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Channel: हक और बातिल
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उस उम्मत के आखिर में एक ऐसी क़ौम आयेगी

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इमाम सादिक (अ. स.) अपने एक सहाबी से फरमाते हैं कि

"जब तुम देखो कि ज़ुल्म व सितम आम हो रहा है, कुरआन को एक तरफ़  रख दिया गया है, हवा व हवस के आधार पर क़ुरआन की तफ्सीर की जा रही है, अहले बातिल (झूठे) हक़ परस्तों (सच्चों) से आगे बढ़ रहे हैं, ईमानदार लोग ख़ामोश बैठे हुए हैं, रिश्तेदारी के बंधन टूट रहे हैं, चापलूसी बढ़ रही है, नेकियों का रास्ता खाली हो रहा है और बुराइयों के रास्तों पर भीड़ दिखाई दे रही है, हलाल हराम हो रहा है और हराम हलाल शुमार किया जाने लगा है, माल व दौलत गुनाहों और बुराइयों में खर्च किया जा रहा है, हुकूमत के कर्मचारियों में रिशवत का बाज़ार गर्म है, बुरे खेल इतने अधिक चलने लगे कि कोई भी उनकी रोक थाम की हिम्मत नही करता है, लोग कुरआन की हक़ीक़तों को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन बातिल और फुज़ूल चीज़ें सुनना उनके लिए आसान है, अल्लाह के गर का हज दिखावे के लिए किया जा रहा है, लोग संग दिल होने लगें हैं, मोहब्बत का जनाज़ा निकल चुका है, अगर कोई अम्र बिल मअरुफ़ और नेही अनिल मुन्कर करे  तो उस से कहा जाये कि यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी नहीं है, हर साल एक नई बुराई और नई बिदअत पैदा हो रही है, तो ख़ुद को सुरक्षित रखना और इस खतरनाक माहौल से बचने के लिए अल्लाह से पनाह माँगना और समझना कि अब ज़हूर का ज़माना नज़दीक है

काफी, जिल्द न. 7, पेज न. 28 ।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फरमाया : उस उम्मत के आखिर में एक ऐसी क़ौम आयेगी जिसका सवाब व ईनाम इस्लाम के पहले दौर के मुसलमानों  (सहाबी)  के बराबर होगा, वह लोग अम्र बिल मअरुफ़ और नही अनिल मुनकर करते हुए बुराईयों का मुक़ाबला करेंगे।
 मोअजमे अहादीस इमाम मेहदी (अ0 स.), जिल्द न. 1, पेज न. 49 ।

नमाज़ की हकीकत |

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नमाज़ और लिबास
रिवायात मे मिलता है कि आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम नमाज़ का लिबास अलग रखते थे। और अल्लाह की खिदमत मे शरफ़याब होने के लिए खास तौर पर ईद व जुमे की नमाज़ के वक़्त खास लिबास पहनते थे। बारिश के लिए पढ़ी जाने वाली नमाज़ (नमाज़े इस्तसक़ा) के लिए ताकीद की गयी है कि इमामे जमाअत को चाहिए कि वह अपने लिबास को उलट कर पहने और एक कपड़ा अपने काँधे पर डाले ताकि खकसारी व बेकसी ज़ाहिर हो। इन ताकीदों से मालूम होता है कि नमाज़ के कुछ मखसूस आदाब हैं। और सिर्फ़ नमाज़ के लिए ही नही बल्कि तमाम मुक़द्दस अहकाम के लिए अपने खास अहकाम हैं।

हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को भी तौरात की आयात हासिल करने के लिए चालीस दिन तक कोहे तूर पर मुनाजात के साथ मखसूस आमाल अंजाम देने पड़े।
नमाज़ इंसान की मानवी मेराज़ है। और इस के लिए इंसान का हर पहलू से तैयार होना ज़रूरी है। नमाज़ की अहमियत का अंदाज़ा नमाज़ के आदाब, शराइत और अहकाम से लगाया जासकता है।
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने अपना वह लिबास जिसमे आपने दस लाख रकत नमाज़े पढ़ी थी देबल नाम के शाइर को तोहफ़े मे दिया। क़ुम शहर के रहने वाले कुछ लोगों ने देबल से यह लिबास खरीदना चाहा मगर उन्होने बेंचने से मना कर दिया। देबल वह इंक़िलाबी शाइर है जिन्होनें बनी अब्बास के दौरे हुकुमत मे 20 साल तक पौशीदा तौर पर जिंदगी बसर की। और आखिर मे 90 साल की उम्र मे एक रोज़ नमाज़े सुबह के बाद शहीद कर दिये गये।
- नमाज़ और दुआ
क़ुनूत मे पढ़ी जाने वाली दुआओं के अलावा हर नमाज़ी अपनी नमाज़ के दौरान एहदिनस्सिरातल मुस्तक़ीम कह कर अल्लाह से बेहतरीन नेअमत “हिदायत” के लिए दुआ करता है। रिवायात मे नमाज़ से पहले और बाद मे पढ़ी जाने वाली दुआऐं मौजूद हैं जिनका पढ़ना मुस्तहब है। बहर हाल जो नमाज़ पढ़ता वह दुआऐं भी करता है।
अलबत्ता दुआ करने के भी कुछ आदाब हैं। जैसे पहले अल्लाह की तारीफ़ करे फिर उसकी मखसूस नेअमतों जैसे माअरिफ़त, इस्लाम, अक़्ल, इल्म, विलायत, क़ुरआन, आज़ादी व फ़हम वगैरह का शुक्र करते हुए मुहम्मद वा आलि मुहम्मद पर सलवात पढ़े। इसके बाद किसी पर ज़ाहिर किये बग़ैर अपने गुनाहों की तरफ़ मुतवज्जेह हो कर अल्लाह से उनके लिए माफ़ी माँगे और फिर सलवात पढ़कर दुआ करे। मगर ध्यान रहे कि पहले तमाम लोगों के लिए अपने वालदैन के लिए और उन लोगों के लिए जिनका हक़ हमारी गर्दनों पर है दुआ करे और बाद मे अपने लिए दुआ माँगे।
क्योंकि नमाज़ मे अल्लाह की हम्दो तारीफ़ और उसकी नेअमतों का ब्यान करते हुए उससे हिदाय और रहमत की भीख माँगी जाती है। इससे मालूम होता है कि नमाज़ और दुआ मे गहरा राबिता पाया जाता है।
- नमाज़ के लिए क़ुरआन का अदबी अंदाज़े ब्यान
सूरए निसा की 161 वी आयत मे अल्लाह ने दानिशमंदो, मोमिनों, नमाज़ियों और ज़कात देने वालोंकी जज़ा(बदला) का ज़िक्र किया है। लेकिन नमाज़ियों की जज़ा का ऐलान करते हुए एक मखसूस अंदाज़ को इख्तियार किया है।
दानिशमंदों के लिए कहा कि “अर्रासिखूना फ़िल इल्म”
मोमेनीन के लिए कहा कि “अलमोमेनूना बिल्लाह”
ज़कात देने वालों के लिए कहा कि “अलमोतूना अज़्ज़कात”
नमाज़ियों के बारे मे कहा कि “अलमुक़ीमीना अस्सलात”
अगर आप ऊपर के चारों जुमलों पर नज़र करेंगे तो देखेंगे कि नमाज़ियों के लिए एक खास अंदाज़ अपनाया गया है। जो मोमेनीन, दानिशमंदो और ज़कात देने वालो के ज़िक्र मे नही मिलता। क्योंकि अर्रासिखूना, अलमोमेनूना, अल मोतूना के वज़न पर नमाज़ी लोगों का ज़िक्र करते हुए अल मुक़ीमूना भी कहा जा सकता था। मगर अल्लाह ने इस अंदाज़ को इख्तियार नही किया। जो अंदाज़ नमज़ियों के लिए अपनाया गया है अर्बी ज़बान मे इस अंदाज़ को अपनाने से यह मअना हासिल होते हैं कि मैं नमाज़ पर खास तवज्जुह रखता हूँ।
सूरए अनआम की 162वी आयत मे इरशाद होता है कि “अन्ना सलाती व नुसुकी” यहाँ पर सलात और नुसुक दो लफ़ज़ों को इस्तेमाल किया गया है। जबकि लफ़ज़े नुसक के मअना इबादत है और नमाज़ भी इबादत है। लिहाज़ा नुसुक कह देना काफ़ी था। मगर यहाँ पर नुसुक से पहले सलाती कहा गया ताकि नमाज़ की अहमियत रोशन हो जाये।
सूरए अनआम की 73 वी आयत मे इरशाद होता है कि “हमने अंबिया पर वही नाज़िल की कि अच्छे काम करें और नमाज़ क़ाइम करें।” नमाज़ खुद एक अच्छा काम है मगर कहा गया कि अच्छे काम करो और नमाज़ क़ाइम करो। यहाँ पर नमाज़ का ज़िक्र जुदा करके नमाज़ की अहमियत को बताया गया है।
- खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ना ईमान की पहली शर्त
सूरए मोमेनून की पहली और दूसरी आयत मे इरशाद होता है कि बेशक मोमेनीन कामयाब हैँ (और मोमेनीन वह लोग हैं) जो अपनी नमाज़ों को खुशुअ के साथ पढ़ते हैं।
याद रहे कि अंबिया अलैहिमस्सलाम मानना यह हैं कि हक़ीक़ी कामयाबी मानवियत से हासिल होती है। और ज़ालिम और सरकश इंसान मानते हैं कि कामयाबी ताक़त मे है।
फिरौन ने कहा था कि “ आज जिसको जीत हासिल हो गयी वही कामयाब होगा।” बहर हाल चाहे कोई किसी भी तरह लोगों की खिदमत अंजाम दे अगर वह नमाज़ मे ढील करता है तो कामयाब नही हो सकता ।
- नमाज़ और खुशी
सूरए निसा की 142वी आयत मे मुनाफ़ेक़ीन की नमाज़ के बारे मे इरशाद होता है कि वह सुस्ती के साथ नमाज़ पढ़ते हैं। यानी वह खुशी खशी नमाज़ अदा नही करते। इसी तरह सूरए तौबा की 54वी आयत मे उस खैरात की मज़म्मत की गयी है जिसमे खुलूस न पाया जाता हो। और इसकी वजह यह है कि इबादत और सखावत का असल मक़सद मानवी तरक़्क़ी है। और इसको हासिल करने के लिए मुहब्बत और खुलूस शर्त है।
- नमाज़ियों के दर्जात
(अ) कुछ लोग नमाज़ को खुशुअ (तवज्जुह) के साथ पढ़ते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम ने सूरए मोमेनून की दूसरी आयत मे ज़िक्र किया है “कि वह खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ते हैं।” खुशुअ एक रूहानी और जिसमानी अदब है।
तफ़्सीरे साफ़ी मे है कि एक बार रसूले अकरम (स.) ने एक इंसान को देखा कि नमाज़ पढ़ते हुए अपनी दाढ़ी से खेल रहा है। आपने फ़रमाया कि अगर इसके पास खुशुअ होता तो कभी भी इस काम को अंजाम न देता।
तफ़्सीरे नमूना मे नक़ल किया गया है कि रसूले अकरम (स.) नमाज़ के वक़्त आसमान की तरफ़ निगाह करते थे और इस आयत
(मोमेनून की दूसरी आयत) के नाज़िल होने के बाद ज़मीन की तरफ़ देखने लगे।
(ब) कुछ लोग नमाज़ की हिफ़ाज़त करते हैं।
जैसे कि सूरए अनआम की आयत न.92 और सूरए मआरिज की 34वी आयत मे इरशाद हुआ है। सूरए अनआम मे नमाज़ की हिफ़ाज़त को क़ियामत पर ईमान की निशानी बताया गया है।
(स) कुछ लोग नमाज़ के लिए सब कामों को छोड़ देते हैं।
जैसे कि सूरए नूर की 37वी आयत मे इरशाद हुआ है। अल्लाह के ज़िक्र मे ना तो तिजारत रुकावट है और ना ही वक़्ती खरीदो फ़रोख्त, वह लोग माल को ग़ुलाम समझते हैं अपना आक़ा नही।
(द) कुछ लोग नमाज़ के लिए खुशी खुशी जाते हैं।
(य) कुछ लोग नमाज़ के लिए अच्छा लिबास पहनते हैं ।
जैसे कि सूरए आराफ़ की 31वी आयत मे अल्लाह ने हुक्म दिया है “कि नमाज़ के वक़्त जीनत इख्तियार करो।”
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना मस्जिद को पुररौनक़ बनाना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना नमाज़ का ऐहतिराम करना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना लोगों का ऐहतिराम करना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना वक़्फ़ और वाक़िफ़ दोनों का ऐहतिराम है। लेकिन इस आयत के आखिर मे यह भी कहा गया है कि इसराफ़ से भी मना किया गया है।
(र) कुछ लोग नमाज़ से दायमी इश्क़ रखते हैं।
जैसे कि सूरए मआरिज की 23वी आयत मे इरशाद हुआ है कि “अल्लज़ीना हुम अला सलातिहिम दाइमून।”“वह लोग अपनी नमाज़ को पाबन्दी से पढ़ते हैं।” हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि यहाँ पर मुस्तहब नमाज़ों की पाबंदी मुराद है। लेकिन इसी सूरेह मे यह जो कहा गया है कि वह लोग अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं। यहाँ पर वाजिब नमाज़ों की हिफ़ाज़त मुराद है जो तमाम शर्तों के साथ अदा की जाती हैं।
(ल) कुछ लोग नमाज़ के लिए सहर के वक़्त बेदार हो जाते हैं।
जैसे कि सूरए इस्रा की 79वी आयत मे इरशाद होता है कि “फ़तहज्जद बिहि नाफ़िलतन लका” लफ़्ज़े जहूद के मअना सोने के है। लेकिन लफ़्ज़े तहज्जद के मअना नींद से बेदार होने के हैँ।
इस आयत मे पैग़म्बरे अकरम (स.) से ख़िताब है कि रात के एक हिस्से मे बेदार होकर क़ुरआन पढ़ा करो यह आपकी एक इज़ाफ़ी ज़िम्मेदारी है। मुफ़स्सेरीन ने लिखा है कि यह नमाज़े शब की तरफ़ इशारा है।
(व) कुछ लोग नमाज़ पढ़ते पढ़ते सुबह कर देते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम मे आया है कि वह अपने रब के लिए सजदों और क़ियाम मे रात तमाम कर देते हैं।
(श) कुछ लोग सजदे की हालत मे गिरिया करते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम मे इरशाद हुआ है कि सुज्जदन व बुकिय्यन।
अल्लाह मैं शर्मिंदा हूँ कि 15 शाबान सन् 1370 हिजरी शम्सी मे इन तमाम मराहिल को लिख रहा हूँ मगर अभी तक मैं ख़ुद इनमे से किसी एक पर भी सही तरह से अमल नही कर सका हूँ। इस किताब के पढ़ने वालों से दरखवास्त है कि वह मेरे ज़ाती अमल को नज़र अन्दाज़ करें। (मुसन्निफ़)
- नमाज़ हम से गुफ़्तुगु करती है
क़ुरआन और रिवायात मे मिलता है कि आलमे बरज़ख और क़ियामत मे इंसान के तमाम आमाल उसके सामने पेश कर दिये जायेंगे। नेकियोँ को खूबसूरत पैकर मे और बुराईयोँ को बुरे पैकर मे पेश किया जायेगा। खूब सूरती और बदसूरती खुद हमारे हाथ मे है। रिवायत मे मिलता है कि जो नमाज़ अच्छी तरह पढ़ी जाती है उसको फ़रिश्ते खूबसूरत पैकर मे ऊपर ले जाते हैं ।और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझको इसी तरह हिफ़्ज़ करे जिस तरह तूने मुझे हिफ़्ज़ किया।
लेकिन वह नमाज़ जो नमाज़ की शर्तों और उसके अहकाम के साथ नही पढ़ी जाती उसको फ़रिश्ते सयाही की सूरत मे ऊपर ले जाते हैं और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझे इसी तरह बर्बाद करे जिस तरह तूने मुझे बर्बाद किया। (किताब असरारूस्सलात इमाम खुमैनी (र)


नमाज़ अल्लाह की याद है।
अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो।

एक मख़सूस तरीक़े से अल्लाह की याद जिसमे इंसान के बदन के सर से पैर तक के तमाम हिस्से शामिल होते हैं।वज़ू के वक़्त सर का भी मसाह करते हैं और पैरों का भी, सजदे मे पेशानी भी ज़मीन पर रखी जाती है और पैरों के अंगूठे भी। नमाज़ मे ज़बान भी हरकत करती है और दिल भी उसकी याद मे मशग़ूल रहता है। नमाज़ मे आँखे सजदह गाह की तरफ़ रहती हैं तो रुकू की हालत मे कमर भी झूकी रहती है। अल्लाहो अकबर कहते वक़्त दोनों हाथ ऊपर की तरफ़ उठ ही जाते हैं। इस तरह से बदन के तमाम हिस्से किसी न किसी हालत मे अल्लाह की याद मे मशग़ूल रहते हैं।
27- नमाज़ और अल्लाह का शुक्र
नमाज़ के राज़ो मे से एक राज़ अल्लाह की नेअमतों का शुक्रियाअदा करना भी है। जैसे कि क़ुरआन मे ज़िक्र हुआ है कि उस अल्लाह की इबादत करो जिसने तुमको और तुम्हारे बाप दादा को पैदा किया।अल्लाह की नेअमतों का शुक्रिया अदा करना बड़ी अहमियत रखता है। सूरए कौसर मे इरशाद होता है कि हमने तुम को कौसर अता किया लिहाज़ा अपने रब की नमाज़ पढ़ा करो। यानी हमने जो नेअमत तुमको दी है तुम उसके शुक्राने के तौर पर नमाज़ पढ़ा करो। नमाज़ शुक्र अदा करने का एक अच्छा तरीक़ा है। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसका हुक्म खुद अल्लाह ने दिया है। तमाम नबियों और वलीयों ने इस तरीक़े पर अमल किया है। नमाज़ शुक्रिये का एक ऐसा तरीक़ा है जिस मे ज़बान और अमल दोनो के ज़रिया शुक्रिया अदा किया जाता है।
28- नमाज़ और क़ियामत
क़ियामत के बारे मे लोगों के अलग अलग ख़यालात हैं।
क- कुछ क़ियामत के बारे मे शक करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा
अगर तुम क़ियामत के बारे मे शक करते हो।
ख- कुछ लोग क़ियामत के बारे मे गुमान रखते हैं जैसे कि क़ुरआन
ने कहा है कि वह लोग गुमान करते हैं कि अल्लाह से मुलाक़ात
करेंगे।
ग- कुछ लोग क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं।
घ- कुछ लोग क़ियामत का इंकार करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि (वह लोग कहते है कि) हम क़ियामत के दिन को झुटलाते हैं।
ङ- कुछ लोग क़ियामत पर ईमान रखते हैं मगर उसे भूल जाते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत के दिन को भूल गये हैं।
क़ुरआन ने शक करने वालों के शक को दूर करने के लिए दलीलें दी हैं। क़ियामत का इंकार करने वालों से सवाल किया है कि बताओ तुम्हारे मना करने की दलील क्या है? और भूल जाने वालों को बार बार तंबीह की है ताकि वह क़ियामत को न भूलें। और क़ियामत पर यक़ीन रखने वालों की तारीफ़ की है।
नमाज़ शक को दूर करती है और ग़फ़लत को याद मे बदल देती है। क्योँकि नमाज़ मे इंसान 24 घँटे मे कम से कम 10 बार अपनी ज़बान से अल्लाह को मालिकि यौवमिद्दीन(क़ियामत के दिन का मालिक) कह कर क़ियामत को याद करता है।
29- नमाज़ और सिराते मुस्तक़ीम
हम हर रोज़ नमाज़ मे अल्लाह से सिराते मुस्तक़ीम पर गामज़न रहने की दुआ करते हैं। इंसान को हर वक़्त एक नयी फ़िक्र लाहक़ होती है। दोस्त दुशमन, अपने पराये, सरकशी पर आमादा अफ़राद, और शैतानी वसवसे पैदा करने वाले लोग, नसीहत, शौक़, खौफ़, वहशत, और परोपैगंडे के तरीक़ो से काम लेकर इंसान के सामने एक से एक नये रास्ते पेश करते हैं।और इस तरह मंसूबा बनाते हैं कि अगर इंसान को अल्लाह की तरफ़ से मदद ना मिले तो हवाओ हवस के इन रास्तो मे उलझ कर रह जाये। और मुखतलिफ़ तरीक़ो के बीच उलझन का शिकार होकर सिराते मुस्तकीम से भटक जाये।
ऐहदि नस्सिरातल मुस्तक़ीम यानी हमको सिराते मुस्तक़ीम(सीधे रास्ते पर) पर बाक़ी रख।
सिराते मुसतक़ीम यानी
1- वह रास्ता जो अल्लाह के वलीयों का रास्ता है।
2- वह रास्ता जो हर तरह के खतरे और कजी से पाक है।
3- वह रास्ता जो हमसे मुहब्बत करने वाले का बनाया हुआ है।
4- वह रास्ता जो हमारी ज़रूरतों के जानने वाले ने बनाया है।
5- वह रास्ता जो जन्नत से मिलाता है।
6- वह रास्ता जो फ़ितरी है।
7- वह रास्ता कि अगर उस पर चलते हुए मर जायें तो शहीद कहलाऐं।
8- वह रास्ता जो आलमे बाला से वाबस्ता और हमारे इल्म से दूर है।
9- वह रास्ता जिस पर चल कर इंसान को शक नही होता।
10-वह रास्ता जिस पर चलने के बाद इंसान शरमिन्दा नही होता।
11-वह रास्ता जो तमाम रास्तों से ज़्यादा आसान, नज़दीक, रोशन और साफ़ है।
12-वह रास्ता जो नबियों, शहीदों, सच्चे और नेक लोगों का रास्ता है।
यही तमाम चीज़े सिराते मुस्तक़ीम की निशानियाँ हैं। जिनका पहचानना बहुत मुशकिल काम है।इस पर चलने और बाक़ी रहने के लिए हमेशा अल्लाह से मदद माँगनी चाहिए।
30- नमाज़ शैतानो से जंग है
हम सब लफ़्ज़े महराब को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। यह लफ़्ज़ क़ुरआन मे जनाबे ज़िक्रिया अलैहिस्सलाम की नमाज़ के बारे मे इस्तेमाल हुआ है। (सूरए आले इमरान आयत न. 38, 39) यहाँ पर नमाज़ मे खड़े होने को महराब मे क़ियाम से ताबीर किया गया है। महराब का मअना जंग की जगह है। लिहाज़ा महराबे नमाज़ मे क़ियाम और नमाज़ शैतान से जंग है।
31- महराब जंग की जगह
अगर इंसान दिन मे कई बार किसी ऐसी जगह पर जाये जिसका नाम ही मैदाने जंग हो, जहाँ पर शैतानों, शहवतो, ताग़ूतों, सरकशों और हवस से जंग होती हो तो इस ताबीर का इस्तेमाल एक फ़र्द या पूरे समाज की ज़िंदगी मे कितना ज़्यादा मोस्सिर होना चाहिए।
इस बात को नज़र अन्दाज़ करते हुए कि आज के ज़माने मे ग़लत रस्मो रिवाज की बिना पर इन महराबों को दुल्हन के कमरों से भी ज़्यादा सजाया जाने लगा है।इन ज़रो जवाहिर और फूल पत्तियों की नक़्क़ाशी ने तो मामले को बिल्कुल बदल दिया है। यानी महराब को शैतान के भागने की जगह के बजाए, उसके पंजे जमाने की जगह बना दिया जाता है।
एक दिन पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैह से फ़रमाया कि इस पर्दे को मेरी नज़रो के सामने से हटा दो। क्योंकि इस पर बेल बूटे बने हैं जो नमाज़ की हालत मे मेरी तवज्जुह को अपनी तरफ़ खीँच सकते हैं।
लेकिन आज हम महराब को संगे मरमर और नक़्क़ाशी से सजाने के लिए एक बड़ी रक़म खर्च करते हैं। पता नही कि हम मज़हबी रसूम और मेमारी के हुनर के नाम पर असल इस्लाम से क्यों दूर होते जा रहे हैं? इस्लाम को जितनी ज़्यादा गहराई के साथ बग़ैर किसी तसन्नो के पहचनवाया जायेगा उतना ही ज़यादा कारगर साबित होगा। सोचिये कि हम इन तमाम सजावटों के ज़रिये कितने लोगों को नमाज़ी बनाने मे कामयाब हुए। अगर मस्जिद की सजावट पर खर्च होने वाली रक़म को दूसरी अहम बुन्यादी ज़रूरतों को पूरा करने मे खर्च किया जाये तो बहुतसे लोग मस्जिद और नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जाह होंगे।
32-सुस्त लोग भी शामिल हो जाते हैं
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने नमाज़े जमाअत के फ़लसफ़े को ब्यान करते हुए फ़रमाया कि “नमाज़े जमाअत का एक असर यह भी है कि इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है और वह भी साथ मे शामिल हो जाते हैं।” मिसाल के तौर पर जब हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम आता है तो आपके मुहिब ऐहतराम के लिए खड़े हो जाते हैं। इनको खड़े होता देख कर सुस्त लोग भी ऐहतरामन खड़े हो जाते हैं।इस तरह इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है।
33- हज़रत मूसा अलै. को सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम अपनी बीवी के साथ जारहे थे। उन्होने अचानक एक तरफ आग देखी तो अपनी बीवी से कहा कि मैं जाकर तापने के लिए आग लाता हूँ। जनाबे मूसा अलैहिस्सलाम आग की तरफ़ बढ़े तो आवाज़ आई मूसा मै तुम्हारा अल्लाह हूँ और मेरे अलावा कोई माबूद नही है। मेरी इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो। (क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की आयत न.14) यानी तौहीद के बाद सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया। यहाँ से यह बात समझ मे आती है कि तौहीद और नमाज़ के बीच बहुत क़रीबी और गहरा ताल्लुक़ है। तौहीद का अक़ीदा हमको नमाज़ की तरफ़ ले जाता है।और नमाज़ हमारी यगाना परस्ती की रूह को ज़िंदा करती है। हम नमाज़ की हर रकत मे दोनो सूरों के बाद,हर रुकूअ से पहले और बाद में हर सूजदे से पहले और बाद में, नमाज़ के शुरू मे और बाद मे अल्लाहु अकबर कहते हैं जो मुस्तहब है।हालते नमाज़ मे दिल की गहराईयों के साथ बार बार अल्लाहु अकबर कहना रुकूअ और सजदे की हालत मे अल्लाह का ज़िक्र करना, और तीसरी व चौथी रकत मे तस्बीहाते अरबा पढ़ते हुए ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, यह तमाम क़ौल अक़ीदा-ए-तौहीद को चमकाते हैं।
34- नमाज़ को छोड़ना तबाही का सबब बनता है
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि नबीयों के बाद कुछ लोग उनके जानशीन बने उन्होने नमाज़ को छोड़ दिया और शहवत परस्ती मे लग गये।
इस आयत मे इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि उन्होने पहले नमाज़ को छोड़ा और बाद मे शहवत परस्त बन गये। नमाज़ एक ऐसी रस्सी है जो बंदे को अल्लाह से मिलाए रखती है। अगर यह रस्सी टूट जाये तो तबाही के ग़ार मे गिरना यक़ीनी है। ठीक इसी तरह जैसे तस्बीह का धागा टूट जाने पर दाने बिखर जाते हैं और बहुत से गुम हो जाते हैं।
35- तमाम अदयान की इबादत गाहों की हिफ़ाज़त ज़रूरी है
क़ुरआने करीम के सूरए हज की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि अगर इंक़िलाबी मोमेनीन अपने हाथों मे हथियार लेकर फ़साद फैलाने वालों और तफ़रक़ा डालने वालों से जंग न करें, और उन्हें न मारे तो ईसाइयों, यहूदीयों और मुसलमानो की तमाम इबादतगाहें वीरान हो जायें।
अगर अल्लाह इन लोगों को एक दूसरे से दफ़ ना करता तो दैर, कलीसा, कनीसा और मस्जिदें जिन मे कसरत के साथ अल्लाह का ज़िक्र होता है कब की वीरान होगईं होतीं। बहर हाल अगर इबादत गाहों की हिफ़ाज़त के लिए खून भी देना पड़े तो इनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए।
दैर--- आबादी से बाहर बनाई जाने वाली इबादतगाह जिसमे बैठ कर ज़ाहिद लोग इबादत करते हैं।
कलीसा--- ईसाइयों की इबादतगाह
कनीसा---- यहूदीयों की इबादतगाह और यह इबरानी ज़बान के सिलवसा लफ़्ज़ का अर्बी तरजमा है।
मस्जिद----मुसलमानो की इबादतगाह
36- तहारत और दिल की सलामती
जिस तरह इस्लाम मे नमाज़ पढ़ने के लिए वज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम जैसी ज़ाहिरी तहारत ज़रूरी है। इसी तरह नमाज़ की क़बूलियत के लिए दिल की तहारत की भी ज़रूरत है। क़ुरआन ने बार बार दिल की पाकीज़गी की तरफ़ इशारा किया है। कभी इस तरह कहा कि फ़क़त क़लबे सलीम अल्लाह के नज़दीक अहमियत रखता है।
इसी लिए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “क़लबे सलीम उस क़ल्ब को कहते हैं जिसमे शक और शिर्क ना पाया जाता हो।”
हदीस मे मिलता है “कि अल्लाह तुम्हारे जिस्मों पर नही बल्कि तुम्हारी रूह पर नज़र रखता है।”
क़ुरआन की तरह नमाज़ मे भी ज़ाहिर और बातिन दोनो पहलु पाये जाते हैं। नमाज़ की हालत मे हम जो अमल अंजाम देते हैं अगर वह सही हो तो यह नमाज़ का ज़ाहिरी पहलु है। और यहीँ से इंसान की बातिनी परवाज़(उड़ान) शुरू होती है।
वह नमाज़ जो मारफ़त व मुहब्बत की बुनियाद पर क़ाइम हो।
वह नमाज़ जो खुलूस के साथ क़ाइम की जाये।
वह नमाज़ जो खुज़ुअ व खुशुअ के साथ पढ़ी जाये।
वह नमाज़ जिसमे रिया (दिखावा) ग़रूर व तकब्बुर शामिल न हो।
वह नमाज़ जो ज़िन्दगी को बनाये और हरकत पैदा करे।
वह नमाज़ जिसमे दिल हवाओ हवस और दूसरी तमाम बुराईयों से पाक हो।
वह नमाज़ जिसका अक्स मेरे दिमाग़ मे बना है। जिसको मैंने लिखा और ब्यान किया है। लेकिन अपनी पूरी उम्र मे ऐसी एक रकत नमाज़ पढ़ने की सलाहिय्यत पैदा न कर सका।(मुसन्निफ़)


