों को आगे बढ़ने का आदेश दिया परंतु ओहद में होने वाली पराजय की कटु याद इस बात का कारण बनी कि अनेक लोग पैग़म्बर के आदेश की अवज्ञा करें। उसी समय यह आयत उतरी और पैग़म्बर को आदेश दिया गया कि यदि एक व्यक्ति भी तुम्हारे साथ न आए तब भी तुम पर युद्ध के लिए जाना आवश्यक है। अल्बत्ता तुम मुसलमानों को जेहाद का निमंत्रण देते रहो।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने भी ऐसा ही किया तथा बहुत कम लोग पैग़म्बर के साथ आगे बढ़े परंतु शत्रु निर्धारित समय पर युद्ध के लिए नहीं आया और युद्ध नहीं हुआ। इस प्रकार मुसलमानों को क्षति पहुंचाने से शत्रु को रोकने का ईश्वर का वचन पूरा हो गया।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों को कर्तव्य लोगों को धर्म और धार्मिक आदेशों की ओर बुलाना है न कि उन्हें इस कार्य के लिए विवश करना।

ख़तरे और झड़प के समय नेता को सदैव समाज का अगुवा होना चाहिए। यहां तक कि यदि वह अकेला रह जाए तब भी उसे संघर्ष नहीं छोड़ना चाहिए कि ऐसी स्थिति में उसे ईश्वरीय सहायता प्राप्त होगी।
हर कोई अपने काम का उत्तरदायी है। यहां तक कि पैग़म्बर भी लोगों के कामों के उत्तरदायी नहीं हैं बल्कि उन्हें केवल अपने कर्तव्यों का जवाब देना होगा।

ईश्वरीय शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। बस शर्त यह है कि लोग अपने दायित्वों का पालन करें।

 सूरए निसा की आयत नंबर 85 

जो कोई भी भले कार्य के लिए मध्यस्थता और सिफ़ारिश करे उसे भी उसका एक भाग मिलेगा और जो कोई बुरे काम का साधन बने उसे भी उसके दंड का एक भाग मिलेगा और निःसंदेह ईश्वर हर चीज़ का हिसाब रखने वाला है। (4:85)

इस आयत में ईश्वर एक मूल क़ानून की ओर संकेत करते हुए कहता है न केवल पैग़म्बर बल्कि सभी लोगों पर दूसरों को भले कर्मों का निमंत्रण देने का दायित्व है और वह भी भले ढंग से। अल्बत्ता हर कोई केवल अपने कर्मों के प्रति उत्तरदायी है परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि लोग दूसरों और समाज की अच्छी-बुरी बातों की ओर से निश्चेत रहें। इस्लाम व्यक्तिवाद का धर्म नहीं है कि हर कोई केवल अपने विचार में रहे और दूसरों को बुराई से संघर्ष और सत्य का निमंत्रण देने की ओर से आंखें मूंदे रहे।

प्रत्येक दशा में भले कार्यों का आदेश देना और बुराइयों से रोकना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है जिसका उसे अपने जीवन, परिवार, मुहल्ले, कार्यस्थल इत्यादि में पालन करना चाहिए।

पारितोषिक और दंड की दृष्टि से भी मनुष्य को न केवल यह कि अपने कर्मों का बदला मिलेगा बल्कि वह दूसरों के कर्मों में भी सहभागी है। यदि वह किसी भले काम का माध्यम बनेगा तो पारितोषिक का एक भाग उसे भी मिलेगा और यदि उसने किसी बुरे कर्म की भूमि समतल की तो उसके दंड में वो भी भागीदारी होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि दो व्यक्तियों के बीच मनमुटाव समाप्त कराना, समाज में भले कामों में सहयोग और सहायता करना तथा कुफ़्र के साथ युद्ध में मुसलमानों की सहायता करना, भली सिफ़ारिश के स्पष्ट उदाहरणों में से है जो प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है।

समय व स्थान संबंधी सीमाओं के कारण मनुष्य स्वयं सभी भले कर्म नहीं कर सकता परंतु वह अच्छे कामों का माध्यम बन कर उनके पारितोषिक का कुछ भाग प्राप्त कर सकता है।


कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:1-33

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सूरए निसा; आयतें 1-3

सूरए आले इमरान की व्याख्या पिछले कार्यक्रम में समाप्त हो गई और अब हम क़ुरआन मजीद के चौथे सूरे अर्थात सूरए निसा की आयतों की व्याख्या आरंभ कर रहे हैं। सूरए निसा में 176 आयतें हैं और यह सूरा मदीना नगर में उतरा है। चूंकि इस सूरे की अधिकांश आयतें परिवार की समस्याओं और परिवार में महिलाओं के अधिकारों से संबंधित हैं इसलिए इसे सूरए निसा कहा गया है जिसका अर्थ होता है महिलाएं।
तो आइये इस सूरे की पहली आयत की तिलावत सुनें।


अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है। हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया तथा उस ईश्वर से डरो जिसके द्वारा तुम एक दूसरे से सहायता चाहते हो और रिश्तों नातों को तोड़ने से बचो (कि) नि:संदेह ईश्वर सदैव तुम्हारी निगरानी करता है। (4:1)
 यह सूरा, जो पारीवारिक समस्याओं के बारे में है, ईश्वर से भय रखने के साथ आरंभ होता है और पहली ही आयत में यह सिफारिश दो बार दोहराई गई है क्योंकि हर व्यक्ति का जन्म व प्रशिक्षण परिवार में होता है और यदि इन कामों का आधार ईश्वरीय आदेशों पर न हो तो व्यक्ति और समाज के आत्मिक व मानसिक स्वास्थ्य की कोई ज़मानत नहीं होगी।
 ईश्वर मनुष्यों के बीच हर प्रकार के वर्चस्ववाद की रोकथाम के लिए कहता है कि तुम सब एक ही मनुष्य से बनाये गये हो और तुम्हारा रचयिता भी एक है अत: ईश्वर से डरते रहो और यह मत सोचो कि वर्ण, जाति अथवा भाषा वर्चस्व का कारण बन सकती है, यहां तक कि शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से अंतर रखने वाले पुरुष व स्त्री को भी एक दूसरे पर वरीयता प्राप्त नहीं है क्योंकि दोनों की सामग्री एक ही है और सबकी जड़ एक ही माता पिता हैं।
 क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में ईश्वर ने माता-पिता के साथ भलाई का उल्लेख अपने आदेश के पालन के साथ किया है और इस प्रकार उसने मापा-पिता के उच्च स्थान को स्पष्ट किया है परंतु इस आयत में न केवल माता-पिता बल्कि अपने नाम के साथ उसने सभी नातेदारों के अधिकारों के सममान को आवश्यक बताया है तथा लोगों को उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है।
 इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। अत: वह परिवार तथा समाज में मनुष्यों के आपसी संबंधों पर ध्यान देता है और ईश्वर ने भय तथा अपनी उपासना का आवश्यक भाग, अन्य लोगों के अधिकारों के सम्मान को बताया है।
 मानव समाज में एकता व एकजुटता होनी चाहिये क्योंकि लोगों के बीच वर्ण, जाति, भाषा व क्षेत्र संबंधी हर प्रकार का भेद-भाव वर्जित है। ईश्वर ने सभी को एक माता पिता से पैदा किया है।
 सभी मनुष्य एक दूसरे के नातेदार हैं क्योंकि सभी एक माता-पिता से हैं। अत: सभी मनुष्यों से प्रेम करना चाहिये और अपने निकट संबंधियों की भांति उनका सम्मान करना चाहिये।
 ईश्वर हमारी नीयतों व कर्मों से पूर्ण रूप से अवगत है। अत: न हमें अपने मन में स्वयं के लिए विशिष्टता की भावना रखनी चाहिये और न व्यवहार में दूसरों के साथ ऐसा रवैया रखना चाहिये।


 सूरे निसा की दूसरी आयत

अनाथों का माल उन्हें दे दो और अपना ख़राब माल उनके अच्छे माल से मत बदलो और उनके माल को अपने माल की ओर मत खींचो कि नि: संदेह यह बहुत बड़ा पाप है। (4:2)

 यह आयत सभी मानव समाजों में पाई जाने वाली एक समस्या अर्थात असहाय अनाथों की ओर संकेत करती है जो विरासत में मिलने वाली सम्पत्ति की रक्षा की क्षमता नहीं रखते। अत: वह सम्पत्ति उनके अभिभावक के नियंत्रण में आ जाती है और वह उसका ग़लत प्रयोग कर सकता है।
 इस आयत का सबसे स्पष्ट उदाहरण वे छोटे-छोटे बच्चे हैं जिनके माता-पिता का निधन हो जाता है तो अभिभावक बच्चों के अधिकारों को दृष्टिगत रखे बिना उत्तराधिकार में मिले धन को आपस में बांट लेते हैं और विरासत में से उन्हें कुछ भी नहीं देते या देते भी हैं तो अपनी इच्छा के अनुसार, न उस मात्रा में जो ईश्वर ने विरासत के संबंध में निर्धारित की है।
 यह आयत अनाथों के माल में हर प्रकार की गड़-बड़ या उसे प्रयोग करने से रोकते हुए इसे एक बड़ा पाप बताती है क्योंकि अनाथ के अभिभावक का कर्तव्य, अनाथ के माल की देखभाल तथा बड़े होने पर उसे उसके हवाले करना है न यह कि वह स्वयं को ही उसके माल का मालिक समझे बैठे और जैसा चाहे उस सम्पत्ति का प्रयोग करे।
इस आयत से हमने सीखा कि अनाथों का माल उन्हें देना चाहिये, चाहे वे न जानते हों या भूल गये हों।
बच्चे भी सम्पत्ति के मालिक होते हैं परंतु जब तक वे वयस्क न हो जायें, उसे प्रयोग नहीं कर सकते।
इस्लाम समाज के वंचित और बेसहारा लोगों पर ध्यान देता है और उनका समर्थन करता है।

 सूरए निसा की तीसरी आयत

और यदि तुम्हें भय हो कि तुम अनाथ लड़कियों के संबंध में न्याय नहीं कर सकोगे तो उनसे विवाह मत करो और अपनी पसंद की महिलाओं में दो, तीन या चार से विवाह करो, फिर यदि तुम्हें भय हो कि अपनी पत्नियों के बीच न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाओगे तो केवल एक से विवाह करो या उन दासियों को, जिनके तुम स्वामी हो, अपनी पत्नी बना लो। यह उत्तम मार्ग है ताकि तुम अत्याचार न करो। (4:3)


यह आयत अनाथ लड़कियों के संबंध में है जिन पर सदैव अधिक अत्याचार होते हैं। इसी कारण ईश्वर ने उनके बारे में अलग से बात की है और उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है। अवसर की खोज में रहने वाले लोग अनाथ लड़कियों के माल पर क़ब्ज़ा करने के लिए उनसे विवाह का प्रस्ताव रख सकते हैं और इस मार्ग में हर प्रकार का ग़लत कार्य कर सकते हैं पंरतु क़ुरआन कहता है कि यदि अनाथ लड़कियों से विवाह में तुम्में इस बात की तनिक भी संभावना हो कि तुम अत्याचार कर बैठोगे तो यह विवाह मत करो।
इस्लामी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित है कि इस्लाम के आरंभिक काल में कुछ दुष्ट लोग अनाथ लड़कियों की अभिभावकता स्वीकार करते हुए उन्हें अपने घर ले आते थे परन्तु कुछ समय बीतने के पश्चात उनसे विवाह कर लेते थे तथा न केवय यह कि उनकी सम्पत्ति पर क़ब्ज़ा कर लेते थे बल्कि उनका मेहर भी सामान्य से कम देते थे। ईश्वर ने इसी सूरे की १२७वीं आयत भेज कर अनाथ लड़कियों के संबंध में हर प्रकार के अन्याय से रोका है।
चूंकि अनेक पुरुष अनाथ लड़कियों से दूसरी, तीसरी या चौथी पत्नी के रूप में विवाह करते थे अत: क़ुरआन उन लड़कियों के सम्मान की रक्षा के लिए कहता है कि यदि तुम दूसरी शादी करना चाहते हो तो इन अनाथ लड़कियों से क्यों करते हो? अन्य महिलाओं से विवाह करो या कम से कम अपनी दासियों से ही विवाह कर लो।
यद्यपि यह आयत पुरुषों को चार विवाह की अनुमति देती है परंतु इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह इस्लाम की पहल नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक व्यवस्था थी और है तथा परिवार के सम्मान की रक्षा के लिए इस्लाम ने इस संबंध में कड़े क़ानून रखे हैं। दूसरे शब्दों में बहुविवाह का विषय इस्लाम ने प्रस्तुत नहीं किया है बल्कि यह उस समय के समाज की वास्तविकता थी जिसे इस्लाम ने विशेष क़ानून बनाकर नियंत्रित किया है।
वास्तविकता यह है कि महिलाओं के मुक़ाबले में पुरुषों को जान का ख़तरा अधिक होता है। युद्धों और झड़पों में पुरुष ही मारे जाते हैं और महिलाएं विधवा हो जाती हैं। इसी प्रकार प्रतिदिन के अन्य कामों में भी पुरुषों को महिलाओं से अधिक ख़तरा रहता है तथा हर समाज में पुरुषों की मृत्यु दर महिलाओं की मृत्यु दर से कहीं अधिक होती है, तो क्या ऐसे पुरुषों की पत्नियों से यह कहा जा सकता है कि चूंकि तुम्हारे पति मर चुके हैं अत: तुम अपने जीवन के अंत तक अभिभावक के बिना रहो? और दूसरी ओर क्या युवाओं को यह आदेश दिया जा सकता है कि विधवा व बच्चों वाली महिलाओं से विवाह करें यहां तक कि पश्चिमी समाजों में, जो इस्लाम के इस क़ानून को महिला अधिकारों का विरोधी समझते हैं, अनेक महिलाओं व पुरुषों के बीच अवैध संबंध होते हैं और इस संबंध में उनके यहां कोई नियम नहीं है। इस्लाम मनुष्य की प्राकृतिक इच्छाओं के आधार पर इस पारस्परिक आवश्यकता को नकारना नहीं चाहता और इस संबंध में उसने विशेष क़ानून बनाये हैं तथा उनकी संख्या को सीमित किया है और इसकी सबसे महत्वपूर्ण शर्त पत्नियों के बीच न्याय है।
क्या इसे महिला अधिकारों के विरुद्ध कहा जा सकता है? और जिन समाजों में महिलाओं तथा पुरुषों के बीच संबंधों के लिए कोई नियम और क़ानून नहीं है तथा स्वतंत्रता के झूठे नारों के साथ हर प्रकार के संबंधों यहां तक कि विवाहित महिला के साथ भी अवैध संबंधों की अनुमति होती है तो क्या यह महिला के अधिकारों के हित में है? पवित्र क़ुरआन इस संबंध में स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि तुम अपनी पत्नियों के बीच न्याय नहीं कर सकते तो एक से अधिक विवाह मत करो।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम ने अनाथ लड़कियों के सम्मान की रक्षा और उनकी सम्पत्ति के ग़लत प्रयोग को रोकने के लिए उनके साथ व्यवहार, यहां तक कि उनके साथ विवाह के लिए जो मानदंड बनाया है, वह न्याय का पालन है।
विवाह हेतु जोड़े के चयन की एक शर्त हार्दिक लगाव व रुचि है। किसी को किसी के साथ विवाह के लिए विवश नहीं किया जा सकता।
यदि कोई बहुविवाह के विषय से ग़लत लाभ उठाता है तो यह इस विषय के ग़लत होने की निशानी नहीं है बल्कि इसके विपरीत इस विषय के प्रति समाज की आवश्यकता और इसके लिए विशेष के निर्धारण की आवश्यकता को दर्शाता है।

सूरए निसा; आयतें 4-6

और महिलाओं का मेहर उन्हें उपहार स्वरूप और इच्छा से दो यदि उन्होंने अपनी इच्छा से उसमें से कोई चीज़ तुम्हें दे दी तो उसे तुम आनंद से खा सकते हो। (4:4)

जैसा कि हमने पिछले कार्यक्रम में कहा कि सूरए निसा पारिवारिक आदेशों और विषयों से आरंभ होता है। सभी जातियों व राष्ट्रों के बीच परिवार के गठन के महत्वपूर्ण विषयों में एक पति द्वारा अपनी पत्नी को मेहर के रूप में उपहार दिया जाना है परंतु कुछ जातियों व समुदायों विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के काल के अरबों के बीच, जहां व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में महिलाओं का कोई विशेष स्थान नहीं था, अनेक अवसरों पर पुरुष या तो मेहर देते ही नहीं थे या फिर मेहर देने के पश्चात उसे ज़बरदस्ती वापस ले लेते थे।
महिला के पारिवारिक अधिकारों की रक्षा में क़ुरआन पुरुषों को आदेश देता है कि वे मेहर अदा करें और वह भी स्वेच्छा तथा प्रेम से न कि अनिच्छा से और मुंह बिगाड़ के। इसके पश्चात वह कहता है कि जो कुछ तुमने अपनी पत्नी को मेहर के रूप में दिया है उसे या उसके कुछ भाग को वापस लेने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है बल्कि यदि वह अपनी इच्छा से तुम्हें कुछ वापस दे दे तो वह तुम्हारे लिए वैध है।
इस आयत में प्रयोग होने वाले एक शब्द नहलह के बारे में एक रोचक बात यह है कि यह शब्द नहल से निकला है जिसका अर्थ मधुमक्खी होता है। जिस प्रकार से मुधमक्खी लोगों को बिना किसी स्वार्थ के मधु देती है और उनके मुंह में मिठास घोल देती है उसी प्रकार मेहर भी एक उपहार है जो पति अपनी पत्नी को देता है ताकि उनके जीवन में मिठास घुल जाये। अत: मेहर की वापसी की आशा नहीं रखनी चाहिये।
मेहर पत्नी की क़ीमत और मूल्य नहीं बल्कि पति की ओर से उपहार और पत्नी के प्रति उसकी सच्चाई का प्रतीक है। इसी कारण मेहर को सेदाक़ भी कहते हैं जो सिद्क़ शब्द से निकला है जिसका अर्थ सच्चाई होता है।
इस आयत से हमने सीखा कि मेहर पत्नी का अधिकार है और वह उसकी स्वामी होती है। पति को उसे मेहर देना ही पड़ता है और उससे वापस भी नहीं लिया जा सकता।
किसी को कुछ देने में विदित इच्छा पर्याप्त नहीं है बल्कि स्वेच्छा से और मन के साथ देना आवश्यक है। यदि पत्नी विवश होकर या अनमनेपन से अपना मेहर माफ़ कर दे तो उसे लेना ठीक नहीं है चाहे वह विदित रूप से राज़ी ही क्यों न दिखाई दे।

 सूरए निसा की 5वीं आयत

तुम अपने माल और धन सम्पत्ति को, जो तुम्हारे जीवन का आधार है, मूर्खों को मत दो परन्तु उस माल की आय से उन्हें खाना और कपड़ा दो तथा उनसे अच्छी और भली बात करो। (4:5)


इस आयत से पहली और बाद वाली आयतों से यह बात स्पष्ट होती है कि इस आयत का तात्पर्य यह है कि अनाथों का माल तब तक उन्हें नहीं देना चाहिये जब तक वे बौद्धिक व आर्थिक रूप से वयस्क न हो जायें। यदि कुछ अनाथ बौद्धिक रूप से व्यस्क न हो सकें और बुद्धिहीन रह जायें तो उनका माल उन्हें नहीं देना चाहिये बल्कि मूल राशि और उसकी आय को सुरक्षित रखते हुए खाने और कपड़े जैसी उनकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिये।
इसके पश्चात एक महत्वपूर्ण शिष्टाचारिक सिफ़ारिश करते हुए ईश्वर कहता है कि बुद्धिहीनों के साथ भी अच्छी बात करो, न बुरी बात करो, न बुरे ढंग से बात करो। यद्यपि तुम उनका माल उन्हें नहीं देते परंतु उनके साथ बात और व्यवहार में उनका सम्मान करो।
इस आयत से हमने सीखा कि धन सम्पत्ति समाज की सुदृढ़ता व प्रगति का साधन है परन्तु शर्त यह है कि यह पवित्र, भले व बुद्धिमान लोगों के हाथ में हो।
परिवार व समाज के आर्थिक मामलों में व्यक्ति व समाज के हितों को दृष्टिगत रखना चाहिये न कि शीघ्र ही समाप्त हो जाने वाली भावनाओं और कल्पनाओं को।
इस्लामी समाज के आर्थिक अधिकारियों को समझदार एवं अनुभवी होना चाहिये।
इस्लाम की दृष्टि में सांसारिक धन-दौलत न केवल यह कि बुरी चीज़ नहीं है बल्कि अर्थ व्यवस्था की सुदृढ़ता का कारण भी है अलबत्ता केवल उस स्थिति में जब वह बुद्धिहीनों के हाथ में न हो।

सूरए निसा की 6ठी आयत

और अनाथों को आज़माओ यहां तक कि वे विवाह के योग्य हो जायें तो यदि तुम उनके व्यवहार में प्रगति व युक्ति देखो तो उनका माल उन्हें लौटा दो और उसे इस भय से कि कहीं अनाथ बड़े न हो जायें जल्दी जल्दी अपव्यय के साथ ख़र्च मत करो और जो कोई भी आवश्यकतामुक्त है वह अनाथों की अभिभावकता का ख़र्चा न ले और जिसे आवश्यकता है वह प्रचलित और सामान्य मात्रा में ले सकता है। तो जब तुम उनका माल उन्हें लौटाओ तो उन पर गवाह बनाओ और जान लो कि हिसाब के लिए ईश्वर काफी है। (4:6)
इस आयत ने, जिसमें अनाथों के माल की रक्षा और उसे उन्हें लौटाने की पद्धति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, समाज के निर्धन व कमज़ोर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ क़ानून बनाये हैं। उदाहरण स्वरूप अनाथों को उनका माल लौटाने की शर्त उनका आर्थिक व वैचारिक दृष्टि से वयस्क होना है जो परीक्षण से सिद्ध हो चुका हो। दूसरी बात यह है कि उनका माल उन्हें देने तक सुरक्षित रखना चाहिये न यह कि उनके वयस्क होने से पूर्व उसे ख़र्च कर देना चाहिये। एक अन्य बात यह कि अनाथ के अभिभावक को उसकी सम्पत्ति से अपना ख़र्च चलाने का अधिकार नहीं है सिवाये इसके कि वह स्वयं दरिद्र हो कि ऐसी दशा में वह अपनी मेहनत के अनुरूप ख़र्च कर सकता है और इसी प्रकार अनाथ का माल उसे देते समय गवाह भी आवश्यक है ताकि भविष्य में संभावित मतभेदों से बचा जा सके।
इस आयत से हमने सीखा कि अपने माल को ख़र्च करने के लिए शारीरिक वयस्कता के साथ ही वैचारिक व बौद्धिक विकास भी आवश्यक है। अत: बच्चों और नवयुवकों को अपना माल ख़र्च करने से पहले आर्थिक रूप से भी वयस्क होना चाहिये।
आर्थिक मामलों में ठोस काम करना चाहिये। ईश्वर को भी दृष्टिगत रखना चाहिये और समाज में अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए गवाह भी रखना चाहिये।
सम्पन्न लोगों को किसी अपेक्षा व लोभ के बिना समाज की सेवा करनी चाहिये तथा समाज के वंचित लोगों से कमाने के चक्कर में नहीं रहना चाहिये।

सूरए निसा; आयतें 7-10


माता-पिता और निकट परिजन मृत्यु के पश्चात जो माल छोड़ जाते हैं उसमें पुरुषों का भाग है और महिलाओं के लिए (भी) उस माल में भाग है जो माता-पिता या निकट परिजन मृत्यु के पश्चात छोड़ जाते हैं चाहे कम हो या अधिक। यह भाग ईश्वर की ओर से निर्धारित किया गया है। (4:7)


हमने पिछले कार्यक्रमों में कहा था कि सूरए निसा परिवार के विभिन्न मामलों के बारे में है जिनमें से एक बेसहारा और अनाथ बच्चों का मामला है। इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के एक साथी का निधन हो गया और यद्यपि उनकी पत्नी और बच्चे भी थे परन्तु उनके भतीजों ने सारा माल आपस में बांट लिया और उनकी पत्नी व बच्चों को कुछ न दिया क्योंकि इस्लाम से पूर्व अरबों में नियम था कि केवल युद्ध करने वाले पुरुष ही किसी के उत्तराधिकारी हो सकते हैं न कि महिलाएं और बच्चे। उस समय ईश्वर की ओर से यह आयत उतरी और उसमें महिला अधिकारों की रक्षा में कहा गया कि जिस प्रकार विरासत में पुरुषों का भाग है उसी प्रकार महिलाओं का भी भाग है, चाहे विरासत में छोड़ी गई सम्पत्ति कम हो या अधिक, हर का भाग ईश्वर की ओर से निर्धारित है।
इस आयत से हमने सीखा की इस्लाम केवल नमाज़-रोज़े का धर्म नहीं है बल्कि वह सांसारिक जीवन को भी महत्व देता है और इसी कारण वह आर्थिक मामलों, महिलाओं तथा अनाथों के अधिकारों की रक्षा को ईमान की शर्त समझता है।
मीरास या विरासत को ईश्वरीय आदेशों के अनुसार बांटना चाहिये न कि सामाजिक प्रथाओं व चलन के आधार पर और न ही मरने वाले की वसीयत व इच्छा के आधार पर।
मीरास की मात्रा की उसके बांटने में कोई भूमिका नहीं है। महत्वपूर्ण बात उत्तराधिकारियों के अधिकारों की रक्षा और न्याय का पालन है। मीरास के कम होने के कारण उत्तराधिकारियों के अधिकारों की अनदेखी नहीं होनी चाहिये।

सूरए निसा की आठवीं आयत


और यदि मीरास बांटते समय ऐसे नातेदार जिनका मीरास में कोई अधिकार न हो और अनाथ व दरिद्र उपस्थित हो जायें तो उस मीरास से उन्हें भी लाभान्वित करो और उनके साथ अच्छाई से बात करो। (4:8)
चूंकि पारिवारिक संबंधों और रिश्तेदारी को सुदृढ़ बनाने और उनकी रक्षा के लिए प्रेमपूर्ण व्यवहार आवश्यक है। अत: पिछली आयत में मीरास के एक क़ानून के उल्लेख के पश्चात ईश्वर इस आयत में दो शिष्टाचारिक आदेशों का वर्णन करते हुए कहता है।
प्रथम तो यह कि मीरास बांटते समय उपस्थित होने वाले नातेदारों विशेषकर अनाथों और दरिद्रों को, जिनका मीरास में कोई भाग नहीं है, उत्तराधिकारियों की सहमति से कुछ न कुछ देना चाहिये ताकि मीरास से वंचित रहने से उनमें ईर्ष्या की भावना उत्पन्न न हो बल्कि पारिवारिक संबंध मज़बूत हों।
दूसरे यह कि उनके साथ प्रेमपूर्वक और अच्छे ढंग से बात करनी चाहिये ताकि उन्हें यह आभास न होने पाये कि दरिद्रता और वंचितता के कारण रिश्तेदार उनकी उपेक्षा कर रहे हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि वंचित की स्वाभाविक आशाओं और अपेक्षाओं का ध्यान रखना चाहिये और अनिवार्य मात्रा के अतिरिक्त भी विभिन्न बहानों से उनकी सहायता करनी चाहिये।
उपहार देकर और प्रेमपूर्वक व्यवहार द्वारा पारिवारिक संबंधों को सुदृढ़ बनाना चाहिये। भौतिक उपकारों और प्रेमपूर्ण आध्यात्मिक संबंधों द्वारा परिवार में ईर्ष्या व द्वेष को रोका जा सकता है।

सूरए निसा की 9वीं आयत


जो लोग अपने पश्चात कमज़ोर संतान छोड़ जाते हैं और उनके भविष्य से डरते रहते हैं उन्हें अनाथ बच्चों पर अत्याचार से डरना चाहिये तथा ईश्वर से भयभीत रहना चाहिये एवं ठोस बात करनी चाहिये। (4:9)
अनाथों के बारे में लोगों में प्रेम भावना उभारने के लिए क़ुरआन मजीद स्वयं उन्हीं के बेआसरा बच्चों का चित्रण करता है जो उनके पश्चात कठोर हृदय के लोगों की अभिभावकता में आ गये हैं जो न उनकी भावनाओं पर ध्यान देते हैं न उनके माल को ख़र्च करने में न्याय करते हैं। इसके पश्चात क़ुरआन कहता है कि यदि तुम अपने बच्चों के भविष्य की ओर से भयभीत हो कि तुम्हारे पश्चात लोग उनके साथ क्या करेंगे तो तुम भी दूसरों के अनाथ बच्चों के साथ व्यवहार में ईश्वर को दृष्टिगत रखो और न केवल यह कि उन पर अत्याचार न करो बल्कि उचित व अच्छी बातों व व्यवहार द्वारा दिल जीतो और उनके साथ प्रेम करके उनकी प्रेम संबंधी वंचितता को दूर करो।
इस आयत से हमने सीखा कि समाज के अनाथों और वंचितों से वैसा व्यवहार करना चाहिये जैसा हम चाहते हैं कि दूसरे हमारे बच्चों के साथ करें।
समाज में हमारे अच्छे या बुरे व्यवहार का प्रतिउत्तर मिलता है और न केवल हमारे जीवन में बल्कि मृत्यु के पश्चात भी उसके अच्छे या बुरे परिणाम हमारे बच्चों तक पहुंचते हैं। अत: हमें अपने सामाजिक व्यवहार की ओर से निश्चेत नहीं रहना चाहिये।
अनाथ बच्चों की आवश्यकताएं केवल खाने पहनने तक सीमित नहीं हैं बल्कि उनकी प्रेम भावना को संतुष्ट करना अधिक महत्वपूर्ण है।

 सूरए निसा की 10वीं आयत


निसंदेह जो लोग अनाथों का माल अत्याचारपूर्वक खाते हैं वास्तव में वे लोग अपने पेटों में आग पहुंचा रहे हैं और शीघ्र ही वे भड़कती हुई आग में पहुंच जायेंगे। (4:10)


यह आयत अनाथों पर अत्याचार करने का परोक्ष चेहरा दिखाते हुए कहती है कि अनाथ का माल खाना वास्तव में आग निगलने जैसा है और अनाथों का माल खाने वाला प्रलय में इसी रूप में प्रकट होगा। मूल रूप से इस संसार में हमारे कर्मों का एक विदित चेहरा है जिसे हम आंखों से देखते हैं और दूसरा वास्तविक चेहरा है जो इस संसार में हमारी आंखों से ओझल है परंतु प्रलय में वह प्रकट होगा तथा प्रलय में हमें दिये जाने वाले दंड वास्तव में हमारे ही कर्मों का साक्षात रूप हैं।
जिस प्रकार अनाथ का माल खाना उसका दिल जलाता है और उसकी आत्मा को यातना पहुंचाता है उसी प्रकार इस कर्म का वास्तविक चेहरा दहकती हुई आग खाना है जो अत्याचारी के पूरे अस्तित्व को जला देगी।
पिछली आयत में अनाथों पर अत्याचार के सामाजिक परिणामों की ओर संकेत किया गया था और इस आयत में उसके परोक्ष परिणामों का उल्लेख किया गया है ताकि ईमान वाले अनाथों के माल की ओर हाथ बढ़ाते समय इन परिणामों की ओर ध्यान दें और यह काम न करें।
इस आयत से हमने सीखा कि हराम माल विशेषकर अनाथों का माल खाना यद्यपि विदित रूप से अच्छा व स्वादिष्ट लगता है परंतु वास्तव में यह आत्मा को यातना देने वाला तथा मनुष्य की भली आदतों को नष्ट करने वाला है। नरक की आग हमारे उन्हीं बुरे कर्मों की आग है जो हम प्रलय में ले गये हैं। ईश्वर अपने बंदों को जलाना पसंद नहीं करता बल्कि यह हम ही हैं जो स्वयं को अपने पापों की आग में जलाते हैं।

सूरए निसा; आयतें 11-14


तुम्हारी संतान की मीरास के बारे में ईश्वर तुमसे यह सिफ़ारिश करता है कि बेटे का भाग, दो बेटियों के भाग के बराबर है और यदि संतान दो या अधिक बेटियां हों तो दो तिहाई मीरास उनकी है और यदि केवल एक बेटी है तो आधा भाग उसका है और यदि मृतक की संतान हो तो उसके माता-पिता दोनों को मीरास का छठा भाग मिलेगा और यदि मृतक के कोई संतान न हो तो माता को एक तिहाई भाग तथा बाक़ी पिता को मिलेगा और यदि मृतक के भाई हों तो माता को छठा भाग मिलेगा। अलबत्ता मीरास का यह बंटवारा मृतक की वसीयत को पूरा करने या उसके ऋण को चुकाने के पश्चात होगा, तुम नहीं जानते कि तुम्हारे लिए माता-पिता या संतान में से कौन अधिक लाभदायक है। ये आदेश ईश्वर की ओर से निर्धारित किये गये हैं और नि:संदेह वह जानकार तथा तत्वदर्शी है। (4:11) और तुम्हारी पत्नियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसमें तुम्हारा भाग आधा है। अलबत्ता यदि उनकी संतान न हो तो मीरास में तुम्हारा भाग एक चौथाई है अलबत्ता जो वसीयत कर जायें, उसे पूरा करने या जत ऋण उन पर हो, उसे चुकाने के पश्चात, और यदि पति मर जाये तो जो कुछ वह छोड़ गया है उसमें पत्नियों का भाग एक चौथाई है यदि पति की कोई संतान न हो तो, और यदि संतान हो तो चाहे दूसरी पत्नी से ही क्यों न हो तो पत्नी को मीरास का आठवां भाग मिलेगा। अलबत्ता उस वसीयत को पूरा करने के पश्चात जो तुम कर गये हो या उस ऋण को चुकाने के बाद जो तुमने लिया हो और यदि कोई स्त्री या पुरुष अपने मातृक भाई-बहनों का वारिस हो और एक भाई या एक बहन है तो उनमें से प्रत्येक को मीरास का छठा भाग मिलेगा और यदि वारिस एक से अधिक हों तो वे सब मीरास के तीसरे भाग में सहभागी होंगे। अलबत्ता मृतक की वसीयत को पूरा करने या उसके ऋण को चुकाने के पश्चात। शर्त यह है कि वसीयत या ऋण का आधार वारिस को हानि पहुंचाने पर न हो। यह ईश्वर की ओर से सिफ़ारिश है और ईश्वर जानने वाला तथा सहनशील है। (4:12)
चूंकि धार्मिक शिक्षाएं एवं आदेश ऐसे ईश्वर की ओर से हैं जो मनुष्य का रचयिता भी है अत: उसके क़ानून, मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं से पूर्ण रूप से समन्वित हैं। मृत्यु, जो हमें दूसरे संसार में पहुंचाने का मार्ग है, इस संसार के सभी रिश्तों तथा समस्त भौतिक वस्तुओं पर से स्वामित्व के समाप्त होने का कारण बनती है परंतु ऐसे समय में यह प्रश्न उठता है कि मनुष्य ने अपने जीवन में जो कुछ कमाया है उसका क्या होगा और उसे किसे दिया जाना चाहिये?
कुछ जातियों के बीच मृतक का माल केवल बाप, भाई, बेटों जैसे समीपी परिजनों के बीच ही बांटा जाता था और पत्नी तथा बेटी के बच्चों को पुरुष की मीरास में से कुछ नहीं मिलता था। आज भी कई देशों में मृतक का सारा माल जनसम्पत्ति मान लिया जाता है और उस पर मरने वालों के परिजनों या बच्चों का कोई अधिकार नहीं होता परंतु इस्लाम, मीरास के क़ानून के अंतर्गत, जो पूर्णत: एक स्वाभाविक बात है तथा माता-पिता की आत्मिक व शारीरिक विशेषताओं को बच्चों में स्थानांतरित करती है, लोगों के धन और उनकी सम्पत्ति को इस क़ानून का पालन करते हुए उनके बीच बांटता है और मरने वाले के माल को उसके बच्चों, पत्नी तथा परिजनों का अधिकार समझता है। इसी के साथ इस्लाम ने स्वयं मृतक के लिए भी उसकी मृत्य के पश्चात उसके माल में एक भाग रखा है और उसे अनुमति दी है कि वह अपने माल के एक तिहाई भाग के बारे में जैसी चाहे वसीयत कर सकता है। इसी कारण बहुत से लोग, जिनके पास जीवन बिताने के लिए काफ़ी धन-सम्पत्ति भी होती है, जीवन के अंतिम समय तक काम करते रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मरने के बाद उनका माल उन्हीं के बच्चों को मिलेगा जो उनके अस्तित्व को जारी और उनके नाम को बाक़ी रखेंगे। इसी आधार पर इस्लाम पहले चरण में मीरास, संतान के बीच बांटता है फिर अन्य परिजनों को मीरास का कुछ भाग देता है। इस बंटवारे में बेटों को बेटियों से दुगना भाग मिलता है क्योंकि जीवन का ख़र्चा चलाना पुरुषों का दायित्व है और इसके लिए उन्हें अधिक धन की आवश्यकता होती है।
यद्यपि विदित रूप से यह क़ानून महिलाओं के लिए हानिकारक लगता है परंतु अन्य धार्मिक क़ानूनों और आदेशों पर ध्यान देने से पता चलता है कि यह क़ानून वास्तव में महिलाओं के हित में है क्योंकि इस्लाम की पारिवारिक व्यवस्था में महिलाओं के ज़िम्मे कोई ख़र्चा नहीं रखा गया है और उनकी खाने-पीने तथा घर संबंधी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व पुरुष पर रखा गया है। अत: महिलाएं मीरास का अपना पूरा भाग बचा सकती हैं या कम से कम केवल स्वयं पर ही ख़र्च कर सकती हैं जबकि पुरुष को अपने भाग का कम से कम आधा हिस्सा परिवार पर ख़र्च करना पड़ता है।
वास्तव में महिलाएं मीरास के अपने भाग की भी स्वामी होती हैं और पुरुष के आधे भाग में भी सहभागी होती हैं जिसमें से वे एक को बचा और दूसरे को ख़र्च कर सकती हैं जबकि महिलाओं के भाग पर पुरुष का कोई अधिकार नहीं होता तथा उसे पत्नी की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। सूरए निसा की ११वीं और १२वीं आयतों में, जिनमें मृतक की संतान, माता-पिता और पत्नी के बीच मीरास के बंटवारे के आदेशों का वर्णन है, केवल मीरास के कुछ आदेशों का उल्लेख हुआ है अत: इस बारे में सम्पूर्ण जानकारी के लिए पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही, उनके परिजनों तथा विश्वस्त मित्रों के कथनों को पढ़ना चाहिये और इसी प्रकार यह भी जानना चाहिये कि मीरास का बंटवारा मृतक द्वारा किये लिए गये ऋण को लौटाने और उसके द्वारा एक तिहाई भाग में की गई वसीयत की पूर्ति के पश्चात किया जाना चाहिये क्योंकि उसका तथा लोगों का अधिकार वारिसों के अधिकार पर वरीयता रखता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि जिस प्रकार पुत्र का अस्तित्व पिता के अस्तित्व को जारी रखता है उसी प्रकार पिता के माल के वारिस भी पहले चरण में बच्चे ही हैं तो न तो अन्य लोग बच्चों को उनके माता-पिता की मीरास से वंचित कर सकते हैं और न ही माता-पिता उनके भाग को समाप्त कर सकते हैं।
यद्यपि मीरास में महिलाओं का भाग पुरुषों का आधा है परंतु यह अंतर सामाजिक जीवन के वास्तविक अंतरों तथा ईश्वर के आदेश के आधार पर है और ईमान की शर्त, ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहना है।
लोगों के अधिकारों का पालन और उनके अधिकारों पर ध्यान दिया जाना इतना महत्वपूर्ण है कि इन दोनों आयतों में चार बार इसका उल्लेख हुआ है ताकि वारिस अन्य लोगों के अधिकारों को भूल न जायें।

 सूरए निसा की 13वीं और 14वीं आयत


यह जो कुछ कहा गया, ईश्वरीय नियम हैं तो इनका पालन करो और जान लो कि जो कोई ईश्वर और उसके पैग़म्बर का अनुसरण करे तो ईश्वर उसको स्वर्ग के ऐसे बाग़ों में प्रवृष्ट कर देगा जिनके पड़ों के नीचे नहरें बह रही हैं जिसमें वे अनंतकाल तक रहेंगे और यही बड़ी सफलता है। (4:13)

 जो कोई ईश्वर व उसके पैग़म्बरों की अवज्ञा करे तथा ईश्वरीय सीमाओं का हनन करे तो ईश्वर उसे ऐसी आग में डाल देगा जिसमें वह सदैव रहेगा और उसके लिए अपमानजनक दंड है। (4:14)


मीरास से संबंधित आयतों के पश्चात इन आयतों में क़ुरआन मजीद ईमान वालों को आर्थिक विशेषकर मीरास के मामलों में ईश्वरीय आदेशों के अनुसरण की सिफ़ारिश करता है और हर प्रकार की अवज्ञा से रोकता है क्योंकि ईश्वरीय सीमाओं और नियमों के हनन का बहुत बड़ा पाप है और इसका दंड अत्यंत कठोर है।
ये आयतें स्पष्ट रूप से कहती हैं कि ईश्वर का आज्ञापालन केवल उसकी उपासना नहीं है बल्कि सामाजिक व आर्थिक मामलों में लोगों के अधिकारों की रक्षा, ईमान और ईश्वर की उपासना की शर्त है तथा वही व्यक्ति समाज कल्याण प्राप्त कर सकता है जो व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में इन आयतों का पालन करे।
लोगों के अधिकारों का हनन करने वाले काफ़िरों की भांति ही कड़े और अपमानजनक दंड में फंसेंगे।
यद्यपि मरने वाला व्यक्ति उपस्थित नहीं होता कि उसके ऋणों को चुकाने या बच्चों के बीच उसके माल के बंटवारे में ध्यान पूर्वक काम कर सके परंतु उसका ईश्वर उपस्थित है और उसने लोगों व वारिसों के अधिकारों का हनन करने वालों के लिए अत्यंत कड़ा दंड रखा है।

सूरए निसा; आयतें 15-18

सूरए निसा की 15वीं आयत


और तुम्हारी महिलाओं में से जो कुकर्म करें उनके विरुद्ध अपने पुरुषों में से चार की गवाही लाओ तो यदि वे गवाही दे दें तो उन्हें उनके घरों में बंद कर दो यहां तक कि उन्हें मृत्य आ जाये या ईश्वर उनके लिए कोई मार्ग निकाले। (4:15)


