Quantcast
Channel: हक और बातिल
Viewing all 658 articles
Browse latest View live

नवरोज़ मनायेंगे और बनायेंगे पूरे साल को खुशहाल |

$
0
0

नवरोज़'यानी नया दिन नामक यह त्यौहार उस दिन पड़ता है, जब वसन्तकाल में दिन और रात बराबर होते हैं। रोज़, प्रकृति के उदय, प्रफुल्लता, ताज़गी, हरियाली और उत्साह का मनोरम दृश्य पेश करता है। नवरोज़ केवल पारसी नव वर्ष कीशुरुआत का प्रतीक नहीं है बल्कि प्राचीन परंपराओं व संस्कारों के साथ नौरोज़ का उत्सव न केवल ईरान ही में ही नहीं बल्कि बहुत से  अन्य देशों में भी मनाया जाता है। नौरोज़ का उत्सव, मनुष्य के पुनर्जीवन और उसके हृदय में परिवर्तन के साथ प्रकृति की स्वच्छ आत्मा में चेतना व निखार पर बल देता है। हर क़ौम और समुदाय के कुछ विशेष त्योहार, उत्सव और प्रसन्नता व्यक्त करने के दिन होते हैं। उस दिन उस क़ौम के लोग अपने रीति-रिवाजों के अनुसार अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। इस्लाम के आगमन से पहले अरबों के यहां ईद का दिन ‘यौमुस सबाअ’ कहलाता था। मिस्र में कुब्ली ‘नवरोज़’ को ईद मनाते थे। उस समय  दो धार्मिक त्योहार नवरोज़ और मीरगान थे, जो बाद में मौसमी त्यौहार बन गए। नवरोज़ बसंत के मौसम में मनाया जाता था, जबकि मीरगान सूर्य देवता का त्यौहार था और पतझड़ में मनाया जाता था। पारसियों के इस त्यौहार का प्रभाव कुछ मुगल शहंशाहों पर भी रहा, जो बड़े जोशो-ख़रोश से नवरोज़ का आयोजन करते थे।

मुसलमानों में भी इस नवरोज़ की बड़ी अहमियत है और इसे भी ईद का दिन माना जाता है|  अल्लामा मजलिसी  अपनी किताब जाद अल माद में लिखते हैं की मुल्ला इब्ने जानिस कहते हैं की एक बार नवरोज़ के दिन उनका साथ इमाम जाफ़र इ सादिक (अ.स) का था तो इमाम (अ.स) ने पुछा क्या तुम जानते तो इस दिन की अहमियत क्या है ? इमाम ने कहा सुनो यह वो दिन हैं जैम अल्लाह ने दुनिया में सारे इंसानों को भेजने से पहले उनकी रूहों को पहचनवाया की देखो अल्लाह एक है और उसमे किसी को शरीक करना शिर्क है | यह वो दिन भी है जब हजरत नूह के वक़्त में आया तूफ़ान रुक गया था और उनकी नाव जूद्दी नामक पहाड़ पे रुक गयी थी |यह वो भी दिन हैं जब हजरत अली (अ.स) की विलायत का एलान हुआ था जिसे ईद इ गदीर भी कहा जाता है | इस दिन मुसलमान दुआएं मांगते हैं अल्लाह के एक होने का एलान करते हैं और क़सम खाते हैं की हम उस खुदा के बन्दे हैं जिसका कोई शरीक नहीं हैं जो वाहिद है |

२० मार्च से 21 मार्च के बीच एक वक़्त आता है जिसे तहवील वक़्त कहा जाता है जिस समय दिन और रात एक बराबर हो जाते हैं |इस वर्ष २०१४ में यह वक़्त lucknow में २० मार्च की शाम 9 बजके 15 मिनट है | इस वक़्त पढने के लिए कुछ नमाजें और अमाल इस प्रकारहैं  | “ तहवील वक़्त” मुसलमानों के खलीफा हजरत अली (अ.स) की नजर दिलाई जाती है जो इस आल ज़र्द रंग की मिठाई पे दिलाई जाएगी |  वैसे तो इसका नजर और नियाज़ से कोई रिश्ता नहीं है लेकिन यह आम है की   हर साल का एक रंग होता है और एक जानवर होता है जो तहवील के वक़्त ज़ाहिर हुआ करता है | इस साल का रंग ज़र्द है और जानवर घोडा | यह भी माना जाता है की यदि एक पानी की थाली में गुलाब का फूल रख दें तो वक़्त ऐ तहवील यह फूल यदि थार हो तो चलने लगता है |


 प्रेम से कांटे फूल बन जाते हैं।  सगे संबंधियों से मिलना दिल में प्रेम के बीज बोता है और हर बार उनसे मिलना इस बीज की सिंचाई के समान है, यहां तक कि यह प्रेम व मित्रता का वृक्ष मज़बूत और तनावर होता है। दूसरी ओर सगे संबंधियों से भेंट, द्वेष व इर्ष्या को दूर कर देते हैं और पारिवारिक संबंधों के सुदृढ़ होने का कारण बनते हैं। मैं खुशी के इस मौके पर दुआ करता हूं कि हम सब के  जीवन में शांति, प्रगति और खुशी आए।”

कौन सा काम करते वक़्त या कहते वक़्त इंशाल्लाह कहा जाये |

$
0
0
सूरए कह्फ़ की आयत २४ में ज़िक्र है की कौन सा काम करते वक़्त या कहते वक़्त इंशाल्लाह कहा जाये |

और कदापि किसी वस्तु के बारे में यह मत कहिए कि मैं उसे कल करूंगा (18:23) (बल्कि यह कहिए कि) यदि ईश्वर ने चाहा तो (मैं कल यह काम करूंगा) और यदि आप इसे भूल जाएं तो (जब भी याद आए) अपने पालनहार को याद कीजिए और कहिए कि आशा है कि मेरा पालनहार उस मार्ग की ओर मेरा मार्गदर्शन करेगा जो अधिक निकट है। (18:24)

ये आयतें एक मूल आदेश का वर्णन करती हैं। यद्यपि इस आदेश का प्राथमिक संबोधन पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से है किंतु मूल रू से सभी मुसलमान इसके संबोधन के पात्र हैं और उन्हें इसका पालन करना चाहिए। इन आयतों के अनुसार ईमान वाले व्यक्ति को भविष्य के संबंध में अपने हर कथन और कर्म के बारे में बात करते हुए इन शाअल्लाह अर्थात यदि ईश्वर ने चाहा तो, कहना चाहिए।

इसका अर्थ यह है कि स्वयं उस व्यक्ति को भी और जिससे वह बात कर रहा है उसे भी यह बात समझनी चाहिए कि उसने जो भी कहा है कि वह उसी स्थिति में संभव है जब ईश्वर चाहे और ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी बात नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में ईमान वाले व्यक्ति जब भी कोई बात करते हैं तो इन शाअल्लाह अवश्य कहते हैं जैसा कि स्वयं क़ुरआने मजीद में भी हज़रत याक़ूब, शुऐब, ख़िज़्र और इस्माईल अलैहिमुस्सलाम जैसे पैग़म्बरों के कथनों में यह वाक्य वर्णित है।

स्पष्ट है कि यह वाक्य केवल मौखिक उद्धरण नहीं है बल्कि एक सच्चे मुसलमान की आस्था और उसके दृष्टिकोण का वर्णन करता है। यद्यपि हर व्यक्ति की अपनी इच्छा और अपना अधिकार होता है किंतु स्पष्ट है कि किसी काम का वास्तव में होना लोगों की इच्छा पर निर्भर नहीं है बल्कि उसके लिए विभिन्न कारकों और कारणों की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी काम नहीं होता।

इन आयतों से हमने सीखा कि हमें केवल अपनी इच्छा और क्षमता पर भरोसा नहीं करना चाहिए, स्वयं को ईश्वर से आवश्यकतामुक्त नहीं समझना चाहिए और अपने निर्णयों में उसे नहीं भूलना चाहिए।

जब पैग़म्बरों तक को अपने जीवन के मामलों में ईश्वरीय मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है तो हम जैसे साधारण लोगों को तो उसकी अधिक आवश्यकता है अतः हमें सदैव ईश्वर से ये प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उत्तम मार्ग की ओर हमारा मार्गदर्शन करे।

इमाम हुसैन के लिए हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने सजदा लम्बा कर दिया|

$
0
0
हज़रत अबदुल्लाह बिन शद्दाद रज़ियल्लाहु तआला अन्हु से वर्णित है, वह अपने पिता से वर्णित करते हैं, इन्हों ने फरमाया के हज़रत रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम इ़शां कि नमाज़ के लिए हमारे पास आए, इस स्थिति में आप हज़रत हसन या हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु तआला अन्हु को उठाए हुए थे, फिर हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम आगे तशरीफ ले गए तथा इन्हें बिठा दिया, फिर आप ने नमाज़ के लिए तकबीर फरमाई एवं नमाज़ अदा करने लगे नमाज़ में आप ने लम्बा सजदा किया, मेरे पिता कहते हैः- मैं ने सर उठा कर देखा के हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम सजदे में है हैं तथा शहज़ादे रज़ियल्लाहु तआला अन्हु आप कि धन्य पीठ पर हैं।  तो मैं फिर सजदे में चला गया, जब हज़रत रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम नमाज़ से फारिग़ हुए तो सहाबा किराम ने विनती कीः या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम!  आप ने नमाज़ में सजदा लम्बा (तवील) फरमाया के हमें आशंका हुई के कहीं कोई घटना पेस नहीं आई, या आप पर अल्लाह कि वही प्रकट नहीं हो रही है?  तो सरकार पाक सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम ने आदेश फरमायाः इस प्रकार कि कोई बात नहीं हुई सिवाए यह के मेरा (सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम) बेटा मुझ पर सवार हो गया था, और जब तक वह अपनी इच्छा से ना उतरे मुझे हटना पसंद ना हुआ।



(सुनन निसाई, हदीस संख्याः 1129, मुसनद इ़माम, हदीस संख्याः 15456, मुसन्नफ इ़ब्न अबी शैबा, जिल्द 7, पः 514, मुसतदरक अ़ला सहिहैन, हदीस संख्याः 4759/6707, मुअ़जम कबीर तबरानी, हदीस संख्याः 6963, मजमअ़ अज़ ज़वाईद, जिल्द 9, पः 181, सुनन अल कुबरा लिल बैहखी, हदीस संख्याः 3558, सुनन कुबरा लिल नसाई, जिल्द 1, पः 243, हदीस संख्याः 727, अल मुतालिब अल आ़लियह, हदीस संख्याः 4069, मुसनद अबी यआ़ला, हदीस संख्याः 3334, कंज़ुल उ़म्माल हदीस संख्याः 37706/37705/34380)


हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने हसनैन करीमैन कि लिए खुत्बा रोक दिया|

हज़रत अबदुल्लाह बिन बरीदह रज़ियल्लाहु तआला अन्हु कहते हैं के इन्होंने हज़रत अबु बरीदह रज़ियल्लाहु तआला अन्हु को कहते हुए सुना हबीब अकरम सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम हमें खुत्बा आदेश कर रहे थे के हसनैन करीमैन रज़ियल्लाहु तआला अन्हु धारीदार वस्त्र पहन कर लड-खडाते हुए आ रहे थे तो हज़रत रसूल अकरम सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम मिम्बर शरीफ से नीचे तशरीफ लाय इ़माम हसन व इ़माम हुसैन रज़ियल्लाहु तआला अन्हुमा को गोद में उठा लिया फिर (मिम्बर पर उजागर हो कर) आदेश फरमायाः अल्लाह तआ़ला ने सत्य फरमायाः तुम्हारे धन तथा तुम्हारे औलाद एक परीक्षा है।  मैं ने इन दोनों बच्चों को देखा संभल-संभल कर चलते हुए आ रहे थे लड-खडा रहे थे मुझ से सहन ना हो सका यहाँ तक के मैं ने अपने खुत्बे को रोक कर इन्हें उठा लिया है।



(जामे तिर्मिज़ी, जिल्द अबवाबुल मनाखिब, पः 218, हदीस संख्याः 3707, सुनन अबु दाऊद, किताबुस सलाह, हदीस संख्याः 935, सुनन निसाई किताबुल जुमआ़ हदीस संख्याः 1396, ज़ुजाजातुल मसाबीह, जिल्द 1, पः 333)

यजीद ने की थी सरे इमाम हुसैन (अ.स) की बेहुरमती -सुन्नी किताब से |

$
0
0
साधारण रूप से ये रिवायत वर्णन की जाती है के यज़ीद के सामने जब इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु का सर मुबारक लाया गया तो वह आप के दांतों पर छड़ी  मारने लगा इसी समय वहाँ उपस्थित एक सहाबी रज़ियल्ला जानना हु तआ़ला अन्हु ने इस को सख्ती से रोका, मैं ये जान्ना चाहता हुं के ये रिवायत किस पुस्तक में है और वह सहाबी का नाम क्या है?

आप ने जिस रिवायत के बारे में पूछा है इस को अल्लामा इब्न कसीर (जन्मः 700, देहान्तः 774 हिज्री) ने अल बिदायह वन निहायह, जिल्द 8, पः 209 में लिखित है और वह सहाबी जलील रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु जिन्हों ने यज़ीद की इस हरकत पर नकीर व निन्दा फरमाई, हज़रत अबु बरज़ह सलमी रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु हैं।  

हाफिज़ इब्न हजर असखलानी रहमतुल्लाहि अलैह (जन्मः 773, देहान्तः 852 हिज्री) ने इन का मुबारक नाम नुज़ला बिन उ़बैद रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु वर्णन किया है।  

(तहज़ीब अल तहज़ीब, जिल्द 10, पः 399)  

अल बिदायह वन निहायह, जिल्द 8, पः 209 के हवाले से वर्णन रिवायत निम्नलिखित हैः- 

अबु मिखनफ ने अबु हमज़ा सिमाली से वर्णित की है, इन्हों अबदुल्लाह यमानी से वर्णित की है, इन्हों ने खासिम बिन बुखैत से वर्णित की है, इन्हों ने कहाः जब इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु का सर अनवर के सामने रखा गया इस के हाथ में एक छड़ी थी जिस से वह आप के सामने मुबारक दांतों को कचोके देने लगा।  फिर इस ने कहाः निश्चय इन की और हमारी मिसाल ऐसी है जैसा के हुसैन बिन हिम्माम मिर्री ने कहा हमारी तलवारें ऐसे लोगों की खोपड़ियां फोड़ती हैं जो हम पर प्रभावित व शक्ति रखते थे और जो हद तक अवज्ञा व आज्ञाभंग और अत्याचारी थे।  हज़रत अबु बरज़ह सलमी रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु ने फरमायाः सुन ले अए यज़ीद!  खुदा की कसम तो अपनी छुरी इस स्थान पर मार रहा है जहाँ मैं ने रसूल अकरम सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम को चूमते और चूसते हुए देखा है।  पिर फरमाया सावधान हो जा!  अए यज़ीद क़यामत के दिन इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु इस शान व प्रतिभा से आएंगे के हज़रत मुहम्मद मुसतफा सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम होंगे और तू इस प्रकार आएगा के तेरा दरफदार व समर्थक इब्न ज़ियाद दिब्द निहाद होगा।  

(अल बिदायह वन निहायह, जिल्द 8, पः 208)  

अधिक वर्णन पुस्तक की जिल्द 8, पः 215, पर इसी घटना से संबंधित रिवायत अंत में इस प्रकार व्याख्या हैः- 


भाषांतरः- इस समय यज़ीद से अबु बरज़ह सलमी रज़ियल्लाहु तआ़ला अन्हु ने फरमायाः अपनी छड़ी को हटाले!  खुदा की कसम मैं ने अधिकता से रसूल पाक सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम को अपना दहन (पवित्र थूक) इमाम हुसैन के दहन पर रख कर चूमते हुए देखा है।  

हुसैन आज भी अकेले हैं!!!

$
0
0
इन्सान आज भी जब इतिहास में झांक कर देखता है तो उसे दूर तक रेगिस्तान में दौड़ते हुए घोड़ें की टापों से उठती हुई धूल के बीच खिंची हुई तलवारों, टूटी हुए ढालों और टुकड़े टुकड़े लाशों के बीच में टूटी हुई तलवार से टेक लगाकर बैठा हुआ एक ऐसा व्यक्ति दिखाई देता, जिसकी पुकार और सहायता की आवाज़ चारों तरफ़ फैली हुई शत्रु की सेना के सीने को चीर कर पूरी दुनिया के दिल और जिगर में उतर रही है।

चौदर सौ वर्ष बीत गए, मारने वाले उसे मार रहे हैं, कोई ज़बान से घाव लगा रहा है, कोई तीर मार रहा है, कोई तलवार के वार कर रहा है, कोई पत्थर मार रहा है कोई....

लेकिन कोई नहीं, कोई नहीं... जो उसकी आवाज़ पर आवाज़ दे, जो उसकी पुकार को सुने, जो चौदह सदियों से इन्सानी इतिहास के पन्नों में
अकेला है, अकेला है

यू तो उसके घर की हर चीज़ 10 मोहर्रम को लूट ही गई थी लेकिन उसका सर कटने के बाद उस पर जो अत्याचार किए गए उन्हें किसी इतिहासकार ने नहीं लिखा है, किसी लेखक ने उस पर क़लम नहीं उठाया है और किसी शायर ने उसके शेर में नहीं पढ़ा है, यह ऐसा मज़लूम है जिसके माल और सम्पत्ती को शत्रुओं ने लूटा और जिसके, दर्द, दुख, सोंच, ज्ञान इज़्ज़त और सम्मान और क्रांति के पैग़ाम को अपनों ने लूट लिया।

किसी ने उसके ग़म को व्यापार बना लिया, तो किसी ने उसके मातम के प्रसिद्धी का माध्यम, तो किसी ने उसकी क्रांति के लेबिल को अपनी कामियाबी का ज़ीना बना लिया, तो किसी ने उसके दीन को अपना पेट पालने का सहारा।

यह वह मज़लूम है जिसकी सिसकियाँ आज भी हवाओं में सुनाई दे रही है और जिसके गोश्त के चीथड़ें बाज़ारों में बिक रहे हैं, मगर कोई नहीं है जो इस अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़ा हो जो इस अत्याचार पर प्रदर्शन करे, कोई नहीं है जो इस बर्बर्ता के विरुद्ध अपनी ज़बान खोले , कोई नहीं है जो रियाकारी (केवल दिखाने के लिए किया जाने वाला कार्य), झूठी दीनदारी और धोखा देने वाली क्रांति के विरुद्ध अपना क़लम उठाए,

कोई नहीं है.... कोई नहीं है

हुसैन आज भी अकेले हैं...

प्रिय पाठकों अपनी आत्मा को पवित्र किए बिना समाज के सुधार के नारे लगाना हुसैनियत नहीं है, दीन के नाम पर पैसे बटोरना, कोठियाँ  खड़ी करना, गाड़ियाँ जायदाद बनाना भी हुसैनियत नहीं है

हुसैनियात तो यह है कि इन्सान सबसे पहले अपने आप को पवित्र करे, अपनी आत्मा को पवित्र करे और ख़ुदा की राह में सबसे पहले अपना घर क़ुर्बान कर दे फिर दूसरों को उसका निमंत्रण दे।

अब प्रश्न यह उठता है कि अगर हुसैनी होने के लिए यह सब चीज़ें शर्त है तो क्या किसी है हुसैनी बनना संभव है?

इस प्रश्न के उत्तर के लिए हम आपको इतिहास को देखने का निमंत्रण नहीं देंगे बल्कि आज के युग में अपने इर्द गिर्द नज़ दौड़ा लें यही काफ़ी होगा।

क्या आप ने बाक़िर अल सदर का नाम सुना है, उनकी शहादत और उनकी बहन की शहादत की घटनाओं को जानते हैं?

क्या आपने ग़ुलाम अस्करी का नाम सुना है, उनके द्वारा हिन्दुस्तान के घर घर में जनाए जाने वाले ज्ञान के दिए को देखा?

क्या आपने ईरानी क्रांति के लीडर सैय्यद अली ख़ामेनाई का नाम सुना है? उनके ज्ञान, तक़वे और राजनीतिक सक्रियता के बारे में कुछ जानते हैं?

क्या आपने हिन्दुस्तान के महान मुज्तहिद अल्लामा नक़्क़न का नाम सुना है? क्या आप उनके इल्मी कारनामों को जानते हैं?

क्या आपने हिज़्बुल्लाह के लीडर हसन नसरुल्लाह का नाम सुना है, क्या आप उनके बेटे हादी नसरुल्लाह की शहादत के बारे में कुछ जानते हैं?

हां यहीं लोग सच्चे हुसैनी हैं।

और हुसैनी ऐसे ही होते हैं, जब कोई इन्सान साफ़ नियत के साथ मैदान में आता है तो वह ट्रस्टों के पदों, अंजुमों के चंदों और पोस्टरों के चक्कर में नहीं पड़ता है

फिर वह दीन को ग़रीब बना कर, मुसलमानों को फ़क़ीर बनाकर प्रस्तुत नहीं करता है, फिर वह हुसैन की भाति अच्छाइयों को फैलाने और बुराईयों को रोकने के लिए एकेला ही मैदान में उतर जाता है और हज़रत इमाम ख़ुमैनी की तरह यह कहता हुआ दिखाई देता हैः

अगर यह जंग बीस साल भी चलती रहे तो हम नहीं थकेंगे।

इस बार मोहर्रम का महीन उस समय आया है जब पूरी दुनिया विशेषकर अरब दुनिया में इस्लामी क्रांति की लहर दौड़ रही है हमें आज अपनी अज़ादारी को इस प्रकार अंजाम देना चाहिए कि इस बेदारी को दिखाती हो

हमें पता होना चाहिए कि आज जिस इस्लामी क्रांति को हम देख रहे हैं यह वास्तव में ईरान की इस्लामी क्रांति का ही नतीजा है

हमें आशा है कि जिस प्रकार ईरान से साम्राज्य का जनाज़ा निकल गया उसी प्रकार दूसरे इस्लामी देश चाहे वह मिस्र हो या मराकिश या कोई और देस उससे भी इन्शाअल्लाह साम्राज्य के बदबूदार जनाज़े को निकाल फेकेंगे।

आज के युग में इमाम हुसैन (अ) की आवाज़ पर लब्बैक करने के लिए ज़रूरी है कि हम आत्मा की पवित्रता के साथ और सच्चे दिल से इमाम ख़ुमैनी और इस्लामी बरादरी की हर संभव सहायता करें और इस इस्लामी क्रांति के प्रभावी और लाभदायक बनाएं।

जनाब इ फातिमा ज़हरा और अज़ान ऐ बिलाल |

$
0
0

फ़ातेमा ज़हरा इमाम अली की निगाह में|
जब इमाम अली (अ) और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) की ईश्वर के आदेश से शादी हो गई तो शादी के दूसरे दिन जब पैग़म्बर (स) ने अली (अ) से पूछा: हे अली तुमने मेरी बेटी फ़ातेमा (स) को कैसा पाया?
इमाम ने जवाब दिया, फातिमा (स) अल्लाह की इताअत में सबसे अच्छी मददगार हैं।
अमीरुल-मोमनीन (अ) फ़रमाते हैं: फातिमा (स) कभी भी मुझसे नाराज़ नहीं हुईं, और न मुझको नाराज़ किया.जब भी मैं उनके चेहरे पर नज़र करता हूं, मेरे सभी दुख दूर हो जाते हैं और सारी तकलीफ़ें समाप्त हो जाती हैं। न उन्हों ने कभी मुझे क्रोधित किया और न कभी मै ने उनको रसूल्लाह (स) फ़रमाते हैं अगर अली (अ) न होते तो फ़ातिमा (स) के कोई बराबर न होता।

जनाब इ फातिमा ज़हरा और अज़ान ऐ बिलाल |

बिलाल ने दूर से बड़े ध्यान से दृष्टि डाली। मदीना नगर के हरे- भरे और ऊंचे-२ खजूरों के पेड़ दिखाई दे रहे थे और उनके पीछे मदीना नगर के छोटे- छोटे कच्चे घर दिखाई दे रहे थे। बिलाल ने एक गहरी सांस ली ताकि वह मदीने से आने वाली ठंडी मधुर समीर का आभास कर सकें। मदीने से आने वाली बयार अपने साथ एक जानी पहचानी सी सुगंध लिए हुए थी। पैग़म्बरे इस्लाम की सुगंध, मस्जिदुन्नबी और उस मीनार की महक जिसमें उन्होंने वर्षों तक अज़ान दी थी। नगर के फाटक को पार करके वह एक किनारे खड़े हो गये। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के नगर के आदरभाव में उन्होंने अपने वस्त्रों से रास्ते की धूल झाड़ी और अपने चारों ओर एक दृष्टि डाली। लोग अपने दिनचर्या के कार्यों में व्यस्त थे अतः किसी ने भी उन्हें नगर में आते हुए नहीं देखा। वह बनी हाशिम की गली में प्रवेश करते हैं। पतली एवं अंधेरी सी वही गली है जिसमें वह पैग़म्बरे इस्लाम को देखने के लिए प्रतिदिन आकर खड़े रहा करते थे और जब पैग़म्बरे इस्लाम मस्जिद की ओर जाने लगते थे तो वह उनके पीछे चल पड़ते थे। वह पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री का दर्शन करने के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम के घर की ओर चल पड़ते हैं। यद्यपि उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि अब वह उस मदीने में वापस नहीं आयेगें जिसने पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों को भुला दिया है। जब वह घर के पास पहुंचे तो बड़ी चिंतित स्थिति में आगे बढ़े और कहा पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों पर सलाम हो"


हज़रत अली और जनाबे फातेमा ज़हरा के बच्चों इमाम हसन और इमाम हुसैन ने जब जानी- पहचानी आवाज़ सुनी तो तुरंत घर से बाहर निकल आये और बोले, बिलाल आये हैं। बिलाल ने दोनों बच्चों को गोद में उठा लिया और रोने लगे। उन लोगों ने अच्छे दिनों की मीठी यादों को दोहराया। बिलाल ने पैग़म्बरे इस्लाम के पावन अस्तित्व की सुन्दर व मनमोहक महक का उन दोनों बच्चों में आभास किया। कुछ ही क्षण गुज़रे थे कि बिलाल ने बच्चों से उनकी माता फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के बारे में पूछा, इमाम हसन और इमाम हुसैन ने बिलाल का हाथ पकड़ा और उन्हें अपने घर के अंदर ले गये। हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा बीमारी के बिस्तर पर लेटी हुईं थीं। बिलाल ने उन्हें सलाम किया। हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने बिलाल की आवाज़ पहचान ली। वह बिलाल की प्रतीक्षा में थीं क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम ने स्वप्न में ही हज़रत फातेमा को यह सूचना दे रखी थी कि बिलाल उन्हें देखने के लिए आयेंगे। हज़रत फातेमा ने थर्राती हुई कमज़ोर आवाज़ में बिलाल के जवाब में कहा"तुम पर सलाम हो हे मेरे प्रिय पिता के मोअज़्जिन। हज़रत फ़ातेमा की कमज़ोर आवाज़ ने बिलाल की चिंता और बढ़ा दी। उन्होंने पूछा हे पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री क्या हुआ है कि आप इस तरह बीमार हो गयीं हैं? हज़रत फातेमा ने कोई उत्तर नहीं दिया बिल्कुल चुप रहीं और फिर बड़े दुःख भरे स्वर में एक फ़रमाइश की। आपने कहा"हे बिलाल मैं चाहती हूं कि मरने से पहले उन दिनों की याद में, जब मेरे पिता जीवित थे, मस्जिद में जाओ और अज़ान दो। मैं एक बार फिर तुम्हारी अज़ान की आवाज़ सुनकर नमाज़ पढ़ना चाहती हूं। केवल एक बार"