नमाज़ सभी उम्मतों मे मौजूद थी
हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) से पहले हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की शरीअत मे भी नमाज़ मौजूद थी।
क़ुरआन मे इस बात का ज़िक्र सूरए मरियम की 31 वी आयत मे मौजूद है कि हज़रत ईसा (अ.स.) ने कहा कि अल्लाह ने मुझे नमाज़ के लिए वसीयत की है। इसी तरह हज़रत मूसा (अ. स.) से भी कहा गया कि मेरे ज़िक्र के लिए नमाज़ को क़ाइम करो। (सूरए ताहा आयत 26)
इसी तरह हज़रत मूसा अ. से पहले हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम भी नमाज़ पढ़ते थे जैसे कि सूरए हूद की 87वी आयत से मालूम होता है। और इन सबसे पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम थे। जो अल्लाह से अपने और अपनी औलाद के लिए नमाज़ क़ाइम करने की तौफ़ीक़ माँगते थे।
और इसी तरह हज़रत लुक़मान अलैहिस्सलाम अपने बेटे को वसीयत करते हैं कि नमाज़ क़ाइम करना और अम्रे बिल मअरूफ़ व नही अज़ मुनकर को अंजाम देना।
दिल चस्प बात यह है कि अक्सर मक़ामात पर नमाज़ के साथ ज़कात अदा करने की ताकीद की गई है। मगर चूँकि मामूलन नौजवानों के पास माल नही होता इस लिए इस आयत में नमाज़ के साथ अम्र बिल माअरूफ़ व नही अज़ मुनकर की ताकीद की गई है।
2- नमाज़ के बराबर किसी भी इबादत की तबलीग़ नही हुई
हम दिन रात में पाँच नमाज़े पढ़ते हैं और हर नमाज़ से पहले अज़ान और इक़ामत की ताकीद की गई है। इस तरह हम
बीस बार हय्या अलस्सलात (नमाज़ की तरफ़ आओ।)
बीस बार हय्या अलल फ़लाह (कामयाबी की तरफ़ आओ।)
बीस बार हय्या अला ख़ैरिल अमल (अच्छे काम की तरफ़ आओ)
और बीस बार क़द क़ामःतिस्सलात (बेशक नमाज़ क़ाइम हो चुकी है)
कहते हैं। अज़ान और इक़ामत में फ़लाह और खैरिल अमल से मुराद नमाज़ है। इस तरह हर मुसलमान दिन रात की नमाज़ों में 60 बार हय्या कह कर खुद को और दूसरों को खुशी के साथ नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जेह करता है। नमाज़ की तरह किसी भी इबादत के लिए इतना ज़्याद शौक़ नही दिलाया गया है।
हज के लिए अज़ान देना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ज़िम्मेदारी थी, मगर नमाज़ के लिए अज़ान देना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। अज़ान से ख़ामोशी का ख़ात्मा होता है। अज़ान एक इस्लामी फ़िक्र और अक़ीदा है।
अज़ान एक मज़हबी तराना है जिसके अलफ़ाज़ कम मगर पुर मअनी हैं
अज़ान जहाँ ग़ाफ़िल लोगों के लिए एक तंबीह है। वहीँ मज़हबी माहौल बनाने का ज़रिया भी है। अज़ान मानवी जिंदगी की पहचान कराती है।
3- नमाज़ हर इबादत से पहले है
मखसूस इबादतें जैसे शबे क़द्र, शबे मेराज, शबे विलादत आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम, शबे जुमा,रोज़े ग़दीर, रोज़े आशूरा और हर बा फ़ज़ीलत दिन रात जिसके लिए मख़सूस दुआऐं व आमाल हैं वहीँ मख़सूस नमाज़ों का भी हुक्म है। शायद कोई भी ऐसा मुक़द्दस दिन नही है जिसमे नमाज़ की ताकीद ना की गई हो।
4- नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में पाई जाती हैं
अगरचे जिहाद ,हज ग़ुस्ल और वज़ु की कई क़िस्मे हैं,मगर नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में हैँ। अगर हम एक मामूली सी नज़र अल्लामा मुहद्दिस शेख़ अब्बास क़ुम्मी की किताब मफ़ातीहुल जिनान के हाशिये पर डालें तो वहां पर नमाज़ की इतनी क़िसमें ज़िक्र की गयीं है कि अगर उन सब को एक जगह जमा किये जाये तो एक किताब और वजूद मे आ सकती है। हर इमाम की तरफ़ एक नमाज़ मनसूब है जो दूसरो इमामो की नमाज़ से जुदा है। मसलन इमामे ज़मान की नमाज़ अलग है और इमाम अली अलैहिमस्सलाम की नमाज़ अलग है।
5- नमाज़ व हिजरत
जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह से अर्ज़ किया कि ऐ पालने वाले मैंने इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए अपनी औलाद को बे आबो गयाह(वह सूखा इलाक़ा जहाँ पर पीनी की कमी हो और कोई हरयाली पैदा न होती हो।) मैदान मे छोड़ दिया है। हाँ नमाज़ी हज़रात की ज़िम्मेदारी ये भी है कि नमाज़ को दुनिया के कोने कोने मे पहुचाने के लिए ऐसे मक़ामात पर भी जाऐं जहां पर अच्छी आबो हवा न हो।
6- नमाज़ के लिए मुहिम तरीन जलसे को तर्क करना
क़ुरआन मे साबेईन नाम के एक दीन का ज़िक्र हुआ। इस दीन के मानने वाले सितारों के असारात के क़ाइल हैं और अपनी मख़सूस नमाज़ व दिगर मरासिम को अनजाम देते हैं और ये लोग जनाबे याहिया अलैहिस्सलाम को मानते हैं। इस दीन के मान ने वाले अब भी ईरान मे खुज़िस्तान के इलाक़े मे पाय़े जाते हैं। इस दीन के रहबर अव्वल दर्जे के आलिम मगर मग़रूर क़िस्म के होते थे। उन्होने कई मर्तबा इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से गुफ़्तुगु की मगर इस्लाम क़बूल नही किया। एक बार इसी क़िस्म का एक जलसा था और उन्ही लोगों से बात चीत हो रही थी। हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की एक दलील पर उनका आलिम लाजवाब हो गया और कहा कि अब मेरी रूह कुछ न्रम हुई है और मैं इस्लाम क़बूल करने पर तैयार हूँ। मगर उसी वक़्त अज़ान शुरू हो गई और हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम जलसे से बाहर जाने लगें, तो पास बैठे लोगों ने कहा कि मौला अभी रूक जाइये ये मौक़ा ग़नीमत है इसके बाद ऐसा मौक़ा हाथ नही आयेगा।
इमाम ने फ़रमाया कि नही, “पहले नमाज़ बाद मे गुफ़्तुगु” इमाम अलैहिस्सलाम के इस जवाब से उसके दिल मे इमाम की महुब्बत और बढ़ गई और नमाज़ के बाद जब फिर गुफ़्तुगु शुरू हुई तो वह आप पर ईमान ले आया।
7- जंग के मैदान मे अव्वले वक़्त नमाज़
इब्ने अब्बास ने देखा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम जंग करते हुए बार बार आसमान को देखते हैं फिर जंग करने लगते हैं। वह इमाम अलैहिस्सलाम के पास आये और सवाल किया कि आप बार बार आसमान को क्यों देख रहे है? इमाम ने जवाब दिया कि इसलिए कि कहीँ नमाज़ का अव्वले वक़्त न गुज़र जाये। इब्ने अब्बास ने कहा कि मगर इस वक़्त तो आप जंग कर रहे है। इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि किसी भी हालत मे नमाज़ को अव्वले वक़्त अदा करने से ग़ाफ़िल नही होना चाहिए।
8- अहमियते नमाज़े जमाअत
एक रोज़ रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम ने नमाज़े सुबह की जमाअत मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम को नही देखा तो, आपकी अहवाल पुरसी के लिए आप के घर तशरीफ़ लाये। और सवाल किया कि आज नमाज़े जमाअत मे क्यों शरीक न हो सके। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने अर्ज़ किया कि आज की रात अली सुबह तक मुनाजात मे मसरूफ़ रहे। और आखिर मे इतनी ताक़त न रही कि जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ सके, लिहाज़ा उन्होने घर पर ही नमाज़ अदा की। रसूले अकरम स. ने फ़रमाया कि अली से कहना कि रात मे ज़्यादा मुनाजात न किया करें और थोड़ा सो लिया करें ताकि नमाज़े जमाअत मे शरीक हो सकें। अगर इंसान सुबह की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ने की ग़र्ज़ से सोजाये तो यह सोना उस मुनाजात से अफ़ज़ल है जिसकी वजह से इंसान नमाज़े जमाअत मे शरीक न हो सके।
9- नमाज़ को खुले आम पढ़ना चाहिए छुप कर नही
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मोहर्रम की दूसरी तारीख को कर्बला मे दाखिल हुए और दस मोहर्रम को शहीद हो गये।इस तरह कर्बला मे इमाम की मुद्दते इक़ामत आठ दिन है। और जो इंसान कहीँ पर दस दिन से कम रुकने का क़स्द रखता हो उसकी नमाज़ क़स्र है। और दो रकत नमाज़ पढ़ने मे दो मिनट से ज़्यादा वक़्त नही लगता खास तौर पर ख़तरात के वक़्त। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम रोज़े आशूरा बार बार ख़ैमे मे आते जाते थे। अगर चाहते तो नमाज़े ज़ोहर को खैमे मे पढ़ सकते थे। मगर इमाम ने मैदान मे नमाज़ पढ़ने का फैसला किया। और इसके लिए इमाम के दो साथी इमाम के सामने खड़े होकर तीर खाते रहे ताकि इमाम आराम के साथ अपनी नमाज़ को तमाम कर सकें। और इस तरह इमाम ने मैदान मे नमाज़ अदा की। नमाज़ को ज़ाहिरी तौर पर पढ़ने मे एक हिकमत पौशीदा है। लिहाज़ा होटलों, पार्कों, हवाई अड्डों, वग़ैरह पर नमाज़ ख़ानो को कोनों मे नही बल्कि अच्छी जगह पर और खुले मे बनाना चाहिए ताकि नमाज़ को सब लोगों के सामने पढ़ा जा सके।(क्योकि ईरान एक इस्लामी मुल्क है इस लिए होटलों, पार्कों, स्टेशनों, व हवाई अड्डो पर नमाज़ ख़ाने बनाए जाते हैं। इसी लिए मुसन्निफ़ ने ये राय पेश की।) क्योंकि दीन की नुमाइश जितनी कम होगी फ़साद की नुमाइश उतनी ही ज़्यादा बढ़ जायेगी।
10- मस्जिद के बनाने वाले नमाज़ी होने चाहिए
सुराए तौबाः की 18वी आयत में अल्लाह ने फ़रमाया कि सिर्फ़ वही लोग मस्जिद बनाने का हक़ रखते हैं जो अल्लाह और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखते हों, ज़कात देते हों और नमाज़ क़ाइम करते हों।
मस्जिद का बनाना एक मुक़द्दस काम है लिहाज़ा यह किसी ऐसे इंसान के सुपुर्द नही किया जासकता जो इसके क़ाबिल न हो। क़ुरआन का हुक्म है कि मुशरेकीन को मस्जिद बनाने का हक़ नही है। इसी तरह मासूम की हदीस है कि अगर ज़ालिम लोग मस्जिद बनाऐं तो तुम उनकी मदद न करो।
11- शराब व जुए को हराम करने की वजह नमाज़ है
जबकि जुए और शराब मे बहुत सी जिस्मानी, रूहानी और समाजी बुराईयाँ पाई जाती है। मगर क़ुरआन कहता है कि जुए और शराब को इस लिए हराम किया गया है क्योंकि यह तुम्हारे बीच मे कीना पैदा करते हैं,और तुमको अल्लाह की याद और नमाज़ से दूर कर देते हैं। वैसे तो शराब से सैकड़ो नुक़सान हैं मगर इस आयत मे शराब से होने वाले समाजी व मानवी नुक़सानात का ज़िक्र किया गया है। कीने का पैदा होना समाजी नुक़सान है और अल्लाह की याद और नमाज़ से ग़फ़लत मानवी नुक़सान है।
12- इक़ामए नमाज़ की तौफ़ीक़ हज़रत इब्राहीम की दुआ है
सूरए इब्राहीम की 40वी आयत में इरशाद होता है कि “पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वाला बनादे।” दिलचस्प यह है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सिर्फ़ दुआ ही नही की बल्कि इस आरज़ू के लिए मुसीबतें उठाईं और हिजरत भी की ताकि नमाज़ क़ाइम हो सके।
13- इक़ामए नमाज़ पहली ज़िम्मेदारी
सूरए हिज्र की 41 वी आयत मे क़ुरआन ने ब्यान किया है कि बेशक जो मुसलमान क़ुदरत हासिल करें इनकी ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है। खुदा न करे कि हमारे कारोबारी अफ़राद की फ़िक्र सिर्फ मुनाफा कमाना, हमारे तालीमी इदारों की फ़िक्र सिर्फ़ मुताखस्सिस अफ़राद की परवरिश करना और हमारी फ़िक्र सिर्फ़ सनअत(प्रोडक्शन) तक महदूद हो जाये। हर मुसलमान की पहली ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है।
14- नमाज़ के लिए कोई पाबन्दी व शर्त नही है।
सूरए मरियम की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि----
इस्लाम के सभी अहकाम व क़वानीन मुमकिन है कि किसी शख्स से किसी खास वजह से उठा लिए जायें। मसलन अँधें और लंगड़े इंसान के लिए जिहाद पर जाना वाजिब नही है। मरीज़ पर रोज़ा वाजिब नही है। ग़रीब इंसान पर हज और ज़कात वाजिब नही है।
लेकिन नमाज़ तन्हा एक ऐसी इबादत है जिसमे मौत की आखिरी हिचकी तक किसी क़िस्म की कोई छूट नही है। (औरतों को छोड़ कर कि उनके लिए हर माह मख़सूस ज़माने मे नमाज़ माफ़ है)
15- नमाज़ के साथ इंसान दोस्ती ज़रूरी है
क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की 83वी आयत मे हुक्मे परवर दिगार है कि -------
“नमाज़ी को चाहिए लोगों के साथ अच्छे अन्दाज़ से गुफ़्तुगु करे।”हम अच्छी ज़बान के ज़रिये अमलन नमाज़ की तबलीग़ कर सकते हैं। लिहाज़ा जो लोग पैगम्बरे इस्लाम स. के अखलाक़ और सीरत के ज़रिये मुसलमान हुए हैं उनकी तादाद उन लोगों से कि जो अक़ली इस्तिदलाल(तर्क वितर्क) के ज़रिये मुसलमान हुए हैं कहीं ज़्यादा है। कुफ़्फ़ार के साथ मुनाज़रा व मुबाहिसा करते वक़्त भी उनके साथ अच्छी ज़बान मे बात चीत करने का हुक्म है। मतलब यह है कि पहले उनकी अच्छाईयों को क़बूल करे और फ़िर अपने नज़रीयात को ब्यान करे।
16- अल्लाह और क़ियामत पर ईमान के बाद पहला वाजिब नमाज़ है
क़ुरआन मे सूरए बक़रा के शुरू मे ही ग़ैब पर ईमान( जिसमे ख़ुदावन्दे मुतआल क़ियामत और फ़रिश्ते सब शामिल हैं) के बाद पहला बुन्यादी अमल जिसकी तारीफ़ की गई है इक़ाम-ए-नमाज़ है।
17- नमाज़ को सब कामो पर अहमियत देने वाले की अल्लाह ने तारीफ़ की है
क़ुरआने करीम के सूरए नूर की 37वी आयत में अल्लाह ने उन हज़रात की तारीफ़ की है जो अज़ान के वक़्त अपनी तिजारत और लेन देन के कामों को छोड़ देते हैं। ईरान के साबिक़ सद्र शहीद रजाई कहा करते थे कि नमाज़ से यह न कहो कि मुझे काम है बल्कि काम से कहो कि अब नमाज़ का वक़्त है। ख़ास तौर पर जुमे की नमाज़ के लिए हुक्म दिया गया है कि उस वक़्त तमाम लेन देन छोड़ देना चाहिए। लेकिन जब नमाज़े जुमा तमाम हो जाए तो हुक्म है कि अब अपने कामो को अंजाम देने के लिए निकल पड़ो। यानी कामों के छोड़ने का हुक्म थोड़े वक़्त के लिए है। ये भी याद रहे कि तब्लीग़ के उसूल को याद रखते हुए लोगों की कैफ़ियत का लिहाज़ रखा गया है। क्योंकि तूलानी वक़्त के लिए लोगों से नही कहा जा सकता कि वह अपने कारोबार को छोड़ दें।लिहाज़ा एक ही सूरह( सूरए जुमुआ) मे कुछ देर कारोबार बन्द करने के ऐलान से पहले फ़रमाया कि “ऐ ईमान वालो” ये ख़िताब एक क़िस्म का ऐहतेराम है। उसके बाद कहा गया कि जिस वक़्त अज़ान की आवाज़ सुनो कारो बार बन्द करदो न कि जुमे के दिन सुबह से ही। और वह भी सिर्फ़ जुमे के दिन के लिए कहा गया है न कि हर रोज़ के लिए और फ़िर कारोबार बन्द करने के हुक्म के बाद फ़रमाया कि “ इसमे तुम्हारे लिए भलाई है” आखिर मे ये भी ऐलान कर दिया कि नमाज़े जुमा पढ़ने के बाद अपने कारो बार मे फिर से मशगूल हो जाओ। और “नमाज़” लफ़्ज़ की जगह ज़िकरुल्लाह कहा गया हैइससे मालूम होता है कि नमाज़ अल्लाह को याद करने का नाम है।
18- नमाज़ को छोड़ने वालों, नमाज़ से रोकने वालों और नमाज़ से ग़ाफिल रहने वालों की मज़म्मत
कुछ लोग न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते हैं।
क़ुरआन मे सूरए क़ियामत की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि कुछ लोग ऐसें है जो न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते है। यहाँ क़ुरआन ने हसरतो आह की एक दुनिया लिये हुए अफ़राद के जान देने के हालात की मंज़र कशी की है।
बाज़ लोग दूसरों की नमाज़ मे रुकावट डालते हैं।
क्या तुमने उसे देखा जो मेरे बन्दे की नमाज़ मे रुकावट डालता है। अबु जहल ने फैसला किया कि जैसे ही रसूले अकरम सजदे मे जाऐं तो ठोकर मार कर आप की गर्दन तोड़ दें। लोगों ने देखा कि वह पैगम्बरे इसलाम के क़रीब तो गया मगर अपने इरादे को पूरा न कर सका। लोगों ने पूछा कि क्या हुआ? तुम ने जो कहा था वह क्यों नही किया? उसने जवाब दिया कि मैंने आग से भरी हुई खन्दक़ देखी जो मेरे सामने भड़क रही थी( तफ़सीर मजमाउल ब्यान)
कुछ लोग नमाज़ का मज़ाक़ उड़ाते हैं।
क़ुरआन मे सूरए मायदा की आयत न.58 मे इस तरह इरशाद होता है कि जिस वक़्त तुम नमाज़ के लिए आवाज़ (अज़ान) देते हो तो वोह मज़ाक़ उड़ाते हैं।
कुछ लोग बेदिली के साथ नमाज़ पढ़ते हैं
क़ुरआन के सूरए निसा की आयत न.142 मे इरशाद होता है कि मुनाफ़ेक़ीन जब नमाज़ पढते हैं तो बेहाली का पता चलता है।
कुछ लोग कभी तो नमाज़ पढ़ते हैं कभी नही पढ़ते
क़ुरआन करीम के सूरए माऊन की आयत न.45 मे इरशाद होता है कि वाय हो उन नमाज़ीयो पर जो नमाज़ को भूल जाते हैं और नमाज़ मे सुस्ती करते हैं। तफ़सीर मे है कि यहाँ पर भूल से मतलब वोह भूल है जो लापरवाही की वजाह से हो यानी नमाज़ को भूल जाना न कि नमाज़ मे भूलना कभी कभी कुछ लोग नमाज़ पढ़ना ही भूल जाते हैं। या उसके वक़्त और अहकाम व शरायत को अहमियत ही नही देते। नमाज़ के फ़ज़ीलत के वक़्त को जान बूझ कर अपने हाथ से निकाल देते हैं। नमाज़ को अदा करने में सवाब और छोड़ने मे अज़ाब के क़ाइल नही है। सच बताइये कि अगर नमाज़ मे सुस्ती बरतने से इंसान वैल का हक़ दार बन जाता है तो जो लोग नमाज़ को पढ़ते ही नही उनके लिए कितना अज़ाब होगा।
कुछ लोग अगर दुनियावी आराम से महरूम हैं तो बड़े नमाज़ी हैं। और अगर दुनिया का माल मिल जाये तो नमाज़ से ग़ाफ़िल हो जाते हैँ।
अल्लाह ने क़ुरआने करीम के सूरए जुमुआ मे इरशाद फ़रमाया है कि जब वह कहीँ तिजारत या मौज मस्ती को देखते हैं तो उस की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं।और तुमको नमाज़ का ख़ुत्बा देते हुए छोड़ जाते हैं। यह आयत इस वाक़िए की तरफ़ इशारा करती है कि जब पैगम्बरे इस्लाम नमाज़े जुमा का ख़ुत्बा दे रहे थे तो एक तिजारती गिरोह ने अपना सामान बेंचने के लिए तबल बजाना शुरू कर दिया। लोग पैगम्बरे इस्लाम के खुत्बे के बीच से उठ कर खरीदो फरोख्त के लिए दौड़ पड़े और हज़रत को अकेला छोड़ दिया। जैसे कि तारीख मे मिलता है कि हज़रत का ख़ुत्बा सुन ने वाले सिर्फ़ 12 अफ़राद ही बचे थे।
19- नमाज़ के लिए कोशिश
* अपने बच्चो को मस्जिद की खिदमत के लिए छोड़ना
क़ुरआने करीम के सूरए आलि इमरान की आयत न. 35 मे इरशाद होता है कि “कुछ लोग अपने बच्चों को मस्जिद मे काम करने के लिए छोड़ देते हैं।” जनाबे मरियम की माँ ने कहा कि अल्लाह मैं ने मन्नत मानी है कि मैं अपने बच्चे को बैतुल मुक़द्दस की खिदमत के लिए तमाम काम से आज़ाद कर दूँगी। ताकि मुकम्मल तरीक़े से बैतुल मुक़द्दस मे खिदमत कर सके। लेकिन जैसे ही बच्चे पर नज़र पड़ी तो देखा कि यह लड़की है। इस लिए अल्लाह की बारगाह मे अर्ज़ किया कि अल्लाह ये लड़की है और लड़की एक लड़के की तरह आराम के साथ खिदमत नही कर सकती। मगर उन्होने अपनी मन्नत को पूरा किया। बच्चे का पालना उठाकर मस्जिद मे लायीं और जनाबे ज़करिया के हवाले कर दिया।
* कुछ लोग नमाज़ के लिए हिजरत करते हैं, और बच्चों से दूरी को बर्दाशत करलेते हैं
क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की आयत न.37 मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बाल बच्चो को मक्के के एक सूखे मैदान मे छोड़ दिया। और अर्ज़ किया कि अल्लाह मैंने इक़ामे नमाज़ के लिए ये सब कुछ किया है। दिलचस्प बात यह है कि मक्का शहर की बुन्याद रखने वाला शहरे मक्का मे आया। लेकिन हज के लिए नही बल्कि नमाज़ के लिए क्योंकि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नज़र मे काबे के चारों तरफ़ नमाज़ पढ़ा जाना तवाफ़ और हज से ज़्यादा अहम था।
* कुछ लोग इक़ामए नमाज़ के लिए ज़्यादा औलाद की दुआ करते हैं
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की चालीसवी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम ने दुआ की कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वालो मे से बना दे। नबीयों मे से किसी भी नबी ने जनाबे इब्राहीम की तरह अपनी औलाद के लिए दुआ नही की लिहाज़ा अल्लाह ने भी उनकी औलाद को हैरत अंगेज़ बरकतें दीँ। यहाँ तक कि रसूले अकरम भी फ़रमाते हैं कि हमारा इस्लाम हज़रत इब्राहीम की दुआ का नतीजा है।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपनी बाल बच्चों पर दबाव डालते हैं
क़ुरआने करीम में इरशाद होता है कि अपने खानदान को नमाज़ पढने का हुक्म दो और खुद भी इस (नमाज़) पर अमल करो।इंसान पर अपने बाद सबसे पहली ज़िम्मेदारी अपने बाल बच्चों की है। लेकिन कभी कभी घरवाले इंसान के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं तो इस हालत मे चाहिए कि बार बार उनको इस के करने के लिए कहते रहें और उनका पीछा न छोड़ें।
• कुछ लोग अपना सबसे अच्छा वक़्त नमाज़ मे बिताते हैं
नहजुल बलाग़ा के नामा न. 53 मे मौलाए काएनात मालिके अशतर को लिखते हैं कि अपना बेहतरीन वक़्त नमाज़ मे सर्फ़ करो। इसके बाद फरमाते हैं कि तुम्हारे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं।
• कुछ लोग दूसरों मे नमाज़ का शौक़ पैदा करते हैं।
कभी शौक़ ज़बान के ज़रिये दिलाया जाता है और कभी अपने अमल से दूसरों मे शौक़ पैदा किया जाता है।
अगर समाज के बड़े लोग नमाज़ की पहली सफ़ मे नज़र आयें, अगर लोग मस्जिद जाते वक़्त अच्छे कपड़े पहने और खुशबू का इस्तेमाल करें,
अगर नमाज़ सादे तरीक़े से पढ़ी जाये तो यह नमाज़ का शौक़ पैदा करने का अमली तरीक़ा होगा। हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे बुज़ुर्ग नबीयों को खानाए काबा की ततहीर (पाकीज़गी) के लिए मुऐयन किया गया। और यह ततहीर नमाज़ीयों के दाखले के लिए कराई गयी। नमाज़ीयों के लिए हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे अफ़राद से जो मस्जिद की ततहीर कराई गयी इससे हमारी समझ में यह बात आती है कि अगर बड़ी बड़ी शख्सियतें इक़ाम-ए-नमाज़ की ज़िम्मेदीरी क़बूल करें तो यह नमाज़ के लिए लोगों को दावत देने मे बहुत मोस्सिर(प्रभावी) होगा।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपना माल वक़्फ़ कर देते हैं
जैसे कि ईरान के कुछ इलाक़ो मे कुछ लोगों ने बादाम और अखरोट के कुछ दरख्त उन बच्चों के लिए वक़्फ़ कर दिये जो नमाज़ पढने के लिए मस्जिद मे आते हैं। ताकि वह इनको खायें और इस तरह दूसरे बच्चों मे भी नमाज़ का शौक़ पैदा हो।
• कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए सज़ाऐं बर्दाशत करते हैं। जैसे कि शाह(इस्लामी इंक़िलाब से पहले ईरान का शासक) की क़ैद मे रहने वाले इंक़िलाबी मोमेनीन को नमाज़ पढ़ने की वजह से मार खानी पड़ती थी।
* कुछ लोग नमाज़ के क़याम के लिए तीर खाते हैं
जैसे कि जनाबे ज़ुहैर व सईद ने रोज़े आशूरा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने खड़े होकर इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए तीर खाये।
*कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए शहीद हो जाते हैं
जैसे हमारे ज़माने के शौहदा-ए-मेहराब आयतुल्लाह अशरफ़ी इस्फ़हानी, आयतुल्लाह दस्ते ग़ैब शीराज़ी, आयतुल्लाह सदूक़ी, आयतुल्लाह मदनी और आयतुल्लाह तबा तबाई वग़ैरह।
* कुछ अफ़राद नमाज़ पढ़ते हुए शहीद हो जाते हैं
जैसे मौला-ए-`काएनात हज़रत अली अलैहिस्सलाम।
19- नमाज़ छोड़ने पर दोज़ख की मुसीबतें
क़ियामत मे जन्नती और दोज़खी अफ़राद के बीच कई बार बात चीत होगी। जैसे कि क़ुरआने करीम मे सूरए मुद्दस्सिर मे इस बात चीत का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि“ जन्नती लोग मुजरिमों से सवाल करेंगें कि किस चीज़ ने तुमको दोज़ख तक पहुँचाया? तो वह जवाब देंगें कि चार चीज़ों की वजह से हम दोज़ख मे आये (1) हम नमाज़ के पाबन्द नही थे।(2) हम भूकों और फ़क़ीरों की तरफ़ तवज्जुह नही देते थे।(3) हम फ़ासिद समाज मे घुल मिल गये थे।(4) हम क़ियामत का इन्कार करते थे।”
नमाज़ छोड़ने के बुरे नतीज़ों के बारे मे बहुत ज़्यादा रिवायात मिलती है। अगर उन सबको एक जगह जमा किया जाये तो एक किताब वजूद मे आ सकती है।
20- नमाज़ छोड़ने वाले को कोई उम्मीद नही रखनी चाहिए।
अर्बी ज़बान मे उम्मीद के लिए रजाअ,अमल,उमनिय्याह व सफ़ाहत जैसे अलफ़ाज़ पाये जाते हैं मगर इन तमाम अलफ़ाज़ के मअना मे बहुत फ़र्क़ पाया जाता है।
जैसे एक किसान खेती के तमाम क़ानून की रियायत करे और फिर फ़सल काटने का इंतेज़ार करे तो यह सालिम रजाअ कहलाती है(यानी सही उम्मीद)
अगर किसान ने खेती के उसूलों की पाबन्दी मे कोताही की है और फ़िर भी अच्छी फ़सल काटने का उम्मीदवार है तो ऐसी उम्मीद अमल कहलाती है।
अगर किसान ने खेती के किसी भी क़ानून की पाबन्दी नही की और फिर भी अच्छी फ़सल की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को उमनिय्याह कहते हैं।
अगर किसान जौ बोने के बाद गेहूँ काटने की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को हिमाक़त कहते हैं।
अमल व रजा दोनो उम्मीदें क़ाबिले क़बूल है मगर उमनिय्याह और हिमाक़त क़ाबिले क़बूल नही हैँ। क्योंकि उमनिय्याह की क़ुरआन मे मज़म्मत की गई है। अहले किताब कहते थे कि यहूदीयों व ईसाइयों के अलावा कोई जन्नत मे नही जा सकता। क़ुरआन ने कहा कि यह अक़ीदा उमनिय्याह है। यानी इनकी ये आरज़ू बेकार है।
खुश बख्ती तो उन लोगों के लिए है जो अल्लाह और नमाज़ से मुहब्बत रखते हैं और अल्लाह की इबादत करते हैँ। बे नमाज़ी अफ़राद को तो निजात की उम्मीद ही नही रखनी चाहिए।
22- तमाम इबादतों के क़बूल होने का दारो मदार नमाज़ पर है।
नमाज़ की अहमियत के बारे मे बस यही काफ़ी है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मिस्र मे अपने नुमाइंदे मुहम्मद इब्ने अबी बकर के लिए लिखा कि लोगों के साथ नमाज़ को अव्वले वक़्त पढ़ना। क्योंकि तुम्हारे दूसरे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं। रिवायत मे यह भी है कि अगर नमाज़ कबूल हो गई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल हो जायेंगी, लेकिन अगर नमाज़ क़बूल न हुई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल नही की जायेंगी। दूसरी इबादतो के क़बूल होने का नमाज़ के क़बूल होने पर मुनहसिर होना(आधारित होना) नमाज़ की अहमियत को उजागर करता है। मिसाल अगर पुलिस अफ़सर आपसे डराइविंग लैसंस माँगे और आप उसके बदले मे कोई भी दूसरी अहम सनद पेश करें तो वह उसको क़बूल नही करेगा। जिस तरह डराइविंग के लिए डराइविंग लैसंस का होना ज़रूरी है और उसके बग़ैर तमाम सनदें बेकार हैं। इसी तरह इबादत के मक़बूल होने के लिए नमाज़ की मक़बूलियत भी ज़रूरी है। कोई भी दूसरी इबादत नमाज़ की जगह नही ले सकती।
23- नमाज़ पहली और आखरी तमन्ना
कुछ रिवायतों मे मिलता है कि नमाज़ नबीयों की पहली तमन्ना और औलिया की आखरी वसीयत थी। इमामे जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी मे मिलता है कि आपने अपनी ज़िंदगी के आखरी लम्हात मे फ़रमाया कि तमाम अज़ीज़ो अक़ारिब को बुलाओ। जब सब जमा हो गये तो आपने फ़रमाया कि “हमारी शफ़ाअत उन लोगों को हासिल नही होगी जो नमाज़ को हलका और मामूली समझते हैं।”
24- नमाज़ अपने आप को पहचान ने का ज़रिया है
रिवायत मे है कि जो इंसान यह देखना चाहे कि अल्लाह के नज़दीक उसका मक़ाम क्या है तो उसे चाहिए कि वह यह देखे कि उसके नज़दीक अल्लाह का मक़ाम क्या है।(बिहारूल अनवार जिल्द75 स.199 बैरूत)
अगर तुम्हारे नज़दीक नमाज़ की अज़ान अज़ीम और मोहतरम है तो तुम्हारा भी अल्लाह के नज़दीक मक़ाम है। और अगर तुम उसके हुक्म को अंजाम देने मे लापरवाही करते हो तो उसके नज़दीक भी तुम्हारा कोई मक़ाम नही है। इसी तरह अगर नमाज़ ने तुमको बुराईयों और गुनाहों से रोका है तो यह नमाज़ के क़बूल होने की निशानी है।
25. क़ियामत मे पहला सवाल नमाज़ के बारे मे
रिवायत मे है कि क़ियामत के दिन जिस चीज़ के बारे मे सबसे पहले सवाल किया जायेगा वह नमाज़ है।(बिहारूल अनवार जिल्द 7 स.267 बैरूत

पाप या ग़लती का अज्ञानता व सूझबूझ से गहरा संबंध|

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ईश्वरीय दूतों का इस लिए पापों से दूर रहना आवश्यक है क्योंकि यदि वे लोगों को पापों से दूर रहने की सिफारिश करेगें किंतु स्वंय पाप करेंगे तो उनकी बातों का प्रभाव नहीं रहेगा जिससे उनके आगमन का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। ईश्वरीय दूत समस्त मानव जाति के लिए मार्गदर्शक होते है इस लिए मानव जाति की महानता की अंतिम श्रेणी पर उनका होना आवश्यक है क्योंकि यदि एसा न हुआ तो और वे अपने से उच्च श्रेणी वालों का मार्गदर्शन नहीं कर सकते क्योंकि उन लोगो पर उनकी बातों का प्रभाव नहीं होगा। 

क्यों ईश्वरीय दूतों का पापों ओर ग़लतियों से पवित्र रहना आवश्यक हैऔर किस  प्रकार ईश्वरीय दूत पापों से पवित्र रहते थे?
ईश्वरीय संदेश की प्राप्ति के लिए कुछ विशेष प्रकार की योग्यताओं और क्षमताओं का होना आवश्यक है जो व्यवहारिक रूप से हर मनुष्य में नहीं हो सकतीं और यही कारण है कि ईश्वरीय संदेश पहुंचाने की ज़िम्मेदारी कुछ विशेष लोगों पर डाली गयी जिन्हें हम ईश्वरीय दूत कहते हैं। 

यह विशेष लोग, ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने के लिए चुने ही इस लिए जाते हैं क्योंकि उनमें विशेष प्रकार की क्षमताएं और योग्यताएं होती हैं जो उन्हें साधारण मनुष्य से उच्च बना देती हैं किंतु इन क्षमताओं और विशेषताओं के परिणाम में उनमें जो परिवर्तन होता है वह केवल यही नहीं होता कि वे ईश्वरीय संदेश की प्राप्ति के 

पात्र बन जाते हैं बल्कि यह परिवर्तन बहु आयामी होता है और ईश्वरीय दूतों की आत्मा व मन को विशेष रूप दे देता है जिसके कारण वे ज्ञान व जानकारी व सूझबूझ के उच्चतम श्रेणी पर पहुंच जाते हैं क्योंकि ईश्वरीय संदेश की प्राप्ति की एक शर्त ज्ञान व जानकारी का पूर्ण होना है किंतु यह भी स्पष्ट है कि जिसका ज्ञान व पहचान व 

जानकारी पूर्ण होगी व न गलती करेगा न पाप ।वास्तव में पाप या अपराध या गलती का अज्ञानता व सूझबूझ से गहरा संबंध है। उदाहरण स्वरूप एक अपनी आर्थिक समस्याओं के निवारण के लिए परिश्रम करने के स्थान पर चोरी की योजना बनाता है। अपने हिसाब से उसकी योजना पूरी होती है और वह हर पहलु पर ध्यान देते हुए कार्यवाही करता है और अपनी पहचान छुपाने की भी व्यवस्था करता है किंतु फिर भी वह पकड़ा जाता है क्योंकि उसे इस बात का ज्ञान नहीं था कि उदाहरण स्वरूप उस घर की निगरानी की जा रही है और उदाहरण स्वरूप सामने वाले घर में कई सुरक्षा कर्मी रात दिन उस घर पर नज़र रखे हैं जिसमें वह चोरी करना चाहता है। यदि उसे इस बात का ज्ञान होता तो वह कदापि उस घर में चोरी न करता।

इसके अतिरिक्त यदि उसमें सूझबूझ होती और बुद्धि पूरी होती तो वह चोरी के परिणामों पर ध्यान देता और दूरदर्शिता से सोचते हुए यह काम न करता। इसी लिए जिन लोगों को अपराध की बुराईयों और परिणामों का भलीभांति ज्ञान होता है वे कभी भी अपराध नहीं करते किंतु जिन लोगों का ज्ञान कम होता है और 

मूर्खों की भांति अपनी बनायी योजना से आश्वस्त होकर सोचते हैं कि वे पकड़े नहीं जाएगें वही अपराध करते हैं और पकड़े जाते हैं। इस प्रकार से यह स्पष्ट हुआ कि अपराध की बुराई और परिणाम का यदि किसी को सही रूप से पूरी तरह से ज्ञान हो तो वह अपराध नहीं कर सकता। 

बिल्कुल यही दशा ईश्वरीय दूतों की होती है। चूंकि ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने की योग्यता के कारण उनका ज्ञान पूर्ण और वे विलक्षण बुद्धि के स्वामीतथा दूरदर्शिता व सूझबूझ की चरम सीमा पर होते हैं इस लिए वे पाप जो वास्तव में धार्मिक अपराध है नहीं करते क्योंकि उन्हें पाप की बुराई और उसके परिणाम का पूर्ण रूप से ज्ञान होता है। 

यह यह ज्ञान वास्तव में उनकी उन्हीं विशेष क्षमताओं व योग्यताओं के कारण होता है जिसके आधार पर उन्हें ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने का पात्र समझा जाता है।इस प्रकार से हम देखते हैं कि ईश्वरीय दूत ज्ञान की उस सीमा पर होते हैं जहां उनकी सूझबूझ और वास्तविकता का ज्ञान उन्हें पाप नहीं करने देता और उनकी दूरदर्शिता वसम्पूर्ण बुद्धि इस बात का कारण बनती है कि वे हर प्रकार की ग़लती से भी सुरक्षित रहते हैं क्योंकि गलती भी अज्ञानता का परिणाम है। 

उदाहरण स्वरूप कोई व्यक्ति वर्षों तक अपने घर में रहने और प्रतिदिन आने जाने के बाद अपने उस घर के मार्ग के बारे में कभी गलती नहीं कर सकता क्योंकि अपने घर के मार्ग के बारे मेंउसका ज्ञान सम्पूर्ण होता है। उसका ज्ञान अपने घर के बारे में सम्पूर्ण होता है इस लिए वह अपने घर के मार्ग में गलती नहीं करता किंतु ईश्वरीय 

दूतों का ज्ञान हर मामले में सम्पूर्ण होता है इस लिए वे किसी भी मामले में गलती नहीं करते।

पैग़म्बरों अर्थात ईश्वरीय दूतों के पापों से पवित्र होने की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हम अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए पाप व पुण्य व भलाई वबुराई जैसे कामों की इरादे से लेकर काम करने की पूरी प्रक्रिया पर एक दृष्टि डालते हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि ईश्वरीय दूत स्वेच्छा से पापों से दूर रहते हैं और 