हमने बताया कि सूरए निसा की आरंभिक आयतें पारिवारिक मामलों से संबंधित हैं। इस कार्यक्रम में हम उन महिलाओं और पुरुषों के दंडों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे जो कुकर्म करते हैं तथा परिवार के पवित्र वातावरण को दूषित करते हैं। 15वीं आयत ऐसी विवाहित महिलाओं के दंड से संबंधित है जो अन्य पुरुषों से अवैध संबंध रखती हैं। अलबत्ता इस बात पर ध्यान रखना चाहिये कि इस्लाम ने दूसरों की टोह में रहने की अनुमति नहीं दी है और दूसरों के ग़लत कार्यों को सिद्ध करने के लिए किसी को प्रोत्साहित नहीं किया है। इसी कारण यदि तीन विश्वस्त लोग भी गवाही दे दें कि अमुक महिला ने कुकर्म किया है तो जब तक चौथा व्यक्ति गवाही न दे दे उनकी बात स्वीकार नहीं की जायेगी।
अलबत्ता इस आयत में जिस दंड का वर्णन किया गया है, जो कि आयत के अंतिम भाग से स्पष्ट है, कुकर्म के बारे में एक अस्थायी आदेश है और वह मृत्यु तक उस महिला को पति के घर में क़ैद रखना है अर्थात आजीवन कारावास। स्पष्ट है कि यह आदेश परिवार के सम्मान की रक्षा के लिए है तथा पापियों के एक स्थान पर एकत्रित होने और एक दूसरे की ग़लत आदतें सीखने में बाधा डालता है जैसा कि आजकल देखा जाता है कि कारावास ग़ुंडों, और पापियों के लिए ग़लत आदतें सीखने के केन्द्र बन गये हैं।
अलबत्ता इस अस्थायी आदेश के पश्चात विवाहित कुकर्मियों को संगसार करने अर्थात पत्थर मार मार कर उनकी हत्या करने का स्थायी आदेश आया और नये आदेश के पश्चात घरों में बंद महिलाएं स्वतंत्र होकर अपने घरों को लौट गईं और अपने तथा अन्य महिलाओं के लिए पाठ बन गईं।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान वाले व्यक्ति के सम्मान की रक्षा उसके ख़ून से भी अधिक महत्वपूर्ण है। हत्या दो गवाहों से सिद्ध हो जाती है परंतु कुकर्म सिद्ध करने के लिए चार गवाहों की आवश्यकता होती है। कुकर्म बहुत ही बुरा कार्य है परंतु कुकर्मी को अपमानित करने के लिए कोई काम करना उससे भी बुरा है।
इस्लाम ने अपने पारिवारिक व सामाजिक आदेशों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित बनाने के लिए कड़े दंड रखे हैं जिनमें से एक कुकर्मी को आजीवन कारावास दिया जाना है।
समाज को स्वच्छ, स्वस्थ और पवित्र रखने के लिए अपराधी को गिरफ्तार करना और कारावास भेजना आवश्यक है। भावनाओं को ईश्वरीय आदेशों के पालन में आड़े नहीं आना चाहिये।


 सूरए निसा की 16वीं आयत

और तुममें से उन दो व्यक्तियों को, जो कुकर्म करें, यातना दो और कोड़े लगाओ तो यदि उन्होंने तौबा कर ली और पिछली ग़लतियों को सुधार लिया तो उन्हें छोड़ दो कि नि:संदेह ईश्वर तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान है। (4:16)

यद्यपि विदित रूप से इस आयत में कुकर्म करने वाले सभी पुरुष शामिल हैं परंतु क़ुरआन की व्याख्या करने वाले अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में इस आयत का संबोधन अविवाहित महिला और पुरुष से है और उनका दंड केवल उन्हें कोड़े लगाना है।
अलबत्ता जब तक न्यायालय में उनका अपराध सिद्ध नहीं होता और उन्हें कोड़े लगाने का दंड निश्चित नहीं हो जाता यदि अपराधी तौबा कर ले और स्वयं को सुधारना चाहे तो उसके मामले को क्षमा करके ईश्वर के हवाले कर देना चाहिये ताकि वह जैसा चाहे उसके साथ व्यहार करे। ईश्वर भी दयावान है और वास्तविक तौबा करने वाले की तौबा को स्वीकार करता है।
इस आयत से हमने सीखा कि अपराधी को इस्लामी समाज में सुरक्षा का आभास नहीं होना चाहिये बल्कि सरकार के अधिकारियों को उचित दंडों द्वारा अपराधियों को उनके किये की सज़ा देनी चाहिये।
अपराधियों पर तौबा व प्रायश्चित का मार्ग बंद नहीं करना चाहिये बल्कि जो लोग वास्तव में अपने किये पर पछता रहे हैं उन्हें समाज में लौटने की अनुमति देनी चाहिये।


 सूरए निसा की 17वीं और 18वीं आयत

नि:संदेह ईश्वर उन लोगों की तौबा स्वीकार करता है जो अनजाने में कोई बुरा काम कर बैठते हैं और फिर शीघ्र ही तौबा कर लेते हैं यही वे लोग हैं जिनकी तौबा ईश्वर स्वीकार कर लेता है और ईश्वर जानने वाला तथा तत्वदर्शी है। (4:17) और तौबा उन लोगों के लिए नहीं है जो बुरे कर्म करते हैं यहां तक कि उनमें से एक को मौत आ लेती है और वह कहता है अब मैंने तौबा कर ली और इसी प्रकार जो लोग काफ़िर मर जायें उनकी भी तौबा स्वीकार नहीं है उनके लिए हमने बहुत ही कड़ा दंड तैयार कर रखा है। (4:18)
पिछली आयतों में पापियों को तौबा की संभावना प्रदान करने के पश्चात इन आयतों में उसकी शर्त और समय को स्पष्ट किया गया है। तौबा की सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि पाप अनजाने में चिश्चेतना के कारण और पाप के बुरे परिणामों पर ध्यान दिये बिना तथा इच्छाओं के दबाव में आकर किया गया हो न कि आदत के आधार पर और पाप की बुराई को हीन समझ कर।


दूसरी शर्त यह है कि पाप की बुराई से अवगत होने और पश्चाताप के तत्काल बाद तौबा की जाये न ये कि मनुष्य तौबा को टालता रहे और पाप को दोहराता जाये यहां तक कि उसका अंतिम समय आ जाये और पाप करने की कोई संभावना न रहे तब तौबा करे क्योंकि तौबा स्वीकार होने की शर्त सुधार है और ऐसी स्थिति में सुधार की कोई संभावना नहीं है।
मूल रूप से तौबा में विलम्ब इस बात का कारण बनता है कि पाप मनुष्य की आदत व प्रवृत्ति बनता जाये और उसे इस प्रकार अपने घेरे में ले ले कि वह तौबा कर ही न सके और यदि ज़बान से तौबा कर भी ले तो भी उसका हृदय उसे स्वीकार न करे।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर ने पापियों की वास्तविक तौबा को स्वीकार करने को स्वयं के लिए आवश्यक बताया है तो जब तक हम जीवित हैं इस अवसर से लाभ उठायें।
जो मनुष्य अपनी आंतरिक इच्छाओं से मुक़ाबले की शक्ति न रखता हो वह अज्ञानी है चाहे विदित रूप से ज्ञानी ही क्यों न हो।
तौबा स्वीकार होने की चाबी, तौबा में विलम्ब न करना है और मूल रूप से जब तक पाप अधिक न हुए हों तौबा सरल है।
अपने अधिकार और स्वतंत्रता के साथ की गई तौबा का मूल्य व महत्व है न कि ख़तरे या मौत के समक्ष आ जाने के बाद की गई तौबा का।
सूरए निसा; आयतें 19-23


हे ईमान वालो! तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि ज़बरदस्ती महिलाओं के वारिस बन जाओ या महिलाओं से अनिच्छा के बावजूद तुम केवल इसलिए उनसे विवाह करो ताकि उनके वारिस बन जाओ और उन पर कड़ाई न करो कि तुमने उन्हें जो मेहर दिया है उसका कुछ भाग अत्याचारपूर्वक ले सको सिवाए इसके कि वे खुल्लम खुल्ला कोई बुरा काम करें और उनके साथ भला व्यवहार करो तो यदि वे तुम्हें पसंद न आयें तो उन्हें तलाक़ मत दो क्योंकि बहुत सी चीज़ें तुम्हें पसंद नहीं हैं परंतु ईश्वर ने इसमें तुम्हारे लिए बहुत अधिक भलाई रखी है। (4:19)
यह आयत जो पारिवारिक मामलों में महिला के अधिकारों की रक्षा से संबंधित है, आरंभ में पुरुषों को महिलाओं के प्रति हर प्रकार के बुरे व्यवहार से रोकती है और अंत में पारिवारिक व्यवस्था की सुरक्षा के लिए एक मूल नियम का उल्लेख करती है।
पत्नी के चयन में एक ग़लत और अनुचित भावना उसकी धन सम्पत्ति को दृष्टिगत रखना है। अर्थात पुरुष किसी महिला को पसंद न करने के बावजूद केवल उसके माल का स्वामी बनने के लिए उससे विवाह करे। यह आयत इस कार्य से रोकती हुए कहती है तुम लोगों के लिए, जो ईमान का दावा करते हो, यह कार्य वैध नहीं है। इसी प्रकार कुछ जातियों में यह बुरी बात प्रचलित है कि पुरुष पत्नी को दिये गये मेहर का कुछ भाग वापस लेने के लिए उस पर दबाव डालता है। विशेष कर ऐसी स्थिति में जब मेहर काफ़ी अधिक हो।
क़ुरआन इस ग़लत व्यवहार से रोकते हुए पत्नियों के धन और उनके अधिकारों के सम्मान को आवश्यक बताता है और केवल पत्नी द्वारा खुल्लम खुल्ला ग़लत काम करने पर ही उसके साथ कड़ाई को वैध समझता है ताकि वह अपना मेहर माफ़ करके तलाक़ ले ले और यह वास्तव में ग़लत काम करने वाली पत्नियों के लिए एक प्रकार का दंड है।
इसके पश्चात ईश्वर एक मूल सिद्धांत का उल्लेख करके पुरुषों को अपनी पत्नियों के साथ भला व्यवहार करने की सिफ़ारिश करते हुए कहता है यदि किसी कारण तुम अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते और वह तुम्हें अच्छी नहीं लगती तो तत्काल ही अलग होने और तलाक़ देने का निर्णय न लो और उसके साथ बुरा व्यवहार न करो क्योंकि बहुत सी बातें मनुष्य को विदित रूप से अच्छी नहीं लगतीं परंतु ईश्वर ने उनमें बहुत भलाई और हित रखे हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि पत्नी के चयन में उसके धन या संपत्ति को मापदंड नहीं बनाना चाहिये बल्कि विवाह में मूल आधार प्रेम होता है न कि धन दौलत।
महिलाएं अपने मेहर और धन दौलत की मालिक होती हैं पुरुषों को उन्हें अपने अधिकार में लेने का कोई हक़ नहीं है।
परिवार की व्यवस्था की रक्षा का दायित्व पुरुष पर है और उसे संदेह तथा कड़ाई को दुर्व्यवहार और अंतत: तलाक़ का कारण नहीं बनने देना चाहिये।

 सूरए निसा की आयत नम्बर 20 और 21


और यदि तुमने एक पत्नी के स्थान पर दूसरी पत्नी को लाने का संकल्प किया और तुम पहली पत्नी को मेहर के रूप में बहुत माल दे चुके हो तो उसमें से कुछ वापस न लो। क्या तुम आरोप लगाकर मेहर वापस लोगे? और यह बहुत बुरा व स्पष्ट पाप है। (4:20) और तुम किस प्रकार मेहर वापस लोगे जबकि तुम दोनों में से हर एक अपना अधिकार प्राप्त कर चुका है और इसके अतिरिक्त तुम्हारी पत्नियों ने विवाह के समय तुमसे ठोस प्रतिज्ञा ली थी। (4:21)
इस्लाम से पूर्व के अरब जगत में एक अत्यंत बुरी प्रथा यह थी कि जब कोई पुरुष दूसरा विवाह करना चाहता था तो अपनी पहली पत्नी पर आरोप लगाता था ताकि वह आत्मिक दबाव का शिकार हो जाये और अपना मेहर माफ़ कर दे तथा पति से तलाक़ ले ले। उसके पश्चात पति उसी वापस लिए हुए मेहर से दूसरा विवाह कर लेता था।
यह आयत इस बुरी परंपरा को रद्द करते हुए विवाह के समय की जाने वाली प्रतिज्ञा की ओर संकेत करती है और कहती है तुमने एक दूसरे के साथ रहने का समझौता किया है और पुरुषों ने उसमें अपनी पत्नियों को मेहर देने का वादा किया है और इसी आधार पर तुमने वर्षों तक एक दूसरे की इच्छाओं का पालन किया है तो अब तुम किस प्रकार किसी अन्य से अपनी इच्छा की पूर्ति कराने के लिए अपनी पिछली प्रतिज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो यहां तक कि इसके लिए तुम अपनी पत्नी के चरित्र पर उंगली उठाने के लिए भी तैयार हो।
इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम महिला के अधिकारों का समर्थन करता है और पहली पत्नी के अधिकारों के हनन के मूल्य पर पुरुष के दूसरे विवाह को स्वीकार नहीं करता।
मेहर वापस लेना वैध नहीं है विशेषकर यदि पुरुष, पत्नी को अपमानित करके इस उद्देश्य की पूर्ति करना चाहे तो ऐसी स्थिति में उसका पाप दोहरा होगा।
विवाह का बंधन एक मज़बूत बंधन है जिसके आधार पर ईश्वर ने पति-पत्नी को एक दूसरे के लिए वैध कर दिया है। अत: इस बंधन की रक्षा दोनों पक्षों के लिए आवश्यक है।


 सूरए निसा की 22वीं और 23वीं


और उन महिलाओं से विवाह न करो जिनसे तुम्हारे बाप दादा विवाह कर चुके हों सिवाय उसके कि जो इस आदेश से पहले हो चुका हो। नि:संदेह यह अत्यंत बुरा कर्म, घृणित और बहुत ही बुरी पद्धति है। (4:22)

 तुम्हारे ऊपर विवाह करना हराम किया गया है अपनी माताओं से, बेटियों से, बहनों से, फूफियों से, मौसियों से, भाई की बेटियों से, बहन की बेटियों से, उन माओं से, जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो, दूध पिलाने वाली मां की बेटियों से, अपनी पत्नियों की माताओं से, अपनी पत्नी की, पिछले पति की बेटियों से, जो तुम्हारी गोदियों में पली हों इस शर्त के साथ कि तुमने उनकी माताओं से संबंध स्थापित किया हो और यदि संबंध स्थापित न किया हो तो कोई रुकावट नहीं है और इसी प्रकार विवाह करना वैध नहीं है तुम्हारे उन बेटों की पत्नियों से जो तुम्हारे वंश से हों और एक ही समय में दो सगी बहनों से सिवाय इसके कि जो इस आदेश से पहले हो चुका हो। नि:संदेह ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (4:23)


इन दो आयतों में महरम अर्थात उन महिलाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है जिनके साथ विवाह करना अवैध है। इन आयतों में इसे मानव प्रवृत्ति के विरुद्ध बताया गया है। मूल रूप से तीन बातें महिलाओं के इस गुट से विवाह के अवैध होने का कारण हैं। पहली बात वंशीय रिश्ता जो मां, बहन, बेटी, फूफी, मौसी, भांजी और भतीजी के साथ विवाह के हराम होने का कारण बनता है।
 दूसरा विवाह के कारण बनने वाला रिश्ता कि किसी महिला से किसी पुरुष के विवाह के पश्चात उस महिला की मां, बहन और बेटी उस व्यक्ति पर हराम हो जाती हैं और तीसरा दूध पिलाने का रिश्ता कि यदि कोई महिला किसी शीशु को निर्धारित अवधि तक अपना दूध पिलाये तो उस महिला और उसका दूध पीने वाली सभी लड़कियों से उस बच्चे का विवाह नहीं हो सकता।
इन आयतों से हमने सीखा कि परिवार के सम्मान की रक्षा के लिए उन महिलाओं से विवाह करना वैध नहीं है जो मनुष्य की महरम हों ताकि उनके साथ व्यवहार में उसकी दृष्टि ग़लत न होने पाये।
हर बात में हलाल व हराम अर्थात वैध या अवैध का निर्धारण केवल ईश्वर के हाथ में है चाहे वह खाने पीने का मामला हो या विवाह जैसे अन्य मामले हों क्योंकि ईश्वर मनुष्य का रचयिता है और उसकी आवश्यकताओं से भलि-भांति अवगत है।

सूरए निसा; आयतें 24-25


और विवाहित महिलाएं भी तुम पर हराम हैं सिवाए उनके जो दासी के रूप में तुम्हारे स्वामित्व में हों। ये ईश्वर के आदेश हैं जो तुम पर लागू किये गये हैं और जिन महिलाओं का उल्लेख हो चुका उनके अतिरिक्त अन्य महिलाओं से विवाह करना तुम्हारे लिए वैध है कि तुम अपने माल द्वारा उन्हें प्राप्त करो। अलबत्ता पवित्रता के साथ न कि उनसे व्यभिचार करो और इसी प्रकार जिन महिलाओं से तुमने अस्थायी विवाह द्वारा आनंद उठाया है, उन्हें उनका मेहर एक कर्तव्य के रूप में दे दो और यदि कर्तव्य निर्धारण के पश्चात आपस में रज़ामंदी से कोई समझौता हो जाये तो इसमें तुम पर कोई पाप नहीं है। नि:संदेह ईश्वर जानने वाला और तत्वदर्शी है। (4:24)
पिछली आयतों के पश्चात यह आयत दो अन्य प्रकार के निकाहों का वर्णन करती है जो ईश्वर के आदेश से वैध हैं तथा यह आयत ईमान वालों को ईश्वरीय सीमाओं के पालन की सिफ़ारिश करती है। आरंभ से लेकर अब तक मानव समाजों की एक कटु वास्तविकता जातीय व धार्मिक युद्ध व झड़पें हैं जिनके कारण दोनों पक्षों के अनेक लोग हताहत और बेघर हो जाते हैं और चूंकि युद्धों का मुख्य भार पुरुषों पर होता है अत: दोनों पक्षों के अनेक परिवार बेसहारा हो जाते हैं। दूसरी ओर चूंकि प्राचीन युद्ध क़ानूनों में युद्धबंदियों की देखभाल के लिए कोई स्थान नहीं होता था अत: बंदी बनाये जाने वाले पुरुषों को दास और महिलाओं को दासी या लौंडी बना लिया जाता था। इस्लाम ने इस क़ानून को एकपक्षीय रूप से समाप्त नहीं किया बल्कि कफ़्फ़ारे अर्थात पाप के प्रायश्चित जैसे क़ानून बनाकर ग़ुलामों और दासियों की धीरे धीरे स्वतंत्रता की भूमि प्रशस्त कर दी। इसी प्रकार उसने बंदी बनाई गई महिलाओं से विवाह को वैध घोषित किया जिसके कारण पत्नी और माता के रूप में बंदी महिलाओं को सम्मान प्राप्त हो गया।
इसमें एकमात्र कठिनाई यह थी कि बंदी बनाई जाने वाली कुछ महिलाएं उस समय विवाहित होती थीं जिनके पति भी बंदी बनाये जा चुके होते थे। इस्लाम ने तलाक़ की भांति बंदी बनाये जाने को उनके बीच जुदाई का कारण बताया तथा महिलाओं के पुन: विवाह के लिए एक अवधि निर्धारित कर दी ताकि पता चल जाये कि वे गर्भवती नहीं हैं और पिछले पति से उनके पेट में कोई बच्चा नहीं है। स्वाभाविक है कि यह बात महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ देने और उनकी स्वाभाविक इच्छाओं की उपेक्षा से कहीं बेहतर व तर्कसंगत है।
इसी प्रकार आतंरिक मोर्चे पर भी अनेक मुसलमान शहीद होते थे और उनके परिवार बेसहारा हो जाया करते थे। इस्लाम ने इस समस्या के समाधान के लिए दो मार्ग सुझाए। एक बहुविवाह का क़ानून अर्थात एक विवाहित व्यक्ति चार विवाह कर सकता है और उसे अपनी पत्नियों के साथ भी पहली पत्नी की भांति व्यवहार करना चाहिये तथा उसकी दूसरी पत्नियां भी स्थायी रूप से उसके विवाह में आ जाती हैं। पिछली आयत में इस बात पर चर्चा की गई। इस आयत में दूसरा मार्ग अस्थायी विवाह का बताया गया है। अस्थायी विवाह भी स्थायी विवाह की भांति ही एक ऐसा संबंध है जो ईश्वर के आदेश से वैध है केवल इसकी अवधि सीमित परंतु वृद्धि योग्य है। रोचक बात यह है कि तथाकथित बुद्धिजीवी और पश्चिम से प्रभावित लोग इस्लाम की इस योजना का परिहास करते हुए इसे महिलाओं का अनादर बताते हैं जबकि पश्चिम में पुरुषों और महिलाओं के संबंधों की कोई सीमा नहीं है तथा वहां कई पुरुषों से एक महिला के खुले व गुप्त संबंधों को वैध माना जाता है। उनसे यह पूछना चाहिये कि किस प्रकार बिना किसी नियम के वासना पर आधारित स्त्री और पुरुष के संबंध वैध हैं और यह महिलाओं का अनादर नहीं है परंतु यदि यही संबंध एक निर्धारित और पूर्णत: पारदर्शी नियम के अंतर्गत बिल्कुल स्थायी विवाह की भांति हों तो इसमें महिलाओं का अनादर हो जाता है?
खेद के साथ कहना पड़ता है कि ईश्वरीय आदेशों तथा पैग़म्बरों की परम्परा के प्रति इस प्रकार के मनचाहे व्यवहार इस्लाम के आरंभिक काल में भी होते थे परंतु पैग़म्बर के पश्चात अस्थायी विवाह को प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया जिसके कारण गुप्त संबंधों और व्यभिचार की भूमि समतल हो गयी क्योंकि अस्थायी विवाह के आदेश को रोक देने से मानवीय इच्छायें और आवश्यकताएं तो समाप्त नहीं हो जातीं बल्कि ग़लत मार्गों से उनकी आपूर्ति होने लगती है।
इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक व पारिवारिक मामलों के संबंध में हमें वास्तविकतापूर्ण दृष्टि रखनी चाहिये न कि भावनाओं और अपने निजी या किसी गुट के विचारों का अनुसरण करना चाहिये। इस संबंध में सबसे अच्छा मार्ग मनुष्य के सृष्टिकर्ता और मानवीय तथा समाजिक आवश्यकताओं से पूर्णत: अवगत ईश्वर के आदेशों का पालन है।
विवाह, चाहे स्थायी हो या अस्थायी, स्त्री व पुरुष की पवित्रता और उनके सम्मान की रक्षा के लिए एक सुदृढ़ दुर्ग है।
विवाह के मेहर में स्त्री और पुरुष दोनों का राज़ी होना आवश्यक है न कि केवल पुरुष ही उसकी राशि का निर्धारण करे।


 सूरए निसा की 25वीं आयत


और तुममें से जिसके पास इतनी आर्थिक क्षमता न हो कि पवित्र व ईमान वाली स्वतंत्र महिला से विवाह कर सके तो उसे उन ईमान वाली दासियों से विवाह करना चाहिये जिनके तुम मालिक हो और ईश्वर तुम्हारे ईमान से सबसे अधिक अवगत है कि तुम ईमान वाले सबके सब एक दूसरे से हो और तुम में कोई अंतर नहीं है तो ईमान वाली दासियों से उनके मालिक की अनुमति से विवाह करो और उनका जो बेहतर व प्रचलित मेहर हो वह उन्हें दो, अलबत्ता ऐसी दासियां जो पवित्र चरित्र की हों न कि व्यभिचारी और गुप्त रूप से अन्य पुरुषों से संबंध रखने वाली। तो जब वे विवाह कर लें और उसके पश्चात व्यभिचार करें तो स्वतंत्र महिला को दिये जाने वाले दंड का आधा दंड उन्हें दिया जायेगा। इस प्रकार का विवाह उन लोगों के लिए है जिन्हें पत्नी न होने के कारण पाप में पड़ने का भय हो परंतु यदि धैर्य रखो यहां तक कि आर्थिक क्षमता प्राप्त करके स्वतंत्र महिला से विवाह कर लो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है और ईश्वर क्षमाशील एवं दयावान है। (4:25)


पिछली आयत में दासियों और युद्ध में बंदी बनाई जाने वाली महिलाओं से विवाह को वैध बताने के पश्चात यह आयत मुस्लिम पुरुषों को, जो भारी मेहर के कारण स्वतंत्र महिलाओं से विवाह की आर्थिक क्षमता नहीं रखते, बंदी महिलाओं से विवाह के लिए प्रोत्साहित करती है ताकि वे सही मार्ग से अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पर्ति कर सकें और समाज में बुराई न फैलने पाये तथा वे महिलाएं भी बिना पति के न रहें। यहां रोचक बात यह है कि क़ुरआने मजीद विवाह की अस्ली शर्त ईमान बताता है चाहे दासी के साथ हो या स्वतंत्र महिला के साथ। इस बात से पता चलता है कि यदि युवा लड़के-लड़की में कोई जान पहचान न हो और सामाजिक दृष्टि से भी वे एक दूसरे के स्तर के न हों परंतु ईमान वाले और धार्मिक आदेशों पर प्रतिबद्ध हों तो सफल व शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं परंतु यदि उनमें ईमान न हों तो चाहे वे धन सम्पत्ति, पद और सुन्दरता के उच्च स्तर पर हों तब भी उनके वैवाहिक जीवन के सुखी होने की संभावना नहीं है क्योंकि ये सारी बातें समय के साथ-साथ समाप्त हो जाती हैं।

इस आयत से हमने सीखा कि दासी से विवाह को सहन कर लेना चाहिये परंतु पाप की बेइज़्ज़ती की नहीं।
जो लोग भारी ख़र्चे के कारण विवाह करने में अक्षम हैं उनके लिए इस्लाम में कोई बंद गली नहीं है।
विवाह और उसे दृढ़तापूर्वक बाक़ी रखने की मूल शर्त अवैध संबंधों से दूर रहना तथा एक दूसरे से विश्वास घात न करना है।
बुरे चरित्र के लोगों को, जो समाज में बुराई फैलाते हैं, प्रलय के दण्ड के अतिरिक्त इस संसार में भी दंड देना चाहिये ताकि दूसरों को भी इससे पाठ मिले और स्वयं भी इस प्रकार का काम न करें। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 26-31


ईश्वर चाहता है कि इन आदेशों द्वारा कल्याण का मार्ग तुम्हारे लिए स्पष्ट कर दे और अतीत के भले लोगों की परम्पराओं की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हारे पापों को क्षमा करके अपनी दया तुम तक पलटा दे और ईश्वर जानने वाला तथा तत्वदर्शी है। (4:26) और ईश्वर तुम्हारे पापों को क्षमा करना चाहता है परंतु जो लोग अपनी आंतरिक इच्छाओं का अनुसरण करते हैं वे तुम्हें बड़ी पथभ्रष्टता की ओर खींचना चाहते हैं। (4:27) ईश्वर चाहता है कि तुम्हारे कर्तव्यों का भार हल्का कर दे (क्योंकि) मनुष्य को कमज़ोर बनाया गया है। (4:28)


पिछली आयतों में विवाह की ओर प्रोत्साहित करने और उसके आदेशों व शर्तों के वर्णन के पश्चात ईश्वर इन आयतों में कहता है कि ये सारे आदेश तुम्हारे ही हित में हैं। तुम्हें कल्याण तक पहुंचाने और बुराइयों से दूर रखने के लिए ही ईश्वर ने तुम्हारे लिए ये आदेश दिये हैं क्योंकि ईश्वर की परम्परा लोंगों के सुधार व मार्गदर्शन पर आधारित रही है और इसी कारण उसने लोगों के लिए पैग़म्बर व आसमानी किताबें भेजी हैं परंतु कुछ लोग, जो स्वयं पथभ्रष्ठ हैं, अन्य लोगों को भी बिगाड़ना चाहते हैं और आंतरिक इच्छाओं तथा वासना की बातें करके अन्य लोगों को भी तुच्छ आंतरिक इच्छाओं के अधीन बनाना चाहते हैं। २८वीं आयत कहती है कि ईश्वरीय आदेश कड़े और कठिन नहीं हैं बल्कि ईश्वर ने इस प्रकार की इच्छाओं के समक्ष आम लोगों के कमज़ोर इरादों के दृष्टिगत सरलता प्रदान की है और विभिन्न प्रकार के विवाह प्रस्तुत करके मनुष्य की इच्छाओं के समक्ष वैध व नियंत्रित मार्ग रखे हैं ताकि वह पाप से दूषित न हो और समाज में भी बुराई न फैलाए।
इन आयतों से हमने सीखा कि धार्मिक आदेश, मनुष्य पर ईश्वर की कृपा हैं क्योंकि वे जीवन के सही मार्ग के चयन में मनुष्य का मार्गदर्शन करते हैं।
मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की भांति ही उसकी शारीरिक आवश्यकताएं भी स्वाभाविक व प्राकृतिक हैं परन्तु अश्लीलता और अवैध संबंध पारिवारिक व्यवस्था और अंतत: समाज की तबाही का कारण बनते हैं।
इस्लाम एक सरल धर्म है और इसमें कोई बंद गली नहीं है। धर्म का आधार ऐसे आदेशों पर है जिनका पालन मनुष्य की क्षमता से बाहर नहीं है।


 सूरए निसा की 29वीं और 30वीं आयत


हे ईमान वालो! आपस में एक दूसरे का माल ग़लत ढंग से न खाओ सिवाये इसके कि वह तुम्हारी इच्छा से होने वाला व्यापार और लेन-देन हो और एक दूसरे की हत्या न करो। नि:संदेह ईश्वर तुम्हारे लिए दयावान है। (4:29) और जो कोई भी अतिक्रमण और अत्याचार के आधार पर ऐसा करे तो हम शीघ्र ही उसे नरक में डाल देंगे और यह ईश्वर के लिए बहुत ही सरल बात है। (4: 30)


पिछली आयतों में, जो हर प्रकार व्याभिचारिक अतिक्रमण से स्वयं व्यक्ति व अन्य लोगों की इज़्ज़त की रक्षा के बारे में थीं, मनुष्य को अन्य लोगों की पवित्रता को दाग़दार करने से रोकने के पश्चात इन आयतों में ईश्वर ईमान वालों को लोंगो की जान व माल के प्रति अतिक्रमण से भी रोकता है और कहता है दूसरों की जान और माल को भी अपनी जान व माल की भांति समझो तथा दूसरों पर अत्याचार न करो। दूसरों के माल पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण ग़लत व अवैध है सिवाए यह कि वह किसी प्रकार का वैध लेन-देन हो और उसके मालिक ने अपनी इच्छा से वह मामला किया हो। इसी प्रकार लोगों की जान पर अतिक्रमण करना भी अत्याचारी व अतिक्रमणकारी प्रवृत्ति का परिचायक है और इसी कारण इसका दंड भी बहुत कड़ा होता है। यह दंड प्रलय में नरक की दहकती हुई आग के रूप में प्रकट होगा और अत्याचारी के पूरे अस्तित्व को अपनी लपेट में ले लेगा।
इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम में व्यक्तिगत स्वामित्व सम्मानीय है और हर प्रकार के लेन-देन में मालिक का राज़ी होना आवश्यक है।
ग़लत आर्थिक व्यवस्था समाज में असमानताएं उत्पन्न होने का कारण बनती है और हत्या व अन्य विवादों की भूमि प्रशस्त करती है।
मनुष्य की जान अत्यंत सम्मानीय है, आत्म हत्या का करना वर्जित है और दूसरों की हत्या करना भी।
ईश्वर अपने बंदों पर कृपाशील है पंरतु अतिक्रमणकारियों के प्रति कड़ाई बरतता है क्योंकि उसकी दृष्टि में लोगों के अधिकार सम्मानीय हैं।



 सूरए निसा की 31वीं आयत
हे ईमान वालो! यदि तुम वर्जित किये गये बड़े पापों से बचोगे तो हम तुम्हारे छोटे पापों को छिपा देंगे और तुम्हें एक अच्छे स्थान में प्रविष्ट कर देंगे। (4: 31)


इस आयत से पता चलता है कि ईश्वर की दृष्टि में पाप दो प्रकार के होते हैं, छोटे और बड़े। अलबत्ता स्पष्ट है कि हर पाप चाहे वह छोटा हो या बड़ा चूंकि ईश्वरीय आदेश के विरुद्ध होता है अत: अत्यंत बुरा व घृणित होता है परंतु हर पाप के परिणामों के दृष्टिगत उसे छोटे या बड़े पाप की श्रेणी में रखा जा सकता है।
जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व उनके पवित्र परिजनों के कथनों में इस प्रकार के पापों का विस्तार से वर्णन किया गया है या उनके छोटे अथवा बड़े होने के मानदण्ड का उल्लेख किया गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पाप की सीमा जितनी अधिक होगी और जितना अधिक वह व्यक्ति परिवार व समाज को क्षति पहुंचाएगा वह उतना ही बड़ा और घृणित पाप होगा।
इस आधार पर संभव है कि किसी व्यक्ति द्वारा किया गया पाप छोटा हो परंतु वही पाप यदि कोई दूसरा व्यक्ति करे तो बड़ा समझा जाये। उदाहरण स्वरूप यदि कोई साधारण व्यक्ति एक पाप करे तो वह छोटा माना जायेगा परंतु वही पाप समाज का यदि कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति करे तो वह बड़ा पाप कहलाएगा क्योंकि अनेक लोग उस व्यक्ति का अनुसरण करते हैं। बहरहाल इस आयत में ईश्वर दया व कृपा के अंतर्गत कहता है कि यदि तुम मनुष्य बड़े पापों से दूर रहोगे तो मैं तुम्हारे छोटे पापों की अनदेखी करते हुए तुम्हें क्षमा कर दूंगा और तुम्हें स्वर्ग में ले जाऊंगा।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर हमारे छोटे पापों को क्षमा कर देता है। अत: हमें भी दूसरों की छोटी ग़लतियों को क्षमा कर देना चाहिये।
यदि मनुष्य के वैचारिक व व्यवहारिक सिद्धांत ठीक हों तो ईश्वर छोटे पापों को हमारी तौबा के बिना भी क्षमा कर देता है।

सूरए निसा; आयतें 32-33


और ईश्वर ने तुम में से कुछ को कुछ दूसरों पर जिन बातों से वरीयता दी है, उनकी कामना मत करो। पुरुषों ने जो कुछ प्राप्त किया है उसमें उनका भाग है और महिलाओं ने जो कुछ प्राप्त किया है उसमें उनका भाग है। हे ईमान वालो! ईर्ष्या और अनुचित कामनाओं के स्थान पर ईश्वर से उसकी कृपा चाहो नि:संदेह वह हर बात का जानने वाला है। (4:32)


ईश्वर द्वारा सृष्टि की व्यवस्था, अंतर और भिन्नता पर आधारित है। ईश्वर ने सृष्टि और संसार की व्यवस्था चलाने के लिए विभिन्न प्रकार के जीवों इत्यादि की रचना की है। कुछ की जड़ वस्तुओं के रूप में, कुछ की वनस्पति के रूप में, कुछ की जीवों की रूप में और कुछ की मनुष्य के रूप में रचना की है। मनुष्य के बीच भी उसने स्त्री व पुरुष जैसे दो गुट बनाये हैं पुरुषों और महिलाओं के बीच भी शायद दो मनुष्य ऐसे न मिलें जो हर प्रकार से समान हों बल्कि उनके शरीर या आत्मा में अवश्य ही कोई न कोई भिन्नता होगी।
स्पष्ट है कि मनुष्यों के बीच यह अंतर और भिन्नता तत्वदर्शिता के आधार पर और मानव समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। जैसाकि एक गाड़ी को चलाने के लिए लचकदार टायर भी आवश्यक है और इंजन के लिए मज़बूत फौलाद भी, इसी प्रकार चालक को आगे देखने के लिए पारदर्शी कांच भी आवश्यक है और रात में देखने के लिए हेड लाइट भी। तो एक गाड़ी के निर्माण में हज़ारों कल पुर्ज़ों का प्रयोग किया जाता है जो बनावट और प्रयोग की दृष्टि से समान नहीं होते परंतु जब उन्हें एक साथ जोड़ दिया जाये तो वे एक ऐसा साधन बन जाते हैं जो एक चाबी लगाते ही स्टार्ट हो जाता है।
इस महान सृष्टि को भी अरबों विभिन्न वस्तुओं और जीवों की आवश्यकता है जिनमें से प्रत्येक पर कुछ न कुछ दायित्व है और वह सृष्टि का काम सही ढंग से चलने का कारण बनता है। मनुष्य की सामाजिक व्यवस्था में भी विभिन्न क्षमताओं व योग्यताओं वाले लोगों की आवश्यकता होती है ताकि सभी लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
यह अंतर और भिन्नता भेदभाव के अर्थ में नहीं है क्योंकि प्रथम तो यह कि किसी भी जीव का कोई दायित्व ईश्वर पर नहीं है और दूसरे यह कि यह अंतर तत्वदर्शिता के आधार पर है न कि अत्याचार, कंजूसी या ईर्ष्या के आधार पर।
हां यदि ईश्वर सभी मनुष्यों से एक ही प्रकार के कर्तव्य पालन की मांग करता तो अत्याचार होता। क्योंकि उसने सबको एक प्रकार की संभावनाएं नहीं दी हैं परंतु क़ुरआन की कुछ आयतों और पैग़म्बर व उनके पवित्र परिजनों के कथनों से पता चलता है कि ईश्वर ने हर एक से उसकी क्षमता के अनुसार ही कर्तव्य पालन की मांग की है जैसा कि सूरए तलाक़ की ७वीं आयत में कहा गया है। ईश्वर किसी पर भी कर्तव्य पालन अनिवार्य नहीं करता सिवाय उस क्षमता के अनुसार जो उसने उसे दी है।
अलबत्ता मनुष्य व अन्य जीवों के बीच एक मूल अंतर है और वह यह कि केवल मनुष्य ही वैचारिक शक्ति, चयन और संकल्प का अधिकार रखने के कारण अपनी प्रगति व उत्थान या पतन व बर्बादी का मार्ग स्वयं प्रशस्त कर सकता है। दूसरे शब्दों में ईश्वर ने जो कुछ मनुष्य को दिया है वह दो प्रकार का है। एक वह मामले जिनमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है जैसे शारीरिक विशेषताएं इत्यादि और दूसरे वह बातें जो मनुष्य के अधिकार में और प्राप्त करने योग्य हैं जैसे ज्ञान, शक्ति और धन आदि।
स्वाभाविक है कि इस दूसरे क्षेत्र में अपनी क्षमता व योग्यता के अनुसार प्रयास व मेहनत करके अपनी शक्ति की भूमि प्रशस्त करनी चाहिये तथा इस मामले में हर प्रकार की सुस्ती व आलस्य स्वयं मनुष्य से संबंधित है न कि ईश्वर से। इसी कारण इस आयत के आरंभ में ईश्वरीय और प्राप्त न किये जाने वाले गुणों तथा विभूतियों की ओर संकेत करते हुए ईश्वर कहता है। उन बातों में, जिन्हें हमने कुछ को दिया है और कुछ को नहीं दिया है, एक दूसरे से ईर्ष्या न करो और अनुचित कामनायें भी मत करो। इसी प्रकार प्राप्त न करने योग्य क्षेत्र में भी। जो स्त्री और पुरुष जितना प्रयास और परिश्रम करेगा उसे उतना ही लाभ होगा। तुम लोग भी प्रयास करो और ईश्वर से प्राथना करो कि वह अपनी कृपा से तुम्हारे प्रयासों को सफल बना दे।
इस आयत से हमने सीखा कि दूसरों की विभूतियों और योग्यताओं को देखने के स्थान पर,जिससे हमारे भीतर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होती है, हमें अपनी संभावनाओं और योग्यताओं को देखना तथा उनसे लाभ उठाना चाहिये।
अपने भीतर से अनुचित इच्छाओं और कामनाओं की भावनाओं को समाप्त करना चाहिये क्योंकि यह अनेक शिष्टाचारिक बुराइयों की जड़ है।
यद्यपि हम परिश्रम व प्रयास करते हैं परंतु हमें कदापि यह नहीं सोचना चाहिये कि हमारी रोज़ी में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। हमें कार्य व प्रयास भी करना चाहिये और ईश्वर से रोज़ी भी मांगनी चाहिये।
जिस प्रकार पुरुष अपने कमाये हुए धन का स्वामी होता है उसी प्रकार महिलाएं भी मीरास, मेहर या व्यापार आदि से मिलने वाली राशि की स्वामी होती हैं।


सूरए निसा की 33वीं आयत

और जो कुछ माता-पिता और निकट परिजन छोड़ जाते हैं हमने उसमें वारिस बनाये हैं और जिन लोगों को तुम वचन दे चुके हो, मीरास में से उन्हें उनका भाग भी दे दो। नि:संदेह ईश्वर हर बात को देखने वाला है। (4:33)
पिछली आयत में इस बात का उल्लेख करने के पश्चात कि स्त्री और जो कुछ परिश्रम द्वारा प्राप्त करें, वे उसके स्वामी होते हैं। इस आयत में ईश्वर कहता है इसी प्रकार स्त्री और पुरुष अपने माता-पिता तथा निकट परिजनों द्वारा छोड़े गये माल के भी मालिक होते हैं। आगे चलकर आयत में कहा गया है कि कमाई और मीरास के अतिरिक्त अन्य लोगों से वैध मामलों और समझौतों द्वारा मनुष्य को जो माल प्राप्त होता है वह उसका भी स्वामी होता है।
इतिहास में वर्णित है कि इस्लाम से पूर्व अरबों में एक प्रकार का समझौता प्रचलित था जिसके अंतर्गत दो व्यक्ति एक दूसरे के साथ समझौता कर लेते थे कि जीवन में सदैव एक दूसरे की सहायता करेंगे और जब भी किसी एक को कोई क्षति होगी तो दूसरा उसकी क्षति पूर्ति करेगा। इसी प्रकार मरने के पश्चात वे एक दूसरे के वारिस होंगे।
इस्लाम ने इस समझौते को, जो आजकल की बीमा योजनाओं की भांति है, स्वीकार कर लिया परंतु एक दूसरे के वारिस बनने की शर्त, मृतक का कोई अन्य वारिस न होना बताया।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम में मीरास का क़ानून, ईश्वरीय क़ानून है कोई भी इसमें पूर्ण या आरंभिक रूप से परिवर्तन नहीं कर सकता।
समझौते या वचन का पालन अत्यंत आवश्यक है विशेषकर वे समझौते जिनका आर्थिक पहलू होता है और उसके उल्लंघन से दूसरों को क्षति होती है।
हर किसी का समझौता या वचन सम्मानीय होता है यहां तक कि उसकी मृत्यु के पश्चात भी, मरने से वचन या समझौता नहीं टूटता।

कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:58-76

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सूरए निसा; आयतें 58-59


नि:संदेह ईश्वर तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके मालिकों को लौटा दो और जब कभी लोगों के बीच फ़ैसला करो तो न्याय से फ़ैसला करो, नि:संदेह ईश्वर तुम्हें अच्छे उपदेश देता है, निश्चित रूप से वह सुनने और देखने वाला भी है। (4:58)