बिलाल बहुत आश्चर्यचकित एवं प्रभावित हुए। वह समझ गये कि पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी स्वस्थ होकर अब दोबारा ज़मीन पर क़दम नहीं रखेंगी। बिलाल ने हज़रत फातेमा की फ़रमाइश पूरी करने में जल्दी की। अब वह कुछ भी नहीं सोच रहे थे। मानो वह लोगों को देख की नहीं रहे थे। वे दौड़ रहे थे ताकि स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम की मस्जिद तक पहुंचा दें। मस्जिद के मीनार की सीढ़ियों को फलांगते हुए ऊपर चढ़े। वहां से नीचे देखा तो पूरा मदीना नगर सामने आ गया। ठीक उन्हीं दिनों की भांति जब वे अज़ान दे रहे होते थे और पैग़म्बरे इस्लाम को वज़ू करते देखते थे परंतु इस बार स्थिति पहले से भिन्न थी। इस बार वह केवल हज़रत फ़ातेमा के कहने पर आये थे। बिलाल के मुंह से निकली अल्लाहो अकबर की आवाज़ मदीना नगर के वातावरण में गूंजने लगी। लोगों ने एक क्षण के लिए काम से हाथ रोक लिया। मानो मदीने के वातावरण में एक बार फिर सन्नाटा छा गया। काफी समय के बाद पैग़म्बरे इस्लाम की मस्जिद से जाने- पहचाने व्यक्ति के अज़ान की आवाज़ आ रही थी। बिलाल ने अज़ान जारी रखते हुए अशहदो अल ला एलाहा इल्लल्लाह कहा। अर्थात मैं गवाही देता हूं कि एक ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा पूज्य नहीं है। लोग समझ गये कि यह तो बिलाल हैं। लोग उत्सुकता व जिज्ञासा के साथ मस्जिद की ओर दौड़े। बिलाल ने अज़ान जारी रखते हुए कहा अशहदो अन्ना मुहमदर्रसूल्लाह अर्थात मैं गवाही देता हूं कि मोहम्मद ईश्वर के दूत हैं। लोग मीनार के नीचे एकत्रित हो गये थे और कुछ लोग उन्हें भीगे नेत्रों से देख रहे थे। हज़रत फातेमा ज़हरा की आंखों से अज़ान में अपने महान व स्वर्गीय पिता का नाम सुनकर आंसू बहने लगे। बिलाल ने जैसे ही अज़ान के बाद वाले वाक्य को कहना चाहा वैसे ही उन्हें इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहमास्लाम की पुकार सुनाई दी। घबराकर नीचे देखा। हज़रत फातेमा के बच्चों ने कहा हे बिलाल तुम्हें ईश्वर की सौगन्द अब आगे की अज़ान न कहो। हमारी मां नमाज़ के सज्जादे पर रोते-2 मूर्छित हो गईं हैं। यह सुनकर बिलाल मीनार से नीचे उतर आये। दोनों बच्चों को गोद में उठा लिया। बिलाल कुछ कहना चाहते थे परंतु उनका दिल भर आया था और वह बेचैन होकर रोने लगे।


पैग़म्बरे इस्लाम एक दिन मस्जिद में बैठे हुए थे और चारों से उनके साथी व अनुयाई उन्हें घेरे हुए थे। उसी दौरान एक बूढ़ा व्यक्ति फटे पुराने वस्त्रों और बड़ी ही दयनीय दशा में मस्जिद में आ पहुंचा। वह बूढ़ा और कमज़ोर व्यक्ति था। पैग़म्बरे इस्लाम उसके पास गये और उसका हाल- चाल पूछा। बूढ़े व्यक्ति ने उनसे कहा हे ईश्वरीय दूत मैं परेशान, भूखा और दरिद्र हूं आप मुझे खाना दीजिये। मेरे पास वस्त्र नहीं है मुझे वस्त्र दीजिये। मैं परेशान हूं मेरी परेशानी दूर कीजिये। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा अभी तो मेरे पास कुछ नहीं है परंतु भलाई की ओर मार्ग दर्शन करने वाला भलाई करने वाले की भांति होता है"उसके पश्चात आपने उसका मार्गदर्शन हज़रत फातेमा ज़हरा के घर की ओर किया। बूढ़े व्यक्ति ने मस्जिद से हज़रत फातेमा के घर की थोड़ी दूरी तय की और अपनी समस्याओं को हज़रत फ़ातेमा के समक्ष बयान किया। हज़रत फातेमा ने कहा अभी मेरे घर में कुछ भी नहीं है। इसी मध्य उन्हें अब्दुल मुत्तलिब बिन हमज़ा की सुपत्री द्वारा उपहार में दिये गये हार की याद आई। हार को गले से उतारा और उस बूढ़े दरिद्र को दे दिया और कहा इसे बेच दो ईश्वर ने चाहा तो तुम इससे अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर सकोगे। बूढ़े दरिद्र व्यक्ति ने हार लिया और मस्जिद में आया। पैग़म्बरे इस्लाम उसी प्रकार अपनी साथियों के मध्य बैठे हुए थे। बूढ़े व्यक्ति ने कहा हे ईश्वरीय दूत हज़रत फातेमा ने यह हार मुझे दान स्वरूप प्रदान किया है ताकि मैं इसे बेच कर अपनी आवश्यकता की पूर्ति करूं। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत फातेमा के दान से बहुत प्रसन्न हुए और कहा"जो भी इस हार को ख़रीदेगा ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर देगा"अम्मार यासिर ने कहा हे ईश्वर के दूत क्या आपकी अनुमति है कि मैं इस हार को ख़रीद लूं? पैग़म्बरे इस्लाम ने अनुमति दी। अम्मार यासिर ने बूढ़े दरिद्र से पूछा, हार को कितने में बेचेगो बूढ़े दरिद्र ने जवाब दिया मैं इसे उतने पैसे में बेचना चाहता हूं जिससे मेरा पेट भर सके, उतना वस्त्र चाहिये जिससे मेरा शरीर ढक सके और यात्रा का ख़र्चा कि जो मुझे अपने घर तक पहुंचा दे। अम्मार यासिर ने उत्तर दिया मैं इस हार को सोने के २० दीनार में ख़रीदूंगा और इसके अतिरिक्त खाना, वस्त्र और इसके लिए सवारी भी ख़रीदूंगा। अम्मार यासिर बूढे दरिद्र को अपने घर ले गये ,खाना खिलाया, वस्त्र पहनाया और उसे सवारी दी तथा २० दीनार भी उसे दिया। उस समय हार को एक कपड़े में लपेटा और अपने दास से कहा इसे पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में ले जाकर प्रस्तुत करो। तुम्हें भी मैंने उन्हें दान में दे दिया। पैग़म्बरे इस्लाम ने भी दास और हार को हज़रत फातेमा को दान दे दिया। दास हज़रत फातेमा के पास आया। आपने हार ले लिया और दास से कहा मैंने ईश्वर के मार्ग में तुम्हें स्वतंत्र किया यह सुनकर दास हंसा। हज़रत फातेमा ने उससे हंसने का कारण पूछा तो उसने उत्तर में कहा हे पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी इस हार की विभूति ने मुझे आश्चर्यचिकत कर दिया है क्योंकि उसने एक भूखे का पेट भरा है, निर्वस्त्र को वस्त्र पहनाया है निर्धन व दरिद्र को धनी कर दिया एक दास को स्वतंत्र कर दिया और अंत में वह अपने स्वामी के पास लौट भी आया।


एक महिला मदीने की गलियों में चक्कर लगा रही थी। उसकी दशा एवं फटे पुराने व चकती लगे कपड़े उसकी निर्धनता के सूचक थे। वह सहायता की आस लगाये मदीना के एक-२ घर का चक्कर लगा रही थी परंतु हर जगह से निराशा हाथ आ रही थी। अंत में वह पैग़म्बरे इस्लाम के घर पहुंची और उसने जब यह देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम के घर में बहुत सी महिलाएं आ-जा रही हैं तो उसे बड़ा आश्चर्च हुआ। वह आगे आई, समझ गई कि सभी लोग हज़रत अली व हज़रत फातेमा के विवाह समारोह में भाग लेने की तैयारी कर रहे हैं। मानो तय है कि पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री कुछ महिलाओं के साथ हज़रत अली के घर जायेंगी। निर्धन महिला एक कोने में खड़ी हो गई। कुछ क्षणों के लिए वह अपनी निर्धनता एवं परेशानी को भूल गई। इस मध्य हज़रत फातेमा ज़हरा पैग़म्बरे इस्लाम के घर से बाहर निकलीं। निर्धन महिला सहसा कुछ क़दम आगे बढ़ी। निकट से उसने हज़रत फातेमा के तेजस्वी चेहरे को पहचान लिया। हज़रत फातेमा की दृष्टि भी दरिद्र व निर्धन महिला पर पड़ी। महिला हज़रत फातेमा के निकट गई और उसने हज़रत फातेमा को सलाम किया। उसने हज़रत फातेमा के प्रेम, दया और दानशीलता के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था और हज़रत फातेमा किसी को भी निराश नहीं लौटाती थीं। निर्धन महिला ने पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री से सहायता मांगी। हज़रत फातेमा ने थोड़ा सोचा। उन्होंने अपने नये कपड़ों पर दृष्टि डाली जिसे उन्होंने अपने विवाह के कारण पहन रखा था। उसके पश्चात हज़रत फातेमा अविलंब घर में वापस चली गयीं। हज़रत फातेमा के आस- पास खड़ी दूसरी महिलाओं ने उनके इस व्यवहार पर आश्चर्य किया। कुछ ही क्षणों के बाद हज़रत फातेमा घर से बाहर निकलीं इस स्थिति में कि विवाह का नया जोड़ा उनके पावन हाथों में था। आपने बड़े ही प्रेम व आदरभाव के साथ उस वस्त्र को निर्धन महिला को दे दिया। इस प्रकार हज़रत फातेमा साधारण वस्त्र में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के घर गयीं परंतु उनका हृदय ईश्वरीय प्रेम और उसकी प्रसन्नता से ओत- प्रोत था। वह बहुत प्रसन्न थीं क्योंकि ईश्वर ने एक विवाह के अवसर पर भी उन्हें अपने बंदो की सेवा करने का अवसर प्रदान किया था।

सूरा - ए- हुजरात या सूरए आदाब व अखलाक़ |

$
0
0
सूरए हुजरात मदीनें में नाज़िल हुआ और इसकी अठ्ठारह आयतें हैं। यह सूरए आदाब व अखलाक़ के नाम से भी मशहूर है। हुजरात हुजरे (कमरे) का बहुवचन है। इस सूरह मे रसूले अकरम (स.) के हुजरों (कमरों) का वर्णन हुआ है। इसी वजह से इस सूरह को सूरए हुजरातकहा जाता है। (यह हुजरे मिट्टी लकड़ी व खजूर के पेड़ की टहनियोँ से बिल्कुल सादे तरीक़े से बनाये गये थे।)

इस सूरे मे या अय्युहल लज़ीनः आमःनू (ऐ इमान लाने वालो) की बार बार पुनरावृत्ति हुई है। जिस के द्वारा एक वास्तविक इस्लामी समाज का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत किया गयाहै। इस सूरे मे कुछ ऐसी बातों की तरफ़ भी इशारा किया गया है जो दूसरे सूरों में बयान नही की गयी हैं। जैसे---

1- रसूले अकरम (स.) से आगे चलने को मना करते हुए उनसे बात करने के तरीक़े को बताया गया है। और बे अदब लोगों को डाँटा डपटा गया है।

2- किसी का मज़ाक़ उड़ाने, ताना देने, बदगुमानी करने, एक दूसरे पर ऐब लगाने और चुग़ली करने जैसी बुराईयोँ को इस्लामी समाज के लिए हराम किया गया है।

3- आपसी भाई चारे, एकता, न्याय, शांति, मशकूक लोगों की लाई हुई खबरों की तहक़ीक़ और श्रेष्ठता को परखने के लिए सही कसौटी की पहचान (जो कि एक ईमानदार समाज के लिए ज़रूरी है) का हुक्म दिया गया है।

4- इस सूरह मे इस्लाम और ईमान में फ़र्क़, परहेज़गार लोगों के दर्जों की बलन्दी, तक़व-ए-इलाही की पसंदीदगी, कुफ़्र और फ़िस्क़ से नफ़रत आदि को ब्यान करते हुए न्याय को इस्लामी समाज का केन्द्र बिन्दु बताया गया है।

5- इस सूरे में इस्लामी समाज को अल्लाह का एक एहसान बताया गया है। इस इस्लामी समाज की विशेषता यह है कि यह रसूले अकरम (स.) से मुहब्बत करता है क्योँकि उन्हीं केद्वारा इस समाज की हिदायत हुई है। इस्लामी समाज मे यह विचार नही पाया जाता कि हमने ईमान लाकर अल्लाह और रसूल (स.) पर एहसान किया है।

6- इस सूरे में इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि इस्लामी समाज में सब लोगों के लिए ज़रूरी है कि वह रसूले अकरम (स.) का अनुसरण करें। लेकिन वह इस बात की उम्मीद न रखें कि रसूल (स.) भी उनका अनुसरण करेंगे।

“ऐ ईमान लाने वालो अल्लाह और उसके रसूल के सामने किसी बात में भी आगे न बढ़ाकरो, और अल्लाह से डरते रहो, बेशक अल्लाह बहुत सुन ने वाला और जान ने वाला है।”

इस आयत की बारीकियाँ

यह आयत इंसान को बहुत सी ग़लतियों की तरफ तवज्जुह दिलाती है। क्योंकि इंसान कभीकभी अक्सरीयत (बहुसंख्यक) की चाहत के अनुसार, भौतिकता से प्रभावित हो कर आधुनिक विचारधारा, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, और फ़ैसलों में जल्दी करने आदिबातों का सहारा ले कर ऐसे काम करता है कि वह इस से भी अचेत रहता कि वह अल्लाह और रसूल की निश्चित की हुई सीमाओं का उलंघन कर चुका है। जैसे कि कुछ लोग इबादत, यक़ीन, ज़ोह्द तक़वे और सादा ज़िन्दगी के ख्याल से अल्लाह और रसूल की निश्चित की हुई सीमाओं से आगे बढ़ने की कोशिश करने लगे हैं।

· यह आयत इंसानों को फ़रिश्तों जैसा बनाना चाहती है।

इस लिए कि क़ुरआन फ़रिश्तों के बारे मे कहता है कि “वह बोलने में अल्लाह पर सबक़त ( पहल) नही करते और केवल उसके आदेशानुसार ही कार्य करते हैं।”

क़ुरआन ने पहल करने और आगे बढ़ने के अवसरों को निश्चित नही किया और ऐसा इस लिएकिया गया कि ताकि आस्था सम्बँधी, शैक्षिक , राजनीतिक, आर्थिक हर प्रकार की सबक़त(पहल) से रोका जा सके।

कुछ असहाब ने रसूले अकरम (स.) से यह इच्छा प्रकट की कि हम नपुंसक होना चाहते हैं। ऐसा करने से हमको स्त्री की आवश्यकता नहीं रहेगी और हम हर समय इस्लाम की सेवा करने के लिए तैय्यार रहेंगे। रसूले अकरम ( स.) ने उनको इस बुरे काम से रोक दिया। अल्लाह और रसूल से आगे बढ़ने की कोशिश करने वाला व्यक्ति इस्लामी और समाजी व्यवस्था को खराब करने का दोषी बन सकता है। और इसका अर्थ यह है कि वह अल्लाह द्वारा बनाये गये क़ानून व व्यवस्था को खेल तमाशा समझ कर उसमे अपनी मर्ज़ी चलाना चाहता है।

पैग़ामात (संदेश)

1-इलाही अहकाम (आदेशों) को समाज में क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक है कि पहले मुखातब (जिससे संबोधन किया जाये) को आत्मीय रूप से तैय्यार किया जाये।

“या अय्युहल लज़ीना आमःनू (ऐ ईमान लाने वालो) यह जुम्ला मुखातब के व्यक्तित्व की उच्चता को दर्शाते हुए उसके अल्लाह के साथ सम्बंध को ब्यान करता है। और वास्तविकता यह है कि इस प्रकार उसको अमल के लिए प्रेरित करना है।

2- जिस तरह अल्लाह और रसूल से आगे बढ़ने को मना करना एक अदबी आदेश है इसी तरह यह आयत भी अपने संबोधित को एक खास अदब के साथ संबोध कर रही है। या अय्युहल लज़ीनः आमःनू (ऐ ईमान लाने वालो)

3- कुछ लोगों की अभिरूची, आदात, या समाजी रस्मों रिवाज और बहुत से क़ानून जो क़ुरआन और हदीस पर आधारित नही हैं। और न ही इंसान की अक़्ल और फ़ितरत (प्रकृति) सेउनका कोई संबन्ध है उनका क्रियानवयन एक प्रकार से अल्लाह और रसूल पर सबक़त के समान है।

4- अल्लाह द्वारा हराम की गयी चीज़ों को हलाल करना और उसके द्वारा हलाल की गयी चीज़ों को हराम करना भी अल्लाह और रसूल पर सबक़त है।

5- हर तरह की बिदअत, अतिशयोक्ति, बेजा तारीफ़ या बुराई भी सबक़त के समान है।

6- हमारी फ़िक़्ह और किरदार का आधार क़ुरआन और सुन्नत को होना चाहिए।

7- अल्लाह और रसूल पर सबक़त करना तक़वे से दूरी है। जैसा कि इस आयत में फ़रमाया भी है कि सबक़त न करो और तक़वे को अपनाओ।

8- हर प्रकार की आज़ादी व तरक़्क़ी प्रशंसनीय नही है।

9- ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए ईमान और तक़वे का होना ज़रूरी है।

10- जिस बात से समाज का सुधार हो वही महत्वपूर्ण है।

11- रसूल का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। इसकी बे एहतेरामी अल्लाह की बे एहतेरामी है। और दोनों से सबक़त ले जाने को मना किया गया है।

12- इंसान का व्यवहार उसके विचारों से परिचित कराता है।

13-जो लोग अपनी इच्छाओं या दूसरे कारणों से अल्लाह और रसूल पर सबक़त करते हैं उनके पास ईमान और तक़वा नही है।

14- अपनी ग़लत फ़हमी की व्याख्या नहीं करनी चाहिए।

सूर-ए--हम्द की विशेषताएं और रवायतें |

$
0
0
सूर-ए--हम्द की विशेषताएं

यह सूरा क़ुरआन के अन्य सूरों से काफ़ी भिन्न है। इसमें अल्लाह ने अपने बंदों को दुआ करने एवं अपने से वार्तालाप करने का तरीक़ा बताया है। इस सूरे का आरम्भ अल्लाह की तारीफ़ एवं प्रशंसा से होता है और फिर ख़ुदा शनासी सृष्टि के प्रारम्भ एवं शक्ती स्रोत तथा क़यामत के सम्बन्ध में लोगों के ईमान और फिर अंत में बंदों की ज़रूरतों का वर्णन होता है।

    सूर-ए-हम्द कुरआन का आधार है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस है कि “अल-हम्दु उम्मुल कुरआन” अर्थात सूर-ए-हम्द कुरआन की माँ है। एक दिन जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सेवा में उपस्थित हुए तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनसे कहा कि क्या मैं तुम्हें कुरआन के उस विशेष सूरे के बारे में बताऊँ जिसको अल्लाह ने अपनी किताब में नाज़िल किया है? जाबिर ने कहा कि या रसूल अल्लाह मेरे माँ बाप आप पर कुरबान हों मुझे उसके बारे में बतायें। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनको सूर-ए-हम्द की तालीम दी।

इसके बाद कहा कि यह सूरा मौत के अलावा हर बीमारी का इलाज है।
अरबी भाषा में उम्म का अर्थ आधार होता है। शायद इसी वजह से कुरआन के सबसे बड़े मुफ़स्सिर इब्ने अब्बास कहते हैं कि हर चीज़ का एक आधार होता है और कुरआन का आधार सूर-ए- हम्द है।

सूर-ए- हम्द,पैग़म्बरे इस्लाम (स) को एक बड़े तोहफ़े के रूप में पेश किया गया है और इसे पूरे कुरआन के बराबर माना गया है। अल्लाह ने कहा है कि “हमने तुम पर सूर-ए- हम्द कि जिसमें सात आयते हैं दो बार नाज़िल किया इस तरह हमने आपको विशेष कुरआन तोहफ़े में दिया। तफ़्सीरे नमूना जिल्द न.11 में सूरह-ए हज की आयत न. 87 

एक दृष्टि दृष्टि से यह सूरा दो भागों में विभाजित होता है। पहले भाग में अल्लाह की प्रशंसा व तारीफ़ है और दूसरे भाग में बंदों की आवश्यक्ताओं का वर्णन है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस है कि अल्लाह ने कहा कि मैंने सूर-ए- हम्द को अपने व अपने बंदों के बीच विभाजित किया है। आधा अपने लिए तथा आधा अपने बंदों के लिए। मेरे बंदों को हक़ है कि मुझ से जो चीज़ चाहें माँगे।तफ़्सीर अल मीज़ान अल्लामा तबातबाई जिल्द न. 1 पेज न. 37 पर देखें।

पैग़म्बरे इसलाम (स) ने वर्णन किया है कि सूर-ए-हम्द पढ़ने का सवाब दो तिहाई कुरआन पढ़ने के बराबर है। एक अन्य हदीस में वर्णन है कि सूर-ए- हम्द पढ़ने का सवाब पूरे कुरआन पढ़ने के बराबर है। अर्थात इस तरह यह सूरा हर मोमिन के लिए भी एक तोहफ़ा है।

इसी तरह हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की हदीस है कि शैतान ने चार बार फ़रियाद की पहली बार उस समय जब उसे अल्लाह के दरबार से निकाला गया। दूसरी बार उस समय जब जन्नत से ज़मीन पर आया तीसरी बार उस समय जब सभी पैग़म्बरों के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) को नबूवत दी गई और आख़री बार उस समय चीख़ा जब सूर-ए-हम्द नाज़िल हुआ।
फ़ातिहातुल किताब, किताब (कुरआन) को शुरू करने के अर्थ में है एवं हदीसों से मालूम होता है कि यह सूरा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ज़माने में भी इसी नाम से जाना जाता था। इससे इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है कि क़ुरआन पैग़म्बरे इस्लाम(स) के ज़माना में बिखरा हुआ था और अबुबकर, उमर या उसमान के ज़माने में जमा किया गया। बल्कि वास्तविक्ता यह है कि कुरआन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ज़माने में ही वर्तमान रूप में एकत्रित था और उसका आरम्भ सूर-ए-हम्द से ही था।

विभिन्न सूत्रों से ज्ञात होता है कि कुरआन जिस प्रकार आज हमारे सम्मुख मौजूद है, वह पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ज़माने में ही उनके आदेशानुसार एकत्रित किया जा चुका था। अली इब्ने इब्राहीम हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से उल्लेख  किया है कि “पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से कहा कि क़ुरआन जो कि रेशमी कपड़ों के टुकड़ों, पेड़ की छालों एवं इसी प्रकार की अन्य चीज़ों पर बिखरा हुआ है उसे एकत्र करो।”इसके बाद कहते हैं कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी जगह से उठे और उन सभी को एक ज़र्द रंग के कपड़े में जमा किया फिर उस पर मोहर लगाई।

इसके अलावा हदीसे सक़लैन  भी इसकी ओर इशारा करती है कि कुरआन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ज़माने में ही एक किताब के रूप में एकत्रित किया जा चुका था। अगर प्रश्न किया जाये कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद कुरआन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने क्योँ जमा किया? तो इसका जवाब यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने क़ुरआन जमा नही किया बल्कि उस जमा शुदा क़ुरआन के सूरों व आयतों के नाज़िल होने के कारणों, वह जिन लोगों के बारे में नाज़िल हुआ उनके नामों और नाज़िल होने के समय आदि का उल्लेख किया था।

पहली आयत

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो रहमान (दयालु) व रहीम (कृपालु) है।

संसार के हर समाज में यह प्रथा है कि किसी कार्य को शुरू करने से पहले एक महान एवं महत्वपूर्ण नाम का उच्चारण किया जाता है। अर्थात उस कार्य को किसी ऐसे अस्तित्व से जोड़ते हैं जिसकी कृपा दृष्टि के अन्तर्गत उसे पूरा किया जा सके। लेकिन क्या इससे श्रेष्ठ यह नही है कि किसी कार्य को सफ़लता पूर्वक करने के लिए तथा एक संगठन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उसे किसी ऐसे अस्तित्व से जोड़ा जाये जो अनश्वर हो, सम्पूर्ण सृष्टि में अनादिकाल से हो व सार्वकालिक हो। ऐसा अस्तित्व अल्लाह के अलावा और कोई नही है। अतः हमें हर काम को उसके नाम से शुरू करना चाहिए और उसी से सहायता माँगनी चाहिए। इसी लिए क़ुरआन की पहली आयत में कहा गया है कि अल्लाह के नाम से शुरू करता हूँ जो रहमान व रहीम है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने एक हदीस में कहा है कि “कुल्लु अमरिन जी बालिन लम युज़कर फ़ीहि इस्मुल्लाहि फ़हुवा अबतर” अर्थात वह कार्य जो अल्लाह के नाम के बिना शुरू किया जाता है वह अधूरा रह जाता है।

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने कहा है कि हर काम को शुरू करने से पहले चाहे वह काम छोटा हो या बड़ा अल्लाह का नाम लिया जाये, ताकि वह काम सफलता पूर्वक पूरा हो सके।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि किसी भी काम को सफलता पूर्वक करने के लिए उसे किसी पूर्ण अस्तित्व से जोड़ना चाहिए। इसी वजह से अल्लाह ने अपने पैग़म्बर (स) को आदेश दिया कि इस्लाम धर्म के प्रचार से पहले इस विशाल व कठिन ज़िम्मेदारी को अल्लाह के नाम से शुरू करो, ताकि अपने मक़सद में कामयाब हो सको। इसी लिए क़ुरआन ने पैग़म्बर (स) को  सबसे पहला आदेश यही दिया कि इक़रा बिस्मि रब्बिक अर्थात अपने रब के नाम से पढ़ो। इसी प्रकार हम देखते हैं कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम तूफ़ान जैसी विकट परिस्थिति में भी अपने साथियों को नाँव पर सवार होने, इसके चलने और रुकने के समय अल्लाह का नाम लेने को कहते हैं और इसी नाम के सहारे उन्होंने अपनी यात्रा को कुशलता पूर्वक पूरा किया। [5]

इसी तरह जब हज़रत सुलेमान ने सबा नामक राज्य की रानी बिलक़ीस को ख़त लिखा तो सबसे पहले उस ख़त में अल्लाह का नाम लिख था। [6]

इसी आधार पर, कुरआन के समस्त सूरों को अल्लाह के नाम से शुरू किया गया है ताकि शुरू से आख़िर तक किसी अड़चन के बग़ैर अल्लाह के संदेश को पूरा किया जा सके। सिर्फ़ सूर-ए-तौबा एक ऐसा सूरह है जिसके शुरू में बिस्मिल्लाह नही है और इसका कारण यह है कि इस सूरहे में ज़ालिमों व वादा तोड़ने वालों की निंदा करते हुए उनसे जंग का ऐलान किया गया है और जंग की घोषणा रहमान व रहीम जैसी विशेशताओं के साथ उपयुक्त नही है।

कुछ महत्वपूर्ण बातें

1.      बिस्मिल्लाह हर सूरे का अंग है

समस्त शिया आलिम इस बात पर एक मत हैं कि बिस्मिल्लाह सूर-ए- हम्द ही नही बल्कि कुरआन के हर सूरे का हिस्सा है। समस्त सूरों से पहले बिस्मिल्लाह का पाया जाना इस बात की ठोस दलील है कि यह प्रत्येक सूरे का हिस्सा है। क्योँकि हमें ज्ञात है कि क़ुरआन में किसी भी चीज़ को बढ़ाया नही गया है। क़ुरआन के हर सूरे से पहले बिस्मिल्लाह का चलन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ज़माने से ही है। इसके अलावा समस्त मुसलमानों की प्रथा यही रही है कि कुरआन पढ़ते समय हर सूरे से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ते हैं। मुसलमानों का हर सूरेह से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना इसबात की ओर संकेत है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) भी हर सूरे से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ते थे। अगर बिस्मिल्लाह को कुरआन के हर सूरे का हिस्सा न माने तो जो चीज़ सूरे का हिस्सा नही है उसका पैग़म्बर और मुसलमानों के द्वारा पढ़ा जाना व्यर्थ है। अतः सिद्ध हो जाता है कि सूर-ए- तौबा को छोड़ कर, बिस्मिल्लाह कुरआन के हर सूरे का हिस्सा है और इसका हर सूरे का हिस्सा होना इतना स्पष्ट है कि मुविया ने अपने शासन काल में एक दिन नमाज़ पढ़ाते समय बिस्मिल्लाह नही कहा तो नमाज़ के बाद कुछ मुहाजिर व अंसार ने उनसे पूछा कि तुमने बिस्मिल्लाह को चुरा लिया है या भूल गये हो?