जो शक्ति उन्हें पापों से दूर रखती है वह उनकी अपनी होती है और इससे शक्ति के प्रभावशाली होने के कारण, मनुष्य को प्राप्त चयन अधिकार समाप्त नहीं होता।वास्तव में हर काम चाहे वह सही हो या गलत इरादे और इच्छा से आरंभ होता है और काम करने पर जाकर समाप्त होता है किंतु इस पूरी प्रक्रिया में कई चरणआते हैं जो वास्तव में प्रत्येक मनुष्य की मानसिक दशाओं के अनुसार कम या अधिक होते हैं।

उदारहण स्वरूप जब एक मनुष्य कोई काम करने का इरादा करता है तो उसकी अच्छाइयों और बुराईयों और परिणाम के बारे में सोचता है यदि उसका ज्ञान कम किंतुदूरदर्शिता अधिक होती है तो वह उस बारे में जानकारी रखने वालों से भी पूछताछ करता है अन्य लोगों से सलाह मशविरा करता है फिरअपने हिसाब से उचित समय की प्रतीक्षा करता है और समय आने पर वह काम कर लेता है किंतु यदि उसमें आत्मविश्वास की कमी होगी तो यह प्रक्रिया उसमें लिए लंबी होगी 

और वह बार बार अपने फैसले बदलेगा किंतु यदि उसमें आत्मविश्वास होगा तो वह प्रक्रिया अपेक्षाकृत छोटी होगी और इसी प्रकार यदि किसी के पास उस काम के बारे में पर्याप्त जानकारी होगीतो उसके लिए वह काम करने की प्रक्रिया और अधिक छोटी होगी और उसके लिए ढेर सारे इरादों और मनोकामनाओं में से संभव व सरलता से पूरी की जाने वाली कामना तक पहुंचा सरल होगा।इस प्रकार से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान व जानकारी, जहां गलतियों से बचाव को सुनिश्चित करती है वहीं सही मार्ग के चयन की संभावना को अधिक करती है। 

इस लिए जानकारी व अनुभव जितना अधिक होगा गलतियों से दूरी उतनी ही निश्चित होगी तो यदि हम किसी एसे व्यक्ति की कल्पना करेंजिसकी जानकारी व अनुभव पूर्ण हो और उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न हो फिर उससे गलती की संभावना नहीं होती किंतु उसमें संभावना न होने काअर्थ यह नहीं है कि वह गलतियों से दूर रहने पर विवश होता है और उसमें चयन शक्ति का विशेष अधिकार ही नहीं होता।

यह ठीक उसी प्रकार है जैसे यदि कोई बुद्धि रखने वाला व्यक्ति किसी शर्बत में विष गिरते अपनी आंखों से देख ले तो वह कदापि उस शर्बत को नहीं पीएगा।अर्थात हम यह कह सकते हैं कि बुद्धि रखने वाला मनुष्य उस शर्बत को पी नहीं सकता किंतु पी नहीं सकता कहने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें वह शर्बत पीने की क्षमता ही नहीं है 

और वह शर्बत न पीने पर विवश है और शर्बत पीने या न पीने के मध्य निर्णय का अधिकार ही उसके पास नहीं है।यह अधिकार उसके पास है किंतु बुद्धि व विष के होने का ज्ञान उन्हें शर्बत पीने से रोक देता है ।

यही स्थिति ईश्वरीय दूतों की भी होती है एक मनुष्य होने के नाते और ईश्वर द्वारा मनुष्यों को प्रदान की गयी चयन शक्ति व अधिकार के दृष्टिगत यदि वे चाहें तो पाप कर सकते हैंकिंतु उन्हें जो वास्तविकताओं का पूर्ण ज्ञान होता है और पापों की बुराइयों से चूंकि वे अवगत होते हैं इस लिए पूर्ण ज्ञान उनके भीतर पाप की इच्छा को जन्म ही नहीं लेने 

देता किंतु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वे पाप करने में अक्षम और मनुष्य को प्रदान किये गये चयन अधिकार से वंचित होते हैं।वास्तव में पापों की बुराई ईश्वरीय दूतों के लिए उसी प्रकार स्पष्ट होती जैसा बुद्धि रखने वाले के लिए विष की बुराईयों और जिस प्रकार बुद्धि रखने वाला व्यक्ति शर्बत मेंअपनी आखों से विष गिरते देखने के बाद अपनी इच्छा से उसे नहीं पीता उसी प्रकार ईश्वरीय दूत भी पापों से अपनी इच्छा से दूर रहते हैं और इस उनकी इस इच्छा का कारण उनका ज्ञान होता है।

हमारी आज की चर्चा के मुख्य बिन्दु इस प्रकार थेःईश्वरीय दूत इस लिए ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने का प्राप्त बनते हैं क्योंकि उनमें कुछ एसी विशेषताएं व क्षमताएं होती हैं 

जो हर मनुष्य में नहीं हो सकती और यही विशेषताएं व क्षमताएं उन्हें पापों से भी रोकती हैं।

इस्लामी मानवाधिकार का घोषणापत्र

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मानवाधिकार उन अधिकारों में से है जो मानवीय प्रवृत्ति का अनिवार्य अंश है। मानवाधिकार का स्थान, सरकारों की सत्ता से ऊपर होता है और विश्व की सभी सरकारों को उसका सम्मान करना चाहिए। 

संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों ने वर्ष १९४८ में विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र को तीस अनुच्छेदों के साथ पारित किया। पश्चिमी संस्कृति और लेबरल मान्यताओं के आधार पर पारित इस घोषणापत्र का आरंभ से ही विरोध होने लगा था और समय बीतने के साथ ही साथ, इस विरोध में भी वृद्धि हुई क्योंकि इस घोषणापत्र के बहुत से 
अनुच्छेद विश्व के विभिन्न राष्ट्रों की मान्यताओं और संस्कृति से मेल नहीं खाते। मुसलमान बुद्धिजीवियों के अनुसार, यद्यपि इस घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेद उचित हैं किंतु उसके अधिकांश अनुच्छेद अधूरे और अस्वीकारीय हैं। इसी लिए मुसलमान सरकारों और बुद्धिजीवियों ने एक ऐसे घोषणापत्र के संकलन का फैसला किया जो इस्लामी मानवाधिकार के आधार पर हो और जिसे इस रूप में पूरे विश्व के सामने पेश किया जा सके। मानवाधिकारों पर ध्यान, पश्चिम के प्रचारों के विपरीत, पश्चिम से आंरभ नहीं हुआ बल्कि इस्लाम ने अपने उदय के समय से ही, व्यापक मानवाधिकार का सिद्धान्त पेश किया है।


मनुष्य के मौलिक अधिकारों के संदर्भ में इस्लाम के विकसित दृष्टिकोणों के दायरे में इस्लामी कांफ्रेंस संगठन ने इस्लामी देशों के प्रतिनिधि के रूप में, वर्ष १९७९ और १९८१ में इस संदर्भ में दो दस्तावेज़ प्रकाशित किए। पांच अगस्त वर्ष १९९० को ओआईसी के विदेशमंत्रियों की १९वीं बैठक में जो क़ाहिरा में आयोजित हुई, 


इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र पारित हुआ और इस दिन को मानवाधिकार और मानवीय सम्मान दिवस घोषित किया गया। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यद्यपि, मानवाधिकार के संदर्भ में इस्लाम के समस्त दृष्टिकोणों का वर्णन नहीं किया गया है किंतु इसके बावजूद यह घोषणापत्र, मानवाधिकारों के संदर्भ में पश्चिमी दृष्टिकोण की तुलना में इस्लामी शिक्षाओं की श्रेष्ठता को भलीभांति स्पष्ट करता है। इस घोषणापत्र का संकलन करने वालों ने इसकी भूमिका में मनुष्य के बारे में इस्लाम की कुछ शिक्षाओं का वर्णन किया गया है। 


इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र क़ुरआन मजीद के सूरए हुजोरात की आयत नंबर १३ से आरंभ होता है कि जिसमें कहा गया हैः हे लोगो! हमने तुम लोगों को एक पुरुष और एक महिला से पैदा किया और तुम्हें जातियों और समुदायों में बांट दिया ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको।

निश्चित रूप में तुम लोगों में ईश्वर के निकट सब से अधिक सम्मानीय वह है जो सब से अधिक पापों से बचने वाला हो।

इस घोषणापत्र के आरंभ में इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि इस्लाम में ईश्वर के निकट मनुष्य का क्या स्थान है और यह कि मनुष्य धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसके बाद एकेश्वरवाद और एक ही ईश्वर की उपासना का विषय प्रस्तुत किया गया है कि जिसका अनिवार्य परिणाम किसी अन्य के सामने शीश नवाने से दूरी है। 



अन्य लोगों की उपासना को नकारना, मनुष्य की वास्तविक स्वतंत्रता की आधारशिला है। इसी प्रकार इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में मानव सभ्यता की रक्षा के लिए आस्था व आध्यात्म को आवश्यक बताया गया है और बल दिया गया है कि इस्लाम में आध्यात्म और संसारिक विषयों को एक साथ मिला कर पेश किया गया है।

इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में जिस अंतिम विषय पर बल दिया गया है वह यह है कि मनुष्य के मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता इस्लाम का अंश है और किसी को भी यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह उनका हनन करे। 

इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र को मानवाधिकार घोषणापत्र से अलग करने वाली प्रमुख विशेषता मनुष्य के आध्यात्मिक आयाम पर बल दिया जाना है। क्योंकि इस्लाम मनुष्य के कल्याण के लिए उसके आध्यात्मिक आयाम के साथ ही उसके सांसारिक आयाम पर भी ध्यान देता है। 

इसी आधार पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेदों का आधार इस्लाम की मानवीय शिक्षाएं और मानवीय सम्मान है। इस घोषणापत्र ने जिन विषयों पर बल दिया है उनमें से एक अधिकार, आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्ति तथा आध्यात्मिक प्रशिक्षण का अधिकार है ताकि इस प्रकार उसे परलोक में भी सफलता प्राप्त हो। 


इस्लाम की दृष्टि में इस संसार में मनुष्य के जीवन की शैली, परलोक में उसकी जीवन शैली का निर्धारण करती है।जीने के अधिकार को, मुनष्य का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अधिकार कहा जा सकता है। मूल रूप से अन्य सभी मानवाधिकार, उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब मनुष्य के जीने के अधिकार पर ध्यान दिया गया हो। इसी लिए इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यह सिद्धान्त, इस्लाम धर्म की शिक्षाओं के अनुसार पेश किया गया है और उसके दूसरे अनुच्छेद में कहा गया हैः जीवन ईश्वर का उपहार और ऐसा अधिकार है जिसे हर मनुष्य के लिए निश्चित बनाया गया है और सारे लोगों और समाजों तथा सरकारों का यह कर्तव्य है कि 
वह इस अधिकार की रक्षा करें। इस्लाम की दृष्टि से हर मनुष्य का जीने का अधिकार इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि क़ुरआने मजीद ने इस अधिकार के हनन को सारे मनुष्यों की हत्या के समान कहा है। इसी लिए इस्लाम ने युद्ध व रक्तपात को अस्वीकारीय बताया है और केवल विशेष परिस्थितियों में अपने देश, धर्म या पीड़ितों की रक्षा के लिए युद्ध को सही ठहराया है किंतु इस प्रकार के युद्धों में भी आम नागरिकों, बंदियों, घायलों बल्कि पशुओं और पेड़ पौधों के अधिकारों पर ध्यान देना भी आवश्यक बताया गया है। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के तीसरे अनुच्छेद में इन सभी विषयों की ओर संकेत किया गया है। इस अनुच्छेद में युद्ध के दौरान आम नागरिकों की रक्षा, घायलों के उपचार, बंदियों पर ध्यान देने और पेड़ों को काटने से बचने, खेतों की सुरक्षा और इमारतों को गिराने से बचने जैसे विषयों पर बल दिया गया है। 



इसके साथ ही इस्लाम में पर्यावरण की रक्षा पर भी बहुत ध्यान दिया गया है और उसकी रक्षा के लिए बहुत सी सिफारिशें भी हैं। कुरआने मजीद में इस विषय की ओर संकेत किया गया है और ईश्वर ने, धरती और उसके उपहारों से लाभ उठाने की मनुष्य को अनुमति दी है इस शर्त के साथ कि मनुष्य इन उपहारों की रक्षा करे और अपव्यय के मार्ग पर न चले।



मानव सम्मान वह अन्य विषय पर जिस पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में ध्यान दिया गया है। इस्लाम, मानव सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा को अत्याधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान समझता है। इस धर्म के अनुसार, मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना और धरती पर उसका उत्तराधिकारी है। 



क़ुरआने मजीद के सूरए इसरा की आयत नंबर ७० में हम मानव सम्मान के बारे में पढ़ते हैः हम ने आदम की संतान को सम्मान दिया, और उन्हें जल थल में सवारियों द्वारा उठाया और विभिन्न प्रकार की पवित्र अजीविकाओं में से उन्हें अजीविका दी और उन्हें अपनी बहुत सी रचनाओं से श्रेष्ठ बनाया। 


इस प्रकार से इस्लाम ने यह स्पष्ट किया कि मनुष्य, भलाई द्वारा अपना सम्मान बढ़ा सकते हैं और इसी प्रकार भष्टाचार और पापों द्वारा अपना सम्मान गंवा भी सकते हैं। प्रत्येक दशा में मानव सम्मान, उनके मध्य समानता के सिद्धान्त का आधार है।

समानता एक ऐसा इस्लामी सिद्धान्त है जिसका इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में वर्णन किया गया है। इस घोषणापत्र के पहले अनुच्छेद में कहा गया हैः सामूहिक रूप से मानव समाज का हर सदस्य, एक परिवार का भाग है जिन्हें ईश्वर की उपासना और आदम की संतान होने के कारण एक समान समझा जाता है। 


सारे लोग, मानवीय सम्मान और कर्तव्यों की दृष्टि से समान हैं बिना किसी जाति, वर्ण, भाषा, लिंग, धर्म या विचारधारा या सामाजिक स्थान के अंतर्गत भेदभाव के। इस आधार पर मानवता में सारे लोग एक समान हैं और जो विषय उनके मध्य एक दूसरे से श्रेष्ठता का कारण बनता है वह पापों से बचना और ईश्वर से निकटता है। 


इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इस अनुच्छेद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सारे लोग, ईश्वर के परिवार की भांति हैं और उनमें से ईश्वर के निकट सबसे अधिक प्रिय वही है जो अन्य मनुष्यों के लिए सब से अधिक लाभदायक होता है और किसी को भी किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है और यदि है तो उसका मापदंड ईश्वर से भय और पापों से दूरी ही है जो निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक विशेषता है और ईश्वर उसका प्रतिफल देता है।


इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र का छठां अनुच्छेद, महिल व पुरुष के मध्य समानता पर बल देता है इसमें कहा गया हैः मानवीय दृष्टि से महिला व पुरुष समान हैं और जिस प्रकार से महिलाओं के कर्तव्य हैं उसी प्रकार उन्हें अधिकार भी दिये गये हैं और महिला को, एक स्वाधीन सामाजिक व आर्थिक व्यक्तित्व वाला सदस्य समझा गया है। जैसाकि हम देखते हैं इस्लाम में महिलाओं के लिए बहुत से अधिकार रखे गये हैं और उन्हें व्यक्तित्व की दृष्टि से पुरुषों की भांति समझा गया है। किंतु यह भी निश्चित है कि महिला और पुरुष के मध्य मौजूद कुछ अंतरों के कारण कुछ अधिकारों और कर्तव्यों में भी अंतर पाया जाता है। 

जैसा कि इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इसी अनुच्छेद में पुरुष को परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला तथा रक्षक बताया गया है।क़ानून की दृष्टि में समानता ऐसा अधिकार है जिस पर इस्लाम ने बल दिया है। 

इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद नंबर १९ में धर्म व क़ानून की नज़र में सब को समान बताया गया है और कहा गया हैः न्यायालय का द्वार खटखटाना और उसकी शरण में जाना ऐसा अधिकार है जो सब से लिए निश्चित है। इस अनुच्छेद में अपराध और दंड के बारे में निर्णय का एकमात्र स्रोत धर्म को बताया गया है। 

दूसरे शब्दों में इस्लाम के नियम, अपराध की क़िस्म और उस पर दंड का निर्धारण करते हैं ताकि इसमें मानवीय गलती का स्थान न रहे। इसी के साथ, इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में इस विषय पर भी बल दिया गया है कि आरोपी, निर्दोष होता है यहां तक कि उसका दोष, न्यायिक मार्गों द्वारा तथा सफाई देने की सुविधा के बाद सिद्ध हो जाए। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद क्रमांक २० में भी बल दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति कीगिरफतारी केवल नियमों के अनुसार होनी चाहिए। इस अनुच्छेद में हर प्रकार की मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना से मना किया गया है।

इस्लाम में मानवता, सौहार्द, भाई-चारे की शिक्षा – डॉ कल्बे सादिक

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कुछ दिनों पहले मेरा जाना बाराबंकी हुआ तो वहाँ जनाब रिजवान मुस्तफा के अनुरोध पे एक मजलिस  हुसैन (अ.स) को सुनने का मौक़ा मिला. अरविन्द विद्रोही जी भी वहाँ मजूद थे जिनको  मैंने  वहाँ बड़े ध्यान से
डॉ कल्बे सादिक को सुनते देखा था. आज उनका यह लेख देख के अच्छा लगा. पेश है अमन और शांति का पैग़ाम देता एक  बेहतरीन और इमानदारी से लिखा गया अरविन्द विद्रोही जी का  लेख – “मानवता-सौहार्द-नैतिकता-भाई चारे की शिक्षा देते संत – डॉ कल्बे सादिक”  …एस एम मासूम
 
बाराबंकी के कर्बला में मजलिस ए गम में शामिल होने का निमंत्रण वरिष्ट पत्रकार रिजवान मुस्तफा के द्वारा  मुझे प्राप्त  हुआ तो अपने सामाजिक सरोकार व पत्रकारिता के धर्म का पालन करने हेतु मैं वहा पहुच गया | तक़रीबन दोपहर 12 बजे इस्लामिक – शिया धर्म गुरु  डॉ कल्बे सादिक समारोह स्थल पर आये, मंच पर आते ही उन्होंने उपस्थित जनों से मुखातिब होते हुए कार्यक्रम में देरी से आने के लिए माफ़ी मांगी | आज के दौर में जहा पर लोग अपनी बड़ी गलतियो पर सामाजिक-सार्वजनिक रूप से माफ़ी नहीं मांगते है, उस दौर में एक प्रख्यात हस्ती, एक धर्म गुरु द्वारा सामान्य जन से कार्यक्रम  के प्रारंभ में ना आ सकने की माफ़ी मांगना, यकीन मानिये  मैं तो हतप्रभ रह गया | और तो और देर से आने की पूर्व सूचना  भी धर्म गुरु डॉ कल्बे सादिक ने आयोजक रिजवान मुस्तफा को दे दी थी | उसके बाद भी माफ़ी | आह ! विनम्रता की प्रतिमूर्ति – तुझे मेरा प्रणाम, उसी पल मैंने मन ही मन उन्हें अपना अभिवादन प्रेषित किया | मुझे आभास हुआ की आज यह समारोह कुछ विशिष्ट सन्देश  प्राप्ति का स्थल बनेगा | अपने संबोधन में डॉ कल्बे सादिक ने धर्म क्या है, पर सरल व मृदु वचनों में कहा कि  धर्म  वो है जो आपको गलत रास्ते पर जाने से बचाए |
आज धर्म को बचाने की बात होती है, कोई इन्सान धर्म कैसे बचा सकता है? धर्म तो आपको बचाने, सही रास्ता दिखाने के लिए है | धर्म के नाम पर मतभेद ख़त्म करने की अपील करते हुए धर्म गुरु डॉ कल्बे सादिक ने कहा  कि आज यहाँ कर्बला में  शिया – सुन्नी, हिन्दू सभी धर्म के मानने वाले मौजूद है | मैं  हज़रत साहेब को मानने वालो से पूछना चाहता हूँ कि हज़रत साहेब  से जंग क्या हिन्दू ने लड़ी थी? बगैर ज्ञान के मनुष्य जानवर से भी बदतर  होता है | खुदा, परमेश्वर जो भी कहिये उसने सबसे बुद्धिमान मनुष्य को बनाया है और यह मनुष्य अपने कर्मो से अपने को सबसे नीचे गिरा लेता है | ज्ञान व विज्ञान इन्सान व  इस्लाम के फायदे के लिए है | ज्ञान हासिल करना नितांत जरुरी है | कई घटनाओ का हवाला देते हुए डॉ कल्बे सादिक ने कहा कि जुल्म के खिलाफ  लड़ने वाला ही सच्चा मुसलमान होता है, जुल्म  करने वाला मुसलमान हो ही नहीं सकता | आतंकवाद के सवाल पर धर्म गुरु डॉ कल्बे सादिक ने कहा कि मैं यह जिम्मेदारी लेता हूँ कि हज़रत मोहम्मद साहेब को मानने वाला कभी भी दहशत गर्त  हो ही नहीं सकता, जो दहशत गर्त  हैं और जो  बेगुनाहों का  खून बहाते है उनसे पूछा जाये यकीनन वो जुल्मी यजीद को मानने वाले ही होंगे | मोहम्मद साहेब को मानने वाला जुल्मी हो ही नहीं सकता | बहकावे और उकसाने वाली कार्यवाहियो से बचे रहने तथा अमन चैन की  पैरोकारी करने की अपील करते हुए डॉ कल्बे सादिक ने एक वाकया सुनाया | उन्होंने बताया की यह बात हज़रत साहेब के दौर की है |
एक अरबी उस मस्जिद में पाहुजा जिसे खुदा की इबादत के लिए रसूल ने अपने हाथो से तामीर की थी | उस अरबी ने मस्जिद में पेशाब करना शुरु कर दिया , वहा रसूल के साथ  मौजूद सेवक  ने उस अरबी को रोकना चाहा, रसूल ने सेवक से कहा – जरा ठहरो, उसे कर लेने दो पेशाब | वहा गन्दगी फैला कर वह  अरबी वापस चल दिया, अब रसूल ने कहा मस्जिद में जो गन्दगी इसने पेशाब करके फैलाई है, उसको पानी से धो कर साफ़ कर दो | खुद रसूल ने कई बाल्टी पानी डाल डाल कर वहा सफाई करवाई | अरबी वहा आया था खलल पैदा करने के मकसद से व मार पीट के इरादे से | रसूल के इस प्रकार के व्यव्हार से वह  अरबी भी रसूल का मुरीद हो गया | यह वाकया सुना कर डॉ कल्बे सादिक ने कहा कि  यह है हज़रत मोहम्मद साहेब का चरित्र | इस क्षमा और विनम्रता की  राह पर चल कर रसूल ने इस्लाम को विस्तार दिया था और आज आप मुसलमान क्या कर रहे हो ? यह सोचिये… हिन्दुओ के त्यौहार होली में रंग अगर मस्जिद की दीवारों पर पड़ जाये तो आप उत्तेजित हो जाते हो | अरे.. होली का रंग तो पाक  होता है, दीवारों पर  चूना लगा कर दीवारों को फिर से चमका सकते हो लेकिन आप लोग तो इंसानों को चुना लगा सकते हो लेकिन मस्जिद की रंग लगी दीवारों पर चूना नहीं लगा सकते हो | इस्लाम  जुल्म के खिलाफ लड़ने का, आपसी भाईचारे का, विनम्रता का सन्देश देता है |
धर्मगुरु डॉ  कल्बे सादिक ने मुसलमानों से कहा कि  आप कि पहचान क्या है ? आज आप समाज में लम्बे कुरते, ऊँचे पायजामे, लम्बी दाढ़ी, टोपी से पहचाने जा रहे है | जिस जगह मीनारे, गुम्बद , मस्जिद होती है – लोग कहते है यहाँ मुसलमान रहते है | आज आपका बाहरी व्यक्तित्व  आपकी पहचान बन चुका है | इस्लाम व मुसलमान का वास्तविक रूप सामने लाने की जरुरत है | डॉ कल्बे सादिक ने बताया कि सही मायने में मुसलमान बस्ती वो है जहा पर कोई मांगने वाला ना हो सब देने वाले हो | मस्जिद खुदा का घर होता है | वह पाक जमीन पर बननी चाहिए | किसी दुसरे की जमीन पर  जुल्म जबरदस्ती के जोर से मस्जिद बनाने से वो खुदा का घर नहीं हो जाता | जुल्मी शासक  लोग धर्म का इस्तेमाल अपने गुनाहों और जुल्मो को छिपाने के लिए धर्म का बेजा इस्तेमाल करते रहे है | ऐसे जुल्मी कभी भी खुदा के बन्दे नहीं हो सकते | जनाब डॉ कल्बे सादिक ने इस पर भी एक वाकया सुनाया | उन्होंने कहा कि अगर एक जरुरत मंद का मकान बनवा दिया जाये तो खुदा उसको अपना आशियाना मानता है | जरुरतमंदो की मदद करना खुदा के बताये राह पर चलना है | नेक कामों से इस्लाम का विस्तार हुआ , आज नेकी की राह पर सभी को चलने की जरुरत है |
समाज में और विशेष कर मुसलमानों में शिक्षा की कमी पर धर्म गुरु डॉ कल्बे सादिक ने बार बार चिंता व्यक्त की | उन्होंने कहा कि विश्व हिन्दू परिषद्  के नेता प्रवीण भाई तोगड़िया ने कहा है कि हर मस्जिद के बगल में मंदिर बनाया जायेगा, मैं उनसे अनुरोध करता हूँ कि वे हर मस्जिद के बगल में विद्या मंदिर की स्थापना जरुर करवा दे | जिससे हिन्दुओ के साथ साथ मुसलमान बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करे और ज्ञान कि रौशनी में भारत की  तरक्की में अपना योगदान करे |
अंत में अपनी वाणी को विराम देने के पहले इस्लामिक शिया धर्म गुरु डॉ कल्बे सादिक ने कहा कि बैगैर ज्ञान के इन्सान व देश – समाज की तरक्की नामुमकिन है | इसलिए ज्ञान हासिल कीजिये | समापन के अवसर पर कर्बला की जंग के वाकये को याद करते  व दिलाते हुए धर्म गुरु ने सवाल किया कि यह जंग क्या हिन्दुओ से लड़ी गयी थी ? अरे ..वो यजीद और उसके लोग थे, और वो भी पांचो वक़्त के नमाज़ी ही थे.. जिन्होंने रसूल के नवासे को प्यासा ही मार डाला था | यह बात जन समुदाय को उद्वेलित कर गयी | लोगो की सिसकियाँ  रुदन में तब्दील हो चुकी थी, इसी समय डॉ कल्बे सादिक ने कहा कि खुदा ना करे कभी ऐसा हो, लेकिन अगर कही फसाद हो जाये और आप मुसलमान किसी हिन्दू बस्ती में अपने परिवार व बच्चो के साथ पीने का पानी मांगोगे तो यह मेरा यकीन है कि हिन्दू फसाद भूल कर आपको अपने घर में पनाह देंगे, पानी – खाना देंगे, लेकिन इतिहास गवाह है कि उन यजीद के मानने वालो ने प्यासा ही मार डाला था | कर्बला का वह दर्दनाक मंज़र सुनकर रुदन कर रहे जन समुदाय का ह्रदय जुल्म के खिलाफ लड़कर शहीद हुए कर्बला के वीरो को अपने श्रधा सुमन अर्पित करने लगा था | इन्सान मात्र से प्रेम, शिक्षा ग्रहण करने की सलाह, जरुरत मंदों की मदद, अन्याय – जुल्म से लड़ने की सीख़ देते  हुए इस्लामिक शिया धर्म गुरु डॉ कल्बे सादिक ने  अपनी वाणी को विराम दिया

लेखक अरविंद विद्रोही
एक सामाजिक कार्यकर्ता और आज़ाद पत्रकारिता .गोरखपुर में जन्म, वर्तमान में बाराबंकी, उत्तर प्रदेश में निवास है। छात्र जीवन में छात्र नेता रहे हैं। वर्तमान में सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक हैं। डेलीन्यूज एक्टिविस्ट समेत इंटरनेट पर लेखन कार्य किया है तथा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मोर्चा लगाया है। अतीत की स्मृति से वर्तमान का भविष्य 1, अतीत की स्मृति से वर्तमान का भविष्य 2 तथा आह शहीदों के नाम से तीन पुस्तकें प्रकाशित। ये तीनों पुस्तकें बाराबंकी के सभी विद्यालयों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं को मुफ्त वितरित की गई हैं।

पुरुष, महिलाओं के अभिभावक हैं -सूरए निसा ४:34-57

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सूरए निसा; आयत 34

पुरुष, महिलाओं के अभिभावक हैंइस दृष्टि से कि ईश्वर ने कुछ को कुछ अन्य पर वरीयता दी है और इस दृष्टि से कि पुरुष अपने माल में से महिलाओं का ख़र्च देते हैं। तो भली महिलाएं वही हैं जो पति का आज्ञापालन करने वाली तथा उसकी अनुपस्थिति में उसके रहस्यों की रक्षा करने वाली होती हैं कि ईश्वर रहस्यों की रक्षा करता है

और हे पुरुषो! तुम्हें जिन महिलाओं की अवज्ञा का भय हो उन्हें आरंभ में समझा दो, फिर उन्हें बिस्तर में अकेला छोड़ दो और यदि फिर भी उन पर प्रभाव न हो तो उन्हें मारो फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगें तो उनके विरुद्ध ज़ियादती का कोई मार्ग मत खोजो। नि:संदेह ईश्वर अत्यंत महान और सबसे उच्च है। (4:34)

इस आयत से, जो पारिवारिक संबंधों और पति पत्नी के मामले में क़ुरआन की सबसे महत्वपूर्ण आयतों में से एक है, अज्ञानी धार्मिकों या अधर्मी शत्रुओं ने क़ुरआन मजीद की अनेक अन्य आयतों की भांति ग़लत लाभ उठाया है। कुछ अज्ञानी व धर्मांधी पुरुष क़ुरआन की इस आयत को उद्धरित करके स्वयं को मालिक और पत्नी को दासी के समान समझते हैं जिसे आंख बंद करके अपने पति का आज्ञा पालन करना चाहिये तथा उसकी कोई अपनी मर्ज़ी नहीं होनी चाहिये। मानो हर बात में पति का आदेश ईश्वरीय आदेश है और यदि पत्नी उसकी अवहेलना करती है तो अत्यंत कड़े दण्ड का पात्र बन जाती है।

यही ग़लत व अनुचित धारणा व व्यवहार इस बात का कारण बना है कि कुछ अज्ञानी शत्रु उपहास व तुच्छता का व्यवहार करते हुए क़ुरआन व इस्लाम पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दें तथा इस आयत को महिला अधिकारों की विरोधी बतायें जबकि उन लोगों ने इस आयत के अर्थ और व्याख्या पर ध्यान नहीं दिया है बल्कि अपनी समझ के हिसाब से इसका अर्थ निकाला है। इस आयत को पूर्ण रूप से स्पष्ट करने के लिए हम इसके दो भाग करके हर भाग के बारे में विस्तार से बतायेंगे।


आयत का पहला भाग पुरुषों को महिलाओं के मामलों की देख-भाल करने वाला बताता है। आजकल समाज शास्त्र में परिवार को समाज की सबसे पहली और मूल इकाई माना जाता है जिसका मूल महत्व होता है। हर परिवार एक स्त्री और पुरुष के बीच विवाह के समझौते से अस्तित्व में आता है और बच्चों के जन्म से उसमें विस्तार होता है। बहुत ही स्पष्ट सी बात है कि इस छोटी सी इकाई को अपने विभिन्न मामलों के संचालन के लिए एक अभिभावक की आवश्यकता है अन्यथा इसमें अराजकता फैल जायेगी। जैसा कि किसी छात्रावास में रहने वाले छात्र यदि अपने में से ही किसी को वार्डन न बना लें तो वहां की व्यवस्था भंग हो जायेगी।


इस आधार पर परिवार का काम चलाने के लिए अभिभावक के रूप में किसी का निर्धारण एक अपरिहार्य बात है और स्पष्ट सी बात है कि बच्चे अपने परिवार और माता-पिता के मामलों का संचालन नहीं कर सकते। क़ुरआन मजीद दो कारणों से पति और पत्नी के बीच पति को परिवार का अभिभावक घोषित करता है प्रथम तो यह कि पुरुष शारीरिक दृष्टि से महिलाओं से अधिक सशक्त होते हैं अत: उनमें काम काज की अधिक क्षमता होती है और दूसरे यह कि जीवन के सभी खर्चों की पूर्ति का दायित्व पुरुषों पर है जैसे आहार, वस्त्र, आवास आदि। जबकि इस्लाम की दृष्टि से महिलाओं पर जीवन के किसी ख़र्च की आपूर्ति का कोई दायित्व नहीं है। यहां तक कि यदि उसके पास कमाई का साधन हो तब भी।

दूसरे शब्दों में इस्लाम ने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति और उसके आराम का ध्यान रखने के भारी दायित्व के बदले में परिवार के मामलों का अधिकार पुरुष को सौंपा है और इस संबंध में उसके पास उत्तरदायित्व है न कि शासन और ज़ोर ज़बरदस्ती का अधिकार और उसके उत्तरदायित्व की सीमा परिवार के मामलों के संचालन तक है न कि अपने काम कराने के लिए पत्नी को दासी बनाने और उस पर अत्याचार करने में। अत: जब भी पुरुष अपने दायित्वों का उल्लंघन करे और अपनी पत्नी का ख़र्चा न दे और पत्नी तथा बच्चों का जीना हराम कर दे तो पत्नी की इच्छा से धर्मगुरू इसमें हस्तक्षेप कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर वह पुरुष को अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए प्रतिबद्ध कर सकता है। संक्षिप्त रूप से कहें कि इस बात पर ध्यान रखना चाहिये कि परिवार में पुरुष के संचालन का अधिकार कदापि पत्नी पर उसकी श्रेष्ठता के अर्थ में नहीं है बल्कि श्रेष्ठता का मानदण्ड ईमान और पवित्रता है।


आयत के दूसरे भाग में महिलाओं के दो गुटों की ओर संकेत किया गया है। प्रथम वह भलि महिलाएं जो पारिवारिक व्यवस्था के प्रति कटिबद्ध हैं और न केवल पति की उपस्थिति में बल्कि उसकी अनुपस्थिति में भी उसके व्यक्तित्व, रहस्यों और अधिकारों की रक्षा करती हैं। ऐसी महिलाएं सराहनीय हैं।

दूसरा गुट ऐसी महिलाओं का है जो दाम्पत्य जीवन के संबंध में पति का आज्ञापालन नहीं करतीं। इनके बारे में क़ुरआन कहता है कि यदि तुम्हें इनकी ओर से अवज्ञा का भय हो तो पहले उन्हें समझाओ, बुझाओ और यदि इसका प्रभाव न हो तो कुछ समय तक उनसे नाराज़ रहो और दाम्पत्य जीवन में उनकी अनदेखी और उपेक्षा करके अपनी नाराज़गी व्यक्त करो परंतु यदि पत्नी फिर भी अपने दाम्पत्य संबंधी दायित्वों का निर्वाह न करे और कड़ाई के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग न बचे तो पति को अनुमति दी गई है कि वह अपनी पत्नी को शारीरिक दंड दे। इस प्रकार से कि उसे अपनी ग़लती का आभास हो जाये।