उन लोगों की कल्पना के विरुद्ध, जो धर्म को एक व्यक्तिगत मामला और अपने तथा ईश्वर के बीच संपर्क समझते हैं, ईश्वरीय धर्मों विशेषकर इस्लाम ने अपनी आसमानी शिक्षाओं को व्यक्ति व समाज के कल्याण के लिए पेश किया है। यहां तक कि ईमान और धर्म के पालन के लिए समाज में न्याय और अमानतदारी को शर्त बताया गया है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम एवं उनके परिजनों के कथनों में आया है कि लोगों के लम्बे-2 सज्दों और रूकू को न देखो बल्कि उनकी सच्चाई और अमानतदारी को देखो क्योंकि अमानत में विश्वासघात, मिथ्या और दोमुंहेपन की निशानी है। अलबत्ता यहां यह बात ध्यान में रहे कि अमानत का अर्थ बहुत व्यापक है और इसमें ज्ञान, धन और परिवार जैसी सभी प्रकार की अमानतें शामिल हैं बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों के अनुसार समाज का नेतृत्व भी एक ईश्वरीय अमानत है जिसे सही हाथों में सौंपने के लिए जनता को अत्यधिक ध्यान देना चाहिये। कहा जा सकता है कि समाज के कल्याण की चाबी भले व न्यायप्रेमी लोगों का सत्ता में होना है जिस प्रकार से अधिकांश सामाजिक बुराइयों व समस्याओं का कारण अयोग्य लोगों का सत्ता में होना और उनका अत्याचारपूर्ण व्यवहार है।
मनुष्य के हाथों में जो अमानते हैं वे तीन प्रकार की हैं। एक मनुष्य और ईश्वर के बीच की अमानत है अर्थात ईश्वरीय आदेशों का पालन। यह ऐसी अमानत है जो मनुष्य के ज़िम्मे है। दूसरी वह अमानतें हैं जो मनुष्य एक दूसरे के पास रखते हैं तथा उनमें कण भर भी कमी किये बिना उनके मालिकों को लौटा देना चाहिये। तीसरी वे अमानतें हैं जो मनुष्य और स्वयं उसी के बीच मौजूद हैं जैसे आयु, शक्ति, शारीरिक व आत्मिक योग्यता इत्यादि। धर्म की दृष्टि से ये सारी बातें हमारे पास अमानत हैं और हम स्वयं अपने मालिक तक नहीं हैं बल्कि इन अंगों के अमानतदार हैं और हमें इन्हें इनके वास्तविक मालिक अर्थात ईश्वर की प्रसन्नता के मार्ग में बेहतरीन ढंग से प्रयोग करना चाहिये।
हर अमानत का कोई मालिक होता है और अमानत को उसी के हवाले करना चाहिये। सत्ता, शासन और न्याय जैसी सामाजिक अमानतों को अयोग्य लोगों के हाथों में देना ईमान से मेल नहीं खाता।
अमानत को उसके मालिक तक पहुंचाना चाहिये, चाहे वह काफ़िर हो या ईमान वाला। अमानत हवाले करने में उसके मालिक के काफ़िर या मोमिन होने की शर्त नहीं है।
केवल क़ाज़ी अर्थात पंच या न्यायाधीश को ही न्यायप्रेमी नहीं होना चाहिये बल्कि सभी ईमान वालों को पारिवारिक और सामाजिक मामलों में फ़ैसला करते समय न्याय से काम लेना चाहिये।
अमानत की रक्षा और न्याय के पालन में ईश्वर को उपस्थित और साक्षी मानना चाहिये। क्योंकि वह सुनने और देखने वाला है।
मनुष्य को सदैव उपदेश की आवश्यकता रहती है और सबसे अच्छा उपदेशक दयावान ईश्वर है।


सूरए निसा की 59वीं आयत

हे ईमान वालो! ईश्वर का आज्ञापालन करो तथा पैग़म्बर और स्वयं तुम में से ईश्वर द्वारा निर्धारित लोगों की आज्ञा का पालन करो। यदि किसी बात में तुममें विवाद हो जाये तो उसे ईश्वर की किताब और पैग़म्बर की ओर पलटाओ, यदि तुम ईश्वर और प्रलय पर ईमान रखते हो। नि:संदेह विवादों को समाप्त करने के लिए यह पद्धति बेहतर है और इसका अंत अधिक भला है। (4:59)

पिछली आयत में हमने कहा कि इस बात की सिफारिश की गई है कि शासन और न्याय का मामला योग्य और न्यायप्रेमी लोगों के हवाले करना चाहिये। यह आयत ईमान वालों से कहती है कि ईश्वर और उसके पैग़म्बर के अतिरिक्त उन न्यायप्रेमी मार्गदर्शकों का भी आज्ञापालन करो जिन्होंने समाज का मामला अपने हाथ में लिया है और उनका अनुसरण व आज्ञापालन ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान की शर्त है।
इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने तबूक नामक युद्ध के लिए जाते हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मदीने में अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और कहा कि हे अली! तुम मेरे लिए वैसे ही हो जैसे मूसा के लिए हारून थे सिवाय इसके कि मेरे पश्चात कोई नबी या ईश्वरीय पैग़म्बर नहीं है। उसी के पश्चात ईश्वर की ओर से यह आयत उतरी और हमने लोगों को हज़रत अली अलैहिस्सलाम के आज्ञा पालन का आदेश दिया।
चूंकि संभव है कि कुछ लोग उलुलअम्र या ईश्वरीय अधिकार रखने वालों की विशेषताओं के निर्धारण या उन्हें पहचानने में मतभेद कर बैठें अत: आगे चलकर आयत कहती है कि ऐसी स्थिति में तुम्हें ईश्वर की किताब और पैग़म्बर के चरित्र तथा उनकी परंपरा को देखना चाहिये कि यह दोनों तुम्हारे लिए सबसे अच्छे पंच हैं और उनके निर्णय पर चलने से सबसे अच्छा अंत होगा।
अलबत्ता स्पष्ट है कि पैग़म्बर और ईश्वरीय अधिकार रखने वालों का आज्ञापालन, ईश्वर के आज्ञापालन के परिप्रेक्ष्य में है और यह एकेश्वरवाद के विरुद्ध नहीं है क्योंकि हम ईश्वर के आदेश पर पैग़म्बर और ईश्वरीय अधिकार रखने वाले के आदेशों का आज्ञापालन करते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि इस आयत में पैग़म्बर और ईश्वरीय अधिकार रखने वालों का आज्ञापालन बिना किसी शर्त के आया है जो यह स्पष्ट करता है कि यह लोग पाप और ग़लती से दूर अर्थात मासूम हैं।
पैग़म्बर के दो पद और स्थान थे एक ईश्वरीय आदेशों का वर्णन अर्थात जनता तक उसका संदेश पहुंचाना और दूसरे समाज में शासन स्थापित करना और समाज की विशेष आवश्यकताओं के आधार पर शासन के आदेशों का वर्णन।
लोगों को इस्लामी व्यवस्था को स्वीकार करना चाहिये तथा उसके न्यायप्रेमी नेताओं का अनुसरण व समर्थन करना चाहिये।
विभिन्न इस्लामी समुदायों के बीच विवाद और मतभेद के समाधान का सबसे अच्छा मार्ग, ईश्वरीय किताब कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा से संपर्क है जिसे सभी मुसलमान स्वीकार करते हैं।
जो लोग मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न करना चाहते हैं उन्हें अपने ईमान पर संदेह करना चाहिये। मतभेदों को हवा देने के स्थान पर उन्हें समाप्त करने के लिए मार्ग खोजने के प्रयास में रहना चाहिये।


सूरए निसा; आयतें 60-63

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो दावा करते हैं कि वे उस चीज़ पर ईमान रखते हैं जो तुम पर और तुमसे पहले वाले पैग़म्बरों पर उतारी गई है? जबकि वे फ़ैसलों को तागूत अर्थात ग़लत शासकों के पास ले जाना चाहते हैं और उन्हें आदेश दिया गया है कि वे इसका अनादर करें और यह शैतान ही है जो उन्हें सही मार्ग से पथभ्रष्ट करके बहुत दूर ले जाना चाहता है। (4:60)


पिछले कार्यक्रम में सूरए निसा की 59वीं आयत में हमने पढ़ा कि सभी विवादों और मतभेदों के समाधान का स्रोत ईश्वरीय किताब और पैग़म्बर का व्यवहार एवं उनकी परम्परा है। यह आयत उन लोगों की आलोचना करती है जो इन दो महान व पवित्र स्रोतों से संपर्क करने के स्थान पर ग़लत लोगों यहां तक कि सत्य के विरोधी शासकों के पास जाते हैं। पवित्र क़ुरआन इसे गहरी पथभ्रष्ठता बताता है।
इस संबंध में इतिहास में वर्णित है कि मदीने में एक यहूदी और एक मुसलमान के बीच कुछ विवाद हो गया। यहूदी ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के न्याय और अमानदारी के कारण उन्हें पंच के रूप में पेश किया जबकि मुसलमान व्यक्ति ने, जो अपने अवैध हितों की पूर्ति चाहता था, एक यहूदी धर्मगुरू को पंच बनाया क्योंकि वह जानता था कि उपहार इत्यादि देकर यहूदी धर्मगुरू को अपने पक्ष में कर सकता है। यह आयत इसी अनुचित व्यवहार की आलोचना में आई।
इस आयत से हमने सीखा कि असत्य और असत्यवादियों से दूरी के बिना ईमान, वास्तविक नहीं होता बल्कि वह खोखला ईमान है।
जो लोग ईमान का दावा करते हैं किन्तु व्यवहार में ईश्वर नहीं बल्कि दूसरों से संपर्क करते हैं, वे वास्तव में शैतान के साथ मिलकर ईश्वर और पैग़म्बर के विरुद्ध मोर्चाबंदी करते हैं।
असत्य पर चलने वालों के शासन की स्वीकारोक्ति समाज में शैतान की गतिविधियों की भूमि समतल कर देती है।

सूरए निसा 61वीं आयत

और जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर, जो ईश्चर ने उतारी है अर्थात किताब और पैग़म्बर की ओर आओ तो तुम मिथ्याचारियों को देखते हो कि वे लोगों को तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार करने से कड़ाई से रोकते हैं। (4:61)

यह आयत फ़ैसला कराने के लिए दूसरों से संपर्क को मिथ्या की निशानी बताते हुए कहती है, ये मुनाफिक़ अर्थात मिथ्याचारी हैं जो क़ुरआन और ईश्वरीय परंपरा से कतराते हैं और काफ़िरों के विचार उन्हें भले लगते हैं। वे न केवल यह कि स्वयं ईश्वरीय आदेशों को स्वीकार नहीं करते बल्कि दूसरों को भी ईमान लाने से रोकते हैं ताकि दूसरे भी उन्हीं की भांति कर्म करें और फिर कोई उन्हें रोकने वाला न रहे।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों को ईश्वर की ओर बुलाना हमारा कर्तव्य है चाहे हम जानते हों कि वे स्वीकार नहीं करेंगे और ईश्वरीय आदेश के समक्ष नतमस्तक नहीं होंगे।
सत्य और सच्चे नेतृत्व का विरोध मिथ्याचारियों की सबसे स्पष्ट निशानियों में से एक है।

 सूरए निसा की 62वीं और 63वीं आयत

तो उस समय उनका क्या होगा जब उन पर उनके कर्मों के कारण मुसीबत आयेगी और वे उससे निकलने के लिए तुम्हारे पास आकर ईश्वर की सौगन्ध खायेंगे कि असत्यवादी पंचों से संपर्क करने का हमारा लक्ष्य केवल दोनों पक्षों के बीच एकता उत्पन्न करना और उनके साथ भलाई करना था। (4:62) यही वे लोग हैं जिनके मन की भी बात ईश्वर जानता है तो हे पैग़म्बर! तुम उन्हें दंडित न करो, हां उन्हें उपदेश देते रहो और उनसे प्रभावी तथा दिल में बैठ जाने वाली बातें करो। (4:63)


पिछली आयतों में मिथ्याचारियों के बुरे व्यवहार की आलोचना के पश्चात ईश्वर इन आयतों में स्वयं मिथ्याचारियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार का वर्णन करते हुए कहता है कि उनको किसी भी प्रकार का शारीरिक दंड मत दो और केवल बातों द्वारा उनको उपदेश दो तथा उनके कर्मों के परिणामों की ओर से सचेत करो। उनके दंड को ईश्वर के हवाले कर दो।


पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के समीप फ़ैसलों के लिए मामले न ले जाने हेतु मिथ्याचारियों का एक बहाना यह था कि यदि हम पैग़म्बर के पास जाते तो वे स्वाभाविक रूप से एक के पक्ष में और दूसरे के विरुद्ध फ़ैसला करते जिसके कारण एक पक्ष पैग़म्बर से अप्रसन्न हो जाता जो कि पैग़म्बरी की शान के विरुद्ध है इसी कारण हम पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के सम्मान, उनकी स्थिति तथा लोकप्रियता की रक्षा के लिए अपने मामले उनके पास नहीं ले जाते।
स्पष्ट है कि इस प्रकार के बहाने कर्तव्यों और दायित्वों से बचने के लिए होते हैं और यदि यही तै होता कि पैग़म्बर की लोकप्रियता की रक्षा इस प्रकार से जायेगी तो ईश्वर इस बात से अधिक अवगत है।
इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य तथा समाज की अनेक समस्याओं की जड़ स्वयं मनुष्य के कर्म हैं चाहे वह उनका कारण न जाने या स्वयं को अनभिज्ञ प्रकट करे। इसी कारण दुर्घटनाओं और कठिनाइयों को ईश्वर के ज़िम्मे नहीं डालना चाहिये।
ग़लत कार्यों का औचित्य दर्शाना मिथ्याचारियों की निशानी है जिस प्रकार से कि मिथ्याचारी पैग़म्बर की स्थिति की रक्षा के बहाने उन्हें कमज़ोर बना रहे थे।
सौगन्ध खाना वह पर्दा है जिसे झूठे मिथ्याचारी अपने ग़लत कर्मों और लक्ष्यों पर डालते हैं।
पापी और उल्लंघनकर्ता अपने कुकर्मों को भलाई, सुधार और उपकार जैसे पवित्र शब्दों की आड़ में छिपाते हैं ताकि उनके कर्मों पर कोई उन्हें रोक-टोक न सके।
मिथ्याचारियों के साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिये कि उनसे दूरी भी रहे और उन्हें उपदेश भी दिया जाये।
सूरए निसा; आयतें 64-68

और हमने किसी भी पैग़म्बर को नहीं भेजा सिवाए इस उद्देश्य से कि ईश्वर की अनुमति से उसका अनुसरण किया जाए और यदि वे विरोधी, जब उन्होंने अपने आप पर अत्याचार किया और ईश्वरीय आदेश की अवज्ञा की, तुम्हारे पास आते और ईश्वर से क्षमा याचना करते और पैग़म्बर भी उन्हें क्षमा करने की सिफ़ारिश करते तो नि:संदेह वे ईश्वर को बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान पाते। (4:64)


पिछले कार्यक्रमों में हमने कहा था कि कुछ मिथ्याचारी मुसलमानों ने अपने सामाजिक विवादों के निवारण के लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बजाए असत्यवादी शासकों से संपर्क किया। यह आयत कहती है कि लोगों का कर्तव्य है कि वे विभिन्न मामलों में पैग़म्बर का अनुसरण करें। पैग़म्बर केवल ईश्वर का संदेश पहुंचाने के लिए नहीं आये हैं बल्कि वे शासन के अधिकारी हैं तथा दूसरों को नहीं बल्कि मुसलमानों को उनका आज्ञापालन करना चाहिये।
अलबत्ता पैग़म्बर का आज्ञापालन भी ईश्वर के आदेश से है अन्यथा किसी का भी यहां तक कि पैग़म्बर का भी अनुसरण यदि ईश्वर की अनुमति से न हो तो कुफ्र और अनेकिश्वरवाद है। आगे चलकर आयत कहती है कि पैग़म्बर की अवज्ञा के पाप की तौबा पैग़म्बर से संपर्क है और यह तौबा केवल उसी स्थिति में स्वीकार होगी जब पैग़म्बर उसकी तौबा को स्वीकार कर लें और उसके लिए ईश्वर से क्षमा याचना करें।
स्पष्ट है कि यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल से विशेष नहीं है और जिस काल में जो कोई भी ईश्वर और पैग़म्बर का विरोध करे यदि वह पैग़म्बर की क़ब्र की ज़ियारत के लिए जाए और उनसे ईश्वर के समक्ष अपने लिए क्षमा याचना का अनुरोध करे तो पैग़म्बर के माध्यम से उसके पाप की क्षमा स्वीकार होने की भूमि समतल हो जाती है।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों का मार्गदर्शन ईश्वरीय पथप्रदर्शकों के अनुसरण पर निर्भर है। केवल ईमान पर्याप्त नहीं है बल्कि व्यवहार में आज्ञापालन भी आवश्यक है।
पैग़म्बरों की शिक्षाओं से दूरी और असत्यवादी शासकों से संपर्क पवित्र व भले लोगों पर नहीं बल्कि अपने आप पर अत्याचार है।
ईश्वर के पवित्र बंदों की क़ब्रों की ज़ियारत के लिए यात्रा और ईश्वर के समक्ष क्षमा याचना के लिए उनसे अनुरोध करना क़ुरआन की सिफ़ारिश है।

सूरए निसा की 65वीं आयत


तुम्हारे पालनहार की सौगन्ध कि वे वास्तविक ईमान तक नहीं पहुंचेगे जब तक कि वे अपने विवादों में केवल तुम्हें पंच न बनायें और फिर हृदय में भी तुम्हारे फ़ैसले से अप्रसन्न न हों और तुम्हारे फ़ैसले के समक्ष पूर्णत: नतमस्तक रहें। (4:65)


पिछली आयतों में विवादों के फ़ैसले के लिए पैग़म्बर के पास जाने और दूसरों के पास न जाने की सिफारिश की गई है। यह आयत कहती है कि न केवल यह कि तुम पैग़म्बर से संपर्क करो बल्कि उनके फ़ैसले का पूर्णरूप से आज्ञापालन भी करो और न केवल यह कि ज़बान से कुछ न हो बल्कि हृदय में अप्रसन्नता का आभास न करो क्योंकि संभवत: पैग़म्बर का फ़ैसला तुम्हारे विरुद्ध हो सकता है।
इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के दो साथियों में अपने खजूरों के बाग़ों की सिंचाई के मामले पर मतभेद हो गया। वे दोनों पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में आए और उनसे फ़ैसला करने को कहा परंतु जब उन्होंने पैग़म्बर का फ़ैसला सुना तो जिसके विरुद्ध फ़ैसला हुआ था उसने पैग़म्बर पर आरोप लगाया कि चूंकि दूसरा पक्ष उनका रिश्तेदार था इसलिए उन्होंने उसके हित में फ़ैसला दिया है। पैग़म्बरे इस्लाम इस बात से अत्यंत अप्रसन्न हुए और उनके चेहरे का रंग बदल गया। इसी अवसर पर यह आयत उतरी और उसने मुसलमानों को चेतावनी दी।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान, नतमस्तक हुए बिना नहीं प्राप्त होता। सच्चा मोमिन वह है जो ईश्वर और पैग़म्बर के आदेशों का पालन भी करता है और उनके आदेशों से अप्रसन्नता का आभास भी नहीं करता तथा दिल से भी उनके आदेशों को स्वीकार करता है।
लोगों के बीच फ़ैसला करना, पैग़म्बरों और ईश्वरीय मार्गदर्शकों की एक विशेषता रही है। धर्म केवल कुछ शुष्क उपासनाओं के कुछ आदेशों का नाम नहीं है बल्कि लोगों की सामाजिक समस्याओं का निवारण भी धार्मिक नेताओं के कर्तव्यों में से एक है।

सूरए निसा की 66वीं 67वीं और 68वीं आयत

और यदि हम इन मिथ्याचारियों को यह आदेश देते कि वे अपनी हत्या कर लें या अपने घरों को छोड़कर निकल जायें तो कुछ लोगों के अतिरिक्त कोई भी आज्ञापालन न करता जबकि इन्हें जो उपदेश दिया गया है उसका पालन करते तो उन्हीं के हित में अच्छा होता और इनका ईमान अधिक सुदृढ़ होता। (4:66) और हम अपनी ओर से बड़ा बदला भी देते। (4:67) और सीधे रास्ते की ओर इनका मार्गदर्शन भी कर देते। (4:68)
पिछली आयतों को पूर्ण करते हुए ये आयतें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के न्यायपूर्ण फ़ैसलों से अप्रसन्न होने वालों से कहती हैं हमने तुम पर कोई कड़ा और जटिल दायित्व नहीं डाला है कि तुम इस प्रकार का आभास कर रहे हो। हमने पिछले समुदायों और जातियों को जैसे यहूदी जाति को जब उन्होंने गाए के बछड़े की उपासना आरंभ कर दी थी उनके पापों के प्रायश्चित के लिए एक दूसरे की हत्या और अपनी धरती से बाहर निकल जाने का आदेश दिया था। निश्चित रूप से यदि इस प्रकार का आदेश तुम्हें दिया जाता तो केवल कुछ ही लोग उसका पालन करते।
आगे चलकर आयत मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है यदि तुम ईश्वरीय आदेशों को मानो तो यह स्वयं तुम्हारे लिए बेहतर है सही रास्ते पर तुम्हारा मार्गदर्शन भी होगा तथा तुम्हारा ईमान दृढ़ हो जायेगा और प्रलय में भी तुम्हें ईश्वर की ओर से बड़ा बदला मिलेगा।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईमान के दावेदार तो बहुत हैं पंरतु ईश्वरीय परीक्षाओं में सफल होने वाले बहुत कम हैं।
ईश्वरीय आदेश ऐसे उपदेश हैं जिनका लाभ स्वयं हमें मिलता है। इससे ईश्वर को कोई लाभ नहीं है।
ईश्वर के मार्ग में जितना आगे बढ़ते जायेंगे उतना ही हमारा ईमान बढ़ता और सुदृढ़ होता जायेगा।


सूरए निसा; आयतें 69-73

जो लोग ईश्वर और पैग़म्बर का अनुसरण करें तो वे उन लोगों के साथ रहेंगे जिन्हें ईश्वर ने अपनी विभूतियां दी हैं जैसे; पैग़म्बर, सच बोलने वाले, शहीद और भलाई करने वाले और ये लोग कितने अच्छे साथी हैं। (4:69) ये सब कृपायें ईश्वर की ओर से हैं और बंदों के भले कामों को जानने के लिए ईश्वर काफ़ी है। (4:70)


पिछली आयतों में हमें पता चला कि जो लोग ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं उन्हें इसी संसार में अपने कर्मों का फल दिया जाता है और ईश्वर सदैव उन्हें अपने विशेष मार्गदर्शन की छाया में रखता है। इन आयतों में ईश्वर कहता है कि ऐसे लोग प्रलय में भी पैग़म्बर और पवित्र लोगों के साथ रहेंगे और वहां भी उनके अस्तित्व से लाभान्वित होते रहेंगे।
सूरए हम्द में, जिसे हर नमाज़ में पढ़ा जाता है, हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें सीधे मार्ग पर बाक़ी रखे, उन लोगों के मार्ग पर जिन्हें उसने अपनी विशेष अनुकम्पायें प्रदान की हैं। सूरए निसा की इस आयत में हम पैग़म्बरों, सच्चे, शहीद और पवित्र लोगों के सबसे अच्छे प्रतीकों को पहचानते हैं। तो हम हर नमाज़ में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वो हमें स्वर्ग में ऐसे ही लोगों के साथ रखे।
इन आयतों से हमने सीखा कि लोक-परलोक में अच्छे मित्र और साथी प्राप्त करने का मार्ग ईश्वर व पैग़म्बर के आदेशों का पालन है।
मित्र के चयन में ईमान और पवित्रता मूल शर्त है।
इस बात पर ईमान कि ईश्वर हमारे समस्त कर्मों से अवगत है, भले कर्म करने के लिए सबसे अच्छा प्रोत्साहन है।

 सूरए निसा की 71वीं आयत


हे ईमान वालो! अपने शस्त्र ले लो और पूर्ण रूप से सचेत व तैयार रहो, फिर बंटे हुए गुटों में या एक साथ मिलकर शत्रु की ओर बढ़ो। (4:71)

चूंकि इस्लाम जीवन का धर्म है और जीवन के विभिन्न व्यक्तिगत व सामाजिक पहलू होते हैं इसी लिए क़ुरआन मजीद के आदेश, उपासना और व्यक्तिगत कर्तव्यों के अतिरिक्त समाज के विभिन्न मामलों पर आधारित हैं। हर समाज के महत्वपूर्ण मामलों में से एक आंतरिक और बाहरी शत्रु से निपटने की पद्धति है। क़ुरआन मजीद ने अनेक आयतों में ईमान वालों को इस्लामी क्षेत्रों, धर्म और इस्लामी मान्यताओं का निमंत्रण दिया है और इस मार्ग में हर प्रकार की हानि और ख़तरे को अत्यंत मूल्यवान बताया है।
जैसा कि पिछली आयतों में क़ुरआने मजीद ने शहीदों का स्थान पैग़म्बरों के समान बताया था जहां पहुंचने की कामना हर ईमान वाले के हृदय में होती है। इस आयत में भी ईमान वालों से कहा गया है कि अपनी सैनिक क्षमता में वृद्धि करें ताकि उनमें शत्रु के हर प्रकार के आक्रमण का मुक़ाबला करने की तैयारी रहे। इस आयत में प्रयोग होने वाले शब्द हिज़्र का अर्थ है रक्षा का साधन। अर्थात तुम्हें दूसरों पर आक्रमण नहीं करना चाहिये पंरतु यदि दूसरों ने तुम पर आक्रमण किया तो तुममें अपनी प्रतिरक्षा की तैयारी होनी चाहिये ताकि तुम्हारा सम्मान और तुम्हारी सत्ता सुरक्षित रहे।
इस आयत से हमने सीखा कि मुसलमानों को शत्रु की सैनिक योजनाओं, पद्धतियों तथा संभावनाओं से अवगत रहना चाहिये ताकि वे उन्हीं के अनुसार अपनी प्रतिरक्षा के साधन तैयार कर सकें और मुक़ाबले के लिए तैयार रहें।
इस्लामी समाज के किसी विशेष गुट को नहीं बल्कि सभी को सैनिक प्रशिक्षण लेना चाहिये ताकि शत्रु के आक्रमण के समय सभी एकजुट होकर अपने देश और धर्म की रक्षा कर सकें।

 सूरए निसा की 72वीं और 73 वीं आयत

निसंदेह तुम्हारे बीच लोगों का ऐसा गुट भी है जो स्वयं भी सुस्त है और दूसरों को भी सुस्ती पर उकसाता है। तो जब युद्ध में तुम पर कोई संकट आता है तो वह कहता है कि ईश्वर ने मुझ पर कृपा की जो मैं उनके साथ उपस्थित नहीं था (4:72) और जब ईश्वर की ओर से तुम्हें कोई कृपा प्राप्त हो जाती है और तुम विजयी हो जाते हो तो कहता है, काश मैं भी उनके साथ होता ताकि मुझे भी महान कल्याण प्राप्त हो जाता। वह इस प्रकार से कहता है मानो तुम्हारे और उनके बीच कोई प्रेम और संबंध था ही नहीं और तुम्हारी विजय उनकी विजय नहीं है। (4:73)
पिछली आयत में बाहरी शत्रु के मुक़ाबले में मुसलमानों की तैयारी की ओर संकेत किया गया था। ये आयतें मिथ्याचारियों और आंतरिक शत्रुओं की ओर से सचेत करती हैं। अवसर वादी लोग, जो केवल अपने हितों को दृष्टिगत रखते हैं न केवल यह कि धर्म के मार्ग में कठिनाइयां झेलने के लिए तैयार नहीं होते बल्कि दूसरों को भी इस प्रकार के कार्यों से रोकने का प्रयास करते हैं ताकि वे स्वयं बदनाम न हों। ये आयतें ऐसे लोगों की निशानी इस प्रकार बताती हैं कि जब इस्लामी समाज पर संकट और कठिनाइयां पड़ती हैं तो वे स्वयं को अलग कर लेते हैं और अपनी जान बच जाने पर ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करते हैं तथा आराम और विजय के समय स्वयं के वंचित रह जाने के कारण खेद प्रकट करते हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि युद्ध और जेहाद का मैदान ईमान वालों तथा मिथ्याचारियों की पहचान व परीक्षा का सबसे अच्छा स्थान है।
रणक्षेत्र तथा मोर्चों पर मिथ्याचारियों की उपस्थिति, लड़ने वालों की भावनाएं कमज़ोर पड़ने का कारण हैं। अत:ऐसे लोगों को पहचानना चाहिये और उन्हें मोर्चे पर नहीं भेजना चाहिये।
युद्ध और इस्लामी समाज की कठिनाइयों के मैदान से भागना मिथ्या की निशानी है।
ऐसे आराम का मूल्य है जो समाज के अन्य लोगों के आराम के साथ हो, न यह कि दूसरे कठिनाई में रहें और हम आराम से।
मिथ्याचारियों की दृष्टि में मोक्ष और कल्याण सांसारिक और भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति है हमें ऐसा नहीं होना चाहिये।
जो व्यक्ति ईमान वालों के दुख में भाग नहीं लेता परंतु उनके लाभों में शामिल होना चाहता है वह मिथ्याचारी प्रवृत्ति का है।


सूरए निसा; आयतें 74-76

तो जिन लोगों ने संसार के जीवन को प्रलय के बदले बेच दिया है उन्हें ईश्वर के मार्ग में युद्ध करना चाहिये और जान लेना चाहिये कि जो भी ईश्वर के मार्ग में युद्ध करेगा चाहे वह मारा जाए या विजयी हो हम उसे शीघ्र ही महान बदला देंगे। (4:74)


पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिथ्याचारी व्यक्ति की एक निशानी यह है कि वह विभिन्न बहानों से जेहाद में शामिल होने से बचता रहता है और न केवल यह कि स्वयं सुस्ती करता है बल्कि दूसरों को भी मोर्चों पर जाने से रोकता है।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए यह आयत कहती है युद्ध से भागना ईश्वर और प्रलय पर ईमान न होने की निशानी है और यदि कोई परलोक में मिलने वाले बदले पर ईमान रखता हो और संसार की अस्थाई ज़िन्दगी को परलोक के स्थाई जीवन के लिए एक खेती की भांति समझता हो तो वह बड़ी सरलता से ईश्वर के मार्ग में संघर्ष और युद्ध करता है क्योंकि ऐसा ईमान वाला व्यक्ति जानता है कि उसका कर्तव्य ईश्वर के शत्रुओं से उसके धर्म की सुरक्षा करना है तथा वह अपना कर्तव्य पालन करना चाहता है परिणाम चाहे जो भी हो। विजय या पराजय से उसे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि ईश्वर के मार्ग में रहना और उसकी प्रसन्नता के लिए काम करना महत्वपूर्ण है न कि शत्रु को पराजित करने के लिए।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम में जेहाद का लक्ष्य ईश्वरीय धर्म की रक्षा है न कि विस्तारवाद, प्रतिशोध, साम्राज्य या भूमि विस्तार।
ईमान की परीक्षा का एक मंच रणक्षेत्र है जो ईमान वाले को मित्थाचारी से अलग कर देता है।
सत्य के मोर्चे पर फ़रार या पराजय का अस्तित्व नहीं है; या शहादत मिलेगी या विजय।

 सूरए निसा की 75वीं आयत .

हे ईमान वालो! तुम उन अत्याचारग्रस्त पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की मुक्ति के लिए युद्ध क्यों नहीं करते जो कहते हैं कि प्रभुवर! हमें इस नगर से निकाल दे जिसके लोग अत्याचारी हैं और तू अपनी ओर से हमारे लिए कोई अभिभावक पैदा कर और अपनी ओर से किसी को हमारा सहायक बना। (4:75)


जिस प्रकार से कि पिछली आयतें मोमिनों को प्रलय पर ईमान पर भरोसा और लोक व परलोक की तुलना करके ईश्वर के मार्ग में जेहाद में निमंत्रण देती थीं उसी प्रकार यह आयत मानवीय भावनाओं से लाभ उठाते हुए ईमान वालों से कहती है कि वे अत्याचारियों के चंगुल में फंसे हुए लोगों की मुक्ति के लिए उठ खड़े हों और चुप न बैठें।
यह आयत भलि-भांति स्पष्ट करती है कि अत्याचारियों के चंगुल से अत्याचारग्रस्तों की मुक्ति और स्वतंत्रता इस्लामी जेहाद के लक्ष्यों में से है और इस मार्ग में युद्ध ईश्वर के मार्ग में युद्ध है। वास्तविक ईमान वालों का अपने धर्म और देश वालों के प्रति दायित्व होता है और वे ऐसी स्थिति में केवल अपने और अपने परिजनों के आराम का ध्यान नहीं रख सकते कि जब वे लोग संकट में हों।
इस आयत से हमें यह पाठ मिलता है कि इस्लाम में जेहाद ईश्वरीय होने के साथ मानवीय भी है और मनुष्यों की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष ईश्वरीय संघर्ष है।
पीड़ितों की चीख़ व पुकार की उपेक्षा पाप है। साहस और शक्ति के साथ उनकी सहायता करनी चाहिये।
अत्याचारियों से छुटकारे के लिए ईश्वर और उसके प्रिय दासों से सहायता मांगनी चाहिये न कि हर एक से हर रूप में।

सूरए निसा की 76वीं आयत

धर्म पर निष्ठा रखने वाले ईश्वर के मार्ग में संघर्ष करते हैं और नास्तिक, बुराई के प्रतीक के मार्ग में लड़ाई करते हैं तो हे ईमान लाने वालो शैतान के अनुयाइयों और चेलों से लड़ो तथा डरो मत, शैतान की योजना कमज़ोर है। (4:76)
इस्लाम में जेहाद के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने के लिए इस आयत में धर्म पर निष्ठा रखने वालों और नास्तिकों के युद्ध के लक्ष्यों पर प्रकाश डाला गया है। आयत में कहा जाता है कि ईमान लाने वाले ईश्वर के धर्म की सुदृढ़ता और सुरक्षा के लिए जेहाद करते हैं न कि सत्ता और पद के लिए। उनका लक्ष्य ईश्वर होता है जबकि ईश्वर का इन्कार करने वाले अत्याचारियों और बुराइयों के प्रतीकों की सत्ता को मज़बूत करने के लिए युद्ध करते हैं और उनका लक्ष्य अन्य लोगों पर वर्चस्व जमाना तथा देश की सीमा बढ़ाना होता है।
इसके बाद इस आयत में इस प्रकार के वर्चस्व वादी गुटों से युद्ध करने पर मोमिनों को प्रोत्साहित करते हुए कहा गया है।
यह न सोचो कि वे शक्तिशाली हैं और तुम कमज़ोर बल्कि इसके विपरीत तुम ईश्वर पर विश्वास के कारण सबसे बड़ी शक्ति के स्वामी हो और वे शैतान के अनुसरण के कारण अत्यंत कमज़ोर हैं तो फिर शैतान व बुराइयों के प्रतीकों की सेना के विरुद्ध लड़ाई से न डरो और अपनी पूरी शक्ति के साथ उनका मुक़ाबला करो और जान लो कि तुम ही श्रेष्ठ हो क्योंकि वे शैतान के अनुयायी हैं कि जो स्वयं ईश्वर के संकल्प के आगे कमज़ोर है।
इस आयत से हमें यह पाठ मिलता है कि ईश्वर के मार्ग में होना अर्थात ईश्वर के लिए होना इस्लामी समाज में समस्त कार्यवाहियों और गतिविधियों का प्रतीक व चिन्ह है।
उपेक्षा और वैराग्य मोमिन के लिए उचित नहीं होता बल्कि ईमान व ईश्वर पर विश्वास का चिन्ह बुराइयों का आदेश देने वाली इच्छाओं के विरुद्ध संघर्ष है।
ईश्वर का इन्कार बुराइयों के प्रतीक और शैतान के त्रिभुज के तीन आयाम हैं जिनमें से प्रत्येक का जीवन एक दूसरे पर निर्भर है। इसीलिए इनमें से हर एक दूसरे को शक्ति प्रदान करने की दिशा में प्रयासरत रहता है।
शैतान के अनुसरण का परिणाम विफलता होता है क्योंकि शैतान और उसके अनुयाइयों को प्राप्त होने वाला समर्थन कमज़ोर व कम होता है।


इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम आंदोलन के शुरू में मदीने से मक्के क्यों गए?

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इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम आंदोलन के शुरू में मदीने से मक्के क्यों गए?

मदीने से इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम के निकलने का कारण यह था कि यज़ीद ने मदीने के शासक वलीद इब्ने अतबा के नाम ख़त में हुक्म दिया था कि मेरे कुछ विरोधियों से (जिनमें से एक इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम भी थे) ज़रूर बैयत ली जाए और बिना बैयत लिए उनको छोड़ा न जाए। (वक़अतुत तफ़, पेज 57) 

वलीद अगरचे अपनी शांतिपूर्ण कार्यपद्धति के कारण अपने हाथों को इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ून में रंगने को तय्यार नहीं था। (इब्ने आतम, अलफ़ुतूह, जिल्द 5, पेज 12, वक़अतुत तफ़, पेज 81) 

लेकिन मदीने में अमवी ग्रुप के कुछ लोगों ने (ख़ास कर मरवान इब्ने हकम जिससे वलीद सख़्त अवसरों पर तथा इस मामले में सलाह, मशवरा करता था।) उस पर सख़्त दबाओ डाला कि वह इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम को क़त्ल कर दे, इसी लिए जैसे ही यज़ीद का ख़त पहुँचा और वलीद ने मरवान से मशवरा किया तो मरवान बोला कि मेरी राय यह है कि अभी इसी समय उन लोगों को बुला भेजो और उनको यज़ीद की बैयत व अनुसरण पर मजबूर करो और अगर विरोध करें तो इसके पहले कि उन्हें मुआविया के मरने की ख़बर मिले, उनके सर व तन में जुदाई कर दो इसलिए कि अगर उन्हें मुआविया के मरने की सूचना हो गई तो उनमें हर कोई एक तरफ़ जा कर विरोध करेगा और लोगों को अपनी तरफ़ बुलाना शुरू कर देगा। (वक़अतुत तफ़, पेज 77)


इस आधार पर इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस बात को देखते हुए की मदीने के हालात, ख़ुल्लम ख़ुल्ला विरोध प्रकट करने और उठ खड़े होने के लिए उचित नहीं है, तथा किसी प्रभावी आंदोलन की सम्भावना के बिना इस शहर में अपनी जान को ख़तरा भी है, मदीने को छोड़ने का फ़ैसला किया और मदीने से निकलते समय जिस आयत की आपने तिलावत की उससे यह बात (कि मदीना शहर छोड़ने का कारण सुरक्षा के न होने का एहसास है।) साफ़ पता चलती है, अबू मख़नफ़ के लिखने के अनुसार इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम ने 27 रजब की रात या 28 रजब को अपने अहलेबैत के साथ इस आयत की तिलावत फ़रमाई (वक़अतुत तफ़, पे 85, 186) 

जो मिस्र से निकलते समय असुरक्षा के एहसास के कारण क़ुर्आन हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की ज़बानी बयान कर रहा हैः
मूसा शहर से भयभीत निकले और उन्हें हर क्षण किसी घटना की आशंका थी, उन्होंने कहा कि ऐ परवरदिगार मुझे ज़ालिम व अत्याचारी क़ौम से नेजात दे। (सूरए क़ेसस, 21)

आपने मक्के का चयन ऐसे समय में किया कि अभी मुख़्तलिफ़ शहरों के लोगों को मुआविया के मरने की ख़बर नहीं थी और यज़ीद के विरोध में वास्तविक संघर्ष का आरम्भ नहीं हुआ था और अभी इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम को कूफ़ा और दूसरे शहरों से बुलाने का सिलसिला शुरू नहीं हुआ था इसलिए इमाम को हिजरत (प्रस्थान) के लिए एक जगह का चयन करना ही था ताकि एक तो आज़ादी के साथ सिक्योरिटी के माहौल में वहाँ अपने नज़रिये को बयान कर सकें और दूसरे अपने नज़रिये को वहाँ से पूरी इस्लामी दुनिया तक पहुंचा सकें, मक्का शहेर में दोनो बातें मौजूद थीं, क्योंकि क़ुर्आन के साफ व स्पष्ट शब्दों के अनुसार कि (व मन दख़ला काना आमेना)(सूरए आले इमरान, 97) 

मक्का इलाही हरम था, तथा इस बात के दृष्टिगत कि काबा इसी शहर में है और पूरी इस्लामी दुनिया से मुस्लमान हज व उमरा के आमाल बजा लाने के लिए यहाँ वारिद होंगे इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम मुख़तलिफ़ गिरोहों से बाक़ाएदा मुलाक़ात कर सकते थे और यज़ीदो बनी उमय्या के शासन के विरोध की वजह उन से बयान कर सकते थे तथा इस्लामी अहकाम और मुआविया के कुछ पहलुओं को उजागर कर सकते थे और कूफ़ा और बसरा और दूसरे इस्लामी शहरों के विभिन्न गिरोहों से सम्बंध भी रख सकते थे। इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम जुमे की रात 2 शाबान स0 60 हीजरी को वारिदे मक्का हुए और उसी साल की 8 ज़िलहिज्जा तक उस शहर में अपनी सरगर्मियों में मसरूफ़ रहे।


मदीने से इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम के निकलने का कारण यह था कि यज़ीद ने मदीने के शासक वलीद इब्ने अतबा के नाम ख़त में हुक्म दिया था कि मेरे कुछ विरोधियों से (जिनमें से एक इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम भी थे) ज़रूर बैयत ली जाए

आतंकवादियों के खिलाफ शिया मुजतहिद हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा सीसतानी ने दिया जिहाद का फतवा |

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आतंकवादियों  के खिलाफ शिया मुजतहिद हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा सीसतानी ने दिया जिहाद का फतवा |
कल दोपहर इराक के मरजा-ए-तक़लीद हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा सीसतानी ने आतंकवादी गिरोह दाइश के खिलाफ 'जिहादे केफ़ाई "का फ़त्वा जारी किया है |
कर्बला में इराक़ के महान मरजा-ए-तक़लीद हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा सीसतानी के प्रतिनिधि अब्दुल महदी करबलाई ने कर्बला की नमाज़े जुमा में कहा था कि आयतुल्लाह सीसतानी ने इराक़ी जनता से अपील की है कि वह हथियार उठा लें और इराक़ का आतंकवाद से बचाव करें।
इसी बीच ख़बरें प्राप्त हो रही हैं कि अस्सी हजार से अधिक इराक़ी जनता ने स्वयंसेवी आतंकवादियों से मुकाबले के लिए एक समिति का गठन किया है और इराक़ की स्पेशल फ़ोर्स भी रवाना हो गई है।

महफ़िल १५ शबान dubagga लखनऊ में |

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लखनऊ अज़ादारी की  पहचान है और अज़ादारी को आगे बढाने में इसका बहुत बड़ा योगदान रहा है |


अब लखनऊ आबादी बढ़ने की वजह से फैलने लगा है | लखनऊ में एक नया इलाक बस रहा है dubagga जहां अभी सिर्फ २०-२५ मोमिनीन ही हैं लेकिन खुलूस और मुहब्बत  देखिये १५ शाबान का जश्न इ विलादत इमाम ऐ ज़माना जोर शोर से मनाया गया |





प्रलय है क्या?

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परलोक पर विश्वास के लिए क़यामत व प्रलय का अत्यधिक महत्व है किंतु वास्तव में क़यामत या प्रलय है क्या?प्रलय उस दिन को कहते हैं जिस दिन लोगों के कर्मों का हिसाब होगा और कर्म के अनुसार दंड या पुरस्कार दिया जाएगा किंतु इसके लिए एक विषय पर चर्चा आवश्यक है।

वास्तव में क़यामत में जो दंड या प्रतिफल की बात होती है उस पर एक शंका यह की जाती है कि मनुष्य का शरीर विभिन्न कोशिकाओं के समूह से बना है जो बनती और बिगड़ती रहती है और उनमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है किंतु जन्म से लेकर मृत्यु तक उनकी संख्या, में बदलाव नहीं आता। प्राणियों विशेषकर मनुष्य के शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों के दृष्टिगत यह प्रश्न उठता है कि इस परिवर्तनशील समूह को कौन से मापदंड के आधार पर एकल समूह कहा जा सकता है?

दूसरे शब्दों में यह कि यदि किसी व्यक्ति ने पाप किया है तो पाप के समय उसके हाथ पैर मन व मस्तिष्क तथा ह्रदय की जो कोशिकाएं थीं वह मृत्यु के समय तक कई बार बदलाव का शिकार हो चुकी होंगी तो फिर जिस शरीर को क़यामत में लौटाया जाएगा और जिसे दंड दिया जाएगा क्या उन्हीं कोशिकाओं से बना शरीर होगा जो पाप करते समय थीं या बदल चुका होगा और यदि बदल चुका होगा तो फिर उसे दंड या प्रतिफल क्यों? इस लिए इस सब से मूल प्रश्न यह है कि मनुष्य में वह कौन सी वस्तु है जो उसकी कोशिकाओं में परिवर्तन के बाद भी उसकी पहचान बाक़ी रखती है और उसके अस्तित्व की अखंडता को सुरक्षित रखती है। अर्थात अस्तित्व की एकता का मापदंड क्या है?