2.      अल्लाह, ख़ुदा का सर्वगुण सम्पन्न नाम है

अल्लाह का जो भी अन्य नाम क़ुरआन या दूसरी इस्लामी किताबों में वर्णित हुए है वह उसकी किसी मुख्य विशेषता पर प्रकाश डालते हैं। परन्तु अल्लाह ऐसा नाम है जो अपने अन्दर उसकी समस्त विशेषताओं को इकठ्ठा किये हुए है। इसी कारण अल्लाह के अन्य नाम उसकी सिफ़तों के लिए प्रयोग किये जाते हैं। जैसे ग़फ़ूर (क्षमा करने वाला) रहीम (अत्यन्त दया करने वाला) यह दोनों नाम अल्लाह की क्षमा करने की विशेषता को प्रदर्शित करते हैं। फ़ इनल्लाह ग़फ़ूरुर रहीम[7] अर्थात निःसंदेह अल्लाह क्षमा करने वाला वह अत्यन्त दयावान है।

इसी तरह उसका समीअ (बहुत अधिक सुनने वाला) नाम उसकी सुनने की विशेषता को प्रकट करता है। इसी प्रकार उसका अलीम नाम उसके ज्ञान की ओर इशारा करता है कि वह हर चीज़ का जानने वाला है। फ़ इन्नल्लाहा समीउन अलीम।[8] निःसंदेह अल्लाह अत्यधिक सुनने वाला व जानने वाला है।

एक आयत में अल्लाह के विभिन्न नाम उसकी विशेषताओं के रूप में प्रयोग हुए हैं और वह आयत यह है। हुवा अल्लज़ी ला इलाहा इल्ला हुवा अलमलकु अलक़ुद्दूसु अस्सलामु अलमुमिनु अलमुहैमिनु अलअज़ीज़ु अलजब्बारु अलमुतकब्बिरु।[9] अर्थात अल्लाह वह है जिसके अतिरिक्त कोई अन्य माबूद नही है, वह बादशाह, पाकीज़ा सिफ़ात, बे ऐब, देख भाल करने वाला, इज़्ज़तदार, ज़बरदस्त व किबरियाई का मालिक है।

अल्लाह, नाम के सर्वगुण सम्पन्न होने का दूसरा कारण यह हो सकता है कि इस नाम के द्वारा अर्थात ला इलाहा इल्ला अल्लाह कह कर ही ईमान को प्रकट किया जा सकता है।

3-अल्लाह की समान व विशेष कृपाएं

क़ुरआन के मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) के मध्य यह तथ्य मशहूर है कि अल्लाह की रहमान नामक विशेषता उसके द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि पर की जाने वाली कृपाओं की ओर संकेत करती है। जो दोस्त, दुशमन, मोमिन, काफ़िर अच्छे व बुरे सभी प्रकार के लोगों पर समान रूप से होती है। जैसे वर्षा, अल्लाह की रहमानी विशषेषता के अन्तर्गत आती है और इससे प्रत्येक प्राणी लाभान्वित होता है।

लेकिन अल्लाह की रहीम नामक विशेषता उसके द्वारा की जानी वाली उस विशेष कृपा व दया की ओर इशारा करती है, जो केवल विशेष बंदों को ही प्राप्त होती है। इसकी दलील यह है कि क़ुरआन में जहाँ जहाँ रहमान शब्द प्रयोग हुआ है वह अपने अन्दजर सभी प्राणियों को सम्मिलित किये हुए है। परन्तु जहाँ जहाँ रहीम शब्द आया है वह विशेष रूप में प्रयोग हुआ है और इसकी दलील क़ुरआन की वह आयत है जिसमें अल्लाह कह रहा है कि व काना बिल मोमिनीना रहीमा[10] अर्थात अल्लाह मोमिनों के प्रति रहीम है।

इसके अलावा हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है कि अल्लाह सम्पूर्ण सृष्टि का माबूद (पूजनीय) व समस्त प्राणियों पर कृपा करने वाला तथा मोमिनों पर अत्याधिक दयालु है।

4-बिस्मिल्लाह में, अल्लाह की केवल रहमान व रहीम सिफ़त का ही, वर्णन क्यों हुआ है ?

अगर हम इस प्रश्न के संबन्ध में इस बात पर ध्यान दें कि “प्रत्येक कार्य के आरम्भ में उस विशेषता की इच्छा होती है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण संसार पर विद्यमान हो और जो अपने अन्दर समस्त सृष्टि को छुपाये हुए हो और जो संकट के समय कल्याणकारी बन कर संकट से बचा सके।” तो यह प्रश्नसरलता पूर्वक हल हो सकता है। अब हम उपरोक्त वर्णित समस्त तथ्यों को कुरआन में देखते हैं। कुरआन में वर्णन हुआ है कि रहमती वसिअत कुल्ला शैइन।[11] अर्थात मेरी रहमत हर चीज़ को अपने अन्दर समेटे हुए है।

दूसरी ओर हम देखते हैं कि पैग़म्बरों ने संकट से निकलने व दुश्मनों से सुरक्षित रहने के लिए अल्लाह की रहमत का सहारा लिया। हूद व उनके अनुयाईयों के बारे में मिलता है कि फ़ अनजैनाहु व अल्लज़ीना मअहु बिरहमतिन मिन्ना।[12]  अर्थात हमने हूद व उनके साथियों को अपनी रहमत के के द्वारा छुटकारा दिलाया।

इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि अल्लाह के समस्त कार्य को आधार उसकी रहमत है। उसका क्रोध तो कभी कभी ही प्रकट होता है । जैसे कि हम दुआओं की किताबों में पढ़ते हैं कि या मन सबक़त रहमतुहु ग़ज़बहु अर्थात ऐ अल्लाह तेरी रहमत तेरे क्रोध पर भारी है।

इंसान को चाहिए कि अपनी ज़िनंदगी का आधार रहम व मुहब्बत को बनाये और अपनेक्रोध को उचित समय के लिए सुरक्षित रखे।
************
[5] सूरा-ए-हूद आयत न. 41 व 48

[6] सूरा-ए-नहल आयत न.30

[7] सूरा-ए-बक़रह आयत न. 266

[8] सूरा-ए-बक़रह आयत न.227

[9] सूरा-ए-हश्र आयत न. 23

[10] सूरह-ए-अहज़ाब आयत न.43

[11] सूरा-ए-आराफ़ आयत न.156

[12] सूरा-ए-आराफ़ आयत न.72

दूसरी आयत
الْحَمْدُ لِلَّـهِ رَ‌بِّ الْعَالَمِينَ
अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन

अनुवाद –हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सम्पूर्ण जगत का पालनहार है।

बिस्मिल्लाह के बाद, बंदों का प्रथम कर्तव्य यह है कि वह संसार की रचना एवं अल्लाह की उन नेअमतों के प्रति चिन्तन करे, जो उसने संसार के विभिन्न प्राणियों को प्रदान की हैं। यही चीज़े अल्लाह को पहचानने में हमारा मार्गदर्शन करती हैं और इनके द्वारा ही हम अल्लाह को उसके वास्तविक रूप में पहचान ने का थोड़ा बहुत प्रयत्न कर पाते हैं। यह प्रयत्न ही हमारी इबादत की प्रवृत्ति को जागृत करता है।

हम प्रवृत्ति के जागृत होने का उल्लेख  इस लिए कर रहे हैं क्योँकि इस संसार का प्रत्येक इंसान जब भी कोई नेअमत को प्राप्त करता है तो उसके अन्दर उस नेअमत के प्रदान करने वाले को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और वह प्रवृत्ति स्वरूप उसका शुक्रिया अदा करना चाहता है। इसी लिए इल्मे कलाम (मतज्ञान) के विद्वानों ने इस ज्ञान के शुरू में ही इस बात का वर्णन किया है कि नेअमत देने वाले का शुक्र अदा करना अति आवश्यक है और यह एक स्वभाविक प्रवृत्ति है और अल्लाह को पहचानने का साधन भी है।

“अल्लाह को पहचान ने में उसकी प्रदान की हुई नेअमतें हमारे लिए मार्ग दर्शक सिद्ध होती हैं” यह कथन इस आधार पर कहा गया है क्योँकि स्रोत को जानने का सबसे सरल तरीक़ा यह है कि इंसान प्रकृति, सृष्टि व उत्पत्ति के भेदों को समझे और इन सब के इंसान से सम्बन्ध को जाने। तब समझ में आयेगा कि नेअमतें हमारा मार्ग दर्शन किस प्रकार करती हैं।

इन दोनों दलीलों के द्वारा यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस सूरेह का प्रारम्भ इस आयत से क्योँ हुआ है। (हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सारे जगत का पालनहार है।)

हम्द शब्द का अर्थ, किसी कार्य या नेक स्वेच्छित विशेषता की प्रशंसा करना है।

1.      प्रत्येक इंसान अच्छाइयों व भलाईयों का स्रोत है। पैग़म्बर व अल्लाह के द्वारा भेजे गये हादी (मार्ग दर्शक) जो लोगों के दिलों को कल्याण व हिदायत से प्रकाशित करते हैं, और प्रत्येक दानी व्यक्ति और वैद्य जो जड़ी बूटियों के द्वारा लोगों का इलाज करते हैं, इन समस्त लोगों की प्रशंसा वास्तव में अल्लाह के पवित्र अस्तित्व के द्वारा ही सम्पन्न होती हैं। इसकी मिसाल ऐसी ही है जैसे सूरज प्रकाश देता है, बादल वर्षा करता है तथा ज़मीन फल फूल सब्ज़ी व अनाज प्रदान करती है। परन्तु वास्तव में यह सभी चीज़ें अल्लाह की ओर से ही प्रदान होती हैं।

2.      यह बात ध्यान देने योग्य है कि हम्द किसी कार्य के प्रारम्भ में ही नही होती बल्कि उसके अंत में भी होती है। क्योँकि कुरआन हमें यह शिक्षा देता है कि अल्लाह की प्रशंसा हमेशा करते रहो। स्वर्ग वासियों के समबन्ध में वर्णन होता है कि “स्वर्ग में उनका कथन यह होगा कि अल्लाह पाक एवं पवित्र है। वह आपस में सलाम के द्वारा मुलाक़ात करेंगे और उनका अन्तिम कथन यह होगा कि समस्त प्रशंसायें अल्लाह के लिए है जो पूरे जगत का पालनहार है।”[1]

3.      रब्ब शब्द का अर्थ मालिक है। यह शब्द विशेषकर तरबियत, प्रशिक्षण व पालनहारिता के अर्थ में प्रयोग होता है।

4.      आलमीन यह शब्द आलम शब्द का बहुवचन है। आलम शब्द का अर्थ संसार व उसमें विद्यमान समस्त चीज़े हैं। जब यह शब्द अपने बहुवचन में प्रयोग होता है तो इसका अर्थ व्यापक हो जाता है और इसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व उसमें विद्यमान समस्त वस्तुएं सम्मिलित हो जातीं हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि सूर-ए- फ़ातिहा में रब्बिल आलमीन अल्लाह की सम्पूर्ण सृष्टि की ओर संकेत है जिसके अन्तर्गत सजीव व निर्जीव सभी वस्तुएं आती हैं।

तीसरी आयत
الرَّ‌حْمَـٰنِ الرَّ‌حِيمِ

अर्रहमानि अर्रहीमि

अनुवाद- ऐसा अल्लाह जो रहमान व रहीम है।

हमने रहमान एवं रहीम का अन्तर बिस्मिल्लाह की तफ़सीर के अन्तर्गत स्पष्ट कर दिया है। यहाँ केवल यह बताना उचित रहेगा कि अल्लाह की इन दोनों विशेषतओं को हर रोज़ की नमाज़ मे कम से कम तीस बार पढ़ा जाता है। हर नमाज़ की पहली व दूसरी रकत में छः बार अर्रहमान व अर्रहीम पढ़ा जाता है। इस प्रकार हम हर रोज़ पाँच वक्त की नमाज़ों में अल्लाह को रहमान व रहीम की विशेषताओं के साथ तीस बार पुकारते हैं। यह प्रत्येक इंसान के लिए एक शिक्षा है कि वह अपने जीवन में सबसे पहले स्वयं को इस नैतिक गुण से जोड़े।  इसके अलावा यह विशेषता इस ओर भी इशारा करती है कि अगर हम स्वयं को अल्लाह का बंदा मानते हैं तो हमेंबी अपने बंदों व सेवकों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो व्यवहार अल्लाह अपने बंदों के साथ करता है।

इसके अलावा जिस बात का यहाँ वर्णन किया जा सकता है वह यह है कि रहमान व रहीम, रब्बिल आलमीन के बाद प्रयोग हुआ है जो कि इस बात की ओर संकेत करता है कि अल्लाह सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने बंदों के साथ मुहब्बत व सहानुभूती रखता है।

चौथी आयत
مَالِكِ يَوْمِ الدِّينِ

मालिकि यौमिद्दीन

अनुवाद- (वह अल्लाह) जो क़ियामत के दिन का मालिक है।

इस आयत में अल्लाह के प्रभुत्व की ओर संकेत हुआ है और बताया गया है कि उसका प्रभुत्व क़ियामत के दिन उस समय स्पष्ट होगा जब समस्त प्राणी अपने कार्यों के हिसाब किताब के लिए उसकी अदालत में उपस्थित होंगे व अपने आपको उसके सम्मुख पायेंगे और अपने संसारिक जीवन के समस्त कर्मों यहाँ तक कि अपने चिंतन को भी अपने सामने देखेंगे। सूईं की नोक के बराबर भी न कोई चीज़ गुम होगी और न ही भुलाई जायेगी। इंसान को अपनी समस्त ज़िम्मेदारियों को अपने काँधों पर उठाना पड़ेगा। क्योँकि इंसान ही रीती को बनाने वाला एवं लक्ष्यों व उद्देश्यों पर खरा उतरने वाला है। अतः इंसान को चाहिए कि वह अपनी ज़िम्मेदारियों को समझे व उन्हें पूरा करते हुए अपने वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करे।

इसमें कोई संदेह नही है कि इस संसार में अल्लाह का प्रभुत्व ही वास्तविक है। उसका प्रभुत्ता ऐसी नही है जैसे अपनी वस्तुओं पर हमारा होता है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अल्लाह का प्रभुत्व ख़ालक़ियत व रबूबियत (उत्पत्ति व पालनहारिता) के नतीजे में है। वह अस्तित्व जिसने इस प्रकृति की रचना की और जो प्रत्येक पल समस्त जीव जन्तुओं पर कृपा करता है वास्तव में वही समस्त चीज़ों का मालिक व प्रभु है।

यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या अल्लाह इस सम्पूर्ण सृष्टि का मालिक नही है, जो हम उसे क़यामत के दिन का मालिक कहते है?

इस प्रश्न के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि इसमें कोई संदेह नही है कि अल्लाह पूर्ण सृष्टि का मालिक है। लेकिन उसका मालिक होना पूर्ण रूप से उसी दिन स्पष्ट होगा। क्योँकि उस दिन सभी भौतिक पर्दे उठा दिये जायेंगे व सामयिक मालकियत व प्रभुत्व समाप्त कर दिया जायेगा। उस दिन किसी के पास कोई वस्तु नही होगी। यहाँ तक कि अगर किसी की शिफ़ाअत भी की जायेगी तो वह भी अल्लाह के आदेश से होगी

क़यामत का यक़ीन इंसान को नियन्त्रित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इंसान को बहुत से अनैतिक व धर्म विरोधी कार्यों से रोकता है। नमाज़ द्वारा इंसान का बुराईयों से रुकने का एक कारण यह भी है कि नमाज़ इंसान को उसकी वास्तविक्ता व अन्य चीज़ों से अवगत कराती है। उसे अल्लाह के उस दरबार की याद दिलाती है जहाँ अदालत व इंसाफ़ का राज होगा और जहाँ हर चीज़ आईने की तरह साफ़ नज़र आयेंगी।

एक हदीस में हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के बारे में मिलता है कि जब आप सूरा-ए-हम्द पढ़ते हुए मालिकि यौमिद्दीन पर पहुँचते थे तो इस आयत को इतनी बार दोहराते थे कि ऐसा लगने लगता था कि आप की रूह बदन से निकल जायेगी।

क़ुरआन में यौमद्दीन जहाँ भी प्रयोग हुआ है सब जगह क़ियामत के अर्थ में है। अगर यह प्रश्न किया जाये कि क़ियामत को दीन का दिन क्योँ कहा जाता है, तो इसका जवाब यह दिया जा सकता है कि लुग़त (शब्द कोष) में दीन का अर्थ जज़ा व प्रतिफल है। चूँकि क़ियामत के दिन हर प्राणी को उसके कार्यों का प्रतिफल मिलेगा शायद इसी लिए क़ियामत को यौमिद्दीन अर्थात दीन का दिन कहा गया है।

**************
(1) सूर-ए-यूनुस आयत न.10
चवीं आयत

इय्याका नअबुदु व इय्याका नस्तईनु

अनुवाद- हम केवल तेरी ही इबादत करते हैं और केवल तुझ ही से मदद चाहते हैं।

इंसान अल्लाह के सामने

यहाँ से बंदा अल्लाह से सम्बोधित होता है। पहले अल्लाह के सामने अपनी बंदगी को बयान करता है बादमें उससे सहायता की गुहार करता है। कहता है कि हम केवल तेरी ही इबादत करते हैं और केवल तुझ ही से सहायता चाहते हैं।

वास्तविक्ता यह है कि इससे पहली आयतों में तौहीदे ज़ात व तौहीदे सिफ़ात का वर्णन हुआ है और इस आयतमें तौहीदे इबादत व तौहीदे अफ़आल को बयान किया गया है।

तौहीदे इबादत का अर्थ यह है कि अल्लाह के अलावा कोई भी अस्तित्व इबादत योग्य नही है। अर्थात किसी अन्य के समक्ष सिर नही झुकाया जा सकता। अतः इंसान को चाहिए कि वह अल्लाह के अलावा अन्य किसी चीज़ को स्वीकार करने व उसक बंदा बनने से बचे।

तौहीदे अफ़आल अर्थात इस संसार में वास्तविक कारक अल्लाह है। इस कथन का मतलब यह नही है कि हम कारणो के पीछे न जायें बल्कि अर्थ यह है कि हमें यह विश्वास होना चाहिए कि यहाँ प्रत्येक कारण व प्रभाव अल्लाह के आदेशानुसार ही है। इस प्रकार का चिंतन इंसान को संसार समस्त वस्तुओं से दूर करके अल्लाह से जोड़ता है।

छठी आयत

इहदिना अस्सिराता अलमुस्तक़ीम

अनुवाद  - हमारा सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन कर

अल्लाह को उसके वास्तविक रूप में स्वीकार करने के बाद उसकी बंदगी करते हुए उसके द्वारा बनाये गये क़ानूनों के अनुरूप उससे सहायता की गुहार करने के बाद बंदे की पहली माँग यह है कि अल्लाह उसका सत्यता, पवित्रता, नेकी इंसाफ़ व न्याय, ईमान व अमल के सीधे रास्ते का मार्ग दर्शन करे। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि  हम अल्लाह से सीधे रास्ते के लिए मार्ग दर्शन करने का निवेदन क्योँ करे?क्या हम भटके हुए हैं या हम किसी ग़लत रास्ते पर हैं? फिर यह दुआ पैग़म्बरे इस्लाम(स.) व आइम्मा-ए-मासूमीन ने भी की है जो कि सिद्धी प्राप्त इंसान थे। तो इसका अर्थ क्या है?

इस प्रश्न के उत्तर में हम कह सकते हैं कि इंसान को हिदायत के रास्ते में प्रति क्षण अपने डग मगाने एवं भटकने व गुमराह होने का डर रहता है। अतः इसी कारण हमें चाहिए कि स्वयं को अल्लाह के हवाले कर दें और उससे प्रार्थना करें कि वह सीधे रास्ते पर अग्रसर रहने की तौफ़ीक़ दे एवं हमारा मार्ग दर्शन करे। इसके अलावा हिदायत उसी रास्ते को तै करने के लिए है जो इंसान को धीरे धीरे सिद्धता की ओर ले जाता है और वह अपने समस्त नुक़सानों को छोड़ता चला जाता है और अन्ततः सिद्धी प्राप्त कर लेता है। अतः अगर पैगम्बर या इमाम अल्लाह से सीधे रास्ते की हिदायत की दुआ करें तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नही है। क्योँकि अल्लाह ही सिद्धी का वास्तविक रूप है तथा सम्पूर्ण संसार सिद्धी के मार्ग पर अग्रसर है।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम इस आयत की तफ़्सीर करते हुए फ़रमाते हैं कि “ऐ अल्लाह हमें उस रास्ते पर स्थिर व अडिग रख जिस पर तेरी मुहब्बत व कृपा दृष्टि हो तथा जो सवर्ग से जाकर मिलता हो औरसमस्त भौतिक चिंताओं व गुमराही से दूर हो। ”

सिराते मुस्तक़ीम (सीधा रास्ता) क्या है?

सिराते मुस्तक़ीम अल्लाह की इबादत और दीने हक़ पर रहते हुए अल्लाह के क़ानूनों का पालन है। क्योँकि सूरा-ए- अनाम की आयत न. 161 में वर्णन हुआ है कि कहो, कि अल्लाह ने हमें सिराते मुस्तक़ीम की हिदायत की है, उस दीन की जो इब्राहीम का दीन था, और अल्लाह के साथ किसी अन्य को हरगिज़ शरीक न करो।

सातवीँ आयत

सिरात अल्लज़ीना अनअमता अलैहिम ग़ैरिल मग़ज़ूबि अलैहिम व ला अज़्ज़ाल्लीन।

अनुवाद--- मुझे उन लोगों के रास्ते की हिदायत कर जिन पर तूने अपनी नेअमतें नाज़िल कीं (हिदायत की नेअमत, तौफ़ीक़ की नेअमत, सत्य ,लोगों के मार्गदर्शन की नोअमत, ज्ञान,कर्म जिहाद व शहादत की नेअमत) उन लोगों के रास्ते पर न चला जो अपने कुकर्मों के कारण तेरे परकोप का निशाना बने और नही उन लोगों के रास्ते पर जो सत्य का मार्ग छोड़ कर गुमराही व असत्य के मार्ग पर चल पड़े।

वास्तविक्ता यह है कि अल्लाह हमें निर्देश दे रहा है कि हमें उस रास्ते को चुनना चाहिए जो पैग़म्बरों, नेक लोगों व उन लोगों का है जिन पर नेअमतें नाज़िल हुईं। साथ ही साथ हमें अवगत भी करा रहा कि गुमराही के दो रास्ते हैं एक उन लोगों का जो अल्लाह के क्रोध का निसाना बने और दूसरा उनलोगों का जो हक़ के मार्ग से भटक गये।

1-अल्लज़ीना अनअमता अलैहिम

वह लोग जिन पर तूने नेअमते नाज़िल कीं।

प्रश्न पैदा होता है कि वह लोग कौन हैं जिन पर अल्लाह ने नेअमतें नाज़िल कीं?

सूर-ए निसा की आयत न. 69 में उन लोगों का परिचय कराते हुए वर्णन हुआ है कि और जिन्होंने पैग़म्बरो को माना( उनके आदेशों पर चले) तो ऐसे लोगों उन बंदो के साथ होंगे जिन्हें अल्लाह ने अपनी नेअमतों प्रदान की हैं। यानि पैग़म्बर, सच्चे लोग, शहीद व नेक लोग और यह लोग कितने अच्छे दोस्त हैं।

इस आधार पर हम सूरा-ए-हम्द में अल्लाह से यह चाहते हैं कि इन चार गिरोहों के मार्ग पर हमेशा अडिग रहें और इस रास्ते पर चलते हुए अपने उत्तरदायित्व को निभायें व कर्तव्यों को पूरा करें।

2 अलमग़ज़ूबि अलैहिम व अज़्ज़ाल्लीन

जिनपर अल्लाह क्रोधित हुआ तथा जो गुमराह हुए।

यह लोग कौन है ?

कुरआन मेंप्रयोग होने वाले इन दो शब्दों से अलग अलग अभिप्रायः लिया गदया है। ज़ाल्लीन से अभिप्रायः साधरण गुमराह लोग और मग़ज़ूब से अभिप्रायः कपटी, हटधर्मी व मुनाफ़िक जैसे गुमराह लोग हैं।


समाजिक समस्याओं का बेहतरीन हल कुरान |

$
0
0
समाजिक समस्याओं का बेहतरीन हल
इस सिलसिले में हम आपके सामने पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन बयान कर रहे हैं कि आप फ़रमाते हैं |  जब कभी अंधेरी रात की भाति  फ़ितने तुम्हें घेर लें तो क़ुरआन का दामन थामना।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि हृदयों और ज्ञान के सोतों का वसंत क़ुरआने मजीद है तथा मन व विचारों के लिए क़ुरआन से बढ़ कर कोई प्रकाश नहीं हो सकता। वसंत ऋतु में सभी पौधे जीवित, फूल खिले हुए, पेड़ व जंगल हरे भरे, फल पके हुए और कुल मिला कर संपूर्ण सृष्टि जीवित, सुंदर, वैभवशाली, प्रसन्नचित्त व प्रफुल्लित होती है। जब क़ुरआन का पवन दिलों पर चलता है तो हृदयों का वसंत आरंभ हो जाता है, शिष्टाचार व नैतिकता के फूल खिलते हैं, विनम्रता, संयम व दृढ़ता के पेड़ों पर फल लगते हैं, पापों के कारण जम जाने वाली बर्फ़ धीरे धीरे पिघलने लगती है

और पापों की शीत ऋतु के बचे खुचे चिन्ह, जिनसे हृदय की मृत्यु की महक आती है, समाप्त होने लगते हैं। स्पष्ट है कि हम क़ुरआने मजीद से जितना अधिक लाभ उठाएंगे, हमारे हृदय का वसंत उतना ही टिकाऊ होगा। ईश्वर अपनी आसमानी किताब के बारे में सूरए यूनुस की 57वीं आयत में कहता है कि हे लोगो! निश्चित रूप से तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से उपदेश आ चुका है जो तुम्हारे हृदयों में जो कुछ रोग है उसके लिए उपचार है और ईमान वालों के लिए मार्गदर्शन और दया है।

यदि हम वसंत ऋतु पर ध्यान दें तो उसमें दो महत्वपूर्ण बातें दिखाई पड़ेंगी। प्रथम तो ईश्वर की महानता कि जो एकेश्वरवाद की परिचायक है और दूसरे प्रकृति का पुनः जीवित होना जो प्रलय के दिन मनुष्यों के पुनः जीवित होने की याद दिलाता है। इस आधार पर वसंत, एकेश्वरवाद का भी ऋतु है और प्रलय का भी मौसम है। क़ुरआन भी हृदयों की वसंत ऋतु है और उसका ज्ञान व उसकी पहचान, एकेश्वरवाद एवं प्रलय पर आस्था को मनुष्य के अस्तित्व में प्रबल बनाती है। क़ुरआने मजीद, मनुष्य को उस संसार के बारे में चिंतन के लिए प्रेरित करता है जो उसके चारों ओर मौजूद है और इसी प्रकार संसार के रहस्यों को समझने के लिए उसका मार्गदर्शन करता है। वह मनुष्य को उसके आरंभ व अंत जैसे सृष्टि के दो महत्वपूर्ण विषयों से परिचित कराता है।

क़ुरआने मजीद की मनमोहक आयतें, हृदय को जीवित कर देती हैं और जो हृदय क़ुरआन के माध्यम से जीवित होता है वह कभी भी निराश व उदास नहीं होता। क़ुरआने मजीद, अनुकंपाओं और विभूतियों से भरा हुआ ईश्वर का दस्तरख़ान है। उसकी आयतों की तिलावत की मनमोहक आवाज़, ईश्वर से डरने वालों के पवित्र हृदयों को प्रकाशमान बनाती हैं और उसकी शुद्ध शिक्षाएं आत्मा को शांति प्रदान करती हैं।

क़ुरआने मजीद के चमत्कार का एक आयाम उसका चमत्कारिक प्रभाव है। इस अर्थ में कि दूसरों पर प्रभाव डालने और रोचकता की दृष्टि से क़ुरआन असाधारण है। कोई भी मनुष्य इस प्रकार का असाधारण प्रभाव रखने वाली किताब लाने में सक्षम नहीं है। पूर्वी मामलों के फ़्रान्सीसी विशेषज्ञ सावराए कहते हैं कि क़ुरआन में एक विशेष रोचकता व प्रभाव है जो किसी भी अन्य किताब में दिखाई नहीं देता। क़ुरआने मजीद के प्रभाव के बारे में इस्लाम के आरंभिक काल की एक महत्वपूर्ण घटना यह है कि अख़नस बिन क़ैस, अबू जमल व वलीद बिन मुग़ैरा, अरब के प्रतिष्ठित लोग और पैग़म्बर के विरोधी थे।