ये तीनों चरण पत्नी द्वारा दाम्पत्य जीवन में पति के अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर है। कभी पत्नी द्वारा पति की इच्छा की अवज्ञा केवल बात की सीमा तक होती है कि ऐसे में उसे ज़बान से समझाना चाहिये। कभी पत्नी द्वारा पति की इच्छा का विरोध व्यवहारिक होता है ऐसे में पति को भी उसके साथ व्यवहारिक बर्ताव करना चाहिये तथा उसके साथ एक बिस्तर पर नहीं सोना चाहिये परंतु कभी-कभी पत्नी की अवज्ञा सीमा से बढ़ जाती है, ऐसी अवस्था में उसे शारीरिक दण्ड देना चाहिये।


स्पष्ट है कि यदि पति भी अपने दायित्वों का निर्वाह न करे तो धर्मगुरू या न्यायाधीश उस पर मुक़द्दमा चलाएगा और आवश्यक होने पर उसे दंडित भी करेगा क्योंकि पत्नी का ख़र्चा न देना एक अदालती व दीवानी मामला है और इसे न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है परंतु चूंकि पति और पत्नी के निकट संबंध गोपनीय तथा पारिवारिक हैं अत: इस्लाम इस बात को प्राथमिकता देता है कि यथासंभव उनका मामला घर में सुलझ जाये और बात घर से बाहर न जाने पाये। इसी कारण इस मामले में शिकायत रखने वाला पति आवश्यक क़दम उठा सकता है ताकि परिवार की इज़्ज़त बची रहे। अलबत्ता शारीरिक दंड, जैसाकि हमने बताया, बहुत कड़ा नहीं होना चाहिये जिससे शरीर का कोई भाग टूट-फूट जाये कि ऐसी स्थिति में पुरुष को उसका तावान देना होगा।
यदि इस्लाम के इस क़ानून पर गहन विचार करें तो हमें पता चलेगा कि इस्लाम बड़े ही अच्छे और सूक्ष्म ढंग से तथा क्रमश: परिवार को बर्बादी तथा विघटन के ख़तरे से मुक्ति दिलाता है।

इस आयत से हमने सीखा कि दो लोगों के एक समूह में भी एक व्यक्ति का उत्तरदायी के रूप में चयन होना चाहिये तथा जीवन के ख़र्चों की पूर्ति करना जिस व्यक्ति के ज़िम्मे हो उसे इसमें प्राथमिकता प्राप्त है।
पत्नी द्वारा पति का आज्ञापालन कमज़ोरी की निशानी नहीं है बल्कि यह परिवार के सम्मान और उसकी सुरक्षा के लिए है।

सूरए निसा; आयतें 35-39 (कार्यक्रम 128)
﷯आइये सबसे पहले सूरए निसा की 35वीं आयत की तिलावत सुनें।
وَإِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِهِمَا فَابْعَثُوا حَكَمًا مِنْ أَهْلِهِ وَحَكَمًا مِنْ أَهْلِهَا إِنْ يُرِيدَا إِصْلَاحًا يُوَفِّقِ اللَّهُ بَيْنَهُمَا إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرًا (35)
और यदि पति-पत्नी के बीच मनमुटाव के कारण तुम्हें उनके अलग होने का भय हो तो दोनों के परिजनों में से एक पंच बनाओ ताकि वे उनके मतभेदों को दूर कर सकें और जान लो कि यदि ये दोनों सुधार चाहेंगे तो ईश्वर दोनों के बीच सहमति और अनुकूलता उत्पन्न कर देगा। नि:संदेह ईश्वर जानने वाला और अवगत है। (4:35)
यह आयत पति-पत्नी के बीच उत्पन्न होने वाले मतभेदों के समाधान के लिए एक पारिवारिक न्यायालय के गठन का प्रस्ताव देते हुए कहती है। यदि पति और पत्नी के बीच मनमुटाव बढ़ जाये तो दोनों के परिवार वालों को उनके मतभेद समाप्त कराने के लिए क़दम उठाना चाहिये और तलाक़ की नौबत नहीं आने देना चाहिये तथा दोनों पक्षों के अधिकारों की रक्षा के लिए पति और पत्नी के परिवारों से एक-एक पंच को दोनों के बीच सुधार और सहमति उत्पन्न करने के लिए बैठक करनी चाहिये। दोनों पंचों को पति और पत्नी के बीच मतभेदों को दूर करने के लिए पंच के रूप में काम करना चाहिये जो कि सहमति का मार्ग है न कि वे न्यायधीश की भांति दोनों में से एक को आरोपित करें। इस्लाम के इस प्रस्ताव की कई विशेषताएं हैं।
प्रथम तो यह कि पारिवारिक समस्या का दूसरों को पता नहीं चलेगा और घर की इज़्ज़त सुरक्षित रहेगी और इसके कारण केवल दोनों पक्षों के परिजनों को ही समस्या का पता चलेगा जो सहानुभूति के साथ उनके मामले को देखेंगे।
दूसरे यह कि चूंकि दोनों पक्षों को स्वयं पति-पत्नी ने चुना है अत: वे सरलता से उनके निर्णय को स्वीकार कर लेंगे। आजकल के न्यायालयों के विपरीत जिनमें सदा एक पक्ष शिकायत करता है।
तीसरे यह कि न्यायालय सच या झूठ का निर्धारण करने या पति अथवा पत्नी में से किसी एक दंडित करने के लिए नहीं है जिससे दोनों के बीच अधिक दूरी की आशंका है बल्कि यह न्यायालय एक ऐसा मार्ग खोजने के प्रयास में रहता है जिससे दोनों के बीच सहमति उत्पन्न हो और मतभेद समाप्त हों।
इस आयत से हमने सीखा कि घर में उत्पन्न होने वाले मतभेदों और कटु घटनाओं के प्रति परिवार वाले और समाज उत्तरदायी हैं और उन्हें इसमें लापरवाही नहीं बरतना चाहिये।
परिवार में कोई कटु घटना उत्पन्न होने से पूर्व ही उससे बचने का मार्ग खोजने के लिए कार्यवाही करनी चाहिये।
पंच के चयन में पति और पत्नी के बीच कोई अंतर नहीं है। दोनों का यह अधिकार है कि वे अपने लिए पंच का चयन करें।
यदि काम में सदभावना और सुधार की मंशा हो तो ईश्वरीय सहायता भी प्राप्त होती है।
आइये अब सूरए निसा की 36वीं आयत की तिलावत सुनें।
وَاعْبُدُوا اللَّهَ وَلَا تُشْرِكُوا بِهِ شَيْئًا وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا وَبِذِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينِ وَالْجَارِ ذِي الْقُرْبَى وَالْجَارِ الْجُنُبِ وَالصَّاحِبِ بِالْجَنْبِ وَابْنِ السَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ مُخْتَالًا فَخُورًا (36)
और ईश्वर की उपासना करो और किसी को उसका शरीक न ठहराओ और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो और इसी प्रकार निकट परिजनों, अनाथों, मुहताजों, निकट और दूर के पड़ोसी, साथ रहने वाले, राह में रह जाने वाले यात्री और अपने दास-दासियों सबके साथ भला व्यवहार करो। नि:संदेह ईश्वर इतराने वाले और घमंडी लोगों को पसंद नहीं करता। (4:36)
पिछली आयतों में घर और परिवार के संबंध में एक ईमान वाले व्यक्ति के दायित्वों का उल्लेख करने के पश्चात ईश्वर इस और बाद की आयतों में समाज के प्रति ईमान वाले व्यक्ति की ज़िम्मेदारियों का उल्लेख करता है ताकि यह न सोच लिया जाए कि मनुष्य केवल अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति उत्तरदायी है। एक ईमान वाले व्यक्ति को ईश्वर पर आस्था रखने और उसकी उपासना करने के अतिरिक्त अपने माता-पिता, परिजनों और इसी प्रकार मित्रों, पड़ोसियों, मातहतों और सबसे बढ़ के समाज के अनाथों और मुहताजों के प्रति दायित्व का आभास करना चाहिये और उनके साथ किसी भी प्रकार की भलाई से हिचकिचाना नहीं चाहिये।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज के अनेक युवा अपना दाम्पत्य जीवन आरंभ करने के पश्चात माता-पिता को भूल जाते हैं और परिवार तथा परिजनों से संबंध नहीं रखते। इस आयत में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें मनुष्य के दायित्व को एहसान अर्थात नेकी या भलाई कहा गया है जिसका अर्थ आर्थिक सहायता से कहीं व्यापक है। आर्थिक सहायता का शब्द, जिसे अरबी भाषा में इन्फ़ाक़ कहते हैं, साधारणत: ग़रीबी व दरिद्रता के लिए प्रयोग किया जाता है परंतु भलाई के लिए दरिद्रता की शर्त नहीं है बल्कि मनुष्य द्वारा किसी के लिए और किसी के भी साथ किया गया अच्छा काम भलाई कहलाता है। अत: माता-पिता से प्रेम करना, उनके साथ सबसे बड़ी भलाई है जैसा कि आयत के अंतिम भाग में माता-पिता, मित्रों और पड़ोसियों के साथ भलाई न करने वाले को घमंडी और इतराने वाला व्यक्ति कहा गया है।
इस आयत से हमने सीखा कि इस आयत में ईश्वर के अधिकार का भी वर्णन है कि जो उसकी उपासना है और ईश्वर के बंदो के भी अधिकार का उल्लेख है जो नेकी और भलाई है तथा यह इस्लाम की व्यापकता और व्यापक दृष्टि की निशानी है।
केवल नमाज़ और उपासना पर्याप्त नहीं है जीवन के मामलों में भी ईश्वर को दृष्टिगत रखना चाहिये और उसे प्रसन्न रखने के प्रयास में रहना चाहिये अन्यथा हम ईश्वर के बंदों को उसका शरीक व भागीदार बनाने के दोषी बन जायेंगे।
हमारी सृष्टि में ईश्वर के पश्चात माता-पिता की मूल भूमिका है। अत: अपने दायित्वों के निर्वाह में हमें भी ईश्वर के पश्चात उनकी मर्ज़ी प्राप्त करने और उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये।
मनुष्य पर उसके मित्रों, पड़ोसियों तथा मातहतों के भी अधिकार होते हैं जिनकी पूर्ति आवश्यक है।
आइये अब सूरए निसा की 37वीं आयत की तिलावत सुनें।
الَّذِينَ يَبْخَلُونَ وَيَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ وَيَكْتُمُونَ مَا آَتَاهُمُ اللَّهُ مِنْ فَضْلِهِ وَأَعْتَدْنَا لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا مُهِينًا (37)
घमंडी वे लोग हैं जो स्वयं भी कंजूसी करते हैं और दूसरों को भी कंजूसी का आदेश देते हैं और जो कुछ ईश्वर ने अपनी कृपा से उन्हें दिया है उसे छिपाते हैं परंतु वे जान लें कि हमने काफ़िरों के लिए अपमानजनक दंड तैयार कर रखा है। (4:37)
यह आयत कहती है कि कुछ लोग धनवान होने के बावजूद न केवल यह कि स्वयं दूसरों की आर्थिक सहायता नहीं करते बल्कि उन्हें यह भी पसंद नहीं होता कि अन्य लोग भी दरिद्रों की सहायता करें। संकीर्ण दृष्टि और कंजूसी की भावना उनमें इतनी प्रबल हो चुकी होती है कि वे स्वयं भी जीवन की संभावनाओं का सही ढंग से प्रयोग नहीं करते। उन्हें इस बात का भय होता है कि कहीं उनका अच्छा घर और साज-सज्जा देखकर वंचित लोग उनसे कुछ मांग न बैठें। यही कारण है कि वे अपना धन दूसरों से छिपाते रहते हैं। क़ुरआने मजीद इस कंजूसी को ईमान के प्रतिकूल बताते हुए ऐसे लोगों को उन काफ़िरों में बताता है जिन्हें अपमानजनक दंड भोगना होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि कंजूसी जैसी कुछ आत्मिक बीमारियां कुछ शारीरिक रोगों की भांति संक्रामक होती हैं। कंजूस व्यक्ति दूसरों के दान दक्षिणा में भी रुकावट बनता है।
ईश्वरीय अनुकंपाओं पर कृतज्ञता जताने का एक मार्ग उन्हें प्रकट करना और उनका उपयोग करना है क्योंकि अनुकंपा को छिपाना एक प्रकार से उसके प्रति अकृतज्ञता है।
अनुकंपाओं को ईश्वरीय दया और कृपा समझना चाहिये न कि अपने प्रयासों का फल ताकि हम कन्जूसी और स्वार्थ का शिकार न हों।
आइये अब सूरए निसा की 38वीं और 39वीं आयतों की तिलावत सुनें।
وَالَّذِينَ يُنْفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ رِئَاءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآَخِرِ وَمَنْ يَكُنِ الشَّيْطَانُ لَهُ قَرِينًا فَسَاءَ قَرِينًا (38) وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ آَمَنُوا بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآَخِرِ وَأَنْفَقُوا مِمَّا رَزَقَهُمُ اللَّهُ وَكَانَ اللَّهُ بِهِمْ عَلِيمًا (39)
और स्वार्थी वे लोग हैं जो या तो किसी की आर्थिक सहायता नहीं करते और यदि करते भी हैं तो दिखावे के लिए और वास्तव में ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान नहीं रखते और जिस किसी का साथी शैतान हुआ तो वह कितना बुरा साथी है। (4:38) और क्या हो जाता यदि वे ईश्वर और प्रलय पर ईमान ले आते और जो कुछ ईश्वर ने उन्हें रोज़ी दी है उसमें से उसके मार्ग में ख़र्च करते? क्या वे नहीं जानते कि ईश्वर उनसे और उनके कामों से अवगत है। (4:39)
पिछली आयतों की पूर्ति करते हुए ये दोनों आयतें कहती हैं कि कंजूसी के कारण मनुष्य ईश्वर और प्रलय पर ईमान से हाथ धो बैठता है क्योंकि ईमान के लिए ज़कात इत्यादि देना आवश्यक है और जो भी इन अनिवार्य कार्यों को न करे वास्तव में उसने ईश्वर के आदेश को स्वीकार नहीं किया और धन को ईश्वर पर प्राथमिकता दी है। स्वाभाविक है कि ऐसे लोग दान दक्षिणा और आर्थिक सहायता नहीं करते पंरतु कभी-कभी अपने सम्मान और सामाजिक स्थिति की रक्षा के लिए सार्वजनिक लाभ के काम कर देते हैं जैसे अस्पताल का निर्माण इत्यादि परंतु चूंकि उनका लक्ष्य ईश्वर नहीं बल्कि आत्म सम्मान था अत: प्रलय में उसका कोई लाभ नहीं होगा और इससे बढ़कर क्या घाटा हो सकता है कि मनुष्य अपना माल भी दे और उसे इसका कोई फल भी न मिले और शैतान की चालें हैं जो लोगों में घुसा रहता है और क़ुरआन के शब्दों में शैतान उनका हर समय का साथी है।
इन आयतों से हमने सीखा कि दिखावे के लिए की गई आर्थिक सहायता और कंजूसी में कोई अंतर नहीं है। यद्यपि दिखावे के लिए उसके खाते में पाप भी लिखा जायेगा।
दिखावा वास्तविक ईमान के न होने की निशानी है क्योंकि दिखावा करने वाला ईश्वरीय पारितोषिक की आशा के स्थान पर लोगो की कृतज्ञता और लोगों के बदले की आशा रखता है। आर्थिक सहायता का लक्ष्य केवल भूखों का पेट भरना नहीं है क्योंकि यह लक्ष्य दिखावे से भी पूरा हो सकता है बल्कि आर्थिक सहायता का वास्तविक लक्ष्य सहायता करने वाले की आत्मिक व आध्यात्मिक प्रगति और ईश्वर से उसका सामीप्य है।
सहायता केवल धन और सम्पत्ति से नहीं होती बल्कि ईश्वर ने जो कुछ मनुष्य को दिया है चाहे वह ज्ञान हो, पद हो या सम्मान, उसे वंचितों की सहायता के मार्ग में प्रयोग करना चाहिये। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 40-43 (कार्यक्रम 129)
﷯आइये सूरए निसा की 40वीं आयत की तिलावत सुनें।
إِنَّ اللَّهَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ وَإِنْ تَكُ حَسَنَةً يُضَاعِفْهَا وَيُؤْتِ مِنْ لَدُنْهُ أَجْرًا عَظِيمًا (40)
निसंदेह ईश्वर कण बराबर भी अत्याचार नहीं करता और यदि अच्छा कर्म हो तो उसका बदला दो गुना कर देता है और अपनी ओर से भी बड़ा बदला देता है। (4:40)
पिछली आयतों में हमने पढ़ा कि जो कोई भी वंचितों की सहायता करने में कंजूसी करेगा और ईश्वरीय अनुकम्पाओं की अकृतज्ञता करेगा तो उसे कड़ा दंड भुगतना पड़ेगा। यह आयत कहती है कि ईश्वरीय दंड लोगों पर ईश्वर का अत्याचार नहीं है बल्कि उन्हीं के कर्मों का परिणाम है। क्योंकि अत्याचार का आधार या अज्ञानता है या मनोवैज्ञानिक समस्याएं या फिर लोभ और सत्तालोलुपता जबकि ईश्वर इस प्रकार के सभी अवगुणों से पवित्र है और अपनी रचनाओं और कृतियों पर उसके अत्याचार का कोई तर्क नहीं है। यह स्वयं मनुष्य ही है जो अपने बुरे कर्मों द्वारा अपने आप पर अत्याचार करता है।
आगे चलकर आयत कहती है ईश्वर ने तुम्हें अच्छे कर्मों और लोगों के साथ भलाई का आदेश दिया है जो कोई भी इसे स्वीकार करेगा उसे लोक-परलोक में ईश्वर भला बदला देगा और वह भी कई गुना अधिक कि जो मनुष्य को ईश्वर की विशेष कृपा की छाया में ले आयेगा। जैसाकि दूसरी आयतों में नि: स्वार्थता के साथ की गई आर्थिक सहायता या दान का बदला सात सौ गुना अधिक तक बताया गया है।
इस आयत से हमने सीखा कि सांसारिक मुसीबतों और आपदाओं को ईश्वर का अत्याचार नहीं अपुति अपनी कंजूसी और कुफ़्र का फल समझना चाहिये। हम जो बोएंगे वही काटेंगे।
बुरे कर्मों का दंड उन्हीं के समान है और ईश्वर उसमें कण भर भी वृद्धि नहीं करेगा पंरतु भले कर्मों का बदला मूल कार्य से बहुत अधिक है और ईश्वर उसमें कई गुना अधिक की वृद्धि कर देता है।
आइये अब सूरए निसा की 41वीं और 42वीं आयतों की तिलावत सुनें।
فَكَيْفَ إِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ أُمَّةٍ بِشَهِيدٍ وَجِئْنَا بِكَ عَلَى هَؤُلَاءِ شَهِيدًا (41) يَوْمَئِذٍ يَوَدُّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَعَصَوُا الرَّسُولَ لَوْ تُسَوَّى بِهِمُ الْأَرْضُ وَلَا يَكْتُمُونَ اللَّهَ حَدِيثًا (42)
(हे पैग़म्बर!) तो उन लोगों का क्या हाल होगा जिस दिन हम हर समुदाय के लिए उन्हीं में से साक्षी लाएंगे और तुम्हें उन पर साक्षी बनायेंगे। (4:41) उस दिन संसार में कुफ़्र अपनाने वाले और पैग़म्बर की अवज्ञा करने वाले कामना करेंगे कि काश वे मिट्टी में मिल जाते और उनकी कोई निशानी बाक़ी न रहती और उस दिन ईश्वर से कोई बात छिपी नहीं रहेगी। (4:42)
इस बात का उत्तम तर्क कि ईश्वर किसी पर अत्याचार नहीं करता, प्रलय के न्यायालय में अनेक गवाहों की उपस्थिति है। मनुष्य के अंगों और फरिश्तों की गवाही के अतिरिक्त हर पैग़म्बर भी अपने समुदाय के कर्मों का गवाह है तथा पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम भी अपने समुदाय के कर्मों के साक्षी हैं। अलबत्ता चूंकि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ईश्वर के सबसे बड़े पैग़म्बर हैं अत: वे अपने समुदाय के साक्षी होने के साथ-साथ अपने से पहले वाले पैग़म्बरों के भी गवाह हैं और उनकी उपस्थिति सभी कर्मों का मानदण्ड है।
प्रलय में पैग़म्बर की इसी गवाही के कारण उनका इंकार और विरोध करने वाले आशा करेंगे कि काश वे पैदा ही न हुए होते और मिट्टी ही रहते या मृत्यु के पश्चात धरती के भीतर ही रहते और उन्हें पुन: उठाया न जाता परंतु इससे क्या लाभ होगा क्योंकि प्रलय आशाओं का स्थान नहीं है। समय और अवसर बीत चुका होगा और जीवन में हमने जो कुछ बोया होगा उसके काटने का समय होगा। इतने सारे गवाहों की उपस्थिति में हमें अपने बुरे कर्मों को छिपाने का कोई मार्ग नहीं मिलेगा। अलबत्ता हमारा कोई भी काम बल्कि कोई भी बात व विचार ईश्वर से छिपा हुआ नहीं है।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय पैग़म्बर लोगों के समक्ष ईश्वर का तर्क और लोगों के कर्मों के गवाह हैं। प्रलय में ईश्वर हर जाति व समुदाय के कर्मों को उसके पैग़म्बर के आदेशों की कसौटी पर परखेगा और फैसला करेगा।
ईश्वर को किसी भी गवाह की आवश्यकता नहीं है मनुष्य यदि यह जान ले कि ईश्वर के अतिरिक्त भी कुछ लोग उसे देख रहे हैं और प्रलय में उसके विरुद्ध गवाही देंगे तो यह बात स्वयं उसके नियंत्रण में प्रभावी है।
पैग़म्बर के आदेशों का उल्लंघन तथा उनकी परम्पराओं व चरित्र का अनुसरण करना ईश्वर के इंकार के समान है।
प्रलय का दिन पछतावे, अफ़सोस और काश कहने का दिन है, काश मैं मिट्टी होता और धरती से न उठाया जाता।
आइये अब सूरए निसा की 43वीं आयत की तिलावत सुनें।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لَا تَقْرَبُوا الصَّلَاةَ وَأَنْتُمْ سُكَارَى حَتَّى تَعْلَمُوا مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّى تَغْتَسِلُوا وَإِنْ كُنْتُمْ مَرْضَى أَوْ عَلَى سَفَرٍ أَوْ جَاءَ أَحَدٌ مِنْكُمْ مِنَ الْغَائِطِ أَوْ لَامَسْتُمُ النِّسَاءَ فَلَمْ تَجِدُوا مَاءً فَتَيَمَّمُوا صَعِيدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوا بِوُجُوهِكُمْ وَأَيْدِيكُمْ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا (43)
हे ईमान वालो! नशे और मस्ती की हालत में नमाज़ के निकट न जाओ यहां तक कि तुम्हें पता रहे कि तुम क्या बोल रहे हो और नापाक व अपवित्र स्थिति में हो तो मस्जिद में न जाओ जब तक कि स्नान न कर लो सिवाए इसके कि गुज़र जाना इच्छित हो और यदि तुम बीमार हो या यात्रा में हो या तुम में से कोई शौच करके आये या तुम स्त्रियों के पास गये हो और तुम्हें पानी न मिला हो ताकि तुम स्नान या वुज़ू कर सको तो पवित्र मिट्टी पर तयम्मुम करो इस प्रकार से कि अपने चेहरे और हाथों को उससे स्पर्श करो। नि:संदेह ईश्वर अत्यंत क्षमाशील व दयावान है। (4:43)
इस आयत में, जिसमें नमाज़ के कुछ धार्मिक आदेशों का वर्णन है, आरंभ में नमाज़ की आत्मा व जान अर्थात ईश्वर पर ध्यान की बात कही गई है और फिर स्नान और तयम्मुम के आदेशों का उल्लेख किया गया है।
मूल रूप से नमाज़ और अन्य उपासनाओं का लक्ष्य मनुष्य द्वारा सदैव अपने रचयिता की ओर ध्यान रखना और उस पर भरोसा करना है। जो मनुष्य ईश्वर से दिल लगा लेता है वह संसार के सारे बंधनों से मुक्त हो जाता है और यह उसी स्थिति में संभव है जब उपासना ईश्वर की सही पहचान के साथ हो। इसी कारण हर उस बात और वस्तु को छोड़ देना चाहिये जो नमाज़ की स्थिति में मनुष्य का ध्यान बंटाती है। इस आयत में नशे और मस्ती के कारक के रूप में शराब से रोका गया है जबकि दूसरी आयतों में निंदासी अवस्था में या सुस्ती के साथ नमाज़ पढ़ने से रोका गया है।
प्रत्येक दशा में नमाज़ पढ़ते समय मनुष्य को यह ज्ञात होना चाहिये कि वह किसके समक्ष खड़ा है, क्या बोल रहा है और क्या मांग रहा है परंतु नमाज़ में मनुष्य की आत्मा के पूर्णरूप से ईश्वर पर ध्यान दिये जाने के अतिरिक्त मनुष्य का शरीर भी हर प्रकार की गंदगी से पवित्र होना चाहिये। इसी कारण जो भी व्यक्ति संभोग के कारण एक प्रकार की गंदगी में ग्रस्त हो जाता है उसे न केवल नमाज़ के निकट जाने का अधिकार नहीं है बल्कि वह नमाज़ के स्थान अर्थात मस्जिद में जाने और वहां रुकने का भी अधिकार नहीं रखता बल्कि वह केवल मस्जिद के एक द्वार से प्रवेश करके दूसरे द्वार से बाहर निकल सकता है।
चूंकि स्नान के लिए पवित्र व स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है और संभवत: यात्रा में पानी न मिले या मनुष्य बीमार हो और उसके लिए स्नान करना हानिकारक हो अत: ईश्वर ने मिट्टी को पानी विकल्प बनाया है ताकि मनुष्य उस पर अपने हाथों और चेहरे का स्पर्श करके नमाज़ पढ़ सके। अलबत्ता यह मिट्टी पवित्र होनी चाहिये न अपवित्र।
इस आयत से हमने सीखा कि नमाज़ केवल शब्दों और शरीर के हिलने का नाम नहीं है। नमाज़ केवल कुछ शब्दों को दोहराने और बैठने को नहीं कहते। नमाज़ की आत्मा, ईश्वर पर ध्यान रखना है जिसके लिए चेतना की आवश्यकता होती है।
मस्जिद और उपासना स्थल पवित्र स्थान हैं अत: अपवित्र हालत में उसमें नहीं जाना चाहिये।
शरीर तथा आत्मा की पवित्रता, ईश्वर के समक्ष जाने और उससे बात की भूमिका है। यात्रा अथवा बीमारी में नमाज़ का आदेश समाप्त नहीं होता हां स्थितियों के परिवर्तन के दृष्टिगत उसके आदेशों में कुछ छूट अवश्य दी गई है। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 44-47 (कार्यक्रम 130)
﷯आइये पहले सूरए निसा की 44वीं और 45वीं आयतों की तिलावत सुनें।
أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُوا نَصِيبًا مِنَ الْكِتَابِ يَشْتَرُونَ الضَّلَالَةَ وَيُرِيدُونَ أَنْ تَضِلُّوا السَّبِيلَ (44) وَاللَّهُ أَعْلَمُ بِأَعْدَائِكُمْ وَكَفَى بِاللَّهِ وَلِيًّا وَكَفَى بِاللَّهِ نَصِيرًا (45)
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें ईश्वरीय किताब का कुछ भाग दिया गया है, वे भथभ्रष्ठता मोल लेना चाहते हैं और तुम्हें भी पथभ्रष्ठ करना चाहते हैं। (4:44) (परंतु) जान लो कि ईश्वर तुम्हारे शत्रुओं को भली-भांति जानता है तथा ईश्वर की अभिभावकता और उसकी सहायता तुम्हारे लिए पर्याप्त है। (4:45)
ये आयतें यहूदी जाति के विद्वानों के बारे में हैं जो इस्लाम के उदय के समय मदीने में थे परंतु उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम व क़ुरआन पर सबसे पहले ईमान लाने के स्थान पर आरंभ से ही विरोध और शत्रुता का मार्ग अपनाया और मक्के के अनेकिश्वरवादियों तक से सांठ गांठ कर ली। ये आयतें याद दिलाती हैं कि ईश्वरीय किताब के ज्ञानी यद्यपि ईश्वर के कथनों से परिचित थे पंरतु उन्होंने उन कथनों को अपने और अन्य लोगों के मार्गदर्शन तथा कल्याण का साधन नहीं बनाया बल्कि दूसरों को पथभ्रष्ठ करने और उनके ईमान में बाधा डालने का प्रयास करने लगे। इसके पश्चात ईश्वर मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है कि तुम लोग उनकी शत्रुता से मत डरो क्योंकि वे ईश्वर की शक्ति और उसके शासन से बाहर नहीं हैं और तुम्हें भी ईश्वरीय सहायता प्राप्त है।
इन आयतों से हमने सीखा कि केवल ईश्वरीय किताब और ईश्वरीय आदेशों की पहचान कल्याण का साधन नहीं है। ऐसे कितने धार्मिक विद्वान हैं जो स्वयं भी पथभ्रष्ठ हैं और दूसरों को पथभ्रष्ठ करते हैं। कल्याण के लिए पवित्र आत्मा और सत्य की खोज में रहने की भावना की आवश्यकता होती है।
इस्लामी समाज के वास्तविक शत्रु धर्म और जनता के विचारों के शत्रु हैं चाहे वह भीतर हों या बाहर।
उन्हीं लोगों को ईश्वरीय सहायता प्राप्त होती है जो ईश्वर की शक्ति में आस्था रखते हैं अपनी व दूसरों की सांसारिक शक्ति पर भरोसा करने वालों को ईश्वरीय सहायता नहीं मिलती।
आइये अब सूरए निसा की 46वीं आयत की तिलावत सुनें।
مِنَ الَّذِينَ هَادُوا يُحَرِّفُونَ الْكَلِمَ عَنْ مَوَاضِعِهِ وَيَقُولُونَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَرَاعِنَا لَيًّا بِأَلْسِنَتِهِمْ وَطَعْنًا فِي الدِّينِ وَلَوْ أَنَّهُمْ قَالُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَاسْمَعْ وَانْظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَهُمْ وَأَقْوَمَ وَلَكِنْ لَعَنَهُمُ اللَّهُ بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُونَ إِلَّا قَلِيلًا (46)
यहूदियों में वे लोग भी हैं जो ईश्वरीय कथनों में फेर-बदल कर देते हैं और हमने सुना तथा अनुसरण किया कहने के स्थान पर कहते हैं हमने सुना और अवज्ञा की। वे अनादर के साथ पैग़म्बर से कहते हैं सुनो कि तुम्हारी बात कदापि न सुनी जाये और हमारी ओर ध्यान दो। ये सब ज़बान तोड़-मरोड़ कर ईश्वर के धर्म पर चोट करते हुए कहते हैं और यदि वे कहते कि हमने सुना और अनुसरण किया तथा आप भी सुनिये और हमें भी समय दीजिये ताकि हम वास्तविकताओं को बेहतर ढंग से समझ सकें तो यह उनके लिए बेहतर और सही बात के समीप होता परंतु ईश्वर ने उनके कुफ़्र के कारण उन पर लानत की है तो वे ईमान नहीं लाएंगे सिवाए थोड़े से लोगों के। (4:46)
इस्लाम के विरोधियों की एक बुरी पद्धति उपहास व हीन समझने की थी। इस आयत में उनमें से कुछ की ओर संकेत किया गया है। स्पष्ट है कि जो लोग इन पद्धतियों का प्रयोग करते हैं उनमें इस्लाम के तर्क का मुक़ाबला करने की क्षमता नहीं है और वे केवल अपने द्वेष को प्रकट करना चाहते हैं जैसाकि इस आयत में कहा गया है कि कुछ यहूदी अनुचित शब्दों का प्रयोग करके तथा तान देते हुए पैग़म्बरे इस्लाम से कहते थे। आप कहते रहिये परंतु हम नहीं सुनेंगे। हम कहते रहें आप भी न सुनें क्योंकि जो कुछ आप कहते हैं वह हमें मूर्ख बनाने के लिए है अत: हम उसे नहीं मानेंगे।
वे बहुअर्थीय शब्दों का भी प्रयोग करते थे। जब कभी पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम लोगों को ईश्वरीय कथन सुनाते थे तो वे कहते थे हे पैग़म्बर राएना अर्थात हमें थोड़ा समय दीजिये ताकि हम आपकी बातों को भली-भांति सुनकर याद रख सकें परंतु यहूदी यह शब्द पैग़म्बर के लिए प्रयोग करते थे जिसका दूसरा अर्थ मूर्ख या चरवाहा है।
इसी कारण ईश्वर उन्हें और अन्य मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है हे पैग़म्बर राएना के स्थान पर उन्ज़ुरना शब्द का प्रयोग करो जिसका अर्थ समय देना है तथा इसका कोई दूसरा बुरा अर्थ भी नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि अपने विरोधियों के साथ व्यवहार में भी न्याय करना चाहिये। यह आयत सभी यहूदियों को बुरा भला नहीं कहती बल्कि कहती है कुछ यहूदी ऐसा करते हैं। इसलिए कुछ लोगों के पाप को सभी के सिर नहीं मढ़ा जा सकता।
धार्मिक पवित्रताओं का अनादर ठीक नहीं है चाहे वह धर्मगुरूओं का अनादर हो या धार्मिक आदेश का।
मनुष्य की भलाई और उसका कल्याण, पैग़म्बरों के निमंत्रण को स्वीकार करने और धार्मिक आदेशों के पालन में है।
आइये अब सूरए निसा की 47वीं आयत की तिलावत सुनें।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ آَمِنُوا بِمَا نَزَّلْنَا مُصَدِّقًا لِمَا مَعَكُمْ مِنْ قَبْلِ أَنْ نَطْمِسَ وُجُوهًا فَنَرُدَّهَا عَلَى أَدْبَارِهَا أَوْ نَلْعَنَهُمْ كَمَا لَعَنَّا أَصْحَابَ السَّبْتِ وَكَانَ أَمْرُ اللَّهِ مَفْعُولًا (47)
हे आसमानी किताब दिये जाने वाले लोगो! उस चीज़ पर ईमान ले आओ जिसे हमने (पैग़म्बरे इस्लाम पर) उतारा है और जो तुम्हारी किताबों की भी पुष्टि करने वाला है इससे पूर्व कि हम चेहरों को बिगाड़ कर उन्हें पीछे की ओर फेर दें या उन पर इस प्रकार लानत भेजें जिस प्रकार हमने असहाबे सब्त अर्थात शनिवार वालों पर लानत भेजी है और ईश्वर का आदेश तो होकर ही रहेगा। (4:47)
पिछली आयतों में आसमानी किताब वालों विशेषकर यहूदियों को संबोधित करने के पश्चात ईश्वर इस आयत में उनसे कहता है तुम लोग जो आसमानी किताब से अवगत हो, इस्लाम स्वीकार करने के लिए अधिक उपयुक्त हो और वह भी ऐसा इस्लाम जिसकी किताब तुम्हारी किताब से समन्वित और ईश्वर की ओर से है। इसके पश्चात ईश्वर एक महत्वपूर्ण सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए कहता है जब तुम हठ और द्वेष के चलते वास्तविकता का इंकार करते हो और उसका मज़ाक उड़ाते हो तो तुम उसकी प्रवृत्ति तथा अपने विचारों को बदल देते हो और धीरे-2 तुम्हारा मानवीय चेहरा मिट जाता है।
चूंकि मनुष्य की इंद्रियां और उसके अधिकतर संवेदनशील अंग उसके चेहरे तथा सिर में होते हैं, इसी कारण क़ुरआने मजीद ने वास्तविकताओं को समझने और उन्हें प्राप्त करने से मनुष्य की वंचितता को उसका चेहरा बिगड़ने और मिटने के समान बताया है कि जो पथभ्रष्ठता और पतन की ओर पलटने के अर्थ में है। जी हां जब ज़बान धर्म की वास्तविकता को मानने से इंकार कर दे तो आंख, कान और मस्तिष्क भी पथभ्रष्ठ होकर वास्तविकता को उल्टा देखने लगते हैं ठीक उस आंख की भांति जो काले चश्मे के पीछे से दिन को भी अंधकारमय देखती है।
यह आयत इसी प्रकार कुछ यहूदियों द्वारा शनिवार को मछली का शिकार न करने के ईश्वरीय आदेश के उल्लंघन की ओर संकेत करते हुए कहती है"जिस प्रकार वे लोग ईश्वरीय आदेश का उपहास करने के कारण सांसारिक दंड में ग्रस्त और रूप तथा चरित्र में बंदर समान हो गये उसी प्रकार तुम लोग भी क़ुरआन की आयतों की उपहास के कारण अपमानित और तबाह हो जाओगे।
इस आयत से हमने सीखा कि दूसरों को इस्लाम का निमंत्रण देते समय हमें उनकी भलाइयों और विशेषताओं को भी स्वीकार करना चाहिये तथा उनकी पुष्टि करनी चाहिये।
सभी धर्मों के मूल सिद्धांत तथा पैग़म्बरों की शिक्षाएं और कार्यक्रम समन्वित व एक दिशा में हैं।
इस्लाम अन्य एकेश्वरवादी धर्मों के अनुयाइयों को ईमान में प्रगति और इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण देता है।
संसार में ईश्वरीय कोप का एक कारण धार्मिक वास्तविकताओं का परिहास करना है। {jcomments on}