दर्शन शास्त्र के एक प्रसिद्ध सिद्धान्त के अनुसार हर प्राकृतिक अस्तित्व में एकता का मापदंड प्रवृत्ति व प्रारूप नामक एक वस्तु होती है जिसे जो न तो मिश्रित होती है और न ही उसका आभास किया जा सकता है और इस वस्तु में पदार्थ में परिवर्तन के साथ बदलाव नहीं आता विषय को सरल बनाने के लिए हम उसे आत्मा का नाम दे सकते हैं।


इस संदर्भ में हमारी चर्चा चूंकि मनुष्य के बारे में इस लिए वनस्पति और पशु आत्मा या उस की जैसी वस्तु पर चर्चा को छोड़ते हुए केवल मानव आत्मा की पर संक्षिप्त सी वार्ता करेंगे जो वास्तव में क़यामत और हिसाब किताब के दिन में समझने के लिए आवश्यक है।


मनुष्य, की रचना आत्मा व शरीर से हुई है शरीर पदार्थ है इस लिए नश्वर है किंतु आत्मा पदार्थ नहीं है इस लिए उसका अंत नहीं होता तो इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि हर प्राणी में एकता व अखंडता का मापदंड आत्मा होती है। अस्तित्व व आत्मा के मध्य संबंध बल्कि आत्मा के अस्तित्व की बात भौतिकतवादी विचारधारा में स्वीकार नहीं की जाती बल्कि नवीन भौतिकवादी हर उस वस्तु का इन्कार करते हैं जिसका किसी साधन से आभास न किया जा सके किंतु यदि एसे विचार रखने वालों से मनुष्य के अस्तित्व में एकता के मापदंड के बारे में प्रश्न किया जाए तो उनके पास इसका उत्तर नहीं होता है।
मनुष्य की आत्मा चूंकि निराकार होती है इस लिए शरीर के नष्ट होने के बाद भी बाक़ी रह सकती है और जब उसका शरीर से पुनः संपर्क स्थापित हो तो वह एक एकता व प्रवृत्ति को सुरक्षित रख सकती है जैसा कि उसने मृत्यु से पूर्व मनुष्य की प्रवृत्ति को एक रखा है अर्थात जिस प्रकार से जीवन के समय यद्यपि मनुष्य के शरीर की कोशिकाएं बदलती रहती हैं किंतु उसे भिन्न मनुष्य नहीं कहा जाता क्योंकि उसका शरीर धीरे धीरे और चरणों में भले ही बदल जाता है किंतु चूंकि उसकी आत्मा एक ही रहती है इस लिए वह मरते दम तक अपनी पहचान पर बाक़ी रहता है।


क़यामत या हिसाब किताब के दिन क्या होगा और कैसे हिसाब लिया जाएगा अथवा दंड या पारितोषिक दिया जाएगा इन सब बातों को सही रूप से समझने के लिए इस बात का विश्वास आवश्यक है कि आत्मा भौतिक नहीं होती और न ही भौतिक शरीर की भांति नष्ट होती है क्योंकि यह यह मान लिया जाए कि आत्मा शरीर की भांति भौतिक होती है और शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाती है तो फिर क़यामत और हिसाब किताब के दिन की कल्पना अत्याधिक कठिन बल्कि अंसभव हो जाएगी।


इस प्रकार से हमारी आज की चर्चा का निष्कर्ष जो वास्तव में क़यामत के बारे में व्यापक चर्चा की भूमिका है, यह निकला कि मृत्यु के बाद एक नये जीवन की कल्पना उसी समय संभव है जब आत्मा को शरीर और उसकी विशेषताओं से भिन्न माना जाए बल्कि यह भी न माना जाए कि आत्मा शरीर में समा जाने वाले एक भौतिक वस्तु है कि जो शरीर के नष्ट होते ही नष्ट हो जाएगी इस प्रकार से सब से पहले से आत्मा को स्वीकार करना होगा और फिर उसे भौतिक विशेषताओं से दूर तथा तूल तत्व माना चाहिए न की शरीर की विशेषता। अर्थात आत्मा को एक भिन्न अस्तित्व समझा जाना चाहिए जिसका संपर्क शरीर से होता है किंतु वह शरीर का अंश नहीं होती बल्कि स्वंय उसका अपना अस्तित्व होता है और उसका शरीर से संपर्क होता है किंतु यहां पर प्रश्न यह उठता है कि यदि आत्मा अलग अस्तित्व है और शरीर का भाग या शरीर में समायी हुई नहीं है तो फिर शरीर में उसकी स्थिति क्या है?


इस प्रश्न के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि शरीर व आत्मा से मेल जो शरीर की रचना इस प्रकार नहीं है जैसे जल आक्सीजन व हाइड्रोजन से मिल कर बना होता है क्योंकि यदि आक्सीजन और हाइड्रोजन एक दूसरे से अलग हो जाएं तो जल नामक वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है किंतु आत्मा और शरीर का मेल एसा नहीं है अर्थात एसा नहीं है कि जब शरीर और आत्मा का मेल समाप्त हो जाए तो मनुष्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है बल्कि मनुष्य नामक अस्तित्व का मूल तत्व वास्तव में आत्मा है और जब तक आत्मा रहती है मनुष्य की मनुष्यता और उसका व्यक्तित्व अपनी समस्त विशेषताओं के साथ रहता है और शरीर का स्थान वस्त्र की भांति होता है और यही कारण है कि शरीर की कोशिकाओं में बदलाव से मनुष्य की पहचान व व्यक्तिव में बदलाव नहीं आता ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वस्त्र बदलने से मनुष्य की पहचान नहीं बदलती किंतु इस पूरी चर्चा का आधार यह है कि हम आत्मा को भौतिक न माने किंतु प्रश्न यह है कि हम आत्मा को भौतिक क्यों न माने? 


 क़यामत या हिसाब किताब के दिन पर विश्वास के लिए यह विश्वास आवश्यक है कि आत्मा और शरीर का मिलाप, विशेष दशा में होता है और दोनों की विशेषताएं अलग अलग होती हैं।


 मनुष्य के शरीर की कोशिकाओं में बदलाव से उसका व्यक्ति नहीं बदलता क्योंकि मनुष्य के व्यक्तिव की रचना का मूल तत्व आत्मा है शरीर नहीं।


 प्रलय पर विश्वास के लिए यह मानना आवश्यक है कि आत्मा भौतिक नहीं होती और न ही शरीर के साथ नष्ट होती है।

सूरए माएदा; 5 :आयतें 1-6- खाना और वजू

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सूरए माएदा क़ुरआने मजीद का पांचवां सूरा है जो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की आयु के अन्तिम दिनों में उतरा है। इस सूरे की 114वीं आयत में हज़रत ईसा मसीह की दुआ में प्रयोग होने वाले शब्द माएदतम मिनस्समाए के कारण ही इस सूरे का नाम माएदा रखा गया है। माएदा का अर्थ होता है दस्तरख़ान।

सूरए माएदा की पहली आयत|

ईश्वर के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। हे ईमान वालो! अपने वादों और मामलों पर कटिबद्ध रहो, यद्यपि तुम्हारे लिए सभी चौपाए हलाल या वैध कर दिये गए हैं सिवाए उनके जिनका तुम्हारे लिए वर्णन किया जाएगा, परन्तु जब तुम एहराम की स्थिति में हो तो शिकार को वैध न समझ लेना, निःसन्देह ईश्वर जो चाहता है आदेश देता है। (5:1)

चूंकि यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की हज यात्रा से पूर्व उतरी है अतः इसमें मुसलमानों को हज के कुछ आदेश बताए गए हैं। इस आयत में हज के विशेष वस्त्र में शिकार को अवैध घोषित करने के आदेश की ओर संकेत किया गया है, परन्तु इस आयत के आरंभ में जो मुख्य व महत्वपूर्ण बात है कि जो वस्तुतः इस सूरे के आरंभ में भी आई है, वह वादों का पालन है और चूंकि यह शब्द बहुवचन के रूप में आया है, इसलिए इसमें सभी प्रकार के वादे और वचन शामिल हैं। चाहे शाब्दिक वादा हो या लिखित समझौता, कमज़ोर व्यक्ति से हो या बलवान से, मित्र से हो या शत्रु से, चाहे ईश्वर के साथ धार्मिक प्रतिज्ञा हो या लोगों के साथ आर्थिक मामला, चाहे पारिवारिक वचन हो या फिर सामाजिक वादा।
अन्य धार्मिक आदेशों के अनुसार अनेकेश्वरवादियों और खुल्लम-खुल्ला पाप करने वालों से किये गए समझौतों का पालन भी आवश्यक है, सिवाए इसके कि वे समझौतों का उल्लंघन कर दें कि ऐसी स्थिति में समझौते का पालन आवश्यक नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि मुसलमान को अपने सभी वादों और समझौतों का पालन करना चाहिए। यह ईश्वर पर ईमान की शर्त है।
मक्के में और हज के दिनों में न केवल हाजी बल्कि पशु भी ईश्वर की रक्षा और अमान में होते हैं और उनका शिकार अवैध है।

अब सूरए माएदा की दूसरी आयत | 

हे ईमान वालो! ईश्वर की निशानियों, हराम महीनों, क़ुरबानी के जानवरों, जिन जानवरों के गले में (निशानी के रूप में) पट्टे बांध दिये गए हैं, ईश्वर का अनुग्रह और प्रसन्नता प्राप्त करने के उद्देश्य से ईश्वर के घर अर्थात काबे की ओर जाने वालों का अनादर न करो और जब तुम एहराम (की स्थिति) से बाहर आ जाओ तो शिकार कर सकते हो। (हे ईमान वालों) ऐसा न हो कि एक गुट की शत्रुता, केवल इस बात पर कि उसने तुम्हें मक्के में जाने से रोक दिया है, तुम्हें अत्याचार करने पर उकसा दे। (हे ईमान वालो!) भले कर्मों और ईश्वर से भय में एक दूसरे से सहयोग करो और कदापि पाप तथा अत्याचार में दूसरों से सहयोग न करो और ईश्वर से डरते रहो, निःसन्देह, ईश्वर अत्यंत कड़ा दण्ड देने वाला है। (5:2)


पिछली आयत में हज के कुछ आदेशों के वर्णन के पश्चात यह आयत कहती है कि जो बात और वस्तु हज से संबंधित है उसका विशेष सम्मान है और उसके सम्मान की रक्षा करनी चाहिए। क़ुरबानी के जानवर, पवित्र स्थल, हज का समय जो युद्ध के लिए वर्णित महीनों में से है, और स्वयं हाजी जो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए हज करने आता है, यह सब के सब सम्मानीय हैं और इनका आदर करना चाहिए।


आगे चलकर आयत छठी शताब्दी हिजरी की एक ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत करती है जब मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के साथ हज करने के लिए मदीने से मक्के आए थे परन्तु अनेकेश्वरवादियों ने उन्हें मक्के में प्रवेश नहीं करने दिया। दोनों पक्षों ने युद्ध से बचने के लिए "हुदैबिया"नामक स्थान पर एक संधि पर हस्ताक्षर किये, परन्तु मक्के पर विजय के पश्चात कुछ मुसलमानों ने प्रतिशोध लेने का प्रयास किया। उन्हें इस काम से रोकते हुए आयत कहती है कि प्रतिशोध लेने और अत्याचार करने के बजाए एक दूसरे से सहयोग करके उन्हें भी ईश्वर की ओर बुलाने तथा भले कर्म का निमंत्रण देने का प्रयास करो तथा समाज में भलाई के विकास का मार्ग प्रशस्त करो, न यह कि उनपर अतिक्रमण और अत्याचार के लिए एकजुट हो जाओ और पुरानी शत्रुताओं तथा द्वेषों को फिर से जीवित करो।


यद्यपि सहयोग का विषय इस आयत में हज के संबंध में आया है परन्तु यह केवल हज से ही विशेष नहीं है। सहयोग, इस्लाम के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है जिसमें सभी प्रकार के मामले शामिल हैं जैसे समाजिक, पारिवारिक और राजनैतिक। इस सिद्धांत के आधार पर मुस्लिम समुदाय के बीच सहयोग का आधार केवल भले कर्म हैं न कि अत्याचार, पाप और अतिक्रमण। यह अधिकांश समाजों के संस्कारों के विपरीत हैं जिनके अन्तर्गत अपने भाई, मित्र और देशवासी का समर्थन करना चाहिए। चाहे वह अत्याचारी हो या अत्याचारग्रस्त।
इस आयत से हमने सीखा कि जिस चीज़ में भी ईश्वरीय रंग आ जाए वह पवित्र व पावन हो जाती है और उसका सम्मान करना चाहिए, चाहे वह क़ुरबानी का जानवर ही क्यों न हो।
किसी समय में दूसरों की शत्रुता, किसी दूसरे समय में हमारे अत्याचार और अतिक्रमण का औचित्य नहीं बनती।
सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के संबंध में निर्णय लेने का आधार न्याय, भलाई और पवित्रता होना चाहिए न कि जाति, मूल और भाषा का समर्थन।

अब सूरए माएदा की तीसरी आयत

तुम्हारे लिए मरा हुआ जानवर, रक्त, सुअर का मांस, वह जानवर जिसे अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के नाम पर ज़िबह किया गया हो, वह जानवर जो गला घुटकर, ऊंचाई से गिरकर, चोट खाकर या सींग लगने से मरा हो या जिसे किसी हिंसक पशु ने फाड़ खाया हो हराम व वर्जित कर दिया गया। सिवाए इसके कि तुम उसे जीवित पाकर स्वयं ज़िबह कर लो। इसी प्रकार वह जानवर जिसे पत्थरों के सामने भेंट चढ़ाया जाए और वह जिसे जुए के लिए बांटा गया हो, तुम्हारे लिए हराम है तथा ईश्वर की अवज्ञा का कारण है। (हे ईमान वालो!) आज काफ़िर तुम्हारे धर्म की ओर से निराश हो गए हैं तो उनसे भयभीत न हो बल्कि केवल मुझसे डरते रहो। आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी अनुकंपा पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को एक धर्म के रूप में पसंद किया, तो जो कोई (भूख से) विवश हो जाए और पाप की ओर आकृष्ट न हो तो (वह इन वर्जित वस्तुओं में से खा सकता है) निःस्नदेह, ईश्वर अत्यन्त क्षमाशील और दयावान है। (5:3)


अभी जिस आयत की तिलावत की गई उसमें पूर्णतः दो भिन्न विषयों का वर्णन किया गया है। आयत के पहले भाग में पिछली आयतों की बहस को जारी रखते हुए खाने की हराम अर्थात वर्जित वस्तुओं का उल्लेख है। इसमें दस प्रकार के हराम मांसों का वर्णन है जिनमें से कुछ वे जानवर हैं जो प्राकृतिक रूप से या किसी घटनावश मर गए हैं और चूंकि उन्हें ज़िबह नहीं किया गया है अतः उनका मांस खाना हराम है। कुछ दूसरों का मांस हलाल होने और उनके ज़िबह होने के बावजूद, उन्हें नहीं खाया जा सकता क्योंकि उन्हें अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के नाम पर ज़िबह किया गया है।

इससे पता चलता है कि ईश्वर द्वारा निर्धारित हलाल या हराम अर्थात वैध या वर्जित केवल मानव शरीर के लाभ या हानि पर आधारित नहीं है वरना उस जानवर के मांस में कोई अंतर नहीं है जो ईश्वर के नाम पर ज़िबह हो या किसी अन्य के नाम पर। परन्तु यह बात मनुष्य की आत्मा और उसके मानस पर अवश्य ही ऐसा प्रभाव डालती है कि ईश्वर ने ऐसे जानवरों का मांस खाने से रोका है।
अलबत्ता जैसा कि ईश्वर ने क़ुरआने मजीद की कुछ अन्य आयतों में संकेत किया है कि जब मनुष्य विवश हो जाए तो मरने से बचने के लिए आवश्यकता भर वर्जित वस्तु खाना वैध है। परन्तु इसकी शर्त यह है कि मनुष्य ने पाप करने के लिए स्वयं इस विवशता की भूमिका न बनाई हो।


जैसाकि हमने कहा कि इस आयत के दो भाग हैं। पहला भाग उन बातों पर आधारित था जिनका हमने अभी वर्णन किया। इस आयत का दूसरा भाग मुसलमानों के इतिहास के एक महान और निर्णायक दिन का परिचय करवाता है। वह दिन जब क़ुरआन के शब्दों में, मुसलमानों पर वर्चस्व की ओर से काफ़िर निराश हो गए, वह दिन जब इस्लाम अपनी परिपूर्णता को पहुंचा और ईश्वर ने ईमान वालों पर अपनी अनुकंपाएं पूरी कर दीं।
यह कौन सा दिन है? इस्लामी इतिहास या पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के जीवन का वह कौन सा दिन है जिसमें ऐसी विशेषता पाई जाती है? क्या पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पैग़म्बर घोषित होने का दिन, अपने पूरे महत्व के साथ, धर्म की परिपूर्णता का दिन है? या मक्के से मदीने की ओर पैग़म्बर की हिजरत का दिन यह विशेषताएं रखता है?
इन प्रश्नों के उत्तर के लिए हमें यह देखना होगा कि यह आयत कब उतरी है ताकि पता चल सके कि आयत में किस दिन की ओर संकेत किया गया है। क़ुरआन के सभी व्याख्याकारों का मानना है कि यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के अन्तिम हज की यात्रा के दौरान और उनकी आयु के अन्तिम दिनों में उतरी है। एक गुट का यह मानना है कि उक्त आयत ९ ज़िलहिज्जा को उतरी जबकि अधिकांश लोगों का कहना है कि यह आयत १८ ज़िलहिज को ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर उतरी।


विख्यात इतिहासकारों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ग़दीरे ख़ुम के स्थान पर हाजियों के सामने एक विस्तृत ख़ुतबा दिया और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातें बयान कीं। इन बातों में सबसे महत्वपूर्ण विषय उनके उत्तराधिकार का था। इस अवसर पर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम को अपने हाथों पर उठाकर, जो ईमान और सभी युद्धों में पैग़म्बरे इस्लाम के साथ रहने की दृष्टि से, सभी ईमान वालों पर वरीयता रखते थे, लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि हे ईमान लाने वालो, जिस-जिस का मैं स्वामी हूं उसके ये अली स्वामी हैं।
इस महत्त्वपूर्ण घटना के पश्चात सूरए माएदा की इस आयत का यह भाग उतरा कि आज वे काफ़िर निराश हो गए जिन्हें यह आशा थी कि पैग़म्बर के स्वर्गवास के पश्चात मुसलमानों पर वे विजयी हो जाएंगे और इस्लाम को जड़ से समाप्त कर देंगे। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम का न तो कोई पुत्र है और न ही उन्होंने किसी को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित किया है। परन्तु इस आयत के उतरते ही काफ़िरों की आशा, निराशा में परिवर्तित हो गई।
दूसरी ओर ईश्वरीय आदेशों और क़ानूनों का संग्रह धर्म, किसी ईश्वरीय व न्यायप्रेमी नेता के बिना अधूरा था। पैग़म्बर के पश्चात के नेता के निर्धारण के पश्चात धर्म भी पूर्ण हो गया और ईश्वर ने पैग़म्बर तथा क़ुरआन के आने के पश्चात लोगों को मार्गदर्शन की जो अनुकंपा दी थी उसे ही हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तरदायी निर्धारित करके पूरा कर दिया। इस प्रकार यह धर्म ईश्वर की पसंद का पात्र बना।
इस आयत से हमें अनेक पाठ मिलते हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं। न्यायप्रेमी और ईश्वरीय नेता का अस्तित्व इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसके बिना धर्म पूरा नहीं है क्योंकि नेतृत्व के बिना सारी अनुकंपाएं और शक्तियां बेकार रहती हैं।
इस्लाम का जीवन और उसकी सुदृढ़ता सही नेतृत्व अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पश्चात बारह इमामों की इमामत स्वीकार करने में निहित है। इन इमामों में पहले इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम हैं और अन्तिम, इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम हैं जो हमारी आंखों से ओझल हैं।



सूरए माएदा की चौथी आयत ।


(हे पैग़म्बर!) यह आपसे पूछते हैं कि इनके लिए क्या हलाल अर्थात वैध किया गया है? कह दीजिए कि तुम्हारे लिए सारी हलाल चीज़ें वैध की गई हैं और जो कुछ तुम्हें ईश्वर ने सिखाया है उसके आधार पर तुम शिकारी कुत्तों को शिकार का प्रशिक्षण देते हो तो वे जो शिकार तुम्हारे लिए पकड़ें उन्हें खा लो और उस (शिकार) पर अल्लाह का नाम लो और ईश्वर से डरते रहो, निःसन्देह, ईश्वर बहुत ही जल्दी हिसाब करने वाला है। (5:4)

आपको अवश्य ही याद होगा कि सूरए माएदा की पिछली आयत में खाने-पीने की हराम अर्थात वर्जित वस्तुओं का उल्लेख किया गया था। यह आयत कहती है कि पिछली आयत में हमने जिन जानवरों का उल्लेख किया उसके अतिरिक्त हर जानवर का मांस तुम्हारे लिए वैध है चाहे तुम स्वयं उन्हें पकड़कर ज़िबह करो या तुम्हारे शिकारी कुत्ते उनका शिकार करके तुम्हारे पास ले आएं।
रोचक बात यह है कि इस आयत में ईश्वर शिकारी कुत्तों जैसे जानवरों के प्रशिक्षण के विषय की ओर संकेत करते हुए कहता है कि शिकार का यह तरीक़ा जो तुम जानवरों को सिखाते हो, वास्तव में ईश्वर ने तुम्हें सिखाया है, तुम इसे अपने आप नहीं सीख गए। यह ईश्वर ही है जिसने कुत्तों को तुम्हारे नियंत्रण में दिया ताकि जो कुछ तुम कहो वे करें और तुम्हारी सेवा में रहें।
इस आयत से हमने सीखा कि खाने-पीने की वस्तुओं में मूल सिद्धांत और नियम यह है कि जो कुछ पाक और पवित्र हो वह हलाल अर्थात वैध है सिवाए इसके कि स्पष्ट रूप से उसके वर्जित होने का उल्लेख किया गया हो।
खाने-पीने में ईश्वर के भय का ध्यान रखना चाहिए और हराम वस्तुओं से दूर रहना चाहिए क्योंकि ईश्वर हराम खाने वालों को बहुत जल्दी दण्ड देता है।


सूरए माएदा की 5वीं आयत ।

आज तुम्हारे लिए सारी पवित्र व पाक वस्तुएं हलाल कर दी गई हैं। इसी प्रकार आसमानी किताब वालों का भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है जिस प्रकार से कि तुम्हारा भोजन उनके लिए वैध है। इसी प्रकार ईमान वालों की पवित्र महिलाएं और उनकी पवित्र महिलाएं जिन्हें तुमसे पूर्व किताब दी गई है, तुम्हारे लिए हलाल हैं, शर्त यह है कि तुम उन्हें उनका मेहर दे दो और स्वयं तुम भी पवित्र रहो, न कि व्यभिचारी रहो और न अवैध रूप से गुप्त संबंध स्थापित करो। और आज जो कोई भी ईमान लाने से इन्कार करे तो निःसन्देह उसके सारे कर्म अकारत हो गए और प्रलय में वह घाटा उठाने वालों में से होगा। (5:5)
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इस आयत में आसमानी किताब रखने वालों के संबंध में दो विषयों का विर्णन है। पहला उनका भोजन खाने के संबंध में और दूसरा उनकी महिलाओं के साथ निकाह के बारे में। आसमानी पुस्तक वालों का भोजन खाने के संबंध में, उन आदेशों और शर्तों के दृष्टिगत जो पिछली आयतों में वर्णित हुए, यह बात स्पष्ट है कि उनके द्वारा बनाए गए मांसाहारी भोजन खाना ठीक नहीं है परन्तु उनके अन्य खानों को प्रयोग किया जा सकता है।
विवाह के बारे में भी जैसा कि आयत में कहा गया है, केवल उनकी महिलाएं अपने यहां विवाह करके लाई जा सकती हैं, अपनी महिलाएं उन्हें नहीं दी जा सकतीं। शायद इस कारण कि अपने नर्म स्वभाव के चलते अधिकतर महिलाएं अपने पतियों से प्रभावित रहती हैं और इस बात की प्रबल संभावना पाई जाती है कि मुस्लिम पति के साथ जीवन व्यतीत करके और इस्लाम के बारे में जानकारी प्राप्त करके वह उस पर ईमान ले आएं।
यह आयत इसी प्रकार से मुसलमानों को विवाह के लिए भी प्रोत्साहित करती है। आयत में यहां तक कहा गया है कि तुम्हें यदि कोई ईसाई लड़की पसंद है तो उससे गुप्त मित्रता या अवैध संबंधों के बजाए तुम उससे विवाह कर लो कि ईश्वर इस मार्ग को बेहतर समझता है। ऐसा न हो कि उसे प्राप्त करने के लिए तुम अपना धर्म और ईमान छोड़ दो।
इस आयत से हमने सीखा कि महिलाओं की पवित्रता चाहे वे जिस धर्म की हों मूल्यवान है जैसा कि पुरुषों के लिए भी पवित्रता और अवैध संबंधों से बचना आवश्यक है।
क़ुरआन की दृष्टि में जीवन साथी के चयन के दो मापदण्ड हैं। एक ईमान और दूसरे पवित्रता।

सूरए माएदा की छठी आयत ।

हे ईमान वालो! जब भी नमाज़ के लिए उठो तो अपने चेहरों को और हाथों को कोहनियों तक धोओ और अपने सिर के कुछ भाग और गट्टे तक पैरों का मसह करो और तुम यदि अपवित्र हो तो ग़ुस्ल अर्थात स्नान करो। और यदि तुम बीमार हो या यात्रा में हो या तुममें से किसी ने शौच किया हो या पत्नी के निकट गया हो और (वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए) पानी न पाओ तो पवित्र मिट्टी पर तयम्मुम कर लो, इस प्रकार से कि अपने चेहरे और हाथों का उस मिट्टी से मसह कर लो। (हे ईमान वालो!) ईश्वर तुम्हें कठिनाई में डालना नहीं चाहता बल्कि वह तुम्हें पवित्र और तुम पर अपनी अनुकंपाएं पूरी करना चाहता है कि शायद इस प्रकार से तुम उसके कृतज्ञ बंदे बन जाओ। (5:6)

पिछली आयतों में खाने-पीने की वैध व वर्जित वस्तुओं के वर्णन के पश्चात यह आयत कहती है कि तुम्हें उस ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए और नमाज़ पढ़नी चाहिए जिसने तुम्हें इतनी अधिक अनुकंपाएं दी हैं और तुम्हारी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की है परन्तु ईश्वर के समक्ष उपस्थित होने की शर्त, शरीर और आत्मा की पवित्रता है। नमाज़ से पूर्व वुज़ू करो अर्थात अपने चेहरे और हाथों को धो कर तथा सिर व पैरों का मसह करके शरीर को पाक करो और तुम यदि अपवित्र हो तो ग़ुस्ल अर्थात विशेष प्रकार का स्नान करो।
यह आयत आगे चलकर कहती है कि यद्यपि साधारण स्थिति में तुम्हें वुज़ू या ग़ुस्ल करना चाहिए परन्तु ईश्वर तुम्हें बंद गली में नहीं छोड़ता और जब कभी रोग अथवा यात्रा के कारण तुम्हें पानी न मिले या तुम्हारे लिए पानी हानिकारक हो तो पानी के स्थान पर पवित्र मिट्टी से तयम्मुम कर लिया करो और ईश्वर के भय के साथ नमाज़ पढ़ो। जान लो कि तुम मिट्टी से ही बाहर आए हो और मिटटी में ही लौट कर जाओगे।
इस आयत से हमने सीखा कि शरीर तथा आत्मा की अपवित्रता, ईश्वर से सामिप्य के मार्ग में बाधा है। पवित्रता ईश्वर की बंदगी में शामिल होने की शर्त है।
इस्लाम धर्म में कोई बंद गली नहीं है। धर्म के आदेशों से छूट हो सकती है किंतु उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता।
धर्म के आदेश प्रकृति से जुड़े हुए है। उदाहरण स्वरूप वुज़ू, ग़ुस्ल और तयम्मुम पानी और मिटटी से, नमाज़ का समय सूर्योदय तथा सूर्यास्त से और क़िब्ले की दिशा सूर्य एवं सितारों से जुड़ी हुई है।

सूरए माएदा; 5 :आयतें 7-40-आदम और मूसा का वाक्या

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माएदा की 7वीं आयत

और अपने ऊपर ईश्वर की अनुकंपा तथा प्रतिज्ञा को याद करो जिसका वह तुमसे वादा ले चुका है, जब तुमने कहा था कि हमने सुना और मान लिया। और ईश्वर से डरते रहो कि निःसन्देह, ईश्वर दिलों तक की बातें जानने वाला है। (5:7)


पिछली आयत में ईश्वर ने खाने-पीने के आदेशों, पारिवारिक समस्याओं तथा नमाज़ और उपवास के कुछ आदेशों का वर्णन किया था। इस आयत में वह कहता है कि यह ईश्वरीय मार्गदर्शन, तुम ईमान वालों पर उसकी सबसे बड़ी अनुकंपा है। तो तुम इसका मूल्य समझो और इस अनुकंपा को याद करते रहो।
आपको याद होगा कि इस सूरे की तीसरी आयत में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के रूप में उनके निर्धारण की घटना का वर्णन हुआ था जो धर्म की परिपूर्णता और अनुकंपा के संपूर्ण होने का कारण बना। यह आयत भी ईमानवालों को, ईश्वरीय नेतृत्व की महान अनुकंपा का मूल्य समझने का निमंत्रण देते हुए उन्हें सचेत करती है कि तुमने ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर अली इब्ने अबी तालिब की ख़िलाफ़त के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन सुना और स्वीकार किया था। ध्यान रहे कि इस ईश्वरीय प्रतिज्ञा पर तुम कटिबद्ध रहो और इसे न तोड़ो।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम व ईश्वरीय नेतृत्व की अनुकंपा सभी भौतिक अनुकंपाओं से बड़ी है और इस पर सदैव ध्यान रहना चाहिए।
ईश्वर ने बुद्धि, प्रवृत्ति और ज़बान द्वारा सभी मुसलमानों से यह प्रतिज्ञा ली है कि वे उसके आदेशों के पालन पर कटिबद्ध रहेंगे अतः इस मार्ग में की जाने वाली हर कमी, प्रतिज्ञा के उल्लंघन समान है।


आइए अब सूरए माएदा की 8वीं आयत

हे ईमान वालो! सदैव ईश्वर के लिए उठ खड़े होने वाले बनो और केवल (सत्य व) न्याय की गवाही दो और कदापि ऐसा न होने पाए कि किसी जाति की शत्रुता तुम्हें न्याय के मार्ग से विचलित कर दे। न्याय (पूर्ण व्यवहार) करो कि यही ईश्वर के भय के निकट है और ईश्वर से डरते रहो कि जो कुछ तुम करते हो निसन्देह, ईश्वर उससे अवगत है। (5:8)


आपको याद होगा कि इसी प्रकार की बातें सूरए निसा की १३५वीं आयत में भी वर्णित थीं। अलबत्ता उस आयत में ईश्वर ने कहा था कि न्याय के आधार पर गवाही दो चाहे वह तुम्हारे और तुम्हारे परिजनों के लिए हानिकारक ही क्यों न हो। इस आयत में वह कहता है कि तुम अपने शत्रुओं तक के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करो और सत्य तथा न्याय के मार्ग से विचलित न हो। कहीं ऐसा न हो कि द्वेष और शत्रुता तुम्हारे प्रतिरोध का कारण बन जाए और तुम अन्य लोगों के अधिकारों की अनदेखी कर दो। सामाजिक व्यवहार में चाहे वह मित्र के साथ हो या फिर शत्रु के साथ, ईश्वर को दृष्टिगत रखो और यह जान लो कि वह तुम्हारे सभी कर्मों से अवगत है और न्याय के आधार पर दण्ड या पारितोषिक देता है।
इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक न्याय केवल ईश्वर पर ईमान और उसके आदेशों के पालन की छाया में ही संभव है।
न्याय केवल एक शिष्टाचारिक मान्यता ही नहीं है बल्कि परिवार व समाज में तथा मित्र व शत्रु के साथ जीवन के सभी मामलों में एक ईश्वरीय आदेश है।
ईश्वर से भय के लिए जाति व वर्ण संबंधी सांप्रदायिकता से दूरी आवश्यक है और यही द्वेषों तथा शत्रुताओं का कारण बनती है।

आइए अब सूरए माएदा की 9वीं और 10वीं आयत

ईश्वर ने ईमान लाने और भले कर्म करने वालों से वादा किया है कि उनके लिए क्षमा और महान पारितोषिक होगा (5:9) और जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया और हमारी निशानियों को झुठलाया वे नरक (में जाने) वाले हैं। (5:10)


यह दो आयतें इस महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करती है कि ईश्वर के दण्ड और पारितोषिक का आधार, ईमान व कुफ़्र और अच्छे व बुरे कर्म हैं। ईश्वर किसी भी जाति या गुट का संबंधी नहीं है कि उसे स्वर्ग में ले जाए या उसके शत्रुओं को नरक में डाल दे।
पिछली आयत में अनेक बार ईश्वर से डरते रहने की सिफ़ारिश की गई। यह आयतें भी कहती हैं कि यदि तुम इन दो बातों का पालन करो तो तुम वास्तव में ईमान वाले हो और स्वर्ग में जाओगे, अन्यथा तुम भी काफ़िरों के साथ नरक में जाओगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि स्वर्ग और नरक, ईमान वालों तथा काफ़िरों से ईश्वर का वादा है, और उसके वादे अटल होते हैं।
भले कर्म, ग़लतियों की क्षतिपूर्ति और क्षमा का भी कारण है तथा ईश्वरीय पारितोषिक प्राप्त करने का भी।


आइए अब सूरए माएदा की 11वीं आयत

हे ईमान वालो! अपने ऊपर ईश्वर की उस अनुकंपा को याद करो जब (शत्रु के) एक समुदाय ने तुम्हारी ओर (अतिक्रमण का) हाथ बढ़ाने का इरादा किया तो ईश्वर ने उनके हाथों को तुम तक पहुंचने से रोक दिया। और ईश्वर से डरते रहो और (जान लो कि) ईमान वाले केवल ईश्वर पर ही भरोसा करते हैं। (5:11)


इस्लाम के इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जब शत्रु षड्यंत्रों, युद्धों और झड़पों द्वारा इस्लाम का नाम तक मिटा देना चाहता था परन्तु ईश्वर ने सदैव ही अपनी दया व कृपा से मुसलमानों की रक्षा की और शत्रुओं के षड्यंत्रों को विफल बना दिया।
यह आयत कहती है कि हे ईमान वालो! सदैव इन ईश्वरीय कृपाओं को याद रखो और जान लो कि इन कृपाओं और अनुकंपाओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का मार्ग ईश्वर से डरते रहना और पापों से बचना है कि जो इन गुप्त ईश्वरीय सहायताओं के जारी रहने का भी कारण है।
ईमान वालों को जानना चाहिए कि मानवीय शक्ति पर भरोसा करने और लोगों से डरने या उनके वादों से लोभ के बजाए केवल ईश्वर की अनंत शक्ति पर भरोसा करें और केवल उसी से डरें। इस स्थिति में उन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाएगी कि वे ईश्वर पर भरोसा करके लोगों की सभी झूठी शक्तियों के मुक़ाबले में खड़े हो सकेंगे।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर की कृपा और उसकी अनुकंपाओं की याद, मनुष्य से घमण्ड और निश्चेतना को दूर करके उसमें ईश्वर से प्रेम में वृद्धि कर देती है।

असंख्य शत्रुओं से मुसलमानों की रक्षा, ईश्वर की सबसे महत्वपूर्ण अनुकंपाओं में से है और ज़बान तथा कर्मों द्वारा इसके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए। (7)

 सूरए माएदा; आयतें 12-14

निसन्देह, ईश्वर ने बनी इस्राईल से पक्का वादा लिया था और हमने उनमें से बारह लोगों को सरदार तथा अभिभावक के रूप में भेजा। ईश्वर ने उनसे कहा कि निसन्देह, मैं तुम्हारे साथ हूं यदि तुमने नमाज़ क़ाएम की, ज़कात देते रहे, मेरे पैग़म्बरों पर ईमान लाए, उनकी सहायता की और ईश्वर को भला ऋण दिया तो मैं तुम्हारे पापों को छिपा लूंगा और तुम्हें ऐसे बाग़ों में प्रविष्ट करूंगा जिसके पेड़ों के नीचे से नहरें बह रही होंगी। फिर इसके बाद तुममें से जो कोई कुफ़्र अपनाए तो वह वास्तव में सीधे मार्ग से भटक गया है। (5:12)

यह आयत और इसके बाद की आयतें उन वचनों की ओर संकेत करते हुए जो ईश्वर ने अपने पैग़म्बरों के माध्यम से पिछली जातियों से लिए हैं, कहती हैं कि ईश्वर ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के अतिरिक्त, जो बनी इस्राईल के पैग़म्बर थे, इस जाति के बारह क़बीलों के लिए बारह लोगों को नेता और अभिभावक निर्धारित किया ताकि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के माध्यम से उन्हें जो ईश्वरीय आदेश प्राप्त हो, उन्हें अपने क़बीलों तक पहुंचाएं। उन वचनों में से एक यह था कि बनी इस्राईल के शत्रुओं के मुक़ाबले में उन्हें ईश्वरीय समर्थन तभी प्राप्त होगा जब वे धार्मिक आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करेंगे और उन पर कटिबद्ध रहेंगे।
ईश्वर की सहायता और समर्थन उसी को प्राप्त होता है जो ईश्वर और पैग़म्बर पर ईमान भी रखता हो और धार्मिक आदेशों का पालन भी करता हो। इस प्रकार के लोग संसार में ही ईश्वरीय कृपा के पात्र बनते हैं और प्रलय में भी स्वर्ग की महान अनुकंपाओं से लाभान्वित होंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के कुछ कथनों के अनुसार उनके उत्तराधिकारियों की संख्या भी बनी इस्राईल के सरदारों की संख्या के बराबर अर्थात बारह है, जिनमें सबसे पहले हज़रत अली अलैहिस्सलाम और अन्तिम इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि केवल ईमान ही पर्याप्त नहीं है बल्कि भला कर्म भी आवश्यक है। इसी प्रकार पैग़म्बरों पर केवल ईमान लाना ही काफ़ी नहीं है बल्कि उनकी व उनके धर्म की सहायता भी आवश्यक है।
ईश्वर के बंदों पर किसी भी प्रकार का उपकार, ईश्वर के साथ लेन-देन के समान है अतः ग़रीबों पर उपकार नहीं जताना चाहिए बल्कि बड़े ही अच्छे व्यवहार द्वारा उनकी आवश्यकता की पूर्ति करनी चाहिए।


आइए अब सूरए माएदा की 13वीं आयत

फिर उनके द्वारा वचन तोड़ने के कारण हमने उन्हें अपनी दया से दूर करके उन पर लानत अर्थात धिक्कार की और उनके हृदयों को कठोर बना दिया। वे ईश्वरीय शब्दों को उनके स्थान से हटा देते हैं और उन्होंने हमारी नसीहतों का अधिकांश भाग भुला दिया है। और तुम उनके षड्यंत्रों और विश्वासघात से निरंतर अवगत होते रहोगे सिवाए कुछ लोगों के (जो विश्वासघाती और कठोर दिल नहीं हैं) तो हे पैग़म्बर! उन्हें क्षमा कर दो और उनकी ग़लतियों को माफ़ कर दो कि निसन्देह, ईश्वर भले कर्म करने वालों को पसंद करता है। (5:13)

पिछली आयत में ईश्वरीय वचनों का उल्लेख करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि यहूदियों ने इन वचनों को तोड़ा और वे ईश्वरीय दया से दूर हो गए तथा परिणाम स्वरूप उनके हृदय सत्य स्वीकार करने से इन्कार करने लगे और धीरे-धीरे वे कठोर होते चले गए क्योंकि उन्होंने न केवल यह कि वचन तोड़ा बल्कि अपने ग़लत कार्यों का औचित्य दर्शाने के लिए ईश्वर की किताब में भी फेर-बदल कर दिया। यहां तक कि उसके कुछ भागों को काट कर उन्हें भुला दिया।
अंत में यह आयत कहती है कि न केवल हज़रत मूसा के काल में यहूदी ऐसे थे बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल में भी मदीना नगर के यहूदी भी सदैव ही ईमान वालों के विरुद्ध षड्यंत्र रचने और विश्वासघात करने का प्रयास करते रहते थे। उन्होंने अपनी यह पद्धति नहीं छोड़ी।
इस आयत से हमने सीखा कि पवित्र तथा साफ़ हृदयों में ही ईश्वरीय कथन को स्वीकार करने की योग्यता पाई जाती है, दूषित हृदय न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते बल्कि ईश्वरीय कथनों में फेर-बदल का प्रयास करते रहते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से बनी इस्राईल का समुदाय वचन तोड़ने वाला और विश्वासघाती समुदाय है।
दूसरों के प्रति सबसे अच्छी भलाई, उनकी ग़लतियों को क्षमा करना है।

आइए अब सूरए माएदा की 14वीं आयत


और इसी प्रकार हमने उनसे भी वचन लिया जिन्होंने स्वयं को (हज़रत ईसा का अनुयायी बताया) परन्तु उन्होंने भी (बनी इस्राईल की भांति वचन तोड़ दिया और उन्हीं की भांति ईश्वरीय किताब के) कुछ भागों को भुला दिया जिसका उन्हें स्मरण कराया गया था तो हमने भी प्रलय तक के लिए उनके बीच शत्रुता और द्वेष उत्पन्न कर दिया और ईश्वर शीघ्र ही उन्हें, उससे अवगत करवा देगा जो वे करते रहे हैं। (5:14)


पिछली आयतों में यहूदियों द्वारा ईश्वरीय वचनों के उल्लंघन की ओर संकेत करने के पश्चात, ईश्वर इस आयत में ईसाइयों द्वारा ईश्वरीय वचन तोड़े जाने की ओर संकेत करते हुए कहता है कि हमने उन लोगों से भी जो, स्वयं हज़रत ईसा मसीह का अनुयायी और समर्थक बताते थे, वचन लिया कि वे ईश्वरीय धर्म की सहायता पर कटिबद्ध रहेंगे परन्तु उन्होंने भी वचन तोड़ दिया और बनी इस्राईल के ही मार्ग पर चल पड़े तथा उन्होंने पवित्र ईश्वरीय किताब में परिवर्तन किया और कुछ भागों को काट दिया जिसके परिणाम स्वरूप उनके बीच एक प्रकार का द्वेष और शत्रुता उत्पन्न हो गई जो प्रलय तक जारी रहेगी।
ईसाई धर्म में परिवर्तन और हेर-फेर का सबसे स्पष्ट उदाहरण, तीन ईश्वरों पर आस्था रखना है जिसने एकेश्वरवाद का स्थान ले लिया है।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान का दावा करने वाले तो बहुत हैं पर धर्म के वास्तविक अनुयायी बहुत की कम हैं।
धार्मिक समाजों में मतभेद और विवाद का कारण, ईश्वर को भुला देना है। समाज की एकता वास्तविक एकेश्वरवाद पर निर्भर है।
अन्य धर्मों के अनुयाइयों द्वारा वचन तोड़ने के परिणामों से पाठ सीखना चाहिए और धार्मिक आदेशों के पालन के प्रति सदा कटिबद्ध रहना चाहिए।


सूरए माएदा; आयतें 15-17

हे आसमानी किताब वालो! निसंन्देह, हमारा पैग़म्बर तुम्हारी ओर आया ताकि आसमानी किताब की उन अनेक वास्तविकताओं का तुम्हारे लिए उल्लेख करे जिन्हें तुम छिपाते थे और वह अनेक बातों को क्षमा भी कर देता है। निसन्देह ईश्वर की ओर से तुम्हारे लिए नूर अर्थात प्रकाश और स्पष्ट करने वाली किताब आ चुकी है। (5:15)

पिछले कार्यक्रम में उन आयतों की व्याख्या की गई थी जिनमें यहूदियों और ईसाइयों के विद्वानों को संबोधित करते हुए कहा गया था कि तुम पवित्र ईश्वरीय किताब में क्यों हेर-फेर करते हो? या उसकी बातों को छिपाते हो? क्या तुम ईश्वरीय वचन को भूल गए हो?
यह आयत भी उन्हीं को संबोधित करते हुए कहती है कि तुम जो स्वयं आसमानी किताब वाले हो और ईश्वरीय निशानियों को पहचानते हो, क्यों नहीं पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लाते कि उनका अस्तित्व प्रकाश की भांति और उनकी किताब वास्तविकताओं को स्पष्ट करने वाली है, वही वास्तविकताएं जिन्हें तुमने पिछली आसमानी किताबों से छिपा रखा है और स्पष्ट नहीं होने देते।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम सार्वभौमिक और सर्वकालीन धर्म है और पिछले सभी धर्मों के अनुयाइयों को अपनी अनंत किताब क़ुरआन की ओर आमंत्रित करता है।
ईश्वरीय शिक्षाएं प्रकाश हैं और संसार उसके बिना अंधकारमय है।


आइए अब सूरए माएदा की 16वीं आयत

ईश्वर इस (प्रकाश और स्पष्ट करने वाली किताब) के माध्यम से, उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करने वालों को शांतिपूर्ण एवं सुरक्षित मार्गों की ओर ले जाता है और अपनी कृपा से उन्हें अंधकार से प्रकाश में लाता है और सीधे रास्ते की ओर उनका मार्गदर्शन करता है। (5:16)

पिछली आयत में क़ुरआने मजीद को वास्तविकताएं स्पष्ट करने वाली किताब बताने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि मार्गदर्शन स्वीकार करने की कुछ शर्तें हैं। इन शर्तों में सबसे महत्तवपूर्ण सत्य की खोज करना और उसे मानना है। क़ुरआने मजीद का मार्गदर्शन वही स्वीकार करेगा जो सांसारिक धन-दौलत और पद की प्राप्ति तथा आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत न हो बल्कि केवल सत्य का अनुसरण और ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करना चाहता हो।
यह शर्त यदि व्यवहारिक हो जाए तो फिर ईश्वर उसे पाप और पथभ्रष्टता के अंधकारों से निकालकर ईमान और शिष्ट कर्मों के प्रकाशमयी रास्ते की ओर उसका मार्गदर्शन करेगा। स्वभाविक है कि यह मार्गदर्शन हर ख़तरे में मनुष्य और उसके परिवार की आत्मा व विचारों की रक्षा करता है और प्रलय में भी मनुष्य को ईश्वर के शांतिपूर्ण स्वर्ग में सुरक्षित ले जाएगा।
इस आयत से हमने सीखा कि शांति एवं सुरक्षा तक पहुंचना ईश्वरीय मार्ग के अनुसरण पर निर्भर है और क़ुरआन इस मार्ग पर पहुंचने तथा अंतिम गंतव्य तक जाने का माध्यम है।
मनुष्य केवल आसमानी धर्मों की छत्रछाया में ही एक दूसरे के साथ शांतिपूर्ण ढंग और प्रेम के साथ रह सकता है।
मनुष्य को ईश्वर तक पहुंचाने वाले कार्य विभिन्न हैं। भला कर्म हर काल में सभी लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है परन्तु लक्ष्य यदि ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति हो तो सब एक ही मार्ग पर जाकर मिलते हैं और वह सेराते मुस्तक़ीम का सीधा मार्ग है।
आइए अब सूरए माएदा की 17वीं आयत.