इसके बावजूद वे रात के समय मक्का नगर की अंधेरी गलियों से गुज़र कर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के घर के पिछवाड़े खड़े हो जाते थे और भोर समय तक उनके द्वारा की जा रही क़ुरआने मजीद की तिलावत को मंत्रमुग्ध हो कर सुनते रहते थे। वलीद बिन मुग़ैरा इस संबंध में कहता है। ईश्वर की सौगंध! इस कथन में एक विशेष मिठास है और एक विशेष सुंदरता इससे फूटती है। यह ऐसा पेड़ है जिसकी शाखाएं फलों से भरी हुई हैं। यह कथन किसी मनुष्य का हो ही नहीं सकता।

ब्रिटेन के अध्ययनकर्ता कोंट ग्रीक अपनी किताब मैंने क़ुरआन को किस प्रकार पहचाना में लिखते हैं। किसी मुसलमान महिला या पुरुष पर क़ुरआने मजीद जो प्रभाव डालता है वह इस किताब के प्रति उस व्यक्ति की आस्था के कारण होता है कि जो स्वाभाविक बात है किंतु मेरे जैसा कोई भी ग़ैर मुस्लिम व्यक्ति, क़ुरआन पर आस्था के बिना उसे खोलता है किंतु जैसे ही वह इस किताब को पढ़ना आरंभ करता है, इससे प्रभावित हो जाता है और वह जितना अधिक इसे पढ़ता जाता है उतना ही अधिक उस पर इसका प्रभाव बढ़ता जाता है कि जो एक असाधारण बात है। वे कहते हैं कि हम अंग्रेज़, उस भाषा को, जो आज से चौदह सौ वर्ष पूर्व ब्रिटेन तथा उसके अधीन क्षेत्रों में बोली जाती थी, अब नहीं समझते। इसी प्रकार फ़्रान्सीसी विद्वान जो भाषा विशेषज्ञ भी हैं, चौदह सौ वर्ष पहले की फ़्रान्स की भाषा को नहीं समझ सकते किंतु आज समय ने क़ुरआन की भाषा को नहीं मिटाया है। जब हम क़ुरआन पढ़ते हैं तो मानो यह ऐसा ही है जैसे किसी अरब देश में आज के समाचापत्रों या किताबों का अध्ययन कर रहे हों।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने एक सुंदर कथन में कहा है कि ईश्वर ने क़ुरआने मजीद को विद्वानों के ज्ञान की प्यास बुझाने वाला और धर्मगुरुओं के हृदयों का वसंत बनाया है। ईरान के विख्यात धर्मगुरू आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस कथन की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि धरती में तीन चौथाई जल और एक चौथाई थल है। इसी प्रकार मानव शरीर का लगभग तीन चौथाई भाग भी पानी ही से है अतः पानी के प्रति मनुष्य की आवश्यकता समझी जा सकती है और वह उसके बिना रह नहीं सकता। इस आधार पर मनुष्य की आत्मा को भी पानी की आवश्यकता है और हमारा आध्यात्मिक पानी, क़ुरआने मजीद है।

क़ुरआने मजीद, दयावान रचयिता का कथन और मनुष्य के लिए हर काल में सफलता का पथप्रदर्शक है। इसकी आयतों की तिलावत से दिलों पर लगा हुआ ज़ंग छूट जाता है और हर आयत की तिलावत के साथ ही मनुष्य अध्यात्म की सीढ़ी पर एक पायदान ऊपर चढ़ जाता है। सईद बिन यसार नामक व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से अपने दुखों व समस्याओं की समाप्ति के संबंध में सहायता चाही। उन्होंने सईद को एक दुआ सिखाई जिसका अनुवाद है। प्रभुवर! मैं तेरे उन समस्त नामों के वास्ते से जो तूने अपनी किताब क़ुरआन में उतारे हैं, या जिन्हें तूने अपनी किसी रचना को सिखाया है या फिर अपने गुप्त ज्ञान में रखा है, तुझ से विनती करता हूं कि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही सल्लम व उनके परिजनों पर सलाम भेज और क़ुरआन को मेरी आंखों का प्रकाश, मेरे हृदय का वसंत, मेरे दुखों को दूर करने का साधन और मेरे समस्याओं के समाप्त होने का माध्यम बना।

क़ुरआने मजीद ऐसे उच्च विचारों व तथ्यों से परिपूर्ण है कि जिनमें सृष्टि के रहस्यों व वास्तविकताओं और इसी प्रकार मनुष्य के प्रशिक्षण के लिए सर्वोच्च नैतिक कार्यक्रमों को देखा जा सकता है। इस ईश्वरीय किताब ने पवित्र, सुंदर, प्रकाश, सत्य व असत्य के बीच अंतर करने वाली, मार्गदर्शक और सबसे ठोस मार्ग जैसे नामों से स्वयं की सराहना की है।

प्रभुवर! वसंत, प्रगति, गतिशलीता और परिवर्तन का परिचायक है। हम भी वसंत के साथ साथ, क़ुरआने मजीद से स्वयं को जोड़ कर परिवर्तन के लिए उठ खड़े हुए हैं ताकि तुझे बेहतर ढंग से पहचान सकें। प्रभुवर! हमारे हाथों को थाम ले और पाप की छाया को हमारे शरीर व आत्मा से दूर कर दे। हमें, जो अंधकार व शीत ऋतु से दूर रहना चाहते हैं, वसंत के उज्जवल दिनों से जोड़ दे और हमारे भीतर आशा व गतिशीलता की आत्मा को जीवित कर दे, हे सबसे अधिक दयालु व कृपालु!

इमाम अली (अ0) की क़ुरआन की तौसीफ़, तबयीन और तौज़ीह दिल को छू लेने वाली है कभी कभी कलामे अली (अ0) क़ुरआन की अज़मत और उस के राज़ व रुमूज़ से परदा उठाने मे इस क़द्र बुलंदी पर पहुंच जाती है कि इंसान बिला इख़्तियार उस के सामने सर झुकाने को मजबूर हो जाता है।

क़ुरआन इमाम अली (अ0) की नज़र में दिलों की बहार है जिस से दिल व जान को तरावत बख़्शी जानी चाहिये। दर्द से शिफ़ा है कि जिस की राहनुमाई में बदी और बद बख़्ती, निफ़ाक़ व कुफ़्र और कज रफ़्तारी को सफ़्हऐ दिल से मिटा देना चाहिये आप फ़रमाते हैं: क़ुरआन की तालीम हासिल करो क्यों कि ये बेहतरीन गुफ़्तार है, इस मे ग़ौर व फ़िक्र करो कि ये दिल की बहार है इस के नूर से हिदायत हासिल करो कि ये दिलों के लिये शिफ़ा बख़्श है।

और फ़रमाते हैं: जान लो कि जिस के पास क़ुरआन है उस को किसी और चीज़ की ज़रूरत नही, और बिना क़ुरआन के कोई बे नयाज़ नही है, पस अपने दर्द की दवा क़ुरआन से करो और सख़्तियों में उस से मदद तलब करो इस लिये कि क़ुरआन बहुत बड़े अमराज़ यानी कुफ़्र, निफ़ाक़ तबाही व बर्बादी से बचाने वाला है।

उस वक़्त जब ज़माने में अरब के कलाम की तूती बोलती थी क़ुरआन नए उस्लूब और दिल रुबा अंदाज़ में नाज़िल हुआ और सब को तारीफ़ करने पर मजबूर कर दिया, इमाम अली (अ0) की इस मुहय्यरुल उक़ूल ख़ूबसूरती के बारे मे फ़रमाते हैं और हक़ तलब और हक़ाएक़े इलाही के बारे मे ग़ौर व फ़िक्र करने वाले को दावत देते हैं और बताते हैं कि क़ुरआन ला महदूद गहराई और ला मुतनाही दरया है:

बे शक क़ुरआन को ज़ाहिर ख़ूबसूरत और बातिन अमीक़ है इस के अजाएबात व ग़राएबात की इन्तेहा नही है और तारीकियां उस के बिना हटाई नही जा सकतीं

क़ुरआन की हक़ीक़ी मारिफ़त हासिल करने के लिये हम को क़ुरआन के दामन में पनाह लेना होगी, उस से तालीम हासिल करनी होगी, उस की नसीहतों से पंद हासिल करनी होगी, मुशकिलात व गिरफ़्तारियों में उस से मदद मांगनी होगी, और इन सब के लिये बसीरत व आगाही के साथ क़ुरआन से पूछना होगा और उस से जवाब लेना होगा।

सियूति लिखता है: ख़ोलफ़ा में सब से ज़्यादा तफ़सीरी रिवायात इमाम अली (अ0) से लक़्ल हुई हैं आज हमारे दरमियान जो हदीसी और तफ़सीरी मनाबे है वह,वह सब नही हैं जो इमाम अली (अ0) ने बयान किया है बल्कि इस बह्रे अज़ीम का एक क़तरा है जो हम तक पहुंच पाया है।

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ0) इमाम अली (अ0) से नक़्ल करते हैं: रूए ज़मीन पर अज़ाबे इलाही से बचाने वाली दो चीज़ें हैं, उन मे से एक उठा ली गई, इस लिये दूसरी से तमस्सुक अख़्तियार करो, जो उठा ली गई वह रसूले अकरम (स0) की ज़ात है, लेकिन जो हमारे दरमियान मौजूद है वह इस्तिग़फ़ार है। ख़ुदावंदे आलम फ़रमाता है: हालांकि अल्लाह उन पर उस वक़्त तक अज़ाब न करेगा जब तक पैग़म्बर आप उनके दरमियान हैं और ख़ुदा उन पर अज़ाब करने वाला नही है अगर ये तौबा और इस्तिग़फ़ार करने वाले हो जांयें।

सैय्यद रज़ी (नहजुल बलाग़ा के मुसन्निफ़) फ़रमाते हैं: ये क़ुरआन की एक बेहतरीन तफ़सीर है और क़ुरआन से एक लतीफ़ इस्तिमबात है कि जब इमाम अली (अ0) से इस आयत “बे शक अल्लाह अद्ल एह्सान और क़राबतदारों के हुक़ूक़ की अदाएगी का हुक्म देता है ” के बारे में सवाल किया गया तो आप ने जवाब दिया “अद्ल इन्साफ़ है और एह्सान नेकी है”

कलामे इमाम अली (अ0) की एक बहुत बड़ी ख़ुसूसियत कलामे इलाही से मिला होना और उस से इस्तिमबात करना है। जैसे कि आप ने मोआविया से जंग के लिये लश्कर को जमा करने के बाद एक ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया “ऐ मुसलमानों मोआविया जैसे ज़ालिम बैअत शिकन और ज़ुल्म की तरवीज करने वाले से जंग के लिये उठ खड़े हो! और मैं जो क़ुरआन से कह रहा हूं उस को सुनो और उस से नसीहत हासिल करो, गुनाहों से दूरी इख़्तियार करो, ख़ुदा ने तुम्हारे लिये दूसरी उम्मतों की सर गुज़श्त मे इबरत रखी है” फिर आप इस आयत की तिलावत करते हैं:क्या तुम ने मूसा (अ0) के बाद बनी इस्राईल की जमाअत को नही देखा जिस ने अपने नबी से कहा कि हमारे वासते एक बादशाह मुक़र्रर कीजिये ताकि हम राहे ख़ुदा मे जिहाद करें, नबी ने फ़रमाया कि अंदेशा ये है कि तुम पर जिहाद वाजिब हो जाए तो तुम जिहाद न करो, उन लोगों ने कहा कि हम क्यों कर जिहाद न करेंगे जब कि हमे हमारे घरों और बाल बच्चों से अलग निकाल कर बाहर कर दिया गया है.उस के बाद जब जिहाद वाजिब कर दिया गया तो थोड़े से अफ़राद के अलावा सब मुनहरिफ़ हो गए और अल्लाह ज़ालेमीन को ख़ूब जानता है।

उन के पैग़म्बर ने कहा कि अल्लाह ने तुम्हारे लिए तालूत को हाकिम मुक़र्रर किया है, उन लोगों ने कहा कि ये किस तरह हुकूमत करेंगे उन के पास तो माल की फ़रावानी नही है उन से ज़्यादा तो हम ही हक़दारे हुकूमत हैं. नबी ने जवाब दिया कि उन्हें अल्लाह ने तुम्हारे लिए मुन्तखब किया है और इल्म व जिस्म मे वुस्अत अला फ़रमाई है और अल्लाह जिसे चाहता है अपना मुल्क दे देता है कि वह साहिबे वुस्अत भी है और साहिबे इल्म भी।

ऐ लोगों इन आयात मे तुम्हारे लिए इबरत है ताकि तुम जान लो कि ख़ुदा ने ख़िलाफ़त व हुकूमत को अंबिया के बाद उन के ख़ानदान मे रखा है और तालूत को इल्म व क़ुदरत के ज़रिए दूसरों पर बरतरी बख़्शी है। अब ख़ूब ग़ौर करो कि ख़ुदा ने बनी उमय्या को बनी हाशिम पर बरतरी दी है? और मोआविया को इल्म व दानिश और क़ुदरत मे मुझ पर फ़ज़ीलत दी है? ऐ लोगो तक़्वा एख़्तियार करो और इस से पहले कि अजा़बे इलाही मे गिरफ़तार हो जाओ उस की राह मे जिहाद करो।

ज़ियारते नाहिया -नौहा इमाम ऐ ज़माना (अ.स)

$
0
0
सलाम हो ख़लक़े ख़ुदा में चुने रोज़गार नबी आदम (अ:स) पर

सलाम हो अल्लाह के वली और इस के नेक बन्दे शीस (अ:स) पर

सलाम हो ख़ुदा के दलीलों के मज़हर इदरीस (अ:स) पर

सलाम हो सलाम हो नूह (अ:स) पर अल्लाह ने जिन की दुआ क़बूल की

सलाम हो हूद (अ:स) पर जिन की मुराद अल्लाह ने पूरी की

सलाम हो सालेह (अ:स) पर जिन की अल्लाह ने अपने लुत्फ़ ख़ास से रहबरी की

सलाम हो इब्राहीन (अ:स) खलील पर जिन्हें अल्लाह ने अपनी दोस्ती के ख़िल'अत से आ'रास्ता किया

सलाम हो फिदया-ए-राहे हक़ इस्माइल (अ:स) पर जिन्हें अल्लाह ने जन्नत से ज़िबह-अज़ीम का तोहफा भेजा

सलाम हो इसहाक़ (अ:स) पर जिन की ज़ुर्रियत में अल्लाह ने नबू'अत क़रार दी

सलाम हो याकूब (अ:स) पर जिन की बिनाई अल्लाह की रहमत से वापस आ गयी

सलाम हो युसूफ (अ:स) पर जो अल्लाह की बुज़ुर्गी के तुफैल कुंवे से रिहा हुए

सलाम हो मूसा (अ:स) पर जिन के लिए अल्लाह ने अपनी क़ुदरते ख़ास से दरया में रास्ते बना दिए

सलाम हो हारुन (अ:स) पर जिन्हें अल्लाह ने अपनी नबू'अत के लिए मखसूस फरमाया

सलाम हो शु'ऐब (अ:स) पर जिन्हें अल्लाह ने उन की उम्मत पर नुसरत देकर सरफ़राज़ किया

सलाम हो दावूद (अ:स) पर जिन की तौबा क़ो अल्लाह ने शरफे- क़बूलियत अता किया

सलाम हो सुलेमान (अ:स) पर जिन के सामने अल्लाह की इज़्ज़त के तुफैल जिनों ने सर झुका लिया

सलाम हो अय्यूब (अ:स) पर जिन क़ो अल्लाह ने बीमारी से शफ़ा दी

सलाम हो युनुस (अ:स) पर जिन के वादे क़ो अल्लाह ने पूरा किया

सलाम हो अज़ीज़ (अ:स) पर जिन क़ो अल्लाह ने दुबारा ज़िंदगी अता की

सलाम हो ज़करया (अ:स) पर जिन्हों ने सख्त आज़्मा'इशों में भी सबर से काम लिया

सलाम हो यहया (अ:स) पर जिन्हें अल्लाह ने शहादत से सर बुलंद किया

सलाम हो ईसा (अ:स) पर जो अल्लाह की रूह और इस का पैग़ाम हैं

सलाम हो मुहम्मद मुस्तफा (स:अ:व:व) पर जो अल्लाह के हबीब और इस के मुन्तखिब बन्दे हैं

सलाम हो अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली इब्न अबी तालिब (अ:स) पर जिन्हें नबी (स:अ:व:व) के क़ु'वते बाजू होने का शरफ़ हासिल है

सलाम हो रसूल की इकलौती बेटी फ़ातिमा (स;अ) पर

सलाम हो इमाम हुसैन (अ:स) पर जो अपने बाबा की अमानतों के रखवाले और इनके जा'नशीन हैं

सलाम हो हुसैन (अ:स) पर जिन्हों ने इन्तेहाई ख़ुलूस से राहे ख़ुदा में जन निसार कर दी

सलाम हो इस पर जिस ने खिल्वत व जलवत में छिप कर आशकार अल्लाह की इता'अत व बंदगी की

सलाम हो इस पर जिस की कब्र की मिटटी ख़ाके शिफ़ा है

सलाम हो इस पर जिस के हरम की फ़िज़ा में दुआएं क़बूल होती हैं

सलाम हो इस पर के सिलसिले इमामत इस की ज़ुर्रियत से है

सलाम हो पेसर-ए-खत्मी मर्ताबत (अ:स) पर

सलाम हो सय्यद-ए-औसिया (अ:स) के फ़र्ज़न्द पर

सलाम हो फातिमा ज़हरा (स:अ) के बेटे पर

सलाम हो ख़दी'जतुल कुबरा (स:अ) के नवासे पर

सलाम हो सिदरतुल मुन्तहा के वारिस-ओ-मुख्तार पर

सलाम हो जन्नतुल मावा के मालिक पर

सलाम हो ज़मज़म व सफ़ा वाले पर

सलाम हो उस पर जो ख़ाक़ व खून में गलताँ हुआ

सलाम हो उस पर जिसकी सरकार लूटी गयी

सलाम हो किसा वालों की पांचवीं शख्सीयत पर

सलाम हो सब से बड़े परदेसी पर

सलाम हो सरवरे शहीदां पर

सलाम हो उस पर जो बे नंग-ओ-नाम लोगों के हाथों शहीद हुआ

सलाम हो कर्बला में आकर बसने वाले पर

सलाम हो उस पर जिस पर फ़रिश्ते रोये

सलाम हो उस पर जिस की ज़ुर्रियत पर-ओ-पाकीज़ा है

सलाम हो दीं के सय्यद-ओ-सरदार पर

सलाम हो उन पर दलाएल-ओ-ब्राहीन की अमाज्गाह हैं

सलाम हो उन पर जो सरदारों के सरदार इमाम हैं

सलाम हो चाक गरीबानों पर

सलाम हो मुरझाये हुए होटों पर

सलाम हो कर्ब-ओ-अंदोह में घिरे हुए चूर-चूर नफूस पर

सलाम हो उन रूहों पर जिन के जिस्मों क़ो धोके से तहे तेग़ किया गया

सलाम हो बे गोरो-कफ़न लाशों पर

सलाम हो ईन जिस्मों पर धुप कि शिद्द्त से जिन के रंग बदल गए

सलाम हो खून की ईन धारों पर जो कर्बला के दामन में जज़्ब हो गयीं

सलाम हो बिखरे हुए अज़ा पर

सलाम हो ईन सरों पर जिन्हें नेजों पर बुलंद किया गया

सलाम हो उन मुखद'देराते इस्मत पर जिन्हें बे-रिदा फिराया गया

सलाम हो दोनों जहानों के पालनहार की हुज्जत पर

सलाम हो आप पर और आप के पाक-ओ-पाकीज़ा आबा-ओ-अजदाद पर

सलाम हो आप पर और आप के शहीद फ़रज़न्दों पर

सलाम हो आप पर और आपकी नुसरत करने वाली ज़ुर्रियत पर

सलाम हो आप पर और आप के क़ब्र के मुजाविर फ़रिश्तों पर

सलाम हो इन्तेहाये मज़लूमियत के साथ क़त्ल होने वाले पर

सलाम हो आप के, ज़हर से शहीद होने वाले भाई पर

सलाम हो अली अकबर (अ:स) पर

सलाम हो कमसिन शीरख़ार पर

सलाम हो ईन नाजनीन जिस्मों पर जिन पर कोई कपड़ा नहीं रहने दिया गया

सलाम हो आप के दर-बदर किये जाने वाले ख़ानदान पर

सलाम हो उन लाशों पर जो सहराओं में बिखर गयी

सलाम हो उन पर जिन से ईन का वतन छुड़ाया गया

सलाम हो उन पर जिन्हें बगैर कफ़न के दफनाना पड़ा

सलाम हो उन सरों पर जिन्हें जिस्मों से जुदा कर दिया गया

सलाम हो उस पर जिस सब्र-ओ-शकेबाई के साथ अल्लाह की राह में जान कुर्बान की

सलाम हो उस मज़लूम पर जो बे यारो मददगार था

सलाम हो पाक-ओ-पाकीज़ा ख़ाक़ में बसने वाले पर

सलाम हो बुलंद-ओ-बाला क़ाभ: वाले पर

सलाम हो उस पर जिसे ख़ुदाए बुज़ुर्ग-ओ-बरतर ने पाक किया

सलाम हो उस पर जिसकी खिदमत गुज़ारी पर जिब्रील क़ो नाज़ था

सलाम हो उस पर जिसे मीकाईल ने गहवारे में लोरी दी

सलाम हो उस पर जिसके दुश्मनों ने उसको और उसके अहले हरम के सिलसिले में अपने अहद-ओ-पैमान क़ो तोड़ा

सलाम हो उस पर जिसकी हुरमत पामाल हुई

सलाम हो जिस का खून ज़ुल्म के साथ बहाया गया

सलाम हो ज़ख्मों से नहाने वाले पर

सलाम हो उस पर जिसे प्यास की शिद्द्त में नोके सिना के तल्ख़ घूँट पिलाए गए

सलाम हो उस पर जिसको ज़ुल्म-ओ-सितम का निशाना भी बनाया गया और उसके ख्याम के साथ उसके लिबास क़ो लूट लिया गया

सलाम हो उस पर जिसे इतनी बड़ी काएनात में यको-तन्हा छोड़ दिया गया

सलाम हो उस पर जिसे यूँ उरयाँ छोड़ा गया जिसकी मिसाल नहीं मिलती

सलाम हो उस पर जिसके दफ़न में बादियाह नशीनों ने हिस्सा लिया

सलाम हो उस पर जिस की शह'रग काटी गयी

सलाम हो दीं के इस हामी पर जिस ने बगैर किसी मददगार के दिफायी जंग लड़ी

सलाम हो इस रेश अक़दस पर जो खून से रंगीन हुई

सलाम हो आप के ख़ाक़ आलूद रुखसारों पर

सलाम हो लूटे और नुचे हुए बदन पर

सलाम हो इस दन्दाने मुबारक पर जिस के छड़ी से बे'हुर्मती की गयी

सलाम हो कटी हुई शह'रग पर

सलाम हो नीजे पर बुलंद किये जाने वाले सरे अक़दस पर

सलाम हो ईन मुक़द्दस जिस्मों पर जिन के टुकड़े सहरा में बिखर गए (1)

(1) यहाँ ऐसे मसाएब का ज़िक्र है जिसके तर्जुमे से दिल लरज़ता है (अनुवादक)

आक़ा ! हमारा सलामे न्याज़ो अदब क़बूल फरमाइए, नीज आप (अ:स) के क़ुबह के गिर्द पर्वानावार फ़िदा होने वाले, आप(अ:स) की तुर्बत क़ो हमेशा घेरे रहने वाले, आप (अ:स) की ज़रीह-ए-अक़दस का हमेशा तवाफ़ करने वाले और आप की ज्यारत के लिए आने वाले फ़रिश्तों पर भी हमारे सलाम निछावर हों!

आक़ा ! मै आप (अ:स) के हुज़ूर में सलामे शौक़ का हदिया लिए कामयाबी-ओ-कामरानी की आस लगाए हाज़िर हुआ हूँ!

आक़ा ! ऐसे गुलाम का अकीदत से भरपूर सलाम क़बूल कीजिये जो आप (अ:स) की इज़्ज़त-ओ-हुरमत से आगाह, आप की विलायत में मुख्लिस, आप की मुहब्बत के वसीलह से अल्लाह के तक़र्रुब का शैदा नीज़ आप के दुश्मनों से बरी-ओ-बेज़ार है!

आक़ा ! ऐसे आशिक़ का सलाम क़बूल फरमाइए जिस का दिल आप की मुसीबतों के सबब ज़ख्मों से छलनी हो चूका है और आप की याद में खून के आंसू बहाता है

आक़ा ! इस चाहने वाले का आदाब क़बूल कीजिये जो आप के ग़म में निढाल, बेजान और बेचैन है

आक़ा ! इस जाँ-निसार का हदिया-ए-सलाम क़बूल कीजिये जो अगर कर्बला में आप के साथ होता तो आप की हिफाज़त के लिये तलवारों से टकरा कर अपनी जान की बाज़ी लगा देता! दिलो-जान से आप पर फ़िदा होने के लिये मौत से पंजा आज़माई करता, आप के सामने जंगो-जिहाद के जौहर दिखाता, आप के ख़िलाफ बग़ावत करने वालों के मुक़ाबले में आप की मदद करता, और अंजाम कार अपना जिस्मो-जान, रूहो-माल, और आल और औलाद सब कुछ आप पर कुर्बान कर देता!

आक़ा ! इस जाँ-निसार का सलाम क़बूल कीजिये, जिस की रूह आप की रूह पर फ़िदा और इस के अहलो-याल आपके अहलो-याल पर तसदीक़

मौला! मै वाक़या-शहादत के बाद पैदा हुआ, अपनी क़िस्मत के सबब मै हुज़ूर (स:अ:व:व) की नुसरत से महरूम रहा, आप के सामने मैदाने कारज़ार में उतरने वालों में शामिल न हो सका, और न ही मै आपके दुश्मनों से नब्रो-आज़्मा हो सका!

लिहाज़ा!अब मै कमाले हसरतो अंदोह के साथ आप पर टूटने वाले मसा'येबो आलाम पर अफ़्सोसो-मलाल और तपिशे रंजो-ग़म के सबब सुबहो शाम मुसलसल गिरया-ओ-ज़ारी करता रहूँगा

नीज़!आप के खून की जगह इस क़दर खून के आंसू बहाऊंगा की अंजामे कार ग़मो-अंदोह की भट्टी और मुसीबतों के लपकते हुए शोलों में जल कर खाकस्तर हो जाऊं और यूँ आप के हुज़ूर अपनी जाँ के नजराना पेश कर दूँ!

आक़ा ! मै शहादत देता हूँ की :आप ने नमाज़ क़ायेम करने का हक़ अदा फ़रमाया, ज़कात अदा की, नेकी का हुक्म दिया, बुराई और दुश्मनी से रोका, दिलो जान से अल्लाह की अता'अत की, पल भर के लिये भी इस की ना फ़रमानी नहीं की, अल्लाह और इसके रस्सी से यूँ वाबस्ता रहे के इस की रज़ा हासिल कर ली, हमेशा इस के काम की निगाह'दाश्त व पासबानी करते रहे, इस की आवाज़ पर लब्बैक कही, इस की सुन्नतों क़ो क़ायेम किया, फ़ितनों की भड़कती हुई आग क़ो बुझाया, लोगों क़ो हक़-ओ-हिदायत की तरफ बुलाया, ईन के लिये हिदायत के रास्तों क़ो रौशन व मुनव्वर करके वाज़ेह किया, नीज़ आप ने अल्लाह के रास्ते में जेहाद करने का हक़ अदा कर दिया!

आक़ा ! मै दिलो जान से गवाही देता हूँ की:आप हमेशा दिल से अल्लाह के फर्माबरदार हैं, आप ने हमेशा अपने जददे-अमजद (स:अ:व:व) की इत्तेबा और पैरवी की, अपने वालिदे माजिद के इरशादात क़ो सुना और इस पर अम्ल किया, भाई की वसीयत की तेज़ी से तकमील की, दीं के सतून क़ो बुलंद किया, बगावतों क़ो चकना चूर किया और सरकशों और बागियों की सरकोबी की!