सूरए निसा; आयतें 48-52 (कार्यक्रम 131)
﷯आइये पहले सूरए निसा की 48वीं आयत की तिलावत सुनें।
إِنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَنْ يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَنْ يَشَاءُ وَمَنْ يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدِ افْتَرَى إِثْمًا عَظِيمًا (48)
नि:संदेह ईश्वर अपने साथ किसी को समकक्ष या शरीक ठहराये जाने को क्षमा नहीं करेगा पंरतु इसके अतिरिक्त जो पाप होगा उसे जिसे वह चाहेगा उसके लिए क्षमा कर देगा और जिसने भी किसी को ईश्वर का भागीदार ठहराया निश्चित रूप से उसने बहुत बड़ा पाप किया। (4:48)
पिछली आयतों में यहूदियों और ईसाइयों जैसे आसमानी किताब वालों को संबोधित करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर उन्हें और इसी प्रकार मुसलमानों को हर प्रकार के ऐसे विचार और कर्म से रोकता है जिसका परिणाम किसी को ईश्वर का शरीक ठहराना और एकेश्वरवाद से दूरी हो।
आयत कहती है कि यद्यपि ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है पंरतु किसी को उसके समकक्ष ठहराने का पाप क्षमा योग्य नहीं है क्योंकि यह ईमान के आधार को ढ़ा देता है।
अलबत्ता इस आयत में ईश्वरीय क्षमा का तात्पर्य बिना तौबा के पापों को क्षमा करना है। अर्थात ईश्वर जिस किसी को उपयुक्त समझेगा उसके अन्य पापों को क्षमा कर देगा चाहे उसने तौबा न की हो परंतु ईश्वर के समकक्ष ठहराने का पाप ऐसा नहीं है और जब तक इसका पापी तौबा न कर सके और ईमान न लाए उसे ईश्वरीय क्षमा प्राप्त नहीं हो सकती। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों में आया है कि यह आयत ईमान वालों के लिए क़ुरआन की सबसे आशादायी आयत है क्योंकि इसके कारण पापी लोग चाहे उनका पाप कितना ही बड़ा क्यों न हो ईश्वरीय दया की ओर से निराश नहीं होते बल्कि इस आयत से उन्हें ईश्वरीय क्षमा की आशा मिलती है।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर के समकक्ष ठहराने का पाप ईश्वरीय दया में बाधा बनता है और उसका पापी स्वयं को ईश्वरीय दया से वंचित कर लेता है।
सबसे बड़ा झूठ किसी भी रूप में किसी को ईश्वर का समकक्ष ठहराना है।
आइये अब सूरए निसा 49वीं और 50वीं आयतों की तिलावत सुनें।
أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يُزَكُّونَ أَنْفُسَهُمْ بَلِ اللَّهُ يُزَكِّي مَنْ يَشَاءُ وَلَا يُظْلَمُونَ فَتِيلًا (49) انْظُرْ كَيْفَ يَفْتَرُونَ عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ وَكَفَى بِهِ إِثْمًا مُبِينًا (50)
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो अपनी पवित्रता का दम भरते हैं बल्कि ईश्वर ही जिसे चाहता है पवित्रता प्रदान करता है और उन पर बाल बराबर भी अत्याचार नहीं होगा। (4:49) देखो कि वे लोग किस प्रकार ईश्वर पर झूठ बांधते हैं और यही उनके खुले पाप के लिए काफ़ी है। (4:50)
यह आयत भी ईश्वरीय किताब रखने वालों तथा मुसलमानों को हर प्रकार की विशिष्टता और श्रेष्ठता प्राप्ति से रोकते हुए कहती है क्यों तुम दूसरे को दोषी और स्वयं को पवित्र व भला कहते हो?
क्यों तुम सदैव अपने आपकी सराहना करते हो और स्वयं को हर बुराई से पवित्र मानते हो? जबकि यह तो ईश्वर है जो तुम्हारे अंदर की बातों को जानता है और उसे पता है कि तुम में से कौन सराहना के योग्य है। वही तो लोगों के कर्मो के आधार पर उन्हें बुराइयों से पवित्र करता है। दूसरे शब्दों में वास्तविक श्रेष्ठता वह है जिसे ईश्वर श्रेष्ठता माने न वह कि जिसे घमंडी और स्वार्थी लोग अपनी उत्कृष्टता का कारण मानते हैं। यहां तक कि वे इसे ईश्वर से संबंधित कर देते हैं कि जो स्वयं बहुत बड़ा झूठ है।
उपासना के कारण धर्म का पालन करने वाले कुछ लोगों में जो घमंड पैदा हो जाता है वह ईश्वरीय धर्म वालों के लिए एक बड़ा ख़तरा है क्योंकि अन्य धर्मों से इस्लाम के श्रेष्ठ होने का अर्थ हर मुसलमान का अन्य लोगों से श्रेष्ठ होना नहीं है। इसी कारण इस आयत और कई अन्य आयतों में धार्मिक अंह या घमंड की बात करते हुए ईमान वालों को सचेत किया गया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने एक भाषण में कहते हैं ईश्वर से सच्चे अर्थों में भय रखने वाले वे लोग हैं कि जब कभी उनकी सराहना की जाती है तो वे भयभीत हो जाते हैं। वे न केवल यह कि स्वयं अपनी सराहना नहीं करते बल्कि यदि दूसरे उनको सराहते हैं तो वे घमंड में फंसने से भयभीत हो जाते हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि मज़ा तो इसमें है कि मनुष्य ईश्वर की सराहना करे न यह कि मनुष्य अपने मुंह मियां मिट्ठू बने।
अपनी सराहना की भावना घमंडी और अहंकारी आत्मा की भावना है और यह ईश्वर की बंदगी की भावना से मेल नहीं खाती।
ईश्वर से स्वयं के सामीप्य का दावा ईश्वर पर सबसे बड़ा झूठ है और इसका कड़ा दंड होगा।
आइये अब सूरए निसा की 51वीं और 52वीं आयतों की तिलावत सुनें।
أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُوا نَصِيبًا مِنَ الْكِتَابِ يُؤْمِنُونَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُوا هَؤُلَاءِ أَهْدَى مِنَ الَّذِينَ آَمَنُوا سَبِيلًا (51) أُولَئِكَ الَّذِينَ لَعَنَهُمُ اللَّهُ وَمَنْ يَلْعَنِ اللَّهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهُ نَصِيرًا (52)
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें ईश्वरीय किताब के ज्ञान का कुछ भाग दिया गया था, कि किस प्रकार वे मूर्तियों और मूर्तिपूजा करने वालों पर ईमान लाये और काफ़िरों के बारे में कहने लगे कि ये लोग इस्लाम लाने वालों से अधिक मार्गदर्शित हैं। (4:51) यही वे लोग हैं जिन पर इस्लाम ने लानत (धिक्कार) की है और जिस पर भी ईश्वर लानत करे उसके लिए तुम्हें कदापि कोई सहायक नहीं मिलेगा। (4:52)
जैसा कि इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि ओहोद के युद्ध के पश्चात मदीने के यहूदियों का एक गुट मक्के के अनेकेश्वरवादियों के पास गया ताकि मुसलमानों के विरुद्ध उनसे सहयोग करे। उस गुट ने अनेकेश्वरवादियों को प्रसन्न करने के लिए उनकी मूर्तियों के समक्ष सज्दा किया और कहा कि तुम्हारी मूर्तिपूजा मुसलमानों के ईमान से बेहतर है।
यद्यपि यहूदियों ने पैग़म्बरे इस्लाम से समझौता किया था कि वे मुसलमानों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं करेंगे परंतु उन्होंने अपने इस समझौते को तोड़ दिया और मुसलमानों के विरुद्ध क़ुरैश के सरदारों के साथ हो गये। यह बात अपने ग़लत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यहूदियों की षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति को दर्शाती है। यद्यपि उन्हें आसमानी किताब का ज्ञान था परंतु उन्होंने अनेकेश्वरवादियों के भ्रष्ठ विश्वासों को इस्लाम पर वरीयता दी, यहां तक कि वे अनेकेश्वरवादियों की सहायता करके इस्लाम के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भी तैयार हो गये। यही बड़ा पाप ईश्वर द्वारा उन पर लानत व धिक्कार और उनके ईश्वरीय दया से दूर होने का कारण बना।
इन आयतों से हमने सीखा कि यहूदी इस्लाम का मुक़ाबला करने के लिए अधर्मी काफ़िरों से भी समझौता कर सकते हैं। अत: हमें उनके प्रति सचेत रहना चाहिये।
द्वेष व शत्रुता की भावना मनुष्य की आंख, कान और ज़बान को सत्य देखने, सुनने और कहने से रोकती है। जो लोग इस्लाम का विरोध करते हैं वह इस कारण नहीं है कि इस्लाम बुरा है नहीं बल्कि इस कारण है कि इस्लाम उनके सांसारिक हितों की पूर्ति में बाधा है।
मनुष्य का वास्तविक सहायक, ईश्वर है और जो कोई अपने कर्मों द्वारा ईश्वरीय दया को स्वयं से दूर कर लेता है, वह वास्तव में अपने सहायक को दूर कर लेता है। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 53-57 (कार्यक्रम 132)
﷯आइये पहले सूरए निसा की 53वीं, 54वीं और 55वीं आयतों की तिलावतों की सुनें।
أَمْ لَهُمْ نَصِيبٌ مِنَ الْمُلْكِ فَإِذًا لَا يُؤْتُونَ النَّاسَ نَقِيرًا (53) أَمْ يَحْسُدُونَ النَّاسَ عَلَى مَا آَتَاهُمُ اللَّهُ مِنْ فَضْلِهِ فَقَدْ آَتَيْنَا آَلَ إِبْرَاهِيمَ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَآَتَيْنَاهُمْ مُلْكًا عَظِيمًا (54) فَمِنْهُمْ مَنْ آَمَنَ بِهِ وَمِنْهُمْ مَنْ صَدَّ عَنْهُ وَكَفَى بِجَهَنَّمَ سَعِيرًا (55)
क्या यहूदियों का यह विचार है कि उन्हें सत्ता में भाग प्राप्त हो जायेगा कि यदि ऐसा हुआ तो वे किसी को थोड़ा सा भी नहीं देंगे। (4:53) या यह कि वे मुसलमानों से जो कुछ ईश्वर ने उन्हें अपनी कृपा से दिया है, उसके कारण ईर्ष्या करते हैं। नि:संदेह हमने इब्राहिम के परिवार को किताब व तत्वदर्शिता दी है और उन्हें महान सत्ता प्रदान की है। (4:54) तो उनमें से कुछ ऐसे थे जो ईमान लाये और कुछ अन्य न केवल यह कि ईमान नहीं लाए बल्कि दूसरों के ईमान लाने में बाधा बने और उनके दंड के लिए नरक की धधकती हुई ज्वालाएं काफ़ी हैं। (4:55)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि यहूदियों ने मदीने के मुसलमानों पर विजय प्राप्त करने के लिए मक्के के अनेकेश्वरवादियों से सहायता चाही और उनके साथ सांठ गांठ के लिए तैयार हो गये। ये आयतें उन्हें संबोधित करते हुए कहती हैं क्या तुम लोग सत्ता और शासन प्राप्त करने की आशा में यह काम कर रहे हो जबकि तुम में इस पद और स्थान की योग्यता नहीं है क्योंकि विशिष्टता, प्रेम और सत्तालोलुपता की भावना तुममें इतनी अधिक है कि यदि तुम्हें सत्ता और शासन प्राप्त हो जाये तो तुम किसी को कोई अधिकार नहीं दोगे और सारी विशिष्टताएं केवल अपने लिए रखोगे।
इसके अतिरिक्त तुम मुसलमानों के शासन को क्यों सहन नहीं कर सकते और उनसे ईर्ष्या करते हो? क्या ईश्वर ने इससे पहले के पैग़म्बरों को, जो हज़रत इब्राहिम के वंश से थे, शासन नहीं दिया है जो यह तुम्हारे लिए अचरज की बात है? क्या ईश्वर हज़रत मूसा, सुलैमान और दावूद को आसमानी किताब और शासन नहीं दे चुका है जो तुम आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और मुसलमानों को आसमानी किताब और शासन मिलने के कारण उनसे ईर्ष्या करते हो? यहां तक कि ग़लत फ़ैसला करके अनेकेश्वरवादियों को मुसलमानों से बेहतर बताते हो?
इसके पश्चात क़ुरआन मजीद मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है। यह बात दृष्टिगत रहे कि उस समय के लोगों में भी कुछ ईमान लाये और कुछ ने विरोध किया। तो तुम भी इस बात से निराश मत हो कि यहूदी इस्लाम नहीं लाते और ईर्ष्या करते हैं और जान लो कि अतीत में भी ऐसा होता रहा है।
इन आयतों से हमने सीखा कि हमें अपने शत्रु को पहचानना और अपनी धार्मिक स्थिति को सुदृढ़ व सुरक्षित रखना चाहिये। यदि वे सत्ता में आ गये तो हमें अनदेखा कर देंगे।
कंजूसी, संकीर्ण दृष्टि और अन्यायपूर्ण फ़ैसले, भौतिकवाद और सत्तालोलुपता की निशानियां हैं।
दूसरों के पास जो कुछ है वह ईश्वर की कृपा से है और जो कोई ईर्ष्या करता है वो वास्तव में ईश्वर की इच्छा पर आपत्ति करता है दूसरों की अनुकम्पाओं की समाप्ति की कामना करने के बजाये ईश्वर की दया व कृपा की आशा रखनी चाहिये।
सभी लोगों द्वारा ईमान लाने की आशा एक ग़लत आशा है। ईश्वर ने लोगों को मार्ग के चयन में स्वतंत्र रखा है।
आइये अब सूरए निसा की 56वीं आयत की तिलावत सुनें।
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا بِآَيَاتِنَا سَوْفَ نُصْلِيهِمْ نَارًا كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُودُهُمْ بَدَّلْنَاهُمْ جُلُودًا غَيْرَهَا لِيَذُوقُوا الْعَذَابَ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَزِيزًا حَكِيمًا (56)
निसंदेह जिन लोगों ने हमारी निशानियों का इंकार किया हम शीघ्र ही उन्हें नरक में डाल देंगे जहां उनकी जितनी खाल जलेगी उसके स्थान पर हम दूसरी खाल ले आयेंगे ताकि वे कड़े दंड का स्वाद चख सकें। निसंदेह ईश्वर प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (4:56)
पिछली आयतों के पश्चात कि जो पैग़म्बरों और उनकी ईश्वरीय शिक्षाओं के प्रति कुछ लोगों के द्वेष व हठ को स्पष्ट करती थीं यह आयत प्रलय में उनको मिलने वाले कड़े दंड की ओर संकेत करती है जो उनके कर्मो के अनुकूल होंगे क्योंकि जो कोई जीवन भर सच के सामने डटा रहा और हर क्षण अपने द्वेष व शत्रुता में वृद्धि करता रहा वह स्थाई दंड पाने के योग्य है। इसी कारण यह आयत कहती है कि अवज्ञाकारी और पथभ्रष्ठ यह न सोचें कि प्रलय में एक बार दंडित किये जाने के पश्चात उन्हें दंड नहीं दिया जायेगा, नहीं बल्कि उन्हें निरंतर दंड दिया जाता रहेगा और उनकी जली हुई खाल नई खाल में परिवर्तित हो जायेगी और उन्हें नया दर्द तथा नया दंड मिलता रहेगा।
इस आयत से हमने सीखा कि प्रलय में दण्ड की निरंतरता उसकी पीड़ा में कमी का कारण नहीं बनेगी।
प्रलय आत्मिक नहीं शारीरिक होगा अर्थात केवल लोगों की आत्मा नहीं बल्कि उनके शरीर व खाल पर दंड दिया जायेगा।
ईश्वरीय दंड हमारे कर्मों के आधार पर हैं न यह कि ईश्वर अपने बंदों पर अत्याचार करता है क्योंकि वह तत्वदर्शी है और तत्वदर्शिता के आधार पर अपने बंदों के साथ व्यवहार करता है।
आइये अब सूरए निसा 57वीं आयत की तिलावत सुनें।
وَالَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ سَنُدْخِلُهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا لَهُمْ فِيهَا أَزْوَاجٌ مُطَهَّرَةٌ وَنُدْخِلُهُمْ ظِلًّا ظَلِيلًا (57)
और जो लोग ईमान लाए और भले कर्म करते रहे हम शीघ्र ही उन्हें ऐसे बाग़ों में प्रविष्ट कर देंगे जिनके नीचे से नहरें बह रही होंगी, जहां वे सदैव रहेंगे वहां उनके लिए पवित्र पत्नियां होंगी और हम उन्हें स्थायी छाया वाले स्वर्ग में प्रविष्ट कर देंगे। (4:57)
प्रलय में काफ़िरों को मिलने वाले कड़े दंड का उल्लेख करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर ईमान वालों को मिलने वाले महान पारितोषिक की ओर संकेत करते हुए कहता है कि यदि ईश्वर पर ईमान और आस्था के साथ ही भले कर्म किये गये तो प्रलय मंए ऐसे लोगों को बहुत अच्छा स्थान प्राप्त होगा और ईश्वर ने उनके लिए घने पड़ों वाले स्वर्ग को तैयार कर रखा है जिनकी छाया स्थायी होगी।
वे प्रलय में अकेले नहीं होंगे बल्कि पवित्र पत्नियां उनके साथ होंगी ताकि वे पूर्ण रूप से प्रसन्न रह सकें। ये ऐसे लोग होंगे जिन्होंने संसार में अनेक आनंदों को छोड़ दिया होगा और अपवित्र वस्तुओं तथा बातों को स्वयं के लिए वर्जित कर दिया होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि यद्यपि मनुष्य मार्ग के चयन में स्वतंत्र है परंतु कर्मों के परिणाम स्वाभाविक हैं न कि चयनित। कुफ़्र का परिणाम दंड होगा तथा ईमान का परिणाम शांति व सुरक्षा।
पवित्रता हर स्त्री व पुरुष के लिए एक मान्यता है। इसी कारण ईश्वर ने स्वर्ग की पत्नियों के वर्णन में उनके लिए सुन्दरता के स्थान पर पवित्रता पर बल दिया है। {jcomments on}

कमाल यह की पापियों की जगह धर्म बदनाम हो रहा है ।

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धार्मिक इंसान अपने गुनाहो की तौबा के लिये अल्लाह का सहारा नही लेता बल्कि अपने गुनाहो को दुनियावालों से छुपाने के लिये धर्म का सहारा लेता है |


जबकि होना यह चाहिए कि यदि अल्लाह ,भगवान ,ईश्वर पे यक़ीन है तो उसके बताये रास्ते पे चलें और पाप हो जाए तो उसकी माफी मांगे और कभी ना दोहराने का प्रण करें ,ना की धार्मिक बन के उसे लोगो से छुपाये और करते रहे ।

लेकि भाई आज कल ढोंगियों का ज़माना है और उन्ही का राज है और उसपे कमाल यह की पापियों की जगह धर्म बदनाम हो रहा है ।

इंतेक़ाल के बाद भी मां की दुआ काम करती है |

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अगर कोई शक्स अपने मां बाप के इन्तेक़ाल के बाद उनसे अपनी मुहब्बत का इजहार करना चाहता है , उन्हे ख़ुशी देना चाहता है तो उनके इन्तेक़ाल के बाद अपने भाई बहनो से ऐसे मुहब्बत करो जैसे आपके मां बाप किया करते थे | मां बाप के इन्तेक़ाल के बाद अपने भाई बहनो से दूरी मां बाप को तकलीफ उनकी मौत के बाद भी देती है |
































कर्बला का पैग़ाम और कर्बला से मिली सीख

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कर्बला का पैग़ाम और कर्बला से मिली सीख

1. अमर बिल मारूफ और नही अनिल-मुनकर का महत्त्व
कर्बला का वाक़या हमें सिखाता है की सीधे रास्ते से न हटना और न ही अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना! आखेरत पर यक़ीन रखना और आखेरत में अपना अंजाम दिमाग में रखनाचाहे दुश्मन कितना ही ताक़तवर हो और चाहे इस से सामना करने के नतीजे कुछ भी हों! हाँ! मगर यह मुकाबला इल्म और शरियत के साथ हो! हिम्मत नहीं हारना और यह न कहना की हम क्या कर सकते हैं चाहे हमारे  दुश्मन (मीडिया और समाज में फैले हुए हों) के सामने हमारी औकात न हो हमें अपना काम करते रहना है और हमें यह हमेशा यक़ीन रखना है की हम इस पर काबू पा सकते हैं और लगातार जंग करते रहना हमारे बस में और ताक़त में है और परीणाम अल्लाह पर छोड़ना है!
2. तक़लीद और आलीम की सुहबत में रहनान की अपनी राये क़ायेम करना
एक बार अपने रहबर और आलिम पर यक़ीन होने के बाद इसकी राये पर अमल करना बगैर किसी झिझक के और बगैर अपनी राये के फ़िक़ह (इस्लामी क़ानून) की अहमियत बीबी ज़ैनब (स:अ) के हवालेहमें इस वाक्य में नज़र आती है के जब खैमे जल रहे थे और इमाम वक़्त (अ:स) से मस-अला पूछा जा रहा था!
3. क़ुरान का महत्व :
हत्ता की इमाम हुसैन (अ:स) का सरे-मुबारक नैज़े पर बुलंद है और तिलावत जारी है,
4. दीनी तालीम का महत्त्व और शरीके हयात क़ा चुनाव :
हमें दो मौकों पर नज़र आता है जब इमाम अली (अ:स) ने उम्मुल-बनीन (स:अ) का चुनाव किया हज़रत अब्बास (अ:स) के लिएऔर दूसरी जगह पर जहाँ इमाम हुसैन (अ:स) ने यजीदी फौजों को मुखातिब किया के यह ईन के पूर्वजों की तरबियत और गलतियों का नतीजा है की इमाम (अ:स) के मुकाबले पर जंग कर रहे हैं!
5. पति और पत्नी का रिश्ता
कर्बला हमें सिखाती है की पत्नीपाती के लिए राहत लायेजैसे इमाम हुसैन (अ:स) की कथनी है की रबाब (स:अ) और सकीना (स:अ) के बगैर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता! पत्नी अपने पती को खुदा का हुक्म मानने से न रोकेजैसे बीबी रबाब (स:अ) ने इमाम हुसैन (अ:स) को न रोका हज़रत असग़र (अ:स) को ले जाने से!  कभी कभार हमारी औरतें अपने पती को अपने बगैर हज पर जाने से रोकती हैं! औरतों को चाहिए की वो अपने पतियों के लिए मददगार बनें और उनकी हिम्मत बढायें हुकूक-अल्लाह (दैविक कर्त्तव्य) और हुकूक-अन्नास (सामाजिक कर्त्तव्य) को पूरा करने में!
6. इल्म (ज्ञान) की अहमियत (महत्त्व):
ताकि जिंदगियां अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक गुजारी जा सकें! इमाम (अ:स) की कुर्बानी का मकसद ज़्यारत अर-ब'ईन में चार अक्षरों में ब्यान किया गया है के "मैं गवाही देता हूँ के कुर्बानी का मुकम्मल (कुल) मकसद बन्दों को जहालत से बचाना था!
7. इखलास (भगवान् का कर्त्तव्य समझ करभगवान् की राह में अच्छा काम करो) :   
सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के लिए अपनी जिम्मेदारियों को अंजाम देनाबगैर किसी रबा (दिखावे) केकयामत पर मुकम्मल यक़ीन ही संसारिक फायदों और आराम को कुर्बान करके आखेरत के लिए हमेशा रहने वाला फायेदा हासिल करवा सकता है!
8. जज़्बात (भावनाओं) पर काबू
जब अल्लाह की ख़ातिर अमल होइस के साथ अपने जज़्बात (भावना) का प्रदर्शन बगैर सुलह के खुदा की ख़ातिर करो!
9. पर्दा का महत्त्व :
ना-महरमों (जो करीबी रिश्तेदार न हों)  से दूर रहना चाहे वोह करीबी रिश्तेदार ना-महरम हों या करीबी खानदानी दोस्त हों!
10. इमाम सज्जाद (अ:स) ने कहा की मेरा मानने वाला गुनाह से बचेदाढ़ी न मुडवाये और जुआ न खेले क्योंकि यह यज़ीदी काम हैं और हमें उस दिन की याद दिलाते हैं!
11. नमाज़ का महत्त्व : यह जंग के बीच में भी पढी गयी
12. अज़ादारी और नमाज़ दोनों मुस्तकिल वाजिब हैंऔर उनका टकराव नहीं जैसा की इमाम सज्जाद (अ:स) खुद सब से बड़े अजादार भी थे और सब से बड़े आबिद (नमाज़ी) भी!
13. ख़ुदा की मर्ज़ी के आगे झुकनाहर वक़्तहर जगह परइमाम (अ:स) ने सजदा-ए शुक्र बजा लाया जब की वोह मुसीबत में थेहमें भी चाहिए की पता करें की खुदा की मर्ज़ी क्या हैइस को माँ लेंऔर इस पर अमल करें!
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम व क़ियाम के उद्देश्य

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि----

1—
जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।

2—
एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।

3— 
जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तोआपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह कोप्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।

4—
एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है।
इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं-------

1-
इस्लामी समाज में सुधार।

2-
जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।

3-
जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।

4-
हज़रत पैगम्बर(स.) और हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) को किर्यान्वित करना।

5-
समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।

6-
अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में होजो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।
 
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम
1-बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।

2-
बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।

3-
कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुईकि हमने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।

4- 
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।

5-
इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।

6-
समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम आंदोलन के शुरू में मदीने से मक्के क्यों गए?

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इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम आंदोलन के शुरू में मदीने से मक्के क्यों गए?

मदीने से इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम के निकलने का कारण यह था कि यज़ीद ने मदीने के शासक वलीद इब्ने अतबा के नाम ख़त में हुक्म दिया था कि मेरे कुछ विरोधियों से (जिनमें से एक इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम भी थे) ज़रूर बैयत ली जाए और बिना बैयत लिए उनको छोड़ा न जाए। (वक़अतुत तफ़, पेज 57) 

वलीद अगरचे अपनी शांतिपूर्ण कार्यपद्धति के कारण अपने हाथों को इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ून में रंगने को तय्यार नहीं था। (इब्ने आतम, अलफ़ुतूह, जिल्द 5, पेज 12, वक़अतुत तफ़, पेज 81) 

लेकिन मदीने में अमवी ग्रुप के कुछ लोगों ने (ख़ास कर मरवान इब्ने हकम जिससे वलीद सख़्त अवसरों पर तथा इस मामले में सलाह, मशवरा करता था।) उस पर सख़्त दबाओ डाला कि वह इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम को क़त्ल कर दे, इसी लिए जैसे ही यज़ीद का ख़त पहुँचा और वलीद ने मरवान से मशवरा किया तो मरवान बोला कि मेरी राय यह है कि अभी इसी समय उन लोगों को बुला भेजो और उनको यज़ीद की बैयत व अनुसरण पर मजबूर करो और अगर विरोध करें तो इसके पहले कि उन्हें मुआविया के मरने की ख़बर मिले, उनके सर व तन में जुदाई कर दो इसलिए कि अगर उन्हें मुआविया के मरने की सूचना हो गई तो उनमें हर कोई एक तरफ़ जा कर विरोध करेगा और लोगों को अपनी तरफ़ बुलाना शुरू कर देगा। (वक़अतुत तफ़, पेज 77)


इस आधार पर इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस बात को देखते हुए की मदीने के हालात, ख़ुल्लम ख़ुल्ला विरोध प्रकट करने और उठ खड़े होने के लिए उचित नहीं है, तथा किसी प्रभावी आंदोलन की सम्भावना के बिना इस शहर में अपनी जान को ख़तरा भी है, मदीने को छोड़ने का फ़ैसला किया और मदीने से निकलते समय जिस आयत की आपने तिलावत की उससे यह बात (कि मदीना शहर छोड़ने का कारण सुरक्षा के न होने का एहसास है।) साफ़ पता चलती है, अबू मख़नफ़ के लिखने के अनुसार इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम ने 27 रजब की रात या 28 रजब को अपने अहलेबैत के साथ इस आयत की तिलावत फ़रमाई (वक़अतुत तफ़, पे 85, 186) 

जो मिस्र से निकलते समय असुरक्षा के एहसास के कारण क़ुर्आन हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की ज़बानी बयान कर रहा हैः
मूसा शहर से भयभीत निकले और उन्हें हर क्षण किसी घटना की आशंका थी, उन्होंने कहा कि ऐ परवरदिगार मुझे ज़ालिम व अत्याचारी क़ौम से नेजात दे। (सूरए क़ेसस, 21)

आपने मक्के का चयन ऐसे समय में किया कि अभी मुख़्तलिफ़ शहरों के लोगों को मुआविया के मरने की ख़बर नहीं थी और यज़ीद के विरोध में वास्तविक संघर्ष का आरम्भ नहीं हुआ था और अभी इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम को कूफ़ा और दूसरे शहरों से बुलाने का सिलसिला शुरू नहीं हुआ था इसलिए इमाम को हिजरत (प्रस्थान) के लिए एक जगह का चयन करना ही था ताकि एक तो आज़ादी के साथ सिक्योरिटी के माहौल में वहाँ अपने नज़रिये को बयान कर सकें और दूसरे अपने नज़रिये को वहाँ से पूरी इस्लामी दुनिया तक पहुंचा सकें, मक्का शहेर में दोनो बातें मौजूद थीं, क्योंकि क़ुर्आन के साफ व स्पष्ट शब्दों के अनुसार कि (व मन दख़ला काना आमेना)(सूरए आले इमरान, 97) 

मक्का इलाही हरम था, तथा इस बात के दृष्टिगत कि काबा इसी शहर में है और पूरी इस्लामी दुनिया से मुस्लमान हज व उमरा के आमाल बजा लाने के लिए यहाँ वारिद होंगे इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम मुख़तलिफ़ गिरोहों से बाक़ाएदा मुलाक़ात कर सकते थे और यज़ीदो बनी उमय्या के शासन के विरोध की वजह उन से बयान कर सकते थे तथा इस्लामी अहकाम और मुआविया के कुछ पहलुओं को उजागर कर सकते थे और कूफ़ा और बसरा और दूसरे इस्लामी शहरों के विभिन्न गिरोहों से सम्बंध भी रख सकते थे। इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम जुमे की रात 2 शाबान स0 60 हीजरी को वारिदे मक्का हुए और उसी साल की 8 ज़िलहिज्जा तक उस शहर में अपनी सरगर्मियों में मसरूफ़ रहे।

आज ३ शबान हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के नवासे इमाम हुसैन (अ.स) का जन्म दिवस है

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आज ३ शबान हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के नवासे इमाम हुसैन (अ.स) का जन्म दिवस है | ये वो शक्सियत है जिसे दुनिया मे नेकी फैलाने और बुराई मिटाने के लिये याद किया जाता है| लेकिन दुनिया से बुराई मिटाते हुये करबला के बियाबान मे इंसानियत के दुश्मन ने उन्हे शहीद कर दिया और अपने अंतिम समय मे इमाम हुसैन (अ.स) ने एक सदा बलंद की "है कोई मदद करने वाला जो दुनिया के हर दौर मे समाज मे आने वाली बुराईयो के खिलाफ लडता रहे ?