निसन्देह वे लोग काफ़िर हो गए जिन्होंने कहा कि मरयम के पुत्र (ईसा) मसीह ही ईश्वर हैं। (हे पैग़म्बर! उनसे) कह दीजिए कि यदि ईश्वर, मरयम के पुत्र मसीह, उनकी माता और जो कोई धरती पर है उसकी मृत्यु का इरादा कर ले तो कौन उन्हें ईश्वरीय इरादे से बचाने वाला है? और (जान लो कि) आकाशों, धरती और जो कुछ इन दोनों के बीच है सब पर ईश्वर ही का शासन है। वह जिसे चाहता है पैदा करता है और ईश्वर हर बात की क्षमता रखने वाला है। (5:17)

पिछली आयत में सभी आसमानी किताब वालों को इस्लाम का निमंत्रण देने के पश्चात यह आयत कहती है कि ईसाई, ईसा मसीह अलैहिस्सलाम को ईश्वर क्यों मानते हैं और क्यों उन्हें ईश्वर का समकक्ष ठहराते हैं? क्या ईसा मसीह ने हज़रत मरयम की कोख से जन्म नहीं लिया? तो फिर वे किस प्रकार ईश्वर हो सकते हैं? क्या उनकी माता हज़रत मरयम ने अन्य लोगों की भांति जन्म नहीं लिया? तो फिर किस प्रकार उन्हें भी एक ईश्वर माना जाता है? क्या ईश्वर हज़रत ईसा मसीह और उनकी माता हज़रत मरयम को मृत्यु देने में सकक्षम नहीं है? तो फिर यह दोनों कैसे ईश्वर हैं जिन्हें मृत्यु आ सकती है?
यदि गंभीरता के साथ इस प्रकार की आस्था की समीक्षा की जाए तो यह पता चलेगा कि यह एक प्रकार से ईश्वर का इन्कार है क्योंकि ईश्वर के स्तर पर किसी भी मनुष्य को ले आना वास्तव में ईश्वर के स्थान को एक मनुष्य की सीमा तक नीचे लाने के समान है।
यह आयत अंत में कहती है कि ईश्वर होने के लिए संपूर्ण व असीमित ज्ञान, शक्ति और सत्ता का होना आवश्यक है। हज़रत ईसा मसीह और उनकी माता में यह बातें नहीं थीं। रचयिता केवल ईश्वर ही है जो हर वस्तु का स्वामी है तथा हर प्रकार की बात में सक्षम है। ईश्वर होने के योग्य केवल वही है।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम का एक लक्ष्य पिछले आसमानी धर्मों में पाई जाने वाली अनुचित एवं ग़लत आस्थाओं से मुक़ाबला करना है।
ईश्वरीय पैग़म्बर हर हाल में मनुष्य ही है, उसका स्थान चाहे कितना ही उच्च क्यों न हो। पैग़म्बर के बारे में अतिश्योक्ति, धर्मों की एकेश्वरवादी आत्मा से मेल नहीं खाती।
ईसा मसीह यदि ईश्वर हैं तो उनके शत्रु और विरोधी उन्हें सूली पर चढ़ाने में कैसे सफल हो गए? क्या बंदे ईश्वर पर आक्रमण कर सकते हैं?


सूरए माएदा; आयतें 18-22


और यहूदियों तथा इसाइयों ने कहा कि हम ईश्वर के पुत्र और उसके मित्र हैं। (हे पैग़म्बर उनसे) कह दो कि फिर ईश्वर तुम्हारे पापों के कारण तुम्हें क्यों दण्डित करता है? तुम भी ईश्वर द्वारा पैदा किये गए अन्य लोगों की भांति ही मनुष्य हो। यह ईश्वर है जो, जिसको चाहता है क्षमा कर देता है और जिसको चाहता है दण्डित कर करता है। और आकाशों और धरती तथा जो कुछ इन दोनों के बीच है सब पर ईश्वर का प्रभुत्व है और सभी को उसी की ओर लौटना है। (5:18)


पिछली आयतों में हमने पढ़ा कि ईसाई, हज़रत ईसा मसीह को मनुष्य के स्तर से बढ़ाकर ईश्वर मानते हैं। यह आयत कहती है कि ईसाई न केवल अपने पैग़म्बर को अन्य पैग़म्बरों से उच्च मानते थे बल्कि वे स्वयं को भी अन्य धर्मों के अनुयाइयों से बेहतर और श्रेष्ठ समझते थे। उनका विचार था कि वे ईश्वर के पुत्रों और मित्रों की भांति हैं जिन्हें कोई दण्ड नहीं दिया जाएगा।
रोचक बात यह है कि यहूदी भी ऐसी ही ग़लत धारणा रखते हैं और वे केवल स्वयं को मुक्ति और मोक्ष का पात्र समझते हैं। उनकी इस ग़लत धारणा के उत्तर में क़ुरआन कहता है कि जब हज़रत ईसा मसीह भी अन्य लोगों की भांति एक मनुष्य थे और तुम उनके अनुयायी भी दूसरों के समान हो। किसी को किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है, सिवाए ईश्वर के भय और भले कर्म के। प्रलय में भी मनुष्य की मुक्ति का एकमात्र साधन भला कर्म होगा न कि उसका संबंध।
इस आयत से हमने सीखा कि जातिवाद और विशिष्टता प्रेम, धर्म और ईमान के नाम पर भी सही नहीं है।
धार्मिक अहं, वह ख़तरा है जो सदैव ही धर्मों के अनुयाइयों को लगा रहा है। धार्मिकता के कारण स्वयं को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझकर घमण्ड और अहं में नहीं फंसना चाहिए।
स्वर्ग और नरक का बंटवारा हमारे हाथ में नहीं है कि हम स्वयं को स्वर्ग वाला और दूसरों को नरक वाला समझें। यह कार्य तो ईश्वर का है जो न्याय और तत्वदर्शिता के आधार पर जिस पापी को चाहेगा दण्डित करेगा और जिसको चाहेगा क्षमा कर देगा।


आइए अब सूरए माएदा की 19वीं आयत

हे आसमानी किताब वालो! पैग़म्बर उस समय तुम्हारे पास आए जब दूसरे पैग़म्बर नहीं थे, ताकि तुम्हारे लिए (धार्मिक वास्तविकताओं का) वर्णन करें ताकि कहीं ऐसा न हो कि तुम प्रलय के दिन यह कह दो कि हमें कोई शुभ सूचना देने और डराने वाला नहीं आया तो निसन्देह तुम्हारे पास शुभ सूचना देने और डराने वाला आया और ईश्वर हर बात में सक्षम है। (5:19)

ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का शुभ जन्म सन ५७० ईसवी में हुआ और सन ६१० में उनकी पैग़म्बरी की घोषणा की गई। इस हिसाब से हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बीच लगभग छः सौ वर्षों का अंतर है। इस बीच कोई भी पैग़म्बर नहीं आया परन्तु धरती, ईश्वरीय प्रतिनिधियों से ख़ाली नहीं रही और सदैव प्रचार करने वाले लोगों को ईश्वरीय धर्म के बारे में बताते रहे।
यह आयत यहूदियों और ईसाइयों को संबोधित करते हुए कहती है कि ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को तुम्हारी ओर भेजा और चूंकि तुम्हारे पास पहले भी पैग़म्बर आ चुके थे अतः तुम्हें दूसरों से पहले उन पर ईमान लाना चाहिए था और उनके धर्म को स्वीकार करना चाहिए था।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों के आगमन ने मनुष्य के लिए बहानों का मार्ग बंद कर दिया है और वह नहीं कह सकता कि मैं नहीं जानता था या मैं नहीं समझता था।
पैग़म्बरों का दायित्व अच्छे कर्मों के प्रति पारितोषिक की शुभ सूचना देना और बुराइयों तथा पापों के प्रति कड़े दण्ड की ओर से लोगों को डराना है।
आइए अब सूरए माएदा की 20वीं आयत

और (याद करो) उस समय को जब मूसा ने अपनी जाति से कहा था कि हे मेरी जाति (वालो!) अपने ऊपर ईश्वर की अनुकंपाओं को याद करो कि उसने तुम्हारे बीच पैग़म्बर भेजे और तुम्हें (धरती का) शासक बनाया और उसने तुम्हें (शासन और) ऐसी वस्तुएं प्रदान कीं जो उसने संसार में किसी को भी नहीं दी थीं। (5:20)

इस आयत में और इसके बाद आने वाली आयतों में ईश्वर, बनी इस्राईल के साथ हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की बातों का वर्णन करता है जिनका आरंभ उन विशेष अनुकंपाओं की याद है जो ईश्वर ने बनी इस्राईल को दी थीं। इन अनुकंपाओं में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम जैसे पैग़म्बरों का बनी इस्राईल में आगमन है जिन्हें शासन प्राप्त हुआ और वे बनी इस्राईल के सम्मान, शक्ति और वैभव का कारण बने परन्तु बनी इस्राईल ने इन अनुकंपाओं की उपेक्षा की और परिणाम स्वरूप उन पर फ़िरऔन जैसा अत्याचारी शासक, शासन करने लगा तथा वे लोग उसके दास बन गए।
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम उस उज्जवल अतीत की याद दिलाकर बनी इस्राईल को प्रयास करने के लिए प्रेरित करते थे ताकि वे अपनी पुरानी सत्ता को प्राप्त कर लें और सुस्ती तथा आलस्य से बाहर आ जाएं।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरी, सत्ता और स्वतंत्रता की अनुकंपा ईश्वर की महानतम अनुकंपाओं में से है और हमें इसका महत्त्व समझना चाहिए और कृतज्ञ रहना चाहिए।
इतिहास से पाठ सीखना चाहिए। ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभान्वित होने और सत्ता प्राप्त करने के बावजूद बनी इस्राईल अपमान, लज्जा और दरिद्रता में घिर गए।

आइए अब सूरए माएदा की 21वीं और 22वीं आयत

(हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने उनसे कहा) हे मेरी जाति (वालो!) पवित्र धरती में प्रवेश करो जिसे ईश्वर ने तुम्हारे लिए निर्धारित किया है और पीछे न हटो कि तुम घाटा उठाने वालों में से हो जाओगे। (5:21) बनी इस्राईल ने उत्तर में कहा, हे मूसा! उस धरती पर अत्याचारी गुट है हम उस (धरती) में कदापि प्रवेश नहीं करेंगे सिवाए इसके कि वह गुट उस धरती से निकल जाए। तो यदि वह निकल गया तो हम निसन्देह, प्रविष्ट हो जाएंगे।(5:22)

हज़रत मूसा अलैहिस्लाम ने बनी इस्राईल से कहा कि वह जेहाद और प्रयास द्वारा तत्कालीन सीरिया और बैतुलमुक़द्दस में प्रवेश करें और वहां के अत्याचारी शासकों के सामने डट जाएं परन्तु वे लोग जो वर्षों तक फ़िरऔन के शासन में जीवन व्यतीत कर चुके थे, इतने डरपोक हो गए थे कि कहने लगे कि हम यह काम नहीं कर सकते। हममें संघर्ष की शक्ति नहीं है। वे लोग यदि स्वयं ही उस धरती से निकल जाएं और उसे हमारे हवाले कर दें तो हम उसमें प्रवेश करेंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय धर्मों के अनुयाइयों को पवित्र धार्मिक स्थानों को अत्याचारियों के चुंगल से छुड़ाना चाहिए।
शत्रु के साथ मुक़ाबले में पराजय का कारण अपने दुर्बल होने का आभास है और पैग़म्बरों ने इस आभास को समाप्त करने के लिए संघर्ष किया है।

सूरए माएदा; आयत 23-26
ईश्वर का भय रखने वाले दो लोगों ने, जिन्हें ईश्वर ने (ईमान और साहस की) विभूति प्रदान की थी, कहा। नगर के द्वार से शत्रु के यहां घुस जाओ, और यदि तुम प्रविष्ट हो गए तो निसन्देह, तुम्हीं विजयी होगे और केवल ईश्वर पर ही भरोसा रखो यदि तुम ईमान वाले हो। (5:23)


श्रोताओ आपको अवश्य ही याद होगा कि पिछले कार्यक्रम मे हमने कहा था कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल से कहा था कि वे लोग अत्याचारियों से संघर्ष करें और अपने नगर को मुक्त कराएं परन्तु वे लोग जेहाद और संघर्ष के लिए तैयार नहीं हुए और कहने लगे कि हम लोग शहर में प्रविष्ट नहीं होंगे जब तक कि वे स्वयं ही वहां से निकल न जाएं।
यह आयत कहती है कि यहूदी जाति के दो लोगों ने जिनका नाम तौरेत में यूशा और क़ालिब वर्णित है, बनी इस्राईल से कहा था कि शत्रु से नहीं बल्कि ईश्वर से डरो और उसी पर भरोसा करो, इसी नगर के द्वार से प्रविष्ट हो जाओ और अचानक ही शत्रु पर आक्रमण कर दो। निश्चिंत रहो कि तुम ही विजयी होगे अलबत्ता यदि अपने ईमान पर डटे रहो और ईश्वर की ओर से निश्चेत न हो ।
इस आयत से हमने सीखा कि जो ईश्वर से डरता है वह अन्य शक्तियों से भयभीत नहीं होगा। ईश्वर पर ईमान, शक्ति तथा सम्मान और महानता का कारण है।
यदि हम पहल करें तो ईश्वर की ओर से सहायता मिलती है, बिना कुछ किये, सहायता की आशा रखना बेकार है।
बिना प्रयास के ईश्वर पर भरोसा रखना निरर्थक है। साहस और निर्भीकता भी आवश्यक है साथ ही ईश्वर पर भरोसा तथा उसका भय भी।.

आइए अब सूरए माएदा की 24वीं आयत

बनी इस्राईल ने कहा कि हे मूसा! जब तक वे अत्याचारी नगर में हैं हम कदापि उसमें प्रविष्ट नहीं होंगे। तो तुम और तुम्हारा पालनहार जाओ और युद्ध करो। हम यहीं पर बैठे हुए हैं। (5:24)

हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के आह्वान और बनी इस्राईल के वरिष्ठ लोगों के प्रोत्साहन के बावजूद, यहूदी संघर्ष के लिए तैयार नहीं हुए और उन्होंने बड़े ही दुस्साहस के साथ कहा कि हम युद्ध के लिए क्यों जाएं? हे मूसा! आप ही युद्ध के लिए जाएं क्योंकि आपका पालनहार आपके साथ है अतः आप तो निश्चित रूप से विजयी होंगे। जब आप नगर को अपने नियंत्रण में ले लेंगे तो हम भी उसमें प्रविष्ट हो जाएंगे।
इस आयत से हमने सीखा कि बनी इस्राईल के लोग अशिष्टता, बहानेबाज़ी, आलस्य, और आराम पसंदी का उदाहरण थे। हमें उन जैसा नहीं होना चाहिए वरना हमारा परिणाम ही उन्हीं जैसा होगा।
ईश्वरीय प्रतिनिधियों और समाज सुधारकों की उपस्थिति के बाद भी, जनता का कर्तव्य और दायित्व समाप्त नहीं होता कि लोग कहें कि कार्यवाही करने वाले मौजूद हैं और हमारा कोई दायित्व नहीं है।


आइए अब सूरए माएदा की 25वीं आयत
मूसा ने कहा कि हे मेरे पालनहार! मुझे अपने भाई के अतिरिक्त किसी पर नियंत्रण प्राप्त नहीं है (और यह लोग मेरी बात नहीं मानते) तो तू हमारे और इस अवज्ञाकारी जाति के बीच जुदाई डाल दे। (5:25)


इतिहास बहुत ही विचित्र है। वह जाति जो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के संघर्ष के कारण फ़िरऔन के चुंगल से मुक्त हुई और उसकी स्थाई पहचान बनी, आज अपने नगर में प्रविष्ट होने के लिए एक क़दम भी उठाने पर तैयार नहीं है। उसे प्रतीक्षा है कि ईश्वर का पैग़म्बर हर काम स्वयं कर ले और तब उन्हें नगर में आने का निमंत्रण दे। यह देखकर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल को श्राप दिया और ईश्वर से प्रार्थना की थी कि इस जाति के अवज्ञाकारियों और उद्दंडियों को दण्डित करे क्योंकि अब उनके सुधार की कोई आशा नहीं थी और इस दण्ड से बचने के लिए उन्होंने कहा कि हमारे और उनके बीच जुदाई डाल दे।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों ने अपने दायित्वों के पालन में कोई कमी नहीं की है, यह तो लोग थे जो मोक्ष और मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रयास तथा जेहाद करने के लिए तैयार नहीं हुए।
पैग़म्बरों की पद्धति, लोगों तक ईश्वर का संदेश पहुंचाना थी न कि आदेशों के पालन के लिए लोगों को विवश करना था।
आइए अब सूरए माएदा की 26वीं आयत

ईश्वर ने मूसा से कहा कि निःसन्देह यह पवित्र धरती इनके लिए ४० वर्षों तक वर्जित हो गई। यह इस जंगल और मरुस्थल में भटकते रहेंगे। तो हे मूसा! तुम इस अवज्ञाकारी जाति के लिए दुखी मत हो। (5:26)


ईश्वरीय दण्ड प्रलय से विशेष नहीं है बल्कि कभी ईश्वर कुछ लोगों या जाति को उसके कर्मों का दण्ड इसी संसार में देता है। ईश्वर ने बनी इस्राईल के लोगों की अवज्ञा और बहानेबाज़ी के दण्डस्वरूप उन्हें ४० वर्षों तक सीना नामक मरूस्थल में भटकाया तथा उन्हें उस पवित्र धरती की अनुकंपाओं से वंचित कर दिया। इस ईश्वरीय दण्ड का उल्लेख वर्तमान तौरेत में भी हुआ है। इतिहास के अनुसार बनी इस्राईल के लोग ४० वर्षों तक सीना नामक मरूस्थल में भटकने और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को खोने के पश्चात, नगर में प्रविष्ट होने के लिए अंततः सैनिक आक्रमण पर ही विवश हुए। उनके पुराने आलस्य का परिणाम ४० वर्षों तक भटकने के अतिरिक्त कुछ नहीं निकला।
इस आयत से हमने सीखा कि शत्रु के मुक़ाबले में कमज़ोरी और आलस्य दिखाने तथा युद्ध व जेहाद से फ़रार होने का परिणाम, अनुकंपाओं से वंचितता और भटकने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
जेहाद के मोर्चे से फ़रार होने वालों को समाज की संभावनाओं और सुविधाओं से वंचित कर देना चाहिए।
ईश्वर के पवित्र बंदे बुरे लोगों को भी दण्डित होता नहीं देख सकते परन्तु अपराधी को दण्डित करना ऐसी दवा है जो समाज के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
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सूरए माएदा; आयत 27-31

(हे पैग़म्बर!) लोगों को आदम के दो पुत्रों का हाल उस प्रकार सुना दीजिए जिस प्रकार उसका हक़ है। जब दोनों ने (ईश्वर के निकट बलि चढ़ाई तो उनमें से एक की क़ुर्बानी स्वीकार हुई और दूसरे की स्वीकार नहीं हुई। तो (क़ाबील ने जिसकी क़ुरबानी स्वीकार नहीं हुई थी अपने भाई हाबील से) कहा, मैं अवश्य तुम्हारी हत्या करूंगा। उसने उत्तर में कहा, ईश्वर तो केवल उन्हीं से (क़ुर्बानी) स्वीकार करता है जो उसका भय रखते हैं। (5:27)


इस्लामी इतिहास की पुस्तकों और इसी प्रकार तौरेत में वर्णित है कि आरंभ में हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के दो पुत्र थे, हाबील और क़ाबील। हाबील चरवाहे थे और क़ाबील किसान। हाबील क़ुर्बानी के लिए अपनी सबसे अच्छी भेड़ें लाए जबकि क़ाबील ने अपनी उपज का सबसे घटिया अंश ईश्वर से सामिप्य के लिए पेश किया। अतः हाबील की क़ुर्बानी स्वीकार हो गई और क़ाबली की क़ुर्बानी अस्वीकार कर दी गई।
यह बात हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के पास ईश्वरीय संदेश भेजकर उन दोनों को बता दी गई। क़ाबील ने, जो एक ईर्ष्यालु और अंधकारमय प्रवृत्ति वाला व्यक्ति था, स्वयं को सुधारने के बजाए अपने भाई से बदला लेने की ठानी और इस मार्ग में वह इतना आगे बढ़ गया कि उसने हाबील की हत्या करने का निर्णय कर लिया।
परन्तु हाबील ने, जो एक भले और पवित्र प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, इस बात के उत्तर में कहा, ईश्वर की ओर से हमारे कर्मों का स्वीकार या अस्वीकार किया जाना तर्कहीन नहीं है। तुम अकारण ही मुझसे ईर्ष्या कर रहे हो। ईश्वर उस कर्म को स्वीकार करता है जो पूरी निष्ठा और पवित्रता के साथ किया गया हो, अब वह काम जो भी हो और जितना भी हो। ईश्वर उसी वस्तु को ख़रीदता है जिसपर पवित्रता की मुहर लगी हो अन्यथा उसका कोई महत्व नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि अतीत के लोगों का इतिहास आगामी पीढ़ियों के मार्ग का सबसे अच्छा चिराग़ है। इतिहास की महत्तवपूर्ण घटनाओं को बार-बार दोहराना चाहिए, ताकि वह नई पीढ़ी के लिए शिक्षा सामग्री बन सके।
केवल भला कर्म ही काफ़ी नहीं है बल्कि उसके साथ अच्छी भावना भी होनी चाहिए जो उस कार्य को मूल्यवान बनाए।
ईर्ष्या, भाई की हत्या की सीमा तक बढ़ सकती है। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना में भी शैतान ने ईर्ष्या के हथकण्डे से उनके और उनके भाइयों के बीच जुदाई डाल दी।

आइए अब सूरए माएदा की 28वीं तथा 29वीं आयतों

(हाबील ने अपने भाई क़ाबील से कहा) यदि मेरी हत्या करने के लिए तुम मेरी ओर हाथ बढ़ाओगे तब भी मैं कदापि तुम्हारी हत्या के लिए तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाने वाला नहीं हूं क्योंकि मैं संसार के पालनहार ईश्वर से डरता हूं।(5:28) मैं चाहता हूं कि तुम मेरे और अपने पापों का केन्द्र बन जाओ और नरक वालों में से हो जाओ और यही अत्याचारियों का बदला है।(5:29)

क़ाबील जैसे ईर्ष्यालु और अपराधी भाई के मुक़ाबले में, हाबील किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने के स्थान पर कहते हैं, यद्यपि मैं जानता हूं कि तुम मेरी हत्या करना चाहते तो किंतु मैं तुमसे पहले यह काम नहीं करूंगा क्योंकि मैं प्रलय के दिन ईश्वर के न्याय से डरता हूं और जानता हूं कि अपराध से पूर्व बदला लेना वैध नहीं है।
अलबत्ता अत्याचार के मुक़ाबले में अपनी रक्षा आवश्यक है परन्तु केवल यह जानकर कि कोई पाप करने का इरादा रखता है उसे दण्डित करना ठीक नहीं है क्योंकि संभव है कि वह यह कार्य न करे परन्तु पाप होने से रोकने के लिए, उस व्यक्ति से पाप के साधन छीने जा सकते हैं।
प्रत्येक दशा में हाबील ने कहा कि मैं तुमसे पहले यह कार्य नहीं करूंगा और यदि तुमने ऐसा किया और मेरी हत्या कर दी तो जान लो कि तुम नरक वालों में से हो जाओगे और मैं तुमसे वहां पर अपना हक़ लूंगा क्योंकि तुम्हारे पास कोई भला कर्म तो होगा नहीं कि तुम उसे मुझे दे दो और मैं तुम्हें क्षमा कर दूं। अतः तुम मेरे पापों का बोझ भी ढोने के लिए विवश होगे और तुम्हें दोहरा दण्ड मिलेगा।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईर्ष्यालु और हठधर्मी लोगों के सामने शांति से बात करनी चाहिए, उनकी ईर्ष्या को और अधिक नहीं भड़काना चाहिए।
महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान बात यह है कि कमज़ोरी और आलस्य के कारण नहीं बल्कि ईश्वर से डरते हुए पाप नहीं करना चाहिए। हाबील ने यह नहीं कहा कि चूंकि मेरे पास शक्ति नहीं है अतः मैं तुम्हें क्षमा करता हूं। बल्कि उन्होंने यह कहा कि मैं ईश्वर से डरता हूं कि अपने भाई की हत्या करूं।
मनुष्य को पाप से रोकने में ईश्वर का भय, सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है।

आइए अब सूरए माएदा की 30वीं और 31वीं आयतों

फिर क़ाबील के (उद्दंडी) मन ने उसे अपने भाई की हत्या पर तैयार कर लिया तो उसने हाबील की हत्या कर दी और वह घाटा उठाने वालों में से हो गया। (5:30) तो ईश्वर ने एक कौवा भेजा जो ज़मीन खोद रहा था ताकि उसे बताए कि किस प्रकार अपने भाई के शव को छिपाए। उसने कहा कि धिक्कार हो मुझ पर कि मैं इस कौवे जैसा भी नहीं हो सका कि अपने भाई के शव को धरती में छिपा देता (उसने ऐसा ही किया) और वह पछताने वालों में शामिल हो गया। (5:31)


हाबील की नसीहतों और उन दोनों के बीच होने वाली बातों के बावजूद अंततः क़ाबील के दुष्ट मन ने उस पर नियंत्रण कर ही लिया और उसने अपने ही भाई के ख़ून से अपने हाथ रंग लिए परन्तु शीघ्र ही उसे अपने इस कार्य पर पछतावा होने लगा किंतु पछतावे से अब कोई लाभ नहीं था। इसी कारण क़ाबील असमंजस में था कि वह अपने भाई के शव का क्या करे? इसी अवसर पर ईश्वर ने एक कौवे को भेजा जिसने ज़मीन खोद कर क़ाबील को यह समझा दिया कि उसे अपने भाई को मिट्टी में दफ़न कर देना चाहिए।
धरती पर यह पहली हत्या थी। इसने आदम के बेटों के मन में द्वेष और ईर्ष्या के बीज बो दिये। खेद के साथ कहना पड़ता है कि द्वेष और ईर्ष्या के यह बीज अभी भी बलि ले रहे हैं और मनुष्यों के बीच अशांति तथा समस्याओं का कारण बने हुए हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि सत्य तथा असत्य के बीच युद्ध, धरती पर मनुष्य के जन्म के समय से ही चला आ रहा है और मनुष्य की पहली मौत शहादत से आरंभ हुई है।
कभी-कभी ईश्वर पशुओं को, मनुष्य को कुछ बातें सिखाने के लिए भेजता है। मनुष्य अपने ज्ञान के कुछ भाग के लिए पशुओं का कृतज्ञ है।
ईश्वर की इच्छा के आधार पर मनुष्य के शव को दफ़्न करना चाहिए।


सूरए माएदा; आयतें 32-35

इसी कारण हमने बनी इस्राईल के लिए लिख दिया कि जो कोई किसी व्यक्ति की, किसी व्यक्ति के बदले में या धरती पर बुराई फैलाने के अतिरिक्त (किसी अन्य कारणवश) हत्या कर दे तो मानो उसने समस्त मानव जाति की हत्या कर दी, और जिसने किसी व्यक्ति को जीवित किया (और उसे मृत्यु से बचाया) तो मानो उसने सभी मनुष्यों को जीवित कर दिया, और निसन्देह, हमारे पैग़म्बर बनी इस्राईल के पास स्पष्ट निशानियां लेकर आए परन्तु उनमें से अधिकांश लोग (सत्य को जानने के बाद भी) धरती में अतिक्रमण करने वाले ही रहे। (5:32)


हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के दो पुत्रों की घटना का वर्णन किया था। हमने बताया था कि क़ाबील ने ईर्ष्या के कारण अपने भाई हाबील की हत्या कर दी और एक कौवे को देखकर हाबील के शव को मिट्टी मे दफ़्न कर दिया और अपने काम पर पछताने लगा।
इस आयत में ईश्वर कहता है कि इस घटना के पश्चात हमने यह निर्धारित कर दिया कि किसी एक व्यक्ति की हत्या, सभी मनुष्यों की हत्या के समान है और इसी प्रकार किसी एक व्यक्ति को मौत से बचाना भी पूरे मानव समाज को मौत के मुंह से बचाने के समान है।
क़ुरआने मजीद इस आयत में एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक वास्तविकता की ओर संकेत करते हुए कहता है कि मानव समाज एक शरीर की भांति है और समाज के सदस्य उस शरीर के अंग हैं। इस समाज में एक सदस्य को पहुंचने वाली हर क्षति का प्रभाव, अन्य सदस्यों में स्पष्ट होता है। इसी प्रकार जो कोई किसी निर्दोष के ख़ून से अपने हाथ रंगता है वह वास्तव में अन्य निर्दोष लोगों की हत्या के लिए भी तैयार रहता है। वह हत्यारा होता है और निर्दोष लोगों या दोषियों के बीच कोई अंतर नहीं समझता।
यहां पर रोचक बात यह है कि पवित्र क़ुरआन, मनुष्य के जीवन को इतना महत्त्व देता है और एक व्यक्ति की हत्या को पूरे समाज की हत्या के समान बताने के बावजूद दो स्थानों पर मनुष्य की हत्या को वैध बताता है। पहला स्थान हत्यारे के बारे में है कि उसके अपराध के बदले में उसे क़ेसास किया जाना चाहिए अर्थात हत्यारे को मृत्यु दण्ड दिया जाना चाहिए। दूसरा स्थान उस व्यक्ति के बारे में है जो समाज में बुराई फैलाता है, यद्यपि ऐसा व्यक्ति किसी की हत्या नहीं करता किंतु समाज की व्यवस्था को बिगाड़ देता है। इस प्रकार के लोगों का भी सफ़ाया कर देना चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व उनके परिजनों के कथनों में लोगों को जीवित करने और उनकी हत्या करने का उदाहरण, उनके मार्गदर्शन और पथभ्रष्टता में बताया गया है। जो कोई भी दूसरों की पथभ्रष्टता का कारण बनता है मानो वह एक समाज को पथभ्रष्ट करता है और जो कोई किसी एक व्यक्ति का मार्गदर्शन करता है मानो वह एक पूरे समाज को मुक्ति दिलाता है।
इस आयत के अंत में क़ानून तोड़ने की बनी इस्राईल की आदत की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि यद्यपि हमने बनी इस्राईल के लिए अनेक पैग़म्बर भेजे और उनके कानों तक वास्तविकता पहुंचा दी किंतु इसके बावजूद वे ईश्वरीय सीमाओं को लांघते रहे और पाप करते रहे।
इस आयत से हमने सीखा कि मनुष्यों का भविष्य एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। मानव इतिहास एक ज़ंजीर की भांति है कि यदि उसकी एक कड़ी को तोड़ दिया जाए तो बाक़ी कड़ियां भी बर्बाद हो जाती हैं।
कर्म का मूल्य उसकी भावना और उद्देश्य से संबंधित है। अतिक्रमण के उद्देश्य से एक व्यक्ति की हत्या पूरे एक समाज को मारने के समान है किंतु एक हत्यारे को मृत्युदण्ड देना, समाज के जीवन का कारण है।
जिनका कार्य लोगों की जान बचाना है, उन्हें डाक्टरों की भांति अपने काम का मूल्य समझना चाहिए। किसी भी रोगी को मौत से बचाना पूरे समाज को मौत से बचाने के समान है।

आइए अब सूरए माएदा की 33वीं और 34वीं आयत

निसन्देह जो लोग ईश्वर और उसके पैग़म्बर से युद्ध करते हैं और धरती में बिगाड़ पैदा करने का प्रयास करते हैं, उनका दण्ड यह है कि उनकी हत्या कर दी जाए या उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाए या उनके हाथ पांव विपरीत दिशाओं से काट दिये जाएं (अर्थात दायां पांव और बायां हाथ या इसका उल्टा) या फिर उन्हें देश निकाला दे दिया जाए। यह अपमानजनक दण्ड तो उनको संसार में मिलेगा और प्रलय में भी उनके लिए बहुत ही कड़ा दण्ड है। (5:33) सिवाए उन लोगों के जो तुम्हारे नियंत्रण में आने से पहले ही तौबा कर लें। तो जान लो कि ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (5:34)


पिछली आयत में मनुष्यों की जान के महत्त्व और सम्मान के वर्णन के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि किसी ने यदि इस सम्मान की रक्षा नहीं की तो फिर स्वयं उसकी जान भी सम्मानीय नहीं है और उसे कड़ा दण्ड दिया जाएगा ताकि दूसरे उससे पाठ सीखें।
इन आयतों में चार प्रकार के दण्डों का उल्लेख किया गया है। हत्या करना, सूली देना, हांथ-पांव काटना और देश निकाला देना। स्पष्ट है कि यह चारों दण्ड एक समान नहीं हैं और इस्लामी शासक अपराध के स्तर के अनुरूप ही इनमें से किसी एक दण्ड का चयन करता है।
रोचक बात यह है कि ईश्वर ने इस आयत में लोगों को जान से मारने की धमकी को ईश्वर तथा पैग़म्बर से युद्ध के समान बताया है। वास्तव में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। अर्थात अपराधी को यह जान लेना चाहिए कि ईश्वर और उसका पैग़म्बर उसके सामने हैं, उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि उसने किसी कमज़ोर और दुर्बल व्यक्ति को पकड़ लिया है अतः उस पर जो भी अत्याचार चाहे कर सकता है।
अंत में आयत कहती है कि इन सांसारिक दण्डों से, प्रलय का दण्ड समाप्त नहीं होता, और एक बड़ा दण्ड उसकी प्रतीक्षा में है। सिवाए इसके कि इस प्रकार के लोग तौबा करें तो ईश्वर जो कुछ उससे संबंधित है उसे क्षमा कर देगा परन्तु लोगों के अधिकारों को अदा करना ही होगा क्योंकि लोगों के अधिकारों को ईश्वर तब तक क्षमा नहीं करता जब तक स्वयं अत्याचार ग्रस्त व्यक्ति क्षमा न कर दे।
इन आयतों से हमने सीखा कि समाज में सुधार के लिए उपदेश भी आवश्यक हैं और न्याय का कड़ा व्यवहार भी।
जो लोग समाज की शांति को समाप्त करते हैं तो समाज में उनकी किसी भी प्रकार की उपस्थिति को समाप्त कर देना चाहिए।
इस्लाम के दण्डात्मक आदेशों को लागू करने के लिए, इस्लामी सरकार का गठन और इस सरकार की सत्ता आवश्यक है।
आइए अब सूरए माएदा की 35वीं आयत

हे ईमान वालो! ईश्वर से डरो और (उससे सामिप्य के लिए) साधन जुटाओ तथा उसके मार्ग में जेहाद करते रहो कि शायद तुम्हें मोक्ष प्राप्त हो जाए। (5:35)

पिछली आयतों में हत्या, अपराध, धमकी और दूसरों की शांति छीनने जैसे कुछ पापों के कड़े दण्डों के वर्णन के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि इस संसार में मुक्ति और मोक्ष के दो ही मार्ग हैं। एक ईश्वर का भय और दूसरे उसके सामिप्य के लिए साधन। मन की आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण, अपराध तथा पाप की भूमि समतल होने को रोक देता है, और इसी के साथ उन साधनों का प्रयोग जो ईश्वर ने मनुष्य के लिए निर्धारित किये हैं, मनुष्य को ईश्वर के समीप कर देता है। जैसे क़ुरआने मजीद, पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा और उनके परिजनों तथा पवित्र लोगों के चरित्रों का अनुसरण। यह सब बातें ईश्वर से मनुष्य के निकट होने का कारण बन सकती हैं, जिस प्रकार से कि ईश्वर से भय पापों से मनुष्य की दूरी का कारण बनता है।
इस आयत से हमने सीखा कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए बुराइयों से दूर भी रहना चाहिए और पवित्रताओं तथा पवित्र लोगों के समीप ही रहना चाहिए।
ईश्वर का भय और उसके सामिप्य के साधन, मोक्ष व कल्याण के मार्ग हैं। यदि अन्य शर्तें उपलब्ध हों तो मनुष्य गंतव्य तक पहुंच जाएगा।

सूरए माएदा; आयतें 36-40

निसन्देह जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया, यदि उनके पास वह सब कुछ हो जो धरती पर है और उतना ही उसके साथ और भी हो कि वे उसे देकर प्रलय के दिन के दण्ड से बच जाएं तब भी उनसे स्वीकार नहीं किया जाएगा और उनके लिए दुखदायी दण्ड है। (5:36) वे लोग चाहते हैं कि (नरक की) आग से निकल जाएं परन्तु वे उससे बाहर निकलने वाले नहीं हैं और उनके लिए स्थाई दण्ड है।(5:37)


पिछली आयतों में ईमान वालों को भलाई, प्रयासरत रहने, ईश्वर से भय और उसके मार्ग में जेहाद का निमंत्रण देने के पश्चात इन आयतों में ईश्वर कहता है कि हे ईमान वालो, काफ़िरों की धन-संपत्ति और सुख-वैभव सब कुछ इस नश्वर संसार तक ही सीमित हैं। यह प्रलय में इनके कुछ भी काम नहीं आएंगे। न केवल यह कि धरती की पूरी संपत्ति बल्कि यदि उससे दोगुनी संपत्ति भी लोगों के पास हो फिर भी वह उनके नरक से बचने का कारण नहीं बन सकती।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर के न्याय के दरबार में, नरक से बचने के लिए कोई भी बदला स्वीकार्य नहीं है।
मनुष्य के कल्याण का कारक, आंतरिक तत्व है न कि बाहरी। ईमान और कर्म, कल्याण के कारक हैं न कि धन।
जो संसार में अपने कुफ़्र और द्वेष पर डटा रहा, प्रलय में उसका दण्ड भी स्थाई ही होगा।

आइए अब सूरए माएदा की 38वीं आयत


चोरी करने वाले पुरुष और महिला के हाथ उनके कर्म के बदले काट दो कि यह ईश्वर की ओर से दण्ड है और ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और तत्वदर्शी है। (5:38)