आप हमेशा उम्मत के नासेह बन कर रहे, आप ने जाँ-सिपारी की सख्तियों क़ो सब्रो-तहम्मुल और बुर्द'बारी से बर्दाश्त किया, फ़ासिकों का जम कर मुक़ाबला फ़रमाया, अल्लाह की हुज्जतों क़ो क़ायेम किया, इस्लाम और मुसलामानों की दस्तगीरी की हक़ की मदद की, आज़माइशों के मौक़ा पर सब्रो शकेबाई से काम लिया, दीं की हिफाज़त की, और इस के दाएरा-ए-कार की निगाहदाश्त फरमाई

आक़ा! मै अल्लाह के हुज़ूर में गवाही देता हूँ की :आप ने मीनारे हिदायत क़ो क़ायेम रखा, अदल की नस्रो-इशा'अत की, दीं की मदद करके इसे ज़ाहिर किया, दीं के तज़हीक़ करने वालों क़ो रोका, और इन्हें क़रार-ए-वाक़ई सज़ा दी, सिफ्लों से शरीफों का हक़ लेकर इन्हें पहुंचाया, और अदलो इंसाफ़ के मामले में कमज़ोर और ताक़तवर में बराबरी राव रखी!

आक़ा! मै इस बात की भी गवाही देता हूँ की :आप यतीमों के सरपरस्त और ईन के दिलों की बहार, ख़लक़े ख़ुदा के लिये बेहतरीन पनाहगाह, इस्लाम की इज़्ज़त, अहकामे इलाही का मख्ज़ंन और इनामो-इकराम का मादन, अपने जददे अमजद और वालिदे माजिद के रास्तों पर चलने वाले, और अपनी वसीयत और नसीहत में अपने भाई जैसे थे!

मौला! आप (अ:स) की शानो सफ़ात यह हैं के आप (अ:स) "जिम्मेदारियों क़ो पूरा करने वाले, साहिबे औसाफ़ हमीदा, जूडो करम में मशहूर, शब् की तारीकीयों में तहज्जुद गुज़ार, मज़बूत तरीकों क़ो अखत्यार करने वाले, ख़लक़े ख़ुदा में सबसे ज़्यादा खूबियों के मालिक, अज़ीम माज़ी के हामिल, आला हस्बो-नसब वाले, बुलंद मरतबों और बे पनाह मूनाकिब का मरकज़, पसंदीदा नमूने अमल के ख़ालिक़, मिसाली ज़िन्दगी बसर करने वाले, बा'विक़ार, बुर्दबार, बुलंद मर्तबा, दरया दिल, दाना व बीना, साहिबे अज़्मो जज़म, ख़ुदा शनास रहबर, खौफ़ो खशियत और सोज़ो तपिश रखने वाले, ख़ुदा क़ो चाहने और इस की बारगाह में सर देने वाले

आप! रसूले अकरम (स:अ:व:व) के फ़र्ज़न्द, क़ुरान बचाने वाले, उम्मत के मददगार, इता'अते इलाही में जफ़ाकश, अह्दो मिसाक़ के पाबन्द व मुहाफ़िज़, फ़ासिकों के रास्ते से दूर रहने वाले, हसूले मक़सद के लिये दिलो जाँ की बाज़ी लगाने वाले, और तूलानी रुकू'अ व सुजूद अदा करने वाले हैं!

मौला! आप ने दुन्या से इस तरह मुंह मोड़ा और यूँ बे-या'तनाई दिखाई जैसे दुन्या से हमेशा कूच करने वाले करते हैं, दुन्या से खौफ़'ज़दः लोग इसे देखते हैं, आप की तमन्नाएं और आरज़ूएं दुन्या से हटी हुई थीं, आप की हिम्मत-व-कोशिश इस की ज़ीनतों से बे नेयाज़ थीं, और आप ने तो दुन्या के चेहरे की तरफ़ कभी उचटती हुई निगाह भी नहीं डाली!

अलबता! आख़रत में आप की दिलचस्पी शःराए आफ़ाक़ है! यहाँ तक की, वो वक़्त आया, जब ________'जोरो सितम ने लम्बे लम्बे दाग भर कर सरकशी शुरू कर दी, ज़ुल्म तमाम तर हथ्यार जमा करके सख्त जंग के लिये आमादा हो गया, और बाग़ियों ने अपने तमाम साथियों क़ो बुला भेजा!

उस वक़्त 'आप 'अपने जड़ के हरम में पनाह गुज़ीं, जालिमों से अलग थलग, मस्जिदे मेहराब के साए में लज़'ज़ात और ख्वाहिशात से बेज़ार बैठे थे, आप अपनी ताक़त और इमकानात के मुताबिक दिलो ज़बान के ज़रिये बुराइयों से नफ़रत का इज़हार करते और लोगों क़ो बुराइयों से रोकते थे!मगर____________'फिर आप के इल्म का तक़ाज़ा हुआ की आप खुल्लम खुल्ला बैयत से इनकार कर दें और फजार के ख़िलाफ जेहाद के लिये उठ खड़े हों,चुनान्चेह आप अपने अहलो'याल, अपने शीयों, अपने चाहने वालों और जाँ-निसारों क़ो लेकर रवाना हो गए!

और अपनी इस मुख़्तसर लेकिन बा'अज़्मो हौसला जमा'अत की मदद से, हक़ और दलायेल व ब्राहीन क़ो अच्छी तरह वाज़ेह कर दिया, लोगों क़ो हिकमत और मो'अज़'ज़े हुस्ना के साथ अल्लाह की तरफ़ बुलाया, हदूदे इलाही के क़याम और अल्लाह की इता'अत का हुक्म दिया, और लोगों क़ो ख़बा'इसो बेहूदगीयों और सरकशी से रोका! लेकिन लोग ज़ुल्मो सितम के साथ आप के मुक़ाबले पर डट गए! ऐसे आड़े वक़्त पर भी'आप (अ:स) ने पहले तो ईन क़ो ख़ुदा के गज़ब से डराया और ईन पर हुज्जत तमाम की और फिर इनसे जिहाद किया! तब'इन्होंने आप से किया हुआ अहद तोड़ा और आप की बैयत से निकल कर आप के रब और आप के जददे अमजद क़ो नाराज़ किया और आप के साथ जंग शुरू कर दी!

लिहाज़ा! आप भी मैदान कारज़ार में उतर आये, आप ने फज्जर के लश्करों क़ो रौंद डाला, और ज़ुल्फ़िकार सोंत कर जंग के गहरे ग़ुबार के बादलों में घुस कर ऐसे घमसान का रन डाला के लोगों क़ो अली (अ:स) की जंग याद आ गयी! दुश्मनों ने आप की साबित क़दमी, दिलेरी और बे'बाकी देखि तो ईन का पत्ता पानी हो गया और इन्हों ने मुक़ाबला के बजाये मक्कारी से काम लिया और आप के क़त्ल के लिये फ़रेब के जाल बिछा दिए, और मल'उन उमर'साद ने लश्कर क़ो हुकुम दिया के वोह आप पर पानी बंद कर दे और तक पानी पहुँचने के तमाम रास्तों की नाकाबंदी कर दे! फिर दुश्मन ने तेज़ जंग शुरू कर दी और आप पर पै-दर-पै हमले करने लगा जिस के नतीजे में इस ने आप कू तीरों और नेजों से छलनी कर दिया, और इन्तेहाई दरिंदगी के साथ आप क़ो लूट लिया! इस ने न तो आप के सिलसिले में किसी अह्दो-पैमान की परवा की और न ही आप के दोस्तों के क़त्ल और आप और आपके अहलेबैत (अ:स) का सामान ग़ारत के सिलसिले में किसी गुनाह की फ़िक्र की! और आप ने मैदाने जंग में सब से आगे बढ़ कर मसायेबो मुश्किलात क़ो यूँ झेला के आसमान के फ़रिश्ते भी आप की सब्रो इस्ताक़ामत पर दांग रह गए !

फिर'दुश्मन हर तरफ़ से आप पर टूट पड़ा, इस ने आप क़ो ज़ख्मों से चूर चूर करके निढाल कर दिया और दम लेने तक की फुर्सत न दी, यहाँ तक की आप का कोई नासिरो मददगार बाक़ी न रहा और आप इन्तेहाई सब्रो शकेबाई से सब कुछ देखते और झेलते हुए यक्का-ओ-तनहा अपनी मुख़द'देराते इस्मतो तहारत और बच्चों क़ो दुश्मनों के हमले से बचाने में मसरूफ़ रहे! यहाँ तक की दुश्मन ने आप क़ो घोड़े से गिरा दिया और आप ज़ख्मों से पाश पाश जिस्म के साथ ज़मीन पर गिर पड़े फिर वोह तलवारें लेकर आप पर पिल पड़ा और उस ने घोड़ों के सुमों से आप क़ो पामाल कर दिया! यह वोह वक़्त था जब आप की जबीने अक़दस पर मौत का पसीना आ गया और रूह निकलने के सबब आप का जिसमे नाज़नीन दायें बाएं सिकुड़ने और फैलने लगा! अब आप इस मोड़ पर थे जहाँ इंसान सब कुछ भूल जाता है, ऐसे में आप ने अपने ख़याम और घर की तरफ़ आखरी बार हसरत भरी निगाह डाली और आप का अस्पे बावफ़ा तेज़ी से हिनहिनाता और रोता हुआ सुनानी सुनाने के लिये ख़याम की तरफ़ रवाना हो गया! जब मुख़द'देराते इस्मतो तहारत ने आप के दुलदुल क़ो ख़ाली और आप की जीन क़ो उलटा हुआ देखा तो एक कोहराम मच गया और वोह ग़म की ताब न लाते हुए खैमों से निकल आयीं! इन्होंने अपने बाल चेहरों पर बिखरा लिये और अपने रुखसारों पर तमांचे मारते हुए अपने बुजुर्गों क़ो पुकार पुकार कर नौहा-ओ-गिरया शुरू कर दिया, क्योंकि अब इस संगीन सदमे के बाद ईन क़ो इज़्ज़त-ओ-एहतराम की निगाहों से नहीं देखा जा रहा था और सब के सब ग़म से निढाल आप की शहादतगाह की तरफ़ जा रहे थे!

अफ़सोस! शिमर मल'उन आप के सीने पर बैठा हुआ, आप के गुलूये मुबारक पर अपनी तलवार रखे हुए था, वोह कमीना आप के रेशे-अक़दस क़ो पकडे हुए अपनी कुंद तवार से आप क़ो ज़िबह कर रहा था! यहाँ तक की -आप के होशो हवास साकिन हो गए, आप की सांस मधिम पड़ गयी, और आप का पाको पाकीज़ा सर नैज़े पर बुलंद कर दिया गया! आप के अहलो'याल क़ो गुलामों और कनीज़ों की तरह क़ैद कर लिया गया और ईनक़ो आहनी जंजीरों में जकड कर इस तरह बे-कजावा ऊंटों पर सवार कर दिया गया के दिन की बे-पनाह गर्मी ईन के चेहरों क़ो झुलसाये दे रही थी! बे-ग़ैरत दुश्मन ईन क़ो जंगलों और ब्याबानों में ले जा रहा था और इनके नाज़ुक हाथों क़ो गर्दनों के पीछे सख्ती से बाँध कर गलियों और बाज़ारों में इनकी नुमाइश कर रहा था!

लानत हो इस फ़ासिक़ गिरोह पर'जिस ने आप क़ो क़त्ल करके इस्लाम क़ो क़त्ल और नमाज़ रोज़ा क़ो मु'अत्तल कर दिया, अहकामे इलाही की नाफ़रमानी की, ईमान की बुन्यादों क़ो हिला दिया, आयाते क़ुरानी में तहरीफ़ की, और बग़ावत व दुश्मनी की दलदल में धंसता ही चला गया!

आप की शहादत पर अल्लाह का रसूल (स:अ:व:व) दर्द बन गया, किताबे ख़ुदा का कोई पूछने वाला न रहा, आप पर जफ़ा करने वालों का हक़ से रिश्ता टूट गया, आप के उठ जाने से ____ तक्बीरो तहलील, हरामो हलाल, तनज़ीलो तावील पर परदे पड़ गए! इस के अलावा _____ आप के न होने से, दीं में क्या क्या बदला गया! कैसे कैसे बदलाव अमल में लाये गए, मुल्हिदाना नज़रियों क़ो फ़रोग़ मिला, अहकामे शरियत मु]अत्तल किये गए, नफ़सानी ख्वाहिशों की गिरफ्त मज़बूत हुई,गुमराहियों ने ज़ोर पकड़ा, फ़ितनों ने सर उठाया, और बातिल की बन आई!फिर हुआ यह की नौहागरों ने आप के जददे अमजद के मज़ार पर आहो बुका और गिरया-ओ-ज़ारी के साथ यूँ मर्सिया खानी की -

अल्लाह के रसूल (स:अ:व:व) !आप का बेटा, आप का नवासा क़त्ल कर डाला गया, आप का घर लूट लिया गया, आप की ज़ुर्रियत असीर हुई, आप की इतरत पर बड़ी उफ्ताद पड़ी! यह सुन कर पैग़म्बर क़ो बहुत सदमा पहुंचा, इनके क़ल्बे तपाँ ने खून के आंसू बरसाए, मलाएका ने इन्हें पुरसा दिया, अम्बिया ने ताज़ियत की,

और मौला! आप की मादरे गिरामी जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स:अ) पर क़यामत टूट पड़ी !मलाएका क़तार दर क़तार आप के वालिदे गिरामी (स:अ:व:व) के हुज़ूर ताज़ियत के लिये आये, आला अलैय्याँ में सफ़े मातम बिछ गयी, हूरें अपने रुखसारों पर तमांचे मार मार कर निढाल हो गयी आसमान और आसमानी मख्लूक़, जन्नत और जन्नत के दरो दीवार, बुलंदियों और पस्तियों, समुन्दरों और मछलियों, जन्नत के खुद्दाम व सुक्कान, ख़ाना-ए-काबा और मुक़ामे इब्राहीम, मुश'अर हराम और हल्लो अहराम सब ने मिल कर आप की मुसीबत पर खून के आंसू बहाए !

बारे इलाहा! इस बा'बरकत और बा-इज़्ज़त जगह के तुफ़ैल, मुहम्मद (स:अ:व:व) और आले मुहम्मद (अ:स) पर दरूद भेज, मुझे ईन के साथ महशूर फ़रमा और इनकी शिफ़ाअत के सबब मुझे जन्नत अता कर

बारे इलाहा! ऐ जल्द हिसाब करने वाले, ऐ सबसे करीम हस्ती, और ऐ सबसे बड़े हाकिम - ! मै तेरी बारगाह में !तमाम जहानों की तरफ़ तेरे रसूल और आखरी नबी हज़रत मुहम्मद मुस्तफा (स:अ:व:व) ईन के भाई इब्ने अम, तवाना बाज़ू और दानिशो आगही के मरकज़ अमीरुल मोमिनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ:स) - तमाम जहानों की ख्वातीन की सरदार हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स:अ) - परहेज़गारों के मुहाफ़िज़ इमाम हसन ज़की (अ:स) - शोहदा के सय्यादो सरदार हज़रत अबी अब्दुल्लाह-उल-हुसैन (अ:स) और इनकी मक़तूल औलाद और मज़लूम इतरत - आबिदों की ज़ीनत हज़रत अली इब्ने हुसैन (अ:स) - जो याये हक़ लोगों के मरकज़ तवज्जह हज़रत मुहम्मद बिन अली (अ:स) - सब से बड़े सादीक़-उल-कौल हज़रत जाफ़र बिन मुहम्मद (अ:स) - दलीलों क़ो ज़ाहिर करने वाले हज़रत मूसा इब्ने जाफ़र (अ:स) - दीं के मददगार हज़रत अली इब्ने मूसा (अ:स) - पैरोकारों के रहनुमा हज़रत मुहम्मद बिन अली (अ:स) - सब से बड़े पारसा हज़रत अली बिन मुहम्मद (अ:स) - और सिलसिले नबू'अत और इमामत के तमाम बुज़ुर्गों के वारिस और ऐ अल्लाह ! तेरी तमाम मख्लूक़ पर तेरी हुज्जत (1) का वास्ता देता हूँ की : तू मुहम्मद (स:अ:व:व) व आले मुहम्मद (अ:स) जो आले ताहा व यासीन भी हैं और सच्चे और नेको कार भी ---- दरूदो रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे रोज़े क़यामत इन लोगों में शामिल फ़रमा ले जिन क़ो ईन क़ो अमनो इत्मीनान हासिल होगा और वो इस परेशानी वाले दिन भी ख़ुशो ख़ुर्रम होंगे और जिन्हें जन्नत रिज़वान की ख़ुश'ख़बरी सुनायी जाएगी! (1) चुकी ज्यारत खुद इमाम ज़माना (अ:त:फ़) से सादिर हुई है इस लिये आप ने खुद अपना नाम नामी नहीं लिया है!बारे इलाहा !ऐ अर्हमर राहेमीन!अपनी रहमत के सदके में मेरा नाम मुसलामानों के फेहरिस्त में लिख ले, मुझे सालेह और नेकोकार लोगों में शामिल फ़रमा ले, मेरे पस्मंद्गान और बाद वाली नस्लों में मेरा ज़िक्र सच्चाई और भलाई के साथ जारी रख, बाग़ियों के मुक़ाबले में मेरी नुसरत फ़रमा, हसद करने वालों के कीदो-शर से मेरी हिफाज़त मरमा, जालिमों के हाथों क़ो मेरी जानिब बढ़ने से रोक दे, मुझे आला अलियीं में बा-बरकत पेशवाओं और अ-इम्मे अहलेबैत (अ:स) के जवार में ईन अम्बिया, सिददी'क़ीन, शोहदा, और सालेहीन के साथ जमा कर जिन पर तुने अपनी नेमतें नाज़िल फरमाईं हैं!

परवरदिगार !तुझे क़सम है'तेरे मासूम नबी की, तेरे हतमी एहकाम की, तेरे मुक़र'रेरह मुनाह्य्यात की, और इस पाको पाकीज़ा क़ब्र की जिसके पहलू में मासूम मक़तूल और मज़लूम इमाम दफ़न हैं!के 'तू मुझे दुन्या के ग़मों से नजात अता फ़रमा, मेरे मुक़द'दर की बुराई और शर क़ो मुझ से दूर कर दे और मुझे ज़हरीली आग से बचा ले!

बारे इलाहा !तू अपनी नेमत के तुफैल मुझे इज़्ज़त-ओ-आबरू मोरहमत फ़रमा, मुझे अपनी तक़सीम की हुई रोज़ी पर राजी रख, मुझे अपने करम और जूदो सखा से ढांप ले और मुझे अपनी नागवारी और नाराज़गी से महफूज़ फ़रमा दे!

परवरदिगारा !ना-अज़ेशों से मेरी हिफाज़त फ़रमा, मेरे कौलो अमल क़ो दुरुस्त करदे, मेरी मुददत-ए-उम्र क़ो बढ़ा दे, मुझे दर्दो अमराज़ से आफ़ियत अता फ़रमा दे, और मुझे अ'इम्मा (अ:स) के सदके और अपने फ़ज्लो करम के तुफ़ैल बेहतरीन उम्मीदों तक पहुंचा दे

ख़ुदावंदा !मुहम्मद (स:अ:व:व) व आले मुहम्मद (अ:स) पर दरूद नाज़िल फ़रमा, मेरी तौबा क़बूल फ़रमा ले, मेरे आंसूओं पर रहम फ़रमा, मेरी तकलीफों और रंजो ग़म में मेरा मोनीसो ग़मख़ार बन जा, मेरी खताएं माफ़ फ़रमा दे, और मेरी औलाद क़ो नेको-सालेह बना दे

रब्बे जलील!इस अज़ीम बारगाह और बा-करामत मुक़ाम पर मेरे तमाम गुनाह बख्श दे, ,मेरे सारे ग़म दूर करदे, मेरे रिजक में वुस'अत अता फ़रमा मेरी इज़्ज़त क़ो क़ायेम रख, बिगड़े हुए कामों क़ो संवर दे, उम्मीदों क़ो पुर कर दे, दुआएं क़बूल फ़रमा ले, तंगियों से निजात अता फ़रमा, मेरी परेशान हाली क़ो दूर करदे, जो काम मेरे जिम्मे हैं उन्हें मेरे ही हाथों मुकम्मल करवा दे, मालो-दौलत में कसरत अता फ़रमा, अखलाक़ अच्छा कर, जो कुछ तेरी राह में ख़र्च करून उसे क़बूल फ़रमा के इसे मेरे लिये ज़खीरा-ए-आख़ेरत बना दे, मेरे हालत क़ो रौशन व ताबिंदा कर, मुझ से हसद करने वालों क़ो नेस्तो-नाबूद फरमा, दुश्मनों क़ो हालाक करदे, मुझे हर शर से महफूज़ रख, हर मर्ज़ से शिफ़ा दे, मुझे अपने क़ुरबो-रज़ा की बुलंद तरीन मंजिलों तक पहुंचा दे, और मेरी तमा आरज़ूएं पूरी फरमा दे !

रब्बे करीम !मै तुझ से जल्दी मिलने वाली भलाई और पायेदार सवाब का ख्वाहाँ हूँ !

मेरे अल्लाह !मुझे इस क़द्र फ़रावानी से हलाल नेमतें अता फरमा की मुझे हराम की तरफ़ जाने की फ़ुर्सत न मिले और मुझ पर इतना फ़ज्लो करम कर के मै तमाम मख्लूकात से बेनेयाज़ हो जाऊं !

मेरे पालनहार!मै तुझ से नफा बख्श इल्म, तेरी जानिब झुकने वाले दिल, पुख्ता ईमान पाकीज़ा और मुखलिसाना अमल, मिसाली सबर, और बे पनाह अजरो सवाब का तलबगार हूँ!

मेरे अल्लाह !तुने मुझ पर जो फ़रावान नेमतें नाज़िल फरमाईं हैं तुही मुझे ईन के बारे में अपने शुक्रो सिपास की तौफीक़ अता फ़रमा और इस के नतीजे में मुझ पर अपने एहसानों करम में इज़ाफ़ा फ़रमा ! लोगों के दरम्यान मेरे कौल में तासीर अता कर, मेरे अमल क़ो अपनी बारगाह में बुलंदी अता फ़रमा, मुझे ऐसा बना दे के मेरी नेकियों की पैरवी की जाने लगे और मेरे दुश्मन क़ो तबाहो बर्बाद कर दे!

ऐ जहानों के पालनहार !तुने अपने बेहतरीन बन्दों यानी मुहम्मद (स:अ:व:व) व आले मुहम्मद (अ:स) पर शबो रोज़ अपनी रहमतें और दरूद नाज़िल फ़रमा, और मुझे बुरों की शर से महफूज़ कर दे,, गुनाहों से पाक फ़रमा दे, मेरे बोझ उतार दे, मुझे सुकून व क़रार की जगह यानी जन्नत में जगह दे! और मुझे और मोमिनों मोमिनात में से मेरे तमाम भाइयों और बहनों और अ-ईज़'ज़ा व अक़रबा तो बख़श दे!

ऐ सब से रहम करने वालों से ज़्यादा रहम करने वाले अपनी रहमत के तसद'दुक़ मेरी इल्तेजा क़ो क़बूल फ़रमा ले|
शेख अंसारी इमाम ज़मान के घर में
सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

अब हम आपके सामने शिया समुदाय की उम महान हस्ती का दिलों पुर नूर करने वाला वाक़ेआ पेश करते हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनो स्थानों पर ग़ैबी सहायताओं सें ख़ुदा के दीन की हिफ़ाज़त की है।

मरहूम शेख़ अंसारी के एक छात्र ने आपके इमाम ज़माना (अ) से संबंधों और आपके इमाम के घर पर जाने के बारे में यूँ बयान किया हैः

एक बार मैं इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत के लिए करबला पहुंचा, एक रात को मैं आधी रात के बाच हम्माम जाने के लिए घर से बाहर निकला, और चूंकि गलियों में कीचड़ आदि था इसलिए मैंने एक चिराग़ भी ले लिया, मैने दूर से एक साया देखा जो बिलकुल शेख़ की तरह का था, मैं जब थोड़ा पास पहुंचा तो पता चला कि वह शेख़ ही हैं। मैने सोचा कि शेख इतनी रात में कीचड़ भरी गली में कमज़ोर निगाहों के साथ क्या कर रहे हैं? किधर जा रहे हैं? मैने सोचा कि कहीं कोई आपका पीछा करके आप पर हमला ना कर दे इसलिए आहिस्ता आहिस्ता आप के पीछे हो लिया। कुछ दूर चलने के बाद आप एक पुराने बने हुए मकान के पास खड़े होकर ख़ुलूस के साथ ज़ियारते जामए कबीरा पढ़ने लगे। और पढ़ने के बाद उस घर में दाख़िल हो गए। उसके बाद मुझे कुछ दिखाई नही दिया लेकिन मैं आपकी आवाज़ को सुन रहा था ऍसा लग रहा था कि जैसे आप किसी से बात कर रहे हों। मैं वापस आ गया और हम्माम जाने के बाद इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत करने गया और शेख़ को मैने इमाम के हरम में देखा।

इस यात्रा से वापस लौटने के बाद मैं नजफ़ अशरफ़ में शेख़ के पास पहुंचा और उस रात वाले वाक़ए को दोहराया, और इसका विवरण जानना चाहा, पहले तो शेख़ ने इन्कार किया लेकिन बहुत इसरार पर आप ने फ़रमायाः जब मैं इमाम से मुलाक़ात करना चाहता हूँ तो उस घर के दरवाज़े पर चला जाता हूँ, जिसे अब तुम कभी नही देख पाओगे, ज़ियारते जामेआपढ़ने के बाद प्रवेश करने की आज्ञा मांगता हूँ, अगर आज्ञा मिल जाती है तो हज़रत की ख़िदमत में ज़ियारत के लिए पहुंच जाता हूँ। और जो मसअले मुझे समझ में नही आते हैं आप उनका हल मुझे बता देते हैं। और याद रखो जब तक मैं जीवित हूँ इस बात को छिपाकर रखना, कभी भी किसी को नही बताना[1]।

*******
[1] ज़िनदगानी एवं शख़्सियते शेख़ अंसारी, पेज 106

दूसरों की सहायता और सेवा सबसे बड़ी इबादत

$
0
0
इन्सान की उत्कृष्ट भावनाओं में से एक अन्य इन्सानों की सेवा करना और सहायता करना है। इन्सान पत्थर की तरह बेजान नहीं है, इसी लिए वह अन्य इन्सानों के प्रति उदासीन नहीं रह सकता। सहायता की यह कोमल भावना महान लोगों में अधिक प्रकट होती है। वे हमेशा दूसरों की चिंता करते हैं और दिल में दूसरों की सहायता करने की इच्छा रखते हैं। हज़रत इमाम सज्जाद (अ) जन सेवा के लोक एवं परलोक में परिणाम और उसमें बहुत अधिक पुण्य होने के दृष्टिगत, हमेशा दुआ के लिए हाथ उठाते थे और और अल्लाह से जन सेवा का अवसर प्राप्त होने की दुआ मांगते थे। वे फ़रमाते थे कि हे अल्लाह, मोहम्मद और उनके परिजनों पर दुरूद भेज, और मेरे हाथों से लोगों के लिए भले काम करा और मुझ पर अनुग्रह करते हुए उसे रद्द न कर, हे पालनहार मुझे अतिव्यय से सुरक्षित रख और व्यय में संतुलन के साथ निर्धनों को दान देने का मार्ग मुझ पर प्रशस्त कर। हे अल्लाह, ग़रीबों के साथ उठना बैठना मेरे लिए प्रिय बना दे और उनके साथ उठने बैठने और धैर्य रखने में मेरी सहायता कर।

लोगों की सेवा, इस्लाम की शिक्षाओं में सर्वश्रेष्ठ इबादत है। क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कथनों के अनुसार लोगों की सेवा और अल्लाह के निटक लोकप्रियता में घनिष्ठ संबंध है। क़ुराने मजीद में दूसरों को ध्यान रखने को इतना महत्वपूर्ण माना गया है कि आत्मिक मार्गदर्शन के लिए दान देने और दूसरों की समस्याओं का समाधान निकालने को महत्वपूर्ण शर्त माना गया है। क़ुरान के सूरए बक़रा की आयत 2 और 3 में उल्लेख है, यह महान किताब है जिसमें आशंका की कोई गुंजाईश नहीं है और धर्म में गहरी आस्था रखने वालों के मार्गदर्शन का कारण है। यह वे लोग हैं कि जो परलोक पर विश्वास रखते हैं और नमाज़ अदा करते हैं और जो कुछ अनुकंपाएं हमने उन्हें प्रदान की हैं उन्हें ख़र्च करते हैं।

