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अली इब्ने अबी तालिब एक महान वैज्ञानिक भी थे

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अली इब्ने अबी तालिब पैगम्बर मुहम्मद (स.) के चचाजाद भाई और दामाद थे. आपका चर्चित नाम हज़रत अली (Hazrat Ali) है. दुनिया उन्हें महान योद्धा और मुसलमानों के खलीफा (Khalifa) के रूप में जानती है. इस्लाम के कुछ फिरके उन्हें अपना इमाम तो कुछ उन्हें वली के रूप में मानते हैं. लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि अली एक महान वैज्ञानिक भी थे और एक तरीके से उन्हें पहला मुस्लिम वैज्ञानिक (First Muslim Scientist) कहा जा सकता है.

Ali Ibne Abi Talib
17 मार्च 600 ( 13 Rajab 24 BH) को अली का जन्म मुसलमानों के तीर्थ स्थल काबे के अन्दर हुआ. ऐतिहासिक दृष्टि से हज़रत अली एकमात्र व्यक्ति हैं जिनका जन्म काबे के अन्दर हुआ. जब पैगम्बर मुहम्मद (स.) ने इस्लाम का सन्देश दिया तो कुबूल करने वाले अली पहले व्यक्ति थे.

बात करते हैं हज़रत अली के वैज्ञानिक पहलुओं पर. हज़रत अली ने वैज्ञानिक जानकारियों को बहुत ही रोचक ढंग से आम आदमी तक पहुँचाया. एक प्रश्नकर्ता ने उनसे सूर्य की पृथ्वी से दूरी पूछी तो जवाब में बताया की एक अरबी घोड़ा पांच सौ सालों में जितनी दूरी तय करेगा वही सूर्य की पृथ्वी से दूरी है. उनके इस कथन के चौदह सौ सालों बाद वैज्ञानिकों ने जब यह दूरी नापी तो 149600000 किलोमीटर पाई गई. अगर अरबी घोडे की औसत चाल 35 किमी/घंटा ली जाए तो यही दूरी निकलती है. इसी तरह एक बार अंडे देने वाले और बच्चे देने वाले जानवरों में फर्क इस तरह बताया कि जिनके कान बाहर की तरफ होते हैं वे बच्चे देते हैं और जिनके कान अन्दर की तरफ होते हैं वे अंडे देते हैं.

अली ने इस्लामिक थियोलोजी (Islamic Theology-अध्यात्म) को तार्किक आधार दिया. कुरान को सबसे पहले कलमबद्ध करने वाले भी अली ही हैं. बहुत सी किताबों के लेखक हज़रत अली है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं
१. किताबे अली (Kitab E Ali)
२. जफ्रो जामा (Islamic Numerology पर आधारित)- इसके बारे में कहा जाता है कि इसमें गणितीय फार्मूलों के द्वारा कुरान मजीद का असली मतलब बताया गया है. तथा क़यामत तक की समस्त घटनाओं की भविष्यवाणी की गई है. यह किताब अब अप्राप्य है.
३. किताब फी अब्वाबुल शिफा (Kitab Fi Abwab Al Shifa)
४. किताब फी ज़कातुल्नाम (Kitab Fi Zakatul Name)

हज़रत अली की सबसे मशहूर व उपलब्ध किताब नहजुल बलागा (Nahjul Balagha) है, जो उनके खुत्बों (भाषणों) का संग्रह है. इसमें भी बहुत से वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन है.

माना जाता है की जीवों में कोशिका (Cells) की खोज 17 वीं शताब्दी में लीवेन हुक ने की. लेकिन नहजुल बलाग का निम्न कथन ज़ाहिर करता है कि अली को कोशिका की जानकारी थी. "जिस्म के हर हिस्से में बहुत से अंग होते हैं. जिनकी रचना उपयुक्त और उपयोगी है. सभी को ज़रूरतें पूरी करने वाले शरीर दिए गए हैं. सभी को काम सौंपे गए हैं और उनको एक छोटी सी उम्र दी गई है. ये अंग पैदा होते हैं और अपनी उम्र पूरी करने के बाद मर जाते हैं. (खुतबा-81) "स्पष्ट है कि 'अंग'से अली का मतलब कोशिका ही था.

हज़रत अली सितारों द्बारा भविष्य जानने के खिलाफ थे, लेकिन खगोलशास्त्र सीखने के हामी थे, उनके शब्दों में "ज्योतिष सीखने से परहेज़ करो, हाँ इतना ज़रूर सीखो कि ज़मीन और समुद्र में रास्ते मालूम कर सको." (77वाँ खुतबा - नहजुल बलागा)

इसी किताब में दूसरी जगह पर यह कथन काफी कुछ आइन्स्टीन के सापेक्षकता सिद्धांत से मेल खाता है, उसने मख्लूकों को बनाया और उन्हें उनके वक़्त के हवाले किया. (खुतबा - 01)

चिकित्सा का बुनियादी उसूल बताते हुए कहा, "बीमारी में जब तक हिम्मत साथ दे, चलते फिरते रहो."

ज्ञान प्राप्त करने के लिए अली ने अत्यधिक जोर दिया, उनके शब्दों में, "ज्ञान की तरफ बढो, इससे पहले कि उसका हरा भरा मैदान खुश्क हो जाए."


यह विडंबना ही है कि मौजूदा दौर में मुसलमान हज़रत अली की इस नसीहत से दूर हो गया और आतंकवाद जैसी अनेकों बुराइयां उसमें पनपने लगीं. अगर वह आज भी ज्ञान प्राप्ति की राह पर लग जाए तो उसकी हालत में सुधार हो सकता है.





हदीसे किसा हिंदी मे आप भी पढे |

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 जाबिर इब्न अब्दुल्लाह अंसारी बीबी फ़ातिमा ज़हरा (स:अ) बिन्ते रसूल अल्लाह (स:अ:व:व) से रिवायत करते हुए कहते हैं के मैने जनाब फ़ातिमा ज़हरा (स:अ) से सुना है की वो फ़रमा रहीं थीं के :-

एक दिन मेरे बाबा जान रसूले ख़ुदा (स:अ:व:व) मेरे घर तशरीफ़ लाये और फ़रमाने लगे, "सलाम हो तुम पर ऐ फ़ातिमा (स:अ)"मैने जवाब दिया, "आप पर भी सलाम हो"फिर आप ने फ़रमाया :"मै अपन जिस्म में कमज़ोरी महसूस कर रहा हूँ"मै ने अर्ज़ किया की, "बाबा जान ख़ुदा न करे जो आप में कमज़ोरी आये"आप ने फ़रमाया: "ऐ फातिमे (स:अ) मुझे एक यमनी चादर लाकर उढ़ा दो"तब मै यमनी चादर ले आई और मैंने वो बाबा जान क़ो ओढ़ा दी और मै देख रही थी के आपका चेहरा-ए-मुबारक चमक रहा है, जिस तरह चौदहवीं रात क़ो चाँद पूरी तरह चमक रहा हो, फिर एक लम्हा ही गुज़रा था की मेरे बेटे हसन (अ:स) वहां आ गए और बोले, "सलाम हो आप पर ऐ वालिदा मोहतरमा (स:अ)!"मैंने कहा और तुम पर भी सलाम हो ऐ मेरी आँख के तारे और मेरे दिल के टुकड़े - वोह कहने लगे, "अम्मी जान (स:अ), मै आप के यहाँ पाकीज़ा ख़ुशबू महसूस कर रहा हूँ जैसे वोह मेरे नाना जान रसूले ख़ुदा (स:अ:व:व) की ख़ुशबू हो"मैंने कहा, "हाँ तुम्हारे नाना जान चादर ओढ़े हुए हैं"इसपर हसन (अ:स) चादर की तरफ़ बढे और कहा, "सलाम हो आप पर ऐ नाना जान, ऐ ख़ुदा के रसूल! क्या मुझे इजाज़त है के आपके पास चादर में आ जाऊं?"आप ने फ़रमाया, "तुम पर भी सलाम हो ऐ मेरे बेटे और ऐ मेरे हौज़ के मालिक, मै तुम्हें इजाज़त देता हूँ"बस हसन आपके साथ चादर में पहुँच गए! फिर एक लम्हा ही गुज़रा होगा के मेरे बेटे हुसैन (अ:स) भी वहां आ गए और कहने लगे :"सलाम हो आप पर ऐ वालिदा मोहतरमा (स:अ) - तब मैंने कहा, "और तुम पर भी सलाम हो ऐ मेरे बेटे, मेरी आँख के तारे और मेरे कलेजे के टुकड़े"इसपर वो मुझे से कहने लगे, "अम्मी जान (स:अ), मै आप के यहाँ पाकीज़ा ख़ुशबू महसूस कर रहा हूँ जैसे वोह मेरे नाना जान रसूले ख़ुदा (स:अ:व:व) की ख़ुशबू हो"मैंने कहा, "हाँ तुम्हारे नाना जान और भाई जान इस चादर में हैं"बस हुसैन (अ:स) चादर के नज़दीक आये और बोले, "सलाम हो आप पर ऐ नाना जान! सलाम हो आप पर ऐ वो नबी जिसे ख़ुदा ने चुना है - क्या मुझे इजाज़त है के आप दोनों के साथ चादर में दाख़िल हो जाऊं?"आप ने फ़रमाया, "और तुम पर भी सलाम हो ऐ मेरे बेटे, और ऐ मेरी उम्मत की शफ़ा'अत करने वाले, तुम्हें इजाज़त देता हूँ"तब हुसैन (अ:स) ईन दोनों के पास चादर में चले गए, इसके बाद अबुल हसन (अ:स) अली इब्न अबी तालिब (अ:स) भी वहां आ गए और बोले, "सलाम हो आप पर ऐ रसूले ख़ुदा की बेटी!"मैंने कहा, "आप पर भी सलाम हो ऐ अबुल हसन (अ:स), ऐ मोमिनों के अमीर"वो कहने लगे, "ऐ फ़ातिमा (स:अ) मै आप के यहाँ पाकीज़ा ख़ुशबू महसूस कर रहा हूँ, जैसे वो मेरे भाई और मेरे चचाज़ाद, रसूले ख़ुदा की ख़ुशबू हो"मैंने जवाब दिया, "हाँ वो आप के दोनों बेटों समेत चादर के अन्दर हैं"फिर अली (अ:स) चादर के क़रीब हुए और कहा, "सलाम हो आप पर ऐ ख़ुदा के रसूल - क्या मुझे इजाज़त है के मै भी आप तीनों के पास चादर में आ जाऊं?"आप ने इनसे कहा, "और तुम पर भी सलाम हो ऐ मेरे भाई, मेरे क़ायेम मुक़ाम, मेरे जा'नशीन, मेरे अलम'बरदार, मै तुम्हें इजाज़त देता हूँ"बस अली (अ:स) भी चादर में पहुँच गए - फिर मै चादर के नज़दीक आये और मैंने कहा, "सलाम हो आप पर ऐ बाबा जान, ऐ ख़ुदा के रसूल, क्या आप इजाज़त देते हैं के मैन आप के पास चद्दर में आ जाऊं?"आप ने फ़रमाया, "और तुम पर भी सलाम हो मेरी बेटी और मेरी कलेजे की टुकड़ी, मैंने तुम्हे इजाज़त दी"तब मै भी चादर में दाख़िल हो गयी! जब हम सब चादर में इकट्ठे हो गए तो मेरे वालिदे गिरामी रसूल अल्लाह (स:अ:व:व) ने चादर के दोनों किनारे पकड़े और दायें हाथ से आसमान की तरफ़ इशारा करके फ़रमाया, "ऐ ख़ुदा! यक़ीनन यह हैं मेरे अहलेबैत (अ:स), मेरे ख़ास लोग, और मेरे हामी, इनका गोश्त मेरा गोश्त और इनका ख़ून मेरा ख़ून है, जो इन्हें सताए वो मुझे सताता है, और जो इन्हें रंजीदा करे वो मुझे रंजीदा करता है! जो इनसे लड़े मै भी उस से लडूंगा, जो इनसे सुलह रखे, मै भी उस से सुलह रखूओंगा, मै इनके दुश्मन का दुश्मन और इनके दोस्त का दोस्त हूँ, क्योंकि वो मुझ से और मै इनसे हूँ! बस ऐ ख़ुदा तू अपनी इनायतें और अपने बरकतें और अपनी रहमत और अपनी बखशिश और अपनी खुशनूदी मेरे और इनके लिये क़रार दे, इनसे नापाकी क़ो दूर रख, इनको पाक कर, बहुत ही पाक", इसपर खुदाये-बुज़ुर्ग-ओ-बरतर ने फ़रमाया, "ऐ मेरे फरिश्तो और ऐ आसमान में रहने वालो, बेशक मैंने यह मज़बूत आसमान पैदा नहीं किया, और न फैली हुई ज़मीन, न चमकता हुआ चाँद, न रौशन'तर सूरज, न घुमते हुए सय्यारे, न थल्कता हुआ समुन्दर, और न तैरती हुई किश्ती, मगर यह सब चीज़ें ईन पाक नफ्सों की मुहब्बत में पैदा की हैं जो इस चादर के नीचे हैं"इसपर जिब्राइल अमीन (अ:स) ने पुछा, "ऐ परवरदिगार! इस चादर में कौन लोग हैं?"खुदाये-अज़-ओ-जल ने फ़रमाया की वो नबी (स:अ:व:व) के अहलेबैत (अ:स)  और रिसालत का ख़ज़ीना हैं, यह फ़ातिमा (स:अ) और इनके बाबा (स:अ:व:व), इनके शौहर (अस:) इनके दोनों बेटे (अ:स) हैं! तब जिब्राइल (अ:स) ने कहा, "ऐ परवरदिगार! क्या मुझे इजाज़त है की ज़मीन पर उतर जाऊं ताकि इनमे शामिल होकर छठा फ़र्द बन जाऊं?"खुदाये ताला ने फ़रमाया, "हाँ हम ने तुझे इजाज़त दी"बस जिब्राइल ज़मीन पर उअतर आये और अर्ज़ की, "सलाम हो आप पर ऐ ख़ुदा के रसूल! खुदाये बुलंद-ओ-बरतर आप क़ो सलाम कहता है, आप क़ो दुरूद और बुज़ुर्गवारी से ख़ास करता है, और आप से कहता है, मुझे अपने इज़्ज़त-ओ-जलाल की क़सम के बेशक मै ने नहीं पैदा किया मज़बूत आसमान और न फैली हुई ज़मीन, न चमकता हुआ चाँद, न रौशन'तर सूरज, न घुमते हुए सय्यारे, न थल्कता हुआ समुन्दर, और न तैरती हुई किश्ती, मगर सब चीज़ें तुम पाँचों की मुहब्बत में पैदा की हैं और ख़ुदा ने मुझे इजाज़त दी है की आप के साथ चादर में दाख़िल हो जाऊं, तो ऐ ख़ुदा के रसूल क्या आप भी इजाज़त देते हैं?"तब रसूले ख़ुदा बाबा जान (स:अ:व:व) ने फ़रमाया , "यक़ीनन की तुम पर भी हमारा सलाम हो ऐ ख़ुदा की वही के अमीन (अ:स), हाँ मै तुम्हे इजाज़त देता हूँ"फिर जिब्राइल (अ:स) भी हमारे साथ चादर में दाख़िल हो गए और मेरे ख़ुदा आप लोगों क़ो वही भेजता है और कहता है वाक़ई ख़ुदा ने यह इरादा कर लिया है की आप लोगों ए नापाकी क़ो दूर करे ऐ अहलेबैत (अ:स) और आप क़ो पाक-ओ-पाकीज़ा रखे", तब अली (अ:स) ने मेरे बाबा जान से कहा, "ऐ ख़ुदा के रसूल बताइए के हम लोगों का इस चादर के अन्दर आ जाना ख़ुदा के यहाँ क्या फ़ज़ीलत रखता है?"तब हज़रत रसूले ख़ुदा ने फ़रमाया, "इस ख़ुदा की क़सम जिस ने मुझे सच्चा नबी बनाया और लोगों की निजात की ख़ातिर मुझे रिसालत के लिये चुना - अहले ज़मीन की महफ़िलों में से जिस महफ़िल में हमारी यह हदीस ब्यान की जायेगी और इसमें हमारे शिया और दोस्तदार जमा होंगे तो इनपर ख़ुदा की रहमत नाज़िल होगी, फ़रिश्ते इनको हल्क़े में ले लेंगे, और  जब वो लोग महफ़िल से रूखसत न होंगे वो इनके लिये बखशिश की दुआ करेंगे", इसपर अली (अ:स) बोले, "ख़ुदा की क़सम हम कामयाब हो गए और रब्बे काबा की क़सम हमारे शिया भी कामयाब होंगे"तब हज़रत रसूल ने दुबारा फ़रमाया, "ऐ अली (अ:स) इस ख़ुदा की क़सम जिस ने मुझे सच्चा नबी बनाया, और लोगों की निजात की ख़ातिर मुझे रिसालत के लिये चुना, अहले ज़मीन की महफ़िलों में से जिस महफ़िल में हमारी यह हदीस ब्यान की जायेगी और इस्मे हमारे शिया और दोस्तदार जमा होंगे तो इनमे जो कोई दुखी होगा ख़ुदा इसका दुख़ दूर कर देगा, जो कोई ग़मज़दा होगा ख़ुदा इसके ग़मों से छुटकारा देगा, जो कोई हाजत मंद होगा झुदा इसकी हाजत क़ो पूरा कर देगा"तब अली (अ:स) कहने लगे, "ब'ख़ुदा हमने कामयाबी और बरकत पायी और रब्बे काबा की क़सम की इस तरह हमारे शिया भी दुन्या व आख़ेरत में कामयाब व स'आदत मंद होंगे!

 अल्लाह हुम्मा सल्ले अला मुहम्मा व आले मुहम्मद

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इस्लामी इंक़िलाब के अलम्बरदार इमाम खुमैनी (रआ) की तहरीक में साथ रहने मौलाना सैय्यद अली क़ासिम रिज़वी का निधन|

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इस्लामी इंक़िलाब के अलम्बरदार इमाम खुमैनी (रआ) की तहरीक में साथ रहने वाले और उनके उर्दू अनुवादक मौलाना सैय्यद अली क़ासिम रिज़वी का आज नजफ़ के अल हाकिम अस्पताल में निधन हो गया।

मौलाना अली क़ासिम अपनी दो बेटियों और बहन के साथ ज़ियारत के लिए इराक गए थे। लखनऊ के तहसीन गंज स्थित शाही जमा मस्जिद के इमाम मौलाना अली क़ासिम कल नजफ़ के होटल में लिफ्ट से चोट लग जाने के कारण ज़ख़्मी हो गए थे उनको प्राथमिक चिकित्सा के बाद होटल भेज दिया गया था।

सूत्रों के अनुसार आज उनको तेज़ दर्द होने की वजह से नजफ़ के अल हाकिम अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनका निधन हो गया। लगभग एक हफ्ते पूर्व उनकी बहन का निधन कर्बला में हुआ था।

मौलाना अली क़ासिम के पसमन्दगां में तीन बेटीयां और दो बेटे हैं। उनके निधन की खबर सुनते ही शिया क़ौम में शोक की लहर दौड़ गयी। मौलाना मंज़र सादिक़, मौलाना लियाक़त रज़ा, मौलाना मोहम्मद रज़ा समेत काफी तादाद में उलमा, दानिश्वर उनके घर पहुंच गए।  उनके बेटे को ताज़ियत पेश की।

मौलाना अली क़ासिम रिज़वी मरहूम के इसाल-ए-सवाब के लिए जामा मस्जिद में मजलिस -ए अज़ा और तजियति जलसे का आयोजन किया गया।  मौलाना को नजफ़ स्थित वादी उस सलाम क़ब्रिस्तान में सुपुर्द ए ख़ाक किया गया। मरहूम मौलाना अली क़ासिम की खुशनसीबी यह रही की बहन को कर्बला में दफ़न करने के बाद खुद नजफ़ ए अशरफ में स्थित वादी उस सलाम कबरिस्तान में जगह पा कर जवरहे-ए-मासूमीन में जगह पाने की तस्दीक कर दी।

वाज़ेह रहे मौलाना अली क़ासिम रिज़वी ने मज़हबी तालीम लखनऊ के सुल्तानुल मदारिस से सदरुल्लाह फ़ाज़िल किया था इसके बाद वह ईरान उच्च शिक्षा के लिए चले गए जहाँ पर उन्होंने इस्लामी क्रांति में इमाम खुमैनी का साथ देते हुए हिस्सा लिया और इमाम खुमैनी के उर्दू अनुवादक के तौर पर काम करते हुए अपना किरदार अदा किया। उसके बाद वह 1988 में लखनऊ आ गए और ज़हरा कॉलोनी मुफ्तीगंज में रहने लगे।  

अपने सादे और इन्क़िलाबी विचारों के लिए मौलाना अली क़ासिम ने कम वक़्त में ज़्यादा मक़बूलियत हासिल कर ली।




शिया ,सुन्नी एकता -मौलाना कल्बे जवाद

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शिया ,सुन्नी एकता समय की एहम ज़रूरत:मौलाना कल्बे जवाद 

मार्फतए इमामए ज़माना अ0स0 मुसलमानों के मतभेद के अंत का एकमात्र समाधान है
मजलिसए ओलमाये हिन्द में आयोजित संगोष्ठी में ओलमा ने जवानों को खिताब किया और कहा की  शिया व सुन्नी मतभेद साम्राज्यवाद की योजना है/

लखनऊ 26 मईः मजलिसए ओलमाये हिन्द द्वारा आयोजित और अहलेबैत कांसिल इंडिया के सहयोग से आज कार्यालय मजलिसए ओलमाये हिन्द में “मार्फतए इमामए जमाना अ0स0“ के विषय पर संगोष्ठी का आयोजन हुआ। संगोष्ठी में साप्ताहिक दीनी कलासेज़ में भाग ले रहे युवकों ने विशेष तौर पर भाग लिया और लखनऊ की वभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों, विद्वानों और अन्य गणमान्य अतिथि भी शरीक हुए ।


ईरान से आए मेहमान आलिम मौ0 षेहबाजियान ने संगोष्ठी में युवाओं को संबोधित करते हुये कहा कि “एक इस्लाम ए मोहम्मदी है और एक इस्लामए अमरिकाई है । इसलाम ए मोहम्मदी मानव कल्याण और शांति और एकता की दावत देता और इस्लाम अमरिकाई इस्लाम के नाम पर अराजकता, अज्ञान, कलह, लड़ाई, दंगे और बिदअतों का प्रचार करता है।उन्हो ने अपने संबोधन में अधिक कहा कि मस्जिदों को बड़ी संख्या में आबाद करना एहेम नहीं है ,इसलाम के दुश्मनों को उन मुसलमानों से कोई खतरा नहीं है जो केवल मस्जिदों को आबाद करने में जी-जान से लगे हुए है और समाज और समाज की समस्याओं से अनभिज्ञ हैं ।दुश्मन को खतरा है उन मुस्लिम युवकों से है जो इबादत और दीनी कर्तव्यों को अंजाम देने के साथ समाज व समाज की समस्याओं पर ध्यान करते हैं। क्योंकि इस्लाम स्वयं को बेहतर बनाने के साथ समाज कल्याण के लिए आया है।इस्लाम का मक्सद केवल नमाज़ें पढवाना और मस्जिदें आबाद करना नही है उसका उद्देश्य इन कामों के साथ समाज का उद्वार और इन्सानियत के लिये काम करना है। उन्होंने आगे अपने संबोधन में कहा कि आज युवा पीढ़ी के लिये अपनी जिम्मेदारी को समझना बहुत जरूरी है।इसलाम और अहलेबैत के नाम पर जिन रस्मों और मिथकों को इस्लाम मै दाखिल किया जा रहा है उनका विरोध करना और समाज को इन बुराइयों से बचाना बेहद जरूरी है। ऐसी रस्में और मिथकों से बचना चाहिए जिन्हें आज पश्चिमी मिडिया इस्लाम के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। और गैर मुस्लिम इस्लाम से बद सबसे अधिक होते जा रहे हैं।


उन्होंने आगे कहा कि शिया व सुन्नी एकता हर हाल में जरूरी है। जो अराजकता और कलह की बात करता है वह मुसलमान नहीं बल्कि दुश्मन का सहायक है।इमाम की गेबत के युग में हमें चाहिए कि एकता और शांति के लिए प्रयास करें इमाम ज़ैनुल आबेदीन की एक प्रार्थना है जो आपने सीमा रक्षकों के लिए प्रार्थना की है। यह कौन सा समय है कि जिस ज़माने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन सीमा रक्षकों यानी सैनिकों के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। क्या सीमा के सभी रक्षक केवल शिया थे? बल्कि सुनी, शिया और संभव है कि गैर मुस्लिम भी शामिल रहे हों ।शिया ासुन्नी मतभेद साम्राज्यवाद और इस्लाम दुषमनों की पुरानी योजना है। यह साजिश तभी विफल हो सकती है कि आपसी मेलजोल बढे़ और एकजुट होकर मिल्लत के विकास की कोशिश की जाए।


मजलिसए ओलमाये हिन्द के महासचिव मौलाना सैयद कल्बे जवाद नकवी ने मेहमानों का स्वागत करते हुए कहा कि जो बातें अतिथि आलिमों ने यहां प्रस्तुत की हैं उन पर विचार करें।आज षिया व सुन्नी एकता समय की मुख्य जरूरत है। ये मतभेद हमारी ताकत को खत्म कर देगा यह समझना चाहिए। मौलाना ने कहा कि अल्लाह ने यह दुनिया विनाश अनैतिकता के लिए नहीं बनाई है और न उसने कहीं विनाश और हिंसा के लिए आमंत्रित किया है। इसके पैगम्बरों और इमामों का उद्देश्य मानवता के कल्याण,विकास और समाज का बेहतर निर्माण था।
 इरानी आलिम आकाई मोहम्मद रजा नसुरी ने अपने संबोधन में कहा कि युवाओं के लिए आवश्यक है कि वे कुरान और इतरत की इच्छा के अनुसार कार्य करें और अपनी अनुभूति में जोड़ें ।अपने हर काम को बुद्धि और तर्क के पैमाने पर कसें और विचार करे कि क्या हमारा जीवन अनुसार कुरान और इतरत की मरजी के अनुसार है या नहीं। उन्होंने अपने बयान में कहा कि जब मनुष्य के स्तर मानसिक बुलंद होगी तब मनुष्य प्रत्येक संदेह और हर समस्या का जवाब खोज लेगा ।


संगोष्ठी के अंत में युवाओं ने अतिथि आलिमों से अलग अलग विषयों पर विभिन्न सवाल किए जिनके संतोषजनक उत्तर दिए गए। फ़ारसी से उर्दू में अनुवाद मौलाना इस्तेफा रजा ने कया  मेहमानों का परिचय मौलाना जलाल हैदर नकवी ने पेश किया ।विशेष रूप से भाग लेने वालों में मौलाना इब्ने अली वाइज़ मौलाना जलाल हैदर नकवी दिल्ली, मौलाना मोहम्मद तफजुल मौलाना नाज़िश अहमद, और कार्यक्रम के संयोजक आदिल फराज मौजूद रहे।






रमज़ान महीने की आज २१ तारीख़ है। सन ४० हिजरी क़मरी में ६३ वर्ष की आयु में हज़रत अली अलैहिस्सलाम शहीद हुए।

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रमज़ान महीने की आज २१ तारीख़ है। सन ४० हिजरी क़मरी में ६३ वर्ष की आयु में हज़रत अली अलैहिस्सलाम शहीद हुए।

सन चालिस हिजरी क़मरी में रमज़ान महीने की २१ तारीख़ को इब्ने मुल्जिम मुरादी नाम के अत्यंत क्रूर एवं रूढ़िवादी व्यक्ति ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर नमाज़ की हालत में प्राणघातक आक्रमण किया था जिसमें उनके पावन सिर पर घातक घाव लगा था और २१ रमज़ान को वे शहीद हो गये। इब्ने मुल्जिम मुरादी ने जिस तलवार से हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर हमला किया था वह विषयुक्त थी और वह मस्जिदे कूफ़ा में सुबह की नमाज़ पढ़ा रहे थे। जब उनके सिर के उपचार के लिए वैद्य को बुलाया गया तो वह घाव की गहराई व स्थिति को देखकर निराश हो गया।
अपनी शहादत से पहले हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया था मौत मेरे लिए बिना बुलाये मेहमान की तरह अपरिचित नहीं है, मेरा और मौत का उदाहरण उस प्यासे व्यक्ति की भांति है जो काफी समय के बाद पानी तक पहुंचा हो और उस व्यक्ति की भांति है जो खोई हुई मूल्यवान चीज़ को काफ़ी समय के बाद पा गया हो।“


हज़रत अली अलैहिस्सलाम जो मौत से इतना अधिक प्रेम करते थे उसकी वजह महान ईश्वर से गहरा प्रेम और ईमान था।

मूल रूप से जिस इंसान ने ईश्वरीय आदेश के अनुसार इस दुनिया में जीवन बिताया हो और परलोक की तैयारी कर ली हो वह मौत से न केवल डरेगा नहीं, बल्कि वह जल्द से जल्द अपने पालनहार से भेंट का प्रयास करेगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने पावन जीवन में सदैव यह दर्शा दिया कि उन्हें मौत से लेशमात्र भी भय नहीं है। जब पैग़म्बरे इस्लाम मक्का से मदीना पलायन करने वाले थे तो पलायन की रात हज़रत अली अलैहिस्सलाम किसी प्रकार के भय के बिना उनके बिस्तर पर सो गये जबकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भलिभांति पता था कि यह बहुत ही ख़तरनाक कार्य है परंतु उनके लिए महान ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करना और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही की जान की सुरक्षा महत्वपूर्ण थी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस महान परित्याग के बाद पवित्र क़ुरआन के सूरे बक़रा की २०७वीं आयत नाज़िल हुई थी जिसमें महान ईश्वर फ़रमाता है कुछ लोग ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपनी जानों को बेच देते हैं और ईश्वर अपने बंदों के प्रति बहुत कृपालु और दयावान है।“


ओहद नामक यद्ध में कुछ मुसलमानों ने लापरवाही बरती जिसकी वजह से अनेकेश्वादियों ने चारों ओर से मुसलमानों पर हमला कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा हज़रत हम्ज़ा सहित बहुत से मुसलमान योद्धा शहीद हो गये। उस युद्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम और कुछ मुसलमानों ने ही केवल पैग़म्बरे इस्लाम की रक्षा की और उन्हें शत्रुओं के हमलों से मुक्ति दिलाई। इस मध्य आसमान में हज़रत जिब्राईल की यह आवाज़ गूंजी कि अली के अलावा कोई जवान नहीं है और ज़ुलफ़ेक़ार के सिवा कोई तलवार नहीं है परंतु युद्ध के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जब यह देखा कि लगभग ७० मुसलमान शहीद हो गये हैं और वे शहीद नहीं हुए तो बहुत दुःखी हुए जबकि वे बहुत घायल हुए थे। पैग़म्बरे इस्लाम जब इस बात को समझ गये तो उन्होंने फरमाया तुम्हें मुबारक हो कि अंत में तुम शहीद होगे।“ कुछ समय के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने एक बार फ़िर ईश्वर के मार्ग में शहादत के प्रति व्याकुलता प्रकट की और पैग़म्बरे इस्लाम के वचन को याद दिलाया तो पैग़म्बरे इस्लाम ने बड़े ही कृपालु अंदाज़ में जवाब दिया  कि हां निश्चित रूप से ऐसा ही होगा परंतु बताओ मैं जानूं कि उस समय तुम्हारा धैर्य व प्रतिरोध कैसा होगा? हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उत्तर दिया ऐसा अवसर धैर्य का अवसर नहीं है बल्कि ख़ुशी का अवसर है।“


जैसाकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी शहादत से दो दिन पूर्व जब उन पर इब्ने मुल्जिम ने प्राण घातक हमला किया था कहा था” काबे के ईश्वर की क़सम मैं सफ़ल हो गया।“ जी हां हज़रत अली अलैहिस्सलाम महान ईश्वर के मार्ग में शहादत को सफलता समझते थे इस आधार पर वे शहादत से लेशमात्र भी नहीं डरते थे।

मौत के संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की केवल यहीं चिंता थी कि जब मौत आये तो वे सत्य के मार्ग पर रहें। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ अनुयाई ऐसे थे जो पैग़म्बरे इस्लाम के काल में मोमिन थे  और उन्होंने काफ़ी क़ुरबानियां भी दी थीं परंतु उनके स्वर्गवास के बाद उन्होंने दूसरा रास्ता अपनाया था परंतु पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को इस संदर्भ में भी संतोष दिलाया था। जैसाकि पैग़म्बरे इस्लाम ने रमज़ान के पवित्र महीने के आरंभ में इस महीने की श्रेष्ठता व विशेषता के बारे में एक ख़ुत्बा दिया था। उस समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने स्थान से उठे और उन्होंने पूछा हे ईश्वरीय दूत इस महीने में सबसे अच्छा क्या कार्य है? पैग़म्बरे इस्लाम ने उत्तर दिया तक़वा और अवैध व हराम कार्यों से दूरी परंतु जब उन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को देखा तो कोई और विषय याद आ गया जिससे वह दुःखी हो गये और उन्होंने विलाप किया।


हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम के दुःखी होने और रोने का कारण पूछा। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया हे अली! मेरे रोने का कारण वह अत्याचार है जो तुम पर इस महीने में किया जायेगा। मानो मैं तुम्हें देख रहा हूं कि तुम नमाज़ पढ़ रहे हो और अतीत एवं भविष्य में सबसे दुर्भाग्यशाली जो समूद जाति के ऊंट के हत्यारे का भाई है, तुम्हारे सिर पर तलवार मारेगा कि तुम्हारी दाढ़ी उसकी चोट के ख़नू से रंगीन हो जायेगी।“
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने किसी प्रकार की परेशानी के बिना केवल इतना पूछा क्या उस समय मेरा धर्म सुरक्षित रहेगा? उस समय पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को सुन्दर वाक्य के साथ अपने उत्तराधिकारी के रूप में याद किया।


पैग़म्बरे इस्लाम ने बारम्बार हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत की शुभसूचना दी थी इसलिए वे सदैव महान ईश्वर के मार्ग में शहादत की प्रतीक्षा में थे और अपने जीवन के अंतिम समय में इस प्रकार अमल करते थे कि मानो जानते थे कि प्रतीक्षा की लंबी घड़ी समाप्त होने वाली है परंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम शहादत का शौक रखने के बावजूद सांसारिक कार्यों को अंजाम देने में किसी प्रकार की कमी से काम नहीं लेते थे और इन कार्यों को महान ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने का कारण समझते थे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस बारे में अपना दृष्टिकोण इस प्रकार बयान करते हैं उस व्यक्ति को मैं पसंद नहीं करता हूं जो सांसारिक कार्यों को अंजाम देने में आलस्य से काम लेता और उसकी उपेक्षा करता है क्योंकि जो अपने सांसारिक जीवन के प्रति इस प्रकार है वह अपने परलोक के जीवन में अधिक आलस्य से काम लेगा और सांसारिक कार्यों की अधिक उपेक्षा करेगा।“
इस आधार पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम  सांसारिक कार्यों को अंजाम देने में सफल रहे। उन्होंने बहुत सी ज़मीनों को आबाद किया और विभिन्न कुएं खोदे और उन्होंने कभी भी इस प्रकार के कार्यों को अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध नहीं समझा। प्रसिद्ध सुन्नी विद्वान इब्ने अबिल हदीद इस बारे में इस प्रकार लिखता है” वह अपने हाथों से कार्य करते थे। सदैव खेती करते और ज़मीन की सिंचाई करते थे। खजूर का पेड़ लगाते थे और ज़मीन को आबाद करने के बाद उसे निर्धनों को वक़्फ़ कर देते थे।“