पिछले कार्यक्रम में खुल्लम-खुल्ला शस्त्र के बल पर लोगों की जान व माल के लिए ख़तरा बनने वाले व्यक्ति के बारे में मूल आदेश का वर्णन किया गया था। यह आयत विशेष परिस्थितियों में चोर के लिए आदेश बयान करती है जो प्रायः चोरी-छिपे लोगों की धन या संपत्ति चुराता है।
चूंकि अधिक्तर चोरियां हाथों से होती हैं और जो हाथ लोगों के माल में चोरी करे, उसका कोई मूल्य नहीं है, अतः इस आयत में ईश्वर कहता है कि जो कोई चोरी करे, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री उसके हाथ काट दिये जाएं कि जो स्वयं उसके कर्म का बदला है न कि ईश्वर का अत्याचार। तत्वदर्शी ईश्वर ने समाज में शांति और सुरक्षा के लिए इस प्रकार के दण्ड रखे हैं।
अलबत्ता इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि हर चोर के हाथ नहीं काटे जा सकते बल्कि हाथ काटे जाने की शर्त यह है कि चोरी किया गया माल कम से कम एक दश्मलव दो पांच ग्राम सोने के बराबर हो, चोर ने भूख से विवश होकर चोरी न की हो और इसी प्रकार के कुछ अन्य आदेश जो धार्मिक पुस्तकों में वर्णित हैं।
इसी प्रकार हाथ काटने का अर्थ, हाथ की उंगलियों का काटा जाना है न कि कलाई से पूरा हाथ। आश्चर्य की बात यह है कि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी इस इस्लामी आदेश को अमानवीय और उग्र आदेश मानते हैं जबकि कुछ विश्वासघाती लोगों के हाथ काटना पूरे समाज की सुरक्षा के लिए पूर्णतः मानवीय बात है और अनुभवों ने यह दर्शा दिया है कि जिन समाजों ने इन ईश्वरीय आदेशों को अपनाया है उनमें चोरी के आंकड़े बहुत कम हैं जबकि पश्चिमी समाजों में चोरी के आंकड़ें बहुत अधिक हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम के दण्डात्मक क़ानूनों में अपराधियों को सज़ा दिये जाने के अतिरिक्त अन्य लोगों के सीख लेने की बात भी दृष्टिगत है अतः लोगों के सामने अपराधियों को सज़ा दी जाती है ताकि इससे दूसरे लोग पाठ ले सकें।
व्यक्तिगत स्वामित्व और सामाजिक सुरक्षा को इस्लाम इतना महत्तव देता है कि जो कोई भी इन दोनों को क्षति पहुंचाए उसके साथ अत्यंत कड़ा व्यवहार करता है।
इस्लाम, व्यक्तिगत धर्म नहीं है बल्कि उसके पास सामाजिक समस्याओं के समाधान के कार्यक्रम हैं। इसी प्रकार इस्लाम, केवल प्रलय और परलोक का धर्म नहीं है बल्कि लोगों के संसार के लिए भी वह कार्यक्रम रखता है।
आइए अब सूरए माएदा की 39वीं और 40वीं आयतों


तो जो कोई (दूसरों पर किये) अपने अत्याचार से तौबा कर ले (और अपने पापों का प्रायश्चित) तथा सुधार कर ले तो निसन्देह, ईश्वर उसकी तौबा स्वीकार कर लेता है कि निसंदेह, ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (5:39) क्या तुम नहीं जानते कि आकाशों और धरती का शासन ईश्वर के लिए ही है? वह (अपनी तत्वदर्शिता और न्याय के आधार पर) जिसे चाहता है दण्डित करता है और जिसे चाहता है क्षमा कर देता है और ईश्वर हर वस्तु पर अधिकार रखने वाला है।(5:40)


पिछली आयत में चोरी के दण्ड का वर्णन किया गया था परन्तु ईश्वर की दया के द्वार सदा ही खुले रहते हैं और ईश्वर की दया उसके क्रोध से आगे है अतः यह आयत कहती है कि यदि कोई अपने इस काम से तौबा करले और अपराध की क्षतिपूर्ति कर ले तो उसे ईश्वर क्षमा कर देता है।
स्पष्ट सी बात है कि वास्तविक तौबा, न्यायालय में अपराध सिद्ध होने से पहले की जाने वाली तौबा है वरना हर चोर जब स्वयं को कड़े दण्ड के सामने पाता है तो तौबा का दावा करता है। अतः अपराध सिद्ध होने से पूर्व यदि चोर, ईश्वर के समक्ष तौबा कर ले और चुराई हुई सभी वस्तुएं उसके मालिक को लौटा दे या किसी को नुक़सान पहुंचाया हो तो उसकी क्षतिपूर्ति करके उसे राज़ी कर ले तो ईश्वर भी उसे क्षमा कर देता है और उसका दण्ड माफ़ किया जाता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि तौबा केवल एक आंतरिक पश्चाताप नहीं है बल्कि यह पापों और अपराधों की क्षतिपूर्ति के साथ किया जाने वाला प्रायश्चित है।
तौबा करके मनुष्य यदि सीधे मार्ग पर वापस आ जाए तो ईश्वर भी अपनी कृपा व दया को लौटा देता है।
दण्ड और क्षमा दोनों ही ईश्वर के हाथ में हैं तथा बंदों के बारे में ईश्वर के हाथ बंधे हुए नहीं हैं परन्तु वह न्याय के आधार पर अपराधी को दण्ड देता है और तौबा करने वाले को क्षमा करता है।

इस्लामी संस्कृति व इतिहास

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इस्लामी संस्कृति व सभ्यतामानव इतिहास की सबसे समृद्ध सभ्यताओं में से एक है। यद्यपि इस संस्कृति मेंजो इस्लाम के उदय के साथ अस्तित्व में आईबहुत अधिक उतार-चढ़ाव आए हैं किंतु इसका अतीत अत्यंत उज्जवल है। इस्लामी सभ्यता के इतिहास की समीक्षा से पता चलता है कि यह संस्कृति व सभ्यताएक तर्कसंगत आधार पर अस्तित्व में आई है। आप को इस संस्कृति व सभ्यता से अधिक अवगत कराने के लिए हम इस्लामी सभ्यता का इतिहास नामक एक नई श्रंखला लेकर उपस्थित हैं। इसमें हम आपको इस्लामी सभ्यता के परवान चढ़ने,इसके उतार-चढ़ाव भरे इतिहास और इसकी प्रगति के आधारों से अवगत कराएंगे।
 मानवता के लिए इस्लाम का उपहार वह महान एवं व्यापक संस्कृति व सभ्यता है जिसने सभी मनुष्यों विशेष कर मुसलमानों को सदा के लिए अपना ऋणी बना लिया है। आज इस्लामी संस्कृति व सभ्यता का परिचयविभिन्न समाजों विशेश कर बुद्धिजीवी वर्ग के लिए एक महत्वपूर्ण एवं ध्यान योग्य मुद्दा है। मुसलमानों की भावी पीढ़ियों के लिए यह जानना आवश्यक है कि उनके पूर्वज संस्कृति व सभ्यता की दृष्टि से किस स्तर पर थे। यह ज्ञान उनके व्यक्तित्व के निर्माण या पुनर्निर्माण में बहुत अधिक प्रभावी है। साम्राज्य ने पिछली दो शताब्दियों के दौरान विभिन्न राष्ट्रों विशेष कर मुसलमानों की सभ्यता व संस्कृति की मौलिकता व उपयोगिता का इन्कार करने का प्रयास किया है ताकि इसके माध्यम से अपनी संस्कृति व सभ्यता को देशों पर थोप सके। पश्चिम का वास्तविक लक्ष्य यह है कि संसार तथा विभिन्न संस्कृतियों के भीतर इस विचार को सबल बना दे कि उनके पास पश्चिम के रंग में रंगने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है।
 इस्लामी सभ्यता के इन्कार और पूर्वी देशों पर पश्चिमी संस्कृति व मूल्यों को थोपने का एक लक्ष्य यह है कि पश्चिम वालेएक ओर तो संसार के अन्य राष्ट्रों व सभ्यताओं की प्रगति को स्वयं से संबंधित कर सकें और दूसरी ओर मुसलमानों की तीव्र प्रगति एवं विकास को रोक सकें। ईरान के एक बुद्धिजीवी और विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डाक्टर शफ़ीई सेरविस्तानी का मानना है कि पश्चिम अपनी श्रेष्ठ तकनीक एवं आर्थिक शक्ति की सहायता सेकि जो स्वयं ही देशों के शोषण से प्राप्त हुई हैवर्षों से पूरे संसार में अपनी संस्कृति को फैलाने और सांस्कृतिक भूमंडलीकरण के प्रयास में है। पश्चिम ने इस बात का बहुत अधिक प्रयास किया है कि जिस प्रकार से भी संभवहोअपने प्रतीकों और मूल्यों को पूर्वी समाजों पर थोप दे।
 चूंकि पश्चिम ने स्वयं को मानव सभ्यता का मूल स्थान दर्शाने और अपनी मान्यताएं अन्य क्षेत्रों पर थोपने के लिए व्यापक प्रयास किए हैं अतः इस्लामी संस्कृति व सभ्यता की महानता व उसके मूल आधारों का वर्णन अत्यंत आवश्यक है। अमरीका के एक विचारक और सभ्यताओं के बीच टकराव के दृष्टिकोण के जनक सेमुइल हेन्टिंग्टन इस संबंध में कहते हैं। नवीनीकरण के विषय में पश्चिम ने न केवल विश्व को एक नए समाज की ओर बढ़ाया है बल्कि अन्य सभ्यताओं के लोग भी प्रगति करते करते पश्चिमवादी हो गए हैं। वे अपनी पारंपरिक मान्यताओं व संस्कारों को छोड़ कर उनके स्थान पर वैसे ही पश्चिमी प्रतीकों को अपना रहे हैं।
  इस समय पश्चिमी संसार इस्लामी सभ्यता की प्रगति व विकास को रोकने के लिएसांस्कृतिक वर्चस्व के माध्यम से अन्य देशों पर अपना राजनैतिक वर्चस्व जमाने की चेष्टा में है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से संसार का नेतृत्व अपने हाथ में लेने के प्रयास आरंभ कर दिए थे किंतु चूंकि कुछ राष्ट्र अपनी मान्यताओं व राष्ट्रीय व धार्मिक संस्कृति की सुरक्षा पर बल देते हैं और सरलता से बाहरी वर्चस्व के समक्ष घुटने नहीं टेकते अतः वह सांस्कृतिक वर्चस्व के माध्यम से राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। पश्चिम का प्रयास है कि ग़ैर अरब विशेष कर इस्लामी देशों में अपनी संस्कृति को फैला कर धीरे-धीरे उनकी संस्कृति में मूल परिवर्तन कर दे ताकि उन पर उसके राजनैतिक वर्चस्व का मार्ग प्रशस्त हो जाए।
 अमरीका के एक शोधकर्ता व लेखक एडवर्ड बर्मन लिखते हैं कि पश्चिमसामूहिक संचार माध्यमों व पत्र पत्रिकाओं और रॉक फ़ैलर,कारनेगी तथा फ़ोर्ड जैसी तथाकथित सांस्कृतिक संस्थाओं जैसे हथकंडों के माध्यम से विकासशील समाजों में विशेष ज्ञानों व विचारों का प्रसार करने का प्रयास कर रहा है। विचारों व संस्कृतियों को उत्पन्न करके उन्हें प्रचलित करना जिनके नियंत्रण में है वे प्रयास कर रहे हैं कि संसार और जीवन के प्रतिदिन के मामलों के संबंध में लोगों के सोचने की शैली को प्रभावित कर दें।
 इस्लामी संस्कृति व सभ्यता पर चर्चा के लिए उचित होगा कि इस सभ्यता को अस्तित्व में लाने वाले कारकों तथा पश्चिमी संस्कृति व सभ्यता से उसकी तुलना के बारे में कुछ बात की जाए। इस्लामी सभ्यता को अस्तित्व प्रदान करने वाले महत्वपूर्ण कारकों में से एक,उसमें पाई जाने वाली विभिन्न संस्कृतियां हैं। इतिहास हमें बताता है कि गतिशील व सक्रिय संस्कृतियां किसी भी स्थिति में समाप्त नहीं होतीं बल्कि सदैव अपने आपको सुरक्षित रखती हैं। उदाहरण स्वरूप यद्यपि इस्लामी संस्कृति व सभ्यता को अपने पूरे जीवनकाल में उतार-चढ़ाव और बाहरी लोगों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा है किंतु वह कभी भी उनसे पराजित व प्रभावित नहीं हुई है। इसके अतिरिक्त इस्लामी संस्कृति व सभ्यताईरानीमिस्री व अरबी संस्कृतियों की भांति स्थानीय संस्कृतियों की रक्षा के कारणविशेष सांस्कृतिक विविधता से संपन्न है जबकि पश्चिमी संस्कृतिअन्य संस्कृतियों व राष्ट्रियताओं को समाप्त करने और सभी संस्कृतियों को एकसमान बनाने के प्रयास में है। इस्लामी संस्कृति व सभ्यता में सभी संस्कृतियों व राष्ट्रियताओं को सुरक्षित रखा गया है और यह बात स्वयं इस्लामी सभ्यता के फलने-फूलने का एक कारण है।
 अमरीकी इतिहासकार वेल डोरेन्ट सभ्यता और सभ्य समाज के बारे में कहते हैं कि सभ्यतासामाजिक अनुशासनक़ानून की सरकार तथा अपेक्षाकृत उचित स्थिति के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आने वाली सांस्कृतिक रचनात्मकता को कहते हैं। सभ्यताज्ञान व संस्कृतिक के उत्थान का फल है। जो समाजसामाजिक अनुशासन को स्वीकार करता है और ज्ञान से लाभ उठा कर मानवीय गुणों के विकास व परिपूर्णता के बारे में सोचता है वहीसभ्य समाज कहलाता है।
 निश्चित रूप से विभिन्न जातियों व समुदायों को अपनानाइस्लामी संस्कृति व सभ्यता की गतिशीलता के कारणों में से एक है। इस्लामी सभ्यता में जातियों के भेद का कोई महत्व नहीं है और यह सभ्यता किसी विशेष जाति या समुदाय से संबंधित नहीं है। इस्लाम प्रगति व विकास का धर्म है और उसने यह सिद्ध किया है कि वह व्यवहारिक रूप से विकास व कल्याण की ओर समाज का मार्गदर्शन कर सकता है।
इस्लामी सभ्यता की एक अन्य विशेषता अंधविश्वास व सांप्रदायिकता से दूरी है। इस्लाम ने एक ऐसे संसार में अपने निमंत्रण का आरंभ किया जिसमें लोग अंधकार और गतिहीनता में ग्रस्त थे। इस्लाम ने अपनी शिक्षाओं के माध्यम सेजो ज्ञान व बुद्धि पर आधारित हैं,अज्ञानता व अंधविश्वासों की ज़ंजीरों को तोड़ दियालोगों के बीच प्रेम व बंधुत्व का प्रचार किया तथा एक प्रकाशमान सभ्यता के अस्तित्व में आने और उसके विकास का मार्ग प्रशस्त किया। वेल डोरेन्ट अपनी प्रख्यात पुस्तक मानव सभ्यता का इतिहास में लिखते हैं किइस्लामी सभ्यता से अधिक आश्चर्यचकित करने वाली कोई अन्य सभ्यता नहीं है। यदि इस्लाम गतिहीनतानिश्चलता और जड़ता का समर्थक होता तो इस्लामी समाज को अरब समाज की उसी आरंभिक सीमा तक रोके रखता जबकि एक शताब्दी से भी कम समय में उसने अपने पड़ोस की सभ्यताओं को अपनी ध्रुव पर एकत्रित कर लिया और उन सबसे मिला कर एक अधिक व्यापक सभ्यता को अस्तित्व प्रदान किया।
इस्लामी सभ्यता मेंजिसका स्रोत एक पवित्र विचारधारा हैलोक-परलोक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो मानव जीवन के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों आयामों पर ध्यान देता है। धर्ममनुष्य की प्रगति एवं परिपूर्णता का माध्यम है और बुद्धि एवं विवेक से उसका गहरा नाता है। प्रख्यात मुस्लिम समाज शास्त्री इब्ने ख़ल्लदून का मानना है कि मनुष्य के धार्मिक व बौद्धिक आयाम,उसके मानवीय आयामों से जुड़ जाते हैं और इस प्रकार एक बड़ी सभ्यता जन्म लेती है।
 यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि महान इस्लामी सभ्यता ने अपने से पहले वाली सभ्यताओं के नकारात्मक व अंधविश्वासपूर्ण तत्वों को नकार दिया और उनके सकारात्मक बिंदुओं को अपना कर महान इस्लामी सभ्यता के उत्थान और उसके फलने फूलने का मार्ग प्रशस्त किया|

मानव संस्कृति में इस्लामी सभ्यता व संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पूरे इतिहास मेंविदेशियों ने इस्लामी सभ्यता की महान व बड़ी-२ उपलब्धियों की अनदेखी करके मुसलमान विद्वान व वैज्ञानिकों की कुछ खोजों को अपनी खोज बताने का प्रयास किया है। हमने पहले वाले कार्यक्रम में कुछ उन तत्वों व बातों की ओर संकेत किया था जिनकी इस्लामी सभ्यता के गठन में भूमिका रही है। हमने बताया था कि विभिन्न संस्कृतियों एवं जातियों के लोगों ने ईश्वरीय धर्म इस्लाम स्वीकारकिया और इस धर्म ने हर प्रकार के भेदभाव और अंध विश्वास से दूर रहकर लोगों के लोक-परलोक के मामलों को समन्वित करने के लिए महान सभ्यता की आधार शिला रखी। आज के कार्यक्रम में हम कुछ उन दूसरे तत्वों के बारे में चर्चा करेंगे जिनकी इस्लामी सभ्यता व संस्कृति के उतार- चढ़ाव में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
 इस्लामी सभ्यता की एक महत्वपूर्ण विशेषता व मापदंड नैतिकता एवं अध्यात्म है। लेबनान के ईसाई लेखक जुर्जी ज़ैदान लिखते हैं"मदीना में प्रवृष्ट होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम का सबसे पहला लाभदायक व महत्वपूर्ण क़दमयह था कि उन्होंने मक्का और मदीना के मुसलमानों के बीच बंधुत्व व मित्रता का समझौता कराया।  मक्का से मदीना पलायन करने वाले मुसलमानों और पहले से मदीना में रहने वाले मुसलमानों के मध्य बंधुत्व का समझौता कराना एकता की दिशा में इस्लाम का पहला क़दम था जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के आदेश वसुझाव पर किया गया। जुर्जी ज़ैदान के अनुसार उसी समय से मुसलमानों ने नैतिकता एवं आध्यात्म पर बल देकर इस्लाम धर्म के क़ानूनों को मान्यता एवं महत्व दिया और नैतिकता व अध्यात्म पर इस्लामी सभ्यता की बुनियाद रखी।
धर्म और नैतिकता का संस्कृति एवं सभ्यता से संबंध है और यह संस्कृति व सभ्यता के विकास में प्रभाव रखते हैं। वर्तमान समय केअधिकांश विचारक इस बात पर एकमत हैं कि पश्चिमी सभ्यता यद्यपि विज्ञान और उद्योग की दृष्टि से चरम बिन्दु पर है परंतु इस सभ्यता में नैतिकता का न केवल यह कि उस सीमा तक विकास नहीं हुआ है बल्कि वह पतन के मार्ग पर है। आज बहुत से विचारकों का विश्वास है कि पश्चिमी सभ्यता नैतिकता एवं आध्यात्म पर ध्यान न देने के कारण पतन की ओर जा रही है।
अमेरिकी लेखक Buchanan j. Patrick अपनी किताब west death में इस बात को लिखते हैं कि क्यों वह समाज विखंडित एवं मृत्यु के कगार पर हैजो वैज्ञानिक दृष्टि से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर है?
विशेषज्ञों ने पश्चिमी सभ्यता के पतन के संदर्भ में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं। पुनर्जागरण के बाद पश्चिम में फैली विचारधारा तीन स्तंभों पर आधारित थी। प्रथम मनुष्यदूसरे उदारवाद और तीसरे सेकुलरिज़्म। पहली धारणा के अनुसार मनुष्य एक स्वतंत्र व स्वाधीन प्राणी हैपरलोक से उसका कोई संबंध नहीं है और उसे ईश्वरीय मार्ग दर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी संस्कृति व सभ्यता लिब्रालिज़्म पर विश्वास और केवल व्यक्तिगत हितों के महत्व के दृष्टिगत नैतिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांतों का इंकार करती है। इस बात में संदेह नहीं है कि इन सिद्धांतों का इंकारपश्चिमी समाज में किसी प्रकार की रोक- टोक न होने कापरिणाम है। पश्चिमी सभ्यता की एक विशेषता व आधार सेकुलरिज़्म या भौतिकवाद और इसके परिणाम में क़ानून और सामाजिक कार्यक्रम बनाने के क्षेत्रों में धर्म का इंकार किया जाता है। आज पश्चिमी सभ्यता पर लिब्रालिज़्मभौतिकवाद और मनुष्य को मूल तत्व के रूप में मानने वाली विचार धारा का बोलबाला है जो मनुष्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रही है। अमेरिकी लेखकBuchanan इस प्रश्न के उत्तर में कि क्यों वह संस्कृति असहनीय हो गई है जिसका पश्चिम दम भरता हैकहते हैं"यह सभ्यता नैतिकता एवं आध्यात्म से विरोधाभास रखने और पारम्परिक व धार्मिक हस्तियों के साथ इस संस्कृति के क्रिया- कलापों के कारण घृणा का पात्र बन गयी है। वास्तव में पश्चिमी सभ्यता पर जिस सोच का बोलबाला है वह ईश्वरीय एवं मानवीय प्रवृत्ति से विरोधाभास रखती है।
अमेरिकी लेखक Buchanan नैतिकता की अनदेखी और पश्चिमी मनुष्य के जीवन से धर्म की समाप्ति को पश्चिमी सभ्यता के पतन का एक कारक मानते हैं। वह अपनी पुस्तक में लिखते हैं"वर्ष १९८३ में जब वाइट हाउस में चिकित्सा संकट के संबंध में चर्चा हो रही थी,एडस की बीमारी के कारण ६०० अमेरिकियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। समलैंग्गिकों ने प्रकृति से युद्ध की घोषणा कर दी थी और प्रकृति ने भी बुरी तरह उन्हें दंडित किया। वर्तमान समय में संक्रामक विषाणु एचआईवी से ग्रस्त लाखों लोग प्रतिदिन मिश्रित औषधिCOCKTAIL के सेवन से जीवित हैं। यौन चलन या बिना रोक- टोक यौन संबध भी मानव पीढ़ी को बर्बाद कर देने के लिए आरंभ हो चुका है। गर्भपाततलाक़जन्म दर में कमीयुवाओं द्वारा आत्म हत्यामादक पदार्थों का सेवनमहिलाओं एवं बड़ी उम्र के लोगों के साथ दुर्व्यहारबिना रोक टोक यौन संबंध और इस प्रकार के दूसरे दसियों विषय सबके सब इस बात के सूचक हैं कि पश्चिमी सभ्यता पतन की ओर बढ़ रही है"अमेरिकी लेखक Buchanan पश्चिमी समाज के प्रभाव को हीरोइन की भांति मानते हैं जो आरंभ में व्यक्ति को आराम देता है परंतु शरीर में मिल जाने के बाद मनुष्य को बर्दाद कर देता है। एक अन्य अमेरिकी लेखक KENNETH MINOG अपनी किताब नये मापदंड में लिखते हैं"नैतिकता से इतनी अधिक दूरी के कारण हम यह दावा नहीं कर सकते कि युरोपीय और पश्चिमीसभ्यता बेहतर है"
सैद्धांतिक रूप से उस समाज के बाक़ी व प्रगतिशील रहने की गारंटी है जिस समाज अथवा सामाजिक परिवेश में नैतिकता में विकास हो और लोग आध्यात्मिक एवं नैतिक सिद्धांतों का सम्मान करें। "इस्लामी और ईरानी संस्कृति व सभ्यता की प्रगतिशीलता"नामक मूल्यवान पुस्तक के लेखक डाक्टर अली अकबर विलायती लिखते हैं"यदि कोई समाज मान्य व स्वीकार्य सीमा तक सभ्यता में विकास कर चुका हो परंतु वह क़ानून का सम्मान न करे तो यह सभ्यता कमज़ोर हो जायेगी और अंततः असुरक्षा व अराजकता समाज के स्तंभों को हिला देंगी तथा उस सभ्यता की प्रगति रुक जायेगी। क्योंकि उद्देश्यहीन सभ्यता निरंकुशता का कारण बनेगी। इसीलिए इस्लामी सभ्यता का आधार नैतिक व आध्यात्मिक मूल्योंएकताऔर व्यक्तिगत तथा सामाजिक क़ानूनों पर रखा गया है।
सभ्यता सहित समाज और मनुष्य से संबंधित विषयों में  उतार- चढ़ाव आते हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हर सभ्यता अपने लम्बे जीवन में कुछ चरणों से गुज़रती है जिसके दौरान वह कभी विकास करती है तो कभी पतन की ओर जाती है। जैसाकि हमने बताया कि नैतिकता व आध्यात्मिकता का होना संस्कृति व सभ्यता के विकास का कारण बन सकता है। इसके विपरीत यदि कोई समाज सभ्य हो परंतु वह नैतिक और धार्मिक आधारों की अनदेखी कर दे तो दीर्घावधि में उसे अपूर्णीय क्षति का सामना होगा। इस बात का एक स्पष्ट प्रमाण एन्डालुशिया andalusia में मुसलमानों का कटु परिणाम है। बहुत से विशेषज्ञ इस्लामी एवं नैतिक मूल्यों की उपेक्षा को andalusia में मुसलमानों के पतन का कारण मानते हैं। यह ऐसी स्थिति में है कि ईश्वरीय धर्म इस्लाम नैतिक व आध्यात्मिक गुणों को निखारने एवं उनकी सुरक्षा पर बहुत बल देता है। इस्लामी इतिहास में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम का मक्का से मदीना पलायन का एक कारण यह था कि मुसलमान मक्के में प्रचलित अज्ञानता की संस्कृति से दूर हो जायें और नैतिक गुणों को निखारने हेतु अपने आपको नये वातावरण में रहने के लिए तैयार करें।
सभ्यताओं के पतन का एक कारण अज्ञानतास्वार्थ और भ्रष्टाचार है। अमेरिकी लेखक वेल डोरेन्ट ज्ञान और संस्कार में टकराव कोसभ्यता की तबाही का एक कारण मानता है। इस्लामी समाज का विशेषज्ञ एवं इतिहासकार इब्ने खलदून भी स्वार्थतानाशाही और भ्रष्टाचार को सभ्यताओं की बर्बादी का कारक समझता है। दूसरे कारक कि जो सभ्यताओं के पतन की भूमि प्रशस्त करते हैंसमाज में एकता व एकजुटता का अभाव है। ईरानी इतिहासकार एवं लेखक अब्दुल हुसैन ज़र्रीन कूब समाज में एकता व एकजुटता के अभाव कोसभ्यता के ठहराव का कारण मानते हैं और मेल-जोल तथा एकता को समाज की एकजुटता का कारण बताते हैं। उनका मानना है कि अमवी शासकों के काल से अरब मूल्यों व मान्यताओं को ग़ैर अरब मूल्यों पर वरियता दी जाने लगी तथा धीरे- धीरे वह ऊंची इमारत जिसकी बुनियाद मदीने में रखी गयी थीख़राब होने लगी और इस्लामी सभ्यता के पतन का काल उसी समय से आरंभ हो गया। ज़र्रीन कूब भ्रष्टाचार और एश्वर्य को भीजो लगभग शाम अर्थात वर्तमान सीरिया में बनी उमय्या की सरकार की स्थापना के समय आरंभ हुआ,इस्लामी सभ्यता की कमज़ोरी का एक अन्य कारक मानते हैं।
विदेशी शत्रुओं का आक्रमण भी संस्कृति के कमज़ोर होने या ठहराव का कारण बन सकता है। विदेशी शत्रुओं ने बारम्बार इस्लामी सभ्यता वाले क्षेत्रों पर आक्रमण किया है। इस्लामी जगत में मंगोलों के आक्रमण और क्रूसेड युद्ध जैसे बड़े युद्ध इस्लामी क्षेत्रों पर आक्रमण के कुछ उदाहरण हैं परंतु सौभाग्य से मुसलमान अपनी संस्कृति को नहीं भूले और आक्रमण के कुछ समय बाद दोबारा अपनी सभ्यता के अनुसार रहने लगे। प्रत्येक दशा में यदि इस्लामी देशों के इतिहास पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि इतिहास के विभिन्न कालों में इस्लामी सभ्यता को परवान चढ़ाने में मुसलमानों ने बहुत प्रयास किया है।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का एक महत्वपूर्ण क़दम, इस्लामी शासन के प्रशासनिक केंद्र के रूप में मस्जिद का निर्माण था। वस्तुतः इस बात की आवश्यकता थी कि एक ऐसे केंद्र का निर्माण किया जाए जो मुसलमानों का उपासना स्थल भी हो और साथ ही वहां उनकेराजनैतिक, न्यायिक, शैक्षिक यहां तक कि सामरिक मामलों को भी तैयार किया जाए। आरंभ में मस्जिद को,जनकोष, युद्धों से प्राप्त होने वाले धन-संपत्ति यहां तक कि बंदियों और युद्ध बंदियों की देख-भाल का स्थान समझा जाता था। वस्तुतः मस्जिद के कार्यक्षेत्र में सभी राजनैतिक व सामाजिक इकाइयां आती थीं, इसी आधार पर मदीना नगर में नवगठित इस्लामी शासन की स्थिरता एवं सुदृढ़ता में मस्जिद की विशेष भूमिका थी।

मस्जिद की भूमिका और क्रियाकलाप के बारे में यह कहना उचित होगा कि इस्लाम के आरंभिक काल में ज्ञान व ईमान के बीच सबसे गहरे संबंध मस्जिद में ही स्थापित होते थे। सभी इस्लामी शिक्षाओं व आदेशों का वर्णन मस्जिद में ही किया जाता था और धार्मिक शिक्षाओं बल्कि लिखने-पढ़ने से संबंधित सभी मामलेभी मस्जिद में अंजाम दिए जाते थे। बाद में जब धीरे-धीरे प्रशासनिक और न्यायिक मामलों की इकाइयां मस्जिद से अलग हुईं तब भी ज्ञान प्राप्ति के केंद्र मस्जिद के पड़ोस में ही बने रहे। इस आधार पर पिछली कुछ शताब्दियों तक इस्लामी देशों में बड़े मदरसे और विश्वविद्यालय नगर की जामा मस्जिदों केपास ही बनाए जाते थे।
धार्मिक आस्थाओं की रक्षा व उनके प्रचलन के लिए, जो पैग़म्बरे इस्लाम का मुख्य लक्ष्य था, निश्चित रूप से राजनैतिक, प्रशासनिक और सामरिक सहारे की आवश्यकता थी। उन्होंने सरकार के आधारों को सुदृढ़ बनाने तथा प्रशासनिक व्यवस्था के गठन के लिए सक्षम लोगों का चयन किया और उनमें से प्रत्येक को कुछ दायित्व सौंपे। उनमें से कुछ लोगों ने ज़कात और दान-दक्षिणा एकत्रित करने का काम आरंभ किया जबकि कुछ अन्य ने सामाजिक मामलों को सुव्यवस्थित करने का दायित्व संभाला। मदीना नगर की सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यंत सरल व सादा किंतु व्यापक थी। कुछ लोगों को समझौतों, संधियों और सहमति पत्रों को पंजीकृत करने, करों के मानक निर्धारित करने, युद्ध से प्राप्त होने वाले धन और संपत्ति का रिकार्ड रखने यहां तक कि क़ुरआने मजीद की आयतों को लिखने का दायित्व सौंप गया।

पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कुछ लोगों को इस बात के लिए भी नियुक्त किया था कि वे लोगों अथवा क़बीलों को दी जाने वाली भूमियों या जल स्रोतों की सूचि तैयार करें और उन लोगों अथवा क़बीलों के लिए स्वामित्व के दस्तावेज़ तैयार करें। यह अरबों की बीच पूर्ण रूप से नई शैली थी क्योंकि अरबों के बीच प्राचीन काल से चले आ रहे मतभेदों का एक कारण, भूमि व विभिन्न संपत्तियों विशेष कर कुओं और नहरों जैसे जल स्रोतों पर स्वामित्व हुआ करता था।
पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने इसी प्रकार यहूदी व ईसाई क़बीलों सहित विभिन्न क़बीलों के साथ कई संधियां व समझौते किए। इन समझौतों की विषयवस्तु, समय व स्थान और इसी प्रकार मुस्लिम सेना की कमज़ोरी व मज़बूती के दृष्टिगत भिन्न हुआ करती थी, इस प्रकार से कि कभी कभी उन लोगों को बहुत आश्चर्य होता था जिन्हें परिस्थितियों का पूरा ज्ञान नहीं था। उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मक्के के अनेकेश्वरवादियों से हुदैबिया नामक जो संधि की थी उसके अनुच्छेदों से कुछ लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ जबकि कुछ अन्य ने उस पर अपनी अप्रसन्नता व विरोध की घोषणा की। आगे चल कर इतिहास ने यह दर्शा दिया कि किस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने किस प्रकार मदीने में नवगठित सरकार की रक्षा व उसे सुदृढ़ बनाने तथा उसके लक्ष्यों व नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए अत्यंत दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति का प्रयोग किया और मामलों को सुव्यवस्थित किया।

इन प्रशासनिक कार्यों के साथ ही पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ईरान, रोम, मिस्र, यमन और ईथोपिया सहित विभिन्न पड़ोसी देशों केशासकों को पत्र लिखे। इन पत्रों का मुख्य विषय, उन शासकों को इस्लाम और एकेश्वरवाद का निमंत्रण देना था। अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि इन पत्रों में लिखी गई बातें, पैग़म्बरे इस्लाम की विदेश नीति का भाग थीं। उन्होंने विभिन्न अवसरों पर टकराव और युद्ध पर निमंत्रण और कूटनीति कोप्राथमिकता देने के अपने विश्वास का उल्लेख किया है। यदि उनके साथी किसी को भी इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण दिए बिना बनाते थे तो आप उस व्यक्ति को स्वतंत्र कर देते थे।
पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक अन्य कार्यवाही, इस्लामी शासन के विस्तार और इस्लामी शासन की सीमाओं के भीतर शांति वसुरक्षा की स्थापना पर आधारित थी। इसके लिए उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भी किया। वे कभी स्वयं युद्ध में सम्मिलित होते और कभी किसी अन्य को सेना की कमान सौंप देते थे। इसी प्रकार उन्होंने विभिन्न पड़ोसी क़बीलों के साथ संधियां कीं। उनकी इस प्रकार की कार्यवाहियां, उस समय के अरब जगत के राजनैतिक मंच से बाहर इस्लाम के प्रचार और उसके वैश्विक संदेश के प्रसार के लिए थीं।

अमरीकी इतिहासकारी वेल डोरेन्ट इस्लामी व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करने में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम कीतत्वदर्शितापूर्ण भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि उस काल में पैग़म्बर न केवल मुसलमानों के नेता थे अपितु मदीना नगर का राजनैतिक नेतृत्व भी उन्हीं के पास था तथा वे उस नगर के मुख्य न्यायाधीश भी समझे जाते थे। एक ईरानी इतिहासकार व अध्ययनकर्ता अब्दुल हुसैन ज़र्रीनकूब ने लिखा है कि विशेष रूप से मदीना नगर में इस्लामी आदेशों का मुख्य भाग निर्धारित हुआ। क़िबले के परिवर्तन के कुछ ही समय बाद, रमज़ान के महीने में रोज़े रखने और नमाज़ पढ़ने व ज़कात अदा करने के आदेश भी व्यवहारिक हो गए। उनके अनुसार जेहाद, युद्ध से प्राप्त होने वाले माल के बंटवारे,मीरास, शराब पर प्रतिबंध, हज और इसी प्रकार के कुछ अन्य आदेशों ने अरबों के जीवन के पूर्ण रूप से परिवर्तित करके उनके बीचए एकता उत्पन्न कर दी।
मदीना नगर पर पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के दस वर्षीय शासन के दौरान उन्होंने लगभग 80 छोटे-बड़े युद्धों का नेतृत्व किया। या तोवे स्वयं युद्ध में उपस्थित हो कर इस्लामी सेना का नेतृत्व करते थे या फिर स्वयं नगर में रहते और अपने किसी साथी को सेना का कमांडर निर्धारित कर देते थे। युद्धों में सेना के नेतृत्व की पैग़म्बरे इस्लाम की बौद्धिक युक्तियों और सामरिक मामलों में अन्य लोगों से परामर्श करने की उनकी शैली पर सभी इतिहासकारों ने विशेष ध्यान दिया है। यद्यपि युद्ध अथवा संधि के बारे में अंतिम निर्णय वे स्वंय लेते थे किंतु युद्ध व प्रतिरक्षा की शैली व रणनीतियों के बारे में वे अपने साथियों से अवश्य परामर्श करते थे। महत्वपूर्ण युद्धों से पूर्व वे प्रायः युद्ध परिषद का गठन करते थे और अन्य लोगों के विचार भी सुना करते थे। उदाहरण स्वरूप उहुद नामक युद्ध में, यद्यपि उनका विचार भिन्न था किंतु उन्होंने एक विचार पर अधिकांश लोगों के सहमत होने के कारण उस विचार को ही स्वीकार किया।

अरब के निकटवर्ती देशों व क्षेत्रों पर विजय प्राप्ति के पश्चात इस्लामी शासन का क्षेत्र फल बढ़ता चला गया। मुसलमान, विभिन्न राष्ट्रों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियां से परिचित हुए जो स्वाभाविक रूप से एक समान न थीं। यह परिचय इस बात का कारण बना कि इन संस्कृतियों की कुछ परंपराएं, मुसलमानों के सरल एवं सादा जीवन में भी प्रविष्ट हो जाएं। इस्लामी संस्कृति को अचानक ही विभिन्न प्रकार की परंपराओं, संस्कारों एवं आचरणों का सामना हुआ किंतु इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर जो परंपरा और जो संस्कार धर्म से विरोधाभास नहीं रखता था, वह धर्म में सम्मिलित हो गया। यह स्थिति इस सीमातक जारी रही कि दूसरे ख़लीफ़ा के शासन काल की समाप्ति पर मदीन के सामाजिक वातावरण का ढांचा पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया।

दूसरी ओर जीते गए क्षेत्रों की रक्षा और वहां के मामलों के सही संचालन के लिए विशेष प्रकार के ज्ञान व अनुभव की आवश्यकता थी जिससे आरंभ मेंमुसलमान अनभिज्ञ थे किंतु जब उन्होंने निरंतर विजय प्राप्त करनी आरंभ की तो विभिन्न प्रकार की कलाओं, राजनैतिक युक्तियों और संचालन की शैली सीखने का अधिक आभास होने लगा और उन्होंने इन क्षेत्रों में दक्षता प्राप्त करने के प्रयास आरंभ कर दिए। इसी समय से धीरे-धीरे नवगठित मुस्लिम समाज में राजनैतिक तंत्र को सुव्यवस्थित करने हेतु संचालन संस्थाएं अस्तित्व में आने लगीं। शायद कहा जा सकता है कि ये संस्थाएं, मदीने में जनकोष की स्थापना के साथ अस्तित्व में आना आरंभ हुईं और उमवी व अब्बासी शासनकाल में प्रशासन व संचालन की विभिन्न संस्थाएं गठित हो गईं।

इस्लामी शासन द्वारा प्राप्त की गई विजयों के बारे में इस महत्वपूर्ण बिंदु की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए कि युद्धों से प्राप्त होने वाले धन और संपत्ति ने अनचाहे में ही इस्लामी समाज में ऐश्वर्य और हित प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इन समस्याओं ने बाद के काल में इस्लाम की शासन व्यवस्था पर बड़े बुरे प्रभाव डाले और विभिन्न प्रकार की पथभ्रष्टताओं का कारण बनीं। यहां तक कि अरबों ने अपने सांसारिक हितों को अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों तक के अधिकारों की अनदेखी कर दी। अल्बत्ता इसी के साथ यह भी कहनाचाहिए कि इस्लामी शासन की विजयों के काल में होने वाले परिवर्तनों के चलते ही अन्य क्षेत्रों विशेष कर ईरानी मुसलमानों के माध्यम से आने वाले विभिन्नज्ञानों ने इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस्लामी शासन की आरंभिक विजयों के बाद ही अनेक प्रचारकों काप्रशिक्षण किया गया जो दूरवर्ती क्षेत्रों में इस्लाम का प्रसार भी करते थे और इस्लामी सभ्यता के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के ज्ञान भी स्थानांतरित करते थे। यह बात इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा तैयार करने में अत्यधिक  सहायक सिद्ध हुई।

पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने धर्म के प्रचार के लिए मदीना नगर में एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की नींव डाली जिसमें आदर्श न्यायिक विभागसैनिक संस्था तथा कार्यालय तंत्र था यह इस्लामी सभ्यता धीरे धीरे फैलती गई।
 ज्ञान और चिंतन पर इस्लामी शिक्षाओं में विशेष रूप से बल दिया गया है। यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि इस्लाम के अतिरिक्त किसी भी धर्म ने ज्ञान एवं विद्या ग्रहण करने के विषय पर इतना अधिक बल नहीं दिया है। क़ुरआन मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम के प्रवचनों के अध्ययन से समझा जा सकता है कि ईश्वर तथा ईश्वरीय दूत मुसलमानों ही नहीं बल्कि दूसरे मतों के अनुयायियों सहित सभी मनुष्यों को चिंतन मनन तथा बुद्धि से काम लेने का निमंत्रण दिया। ईश्वर के निकट अंधा विश्वास और सोच-विचार से रिक्त आस्था स्वीकार्य नहीं है। बुद्धि ऐसा साधन है जो ईश्वर की पहचान प्राप्त करने में मनुष्य की सहायता करता है। ईश्वर तथा एकेश्वरवाद को समझने का मार्ग भी चिंतन मनन ही है। ईश्वर ने सूरए अन्बिया की आयत नम्बर 67 में कहता है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य अस्तित्व को ईश्वर समझ बैठने का करण चिंतन और विचार से दूरी है। आयत में कहा गया है कि धिक्कार हो तुम पर और उस पर जिसे तुम ईश्वर समझ बैठे होक्या तुम सोच समझ नहीं रहे हो?!
इस्लाम धर्म ने अज्ञानी व्यक्ति की आलोचना की है। अज्ञानी का अर्थ निरक्षर व्यक्ति नहीं है। संभव है कि कुछ लोग शिक्षित हों किंतुवास्तव में अज्ञानी हों। वे संसार की वस्तुओं की जानकारी एकत्रित करके अपने आप को ज्ञानी समझ बैठे हैं जबकि उनके मन में सूचनाओं के भंडार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वे जीवन के मूल विषयों और मामलों के बारे में कभी कोई सोच विचार नहीं करते इसी लिए सही मार्ग नहीं खोज पाते।
मानव इतिहास में जो लोग धर्म और ज्ञान को एक दूसरे के विपरीत मानते रहे हैं वो इस्लाम धर्म में ज्ञान के स्थान और महत्व को देखकर निश्चित रूप से आवाक रह जाएंगे और उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलेगा। इस्लाम धर्म के इतिहास तथा ज्ञान स्रोतों में कहीं भी धर्म और ज्ञान का कोई टकराव नहीं दिखाई देता है। जाबिर इब्ने हय्यानमोहम्मद मूसा ख़्वारज़्मीमोहम्मद बिन ज़करिया राज़ी,फ़ाराबीइब्ने हैसमइब्ने सीनाइब्ने रुश्द और दूसरे अनेक विद्वान इस्लाम में धर्म और ज्ञान के संगम तथा ज्ञान और शिक्षा पर इस्लाम धर्म के विशेष ध्यान के प्रतीक हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम पर उतरने वाले पहले ही सूरे में ईश्वर कहता है कि पढ़ो अपने पालनहार के नाम से कि जिसने रचना कीजमे हुए ख़ून से मनुष्य की रचना कीपढ़ो कि तुम्हारा पालनहार सबसे बड़ा हैवही जिसने क़लम से ज्ञान दिया और मनुष्य को उस बात का ज्ञान दिया जो वो नहीं जानता था। इस विषय का महत्व उस समय और भी विधिवत ढंग से समझ में आएगा जब हम इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित रखें कि जिन दिनों यह आयतें उतरीं मक्के और हिजाज़ के क्षेत्र में न क़लम था और न लिखने वाले। यदि कुछ लोगों को थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना आता भी था तो मक्के मेंजो धार्मिकराजनैतिक और आर्थिक केन्द्र थाउनकी संख्या बीस से अधिक नहीं थी। इन परिस्थितियों में ईश्वर ने लिखने और पढ़ने की सौगंध खायी हैजिससे इस्लाम धर्म के निकट ज्ञान और शिक्षा के महत्व का अनुमान होता है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने एक महत्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने ज्ञान और शिक्षा को सार्वजनिक किया। उन्होंने मदीना नगर में परिश्रम करके ज्ञान और शिक्षा के साधनों और संभावनाओं तक हरेक की पहुंच को संभव बनाया। इस प्रकार किसी भी वर्ग से संबंध रखने वाला कोई भी व्यक्ति अपने प्राकृतिक क्षमताओं के आधार पर तथा अपने प्रयासों और परिश्रम के अनुसार परिपूर्णता तक पहुंच सकता था। बद्र युद्ध में मुसलमानों को विजय प्राप्त हुई और नास्तिकों के कुछ लोग युद्धबंदी बन गए। इन युद्ध बंदियों में कुछ पढ़े लिखे थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने घोषणा कर दी कि हर युद्ध बंदी दस मुसलमानों को लिखना-पढ़ना सिखाकर रिहाई प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार बहुत से मुसलमानों को शिक्षा प्राप्त हो गई। ज़ैद बिन साबित उन लोगों में थे जिन्होंने इन्हीं युद्धबंदियों से शिक्षा प्राप्त की। पैग़म्बरे इस्लाम के इस पक्ष से जहां ज्ञान और शिक्षा पर इस्लाम धर्म के विशेष ध्यान का पता चलता है वहीं युद्ध बंदियो के अधिकारों की रक्षा के संबंध में इस्लाम का दृष्टिकोण भी सामने आता है जो मानव समाजों के लिए शिक्षाप्रद बिंदु है।
क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम तथा उनके परिजनों के प्रवचनों में ज्ञान और शिक्षा के बारे में जो कुछ कहा गया है यदि उसे बिना किसी विवरण और विशलेषण के एकत्रित कर दिया जाए तो कई बड़ी पुस्तकें तैयार हो जाएंगी। यह निश्चित है कि यदि इस्लाम धर्म के महापुरुषों ने ज्ञान और शिक्षा के महत्व पर इतना अधिक बल न दिया होता तो इस्लाम को इतना महान स्थान पर भी प्राप्त न हो पाता। इतिहास में भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि इस्लमी सभ्यता के काल में इस्लामी जगत में विभिन्न विषयों और ज्ञान का बड़ाविकास हुआ तथा मुसलमनों ने ज्ञान ग्रहण करने के साथ ही कुछ नए विषयों का अविष्कार भी किया। विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी। धार्मिक एवं ज्ञान केन्द्रों में बहुत बड़े पुस्तकालय तथा अध्ययन केन्द्र बनाए गए तथा धर्म व ज्ञान का एक साथ प्रसार हुआ। महान इस्लामी बुद्धिजीवी एवं धर्मगुरू शहीद मुरतज़ा मुतह्हरी ने ज्ञान एवं ईमान के विषय पर चर्चा करते हुए ज्ञान और ईमान के टकराव के बारे में ईसाई धर्म के विचार की ओर संकेत किया है और कहा है कि धर्म और ज्ञान के आपसी संबंध के बारे में ईसाई मत के लोगों के ग़लत निष्कर्ष के कारण यूरोप के सभ्य समाज का इतिहास ज्ञान और धर्म के टकराव का साक्षी बना। किंतु इस्लामी इतिहास के हर युग में चाहे उत्थान का काल हो या पतन का ज्ञान और धर्म दोनों सदैव एक साथ दिखाई देते हैं। शहीद मुतह्हरी इसके बाद कहते हैं कि हमें ईसाइयों के इस विचार से स्वयं को दूर रखना चाहिए और इस पर कदापि विश्वास नहीं करना चाहिए कि धर्म और ज्ञान के बीच टकराव पाया जाता है। उनका कहना है कि ज्ञान और धर्म एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं और इन दोनों के सहारे मनुष्य परिपूर्णता तक पहुंचता है।
इस्लामी विचारधारा के अनुसार धर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग नहीं हैं बल्कि दोनों के बीच बहुत निकट संबंध है। क़ुरआन में अस्सी बार अनेक स्थानों पर ज्ञान का शब्द आया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस्लाम ज्ञान को विशेष महत्व की दृष्टि से देखता है और उसे विशेष सम्मान देता है। ईश्वर ने क़ुरआन के सूरए मुजादेला की आयत नम्बर ११ में कहा है कि ईश्वर ईमान लाने वालों और ज्ञान प्राप्त करने वालों को उच्च स्थान प्रदान करता है।
ईश्वर बुद्धिमान लोगों को सृष्टिधरती की रचनाआसमानसितारोंसूर्च और चंद्रमा की उत्पत्ति के बारे में चिंतन का निर्देश देता है। कुरआन की कुछ आयतों का मुसलमानों को गणित और खगोल शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने में विशेष प्रभाव रहा है। ईश्वर सूरए युनुस की आयत क्रमांक ५ में कहता है कि वो (ईश्वर) वही है जिसने सूर्य को प्रकाश तथा चंद्रमा को ज्योति बनाया तथा उनके लिए कुछ स्थान निर्धारित किए हैं ताकि तुम वर्षों की संख्या और हिसाब को समझ सकोईश्वर ने इनकी रचना नहीं की सिवाए इसके कि हक़ के साथ। वो निशानियों को बुद्धि रखने वालों के लिए बयान करता है।
आयतों और प्रवचनों में ज्ञान के महत्व तथा ज्ञानियों के उच्च स्थान को विशेष रूप से बयान किया गया है। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम के एक साथी उनकी सेवा में पहुंचे और कहा कि हे ईश्वर के दूत किसी जनाज़े के अंतिम संस्कार में सम्मिलिति तथा ज्ञान की सभा में उपस्थिति में आपके निकट कौन अधिक प्रिय हैपैग़म्बरे इस्लाम ने उत्तर दिया कि यदि अंतिम संस्कार के लिए कुछ लोग उपलब्ध हैं तो एक ज्ञानी की सभा में जाना हज़ार मृतकों के अंतिम संस्कार में भाग लेनेएक हज़ार बीमारों को दखने जानेहज़ार रातों की उपासना,एक हज़ार रोज़े रखनेग़रीबों को दान स्वरूप एक हज़ार दिरहम देनेएक हज़ार बार हज करनेईश्वर के मार्ग में एक हज़ार युद्धों में भागलेने से भी बहुत बेहतर है। क्या तुम नहीं जानते कि ईश्वर की उपासना केवल ज्ञान के माध्यम से ही की जा सकती है। लोक परलोक की भलाई ज्ञान में है तथा लोक परलोक की बुराई अज्ञानता में।
पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के जीवन काल में विशेष रूप से इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के युग में ज्ञान और शिक्षा का बड़ा विकास हुआ। इन महापुरुषों ने अपने अनुयायियों और श्रद्धालुओं को ज्ञान अर्जित करने के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहित किया। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है कि यदि कोई ज्ञान और तत्वदर्शिता के बिना कोई काम करता है तो एसा ही है जैसे कोई पथिक सही मार्ग के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग पर चल निकला है अतः वो जितना आगे बढ़ेगा उतना ही सही मार्ग से दूर होता जाएगा।

आयतों और प्रवचनों से पता चलता है कि इस्लाम के निकट धर्म और ज्ञान में न केवल यह कि कोई टकराव  नहीं है बल्कि दोनों एक दूसरे के लिए अनिवार्य हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी सभ्यता की ज्ञान के क्षैत्र में प्रकाशमय गतिविधियां भी इस बात की सूचक हैं कि मुसलमान ज्ञानी विभिन्न विषयों में ज्ञान संबंधी गतिविधियों को उपासना का दर्जा देते थे और यह लोग प्रायः धर्म पर गहरी आस्था रखने वाले होते थे। शरफ़ुद्दीन ख़ुरासानी ने इस्लामी विश्वकोष में लिखते हैं कि प्रख्यात दार्शनिक एवं चिकित्सक अबू अली सीना ने अपनी जीवनी में कहा ह कि जब भी उन्हें तर्क शास्त्र के अध्ययन के समय कोई गुत्थी परेशान कर देती थी वे उठकर मस्जिद जाते थे और नमाज़ पढ़ते थे तथा ईश्वर से इस समस्या का समाधान प्राप्त करने की दुआ मांगते थे।

इस बिंदु पर भी ध्यान रखना आवश्यक है कि इस्लाम में ज्ञान ग्रहण करने के कुछ संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इस्लाम में ज्ञान,उपासना तथा शिष्टाचार को एक दूसरे के लिए अभिन्न ठहराया गया है और तीनों को एक साथ रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। वस्तुतः इस्लाम धर्म में ज्ञानी एक प्रतिबद्ध एवं ज़िम्मेदार मनुष्य होता है जबकि शिष्टाचार से वंचित ज्ञानी समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। यह इस्लाम धर्म की एक अद्वितीय विशेषता है कि उसने ज्ञान एवं प्रशिक्षण के विषय में निर्धारित सिद्धांत रखे हैं।



अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के दामन से वाबस्ता होने के अलावा निजात का कोई दूसरा रास्ता नहीं है ?

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पैगम्बर अकरम (स.) के असहाब के एक मशहूर गिरोह ने इस हदीस को पैगम्बर (स.) नक़्ल किया है।
“ अख़ा रसूलुल्लाहि (स.) बैना असहाबिहि फ़अख़ा बैना अबिबक्र व उमर व फ़ुलानुन व फ़ुलानुन फ़जआ अली (रज़ियाल्लहु अन्हु) फ़क़ाला अख़ीता बैना असहाबिक व लम तुवाख़ बैनी व बैना अहद फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) अन्ता अख़ी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति।

तर्जमा- पैगम्बर (स.) ने अपने असहाब के बीच भाई का रिश्ता क़ाइम किया अबुबकर को उमर का भाई बनाया और इसी तरह सबको एक दूसरे का भाई बनाया। उसी वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम हज़रत की ख़िदमत में तशरीफ़ लाये और अर्ज़ किया कि आपने सबके दरमियान बरादरी का रिश्ता क़ाइम कर दिया लेकिन मुझे किसी का भाई नही बनाया। पैगम्बरे अकरम (स.) ने फ़रमाया आप दुनिया और आख़ेरत में मेरे भाई हैं।

इसी से मिलता जुलता मज़मून अहले सुन्नत की किताबों में 49 जगहों पर ज़िक्र हुआ है।1]

क्या हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैगम्बरे अकरम (स.) के दरमियान बरादरी का रिश्ता इस बात की दलील नही है कि वह उम्मत में सबसे अफ़ज़लो आला हैं क्या अफ़ज़ल के होते हुए मफ़ज़ूल के पास जाना चाहिए ?

3- निजात का तन्हा ज़रिया
अबुज़र ने खाना-ए-काबा के दर को पकड़ कर कहा कि जो मुझे जानता हैवह जानता है और जो नही जानता वह जान ले कि मैं अबुज़र हूँमैंने पैगम्बरे अकरम (स.) से सुना है कि उन्होनें फ़रमाया “ मसलु अहलुबैती फ़ी कुम मसलु सफ़ीनति नूह मन रकबहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।
तुम्हारे दरमियान मेरे अहले बैत की मिसाल किश्ती-ए-नूह जैसी हैं जो इस पर सवार होगा वह निजात पायेगा और जो इससे रूगरदानी करेगा वह हलाक होगा।[2]
जिस दिन तूफ़ाने नूह ने ज़मीन को अपनी गिरफ़्त में लिया था उस दिन नूह अलैहिस्सलाम की किश्ती के अलावा निजात का कोई दूसरा ज़रिया नही था। यहाँ तक कि वह ऊँचा पहाड़ भी जिसकी चौटी पर नूह (अ.) का बेटा बैठा हुआ था निजात न दे सका।
क्या पैगम्बर के फ़रमान के मुताबिक़ उनके बाद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के दामन से वाबस्ता होने के अलावा निजात का कोई दूसरा रास्ता है ?
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गिरोहे मआरिफ़ व तहक़ीक़ाते इस्लामी (क़ुम)
रमज़ान उल मुबारक 1422 हिजरी
1अल्लामा अमीने अपनी किताब अलग़दीर की तीसरी जिल्द में इन पचास की पचास हदीसों का ज़िक्र उनके हवालों के साथ किया है।
2मसतदरके हाकिम जिल्द 2/150 हैदराबाद से छपी हुई। इसके अलावा अहले सुन्नत की कम से कम तीस मशहूर किताबों में इस हदीस को नक़्ल किया गया है।

इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद

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इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद समाज से बुराईयों को दूर कर के अदालत (न्याय) को स्थापित करना और लोगों के जीवन को पवित्र बनाना है। यह उसी समय संभव हो सकता है जब इमामत का ओहदा लायक़आदिल व हक़ परस्त इंसान के पास हो। कोई समाज उसी समय अच्छा व सफ़ल बन सकता है जब उसके ज़िम्मेदार लोग नेक हों। इस बारे में हम आपके सामने दो हदीसे पेश कर रहे हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “ दीन को नुक़्सान पहुँचाने वाले तीन लोग हैं
१) बे अमल आलिमज़ालिम 
२)बदकार इमाम और 
३) जाहिल जो दीन के बारे में अपनी राय दे।


इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से रिवायत की है कि आपने फ़रमाया कि दो गिरोह ऐसे हैं अगर वह बुरे होंगे तो उम्मत में बुराईयाँ फैल जायेंगी और अगर वह नेक होंगे तो उम्मत भी नेक होगी। 

आप से पूछा गया कि या रसूलल्लाह वह दो गिरोह कौन हैं आपने जवाब दिया कि उम्मत के आलिम व हाकिम।

मुहम्मद ग़िज़ाली मिस्री ने बनी उमैय्याह के समय में हुकूमत में फैली हुई बुराईयों को इस तरह बयान किया है।
ख़िलाफ़त बादशाहत में बदल गयी थी।
हाकिमों के दिलों से यह एहसास ख़त्म हो गया थाकि वह उम्मत के ख़ादिम हैं। वह निरंकुश रूप से हुकूमत करने लगे थे और जनता को हर हुक्म मानने पर मजबूर करते थे।
कम अक़्लमुर्दा ज़मीरगुनाहगारगुस्ताख़ और इस्लामी तालीमात से ना अशना लोग ख़िलाफ़त पर क़ाबिज़ हो गये थे।
बैतुल माल (राज कोष) का धन उम्मत की ज़रूरतों व फ़क़ीरों की आवश्यक्ताओं पर खर्च न हो कर ख़लीफ़ाउसके रिश्तेदारों व प्रशंसको की अय्याशियों पर खर्च होता था।
तास्सुबजिहालत व क़बीला प्रथा जैसी बुराईयाँजिनकी इस्लाम ने बहुत ज़्यादा मुख़ालेफ़त की थीफिर से ज़िन्दा हो उठी थीं। इस्लामी भाई चारा व एकता धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही थी। अरब विभिन्न क़बीलों में बट गये थे। अरबों और अन्य मुसलमान के मध्य दरार पैदा हो गयी थी। बनी उमैय्याह ने इसमें अपना फ़ायदा देखा और इस तरह के मत भेदों को और अधिक फैलायाएक क़बीले को दूसरे क़बीले से लड़ाया। यह काम जहाँ इस्लाम के उसूल के ख़िलाफ़ था वहीं इस्लामी उम्मत के बिखर जाने का कारण भी बना।
चूँकि ख़िलाफ़त व हुकूमत ना लायक़बे हया व नीच लोगों के हाथों में पहुँच गई थी लिहाज़ा समाज से अच्छाईयाँ ख़त्म हो गयी थीं।
इंसानी हुक़ूक (आधिकारों) व आज़ादी का ख़ात्मा हो गया था। हुकूमत के लोग इंसानी हुक़ूक़ का ज़रा भी ख़्याल नही रखते थे। जिसको चाहते थे क़त्ल कर देते थे और जिसको चाहते थे क़ैद में डाल देते थे। सिर्फ़ हज्जाज बिन यूसुफ़ ने ही जंग के अलावा एक लाख बीस हज़ार इंसानों को क़त्ल किया था।
अखिर में ग़ज़ाली यह लिखते हैं कि बनी उमैय्याह ने इस्लाम को जो नुक़्सान पहुँचाया वह इतना भंयकर थाकि अगर किसी दूसरे दीन को पहुँचाया जाता तो वह मिट गया होता।

सेहत और बिमारियों के बारे में मासूमीन (अ) के क़ीमती अक़वाल|

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सेहते चश्म (आँख की देख रेख और इलाज )

१) अगर आँख में तकलीफ़ हो तो जब तक ठीक न हो जाये बायीं करवट सो। (रसूले ख़ुदा स0)

२) तीन चीज़ें आँख की रोशनी में इज़ाफ़ा करती हैं। सब्ज़े (हरियाली ) पर, बहते पानी पर और नेक चेहरे पर निगाह करना। ( इमाम मूसा काज़िम अ0)

३) मिसवाक करने से आँख की रौशनी में इज़ाफ़ा होता है। (हज़रत अली अ0)

४) खाने के बाद हाथ धो कर भीगे हाथ आँख पर फेरे दर्द नहीं करेगी। (इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)

५) जब भी तुम में से किसी की आँख दर्द करे तो चाहिये कि उस पर हाथ रख कर आयतल कुर्सी की तिलावत करे इस यक़ीन के साथ कि इस आयत की तिलावत से दर्दे चश्म ठीक हो जायेगा। (इमाम अली अ0)

६) जो सूर-ए-दहर की तीसरी आयत हर रोज़ पढ़े आँख की तकलीफ़ से महफ़ूज़ रहेगा। (इमाम अली अ0)

पेशाब की ज़्यादतीः
१) इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से एक शख़्स ने पेशाब की ज़्यादती की शिकायत की तो आप अ0 ने फ़रमाया  काले तिल खा लिया करो।
दस्तूराते उमूमी आइम्मा-ए-ताहिरीन अ0
सफेद दाग़ (बरस) का इलाज :-  

१) किसी ने इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से सफ़ेद दाग़ की शिकायत की। आपने फ़रमाया नहाने से पहले मेहदी को नूरा में मिला कर बदन पर मलो।

२) एक शख़्स ने इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से बीमारी बरस की शिकायत की, आपने फ़रमाया तुरबते इमामे हुसैन अ0 की ख़ाक बारिश के पानी में मिलाकर इस्तेफ़ादा करो।

३) सहाबी इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 के बदन पर सफ़ेद दाग़ पैदा हो गए। आपने फ़रमाया सूर-ए-या-सीन को पाक बरतन पर शहद से लिख कर धो कर पियो।
४) इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 ने फ़रमाया बनी इस्राईल में कुछ लोग सफ़ेद दाग़ में मुब्तिला हुए, जनाबे मूसा को वही हुई कि उन लोगों को दस्तूर दो कि गाय के गोश्त को चुक़न्दर के साथ पका कर खायें।

५) जो खाने के पहले लुक़्मे पर थोड़ा सा नमक छिड़क कर खाये, चेहरे के धब्बे ख़त्म हो जाएंगे।
कुछ आम हिदायतें सेहत के लिए |

१) बीमारी में जहाँ तक चल सको चलो। (इमाम अली अ0)
२) खड़े होकर पानी पीना दिनमें ग़िज़ा को हज़म करता है और रात में बलग़म पैदा करता है। ( इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)
३) हज़रत अली अ0 फ़रमाते हैं कि जनाबे हसने मुज्तबा अ0 सख़्त बीमार हुए। जनाबे फ़ातेमा ज़हरा स0 बाबा की खि़दमत में आयीं और ख़्वाहिश की कि फ़रज़न्द की शिफ़ा के लिये दुआ फ़रमायें उस वक़्त जिबराईल अ0 नाज़िल हुए और फ़रमाया ‘‘या रसूलल्लाह स0 परवरदिगार ने आप अ0 पर कोई सूरा नाज़िल नहीं किया मगर यह कि उसमें हरफ़े ‘फ़े'न हो और हर ‘फ़े'आफ़त से है ब-जुज़ सूर-ए-हम्द के कि उसमें ‘फ़े'नहीं है। पस एक बर्तन में पानी लेकर चालीस बार सूर-ए-हम्द पढ़ कर फूकिये और उस पानी को इमाम हसन अ0 पर डालें इन्शाअल्लाह ख़ुदा शिफ़ा अता फ़रमाएगा।''

४) अपने बच्चों को अनार खिलाओ कि जल्द जवान करता है। (इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)
५) रसूले ख़ुदा को अनार से ज़्यादा रूए ज़मीन का कोई फल पसन्द नहीं था। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
६) गाय का ताज़ा दूध पीना संगे कुलिया में फ़ायदा करता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
७) ख़रबूज़ा मसाने को साफ़ करता है और संग-मसाना को पानी करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
८) चुक़न्दर में हर दर्द की दवा है आसाब को क़वी करता है ख़ून की गर्मी को पुरसुकून करता है और हड्डियों को मज़बूत करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
९) जिस ग़िज़ा को तुम पसन्द नहीं करते उसको न खाना वरना उससे हिमाक़त पैदा होगी। (इमाम सादिक़ अ0)
१०) खजूर खाओ कि उस में बीमारियों का इलाज है।
११) दूध से गोश्त में रूइदगी और हड्डियों में कुव्वत पैदा होती है। (इमाम सादिक़ अ0)
१२) अन्जीर से हड्डियों में इस्तेक़ामत और बालों में नमू पैदा होती है और बहुत से अमराज़ बग़ैर इलाज के ही ख़त्म हो जाते हैं। (इमाम सादिक़ अ0)
१३) जो उम्र ज़्यादा चाहता है वह सुबह जल्दी नाश्ता खाये। (इमाम अली अ0)

खाना खाने के आदाब

१) तन्हा खाने वाले के साथ शैतान शरीक होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
२) जब खाने के लिये चार चीज़ें जमा हो जायें तो उसकी तकमील हो जाती है। 1. हलाल से हो 2. उसमें ज़्यादा हाथ शामिल हों 3. उसमें अव्वल में अल्लाह का नाम लिया जाये और 4. उसके आखि़र में हम्दे ख़ुदा की जाये। (रसूले ख़ुदा स0)
३) सब मिल कर खाओ क्योंकि बरकत जमाअत में है। (रसूले ख़ुदा स0)
४) जिस दस्तरख़्वान पर शराब पी जाये उस पर न बैठो। (रसूले ख़ुदा स0)
५) चार चीज़ें बरबाद होती हैंः शोराज़ार ज़मीन में बीज, चांदनी में चिराग़, पेट भरे में खाना और न एहल के साथ नेकी। (इमाम सादिक़ अ0)
६) जो शख़्स ग़िज़ा कम खाये जिस्म उसका सही और क़ल्ब उसका नूरानी होगा। (रसूले ख़ुदा स0)
७) जो शख़्स क़ब्ल व बाद ग़िज़ा हाथ धोए ताहयात तन्गदस्त न होए और बीमारी से महफ़ूज़ रहे। (इमाम सादिक़ अ0)
८) क़ब्ल तआम खाने के दोनों हाथ धोए अगर चे एक हाथ से खाना खाये और हाथ धोने के बाद कपड़े से ख़ुश्क न करे कि जब तक हाथ में तरी रहे तआम में बरकत रहती है। (इमाम सादिक़ अ0)

हज़रत अली अ0 फ़रमाते हैंः

१) कोई ग़िज़ा न खाओ मगर यह कि अव्वल उस तआम में से सदक़ा दो।
२) ज़्यादा ग़िज़ा न खाओ कि क़ल्ब को सख़्त करता है, आज़ा व जवारेह को सुस्त करता है नेक बातें सुनने से दिल को रोकता है और जिस्म बीमार रहता है।
३) ज़िन्दा रहने के लिये खाओ, खाने के लिये ज़िन्दा न रहो।
४) जो ग़िज़ा (लुक़्मे) को ख़ूब चबाकर खाता है फ़रिश्ते उसके हक़ में दुआ करते हैं, रोज़ी में इज़ाफ़ा होता है और नेकियों का सवाब दो गुना कर दिया जाता है।
५) जो शख़्स वक़्ते तआम खाने के बिस्मिल्लाह कहे तो मैं ज़ामिन हूँ कि वह खाना उसको नुक़्सान न करेगा।
वक़्त खाना खाने के शुक्रे खुदा और याद उसकी और हम्द उसकी करो।
६) जिस शख्स को यह पसन्द है कि उसके घर में खैर व बरकत ज़्यादा हो तो उसे चाहिये कि खाना जब हाजिर हो तो वज़ू करे।
७) जो कोई नाम ख़ुदा का अव्वल तआम में और शुक्र ख़ुदा का आखि़र तआम पर करे हरगिज़ उस खाने का हिसाब न होगा।
८) जो ज़र्रा दस्तरख्वान पर गिरे उनका खाना फक्ऱ को दूर करता है और दिल को इल्म व हिल्म और नूरे ईमान से मुनव्वर करता है।
९) जनाबे अमीरूल मोमेनीन अ0 ने फ़रमाया के ऐ फ़रज़न्द! मैं तुमको चार बातें ऐसी बता दूँ जिसके बाद कभी दवा की ज़रूरत न पड़े- 1.जब तक १०) भूख न हो न खाओ। 2. जब भूख बाक़ी हो तो खाना छोड़ दो। 3. खूब चबा कर खाओ। 4. सोने से पहले पेशाब करो।
११) रौग़ने ज़ैतून ज़्यादतीए हिकमत का सबब है। (इ0 ज़माना अ0)
१२) भरे पेट कुछ खाना बाएस कोढ़ और जुज़ाम का होता है।

ग़ुस्ल और सेहत

१) नहाना इन्सानी बदन के लिये इन्तेहायी मुफीद है। ग़ुस्ल इन्सानी जिस्म को मोतदिल करता है, मैल कुचैल को जिस्म से दूर करता है आसाब और रगों को नरम करता है और जिस्मानी आ़ा को ताक़त अता करता है। गन्दगी को ख़त्म करता है और जिस्म की जिल्द से बदबू को दूर करता है। (इमाम रिज़ा अ0)
२) ख़ाली या भरे हुए पेट में हरगिज़ नहीं नहाना चाहिये, बल्कि नहाते वक़्त कुछ ग़िज़ा मेदे में मौजूद होना चाहिए। ताकि मेदा उसे हज़म करने में मशग़ूल रहे, इस तरह मेदे को सुकून मिलता है। (इमाम सादिक़ अ0)
३) एक रोज़ दरमियान नहाना गोश्त बदन में इज़ाफ़ा का सबब है। (इमाम मूसा काज़िम अ0)
४) नहाने से पहले सर पर सात चुल्लू गरम पानी डालो कि सर दर्द में शिफ़ा हासिल होगी। (इमाम सादिक़ अ0)
५) अगर चाहते हो कि खाल दाने, आबले, जलन से महफ़ूज़ रहे तो नहाने से पहले रौग़ने बनफ़शा बदन पर मलो। (इमाम रिज़ा अ0)
६) नहार मुँह ग़ुस्ल करने से बलग़म का ख़ात्मा होता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)

 दूध की अहमियत

बतौर ग़िज़ा दूध की एहमियत से कौन इनकार कर सकता है, दूध ऐसी मुतावाज़िन ग़िज़ा है जिसमें ग़िज़ा के तमाम अजज़ा (कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फैट, विटामिन, मिनीरल और पानी) पाया जाता है। यही सबब है कि दूध बीमारी, सेहत और हर उम्र के अफ़राद के लिये मुफ़ीद है। अगर किसी का जिस्म दूध क़ुबूल न करता हो तो उबालते वक़्त चन्द दाने इलाइची के डाल दें।

क़ुरआन दूध की अहमियत को इस तरह बयान करता है और चैपायों के वजूद में तुम्हारे पीने के लिये हज़मशुदा ग़िज़ा (फ़रस) और ख़ून में से ख़ालिस और पसन्दीदा दूध फ़राहम करते हैं (सूर-ए-हिजर आयत 66) यानी माँ जो कुछ खाती है उससे फरस बनता है और फिर उससे ख़ून बनता है और उन दोनों के दरमिया में से दूध वुजूद में आता है। मतलब यह कि दूध में हज़म शुदा ग़िज़ा के अजज़ा के साथ ख़ून के अनासिर भी शामिल होते हैं। आयत में दूध को ख़ालिस और मुफ़ीद क़रार दिया गया है।

दूध के बाज़ अनासिर ख़ून में नही होते और पिसतान के गुदूद में बनते हैं मसलन काज़ईन, ख़ून के कुछ अनासिर बग़ैर किसी तग़य्युर के ख़ून के प्लाज़मा से तुरशह होकर दूध में दाखि़ल होते हैं मसलन मुख़तलिफ़ विटामिन, खूरदनी नामक और मुखतलिफ फासफेट। कुछ और मवाद तबदील हो कर खून से मिलते हैं जैसे दूध में मौजूद लेकटोज़ शकर।

माहिरीन कहते हैं कि पिसतान में एक लीटर दूध पैदा होने के लिये कम अज़ कम पाँच सौ लीटर ख़ून को उस हिस्से से गुज़रना पड़ता है ताकि दूध के लिये ज़रूरी मवाद ख़ून से हासिल किया जा सके। बच्चा जब पैदा होता है तो उसका दिफ़ाई निज़ाम बहुत कमज़ोर होता है इसलिये माँ के ख़ून में पाये जाने वाले दिफ़ाई अनासिर दूध में मुन्तक़िल होते हैं। तहक़ीक़ात में पाया गया है कि माँ के पहले दूध में कोलेस्ट्रम की मिक़दार बहुत ज़्यादा होती है। चूँकि नव मौलूद का माहौल तबदील होता है इसलिये माँ के पहले दूध में कोलेस्ट्रम की इज़ाफ़ी मिक़दार बच्चे के तहफ़्फ़ुज़ के लिये मुआविन साबित होती है। माँ का दूध बच्चे के लिये सिर्फ़ ग़िज़ा नहीं बल्कि दवा है। क़ुरआन में जनाबे मूसा अ0 की विलादत के बाद इरशाद होता है ‘‘हमने मूसा की माँ को वही की कि उसे दूध पिलाओ और जब तुम्हें उस के बारे में ख़ौफ़ लाहक़ हो तो उसे दरया की मौजों के सिपुर्द कर दो''सूर-ए-कसस आयत 7 ।

दूध में सोडियम, पोटेशियम, कैलशियम, मैगनीशियम, काँसा, ताँबा, आएरन, फासफोरस, आयोडीन और गन्धक वग़ैरा मौजूद होते हैं। इसके अलावा दूध में कारबोनिक ऐसिड, लैक्टोज़ शकर, विटामिन ए, बी, सी मौजूद होते हैं। दूध में कैलशियम काफ़ी मिक़दार में होता है जो पुट्ठों और हड्डियों की नशवोनुमा के लिये बहुत ज़रूरी है यानी दूध एक मुकम्मल ग़िज़ा है इसीलिये रसूले ख़ुदा स0 की हदीस है कि ‘‘दूध के सिवा कोई चीज़ खाने पीने का नेमुल बदल नहीं है''। हामेला औरत दूध पीयें कि बच्चे की अक़्ल में ज़्यादती का सबब है, मज़ीद फ़रमाया कि दूध पियो कि दूध पीने से ईमान ख़ालिस होता है।

रवायत में है कि दूध आँखों की बीनाई में इज़ाफ़े का सबब है, निसयान को ख़त्म करता है, दिल को तक़वीयत देता है, और कमर को मज़बूत करता है, शरीअत का हुक्म है कि बच्चे के लिये तमाम दूधों में सबसे बेहतर माँ का दूध है।

जदीद तहक़ीक़ से आज यह बात साबित हो चुकी है कि माँ का दूध बच्चे के लिये न सिर्फ़ मुकम्मल ग़िज़ा है बल्कि बच्चे को मुख़तलिफ़ बीमारियों से भी महफ़ूज़ रखता है हत्ता पाया गया है कि ऐसे बच्चे जो बचपन में माँ का दूध पीते हैं बड़े होकर भी ज़्यादा फ़अआल ज़हीन, तन्दरूस्त और बहुत सी बीमारियों से बचे रहते हैं।

क़ुरआन में इरशादे परवरदिगार होता है ‘‘माँयें अपनी औलाद को पूरे दो साल दूध पिलायेंगी''सूर-ए-बक़रा अ0 224
और हमने इन्सान को उसके माँ बा पके बारे में वसीयत की, उसकी माँ ज़हमत पर ज़हमत उठा कर हामेला हुई और उसके दूध पिलाने की मुद्दत 2 साल में मुकम्मल हुई है। सूर-ए-अनकबूत आयत 14

अनार की अहमियत 

अनार का नाम प्यूनिका ग्रैन्टम है। यूँ तो अनार बहुत से मुल्कों में पाया जाता है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के क़न्धारी अनार मज़े के लिये सबसे ज़्यादा मशहूर हैं। अनार के वह दरख़्त जिनमें फल नहीं आते उसके फूल गुलेनार के नाम से दवाओं में इस्तेमाल होते हैं।

तहक़ीक़ से यह बात साबित हो चुकी है कि अनार में शकर, कैलशियम, फ़ासफ़ोरस, लोहा, विटामिन सी पायी जाती है। जो ख़ून के बनने और जिस्म की परवरिश में मदद देते हैं इसलिये अनार का फल बीमारी के बाद कमज़ोरी को दूर करने और तन्दरूस्ती को बाक़ी रखने के लिये बहुत मुफ़ीद है।
रसूले ख़ुदा स0 ने फ़रमाया कि अनारी को बीज के छिलके के साथ खाओ कि पेट को सही करता है, दिल को रौशन करता है और इन्सान को शैतानी वसवसों से बचाता है।

तिब में अनार का मिज़ाज सर्द तर बताया गया है और दवा के तौर पर मसकन सफ़रा, कातिल करमे शिकम, क़ै, प्यास की ज़्यादती, यरक़ान और ख़ारिश वग़ैरा में इसका इस्तेमाल होता है। बतौर दवा अनार की अफ़ादीयत के बारे में उर्दू का यह मुहावरा ही काफ़ी है। ‘‘एक अनार .......... सौ बीमार'''
इस्लामी रिवायत में अनार को सय्यदुल फ़कीहा (फलों का सरदार) कहा गया है। क़ुरआन में भी अनार का ज़िक्र होता है ‘‘इन (जन्नत) में फल कसरत से हैं और खजूर और अनार के दरख़्त हैं'' (सूर-ए-रहमान आ0 68)

अहादीस में भी अनार का ज़िक्र हैः ‘‘जो एक पूरा अनार खाये ख़ुदा चालीस रोज़ तक उसके क़ल्ब को नूरानी करता है। शैतान दूर होता है, पेट और ख़ून साफ़ करता है। बदन में फ़ुरती आतीहै और बीमारियों से मुक़ाबले की ताक़त पैदा होती है। (रसूले ख़ुदा स0)

शहद की अहमियत 

ख़ालिक़े कायनात ने इन्सान को जितनी नेअमतें दी हैं उनका शुमार करना भी इन्सान के लिये मुम्किन नहीं है। उन नेअमतों में शहद को एक बुलन्द मुक़ाम हासिल है।

क़ुरआन (सूर-ए-नहल आयत 49) में शहद को इन्सान के लिये शिफ़ा बताया गया है। इन्जील में 21 मरतबा इसका ज़िक्र किया गया है। जदीद साइंसी तहक़ीक़ात से यह बात साबित हो चुकी है कि शहद निस्फ़ हज़्म शुदा ग़िज़ा है जिसका मेदे पर बोझ नहीं पड़ता है इसीलिये नौ ज़ाएदा बच्चे को बतौर घुट्टी शहद घटाया जाता है और जाँ-बलब मरीज़ के लिये तबीब आखि़री वक़्त में शहद ही तजवीज़ करता है। अहादीस में भी दवा की हैसियत से शहद की ख़ासियत का बहुत ज़िक्र आया है। ‘‘लोगों के लिये शहद की सी शिफ़ा किसी चीज़ में नहीं है'' (इमाम सादिक़ अ0)। ‘‘जो शख़्स महीने में कम अज़ कम एक मरतबा शहद पिये और ख़ुदा से उस शिफ़ा का तक़ाज़ा करे कि जिस का क़ुरआन में ज़िक्र है तो वह उसे सत्तर क़िस्म की बीमारियों से शिफ़ा बख़्शेगा''। (रसूले ख़ुदा स0)

फवाएदे आबे नैसाँ

ज़ादुल मसाल में सय्यद जलील अली इब्ने ताऊस रहमतुल्लाह अलैह ने रिवायत की है कि असहाब का एक गिरोह बैठा हुआ था जनाबे रसूले ख़ुदा स0 वहाँ तशरीफ लाए और सलाम किया असहाब ने जवाबे सलाम दिया। आपने फ़रमाया कि क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें वह दवा बतला दूँ जो जिबराईल अ0 ने मुझे तालीम दी है कि जिसके बाद हकीमों की दवा के मोहताज न रहो। जनाबे अमीरूल मोमेनीन अ0 और जनाबे सलमाने फ़ारसी वग़ैरा ने सवाल किया कि वह दवा कौन सी है तो हज़रत रसूले ख़ुदा स0 ने हज़रत अमीर अ0 से मुख़ातिब होकर फ़रमाया माह नैसान रूमी में बारिश हो तो बारिश का पानी किसी पाक बरतन में ले और सूर-ए-अलहम्द, आयतल कुर्सी, क़ुल हो वल्लाह, कु़ल आऊज़ो बिरब्बिन नास, कु़ल आऊज़ो बिरब्बिल फ़लक़ और क़ुल या अय्योहल काफ़िरून सत्तर मरतबा पढ़ो और दूसरी रिवायत में है सत्तर मरतबा इन्ना अनज़लनाह, अल्लाहो अकबर, ला इलाहा इल्लल्लाह और सलवात मोहम्मद स0 व आले मोहम्मद अ0 भी इस पर पढ़ें। किसी शीशे के पाक बरतन में रखें और सात दिन तक हर रोज़ सुब्ह व वक़्ते अस्र इस पानी को पिये।मुझे क़सम है उस ज़ाते अक़दस की जिसने मुझे मबऊस ब-रिसालत किया कि जिबराईल अ0 ने कहा कि ख़ुदाए तआला ने दूर किया उस शख़्स का हर दर्द कि जो उसके बदन में है। अगर फ़रज़न्द न रखता हो तो फ़रज़न्द पैदा हो। अगर औरत बांझ हो और पिये तो फ़रज़न्द पैदा होगा। अगर नामर्द हो और पानी बशर्ते एतेक़ाद पिये तो क़ादिर हो मुबाशिरत पर। अगर दर्दे सर या दर्दे चश्म हो तो एक क़तरा आँख में डाले और पिये और मले सेहत होगी और जड़ें दाँतों की मज़बूत होंगी और मुंह ख़ुशबूदार होगा, बलग़म को दूर करेगा। दर्दे पुश्त, दर्दे शिकम और ज़ुकाम को दफ़ा करेगा। नासूर, खारिश, फ़ोड़े दीवानगी, जज़ाम, सफ़ेद दाग़, नकसीर और क़ै से बे ख़तर होगा। अंधा, बहरा गूँगा न होगा। वसवसा-ए-शैतान और जिन से अज़ीयत न होगी। दिल को रौशन करेगा, ज़ुबान से हिकमत जारी करेगा और उसे बसीरत व फ़हम अता करेगा। माहे नौरोज़ के 23 दिन बाद माह-ए-नैसाँ रूमी शुरू होता है।

इबादत व आदाबे इस्लामी और सेहत

रोज़ाः रोज़ा रखो सेहतमन्द हो जाओ। रोज़ा सेहत के दो असबाब में से एक सबब है इसलिये कि इससे बलग़म छटता है, भूल ज़ाएल होती है, अक़्ल व फ़िक्र में जिला पैदा होती है और इन्सान का ज़ेहन तेज़ होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
नमाज़े शब ः तुम लोग नमाज़े शब पढ़ा करो क्योंकि वह तुम्हारे पैग़म्बर की सुन्नते मोअक्केदा सालेहीन का शिआर और तुम्हारे जिस्मानी दुख व दर्द को दूर करने वाली है। ऐ अली अ0 नमाज़े शब हमेशा पढ़ा करो जो शख़्स कसरत से नमाज़े शब पढ़ता है उसका चेहरा मुनव्वर होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
नमाज़े शब चेहरे को नूरानी, मुंह को ख़ुशबूदार करती है और रिज़्क़ में वुसअत होती है। (हदीस)
नमाज़े शब से अक़्ल में इज़ाफ़ा होता है। (इमाम सादिक़ अ0)
मुतफ़र्रिक़
सदक़े के ज़रिये अपने मरीज़ों का इलाज करो, दुआओं के ज़रिये बलाओं के दरवाज़े को बन्द करो और ज़कात के ज़रिये अपने माल की हिफ़ाज़त करो। (रसूले ख़ुदा स0)
बिस्मिल्लाह हर मर्ज़ के लिये शिफ़ा और हर दवा के लिये मददगार है। (हज़रत अली0 अ0)
बेशक ख़ुदा की याद, दिल को पुर सूकून करती है। (क़ुरआन)
दुनिया में हर चीज़ की ज़ीनत है और तन्दरूस्ती की ज़ीनत चार चीज़ेंह ैंः कम खाना, कम सोना, कम गुफ़्तगू और कम शहवत करना। (रसूले ख़ुदा स0)
दुनिया से रग़बत करना हुज़्न व मलाल का सबब है और दुनिया से किनारा-कशी क़ल्ब व बदन के आराम व राहत का सबब है। (रसूले ख़ुदा स0)
शफ़ाए अमराज़ के लिये शबे जुमा ब-वज़ू दुआए मशलूल पढ़ें।
किनाअत बदन की राहत है। (इमाम हुसैन अ0)
हर जुमे को नाख़ून काटो कि हर नाख़ून के नीचे से एक मर्ज़ निकलता है। (इमाम सादिक़ अ0)
जो शख़्स हर पंजशम्बे को नाख़ून काटेगा उसकी आँखें नहीं दुखेंगी (अगर पंजशम्बे को नाख़ून काटो तो एक नाख़ून जुमे के लिये छोड़ दो)। (इमामे रिज़ा अ0)
याक़ूत की अंगूठी पहनो कि परेशानी ज़ाएल होती है ग़म दूर होता है, दुश्मन मरग़ूब रहते है और बीमारी से हिफ़ाज़त करता है। (इमामे रिज़ा अ0)
जो शख़्स सोते वक़्त आयतल कुर्सी पढ़ ले वह फ़ालिज से महफ़ूज़ रहेगा। (इमामे रिज़ा अ0)
जब लोग गुनाहे जदीद अन्जाम देते हैं तो ख़ुदा उनको नयी बीमारियों में मुबतिला करता है। (इमामे रिज़ा अ0)
हुसूले शिफ़ा के लिये क़ुरआन पढ़ो। (इमामे रिज़ा अ0)
अपने बच्चों का सातवें दिन ख़त्ना करो इससे सेहत ठीक होती है और जिस्म पर गोश्त बढ़ता है। (इमामे रिज़ा अ0)
पजामा बैठ कर पहनो, खड़े होकर न पहनो क्योंकि यह ग़म व अलम का सबब होता है।
सियाह जूता पहनने से बीनायी कमज़ोर हो जाती है। (इमामे रिज़ा अ0)
फ़ीरोज़े की अंगूठी पहनो कि फ़ीरोज़ा चश्म को क़ुव्वत देता है सीने को कुशादा करता है और दिल की क़ुव्वत को ज़्यादा करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
चाहिये कि ज़र्द जूते पहनो कि इस में तीन खासियतें पायी जाती हैं, कुव्वते बीनायी में इज़ाफ़ा, ज़िक्रे ख़ुदा में तक़वीयत का सबब और हुज़्न व ग़म को दूर करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
रोज़ा, नमाज़े शब, नाख़ून का काटना इस तरह कि बायें हाथ की छुंगलिया से शुरू करके दाहिने हाथ की छुंगलिया पर तमाम करना असबाबे तन्दरूस्ती इन्सान है।
अज़ीज़ों के साथ नेकी करने से आमाल क़ुबूल होते हैं माल ज़्यादा होता है बलायें दफ़़ा होती हैं, उम्र बढ़ती है और क़ियामत के दिन हिसाब में आसानी होगी। (हदीस)
जो क़ब्ल और बाद तआम खाने के हाथ धोये तो ज़िन्दगी भर तंगदस्त न होये और बीमारी से महफ़ूज़ रहे। (रसूले ख़ुदा स0)
एक शख़्स ने इमाम अली रिज़ा अ0 से अज़ किया कि मैं बीमार व परेशान रहता हूँ और मेरे औलाद नहीं होती, आप अ0 ने फ़रमाया कि अपने मकान में अज़ान कहो। रावी कहता है कि ऐसा ही किया, बीमारी ख़त्म हुई और औलाद बहुत हुई।