इन आयतों के आधार पर अल्लाह उन लोगों का मार्गदर्शन करता है और उन लोगों को अपनी वास्तविकताओं की मिठास चखाता है कि जो परलोक पर ईमान के साथ नमाज़ पढ़ते हैं और दूसरों को दान देते हैं।

जन सेवा के संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का अद्भुत कर देने वाला कथन है, हज़रत फ़रमाते हैं कि लोग अल्लाह का परिवार हैं, अल्लाह के निकट सबसे लोकप्रिय वह व्यक्ति है जो अल्लाह के परिवार को लाभ पहुंचाए।

दूसरी ओर, जिस तरह इन्सान को अपने पालनहार से संपर्क स्थापित करने की ज़रूरत है, उसी तरह लोगों से भी संबंध स्थापित करने की आवश्यकता है। हम में से कोई भी जीवन बिताने के लिए अकेले अपनी ज़रूरतें पूरी नहीं कर सकता। यही वजह है कि अपनी योग्यता और बल के अनुसार, दूसरों की ज़रूरतों के एक भाग को पूरा करते हैं ताकि इसके बदले में वे भी हमारी कुछ ज़रूरतों को पूरा करें। शहीद मुर्तज़ा मुतहरी समेत कुछ मुस्लिम विचारधारकों का मानना है कि इन्सान के अस्तित्व में दूसरे इन्सानों के साथ भलाई करने की प्रशंसनीय भावना पाई जाती है, तथा अन्य भावनाओं की तरह इसका भी ध्यान रखना ज़रूरी होता है। निःसंदेह, इस काम में विफलता से अनचाहे रूप से इन्सान पर निराशा छा जाती है। वर्तमान समय में टैकनोलजी एवं उद्योग के विकास के कारण यद्यपि अनेक सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं लेकिन इन्सान में जन सेवा की भावना कम हो गई है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, वर्तमान शताब्दि में इन्सान की निराशा के एक मूल कारण, अपने व्यक्तित्व के बारे में सोचना और दूसरों की सेवा नहीं करना है।

ईरान के महान कवि सादी ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में उन लोगों को कि जो दूसरों की सेवा की भावना नहीं रखते कठोर पत्थर बताया है। सादी का मानना है, पत्थर और लोहे से कुछ लाभ होता है कि जिसका ऐसे लोगों में अभाव होता है।

इस्लाम के अनुसार, इन्सानों के एक दूसरे पर अधिकार हैं। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) अधिकारों के बारे में इन अधिकारों का उल्लेख करते हैं और विभिन्न समूहों के अधिकारों को बयान करते हैं, जैसे कि नेतृत्व करने वाले, उनके मातहत काम करने वाले, रिश्तेदार, भलाई करने वाले, पड़ोसी, दोस्त, सहयोगी, मांगने वाले और निर्धन और यहां तक कि जानवरों के अधिकारों का भी उल्लेख करते हैं। वास्तव में इस्लाम इस सही दृष्टिकोण द्वारा लोगों की सेवा को इन्सानों का दायित्व क़रार देता है। इस्लाम का मानना है कि लोग आपस में एक दूसरे के सेवक होने चाहिए इसलिए कि उनका एक दूसरे पर अधिकार है। यह अधिकार कभी इतना स्पष्ट होता है कि लोगों को जवाबदही के लिए मजबूर करता है जैसे कि पिता, मां, शिक्षक आदि का अधिकार, और कभी गोपनीय अधिकार होता है और लोग उसकी उपेक्षा करते हैं जैसे कि निर्धनों, अनाथों और मातहतों का अधिकार। समाज में ध्यान पूर्वक रहकर स्वयं के प्रति उनके अधिकारों को पहचाना जा सकता है, और इस स्थिति में उनकी सेवा की आवश्यकता को भी समझा जा सकता है।

एक व्यक्ति ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) से क़ुरान के सूरए मेराज की 24 और 25 वीं आयत में ज्ञात अधिकार के बारे में सवाल किया। आयत इस प्रकार है कि और वे कि जिनकी दौलत एवं सम्पत्ति में निर्धनों के लिए ज्ञात अधिकार है। इमाम (अ) ने जवाब दिया, ज्ञात अधिकार वह चीज़ है कि जो व्यक्ति अपनी दौलत से अलग करता है और वह ज़कात एवं सदक़े से अर्थात धर्म के मार्ग में निर्धारित अनिवार्य दान देने के अतिरिक्त है। उस व्यक्ति ने पूछा, इस धन का वह क्या करता है? इमाम (अ) ने फ़रमाया, उस धन को रिश्तेदारों पर ख़र्च करता है और कमज़ोर लोगों की सहायता करता है और उनके दुखों को दूर करता है या अपने धार्मिक भाईयों से लगाव पैदा करता है और उनकी समस्याओं का समाधान करता है। ब्रितानी लेखक विलियम शेक्सपीयर कहता है, दूसरों पर दया और कृपा, अनुकंपा की बारिश की तरह है कि जो आसमान से ज़मीन पर बरसती है और आशीर्वाद एवं वरदान का कारण है। इसलिए कि सेवक का कल्याण करती है और दूसरे पक्ष के लिए भी आशीर्वाद एवं वरदान का कारण बनती है।

इस्लामी शिक्षाओं में जन सेवा का महत्व इतना है और उसकी इतनी प्रशंसा की गई है कि उसके संबंध में काफ़ी आयतें एवं रिवायतें हैं। यहां तक कि हदीसों में दूसरों की सहायता करने और लोगों की समस्याओं को दूर करने में कुछ उपासना कार्यों जैसे कि हज और उमरे से अधिक पुण्य है। महान विद्वान कुलैनी काफ़ी में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की हदीस का उल्लेख करते हैं कि जो वास्तव में अद्भुत करने वाली है। आबान बिन तग़लब कहते हैं, मैंने इमाम सादिक़ (अ) से सुना कि जो फ़रमाते हैं, जो कोई भी व्यक्ति अल्लाह के घर काबे का तवाफ़ करता है अल्लाह उसके लिए 6000 पुण्य लिखता है और उसके 6000 पापों को क्षमा कर देता है और 6000 दर्जे प्रदान करता है और 6000 इच्छाओं को पूरा करता है। उसके बाद फ़रमाया, किसी मोमिन की समस्या को दूर करने में इस तवाफ़ से दस गुना अधिक पुण्य है।

एक बार मक्के की ओर जाने वाले मुसलमानों के एक काफ़िले ने मक्के और मदीने के मध्य पड़ाव डाला ताकि काफ़िले में शामिल लोग कुछ दिन आराम कर सकें। इस पड़ाव के दौरान एक व्यक्ति इस क़ाफ़िले से जुड़ गया ताकि मक्का जा सके। काफ़िले वालों से बातचीत के दौरान उस व्यक्ति का ध्यान एक ऐसे व्यक्ति की ओर गया कि जिसका चेहरा मोहरा भले लोगों वाला था और वह बहुत ही ख़ुशी एवं प्रसन्नता से काफ़िले वालों की सेवा एवं उनकी ज़रूरतें पूरी करने में व्यस्त था। उस व्यक्ति ने पहली ही निगाह में उस व्यक्ति को पहचान लिया और बहुत ही आश्चर्य से क़ाफ़िले वालों से पूछा, इस व्यक्ति को कि जो तुम्हारी सेवा में व्यस्त है पहचानते हो? उन्होंने कहा, नहीं हम उसे नहीं पहचानते। यह व्यक्ति मदीने से हमारे क़ाफ़िले में शामिल हुआ है, और यह बहुत ही भला एवं अच्छा व्यक्ति है। हमने उससे अपने किसी काम के लिए नहीं कहा है, लेकिन वह स्वयं दूसरों के काम करना चाहता है और उनकी सेवा करना चाहता है। उस व्यक्ति ने कहा, पता है तुम उसे नहीं पहचानते हो, अगर पहचानते तो इस प्रकार साहस नहीं करते और कभी भी इस बात की अनुमति नहीं देते कि वह सेवकों की तरह तुम्हारे काम अंजाम दे। उन्होंने पूछा लेकिन यह व्यक्ति कौन है? उसने कहा, यह इमाम हुसैन (अ) के पुत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) हैं।

लोग घबरा कर उठे और क्षमा मांगने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) के पास गए। उन्होंने लज्जा से इमाम (अ) से कहा, काश आप अपना परिचय करा देते। ख़ुदा न करे कहीं हम आपका अपमान कर बैठते और बड़े पाप में ग्रस्त हो जाते। इमाम (अ) ने फ़रमाया, मैंने जान बूझकर तुम लोगों का चयन किया क्योंकि तुम मुझे नहीं पहचानते थे, इसलिए कि जो लोग मुझे पहचानते हैं अगर उनके साथ यात्रा करता हूं तो वे पैग़म्बरे इस्लाम (स) से संबंध होने के कारण मुझ पर अधिक महरबान रहते हैं और मुझ पर दया करते हैं और वे इस बात की अनुमति नहीं देते कि मैं उनकी सेवा करूं। इसीलिए मैं ऐसे सहयात्रियों का चयन करता हूं जो मुझे नहीं जानते ताकि मुझे उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हो सके। 

जनाब इ फातिमा (स.अ) को और दुःख ना पहुंचाएं |

$
0
0
मुसलमान इस महीने हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की बेटी जनाब ऐ फातिमा (स.अ) की वफात और उनपे हुए ज़ुल्म को याद करता है और दुखी होता है | बीबी फातिमा का किरदार उनका सब्र उनका एखलाक और उनका इल्म उनका पर्दा मुसलमान महिलाओं के लिए एक उदाहरण है जिसपे चलते हुए ही अल्लाह की ख़ुशी की तमन्ना की जा सकती है | 

लेकिन ..

होता यह है की हम हजरत फातिमा (स.अ) का दुःख मनाते हैं उनके किरदार उनके परदे, सब्र के बारे में लोगों को बताते हैं लेकिन उनपे खुद अमल नहीं बल्कि ऐसा कह लें की अक्सरीयत (बहुसंख्यक) की चाहत के अनुसार, भौतिकता से प्रभावित हो कर आधुनिक विचारधारा, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता के बहाने जनाब ऐ फातिमा (स.अ) को और भी दुखी करते हैं |

हम कैसे मुसलमान हैं की बीबी फातिमा (स.अ) के दुःख पे रोते भी हैं और उन्हें हर दिन और दुखी भी करते हैं ? जो किरदार के फातिमा (स.अ) पे ना चले और उनका बयान कर के वाह वाह भी करे उसे आप क्या कहेंगे? यह मुनाफिकात हमारे किरदार में जो आती जा रही है यह यकीनन हमें जहन्नम की तरफ ले जाएगी |

जनाब इ फातिमा (स.अ) को और दुःख ना पहुंचाएं और किरदार इ फातिमा (अ.स) को अपनी पहचान बनायें | 


By S.M.Masum

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) की अहादीस (प्रवचन)

$
0
0

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) की अहादीस (प्रवचन)


यहां पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) की वह अहादीस (प्रवचन) जो एक इश्वरवाद, धर्मज्ञान व लज्जा आदि के संदेशो पर आधारित हैं उनमे से मात्र चालिस कथनो का चुनाव करके अपने प्रियः अध्ययन कर्ताओं की सेवा मे प्रस्तुत कर रहे हैं।

1- अल्लाह की दृष्टि मे अहले बैत का स्थान

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पृथ्वी व आकाश के मध्य जो वस्तु भी है वह अल्लाह तक पहुँचने का साधन ढूँढती है। अल्लाह का धनयवाद है कि हम अहलेबैत सृष्टि के मध्य उस तक पहुँचने का साधन हैं।

तथा हम पैगम्बरों के उत्तराधिकारी हैं व अल्लाह के समीप विशेष स्थान रखते हैं।

2-नशा करने वालीं वस्तुऐं

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि मेरे पिता ने मुझ से कहा कि नशा करने वाली समस्त वस्तुऐं हराम (निषिद्ध) हैं। तथा नशा करने वाली प्रत्येक वस्तु शराब है।

3-सर्व श्रेष्ठ स्त्री

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि सर्व श्रेष्ठ स्त्री वह है जिसे कोई पुरूष न देखे और न व किसी पुरूष को देखे। (पुरूष से अभिप्राय वह समस्त पुरूष हैं जिन से विवाह हो सकता हो।)

4-निस्वार्थ इबादत

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि जो व्यक्ति निस्वार्थ रूप से उसकी इबादत करता है व अपने कार्यों को ऊपर भेजता है। अल्लाह उसके कार्यों का सर्व श्रेष्ठ पारितोषिक उसको भेजता है।

5- हज़रत फ़ातिमा का गिला

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने प्रथम व द्वीतीय खलीफ़ाओं ( अबु बकर व उमर) से कहा कि क्या तुम दोनों ने सुना है कि मेरे पिता ने कहा कि फ़ातिमा की प्रसन्नता मेरी प्रसन्नता है तथा फ़ातिमा का कोप मेरा कोप है। जिसने फ़ातिमा को प्रसन्न किया उसने मुझे प्रसन्न किया तथा जिसने फ़ातिमा को क्रोधित किया उसने मुझे क्रोधित किया। यह सुनकर उन दोनों ने कहा कि हाँ हमने यह कथन पैगम्बर से सुना है। हज़रत फ़तिमा ने कहा कि मैं अल्लाह व उसके फ़रिश्तों को गवाह (साक्षी) बनाती हूँ कि तुम दोनों ने मुझे कुपित किया प्रसन्न नही किया । जब मैं पैगम्बर से भेंट करूँगी (मरणोपरान्त) तो तुम दोनों की उन से शिकायत करूँगी।

6-निकृष्ट व्यक्ति

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि मेरे पिता ने कहा कि मेरी उम्मत (इस्लामी समाज) मे बदतरीन (निकृष्ट) व्यक्ति वह लोग हैं जो विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ खाते हैं, रंगबिरंगे वस्त्र पहनते हैं तथा जो मन मे आता है कह देते हैं।

7- स्त्री व अल्लाह का समीपय

एक दिन पैगम्बर ने अपने साथियों से प्रशन किया कि बताओ स्त्री क्या है? उन्होनें उत्तर दिया कि स्त्री नामूस (सतीत्व) है। पैगम्बर ने दूसरा प्रश्न किया कि बताओ स्त्री किस समय अल्लाह से सबसे अधिक समीप होती है? उन्होने इस प्रश्न के उत्तर मे अपनी असमर्थ्ता प्रकट की। पैगम्बर के इस प्रश्न को हज़रत फ़ातिमा ने भी सुना तथा उत्तर दिया कि स्त्री उस समय अल्लाह से अधिक समीप होती है जब वह अपने घर मे एकांत मे बैठे। यह उत्तर सुनकर पैगम्बर ने कहा कि वास्तव मे फ़ातिमा मेरा एक अंग है।

8- सलवात भेजने का फल

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि कि पैगम्बर ने मुझ से कहा कि ऐ फ़ातिमा जो भी तुझ पर सलवात भेजेगा अल्लाह उसको क्षमा करेगा। तथा सलवात भेजने वाला व्यक्ति स्वर्ग मे मुझ से भेंट करेगा।

9- अली धर्म गुरू व संरक्षक

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि कि पैगम्बर ने कहा कि जिस जिस का मैं मौला हूँ अली भी उसके मौला हैं। तथा जिसका मैं घर्मगुरू हूँ अली भी उसके धर्मगुरू हैं।

10- हज़रत फ़ातिमा का पर्दा

एक दिन पैगम्बर अपने एक अंधे साथी के साथ हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) के घर मे प्रविष्ट हुए। उसको देखकर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) ने अपने आप को छुपा लिया। पैगम्बर ने पूछा ऐ फ़तिमा आपने अपने आपको क्यों छुपा लिया जबकि वह आपको देख भी नही सकता ? आपने उत्तर दिया कि ठीक है कि वह मुझे नही देख सकता परन्तु मैं तो उसको देख सकती हूँ। तथा वह मेरी गन्ध तो महसूस कर सकता है। यह सुनकर पैगम्बर ने कहा कि मैं साक्षी हूँ कि तू मेरे हृदय का टुकड़ा है।

11- चार कार्य

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि कि एक बार रात्री मे जब मैं सोने के लिए शय्या बिछा रही थी तो पैगम्बर मेरे पास आये तथा कहा कि ऐ फ़ातिमा चार कार्य किये बिना नही सोना चाहिए। और वह चारों कार्य इस प्रकार हैं (1) पूरा कुऑन पढ़ना (2) पैगम्बरों को अपना शफ़ी बनाने के लिए प्रार्थना करना। (3) नास्तिक मनुष्यो को प्रसन्न करना। (4) हज व उमरा करना। यह कह कर पैगम्बर नमाज़ पढ़ने लगें व मैं नमाज़ समाप्त होने की प्रतिक्षा करने लगीं। जब नमाज़ समाप्त हुई तो मैंने प्रर्थना की कि ऐ पैगम्बर आप ने मुझे उन कार्यों का आदेश दिया है जिनको करने की मुझ मे क्षमता नही है। यह सुनकर पैगम्बर मुस्कुराये तथा कहा कि तीन बार सुराए तौहीद का पढ़ना पूरे कुऑन को पढ़ने के समान है।और अगर मुझ पर व मेरे से पहले वाले पैगम्बरों पर सलवात पढ़ी जाये तो हम सब शिफ़ाअत करेगें। और अगर मोमेनीन के लिए अल्लाह से क्षमा की विनती की जाये तो वह सब प्रसन्न होंगें।और अगर यह कहा जाये कि - सुबहानल्लाहि वल हम्दो लिल्लाहि वला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर-तो यह हज व उमरे के समान है।

12- पति की प्रसन्नता

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि वाय (हाहंत) हो उस स्त्री पर जिसका पति उससे कुपित रहता हो। व धन्य है वह स्त्री जिसका पति उससे प्रसन्न रहता हो।

13- अक़ीक़ की अंगूठी पहनने का पुण्य

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि जो व्यक्ति अक़ीक़ (एक रत्न का नाम) की अंगूठी धारण करे उसके लिए कल्याण है।

14- सर्वश्रेठ न्यायधीश

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि एक दिन फ़िरिश्तों के मध्य किसी बात पर बहस( वाद विवाद) हो गयी तथा उन्होंने अल्लाह से प्रार्थना की कि इसका न्याय किसी मनुष्य से करा दे, अल्लाह ने कहा कि तुम स्वंय किसी मनुष्य को इस कार्य के लिए चुन लो। यह सुन कर उन्होने हज़रत अली अलैहिस्सलाम का चुनाव किया।

15--नरकीय स्त्रीयां

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कह कि पैगम्बर ने कहा कि मैने शबे मेराज (रजब मास की 27वी रात्री जिस मे पैगम्बर आकाश की यात्रा पर गये थे) नरक मे कुछ स्त्रीयों को देखा उन मे से एक को सिर के बालों द्वारा लटका रक्खा था और इस का कारण यह था कि वह संसार मे गैर पुरूषों(परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य पुरूष) से अपने बालों को नही छुपाती थी। एक स्त्री को उसकी जीभ के द्वारा लटकाया हुआ था। तथा इस का कारण यह था कि वह अपने पति को यातनाऐं देती थी। एक स्त्री का सिर सुअर जैसा और शरीर गधे जैसा था तथा इस का कारण यह था कि वह चुगली किया करती था ।

16-रोज़ेदार

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति रोज़ा रखे परन्तु अपनी ज़बान अपने कान अपनी आँख व शरीर के दूसरे अंगों को हराम कार्यों से न बचाये तो ऐसा है जैसे उसने रोज़ा न रखा हो।

17- सर्व प्रथम मुसलमान

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने मुझसे कहा कि तेरे पति सर्व प्रथम मुसलमान हैं। तथा वह सबसे अधिक बुद्धिमान व समझदार है।

18- पैगम्बर की संतान की साहयता

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति मेरी सन्तान के लिए कोई कार्य करे व उससे उस कार्य के बदले मे कुछ न ले तो मैं स्वंय उसको उस कार्य का बदला दूँगा।

19- अली व उन के अनुयायी

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने एक बार हज़रत अली अलैहिस्सलाम को देखने के बाद कहा कि यह व्यक्ति व इसके अनुयायी स्वर्ग मे जायेंगे।

20- क़ियामत का दिन व अली के अनुयायी

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि आगाह (अवगत) हो जाओ कि आप व आपके अनुयायी स्वर्ग मे जायेंगे।

21-कुऑन व अहलिबैत

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि जब मेरे पिता हज़रत पैगम्बर बीमारी की अवस्था मे अपने संसारिक जीवन के अन्तिम क्षणों मे थे तथा घर असहाब(पैगम्बर के साथीगण) से भरा हुआ था तो उन्होंने कहा कि मैं अब शीघ्र ही आप लोगों से दूर जाने वाला हूँ। (अर्थात मृत्यु होने वाली है) मैं आप लोगों के बीच अल्लाह की किताब कुऑन व अपने अहलिबैत( पवित्र वंश) को छोड़ कर जारहा हूँ। उस समय अली का हाथ पकड़ कर कहा कि यह अली कुऑन के साथ है तथा कुऑन अली के साथ है। यह दोनों कभी एक दूसरे से अलग नही होंगे यहां तक कि होज़े कौसर पर मुझ से मिलेंगे। मैं क़ियामत के दिन आप लोगों से प्रश्न करूँगा कि आपने मेरे बाद इन दोनों (कुऑन व वंश) के साथ क्या व्यवहार किया।

22- हाथों का धोना

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि अपने अलावा किसी दूसरे की भर्त्सना न करो। किन्तु उस व्यक्ति की भर्त्सना की जासकती है जो रात्री से पूर्व अपने चिकनाई युक्त गंदे व दुर्गन्धित हाथो को न धोये।

23- प्रफुल्ल रहना

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि जो ईमानदार व्यक्ति ख़न्दा पेशानी (प्रफुल्ल) रहता है, वह स्वर्ग मे जाने वाला है।

24- गृह कार्य

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने अपने पिता से कहा कि ऐ पैगम्बर मेरे दोनों हाथ चक्की मे घिरे रहतें है ,एक बार गेहूँ पीसती हूँ दूसरी बार आटे को मथती हूँ।

25- कंजूसी से हानि

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि कंजूसी (कृपणता) से बचो। क्योंकि यह एक अवगुण है तथा एक अच्छे मनुष्य का लक्ष्ण नही है। कंजूसी से बचो क्योकि यह एक नरकीय वृक्ष है ।तथा इसकी शाखाऐं संसार मे फैली हुई हैं। जो इनसे लिपटेगा वह नरक मे जायेगा।

26- सखावत

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि दान किया करो क्यों कि दानशीलता स्वर्ग का एक वृक्ष है। जिसकी शाखाऐं संसार मे फैली हुई हैं जो इनसे लिपटेगा वह स्वर्ग मे जायेगा।

27- पैगम्बर व उनकी पुत्री का अभिवादन

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि वह व्यक्ति जो मुझे व आपको तीन दिन सलाम करे व हमारा अभिवादन करे उसके लिए स्वर्ग है।

28- रहस्यमयी मुस्कान

जब पैगम्बर बीमार थे तो उन्होने हज़रत फ़ातिमा ज़हरा को अपने समीप बुलाया तथा उनके कान मे कुछ कहा। जिसे सुन कर वह रोने लगीं पैगम्बर ने फिर कान मे कुछ कहा तो वह मुस्कुराने लगीं। हज़रत आयशा (पैगम्बर की एक पत्नी) कहती है कि मैने जब फ़तिमा से रोने व मुस्कुराने के बारे मे पूछा तो उन्हाने बताया कि जब पैगम्बर ने मुझे अपने स्वर्गवासी होने की सूचना दी तो मैं रोने लगी। तथा जब उन्होने मुझे यह सूचना दी कि सर्वप्रथम मै उन से भेंट करूंगी तो मैं मुस्कुराने लगी।

29- हज़रत फ़तिमा के बच्चे

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि अल्लाह ने प्रत्येक बच्चे के लिए एक माता को बनाया तथा वह बच्चा अपनी माता से सम्बन्धित होकर अपनी माता की संतान कहलाता है परन्तु फ़ातिमा की संतान, जिनका मैं अभिभावक हूँ वह मेरी संतान कहलायेगी।

30- वास्तविक सौभाग्य शाली

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि मुझे अभी जिब्राईल (हज़रत पैगम्बर के पास अल्लाह की ओर से संदेश लाने वाला फ़रिश्ता) ने यह सूचना दी है कि वास्तविक भाग्यशाली व्यक्ति वह है जो मेरे जीवन मे तथा मेरी मृत्यु के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मित्र रखे।

31- पैगम्बर अहलेबैत की सभा मे

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि एक दिन मैं पैगम्बर के पास गईं तो पैगम्बर ने मेरे बैठने के लिए एक बड़ी चादर बिछाई तथा मुझे बैठाया। मेरे बाद हसन व हुसैन आये उनसे कहा कि तुम भी अपनी माता के पास बैठ जाओ। तत्पश्चात अली आये तो उनसे भी कहा कि अपनी पत्नी व बच्चों के पास बैठ जाओ। जब हम सब बैठ गये तो उस चादर को पकड़ कर कहा कि ऐ अल्लाह यह मुझ से हैं और मैं इन से हूँ। तू इनसे उसी प्रकार प्रसन्न रह जिस प्रकार मैं इनसे प्रसन्न हूँ।

32- पैगम्बर की दुआ

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर मस्जिद मे प्रविष्ट होते समय कहते थे कि शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से ऐ अल्लाह मुझ पर दरूद भेज व मेरे गुनाहों को माफ़ कर व मेरे लिए अपनी दया के दरवाज़ों को खोल दे। और जब मस्जिद से बाहर आते तो कहते कि शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से ऐ अल्लाह मुझ पर दरूद भेज व मेरे गुनाहों माफा कर व मेरे लिए अपनी रहमत के दरवाज़ों को खोल दे।

33- सुबाह सवेरे उठना

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि एक दिन सुबाह सवेरे पैगम्बर मेरे पास आये मैं सो रही थी। उन्होंने मेरे पैरों को हिलाकर उठाया तथा कहा कि ऐ प्यारी बेटी उठो तथा अल्लाह के जीविका वितरण का अवलोकन करो व ग़ाफ़िल (निश्चेत) न रहो क्योकि अल्लाह अपने बंदों को रात्री के समाप्त होने व सूर्योद्य के मध्य जीविका प्रदान करता है।

34- रोगी अल्लाह की शरण मे

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि जब कोई आस्तिक व्यक्ति रोगी होता है तो अल्लाह फ़रिश्तों से कहता है कि इसके कार्यों को न लिखो क्योकि यह जब तक रोगी है मेरी शरण मे है। तथा यह मेरा अधिकार है कि उसे रोग से स्वतन्त्र करू या उसके प्राण लेलूँ।

35- स्त्रीयों का आदर

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि आप लोगों के मध्य सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो दूसरों के साथ विन्रमतापूर्ण व्यवहार करे तथा स्त्रीयों का आदर करे।

36- दासों को स्वतन्त्र करने का फल

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि जो व्यक्ति एक मोमिन दास को स्वतन्त्र करे तो दास के प्रत्येक अंग के बदले मे स्वतन्त्रकर्ता का प्रत्येक अंग नरकीय आग से सुरक्षित हो जायेगा।

37- दुआ के स्वीकार होने का समय

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि अगर कोई मुसलमान शुक्रवार को सूर्यास्त के समय अल्लाह से कोई दुआ करे तो उसकी दुआ स्वीकार होगी।

38- नमाज़ मे आलस्य

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि मैंने अपने पिता से प्रश्न किया कि जो स्त्री व पुरूष नमाज़ पढ़ने मे आलस्य करते हैं उनके साथ कैसा व्यवहार किया जायेगा ? पैगम्बर ने उत्तर दिया कि ऐसे व्यक्तियों को अल्लाह 15 विपत्तियों मे ग्रस्त करता है। जो इस प्रकार हैं-----