इसी प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने बहुत कुएं खोदे और कुएं खोदने के बाद उन्हें मुसलमानों को वक़्फ़ कर देते थे। इस प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम इन कार्यों के माध्यम से काफ़ी धन कमा सकते थे परंतु वे निर्धनों को दान कर देते थे। दूसरे शब्दों में अपने इन कार्यों के माध्यम से अपने परलोक को भी आबाद करते थे।

विदित में केवल पांच वर्षों तक हज़रत अली अलैहिस्सलाम ख़लीफ़ा थे परंतु इस दौरान उन्होंने बंदगी और ईश्वरीय आदेशों के पालन को चरम शिखर पर पहुंचा दिया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने ख़िलाफ़त को इसलिए स्वीकार किया कि वह कमज़ोरों के अधिकारों को दिलाने और न्याय स्थापित करने का माध्यम है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने ख़िलाफ़त स्वीकार करने के बाद कमज़ोरों को उनके अधिकार दिलाने और न्याय स्थापित करने की दिशा में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं लिया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जब अपनी ख़िलाफत के दौरान इन उद्देश्यों को व्यवहारिक बनाने के लिए प्रयास आरंभ कर दिया तो जिन लोगों ने अपने हितों को ख़तरे में देखा वे उनके विरोधी हो गये परंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने किसी प्रकार के भय के बिना विशिष्टता चाहने वालों, अवसरवादियों और रुढ़िवादियों का डटकर मुक़ाबला किया। अंततः इन्हीं रूढ़िवादियों में से एक ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को कूफ़ा की मस्जिद में सुबह की नमाज़ पढ़ाते समय शहीद कर दिया।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की विशेषताओं एवं सदगुणों के बारे में मुसलिम और ग़ैर मुसलिम विद्वानों ने बहुत कुछ कहा व लिखा है परंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ज्येष्ठ सुपुत्र हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने जो कहा है वह सबसे अधिक सुन्दर व अच्छा है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम को दफ़्न करने के बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम लोगों के मध्य आये और ऐसी स्थिति में मिम्बर पर गये कि उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे और कहा जो रात गुज़री है इस संसार से ऐसा व्यक्ति चला गया जो इस्लाम के अग्रणी लोगों में से थे और पैग़म्बरे इस्लाम के अलावा कोई भी उससे आगे नहीं था। उसने पैग़म्बरे इस्लाम के साथ मिलकर जेहाद किया और पैग़म्बरे इस्लाम की पताका को ऐसी स्थिति में अपने कांधों पर उठाया कि जिब्रईल और मीकाईल उनका साथ दे रहे थे। वह व्यक्ति ऐसी रात में दुनिया से चला गया जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम पर क़ुरआन उतरा था और ईसा बिन मरियम आसमान पर गये और यूशा बिन नून शहीद हुए। मेरे पिता ने इस दुनिया में दिरहम व दीनार नहीं छोड़े है मगर सात सौ दिरहम जो उन्होंने परिवार के लिए छोड़ा है।“



विशव कुद्वस दिवस और जुम्मातुल विदा ..कल्ब ए जव्वाद

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विश्व कुद्स दिवस के अवसर पर किबला ए अव्वल को दुबारा पाने के लिये और फिलिसतिनियों के समर्थन में इजरायली आतंकवाद के खिलाफ आसफि मस्जिद से एक अज़ीमुश्शान जुलूस निकला
लखनऊ ३० जून  : मुसलमानो  के पहले किबले की हिफाजत और दोबार पाने के लिये,फिलिस्तीन में जारी इजरायली आतंकवाद और महिलाओं, बच्चों और जवानों के नरसंहार के खिलाफ अलविदा की नमाज के बाद आसफि मसजिद से एहतेजाजी जुलूस निकल कर बडा इमामबाडा के बाहर सडक ता आया।प्रदर्शन  में मौजूद प्रदर्शनकारियों ने अपने पहले किबले को दोबारा पाने के लिए और फिलिस्तीनियों के समर्थन में इजरायल आतंकवाद के खिलाफ नारे लगाये।प्रदर्शनकारी  हाथों में इजरायल और अमेरिका विरोधी नारों की तखतियाँ लिये थे । प्रदरशनकारी ऊंची आवाज में नारे लगा रहे थे कि इजरायली उत्पादों  का बहिष्कार किया जाए और उन पर प्रतिबंध लगाया जाए।

इमामबाड़े के द्वार पर प्रदर्शनकारियों को खिताब करते हुए मजलिसए ओलमाये हिन्द के महासचिव इमामे जुमा मौलाना सैयद कल्बे जवाद नकवी ने कहा कि आज भी इस्राएल का अस्तित्व इस धरती  से मिट सकता है साथ ही फिलिस्तीनियों को उनके अधिकार फिर से मिल सकते हैं और बैतुलमुकद्दस  को दोबारा  हासिल करना संभव है मगर शर्त यह है कि मुस्लिम विश्व स्तर पर एकजुट हो जाएं। मौलाना ने इजरायली सरकार के गठन और अरब देशों की कायरता भरी चुप्पी पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए कहा कि इजरायली सरकार का गठन मुसलमानों की अपसी नाइत्ेफाकी और अरब देशों की कायरता और इस्लाम के साथ गद्दारी के आधार पर अस्तित्व में आया था। मुसलमानों के इतने देश मौजूद हैं मगर सब मुसलमानों के नरसंहार पर चुप हैं। इन देशों को अल्लाह पर भरोसा नहीं है उन्हें इजरायल और अमेरिका पर भरोसा है यही उनकी बदनामी और हार का रहस्य है । किबलाए अव्वल बेतू उल मुकद्वस का अस्तित्व खतरे में है मगर यह मुस्लिम देश इतने बेहया और बेगेरत हैं कि कभी किबलाए अव्वल को दोबार हासिल करने की कोशिश नहीं की। जहां भी इस संबंध में प्रदर्शन होते हैं वे जनता की ओर से होते है।यह विरोध प्रदरशन भी ईरान मै इस्लामी क्रांति के बानी आयातु उलाह खुमैनी के प्रयासों का परिणाम हैं। उन्होंने ही ‘‘ विशव कुद्वस दिवस ‘‘मनाने की हिदायत की थी जो आज पूरी दुनिया में मनाया जाता है ा एतिहास में मौजूद है कि एक बार इस इजरायल के इलाके से हजरत अली अ0स0 का गुजरना हुआ था ,आप ने इरशाद फरमाया कि इस धरती पर एक दिन यहूदियों की सरकार स्थापित होगी और मुस्लिम सरकारें इससे टकरा टकरा कर हार का सामना करें गी। जब सारे मुसलमान एकजुट होकर इस यहूदी सरकार का मुकाबला करें गे तब वह सरकार समाप्त होगी।इस लिये यहूदियों की पूरी कोशिश यही है कि मुसलमान एकजुट न हो सकें और वो अपनी इस साजिश में सफल हैं।मुसलमान अब मुसलमान का खून बहा रहा है यह उन्हीं की साजिश का नतीजा है। मुसलमान मौलवियों को खरीदा जाता है, नेताओं को खरीदा जाता है और उनका काम इस्राएली योजनाओं के अनेसार काम करना होता है।मुसलमान हजरत अली अ0स0 के दृश्य का पालन नहीं कर रहे हैं मगर इसराईल पूरी तरह पालन कर रहा कि मुसलमानों में एकता न हो। ऐसी संगठन बनाये जा रहे हैं जो मुसलमानों की हत्या कर रहे हैं, मुसलमान मौलवी इनका साथ देते हैं। भारत में भी ऐसे मौलवी मौजूद हैं। मीडिया को उसने खरीदा रखा है जो आइर्0एस0 और तालिबान के जुल्म को हल्का करके पेश करते हैं।

हकीमए उम्मत डॉक्टर सैयद कल्बे सादिक ने अपने संबोधन में कहा कि मुसलमानों को एक दूसरे से बचने की जरूरत नहीं है बल्कि उनका दुश्मन खुद मुसलमान है। चाहे सऊदी अरब हो या कोई दूसरी मुसलमान सरकार हो। मौलाना ने इसा एक उदाहरण पेश करते हुए कहा कि बिल्ली अपने बच्चों के लिए भेडिये़ या किसी दूसरे जानवर से नहीं डरती  बल्कि वह बिल्ले से ही सब से जियादा डरती है इसी तरहा मुसलमानों को भी किसी दूसरे से भयभीत होने की जरूरत नहीं है बल्कि सबसे बड़ा बिल्ल सउदी अरब ही उनका दुश्मन है। उन्होंने कहा कि इमाम खुमैनी के निमंत्रण पर पूरी दुनिया मै एक ही दिन कुदस दिवस मनाया जाता तो कोई भी मुसलमान इस विरोध में चुप नहीं रहे गा।
प्रदर्शन के अंत में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नाम भेजा जाने वाला ज्ञापन मौके पर ए0सी0एम 2मौजूद दिया गया ।साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय भी ज्ञापन ईमेल किया गया । ज्ञापन की एक प्रति संयुक्त राष्ट्र कार्यालय भी भेजी गई ।प्रदरशन के दौरान अमेरिका और इजरायल का झंडा भी जलायाा गया।
इस प्रदर्शन में मौलाना इफ्तिखार हुसैन इन्कलिाबी मौलाना रजा हुसैन, मौलाना फिरोज हुसैन, मौलाना तसनीम महदी मौलाना शबाहत हुसैन, मौलाना सरकार हुसैन, और अन्य ओलमा ने भाग लिया।प्रगराम का संचालन अदिल फराज ने किया।
ज्ञापन
विशव कुद्वस दिवस के अवसर पर मजलिसे ओलमाए हिन्द द्वारा आयोजित प्रदरशन मै प्रदरशनकारियों ने निमलिखित मांगें संयुक्त राष्ट्र और भरतिय प्रधानमंत्री जी के सामने रखी है।प्रदरशन मै हजारों प्रदरशनकारियों और ओलमा ने उम्मीद जतायी है के प्रधानमंत्री जी और युक्त राष्ट्र इन मांगों को संजीदगी से लेंगें और कारवाई की हर मुमकिन कोशिश की जाये गी।
मांगों
1। गाजा पट्टी पर जारी इजरायली आक्रामकता और बर्बरता को तुरंत समाप्त किया जाए और घेरे को उठाया जाए।
2। भारत सरकार फिलिस्तीन की वित्तीय सहायता करे ताकि इजरायली बमबारी में नष्ट फिलिस्तीनी अपने घरों का पुनर्निर्माण कर सकें।
3। इसराइल, सऊदी सरकार, बहरीन सरकार और नाइजीरिया की सरकार पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के अपराध मै अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाया जाए और उनकी सरकारों पर आतंकवाद को बढ़ावा देने के जुर्म में प्रतिबंध लगाया जाए।
4। भारत की नीति हमेशा फिलिस्तीन समर्थक रही है इस लिये भारत सरकार इजराइल से संबंधित अपनी विदेश नीति पर पुनर्विचार करे।
5। किबलाए अव्वल बेत उल मुकद्वस मुसलमानों की धार्मिक पवित्र जगह है इसलिए किबलाए अव्वल को मुसलमानों के हवाले किया जाए। इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र के साथ भारत सरकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
6। बहरीन में शिया धार्मिक नेता अयातुल्ला शेख ईसा कासिम को निराधार आरोपों के तहत कैद किया गया है और उनकी नागरिकता को रद्व कर दिया गया है इस संबंध में उचित कार्रवाई की जाए।साथ ही अयातुल्ला जकजाकी की रिहाई को सुनिश्चित बनाया जाए।





इमाम हुसैन का भारतप्रेम और -रिखब दत्त का महान बलिदान |

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यह एक सर्वमान्य सत्य है कि इतिहास को दोहराया नहीं जा सकता है और न बदलाया जा सकता है ,क्योंकि इतिहास कि घटनाएँ सदा के लिए अमिट हो जाती है .लेकिन यह भी सत्य है कि विज्ञान कि तरह इतिहास भी एक शोध का विषय होता है .क्योंकि इतिहास के पन्नों में कई ऐसे तथ्य दबे रह जाते हैं ,जिनके बारे में काफी समय के बाद पता चलता है .ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना हजरत इमाम हुसैन के बारे में है वैसे तो सब जानते हैं कि इमाम हुसैन मुहम्मद साहिब के छोटे नवासे ,हहरत अली और फातिमा के पुत्र थे .और किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं ,उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबें मिल जाएँगी .काफी समय से मेरे एक प्रिय मुस्लिम मित्र हजरत इमाम के बारे में कुछ लिखने का आग्रह कर रहे थे ,तभी मुझे अपने निजी पुस्तक संग्रह में एक उर्दू पुस्तक "हमारे हैं हुसैन " की याद आगई ,जो सन 1960 यानि मुहर्रम 1381 हि० को इमामिया मिशन लखनौउसे प्रकाशित हुई थी .इसकी प्रकाशन संख्या 351 और लेखक "सय्यद इब्न हुसैन नकवी "है .इसी पुस्तक के पेज 11 से 13 तक से कुछ अंश लेकर ,उर्दू से नकवी जी के शब्दों को ज्यों का त्यों दिया जा रहा , जिस से पता चलता है कि इमाम हुसैन ने भारत आने क़ी इच्छा प्रकट क़ी थी (.फिर इसके कारण संक्षिप्त में और सबूत के लिए उपलब्ध साइटों के लिंक भी दिए जा रहे हैं .)
 1-इमाम क़ी भारत आने क़ी इच्छा 
नकवी जी ने लिखा है "हजरत इमाम हुसैन दुनियाए इंसानियत में मुहसिने आजम हैं,उन्होंने तेरह सौ साल पहले अपनी खुश्क जुबान से ,जो तिन रोज से बगैर पानी में तड़प रही थी ,अपने पुर नूर दहन से से इब्ने साद से कहा था "अगर तू मेरे दीगर शरायत को तस्लीम न करे तो , कम अज कम मुझे इस बात की इजाजत दे दे ,कि मैं ईराक छोड़कर हिंदुस्तान चला जाऊं"
नकवी आगे लिखते हैं ,"अब यह बात कहने कि जरुरत नहीं है कि ,जिस वक्त इमाम हुसैन ने हिंदुस्तान तशरीफ लाने की तमन्ना का इजहार किया था ,उस वक्त न तो हिंदुस्तान में कोई मस्जिद थी ,और न हिंदुस्तान में मुसलमान आबाद थे .गौर करने की बात यह है कि,इमाम हुसैन को हिंदुस्तान की हवाओं में मुहब्बत की कौन सी खुशबु महसूस हुई थी ,कि उन्होंने यह नहीं कहा कि मुझे चीन जाने दो ,या मुझे ईरान कि तरफ कूच करने दो ..उन्होंने खुसूसियत से सिर्फ हिंदुस्तान कोही याद किया था 
गालिबन यह माना जाता है कि हजरत इमाम हुसैन के बारे में हिन्दुस्तान में खबर देने वाला शाह तैमुर था .लेकिन तारीख से इंकार करना नामुमकिन है .इसलिए कहना ही पड़ता है कि इस से बहुत पहले ही "हुसैनी ब्राह्मण "इमाम हुसैन के मसायब बयाँ करके रोया करते थे .और आज भी हिंदुस्तान में उनकी कोई कमी नहीं है .यही नहीं जयपुर के कुतुबखाने में वह ख़त भी मौजूद है जो ,जैनुल अबिदीन कि तरफ से हिन्दुतान रवाना किया गया था .
इमाम हुसैन ने जैसा कहा था कि ,मुझे हिंदुस्तान जाने दो ,अगर वह भारत की जमीन पर तशरीफ ले आते तो ,हम कह नहीं सकते कि उस वक्त कि हिन्दू कौम उनकी क्या खिदमत करती"
2-इमाम हुसैन की भारत में रिश्तेदारी 
इस्लाम से काफी पहले से ही भारत ,इरान ,और अरब में व्यापार होता रहता था .इस्लाम के आने से ठीक पहले इरान में सासानी खानदान के 29 वें और अंतिम आर्य सम्राट "यज्देगर्द (590 ई ) की हुकूमत थी .उस समय ईरान के लोग भारत की तरह अग्नि में यज्ञ करते थे .इसी लिए "यज्देगर्द"को संस्कृत में यज्ञ कर्ता भी कहते थे .
प्रसिद्ध इतिहासकार राज कुमार अस्थाना ने अपने शोधग्रंथ "Ancient India "में लिखा है कि सम्राट यज्देगर्द की तीन पुत्रियाँ थी ,जिनके नाम मेहर बानो , शेहर बानो , और किश्वर बानो थे .यज्देगर्द ने अपनी बड़ी पुत्री की शादी भारत के राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय से करावा दी थी .जिसकी राजधानी उज्जैन थी ..और राजा के सेनापति का नाम भूरिया दत्तथा .जिसका एक भाई रिखब दत्त व्यापर करता था . .यह लोग कृपा चार्य के वंशज कहाए जाते हैं .चन्द्रगुप्त ने मेहर बानो का नाम चंद्रलेखा रख दिया था .क्योंकि मेहर का अर्थ चन्द्रमा होता है ..राजाके मेहर बानो से एक पुत्र समुद्रगुप्त पैदा हुआ .यह सारी घटनाएँ छटवीं शताब्दी की हैं
. यज्देगर्द ने दूसरी पुत्री शेहर बानो की शादी इमाम हुसैन से करवाई थी . और उस से जो पुत्र हुआ था उसका नाम "जैनुल आबिदीन " रखा गया .इस तरह समुद्रगुप्त और जैनुल अबिदीन मौसेरे भाई थे .इस बात की पुष्टि "अब्दुल लतीफ़ बगदादी (1162 -1231 ) ने अपनी किताब "तुहफतुल अलबाब "में भी की है .और जिसका हवाला शिशिर कुमार मित्र ने अपनी किताब "Vision of India " में भी किया है .
3-अत्याचारी यजीद का राज 
इमाम हुसैन के पिता हजरत अली चौथे खलीफा थे . और उस समय वह इराक के शहर कूफा में रहते थे . हजरत prm अली सभी प्रकार के लोगों से प्रेमपूर्वक वर्ताव करते थे . उन के कल में कुछ हिन्दू भी वहां रहते थे .लेकिन किसी पर भी इस्लाम कबूल करने पर दबाव नहीं डाला जाता था .ऐसा एक परिवार रिखब दत्त का था जो इराक के एक छोटे से गाँव में रहता था ,जिसे अल हिंदिया कहा जाता है . जब सन 681 में हजरत अली का निधन हो गया तो , मुआविया बिन अबू सुफ़यान खलीफा बना . वह बहुत कम समय तक रहा .फउसके बाद उसका लड़का यजीद सन 682 में खलीफा बन गया . यजीद एक अय्याश , अत्याचारी . व्यक्ति था .वह सारी सत्ता अपने हाथों में रखना चाहता था .इसलिए उसने सूबों के सभी अधिकारीयों को पत्र भेजा और उनसे अपने समर्थन में बैयत ( oth of allegience ) देने पर दबाव दिया .कुछ लोगों ने डर या लालच के कारण यजीद का समर्थन कर दिया . लेकिन इमाम हुसैन ने बैयत करने से साफ मना कर दिया .यजीद को आशंका थी कि यदि इमाम हुसैन भी बैयत नहीं करेंगे तो उसके लोग भी इमाम के पक्ष में हो जायेंगे .यजीद तो युद्ध कि तय्यारी करके बैठा था .लेकिन इमाम हुसैन युद्ध को टालना चाहते थे ,यह हालत देखकर शहर बानो ने अपने पुत्र जैनुल अबिदीन के नाम से एक पत्र उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त को भिजवा दिया था .जो आज भी जयपुर महाराजा के संग्राहलय में मौजूद है .बरसों तक यह पत्र ऐसे ही दबा रहा ,फिर एक अंगरेज अफसर Sir Thomas Durebrught ने 26 फरवरी 1809 को इसे खोज लिया और पढ़वाया ,और राजा को दिया , जब यह पत्र सन 1813 में प्रकाशित हुआ तो सबको पता चल गया . 
उस समय उज्जैन के राजा ने करीब 5000 सैनिकों के साथ अपने सेनापति भूरिया दत्त को मदीना कि तरफ रवाना कर दिया था .लेकिन इमाम हसन तब तक अपने परिवार के 72 लोगों के साथ कूफा कि तरफ निकल चुके थे ,जैनुल अबिदीन उस समय काफी बीमार था ,इसलिए उसे एक गुलाम के पास देखरेख के लिए छोड़ दिया था .भूरिया दत्त ने सपने भी नहीं सोचा होगा कि इमाम हुसैन अपने साथ ऐसे लोगों को लेकर कुफा जायेंगे जिन में औरतें , बूढ़े और दुधापीते बच्चे भी होंगे .उसने यह भी नहीं सोचा होगा कि मुसलमान जिस रसूल के नाम का कलमा पढ़ते हैं उसी के नवासे को परिवार सहित निर्दयता से क़त्ल कर देंगे .और यजीद इतना नीच काम करेगा . वह तो युद्ध की योजना बनाकर आया था . तभी रस्ते में ही खबर मिली कि इमाम हुसैन का क़त्ल हो गया . यह घटना 10 अक्टूबर 680 यानि 10 मुहर्रम 61 हिजरी की है .यह हृदय विदारक खबर पता चलते ही वहां के सभी हिन्दू( जिनको आजकल हुसैनी ब्राहमण कहते है ) मुख़्तार सकफी के साथ इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने को युद्ध में शामिल हो गए थे .इस घटना के बारे में "हकीम महमूद गिलानी"ने अपनी पुस्तक "आलिया "में विस्तार से लिखा है 
4-रिखब दत्त का महान बलिदान 
कर्बला की घटना को युद्ध कहना ठीक नहीं होगा ,एक तरफ तिन दिनों के प्यासे इमाम हुसैन के साथी और दूसरी तरफ हजारों की फ़ौज थी ,जिसने क्रूरता और अत्याचार की सभी सीमाएं पर कर दी थीं ,यहाँ तक इमाम हुसैन का छोटा बच्चा जो प्यास के मारे तड़प रहा था , जब उसको पानी पिलाने इमाम नदी के पास गए तो हुरामुला नामके सैनिक ने उस बच्चे अली असगर के गले पर ऐसा तीर मारा जो गले के पार हो गया . इसी तरह एक एक करके इमाम के साथी शहीद होते गए .
और अंत में शिम्र नामके व्यक्ति ने इमाम हुसैन का सी काट कर उनको शहीद कर दिया , शिम्र बनू उमैय्या का कमांडर था . उसका पूरा नाम "Shimr Ibn Thil-Jawshan Ibn Rabiah Al Kalbi (also called Al Kilabi (Arabic: شمر بن ذي الجوشن بن ربيعة الكلبي) था. यजीद के सैनिक इमाम हुसैन के शरीर को मैदान में छोड़कर चले गए थे .तब रिखब दत्त ने इमाम के शीश को अपने पास छुपा लिया था .यूरोपी इतिहासकार रिखब दत्त के पुत्रों के नाम इस प्रकार बताते हैं ,1सहस राय ,2हर जस राय 3,शेर राय ,4राम सिंह ,5राय पुन ,6गभरा और7 पुन्ना .बाद में जब यजीद को पता चला तो उसके लोग इमाम हुसैन का सर खोजने लगे कि यजीद को दिखा कर इनाम हासिल कर सकें . जब रिखब दत्त ने शीश का पता नहीं दिया तो यजीद के सैनिक एक एक करके रिखब दत्त के पुत्रों से सर काटने लगे ,फिर भी रिखब दत्त ने पता नहीं दिया .सिर्फ एक लड़का बच पाया था . जब बाद में मुख़्तार ने इमाम के क़त्ल का बदला ले लिया था तब विधि पूर्वक इमाम के सर को दफनाया गया था .यह पूरी घटना पहली बार कानपुर में छपी थी .story had first appeared in a journal (Annual Hussein Report, 1989) printed from Kanpur (UP) .The article ''Grandson of Prophet Mohammed (PBUH

रिखब दत्त के इस बलिदान के कारण उसे सुल्तान की उपाधि दी गयी थी .और उसके बारे में "जंग नामा इमाम हुसैन "के पेज 122 में यह लिखा हुआ है ,"वाह दत्त सुल्तान ,हिन्दू का धर्म मुसलमान का इमान,आज भी रिखब दत्त के वंशज भारत के अलावा इराक और कुवैत में भी रहते हैं ,और इराक में जिस जगह यह लोग रहते है उस जगह को आज भी हिंदिया कहते हैं यह विकी पीडिया से साबित है 
Al-Hindiya or Hindiya (Arabic: الهندية‎) is a city in Iraq on the Euphrates River. Nouri al Maliki went to school there in his younger days. Al-Hindiya is located in the Kerbala Governorate. The city used to be known as Tuwairij (Arabic: طويريج‎), which gives name to the "Tuwairij run" (Arabic: ركضة طويريج‎) that takes place here every year as part of the Mourning of Muharram on the Day of Ashura.
http://en.wikipedia.org/wiki/Hindiya

तबसे आजतक यह हुसैनी ब्राह्मण इमाम हुसैन के दुखों को याद करके मातम मनाते हैं .लोग कहते हैं कि इनके गलों में कटने का कुदरती निशान होता है .यही उनकी निशानी है .
5-सारांश और अभिप्राय 
यद्यपि मैं इतिहास का विद्वान् नहीं हूँ ,और इमाम हुसैन और उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबे लिखी जा सकती हैं ,चूँकि मुझे इस विषय पर लिखने का आग्रह मेरे एक दोस्त ने किया था ,इसलिए उपलब्ध सामग्री से संक्षिप्त में एक लेख बना दिया था , मेरा उदेश्य उन कट्टर लोगों को समझाने का है ,कि जब इमाम हुसैन कि नजर में भारत एक शांतिप्रिय देश है ,तो यहाँ आतंक फैलाकर इमाम की आत्मा को कष्ट क्यों दे रहे हैं .भारत के लोग सदा से ही अन्याय और हिंसा के विरोधी और सत्य के समर्थक रहे हैं .इसी लिए अजमेर की दरगाह के दरवाजे पार लिखा है ,
"शाहास्त हुसैन बदशाहस्त हुसैन ,दीनस्त हुसैन दीं पनाहस्त हुसैन 
सर दाद नादाद दस्त दर दस्ते यजीद ,हक्का कि बिनाये ला इलाहस्त हुसैन "
इतिहास गवाह है कि अत्याचार से सत्य का मुंह बंद नहीं हो सकता है ,वह दोगुनी ताकत से प्रकट हो जाता है ,जैसे कि ,
"कत्ले हुसैन असल में मर्गे यजीद है "

इमाम ऐ ज़माना (अ.स) के ज़हूर ना होने की एक वजह ये भी है |

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इमाम ऐ  ज़माना  (अ.स) के  ज़हूर  की  दुआ  बिना  तैयारी  के कोई मायने नहीं  रखती  और तैयारी  ऐसी  हो  की  हमारा  मकसद  समाज  में  अच्छाइयों को बढ़ाना और बुराइयों से  लोगों को  रोकना होना चाहिए और इन सबका मकसद अल्लाह के दीं की हिफाज़त  करना और उसे बढ़ाना हो | 

इमाम सादिक़ अ. के ज़माने के बादशाहों के विरुद्ध होने वाले अक्सर आंदोलनों में इमाम सादिक़ अ. की मर्ज़ी शामिल नहीं थी। और आप  अहलेबैत अलैहिस्सलाम की शिक्षाओं को प्रचलित करने को प्राथमिकता देते थे। इसलिए चूँकि वह लोग जो बनी हाशिम को आंदोलन के लिए उकसाते थे और उनकी मदद का वादा करते थे सबके सब या उनमें से अधिकतर समय के हाकिमों की हुकूमत को पसन्द नहीं करते थे या हुकूमत को अपने हाथ में लेना चाहते थे और हरगिज़ बिदअत को मिटाना और अल्लाह के दीन को प्रचलित करना या पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत की सहायता उनका उद्देश्य नहीं था।

लेकिन कभी कभी सच्चाई यहाँ तक कि इमाम के ख़ास शियों के लिए भी संदिग्ध हो जाती थी और इमाम सादिक़ अ. से आंदोलन में शामिल होने की अपील करने लगते थे|

कुलैनी र.अ. ने सुदैरे सहरफ़ी के हवाले से लिखा है: मैं इमाम सादिक़ अ. के पास गया और उनसे कहा ख़ुदा की क़सम जाएज़ नहीं है कि आप आंदोलन न करें! क्यों? इसलिए कि आपके दोस्त शिया और मददगार बहुत ज़्यादा हैं। अल्लाह की क़सम अगर अली अ. के शियों और दोस्तों की संख्या इतनी ज़्यादा होती तो कभी भी उनके हक़ को न छीना जाता। इमाम अ. ने पूछा सुदैर उनकी संख्या कितनी है? सुदैर ने जवाब दिया एक लाख। इमाम ने फ़रमाया एक लाख? सुदैर ने कहा जी बल्कि दो लाख। इमाम ने आश्चर्य से पूछा दो लाख? सुदैर ने कहा जी दो लाख बल्कि आधी दुनिया आपके साथ है।


इमाम ख़ामोश हो गए सुदैर कहते हैं कि इमाम उठ खड़े हुए मैं भी उनके साथ चल पड़ा रास्ते में बकरी के एक झुँड के बग़ल से गुज़र हुआ इमाम सादिक़ अ. ने फ़रमाया   :- 
ऐ सुदैर अल्लाह की क़सम अगर इन बकरियों भर भी हमारे शिया होते तो आंदोलन न करना मेरे लिए जाएज़ नहीं था फिर हमने वहीं पर नमाज़ पढ़ी और नमाज़ के बाद हमने बकरियों को गिना तो उनकी संख्या 17 से ज़्यादा नहीं थी। (यानी सच्चे शियों और इमाम सादिक़ अ. के जमाने के हबीब इब्ने मज़ाहिर जैसे दोस्तों की संख्या 17 भी नहीं थी।) अल -काफ़ी जिल्द 2 पेज 243

इसलिए अम्र  बिल मारूफ  व नहया अनिल  मुनकर  करते  रहे और इमाम ऐ  ज़माना  (अ.स) के ज़हूर की दुआ करें दिल से | इंशाल्लाह जल्द  से जल्द  ज़हूर  होगा और हमारी  परेशानियां ख़त्म होंगी |




अली है नाम लक़ब जिसका सीस्तानी है

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अली है नाम लक़ब जिसका सीस्तानी है 
अली का शहर नजफ़ उसे राजधानी है 

फकीह है और इमामे  जुमा का नासिर भी 
वही जो इब्ने मज़ाहिर का आज सानी है 

बस एक फतवे से दाईश को कर दिया जो 
लहू में उसके जईफ़ी में भी जवानी है 

कि जिसने मुल्क को फिरकों में टूटने ना दिया 
ये उसके इल्म औ फिरासत कि एक निशानी है 

कलम की नोक से जो सम्राज को कुचला 
क़लम में बूढ़े मुजाहिद के वो रवानी है 

कहे है जिसको नसारा अमन का पैग़म्बर
गुजारी जिसने इताअत में जिंदगानी है 

जहां में कौम वो जिंदा रहेगी जिसने जरी 
हर एक गौर में रहबर की बात मानी है |


.......जरी अब्बास 



आदमी को आदमी से प्यार करना चाहिए, ईद क्या है एकता का एक हसीं पैगाम है।

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सभी लोगों को ईद की मुबारकबाद के साथ मैं सबसे पहले मशहूर शायर कामिल जौनपुरी के इन शब्दों को आप सभी तक पहुंचाना चाहूँगा |

मैखान-ए-इंसानियत की सरखुशी, ईद इंसानी मोहब्बत का छलकता जाम है।
आदमी को आदमी से प्यार करना चाहिए, ईद क्या है एकता का एक हसीं पैगाम है।

मशहूर शायर कामिल जौनपुरी

माहे रमजान में पूरे महीने हर मुसलमान रोज़े रखता है और इन रोजो में गुनाहों से खुद को दूर रखता है | पूरे महीने अल्लाह की इबादत के बाद जब ईद का चाँद नज़र आता है तो सारे मुसलमानों के चेहरे पे एक ख़ुशी नज़र आने लगती है | क्यूँ की यह ईद का चाँद बता रहा होता है की कल ईद की नमाज़ के बाद अल्लाह उनकी नेकियों को कुबूल करेगा और गुनाहों को धोने का एलान फरिश्तों से करवाएगा | चाँद देखते ही अल्लाह का हुक्म है ठहरो ख़ुशी की तैयारी करने से पहले गरीबों के बारे में सोंचो और सवा तीन किलो अन्न के बराबर रक़म परिवार के हर इंसान के नाम से निकालो और फ़ौरन गरीबों को दे दो जिस से उनके घरों में भी ईद वैसे ही मनाई जाए जैसे आपके घरों में मनाई जाएगी | यह रक़म निकाले बिना ईद की नमाज़ अल्लाह कुबूल नहीं करता | इस रक़म को फितरा कहते हैं जिसपे सबसे अहले आपके अपने गरीब रिश्तेदार , फिर पडोसी, फिर समाज का गरीब और फिर दूर के रोज़ेदार का हक़ होता है|

बच्चों की ईद इसलिए सबसे निराली होती है क्योंकि उन्हें नए-नए कपड़े पहनने और बड़ों से ईदी लेने की जल्दी होती है. बच्चे, चांद देख कर बड़ों को सलाम करते ही यह पूछने में लग जाते हैं कि रात कब कटेगी और मेहमान कब आना शुरू करेंगे. महिलाओं की ईद उनकी ज़िम्मेदारियां बढ़ा देती है. एक ओर सिवइयां और रंग-बिरंगे खाने तैयार करना तो दूसरी ओर उत्साह भरे बच्चों को नियंत्रित करना. इस प्रकार ईद विभिन्न विषयों और विभिन्न रंगों के साथ आती और लोगों को नए जीवन के लिए प्रेरित करती है| ईद यही पैगाम लेकर आता है कि हम इसे मिलजुल कर मनाएं और अपने दिलों से किसी भी इंसान के लिए हसद और नफरतों को निकाल फेंके और सच्चे दिल से हर अमीर गरीब ,हिन्दू मुसलमान , ईसाई से गले मिलें और समाज को खुशियों से भर दें |