मेहमान नवाज़ी
तुम्हारी दुनियों से तीन चीज़ों को दोस्त रखता हँ, लोगों को मेहमान करना, ख़ुदा की राह में तलवार चलाना और गर्मियों में रोज़ा रखना। (हज़रत अली अ0)
मकारिमे इख़्लाक़ दस हैंः हया, सच बोलना, दिलेरी, साएल को अता करना, खुश गुफ्तारी, नेकी का बदला नेकी से देना, लोगों के साथ रहम करना, पड़ोसी की हिमायत करना, दोस्त का हक़ पहुँचाना और मेहमान की ख़ातिर करना। (इमाम हसन अ0)
मेहमान का एहतिराम करो अगरचे वह काफ़िर ही क्यों न हो। (रसूले ख़ुदा स0)
पैग़म्बरे इस्लाम स0 ने फ़रमाया कि जब अल्लाह किसी बन्दे के साथ नेकी करना चाहता है तो उसे तोहफ़ा भेजता है। लोगों ने सवाल किया कि वह तोहफ़ा क्या है? फ़रमाया ः मेहमान, कि जब आता है तो अपनी रोज़ी लेकर आता है और जब जाता है तो अहले ख़ाना के गुनाहों को लेकर जाता है।
मेहमान राहे बेहिश्त का राहनुमा है। (रसूले ख़ुदा स0)
खाना खिलाना मग़फ़िरते परवरदिगार है। (रसूले ख़ुदा स0)
परवरदिगार खाना खिलाने को पसन्द करता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
जो भी ख़ुदा और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखता है उसे चाहिये कि मेहमान का एहतिराम करे। (हदीस)
तुम्हारे घर की अच्छाई यह है कि वह तुम्हारे तन्गदस्त रिश्तादारों और बेचारे लोगों की मेहमानसरा हो। (रसूले ख़ुदा स0)
कोई मोमिन नहीं है कि मेहमान के क़दमों की आवाज़ सुन कर ख़ुशहाल हों मगर यह कि ख़ुदा उसके तमाम गुनाह माफ़ कर देता है अगर चे ज़मीनो-आसमान के दरमियान पुर हों। (हज़रत अली अ0)
अजसाम की कुव्वत खाने में है और अरवाह की कुव्वत खिलाने में है। (हज़रत अली अ0)
(तुम्हारा फ़र्ज़ है) कि नेकी और परहेज़गारी में एक दूसरे की मदद किया करो (सूर-ए-अल माएदा ः 2)
ऐ ईमानदारों ख़ुदा से डरो और हर शख़्स को ग़ौर करना चाहिए कि कल (क़ियामत) के वास्ते उस ने पहले से क्या भेजा है? (सूर-ए-अल हश्र ः 18)
ऐ ईमानदारों क्या मै। तुम्हें ऐसी तिजारत बता दूँ जो तुमको (आखि़रत के) दर्दनाक अज़ाब से नजात दे (यह कि) ख़ुदा और उसके रसूल स0 पर ईमान लाओ और अपने माल और जान से ख़ुदा की राह में जेहाद करो। (सूर-ए-अस सफ़ः 11)
और अगर तुम पूरे मोमिन हो तो तुम ही गालिब होगे। (सूर-ए-आले इमरान ः 139)

आदमी को आदमी से प्यार करना चाहिए, ईद क्या है एकता का एक हसीं पैगाम है।

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सभी लोगों को ईद की मुबारकबाद के साथ मैं सबसे पहले मशहूर शायर कामिल जौनपुरी के इन शब्दों को आप सभी तक पहुंचाना चाहूँगा |

मैखान-ए-इंसानियत की सरखुशी, ईद इंसानी मोहब्बत का छलकता जाम है।
आदमी को आदमी से प्यार करना चाहिए, ईद क्या है एकता का एक हसीं पैगाम है।
                                                                              .........मशहूर शायर कामिल जौनपुरी

माहे रमजान में पूरे महीने हर मुसलमान रोज़े रखता है और इन रोजो में गुनाहों से खुद को दूर रखता है | पूरे महीने अल्लाह की इबादत के बाद जब ईद का चाँद नज़र आता है तो सारे मुसलमानों के चेहरे पे एक ख़ुशी नज़र आने लगती है | क्यूँ की यह ईद का चाँद बता रहा होता है की कल ईद की नमाज़ के बाद अल्लाह उनकी नेकियों को कुबूल करेगा और गुनाहों को धोने का एलान फरिश्तों से करवाएगा | चाँद देखते ही अल्लाह का हुक्म है ठहरो ख़ुशी की तैयारी करने से पहले गरीबों के बारे में सोंचो और सवा तीन किलो अन्न के बराबर रक़म परिवार के हर इंसान के नाम से निकालो और फ़ौरन गरीबों को दे दो जिस से उनके घरों में भी ईद वैसे ही मनाई जाए जैसे आपके घरों में मनाई जाएगी | यह रक़म निकाले बिना ईद की नमाज़ अल्लाह कुबूल नहीं करता | इस रक़म को फितरा कहते हैं जिसपे सबसे अहले आपके अपने गरीब रिश्तेदार , फिर पडोसी, फिर समाज का गरीब और फिर दूर के रोज़ेदार का हक़ होता है|

बच्चों की ईद इसलिए सबसे निराली होती है क्योंकि उन्हें नए-नए कपड़े पहनने और बड़ों से ईदी लेने की जल्दी होती है. बच्चे, चांद देख कर बड़ों को सलाम करते ही यह पूछने में लग जाते हैं कि रात कब कटेगी और मेहमान कब आना शुरू करेंगे. महिलाओं की ईद उनकी ज़िम्मेदारियां बढ़ा देती है. एक ओर सिवइयां और रंग-बिरंगे खाने तैयार करना तो दूसरी ओर उत्साह भरे बच्चों को नियंत्रित करना. इस प्रकार ईद विभिन्न विषयों और विभिन्न रंगों के साथ आती और लोगों को नए जीवन के लिए प्रेरित करती है| ईद यही पैगाम लेकर आता है कि हम इसे मिलजुल कर मनाएं और अपने दिलों से किसी भी इंसान के लिए हसद और नफरतों को निकाल फेंके और सच्चे दिल से हर अमीर गरीब ,हिन्दू मुसलमान , ईसाई से गले मिलें और समाज को खुशियों से भर दें |


शब्दकोष में ईद का अर्थ है लौटना और फ़ित्र का अर्थ है प्रवृत्ति |इस प्रकार ईदे फ़ित्र के विभिन्न अर्थों में से एक अर्थ, मानव प्रवृत्ति की ओर लौटना है| बहुत से जगहों पे इसे अल्लाह की और लौटना भी कहा गया है जिसका अर्थ है इंसानियत की तरफ अपने दिलों से नफरत, इर्ष्य ,द्वेष इत्यादि बुराईयों को निकालना |वास्वतविक्ता यह है कि मनुष्य अपनी अज्ञानता और लापरवाही के कारण धीरे-धीरे वास्तविक्ता और सच्चाई से दूर होता जाता है| वह स्वयं को भूलने लगता है और अपनी प्रवृत्ति को खो देता है. मनुष्य की यह उपेक्षा और असावधानी ईश्वर से उसके संबन्ध कोसमाप्त कर देती है| रमज़ान जैसे अवसर मनुष्य को जागृत करते और उसके मन तथा आत्मा पर जमी पापों की धूल को झाड़ देते हैं|इस स्थिति में मनुष्य अपनी प्रवृत्ति की ओर लौट सकता है और अपने मन को इस प्रकार पवित्र बना सकता है कि वह पुनः सत्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने लगे|


हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि हे लोगो, यह दिन आपके लिए एसा दिन है कि जब भलाई करने वाले अल्लाह से अपना पुरूस्कार प्राप्त करते और घाटा उठाने वाले निराश होते हैं। इस प्रकार यह दिन प्रलय के दिन के समान होता है। अतः अपने घरों से ईदगाह की ओर जाते समय कल्पना कीजिए मानों क़ब्रों से निकल कर ईश्वर की ओर जा रहे हैं। नमाज़ में स्थान पर खड़े होकर ईश्वर के समक्ष खड़े होने की याद कीजिए। घर लौटते समय, स्वर्ग की ओर लौटने की कल्पना कीजिए। इसीलिये यह बेहतर है कि नमाज़ ए ईद खुले मैदान मैं अदा कि जाए और सर पे सफ़ेद रुमाल नंगे पैर ईद कि नमाज़ मैं जाए. नमाज़ से पहले गुसल करे और सजदा नमाज़ के दौरान मिट्टी पे करे|

ईद की नमाज़ होने के बाद एक फ़रिश्ता पुकार-पुकार कर कहता हैः शुभ सूचना है तुम्हारे लिए हे ईश्वर के दासों कि तुम्हारे पापों को क्षमा कर दिया गया है अतः बस अपने भविष्य के बारे में विचार करो कि बाक़ी दिन कैसे व्यतीत करोगे? इस शुभ सुन्चना को महसूस करने के बाद रोज़ेदार खुश हो जाता है और एक दुसरे को गले मिल के मुबारकबाद देता है | घरों की तरफ लौट के खुशियाँ मनाता है और अल्लाह से वादा करता है की अब पाप से बचूंगा और समाज में एकता और शांति के लिए ही काम करूँगा | 

आप सभी पाठको को ईद मुबारक |--- एस एम् मासूम 

जन्नतुल बकी का इतिहास और उसकी तबाही के ज़िम्मेदार |

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जन्नतुल बक़ीअ तारीख़े इस्लाम के जुमला मुहिम आसार में से एक है, अफ़सोस! बीती हुई सदी में जिसे वहाबियों ने 8 शव्वाल 1345 मुताबिक़ २१ अप्रैल  1925 को शहीद करके दूसरी कर्बला की दास्तान को लिख कर अपने यज़ीदी किरदार और अक़ीदे का वाज़ेह तौर पर इज़हार किया है।

       क़ब्रिस्ताने बक़ीअ (जन्नतुल बक़ीअ) के तारीख़ को पढ़ने से मालूम होता है कि यह मक़बरा सदरे इस्लाम से बहुत ही मोहतरम का मुक़ाम रखता था। हज़रत रसूले ख़ुदा स॰ ने जब मदीना मुनव्वरा हिजरत की तो क़ब्रिस्तान बक़ीअ मुसलमानों का इकलौता क़ब्रिस्तान था और हिजरत से पहले मदीना मुनव्वरा के मुसलमान ‘‘बनी हराम’’ और ‘‘बनी सालिम’’ के मक़बरों में अपने मुर्दों को दफ़नाते थे और कभी कभार तो अपने ही घरों में मुर्दों को दफ़नाते थे और हिजरत के बाद रसूले ख़ुदा हज़रत मुहम्मद स॰ के हुक्म से बक़ीअ जिसका नाम ‘‘बक़ीउल ग़रक़द’’ भी है, मक़बरे के लिये मख़सूस हो गया।

इसमें सबसे पहले जो सहाबी दफन हुए उनका नाम था उस्मान इब्ने मधून जिनका इन्तेका ३ हिजरी की तीसरी शाबान हो हुआ था |


       जन्नतुल बक़ीअ हर एतबार से तारीख़ी, मुहिम और मुक़द्दस है। हज़रत रसूले ख़ुदा स॰ ने जंगे ओहद के कुछ शहीदों को और अपने बेटे ‘‘इब्राहीम’’ अ॰ को भी जन्नतुल बक़ीअ में दफ़नाया था। इसके अलावा मुहम्मद और आले मुहम्मद सलावातुल्लाहे अलैइहिम अजमईन के मकतब यानी मकतबे एहले बैत अ॰ के पैरोकारों के लिये बक़ीअ के साथ इस्लाम और ईमान जुड़े हुऐ हैं क्योंकि यहां पर पांच  मासूमीन अलै0 पहली जनाब ऐ फातिमा ज़हरा बीनते हज़रात मुहम्मद (s.अ.व) ,दूसरे इमाम हज़रत हसन बिन अली अलैहिस्सलाम, तीसरे  इमाम हज़रत अली बिन हुसैन ज़ैनुलआबेदीन अलैहिस्सलाम, चौथे  इमाम हज़रत मुहम्मद बिन अली अलबाक़र अलैहिस्सलाम, और पांचवे  इमाम हज़रत जाफ़र बिन सादिक़ अलैहिस्सलाम के दफ़्न होने की जगह है।


       इसके अलावा अज़वाजे रसूले ख़ुदा स॰ हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा स॰, और हज़रत अली अ॰ की ज़ौजा, उम्मुल बनीन फ़ात्मा बिन्ते असद वालिदा मुकर्रमा अलमदार कर्बला हज़रत अबुलफ़ज़्ल अलअब्बास अलै0, हज़रत के चचा ‘‘अब्बास’’ और कई बुज़ुर्ग सहाबी हज़रात दफ़्न हैं।


       तारीख़े इस्लाम का गहवारा ‘‘मक्का मुकर्रमा’’ और ‘‘मदीना मुनव्वरा’’ रहा है जहाँ तारीखे इस्लाम की हैसिय्यत का एक मरकज़ है लेकिन वहाबियत के आने से ‘‘शिर्क’’ के उन्वान से बेमन्तक़ व बुरहान क़ुरआनी इन तमाम तारीख़ी इस्लामी आसार को मिटाने का सिलसिला भी शुरू हुआ जिस पर आलमे इस्लाम में मकतबे अहले बैत अलैहिमुस्सलाम, को छोड़ कर सभी मुजरिमाना ख़ामोशी इखि़्तयार किये हुए हैं।

       तारीख़ को पढ़ने और सफर करने वालों और सफ़रनामों से तारीख़े इस्लाम के आसारे क़दीमा की हिफ़ाज़त और मौजूदगी का पता मिलता है अज़ जुमला जन्नतुल बक़ी कि जिसकी दौरे वहाबियत तक हिफ़ाज़त की जाती थी और क़ब्रों पर कतीबा लिखे पड़े थे जिसमें साहिबे क़ब्र के नाम व निशानी सब्त थे वहाबियों ने सब महू कर दिया है। यहाँ तक कि अइम्मा मासूमीन अलैइहिमुस्सलाम की क़ब्रों पर जो रौज़े तामीर थे उनको भी मुसमार कर दिया गया है।

       ऐसे फ़ज़ीलत वाले क़ब्रिस्तान में आलमे इस्लाम की ऐसी अज़ीमुशान शख़सियतें आराम कर रही है जिनकी अज़मत व मंजि़लत को तमाम मुसलमान, मुत्तफ़ेक़ा तौर पर क़ुबूल करते हैं। आइये देखें कि वे शख़सियतें कौन हैः

(1)    इमाम हसन मुजतबा (अ॰)

       आप पैग़म्बरे अकरम स॰ के नवासे और हज़रत अली व फ़ात्मा के बड़े साहबज़ादे हैं। मन्सबे इमामत के एतेबार से दूसरे इमाम और इसमत के लिहाज़ से चैथे मासूम हैं। आपकी शहादत के बाद हज़रत इमाम हुसैन ने आपको पैग़म्बरे इस्लाम स॰ के पहलू में दफ़न करना चाहा मगर जब एक सरकश गिरोह ने रास्ता रोका और तीर बरसाये तो इमाम हुसैन ने आपको बक़ीअ में दादी की क़ब्र के पास दफ़न किया। इस सिलसिले में इब्ने अब्दुल बर से रिवायत है कि जब ख़बर अबूहुरैरह को मिली तो कहाः ‘‘ख़ुदा की क़सम यह सरासर ज़ुल्म है कि हसन अ॰ को बाप के पहलू में दफ़न होने से रोका गया जबकि ख़ुदा की क़सम वह रिसालत मआब स॰ के फ़रजंद थे। आपके मज़ार के सिलसिले में सातवीं हिजरी क़मरी का सय्याह इब्ने बतूता अपने सफ़रनामे में लिखता है किः बक़ीअ में रसूले इस्लाम स॰ के चचा अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तलिब और अबुतालिब के पोते हसन बिन अली अ॰ की क़ब्रें हैं जिनके ऊपर सोने का कु़ब्बा है जो बक़ीअ के बाहर ही से दिखाई देता है। दोनों की क़ब्रें ज़मीन से बुलंद हैं और नक़्शो निगार से सजे हैं। एक और सुन्नी सय्याह रफ़त पाशा भी नक़्ल करता है कि अब्बास और हसन अ॰ की क़ब्रें एक ही क़ुब्बे में हैं और यह बक़ीअ का सबसे बुलंद क़ुब्बा है। बतनूनी ने लिखा है किः इमाम हसन अ॰ की ज़रीह चांदी की है और उस पर फ़ारसी में नक़्श हैं। मगर आज आले सऊद अपनी नादानी के नतीजे में यह अज़ीम बारगाह और बुलंद व बाला क़ुब्बा मुन्हदिम कर दिया गया है और इस इमाम की क़ब्रे मुतहर ज़ेरे आसमान है।


(2)    हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन सज्जाद (अ॰)

       आपका नाम अली है और इमाम हुसैन अ॰ के बेटे हैं और शियों के चैथे इमाम हैं। आपकी विलादत 38 हिजरी में हुई। आपके ज़माने के मशहूर सुन्नी मुहद्दिस व फ़क़ीह मुहम्मद बिन मुस्लिम ज़हरी आपके बारे में कहते हैं किः मैंने क़ुरैश में से किसी को आपसे बढ़कर परहेज़गार और बुलंद मर्तबा नहीं देखा यही नहीं बल्कि कहते हैं किः दुनिया में सब से ज़्यादा मेरी गर्दन पर जिसका हक़ है वो अली बिन हुसैन अ॰ की ज़ात है। आपकी शहादत 94 हि0 में25 मुहर्रमुलहराम को हुई और बक़ीअ में चचा इमाम हसन अ॰ के पहलू में दफ़न किया गया। रफ़त पाशा ने अपने सफ़रनामे में जि़क्र किया है कि इमाम हसन अ॰ के पहलू में एक और क़ब्र है जो इमाम सज्जाद अ॰ की है जिसके ऊपर क़ुब्बा है मगर अफ़सोस 1344 में दुश्मनी की आंधी ने ग़ुरबा के इस आशयाने को भी न छोड़ा और आज इस अज़ीम इमाम और अख़लाक़ के नमुने की क़ब्र वीरान है।


(3)    हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़र (अ॰)

       आप रिसालत मआब के पांचवे जानशीन व वसी और इमाम सज्जाद अ॰ के बेटे हैं नीज़ इमाम हसन अ॰ के नवासे और इमाम हुसैन अ॰ के पोते हैं। 56 हि0 में विलादत और शहादत हुई। वाक़-ए कर्बला में आपकी उमरे मुबारक चार साल की थी, इब्ने हजर हेसमी (अलसवाइक़ अलमुहर्रिक़ा के मुसन्निफ़) का बयान है कि इमाम मुहम्मद बाक़र अलै0 से इल्म व मआरिफ़, हक़ाइक़े अहकाम, हिकमत और लताइफ़ के ऐसे चश्मे फूटे जिनका इनकार बे बसीरत या बदसीरत व बेबहरा इन्सान ही कर सकता है। इसी वजह से यह कहा गया है कि आप इल्म को शिगाफ़ता करके उसे जमा करने वाले हैं, यही नहीं बल्कि आप ही परचमे इल्म के आशकार व बुलंद करने वाले हैं। इसी तरह अब्दुल्लाह इब्ने अता का बयान है कि मैंने इल्मे वफ़क़ा के मशहूर आलिम हकम बिन उतबा (सुन्नी आलिमे दीन) को इमाम बाक़र के सामने इस तरह ज़ानुए अदब तय करके आपसे इल्मी इस्तेफ़ादा करते हुए देखा जैसे कोई बच्चा किसी बहुत अज़ीम उस्ताद के सामने बैठा हो।      

       आपकी अज़मत का अंदाज़ा इस वाकि़ये से बहुत अच्छी तरह लगाया जा सकता है कि हज़रत रूसले अकरम स॰ ने जनाब जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी जैसे जलीलुक़दर सहाबी से फ़रमाया था किः ऐ जाबिर अगर बाक़र अ॰ से मुलाक़ात हो तो मेरी तरफ़ से सलाम कहना। इसी वजस से जनाब जाबिर आपकी दस्तबोसी (हाथों को चूमना) में फ़ख्र (गर्व) महसूस करते थे और ज़्यादातर मस्जिदे नबवी में बैठ कर रिसालतपनाह की तरफ़ से सलाम पहुंचाने की फ़रमाइश का तज़करा करते थे।


       आलमे इस्लाम बताऐ कि ऐसी अज़ीम शख़सियत की क़ब्र को वीरान करके आले सऊद ने क्या किसी एक फि़रक़े का दिल तोड़ा है या तमाम मुसलमानों को तकलीफ़ पहुंचाई है।


(4)    हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अ॰:

       आप इमाम मुहम्मद बाक़र अ॰ के फ़रज़न्दे अरजुमंद और शियों के छटे इमाम हैं।83 हिज0 में विलादत और 148 में शहादत हुई। आपके सिलसिले में हनफ़ी फि़रके़ के पेशवा इमाम अबुहनीफ़ा का बयान है कि मैंने किसी को नहीं देखा कि किसी के पास इमाम जाफ़र सादिक़ अ॰ से ज़्यादा इल्म हो। इसी तरह मालिकी फि़रक़े के इमाम मालिक कहते हैं। किसी को इल्म व इबादत व तक़वे में इमाम जाफ़र सादिक़ अ॰ से बढ़ कर न तो किसी आँख ने देखा है और न किसी कान ने सुना है और न किसी के ज़हन में यह बात आ सकती है। नीज़ आठवें क़र्न में लिखी जाने वाली किताब ‘‘अलसवाइक़ अलमुहर्रिक़ा’’ के मुसन्निफ़ ने लिखा है किः इमाम सादिक़ से इस क़दर इलम सादिर (ज़ाहिर) हुए हैं कि लोगों की ज़बानों पर था यही नहीं बल्कि बकि़या फि़रक़ों के पेशवा जैसे याहया बिन सईद, मालिक, सुफि़यान सूरी, अबुहनीफ़ा वग़ैरा आपसे रिवायत नक्ल करते थे। महशहूर मोअर्रिख़ इब्ने ख़लकान रक़्मतराज़ हैं कि मशहूर ज़मानाए शख़सियत और इल्मुल जबरा के मूजिद जाबिर बिन हयान आपके शागिर्द थे

       मुसलमानों की इस अज़ीम हसती के मज़ार पर एक अज़ीमुश्शान रौज़ा व क़ुब्बा था मगर अफ़सोस एक बे अक़्ल गिरोह की सरकशी के नतीजे में इस वारिसे पैग़म्बर की लहद आज वीरान है।

(5)    जनाबे फ़ात्मा बिन्ते असद

       आप हज़रत अली की माँ हैं और आप ही ने जनाबे रसूले ख़ुदा स॰ की वालिदा के इन्तिक़ाल के बाद आँहज़रत स॰ की परवरिश फ़रमाई थी, जनाबे फ़ातिमा बिन्ते असद को आपसे बेहद उनसियत व मुहब्बत थी और आप भी अपनी औलाद से ज़्यादा रिसालत मआब का ख़याल रखती थीं। हिजरत के वक़्त हज़रत अली के साथ मक्का तशरीफ़ लाईं और उम्र के आखि़र तक वहीं रहीं। आपके इन्तिक़ाल पर रिसालत मआब को बहुत ज़्यादा दुख हुआ था और आपके कफ़न के लिये अपना कुर्ता इनायत फ़रमाया था नीज़ दफ़न से क़ब्ल कुछ देर के लिए क़ब्र में लेटे थे और क़ुरआन की तिलावत फ़रमाई थी, नमाज़े मय्यत पढ़ने के बाद आपने फ़रमाया थाः किसी भी इन्सान को फि़शारे क़ब्र से निजात नहीं है सिवाए फ़ात्मा बिन्त असद के, नीज़ आपने क़ब्र देख कर फ़रमाया थाः

       आपका रसूले मक़बूल सल0 ने इतना एहतेराम फ़रमाया मगर आंहज़रत सल0 की उम्मत ने आपकी तौहीन में कोई कसर उठा न रखी, यहां तक कि आपकी क़ब्र भी वीरान कर दी। जिस क़ब्र में रसूल सल0 ने लेट कर आपको फि़शारे क़ब्र से बचाया था और क़ुरआन की तिलावत फ़रमाई थी उस पर बिलडोज़र चलाया गया और निशाने क़ब्र को भी मिटा दिया गया।


(6)    जनाबे अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तलिब
       आप रसूले इस्लाम स॰ के चचा और मक्के के शरीफ़ और बुजर्ग लोगों में से थे,आपका शुमार हज़रत पैग़म्बर स॰ के चाहने वालों और मद्द करने वालों, नीज़ आप स॰ के बाद हज़रत अमीरूल मोमेनीन के वफ़ादारों और जाँनिसारों में होता है।

       आमुलफ़ील से तीन साल पहले विलादत हुई और 33 हि0 में इन्तिक़ाल हुआ। आप आलमे इस्लाम की अज़ीम शख़सियत हैं। माज़ी के सय्याहों ने आपके रौज़ा और कु़ब्बा का तज़किरा किया है, मगर अफ़सोस आपके क़ुब्बे को मुन्हदिम कर दिया गया और क़ब्र वीरान हो गई।


(7)    जनाबे अक़ील इब्ने अबूतालिब अ॰

       आप हज़रत अली अ॰ के बड़े भाई थे और नबीए करीम स॰ आपको बहुत चाहते थे,अरब के मशहूर नस्साब थे और आप ही ने हज़रत अमीर का अक़्द जनाब उम्मुल बनीन से कराया था। इन्तिक़ाल के बाद आपके घर (दारूल अक़ील) में दफ़न किया गया, जन्नतुल बक़ी को गिराने से पहले आप की क़ब्र ज़मीन से ऊँची थी। मगर इन्हेदाम के बाद आपकी क़ब्र का निशान मिटा दिया गया है।


(8)    जनाब अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र

       आप जनाब जाफ़र तैयार ज़लजिनाहैन के बड़े साहबज़ादे और इमाम अली अ॰ के दामाद (जनाब ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के शौहर) थे। आपने दो बेटों मुहम्मद और औन को कर्बला इसलिये भेजा था कि इमाम हुसैन अ॰ पर अपनी जान निसार कर सकें। आपका इन्तिक़ाल 80 हि0 में हुआ और बक़ीअ में चचा अक़ील के पहलू में दफ़न किया गया। इब्ने बतूता के सफ़रनामे में आपकी क़ब्र का जि़क्र है। सुन्नी आलिम समहूदी ने लिखा हैः चूंकि आप बहुत सख़ी थे इस वजह से ख़ुदावंदे आलम ने आपकी क़ब्र को लोगों की दुआयें मक़बूल होने की जगह क़रार दिया है। मगर अफ़सोस! आज जनाब ज़ैनब के सुहाग के कब्र का निशान भी बाक़ी नहीं रहा।


(9)    जनाब उम्मुल बनीन अ॰

       आप हज़रत अली अ॰ की बीवी और हज़रत अबुल फ़ज़्ल अब्बास अ॰ की माँ हैं,साहिबे ‘‘मआलिकुम मक्का वलमदीना’’ के मुताबिक़ आपका नाम फ़ात्मा था मगर सिर्फ़ इस वजह से आपने अपना नाम बदल दिया कि मुबादा हज़रात हसन व हुसैन अ॰ को शहज़ादी कौनेन अ॰ न याद आ जायें और तकलीफ़ पहुंचे। आप उन दो शहज़ादों से बेपनाह मुहब्बत करती थीं। वाक़-ए कर्बला में आपके चार बेटों ने इमाम हुसैन अ॰ पर अपनी जान निसार की है इन्तिक़ाल के बाद आपको बक़ीअ में रिसालत मआब स॰ की फूपियों के बग़ल में दफ़न किया गया, यह क़ब्र मौजूदा क़ब्रिसतान की बाईं जानिब वाली दीवार से मिली हूई है और ज़ायरीन यहाँ ज़्यादा तादाद में आते हैं।


(10)   जनाब सफि़या बिन्त अब्दुल मुत्तलिब

       आप रसूले इस्लाम स॰ की फूफी और अवाम बिन ख़ोलद की बीवी थीं, आप एक बहादुर और शुजाअ ख़ातून थीं। एक जंग में जब बनी क़रेज़ा का एक यहूदी, मुसलमान औरतों के साथ ज़्यादती के लिए खे़मों में घुस आया तो आपने हसान बिन साबित से उसको क़त्ल करने के लिये कहा मगर जब उनकी हिम्मत न पड़ी तो आप ख़ुद बनफ़से नफ़ीस उन्हीं पर हमला करके उसे क़त्ल कर दिया। आपका इन्तिक़ाल 20 हि0 में हुआ। आपको बक़ीअ में मुग़य्यरा बिन शेबा के घर के पास दफ़न किया गया। पहले यह जगह ‘‘बक़ीउल उम्मात’’ के नाम से मशहूर थी। मोअर्रेख़ीन और सय्याहों के नक़्ल से मालूम होता है कि पहले क़ब्र की तखती ज़ाहिर थी मगर अब फ़क़त निशाने क़ब्र बाक़ी बचा है।


(11)   जनाब आतिका बिन्ते अब्दुलमुत्तलिब

       आप रूसलुल्लाह सल0 की फूफी थीं। आपका इन्तिक़ाल मदीना मुनव्वरा में हुआ और बहन सफि़या के पहलू में दफ़न किया गया। रफ़त पाशा ने अपने सफ़रनामे में आपकी क़ब्र का तजि़क्रा किया है मगर अब सिर्फ़ क़ब्र का निशान ही बाक़ी रह गया है।


(12)   जनाब हलीमा सादिया

       आप रसूले इस्लाम सल0 की रज़ाई माँ थीं यानी आप ने जनाबे हलीमा का दूध पिया था। आपका ताल्लुक़ क़बीला साद बिन बकर से था। इन्तिक़ाल मदीने में हुआ और बक़ीअ के शुमाल मशरिक़ी सिरे पर दफ़न हुईं। आपकी क़ब्र पर एक आलीशान कु़ब्बा था। रिसालत मआब स॰ अकसर व बेशतर यहाँ आकर आपकी ज़्यारत फ़रमाते थे। मगर अफ़सोस! साजि़श व तास्सुब के हाथों ने सय्यदुल मुरसलीन स॰ की इस महबूब ज़्यारतगाह को भी न छोड़ा और क़ुब्बा को ज़मीन बोस करके क़ब्र का निशान मिटा दिया गया।


(13)   जनाब इब्राहीम बिन रसूलुल्लाह स॰.

       आपकी विलादत सातवीं हिजरी क़मरी में मदीना मुनव्वरा में हुई मगर सोलह सत्तरह माह बाद ही आपका इन्तिक़ाल हो गया। इस मौक़े पर रसूल सल0 मक़बूल ने फ़रमाया थाः इसको बक़ीअ में दफ़न करो, बेशक इसकी दूध पिलाने वाली जन्नत में मौजूद है जो इसको दूध पिलायेगी। आपके दफ़न होने के बाद बक़ीअ के तमाम दरख़तों को काट दिया गया और उसके बाद हर क़बीले ने अपनी जगह मख़सूस कर दी जिससे यह बाग़ क़ब्रिस्तान बन गया। इब्ने बतूता के मुताबिक़ जनाब इब्राहीम अलै0 की क़ब्र पर सफ़ेद गुंबद था। इसी तरह रफ़त पाशा ने भी क़ब्र पर क़ुब्बे का जि़क्र किया है मगर अफ़सोस आले सऊद के जु़ल्म व सितम का नतीजा यह है कि आपकी फ़क़त क़ब्र का निशान ही बाक़ी रह गया है।


(14)   जनाब उसमान बिन मज़ऊन

       आप रिसालते मआब स॰ के बावफ़ा व बाअज़मत सहाबी थे। आपने उस वक़्त इस्लाम कु़बूल किया था जब फ़क़त 13 आदमी मुसलमान थे। इस तरह आप कायनात के चैधवें मुसलमान थे। आपने पहली हिजरत में अपने साहबज़ादे के साथ शिर्कत फ़रमाई फिर उसके बाद मदीना मूनव्वरा भी हिजरत करके आये, जंगे बदर में भी शरीक थे, इबादत में भी बेनज़ीर थे। आपका इन्तिक़ाल 2 हिजरी में हुआ। इस तरह आप पहले महाजिर हैं जिनका इन्तिकलाल मदीना में हुआ। जनाब आयशा से मनक़ूल रिवायत के मुताबिक़ हज़रत रसले इस्लाम स॰ ने आपकी मय्यत का बोसा लिया, नीज़ आप स॰ शिद्दत से गिरया फ़रमा रहे थे। आंहज़रत स॰ ने जनाब उसमान की क़ब्र पर एक पत्थर लगाया गया था ताकि निशानी रहे मगर मरवान बिन हकम ने अपनी मदीने की हुकूमत के ज़माने में उसको उखाड़ कर फेक दिया था जिस पर बनी उमय्या ने उसकी बड़ी मज़म्मत की थी।


(15)   जनाब इस्माईल बिन सादिक़

       आप इमाम सादिक़ अ॰ के बडे़ साहबज़ादे थे और आँहज़रत स॰ की जि़न्दगी ही में आपका इन्तिक़ाल हो गया था। समहूदी ने लिखा है कि आपकी क़ब्र ज़मीन से काफ़ी ऊँची थी। इसी तरह मोअत्तरी ने जि़क्र किया है कि जनाबे इस्माईल की क़ब्र और उसके शुमाल का हिस्सा इमाम सज्जाद अ॰ का घर था जिसके कुछ हिस्से में मस्जिद बनाई गई थी जिसका नाम मस्जिदे जै़नुल आबेदीन अ॰ था। मरातुल हरमैन के मोअल्लिफ़ ने भी इस्माईल की क़ब्र पर क़ुब्बा का जि़क्र किया है। 1395 हि0 में जब सऊदी हुकूमत ने मदीने की शाही रास्तों को चैडा करना शुरू किया तो आपकी क़ब्र खोद डाली मगर जब अन्दर से सही बदन निकला तो उसे बक़ी में शोहदाए ओहद के शहीदों के क़रीब दफ़न किया गया।


(16)   जनाब अबु सईद ख़ुज़री

       रिसालत पनाह के जांनिसार और हज़रत अली अ॰ के आशिक़ व पैरू थे। मदीने में इन्तिक़ाल हुआ और वसीयत की बिना पर बक़ीअ में दफ़न हुए। रफ़त पाशा ने अपने सफ़रनामे में लिखा है कि आपकी क़ब्र की गिन्ती मारूफ़ क़ब्रों में होती है। इमाम रज़ा ने मामून रशीद को इस्लाम की हक़ीक़त से मुताल्लिक़ जो ख़त लिखा था उसमे जनाब अबुसईद ख़ुज़री को साबित क़दम और बाईमान क़रार देते हुए आपके लिये रजि़अल्लाहु अन्हो व रिज़वानुल्लाहु अलैह के लफ़्ज़ इस्तेमाल किये थे।


(17)   जनाब अब्दुल्लाह बिन मसऊद

       आप बुज़ुर्ग सहाबी और क़ुरआन मजीद के मशहूर क़ारी थे। आप हज़रत अली अ॰ के मुख़लेसीन व जांनिसारों में से थे। आपको दूसरी खि़लाफ़त के ज़माने में नबीए अकरम स॰ से अहादीस नक़्ल करने के जुर्म में गिरफ़तार किया गया था जिसकी वजह से आपको अच्छा ख़ासा ज़माना जि़न्दान में गुज़ारना पड़ा। आपका इन्तिक़ाल 33 हि0 में हुआ था। आपने वसीयत फ़रमाई थी कि जनाब उसमान बिन मज़ऊन के पहलू में दफ़न किया जाये और कहा था कि: बेशक उसमान इब्ने मज़ऊन फ़क़ी थे। रफ़त पाशा के सफ़रनामें में आपकी क़ब्र का जि़क्र है।


पैग़म्बर (स॰) की बीवियों की क़ब्रें बक़ीअ में नीचे दी गई अज़वाज की क़बरें हैं

(18)   ज़ैनब बिन्ते ख़ज़ीमा     वफ़ात 4 हि0
(19)   रेहाना बिन्ते ज़ैद       वफ़ात 8 हि0
(20)   मारिया क़बतिया        वफ़ात 16 हि0
(21)   ज़ैनब बिन्ते जहश       वफ़ात 20 हि0
(22)   उम्मे हबीबा            वफ़ात 42 हि0 या 43 हि0
(23)   मारिया क़बतिया        वफ़ात 45 हि0
(24)   सौदा बिन्ते ज़मा        वफ़ात 50 हि0
(25)   सफि़या बिन्ते हई वफ़ात 50 हि0
(26)   जवेरिया बिन्ते हारिस     वफ़ात 50 हि0
(27)   उम्मे सलमा           वफ़ात 61 हि0


       ये क़बरें जनाबे अक़ील अ॰ की क़ब्र के क़रीब हैं। इब्ने बतूता के सफ़रनामे में रौज़े का जि़क्र है। मगर अब रौज़ा कहाँ है?


(28.30) जनाब रूक़ईया, उम्मे कुलसूम, ज़ैनबः आप तीनों की परवरिश जनाब रिसालत मआब स॰ और हज़रत ख़दीजा ने फ़रमाई थी, इसी वजह से बाज़ मोअर्रेख़ीन ने आपकी क़ब्रों को ‘‘क़ुबूर बनाते रसूलुल्लाह’’ के नाम से याद किया है। रफ़त पाशा ने भी इसी ग़लती की वजह से उन सब को औलादे पैग़म्बर क़रार दिया है वह लिखते हैं। ‘‘अकसर लोगों की क़ब्रों को पहचानना मुश्किल है अलबत्ता कुछ बुज़ुर्गान की क़ब्रों पर क़ुब्बा बना हुआ है, इन कु़ब्बादार क़ब्रों में जनाब इब्राहीम, उम्मे कुलसूम, रूक़ईया, ज़ैनब वग़ैरा औलादे पैग़म्बर की क़बे्रं हैं।


(31)   शोहदाए ओहद

यूँ तो मैदाने ओहद में शहीद होने वाले फ़क़त सत्तर अफ़राद थे मगर कुछ ज़्यादा ज़ख़्मों की वजह से मदीने में आकर शहीद हुए। उन शहीदों को बक़ी में एक ही जगह दफ़न किया गया जो जनाबे इब्राहीम की क़ब्र से तक़रीबन 20 मीटर की दूरी पर है। अब फ़क़त इन शोहदा की क़ब्रों का निशान बाक़ी रह गया है।

(32)   वाकि़या हुर्रा के शहीद


कर्बला में इमाम हुसैन अलै0 की शहादत के बाद मदीने में एक ऐसी बग़ावत की आँधी उठी जिससे यह महसूस हो रहा था कि बनी उमय्या के खि़लाफ़ पूरा आलमे इस्लाम उठ खड़ा होगा और खि़लाफ़त तबदील हो जायेगी मगर मदीने वालों को ख़ामोश करने के लिये यज़ीद ने मुस्लिम बिन उक़बा की सिपेह सालारी में एक ऐसा लश्कर भेजा जिसने मदीने में घुस कर वो ज़ुल्म ढाये जिनके बयान से ज़बान व क़लम मजबूर हैं। इस वाकि़ये में शहीद होने वालों को बक़ीअ में एक साथ दफ़न किया गया। इस जगह पहले एक चहार दीवारी और छत थी मगर अब छत को ख़त्म करके फ़क़त छोटी छोटी दीवारें छोड़ दी गई हैं।


(33)   जनाब मुहम्मद बिन हनफि़या
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आप हज़रत अमीर के बहादुर साहबज़ाते थे। आपको अपनी मां के नाम से याद किया जाता है। इमाम हुसैन अ॰ का वह मशहूर ख़त जिसमें आपने कर्बला की तरफ़ सफ़र की वजह बयान की है, आप ही के नाम लिखा गया था। आपका इन्तिक़ाल 83 हि0 में हुआ और बक़ी में दफ़न किया गया।

(34)   जनाब जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी

आप रिसालते पनाह स॰ और हज़रत अमीर के जलीलुलक़द्र सहाबी थे। आँहज़रत स॰ की हिजरत से 15 साल पहले मदीने में पैदा हुए और आप स॰ के मदीना तशरीफ़ लाने से पहले इस्लाम ला चुके थे। आँहज़रत स॰ ने इमाम बाक़र अ॰ तक सलाम पहुँचाने का जि़म्मा आप ही को दिया था। आपने हमेशा एहले बैत की मुहब्बत का दम भरा। इमाम हुसैन अ॰ की शहादत के बाद कर्बला का पहला ज़ाइर बनने का शर्फ आप ही को मिला मगर जनाब हुज्जाम बिन यूसुफ़ सक़फ़ी ने मुहम्मद व आले मुहम्मद की मुहब्बत के जुर्म में बदन को जलवा डाला था। आपका इन्तिक़ाल 77 हि0 में हुआ और बक़ीअ में दफ़न हुए।


(35)   जनाब मिक़दाद बिन असवद
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हज़रत रसूले ख़ुदा स॰ और हज़रत अली के बहुत ही मोअतबर सहाबी थे। आख़री लम्हे तक हज़रत अमीर अ॰ की इमामत पर बाक़ी रहे और आपकी तरफ़ से दिफ़ा भी करते रहे। इमाम मुहम्मद बाक़र अ॰ की रिवायत के मुताबिक़ आपकी गिन्ती उन जली-लु-लक़द्र असहाब में होती है जो पैग़म्बरे अकरम स॰ की रेहलत के बाद साबित क़दम और बाईमान रहे।

       यह था बक़ीअ में दफ़न होने वाले बाज़ बुज़ुर्गान का जि़क्र जिनके जि़क्र से सऊदी हुकूमत बचती है और उनके आसार को मिटा कर उनका नाम भी मिटा देना चाहती है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर लोग ऐसे हैं जो जि़ंदगी भर मुहम्मद व आले मुहम्मद अ॰ की मुहब्बत का दम भरते रहे और उस दुनिया की भलाई लेकर इस दुनिया से गये। इन बुज़ुर्गान और इस्लाम के रेहनुमा की तारीख़ और जि़न्दगी ख़ुद एक मुस्तकि़ल बहस है जिसकी गुन्जाइश यहाँ नहीं है।

       आख़िर में हम रब्बे करीम से दुआ करते हैं। ख़ुदारा! मुहम्मद और आले मुहम्मद अ॰ का वास्ता हमें इन अफ़राद के नक़शे क़दम पर चलने की तौफ़ीक़ अता फ़रमा जो तेरे नुमाइन्दों के बावफ़ा रहे नीज़ हमें उन लोगों में क़रार दे जो हक़ के ज़ाहिर करने में साबित क़दम रहे और जिनके इरादों को ज़ालिम हाकिमें भी हिला न सके।

     




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