और इसी के साथ यह भी कहा कि दुनिया मे बुराई इसलिये नहीं फैल रही कि बुरे लोग अधिक है , बलकि इसलिये फैल रही कि अच्छे लोग चुप है |
अभी भी समय है इमाम हुसैन (अ.स) के चाहने वालो अपने इमाम कि आवाज "है कोई मदद करने वाला"को सुनो और समाज मे व्याप्त बुराईयो के खिलाफ आवाज उठाओ और नेक , अच्छे लोगो का साथ दो |
इंसानियत के पैगाम देने वाले है इमाम हुसैन (अ.स) का जन्मदिन सभी को मुबारक |

दिल दुखी है तो पढिये सूरए बक़रह की ये आयत |

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क़ुरान मे बहुत से आयत है जिनका इस्तेमाल परेशानी मे भी इन्सान किया जैसे आयताल कुर्सी पढने से इन्सान मह्फुज रहता है इत्यादी | मुझे किसी ने बताया कि अगर आप दुखी है तो क़ुरान से सूरए बक़रह की २५ वी आयत पढे| मैने सोचा चलो सूरए बक़रह की २५ वी आयत का तर्जुमा पढ के देखा जाये ऐसा क्या कहा गया है इस आयत मे कि दुख दूर हो जायगा |

पता चला अल्लाह इस आयत मे बता रहा है कि जो लोग दुनिया मे अच्छे काम करते है उन्हे ये सूचना दे दिया जाय कि अल्लाह कि नेमते उनके लिये है |

बात साफ हो गयी कि दुखो कि कारण हमारे बुरे काम है इसलिये इस आयत को पढो समझो , नेकी करो दुख दूर अवश्य हो जायेगे |

सूरए बक़रह की २५वीं आयत

और जो लोग ईमान ले आए और अच्छे कार्य करते रहे उन्हें यह शुभ सूचना दे दीजिए कि उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। इन बाग़ों में से जब भी कोई फल उन्हें दिया जाएगा तो वे कहेंगे यह तो वही है जो हमें पहले दिया गया था जबकि जो उन्हें दिया गया होगा वह उससे मिलता-जुलता होगा। उनके लिए वहां पवित्र जोड़े होंगे और वे वहां सदैव रहेंगे। (2:25)

यह आयत मोमिनों के भविष्य का वर्णन कर रही है ताकि इन दोनों गुटों के परिणामों को देखकर वास्तविकता और अधिक स्पष्ट हो जाए। अलबत्ता ईमान केवल उसी समय लाभदायक होगा जब वह अच्छे कामों के साथ हो, केवल ईमान और अच्छे कार्यों से ही मनुष्य को मोक्ष और सफलता प्राप्त हो सकती है। ईमान, पेड़ की जड़ की भांति है और अच्छे कर्म उसके फलों के समान, मीठे फलों का अस्तित्व मज़बूत जड़ का और मज़बूत जड़ का अस्तित्व अच्छे फलों का प्रमाण है। जिनके पास ईमान नहीं होता वे कभी-कभार अच्छे कार्य करते हैं परन्तु चूंकि ईमान उनके असितत्व की गहराई में जड़ें नहीं पकड़ता इसीलिए उनका ईमान स्थाई नहीं होता।


 प्रलय में ईमान वालों का स्थान स्वर्ग है जिसके बाग़ सदाबहार हैं और उनमें सदा फल लगे रहते हैं। उनके नीचे नहरें हमेशा बहती रहती हैं। यद्यपि स्वर्ग के फल विदित रूप से तो संसार के फलों के समान हैं ताकि स्वर्ग वाले उन्हें पहचान सकें परन्तु स्वाद व महक की दृष्टि से वे फल पूर्ण रूप से भिन्न हैं। प्रलय में प्रजनन नहीं है परन्तु चूंकि मनुष्य को दंपति की आवश्यकता होती है अतः ईश्वर ने स्वर्ग के लोगों के लिए स्वर्ग के जोड़े बनाए हैं जिनकी असली विशेषता पवित्रता है।

 यद्यपि क़ुरआन की अनेक आयतों में स्वर्ग की भौतिक विभूतियों जैसे बाग़, महल, इत्यादि का वर्णन किया गया है परन्तु कुछ अन्य आयतों में स्वर्ग की आध्यात्मिक विभूतियों का भी वर्णन किया गया है। सूरए तौबा की बारहवीं आयत में स्वर्ग की भौतिक विभूतियों के उल्लेख के पश्चात कहा गया है ईश्वर की प्रसन्नता इन सबसे बढ़कर है। और सूरए बक़रह की आठवीं आयत में कहा गया है कि अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे उससे राज़ी हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि विभूतियों के बारे में जो कुछ क़ुरआन में आया है वह स्वर्ग में रहने वालों के स्थान को दर्शाता है न कि उन्हें मिलने वाले समस्त उपहारों को, बल्कि पैग़म्बरों, पवित्र लोगों और मानव इतिहास के नेक लोगों के बीच रहना, स्वर्गवासियों के आध्यात्मिक आनंदों में से है।

इस आयत से हमनें यह बातें सीखीं।

उचित प्रशिक्षण के लिए प्रेरणा और भय दोनों का साथ होना आवश्यक है। काफ़िरों को दोज़ख़ अर्थात नरक की धमकी देने के साथ ही यह आयत मोमिनों को स्वर्ग की शुभ सूचना देती है।
ईमान की निशानी नेक और अच्छा कार्य है। इसीलिए क़ुरआन इन दोनों का सदैव एक साथ उल्लेख करते हुए कहता है कि ईमान लाओ और अच्छे कार्य करते रहो।

पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में अच्छा कार्य वह है जो ईश्वर के सामिप्य के उद्देश्य से किया गया हो। हर वह अच्छा कार्य जो निजी इच्छाओं या सामाजिक आकर्षण के अंतर्गत किया गया हो, अच्छा नहीं होता इसी कारण अच्छे कार्य का ईश्वर पर ईमान के पश्चात उल्लेख किया गया है।

हलाल और हराम के संबन्ध में मोमिन जिन वस्तुओं से वंचित रहता है स्वर्ग में उनकी पूर्ति कर दी जाएगी।
सांसारिक वैभव और आनंद समाप्त होने वाले हैं इसी कारण जब यह हाथ से निकल जाते हैं तो मनुष्य दुखी होता है परन्तु प्रलय के उपहार और आनंद, सदैव रहने वाले हैं इसीलिए मनुष्य को उनके समाप्त होने की चिंता नहीं होती। जैसा कि इस आयत मे कहा गया है कि स्वर्गवासी यहां पर सदैव रहेंगे।

उचित जीवन साथी वह है जो हर प्रकार से पवित्र हो। हृदय और आत्मा की दृष्टि से भी और शारीरिक रूप से भी। अतः इस आयत में स्वर्ग के जीवन साथियों की विशेषता बताते हुए कहा गया है, पवित्र जीवन साथी।

दोस्त की तळाश है तो पढे सूरए बक़रह की २५७ आयत |

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अल्लाह विश्वास रखने वालों का स्वामी है और उन्हें अंधकारों से प्रकाश की ओर ले जाता है और इन्कार करने वालों के स्वामी झूठे ख़ुदा होते हैं जो उन्हें प्रकाश से निकाल कर अंधकार में ढकेल देते हैं। वे नरक वाले हैं जहां वे सदैव रहेंगे। (2:257)


ईमान या धर्मविश्वास मन की एक ऐसी क्रिया है जो बलपूर्वक नहीं करवाई जा सकती बल्कि तर्क, उपदेश और शिष्टाचार वह तत्व हैं जो किसी भी व्यक्ति को किसी धर्म के अधीन कर देते हैं। अल्लाह ने मनुष्य के विकास और उसकी परिपूर्णता के लिए एक ओर तो पैग़म्बरों और आसमानी किताबों को भेजा ताकि मनुष्य को सही और ग़लत मार्ग की पहचान हो जाए और दूसरी ओर उसे यह अधिकार दिया कि वह जिसका चाहे चयन करे। यही कारण है कि ईश्वरीय दूतों ने भी किसी को ईमान लाने पर विवश नहीं किया क्योंकि ज़बरदस्ती के ईमान और विश्वास का कोई महत्व नहीं होता।

 अब अगर कोई पापी और अत्याचारी की अधीनता से निकल कर केवल अल्लाह का दास बन जाए तो वह ईश्वर के स्वामित्व में चला जाता है और ईश्वर स्वयं उसके मामलों की देखरेख करता है कुछ इस प्रकार कि जीवन के हर मोड़ पर सदैव उसका सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है और उसे विभिन्न ख़तरों से सुरक्षित रखता है। किंतु दूसरी और यदि कोई ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य से आशा बांधे और उसपर भरोसा करे तो उसे जान लेना चाहिए कि उसने अपने आप को अंधकार के हवाले कर दिया है और वह लोग प्रकाश का कोई छोटा सा झरोखा भी उसके लिए नहीं छोड़ेंगे।

इस आयत से मिलने वाले पाठः

उस धर्म का महत्व होता है जो जानकारी और पहचान पर आधारित हो तथा जिसे स्वंतत्रता एवं स्वेच्छा से ग्रहण किया गया हो।सत्य का मार्ग प्रकाश है जो मार्गदर्शन, आशा और शांति का कारण होता है किंतु असत्य का मार्ग अंधकार है कि जो पथभ्रष्टता, अज्ञानता और व्याकुलता का कारण बनता है।

तकलीद किसकी करें -ज़रूरी मसायल |

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हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अहमद अली आबेदी साहब के मुंबई खोजा जामा मस्जिद के तारीखी ख़ुत्बे  के बाद उम्मत ए तशय्यो में एक ज़िम्मेदाराना बदलाव देखने में आ रहा है. लोग कई बातो पर इल्मी बहस करते दिखाई दिए और सोशल नेटवर्क साइट्स पर भी एक ज़िम्मेदाराना गुफ्तगू का आग़ाज़ हुआ है।

ज़्यादातर लोग क़ुम के ओलमा की अंजुमन “जामे मुदर्रिसीन” के बारे में इल्म हासिल करने की कोशिश करते दिखे वही पर लोग ओलमा की तरफ से शाया दीनी मरजा की फेहरिस्त पर भी गुफ्तगू करते दिखाई दिए।

अल्लाह के फ़ज़लो करम से मौलाना के ख़ुत्बे ने तक़लीद और मरजईयत को हिंदुस्तान में, ख़ुसूसन मुंबई में, एक नया जोश और रास्ता दिया है।

अभी तक लोग इस बात से ग़ाफ़िल थे कि  हमारे ओलमा इस तरह का इज्तेमाई फैसला भी लेते है और ऐसी कोई ओलमा की अंजुमन भी है जो अवाम के बारे में इतना सोचती है और उसके मुताबिक़ फैसले भी लेती है।

अल्हम्दुलीलाह मौलाना ने अपने ख़ुत्बे  में इस बात को वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर कर के लोगो को सोचने और इस सिम्त में आगे बढ़ने का एक नया रास्ता दिया है। इस चीज़ से ख़ुसूसन क़ौम के नौजवान काफी जोश और जज़्बे के साथ इल्मी गुफ्तगू में आगे दिखाई दे रहे है।

एक तरफ जहाँ क़ौम को मरजईयत से दूर ले जाने की कोशिश की जा  रही है और साथ में कई सारे शक  और शुबे नौजवानो के ज़हन में डाले जा रहे है, मसलन:

  • एक मुजतहिद जिसे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा का दर्जा दिया है, उसे मुजतहिद न समझना
  • दूसरे मुजतहिद जिन्हे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है उनकी तक़लीद करना
  • अगर किसी आम इंसान को समझ नहीं आ रहा है कि आलम कौन है, तो  वह इंसान किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करे
  • और बहोत से सवलात

लेकिन अल्लाह के फज़ल से, मौलाना आबेदी ने अपने जुमे के ख़ुत्बे में इन सब बातो को एक बुनियादी बात से रद्द कर दिया कि मरजा कोई भी मुजतहिद नहीं बन सकता, जब तक जामे मुदर्रिसीन उस मुजतहिद को मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं कर लेती।

अब सवाल ये उठता है कि लोग अपनी मनघडत बातो को दीन का हिस्सा कैसे बना लेते है? और इन गलत फ़हमियों को कैसे दूर किया जाए?

जिस तरह से मौलाना अहमद अली आबेदी साहब ने आगे बढ़ कर क़ौम के दर्द और ज़रूरत को समझा और एक अहम मसला लोगो के सामने पेश किया, ओलमा को चाहिए कि वो भी इसी तरह अवामुन्नास के ज़रूरी मसाइल को समझ कर खुलके बात करे।

हालांके मौलाना आबेदी साहब ने अपने ख़ुत्बे के आखरी हिस्से में चंद  दीगर मुजतहिद के नाम भी लिए थे, जो की क़ाबिले एहतेराम मुजतहिद और ओलमा है, लेकिन जामे मुदर्रिसीन ने उन्हें मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है।

ये आज अहम चीज़ है की हम इस मसले की अहमियत को समझे और बारीकी से इसका मुतालेआ करे कि क्या किसी ग़ैर मुजतहिद को ये हक़ बनता है कि वो मरजा का अपने मन से ऐलान करे? क्या किसी राह चलते आम आदमी को ये इख्तियार है कि वो जिसे चाहे अपना मरजा मान ले और दुसरो को भी उसे मानने को कहे?

ऐसी कई चीज़े है जो क़ौम को आगे बढ़कर सीखनी होगी और आगे आने वाली नस्लों तक तक़लीद की अज़ीम नेमत पहुचानी  होगी।

एक और मसला आजकल कुछ लोग आम कर रहे है वो ये है कि ऐसे मुजतहिद की तक़लीद करो जिसके मसले मेरे मन से ज़्यादा मिलते है। मसलन अगर मै चाहता हु कि बैंक का सुद (interest) इस्तेमाल करू और फ़र्ज़ करे की आलम उसे हराम जानता है, तो मै किसी ऐसे मुजतहिद को तलाश करू जो उसे जायज़ जाने और फिर मै उसकी तक़लीद करू। ये हरकत बिलकुल गलत है और असलन फिकरे मरजईयत के खिलाफ है।

अस्ल में हमें चाहिए कि आलम को तलाश करे और उसके मसाइल के हिसाब से अपनी ज़िन्दगी बसर करे।

अल्लाह का करम और अहसान है की उसने हमें ज़िम्मेदार और बबसीरत ओलमा से नवाज़ा है जो क़ौम की ज़रूरत समझ कर मसाइल को पेश करते है।

अल्लाह हमें अपने  ओलमा की पैरवी करने की तौफ़ीक़ अता करे और हमारे मुज्तहेदीन ओ ओलमा की हमेशा हिफाज़त करे। 


जैसा के हम सब जानते है के आज कल हिंदुस्तान के शिओ में तक़लीद को  ले कर काफी सारी फ़िक्रे उभर रही है, इस को हल करने की कोशिश आली जनाब हुज्जतुल इस्लाम मौलाना सय्यद अहमद अली आबेदी साहबने अपने पिछले हफ्ते (28/11/2014)  खोजा मस्जिद, डोंगरी, मुंबई के जुमे के ख़ुत्बे में की. 

मौलाना आबेदी ने अपने ख़िताब का आग़ाज़ में लोगो को ईरान के शहर, क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा की अंजुमन, “जामा ए मुदर्रिसीन”, से आश्ना कराया और इस बात पर ज़ोर दिया की ये रस्ते पर चलने वाले लोगो की नहीं बल्कि हक़ीक़तन बुज़ुर्ग ओलमा की जमाअत है. 

मौलाना आबेदी साहब के बक़ौल, जामे मुदर्रिसीन क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा जिसमे आयतुल्लाह मकरेम शिराज़ी, आयतुल्लाह सफी गुलपैगानी, आयतुल्लाह नूरी हमदानी, आयतुल्लाह ख़ामेनईऔर  दीगर  मुज्तहेदीन की जमात है. इस जमात का एक अहम काम है कि सारी दुनिया के लिए “आलम” का इन्तेखाब है.


आलमकौन होता है?और क्या हमें उसे जान कर मानना ज़रूरी है?


फ़िक्रे मरजईयत के मुताबिक़ हर शिया के लिए दीनी कामियाबी के तीन राहे हल है:

  1. खुद इज्तिहाद करे और मुजतहिद बने (दिनी पढाई कर के)
  2. एहतियात पर अमल करे (ये काफी मुश्किल अमल है जिसमे हमे सारे बुज़ुर्ग मुजतहिद के फतवो को सामने  रखते हुए सबसे मुश्किल फतवे पर अमल करना होता है)
  3. ऐसे शख्स की तरफ रुजू करे (तक़लीद करे) जो दिनी लिहाज़ से सबसे ज़्यादा  इल्म रखता हो

यहाँ पर हमे इस बात की तरफ ध्यान देने की ज़रूरत है की अवाम कैसे जान सकती  कि सबसे ज़्यादा  इल्म किस आलिम के पास है?

इस सवाल को हल करने के लिए जामे मुदर्रिसीन काम करती है. क़ौम के बुज़ुर्ग ओलमा एक साथ जमा हो कर फैसला करते है कि कौन कौन  मुजतहिद मरजा बनने के दर्जे पर फ़ाइज़ होते है.  फिर इन ओलमा के नामो का  अवाम में ऐलान किया जाता है.

जामे मुदर्रिसीन ने जो फेहरिस्त आज अवाम को दी है उनमे इन मुज्तहेदीन के नाम है:

  1. आयतुल्लाह सीस्तानी (द अ)
  2. आयतुल्लाह ख़ामेनई (द अ)
  3. आयतुल्लाह मकारेम शिराज़ी (द अ)
  4. आयतुल्लाह नूरी हमदानी (द अ)
  5. आयतुल्लाह ज़न्जानी (द अ)
  6. आयतुल्लाह साफी गुलपैगानी (द अ)
  7. आयतुल्लाह वहीद खोरासानी (द अ)

इस फेहरिस्त को तैयार करते वक़्त बहोत सारे मुज्तहेदीन के नामो पर गौरोफिक्र की जाती  है और काफी बहसों तज़्कीरे के बाद फैसला लिया जाता है; ताकि शिया क़ौम अपने “आलम” को पहचान कर सही शख्स की तक़लीद कर सके.

यहाँ एक और सवाल उठता है, क्या हम इस फेहरिस्त से हट कर किसी और की तक़लीद कर सकते है?

ये सवाल करने से पहले हमे सोचना चाहिए कि जिस शख्स को हम तक़लीद के लायक समझते है उनका नाम भी जामे मुदर्रिसीन के पास गया होगा जिस पर बहसों तज़्कीरे के बाद उसे रद्द किया गया हो. जामे मुदर्रिसीन किसी अहल को उस मक़ाम पर पहुचने से नहीं रोकती इसलिए हमें चाहिए कि  हम इस ओलमा की जमात  (जामे मुदर्रिसीन) पर अपना भरोसा क़ायम रखे और इनके दिए हुए मराजेइन की फेहरिस्त में से किसी मरजा की तक़लीद करे.

अगर हमारे पास किसी और मुजतहिद की जानकारी और हम समझते है की वो मरजा होने के लायक है तो ये हमारा फ़रीज़ा है कि इसकी इत्तेला हम जामे मुदर्रिसीन को दे और ये साबित करे कि उस मुजतहिद का इल्मी  मेयार काफी बुलंद है; जो जामे की नज़रो से छुपा रह गया; जिसके बाद जामे  मुदर्रिसीन उस नाम पर फिर से गौरोफिक्र कर सकती है. अपने मन से किसी  मुजतहिद का इंतेखाब करके जामे ओलमा की दी हुई फेहरिस्त को नज़रअंदाज़ करना गलत काम होगा.

इसके साथ ही मौलाना आबेदी ने एक अहम पहलु की तरफ भी हमे आगाह कराया की अगर  किसी मसले में हमारा मरजा कोई फतवा  सादिर नहीं करता है, तो इस जगह हम किसी भी मुजतहिद  की बात नहीं मान सकते; बल्कि जिन मुज्तहेदीन की फेहरिस्त जामे मुदर्रिसीन ने दी उन्ही में से किसी / दूसरे दर्जे के मुजतहिद की बात पर अमल करना ज़रूरी होगा।

अल्लाह हम सब को इन ज़रूरी बातो पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता करे ताकि हमारा ज़रूरी अमल  “तक़लीद” अच्छी तरह से मुकम्मल हो सके.

अल्लाह पूरी शिया क़ौम को अपने बुज़ुर्ग ओलमा ए दीन पर मुकम्मल भरोसा   करने की और उनके दीनी फरमान पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फर्माए.

अल्लाह हमें एक बनकर उसके दीन पर मुकम्मल तौर पर अमल पैरा होने की ताक़त और क़ूवत दे ताकि हम अपने ज़माने की इमाम के  जल्द ज़हूर के लिए काम कर सके.

इन सब का सिला अल्लाह हमें अपने वली-ए-हुज्जत वली-ए-अम्र इमाम महदी (अ) के ज़हूर की शक्ल में अता फर्माए.
 

सेहत और बिमारियों के बारे में मासूमीन (अ) के क़ीमती अक़वाल|

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सेहते चश्म (आँख की देख रेख और इलाज )

१) अगर आँख में तकलीफ़ हो तो जब तक ठीक न हो जाये बायीं करवट सो। (रसूले ख़ुदा स0)

२) तीन चीज़ें आँख की रोशनी में इज़ाफ़ा करती हैं। सब्ज़े (हरियाली ) पर, बहते पानी पर और नेक चेहरे पर निगाह करना। ( इमाम मूसा काज़िम अ0)

३) मिसवाक करने से आँख की रौशनी में इज़ाफ़ा होता है। (हज़रत अली अ0)

४) खाने के बाद हाथ धो कर भीगे हाथ आँख पर फेरे दर्द नहीं करेगी। (इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)

५) जब भी तुम में से किसी की आँख दर्द करे तो चाहिये कि उस पर हाथ रख कर आयतल कुर्सी की तिलावत करे इस यक़ीन के साथ कि इस आयत की तिलावत से दर्दे चश्म ठीक हो जायेगा। (इमाम अली अ0)

६) जो सूर-ए-दहर की तीसरी आयत हर रोज़ पढ़े आँख की तकलीफ़ से महफ़ूज़ रहेगा। (इमाम अली अ0)

पेशाब की ज़्यादतीः
१) इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से एक शख़्स ने पेशाब की ज़्यादती की शिकायत की तो आप अ0 ने फ़रमाया  काले तिल खा लिया करो।
दस्तूराते उमूमी आइम्मा-ए-ताहिरीन अ0
सफेद दाग़ (बरस) का इलाज :-  

१) किसी ने इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से सफ़ेद दाग़ की शिकायत की। आपने फ़रमाया नहाने से पहले मेहदी को नूरा में मिला कर बदन पर मलो।

२) एक शख़्स ने इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से बीमारी बरस की शिकायत की, आपने फ़रमाया तुरबते इमामे हुसैन अ0 की ख़ाक बारिश के पानी में मिलाकर इस्तेफ़ादा करो।

३) सहाबी इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 के बदन पर सफ़ेद दाग़ पैदा हो गए। आपने फ़रमाया सूर-ए-या-सीन को पाक बरतन पर शहद से लिख कर धो कर पियो।
४) इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 ने फ़रमाया बनी इस्राईल में कुछ लोग सफ़ेद दाग़ में मुब्तिला हुए, जनाबे मूसा को वही हुई कि उन लोगों को दस्तूर दो कि गाय के गोश्त को चुक़न्दर के साथ पका कर खायें।

५) जो खाने के पहले लुक़्मे पर थोड़ा सा नमक छिड़क कर खाये, चेहरे के धब्बे ख़त्म हो जाएंगे।
कुछ आम हिदायतें सेहत के लिए |

१) बीमारी में जहाँ तक चल सको चलो। (इमाम अली अ0)
२) खड़े होकर पानी पीना दिनमें ग़िज़ा को हज़म करता है और रात में बलग़म पैदा करता है। ( इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)
३) हज़रत अली अ0 फ़रमाते हैं कि जनाबे हसने मुज्तबा अ0 सख़्त बीमार हुए। जनाबे फ़ातेमा ज़हरा स0 बाबा की खि़दमत में आयीं और ख़्वाहिश की कि फ़रज़न्द की शिफ़ा के लिये दुआ फ़रमायें उस वक़्त जिबराईल अ0 नाज़िल हुए और फ़रमाया ‘‘या रसूलल्लाह स0 परवरदिगार ने आप अ0 पर कोई सूरा नाज़िल नहीं किया मगर यह कि उसमें हरफ़े ‘फ़े'न हो और हर ‘फ़े'आफ़त से है ब-जुज़ सूर-ए-हम्द के कि उसमें ‘फ़े'नहीं है। पस एक बर्तन में पानी लेकर चालीस बार सूर-ए-हम्द पढ़ कर फूकिये और उस पानी को इमाम हसन अ0 पर डालें इन्शाअल्लाह ख़ुदा शिफ़ा अता फ़रमाएगा।''

४) अपने बच्चों को अनार खिलाओ कि जल्द जवान करता है। (इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)
५) रसूले ख़ुदा को अनार से ज़्यादा रूए ज़मीन का कोई फल पसन्द नहीं था। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
६) गाय का ताज़ा दूध पीना संगे कुलिया में फ़ायदा करता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
७) ख़रबूज़ा मसाने को साफ़ करता है और संग-मसाना को पानी करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
८) चुक़न्दर में हर दर्द की दवा है आसाब को क़वी करता है ख़ून की गर्मी को पुरसुकून करता है और हड्डियों को मज़बूत करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
९) जिस ग़िज़ा को तुम पसन्द नहीं करते उसको न खाना वरना उससे हिमाक़त पैदा होगी। (इमाम सादिक़ अ0)
१०) खजूर खाओ कि उस में बीमारियों का इलाज है।
११) दूध से गोश्त में रूइदगी और हड्डियों में कुव्वत पैदा होती है। (इमाम सादिक़ अ0)
१२) अन्जीर से हड्डियों में इस्तेक़ामत और बालों में नमू पैदा होती है और बहुत से अमराज़ बग़ैर इलाज के ही ख़त्म हो जाते हैं। (इमाम सादिक़ अ0)
१३) जो उम्र ज़्यादा चाहता है वह सुबह जल्दी नाश्ता खाये। (इमाम अली अ0)

खाना खाने के आदाब

१) तन्हा खाने वाले के साथ शैतान शरीक होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
२) जब खाने के लिये चार चीज़ें जमा हो जायें तो उसकी तकमील हो जाती है। 1. हलाल से हो 2. उसमें ज़्यादा हाथ शामिल हों 3. उसमें अव्वल में अल्लाह का नाम लिया जाये और 4. उसके आखि़र में हम्दे ख़ुदा की जाये। (रसूले ख़ुदा स0)
३) सब मिल कर खाओ क्योंकि बरकत जमाअत में है। (रसूले ख़ुदा स0)
४) जिस दस्तरख़्वान पर शराब पी जाये उस पर न बैठो। (रसूले ख़ुदा स0)
५) चार चीज़ें बरबाद होती हैंः शोराज़ार ज़मीन में बीज, चांदनी में चिराग़, पेट भरे में खाना और न एहल के साथ नेकी। (इमाम सादिक़ अ0)
६) जो शख़्स ग़िज़ा कम खाये जिस्म उसका सही और क़ल्ब उसका नूरानी होगा। (रसूले ख़ुदा स0)
७) जो शख़्स क़ब्ल व बाद ग़िज़ा हाथ धोए ताहयात तन्गदस्त न होए और बीमारी से महफ़ूज़ रहे। (इमाम सादिक़ अ0)
८) क़ब्ल तआम खाने के दोनों हाथ धोए अगर चे एक हाथ से खाना खाये और हाथ धोने के बाद कपड़े से ख़ुश्क न करे कि जब तक हाथ में तरी रहे तआम में बरकत रहती है। (इमाम सादिक़ अ0)

हज़रत अली अ0 फ़रमाते हैंः

१) कोई ग़िज़ा न खाओ मगर यह कि अव्वल उस तआम में से सदक़ा दो।
२) ज़्यादा ग़िज़ा न खाओ कि क़ल्ब को सख़्त करता है, आज़ा व जवारेह को सुस्त करता है नेक बातें सुनने से दिल को रोकता है और जिस्म बीमार रहता है।
३) ज़िन्दा रहने के लिये खाओ, खाने के लिये ज़िन्दा न रहो।
४) जो ग़िज़ा (लुक़्मे) को ख़ूब चबाकर खाता है फ़रिश्ते उसके हक़ में दुआ करते हैं, रोज़ी में इज़ाफ़ा होता है और नेकियों का सवाब दो गुना कर दिया जाता है।
५) जो शख़्स वक़्ते तआम खाने के बिस्मिल्लाह कहे तो मैं ज़ामिन हूँ कि वह खाना उसको नुक़्सान न करेगा।
वक़्त खाना खाने के शुक्रे खुदा और याद उसकी और हम्द उसकी करो।
६) जिस शख्स को यह पसन्द है कि उसके घर में खैर व बरकत ज़्यादा हो तो उसे चाहिये कि खाना जब हाजिर हो तो वज़ू करे।
७) जो कोई नाम ख़ुदा का अव्वल तआम में और शुक्र ख़ुदा का आखि़र तआम पर करे हरगिज़ उस खाने का हिसाब न होगा।
८) जो ज़र्रा दस्तरख्वान पर गिरे उनका खाना फक्ऱ को दूर करता है और दिल को इल्म व हिल्म और नूरे ईमान से मुनव्वर करता है।
९) जनाबे अमीरूल मोमेनीन अ0 ने फ़रमाया के ऐ फ़रज़न्द! मैं तुमको चार बातें ऐसी बता दूँ जिसके बाद कभी दवा की ज़रूरत न पड़े- 1.जब तक १०) भूख न हो न खाओ। 2. जब भूख बाक़ी हो तो खाना छोड़ दो। 3. खूब चबा कर खाओ। 4. सोने से पहले पेशाब करो।
११) रौग़ने ज़ैतून ज़्यादतीए हिकमत का सबब है। (इ0 ज़माना अ0)
१२) भरे पेट कुछ खाना बाएस कोढ़ और जुज़ाम का होता है।

ग़ुस्ल और सेहत

१) नहाना इन्सानी बदन के लिये इन्तेहायी मुफीद है। ग़ुस्ल इन्सानी जिस्म को मोतदिल करता है, मैल कुचैल को जिस्म से दूर करता है आसाब और रगों को नरम करता है और जिस्मानी आ़ा को ताक़त अता करता है। गन्दगी को ख़त्म करता है और जिस्म की जिल्द से बदबू को दूर करता है। (इमाम रिज़ा अ0)
२) ख़ाली या भरे हुए पेट में हरगिज़ नहीं नहाना चाहिये, बल्कि नहाते वक़्त कुछ ग़िज़ा मेदे में मौजूद होना चाहिए। ताकि मेदा उसे हज़म करने में मशग़ूल रहे, इस तरह मेदे को सुकून मिलता है। (इमाम सादिक़ अ0)
३) एक रोज़ दरमियान नहाना गोश्त बदन में इज़ाफ़ा का सबब है। (इमाम मूसा काज़िम अ0)
४) नहाने से पहले सर पर सात चुल्लू गरम पानी डालो कि सर दर्द में शिफ़ा हासिल होगी। (इमाम सादिक़ अ0)
५) अगर चाहते हो कि खाल दाने, आबले, जलन से महफ़ूज़ रहे तो नहाने से पहले रौग़ने बनफ़शा बदन पर मलो। (इमाम रिज़ा अ0)
६) नहार मुँह ग़ुस्ल करने से बलग़म का ख़ात्मा होता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)

 दूध की अहमियत

बतौर ग़िज़ा दूध की एहमियत से कौन इनकार कर सकता है, दूध ऐसी मुतावाज़िन ग़िज़ा है जिसमें ग़िज़ा के तमाम अजज़ा (कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फैट, विटामिन, मिनीरल और पानी) पाया जाता है। यही सबब है कि दूध बीमारी, सेहत और हर उम्र के अफ़राद के लिये मुफ़ीद है। अगर किसी का जिस्म दूध क़ुबूल न करता हो तो उबालते वक़्त चन्द दाने इलाइची के डाल दें।

क़ुरआन दूध की अहमियत को इस तरह बयान करता है और चैपायों के वजूद में तुम्हारे पीने के लिये हज़मशुदा ग़िज़ा (फ़रस) और ख़ून में से ख़ालिस और पसन्दीदा दूध फ़राहम करते हैं (सूर-ए-हिजर आयत 66) यानी माँ जो कुछ खाती है उससे फरस बनता है और फिर उससे ख़ून बनता है और उन दोनों के दरमिया में से दूध वुजूद में आता है। मतलब यह कि दूध में हज़म शुदा ग़िज़ा के अजज़ा के साथ ख़ून के अनासिर भी शामिल होते हैं। आयत में दूध को ख़ालिस और मुफ़ीद क़रार दिया गया है।

दूध के बाज़ अनासिर ख़ून में नही होते और पिसतान के गुदूद में बनते हैं मसलन काज़ईन, ख़ून के कुछ अनासिर बग़ैर किसी तग़य्युर के ख़ून के प्लाज़मा से तुरशह होकर दूध में दाखि़ल होते हैं मसलन मुख़तलिफ़ विटामिन, खूरदनी नामक और मुखतलिफ फासफेट। कुछ और मवाद तबदील हो कर खून से मिलते हैं जैसे दूध में मौजूद लेकटोज़ शकर।

माहिरीन कहते हैं कि पिसतान में एक लीटर दूध पैदा होने के लिये कम अज़ कम पाँच सौ लीटर ख़ून को उस हिस्से से गुज़रना पड़ता है ताकि दूध के लिये ज़रूरी मवाद ख़ून से हासिल किया जा सके। बच्चा जब पैदा होता है तो उसका दिफ़ाई निज़ाम बहुत कमज़ोर होता है इसलिये माँ के ख़ून में पाये जाने वाले दिफ़ाई अनासिर दूध में मुन्तक़िल होते हैं। तहक़ीक़ात में पाया गया है कि माँ के पहले दूध में कोलेस्ट्रम की मिक़दार बहुत ज़्यादा होती है। चूँकि नव मौलूद का माहौल तबदील होता है इसलिये माँ के पहले दूध में कोलेस्ट्रम की इज़ाफ़ी मिक़दार बच्चे के तहफ़्फ़ुज़ के लिये मुआविन साबित होती है। माँ का दूध बच्चे के लिये सिर्फ़ ग़िज़ा नहीं बल्कि दवा है। क़ुरआन में जनाबे मूसा अ0 की विलादत के बाद इरशाद होता है ‘‘हमने मूसा की माँ को वही की कि उसे दूध पिलाओ और जब तुम्हें उस के बारे में ख़ौफ़ लाहक़ हो तो उसे दरया की मौजों के सिपुर्द कर दो''सूर-ए-कसस आयत 7 ।

दूध में सोडियम, पोटेशियम, कैलशियम, मैगनीशियम, काँसा, ताँबा, आएरन, फासफोरस, आयोडीन और गन्धक वग़ैरा मौजूद होते हैं। इसके अलावा दूध में कारबोनिक ऐसिड, लैक्टोज़ शकर, विटामिन ए, बी, सी मौजूद होते हैं। दूध में कैलशियम काफ़ी मिक़दार में होता है जो पुट्ठों और हड्डियों की नशवोनुमा के लिये बहुत ज़रूरी है यानी दूध एक मुकम्मल ग़िज़ा है इसीलिये रसूले ख़ुदा स0 की हदीस है कि ‘‘दूध के सिवा कोई चीज़ खाने पीने का नेमुल बदल नहीं है''। हामेला औरत दूध पीयें कि बच्चे की अक़्ल में ज़्यादती का सबब है, मज़ीद फ़रमाया कि दूध पियो कि दूध पीने से ईमान ख़ालिस होता है।

रवायत में है कि दूध आँखों की बीनाई में इज़ाफ़े का सबब है, निसयान को ख़त्म करता है, दिल को तक़वीयत देता है, और कमर को मज़बूत करता है, शरीअत का हुक्म है कि बच्चे के लिये तमाम दूधों में सबसे बेहतर माँ का दूध है।

जदीद तहक़ीक़ से आज यह बात साबित हो चुकी है कि माँ का दूध बच्चे के लिये न सिर्फ़ मुकम्मल ग़िज़ा है बल्कि बच्चे को मुख़तलिफ़ बीमारियों से भी महफ़ूज़ रखता है हत्ता पाया गया है कि ऐसे बच्चे जो बचपन में माँ का दूध पीते हैं बड़े होकर भी ज़्यादा फ़अआल ज़हीन, तन्दरूस्त और बहुत सी बीमारियों से बचे रहते हैं।

क़ुरआन में इरशादे परवरदिगार होता है ‘‘माँयें अपनी औलाद को पूरे दो साल दूध पिलायेंगी''सूर-ए-बक़रा अ0 224
और हमने इन्सान को उसके माँ बा पके बारे में वसीयत की, उसकी माँ ज़हमत पर ज़हमत उठा कर हामेला हुई और उसके दूध पिलाने की मुद्दत 2 साल में मुकम्मल हुई है। सूर-ए-अनकबूत आयत 14

अनार की अहमियत 

अनार का नाम प्यूनिका ग्रैन्टम है। यूँ तो अनार बहुत से मुल्कों में पाया जाता है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के क़न्धारी अनार मज़े के लिये सबसे ज़्यादा मशहूर हैं। अनार के वह दरख़्त जिनमें फल नहीं आते उसके फूल गुलेनार के नाम से दवाओं में इस्तेमाल होते हैं।

तहक़ीक़ से यह बात साबित हो चुकी है कि अनार में शकर, कैलशियम, फ़ासफ़ोरस, लोहा, विटामिन सी पायी जाती है। जो ख़ून के बनने और जिस्म की परवरिश में मदद देते हैं इसलिये अनार का फल बीमारी के बाद कमज़ोरी को दूर करने और तन्दरूस्ती को बाक़ी रखने के लिये बहुत मुफ़ीद है।
रसूले ख़ुदा स0 ने फ़रमाया कि अनारी को बीज के छिलके के साथ खाओ कि पेट को सही करता है, दिल को रौशन करता है और इन्सान को शैतानी वसवसों से बचाता है।