शब्दकोष में ईद का अर्थ है लौटना और फ़ित्र का अर्थ है प्रवृत्ति |इस प्रकार ईदे फ़ित्र के विभिन्न अर्थों में से एक अर्थ, मानव प्रवृत्ति की ओर लौटना है| बहुत से जगहों पे इसे अल्लाह की और लौटना भी कहा गया है जिसका अर्थ है इंसानियत की तरफ अपने दिलों से नफरत, इर्ष्य ,द्वेष इत्यादि बुराईयों को निकालना |वास्वतविक्ता यह है कि मनुष्य अपनी अज्ञानता और लापरवाही के कारण धीरे-धीरे वास्तविक्ता और सच्चाई से दूर होता जाता है| वह स्वयं को भूलने लगता है और अपनी प्रवृत्ति को खो देता है. मनुष्य की यह उपेक्षा और असावधानी ईश्वर से उसके संबन्ध कोसमाप्त कर देती है| रमज़ान जैसे अवसर मनुष्य को जागृत करते और उसके मन तथा आत्मा पर जमी पापों की धूल को झाड़ देते हैं|इस स्थिति में मनुष्य अपनी प्रवृत्ति की ओर लौट सकता है और अपने मन को इस प्रकार पवित्र बना सकता है कि वह पुनः सत्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने लगे|


हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि हे लोगो, यह दिन आपके लिए ऐसा  दिन है कि जब भलाई करने वाले अल्लाह से अपना इनाम पाते  और घाटा उठाने वाले मायूस  होते हैं। इस तरह  यह दिन रोज़ महशर के दिन के समान होता है। इसलिए  अपने घरों से ईदगाह की ओर जाते समय तसव्वुर  कीजिए मानों आप क़ब्रों से निकल कर अल्लाह  की ओर जा रहे हैं। घर से नेकलने के  पहले  गुसल करे फिर नाश्ता कर के सर पे सफ़ेद रुमाल नंगे पैर ईद कि नमाज़ मैं जाए और दिल में यह ख्याल रहे की हमें जैसे अपनी क़ब्रों से उठाया गया है और रोज़ ऐ महशर है और हम अल्लाह के सामने अपने अपने अमाल पेश करने जा रहे हैं |

नमाज़ में अपने स्थान पर खड़े होकर अल्लाह के सामने खड़े हो के अपने अमाल  को पेश कर रहे हैं ऐसा ख्याल  कीजिए। 

ईद की नमाज़ होने के बाद एक फ़रिश्ता पुकार-पुकार कर कहता हैः शुभ सूचना है तुम्हारे लिए हे ईश्वर के दासों कि तुम्हारे पापों को क्षमा कर दिया गया है अतः बस अपने भविष्य के बारे में विचार करो कि बाक़ी दिन कैसे व्यतीत करोगे? इस शुभ सुन्चना को महसूस करने के बाद रोज़ेदार खुश हो जाता है और एक दुसरे को गले मिल के मुबारकबाद देता है | घरों की तरफ लौट के खुशियाँ मनाता है और अल्लाह से वादा करता है की अब पाप से बचूंगा और समाज में एकता और शांति के लिए ही काम करूँगा | 

घर लौटते समय, जन्नत की ओर लौटने की कल्पना कीजिए। 

इसीलिये यह बेहतर है कि नमाज़ ए ईद खुले मैदान मैं अदा कि जाए और सर पे सफ़ेद रुमाल नंगे पैर ईद कि नमाज़ मैं जाए. नमाज़ से पहले गुसल करे और सजदा नमाज़ के दौरान मिट्टी पे करे|




आप सभी पाठको को ईद मुबारक |--- एस एम् मासूम 

ज़ाकिर नायक पर मौलाना कल्बे जवाद साहब का बयान

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ज़ाकिर नायक पर  मौलाना कल्बे जवाद साहब का बयान 

आज मौलाना कल्बे जवाद साहब ने आतंकवाद के खिलाफ बोलते हुए कहा के दुनिया में जहाँ जहाँ भी आज आतंकवाद है वो पैगम्बर मोहम्मद स्. और अहलेबैत अस. की तालीमात से दूरी का नतीजा है,आज पूरी दुनिया में आतंकवाद का एक बड़ा नेटवर्क काम कर रहा है जिसमे स्कॉलर्स बनाए जाते हैं ,मौलवी बनाए जाते हैं,और फिर ये लोग इस्लाम के नाम पर नौजवानों को गुमराह करते हैं और कट्टरपंता को जन्म देते हैं । 
ज़ाकिर नायक इस नेटवर्क का एक हिस्सा है ,ज़ाकिर नायक ने मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन की स्पीच में कई बार तारीफ की और वो अपने चैनल  पर  खुले आम उनकी आइडियोलॉजी के खिलाफ लोगों और सभी धर्मो के खिलाफ, नौजवानों को भड़कते रहते थे,ज़ाकिर नायक की स्पीच की सीड़ी और किताबें इंडियन मार्किट में मौजूद हैं। 
मौलाना कल्बे जवाद साहब ने कहा के ऐसी आइडियोलॉजी और ऐसी किताबें हमारे देश और नौजवानों के लिए बहुत खतरनाक हैं ,इन सब पर जल्द से जल्द बैन लग्न चाहिए ,मौलाना ने कहा के जब तक वहाबी मुफ़्ती अपने फतवे वापस नहीं लेंगे आतंकवाद ख़त्म नहीं होगा । 
अभी सऊदी अरब में मस्जिदे नबवी के करीब ब्लास्ट हुआ तो सब लोग कहने लगे के अब तो सऊदी अरब में भी ब्लास्ट हो गया तो फिर वो टेररिज्म का गॉड फादर कैसे हो सकता है मौलाना ने कहा के हकीकत यही है के सऊदी मुफ्तियों के फतवे की वजह से ही ये ब्लास्ट होते हैं. 
अगर आतंकवाद पर  बैन लगन है तो ऐसी स्पीचेस ,सीडी और किताबों पर  सबसे पहले बैन होना चहिये। 

                                                




ईद के चाँद पे क्यूँ होता है बवाल ?

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बुशरा अलवी
चाँद का देखा जाना इस्लामी फ़िक़्ह का बहुत ही अहम मसअला है जिसके बारे में हमारे मराजे और विद्वानों ने बहुत सी किताबें लिखी हैं, और इस्लामी शरीअत के बहुत से काम जैसे रमज़ान के रोज़े, हज, ईद, बक़्रईद शबे क़द्र जैसी चीज़ें चाँद से ही साबित होती हैं, और इस्लाम का विभिन्न समुदायों में बल्कि मराजे तक़लीद के बीच भी इस विषय पर विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण होने के कारण मुसलमानों के बीच रमज़ान, ईद बक़्रईद जैसे मसअलों पर इख़्तेलाफ़ पैदा होता रहता है और कभी कभी यह विरोध और इख़्तेलाफ़ इतना ज़्यादा बढ़ जाता है कि लोगों की आवाज़ें बुलंद हो जाती हैं और हर तरफ़ से विरोध के स्वर उठने लगते हैं।


अगरचे इस्लामी इतिहास में यह कोई नई चीज़ नहीं है शेख़ तूसी अपनी किताब तहज़ीबुल अहकाम में लिखते हैं कि अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अस) की हुकूमत के दिनों में लोगों ने रमज़ान की 28 तारीख़ को चाँद देख लिया (और उसी के हिसाब से ईद कर ली) इमाम ने आदेश दिया कि रमजान 29 दिन का है और सब को एक दिन के रोज़े की क़ज़ा करनी होगी।


बहर हाल चाँद के बारे में इख़्तेलाफ़ होता रहता है और आगे भी होता रहेगा क्योंकि इसके कारण कई प्रकार के हैं जैसे कुछ मराजे चाँद के साबित होने में क्षितिज के एक होने को शर्त मानते हैं और कहते हैं कि अगर एक जगह पर चाँद साबित हो गया तो हर जगह पर साबित हो जाता है और कुछ लोग इसको शर्त नहीं मानते हैं।
हम अपने इस लेख में हिन्दुस्तान में हुई ईद और उस पर मचे बवाल के बाद आयतुल्लाह सीस्तानी की नज़र में ईद के बारे में पाए जाने वाले सवालात और चाँद के साबित होने का विश्लेषण करेंगे
आयतुल्लाह सीस्तानी की नज़र में चाँद साबित होने के कई माध्यम हैं जिनमें से हम तीन को यहां पर लिख रहे हैं जो कि आज के हिन्दुस्तानी समाज के लिहाज़ से साबित भी हो चुके हैं
1. इंसान ख़ुद चाँद देखे।
2. दो आदिल (सच्चे) गवाही दें कि उन्होंने चाँद देखा है।
3. इतने लोग कहें कि जिससे यक़ीन या इत्मीनान हो जाए कि चाँद देखा जा चुका है
इस बार की ईद पर होने वाले कुछ एतेराज़ात
1. आयतुल्लाह सीस्तानी इराक़ में हैं वह हिन्दुस्तान की ईद के बारे में फ़तवा कैसे दे सकते हैं, क्या अब ईद फ़तवों के हिसाब से मनाई जाएगी?
2. कैसे एकदम से रात को यह ऐलान कर दिया जाता है कि कल ईद है इस तरह से ग़रीब लोग ईद की तैयारियां एकदम से कैसे कर पाएंगे?
3. अलग अलग ईद होना मुसलमानों के बीच इख़्तेलाफ़ का सबब बनता है?


जवाब

कम से कम इस बार हम सभी जानते हैं कि हिन्दुस्तान की सरहदों के अंदर ही कश्मीर और केलर जैसी जगहें थी जहां पर शिया और सुन्नी दोनों ने एक साथ ईद मनाई, यानी ऐसा नहीं था कि हर जगह सिर्फ शियों ने ही ईद मनाई हो, जिससे यह पता चलता है कि कम से कम दो जगहों पर चाँद साबित हो जाने के बारे में कोई इख़्तेलाफ़ नहीं था, जो जब दो जगहों पर साबित हो जाता है तो उसको पूरे हिन्दुस्तान में शामिल करने में क्या मुश्किल है आयतुल्लाह सीस्तानी के चाँद साबित होने के कारणों के हिसाब से क्या केरल और कश्मीर में दो आदिल नहीं है जो चाँद साबित होने की गवाही नहीं दे सकते? क्या केरल और कश्मीर के मुसलमान मुसलमान नहीं हैं जिनकी गवाही नहीं मानी जाएगी? क्या केरल और कश्मीर में चाँद के देखे जाने का मशहूर होना चाँद को साबित नहीं करेंगा? अब आप इसको इस हिसाब से लें कि अगर केरल और कश्मीर से कुछ लोगों का फोन आयतुल्लाह सीस्तानी के दफ़्तर में जाता है और यह लोग कहते हैं कि यहां पर चाँद देखा जा चुका है तो क्या उनकी गवाही पर पूरे हिन्दुस्तान पर चाँद साबित नहीं होता है (जबकि क्षितिज एक ही है) ?

तो अगर इन सब चीज़ों को देखते हुए रात के तीन बजे क्या अगर सुबह आठ बजे भी ईद का एलान किया जाता है तो इतना बवाल क्यों, हम यह क्यों सोचते हैं कि हमारी बात ही सही है, हमारे मुक़ाबले में भी मुसलमानों की एक बड़ी संख्या है जो कह रह हैं कि चाँद साबित हो चुका है

अब दूसरा सवाल कि जिसमें कहा जाता है कि अगर एकदम से यह एलान कर दिया जाए कि कल ईद है तो ग़रीब लोग ईद की तैयारियां कैसे कर पाएंगे

यह सवाब बहुत अच्छा है और इसी के लिये इस्लाम ने कहा है कि हम को ग़रीबों की देखभाल करने के लिये ईद और बक़्रईद जैसे त्याहारों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये बल्कि पूरे साल उनकी देखभाल करनी चाहिए और अगर ऐसा होता तो यह प्रश्न ही पैदा न होता, और दूसरी बात यह है कि इस्लामी विचारधारा में (जो हिन्दू समाज से प्रेरित नहीं है) ईद का मतलब सिर्फ़ नए कपड़े पहनना और गले मिलना नहीं है बल्कि ईद नाम है अल्लाह की तरफ़ पलट कर आने का, अपने आप को अल्लाह को और क़रीब करने का ईद नाम है पूरे रमज़ान रोज़ा रखने के बाद अल्लाह से मोमिन का सार्टिफिकेट लेने का, ईद नाम है अपने इस्लाम के ख़ालिस होने की मोहर लगवाने का.....तो ईद के सिर्फ़, नए कपड़ों, गले मिलने, सिवइयां बनाने..... तक सीमित न करें

अब तीसरा और सबसे अहम सवाल कि इस प्रकार एकदम से एक समुदाय द्वारा ईद का ऐलान कर दिये जाने से शिया सुन्नी एकता की कोशिशों को धचका लगता है इससे शिया और सुन्नियों के बीच एख़्तेलाफ़ पैदा होता है
शिया और सुन्नी के बीच इत्तेहाद होना चाहिये और यह आज के दौर में मुसलमानों की बहुत बड़ी ज़रूरत है लेकिन सवाल यह है कि यह इत्तेहाद किस बेस पर और कहां तक, क्या यह इत्तेहाद यह कहता है कि हम हलाल और हराम को छोड़ दें? और यह कौन सा इत्तेहाद है जो सिर्फ एक त्योहार के अलग हो जाने पर ख़त्म हुआ जा रहा है? क्या हमारे इत्तेहाद और उसके लिये की जाने वाली कोशिशों की डोर इतनी कमज़ोर है कि वह एक ईद के मसले पर ही टूटी जा रही है? बल्कि हम को तो दो अलग अलग ईद को एक अवसर की तरह लेना चाहिये पहले जब एक दिन ईद हुआ करती थी तो समय की कमी के कारण शिया लोग सिर्फ़ शियों के यहां और सुन्नी सिर्फ़ सुन्नियों के यहां ही मिलने जा पाया करते थे लेकिन अब ईद दो हो जाने के बाद सब के पास पूरा समय है एक दूसरे के यहां जाने के लिये।

सबसे बड़ी बात जो इस  बार की ईद में हुई है वह यह है कि इस ईद ने एक बहुत ही बड़े सवाल और लोगों के बीच बढ़ती उस सोंच का जवाब दे दिया है जिसमें कहा जा रहा था कि अब शिया समुदाय जो कि कभी अपने मराजे के फ़तवे और हुक्म पर अपनी जान क़ुरबान करने के लिये तैयार रहता था अब वैसा नहीं रहा बल्कि अब वह भी अपने मराजे से जुदा हो चुका है।

यह वह सोच थी जो शियों को अपने मराजे से दूर कर रही थी लेकिन इस अलग ईद के हुक्म के बाद तमाम शिया का (अलग अलग सोच होने के बावजूद) एक प्लेटफार्म पर जमा हो कर ईद मनाना दिखाता है कि शियों ने दुश्मनों की तरफ़ से रची जाने वाली साज़िशों को एक बार फिर नाकाम कर दिया है वह कल भी अपने मराजे के साथ थे और आज भी हैं और कल भी रहेंगे, अख़बारियत का नारा लगाने वालों को न तो कल शियों का साथ मिला था और न ही कभी मिलेगा
*कर रही थी सवाल यह दुनिया*
*क्या हक़ीक़त है सीस्तानी की*
*आज की ईद ने किया साबित*
*क्यों ज़रूरत है सीस्तानी की*






एक मुसलमान दुसरे मुसलमान का अगर हक ना अदा करे तो विलायत से बहार |इमाम सादिक़ (अ)

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शियों की प्रसिद्ध किताब अलकाफ़ी में एक रिवायत है जो एक समाज में मुसलमानों को दूसरे मुसलमान से किस प्रकार पेश आना चाहिये इसमें बताया गया है, यह रिवायत देखने में तो एक मुसलमान पर दूसरे मुसलमान के हक़ को बयान कर रही है लेकिन सच्चाई यह है कि यह रिवायत हमको एक समाज में चाहे हम किसी भी समाज के साथ क्यों न रह रहे हों जीना सिखा रही है।

मोअल्लाह बिन ख़ुनैस इमाम सादिक़ (अ) से रिवायत करते हैं कि मैं ने इमाम से पूछा कि एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान पर क्या हक़ है?

आपने फ़रमायाः (एक मुसलमान पर दूसरे मुसलमान के) सात वाजिब हक़ हैं कि अगर उनमें से किसी एक को भी छोड़ दिया जाए तो वह विलायत से निकल गया |

पहला हक़ :जो अपने लिये पसंद करो उसके लिये भी पसंद करो|

सबसे आसान हक़ यह है कि जो कुछ भी अपने लिये पसंद करो अपने मोमिन भाई के लिये भी उसको पसंद करो और जो अपने लिये पसंद न करो उसके लिये भी पसंद न करो।
अगर हमको यह अच्छा नहीं लगता है कि कोई पीठ पीछे हमारी बुराई करे, और अगर हम किसी से सुनते हैं कि कोई हमारी बुराई कर रहा था तो हम को बुरा लगता है तो हम भी किसी दूसरे की बुराई न करें और उसको दूसरों की नज़रों में नीचा करें।
हमको इसे अपने जीवन में लागू करना होगा और इसका आरम्भ यह है कि हम अपने से इसकी शुरूआत करें, हमारी बीवी या घर का कोई दूसरा सदस्य जब यह कहें कि फ़लां ने यह कहा तो उसको किसी दूसरे की बुराई करने की अनुमति न दें, घर में बच्चों को दूसरों की बातें करने की छूट न दें, जिस तरह हम को यह पसंद नहीं है कि किसी के घर में हमारी बुराई की जाए उसी प्रकार हम को भी अपने घर में दूसरे की बुराई नहीं करनी चाहिए।

दूसरा हक़ :उसको नाराज़ न करो|

कभी कभी ऐसा होता है कि हम किसी के बारे में कोई बात सुनते हैं और हमको पता है कि अगर उस भाई को इस बात का पता चला तो वह नाराज़ होगा लेकिन हम उसके साथ अपनी दोस्ती और मोहब्बत दिखाने के चक्कर में उसको वह बात बता देते हैं, तो हम अपने इस कार्य से एक ही समय में दो हक़ पामाल कर रहे होते हैं एक हमने किसी की बात को क्यों यहां कहां और दूसरा हक़ यह बरबाद हो रहा होता है कि जब हम इस बात को अपने मोमिन भाई से बताते हैं तो उसको नाराज़, क्रोधित और दुःखी कर रहे होते हैं, हमको चाहिए कि बातचीत करते समय इस बात का ध्यान रखें कि कोई ऐसी बात न कही या सुनी जाए जिससे दूसरे नाराज़ या दुःखी हों।

तीसरा हक़:जितना हो सके उसकी मदद करो|

उसकी मदद करो, पैसे से, जान से माल से ज़बान से हाथ पैरे से, यानी अपने पूरे वजूद से उसकी मदद करो, अगर पैसे से मदद कर सको तो पैसा दो, अगर जबान से मदद कर सको तो ज़बान से करो, अगर उसके हक़ में बोल सको तो चुप न रहो बल्कि बोलो, दूसरों को उसके विरुद्ध बोल कर उसको अपमानित न करने दो।

यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि रिवायत में वाजिब हक़ की बात कही गई है और उसी में यह भी कहा गया है कि अगर मोमिन को ज़रूरत है और तुम्हारे पास पैसा है तो तुम पर वाजिब है कि उस में से कुछ पैसा उसको दे दो, यहां पर ख़ुम्स, ज़कात या फिर क़र्ज़ देने की बात नहीं हो रही है।

यानी अगर किसी मोमिन का बच्चा बीमार है या वह स्वंय बीमार है और उसको पैसे की ज़रूरत है और मैने अपने माल का ख़ुम्स और ज़कात निकाल दिया है तब भी इस्लाम यह कहता है कि तुम पर वाजिब है कि जितना तुम से संभव है उसकी मदद करो उसको पैसा दो ताकि उसकी ज़रूरत पूरी हो सके।


चौथा हक़ :उसके लिये मार्गदर्शक और आईना बनो|

अगर तुम देखों कि तुम्हारा भाई किसी खाई में गिर रहा है तो उसकी आँख बन जाओ, जब देखों कि मोमिन भाई किसी बुराई की तरफ़ जा रहा है और उस चीज़ की जानकारी उस मोमिन को बचाने के लिये देना ज़रूरी है तो उसको बताओ, अगर कोई उसको विरुद्ध साज़िश रच रहा है तो उसको सावधान करो, अगर कोई उसको मारने, उसके सम्मान को ठेस पहुँचाने या.... की कोशिश कर रहा है तो तुम अपने मोमिन भाई के लिए आँख, कान बन जाओ उसके लिये मार्गदर्शक का रोल अदा करो।

पाँचवा हक़ :उसको भूखा या प्यासा न रहने दो|

एक मोमिन का दूसरे मोमिन पर पाँचवां हक़ यह है कि ऐसा न हो कि तुम्हारा पेट भरा हो और वह भूखा रहे, तुम तृप्त हो लेकिन वह प्यासा हो, तुम्हारे पास बेहतरीन कपड़ा हो लेकिन उसके पास पहनने को कपड़े न हो.।

छटा हक़: कार्यों को अंजाम देने में उसकी सहायता करो

अगर तुम्हारे पास काम करने के लिये लोग हैं लेकिन उसके काम रुका हुआ है तो अपने नौकरों को भेजो ताकि वह कार्यों में उसकी सहायता करें।

सातवाँ हक़: कहने से पहले उसकी ज़रूरतों को पूरा कर दो।

एक मुसलमान पर दूसरे मुसलमान का सातवाँ हक़ यह है कि, उसकी क़सम पर विश्वास करो उसके निमंत्रण को स्वीकार करे और उसके अंतिम संस्कार में जाओ, बीमारी में उसकी मुलाक़ात को जाओ, उसकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये अपने शरीर को कष्ट दो और उसको इस बात को मोहताज न करो कि वह तुमसे मांगे तब तुम उसकी ज़रूरत को पूरा करो

अगर तुम ने यह हक़ अदा कर दिये तो तुम ने अपनी विलायत को उसकी विलायत से और उसकी विलायत को ख़ुदा की विलायत से मिला दिया है ।
(यह लेख थोड़े बदलाव के साथ आयतुल्लाह मकारिम शीराज़ी की तक़रीर का अनुवाद है)



उसूले काफ़ी जिल्द 3, पेज 246, हदीस 2


सेक्स कब करे ? हजरत मुहम्मद (स.अ.व )

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इस्लाम मे शादी का तात्पर्य सेक्सी इच्छा की पूर्ती के साथ-साथ सदैव नेक और सही व पूर्ण संतान को द्रष्टीगत रखना भी है। इसी लिऐ इमामो ने सेक्स के लिऐ महीना, तारीख, दिन, समय और जगह को द्रष्टीगत रखते हुऐ अलग-अलग प्रकार बताऐ है। जिसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। कमर दर अकरब और तहतुश शुआ (अर्थातः चाँद के महीने के वो दो या तीन दिन जब चाँद इतना बारीक होता है कि दिखाई नही देता) मे सेक्स करना घ्रणित है | तहतुश शुआ मे सेक्स करने पर बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव से संबंधित इमाम मूसा काज़िम अ.स. ने इरशाद फरमाया है कि जो व्यक्ति अपनी औरत से तहतुश शुआ मे सेक्स करे वह पहले अपने दिल मे ये सोच ले कि गर्भ पूर्ण होने से पहले गिर जाऐगा।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 108)

दिनाँक से संबंधित इमाम सादिक़ अ.स. ने फरमाया कि महीने के आरम्भ, बीच और अंत मे सेक्स न करो क्यो कि इन मोक़ो मे सेक्स करना गर्भ के गिर जाने का कारण होता है और अगर सन्तान हो भी जाऐ तो ज़रूरी है कि वो पागल या मिर्गी का मरीज़ होगा।

क्या तुम नही देखते कि जिस व्यक्ति को मिर्गी की बीमारी होती है, या उसे महीने के शूरू मे दौरा पड़ता है या बीच मे या आखिर मे।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 108)

दिनो के हिसाब से बुधवार की रात मे सेक्स करना घ्रणित बताया गया है।

इमाम जाफरे सादिक़ अ.स. का इरशाद है कि बुधवार की शाम को सेक्स करना उचित नही है।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 109)

जहाँ तक समय का संबंध है उसके लिऐ जवाल और सूर्यास्त के समय, सुबह शूरू होने के समय से सूर्योदय तक के अलावा पहली घड़ी मे सेक्स नही करना चाहिऐ। क्योकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनिया को आखेरत पर हैसीयत दे।

ये बात रसूले खुदा (स.अ.व.व) ने हज़रत अली (अ.स) को वसीयत करते हुऐ इरशाद फरमाया कि ऐ अली रात की पहली घड़ी (पहर) मे सम्भोग न करना क्योकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनिया को आखेरत पर इख्तियार करे। ऐ अली ये वसीयते मुझ से सीख लो जिस तरह मैने जिब्रईल से सीखी है।

वास्तव मे रसूले खुदा की ये वसीयत केवल हजरत अली से नही है बल्कि पूरी उम्मत से है।

इसी वसीयत मे रसूले खुदा ने मकरूहो की सूची इस तरह गिनाई हैः

ऐ अली, दुलहन को सात दिन दूध, सीरका, धनीया और खट्टे सेब न खाने देना।

हजरत अली (अ.स.) ने कहा कि या रसूल अल्लाह इसका क्या कारण है।

फरमाया कि इन चीज़ो के खाने से औरत का गर्भ ठंडा पड़ जाता है और वो बांझ हो जाती है और उसके संतान पैदा नही होती।

ऐ अली जो बोरी घर के किसी कोने मे पड़ी हो उस औरत से अच्छा है कि जिसके संतान न होती हो।

फिर फरमायाः

ऐ अली, अपनी बीवी से महीने के शूरू, बीच, आखिर मे सेक्स न किया करो कि उसको और उसके बच्चे को पागलपन, बालखोर (एक बीमारी), कोढ़, दिमाग़ी खराबी होने का डर रहता है।

ऐ अली, ज़ोहर की नमाज़ के बाद सेक्स न करना क्योकि बच्चा जो पैदा होगा परेशानहाल होगा।

ऐ अली, सेक्स के समय बाते न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो इसमे शक नही कि वो गूंगा हो।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 113)

और कोई व्यक्ति अपनी औरत की योनी की तरफ न देखे बल्कि इस हालत मे आँखे बंद रखे। क्योकि उस समय योनी की तरफ देखना संतान के अंधे होने का कारण होता है।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 109)

ऐ अली, जब किसी और औरत के देखने से सेक्स की इच्छा पैदा हो तो अपनी औरत से सेक्स न करना क्योकि बच्चा जो पैदा होगा नपुंसक या दीवाना होगा।

ऐ अली, जो व्यक्ति जनाबत की हालत मे (वीर्य निकलने के बाद) अपनी बीवी के बिस्तर पर लेटा हो उस पर लाज़िम है कि कुरआने मजीद न पढ़े। क्योकि मुझे डर है कि आसमान से आग बरसे और दोनो को जला दे।

ऐ अली, सेक्स करने से पहले एक रूमाल अपने लिऐ और एक अपनी बीवी के लिऐ ले लेना। ऐसा न हो कि तुम दोनो एक ही रूमाल प्रयोग करो कि उस से पहले तो दुश्मनी पैदा होगी और आखिर मे जुदाई तक हो जाऐगी।

ऐ अली, अपनी औरत से खड़े खड़े सेक्स न करना कि ये काम गधो का सा है। अगर बच्चा पैदा होगा तो वह गधे की तरह बिछोने पर पीशाब किया करेगा।

ऐ अली, ईदुल फित्र की रात को सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उसे बहुत सी बीमारीया प्रकट होगी।

ऐ अली, ईदे कुरबान की रात मे सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उसके हाथ मे छः उंगलीया होगी या चार।

ऐ अली, फलदार पेड़ के नीचे सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो या कातिल व जल्लाद होगा या ज़ालिमो का लीडर।

ऐ अली, सूरज के सामने सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो मरते दम तक बराबर बुरी हालत और परेशानी मे रहेगा। (लेकिन परदा डाल कर सेक्स कर सकते है।)

ऐ अली, अज़ान व अक़ामत के बीच सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उसकू प्रव्रत्ती खून बहाने की ओर होगी।

ऐ अली, जब तुम्हारी बीवी गर्भवती हो तो बिना वुज़ु के सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो कंजूस होगा।

ऐ अली, 15 शाबान को सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो लुटेरा और ज़ुल्म को दोस्त रखता होगा और उसके हाथ से बहुत से आदमी मारे जाऐगें।

ऐ अली, छत पर सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो मुनाफिक और दगाबाज़ होगा।

ऐ अली, जब तुम किसी यात्रा पर जाओ तो उस रात को सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो नाहक़ माल खर्च करेगा और बेजा खर्च करने वाले लोग शैतान के भाई है और अगर कोई ऐसे सफर मे जाऐ जहाँ तीन दिन का रास्ता हो तो सेक्स न करे वरना अगर बच्चा पैदा हुआ तो अत्याचारी होगा।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 111-112)

जहा रसूले खुदा ने उपरोक्त बाते इरशाद फरमाई है वही किसी मौक़े पर इरशाद फरमायाः उस खुदा की कसम जिसके कब्ज़े मे मेरी जान है अगर कोई व्यक्ति अपनी औरत से ऐसे मकान मे सेक्स करे जिसमे कोई जागता हो और वो उनको देखे या उनकी बात या साँस की आवाज़ सुने तो संतान तो उस सेक्स से पैदा होगी उसे कामयाबी हासिल न होगी।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 110)

इसी तरह की बात इमाम जाफर सादिक़ (अ.स.) ने इरशाद फरमाया कि मर्द को उस मकान मे जिसमे कोई बच्चा हो अपनी औरत या कनीज़ से सेक्स नही करना चाहिऐ वरना वह बच्चा बलात्कारी होगा।

(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 110)




शहादत जनाब ऐ मुस्लिम के दोनों बेटे मुहम्मद और इब्राहिम की |

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२८ रजब  का चला काफिला ४ शाबान को मक्का पहुंचा । इस वक़्त तक इमाम हुसैन (अ. स ) ने अभी तक यह तय नहीं किया था की उन्हें किस तरफ जाना है बस यह सोंचा रहे थे की ज़िलहिज्जा के महीने में हज करने के बाद आगे कहाँ का सफर करना है तय किया जायगा ।

उधर इराक़ के शहर कूफा में लोगों को पता चला कि इमाम हुसैन (अ स ) के साथ क्या हुआ तो उन्हें भी फ़िक्र होने लगी की कूफा में क्या होगा क्यों की वहाँ के लोग वैसे ही मुआव्विया के सताए हुए थे और उन्हें   इस बात की फ़िक्र भी रहा करती थी की हज़रत  मुहम्मद  स अ व के बताये और फैलाये इस्लाम को कही ये बातिल खलीफा इतना न बिगाड़ दें की आने वाले नसलें असल इस्लाम जो अमन और शांति का संदेश देता भुला दिया जाय । वहाँ के लोगों को एक ऐसे इमाम की ज़रुरत पेश आई जो दीन ऐ इलाही को बचा सके और उन्हें सही क़ुरआन की तफ़्सीर और अहादीस बता सके ।

ऐसे में कूफा वालों ने सुलेमान बिन सुराद के घर पे मीटिंग की और फैसला किया की इमाम हुसैन को कूफा खत लिख के बुलाया जाय  । उन सभी के अपने क़ासिद के हाथों हज़ारों की तादात में खत लिखे और इमाम को यह कह के बुलाया की उनके पास कोई इमाम नहीं है ।  खत देखने के बाद इमाम हुसैन (अ स ) ने अपने भाई जनाब ऐ मुस्लिम को कूफा भेजा जिससे वहाँ के हालात मालूम हो सकें ।

मुसलम हज़रत  अली (अ स ) के भाई अक़ील के बेटे थे और  जब जनाब ऐ मुस्लिम कूफा की तैयारी करने लगे तो इमाम हुसैन ने जनाब ऐ मुस्लिम से कहाँ की तुम अकेले जाओगे तो शायद वहाँ का गवर्नर ये ना समझ ले की तुम जंग की नीयत से आ रहे हो इसलिए अपने दो बेटों मुहम्मद जो १० साल का था और इब्राहिम जो ८ साल का था, को अपने साथ ले जाओ जिस से लोगों को लगे की तुम्हारा जंग का इरादा नहीं है । इस तरह जब जनाब ऐ मुस्लिम कूफा की जानिब अपने दो बेटो को ले के चले तो एक बेटा अब्दुल्लाह और एक बेटी रुकैया इमाम हुसैन के साथ रह  गए ।

सबसे जनाब ऐ मुस्लिम को सेहरा के एक सख्त सफर के लिए रुखसत किया । जनाब ऐ मुस्लिम जुलकाद के आखिरी दिनों में कूफा पहुंचे और वहाँ पे १८००० से ज़्यादा लोगों ने उनके हाथ पे बैयत कर ली । जनाब ऐ मुस्लिम ने इमाम हुसैन को खत लिखा की यहां १८००० से ज़्यादा लोगों ने उकी बैयत कर ली है इसलिए कूफ़े की तरफ रवाना हो जाएँ ।

इधर यह खबर यज़ीद तक भी पहुँची की जनाब ऐ  मुस्लिम कूफा पहुँच चुके हैं और जल्द ही इमाम हुसैन भी आने वाले है । यज़ीद ने फौरन अपने एक ज़ालिम गवर्नर ओबेदुल्ला इब्ने ज़ियाद को हुक्म दिया की कूफा जाय और वहाँ के नरम दिल गवर्नर नुमान इब्ने बसीर को हटा दे और वहाँ के हालात को संभाले और मुस्लिम बिन अक़ील को जितनी जल्द हो सके क़त्ल कर दे ।

इब्ने ज़ियाद जैसे ही कूफा पहुंचा उसने ऐलान करवा दिया की जो कोई भी मुस्लिम का साथ देगा उसकी सजा मौत होगी और यह भी हुक्म दिया  हो सके मुस्लिम को उनके हवाले किया जाय और कोई मुस्लिम को पनाह ना दे। इसी के साथ कूफा से बाहर जाने वाले सारे रस्ते बंद कर दिए गए ।

जनाब ऐ मुस्लिम अल मुख्तार के घर में उस वक़्त ठहरे हुए थे लेकिन खतरा देख के  जनाब ऐ हानी ने उन्हें अपने घर बुला लिया । लेकिन इब्ने ज़ियाद को इसकी खबर लग गयी और उसने जनाब ऐ हानी को बुला भेजा और मुस्लिम का पता ना बताने में उन्हें ज़ख़्मी कर के क़ैद कर दिया । जनाब ऐ मुस्लिम से सोंचा क्यों जनाब ऐ हानी के घर वालो को कोई नुकसान इब्ने ज़ियाद की तरफ से पहुंचे और घर अपने दोनों बच्चो के साथ वहाँ से निकल गए । अपने दोनों बच्चों को वहाँ के क़ाज़ी के घर पे छोड़ा और खुद निकल गए सेहरा की तरफ इस कोशिश के लिए की इमाम हुसैन से मना कर दें की वो कूफा ना आएं क्यों की िंबे ज़ियाद के खौफ से बैयत करने वालों ने बैयत छोड़ दी है ।