(1) अल्लाह उसकी आयु को कम कर देता है। (2) उसकी जीविका को कम कर देता है (3) उसके चेहरे से तेज छीन लेता है।( 4) पुण्यों का फल उसको नही दिया जायेगा ( 5) उसकी दुआ स्वीकृत नही होगी ( 6) नेक व्यक्तियों की दुआ उसको कोई लाभ नही पहुँचायेगी(7) वह अपमानित होगा (8) भूख की अवस्था मे मृत्यु होगी (9) प्यासा मरेगा इस प्रकार कि अगर संसार के समस्त समुन्द्र भी उसकी प्यास बुझाना चाहें तो उसकी प्यास नही बुझेगी। (10) अल्लाह उसके लिए एक फ़रिश्ते को नियुक्त करेगा जो उसे कब्र मे यातनाऐं देगा। (11) उस की कब्र को तंग कर दिया जायेगा। (12) उस की कब्र अंधकारमय बनादी जायेगी। (13) अल्लाह उस के ऊपर फ़रिश्तों को नियुक्त करेगा जो उसको मुँह के बल पृथ्वी पर घसीटेंगें तथा दूसरे समस्त लोग उसको देखेंगें। (14) उससे सख्ती के साथ उसके कार्यों का हिसाब लिया जायेगा। (15)अल्लाह उसकी ओर नही देखेगा और न ही उसको पवित्र करेगा अपितु उसको दर्द देने वाला दण्ड दिया जायेगा।

39- अत्याचारी की पराजय

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि जब दो अत्याचारी सेनाऐं आपस मे लड़ेंगी तो जो अधिक अत्याचारी होगी उस की पराजय होगी।

40- हज़रत फ़तिमा ज़हरा(स.) के मस्जिद मे दिये गये भाषण के विशिष्ठ अंग।

तुम को शिर्क से पवित्र करने के लिए अल्लाह ने ईमान को रखा।

तुम को अहंकार से पवित्र करने के लिए अल्लाह ने नमाज़ को रखा।

तुम्हारे जान व माल को पवित्र करने के लिए अल्लाह ने ज़कात को रखा।

तुमहारे इख्लास (निस्वार्थता) को परखने के लिए रोज़े को रखा।

दीन को शक्ति प्रदान करने के लिए हज को रखा।

तुम्हारे दिलों को अच्छा रखने के लिए न्याय को रखा।

इस्लामी समुदाय को व्यवस्थित रखने के लिए हमारी अज्ञा पालन को अनिवार्य किया।

मत भेद को दूर करने के लिए हमारी इमामत को अनिवार्य किया।

इस्लाम के स्वाभिमान को बाक़ी रखने के लिए धर्म युद्ध को रखा।

समाजिक कल्याण के लिए अमरे बिल मारूफ़( आपस मे एक दूसरे को अच्छे कार्यों के लिए निर्देश देना) को रखा।

अपने क्रोध से दूर रखने के लिए अल्लाह ने माता पिता के साथ सद्व्यवहार करने का आदेश दिया।

आपसी प्रेम को बढ़ाने के लिए परिवारजनों से अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया।

समाज से हत्याओं को समाप्त करने के लिए हत्या के बदले का आदेश दिया।

मुक्ति प्रदान करने के लिए मन्नत को पूरा करने का आदेश दिया।

कम लेने देने से बचाने के लिए तुला व अन्य मापने के यन्त्रों को रखा गया।

बुराई से बचाने के लिए मदीरा पान से रोका गया।

लानत से बचाने के लिए एक दूसरे पर झूटा आरोप लगाने से रोका गया(लानत अर्थात अल्लाह की दया व कृपा से दूरी)

पवित्रता को बनाए रखने के लिए चोरी से रोका गया।

अल्लाह के प्रति निस्वार्थ रहने के लिए शिर्क से दूरी का आदेश दिया गया(शिर्क अर्थात किसी को अल्लाह का सम्मिलित मानना)।

बस मनुष्य को चाहिए कि अल्लाह से इस प्रकार डरे जिस प्रकार उस से डरना चाहिए तथा मरते समय तक मुसलमान रहना चाहिये।

अल्लाह के आदेशों का इस तरह पालन करो कि उसने जिन कार्यों के करने का आदेश दिया है उनको करो ।तथा जिन कार्यों से रोका है उनको न करो। केवल ज्ञानी नुष्य ही अल्लाह से डरते हैं।

वाह रे मुसलमान तेरा जवाब नहीं जलता रहा घर तेरे नबी की बेटी का और तू देखता रहा |

$
0
0

सबसे पहले तो मैं यह बता दूँ की मैं फिरका परस्ती के सख्त खिलाफ हूँ और बावजूद ऐतिहासिक मतभेदों के मुसलमान यदि गौर ओ फ़िक्र करे तो मिल के रह सकता है क्यूँ की उनकी किताब एक पैगम्बर एक फिर क्यूँ आपस में दूर दूर रहते हैं ? मुसलमानों का फिरकों में बंट जाने की वजह  मुनाफिकात, सच का साथ न देना , कुरान के सही इल्म का ना होना और दुनियावी लालच है यह सभी जानते हैं |


जो स्थान हजरत मुहम्मद (स.अ.व) को मुसलमानों के दिलों में हासिल है उसकी जगह कोई नहीं ले सकता और मुसलमान कहते ही उसे हैं जो हजरत मुहम्मद (स.अ.व) पे पूरी तरह से यकीन करे और उनकी बैटन को वैसे माने जैसा उन्होंने कहा था | यहाँ तक की मुसलमान उनके बाल उनकी दाढ़ी उनके सुरमे और उनकी पगड़ी पहनने के तरीके को भी अपना लेना चाहता है जिसे वो सुन्नत ए रसूल (स.अ.व) का नाम दिया करता है |


इतनी मुहब्बत अल्लाह के रसूल (स.अ.व) से करने वाले मुसलमान को देखिये की उनकी वफात के बाद उनकी बेटी फातिमा (स.अ) का घर मुसलमानों ने खुद जला डाला , उनकी बेटी फातिमा की प्रोपटी जिसे बाग ऐ fadak के नाम से जाना जाता था सिर्फ उनसे छीना ही नहीं बल्कि दरबार में जब फातिमा (स.अ) गयीं अपना हक मांगने तो उनका मज़ाक उड़ाया गया और उन्हें झूठा कहा गया | 


मैंने जब हर फिरके की किताबों को देखा तो पाया कि फातिमा का घर जलाया गया यहाँ कोई मतभेद मुसलमानों में नहीं हाँ किसने जलाया इस बात पे मतभेद है | बाग ऐ fadak छीन लिया गया फातिमा (स.अ) से इस् पे मतभेद नहीं बल्कि उसे लेना सही था या नहीं इस् पे मतभेद है | 


यह हजरत मुहम्मद (स.अ) की सुन्नत और कुरान पे अमल करने वाला मुसलमान खुद बयान करता है की जनाब ऐ फातिमा सिद्दीक़ा थीं | उनके दरवाज़े पे मलाएका आते थे, उनके दरवाज़े पे हजरत मुहम्मद (स.अ.व) आके उनको सलाम करते थे , जब फातिमा आती थी तो हजरत मुहम्मद (स.अव) उनकी ताजीम में उठ खड़े होते थे| यह हदीस हर मुसलमान मानता है की हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने कहा जिसने फातिमा को दुःख पहुँचाया उसने मुझे दुःख पहुँचाया क्यूंकि फातिमा मेरे  जिगर का टुकड़ा है |


कुछ अजीब सा नहीं लगता कि यह मुसलमान कुरान में अह्लेबय्त की अफ्ज़लियत को भी मानता है  लेकिन फिर भी कहता है फातिमा (स.अ) का दावा fadak के लिए सही नहीं था | फिर भी कहता है की उनके दरवाज़े को खलीफा की बय्यत लेने के लिए जला देना सही था | और यह सब ज़ुल्म हुआ  हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की वफात के फ़ौरन बाद |  सिर्फ फातिमा (स.अ) का यह हाल नहीं हुआ बल्कि हजरत मुहम्मद (स.अव) से ले कर उनके घराने के हर फर्द को तकलीफें दी गयीं चाहे वो हजरत अली (अ.स) हों, या उनके बेटे हसन हुसैन और अब्बास हों और यह सिलसिला नस्ल दर नसला चलता रहा | जिस ज़ुल्म में से कर्बला आज सभी को याद है |


चलिए इस्लाम का इतिहास देखे के समझने की कोशिश करते हैं की ऐसा क्यूँ हुआ ?


हज़रत आदम और बीबी हव्वा की दो औलादें थी, हाबील और काबील। दोनों ईश्वर की आराधना करने निकले तो ईश्वर ने हाबील की भेंट को स्वीकार किया और काबील की भेंट को ठुकरा दिया तो गुस्से में काबील ने ने हाबील का कत्ल कर दिया।

यही हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के साथ भी हुआ। उन्होंनें इस दुनिया के मुकाबले में खुदा को पसंद किया तो दुनिया वाले उनके मुखालिफ हो गयें जब उन्होनें अपनी कौम को दीन की दावत दी तो उन्होंनें हज़रत नूह अलैहिस्सलाम को तो ठुकराया ही और साथ ही साथ उन्हें धमकी देते हुये कहा, "हे नूह! अगर तू बाज़ न आया, तो ज़रुर संगसार कर दिये जाओगे।" (सूरह शुअरा, 117 )

 यही हिमाकत हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के साथ भी की। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने भी अपनी कौम को जब  एक खुदा की इबादत के लिये बुलाया तो उन्होंनें उनको पहले डराने की कोशिश की फिर जिंदा आग में जलाना चाहा। (सूरह अंबिया, 67)

हज़रत शुएब अलैहिस्सलाम के साथ भी यही कुछ हुआ। उनकी तौहीद की दावत को सुनकर उनकी जाति के बड़े सरदार जो खुद को बड़ा समझते थे ने उन्हें धमकाते हुये कहा, ‘हे शुएब ! हम तुझे और उन लोगों को जो तेरे साथ ईमान लाये हैं, अपनी बस्ती से निकाल कर रहेंगें  या तो तुम्हें हमारे पंथ में लौट आना होगा।  (सूरह आराफ, 88)

इसी तरह हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम की ऊंटनी को भी उनकी कौम वालों ने मार डाला और उन्हें तकलीफें दी। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने जब फिरऔन को दीन की दावत दी, तो उसने भी हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को कत्ल करना चाहा।


हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम बनी ईसराईल की तरफ भेजे गये थे। उन्होंनें जब यहूदियों को तौहीद की तरफ बुलाया तो उन्होंनें हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को गिरफ्तार करवा दिया, उन्हें मारा-पीटा और सूली पर चढ़ा दिया ! यही जुल्म आखिरी नबी मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम  और उनके मानने वालों के साथ भी किया गया। जब उन्होंनें अपने दीन की तब्लीग आरंभ की तो मक्का में उनपर जुल्मो-सितम के पहाड़ तोड़े गये, उनका सामाजिक और आर्थिक बायकॉट किया गया और उन्हें अपने वतन को छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।|

हक की आवाज़ बलंद करने वालों का अल्लाह की बताई राह पे चलने वालों का हाल क्या होता था यह इन कुरान में कहे अल्लाह के कलाम  से ज़ाहिर है |


आप ज़रा सहीह बुखारी की इस हदीस पे गौर करें जिसे वो इस्तेमाल करते हैं जो अली और फातिमा पे हुए इन ज़ुल्मों को सही बताते हैं | इस हदीस को मैं दो हिस्सों में बाँट रहा हूँ इसलिए की बात आप सभी की समझ में आ  जाये |
sahih hadith from bukhari Volume 5, Book 59, Number 546

 Narrated 'Aisha: Fatima the daughter of the Prophet sent someone to Abu Bakr (when he was a caliph), asking for her inheritance of what Allah's Apostle had left of the property bestowed on him by Allah from the Fai (i.e. booty gained without fighting) in Medina, and Fadak, and what remained of the Khumus of the Khaibar booty. On that, Abu Bakr said, "Allah's Apostle said, "Our property is not inherited. Whatever we leave, is Sadaqa, but the family of (the Prophet) Muhammad can eat of this property.' By Allah, I will not make any change in the state of the Sadaqa of Allah's Apostle and will leave it as it was during the lifetime of Allah's Apostle, and will dispose of it as Allah's Apostle used to do." So Abu Bakr refused to give anything of that to Fatima. So she became angry with Abu Bakr and kept away from him, and did not task to him till she died. She remained alive for six months after the death of the Prophet. When she died, her husband 'Ali, buried her at night without informing Abu Bakr and he said the funeral prayer by himself. When Fatima was alive, the people used to respect 'Ali much, but after her death, 'Ali noticed a change in the people's attitude towards him.

इस पहले हिस्से में वो सभी ज़ुल्म साफ़ साफ़ लिखे हैं जिन्हें फातिमा (स.अ) पे हुए ज़ुल्म में बहुत से मुसलमान किया करते हैं | यहाँ में सफाई में यह कहा जाता है की हजरत आयेशा को यह बता ही नहीं था की हजरत अली (अ.स) ने गेयत हजरत अबुबकर की शुरू में ही कर ली थी | अब बताएं एक तो उम्मुल मोमिनीन हजरत आयेशा की हदीथ से इनकार दुसरे यह की उन्हें साचा का पता ही नहीं रहता था और हदीस बयान कर देती थी औ तीसरे यह की मानते हैं जनाब ऐ फातिमा (स.अ) हजरत अबुबकर से नाराज़ गयीं और फिर बड़े शान से वही लोग यह भी बयान करते हैं की हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने कहा जिसने फातिमा को नाराज़ किया उसने मुझे नाराज़ किया |

साफ़ ज़ाहिर है की बाद वफात ऐ हजरत मुहम्मद (स.अ.व) इनका कहना है अब वो चले गए अब हमें देखना है क्या किया जाये या क्या ना किया जाये |

अजीब सा नहीं लगता क्या की बालों की,  सुरमे की सुन्नत का इतनी सख्ती से पाबंद मुसलमान उनकी औलाद को ही तकलीफ पहुंचा रहा है और उनकी हदीस से इनकार और उनकी पत्नी को गैर ज़िम्मेदार बता रहा है |
second part of same hadith---

When Fatima was alive, the people used to respect 'Ali much, but after her death, 'Ali noticed a change in the people's attitude towards him. So Ali sought reconciliation with Abu Bakr and gave him an oath of allegiance. 'Ali had not given the oath of allegiance during those months (i.e. the period between the Prophet's death and Fatima's death). 'Ali sent someone to Abu Bakr saying, "Come to us, but let nobody come with you," as he disliked that 'Umar should come, 'Umar said (to Abu Bakr), "No, by Allah, you shall not enter upon them alone " Abu Bakr said, "What do you think they will do to me? By Allah, I will go to them' So Abu Bakr entered upon them, and then 'Ali uttered Tashah-hud and said (to Abu Bakr), "We know well your superiority and what Allah has given you, and we are not jealous of the good what Allah has bestowed upon you, but you did not consult us in the question of the rule and we thought that we have got a right in it because of our near relationship to Allah's Apostle ." Thereupon Abu Bakr's eyes flowed with tears. And when Abu Bakr spoke, he said, "By Him in Whose Hand my soul is to keep good relations with the relatives of Allah's Apostle is dearer to me than to keep good relations with my own relatives. But as for the trouble which arose between me and you about his property, I will do my best to spend it according to what is good, and will not leave any rule or regulation which I saw Allah's Apostle following, in disposing of it, but I will follow." On that 'Ali said to Abu Bakr, "I promise to give you the oath of allegiance in this after noon." So when Abu Bakr had offered the Zuhr prayer, he ascended the pulpit and uttered the Tashah-hud and then mentioned the story of 'Ali and his failure to give the oath of allegiance, and excused him, accepting what excuses he had offered; Then 'Ali (got up) and praying (to Allah) for forgiveness, he uttered Tashah-hud, praised Abu Bakr's right, and said, that he had not done what he had done because of jealousy of Abu Bakr or as a protest of that Allah had favored him with. 'Ali added, "But we used to consider that we too had some right in this affair (of rulership) and that he (i.e. Abu Bakr) did not consult us in this matter, and therefore caused us to feel sorry." On that all the Muslims became happy and said, "You have done the right thing." The Muslims then became friendly with 'Ali as he returned to what the people had done (i.e. giving the oath of allegiance to Abu Bakr). 


अब यहाँ कहा जा रहा है की फातिमा की कितनी इज्ज़त थी की जब वो जिंदा थीं तो हजरत अली की इज्ज़त थी और उनके बाद लोग वो इज्ज़त नहीं देते थे | जबकि हजरत अली को खलीफा का हक़दार मन जा रहा है और फातिमा में ज़ुल्म को भी कबूल  किया जा रहा है |

यहाँ बताता चलूँ की हजरत अली (अ.स) ने बियत अगर ले ली होती हजरत अबुबकर से तो उनपे इतना ज़ुल्म भी नहीं होता | और बाद में न सुलह ऐ हसन होती और ना कर्बला होती क्यूंकि इस्लाम की शक्ल ही बदल चुकी होती |

इन हदीसों में हजरत अबुबकर ने हजरत अली (अ.स) की अफ्ज़लियत को माना और यह कहा की चूँकि आप हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के साथ उनकी वफात के बाद थे और तीसरे दिन उनके कफ़न दफ़न में लगे थे और आपने अपने इस काम को छोड़ के हम लोगों के सामने अपना दावा खिलाफत पे पेश नहीं किया इसलिए हमने समझा की आप की मर्जी मेरी खिलाफत में ही है |

जो ज़ुल्म हाबी पे हुआ, जनाब ऐ नुह पे हुआ, हजरत इब्राहीम पे हुआ, मूसा पे हुआ ,शुएब पे हुआ वही ज़ुल्म हजरत अली पे हुआ , फातिमा पे हुआ, इमाम हसन पे हुआ, हुसैन पे हुआ और आगे की जिंतनी औलाद इ फातिमा थी सब पे हुआ और फिर देखिये कमाल की यही मुसलमान फिर कहता है हजरत मेहदी आयेंगे और वो होंगे फातिमा (स.अ) की औलादों में से और बाप का नाम होगा हसन अस्करी |



अल्लाह से दुआ है हम सब को सिरात ऐ मुस्तकीम पर रखे और हमें आखिरत में उनका साथ दे जिन्होंने अल्लाह की राह में कुर्बानिय पेश की और उनसे दूरी रखे जिन्होंने ज़ुल्म किया और जालिमो का साथ दिया | आमीन

देखिये कैसे मुसलमान कुरान के खिलाफ चलता है और डरता भी नहीं |

$
0
0

जी हाँ यह अजीब सा ज़रूर लगता है लेकिन सच हैं की हम उस दौर से गुज़र रहे हैं जहां एक भाई दुसरे भाई से दूरी रखने में और गैरों से दोस्ती में यकीन ज्यादा रखता है | रिश्तेदारों में बीच में ना इत्तेफाकियाँ बढती जा रही हैं और इन्तहा यह है बहुत बार यह भे देखा गया है की गैरों से ही अपने रिश्तेदार, भाई को बे इज्ज़त लोग करवा देते हैं | गैरों से दोस्ती इस्लाम में बहुत अहमियत रखती है लेकिन पहला हक आपके रिश्तेदार , भाई बहत माता पिता का होता है दूसरा पडोसी का चाहे वो किसी भी धर्म का हो और उसके बाद सामाजिक ताल्लुकातों का |

यह गुनाह आज हर दुसरे घर में फ़क्र के साथ अंजाम दिया जा रहा है बना इस गुनाह का अंजाम जाने | अब देखिए अल्लाह सुबह ओ ताला कुरान में क्या फरमाता है ?

सूरए निसा में 176 आयतें हैं और यह सूरा मदीना नगर में उतरा है। चूंकि इस सूरे की अधिकांश आयतें परिवार की समस्याओं और परिवार में महिलाओं के अधिकारों से संबंधित हैं इसलिए इसे सूरए निसा कहा गया है जिसका अर्थ होता है महिलाएं।

अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है। हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया तथा उस ईश्वर से डरो जिसके द्वारा तुम एक दूसरे से सहायता चाहते हो और रिश्तों नातों को तोड़ने से बचो (कि) नि:संदेह ईश्वर सदैव तुम्हारी निगरानी करता है। (4:1)




 यह सूरा, जो पारीवारिक समस्याओं के बारे में है, ईश्वर से भय रखने के साथ आरंभ होता है और पहली ही आयत में यह सिफारिश दो बार दोहराई गई है क्योंकि हर व्यक्ति का जन्म व प्रशिक्षण परिवार में होता है और यदि इन कामों का आधार ईश्वरीय आदेशों पर न हो तो व्यक्ति और समाज के आत्मिक व मानसिक स्वास्थ्य की कोई ज़मानत नहीं होगी।  ईश्वर मनुष्यों के बीच हर प्रकार के वर्चस्ववाद की रोकथाम के लिए कहता है कि तुम सब एक ही मनुष्य से बनाये गये हो और तुम्हारा रचयिता भी एक है अत: ईश्वर से डरते रहो और यह मत सोचो कि वर्ण, जाति अथवा भाषा वर्चस्व का कारण बन सकती है, यहां तक कि शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से अंतर रखने वाले पुरुष व स्त्री को भी एक दूसरे पर वरीयता प्राप्त नहीं है क्योंकि दोनों की सामग्री एक ही है और सबकी जड़ एक ही माता पिता हैं।

 क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में ईश्वर ने माता-पिता के साथ भलाई का उल्लेख अपने आदेश के पालन के साथ किया है और इस प्रकार उसने मापा-पिता के उच्च स्थान को स्पष्ट किया है परंतु इस आयत में न केवल माता-पिता बल्कि अपने नाम के साथ उसने सभी नातेदारों के अधिकारों के सममान को आवश्यक बताया है तथा लोगों को उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है।
 इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। अत: वह परिवार तथा समाज में मनुष्यों के आपसी संबंधों पर ध्यान देता है और ईश्वर ने भय तथा अपनी उपासना का आवश्यक भाग, अन्य लोगों के अधिकारों के सम्मान को बताया है।
 मानव समाज में एकता व एकजुटता होनी चाहिये क्योंकि लोगों के बीच वर्ण, जाति, भाषा व क्षेत्र संबंधी हर प्रकार का भेद-भाव वर्जित है। ईश्वर ने सभी को एक माता पिता से पैदा किया है। सभी मनुष्य एक दूसरे के नातेदार हैं क्योंकि सभी एक माता-पिता से हैं। अत: सभी मनुष्यों से प्रेम करना चाहिये और अपने निकट संबंधियों की भांति उनका सम्मान करना चाहिये।  ईश्वर हमारी नीयतों व कर्मों से पूर्ण रूप से अवगत है। अत: न हमें अपने मन में स्वयं के लिए विशिष्टता की भावना रखनी चाहिये और न व्यवहार में दूसरों के साथ ऐसा रवैया रखना चाहिये।

(वास्तविक बुद्धिजीवी) वे लोग हैं जो ईश्वरीय प्रतिज्ञा पर कटिबद्ध रहते हैं और वचनों को नहीं तोड़ते। (13:20) और वे ऐसे हैं कि ईश्वर ने जिन संबंधों को जोड़ने का आदेश दिया है वे उन्हें जोड़ते हैं, अपने पालनहार से डरते हैं और बुरे हिसाब का उन्हें भय लगा रहता है। (13:21)

पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि क़ुरआने मजीद ने ईमान वालों और काफ़िरों को देखने वालों तथा नेत्रहीनों की संज्ञा देते हुए ईमान वाले को बुद्धिमान तथा चितन करने वाला बताया था। यह आयतें बुद्धिमानों की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहती हैं कि वचनों विशेषकर ईश्वरीय प्रतिज्ञा का पालन उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वे कभी भी ईश्वरीय प्रतिज्ञा का उल्लंघन नहीं करते, चाहे वे सत्य प्रेम और न्याय प्रेम जैसी सैद्धांतिक प्रतिज्ञाएं हों, ईश्वर तथा प्रलय पर आस्था जैसी बौद्धिक प्रतिज्ञाएं हों अथवा ईश्वर द्वारा वर्जित की गई वस्तुओं से दूर रहने की धार्मिक प्रतिज्ञाएं हों।

अलबत्ता सबसे महत्त्वपूर्ण ईश्वरीय प्रतिज्ञा भ्रष्ट शासकों से संघर्ष और पवित्र नेताओं का अनुसरण है। ईश्वर ने कहा है कि इमामत अर्थात ईश्वरीय नेतृत्व केवल पवित्र और न्यायप्रेमी लोगों को ही प्राप्त हो सकेगा और यह पद अत्याचारियों को कभी भी नहीं मिलेगा। पवित्र क़ुरआने मजीद के सूरए बक़रह की आयत संख्या 124 में कहा गया है कि ईश्वर का पद अर्थात इमामत अत्याचारियों को प्राप्त नहीं होगा।

बुद्धिमान तथा ईमान वालों की एक अन्य विशेषता धार्मिक व पारिवारिक संबंधों को सुरक्षित रखना है जिसकी ईश्वर ने अत्यधिक सिफ़ारिश की है। जैसे ईमान वालों के साथ संबंधों की रक्षा जिन्हें ईश्वर ने उनका ईमानी भाई बताया है और अपने सगे संबंधियों के साथ संबंधों की रक्षा जो एक प्रकार से उनकी भावनात्मक तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इसी कारण पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने स्वर्गवास के समय आदेश दिया था कि उनके सभी परिजनों को चाहे उन्होंने उनके साथ अनुचित व्यवहार ही क्यों न किया हो, कोई न कोई भेंट दी जाए।
ईमान वालों की अंतिम विशेषता ईश्वर से डरते रहना है। बुद्धिमान लोगों के भीतर ईश्वर की गहन पहचान के बाद उसका भय पैदा होता है जो ईश्वर की महानता के समक्ष उनके नतमस्तक रहने को दर्शाता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि सामाजिक संधियों और समझौतों का सम्मान, ईमान वाले तथा बुद्धिमान व्यक्ति की विशेषताओं में से एक है।

पारिवारिक संबंधों और आवाजाही को जारी व सुरक्षित रखना और परिजनों की समस्याओं का समाधान करने पर धर्म में बहुत अधिक बल दिया गया है।

मुसलमानों को लगा आजादी का नशा |

$
0
0
इस्लाम में नशा कोई भी हो हराम है या कह दें मना है | अक्सर लोग पूछते हैं क्या सिगरेट भी मना है क्या तम्बाकू और गुटका भी मना है ? भाई जिस चीज़ से नशा हो या  इंसान के शरीर के लिए जान के लिए घातक हो  वो सब हराम है या  मना है |

अल्लाह ने हमें बनाया और हमारी हिदायत के लिए समय समय पे आसमानी किताबें भेजी और उसे हमें समझाने के लिए उनपे चल के दिखाने के लिए नबी ,रसूल और इमाम भेजे| जिनमे से आखिरी किताब कुरान थी और आखिर नबी हजरत मुहम्मद (स.अ.व). हजरत मुहम्मद (स.अ.व) जाते समय कह गए मैं जा रहा हूँ और तुम्हारे बीच कुरान और अह्लेबय्त (हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के घर वाले ) छोड़े जा रहा हूँ | इनका दामन  पकडे रहना ,कभी गुमराह नहीं होगे |

और अब तो मुसलमानों को देख के लगता है की उन्होंने अल्लाह और कुरान से भी आजादी पाने की कोशिश शुरू कर दी है | कोई बे हिजाब हुआ जा रहा है तो कोई जालिमो का साथ दे रहा है तो कोई जादू टोन के चक्कर में मुल्ला पंडित के दर पे खड़ा है तो कोई डिस्को में लगा है | इनमे से जो इन्तहा पसंद हैं वो आतंकवाद फैला रहे हैं और बे गुनाहों   की जान लेने को इस्लाम बता रहे हैं | यह और बात है की यह बिमारी आज धर्म वालों को लगी है और वो अब धर्म को और उसके उसूलों को बहुत अधिक अहमियत नहीं देते बल्कि जब परेशान होते हैं तब मथ्था टेकने चले जाते हैं |

जब हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की वफात हो गयी तो अधिकतर मुसलमानों ने सबसे पहले अह्लेबय्त (हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के घर वाले ) से आज़ादी ले ली और जब अह्लेबय्त  ने कुरान दिखाई , हजरत मुहमद (स.अ.व) की हदीस दिखाई तो उनपे ज़ुल्म किया और कहने लगे कुरान काफी है और ऐसा कह के हजरत मुहम्मद (स.अ.व) से भी खुद को आज़ाद कर लिया | यहीं से फिरके बनने शुरू हो गए किसी ने अह्लेबय्त से आज़ादी ली वो अलग फिरका किसी ने अह्लेबय्त  से तो आज़ादी ली लेकिन हजरत मुहम्मद (स.अ.व) का दमन पकडे रहे वो अलग फिरका लेकिन वो फिरका जिसने हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की अहादीस को वैसे माना जैसा उनका हुक्म था और न अह्लेबय्त का दम छोड़ा , न हजरत मुहम्मद (स.अ.व) का दमन छोड़ा और कुरान पे वैसे चले जैसे अह्लेबय्त ने चल के दिखाया वो सही राह पे रहे क्यों की अल्लाह सूरा ए रूम में फरमाता है जो लोग अपनी इच्छाओं या दूसरे कारणों से अल्लाह और रसूल पर सबक़त करते हैं उनके पास ईमान और तक़वा नही है।

आज भी वो मुसलमान जिसने अल्लाह उसके रसूल हजरत मुहम्मद (स.अ.व) और उनके घराने वालों का साथ नहीं छोड़ा दहशतगर्दी में कभी शरीक नहीं मिलते बल्कि दहशतगर्दी और आतंकवाद का शिकार हो जाया करते हैं | यह दो बातें साबिक करता है की इस्लाम का सही पैग़ाम अमन और शांति है जो अल्लाह उसके रसूल हजरत मुहम्मद (स.अ.व) और उनके घराने वालों का साथ  पकड़ने वालों का पैग़ाम है और दुसरे यह की अल्लाह का सही पैग़ाम देने वालों पे हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की हदीस पे वैसे अमल करने वालों पे जैसा उन्होंने कहा था ,पहले भी ज़ुल्म हुआ और आज भी वही ज़ुल्म का शिकार होते है |

यह ज़ुल्म वही करते हैं जो खुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन  अल्लाह उसके रसूल हजरत मुहम्मद (स.अ.व) और उनके घराने वालों  से आजादी ले चुके हैं | आपने सुना होगा की ऐसे भी मुसलमान हैं जो हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की निशानियों को मक्का और मदीने में भी मिटा रहे हैं और आपने यह भी सुना होगा की हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के घराने पे ज़ुल्म हुआ कभी  उनकी बेटी फातिमा (स.अ.व) का घर जला, कभी कर्बला में उनके नवासे इमाम हुसैन (अ.स) का क़त्ल हुआ | यह भी एक फिरका है जो कल भी ज़ालिम था आज भी ज़ालिम है | और आपने यह भी देखा होगा की एक फिरका ऐसा है जो हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के घराने पे हुए ज़ुल्म पे आंसू बहता है , उसके खिलाफ आवाज़ उठता है |यह काभी दहशत गर्द नहीं होता क्यूँ की यह असल इस्लाम को मानता है जहां दहशतगर्दी हराम है और ऐसा गुनाह है जो कभी माफ़ नहीं होता |


यह आज़ादी भी एक नशा है जो हराम है क्यूँ की यह गुमराही का एक बड़ा कारण है |

इमाम हुसैन (अ:स) के खुतबे - मदीना से कर्बला तक

$
0
0

इमाम हुसैन का ज़िक्र करने वालों का नाम फ़ातेमा ज़हरा की लिस्ट में

$
0
0
इमाम हुसैन का ज़िक्र करने वालों का नाम फ़ातेमा ज़हरा की लिस्ट में
किताबे "चेहरये दरख़शाँ हुसैन इबने अली अलैहिमस्सलाम "के पेज न0 227 और 230 पर इस तरह लिखा है महान आलिम हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लमीन जनाब हाज मुर्तज़ा मुज्तहेदी सीस्तानी इस तरह बयान करते हैः
मेरे चाचा जनाब सय्यद इब्राहीम मुज्तहेदी सीस्तानी इमाम-ए-रज़ा अलैहिस्सलाम के पुराने ज़ाकरीन में से थे. मेरे स्वर्गीय चाचा ने एक सपने मे सिद्दीक़ए कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा को देखा कि एक सूची उन के सामने रखी है जो खुली हुई है मैं ने उन इस बारे में पूछा कि यह किस की सूची है ?