तिब में अनार का मिज़ाज सर्द तर बताया गया है और दवा के तौर पर मसकन सफ़रा, कातिल करमे शिकम, क़ै, प्यास की ज़्यादती, यरक़ान और ख़ारिश वग़ैरा में इसका इस्तेमाल होता है। बतौर दवा अनार की अफ़ादीयत के बारे में उर्दू का यह मुहावरा ही काफ़ी है। ‘‘एक अनार .......... सौ बीमार'''
इस्लामी रिवायत में अनार को सय्यदुल फ़कीहा (फलों का सरदार) कहा गया है। क़ुरआन में भी अनार का ज़िक्र होता है ‘‘इन (जन्नत) में फल कसरत से हैं और खजूर और अनार के दरख़्त हैं'' (सूर-ए-रहमान आ0 68)

अहादीस में भी अनार का ज़िक्र हैः ‘‘जो एक पूरा अनार खाये ख़ुदा चालीस रोज़ तक उसके क़ल्ब को नूरानी करता है। शैतान दूर होता है, पेट और ख़ून साफ़ करता है। बदन में फ़ुरती आतीहै और बीमारियों से मुक़ाबले की ताक़त पैदा होती है। (रसूले ख़ुदा स0)

शहद की अहमियत 

ख़ालिक़े कायनात ने इन्सान को जितनी नेअमतें दी हैं उनका शुमार करना भी इन्सान के लिये मुम्किन नहीं है। उन नेअमतों में शहद को एक बुलन्द मुक़ाम हासिल है।

क़ुरआन (सूर-ए-नहल आयत 49) में शहद को इन्सान के लिये शिफ़ा बताया गया है। इन्जील में 21 मरतबा इसका ज़िक्र किया गया है। जदीद साइंसी तहक़ीक़ात से यह बात साबित हो चुकी है कि शहद निस्फ़ हज़्म शुदा ग़िज़ा है जिसका मेदे पर बोझ नहीं पड़ता है इसीलिये नौ ज़ाएदा बच्चे को बतौर घुट्टी शहद घटाया जाता है और जाँ-बलब मरीज़ के लिये तबीब आखि़री वक़्त में शहद ही तजवीज़ करता है। अहादीस में भी दवा की हैसियत से शहद की ख़ासियत का बहुत ज़िक्र आया है। ‘‘लोगों के लिये शहद की सी शिफ़ा किसी चीज़ में नहीं है'' (इमाम सादिक़ अ0)। ‘‘जो शख़्स महीने में कम अज़ कम एक मरतबा शहद पिये और ख़ुदा से उस शिफ़ा का तक़ाज़ा करे कि जिस का क़ुरआन में ज़िक्र है तो वह उसे सत्तर क़िस्म की बीमारियों से शिफ़ा बख़्शेगा''। (रसूले ख़ुदा स0)

फवाएदे आबे नैसाँ

ज़ादुल मसाल में सय्यद जलील अली इब्ने ताऊस रहमतुल्लाह अलैह ने रिवायत की है कि असहाब का एक गिरोह बैठा हुआ था जनाबे रसूले ख़ुदा स0 वहाँ तशरीफ लाए और सलाम किया असहाब ने जवाबे सलाम दिया। आपने फ़रमाया कि क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें वह दवा बतला दूँ जो जिबराईल अ0 ने मुझे तालीम दी है कि जिसके बाद हकीमों की दवा के मोहताज न रहो। जनाबे अमीरूल मोमेनीन अ0 और जनाबे सलमाने फ़ारसी वग़ैरा ने सवाल किया कि वह दवा कौन सी है तो हज़रत रसूले ख़ुदा स0 ने हज़रत अमीर अ0 से मुख़ातिब होकर फ़रमाया माह नैसान रूमी में बारिश हो तो बारिश का पानी किसी पाक बरतन में ले और सूर-ए-अलहम्द, आयतल कुर्सी, क़ुल हो वल्लाह, कु़ल आऊज़ो बिरब्बिन नास, कु़ल आऊज़ो बिरब्बिल फ़लक़ और क़ुल या अय्योहल काफ़िरून सत्तर मरतबा पढ़ो और दूसरी रिवायत में है सत्तर मरतबा इन्ना अनज़लनाह, अल्लाहो अकबर, ला इलाहा इल्लल्लाह और सलवात मोहम्मद स0 व आले मोहम्मद अ0 भी इस पर पढ़ें। किसी शीशे के पाक बरतन में रखें और सात दिन तक हर रोज़ सुब्ह व वक़्ते अस्र इस पानी को पिये।मुझे क़सम है उस ज़ाते अक़दस की जिसने मुझे मबऊस ब-रिसालत किया कि जिबराईल अ0 ने कहा कि ख़ुदाए तआला ने दूर किया उस शख़्स का हर दर्द कि जो उसके बदन में है। अगर फ़रज़न्द न रखता हो तो फ़रज़न्द पैदा हो। अगर औरत बांझ हो और पिये तो फ़रज़न्द पैदा होगा। अगर नामर्द हो और पानी बशर्ते एतेक़ाद पिये तो क़ादिर हो मुबाशिरत पर। अगर दर्दे सर या दर्दे चश्म हो तो एक क़तरा आँख में डाले और पिये और मले सेहत होगी और जड़ें दाँतों की मज़बूत होंगी और मुंह ख़ुशबूदार होगा, बलग़म को दूर करेगा। दर्दे पुश्त, दर्दे शिकम और ज़ुकाम को दफ़ा करेगा। नासूर, खारिश, फ़ोड़े दीवानगी, जज़ाम, सफ़ेद दाग़, नकसीर और क़ै से बे ख़तर होगा। अंधा, बहरा गूँगा न होगा। वसवसा-ए-शैतान और जिन से अज़ीयत न होगी। दिल को रौशन करेगा, ज़ुबान से हिकमत जारी करेगा और उसे बसीरत व फ़हम अता करेगा। माहे नौरोज़ के 23 दिन बाद माह-ए-नैसाँ रूमी शुरू होता है।

इबादत व आदाबे इस्लामी और सेहत

रोज़ाः रोज़ा रखो सेहतमन्द हो जाओ। रोज़ा सेहत के दो असबाब में से एक सबब है इसलिये कि इससे बलग़म छटता है, भूल ज़ाएल होती है, अक़्ल व फ़िक्र में जिला पैदा होती है और इन्सान का ज़ेहन तेज़ होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
नमाज़े शब ः तुम लोग नमाज़े शब पढ़ा करो क्योंकि वह तुम्हारे पैग़म्बर की सुन्नते मोअक्केदा सालेहीन का शिआर और तुम्हारे जिस्मानी दुख व दर्द को दूर करने वाली है। ऐ अली अ0 नमाज़े शब हमेशा पढ़ा करो जो शख़्स कसरत से नमाज़े शब पढ़ता है उसका चेहरा मुनव्वर होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
नमाज़े शब चेहरे को नूरानी, मुंह को ख़ुशबूदार करती है और रिज़्क़ में वुसअत होती है। (हदीस)
नमाज़े शब से अक़्ल में इज़ाफ़ा होता है। (इमाम सादिक़ अ0)
मुतफ़र्रिक़
सदक़े के ज़रिये अपने मरीज़ों का इलाज करो, दुआओं के ज़रिये बलाओं के दरवाज़े को बन्द करो और ज़कात के ज़रिये अपने माल की हिफ़ाज़त करो। (रसूले ख़ुदा स0)
बिस्मिल्लाह हर मर्ज़ के लिये शिफ़ा और हर दवा के लिये मददगार है। (हज़रत अली0 अ0)
बेशक ख़ुदा की याद, दिल को पुर सूकून करती है। (क़ुरआन)
दुनिया में हर चीज़ की ज़ीनत है और तन्दरूस्ती की ज़ीनत चार चीज़ेंह ैंः कम खाना, कम सोना, कम गुफ़्तगू और कम शहवत करना। (रसूले ख़ुदा स0)
दुनिया से रग़बत करना हुज़्न व मलाल का सबब है और दुनिया से किनारा-कशी क़ल्ब व बदन के आराम व राहत का सबब है। (रसूले ख़ुदा स0)
शफ़ाए अमराज़ के लिये शबे जुमा ब-वज़ू दुआए मशलूल पढ़ें।
किनाअत बदन की राहत है। (इमाम हुसैन अ0)
हर जुमे को नाख़ून काटो कि हर नाख़ून के नीचे से एक मर्ज़ निकलता है। (इमाम सादिक़ अ0)
जो शख़्स हर पंजशम्बे को नाख़ून काटेगा उसकी आँखें नहीं दुखेंगी (अगर पंजशम्बे को नाख़ून काटो तो एक नाख़ून जुमे के लिये छोड़ दो)। (इमामे रिज़ा अ0)
याक़ूत की अंगूठी पहनो कि परेशानी ज़ाएल होती है ग़म दूर होता है, दुश्मन मरग़ूब रहते है और बीमारी से हिफ़ाज़त करता है। (इमामे रिज़ा अ0)
जो शख़्स सोते वक़्त आयतल कुर्सी पढ़ ले वह फ़ालिज से महफ़ूज़ रहेगा। (इमामे रिज़ा अ0)
जब लोग गुनाहे जदीद अन्जाम देते हैं तो ख़ुदा उनको नयी बीमारियों में मुबतिला करता है। (इमामे रिज़ा अ0)
हुसूले शिफ़ा के लिये क़ुरआन पढ़ो। (इमामे रिज़ा अ0)
अपने बच्चों का सातवें दिन ख़त्ना करो इससे सेहत ठीक होती है और जिस्म पर गोश्त बढ़ता है। (इमामे रिज़ा अ0)
पजामा बैठ कर पहनो, खड़े होकर न पहनो क्योंकि यह ग़म व अलम का सबब होता है।
सियाह जूता पहनने से बीनायी कमज़ोर हो जाती है। (इमामे रिज़ा अ0)
फ़ीरोज़े की अंगूठी पहनो कि फ़ीरोज़ा चश्म को क़ुव्वत देता है सीने को कुशादा करता है और दिल की क़ुव्वत को ज़्यादा करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
चाहिये कि ज़र्द जूते पहनो कि इस में तीन खासियतें पायी जाती हैं, कुव्वते बीनायी में इज़ाफ़ा, ज़िक्रे ख़ुदा में तक़वीयत का सबब और हुज़्न व ग़म को दूर करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
रोज़ा, नमाज़े शब, नाख़ून का काटना इस तरह कि बायें हाथ की छुंगलिया से शुरू करके दाहिने हाथ की छुंगलिया पर तमाम करना असबाबे तन्दरूस्ती इन्सान है।
अज़ीज़ों के साथ नेकी करने से आमाल क़ुबूल होते हैं माल ज़्यादा होता है बलायें दफ़़ा होती हैं, उम्र बढ़ती है और क़ियामत के दिन हिसाब में आसानी होगी। (हदीस)
जो क़ब्ल और बाद तआम खाने के हाथ धोये तो ज़िन्दगी भर तंगदस्त न होये और बीमारी से महफ़ूज़ रहे। (रसूले ख़ुदा स0)
एक शख़्स ने इमाम अली रिज़ा अ0 से अज़ किया कि मैं बीमार व परेशान रहता हूँ और मेरे औलाद नहीं होती, आप अ0 ने फ़रमाया कि अपने मकान में अज़ान कहो। रावी कहता है कि ऐसा ही किया, बीमारी ख़त्म हुई और औलाद बहुत हुई।

मेहमान नवाज़ी
तुम्हारी दुनियों से तीन चीज़ों को दोस्त रखता हँ, लोगों को मेहमान करना, ख़ुदा की राह में तलवार चलाना और गर्मियों में रोज़ा रखना। (हज़रत अली अ0)
मकारिमे इख़्लाक़ दस हैंः हया, सच बोलना, दिलेरी, साएल को अता करना, खुश गुफ्तारी, नेकी का बदला नेकी से देना, लोगों के साथ रहम करना, पड़ोसी की हिमायत करना, दोस्त का हक़ पहुँचाना और मेहमान की ख़ातिर करना। (इमाम हसन अ0)
मेहमान का एहतिराम करो अगरचे वह काफ़िर ही क्यों न हो। (रसूले ख़ुदा स0)
पैग़म्बरे इस्लाम स0 ने फ़रमाया कि जब अल्लाह किसी बन्दे के साथ नेकी करना चाहता है तो उसे तोहफ़ा भेजता है। लोगों ने सवाल किया कि वह तोहफ़ा क्या है? फ़रमाया ः मेहमान, कि जब आता है तो अपनी रोज़ी लेकर आता है और जब जाता है तो अहले ख़ाना के गुनाहों को लेकर जाता है।
मेहमान राहे बेहिश्त का राहनुमा है। (रसूले ख़ुदा स0)
खाना खिलाना मग़फ़िरते परवरदिगार है। (रसूले ख़ुदा स0)
परवरदिगार खाना खिलाने को पसन्द करता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
जो भी ख़ुदा और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखता है उसे चाहिये कि मेहमान का एहतिराम करे। (हदीस)
तुम्हारे घर की अच्छाई यह है कि वह तुम्हारे तन्गदस्त रिश्तादारों और बेचारे लोगों की मेहमानसरा हो। (रसूले ख़ुदा स0)
कोई मोमिन नहीं है कि मेहमान के क़दमों की आवाज़ सुन कर ख़ुशहाल हों मगर यह कि ख़ुदा उसके तमाम गुनाह माफ़ कर देता है अगर चे ज़मीनो-आसमान के दरमियान पुर हों। (हज़रत अली अ0)
अजसाम की कुव्वत खाने में है और अरवाह की कुव्वत खिलाने में है। (हज़रत अली अ0)
(तुम्हारा फ़र्ज़ है) कि नेकी और परहेज़गारी में एक दूसरे की मदद किया करो (सूर-ए-अल माएदा ः 2)
ऐ ईमानदारों ख़ुदा से डरो और हर शख़्स को ग़ौर करना चाहिए कि कल (क़ियामत) के वास्ते उस ने पहले से क्या भेजा है? (सूर-ए-अल हश्र ः 18)
ऐ ईमानदारों क्या मै। तुम्हें ऐसी तिजारत बता दूँ जो तुमको (आखि़रत के) दर्दनाक अज़ाब से नजात दे (यह कि) ख़ुदा और उसके रसूल स0 पर ईमान लाओ और अपने माल और जान से ख़ुदा की राह में जेहाद करो। (सूर-ए-अस सफ़ः 11)
और अगर तुम पूरे मोमिन हो तो तुम ही गालिब होगे। (सूर-ए-आले इमरान ः 139)

हुसैन आज भी अकेले हैं!!!

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इन्सान आज भी जब इतिहास में झांक कर देखता है तो उसे दूर तक रेगिस्तान में दौड़ते हुए घोड़ें की टापों से उठती हुई धूल के बीच खिंची हुई तलवारों, टूटी हुए ढालों और टुकड़े टुकड़े लाशों के बीच में टूटी हुई तलवार से टेक लगाकर बैठा हुआ एक ऐसा व्यक्ति दिखाई देता, जिसकी पुकार और सहायता की आवाज़ चारों तरफ़ फैली हुई शत्रु की सेना के सीने को चीर कर पूरी दुनिया के दिल और जिगर में उतर रही है।

चौदर सौ वर्ष बीत गए, मारने वाले उसे मार रहे हैं, कोई ज़बान से घाव लगा रहा है, कोई तीर मार रहा है, कोई तलवार के वार कर रहा है, कोई पत्थर मार रहा है कोई....

लेकिन कोई नहीं, कोई नहीं... जो उसकी आवाज़ पर आवाज़ दे, जो उसकी पुकार को सुने, जो चौदह सदियों से इन्सानी इतिहास के पन्नों में
अकेला है, अकेला है

यू तो उसके घर की हर चीज़ 10 मोहर्रम को लूट ही गई थी लेकिन उसका सर कटने के बाद उस पर जो अत्याचार किए गए उन्हें किसी इतिहासकार ने नहीं लिखा है, किसी लेखक ने उस पर क़लम नहीं उठाया है और किसी शायर ने उसके शेर में नहीं पढ़ा है, यह ऐसा मज़लूम है जिसके माल और सम्पत्ती को शत्रुओं ने लूटा और जिसके, दर्द, दुख, सोंच, ज्ञान इज़्ज़त और सम्मान और क्रांति के पैग़ाम को अपनों ने लूट लिया।

किसी ने उसके ग़म को व्यापार बना लिया, तो किसी ने उसके मातम के प्रसिद्धी का माध्यम, तो किसी ने उसकी क्रांति के लेबिल को अपनी कामियाबी का ज़ीना बना लिया, तो किसी ने उसके दीन को अपना पेट पालने का सहारा।

यह वह मज़लूम है जिसकी सिसकियाँ आज भी हवाओं में सुनाई दे रही है और जिसके गोश्त के चीथड़ें बाज़ारों में बिक रहे हैं, मगर कोई नहीं है जो इस अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़ा हो जो इस अत्याचार पर प्रदर्शन करे, कोई नहीं है जो इस बर्बर्ता के विरुद्ध अपनी ज़बान खोले , कोई नहीं है जो रियाकारी (केवल दिखाने के लिए किया जाने वाला कार्य), झूठी दीनदारी और धोखा देने वाली क्रांति के विरुद्ध अपना क़लम उठाए,

कोई नहीं है.... कोई नहीं है

हुसैन आज भी अकेले हैं...

प्रिय पाठकों अपनी आत्मा को पवित्र किए बिना समाज के सुधार के नारे लगाना हुसैनियत नहीं है, दीन के नाम पर पैसे बटोरना, कोठियाँ  खड़ी करना, गाड़ियाँ जायदाद बनाना भी हुसैनियत नहीं है

हुसैनियात तो यह है कि इन्सान सबसे पहले अपने आप को पवित्र करे, अपनी आत्मा को पवित्र करे और ख़ुदा की राह में सबसे पहले अपना घर क़ुर्बान कर दे फिर दूसरों को उसका निमंत्रण दे।

अब प्रश्न यह उठता है कि अगर हुसैनी होने के लिए यह सब चीज़ें शर्त है तो क्या किसी है हुसैनी बनना संभव है?

इस प्रश्न के उत्तर के लिए हम आपको इतिहास को देखने का निमंत्रण नहीं देंगे बल्कि आज के युग में अपने इर्द गिर्द नज़ दौड़ा लें यही काफ़ी होगा।

क्या आप ने बाक़िर अल सदर का नाम सुना है, उनकी शहादत और उनकी बहन की शहादत की घटनाओं को जानते हैं?

क्या आपने ग़ुलाम अस्करी का नाम सुना है, उनके द्वारा हिन्दुस्तान के घर घर में जनाए जाने वाले ज्ञान के दिए को देखा?

क्या आपने ईरानी क्रांति के लीडर सैय्यद अली ख़ामेनाई का नाम सुना है? उनके ज्ञान, तक़वे और राजनीतिक सक्रियता के बारे में कुछ जानते हैं?

क्या आपने हिन्दुस्तान के महान मुज्तहिद अल्लामा नक़्क़न का नाम सुना है? क्या आप उनके इल्मी कारनामों को जानते हैं?

क्या आपने हिज़्बुल्लाह के लीडर हसन नसरुल्लाह का नाम सुना है, क्या आप उनके बेटे हादी नसरुल्लाह की शहादत के बारे में कुछ जानते हैं?

हां यहीं लोग सच्चे हुसैनी हैं।

और हुसैनी ऐसे ही होते हैं, जब कोई इन्सान साफ़ नियत के साथ मैदान में आता है तो वह ट्रस्टों के पदों, अंजुमों के चंदों और पोस्टरों के चक्कर में नहीं पड़ता है

फिर वह दीन को ग़रीब बना कर, मुसलमानों को फ़क़ीर बनाकर प्रस्तुत नहीं करता है, फिर वह हुसैन की भाति अच्छाइयों को फैलाने और बुराईयों को रोकने के लिए एकेला ही मैदान में उतर जाता है और हज़रत इमाम ख़ुमैनी की तरह यह कहता हुआ दिखाई देता हैः

अगर यह जंग बीस साल भी चलती रहे तो हम नहीं थकेंगे।

इस बार मोहर्रम का महीन उस समय आया है जब पूरी दुनिया विशेषकर अरब दुनिया में इस्लामी क्रांति की लहर दौड़ रही है हमें आज अपनी अज़ादारी को इस प्रकार अंजाम देना चाहिए कि इस बेदारी को दिखाती हो

हमें पता होना चाहिए कि आज जिस इस्लामी क्रांति को हम देख रहे हैं यह वास्तव में ईरान की इस्लामी क्रांति का ही नतीजा है

हमें आशा है कि जिस प्रकार ईरान से साम्राज्य का जनाज़ा निकल गया उसी प्रकार दूसरे इस्लामी देश चाहे वह मिस्र हो या मराकिश या कोई और देस उससे भी इन्शाअल्लाह साम्राज्य के बदबूदार जनाज़े को निकाल फेकेंगे।

आज के युग में इमाम हुसैन (अ) की आवाज़ पर लब्बैक करने के लिए ज़रूरी है कि हम आत्मा की पवित्रता के साथ और सच्चे दिल से इमाम ख़ुमैनी और इस्लामी बरादरी की हर संभव सहायता करें और इस इस्लामी क्रांति के प्रभावी और लाभदायक बनाएं।

हज़रत अली अ. क्यूँ शहीद हुये?

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अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की समाजी और सियासी ज़िंदगी में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ “न्याय व इंसाफ़” है। जिस तरह आपकी निजी ज़िंदगी का सबसे स्पष्ट पहलू तक़वा है उसी तरह आपकी समाजी व सियासी ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण पहलू “अद्ल व इंसाफ़” है।यह हमारे लिए जो खुद को अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम का अनुयायी समझते हैं, महत्वपूर्ण बात है। न्याय व इंसाफ़ का ख्याल रखना, न्याय व इंसाफ़ को महत्व देना और वही करना जो इंसाफ की मांग हो, हमारी जिम्मेदारी है|

 आपकी पांच साल की हुकूमत के दौर में होने वाली घटनाओं पर अगर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि इस दौरान आपके सामने जो भी मुश्किलें पेश आईं वह आपकी इंसाफ़ पसंदी का नतीजा थीं। इससे पता चलता है कि न्याय व इंसाफ़ का मुद्दा कितना गंभीर मुद्दा है।
इंसाफ़ पसंदी और न्याय को लागू करने की कोशिश, कहने में तो आसान है लेकिन अमल में उसकी राह में इतनी मुश्किलें और रुकावटें पेश आती हैं|


अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम अपनी इस ख़ुदादादी ताक़त और इलाही शान के बावजूद हमेशा इसी इंसाफ़ को लागू करने के लिए प्रयत्नशील थे। इसीलिए आपने फ़रमायाः यानी खिलाफ़त छोड़ देना तो मामूली बात है अगर मुझे जंजीरों से बांध दिया जाये और कांटेदार तारों पर नंगे बदन घसीटा जाए तब भी मैं किसी एक ख़ुदा के बन्दे पर भी अत्याचार के लिए तैयार नहीं होऊँगा।

 आपको अपने इसी सिद्धांत की वजह से खिलाफ़त के दौरान मुश्किलें पेश आईं और खिलाफत केवल
पाँच वर्षीय कार्यकाल तक ही रही |

अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम ने इंसाफ़ की पहली लाइन लिख दी है कि न्याय व इंसाफ़ की ख़ातिर इस्लामी शासक के लिए चाहे जितनी मुश्किलें पेश आ जाएं उनके सामने आत्मसमर्पण न किया जाए। आत्मसमर्पण न करने का मतलब यह है कि न्याय व इंसाफ़ के रास्ते से मुंह न मोड़ा जाए।

 तीन तरह के लोग आप के मुक़ाबले में आये; क़ासेतीन यानी बनी उमय्यः और शाम (सीरिया) वाले यह अत्याचारी और ज़ालिमाना व्यवहार अपनाने वाले लोग थे, अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम के मुक़ाबले में आने का भी उन्होंने बहुत ज़ालिमाना तरीका अपनाया।
दूसरे नाकेसीन (बैअत तोड़ने वाले), यह अमीरूल मोमिनीन अ. के पुराने साथी और दोस्त थे लेकिन आपके इंसाफ़ की ताब न लाते हुए आपके खिलाफ़ जंग के लिए उठ खड़े हुए। यह लोग अमीरूल मोमिनीन अ. अली को पहचानते थे, आपको इमाम मानते थे यहां तक कि कुछ ने तो खिलाफ़त तक आपको पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसके बाद आपके हाथ पर बैअत भी की थी लेकिन आपके न्याय व इंसाफ़ की ताब न लाते हुए आप ही के खिलाफ़ जंग के लिए उठ खड़े हुए। चूंकि देख चुके थे कि आप जान पहचान, दोस्ती और पिछले रिकॉर्ड पर कोई ध्यान ही नहीं देते।
तीसरे मारेक़ीन यानी अपने विचारों के बारे में कट्टरपंथी, अतिवादी और भेदभाव वाले लोग थे, बिना इसके कि उन्हें दीनी एतेक़ादात (विश्वास) के आधार की सही पहचान हो।
ग़लती से मारेक़ीन को तक़द्दुस मआब (बहुत सदाचारी) कह दिया जाता है, तक़द्दुस मआब होने की बात नहीं है, अमीरूल मोमिनीन अ. के असहाब के बीच ऐसे लोग मौजूद थे जो उनसे कहीं ज़्यादा ईमान व तक़वा रखते थे। बात यह थी कि इन लोगों की सोच और विचार देखने में दीन के अनुरूप थें, लेकिन उनकी बुनियादें कमजोर और सही मारेफ़त व पहचान से ख़ाली थे।


 उनके पास इतनी समझ नहीं थी कि शक व संदेह की जगहों पर गुमराही से बच सकते। कहीं इतनी शिद्दत व कठोरता कि चूंकि क़ुरआन नैज़ों पर है इसलिए उसकी तरफ़ तीर नहीं चलाए जा सकते क्योंकि कुरान मुक़द्दस व पवित्र है। सिफ़्फ़ीन की जंग में शाम वालों ने मक्कारी करते हुए जैसे ही क़ुरआन नैज़ों पर बुलंद किया (चूंकि उन्हें हार का एहसास हो चुका था इसलिए नैज़ों को कुरान पर बुलंद करने लगे) यह लोग क़ुरआन के सिलसिले में इतना ज्यादा कट्टरपंथी हो गए कि क़ुरआने नातिक़ अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम पर क़ुरआने सामित को प्राथमिकता देने लगे और आप पर जोर डालने लगे कि यह कुरान वाले हैं हमारी मुसलमान भाई हैं, उनके साथ जंग मत करो, धमकियां दे दे के अमीरूल मोमिनीन अ. को जंग अधूरी छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
उन्हें बाद में जब पता चला कि उनके साथ धोखा हुआ है, उन्हें धोखा दिया गया है तो उस ओर से इतने कमजोर साबित हुए कि कहने लगे कि हम सब काफ़िर हो गए हैं, अली (नऊज़ बिल्लाह) काफ़िर हो गए हैं इसलिए तौबा करना चाहिए। इन लोगों के पास चूंकि ईमान और मारेफ़त की सही बुनियादें नहीं थी इसलिए आसानी से एक सौ अस्सी डिग्री तक ग़लत रास्ते पर चल पड़े। हमारे इस्लामी इंकेलाब में अगर आप इस तरह के लोगों की मिसाल जानना चाहते हैं तो वह मुनाफ़ेक़ीन हैं, यह लोग इंक़ेलाब के शुरू में अमेरिका के खिलाफ़ संघर्ष में इमाम खुमैनी तक को नहीं मानते थे। इसके बाद अमेरिका ही के साये में जा छिपे, अमेरिका से पैसे लिए और फिर सद्दाम के पास पनाह ले ली।
जब विचारधाराएं मारेफ़त व सही पहचान पर आधारित न हों, ख़ुद अपनी मानसिक जानकारियों से नादानी के कारण घमंड आ चुका हो और उसके साथ साथ दिखावे में दीन पर अमल भी हो तो इसके नतीजे में मारेक़ीन सामने आते हैं।
अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम के लिए सबसे खतरनाक क़ासेतीन थे। यह वह लोग थे जिनकी हुकूमत का आधार ही ज़ुल्म पर था, हुकूमत के सिलसिले में अल्वी और इस्लामी तर्क को मानते ही नहीं थे, अमीरूल मोमिनीन अ. को मानते ही नहीं थे, लोगों की आपके हाथ पर बैअत भी उन्हें स्वीकार नहीं थी, निष्पक्ष व्यवहार, माल व दौलत का निष्पक्ष विभाजन और न्याय व इंसाफ़ की आवश्यकताओं के अनुसार कदम उठाने पर उनका विश्वास ही नहीं था। इसलिए कि अगर वह इंसाफ़ लागू करने देते या इंसाफ़ का नाम लेते तो सबसे पहले उन्हीं का गिरेबान पकड़ा जाता।


 यह हमारी जिम्मेदारी है और आज अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम का हमारे लिए यही सबसे बड़ा दर्स है। आपने उन्हीं गुणों और अपनी ज़ात में जमा उन्हीं प्रतिष्ठित मूल्यों की वजह से ज़रबत खाई और गुमराह व ज़ालिम इंसानों के हाथों इतनी बड़ी इंसानी मुसीबत व दुर्घटना घटी।
आपके ख़ून का बदला लेने वाला भी ख़ुदा है आप इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़ियारत में कहते हैः
''السلام علیک یا ثار اللہ وابن ثارہ'
केवल इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ून का बदला ख़ुदा नहीं लेगा बल्कि अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम भी सारल्लाह ثار اللہ हैं यानी आपके खून का बदला लेने वाला और आपके ख़ून का वारिस भी खुद अल्लाह तआला है।
आज का दिन कूफ़े और इस्लामी समाज के लिए ग़म का दिन था। और यह ग़म अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की शहादत से पड़ने वाले प्रभावों और आपकी इंसाफ़ पर आधारित हुकूमत से इस्लामी दुनिया की महरूमी की वजह से था। आज का दिन हर मुसलमान नस्ल बल्कि दुनिया भरके आज़ादी पसंद लोगों के लिए शोक का दिन है।
यह दुर्घटना इतनी बड़ी थी कि जब भोर से थोड़ा पहले अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम इब्ने मुलजिम के वार से घायल हुए और आपकी दाढ़ी और चेहरे पर ख़ून बहने लगा तो एक आसमानी आवाज़ सुनी गईः
(''تھدمت واللہ ارکان الھدیٰ'')
यानी हिदायत के खंभे ध्वस्त हो गए।
अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की जवानी सरापा जिहाद थी, दरमियानी उम्र में दिल खून के आंसू बहाता रहा, ग़म ही ग़म थे और ज़िंदगी का अंतिम दौर मुश्किलों में घिरा रहा। इस तरह आपने बहुत ही मज़लूमियत के साथ ज़िंदगी बिता दी। वास्तव में आप दुनिया के सबसे मज़लूम इंसान हैं। आख़िरी दौर मज़लूमियत के साथ बीता और अनंततः आप शहीद हो गये।
रिवायतों के हवाले से दो तीन जुमले आपके मसाएब के बयान कर देता हूं, लूत इब्ने यहिया अबी मख़नफ़ का कहना हैः
(''فلمّااحسّ الامام بالضرب لم یتأوّہ'')
यानी जब मस्जिद के मेहराब में आपके मुबारक सर पर वार हुआ और आपकी पेशानी दो हिस्सों में बट गई तो आपने कोई आह व फ़रियाद नहीं की (''وصبر واحتسب'') अपने को क़ाबू में रखा और सब्र किया (''ووقع علیٰ وجہہ ولیس عندہ احد'') हज़रत मुंह के बल ज़मीन पर गिर गए क्योंकि उस समय वहाँ पास में कोई नहीं था क्योंकि अभी नमाज़ शुरू नहीं हुई थी। मस्जिद में अंधेरा था और लोग अलग अलग नाफ़ेला की नमाज़ पढ़ने में व्यस्त थे इसलिये पहले तो किसी को पता ही नहीं चला कि क्या हुआ है,
('قائلاً بسم اللہ وباللہ وعلیٰ ملۃ رسول اللہ''۔)
ज़रबत लगने के बाद आपकी ज़बान पर यह शब्द जारी हुए। हम दूसरी जगहों पर भी यह शब्द सुनते रहे हैं। जब सैयदुश शोहदा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने ज़रबत खाई और ज़मीन पर गिरे तो रिवायत में है कि आपकी ज़बान पर भी यही शब्द जारी हुयेः
('قائلاً بسم اللہ وباللہ وعلیٰ ملۃ رسول اللہ''۔)
ख़ुदा के नाम से ख़ुदा के लिये और रसूले ख़ुदा स.अ. के रास्ते पर। यानी ज़िंदगी को इसी राह पर कुर्बान कर देना। रिवायत में है कि अमीरूल मोमिनीन अलैहिस्सलाम ने यह जुमला भी कहा थाः
(''فزت وربّ الکعبہ'')
काबे के रब की क़सम मैं कामयाब हो गया। एक दूसरी रिवायत में है कि आप ने कहाः
('لمثل ھذا فلیعمل العاملون'')
यानी ऐसी आक़ेबत के लिए इंसान जितना भी अमल करे कम है।
इसलिए ऐसी आक़ेबत और ऐसे अंत के लिए अमल करना चाहिए। इससे पता चलता है कि यह पाक व पाकीज़ा रूह कितनी अल्लाह से लौ लगाये हुए थी। यहां तक कि (यह जुमले उस समय के हैं) जब अभी आप ज़िंदा और इसी दुनिया में थे।
(''ثم صاح وقال قتلنی الّلعین'')
मुनाजात ख़त्म करने के बाद हज़रत ने तेज़ आवाज़ में कहा ताकि लोगों को पता चले और क़ातिल फरार न करने पाये कि मलऊन ने मुझे मार डाला।
(''فلمّا سمع النّاس الضّجّۃ' )
लोगों तक जब आपकी आवाज़ पहुंची
(ثارالیہ کلّ من کان فی المسجد'')
सब मेहराब की ओर दौड़े, उन्हीं पता नहीं था कि क्या हुआ और क्या करें।
(ثمّ احاطوابأمیرالمؤمنین'')
उसके बाद सबने आपको घेर लिया।
(وھو یشدّ رأسہ بمئزرہ والدّم یجری علیٰ وجہہ ولحیتہ)
जब लोग इकट्ठा हुए तो उन्होंने देखा कि हज़रत इसी ज़ख़्मी हालत में जब कि आपका सर कटा हुआ है, एक रूमाल से घाव बांध रहे हैं और आपके चेहरे और दाढ़ी से ख़ून बह रहा है।
(''وقد خضبت بدمائہ'')
आपकी दाढ़ी जो सफेद थी ख़ून से लाल हो गई है और आप कह रहे हैं
(''ویقول ھذا ما وعد اللہ ورسولہ وصدق اللہ ورسولہ'')
यही ख़ुदा और पैगंबर स.अ. का वादा था। ख़ुदा और पैगंबर स.अ. ने सच कहा था, उनका वादा पूरा हुआ।