ये ७ ज़िलहिज्जा थी जब जनाब ऐ मुस्लिम ने पूरी  कोशिश कर ली कूफा से बाहर जाने की लेकिन सभी रास्ते बंद होने की वजह से थक के बैठ गए । ८ ज़िलहिज्जा को जनाब ऐ मुस्लिम ने एक घर के बाहर दस्तक दी तो तुआ नाम की एक साहिबा से दरवाज़ा खोला जनाब ऐ मुस्लिम ने  पानी माँगा उसके बाद पुछा कौन है मुसाफिर और जब मुस्लिम ने बताया की वो मुस्लिम बिन अक़ील हैं तो उन्हें अपने घर में बुला लिया और उन्हें खिला पिला के घर के एक कोने में सोने का इंतज़ाम कर दिया ।

 देर रात उस औरत का बेटा  घर आया और जब उसे पता चला की ये वो शख्स है जिसकी तलाश में इब्ने ज़ियाद है तो दौलत और इनाम पाने की लालच  में इब्ने ज़ियाद को खबर कर दी । सुबह होते ही इब्ने ज़ियाद के ५०० से ज़्यादा सिपाहियों ने उस घर को घेर लिए । जनाब ऐ मुस्लिम बहादुर थे और उन्होंने ३ बार फ़ौज को पीछे भगाया और इब्ने ज़ियाद फ़ौज में सिपाही बढ़ाता गया । फिर भी जब वो मुस्लिम को क़ैद ना कर सके तो उन्हने मैदान में गढ्डे खुदवा के उसे घास से धक दिया और कुछ को ऊचाई से बिठा दिया की वहाँ से पथ्थर मारे और जनाब ऐ मुस्लिम ज़ख़्मी और ढके हारे एक गढ्ढे में फँस गए ।

जनाब ऐ मुस्लिम को ५० सिपाहयो ने क़ैद कर लिया और ज़ंजीरों में बाँध के इब्ने ज़ियाद के पास ले गए । इब्ने ज़ियाद के खा की अब तुम्हारी मौत सामने है अगर कोई वसीयत हो तो बताओ । जनाब ऐ मुस्लिम ने कहा मैंने कुछ क़र्ज़ लिया है जिसे मेरी तलवार बेच के अदा कर देना । दुसरे मेरे क़ब्र में मुझे शरीयत के मुताबिक़ दफन किया जाय और तीसरे इमाम हुसैन को कूफा आने से मना कर दिया जाय । इब्ने ज़ियाद ने पहली वसीयत तो मानी लेकिन बाक़ी से इंकार कर दिया ।

जनाब ऐ मुस्लिम को दारुल अमारा की छत पे ले जाय गया जहां उनका सर क़लम करने के बाद उनके जिस्म को वहीं से नीचे फैंक दिया गया । यह ९ ज़िलहिज्जा थी और जनाब ऐ मुस्लिम की शहादत के फ़ौरन बाद जनाब ऐ हानी  को भी वैसे ही शहीद कर दिया गया ।

जनाब ऐ मुस्लिम के दोनों बेटे मुहम्मद और इब्राहिम ।

 जब जनाब ऐ मुस्लिम शहीद कर दिए गए तो उनके दोनों बेटो मुहम्मद और इब्राहिम को भी कैदी  बना लिया गया । २० ज़िलहिज्जा को जब जेलर उनको खाना देने आया तो उसने देखा दोनों नमाज़ अदा कर रहे हैं । नमाज़ ख़त्म होने के बाद उस जेलर ने उन बच्चों से पुछा की वो कौन हैं और जब उसे पता चला की ये मुस्लिम के बच्चे हैं तो उसने उन दोनों को रिहा कर दिया । दोनों ने रिहा होते ही सबसे पहले सोंचा की चलो कूफा से बाहर जाते हैं और इमाम हुसैन को यहां आने से रोक देते हैं लेकिन इतना सख्त पहरा था की दोनों जा ही नहीं सके और सुबह होने का वक़्त आ गया । दोनों ने आस पास देखा और खुद को नहर ऐ  फुरात के किनारे पाया । दोनों ने पानी फुरात से पीया और इस डर से की कोई देख ना ले एक पेड़ पे चढ़ गए और इंतज़ार  करने लगे रात होने का । इतने में एक औरत पानी भरने फुरात पे आई और उसने छुपे हुए बच्चों को देखा फिर बच्चो को बोली मैं जिनकी खादिम हूँ वो बहुत ही नेक औरत है चलो मेरे साथ वो तुम्हारी मदद ज़रूर करेगी ।

जब बच्चे उसके घर पहुंचे और उसे पता चला की ये कौन बच्चे हैं तो वो घबरा गयी क्यों की उसका शौहर हारीत इब्ने ज़्याद के लिए काम करता था जो ख़ुशक़िस्मती से घर पे नहीं था । बच्चे सो गए लेकिन रात को अचानक मुहम्मद उठ गया और रोने लगा । जब इब्राहिम ने वजह पूछी तो उसने बताया बाबा ख्वाब में आये थे इतना सून्नना था की इब्राहिम ने बताया की उसने भी बाबा को देखा है और कह रहे थे की जल्द ही तुम दोनों मेरे साथ होगे ।

मुहम्मद का रोना सुन के हारीत जो घर आ चूका था उन बच्चों के पास पहुंच गया और जब उसे पता चला की यह मुस्लिम के बच्चे हैं तो उनको खम्बे से बाँध  दिया इस लालच में की इब्ने ज़ियाद से इनाम पाएगा । उसकी बीवी ने जब मना  किया तो उसे भी मारा  पीटा ।


 रात भर बच्चे खम्बे से बंधे रहे और सुबह होते ही उन दोनों को फुरात के किनारे ले गया और तलवार निकाल ली । इब्राहिम ने पुछा क्या तुम हम दोनों को मारने जा रहे हो ? हारीत ने कहा हाँ । बच्चों ने नमाज़ ऐ सुबह की इजाज़त मांगी ।  बच्चों ने अल्लाह से दुआ मांगी की उनका इन्साफ करना और उनकी मान को सब्र देना बस इतना ही दुआ मांग सके थे की तलवार चली और दोनों  शहीद हो गए और उनका लाश एक दुसरे को पकडे नहर ऐ फुरात में बह गयी गयी




ऐ अल्लाह! तू उसको दोस्त रखना जो अली को दोस्त रखे | ग़दीर

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ईद ऐ ग़दीर खुशियों का दिन है और मुसलमानों के आपसी भाईचारे और एकता का प्रतिक है | लेकिन यह दुआ हमेशा करते रहे की अल्लाह हम सबको इब्लीस के शर से महफूज़ रखे |

ग़दीर के दिन दुनिया के सभी मुसलमान एक थे और एक आवाज़ में कह रहे थे "जिस जिस के हजरत मुहम्मद (स.अ.व) मौला उसके अली मौला  लेकिन इब्लीस ने लोगों के दिलों में शोहरत ,ताक़त और दौलत की लालच डाली और मुसलमान बंट गया कोई इधर गया कोई उधर गया |

इसलिए ईद ऐ ग़दीर के रोज़ अपने मज़हबी भाइयों में भाईचारा कायम करो और दुआ करते रहो अल्लाह इब्लीस के शर से बचाय  जो हमें आपस में लडवाने  और बांटने की कोशिश किया करता है |..एस एम् मासूम

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।

1. रसूले इस्लाम (स.अ.) का ग़दीर के दिन उतरने वाली आयतों का प्रचार करना

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।
और वह सब गुट-गुट रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथ होते जा रहे थे। रसूले इस्लाम को मालूम था कि इस सफ़र के अंत में उन्हें एक महान काम को अंजाम देना है जिस पर दीन की इमारत तय्यार होगी और उस इमारत के ख़म्भे उँचे होंगे कि जिससे आपकी उम्मत सारी उम्मतों की सरदार बनेगी, पूरब और पश्चिम में उसकी हुकूमत होगी मगर इसकी शर्त यह है कि वह सब अपने सुधरने के बारे में सोच-विचार करें और अपने हिदायत के रास्ते को देख लें, लेकिन अफ़सोस कि ऐसा नहीं हो सका।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ऐलान के लिए उठ खड़े हुए जबकि अलग-अलग शहरों से लोगों के गुट गुट आपके पास जमा हो चुके थे जो आगे बढ़ गए थे उन्हें पीछे बुलाया, जो आ रहे थे उन्हें उसी जगह रोका गया, और सबको यहर बात बताई और याद कराई गई और यह कहा गया कि जो यहाँ हैं वह उन लोगों को बता देगें जो यहाँ नहीं हैं। ताकि यह सब के सब ग़दीर की हदीस के रावी (हदीस बयान करने वाले) हों जिनकी संख्या एक लाख से अधिक थी।

हाफ़िज़ अबू जाफ़र मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी “अलविलायतो फी तुरक़े हदीसे ग़दीर” नामक किताब में ज़ैद इब्ने अरक़मः से बयान करते हैं कि नबी-ए-अकरम ने अपने आख़री हज से वापसी पर कि जब आप ग़दीरे ख़ुम के स्थान पर पहुँचे हैं तो दोपहर का समय था, गर्मी बहुत तेज़ थी, आपके हुक्म से पेड़ों के नीचे की ज़मीनों को साफ़ किया गया, जमाअत से नमाज़ पढ़ने का ऐलान किया गया, हम सब जमा हुए तो रसूले इस्लाम (स.अ) ने एक ख़ुत्बे के बाद इरशाद फ़रमायाः ख़ुदा ने मुझ पर यह आयत उतारी है कि जो हुक्म आपको दिया गया है उसे लोगों तक पहुँचा दो अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो रिसालत का कोई काम अंजाम नहीं दिया और अल्लाह आपको दुश्मनों से बचाएगा।

जिबरईल (अ.) अल्लाह की तरफ़ से यह हुक्म लाए हैं कि मैं इस स्थान पर रुक कर हर एक को यह बता दूँ कि अली इब्ने अबी तालिब (अ.) मेरे भाई और मेरे बाद मेरे जानशीन (उत्तराधिकारी) और इमाम हैं। मैंने जिबरईल से कहा कि अल्लाह से मेरे लिए बख़्शिश (माफ़ी) की गारंटी लें क्योंकि मुझे मालूम है कि अच्छे लोग बहुत कम हैं और तकलीफ़ पहुँचाने वाले बहुत ज़यादा हैं। और ऐसे बहुत से लोग हैं जो अली (अ.) के साथ रहने के कारण मुझे बुरा भला कहते हैं यहाँ तक कि उन्होंने मुझे “ उज़ुन ” (यानी कान के कच्चे) तक कह दिया।
अल्लाह तआला क़ुर्आन में इरशाद फ़रमाता हैः उनमें से कुछ लोग नबी को तकलीफ़ पहुँचाते हैं और कहते हैं कि वह कान के कच्चे हैं, उनसे कह दीजिए मैं उनका नाम और निशानियाँ बता सकता था लेकिन मैंने उस पर पर्दा डाल दिया है इसलिए अली (अ.) के बारे में जो हुक्म अल्लाह ने दिया है उसको पहुँचाए बिना अल्लाह राज़ी नहीं होगा।

ऐ लोगो! इस संदेश को सुन लो, निःसंदेह अल्लाह ने अली (अ.) को तुम्हारे ऊपर वली और इमाम बनाया है। और उनकी इताअत (आज्ञापालन करना) सभी इंसानों पर वाजिब की है उनका हुक्म जारी है उनका विरोध करने वाले पर लानत और धिक्कार और जो उनको माने उस पर रहमत, यह सुन लो और इताअत करो।

निःसंदेह अली (अ.) तुम लोगों के इमाम और मौला हैं उनके बाद इमामत मेरे बेटों में उन्हीं की नस्ल से होगी, हलाल वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हलाल कर दिया, और हराम वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हराम कर दिया। कोई ऐसा इल्म नहीं जिसको ख़ुदा ने मुझे नहीं दिया हो और मैंने अली तक न पहुँचाया हो, इसलिए अली का साथ न छोड़ना। वही हैं जो हक़ की तरफ़ हिदायत (मार्गदर्शन) करते हैं और ख़ुद भी उस पर अमल करते हैं, जो उसका इंकार करे ख़ुदा कदापि उसकी तौबा क़बूल नहीं करेगा और उसको माफ़ नहीं करेगा। अल्लाह को चाहिए कि वो ऐसा ही करे और ऐसे इंसान को अज़ाब का मज़ा चखाए। जब तक ज़मीन पर लोग ज़िन्दा हैं अली मेरे बाद सब लोगों से अफ़ज़ल (सर्वश्रेष्ठ) हैं। जो उनका विरोध करे उस पर लानत होगी, और मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वो सब जिबरईल, अल्लाह की तरफ़ से लेकर आए हैं। हर इंसान यह देख लेगा कि उसने आगे क्या भेजा है।

क़ुर्आन को समझो किसी और  की इताअत ना करो, तुम्हारे लिए क़ुर्आन की तफ़सीर वही करेगा जिसका हाथ मैं पकड़ने वाला हूँ उसे बुलंद करके मैं तुम्हारे सामने ऐलान करने वाला हूँ कि जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं। और अली की विलायत का यह ऐलान अल्लाह की तरफ़ से है जिसको उसने मुझ पर उतारा है।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने अदा कर दिया।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने पहुँचा दिया।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने सुना दिया।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने विस्तार से बयान कर दिया।

मेरे बाद अली के सिवा कोई भी मोमिनों का मालिक नहीं है, फ़िर आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को इतना उठाया कि मौला के पैर रसूले इस्लाम (स.अ.) के घुटनों तक पहुँच गए और फिर फ़रमायाः
ऐ लोगो ! यह मेरा भाई, मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी), मेरे इल्म का वारिस, और जिसका मुझ पर और अल्लाह की किताब की तफ़सीर पर ईमान है उसके लिए यह अली मेरे बाद मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी) है।


ऐ अल्लाह! तू उसको दोस्त रखना जो अली को दोस्त रखे और उसे दुश्मन रखना जो उसको दुश्मन रखे और उस इंसान पर लानत कर जो उसको ना माने, और उस पर अज़ाब करना जो अली के हक़ का इन्कार करे।
ऐ अल्लाह ! इस बात में कोई शंका नहीं है कि तू ने अली की ख़िलाफ़त के ऐलान के बाद यह आयत नाज़िल कीः
आज मैंने दीन को अली की इमामत के माध्यम से मुकम्मल (पूरा) कर दिया।
अब जो लोग अली और उनकी नस्ल से पैदा होने वाले मेरे बेटों को क़यामत तक इमाम न माने तो यही वह लोग होंगे जिनके सारे नेक आमाल बेकार हो जाएँगे और वो हमेशा जहन्नम में रहेंगे।
इब्लीस ने जनाबे आदम को ईर्ष्या के कारण जन्नत से निकलवा दिया, इस लिए तुम लोग ईर्ष्या से बचो वरना तुम्हारे आमाल बरबाद हो जाएँगे और तुम्हारे क़दम लड़खड़ा जाएँगे, क़ुर्आन में सूरए वलअस्र अली ही की शान में उतरा है।


ऐ लोगो ! ख़ुदा, उसके रसूल और वो नूर जो नबी के साथ उतरा उस पर ईमान ले आओ इस से पहले कि तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दिए जाएँ, या उन्हें पीठ की तरफ़ मोड़ दिया जाए, या तुम पर हम ऐसी लानत करें जैसी असहाबे सब्त पर लानत की थी। ख़ुदा का नूर मुझ में है फिर अली की नस्ल में इमाम मेहदी तक।
ऐ लोगो ! बहुत जल्दी ऐसे इमाम पैदा होंगे जो तुम को जहन्नम की तरफ़ बुलाएँगे। लेकिन क़यामत के दिन उनकी कोई मदद नहीं की जाएगी, अल्लाह और मैं दोनो उनसे नफ़रत करते हैं, वह और उनके साथी जहन्नम के सबसे नीचे वाले भाग में होंगे। जल्दी ही यह लोग ख़िलाफ़त को छीन कर उसे अपना बना लेंगे, उस समय ऐ गिरोहे इंसान और जिन्नात तुम पर मुसीबत आएगी, और तुम पर आग बरसाई जाएगी और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं होगा।


 2. ग़दीर का दिन “ ईद ” का दिन
एक चीज़ जिससे ग़दीर की हदीस मशहूर और हमेशा बाक़ी रही वह है ग़दीर का दिन ईद का दिन, और इस दिन को जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने ईद का दिन बनाया। जिसमें जश्न मनाया जाता है। रात इबादत में बिताई जाती है। मोमेनीन ख़ुम्स और ज़कात निकालते हैं। ग़रीब लोगों की मदद करते हैं। अपने लिए और अपने घर वालों के लिए नयी-नयी चीज़ें ख़रीदते हैं, और नऐ-नऐ कपड़े पहनते हैं।
इसलिए जब मोमिनों की एक बड़ी संख्या उस दिन जश्न और ख़ुशियाँ मनाएगी तो यह बात यक़ीनी है कि इंसान उस घटना के कारणों और उसके रावियों को ढ़ूंढ़ता है या वह घटना जिसकी विशेषता ऐसी हो वह रावियों और शायरों (कवियों) के बारे में पता देता है और यह चीज़ कारण होती है कि उसके लिए और नयी नस्लों के लिए हर साल इस घटना की याद ताज़ा हो जाती है और फ़िर कड़ी, कड़ी से मिल जाती है, इस घटना को पढ़ा जाता है और उसकी ख़बरों को दोहराया जाता है।

सत्य (हक़) की खोज करने वालों को दो चीज़ें आकर्षित करती हैं।
पहली चीज़ः यह ईद केवल शियों से विशेष नहीं है, यह और बात है कि शियों को इस से एक ख़ास लगाव है, बल्कि मुसलमानों के दूसरे फ़िर्क़े (समुदाय) भी इस दिन शियों के साथ मिल कर ईद मनाते हैं।
इसी लिए बैरूनी ने “ अल-आसारुल बाक़िया अन क़ोरूनिल ख़ालिया” नामक किताब में ग़दीर के दिन को मुसलमानों की ईदों में से एक ईद बताया है।


और इब्ने तलहा शाफ़ेई की किताब मुतालेबुस्सवाल में हैः
ग़दीर के दिन उसने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपनी पंक्तियों में बयान किया है कि यह दिन ईद, और ख़ुशी का दिन है, इस लिए की उसी दिन रसूले इस्लाम (स.अ.) ने उन्हें यह महान पद दिया जो किसी और के लिए नहीं था। यह भी लिखा है कि मौला शब्द का जो अर्थ रसूले इस्लाम (स.अ.) के लिए है वही अर्थ हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए भी है और हुज़ूर ने उसी अर्थ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भी मौला बनाया है यह महान पद केवल हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मख़सूस है किसी और से नहीं। इसी लिए आप के चाहने वालों के लिए वह दिन ईद का दिन कहा गया है।


सारे मुसलमान हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वाले हैं, कुछ लोग पहला ख़लीफ़ा मानते हैं और कुछ चौथा मगर मानते सब हैं और मुसलमानों में कोई ऐसा नहीं है जो उनसे दुश्मनी रखता हो, कुछ गिने-चुने ख़वारिज (ख़वारिज वह लोग हैं जिन्होंने जंगे सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का साथ छोड़ दिया) के अलावा, जो दीने इस्लाम से मुँह मोड़ चुके हैं, और गुमराह हैं।

इतिहास की किताबों से हमें इस ईद के बारे में पूरब और पश्चिम के सारे मुसलमानों का एक होना, मिस्रियों, मुग़लों, और इराक़ियों के इतिहास में इस ईद के बारे में एक विशेष ईद का पता चलता है, उस दिन उनके यहाँ जमाअत से नमाज़, महफ़िलें (जश्न) और दुआओं का प्रोग्राम होता है, जिनको दुआवों की किताबों में विस्तार से बयान किया गया है।
इब्ने ख़लकान की किताबों में कई जगह मिलता है कि इस दिन ईद मनाने पर दुनिया के सारे मुसलमान सहमत हैं, इसी लिए इब्ने मुसतंसिर के हालात में यह लिखा है कि ग़दीरे ख़ुम की ईद के दिन ही उसकी बैयत की गई और वह 18 ज़िलहिज्जा 487 हिजरी का दिन था।
मुसतंसिर बिल्लाह उबैदी के बारे मिलता है कि जब वह इस दुनिया से गया तो वह 487 हिजरी में जब 12 रातें बाक़ी रह गयी थीं जुमेरात की रात थी। वही रात ईदे ग़दीर की रात थी यानी ज़िलहिज्जा की अठ्ठराहवीं रात और वह ग़दीरे ख़ुम है। मैंने देखा कि बहुत से लोग उस रात के बारे में पूछा करते थे कि ज़िलहिज्जा की वह रात कब आएगी, यह स्थान मक्का और मदीना के बीच में है, जिसमें पानी का एक स्रोत (चशमा) है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ ज़मीन दलदल है।
जिस साल नबी-ए-अकरम (स.अ.) आख़री हज करके मक्के से वापस चले और ख़ुम के स्थान पर पहुँचे, हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना भाई बनाया और फ़रमायाः
अली मेरे लिए ऐसे ही हैं जैसे हारून मूसा के लिए थे। ऐ ख़ुदा उसे दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे, और उसे दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, मदद कर उसकी जो अली की मदद करे और छोड़ दे उसको जो अली को छोड़ दे।
शियों को इससे बड़ा लगाव है। हाज़मी लिखते हैः
ग़दीर मक्का और मदीना के बीच जोहफ़ा नाम की जगह के नज़दीक एक वादी है जहाँ नबी ने ख़ुतबा इरशाद फ़रमाया था यह जगह तेज़ गर्मी और ऊबड़-खाबड़ इलाक़े से मशहूर है।
वह चीज़ जिसके बारे में इब्ने ख़लकान कहते है कि शियों को इससे बड़ा लगाव है। उसके बारे में मसऊदी हदीसे ग़दीर को बयान करने के बाद कहते हैः
हज़रत अली अलैहिस्सलाम की संतान और उनके शिया उस दिन का बहुत सम्मान करते हैं।
इसी तरह सालबी भी ग़दीर की रात को उम्मत के प्रति मशहूर और मुबारक रातों में से जानते हुए लिखते हैः
यही वह रात है जिसकी सुबह को रसूले इस्लाम (स.अ.) ने ग़दीरे ख़ुम में ऊँटों के कजावों पर खड़े होकर ख़ुत्बा दिया और इरशाद फ़रमायाः
जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं ऐ अल्लाह जो अली को दोस्त रखे तू उसे दोस्त रख और जो अली को दुश्मन रखे तू उसे दुश्मन रख, जो अली की मदद करे तू उसकी मदद करना और जो अली को छोड़ दे तू उसे छोड़ दे। शिया इस रात का बहुत सम्मान करते हैं और उसे इबादत में गुज़ारते हैं।
और शियों के विश्वास से यही नस (नस कहते हैं उस आयत या रिवायत को जिसमें किसी तरह का कोई शक न है और वह यक़ीनी हो।) है जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त के बारे में है, जो ग़दीर के दिन नाज़िल हुई इस अक़ीदे में अगरचे वह दूसरों से अलग है लेकिन हमेशा से इसी उम्मत का हिस्सा हैं, ग़दीर की रात केवल इसी महान काम के लिए मशहूर है जिसकी सुबह में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मौला बनाया गया और जिसको अल्लाह तआला ने ईद का दिन कहा है। इसी लिए ग़दीर के दिन और रात दोनों को हुस्न (यानी सुन्दरता) कहा जाता है।
तमीम बिन मअज़ अपने एक क़सीदे में कहते हैः
ग़दीर का दिन ईद का दिन है इसकी दलील यह है कि उमर, अबू बकर, और रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथियों ने, रसूले इस्लाम (स.) के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मुबारक बाद दी। और मुबारक बाद केवल ईद और ख़ुशियों के समय ही दी जाती है।
यह ईद रसूले इस्लाम (स.अ.) के समय से चली आ रही है यानी उसको उस समय से मनाया जा रहा है। जो रसूल के आख़री हज के समय शुरू हुई। जब रसूले इस्लाम ने अपने नबी होने का ऐलान किया और सारे मुसलमानों पर उनकी महानता उजागर हो गयी तो आपने दीन के महत्वपूर्ण कामों की चार दीवारी बना दी, इस्लाम धर्म से प्यार करने वाले सारे मुसलमान बहुत ही ख़ुश थे इस लिए कि रसूले इस्लाम (स.अ.) ने शरीयत के सारे मामलों को विस्तार से बता दिया था बिल्कुल ऐसे ही जैसे सूरज दिन में प्रकट होता है ताकि फ़िर कोई इस्लाम धर्म को बदल न सके, जाहिल और अनपढ़, इस्लाम धर्म को अंधेरे में न ढ़केल सकें, इसलिए क्या इस महान दिन से बढ़ कर कोई और दिन हो सकता है? जब्कि इस दिन इस्लाम का सीधा और रौशन रास्ता ज़ाहिर हो गया, दीन और नेमतें मुकम्मल (पूर्ण) हो गयीं, और उसकी ख़ुशख़बरी क़ुर्आन ने दी, जिस दिन कोई बादशाह तख़्त पर बैठा हो उसकी याद में अगर ख़ुशियाँ मनाई जाएं, जश्न किया जाए, महफ़िल की जाए, दीप जलाए जाएँ, दावतें की जाएँ, जैसा की हर धर्म और क़ौम में होता चला आ रहा है, तो वह दिन जिस दिन इस्लाम की बादशाहत और दीन की महान विलायत का ऐलैन हुआ हो, जिसके बारे में उस इंसान ने बयान किया हो जिसने अल्लाह तआला के हुक्म के बिना कभी कोई बात ही नहीं की हो, तो उस दिन को ईद की तरह मनाना सबसे ज़्यादा अच्छा होगा, और चूँकि यह दिन, दीने इस्लाम की ईद का दिन है इसलिए इस दिन ऐसे कामों को अंजाम देना ज़रूरी है जो बन्दों को ख़ुदा से नज़दीक कर दें, जैसे नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना, दुआएँ करना, इत्यादि.......
इन्हीं सब बातों के कारण हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने अपनी उम्मत के तमाम लोगों को जो वहाँ मौजूद थे जैसे अबू बकर, उमर, क़ुरैश के सरदार, अंसार के बड़े-बड़े लोग, और इसी तरह अपनी अज़वाज (पत्नियों) को हुक्म दिया कि वह सब अली अलैहिस्सलाम को दीन की बागडोर मिल जाने पर मुबारक बाद दें।
 मुबारकबाद की हदीस
इमाम मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी ने एक हदीस अपनी किताब “अलविलाया” में ज़ैद इब्ने अरक़म से बयान की है (जिसका अधिकतर हिस्सा हम बयान कर चुके हैं) उसी के आख़िर में है कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने फ़रमायाः
ऐ लोगो ! कहो कि हम दिल से आप को वचन देते हैं, ज़बानों से वादा करते हैं, और हाथों से बैयत (बैयत कहते हैं किसी के हाथ पर हाथ रख कर उसका साथ देने का वचन देना।) करते हैं कि हम इस वचन को अपनी आने वाली नस्लों तक पहुँचाएगे, और उसकी जगह किसी और को नहीं देगें, आप भी हम पर गवाह हैं और अल्लाह भी गवाही के लिए काफ़ी है, जो कुछ मैंने कहा है वह तुम सब भी कहो और अली को अमीरुल मोमनीन कह कर सलाम करो, और कहो ख़ुदा का शुक्र है कि उसने इस काम में हमें रास्ता दिखाया, और अगर वह हमारी हिदायत न करता तो हम कभी हिदायत न पाते इस लिए कि ख़ुदा हर आवाज़ और हर दिल की ख़ियानत (विश्वासघात) को जानता है बस इसके बाद जो भी अपना वचन तोड़ेगा वह ख़ुद घाटे में रहेगा और जो अल्लाह से किये हुए वचन को निभाएगा तो अल्लाह उसे अज्र (सवाब और इनाम) देगा, वह बात कहो जिससे ख़ुदा तुम से राज़ी और प्रसन्न हो और अगर तुम इंकार करोगे तो ख़ुदा तुम्हारा मोहताज नहीं है।
ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं यह सुनने के बाद लोग यह कहते हुए आगे बढ़ेः
हमने सुना और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करेंगे, और सबसे पहले रसूले ख़ुदा और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथों पर बैयत करने वाले अबू बकर, उमर, उस्मान, तलहा और ज़ुबैर थे। उनके बाद मुहाजेरीन और अंसार और फ़िर दूसरे लोगों ने बैयत की, यहाँ रसूले ख़ुदा ने ज़ुहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ीं (यानी इतने ज़्यादा लोग थे की बैयत करने में बहुत देर हो गयी) बैयत का सिलसिला जारी रहा और मग़रिब और इशा की नमाज़े भी एक साथ पढ़ी गयीं और इसी तरह तीन दिन तक बैयत होती रही।
और इस हदीस को अहमद इब्ने मुहम्मद तबरी ने जो ख़लील के नाम से मशहूर हैं अपनी किताब “मनाक़िबे अली इबने अबी तालिब” में जो 411 हिजरी में क़ाहेरा में लिखी गई थी, अपने उस्ताद मोहम्मद इब्ने अबी बक्र इब्ने अबदुर्रहमान से रिवायत की है जिसमें मिलता हैः लोग यह कहते हुए आपकी बैयत के लिए चलेः
हमने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल ने जो हमें हुक्म दिया है हम उसकी अपने दिल, अपनी जान, अपनी ज़बान, और अपने अंग अंग से पालन (इताअत) करते हैं, फिर सब लोग हाथ आगे बढ़ा कर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सामने आए, सबसे पहले अबू बकर, उमर, तलहा और ज़ुबैर ने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बैयत की, फिर मुहाजरीन ने और फिर दूसरे लोगों ने बैयत की यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र फिर मग़रिब और इशा की नमाजें पढ़ी गयीं और बैयत का यह सिलसिला तीन दिन तक जारी रहा, एक गुट के बाद जब दूसरा गुट बैयत करता था तो हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम फ़रमाते थेः
उस ख़ुदा का शुक्र जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत (वरीयता) दी।
उन दिन से बैयत सुन्नत (सुन्नतः वह काम जो नबी ने किया हो, या करने का हुक्म दिया हो, या नबी के सामने किया गया हो और नबी ने उस काम को करते हुए देखा हो और मना न किया हो।) और रस्म बन गई, और फिर ऐसे लोगों ने भी अपनी बैयत ली जो उसके लाएक़ भी नहीं थे।
और इसी तरह मिलता है किः
लोग यह कहते हुए आगे बढ़े, हाँ! हाँ! हम ने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल के हुक्म को दिल और जान से मान लिया, और दिल से उस पर ईमान ले आए हैं।
उसके बाद लोगो ने रसूल ख़ुदा (स.अ.) और हज़रत अली (अ.) के हाथों पर बैयत की, यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ी गयीं, फिर दिन के बाक़ी बचे हुए समय में भी बैयत होती रही और मग़रिब और इशा की नमाज़ें भी एक साथ पढ़ी गयीं, जब कोइ गुट रसूले ख़ुदा की बैयत के लिए आता तो आप अल्लाह से दुआ करतेः
उस ख़ुदा का शुक्र है जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत दी है।
और मौलाना वलीउल्लाह लखनवी अपनी किताब “ मेराअतुल मोमनीन ” में लिखते हैं
उसके बाद जनाब उमर ने हज़रत से मुलाक़ात की और कहाः
मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे, आप मेरे और तमाम मोमिन मर्द और मोमिन औरतों के मौला हो गए।
और हर सहाबी हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात के समय आपको मुबारक बाद देता था।
इब्ने ख़ावन्द शाह हदीसे ग़दीर के बारे में लिखते हुए कहते हैं
फिर रसूले ख़ुदा (स.) अपने ख़ैमे में गये और हज़रत अली अलैहिस्सलाम को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जाएँ और तमाम लोगों को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जा कर अली को मुबारक बाद दें, जब लोग मुबारक बाद दे चुके तो रसूले ख़ुदा (स.) ने अपनी बीवियों को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली को मुबारक बाद दें, उन लोगों ने आज्ञापालन किया, रसूले ख़ुदा (स.) के सहाबियों में सबसे पहले मुबारक बाद देने वाले जनाब उमर थे, जिनके शब्द यह थेः
मुबारक हो आप को ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात (यानीः मोमिन मर्द और औरतें) के मौला हो गए।
ग़ियासुद्दीन अपनी किताब हबीबुस्सैर में यूँ लिखते हैं
उसके बाद नबी के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने ख़ैमे में चले गये लोग आपकी ज़ियारत के लिए आते हैं और आपको मुबारक बाद देते हैं जिन में उमर भी थे और उनके शब्द यह थेः
मुबारक हो, मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात के मौला हो गए। फिर रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अपनी अज़वाज (बीवियों) को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली (अ.) को मुबारक बाद दें।
ख़ास कर जनाब अबू बकर और उमर की मुबारक बाद को इस घटना को लिखने वालों ने, मुफ़स्सेरीन, और हदीस लिखने वालों ने बयान किया है कि जिसे अंदेखा नहीं किया जा सकता है इनमें से कुछ लोगों ने उसको यक़ीनी माना है, और कुछ लोगों ने विश्वसनीय लोगों से रिवायत की है जिनका सिलसिला सहाबियों तक पहुँचता है जैसे इब्ने अब्बास, अबू हुरैरा, बर्रा इब्ने आज़िब और ज़ैद इब्ने अरक़म।


source : http://abna.ir


हदीसे ग़दीर का वर्णन पैग़म्बर (स.) के एक सौ दस सहाबियों ने किया है।

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ग़दीर का नाम तो हम सभी ने सुना है। यह स्थान मक्के और मदीने के मध्य, मक्के शहर से तक़रीबन 200 किलोमीटर की दूरी पर जोहफ़े [1] के पास स्थित है। यह एक चौराहा है,यहाँ पहुँच कर विझिन्न क्षेत्रों से आये हाजी लोग एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।
उत्तर की ओर का रास्ता मदीने की तरफ़, दक्षिण की ओर का रास्ता यमन की तरफ़,पूरब की ओर का रास्ता इराक़ की तरफ़ और पश्चिम की ओर का रास्ता मिस्र की तरफ़ जाता है।
आज कल यह स्थान भले ही आकर्षण का केन्द्र न रहा हो परन्तु एक दिन यही स्थान इस्लामिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण धटना का साभी था। और यह घटना 18 ज़िलहिज्जा सन् 10 हिजरी की है, जिस दिन हजरत अली अलैहिस्सलाम को रसूले अकरम (स.) के उत्तराधिकारी के  पद पर नियुक्त  किया गया।.