सिद्दीक़ए कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा ने फ़रमायाः मेरे बेटे हुसैन की मजलिस पढ़ने वालों का नाम इस सूची में है।
मेरे स्वर्गीय चाचा ने देखा कि कुछ मजलिस पढ़ने वालों का नाम उस सूची में है और वह पैसा कि जो उन को मजलिस पढ़ने का उस मोहर्रम में दिया गया था वह भी उस सूची में लिखा है।
मेरे स्वर्गीय चाचा ने अपना भी नाम उस सूची में देखा और यह भी देखा कि उन के नाम के आगे लिखा था 30 तूमान (ईरानी पैसे को तूमान कहते हैं।)
नींद से जागे तो जो सपना उन्हों ने देखा था बहुत आश्चर्यचकित हुए क्योंकि 30 तुमान उस ज़माने में एक मजलिस का बहुत ज़्यादा पैसा था मगर दो महीने और ज़्यादा मजलिसों के कारण इत्ना पैसा हो सकता था लेकिन संजोग से उसी वर्ष वह बीमार हो गए यहाँ तक कि घर से निकलने की भी ताक़त नही थी और उन की बीमारी हर दिन बढ़ती ही जा रही थी यहाँ तक कि मोहर्रम और सफ़र को महीना ख़तम होने का था। इस दो महीने में सिर्फ़ एक दिन उन की हालत कुछ ठीक हुई और सिर्फ़ एक ही मजलिस में जा सके मजलिस के बाद जिसने मजलिस करवाई थी उस ने उन को एक पैकेट दिया कि जिस में 30 तूमान था ।
इस बात से उन के सपने को सच होना सिध्द है और यह भी सिध्द होता है कि सिद्दीक़ये कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा मजलिस पढ़ने वालों पर कृपा करती हैं और सब कुछ उस महान हस्ती के कन्टरोल में है ।
मजलिस पढ़ने वालों का सिद्दीक़ये कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की नज़र में क्या पद है और वह लोग कित्ने महान है उन की नज़र में, इस बात का पता इमाम-ए-जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम की इस बात से चलता हैः
कोई भी ऐसा नहीं है कि जो इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर आंसू बहाये और रोये मगर यह कि उस का रोना सिद्दीक़ये कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा तक पहुँचता है और सिद्दीक़ये कुबराहज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोने वालों की सहायता करती हैं, और उस का रोना रसूले ख़ुदा तक भी पहुंचता है और वह इन आंसूओं की क़ीमत अदा करते हैं।

एक दूसरी रेवायत मे भी इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोने के सिलसिले में इमाम-ए-जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से वारिद हुआ है कि आप ने फ़रमायाः
जो कोई इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोता है इमाम उस को देखते हैं और उस के लिए इस्तिग़फ़ार करते हैं और हज़रत अली अलैहिस्सलाम से भी कहते हैं कि वह भी रोने वालों के लिए इस्तिग़फ़ार करें और रोने वालों से कहते हैः

अगर तुम लोगों को मालूम हो जाये कि इश्वर ने तुम लागों के लिए क्या तय्यार किया है तो तुम जित्ना ज़्यादा दुखी होते उस से ज़्यादा उस के लिए ख़ुश होते और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उस के लिए इस्तिग़फ़ार करते हैं हर उस गुनाह के लिए जो उस ने किया है।

इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम के दुख में एक बूंद आँसु सारे गुनाह को ख़त्म कर देता है रेवायतों में आया है कि जो भी व्यक्ति इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम की मजलिस में आता है उस को चाहिए कि उन के सम्मान का ध्यान रखे।

एक अहम बात यह है कि जो कोई इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम कि मजलिस में रोता है उस को चाहिए कि वह इमाम-ए-ज़माना आज्जल्लाहू फ़रजहुश्शरीफ़ के ज़हूर के लिए दुआ करे और ईश्वर से यह दुआ करे कि वह इमाम के ज़हूर में जल्दी करे ताकि इमाम-ए-ज़माना की दुआ का मुस्तहेक़ हो।

एक जगह इमाम-ए-ज़माना आज्जल्लाहू फ़रजहुश्शरीफ़ ने फ़रमायाः
मैं हर उस व्यक्ति के लिए दुआ करता हूँ जो इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम की मजलिस मे मेरे लिए दुआ करता है।

इस्लाम के कानून परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील हैं |

$
0
0
लोग कहते हैं इस्लाम १४०० साल पुराना धर्म है इसके कानून में आज तरक्की के युग में बदलाव होना चाहिए जबकि सच्चाई यह है  की इस्लाम के कानून परिस्थितियों के अनुसार खुद बदलते रहते हैं |अक्सर होता यह है कि लोग इस्लाम धर्म को समझे बिना इसके कानून पे सख्ती से अमल करने वाले को कट्टरवादी या  संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक मानते  हैं | जब कि यह सारी बातें केवल एक फरेब हैं| यह सच है की अल्लाह के हुक्म के आगे मुसलमान किसी की नहीं सुनता और यही मुसलमान की खूबी है | इस्लाम धर्म  के कानून इंसानों को फायदा पहुंचाते हैं नुकसान नहीं फिर आज के युग का हवाल दे के इसे बदलने की बातो का क्या मतलब है ? मैं यह मानता हूँ की यदि किसी भी धर्म के कोई कानून समाज में बेईज्ज़त का कारण बने या हंसी का कारण बने या समाज को किसी तरह का नुकसान पहुंचाए तो उस पे अड़ियल रवैया सही नहीं और इस्लाम के कानून भी यही पैगाम देते हैं | आज बात करेंगे ऐसे कुछ कानून की जिनका सहारा ले के लोग कुरान में परिवर्तन का मशविरा दिया करते हैं|

सवाल : क्या इस्लाम परिवार नियोजन के खिलाफ है ?
जवाब : नहीं इस्लाम परिवार नियोजन के खिलाफ नहीं बल्कि भ्रूण हत्या के खिलाफ है | हाँ इस्लाम इसकी इजाज़त तब देता है जब परिवार नियोजन ना करने से कोई नुकसान हो रहा हो |

सवाल २: क्या इस्लाम में तलाक देने का तरीका तीन बार तलाक कह के पत्नी से छुटकारा पा लेना है |
जवाब : नहीं केवल तीन बार तलाक कह देने से तलाक़ नहीं हो जाता बल्कि इसका एक लम्बा तरीका है जिसे आप मेरे इस लेख में पढ़ सकते हैं |

सवाल ३: क्या इस्लाम में मांसाहार आवश्यक है ?
जवाब ४) इस्लाम में मांसाहार मना नहीं है लेकिन इसकी अधिकता को ठीक नहीं समझा जाता और हर जानवर भी खाया नहीं जा सकता | कुछ ही जानवर ऐसे हैं जिनको खाने की इजाज़त दी गयी है| कौन जानवर मना है और कौन खाया जा सकता है इसके कारण भी बताये गए हैं |

सवाल 5) क्या इस्लाम में परदे का मतलब होता है काले लिबास में सर से लेकर पैर तक महिला को छुपा के रखना और घर से बहार ना जाने देना |
जवाब ) इस्लाम में चेहरे का पर्दा नहीं है और महिला तथा पुरुष दोनों का एक दुसरे से अपना शरीर छुपाने का हुक्म है जिसे पर्दा कहते हैं | यह काम ढीली शलवार कमीज़ पहन के भी महिलाएं कर सकती हैं और सारी में आँचल से सर छुपा के भी किया जा सकता है | काला नकाब या चेहरे का छिपाना इलाकाई  दस्तूर है जो पुरुष प्रधान कानून के चलते बनाया गया है | इस्लाम और कुरान में ऐसा कोई हुक्म नहीं है |

सवाल 6) क्या इस्लाम में बालविवाह की इजाज़त है ?
जवाब ) इस्लाम में उस समय तक विवाह नहीं हो सकता जब तक लड़का और लड़की दोनों बालिग़ ना हो जायें या ऐसा कह लें गर्भधारण के काबिल ना हो जाएँ |शादी लड़के और लड़की की मर्जी के खिलाफ नहीं की जा सकती या कहलें माता पिता की केवल मर्जी से शादी संभव नहीं है |

सवाल7) इस्लाम क्या मुसलमानों को दुसरे धर्म के लोगों से मिलने जुलने पे कोई पाबन्दी लगाता है ?
जवाब) नहीं ऐसी कोई पाबन्दी नहीं है बल्कि दुसरे धर्म के लोगों से मिलने जुलने पे और अच्छे व्यवहार को पुण्य मानता है |

सवाल 8) क्या इस्लाम में कुरान के कानून के खिलाफ जाने वाले मुसलमान पे किसी प्रकार की ज़बरदस्ती करने का हुक्म है ?
जवाब ) नहीं इस्लाम में ज़बरदस्ती मना है और सजा देने वाला सिर्फ अल्लाह है | हाँ उन जुर्म की सजा अवश्य है जो किसी दुसरे इंसान को नुकसान पहुंचा रहा हो | जैसे चोरी, बलात्कार इत्यादि लेकिन यह सजा भी इस्लाम के कानून का जानकार मुजतहिद या क़ाज़ी  ही दे सकता है ,आम इंसानों को ऐसा करने की मनाही है |


आज विश्व के सारे मुसलमान इन्ही कानून को मानते हैं  | मैंने यहाँ उनका ज़िक्र नहीं किया है जहां कुरान और मुसलमान के व्यवहार में विरोधाभास हो और कोई यह कहे की भाई कुरान में क्या लिखा है यह अहमियत नहीं रखता बल्कि मुसलमान क्या करता है यह अहम् है | मैं खुद इस बात से सहमत हूँ |

आज हम जिस युग में जी रहे हैं वहाँ शराब और शबाब को धनी लोगों का शौक माना जाता है और यह आज आसानी से उपलभ्द भी है| महिलाओं और पुरुषों का अपना शारीरिक प्रदर्शन आज फैशन बन गया है| इस्लाम इस शारीरिक प्रदर्शन के और धन की लालच में स्त्री पुरुष के शारीरिक सम्बन्ध के खिलाफ है | आप कह सकते हैं की इंसानों का  जंगल के जानवरों की तरह व्यवहार के इस्लाम खिलाफ है | इस्लाम अनैतिक और छुप के शार्रीरिक संबंधों के खिलाफ है और आपसी सहमती से कुछ कानून का पालन करते हुए स्त्री पुरुष आपस में शारीरिक सम्बन्ध बना सकते हैं| इस्लाम आजादी में बाधा नहीं डालता बल्कि इस बात पे जोर देता है की धोका और फरेब पति पत्नी एक दुसरे से ना करें और जो करें समाज में इज्ज़त के साथ करें | जुआ , शराब , अनैतिक संबधों और ऐसे हर नशे के इस्लाम खिलाफ है जिसे करने से इंसान होश खो दे या जिसकी लत लग जाए |

इस्लाम के कानून परिस्थितियों के अनुसार बदलते भी रहे हैं जैसे आप सवाल करें की आपके बच्चे को facebook की लत लग गयी है और इतनी अधिक है की वो अपनी दिनचर्या , पढाई या व्यवसाय के काबिल भी नहीं रहा तो इस्लाम का कानून इसे हराम कह देगा और यदि यही आदत केवल एक शौक है और इसे आपके बच्चे की दिनचर्या पे कोई अंतर नहीं पड़ रहा तो यही सही कहा जायेगा | या आप पूछें क्या पुरुष का स्त्री से बात करना या ऑनलाइन चैट करना या दफ्तरों में एक साथ काम करना मना है? तो जवाब आएगा नहीं कोई हर्ज नहीं यदि ऐसा करने से आप को अनैतिक संबंधों के बनने का डर नहीं | इस्लाम आपको चार शादी की इजाज़त देता है लेकिन यदि इस से समाज में इज्ज़त कम होती हो या पत्नी इसकी इजाज़त नहीं दे रही या आप सभी पत्नियों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं रख सकते हैं तो ऐसा करना मना है |


इस्लाम इंसान को जीने का सलीका सिखाता है | आपके लिए कब सोना सही है कब जागना सही है ? क्या खाना सही है या क्या पहनना सही है ? कैसे लोगों से मिलना जुलना चाहिए कैसे उठाना बैठना चाहिए ? सभी कुछ इस्लाम में मौजूद है बस आवश्यकता है तो इंसानों के समझने की के इस्लाम है क्या ? यह इंसानों को इंसानियत सीखाता है , समूह में मिल जुल के रहना सिखाता है | आज का मुसलमान यदि इस्लाम के कानून के खिलाफ कुछ करता है तो वो धन दौलत और शोहरत की लालच में करता है | और जो गुनाह करता है वो है झूट बोलना, पीठ पीछे बुराई करना, बेपर्दा महिलाओं का घूमना ,अनैतिक सम्बन्ध बना लेना इत्यादि और यह वही बुराईयाँ है जो हर धर्म का इंसान  अपने अपने धर्म के कानून को तोड़ते हुए लालच में किया करता है |

जिन लोगों ने अपने अपने धर्म की किताबों को बदल लिया है वो आज इश्वर के बताये कानून पे चलने वाले नहीं रह गए है | और बदलाव वही हुआ है जो आज के इंसान की पसंद हैं |ऐसा कर  के इंसान ने खुद अपना ही एक धर्म बना लिया है बस नाम पुराने धर्म का ही चला रहा है | अल्लाह का कोई भी कानून ऐसा नहीं जो इंसान के लिए कोई समस्या पैदा कर दे | यदि किसी पाठक  को कम से कम इस्लाम का कोई कानून ऐसा लगता हो जो आज के युग में जीवन गुज़ारने में बाधक हो तो अवश्य उसका ज़िक्र करें | आपको जवाब मिलेगा और देखेंगे की इस्लाम में हर समस्या का समाधान मौजूद हैं क्यूँ की अल्लाह वो है जिसने दुनिया बनाई, जीव जंतु और इंसान बनाये और वो सब जानता है आने वाले दिनों में इनके सामने कैसी कैसी समस्याएं आ सकती हैं और उनका हल क्या होगा ? 

नोट: मेरा पिछले सप्ताह का लेख था "जो परिवर्तनशील हो वो धर्म नहीं हो सकता |"और आज का यह लेख है "इस्लाम के कानून परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील हैं |"कुछ लोगों को इसमें विरोधाभास नज़र आ रहा है जबकि ऐसा है नहीं | धर्म यदि अल्लाह का बनाया है तो इसमें बदलाव लाना इंसान के वश की बात नहीं और यदि ऐसा होगा तो नतीजा गलत ही आएगा |यह मेरे महले वाले लेख का सन्देश था और इस्लाम अल्लाह का दिया धर्म है जो यह जानता है की आने वाले समय में कैसी परिस्थितियां हो सकती है और कैसे बदलाव की आवश्यकता पद सकती है | इसीलिये तो उसे अल्लाह कहते हैं | ऐसे में इस्लाम धर्म के कानून में परिस्थितियों के अनुसार बदलाव का प्राविधान है | अल्लाह की किताब में परिवर्तन केवल अल्लाह का अधिकार है | यह मेरे अभी के लेख का सन्देश है | 

कुरान में तलाक और हलाला कहाँ है और क्या है ?

$
0
0

सूरए बक़रह की आयत नंबर २२८ इस प्रकार है।

और तलाक़ पाने वाली स्त्रियां तीन बार मासिक धर्म आने तक स्वयं को प्रतीक्षा मे रखें और यदि वे ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान रखती हें तो उनके लिए वैघ नहीं है कि वे (किसी और से विवाह करने के लिए) जिस वस्तु की ईश्वर ने उनके गर्भाशयों में सृष्टि की है, उसे छिपाएं अलबत्ता इस अवधि में उनके पति उन्हें लौटा देने का अधिक अधिकार रखते हैं यदि वे सुधार का इरादा रखते हों और (पुरुषों को जान लेना चाहिए कि) जितना दायित्व महिलाओं पर है उतना ही उनके लिए अच्छे अधिकार हैं, और (महिलाओं को जान लेना चाहिए कि घर चलाने में) पुरुषों को उन पर एक वरीयता प्राप्त है और ईश्वर प्रभुत्वशाली तथा तत्वदर्शी है। (2:228)


 परिवार और बच्चों की सुरक्षा के लिए यह आयत कहती है कि तलाक़ की दशा में महिला तीन महीनों तक धैर्य करे और किसी से निकाह न करे ताकि प्रथम तो यदि उसके गर्भ में बच्चा हुआ तो इस अवधि में स्पष्ट हो जाएगा और शिशु के अधिकारों की रक्षा होगी और शायद यही बच्चा दोनों की जुदाई को रोकने की भूमि समतल कर दे और दूसरे यह कि इस बात की भी संभावना पाई जाती है कि पति-पत्नी को अलग होने के अपने निर्णय पर पश्चाताप हो और वे पुनः संयुक्त जीवन बिताना चाहें कि स्वाभाविक रूप से इस दशा में पति को अन्य लोगों पर वरीयता प्राप्त है।
 अंत में यह आयत पति-पत्नी के बीच कटुता समाप्त करने तथा भलाई उत्पन्न करने के मार्ग के रूप में एक महत्वपूर्ण बात बताती है और वह यह है कि पहले पुरुषों से कहती है कि यद्यपि घर और परिवार के बारे में महिलाओं का कुछ दायित्व बनता है परन्तु उतना ही वे अपने बारे में तुम पर मानवीय अधिकार रखती हैं जिन्हें तुम्हें बेहतर ढंग से पूरा करना चाहिए।
 इसके पश्चात यह आयत महिलाओं को संबोधित करते हुए कहती है कि घर चलाना तथा उससे संबन्धित अन्य बातों की व्यवस्था पुरुषों के ज़िम्मे है और इस मार्ग में वे बेहतर ढंग से काम कर सकते हैं। अतः इस संबन्ध में उन्हें तुमपर वरीयता प्राप्त है।


सूरए बक़रह की आयत संख्या २२९ इस प्रकार है।

(हर पुरूष के लिए अपनी पहली पत्नी के पास लौटने और) तलाक़ (देने का अधिकार) दो बार है अतः (हर स्थिति में या तो) अपनी पत्नी को भले ढंग से रोक लेना चाहिए या भले ढंग से उसे छोड़ देना चाहिए और (तुम पुरूषों के लिए) वैध नहीं है कि जो कुछ तुम अपनी पत्नियों को दे चुके हो वो (उनपर कड़ाई करके) वापस लेलो, सिवाए इसके कि दोनों को भय हो कि वे ईश्वरीय आदेशों का पालन न कर सकेंगे तो यदि तुम भयभीत हो गए कि वे दोनों ईश्वरीय सीमाओं को बनाए न रख सकेंगे तो इस बात में कोई रुकावट नहीं है कि तलाक़ का अनुरोध पत्नी की ओर से होने की दशा में वे इसका बदला दें और अपना मेहर माफ़ कर दे। यह ईश्वरीय देशों की सीमाए हैं इनसे आगे न बढ़ो, और जो कोई ईश्वरीय सीमाओं से आगे बढ़े, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी हैं। (2:229)


 पिछली आयत में कहा गया था कि तलाक़ के पश्चात पत्नी को तीन महीने तक किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं करना चाहिए ताकि यदि वह गर्भवती हो तो स्पष्ट हो जाए और यदि पति को तलाक़ पर पछतावा हो तो पत्नी को वापस बुलाने की संभावना रहे। उसके पश्चात यह आयत कहती है कि अलबत्ता पति केवल दो बार ही अपनी पत्नी को तलाक़ देने और उससे "रुजू"करने अर्थात उसके पास वापस जाने की अधिकार रखता है और यदि उसने अपनी पत्नी को तीसरी बार तलाक़ दिया तो फिर रुजू की कोई संभावना नहीं है।
इसके पश्चात यह आयत पुरूषों को घर चलाने के लिए एक अति आवश्यक सिद्धांत बताते हुए कहती है कि या तो जीवन को गंभीरता से लो और अपनी पत्नी के साथ अच्छे ढंग से जीवन व्यतीत करो और यदि तुम उसके साथ अपना जीवन जारी नहीं रख सकते तो भलाई और अच्छे ढंग से उसे स्वतंत्र कर दो। अलबत्ता तुम्हें उसका मेहर देना पड़ेगा।
 इसी प्रकार यदि पत्नी तलाक़ लेना चाहती है तो उसे अपना मेहर माफ़ करके तलाक़ लेना होगा परन्तु हर स्थिति में पति को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी पत्नी को सता कर उसे मेहर माफ़ करने और तलाक़ लेने पर विवश करे।

सूरए बक़रह की आयत संख्या २३०, २३१ और २३२ इस प्रकार है।

यदि (पति ने दो बार रुजू करने के पश्चात तीसरी बार अपनी पत्नी को) तलाक़ दे दी तो फिर वह स्त्री उसके लिए वैध नहीं होगी जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह न कर ले, फिर यदि दूसरा पति उसे तलाक़ दे दे तो फिर इन दोनों के लिए एक दूसरे की ओर पलट आने में कोई दोष नहीं होगा। अलबत्ता उस स्थिति में, जब उन्हें आशा हो कि वे ईश्वरीय सीमाओं का आदर कर सकेंगे। यह अल्लाह की सीमाएं हैं जिन्हें वह उन लोगों के लिए बयान कर रहा है जो जानना चाहते हैं। (2:230) और जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दो और वे "इद्दत"अर्थात अपने नियत समय की सीमा (के समीप) पहुंच जाए तो या तो उन्हें भले ढंग से अपने ही पास रोक लो या फिर अच्छे ढंग से उन्हें विदा और स्वतंत्र कर दो। उन्हें सताने के लक्ष्य से न रोको कि उनपर अत्याचार करो और जिसने भी ऐसा किया वास्तव में उसने स्वयं पर ही अत्याचार किया और ईश्वर की आयतों का परिहास न करो बल्कि सदैव याद करते हरो उस विभूति को जो ईश्वर ने तुम्हें दी है और किताब तथा हिकमत को जिसके द्वारा वह तुम्हें नसीहत करता है और ईश्वर से डरते रहो और जान लो कि वह हर बात का जानने वाला है। (2:231) और जब तुम अपनी स्त्रियों को तलाक़ दे चुको और वे अपनी "इद्दत"पूरी कर लें तो उन्हें अपने पुराने पतियों से पुनः विवाह करने से न रोको जबकि वे अच्छे ढंग से आपस में राज़ी हों। ईश्वर के इन आदेशों द्वारा तुम में से उन लोगों की नसीहत होती है जो ईश्वर और प्रलय पर ईमान रखते हैं। यह आदेश (तुम्हारी आत्मा की) पवित्रता के लिए अधिक प्रभावशाली तथा (समाज को पाप से) साफ़ करने के लिए अधिक लाभदायक है। ईश्वर (तुम्हारे भले को) जानता है और तुम नहीं जानते। (2:232)


 चूंकि इस्लाम वैध और स्वाभाविक इच्छाओं का सम्मान करता है और पति-पत्नी के एक-दूसरे के पास वापस आने और उनकी छाया में बच्चों के प्रशिक्षण व प्रगति का स्वागत करता है अतः उसने इस बात की अनुमति दी है कि यदि पत्नी ने किसी अन्य व्यक्ति से विवाह कर लिया और बाद में उससे भी अलग हो गई तथा पुनः अपने पहले पति के साथ जीवन बिताने पर सहमत हो गई तो वे पुनः विवाह कर सकते हैं। इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि उनका जीवन आनंदमयी हो जाए। स्पष्ट सी बात है कि इस स्थिति में पति-पत्नी के अभिभावकों या अन्य लोगों को ये अधिकार नहीं है कि वे इस विवाह में बाधा डालें, बल्कि पुनः पति-पत्नी की सहमति ही विवाह के लिए पर्याप्त है।

आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
पत्नी के मानवाधिकारों के साथ ही साथ उसके आर्थिक अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए तथा पति को यह अधिकार नहीं है कि वह पत्नी की संपत्ति या उसके मेहर को अपने स्वामित्व में ले ले।
 आवश्यकता पड़ने पर यदि तलाक़ हो तो उसे भलाई के साथ होना चाहिए न कि द्वेष और प्रतिरोध के साथ।
 सौभाग्यपूर्ण परिवार वह है जिसके सदस्यों के संबन्ध ईश्वरीय आदेशों पर आधारित हों परन्तु यदि वे पाप के आधार पर जीवन जारी रखना चाहते हों तो बेहतर है कि वे तलाक ले लें।
पति के चयन में महिला की राय आवश्यक और सम्मानीय है तथा मूल रूप से विवाह का आधार अच्छे ढंग से दोनों पक्षों की आपस में सहमति है।
Viewing all 658 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>