सारांश 

मौला अली (अ.स) के खिलाफ जो लोग आये उनमे कुछ कट्टरपंथी, अतिवादी और भेदभाव वाले लोग थे और दुसरे बादशाहत और ताक़त के लालची अत्याचारी बनी उमय्यः के लोग |
लेकिन ऐसे लोगो की तादात भी बहुत थी जिन्होने बैअत करके तोडं दी | यह अमीरूल मोमिनीन अ. के पुराने साथी और दोस्त थे लेकिन आपके इंसाफ़ की ताब न लाते हुए आपके खिलाफ़ जंग के लिए उठ खड़े हुए।
यह लोग अमीरूल मोमिनीन अ. अली को पहचानते थे, आपको इमाम मानते थे यहां तक कि कुछ ने तो खिलाफ़त तक आपको पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसके बाद आपके हाथ पर बैअत भी की थी लेकिन आपके न्याय व इंसाफ़ की ताब न लाते हुए आप ही के खिलाफ़ जंग के लिए उठ खड़े हुए।
अल्लाह से दुआ है कि हमे ना तो कट्टरपंथी बनाये, ना बादशाहत का लालची और ना ही "अद्ल व इंसाफ़"की सख्ती के डर से जाने या अनजाने मे अली (अ.स) का साथ छोडने वालो मे रखे |.....एस एम मासूम

ग़ीबत एक ऐसी बुराई है जो इंसान के दिलो दिमाग़ को नुक़सान पहुंचाती है

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ग़ीबत यानी पीठ पीछे बुराई करना है, ग़ीबत एक ऐसी बुराई है जो इंसान के दिलो दिमाग़ को नुक़सान पहुंचाती है और समाजिक संबंधों के लिए भी ज़हर होती है। पीठ पीछे बुराई करने की इस्लामी शिक्षाओं में बहुत ज़्यादा आलोचना की गयी है। ग़ीबत की परिभाषा में कहा गया है पीठ पीछे बुराई करने का मतलब यह है कि किसी की अनुपस्थिति में उसकी बुराई किसी दूसरे इंसान से की जाए कुछ इस तरह से कि अगर वह इंसान ख़ुद सुने तो उसे दुख हो।  पैगम्बरे इस्लाम स.अ ने ग़ीबत करने की परिभाषा करते हुए कहा है कि ग़ीबत या पीठ पीछे बुराई करना यह है कि अपने भाई को इस तरह से याद करो जो उसे नापसन्द हो। लोगों ने पूछाः अगर कही गई बुराई सचमुच उस इंसान में पाई जाती हो तब भी वह ग़ीबत है? तो पैगम्बरे इस्लाम स.अ ने फ़रमाया कि जो तुम उसके बारे में कह रहे हो अगर वह उसमें है तो यह ग़ीबत है और अगर वह बुराई उसमें न हो तो फिर तुमने उस पर तोहमत यानि आरोप लगाया है।  यहां पर यह सवाल उठता है कि इंसान किसी की पीठ पीछे बुराई क्यों करता है? पीठ पीछे बुराई के कई कारण हो सकते हैं। कभी जलन, पीठ पीछे बुराई का कारण बनती है। जबकि इंसान को किसी दूसरे की स्थिति से ईर्ष्या व जलन होती है तो वह उसकी ईमेज खराब करने के लिए पीठ पीछे बुराई करने का सहारा लेता है। कभी ग़ुस्सा भी इंसान को दूसरे की पीठ पीछे बुराई करने के लिये उकसाता है। एसा इंसान अपने ग़ुस्से को शांत करने के लिए उस इंसान की बुराई करता है।  पीठ पीछे बुराई का एक दूसरे कारण आस पास के लोगों से प्रभावित होना भी है। कभी कभी किसी बैठक में कुछ लोग मनोरंजन के लिए ही लोगों की बुराईयां बयान करते हैं और इस स्थिति में इंसान यह जानते हुए भी कि पीठ पीछे बुराई करना हराम और गुनाह है, लोगों का साथ देने और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए दूसरे लोगों की बुराइयां सुनने लगता है और कभी कभी माहौल का उस पर इतना हावी हो जाता है कि वह ख़ुद भी बुराई करने लगता है ताकि इस तरह से अपने साथियों को ख़ुश कर सके। पीठ पीछे बुराई करने का एक दूसरा कारण लोगों का मज़ाक उड़ाने की आदत भी है और इस तरह से मज़ाक़ उड़ा के कुछ लोग, दूसरे लोगों की हैसियत व मान सम्मान से खिलवाड़ करते हैं। कुछ लोगों दूसरों को ख़ुश करने और उन्हें हंसाने के लिए किसी इंसान की पीठ पीछे बुराई करते हैं। कुछ दूसरे लोग, हीनभावना में ग्रस्त होने के कारण, दूसरे लोगों की पीठ पीछे बुराई करते हैं ताकि इस तरह से ख़ुद को दूसरे लोगों से श्रेष्ठ और बड़ा दर्शा सके, दूसरे लोगों को बेवक़ूफ़ कहते है ताकि ख़ुद को अक़्लमंद दर्शाएं।  अब सवाल यह है कि पीठ पीछे बुराई करने का इंसान की ज़िंदगी पर क्या प्रभाव पड़ता है? वास्तव में इस बुराई के समाज में फैलने से समाज की सब से बड़ी पूंजी यानी एकता व यूनिटी को नुक़सान पहुंचता है और सामाजिक सहयोग की पहली शर्त यानी एक दूसरे पर विश्वास व ऐतेबार ख़त्म हो जाता है। लोग एक दूसरे की बुराई करके और सुन कर, एक दूसरे की छिपी बुराईयों से भी अवगत हो जाते हैं और इसके नतीजे में एक दूसरे के बारे में उनकी सोच अच्छी नहीं होती और एक दूसरे पर भरोसा ख़त्म हो जाता है। पीठ पीठे बुराई, ज़्यादातर अवसरों पर लड़ाई झगड़े को जन्म देती है और लोगों के बीच दुश्मनी की आग को भड़काती है। कभी कभी किसी की बुराई आम करने से वह इंसान उस बुराई पर और ज़्यादा ज़िद कर सकता है क्योंकि जब किसी का कोई गुनाह, पीठ पीछे बुराई के कारण सार्वाजनिक हो जाता है तो फिर वह इंसान उस गुनाह से दूरी या उसे छिप कर करने का कोई कारण नहीं देखता।  कुरआने मजीद में इस बुराई के नुक़सान का बड़े साफ शब्दों में बयान किया गया है और मुसलमानों को इस बुराई से दूर रहने को कहा गया है। कुरआने मजीद के सुरए हुजुरात की आयत नंबर १२ में कहा गया है। ऐ ईमान लाने वालो! बहुत सी भ्रांतियों से दूर रहो, क्योंकि कुछ भ्रांति गुनाह है। और कदापि दूसरो के बारे में जिज्ञासा न रखो और तुम में से कोई भी दूसरे की पीठ पीछे बुराई न करे क्या तुम में से कोई यह पसन्द करेगा कि वह अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाए निश्चित रूप से तुम सबके लिए यह बहुत की घृणित काम है। अल्लाह से डरो कि अल्लाह तौबा (प्राश्यचित) को क़बूल करने वाला और रहेमदिल है। कुरआने मजीद की इस आयत में पीठ पीछे बुराई करने को मुर्दा भाई के गोश्त खाने जैसा बताया गया है कि जिससे हरेक को नफ़रत होगी। कुरआने मजीद ने इन शब्दों का इस्तेमाल करके यह कोशिश की है कि पीठ पीछे बुराई की कुरूपता को अक़्लमंदों के सामने सपष्ट किया जाए ताकि वह ख़ुद ही इस बुराई के बुरे असर का अंदाज़ा लगाएं। इस तरह से कुरआने मजीद ने अपने शब्दों से अंतरात्माओं को झिंझोड़ दिया है।  इसी तरह इस आयत में किसी के बारे में बुरे विचार और भ्रांति को जिज्ञासा का कारण और जिज्ञासा को दूसरे लोगों के रहस्यों से पर्दा हटने का कारण बताया है जो वास्तव में पीठ पीछे बुराई का कारण बनता है और इस्लाम ने इन सब कामों से कड़ाई के साथ रोका है। पीठे पीछे बुराई करना इतना बुरा अमल है कि पैगम्बरे इस्लाम स.अ. ने कहा है कि पीठ पीछे बुराई करना, इतनी जल्दी अच्छे कामों को तबाह कर देता है जितनी जल्दी आग सूखी घास को भी नहीं जलाती। इसी लिए उन्होंने एक दूसरे स्थान पर फ़रमाया है कि अगर तुम कहीं हो और वहां किसी की पीठ पीछे बुराई हो रही हो तो जिसकी बुराई की जा रही हो उसकी ओर से बोलो और लोगों को उसकी बुराई से रोको और उनके पास से उठ जाओ।  इस्लामी इंक़ेलाब के संस्थापक इमाम खुमैनी ने अपनी किताब चेहल हदीस में इस बुराई से बचने के लिए कहते हैं कि तुम अगर उस इंसान से दुश्मनी रखते हो जिसकी बुराई कर रहे हो तो दुश्मनी के कारण होना यह चाहिए कि तुम उसकी बिल्कुल ही बुराई न करो क्योंकि एक हदीस में कहा गया है कि पीठ पीछे बुराई करने वाले के अच्छे काम जिसकी बुराई की जाती है उसे दे दिये जाते हैं तो इस तरह से तुमने ख़ुद से दुश्मनी की है। पीठ पीछे बुराई करने वाला अपने काम पर ध्यान देकर उस कारक पर विचार कर सकता है जिसने उसे किसी की पीठ पीछे बुराई करने पर उकसाया है। इसके बाद वह उस कारक को दूर करने का कोशिश करे। अगर पीठ पीछे बुराई इस लिए कर रहा है ताकि इस बुराई में ग्रस्त अपने साथियों का साथ दे सके तो उसे जान लेना चाहिए वह अपने इस काम से अल्लाह के ग़ज़ब व आक्रोश को भड़काता है इस लिए बेहतर यही होगा कि वह एसी लोगों के साथ उठना बैठना छोड़ दे। अगर उसे यह लगता है कि वह गर्व के लिए और दूसरे लोगों के सामने अपनी बढ़ाई के लिए दूसरों की पीठ पीछे बुराई करता है तो उसे इस वास्तविकता पर ध्यान देना चाहिए दूसरे लोगों के सामने बड़ाई करने से आत्मसम्मान गंवाने के अलावा और कोई नतीजा नहीं निकलेगा। अगर पीठ पीछे बुराई करने का कारण ईर्ष्या है तो उसे यह जान लेना चाहिए कि उसने दो गुनाह किये हैं।  एक जलन और दूसरा पीठ पीछे बुराई करना इसके साथ ही दुनिया व आख़ेरत के नतीजों के दृष्टिगत, पीठ पीछे बुराई करने वाला किसी दूसरे से अधिक ख़ुद अपने आप को नुक़सान पहुंचाता है। इस लिए उसे इस बुराई से दूर रहने के लिए उसके नतीजों पर ध्यान देना चाहिए। इस गुनाह के इस दुनिया में बुरे नतीजों के साथ ही, आख़ेरत में अल्लाह के अज़ाब का भी सामना होगा। इंसान को नतीजों से डरना चाहिए इस बात से डरना चाहिए कि अगर आज वह पीठ पीछे बुराई करके दूसरे लोगों का राज़ सब के सामने उजागर करता है तोज कल क़यामत में अल्लाह भी उसके रहस्यों से पर्दा हटा कर उसे सबके सामने अपमानित करेगा। 

हसद का इलाज क्या है?

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हसद का मतलब होता है किसी दूसरे इंसान में पाई जाने वाली अच्छाई और उसे हासिल नेमतों के ख़त्म हो जाने की इच्छा रखना। हासिद इंसान यह नहीं चाहता कि किसी दूसरे इंसान को भी नेमत या ख़ुशहाली मिले। यह भावना धीरे धीरे हासिद इंसान में अक्षमता व अभाव की सोच का कारण बनती है और फिर वह हीन भावना में ग्रस्त हो जाता है। हसद में आमतौर पर एक तरह का डर भी होता है क्योंकि इस तरह का इंसान यह सोचता है कि दूसरे ने वह स्थान, पोस्ट या चीज़ हासिल कर ली है जिसे वह ख़ुद हासिल करना चाहता था। हासिद इंसान हमेशा इस बात की कोशिश करता है कि अपने प्रतिद्वंद्वी की उपेक्षा करके या उसकी आलोचना करके उसे मैदान से बाहर कर दे ताकि अपनी पोज़ीशन को मज़बूत बना सके। वास्तव में हसद करने वालों की अस्ली समस्या यह है कि वह दूसरों की अच्छाइयों और ख़ुशहाली को बहुत बड़ा समझते हैं और उनकी ज़िंदगी की कठिनाइयों व समस्याओं की अनदेखी कर देते हैं। हासिद लोग, दूसरे इंसानों की पूरी ज़िंदगी को दृष्टिगत नहीं रखते और केवल उनकी ज़िंदगी के मौजूदा हिस्से को ही देखते हैं जिसमें ख़ुशहाली होती है। कुल मिला कर यह कि हासिद लोगों के मन में अपने और दूसरों की ज़िंदगी की सही तस्वीर नहीं होती और वह मौजूदा हालात के तथ्यों को बदलने की कोशिश करते हैं।
इस्लामी शिक्षाओं में हसद जैसी बुराईयों की बहुत ज़्यादा आलोचना की गई है और क़ुरआने मजीद की आयतों तथा पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके अहलेबैत की हदीसों में लोगों को इससे दूर रहने की सिफ़ारिश की गई है। इन हदीसों में हसद को दुनिया व आख़ेरत के लिए बहुत ज़्यादा हानिकारक बताया गया है। मिसाल के तौर पर कहा गया है कि हसद, दीन को तबाह करने वाला, ईमान को ख़त्म करने वाला, अल्लाह से दोस्ती के घेरे से बाहर निकालने वाला, इबादतों के क़बूल न होने का कारण और भलाइयों का अंत करने वाला है। हसद, तरह तरह के गुनाहों का रास्ता भी तय्यार करता है। हासिद इंसान हमेशा डिप्रेशन व तनाव में ग्रस्त रहता है। उसके आंतरिक दुखों व पीड़ाओं का कोई अंत नहीं होता। इस्लामी शिक्षाओं में इस बात पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया गया है कि हासिद इंसान कभी भी मेंटली हिसाब से शांत व संतुष्ट नहीं रहता। वह ऐसी बातों पर दुःखी रहता है जिन्हें बदलने की उसमें क्षमता नहीं होती। वह अपनी नादारी से दुःखी रहता है जबकि उसके पास न तो दूसरे से वह नेमत छीनने की क्षमता होती है और न ही वह उस नेमत को ख़ुद हासिल कर सकता है।

कभी कभी हसद उन चीज़ों से फ़ायदा उठाने की ताक़त भी हासिद से छीन लेता है जो उसके पास होती हैं और वह उनसे आनंद उठा सकता है। इस तरह का इंसान मेंटली सुकून नहीं रखता है और यह बात तरह तरह के ख़तरनाक मेंटली व जिस्मानी बीमारियों में उसके ग्रस्त होने का कारण बनती है। इस तरह से कि डिप्रेशन, दुःख व चिंता धीरे धीरे हासिद इंसान को जिस्मानी हिसाब से कमज़ोर बना देती है और उसका जिस्म तरह तरह की बीमारियों में ग्रस्त होने के लिए तैयार हो जाता है। यही कारण है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम, हसद से दूरी को सलामती का कारण बताते हैं क्योंकि हसद, जिस्म को स्वस्थ नहीं रहने देता। मेंटली सुकून, सुखी मन और चिंता से दूरी ऐसी बातें हैं जो हासिद इंसान में नहीं हो सकतीं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया है कि हासिद, सबसे कम सुख उठाने वाला इंसान होता है।

अब सवाल यह है कि इस्लामी शिक्षाओं में हसद के एलाज के क्या रास्ते बताये गए हैं? इसके जवाब में कहा जा सकता है कि इस्लाम ने हसद के एलाज के लिए बहुत से रास्ते सुझाए हैं। इसके एलाज का पहला स्टेज यह है कि इंसान, अपनी ज़िंदगी और रूह पर हसद के हानिकारक नतीजों व प्रभावों के बारे में फ़िक्र करे और यह देखे कि हसद से उसकी दुनिया व आख़ेरत को क्या नुक़सान होता है? हसद के एलाज के लिए पहले उसके कारणों को समझना चाहिए ताकि उन्हें ख़त्म करके इस बीमारी का सफ़ाया किया जा सके। हसद का मुख्य कारण बुरे विचार रखना है। नेचुरल सिस्टम और अल्लाह के बारे में नेगेटिव सोच, हसद पैदा होने के कारणों में से एक है क्योंकि हासिद इंसान दूसरों पर अल्लाह की नेमतों को सहन नहीं कर पाता या यह सोचने लगता है कि अल्लाह उससे प्यार नहीं करता और इसी लिए उसने फ़लां नेमत उसे नहीं दी है।

यही कारण है कि इस्लामी शिक्षाओं में दूसरों के बारे में पॉज़ेटिव व भले विचार रखने पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। अल्लाह, उसके गुणों तथा उसके कामों पर ईमान को मज़बूत बनाना, हसद को रोकने का एक दूसरे रास्ता है। यानि इंसान को यह यक़ीन रखना चाहिए कि अल्लाह ने जिस इंसान को जो भी नेमत दी है वह उसकी रहमत, अद्ल व इंसाफ़ के आधार पर है। अगर इंसान इस यक़ीन तक पहुंच जाए कि अल्लाह के इल्म के बिना किसी पेड़ से कोई पत्ता तक नहीं गिरता तो फिर वह इस नतीजे तक पहुंच जाएगा कि हर इंसान को किसी नेमत मिलने का मतलब यह है कि उसे किसी काम का इनाम दिया गया है, अल्लाह की ओर से उसका इम्तेहान लिया जा रहा है या फिर कोई दूसरे बात है जिसकी उसे ख़बर नहीं है और केवल जानकार अल्लाह ही है जो यह जानता है कि वह क्या कर रहा है। इस बात पर ध्यान देने से इंसान के अंदर संतोष की भावना पैदा होती है और जो चीज़ें उसे दी गई हैं उन पर वह संतुष्ट रहता है जिसके नतीजे में, दूसरों को हासिल नेमतों से उसे हसद नहीं होता।

इंसान को इसी तरह यह कोशिश करनी चाहिए कि वह बुरी अंतरात्मा के बजाए अच्छी अंतरात्मा का मालिक हो। उसे दूसरे लोगों के पास मौजूद चीजों के बारे में ख़ुद को हीन भावना में ग्रस्त करने की जगह पर अपने स्वाभिमान और साख पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। स्वार्थ और आत्ममुग्धता के बजाए अल्लाह की पहचान, अल्लाह से मुहब्बत तथा विनम्रता और दुश्मनी के बजाए दोस्ती से काम लेना चाहिए। हसद से मुक़ाबला करने का एक दूसरे रास्ता यह कि इंसान सभी लोगों से मुहब्बत करे और उन्हें बुरा भला कहने की जगह पर उनकी सराहना करे, इस तरह से कि उसके और दूसरे लोगों के संबंधों में प्यार, दोस्ती व रहेमदिली की ही छाया रहे। जो कुछ लोगों के पास है उस पर ध्यान न देना और अल्लाह ने हमें जो कुछ दिया है केवल उन्हीं चीज़ों पर ध्यान देना, हसद से मुक़ाबले के आंतरिक रास्तों में से एक है। अगर इंसान यह देखे कि उसके पास वह कौन कौन सी भौतिक व आध्यात्मिक नेमतें हैं जो दूसरों के पास नहीं हैं और वह कोशिश व मेहनत करके इससे भी ज़्यादा नेमतें हासिल कर सकता है तो यह बात हासिद इंसान की इस बात में मदद करती है कि वह अपने भीतर हसद की जड़ों को ख़त्म कर दे।

जिस इंसान से हसद किया जा रहा है वह भी हसद को ख़त्म करने में मदद कर सकता है। जब इस तरह का इंसान, हासिद इंसान से मुहब्बत करेगा तो वह भी अपने रवैये में तब्दीली लाएगा और दोस्ती के लिए उचित रास्ता तय्यार हो जाएगा। इस तरह हसद और बुरे विचारों का रास्ता बंद हो जाएगा। क़ुरआने मजीद के सूरए फ़ुस्सेलत की 34वीं आयत में लोगों के बीच पाए जाने वाले नफ़रत को ख़त्म करने के लिए यही मेथेड सुझाया गया है। इस आयत में अल्लाह कहता है। (ऐ पैग़म्बर!) अच्छाई और बुराई कदापि एक समान नहीं हैं। बुराई को भलाई से दूर कीजिए, अचानक ही (आप देखेंगे कि) वही इंसान, जिसके और आपके बीच दुश्मनी है, मानो एक क़रीबी दोस्त (बन गया) है।

हसद को ख़त्म करने का एक दूसरे रास्ता यह है कि जब ज़िंदगी में ऐसे लोगों का सामना हो जिनकी संभावनाएं और हालात बेहतर हैं तो तुरंत ही उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए कि जिनकी स्थिति हमसे अच्छी नहीं है। इस तरह हमें यह समझ में आ जाएगा कि अगरचे हम अपनी बहुत सी इच्छाओं को हासिल नहीं कर सके हैं लेकिन अभी भी हमारी स्थिति दुनिया के बहुत से लोगों से काफ़ी अच्छी है। वास्तव में हम ऐसी बहुत सी चीज़ों की अनदेखी कर देते हैं या उन्हें भुला देते हैं जो प्राकृतिक रूप से हमारे पास हैं या फिर हमने उन्हें हासिल किया है। मिसाल के तौर पर हेल्थ, जवानी, ईमान, अच्छा परिवार, क़रीबी दोस्त और इसी तरह की दूसरी बहुत सी चीज़ें और बातें हैं जिनकी हम अनदेखी कर देते हैं। अगर हम इन पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि हमारे पास कितनी ज़्यादा संभावनाएं और विशेषताएं हैं जिनके वास्तविक मूल्य व महत्व को हम इस लिए भूल चुके हैं कि हम उनके आदी हो चुके हैं। अलबत्ता इस वास्तविकता को भी क़बूल करना चाहिए कि ज़िंदगी में केवल भलाई व आसानियों का वुजूद नहीं होता। ज़िंदगी, अच्छी व बुरी बातों का समूह है। अगर किसी के पास कोई ऐसी संभावना है जो आपके पास नहीं है तो इसके बदले में आपके पास भी कोई न कोई ऐसी विशेषता है जो दूसरों के पास नहीं है।

हसद को ख़त्म करने का एक दूसरे रास्ता यह है कि उन लोगों के व्यक्तित्व की विशेषताओं और सोचने के तरीक़े को पहचाना जाए जो हासिद नहीं हैं। ऐसे लोग जो वास्तव में आपकी कामयाबी से ख़ुश होते हैं। अब आप कोशिश कीजिए कि उस तर्क को समझने की कोशिश कीजिए जिसके अंतर्गत वे आपकी तरक़्की से ख़ुश होते हैं। उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानें और अपने बारे में उनकी सोच की शैली पर ध्यान दें। इन लोगों की सोच की क्या विशेष शैली और क्या विशेषता है? किस तरह वह अल्लाह की ताक़त व तत्वदर्शिता पर इतना ठोस ईमान रखते हैं? और किस तरह वे दिल से दूसरों से मुहब्बत कर सकते हैं और उनकी कामयाबी की कामना कर सकते हैं? इस सवालो के बारे में सोचें और ध्यान दें कि उन्होंने किस तरह यह शांति व संतोष हासिल किया है?

एक मुस्लमान के लिए ज़रूरी है कि अपने घर परिवार और रिश्तेदारों से मुलाक़ात करता रहे

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इस्लाम ने जिन समाजी और सोशली अधिकारों की ताकीद की है और मुसलमानों को उनकी पाबंदी का हुक्म दिया है उनमें से एक यह है कि वह अपने घर परिवार और रिश्तेदारों के साथ हमेशा अच्छे सम्पर्क बनाये रखें इसी को सिल-ए-रहेम अर्थात रिश्तेदारों से मिलना जुलना कहा जाता है।
इसलिये एक मुस्लमान के लिए ज़रूरी है कि अपने घर परिवार और रिश्तेदारों से मुलाक़ात करता रहे और उनके हाल चाल पूछा करे उनके साथ अच्छा व्यवहार रखे अगर ग़रीब हों तो उनकी सहायता करे, परेशान हाल हों तो उनकी मदद के लिए पहुँचे और उनके साथ घुल मिल कर रहे और नेक कामों तथा सदाचार और तक़वे में उन्हें सहयोग दे अगर कोई किसी मुसीबत में ग्रस्त हो जाए तो ख़ुद उनका शरीक हो जाए और अगर किसी को किसी मुश्किल का सामना हो हो तो उसे हल करने की कोशिश करे और अगर उनकी तरफ़ से ग़लत व्यवहार या कोई अनुचित काम देखे तो ख़ुबसूरत तरीक़े से उन्हें नसीहत करे। क्योंकि हर इंसान के घर परिवार और रिश्तेदारों ही उसके समर्थक होते हैं यानी अगर हालात के उलट फेर से उसके ऊपर कोई भी मुश्किल आ पड़ती है तो उसकी निगाहें उन्हीं की तरफ़ उठती हैं।

इसी लिए उनका इतना महान अधिकार है। हज़रत अली अ. फ़रमाते हैः

ऐ लोगो ! कोई आदमी चाहे जितना मालदार हो वह आपने घर परिवार और रिश्तेदारों और क़बीले की ज़बानी या अमली और दूसरे प्रकार की सहायता से विमुक्त नहीं हो सकता है और जब उस पर कोई मुश्किल और मुसीबत पड़ती है तो उसमें सबसे ज़्यादा यही लोग उसका समर्थन करते हैं। (नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा न0 23) आप ने यह भी फ़रमायाः जान लो कि तुम में कोई आदमी भी अपने रिश्तेदारों को मोहताज देख कर उस माल से उसकी ज़रूरत पूरी करने से हाथ न ख़ींचे जो बाक़ी रह जाए तो बढ़ नहीं जाएगा और ख़र्च कर दिया जाए तो कम नहीं होगा इस लिए कि जो आदमी भी अपने क़ौम और क़बीले से अपना हाथ रोक लेता है तो उस क़बीले से एक हाथ रुक जाता है और ख़ुद उससे अनगिनत हाथ रुक जाते हैं और जिसके व्यवहार में नरमी होती है वह क़ौम की मुहब्बत को हमेशा के लिए हासिल कर लेता है। (नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा न0 23)

मौला ने इस स्थान पर परिवार वालों या रिश्तेदारों से सम्बंध तोड़ लेने से नुक़सान की बेहतरीन मिसाल दी है कि उसके अलग हो जाने की वजह से घर परिवार और रिश्तेदारों को केवल एक आदमी का नुक़सान होता है मगर वह ख़ुद अपने अनगिनत हमदर्दों को खो बैठता है इस तरह आपने इस बात की तरफ़ भी इशारा फ़रमाया किः अच्छे व्यवहार द्वारा घर परिवार और रिश्तेदारों की मोहब्बतें हासिल होती हैं जिस में अनगिनत भलाईयाँ पाई जाती हैं। निश्चित रूप से हर बड़े ख़ानदान या क़बीले और समाज में बहुत सारे लोग पाए जाते हैं जिन की क्षमताएं, सम्भावनाएं और योग्यताएं भी भिन्न होती हैं, आप को उनके अंदर आलिम, जाहिल, मालदार, ग़रीब, स्वस्थ, शक्तिशाली, कमज़ोर, या बिल्कुल पिछड़े हुए, हर प्रकार के लोग मिल जाएंगे। तो आख़िर वह ऐसी कौन सी चीज़ है जो उस समाज को एक ताक़तवर, विकसित और बिल्कुल मॉडरेट समाज बना सकती है?
निश्चित रूप से आपसी सम्बंध और सम्पर्क का स्थिरता या ज़िम्मेदारी के एहसास जो एक दूसरे की सहायता तरक़्की और सहयोग से पैदा होते हैं यही वह चीज़ें हैं जिन के द्वारा हम उस नेक मक़सद तक पहुँच सकते हैं और उसका तरीक़ा यह है कि हर मालदार अपनी क़ौम के ग़रीबों का दामन थाम ले, ताक़तवर अपनी क़ौम के कमज़ोर तबक़े के अधिकारों का समर्थन करे और दुश्मनों के मुक़ाबले में उनके अधिकारों के लिए उनके साथ उठ ख़ड़ा हो।
बेशक किसी भी क़ौम और समाज में रिश्तेदारों से मिलने जुलने की की बदौलत एक मज़बूत ताक़तवर और समामानित समाज वजूद में आता है। यही वजह है कि इस्लाम ने मुसलमानों को आपसी भाई चारा और बरादरी को मज़बूत से मज़बूत बनाने की ताकीद की है और किसी भी हाल में उन से सम्पर्क को तोड़ने या उन्हें कमज़ोर करने के ख़तरों से उन्हे बख़ूबी आगाह कर दिया है। और हदीसे शरीफ़ा में तो रिश्तेदारों से मिलने जुलने को इस क़दर अहमियत और बुलंद दर्जा दिया गया है कि उसे दीन और ईमान बताया गया है जैसा कि इमाम-ए-मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने अपने पाक पूर्वजों के माध्यम से हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की यह रेवायत नक़्ल फ़रमाई है कि आपने फ़रमायाः अपनी उम्मत के मौजूदा और ग़ैर मौजूदा यहां तक कि मर्दों के सुल्बों और औरतों के रहमों में मौजूद और क़्यामत तक आने वाले हर आदमी से मेरी वसीयत यह है कि अपने घर परिवार और रिश्तेदारों के साथ मिलना जुलना रखें, चाहे वह उससे एक साल की दूरी के फ़ासले पर क्यों न रहते हों क्योंकि यह दीन का हिस्सा है।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने भी हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की यह रेवायत नक़ल फ़रमाई है कि आप ने फ़रमायाः जिसे यह ख़वाहिश है कि अल्लाह तआला उसकी उम्र में इज़ाफ़ा फ़रमा दे और उसके खुराक को वसी कर दे तो वह रिश्तेदारों से मिलना जुलना करे क्योंकि क़्यामत के दिन रहम को ज़बाले मानो दि जाएगी और वह अल्लाह की बारगाह में अरज़ करे गी, बारे इलाहा जिस ने मुझे जोड़ा तू उससे सम्पर्क क़ायम रखना और जिस ने मुझे क़ता किया तू भी उससे सम्पर्क तोड़ लेना। इमाम-ए-रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपने पाक पूर्वजों के वास्ते से हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की यह हदीसे शरीफ़ नक़ल फ़रमायी है कि अपने फ़रमाया जो आदमी मुझसे एक बात का वादा कर ले मैं उसके लिए चार चीज़ों की ज़मानत लूँगाः अपने घर परिवार और रिश्तेदारों से मिलना जुलना रखे तो अल्लाह तआला उसे अपना चहेता रखेगा, उसके खुराक को उस पर ज़्यादा कर देगा, उस की उम्र को बढ़ा देगा और उसको उस जन्नत में दाख़िल करेगा जिसका उससे वादा किया है। इमाम-ए-मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं रिश्तेदारों से मिलना जुलना, काम को पाक़ीज़ा और संपत्ति को ज़्यादा कर देता है बलाओं को दूर करता है और मौत को टाल देता है।

आपने एक ख़ुत्बे में इरशाद फ़रमायाः इस में दीन व ईमान, लम्बी उम्र, खुराक में वृद्धि, अल्लाह की मोहब्बत व रेज़ा और जन्नत किया कुछ मौजूद नहीं हैं यह रिश्तेदारों से मिलना जुलना ही है जो दुनिया में इंसान की अमीरी और आख़ेरत में उसकी जन्नत की गारंटी देता है और अल्लाह की मरज़ी तो सबसे बड़ी है। जिसके मानी यह हैं कि वह दुनिया में पाक ज़िंदगी और आख़ेरत में रौशन और ताबनाक ज़िंदगी का मालिक है। रिश्तेदारों से मिलने जुलने की इतनी अहमियत और महानता को पहचानने के बाद क्या अब भी यह बहाना बनाना सही है कि घर परिवार और रिश्तेदारों से हम बहुत फ़ासले पर हैं या काम की ज़्यादती की आधार पर हम बहुत ज़्यादा बिज़ी हैं इसलिये उनसे सम्पर्क नहीं रख पाते हैं? और ख़ास तौर से अगर किसी का कोई सम्बंधी किसी के ज़ुल्म का शिकार हो तो क्या उसके लिए यह कार्य विधि वस्तुतः जाएज़ है? पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और अइम्मा-ए-ताहेरीन ने हर मोमिन के लिए एक ऐसा रौशन और स्पष्ट रास्ता बना दिया है जिस पर चलने वाले हर आदमी से अल्लाह राज़ी रहेगा। रिवायात में है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम से किसी ने यह शिकायत की कि मुझे मेरी क़ौम वाले यातना पहुंचाते हैं इसलिये मैं ने यही बेहतर समझा है कि उनसे सम्बंध तोड़ लूँ तो पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने इरशाद फ़रमायाः अल्लाह तआला तुम से नाराज़ हो जाएगा। उसने पूछा या रसूल अल्लाह फिर मैं किया करूँ ? आपने फ़रमायाः जो तुम्हें महरूम करे उसे अता कर दो, जो तुम से सम्पर्क तोड़े उससे सम्पर्क क़ायम रखो जो तुम्होरे ऊपर ज़ुल्म करे उसे माफ़ कर दो, अगर तुम ऐसा करोगे तो उनके मुक़ाबले के लिए अल्लाह तआला तुम्हारा यारो मदद गार है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः अपने घर परिवार और रिश्तेदारों से मिलना जुलना रखो चाहे वह तुम से सम्बंध तोड़ लें। हज़रत इमाम-ए-जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः रिश्तेदारों से मिलना जुलना और नेक व्यवहार हेसाब को आसान कर देता है, और गुनाहों से महफ़ूज़ रखता है, इसलिये अपने घर परिवार और रिश्तेदारों के साथ मिलना जुलना रखो और अपने भाईयों के साथ नेक व्यवहार करो चाहे अच्छे अंदाज़ में सलाम करके या उसका जवाब देकर ही क्यों ना हो।
  पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने इरशाद फ़रमायाः अपने रिश्तेदारों से मिलना जुलना करो चाहे सलाम के द्वारा ही क्यों हो। आप ही से यह भी रिवायत हैः अपने घर वालों से, रिश्तेदारों से मिलना जुलना करो चाहे एक घूँट पानी के द्वारा हो और रिश्तेदारों से मिलने जुलने का सबसे बेहतरीन तरीक़ा यह है कि अपने घर परिवार वालों को यातना न दी जाए। उल्लिखित हदीस से बख़ूबी समझा जा सकता है कि अच्छे सम्बंध और सम्पर्क के स्थिरता पर और उनके बनाये रखने में रिश्तेदारों से मिलने जुलने की किया भूमिका है बहुत सम्भव है कि आप किसी से दूर होने कि वजह पर उससे मुलाक़ात ना कर सकें लेकिन उसके नाम आप का एक ख़त ही आप की तरफ से मुहब्बत के इज़हार और रिश्तेदारों से मेल मिलाप के लिए काफ़ी हो यानी जिस तरह आप अपने आस पास मौजूद घर परिवार और रिश्तेदारों को चहेक कर सलाम करते हैं यह ख़त भी उसी तरह एक रिश्तेदारों से मिलना जुलना है यहां तक कि कि किसी के लिए किसी बर्तन में पानी पेश करना, यहां तक कि अगर उन्हें कोई यातना ना पहुँचाए तो यह भी एक प्रकार का रिश्तेदारों से मिलना जुलना है बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्मत्फ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने उस को रिश्तेदारों से मिलने जुलने का सबसे अच्छा तरीक़ा बताया है।
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