पूर्व में तो विभिन्न खलिफ़ाओं ने सियासत के अन्तर्गत इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को मिटाने का प्रयास किया और आज कुछ मुतास्सिब लोग इसको मिटाने या कम रंग करने की कोशिशे कर रहे हैं। लेकिन यह घटना इतिहास,हदीस और अर्बी साहित्य में इतनी रच बस गई है कि इसको मिटाया या छुपाया नही जा सकता।
आप इस किताबचे में ग़दीर के सम्बन्ध में ऐसी ऐसी सनदें और हवाले पायेंगे कि उन को पढ़ कर अचम्भित रह जायेंगे। जिस घटना के लिए असंख्य दलीलें और सनदें हो भला उसको किस प्रकार भुलाया या छुपाया जा सकता है ?
उम्मीद है कि यह तर्क पूर्ण विवेचना व समस्त सनदें जो अहले सुन्नत की किताबों से ली गई हैं मुसलमानों के विभिन्न समुदायों को एक दूसरे से क़रीब करने का साधन बनेगी और पूर्व में लोग जिन वास्तविक्ताओं से सादगी के साथ गुज़र गये हैं, वह इस समय सबके आकर्षण का केन्द्र बनेंगी विशेष रूप से जवान नस्ल की।

हदीसे ग़दीर

हदीसे ग़दीर अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बिला फ़स्ल विलायत व खिलाफ़त के लिए एक रौशन दलील है और मुहक़्क़ेक़ीन इसको बहुत अधिक महत्व देते हैं।
लेकिन अफ़सोस है कि जो लोग आप की विलायत से बचना चाहते हैं वह कभी तो इस हदीस की सनद को निराधार बताते हैं और कभी इस की सनद को सही मानते हैं परन्तु इसकी दलालत से मना करते हैं।
इस हदीस की हक़ीक़त को प्रत्यक्ष करने के लिए ज़रूरी है कि सनद और दलालत के बारे में विशवसनीय किताबों के माध्यम से बात की जाये।

ग़दीरे ख़ुम का दृश्य

सन् दस हिजरी के आखिरी माह (ज़िलहिज्जा) में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपने जीवन का अन्तिम हज किया और मुसलमानों ने रसूले अकरम (स.) से इस्लामी हज के तरीक़े को सीखा। जब हज समाप्त हुआ तो रसूले अकरम (स.) ने मदीने जाने के उद्देश्य से मक्के को छोड़ने का इरादा किया और क़ाफ़िले को चलने का आदेश दिया। जब यह क़ाफ़िला जोहफ़े [2] से तीन मील के फ़ासले पर राबिग़ [3] नामी क्षेत्र में पहुँचा तो ग़दीरे खुम नामी स्थान पर जिब्राइले अमीन “वही” लेकर नाज़िल हुए और रसूले अकरम को इस आयत के द्वारा सम्बोधित किया ।
“ या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिक व इन लम् तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नास”[4]
ऐ रसूल उस संदेश को पहुँचा दीजिये जो आपके परवर दिगार की ओर से आप पर नाज़िल हो चुका है और अगर आप ने ऐसा न किया तो ऐसा है जैसे आपने रिसालत का कोई काम अंजाम नही दिया। अल्लाह, लोगों के शर से आप की रक्षा करेगा।
आयत के अंदाज़ से मालूम होता है कि अल्लाह ने एक ऐसा महान कार्य रसूल अकरम (स.) के सुपुर्द किया है जो पूरी रिसालत के पहुँचाने के बराबर और दुश्मनो की मायूसी का कारण भी है। इससे महान कार्य और क्या हो सकता है कि एक लाख से ज़्यादा लोगों के सामने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने खलीफ़ा व उत्तराधिकारी के पद पर नियुकित करें ?
अतः क़ाफ़िले को रूकने का आदेश दिया गया। इस आदेश को सुन कर जो लोग क़ाफ़िले से आगे चल रहे थे रुक गये और जो पीछे रह गये थे वह भी आकर क़ाफ़िले से मिल गये। ज़ोहर का वक़्त था और गर्मी अपने शबाब पर थी। हालत यह थी कि कुछ लोगों ने अपनी अबा(चादर) का एक हिस्सा सिर पर और दूसरा हिस्सा पैरों के नीचे दबा रखा था। पैगम्बर के लिए एक दरख्त पर चादर डाल कर सायबान तैयार किया गया। पैगम्बर ऊँटो के कजावों को जमा करके बनाये गये मिम्बर पर खड़े हुए और ऊँची आवाज़ मे एक खुत्बा (भाषण) दिया जिसका साराँश यह है।

ग़दीरे खुम में पैगम्बर का खुत्बा

“हम्दो सना (हर प्रकार की प्रशंसा) अल्लाह की ज़ात से समबन्धित है। हम उस पर ईमान रखते हैं और उसी पर भरौसा करते है तथा उसी से सहायता चाहते हैं। हम बुराई, और अपने बुरे कार्यों से बचने के लिए उसके यहाँ शरण चाहते हैं। वह अल्लाह जिसके अलावा कोई दूसरा मार्ग दर्शक नही है। मैं गवाही देता हूँ कि उसके अलावा कोई माबूद नही है और मुहम्मद उसका बंदा और पैगम्बर है।
हाँ! ऐ लोगो वह वक़्त क़रीब है कि मैं अल्लाह के बुलावे को स्वीकार करता हुआ तुम्हारे बीच से चला जाऊँ। उसके दरबार में तुम भी उत्तरदायी हो और मै भी। इसके बाद कहा कि मेरे बारे में तुम्हारा क्या विचार है? क्या मैनें तुम्हारे प्रति अपनी ज़िम्मेदारीयों को पूरा कर दिया है ?
यह सुन कर सभी लोगों ने रसूले अकरम (स.) की सेवाओं की पुष्टी की और कहा कि हम गवाही देते हैं कि आपने अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा किया और बहुत मेहनत की अल्लाह आपको इसका सबसे अच्छा बदला दे।
पैगम्बर ने कहा कि “क्या तुम गवाही देते हो कि इस पूरी दुनिया का माबूद एक है और मुहम्मद उसका बंदा व रसूल है और जन्नत, जहन्नम व परलोक के अमर जीवन में कोई शक नही है ?
सबने कहा कि “ सही है हम गवाही देते हैं।”
इसके बाद रसूले अकरम (स.) ने कहा कि “ऐ लोगो मैं तम्हारे मध्य दो महत्वपूर्ण चीज़े छोड़ रहा हूँ मैं देखूँगा कि तुम मेरे बाद मेरी इन दोनो यादगारों के साथ क्या सलूक करते हो।”
उस वक़्त एक इंसान खड़ा हुआ और ऊँची आवाज़ मे सवाल किया कि इन दो महत्वपूर्ण चीज़ों से क्या अभिप्रायः है ?
पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा कि “एक अल्लाह की किताब है जिसका एक सिरा अल्लाह की क़ुदरत में है और दूसरा सिरा तुम्हारे हाथों में और दूसरे मेरी इतरत और अहले बैत हैं अल्लाह ने मुझे खबर दी है कि यह कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं  होंगे।”
हाँ! ऐ लोगो क़ुरआन व मेरी इतरत से आगे न बढ़ना और दोनो के आदेशों के पालन में किसी प्रकार की कमी न करना, वरना हलाक हो जाओगे।
उस वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम का हाथ पकड़ इतना ऊँचा उठाया कि दोनो की बग़ल की सफ़ैदी सबको नज़र आने लगी और सब लोगों को हज़रत अली   (अ.) से परिचित कराया।
इसके बाद कहा “मोमेनीन पर स्वयं उनसे ज़्यादा कौन अधिकार रखता है ?
सब ने कहा कि “अल्लाह और उसका रसूल अधिक जानते हैं।”
पैगम्बर स. ने कहा कि-
“अल्लाह मेरा मौला है और मैं मोमेनीन का मौला हूँ और मैं उनके ऊपर उनसे ज़्यादा अधिकार रखता हूँ, हाँ! ऐ लोगो “मनकुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा अलीयुन मौलाहु [5] अल्लाहुम्मा वालि मन वालाहु व आदि मन आदाहु व अहिब्बा मन अहिब्बहु व अबग़िज़ मन अबग़ज़हु व अनसुर मन नसरहु व अख़ज़ुल मन ख़ज़लहु व अदरिल हक़्क़ा मआहु हैसो दारा। ”
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के यह अली मौला हैं। ऐ अल्लाह उसको दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे और उसको दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, उस से मुहब्बत कर जो अली से मुहब्बत करे और उस पर ग़ज़बनाक (परकोपित) हो जो अली पर ग़ज़बनाक हो, उसकी मदद कर जो अली की मदद करे और उसको रुसवा कर जो अली को रुसवा करे और हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़ें।” [6] ऊपर लिखे खुत्बे[7]को अगर इंसाफ़ के साथ देखा जाये तो जगह जगह पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम की इमामत की दलीलें मौजूद हैं।(हम इस कथन की व्याख्या का वर्णन आगे करेंगे।)

हदीसे ग़दीर की अमरता

अल्लाह का यह हकीमाना इरादा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना एक ज़िन्दा हक़ीक़त के रूप मे हर ज़माने में बाक़ी रहे, लोगों के दिल इसकी ओर आकर्षित होते रहें और इस्लामी लेखक तफ़्सीर, हदीस, कलाम और इतिहास की किताबों में इसके बारे में हर ज़माने में लिखते रहें, मज़हबी वक्ता इसको वाज़ो नसीहत की मजालिस में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अविस्मर्णीय फ़ज़ायल की सूरत में बयान करते रहें। और केवल वक्ता ही नही बल्कि शाईर भी अपने साहित्यिक भाव, चिंतन और इखलास के द्वारा इस घटना को चार चाँद लगायें और विभिन्न भाषाओं में अलग अलग तरीक़ों से बेहतरीन शेर कह कर अपनी यादगार के तौर पर छोड़ें।(मरहूम अल्लामा अमीनी ने विभिन्न सदियों में ग़दीर के बारे में कहे गये महत्वपूर्ण शेरों को शाइर के जीवन के हालात के साथ ईस्लाम की प्रसिद्ध किताबों से नक़्ल करके अपनी किताब “अल ग़दीर” में जो कि 11 जिल्दों पर आधारित है, बयान किया है।)
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दुनिया में ऐसी ऐतिहासिक घटनायें बहुत कम हैं जो ग़दीर की तरह मुहद्दिसों, मुफ़स्सिरों, मुतकल्लिमों, फलसफ़ियों, खतीबों, शाइरों, इतिहासकारों और सीरत लिखने वालों की तवज्जौह का केन्द्र बनी हों।
इस हदीस के अमर होने का एक कारण यह है कि इस घटना से सम्बन्धित दो आयतें क़ुराने करीम में मौजूद हैं।[8] अतः जब तक क़ुरआन बाक़ी रहेगा यह ऐतिहासिक घटना भी ज़िन्दा रहेगी।
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दिलचस्प बात यह है कि इतिहास को ध्यान पूर्वक पढ़ने से यह मालूम होता है कि अठ्ठारहवी ज़िलहिज्जातुल हराम   मुसलमानों के मध्य रोज़े ईदे ग़दीर के नाम से मशहूर थी। यहाँ तक कि इब्ने ख़लकान अलमुस्ताली इब्ने अलमुस्तनसर के बारे में लिखता है कि “ सन् 487 हिजरी में ईदे ग़दीरे खुम के दिन जो कि अठ्ठारह ज़िलहिज्जातुल हराम है लोगों ने उसकी बैअत की।”[9] और अल मुस्तनसर बिल्लाह के बारे में लिखता है कि “सन् 487 हिजरी में जब ज़िलहिज्जा माह की आखरी बारह रातें बाक़ी रह गयी तो वह इस दुनिया से गया और जिस रात में वह दुनिया से गया वह ज़िलहिज्जा मास की अठ्ठारवी रात थी जो कि शबे ईदे ग़दीर है।”[10]
यह बात भी दिलचस्प है कि अबुरिहाने बैरूनी ने अपनी किताब आसारूल बाक़िया में ईदे ग़दीर को उन ईदों में गिना है जिनका आयोजन सभी मुसलमान किया करते थे और खुशिया मनातें थे।[11]
सिर्फ़ इब्ने खलकान और अबुरिहाने बैरूनी ने ही इस दिन को ईद का दिन नही कहा है बल्कि अहले सुन्नत के प्रसिद्ध आलिम सआलबी ने भी शबे ग़दीर को मुस्लिम समाज के मध्य मशहूर मानी जाने वाली शबों में गिना है।[12]
इस इस्लामी ईद की बुनियाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही पड़ गई थी। क्योंकि आप ने इस दिन तमाम मुहाजिर, अंसार और अपनी पत्नियों को आदेश दिया था, कि हज़रत अली (अ.) के पास जा कर उन को इमामत व विलायत के सम्बन्ध में मुबारक बाद दें।
 ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं कि अबु बकर, उमर उस्मान, तलहा व ज़ुबैर मुहाजेरीन में से वह पहले इंसान थे जिन्होनें हज़रत अली (अ.) के हाथ पर बैअत कर के मुबारकबाद दी। बैअत व मुबारक बादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा।[13]
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इस हदीस का वर्णन पैग़म्बर (स.) के एक सौ दस सहाबियों ने किया है।

इस ऐतिहासिक घटना के महत्व के लिए इतना ही काफ़ी है कि इसका वर्णन पैगम्बरे अकरम (स.) के 110 सहाबियों ने किया है।[14]
लेकिन इस वाक्य का अर्थ यह नही है कि सहाबियों की इतनी बड़ी सँख्यां में से केवल इन्हीं सहाबियों ने इस घटना का वर्णन किया है। बल्कि इससे यह अभिप्रायः है कि अहले सुन्नत के उलमा ने जो किताबें लिखी हैं उनमें सिर्फ़ इन्हीं 110 सहाबियों का वर्णन मिलता है।
दूसरी सदी में जिसको ताबेआन का दौर कहा गया है इनमें से 89 इंसानों ने इस हदीस का वर्णन किया है।
बाद की सदीयों में भी अहले सुन्नत के 360 विद्वानो ने इस हदीस का उल्लेख अपनी किताबों में किया है तथा विद्वानों के एक बड़े गिरोह ने इस हदीस की सनद को सही स्वीकार किया है।
विद्वानों के इस गिरोह ने केवल इस हदीस का उल्लेख ही नही किया, बल्कि इस हदीस की सनद और दलालत के सम्बन्ध में विशेष रूप से किताबें भी लिखी हैं।
अजीब बात यह है कि इस्लामी समाज के सबसे बड़े इतिहासकार तबरी ने “अल विलायतु फ़ी तुरुक़ि हदीसिल ग़दीर” नामी किताब लिखी और पैगम्बर (स.) की इस हदीस का 75 प्रकार से उल्लेख किया।
इब्ने उक़दह कूफ़ी ने अपने रिसाले “विलाय़त” में इस हदीस का उल्लेख  105 व्यक्तियों के माध्यम से किया है।
अबु बकर मुहम्मद बिन उमर बग़दादी ने जो कि जमआनी के नाम से मशहूर हैं, इस हदीस का वर्णन 25 तरीक़ों से किया है।
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अहले सुन्नत के वह मशहूर विद्वान जिन्होनें इस हदीस का उल्लेख बहुतसी सनदों के साथ किया है।[15]
इब्ने हंबल शेबानी
इब्ने हज्रे अस्क़लानी
जज़री शाफ़ेई
अबु सईदे सजिस्तानी
अमीर मुहम्मद यमनी
निसाई
अबुल आला हमदानी
अबुल इरफ़ान हब्बान
शिया विद्वानों ने भी इस ऐतिहासिक घटना के बारे में अहले सुन्नत की मुख्य किताबों के हवालों के साथ बहुत सी महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। इनमें से एक विस्तृत किताब “अलग़दीर” है जो इस्लामी समाज के मशहूर लेखक स्वर्गीय अल्लामा आयतुल्लाह अमीनी की लेखनी का चमत्कार है। (इस लेख को लिखने के लिए इस किताब से बहुत अधिक सहायता ली गई है।)
परिणाम स्वरूप पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अमीरूल मोमेनीन अली (अ.) को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद कहा “ कि ऐ लोगो अभी जिब्राईल मुझ पर नाज़िल हुए और यह आयत लाये हैं कि (( अलयौम अकमलतु लकुम दीनाकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुमुल इस्लामा दीना))[16] आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।”
उस वक़्त पैगम्बर ने तकबीर कही और कहा “ अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि उसने अपने विधान व नेअमतों को पूर्ण किया और अली (अ.) से मेरे उत्तराधिकारी के रूप में प्रसन्न हुआ।”
इसके बाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) मिम्बर से नीचे तशरीफ़ लाये और हज़रत अली (अ.) से कहा  कि “ आप खेमें (शिविर) में लशरीफ़ ले जायें ताकि इस्लाम की बुज़ुर्ग व्यक्ति और सरदार आपकी बैअत कर के आप को मुबारक बाद दे सकें। ”
सबसे पहले शेख़ैन (अबु बकर व उमर) ने अली अलैहिस्सलाम को को मुबारक बाद दी और उनको अपना मौला स्वीकार किया।
हस्सान बिन साबित ने मौक़े से फ़ायदा उठाया और पैगम्बरे इस्लाम (स.) से आज्ञा प्राप्त कर के एक क़सीदा (पद्य की वह पंक्तियाँ जो किसी की प्रशंसा में कही गई हों) कहा और पैगम्बरे अकरम (स.) के सामने उसको पढ़ा। यहाँ पर हम उस क़सीदे के केवल दो महत्वपूर्ण शेरों का ही वर्णन कर रहें हैं।
फ़ाक़ाला लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बअदी इमामन व हादीयन।।
फ़मन कुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा वलीय्युहु।
फ़कूनू लहु अतबाआ सिदक़िन मवालियन।।
अर्थात अली (अ.) से कहा कि उठो कि मैंनें आपको अपने उत्तराधिकारी और अपने बाद लोगों के मार्ग दर्शक के रूप में टुन लिया है।
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। तुम उनको दिल से दोस्त रखते हो बस उनका अनुसरन करो।[17]
यह हदीस इमाम अली अलैहिस्सलाम के, तमाम सहाबा से श्रेष्ठ होने को सिद्ध करती है।
यहाँ तक कि अमीरूल मोमेनीन ने मजलिसे शूरा-ए-खिलाफ़त में (जो कि दूसरे खलीफ़ा के मरने के बाद बनी),[18]
उसमान की खिलाफ़त के ज़माने में और स्वयं अपनी खिलाफ़त के समय में भी इस पर विरोध प्रकट किया है।[19]
इसके अलावा हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जैसी महान शख्सियत नें हज़रत अली अलैहिस्सलाम की श्रेष्ठता से इंकार करने वालों के सामने इसी हदीस को तर्क के रूप में प्रस्तुत किया।[20]
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मौला से क्या अभिप्रायः है ?

यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण मसअला मौला के अर्थ की व्याख्या है। जिस की ओर से बहुत अधिक लापरवाही बरती जाती है। क्योंकि इस हदीस के बारे में जो कुछ बयान किया गया है उससे इस हदीस की सनद के सही होने के सम्बन्ध में कोई शक बाक़ी नही रह जाता। अतः बहाना बाज़ लोग इस हदीस के अर्थ व उद्देश्य में शक पैदा करने में जुट जाते हैं, विशेष रूप से मौला शब्द के अर्थ में। परन्तु वह इसमें भी सफल नही हो पाते।
विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मौला शब्द इस हदीस में बल्कि अधिकाँश स्थानों पर एक से ज़्यादा अर्थ नही देता और वह “ औलवियत ” है। क़ुरआन की बहुतसी आयतों में मौला शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है।
क़ुरआने करीम में मौला शब्द 18 आयतों में प्रयोग हुआ है जिनमें से 10 स्थानों पर यह शब्द अल्लाह के लिए प्रयोग हुआ है ज़ाहिर है कि अल्लाह का मौला होना उसकी औलवियत के अर्थ में है। याद रहे कि मौला शब्द बहुत कम स्थानों पर ही दोस्त के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
इस आधार पर “मौला” के प्रथम अर्थ औला में किसी प्रकार का कोई शक नही करना चाहिए। हदीसे ग़दीर में भी “ मौला” शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है। इसके अलावा इस हदीस के साथ बहुत से ऐसे क़रीने मौजूद हैं जो इस बात को साबित करते हैं कि यहाँ पर मौला से अभिप्रायः औला ही है।
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इस दावे की दलीलें
अगर यह भी मान लिया जाये कि अरबी भाषा में “मौला” शब्द के बहुत से अर्थ हैं, फिर भी ग़दीर की इस महान ऐतिहासिक घटना व हदीस के बारे में बहुत से ऐसे तथ्य मौजूद हैं जो हर प्रकार के संदेह को दूर कर के वास्तविक्ता को सिद्ध करते हैं।

पहली दलील

जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना के दिन रसूले अकरम (स.) के शाइर हस्सान बिन साबित ने रसूले अकरम (स.) से इजाज़ लेकर आप के वक्तव्य को काव्य के रूप में परिवर्तित किया। इस फ़सीह, बलीग़ व अर्बी भषा के रहस्यों के ज्ञाता इंसान ने “मौला” शब्द के स्थान पर इमाम व हादी शब्दों का प्रयोग किया और कहा कि
फ़क़ुल लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बादी इमामन व हादियन।।[21]
अर्थात पैगम्बर (स.) ने अली (अ.) से कहा कि ऐ अली उठो कि मैनें तमको अपने बाद इमाम व हादी के रूप में चुन लिया है।
ज़ाहिर है कि शाइर ने मौला शब्द को जिसे पैगम्बर (स.) ने अपने वक्तव्य में प्रयोग किया था, इमाम, पेशवा, हादी के अलावा किसी अन्य अर्थ में प्रयोग नही किया है। जबकि कि यह शाइर अरब के फ़सीह व अहले लुग़त[22] व्यक्तियों में गिना जाता है।
और अरब के केवल इस महान शाइर हस्सान ने ही मौला शब्द को इमामत के अर्थ में प्रयोग नही किया है बल्कि उसके बाद आने वाले तमाम इस्लामी शाइरों ने जिनमें से अधिकाँश अरब के मशहूर शाइर व साहित्यकार माने जाते हैं और इनमें से कुछ को तो अरबी भषा का उस्ताद भी समझे जाते हैं उन्होंने भी मौला शब्द से वही अर्थ लिया हैं जो हस्सान ने लिया था। अर्थात इमामत।
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दूसरी दलील

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जो शेर मुआविया को लिखे उनमें हदीसे ग़दीर के बारे में यह कहा कि
व औजबा ली विलायतहु अलैकुम।
रसूलुल्लाहि यौमा ग़दीरि खुम्मिन।।[23] 
अर्थात अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने मेरी विलायत को तुम्हारे ऊपर ग़दीर के दिन वाजिब किया है।
इमाम से बेहतर कौन शख्स है जो हमारे लिए इस हदीस की व्याख्या कर सके और बताये कि ग़दीर के दिन अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने विलायत को किस अर्थ में प्रयोग किया है ? क्या यह व्याख्या यह नही बताती कि ग़दीर की घटना में मौजूद समस्त लोगों ने (मौला शब्द से) इमामत के अतिरिक्त कोई अन्य अर्थ नही समझा था ?
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तीसरी दलील

पैगम्बर (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु कहने से पहले यह सवाल किया कि “ आलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम ?”  क्या मैं तुम्हारे ऊपर तुम से  ज़्यादा अधिकार नही रखता हूँ ?
पैगम्बर के इस सवाल में लफ़्ज़े औवला बि नफ़सिन का प्रयोग हुआ है। पहले सब लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लिया और उसके बाद निरन्तर कहा कि “ मन कुन्तु मौलाहु फ़ाहाज़ा अलीयुन मौलाहु ” अर्थात जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।
इन दो वाक्यों को आपस में मिलाने से पैग़म्बरे इस्लाम (स.) क्या उद्देश्य है ? क्या इसके अलावा और कोई उद्देश्य हो सकता है कि कुरआन के अनुसार जो स्थान पैगम्बरे अकरम (स.) को प्राप्त है वही अली (अ.) के लिए भी साबित करें ? सिर्फ़ इस फ़र्क़ के साथ कि वह पैगम्बर हैं और अली इमाम, नतीजे में हदीसे ग़दीर का अर्थ यह हों जाता हैं कि जिस जिस से मुझे औलवियत की निस्बत है उस उस से अली (अ.) को भी औलवियत की निस्बत है।[24] अगर पैगम्बर (स.) का इसके अलावा और कोई उद्देश्य होता तो लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लेने की ज़रूरत नही थी। यह इंसाफ़ से कितनी गिरी हुई बात है कि इंसान पैगम्बर इस्लाम (स.) के इस पैग़ाम को नज़र अंदाज़ करे दे और हज़रत अली (अ.) की विलायत की ओर से आँखें बन्द कर के ग़ुज़र जाये।
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चौथी दलील

पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने कलाम के आग़ाज़ में लोगों से इस्लाम की तीन आधार भूत मान्यताओं का इक़रार लिया और कहा “ आलस्तुम तश्हदूना अन ला इलाहा इल्ला अल्लाह व अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु व अन्नल जन्नता हक़्क़ुन व अन्नारा हक़्क़ुन ? ” अर्थात क्या तुम गवाही देते हो कि अल्लाह के अलावा और कोई माअबूद नही है, मुहम्मद उसके बंदे व रसूल हैं और जन्नत व दोज़ख़ हक़ हैं ?
इन सब का इक़रार कराने से क्या उद्देश्य था ? क्या इसके अलावा कोई दूसरा उद्देश्य था कि वह अली (अ.) के लिए जिस स्थान को साबित करना चाहते थे उसके लिए लोगों के ज़हन को तैयार कर रहे थे ताकि वह अच्छी तरह समझलें कि विलायत व खिलाफ़त का इक़रार दीन के उन तीनो उसूलों के समान है जिनका तुम सब इक़रार करते हो ? अगर “मौला” का अर्थ दोस्त या मददगार मान लें तो इन वाक्यों का आपसी ताल मेल ख़त्म हो जायेगा और कलाम की कोई अहमियत नही रह जायेगी। क्या ऐसा नही है ?
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पाँचवी दलील

पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने ख़ुत्बे (भाषण) के शुरू में अपनी रेहलत (मृत्यु) के बारे में ख़बर देते हुए कहा हैं कि “ इन्नी औशकु अन उदआ फ़उजीबा” अर्थात क़रीब है कि मुझे बुलाया जाये और मैं चला जाऊँ।[25]
यह जुमला इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि पैगम्बर यह चाहते हैं कि अपने बाद के लिए कोई इंतेज़ाम करें और अपनी रेहलत (मृत्यु) के बाद पैदा होने वाले ख़ाली स्थान पर किसी को नियुक्त करें। जो रसूले अकरम (स.) की रेहलत के बाद तमाम कार्यों की बाग डोर अपने हाथों मे संभाल ले।
जब भी हम विलायत की तफ़्सीर खिलाफ़त के अलावा किसी दूसरी चीज़ से करेंगे तो पैगम्बरे अकरम (स.) के जुमलों में पाया जाने वाला मनतक़ी राब्त टूट जायेगा। जबकि वह सबसे ज़्यादा फ़सीह व बलीग़ कलाम करने वाले हैं। मसल-ए- विलायत के लिए इससे रौशनतर क़रीना और क्या हो सकता है।
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छटी दलील

पैगम्बरे अकरम (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु....... जुमले के बाद कहा कि “ अल्लाहु अकबरु अला इकमालिद्दीन व इतमामि अन्नेअमत व रज़िया रब्बी बिरिसालति व अल विलायति लिअलीयिन मिन बअदी ”
अगर मौला से अभिप्रायः दोस्ती या मुसलमानों की मदद है तो फिर अली (अ.) की दोस्ती, मवद्दत व मदद से दीन किस तरह कामिल हो गया और उसकी नेअमतें किस तरह पूरी हो गईँ ? यह बात सबसे रौशन है कि आप ने कहा कि अल्लाह मेरी रिसालत और मेरे बाद अली  (अ.) की विलायत से राज़ी हो गया।[26] क्या यह सब खिलाफ़त के अर्थ पर गवाही नही है ?
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सातवी दलील

इससे बढ़कर और क्या गवाही हो सकती है कि शेखैन (अबु बकर व उमर) और रसूले अकरम (स.) के असहाब ने हज़रत के मिम्बर से नीचे आने के बाद अली (अ.) को मुबारक बाद पेश की और मुबारकबादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा शैखैन (अबु बकर व उमर) वह पहले लोग थे जिन्होंने इमाम को इन शब्दों में मुबारक बाद दी “ हनीयन लका या अली इबनि अबितालिब असबहता व अमसैता मौलाया व मौला कुल्लि मुमिनिन व मुमिनतिन”[27]
अर्थात ऐ अली इब्ने अबितालिब आपको मुबारक हो कि सुबह शाम मेरे और हर मोमिन मर्द और औरत के मौला हो गये।
अली (अ.) ने उस दिन ऐसा कौनसा स्थान प्राप्त किया था जिस पर  इन लोगों ने मुबारक बादी दी? क्या मक़ामे खिलाफ़त और उम्मत की रहबरी (जिसका उस दिन तक रसमी तौर पर ऐलान नही हुआ था) इस मुबारकबादी की वजह नही थी ? मुहब्बत और दोस्ती कोई नई बात नही थी।
आठवी दलील
अगर इससे हज़रत अली (अ.) की दोस्ती मुराद थी तो इसके लिए लाज़िम नही था कि झुलसा देने वाली गर्मी में इस मसअले को बयान किया जाता, एक लाख से ज़्यादा लोगो पर आधारित चलते हुए क़ाफ़िले को रोका जाता, और तेज़ धूप में लोगों को चटयल मैदान के तपते हुए पत्थरों पर बैठाकर एक विस्तृत ख़ुत्बा बयान किया जाता।
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क्या क़ुरआन ने तमाम मोमिनों को एक दूसरे का भाई नही कहा है ? जैसा कि इरशाद होता है “इन्नमा अल मुमिनूना इख़वातुन।”[28] मोमिन आपस में एक दूसरे के भाई हैं।
क्या क़ुरआन ने अन्य आयतों में मोमेनीन को एक दूसरे के दोस्त के रूप में परिचिच नही कराया है ?  और अली अलैहिस्सलाम भी उसी मोमिन समाज के एक सदस्य थे। अतः उनकी दोस्ती के ऐलान की क्या ज़रूरत थी? और अगर यह मान भी लिया जाये कि इस ऐलान में दोस्ती ही मद्दे नज़र थी, तो फ़िर इसके लिए अनुकूल परिस्थिति में इन इन्तेज़ामात की ज़रूरत नही थी, यह काम मदीने में भी किया जा सकता था। यक़ीनन किसी महत्वपूर्ण मसअला का वर्णन   करना था जिसके लिए इस विशेष प्रबंध की ज़रूरत थी। इस तरह के इन्तज़ामात पैगम्बर की ज़िन्दगी में न कभी पहले देखे गये और न ही इस घटना के बाद देखने को मिले।
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अब आप फ़ैसला करें

अगर इन रौशन क़राइन की मौजूदगी में भी कोई शक करे कि पैगम्बर अकरम (स.) का मक़सद इमामत व खिलाफ़त नही था तो क्या यह ताज्जुब वाली बात नही है ? वह लोग जो इसमें शक करते हैं अपने दिल को किस तरह संतुष्ट करेंगे और महशर के दिन अल्लाह को क्या जवाब देंगे ?
यक़ीनन अगर तमाम मुसलमान ताअस्सुब को छोड़ कर हदीसे ग़दीर पर तहक़ीक़ करें तो दिल खवाह नतीजों पर पहुँचेंगे। जहाँ यह काम मुसलमानों के विभिन्न फ़िर्क़ों में एकता का सबब बनेगा वहीँ इस से   इस्लामी समाज एक नयी शक्ल हासिल कर लेगा।
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तीन महत्वपूर्ण हदीसें

इस लेख के अन्त में इन तीन महत्वपूर्ण हदीसों पर भी ध्यान दीजियेगा।
1- हक़ किसके साथ है ?
पैगम्बरे इस्लाम (स.) की पत्नियाँ उम्मे सलमा और आइशा कहती हैं कि हमने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से सुना है कि उन्हो कहा “अलीयुन मअल हक़्क़ि व हक़्क़ु माअ अलीयिन लन यफ़तरिक़ा हत्ता यरदा अलय्यल हौज़”
अनुवाद– अली हक़ के साथ है और हक़ अली के साथ है। और यह हर गिज़ एक दूसरे से जुदा नही हो सकते जब तक होज़े कौसर पर मेरे पास न पहुँच जाये।
यह हदीस अहले सुन्नत की बहुत सी मशहूर किताबों में मौजूद है। अल्लामा अमीनी ने इन किताबों का ज़िक्र अलग़दीर की तीसरी जिल्द में किया है।[29]
अहले सुन्नत के मशहूर मुफ़स्सिर फ़ख़रे राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में सूरए हम्द की तफ़सीर के अन्तर्गत लिखा है कि “हज़रत अली अलैहिस्सलाम बिस्मिल्लाह को बलन्द आवाज़ से पढ़ते थे और यह बात तवातुर से साबित है कि जो दीन में अली की इक़्तदा करता है वह हिदायत याफ़्ता है। इसकी दलील पैगम्बर (स.) की यह हदीस है कि आपने कहा “अल्लाहुम्मा अदरिल हक़्क़ा मअ अलीयिन हैसु दार।”   अनुवाद – ऐ अल्लाह तू हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़े।[30]
यह हदीस काबिले तवज्जोह है जो यह कह रही है कि अली की ज़ात हक़ का मरकज़ (केन्द्र बिन्दु) है
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2- भाई बनाना
पैगम्बरे अकरम (स.) के असहाब के एक मशहूर गिरोह ने इस हदीस को पैगम्बर (स.) नक़्ल किया है।
“ अख़ा रसूलुल्लाहि (स.) बैना असहाबिहि फ़अख़ा बैना अबिबक्र व उमर व फ़ुलानुन व फ़ुलानुन फ़जआ अली (रज़ियाल्लहु अन्हु) फ़क़ाला अख़ीता बैना असहाबिक व लम तुवाख़ बैनी व बैना अहद ? फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) अन्ता अख़ी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति।”
अनुवाद- “ पैगम्बर (स.) ने अपने असहाब के बीच भाई का रिश्ता स्थापित किया अबुबकर को उमर का भाई बनाया और इसी तरह सबको एक दूसरे का भाई बनाया। उसी वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम हज़रत की ख़िदमत में तशरीफ़ लाये और अर्ज़ किया कि आपने सबके दरमियान बरादरी का रिश्ता स्थापित कर दिया लेकिन मुझे किसी का भाई नही बनाया। पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा आप दुनिया और आख़ेरत में मेरे भाई हैं।”
इसी से मिलता जुलता मज़मून अहले सुन्नत की किताबों में 49 जगहों पर ज़िक्र हुआ है।[31]
क्या हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैगम्बरे अकरम (स.) के दरमियान बरादरी का रिश्ता इस बात की दलील नही है कि वह उम्मत में सबसे अफ़ज़लो आला हैं ? क्या अफ़ज़ल के होते हुए मफ़ज़ूल के पास जाना चाहिए ?
* * *
3- निजात का केवल एक ज़रिया
अबुज़र ने खाना-ए-काबा के दर को पकड़ कर कहा कि जो मुझे जानता है, वह जानता है और जो नही जानता वह जान ले कि मैं अबुज़र हूँ, मैंने पैगम्बरे अकरम (स.) से सुना है कि उन्होनें कहा “ मसलु अहलुबैती फ़ी कुम मसलु सफ़ीनति नूह मन रकबहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।”
“तुम्हारे दरमियान मेरे अहले बैत की मिसाल किश्ती-ए-नूह जैसी हैं जो इस पर सवार होगा वह निजात पायेगा और जो इससे रूगरदानी करेगा वह हलाक होगा।[32]
जिस दिन तूफ़ाने नूह ने ज़मीन को अपनी गिरफ़्त में लिया था उस दिन नूह अलैहिस्सलाम की किश्ती के अलावा निजात का कोई दूसरा ज़रिया नही था। यहाँ तक कि वह ऊँचा पहाड़ भी जिसकी चौटी पर नूह (अ.) का बेटा बैठा हुआ था उसको निजात न दे सका।
क्या पैगम्बर के फ़रमान के मुताबिक़ उनके बाद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के दामन से वाबस्ता होने के अलावा निजात का कोई दूसरा रास्ता है ?
[1] एक स्थान का नाम

[2] यह जगह अहराम के मीक़ात की है और माज़ी में यहाँ से इराक़ मिस्र और मदीने के रास्ते जुदा हो जाते थे।

[3] राबिग अब भी मक्के और मदीने के बीच में है।

[4] सूरए मायदा आयत न.67

[5] पैगम्बर ने इतमिनान के लिए इस जुम्ले को तीन बार कहा ताकि बाद मे कोई मुग़ालता न हो।

[6] यह पूरी हदीसे ग़दीर या फ़क़त इसका पहला हिस्सा या प़क़त दूसरा हिस्सा इन मुसनदों में आया है।     क-मुसनद ऊब्ने हंबल जिल्द 1 पेज न. 256 ख- तारीखे दमिश्क़ जिल्द42 पेज न. 207, 208, 448 ग- खसाइसे निसाई पेज न. 181 घ- अल मोजमुल कबीर जिल्द 17 पेज न. 39 ङ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 च- अल मुसतदरक अलल सहीहैन जिल्द 13 पेज न. 135 छ- अल मोजमुल औसत जिल्द 6 पेज न. 95 ज- मुसनदे अबी यअली जिल्द 1 पेज न. 280 अल महासिन वल मसावी पेज न. 41 झ- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 104 व दूसरी किताबें।  

[7] इस खुत्बे को अहले सुन्नत के बहुत से   मशहूर उलमा ने अपनी किताबों में ज़िक्र किया है। जैसे क- मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 84,88,118,119,152,332,281,331 व 370 ख- सुनने इब्ने माजह जिल्द 1 पेज न. 55 व 58 ग- अल मुस्तदरक अलल सहीहैन हाकिम नेशापुरी जिल्द 3 पेज न. 118 व 613 घ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 ङ- फ़तहुलबारी जिल्द 79 पेज न. 74 च- तारीख़े ख़तीबे बग़दादी जिल्द 8 पेज न.290 छ-तारीखुल खुलफ़ा व सयूती 114 व दूसरी किताबें।

[8] सूरए माइदह आयत 3व 67 

[9] वफ़ायातुल आयान 1/60

[10] वफ़ायातुल आयान 2/223

[11] तरजमा आसारूल बाक़िया पेज 395 व अलग़दीर 1/267

[12] समारूल क़ुलूब511

[13] उमर इब्ने खत्ताब की मुबारक बादी का वाक़िआ अहले सुन्नत की बहुतसी किताबों में ज़िक्र हुआ है। इनमें से खास खास यह हैं-क-मुसनद इब्ने हंबल जिल्द6 पेज न.401 ख-अलबिदाया वन निहाया जिल्द 5 पेज न.209 ग-अलफ़सूलुल मुहिम्माह इब्ने सब्बाग़ पेज न.40 घ- फराइदुस् सिमतैन जिल्द 1 पेज न.71 इसी तरह अबु बकर उमर उस्मान तलहा व ज़ुबैर की मुबारक बादी का माजरा बहुत सी दूसरी किताबों में बयान हुआ है। जैसे मनाक़िबे अली इब्ने अबी तालिब   तालीफ़ अहमद बिन मुहम्मद तबरी अल ग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270)

[14] इस अहम सनद का ज़िक्र एक दूसरी जगह पर करेंगे।

[15] सनदों का यह मजमुआ अलग़दीर की पहली जिल्द में मौजूद है जो अहले सुन्नत की मशहूर किताबों से जमा किया गया है।

[16] सूरए माइदा आयत न.3

[17] हस्सान के अशआर बहुत सी किताबों में नक़्ल हुए हैं इनमें से कुछ यह हैं क- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न.135 ख-मक़तलुल हुसैन खवारज़मी जिल्द 1पेज़ न.47 ग- फ़राइदुस्समतैन जिल्द1 पेज़ न. 73 व 74 घ-अन्नूरूल मुशतअल पेज न.56 ङ-अलमनाक़िबे कौसर जिल्द 1 पेज न. 118 व 362.

[18] यह एहतेजाज जिसको इस्तलाह में मुनाशेदह कहा जाता है हस्बे ज़ैल किताबों में बयान हुआ है। क-मनाक़िबे अखतब खवारज़मी हनफ़ी पेज न. 217 ख- फ़राइदुस्समतैन हमवीनी बाबे 58 ग- वद्दुर्रुन्नज़ीम इब्ने हातम शामी घ-अस्सवाएक़ुल मुहर्रेक़ा इब्ने हज्रे अस्क़लानी पेज़ न.75 ङ-अमाली इब्ने उक़दह पेज न. 7 व 212 च- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 61 छ- अल इस्तिआब इब्ने अब्दुल बर्र जिल्द 3 पेज न. 35 ज- तफ़सीरे तबरी जिल्द 3 पेज न.417 सूरए माइदा की 55वी आयत के तहत। 

[19] क- फ़राइदुस्समतैन सम्ते अव्वल बाब 58 ख-शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 1 पेज न. 362 ग-असदुलग़ाब्बा जिल्द 3पेज न.307 व जिल्द 5 पेज न.205 घ- अल असाबा इब्ने हज्रे अस्क़लानी जिल्द 2 पेज न. 408 व जिल्द 4 पेज न.80 ङ-मुसनदे अहमदजिल्द 1 पेज 84 व 88      च- अलबिदाया वन्निहाया इब्ने कसीर शामी जिल्द 5 पेज न. 210 व जिल्द 7 पेज न. 348 छ-मजमउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द 9 पेज न. 106 ज-ज़ख़ाइरिल उक़बा पेज न.67( अलग़दीर जिल्द 1 पेज न.163व 164.

[20] क- अस्नल मतालिब शम्सुद्दीन शाफ़ेई तिब्क़े नख़ले सखावी फ़ी ज़ौइल्लामेए जिलेद 9 पेज 256 ख-अलबदरुत्तालेअ शौकानी जिल्द 2 पेज न.297 ग- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 273 घ- मनाक़िबे अल्लामा हनॉफ़ी पेज न. 130 ङ- बलाग़ातुन्नसा पेज न.72 च- अलअक़दुल फ़रीद जिल्द 1 पेज न.162 छ- सब्हुल अशा जिल्द 1 पेज न.259 ज-मरूजुज़्ज़हब इब्ने मसऊद शाफ़ई जिल्द 2 पेज न. 49 झ- यनाबी उल मवद्दत पेज न. 486.

[21] इन अशआर का हवाला पहले दिया जा चुका है।

[22] शब्दकोष का ज्ञाता

[23] मरहूम अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की दूसरी जिल्द में पेज न. 25-30 पर इस शेर को दूसरे अशआर के साथ 11 शिया उलमा और 26 सुन्नी उलमा के हवाले से नक़्ल किया है।

[24] “अलस्तु औला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम” इस जुम्ले को अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 371 पर आलमे इस्लाम के 64 महद्देसीन व मुवर्रेख़ीन से नक़्ल किया है।

[25] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 26,27,30,32,333,34,36,37,47 और 176 पर इस मतलब को अहले सुन्नत की किताबों जैसे सही तिरमिज़ी जिल्द 2 पेज न. 298, अलफ़सूलुल मुहिम्मह इब्ने सब्बाग़ पेज न. 25, अलमनाक़िब उस सलासह हाफ़िज़ अबिल फ़तूह पेज न. 19 अलबिदायह वन्निहायह इब्ने कसीर जिल्द 5 पेज न. 209 व जिल्द 7 पेज न. 347 , अस्सवाएक़ुल मुहर्रिकह पेज न. 25, मजमिउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द9 पेज न.165 के हवाले से बयान किया गया है।

[26] अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 43,165, 231, 232, 235 पर हदीस के इस हिस्से का हवाला इब्ने जरीर की किताब अलविलायत पेज न. 310, तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज न. 14, तफ़सीरे दुर्रे मनसूर जिल्द 2 पेज न. 259, अलइतक़ान जिल्द 1 पेज न. 31, मिफ़ताहुन्निजाह बदख़शी पेज न. 220, मा नज़लः मिनल क़ुरआन फ़ी अलियिन अबुनईमे इस्फ़हानी, तारीखे खतीबे बग़दादी जिल्द 4 पेज न. 290, मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 80, अल खसाइसुल अलविया अबुल फ़तह नतनज़ी पेज न. 43, तज़किराए सिब्ते इब्ने जोज़ी पेज न. 18, फ़राइदुस्समतैन बाब 12, से दिया है।

[27] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270, 283.

[28] सूरए हुजरात आयत न. 10

[29] इस हदीस को मुहम्मद बिन अबि बक्र व अबुज़र व अबु सईद ख़ुदरी व दूसरे लोगों ने पैगम्बर (स.) से नक़्ल किया है। (अल ग़दीर जिल्द 3)

[30] तफ़सीरे कबीर जिल्द 1/205

[31] अल्लामा अमीने अपनी किताब अलग़दीर की तीसरी जिल्द में   इन पचास की पचास हदीसों का ज़िक्र उनके हवालों के साथ किया है।

[32] मसतदरके हाकिम जिल्द 2/150 हैदराबाद से छपी हुई।   इसके अलावा अहले सुन्नत की कम से कम तीस मशहूर किताबों में इस हदीस को नक़्ल किया गया है।



कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए आले इमरान 3:54-76

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 सूरए आले इमरान की आयत संख्या ५४ तथा ५५ इस प्रकार है।


(ईसा मसीह के शत्रुओं ने उनकी हत्या की) योजना बनाई और ईश्वर ने भी (उन्हें बचाने की) युक्ति की और ईश्वर सबसे अच्छा युक्ति करने वाला है। (3:54) जब ईश्वर ने कहा, हे ईसा! मैं तुम्हें (यहूदियों) के चंगुल से छुड़ाने वाला और अपनी ओर ऊपर लाने वाला हूं और तुम्हें ऐसे लोगों से पवित्र करने वाला हूं जिन्होंने इन्कार किया तथा मैं तुम्हारा अनुसरण करने वालों को, तुम्हारा इन्कार करने वालों पर प्रलय तक के लिए वरीयता देने वाला हूं। तो जान लो कि तुम सबकी वापसी मेरी ही ओर है और मैं उन बातों का फ़ैसला करूंगा जिसमें तुम्हारे बीच मतभेद था। (3:55)
 पिछले कार्यक्रमों में हमने कहा था कि हज़रत ईसा मसीह की ओर से अनेक ईश्वरीय चमत्कार प्रस्तुत किये जाने के बावजूद कुछ लोगों ने उनका इन्कार किया और उनकी बातों को स्वीकार नहीं किया। इन आयतों में उनकी ओर से हज़रत ईसा की हत्या के षड्यंत्र की सूचना देते हुए कहा गया है कि काफ़िरों के मुखिया, इस पैग़म्बर की आवाज़ को दबाने और उनकी हत्या के लिए योजनाएं बना रहे हैं।
 उन लोगों ने हज़रत ईसा और उनके साथियों की गिरफ़्तारी पर बड़ा भारी इनाम रखा और इस प्रकार उन्हें मारने की भूमिका समतल की परन्तु ईश्वर ने उनके षड्यंत्रों को विफल बनाते हुए हज़रत ईसा मसीह को बचा लिया। ईसाइयों के विश्वास के अनुसार यहूदियों ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को सूली पर लटका दिया, यहां तक कि उनकी मृत्यु हो गई। उसके पश्चात उन्हें दफ़न कर दिया गया और फिर ईश्वर ने उन्हें मरे हुए लोगों के बीच से निकालकर आकाशों तक पहुंचा दिया। परन्तु क़ुरआन की आयतों, विशेषकर सूरए निसा की १५७वीं आयत से ऐसा प्रतीत होता है कि यहूदियों ने हज़रत ईसा के स्थान पर उनकी ही जैसी सूरत वाले एक अन्य व्यक्ति को सूली पर लटका कर मार दिया था और ईश्वर ने अपनी शक्ति से हज़रत ईसा को उस वातावरण से निकाल कर आकाशों तक पहुंचा दिया जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को भी अल्पावधि के लिए मेराज पर ले जाया गया था और वे आकाशों की बातों से अवगत हुए थे।
 आगे चलकर यह आयत ईसाइयों को शुभ सूचना देती है कि ईसा मसीह का अनुसरण करने वालों को सदैव उनके धर्म का इन्कार करने वालों अर्थात यहूदियों पर वरीयता प्राप्त रहेगी और यह पवित्र क़ुरआन कह एक भविष्यवाणी है जो १४०० वर्षों से लेकर अब तक सिद्ध होती आई है।
 इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर का इरादा और उसकी इच्छा मनुष्य की हर युक्ति और कोशिश से ऊपर है अतः हमें ईश्वरीय इरादे के समक्ष बहाना नहीं बनाना चाहिए।
 पैग़म्बरों का अनुसरण, विजय और वरियता प्राप्त कोने का कारण है जबकि कुफ़्र, पतन और अंत का कारण बनता है।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ५६, ५७ तथा ५८ इस प्रकार है।
तो काफ़िर हो जाने वाले गुट को मैं लोक व परलोक में कड़ा दण्ड दूंगा और कोई उनका सहायक नहीं होगा। (3:56) परन्तु जो लोग ईमान लाए और भले कर्म करते रहे, ईश्वर उन्हें उनका बदला बिना किसी कमी के देगा और वह अत्याचारियों को पसंद नहीं करता। (3:57) हे पैग़म्बर! हम तुम्हारे लिए जिस चीज़ की तिलावत करते हैं वह ईश्वरीय आयतें और तत्वदर्शी नसीहतें हैं। (3:58)
 हज़रत ईसा मसीह की हत्या का षडयंत्र रचने के कारण ईश्वर ने बनी इस्राईल को एक भारी संकट और अभिशाप में फंसा दिया। इतिहास में वर्णित है कि लगभग ४० वर्षों तक रोम का एक शासन उन पर राज करता रहा और उसने उनके हज़ारों लोगों की हत्या कराई या उन्हें कै़द कर दिया, यहां तक कि उसने कुछ क़ैदियों को भूखे दरिन्दों के सामने फिंकवा दिया अलबत्ता ईश्वर किसी पर भी अत्याचार नहीं करता बल्कि उसका बदला स्वयं हमारे कर्मों के आधार पर होता है। कुफ़्र, शत्रुता, द्वेष और हठधर्मी का परिणाम अत्याचारियों के चुंगल में फंसने और सौभाग्य व कल्याण के मार्ग से दूर हो जाने के अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं होता। जैसा कि ईमान और भले कर्मों का संसार व प्रलय में भौतिक व आध्यात्मिक विभूतियों के अतिरिक्त कुछ और बदला नहीं हो सकता।
 इन आयतों से हमने सीखा कि यद्यपि ईश्वरीय परंपरा, कर्मों का बदला प्रलय तक के लिए रोके रखने की है परन्तु कभी-कभी वह इस संसार में भी दण्ड देता है।
 ईश्वरीय कोप से संसार की कोई भी शक्ति नहीं बचा सकती अतः हमें अपने कार्यों के परिणामों के बारे में विचार करना चाहिए।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ५९ तथा ६० इस प्रकार है।
निःसन्देह, ईश्वर के समीप ईसा (की सृष्टि) का उदाहरण, आदम (की सृष्टि) की भांति है। ईश्वर ने उसे मिट्टी से बनाया फिर उससे कहा कि हो जा तो वह हो गया। (3:59) हे पैग़म्बर! सत्य वही है जो तुम्हारे पालनहार की ओर से है अतः संदेह करने वालों में से न हो जाना। (3:60)
 मदीना नगर के यहूदियों का एक गुट पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की सेवा में पहुंचा। अपनी बात-चीत में उस गुट के लोगों ने पैग़म्बर से, बिना पिता के हज़रत ईसा मसीह के जन्म को, उनके ईश्वर होने का प्रमाण बताया। उस समय ईश्वर की ओर से यह आयत आई जिसमें उत्तर में कहा गया कि यदि बिना पिता के हज़रत ईसा का जन्म उनके ईश्वर होने का प्रमाण है तो हज़रत आदम की सृष्टि तो इससे भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वे तो बिना माता-पिता के पैदा हुए थे तो तुम लोग उन्हें ईश्वर या ईश्वर का पुत्र क्यो नहीं कहते?
 इसके पश्चात ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और अन्य मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है कि सत्य और ठोस बात, ईश्वर की बात है कि जो सभी वास्तविकताओं का स्रोत है और उन्हें पूर्ण रूप से जानता है। दूसरे लोगों की बातों के विपरीत जो अज्ञान व ग़लती के आधार पर बात करते हैं या साम्प्रदायिक्ता या स्वार्थ के कारण। अतः केवल ईश्वर की बात पर ध्यान दो और दूसरों की बातें ईश्वरीय वाणी में तुम्हारे संदेह का कारण न बनें।
 इन आयतों से हमने सीखा कि कुछ पैग़म्बरों की सृष्टि में जो चमत्कार हुए है या उनके हाथों से जो चमत्कार हुए हैं वे ईश्वर की शक्ति के चिन्ह हैं न कि मनुष्यों के ईश्वर होने के।
 सत्य व सत्यता केवल ईश्वरीय क़ानूनों में ही मिलती है अतः यदि हमें सत्य की खोज है तो हमें ईश्वरीय क़ानूनों का अनुसरण करना चाहिए।

सूरए आले इमरान; आयतें ६१-६४
सूरए आले इमरान की आयत संख्या ६१ इस प्रकार है।
तो (हे पैग़म्बर) जो कोई भी (ईश्वरीय संदेश वहि द्वारा) तुम्हारे पास आने वाले ज्ञान के पश्चात तुमसे (ईसा मसीह के बारे में) बहस और विवाद करे तो उससे कह दो कि हम अपने पुत्रों को लाएं और तुम अपने पुत्रों को, हम अपनी स्त्रियों को लाएं, तुम अपनी स्त्रियों को लाओ, हम अपने आत्मीय लोगों को और तुम अपने आत्मीय लोगों को लाओ तो फिर हम ईश्वर के समक्ष प्रार्थना करें और एक-दूसरे को अभिशाप करें तथा झूठ बोलने वालों के लिए ईश्वरीय लानत अर्थात अभिशाप निर्धारित करें। (3:61)
 इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने यमन के नजरान क्षेत्र में इस्लाम के प्रचार के लिए एक गुट भेजा था। इसके जवाब में नजरान के ईसाइयों ने पैग़म्बर से वार्ता के लिए एक गुट मदीना नगर भेजा। उस गुट ने हज़रत ईसा मसीह के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम की बातें स्वीकार नहीं कीं। ईश्वर के आदेश पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम उनसे मुबाहेला करने अर्थात सत्य की पहचना के लिए एक दूसरे पर ईश्वर की ओर से लानत भेजने के लिए तैयार हुए। आपने उन ईसाइयों से कहा कि तुम अपने बच्चों, स्त्रियों और सबसे अधिक आत्मीय लोगों का एक गुट लाओ और हम भी ऐसा ही करेंगे उसके पश्चात एक स्थान पर एकत्रित होकर ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि हम दोनों में से जो भी गुट सत्य पर नहीं है उसे तू अपनी दया व कृपा से दूर कर दे और उसे इसी समय दंडित कर।
 नजरान के ईसाइयों ने जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का यह प्रस्ताव सुना तो उनसे इस बारे में निर्णय करने हेतु आपस में परामर्श करने के लिए कुछ समय मांगा। ईसाइयत के बड़े-बड़े महत्वपूर्ण लोगों ने उनसे कहा कि यह प्रस्ताव स्वीकार कर लो किंतु यदि तुम यह देखो कि पैग़म्बरे इस्लाम भारी भीड़ लाने के स्थान पर अपने प्रियजनों का एक छोटा सा गुट ला रहे हैं तो फिर उनसे मुबाहेला न करना बल्कि किसी भी प्रकार से उनसे संधि कर लेना।
 मुबाहेला के निए निश्चित किया गया दिन आ गया। ईसाइयों ने देखा कि पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम अपने साथ केवल चार लोगों को ही लाए हैं। उनकी पुत्री फ़ातेमा, उनके दामाद अली इब्ने अबी तालिब और उन दोनों के दो पुत्र हसन और हुसैन। ईसाई गुट के नेता ने कहा कि मैं ऐसे चेहरों को देख रहा हूं जो यदि प्रार्थना करें तो पहाड़ अपने स्थान से हट जाएं और यदि हमें शाप दें तो हमसे से एक व्यक्ति भी बाक़ी नहीं बचेगा। अतः ईसाइयों ने मुबाहेला करने से इन्कार कर दिया।
 इस आयत से हमने सीखा कि प्रश्न का ठोस तथा तर्कपूर्ण उत्तर देना चाहिए परन्तु सत्य के मुक़ाबले में हठधर्मी, शत्रुता और द्वेष का उत्तर ईश्वरीय कोप के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है।
 हम यदि ईश्वरीय धर्म में आस्था रखते हैं तो हमें डट कर खड़े रहना चाहिए और जानना चाहिए कि असत्य पर होने के कारण शत्रु अवश्य पीछे हटेगा। पैग़म्बर के परिजनों की प्रार्थना भी, पैग़म्बर की भी भांति अवश्य ही स्वीकार होती है। पैग़म्बर ने अपने व्यवहार द्वारा हज़रत हसन और हजरत हुसैन को अपने पुत्र और हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपनी आत्मा बताया।
 अपनी सामान्य योग्यताओं को प्रयोग करने के पश्चात ईश्वर से सहायता मांगनी चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने पहले प्रचार और वार्ता की और उसके बाद मुबाहेला तथा प्रार्थना के लिए हाथ उठाए।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ६२ तथा ६३ इस प्रकार है।
निःसन्देह (ईसा मसीह के जीवन) की सच्ची कहानी यही है और ईश्वर के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है और निःसन्देह, ईश्वर प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (3:62) फिर यदि वे लोग सत्य की ओर से मुंह मोड़ लें तो जान लो कि ईश्वर बुरे कर्म करने वालों को भलि भांति जानने वाला है। (3:63)
 मुबाहेला की घटना के पश्चात ईश्वर अपने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से कहता है कि ईसा मसीह के बारे में हमने जो कुछ तुम्हें बताया है वही उनके जीवन की सच्ची कहानी है जिसे ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी पूर्ण रूप से नहीं जानता। और जो लोग ईसा मसीह के बारे में यह सोचते हैं कि वे ईश्वर के पुत्र हैं तो यह झूठ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है क्योंकि ईश्वर के अतरिक्त कोई भी पूज्य नहीं है तो जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते वे जान लें कि ईश्वर उनके कर्मों को और उनको दिये जाने वाले दण्ड से भलि भांति अवगत है।
 लोगों के बीच जो कहानियां प्रचलित हैं वे मूल रूप से दो ही प्रकार की होती हैं। प्रथम एसी कहानियां जो पूर्ण रूप से काल्पनिक होती हैं तथा उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता है। ऐसी कहानियां केवल एक कहानीकार की काल्पनिक शक्ति का ही परिणाम होती हैं। दूसरी वे कहानियां हैं जो इतिहास के आधार पर लिखी गई हैं किंतु उन्हें रोचक बनाने के लिए कुछ झूठी बातें भी उनमें मिला दी गई हैं।
 पवित्र क़ुरआन के क़िस्से वास्तविकता के आधार पर हैं न कि कल्पना के आधार पर और दूसरे यह सारे क़िस्से सत्य हैं और इन्हें वास्तविकता स्पष्ट करने के लिए बयान किया गया है अतः इनमें कमी-बेशी नहीं है।
 इन आयतों से हमे यह पता चलता है कि यदि क़ुरआन न होता तो हम हज़रत ईसा मसीह और अनेक पैग़म्बरों तथा राष्ट्रों के वास्तविक स्वरूप से अवगत नहीं हो पाते।
 सत्य को स्वीकार न करना और उससे द्वेष रखना, बुराई का एक उदाहरण है जो मनुष्य तथा समाज को पतन की ओर ले जाता है।
 इस बात पर यदि हम ध्यान दें ध्यान दें कि ईश्वर हमारे सभी कर्मों को देख रहा है तो हम अपने कार्यों के प्रति सचेत हो जाएंगे।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ६४ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) कह दो कि हे (आसमानी) किताब वालो! उस बात की ओर आओ जो हमारे और तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है। यह कि हम ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना न करें और किसी को उसका समकक्ष न ठहराएं और हम में से कुछ, कुछ दूसरों को ईश्वर के स्थान पर पालनहार न मानें। तो यदि उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार न किया तो (हे मुसलमानो!) कह दो कि गवाह रहो कि हम मुस्लिम और ईश्वर के प्रति समर्पित हैं। (3:64)
 पिछली आयतों में क़ुरआन ने पहले तो ईसाइयों को तर्क के आधार पर इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण दिया था परन्तु जब उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो उन्हें मुबाहेला करने को कहा गया लेकिन वे लोग मुबाहेला करने के लिए भी तैयार नहीं हुए। इस आयत में ईश्वर अपने पैग़म्बर से कहता है कि उनसे कहो कि यदि तुम इस्लाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो तो आओ कम से कम अपनी संयुक्त आस्थाओं और विश्वासों पर हम एकता कर लें और कुफ़ तथा अनेकेश्वरवाद का मुक़ाबला मिलकर करें। यद्यपि तुम तस्लीस अर्थात तीन ईश्वरों पर विश्वास रखते हो परन्तु उनमें तुम एकेश्वरवाद से कोई अंतर नहीं देखते अतः तुम तस्लीस में एकता को मानते हो अतः आओ और एक संयुक्त विश्वास के रूप में एकेश्वरवाद को आधार मान कर हम एकत्रित हो जाएं और उसे ग़लत व्याख्यानों से दूर रखें जिनका परिणाम अनेकेश्वरवाद है।
 ईसाइयों के कुछ विद्वान ईश्वर द्वारा हराम या हलाल बातों का आदेश अपनी ओर से परिवर्तित कर देते थे, जबकि इसका अधिकार तो केवल ईश्वर को ही है। अतः क़ुरआन कहता है कि आओ ऐसे लोगों का अनुसरण न करो जो क़ानून बनाने में स्वयं को ईश्वर का शरीक या समकक्ष समझते हैं। अंत में यह आयत मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है कि यदि तुमने ईश्वरीय धर्म वालों को एकता का आहृवान किया और उन्होंने उसे स्वीकार न किया तो तुम लोग ढ़ीले मत पड़ जाओ और दृढ़तापूर्वक घोषणा करो कि हम केवल ईश्वर के प्रति समर्पित हैं और तुम्हारा इन्कार ईश्वर की उपासना में हम पर कोई प्रभाव नहीं डालेगा।
 इस आयत से हमने सीखा कि क़ुरआन हमें संयुक्त विश्वासों के आधार पर ईश्वरीय किताब रखने वालों से एकता का निमंत्रण देता है अतः मुसलमानों के बीच किसी भी प्रकार का मतभेद उत्पन्न करना इस्लाम तथा क़ुरआन के विरुद्ध है।
 सभी मनुष्य बराबर हैं और किसी को भी दूसरे पर शासन करने का अधिकार प्राप्त नहीं है सिवाए ईश्वर के आदेश के।
 आसमानी किताब वालों को इस्लाम का निमंत्रण देने में मुसलमानों को पहल करनी चाहिए और इस मार्ग में यदि वे अपने सही लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते तो कुछ थोड़े ही लक्ष्य प्राप्त करने के प्रयास में उन्हें कमी नहीं करनी चाहिए।


सूरए आले इमरान की आयत संख्या ६५ तथा ६६ इस प्रकार है।

हे (आसमानी) किताब के मानने वालो! तुम लोग इब्राहीम के बारे में क्यों विवाद करते हो? (और उन्हें अपनी-अपनी किताब का अनुसरणकर्ता कहते हो) जबकि तुम जानते हो कि तौरेत और इंजील उनके बाद उतारी गई हैं, क्या तुम चिन्तन नहीं करते? (3:65) तुम वही लोग तो हो कि (हज़रत ईसा और) जो कुछ (उनके जन्म व जीवन से संबंधित था उसके बारे में) ज्ञान होने के बावजूद तुमने आपस में विवाद किया। तो अब (इब्राहीम और) उस चीज़ के बारे में क्यों लड़ते हो जिसके बारे में तुम्हें ज्ञान नहीं है जबकि ईश्वर जानता है और तुम नहीं जानते। (3:66)
 पूरे इतिहास में सदैव ही ईश्वरीय धर्मों के मानने वालों के बीच अपनी सत्यता को लेकर विवाद और झगड़ा रहा है। यद्यपि सारे पैग़म्बर एक ही ईश्वर की ओर से आए हैं और उनकी किताबें एक दूसरे से समन्वित हैं परन्तु जातीय या धार्मिक साम्प्रदायिकता इस बात का कारण बनी है कि कुछ ईमान वाले, तर्क द्वारा लोगों को ईश्वरीय धर्म की ओर आमंत्रित करने के स्थान पर निराधार और बेकार बातों पर लड़ें-झगड़ें।
 हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम के आने के पश्चात, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों का कर्तव्य था कि वे उनका अनुसरण करें परन्तु उन्होंने घमण्ड और सामंप्रादायिक्ता के आधार पर इस बात को स्वीकार नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने हज़रत इब्राहीम को भी जो हज़रत मूसा से पूर्व थे, अपने धर्म का अनुयायी बताया जबकि इतिहास की दृष्टि से यह बात कदापि स्वीकार्य नहीं है अतः ईश्वर इसाइयों और यहूदियों को संबोधित करते हुए कहता है कि तुम्हारे इस धार्मिक विवाद का स्रोत जातीय द्वेष व हठधर्मी है क्योंकि तुमने ईसा मसीह के जीवन व जन्म के बारे में ज्ञान रखने के बाद भी एक दूसरे से बहस की और अब तुम हज़रत इब्राहीम के बारे में बहस कर रहे हो जिनके धर्म के बारे में तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। जब तुम ज्ञान व स्पष्ट बातों से सहमत नहीं हो सकते तो ऐसे मामले में क्यों पड़ते हो जिसके बारे में तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।
 इन आयतों से हमने सीखा कि धर्म की सत्यता, तर्क व बौद्धिक प्रमाणों द्वारा सिद्ध करनी चाहिए न कि उसके व्यक्ति विशेष से संबन्धित होने या अन्य धर्मों से प्राचीन होने के आधार पर।
 वह बहस और वार्ता लाभदाय है जो सत्य तक पहुंचने के उद्देश्य से हो अन्यथा वह मतभेद का कारण बनती है।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ६७ और ६८ आयत इस प्रकार है।
इब्राहीम न तो यहूदी थे और न ही ईसाई बल्कि वे तो सत्यप्रेमी और ईश्वर के प्रति समर्पित रहने वाले थे तथा कदापि अनेकेश्वरवादी न थे। (3:67) निःसन्देह हज़रत इब्राहीम के सबसे अधिक निकट वे लोग हैं जिन्होंने उनका अनुसरण किया और यह पैग़म्बर तथा ईमान वाले लोग। और ईश्वर ईमान लाने वालों का संरक्षक तथा मित्र है। (3:68)

 इस आयत में हज़रत इब्राहीम को सत्यप्रेमी तथा वास्तविकता का खोजी बताया गया है जो हर प्रकार के अनेकेश्वरवाद से दूर तथा ईश्वर के प्रति समर्पित है। इस प्रकार से यह आयत इस बात की ओर संकेत करती है कि ईसा तथा मूसा के अनुयाइयों तुम लोग भी धार्मिक सांप्रदायिक्ता के स्थान पर सत्य और वास्तिवक्ता की खोज में रहो और केवल स्य के प्रति समर्पति न रहो। तुम्हारे बीच मतभेद का स्रोत अंहकार है न कि ईश्वर की उपासना, यह सबसे बड़ा अनेकेश्वरवाद है।
 तुम स्वयं को यदि हज़रत इब्राहीम के समीप करना चाहते हो ताकि उनकी लोकप्रियता से अपने धर्म का प्रचार कर सको तो जान लो कि धर्म का पालन केवल ज़बान और दावे से नहीं होता। हज़रत इब्राहीम से सबसे निकट व्यक्ति वह है जो उनकी प्रिय पद्धति का अनुसरण करे और उसे व्यावहारिक बनाए। जैसे कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व उनके साथी थे। उन्होंने हज़रत इब्राहीम को अपने धर्म का अनुसरणकर्ता समझने के बजाए स्वयं को उनका अनुयाई बताया।
 वैचारिक तथा धार्मिक रिश्ते, जातीय और सांसारिक रिश्तों पर वरीयता रखते हैं। एकसमान विचार रखने वाले लोगों का चाहे आपस में कोई रिश्ता न हो परन्तु फिर भी वे आपस में उन लोगों के मुक़ाबले अधिक समीप हैं जो रिश्तेदार तो होते हैं परन्तु समान विचार व विश्वास नहीं रखते।
 नेता व अनुयायी का एक ही जाति से होना आवश्यक नहीं है। ईमान का आधार, विचारधारा है न कि भाषा व जाति। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने सलमान फ़ारसी के बारे में, जो अरब मूल के नहीं थे, कहा है कि सलमान हम में से हैं।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ६९, ७० तथा ७१ इस प्रकार है।
आसमानी किताब वालों का एक गुट इच्छा करता है कि काश तुम लोगों को पथभ्रष्ट कर सकता। जबकि वे अपने आप के अतिरिक्त किसी और को भटका नहीं रहे हैं परन्तु वे (यह बात) नहीं समझते हैं। (3:69) (हे पैग़म्बर! उन लोगों से कह दो) हे किताब वालों, क्यों ईश्वर की आयतों (तथा पैग़म्बरे इस्लाम के ईश्वरीय दूत होने की निशानियों) का इन्कार करते हो जबकि तुम स्वयं (उसके सही होने की) गवाही देते हो। (3:70) हे किताब वालो! क्यों जान-बूझ कर सत्य को असत्य से गड-मड करते हो और जानने के बावजूद सत्य को छिपाते हो? (3:71)
 यह आयतें धर्म और सत्य के शत्रुओं के मन और सोच पर से पर्दा उठाते हुए कहती हैं कि जो लोग स्वयं को ईश्वर का उपासक व ईश्वरीय किताब रखने वाला कहते हैं उनका एक गुट यह इच्छा रखता है कि तुम मुसलमानों को भी अपनी ही भांति पथभ्रष्ट कर दें। वे लोग यह जानने के बाद भी कि उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम के आने के पश्चात, कि जिनकी निशानियों को स्वयं उन्होंने तौरेत तथा इंजील में पढ़ा है, उनपर ईमान लाकर इस्लाम को स्वीकार करना चाहिए परन्तु जातीय व धार्मिक द्वेष इस बात का कारण बनता है कि वे केवल न यह कि असत्य पर बाक़ी रहते हैं बल्कि उन वास्तविकताओं को भी छिपाते हैं जनका उन्हें ज्ञान है या उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि लोग उनके असत्य की ओर न जाएं। अतः यह आयत मुसलमानों के लिए एक चेतावनी है कि अन्य धर्म के लोगों के साथ संपर्क में वे उनके साथ न मिल जाएं तथा मुसलमानों को पथभ्रष्ट करने के उनके कार्यक्रमों व उद्देश्यों से अवगत रहें।
 इन आयतों से हमने सीखा कि शत्रु की पहचान व उसके षड्यंत्रों का ज्ञान संभावित ख़तरों से बचे रहने का कारण बनता है। हमें सदैव सतर्क रहना चाहिए तथा अपने युवाओं को पथभ्रष्ट लोगों से मिलने से रोकना चाहिए।
 जो लोग दूसरों को पथभ्रष्ट करने का प्रयास करते हैं वे सबसे पहले अपनी पथभ्रष्टता में सहायता करते हैं क्योंकि द्वेष, कपट और छल का परिणाम, पथभ्रष्टता के अतिरिक्त कुछ नहीं निकलता।
 ईमान वाले व्यक्ति को सदैव असत्य से सत्य को अलग पहचानने का प्रयास करना चाहिए ताकि शत्रु, मामले को उसके लिए संदिग्ध बनाकर अपनी इच्छाएं पूरी न कर सके।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ७२ इस प्रकार है।
आसमानी किताबें रखने वालों में से एक गुट ने (आपस में ) कहा, जो कुछ मुसलमानों पर उतारा गया है, उसपर दिन के आरंभ में ईमान ले आओ और दिन के अंत में उसका इन्कार कर दो, शायद (इसी हथकण्डे से) वे लोग (इस्लाम से) पलट जाएं। (3:72)
 पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि काफ़िरों ने मुसलमानों के ईमान को दुर्बल बनाने के लिए विभिन्न षड्यंत्र रचे थे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण असत्य को सत्य के साथ मिलाकर सत्य को संदिग्ध बनाना था। यह आयत शत्रुओं के एक अन्य षडयंत्र का पर्दा चाक करते हुए कहती है कि काफ़िरों के नेता अपने कुछ अनुयाइयों को आदेश देते हैं कि वे, लोगों को धोखा देते हुए दिखावे के लिए क़ुरआन व पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयायी के रूप में स्वयं को परिचित कराएं और इस प्रकार मुसलमानों के बीच अपना प्रभाव बना लें। जब कुछ अवधि बीत जाए तो इस्लाम को छोड़ दें और ईमान वालों से कहें कि हमसे ग़लती हो गई थी, हमारा धर्म तो तुम्हारे धर्म से बेहतर है अतः हम उसी की ओर वापस पलट रहे हैं। स्वभाविक है कि यह बात मुसलमानों की भावना को कमज़ोर बनाएगी और वे अपने धर्म की सत्यता के बारे में संदेह करने लगेंगे। इसके अतिरिक्त अन्य काफ़रों को भी मुसलमान होने की प्रेरणा नहीं मिलेगी।
 इस आयत से हमने सीखा कि मुसलमानों को भोला नहीं होना चाहिए और शीघ्र ही किसी की बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए बल्कि होशियार होना चाहिए ताकि मिथ्याचारी उन्हें धोखा न दे सकें।
 शत्रु न केवल यह कि मुसलमानों के काफ़िर होने की लालसा रखाता है बल्कि अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सदैव षडयंत्र रचता रहता है अतः मुसलमानों को भी शत्रु के सांस्कृतिक हो-हल्ले का मुक़ाबला करने के लिए सदैव ही तैयार रहना चाहिए।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ७३ और ७४ इस प्रकार है।
(आसमानी किताब रखने वाले नेताओं ने अपने अनुयाइयों से कहा) उन लोगों के अतिरिक्त किसी पर भरोसा न करो जो तुम्हारे धर्म के अनुयाई हैं। वे लोग कहते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि जैसी चीज़ तुम्हें दी गई है वैसी ही किसी और को भी दे दी जाए या वे तुमसे तुम्हारे पालनहार के समक्ष तर्क दे सकें। (हे पैग़म्बर!) कह दो कि कृपा तो केवल ईश्वर के ही हाथ में है। वह जिसे चाहता है प्रदान कर देता है और ईश्वर बहुत समाई वाला तथा जानने वाला है। (3:73) वह जिसे चाहता है अपनी दया के लिए विशेष कर देता है और ईश्वर महान कृपा का अधिकारी है। (3:74)
 पिछली आयत की व्याख्या में हमने देखा कि यहदियों के नेताओं ने यह षड्यंत्र रचा कि मुसलमानों में ईमान को कमज़ोर करने के लिए वे पहले तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर ईमान ले आएं और फिर उनका इन्कार कर दें। यह आयत उनके षड्यंत्र को इस प्रकार स्पष्ट करती है कि उन्होंने एक दूसरे से कहा कि यह षड्यंत्र पूर्ण रूप से गोपनीय रहे और इस संबंध में हमें केवल अपने धर्म वालों पर ही विश्वास रखना चाहिए। यहां तक कि अन्य अनेकेश्वरवादियों को भी इसकी भनक नहीं पड़ने देना चाहिए नहीं तो यह रहस्य फाश हो जाएगा। परन्तु ईश्वर ने इन आयतों में उनको अपमानित किया और अपने पैग़म्बर को आदेश दिया कि उनसे कह दें कि मार्गदर्शन केवल ईश्वर की ओर से है तथा किसी विशेष मूल या जाति तक सीमित नहीं है। इसके अतिरिक्त जिन लोगों को ईश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त हो गया है उनपर इन षड्यंत्रों का कोई प्रभाव नहीं होने वाला है अतः बेकार में प्रयास मत करो।
 यह आयत यहूदियों के नेताओं के कथनों को इस प्रकार से उद्धरित करती है कि उन्होंने कहा कि यह मत सोचो कि किसी को वह गौरव और आसमानी किताब प्राप्त हो जाएगी जो तुम्हारे पास है, या कोई प्रलय के दिन ईश्वर के समक्ष तुमसे बहस करके, तुमसे जीत जाएगा। तुम संसार की सबसे श्रेष्ठ जाति व मूल के हो, तथा सर्वश्रेष्ठ ईश्वरीय प्रतिनिधत्व व बुद्वि तुम्हारे पास है।
 इन निराधार बातों के उत्तर में ईश्वर कहता है कि सभी विभूतियों एवं अनुकंपाएं, चाहे वह ईश्वरीय प्रतिनिधित्य हो या तर्क प्रस्तुत करने की बौद्धिक शक्ति हो सब की सब ईश्वर की ओर से है और वह इन्हे उसको देता है जिसमें योग्यता व क्षमता होती है। उसकी अनुकंपा व्यापक है, क्योंकि वह सबकी योग्यताओं और क्षमताओं से भलि भांति अवेत है अतः तुम लोग बेकार में धार्मिक द्वेष न रखो और ईश्वर पर केवल अपना अधिकार मत समझो।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि ईश्वरीय विभूतियां व अनुकंपाएं किसी भी विशेष गुट तक सीमित नहीं हैं। जो भी योग्यता रखता हो और उनके लिए प्रयास करे वह उन्हें प्राप्त कर सकता है।
 आसमानी किताब रखने वालों के नेता अपने अनुयाइयों को इस्लाम की ओर रुझान से चिन्तित हैं अतः वे इससे बचाव के लिए सदैव योजना बनाते रहते हैं।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ७५ और ७६ इस प्रकार है।
आसमानी किताब वालों में ऐसे लोग भी हैं कि यदि तुम धन-दौलत का एक ढेर भी उनकी अमानत में दे दो तो वे तुम्हारे (मांगते ही) उसे तुम्हें लौटा देंगे और उनमें से ऐसे भी हैं यदि एक दीनार भी उनकी अमानत में दे दो तो वे उसे तुम्हें नहीं लौटाएंगे सिवाए इसके कि तुम निरंतर उसका तक़ाज़ा करते रहो। यह (विश्वासघात) इसलिए है कि वे कहते हैं कि जिनके पास आसमानी किताब नहीं है उनके साथ हम जो भी करें हम पर कोई पाप नहीं है। वे जान-बूझ कर ईश्वर पर झूठ बांधते हैं। (3:75) हां! जो लोग अपनी प्रतिज्ञा और वादे को पूरा करें और ईश्वर से डरते रहें तो निःसन्देह ईश्वर अपना भय रखने वालों से प्रेम करता है। (3:76)
 यह आयत मुसलमानों को अपने विरोधियों के साथ भी न्याय के साथ काम लेने की सीख देते हुए कहती है कि आसमानी किताब रखने वालों के बीच भी भले और अमानतदार लोग मौजूद हैं जिनके पास तुम जो चीज़ भी रखोगे उसे वे तुम्हें लौटा देंगे। परन्तु विशिष्टता प्राप्ति व साम्प्रदायिकता की विचारधार इस बात का कारण बनती है कि कुछ लोग यह विचार करें कि ग़ैर यहूदियों की संपत्ति का कोई सम्मान नहीं है और यहूदी, दूसरों को अमानत स्वयं रख सकते हैं।
 विचित्र बात यह है कि इस ग़लत विचारधार को उनके यहां धार्मिक रंग दे दिया गया था और वे कहते थे कि ईश्वर ने उन्हें अनुमति दी है कि वे ग़ैर यहूदियों का माल हड़प सकते हैं।
 आगे चलकर क़ुरआन कहता है कि मुसलमानों को अपना अधिकार प्राप्त करने में ढिलाई नहीं बरतनी चाहिए बल्कि उन्हें अतिग्रहणकारी के मुक़ाबले में डट जाना तथा शक्ति का प्रयोग करके उससे अपना अधिकार लेना चाहिए। आज भी जातिवादी यहूदियों ने फ़िलिस्तीन का अतिग्रहण करके इस्राईल नामक एक शासन बना लिया है। वे किसी भी मानवीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून पर प्रतिबद्ध नहीं हैं और प्रतिदिन इस्लामी देशों की नई भूमियों को हड़पने का प्रयास करते रहते हैं अतः मुसलमानों को चाहिए कि वे अपने अधिकार को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करें और ज़ायोनियों को उनके सही स्थान पर पहुंचा दें।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि हमें अपने शत्रु के बारे में भी न्याय करना चाहिए और सबको विश्वासघाती या बुरा नहीं समझना चाहिए।
 अमानतदारी अच्छी आदत है चाहे वह शत्रु के पास ही क्यों न हो और विश्वासघात बुरा है चाहे वह शत्रु के साथ ही क्यों न किया जाए।
 पाप करने से भी बुरा कार्य उस पाप का औचित्य दर्शाना है। यहूदी, लोगों का माल हड़प जाया करते थे। वे अपने इस घृणित कार्य को ईश्वर से जोड़कर उसका औचित्य दर्शाते थे।
 अमानतदारी तथा व्यक्तिगत व सामाजिक प्रतिज्ञाओं और वादों का सम्मान मनुष्य की पवित्रता व ईश्वर से उसके भय की निशानी है जो ईश्वर की दृष्टि में उसे प्रिय बनाने का कारण है।

कर्बला के बहत्तर शहीद और उनकी जीवनी

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कर्बला के बहत्तर शहीद और उनकी संक्षिप्त जीवनी

शोहदा ए बनी हाशिम

1.     हज़रत अब्दुल्लाह – जनाबे मुस्लिम के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते।
2.     हज़रत मोहम्मद – जनाबे मुस्लिम के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते।
3.     हज़रत जाफ़र – हज़रत अक़ील के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते।
4.     हज़रत अब्दुर्रहमान - हज़रत अक़ील के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते।
5.     हज़रत मोहम्मद – हज़रत अक़ील के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते।
6.     हज़रत मोहम्मद – अब्दुल्ला के बेटे, जाफ़र के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते।
7.     हज़रत औन – अब्दुल्ला के बेटे जाफ़र के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते।
8. जनाबे क़ासिम – हज़रत इमाम हुसैन (अ) के बेटे, हज़रत इमाम अली (अ) के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते।
9.     हज़रत अबू बक्र - हज़रत इमामे हसन (अ) के बेटे, हज़रत इमामे अली (अ) के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते।
10.     हज़रत मोहम्मद - हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते।
11.     हज़रत अब्दुल्ला - हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते।
12.     हज़रत उसमान - हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते।
13.     हज़रत जाफ़र - हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते।
14.     हज़रत अब्बास - हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते।
15.     हज़रत अली अकबर – हज़रत इमामे हुसैन (अ) और हज़रत इमामे अली (अ) के पोते।
16.     हज़रत अब्दुल्लाह - हज़रत इमामे हुसैन (अ) और हज़रत इमामे अली (अ) के पोते।
17.     हज़रत अली असग़र - हज़रत इमामे हुसैन (अ) और हज़रत इमामे अली (अ) के पोते।
18.     हज़रत इमामे हुसैन (अ) - हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते।

कर्बला में शहीद होने वाले दूसरे शोहदा
1.      जनाबे मुस्लिम बिन औसजा – रसूल अकरम (स) के सहाबी थे।
2.     जनाबे अब्दुल्लाह बिन ओमैर कल्बी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
3.     जनाबे वहब – इन्होंने इस्लाम क़बूल किया था, करबला में इमाम हुसैन (अ) की नुसरत में शहीद हुए।
4.     जनाबे बोरैर इब्ने खोज़ैर हमदानी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
5.     मन्जह इब्ने सहम – इमाम हुसैन (अ) की कनीज़ हुसैनिया से पैदा हुए थे।
6.     उमर बिन ख़ालिद – कूफ़ा के रहने वाले और सच्चे मोहिब्बे अहलेबैत (अ) थे।
7.     यज़ीद बिन ज़ेयाद अबू शाताए किन्दी – कूफ़ा के रहने वाले थे।
8.     मजमा इब्ने अब्दुल्ला मज़जही – अली (अ) के सहाबी थे, यह जंगे सिफ़्फीन में भी शरीक थे।
9.     जनादा बिन हारिसे सलमानी – कूफ़ा के मशहूर शिया थे, यह हज़रते मुस्लिम के साथ जेहाद में भी शरीक थे।
10.     जन्दब बिन हजर किन्दी – कूफ़ा के प्रसिद्ध शिया व हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
11.     ओमय्या बिन साद ताई – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
12.     जब्ला बिन अली शैबानी – कूफ़ा के बाशिन्दे और हज़रत अली (अ) के सहाबी थे, करबला में हमल-ए-ऊला  (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
13.     जनादा बिन क़ाब बिन हारिस अंसारी ख़ज़रजी – मक्का से अपने कुन्बे के साथ करबला आए और हमल-ए-ऊला  (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
14.     हारिस बिन इमरउल क़ैस किन्दी – करबला में उमरे साद की फ़ौज के साथ आए थे लेकिन इमाम हुसैन (अ) के साथ शामिल होकर शहीद हुए।
15.     हारिस बिन नैहान – हज़रते हमज़ा के ग़ुलाम नैहान के बेटे और हज़रते अली (अ) के सहाबी थे।
16.     हब्शा बिन क़ैस नहमी – आलिमे दीन थे, हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
17.     हल्लास बिन अम्रे अज़्दी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
18.     ज़ाहिर बिन अम्रे सल्मी किन्दी – रसूल अकरम (स) के सहाबी और हदीस के रावी थे।
19.     स्वार बिन अबी ओमेर नहमी – हदीस के रावी थे, हमल-ए-ऊला  (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
20.     शबीब बिन अब्दुल्लाह – हारिस बिन सोरैय के ग़ुलाम थे, रसूल अकरम (स) और हज़रत अली (अ)  के सहाबी थे।
21.     शबीब बिन अब्दुल्लाह नहशली – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
22.     अब्दुर्रहमान बिन अब्दे रब अन्सारी ख़ज़रजी - रसूल अकरम (स) के सहाबी थे।
23.     अब्दुर्रहमान बिन अब्दुल्लाह बिन कदन अरहबी – जनाबे मुस्लिम के साथ कूफ़ा पहुँचे किसी तरह बचकर करबला पहुँचे और हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
24.     अम्मार बिन अबी सलामा दालानी – रसूल अकरम (स) और हज़रत अली (अ) के साथ भी शरीक थे। करबला में हमल-ए-ऊला  (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
25.     क़ासित बिन ज़ोहैर तग़लबी – यह और इनके दो भाई हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
26.     कुरदूस बिन ज़ोहैर बिन हारिस तग़लबी - क़ासित इब्ने ज़ोहैर के भाई और हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
27.     मसऊद बिन हज्जाज तैमी – उमरे साद की फ़ौज में शामिल होकर करबला पहुँचे लेकिन इमाम हुसैन (अ) की नुसरत में शहीद हुए।
28.     मुस्लिम बिन कसीर सदफ़ी अज़्दी – जंगे जमल में हज़रत अली (अ॰स॰) के साथ थे, करबला में हमला-ए-ऊला  (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
29.     मुस्कित बिन ज़ोहैर तग़लबी – करबला में हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
30.     कनाना बिन अतीक़ तग़लबी - करबला में हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
31.     नोमान बिन अम्रे अज़दी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे, हमला-ए-ऊला  (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
32.     नईम बिन अजलान अंसारी – हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए।
33.     अम्र बिन जनादा बिन काब ख़ज़रजी – करबला में बाप की शहादत के बाद माँ के हुक्म से शहीद हुए।
34.     हबीब इब्ने मज़ाहिर असदी – हज़रत रसूल अकरम (स) के सहाबी, हज़रत अली (अ), हज़रत इमामे हसन (अ) के सहाबी थे, इमामे हुसैन (अ) के बचपन के दोस्त थे और करबला में शहीद हुए।
35.     मोसय्यब बिन यज़ीद रेयाही – हज़रत हुर के भाई थे।
36.     जनाबे हुर बिन यज़ीद रेयाही – यज़ीदी फ़ौज के सरदार थे, बाद में इमामे हुसैन (अ) की ख़िदमत में हाज़िर होकर शहादत का गौरव प्राप्त किया।
37.     हुज़्र बिन हुर यज़ीद रेयाही – जनाबे हुर के बेटे थे।
38.     अबू समामा सायदी – आशूर के दिन नमाज़े ज़ोहर के एहतेमाम में दुश्मनों के तीर से शहीद हुए।
39.     सईद बिन अब्दुल्लाह हनफ़ी – ये भी नमाज़े ज़ोहर के समय इमाम हुसैन (अ) के सामने खड़े हुए और  दुश्मनों के तीर से शहीद हुए।
40.     ज़ोहैर बिन क़ैन बिजिल्ली - ये भी नमाज़ ज़ोहर में ज़ख़्मी होकर जंग में शहीद हुए।
41.     उमर बिन करज़ाह बिन काब अंसारी – ये भी नमाज़े ज़ोहर में शहीद हुए।
42.     नाफ़े बिन हेलाल हम्बली – नमाज़े ज़ोहर की हिफ़ाज़त में जंग की और बाद में शिम्र के हाथों शहीद हुए।
43.     शौज़ब बिन अब्दुल्लाह – मुस्लिम इब्ने अक़ील का ख़त लेकर कर्बला पहुँचे और शहीद हुए।
44.     आबिस बिन अबी शबीब शकरी – हज़रत इमाम अली (अ) के सहाबी थे, रोज़े आशूरा कर्बला में शहीद हुए।
45.     हन्ज़ला बिन असअद शबामी – रोज़े आशूर ज़ोहर के बाद जंग की और शहीद हुए।
46.     जौन ग़ुलामे अबूज़र ग़फ़्फ़ारी – हब्शी थे, हज़रत अबूज़र ग़फ़्फ़ारी के ग़ुलाम थे।
47.     ग़ुलामे तुर्की – हज़रत इमामे हुसैन (अ) के ग़ुलाम थे, इमाम ने अपने बेटे हज़रत इमामे ज़ैनुल आबेदीन (अ) के नाम हिबा कर दिया था।
48.     अनस बिन हारिस असदी – बहुत बूढ़े थे, बड़े एहतेमाम के साथ शहादत नोश फ़रमाई।
49.     हज्जाज बिन मसरूक़ जाफ़ी – मक्के से इमाम हुसैन (अ) के साथ हुए और वहीं से मोअज़्ज़िन का फ़र्ज़ अंजाम दिया।
50.     ज़ियाद बिन ओरैब हमदानी – इनके पिता हज़रत रसूल अकरम (स) के सहाबी थे।
51.     अम्र बिन जुनदब हज़मी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।
52.     साद बिन हारिस – हज़रत अली (अ) ग़ुलाम थे।
53.     यज़ीद बिन मग़फल – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे।

54.     सोवैद बिन अम्र ख़सअमी – बूढ़े थे, करबला में इमाम हुसैन (अ॰स॰) के तमाम सहाबियों में सबसे आख़िर में जंग में ज़ख्मी हुए थे। होश में आने पर इमाम हुसैन (अ) की शहादत की ख़बर सुन कर फिर जंग की और शहीद हुए।




दुआ ऐ कुमैल हिंदी तर्जुमा |

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दुआए कुमैल हिन्दी अनुवाद के साथ

اللهم إنِّي أَسْأَلُكَ بِرَحْمَتِكَ الَّتي وَسِعَتْ كُلَّ شَيْء، وَ بِقُوَّتِكَ الَّتي قَهَرْتَ بِها كُلَّ شَيْء، وَ خَضَعَ لَها كُلُّ شَيء، وَ ذَلَّ لَها كُلُّ شَيء، وَ بِجَبَرُوتِكَ الَّتي غَلَبْتَ بِها كُلَّ شَيء، وَ بِعِزَّتِكَ الَّتي لا يَقُومُ لَها شَيءٌ، وَ بِعَظَمَتِكَ الَّتي مَلأَتْ كُلَّ شَيء، وَ بِسُلْطانِكَ الَّذي عَلا كُلَّ شَيء، وَ بِوَجْهِكَ الْباقي بَعْدَ فَناءِ كُلِّ شَيء، وَ بِأَسْمائِكَ الَّتي مَلأَتْ أرْكانَ كُلِّ شَيء، وَ بِعِلْمِكَ الَّذي أَحاطَ بِكُلِّ شَيء، وَ بِنُورِ وَجْهِكَ الَّذي أَضاءَ لَهُ كُلُّ شيء، يا نُورُ يا قُدُّوسُ، يا أَوَّلَ الأوَّلِينَ وَ يا آخِرَ الآخِرينَ. اَللّهُمَّ اغْفِرْ لِي الذُّنُوبَ الَّتي تَهْتِكُ الْعِصَمَ، اَللّهُمَّ اغْفِرْ لِي الذُّنُوبَ الَّتي تُنْزِلُ النِّقَمَ، اَللّهُمَّ اغْفِرْ لِي الذُّنُوبَ الَّتي تُغَيِّرُ النِّعَمَ، اَللّهُمَّ اغْفِرْ لي الذُّنُوبَ الَّتي تَحْبِسُ الدُّعاءَ، اَللّهُمَّ اغْفِرْ لِي الذُّنُوبَ الَّتي تُنْزِلُ الْبَلاءَ، اَللّهُمَّ اغْفِرْ لي كُلَّ ذَنْب اَذْنَبْتُهُ، وَ كُلَّ خَطيئَة اَخْطَأتُها. اَللّهُمَّ اِنّي اَتَقَرَّبُ اِلَيْكَ بِذِكْرِكَ، وَ اَسْتَشْفِعُ بِكَ إلى نَفْسِكَ، وَ أَسْأَلُكَ بِجُودِكَ أن تُدْنِيَني مِنْ قُرْبِكَ، وَ أَنْ تُوزِعَني شُكْرَكَ، وَ أَنْ تُلْهِمَني ذِكْرَكَ، اَللّهُمَّ إني أَسْأَلُكَ سُؤالَ خاضِع مُتَذَلِّل خاشِع أن تُسامِحَني وَ تَرْحَمَني وَ تَجْعَلَني بِقِسْمِكَ راضِياً قانِعاً، وَ في جَميعِ الأحوال مُتَواضِعاً. اَللّهُمَّ وَ أَسْأَلُكَ سُؤالَ مَنِ اشْتَدَّتْ فاقَتُهُ، وَ اَنْزَلَ بِكَ عِنْدَ الشَّدائِدِ حاجَتَهُ، وَ عَظُمَ فيما عِنْدَكَ رَغْبَتُهُ. اَللّهُمَّ عَظُمَ سُلْطانُكَ، وَ عَلا مَكانُكَ، وَ خَفِي مَكْرُكَ، وَ ظَهَرَ اَمْرُكَ وَ غَلَبَ قَهْرُكَ، وَ جَرَتْ قُدْرَتُكَ، وَ لا يُمْكِنُ الْفِرارُ مِنْ حُكُومَتِكَ. اَللّهُمَّ لا أجِدُ لِذُنُوبي غافِراً، وَ لا لِقَبائِحي ساتِراً، وَ لا لِشَيء مِنْ عَمَلِي الْقَبيحِ بِالْحَسَنِ مُبَدِّلاً غَيْرَكَ، لا اِلهَ إلاّ أنْتَ، سُبْحانَكَ وَ بِحَمْدِكَ، ظَلَمْتُ نَفْسي، وَ تَجَرَّأْتُ بِجَهْلي، وَ سَكَنْتُ إلى قَديمِ ذِكْرِكَ لي وَ مَنِّكَ عَلَيَّ.

ऐ अल्लाह मै तुझ से इल्तेजा करता हूँ, तुझे तेरी उस रहमत का वास्ता जो हर चीज़ को घेरे हुए है, तेरी उस कुदरत का वास्ता जिस से तू हर चीज़ पर ग़ालिब है, जिस के सबब हर चीज़ तेरे आगे झुकी है और जिस के सामने हर चीज़ आजिज़ है, तेरी इस जब्र्रुत  का वास्ता जिस से तू हर चीज़ पर हावी है, तेरी इस इज्ज़त का वास्ता जिस के आगे कोई चीज़  ठहर नहीं पाती, तेरी उस अजमत का वास्ता जो हर चीज़  से नुमाया है, तेरी उस सल्तनत का वास्ता जो हर चीज़  पर  कायेम है, तेरी उस ज़ात का वास्ता जो हर चीज़ के फ़ना हो जाने के बाद भी बाकी रहेगी, तेरे उन नामो का वासता जिन के असरात ज़र्रे ज़र्रे में तारी  व सारी हैं, तेरे उस इल्म का वास्ता जो हर चीज़ का अहाता किये हुए हैं, तेरी ज़ात के उस नूर का  वास्ता जिस से हर चीज़ रोशन है!

ऐ   हकीकी नूर! ऐ पाक व पाकीज़ा! ए सब पहलों से पहले, ऐ सब पिछलो से पिछले ( ए अल्लाह मेरे सब गुनाह माफ़ कर दे जो अताब का मुस्तहक बनाते हैं! ऐ अल्लाह! मेरे वोह सब गुनाह माफ़ कर दे जिन की वजह से बालाएं आती हैं! ऐ अल्लाह मेरे वोह सब गुनाह माफ़ कर दे जो तेरी नेमतों से महरूमी का सबब बनते हैं! ऐ अल्लाह, मेरे वोह सब गुनाह बख्श दे जो दुआएं कबूल नहीं होने देते! ए अल्लाह, मेरे वोह सब गुनाह माफ़ कर दे जो मुसीबत लाते हैं! ऐ अल्लाह, मेरी इन सारी खाताओं से दर गुज़र कर जो मैंने जान बूझ कर या भूले से की हैं! ए अल्लाह, मैं तुझे याद करके तेरे करीब आना चाहता हूँ! तेरी जनाब में तुझी को अपना सिफारशी ठहराता हूँ, और तेरे करम का वास्ता दे कर तुझ से इल्तेजा करता हूँ के मुझे अपना कुर्ब अता कर) मुझे अदाए शुक्र की तौफीक दे और अपनी याद मेरे दिल में डाल दे!

ऐ अल्लाह, मैं तुझ से खोज़ू व खुशू और गिरया व ज़ारी से अर्ज़ करता हूँ के तू मेरी भूल चूक माफ़ कर, मुझ पर रहम फार्म और तू में मेरा जो हिस्सा मुक़र्रर किया है, मुझे इस पर राज़ी, काने और हर हाल में मुतमईन रख! ए अल्लाह, मै तेरे हजूर में इस शख्स की मानिंद सवाल करता हूँ जिस पर सख्त फाके गुज़र रहे हों, जो मुसीबतों से तंग आकर अपनी ज़रुरत तेरे सामने पेश करे, जो तेरे लुत्फो करम का ज्यादा से ज्यादा खाहिश्मंद हो! ऐ अल्लाह, तेरी सल्तनत बहुत बड़ी है, तेरा रुतबा बहुत बुलंद है, तेरी तदबीर पोशीदा है, तेरा हुकुम साफ़ ज़ाहिर है, तेरा कहर ग़ालिब है, तेरी कुदरत कार फरमा है, और तेरी हुकूमत से निकल जाना मुमकिन नहीं है! ऐ अल्लाह, मेरे गुनाह बख्शने, मेरे ऐब ढाँकने और मेरे किसी बुरे अमल को अच्छे अमल से बदलने वाला तेरे सिवा कोई नहीं है! तेरे इलावा और कोई माबूद नहीं है! तू पाक है, और मै तेरी ही हम्दोसेना  करता हूँ!

मैं  ने अपनी ज़ात पर ज़ुल्म किया और अपनी नादानी के बाएस बेग़ैरत बन गया! मै यह सोच कर मुतमईन हो गया के तू ने मुझे पहले भी याद रखा और अपनी नेमतों से नवाज़ा है! ऐ  अल्लाह,  

اَللّهُمَّ مَوْلاي كَمْ مِنْ قَبيح سَتَرْتَهُ، وَ كَمْ مِنْ فادِح مِنَ الْبَلاءِ اَقَلْتَهُ، وَ كَمْ مِنْ عِثارٍ وَقَيْتَهُ، وَ كَمْ مِنْ مَكْرُوهٍ دَفَعْتَهُ، وَ كَمْ مِنْ ثَناءٍ جَميلٍ لَسْتُ اَهْلاً لَهُ نَشَرْتَهُ. اَللّهُمَّ عَظُمَ بَلائي، وَ اَفْرَطَ بي سُوءُ حالي، وَ قَصُرَتْ بي اَعْمالي، وَ قَعَدَتْ بي اَغْلالي، وَ حَبَسَني عَنْ نَفْعي بُعْدُ اَمَلي، وَ خَدَعَتْنِي الدُّنْيا بِغُرُورِها، وَ نَفْسي بِجِنايَتِها، وَ مِطالي يا سَيِّدي فَأَسْأَلُكَ بِعِزَّتِكَ أن لا يَحْجُبَ عَنْكَ دُعائي سُوءُ عَمَلي وَ فِعالي، وَ لا تَفْضَحْني بِخَفِي مَا اطَّلَعْتَ عَلَيْهِ مِنْ سِرّي، وَ لا تُعاجِلْني بِالْعُقُوبَةِ عَلى ما عَمِلْتُهُ في خَلَواتي مِنْ سُوءِ فِعْلي وَإساءَتي، وَدَوامِ تَفْريطي وَجَهالَتي، وَ كَثْرَةِ شَهَواتي وَ غَفْلَتي، وَ كُنِ اللّهُمَّ بِعِزَّتِكَ لي في كُلِّ الأحوالِ رَؤوفاً، وَ عَلَي في جَميعِ الاُمُورِ عَطُوفاً.

ऐ मेरे मालिक, तू ने मेरी कितनी ही बुराईयों की परदापोशी की, कितनी ही सख्त बालाओं को मुझ से टाला, कितनी ही नाज़िशों से मुझ को बचाया, कितनी ही आफतों को रोका! और मेरी कितनी ही ऐसी खूबियाँ लोगो में मशहूर कर दीं जिन का मै अहल भी ना था! ऐ अल्लाह, मेरी मुसीबत बढ़ गयी है, मेरी बदहाली हद से गुज़र गयी है, मेरे नेक अमाल कम हैं, दुनयावी तालुक्कात के बोझ ने मुझ को दबा रखा है, मेरी उम्मीदों की दराजी ने मुझे नफा से महरूम कर रखा है, दुनिया ने अपनी झूटी चमक दमक से मझे धोका दिया है, और मेरे नफस ने मझे मेरे गुनाहों और मेरी टाल मटोल के बाअस  फरेब दिया है! ऐ मेरे आका अब मै तेरी इज्ज़त का वास्ता दे कर तुझ से इल्तेजा करता हूँ के मेरी बदअमालियाँ और ग़लतकारियां मेरी दुआ के कबूल होने में रुकावट ना बने!

मेरे जिन भेदों से तू वाकिफ है इन की वजह से मुझे रुसवा ना करना, मै ने अपनी तन्हाईयों में जो बदी, बुराई और मुसलसल कोताही की है और नादानी, बढ़ी हुई खाहिशाते नफस और गफलत के सबब जो काम किये हैं मुझे उनकी सजा देने में जल्दी ना करना! ऐ अल्लाह, अपनी इज्ज़त के तुफैल हर हाल में मुझ पर मेहरबान रहना, और मेरे तमाम मामलात में मुझ पर करम करते रहना!

اِلهي وَ رَبّي مَنْ لي غَيْرُكَ أَسْأَلُهُ كَشْفَ ضُرّي، وَ النَّظَرَ في اَمْري، اِلهي وَ مَوْلاي اَجْرَيْتَ عَلَي حُكْماً اِتَّبَعْتُ فيهِ هَوى نَفْسي، وَ لَمْ اَحْتَرِسْ فيهِ مِنْ تَزْيينِ عَدُوّي، فَغَرَّني بِما اَهْوى وَ اَسْعَدَهُ عَلى ذلِكَ الْقَضاءُ، فَتَجاوَزْتُ بِما جَرى عَلَيَّ مِنْ ذلِكَ بَعْضَ حُدُودِكَ، وَ خالَفْتُ بَعْضَ اَوامِرِكَ، فَلَكَ الْحَمْدُ عَلي في جَميعِ ذلِكَ، وَ لا حُجَّةَ لي فيما جَرى عَلَيَّ فيهِ قَضاؤُكَ، وَاَلْزَمَني حُكْمُكَ وَبَلاؤُكَ. وَقَدْ اَتَيْتُكَ يا اِلهي بَعْدَ تَقْصيري وَ اِسْرافي عَلى نَفْسي مُعْتَذِراً نادِماً مُنْكَسِراً مُسْتَقيلاً مُسْتَغْفِراً مُنيباً مُقِرّاً مُذْعِناً مُعْتَرِفاً، لا أجِدُ مَفَرّاً مِمّا كانَ مِنّي، وَ لا مَفْزَعاً اَتَوَجَّهُ إليه في أَمْري، غَيْرَ قَبُولِكَ عُذْري، وَ اِدْخالِكَ اِيّايَ في سَعَة رَحْمَتِكَ. اَللّهُمَّ فَاقْبَلْ عُذْري، وَ ارْحَمْ شِدَّةَ ضُرّي، وَ فُكَّني مِنْ شَدِّ وَثاقي.

ऐ मेरे अल्लाह, ऐ मेरे परवरदिगार, तेरे सिवा मेरा कौन है जिस से मै अपनी मुसीबत को दूर करने और अपने बारे में नज़रे करम करने का सवाल करूँ! ऐ मेरे माबूद और मेरे मालिक, मै ने खुद अपने खिलाफ फैसला दे दिया क्योंके मै हवाए नफस के पीछे चलता रहा और मेरे दुश्मन ने जो मुझे सुनहरे खाव्ब दिखाए मै ने इन से अपना बचाओ नहीं किया, चुनान्चेह इस ने मुझे खाहिशात के जाल में फंसा दिया, इस में मेरी तकदीर ने भी इस की मदद की! इस तरह मै ने तेरी मुक़र्रर की हुई बाज़ हदें तोड़ दीं और तेरे बाज़ अहकाम की नाफ़रमानी की!

बहरहाल तू हर तारीफ़ का मुस्तहक है और जो कुछ पेश आया इस में खता मेरी ही है! इस बारे में तुने जो फैसला किया, तेरा जो हुक्म जारी हुआ और तेरी तरफ से मेरी जो आजमाईश हुई इस के खिलाफ मेरे पास कोई उज्र नहीं है! ऐ मेरे माबूद, मै ने अपनी इस कोताही और अपने नफस पर ज़ुल्म के बाद माफ़ी मांगने के लिए हाज़िर हुआ हूँ! मै अपने किये पर शर्मसार हूँ, दिल शिकस्ता हूँ, मै अपने करतूतों से बाज़ आया, बक्शीश का तलबगार हूँ, पशेमानी के साथ तेरी जनाब में हाज़िर हूँ, जो कुछ मुझ से सरज़द हो चूका, उस के बाद मेरे लिए ना कोई भागने की जगह है और ना कोई ऐसा मददगार जिस के पास मै अपना मामला ले जाऊं! सिर्फ यही है के तू मेरी माज़रत कबूल कर ले, मुझे अपने दामने रहमत में जगह देदे! ऐ मेरे माबूद, मेरी माफ़ी की दरखास्त मंज़ूर कर ले, मेरी सख्त बदहाली पर रहम कर और मेरी गिरह कुशाई फर्मा दे!

يا رَبِّ ارْحَمْ ضَعْفَ بَدَني، وَ رِقَّةَ جِلْدي، وَ دِقَّةَ عَظْمي، يا مَنْ بَدَأَ خَلْفي وَ ذِكْري وَ تَرْبِيَتي وَ بِرّي وَ تَغْذِيَتي هَبْني لاِبْتِداءِ كَرَمِكَ، وَ سالِفِ بِرِّكَ بي. يا اِلهي وَ سَيِّدي وَ رَبّي، اَتُراكَ مُعَذِّبي بِنارِكَ بَعْدَ تَوْحيدِكَ، وَ بَعْدَ مَا انْطَوى عَلَيْهِ قَلْبي مِنْ مَعْرِفَتِكَ، وَ لَهِجَ بِهِ لِساني مِنْ ذِكْرِكَ، وَ اعْتَقَدَهُ ضَميري مِنْ حُبِّكَ، وَ بَعْدَ صِدْقِ اعْتِرافي وَدُعائي خاضِعاً لِرُبُوبِيَّتِكَ، هَيْهاتَ أنْتَ اَكْرَمُ مِنْ أنْ تُضَيِّعَ مَنْ رَبَّيْتَهُ، أوْ تُبَعِّدَ مَنْ أدْنَيْتَهُ، اَوْ تُشَرِّدَ مَنْ آوَيْتَهُ، اَوْ تُسَلِّمَ اِلَى الْبَلاءِ مَنْ كَفَيْتَهُ وَ رَحِمْتَهُ، وَ لَيْتَ شِعْري يا سَيِّدي وَ اِلهي وَ مَوْلايَ، اَتُسَلِّطُ النّارَ عَلى وُجُوه خَرَّتْ لِعَظَمَتِكَ ساجِدَةً، وَ عَلى اَلْسُن نَطَقَتْ بِتَوْحيدِكَ صادِقَةً، وَ بِشُكْرِكَ مادِحَةً، وَ عَلى قُلُوبٍ اعْتَرَفَتْ بِإلهِيَّتِكَ مُحَقِّقَةً، وَ عَلى ضَمائِرَ حَوَتْ مِنَ الْعِلْمِ بِكَ حَتّى صارَتْ خاشِعَةً، وَ عَلى جَوارِحَ سَعَتْ إلى أوْطانِ تَعَبُّدِكَ طائِعَةً، وَ اَشارَتْ بِاسْتِغْفارِكَ مُذْعِنَةً، ما هكَذَا الظَّنُّ بِكَ، وَ لا اُخْبِرْنا بِفَضْلِكَ عَنْكَ.

ऐ मेरे परवरदिगार, मेरे जिस्म की नातवानी, मेरी जिल्द की कमजोरी और मेरी हड्डियों की नाताक़ती पर रहम कर! ऐ वोह ज़ात जिस ने मुझे वजूद बख्शा, मेरा ख्याल रखा, मेरी परवरिश का सामान किया, मेरे हक में बेहतर की और मेरे लिए ग़ज़ा के असबाब फराहम किये! बस जिस तरह तू ने इस से पहले मुझ पर करम किया और मेरे लिए बेहतरी के सामन किये, अब भी मुझ पर वो पहला सा फज़ल व करम जारी रख! ऐ मेरे माबूद, मेरे मालिक, ऐ मेरे परवरदिगार, मै हैरान हूँ के क्या तू मुझे अपनी आतिशे जहन्नम का अज़ाब देगा हालांकि मै तेरी तौहीद का इकरार करता हूँ, मेरा दिल तेरी मार्फ़त से सरशार है, मेरी ज़बान पर तेरा ज़िक्र जारी है, मेरे दिल में तेरी मुहब्बत बस चुकी है और मै तुझे अपना परवरदिगार मान कर सच्चे दिल से अपने गुनाहों का एतेराफ करता हूँ, और गिडगिडा कर तुझ से दुआ मांगता हूँ! नहीं ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि तेरा करम इस से कहीं बढ़ कर है के तू इस शख्स को बेसहारा छोड़ दे जिसे तुने खुद पाला हो या उसे अपने से दूर कर दे जिसे तू ने खुद  अपना कुर्ब बख्शा हो या उसे अपने यहाँ से निकाल दे जिसे तुने खुद पनाह दी हो, या उसे बालाओं के हवाले कर दे जिस का तुने खुद ज़िम्मा लिया हो और जिस पर रहम किया हो, यह बात मेरी समझ में नहीं आती!

ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे माबूद, ऐ मेरे मौला, क्या तू आतिशे जहन्नम को मुसल्लत कर देगा इन चेहरों पर जो तेरी अजमत के बायेस तेरे हजूर में सज्दारेज़ हो चुके हैं, इन ज़बानों पर जो सिद्क़ दिल से तेरी तौहीद का इकरार करके शुक्रगुजारी के साथ तेरी मधा कर चुकी हैं, इन दिलों पर जो वाकई तेरे माबूद होने का ऐतेराफ कर चुके हैं, इन दिमागों पर जो तेरे इल्म से इस कद्र बहरावर हुए के तेरे हुज़ूर में झुके हुए हैं या इन हाथ पाँव पर जो इताअत के जज्बे के साथ तेरी इबादतगाहों की तरफ दौड़ते रहे और गुनाहों के इकरार करके मग्फेरत  तलब करते रहे? ऐ  रब्बे  करीम,  ना तो तेरी निस्बत ऐसा गुमान ही किया जा सकता है और ना ही तेरी तरफ से हमें ऐसी कोई खबर दी गयी है!

يا كَريمُ يا رَبِّ وَ اَنْتَ تَعْلَمُ ضَعْفي عَنْ قَليل مِنْ بَلاءِ الدُّنْيا وَ عُقُوباتِها، وَ ما يَجْري فيها مِنَ الْمَكارِهِ عَلى أهْلِها، عَلى أنَّ ذلِكَ بَلاءٌ وَ مَكْرُوهٌ قَليلٌ مَكْثُهُ، يَسيرٌ بَقاؤُهُ، قَصيرٌ مُدَّتُهُ، فَكَيْفَ احْتِمالي لِبَلاءِ الآخِرَةِ، وَ جَليلِ وُقُوعِ الْمَكارِهِ فيها، وَ هُوَ بَلاءٌ تَطُولُ مُدَّتُهُ، وَ يَدُومُ مَقامُهُ، وَ لا يُخَفَّفُ عَنْ اَهْلِهِ، لاَِنَّهُ لا يَكُونُ إلاّ عَنْ غَضَبِكَ وَ اْنتِقامِكَ وَ سَخَطِكَ، وَ هذا ما لا تَقُومُ لَهُ السَّماواتُ وَ الأرْضُ، يا سَيِّدِي فَكَيْفَ لي وَ أنَا عَبْدُكَ الضَّعيفُ الذَّليلُ الْحَقيرُ الْمِسْكينُ الْمُسْتَكينُ. يا اِلهي وَ رَبّي وَ سَيِّدِي وَ مَوْلايَ لأيِّ الاُْمُورِ اِلَيْكَ اَشْكُو، وَ لِما مِنْها أضِجُّ وَ اَبْكي، لأليمِ الْعَذابِ وَ شِدَّتِهِ، أمْ لِطُولِ الْبَلاءِ وَ مُدَّتِهِ، فَلَئِنْ صَيَّرْتَني لِلْعُقُوباتِ مَعَ أعْدائِكَ، وَ جَمَعْتَ بَيْني وَ بَيْنَ أهْلِ بَلائِكَ، وَ فَرَّقْتَ بَيْني وَ بَيْنَ أحِبّائِكَ وَ أوْليائِكَ، فَهَبْني يا إلهي وَ سَيِّدِي وَ مَوْلايَ وَ رَبّي صَبَرْتُ عَلى عَذابِكَ، فَكَيْفَ اَصْبِرُ عَلى فِراقِكَ، وَ هَبْني صَبَرْتُ عَلى حَرِّ نارِكَ، فَكَيْفَ اَصْبِرُ عَنِ النَّظَرِ إلى كَرامَتِكَ، أمْ كَيْفَ أسْكُنُ فِي النّارِ وَ رَجائي عَفْوُكَ، فَبِعِزَّتِكَ يا سَيِّدي وَ مَوْلايَ اُقْسِمُ صادِقاً لَئِنْ تَرَكْتَني ناطِقاً لاَِضِجَّنَّ إلَيْكَ بَيْنَ أهْلِها ضَجيجَ الآمِلينَ، وَ لأصْرُخَنَّ إلَيْكَ صُراخَ الْمَسْتَصْرِخينَ، وَ لأبْكِيَنَّ عَلَيْكَ بُكاءَ الْفاقِدينَ، وَ لاَُنادِيَنَّكَ اَيْنَ كُنْتْ (كُنْتُ) يا وَلِيَّ الْمُؤْمِنينَ، يا غايَةَ آمالِ الْعارِفينَ، يا غِياثَ الْمُسْتَغيثينَ، يا حَبيبَ قُلُوبِ الصّادِقينَ، وَ يا اِلهَ الْعالَمينَ.

ऐ मेरे पालने वाले तू मेरी कमजोरी से वाकिफ है, मुझ में इस दुनिया की मामूली आज्मायीशों, छोटी छोटी तकलीफों और इन सख्तियों को बर्दाश्त करने की ताब नहीं जो अहले दुनिया पर गुज़रती हैं हालांकि वोह आजमाईश, तकलीफ और सख्ती मामूली होती है और इस की मुद्द्त  भी थोड़ी होती है, फिर भला मुझ से आखेरत की ज़बरदस्त मुसीबत क्योंकर बर्दाश्त हो सकेगी, जब की वहां की मुसीबत तूलानी होगी और इस में हमेशा हमेशा के लिए रहना होगा और जो लोग इस में एक मर्तबा फँस जायेंगे इन के अज़ाब में कभी कमी नहीं होगी क्योंकि वो अज़ाब तेरे गुस्से, इंतकाम और नाराजगी के सबब होगा जिसे ना आसमान बर्दाश्त कर सकता है ना ज़मीन! ऐ मेरे मालिक, फिर ऐसी सूरत में मेरा क्या हाल होगा जबकि मै तेरा एक कमज़ोर, अदना, लाचार, और आजिज़ बंदा हूँ ! ऐ मेरे माबूद, ऐ मेरे परवरदिगार, ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे मौला, मै तुझ से किस किस बात पर नाला व फरयाद और आहोबुका करूँ? दर्दनाक अज़ाब और इसकी सख्ती पर या मुसीबत और इस की तवील मीयाद पर! बस अगर तू ने मुझे अपने दुश्मनों के साथ अज़ाब में झोंक दिया और मुझे इन लोगों में शामिल कर दिया जो तेरी बालाओं के सज़ावार हैं और अपने अहिब्बा और औलिया के और मेरे दरम्यान जुदाई डाल दी तो ऐ मेरे माबूद, ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे मौला, ऐ मेरे परवरदिगार, मै तेरे दिया हुए अज़ाब पर अगर सब्र भी कर लूं तो तेरी रहमत से जुदाई पर क्योंकर सब्र कर सकूंगा? इस तरह अगर मै तेरे आग की तपिश बर्दाश्त भी कर लूं तो तेरी नज़रे करम से अपनी महरूमी को कैसे बर्दाश्त कर सकूंगा और इस के इलावा मै आतिशे जहन्नुम में क्योंकर रह सकूंगा जबके मुझे तो तुझ से माफ़ी की तवक्का है. बस ऐ मेरे आका, ऐ मेरे मौला, मै तेरी इज्ज़त की सच्ची क़सम खा कर कहता हूँ के अगर तू ने वहां मेरी गोयाई सलामत रखी तो मै अहले जहन्नम के दरमियान तेरा नाम लेकर तुझे  इस तरह पुकारूँगा जैसे करम के उम्मेदवार पुकारा करते हैं,  मै तेरे हुज़ूर में इस तरह आहोबुका करूंगा जैसे फरयाद किया करते हैं और तेरी रहमत के फ़िराक में इस तरह रोवूँगा जैसे बिछुड़ने वाले रोया करते हैं! मैं तुझे वहां बराबर पुकारूंगा के तू कहाँ है ऐ मोमिनो के मालिक, ऐ आरिफों की उम्मीदगाह, ऐ फर्यादीयों  के फरयादरस, ऐ सादिकों के दिलों के महबूब,  ऐ इलाहिल आलमीन,  

أفَتُراكَ سُبْحانَكَ يا إلهي وَ بِحَمْدِكَ تَسْمَعُ فيها صَوْتَ عَبْد مُسْلِم سُجِنَ فيها بِمُخالَفَتِهِ، وَ ذاقَ طَعْمَ عَذابِها بِمَعْصِيَتِهِ، وَ حُبِسَ بَيْنَ اَطْباقِها بِجُرْمِهِ وَ جَريرَتِهِ، وَ هُوَ يَضِجُّ إلَيْكَ ضَجيجَ مُؤَمِّل لِرَحْمَتِكَ، وَ يُناديكَ بِلِسانِ أهْلِ تَوْحيدِكَ، وَ يَتَوَسَّلُ إلَيْكَ بِرُبُوبِيَّتِكَ، يا مَوْلايَ فَكَيْفَ يَبْقى فِي الْعَذابِ وَ هُوَ يَرْجُو ما سَلَفَ مِنْ حِلْمِكَ، أَمْ كَيْفَ تُؤْلِمُهُ النّارُ وَ هُوَ يَأْمُلُ فَضْلَكَ وَ رَحْمَتَكَ، اَمْ كَيْفَ يُحْرِقُهُ لَهيبُها وَ أنْتَ تَسْمَعُ صَوْتَهُ وَ تَرى مَكانَه، اَمْ كَيْفَ يَشْتَمِلُ عَلَيْهِ زَفيرُها وَ أنْتَ تَعْلَمُ ضَعْفَهُ، اَمْ كَيْفَ يَتَقَلْقَلُ بَيْنَ اَطْباقِها وَ أنْتَ تَعْلَمُ صِدْقَهُ، اَمْ كَيْفَ تَزْجُرُهُ زَبانِيَتُها وَ هُوَ يُناديكَ يا رَبَّهُ، اَمْ كَيْفَ يَرْجُو فَضْلَكَ في عِتْقِهِ مِنْها فَتَتْرُكُهُ فيها، هَيْهاتَ ما ذلِكَ الظَّنُ بِكَ، وَ لاَ الْمَعْرُوفُ مِنْ فَضْلِكَ، وَ لا مُشْبِهٌ لِما عامَلْتَ بِهِ الْمُوَحِّدينَ مِنْ بِرِّكَ وَ اِحْسانِكَ، فَبِالْيَقينِ اَقْطَعُ لَوْ لا ما حَكَمْتَ بِهِ مِنْ تَعْذيبِ جاحِديكَ، وَ قَضَيْتَ بِهِ مِنْ اِخْلادِ مُعانِدِيكَ، لَجَعَلْتَ النّارَ كُلَّها بَرْداً وَ سَلاماً، وَ ما كانَ لأحَد فيها مَقَرّاً وَ لا مُقاماً، لكِنَّكَ تَقَدَّسَتْ أسْماؤُكَ اَقْسَمْتَ أنْ تَمْلاََها مِنَ الْكافِرينَ مِنَ الْجِنَّةِ وَ النّاسِ اَجْمَعينَ، وَ أنْ تُخَلِّدَ فيهَا الْمُعانِدينَ، وَ أنْتَ جَلَّ ثَناؤُكَ قُلْتَ مُبْتَدِئاً، وَ تَطَوَّلْتَ بِالإنْعامِ مُتَكَرِّماً، اَفَمَنْ كانَ مُؤْمِناً كَمَنْ كانَ فاسِقاً لا يَسْتَوُونَ. إلهي وَ سَيِّدى فَأَسْأَلُكَ بِالْقُدْرَةِ الَّتي قَدَّرْتَها، وَ بِالْقَضِيَّةِ الَّتي حَتَمْتَها وَ حَكَمْتَها، وَ غَلَبْتَ مَنْ عَلَيْهِ اَجْرَيْتَها، أنْ تَهَبَ لي في هذِهِ اللَّيْلَةِ وَ في هذِهِ السّاعَةِ كُلَّ جُرْم اَجْرَمْتُهُ، وَ كُلَّ ذَنْب اَذْنَبْتُهُ، وَ كُلَّ قَبِيح أسْرَرْتُهُ، وَ كُلَّ جَهْل عَمِلْتُهُ، كَتَمْتُهُ أوْ اَعْلَنْتُهُ، أخْفَيْتُهُ أوْ اَظْهَرْتُهُ، وَ كُلَّ سَيِّئَة أمَرْتَ بِاِثْباتِهَا الْكِرامَ الْكاتِبينَ الَّذينَ وَكَّلْتَهُمْ بِحِفْظِ ما يَكُونُ مِنّي، وَ جَعَلْتَهُمْ شُهُوداً عَلَيَّ مَعَ جَوارِحي، وَ كُنْتَ أنْتَ الرَّقيبَ عَلَيَّ مِنْ وَرائِهِمْ، وَ الشّاهِدَ لِما خَفِيَ عَنْهُمْ، وَ بِرَحْمَتِكَ اَخْفَيْتَهُ، وَ بِفَضْلِكَ سَتَرْتَهُ، وَ أنْ تُوَفِّرَ حَظّي مِنْ كُلِّ خَيْر اَنْزَلْتَهُ أوْ اِحْسان فَضَّلْتَهُ، أوْ بِرٍّ نَشَرْتَهُ، أوْ رِزْق بَسَطْتَهُ، أوْ ذَنْب تَغْفِرُهُ، أوْ خَطَأ تَسْتُرُهُ، يا رَبِّ يا رَبِّ يا رَبِّ.

तेरी ज़ात पाक है, ऐ मेरे माबूद, मै तेरी हम्द करता हूँ! मैं  हैरान हूँ की यह क्योंकर होगा की तू इस आग में से एक मुस्लिम की आवाज़ सुने जो अपनी नाफ़रमानी की पादाश में इस के अंदर क़ैद कर दिया गया हो, अपनी मुसीबत की सजा में इस अज़ाब में गिरफ्तार हो और जुर्मो खता के बदले में जहन्नुम के तबकात में बंद कर दिया गया हो मगर वोह तेरी रहमत के उम्मीदवार  की तरह तेरे हुज़ूर में फरयाद करता हो, तेरी तौहीद को मानने वालों की सी जुबान से तुझे पुकारता हो और तेरी जनाब में तेरी रबूबियत का वास्ता देता हो! ऐ मेरे मालिक, फिर वो इस अज़ाब में कैसे रह सकेगा जबके इसे तेरी गुज़िश्ता राफ्त ओ रहमत की आस बंधी होगी या आतिशे जहन्नम उसे कैसे तकलीफ पहुंचा सकेगा जबके उसे तेरी फज़ल और तेरी रहमत का आसरा होगा या इस को जहन्नम का शोला कैसे जला सकेगा जबकि तू खुद इस की आवाज़ सुन रहा होगा और जहाँ वो है तू इस जगह को देख रहा होगा या जहन्नुम का शोर उसे क्योंकर परेशान कर सकेगा, जबकि तू इस बन्दे की कमजोरी से वाकिफ होगा या फिर वो जहन्नुम के तबकात में क्योंकर तड़पता रहेगा जबकि तू इस की सच्चाई से वाकिफ होगा या जहन्नुम की लपटें इस को क्योंकर परेशान कर सकेंगी जबकि वो तुझे पुकार रहा होगा! ऐ मेरे परवरदिगार, ऐसे क्योंकर मुमकिन है के तू वो तो जहन्नुम के निजात के लिए तेरे फज्लो करम की आस लगाये हुए हो और तू उसे जहन्नुम ही में पड़ा रहने दे! नहीं, तेरी निस्बत ऐसा गुमान नहीं किया जा सकता, ना तेरे फज़ल से पहले कभी ऐसी सूरत पेश आयी और ना ही यह बात इस लुत्फो करम के साथ मेल खाती है जो तू तौहीद परस्तों के साथ रवा रखता रहा है, इस लिए मै पुरे यकीन के साथ कहता हूँ के अगर तुने अपने मुन्कीरों  को अज़ाब देने का हुक्म ना दे दिया होता और इनको हमेशा जहन्नुम में रखने का फैसला ना कर लिया होता तो तू ज़रूर आतिशे जहन्नुम को ऐसा सर्द कर देता के वो आरामदेह बन जाती और फिर किसी भी शख्स का ठिकाना जहन्नुम ना होता लेकिन खुद तू ने अपने पाक नामो की क़सम खाई है के तू  तमाम काफिर जिन्नों और इंसान से जहन्नुम भर देगा और अपने दुश्मनों को हमेशा के लिए इसमें रखेगा! तू जो बहुत ज्यादा तारीफ के लायेक है और अपने बन्दों पर एहसान करते हुए अपनी किताब में पहले ही फरमा चुका है : "क्या मोमिन, फ़ासिक़ के बराबर हो सकता है? नहीं, यह कभी बाहम बराबर नहीं हो सकते"! ऐ मेरे माबूद, ऐ मेरे मालिक, मै तेरी इस कुदरत का जिस से तुने मौजूदात की तकदीर बनाई, तेरे इस हतमी फैसले का जो तू ने सादिर किये हैं और जिन पर तू ने इन को नाफ़िज़ किया है इन पर तुझे काबू हासिल है! वास्ता देकर तुझ से इल्तेजा करता हूँ के हर वो जुर्म जिस का मै मुर्तकिब हुआ हूँ और हर वो गुनाह जो मैंने किया हो, हर वो बुराई जो मैंने छुपा कर की हो और हर वो नादानी जो मुझ से सरज़द हुई हो, चाहे मैंने उसे छुपाया हो या ज़ाहिर किया हो, पोशीदा रखा हो या अफशा किया हो इस रात और ख़ास कर इस साअत में बख्श दे. मेरी हर ऐसी बदअमली को माफ़ करदे जिस को लिखने का हुक्म तुने किरामन कातेबीन को दिया हो, जिन को तुने मेरे हर अमल की निगरानी पर मामूर किया है और जिन को मेरे अजा व जवारेह के साथ साथ मेरे अमाल का गवाह मुक़र्रर किया  है, फिर इन से बढ़ कर तू खुद मेरे अमाल के निगरान रहा है और इन बातों को भी जानता है जो इन की नज़र से मख्फी रह गयीं और जिन्हें तुने अपनी रहमत से छुपा लिया और जिन पर तुने अपने करम से पर्दा डाल दिया! ऐ अल्लाह, मै तुझ से इल्तेजा करता हूँ के मुझे ज्यादा से ज्यादा हिस्सा दे हर इस भलाई से जो तेरी तरफ से नाज़िल हो, हर उस एहसान से जो तू अपने फज़ल से करे, हर उस नेकी से जिसे तू फैलाये, हर उस रिजक से जिस में तू वुसअत दे, हर उस गुनाह से जिसे तू माफ़ करदे, हर उस ग़लती से जिसे तू छुपा ले! ऐ मेरे परवरदिगार, ऐ मेरे परवरदिगार, ऐ मेरे परवरदिगार,

يا اِلهي وَ سَيِّدي وَ مَوْلايَ وَ مالِكَ رِقّي، يا مَنْ بِيَدِهِ ناصِيَتي، يا عَليماً بِضُرّي وَ مَسْكَنَتي، يا خَبيراً بِفَقْري وَ فاقَتي، يا رَبِّ يا رَبِّ يا رَبِّ، أَسْأَلُكَ بِحَقِّكَ وَ قُدْسِكَ، وَ اَعْظَمِ صِفاتِكَ وَ اَسْمائِكَ، أنْ تَجْعَلَ اَوْقاتي مِنَ اللَّيْلِ وَ النَّهارِ بِذِكْرِكَ مَعْمُورَةً، وَ بِخِدْمَتِكَ مَوْصُولَةً، وَ اَعْمالي عِنْدَكَ مَقْبُولَةً، حَتّى تَكُونَ أعْمالي وَ أوْرادي كُلُّها وِرْداً واحِداً، وَ حالي في خِدْمَتِكَ سَرْمَداً. يا سَيِّدي يا مَنْ عَلَيْهِ مُعَوَّلي، يا مَنْ اِلَيْهِ شَكَوْتُ أحْوالي، يا رَبِّ يا رَبِّ يا رَبِّ، قَوِّ عَلى خِدْمَتِكَ جَوارِحي، وَ اشْدُدْ عَلَى الْعَزيمَةِ جَوانِحي، وَ هَبْ لِيَ الْجِدَّ في خَشْيَتِكَ، وَ الدَّوامَ فِي الاِْتِّصالِ بِخِدْمَتِكَ، حَتّى أسْرَحَ إلَيْكَ في مَيادينِ السّابِقينَ، وَ اُسْرِعَ إلَيْكَ فِي الْبارِزينَ، وَ اَشْتاقَ إلى قُرْبِكَ فِي الْمُشْتاقينَ، وَ اَدْنُوَ مِنْكَ دُنُوَّ الُْمخْلِصينَ، وَ اَخافَكَ مَخافَةَ الْمُوقِنينَ، وَ اَجْتَمِعَ في جِوارِكَ مَعَ الْمُؤْمِنينَ. اَللّهُمَّ وَ مَنْ اَرادَني بِسُوء فَاَرِدْهُ، وَ مَنْ كادَني فَكِدْهُ، وَ اجْعَلْني مِنْ أحْسَنِ عَبيدِكَ نَصيباً عِنْدَكَ، وَ اَقْرَبِهِمْ مَنْزِلَةً مِنْكَ، وَ اَخَصِّهِمْ زُلْفَةً لَدَيْكَ، فَاِنَّهُ لا يُنالُ ذلِكَ إلاّ بِفَضْلِكَ، وَ جُدْ لي بِجُودِكَ، وَ اعْطِفْ عَلَيَّ بِمَجْدِكَ، وَ احْفَظْني بِرَحْمَتِكَ، وَ اجْعَلْ لِساني بِذِكْرِكَ لَهِجَاً، وَ قَلْبي بِحُبِّكَ مُتَيَّماً، وَ مُنَّ عَلَيَّ بِحُسْنِ اِجابَتِكَ، وَ اَقِلْني عَثْرَتي، وَ اغْفِرْ زَلَّتي، فَاِنَّكَ قَضَيْتَ عَلى عِبادِكَ بِعِبادَتِكَ، وَ اَمَرْتَهُمْ بِدُعائِكَ، وَ ضَمِنْتَ لَهُمُ الإجابَةَ، فَاِلَيْكَ يا رَبِّ نَصَبْتُ وَجْهي، وَ اِلَيْكَ يا رَبِّ مَدَدْتُ يَدي، فَبِعِزَّتِكَ اسْتَجِبْ لي دُعائي، وَ بَلِّغْني مُنايَ، وَ لا تَقْطَعْ مِنْ فَضْلِكَ رَجائي، وَ اكْفِني شَرَّ الْجِنِّ وَ الإنْسِ مِنْ اَعْدائي. يا سَريعَ الرِّضا اِغْفِرْ لِمَنْ لا يَمْلِكُ إلاّ الدُّعاءَ، فَاِنَّكَ فَعّالٌ لِما تَشاءُ، يا مَنِ اسْمُهُ دَواءٌ وَ ذِكْرُهُ شِفاءٌ وَ طاعَتُهُ غِنىً، اِرْحَمْ مَنْ رَأْسُ مالِهِ الرَّجاءُ، وَ سِلاحُهُ الْبُكاءُ، يا سابِغَ النِّعَمِ، يا دافِعَ النِّقَمِ، يا نُورَ الْمُسْتَوْحِشينَ فِي الظُّلَمِ، يا عالِماً لا يُعَلَّمُ، صَلِّ عَلى مُحَمَّد وَ آلِ مُحَمَّد، وَافْعَلْ بي ما أنْتَ اَهْلُهُ، وَ صَلَّى اللهُ عَلى رَسُولِهِ وَ الأَئِمَّةِ الْمَيامينَ مِنْ آلِهِ، وَ سَلَّمَ تَسْليماً كَثيراً "

ऐ मेरे माबूद, ऐ मेरे आका, ऐ मेरे मौला, ऐ मेरे जिस्मो जान के मालिक, ऐ वो ज़ात जिसे मुझ पर काबू हासिल है, ऐ मेरी बदहाली और बेचारगी को जान्ने वाले, ऐ मेरे फिकरो फाका से आगही रखने वाले, ऐ मेरे परवरदिगार, ऐ मेरे परवरदिगार, ऐ मेरे परवरदिगार, मै तुझे तेरी सच्चाई और तेरी पाकीजगी, तेरी आला सेफात और तेरे मुबारक नामो का वासता देकर तुझ से इल्तेजा करता हूँ के मेरे दिन रात के औकात को अपनी याद से मामूर कर दे के हर लम्हा तेरी फरमाबरदारी में बसर हो, मेरे अमाल को कबूल फर्मा , यहाँ तक के मेरे सारे आमाल और अज्कार की एक ही लए हो जाए और मुझे तेरी फरमाबरदारी करने में दवाम हासिल हो जाए! ऐ मेरे आका, ऐ वो ज़ात जिस का मुझे आसरा है और जिस की सरकार में, मै अपनी हर उलझन पेश करता हूँ! ऐ मेरे परवरदिगार, ऐ मेरे परवरदिगार, ऐ मेरे परवरदिगार, मेरे हाथ पाँव में अपनी इताअत के लिए कुवत दे, मेरे दिल को नेक इरादों पर कायेम रहने की ताक़त बख्श, और मुझे तौफीक दे के मै तुझ से करार, वाकई डरता रहूँ और हमेशा तेरी इताअत में सरगर्म रहूँ ताकि मै तेरी तरफ सबक़त करने वालों के साथ चलता रहूँ, तेरी सिम्त बढ़ने वालों के हमराह तेज़ी से क़दम बढाऊँ, तेरी मुलाक़ात का शौक़ रखने वालो की तरह तेरा मुश्ताक रहूँ,  तेरे मुखलिस बन्दों की तरह तुझ से नज़दीक हो जाऊं, तुझ पर यकीन रखने वालों की तरह तुझ से डरता रहूँ, और तेरे हुज़ूर में जब मोमिन जमा हों मै उन के साथ रहूँ! ऐ अल्लाह, जो शख्स मुझ से कोई बदी करने का इरादा करे, तू उसे वैसी ही सज़ा दे और जो मुझ से फरेब करे तू उस को वैसी ही पादाश दे! मुझे अपने उन बन्दों में करार दे जो तेरे यहाँ से सबसे अच्छा हिस्सा पाते हैं जिन्हें तेरी जनाब में सबसे ज्यादा तक़र्रुब हासिल है और जो ख़ास तौर से तुझ से ज्यादा नज़दीक हैं क्योंकि यह रूतबा तेरे फज़ल के बग़ैर नहीं मिल सकता! मुझ पर अपना ख़ास करम कर और अपनी शान के मुताबिक मेहरबानी फर्मा ! अपनी रहमत से मेरी हिफाज़त कर, मेरी ज़बान को अपने ज़िक्र में मशगूल  रख, मेरे दिल को अपनी मुहब्बत की चाशनी अता कर, मेरी दुआएं कबूल करके मुझ पर एहसान कर, मेरी खताएं माफ़ करदे और मेरी नाज़िशें बख्श दे! चूंके तुने अपने बन्दों पर अपनी इबादत वाजिब की है, इन्हें दुआ मांगने का हुक्म दिया है और इनकी दुआएं कबूल करने की ज़िम्मेदारी ली है, इसलिए ऐ परवरदिगार, मै ने तेरी ही तरफ रुख किया है और तेरे ही सामने अपना हाथ फैलाया है! बस अपनी इज्ज़त के सदके में मेरी दुआ कबूल फरमा और मुझे मेरी मुराद को पहुंचा! मुझे अपने फजल ओ करम से मायूस ना कर, और जिन्नों और इंसानों  में से जो भी मेरे दुश्मन हों मुझ को इन के शर से बचा! ऐ अपने बन्दों से जल्दी राज़ी हो जाने वाले, इस बन्दे को बख्श दे जिस के पास दुआ के सिवा कुछ नहीं, क्योंकि तू जो चाहे कर सकता है, तू ऐसा है जिस का नाम हर मर्ज़ की दवा है, जिस का ज़िक्र हर बीमारी से शिफा है, और जिस की इताअत सबे बेनेयाज़ कर देने वाली है, इस पर रहम कर जिस की पूंजी तेरा आसरा और जिस का हथियार रोना है! ऐ नेमतें अता करने वाले, ऐ बलाएँ टालने वाले, ऐ अंधेरों से घबराये हुओं के लिए रोशनी, ऐ वो आलिम जिसे किसी ने तालीम नहीं दी, मुहम्मद (सा) और आले मुहम्मद (सा) पर दरूद ओ सलाम भेज और मेरे साथ वो सुलूक कर जो तेरे शायाने शान हो!



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