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Channel: हक और बातिल
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अगर आप शांती अपने जीवन मी चाहते है तो पढे सूरए माएदा की 16वीं आयत|

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श्वर इस (प्रकाश और स्पष्ट करने वाली किताब) के माध्यम से, उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करने वालों को शांतिपूर्ण एवं सुरक्षित मार्गों की ओर ले जाता है और अपनी कृपा से उन्हें अंधकार से प्रकाश में लाता है और सीधे रास्ते की ओर उनका मार्गदर्शन करता है। (5:16)

 इस आयत में ईश्वर कहता है कि मार्गदर्शन स्वीकार करने की कुछ शर्तें हैं। इन शर्तों में सबसे महत्तवपूर्ण सत्य की खोज करना और उसे मानना है। क़ुरआने मजीद का मार्गदर्शन वही स्वीकार करेगा जो सांसारिक धन-दौलत और पद की प्राप्ति तथा आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत न हो बल्कि केवल सत्य का अनुसरण और ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करना चाहता हो।
यह शर्त यदि व्यवहारिक हो जाए तो फिर ईश्वर उसे पाप और पथभ्रष्टता के अंधकारों से निकालकर ईमान और शिष्ट कर्मों के प्रकाशमयी रास्ते की ओर उसका मार्गदर्शन करेगा। स्वभाविक है कि यह मार्गदर्शन हर ख़तरे में मनुष्य और उसके परिवार की आत्मा व विचारों की रक्षा करता है और प्रलय में भी मनुष्य को ईश्वर के शांतिपूर्ण स्वर्ग में सुरक्षित ले जाएगा।

इस आयत से हमने सीखा किशांति एवं सुरक्षा तक पहुंचना ईश्वरीय मार्ग के अनुसरण पर निर्भर है और क़ुरआन इस मार्ग पर पहुंचने तथा अंतिम गंतव्य तक जाने का माध्यम है। मनुष्य केवल आसमानी धर्मों की छत्रछाया में ही एक दूसरे के साथ शांतिपूर्ण ढंग और प्रेम के साथ रह सकता है।मनुष्य को ईश्वर तक पहुंचाने वाले कार्य विभिन्न हैं। भला कर्म हर काल में सभी लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है परन्तु लक्ष्य यदि ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति हो तो सब एक ही मार्ग पर जाकर मिलते हैं और वह सेराते मुस्तक़ीम का सीधा मार्ग है।





इमामे अली (अ) क्यों इंसाने कामिल हैं ?

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इमाम अली (अ) की श्रेष्ठता शहीद मुतह्हरी की निगाह में

अली (अ) तारीख़ की वह बे मिसाल ज़ात है जिसने सदियों से साहिबाने फ़िक्र को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर रखा है तारीख़ के तसलसुल में दुनिया की अज़ीम हस्तियां आप के गिर्द तवाफ़ करती हैं और आपको अपनी फ़िक्र और दानिश का काबा करार दिया है। दुनिया के नामवर अदीब अपकी फ़साहत व बलाग़त के सामने हथियार डाले हुए नज़र आते हैं और मर्दाने इल्म व दानिश आपके मक़ामे इल्मी को दर्क करने से इज़हारे अज्ज़ करते हुए दिखाई देते हैं मुसलेहीने आलम आपके कमाल की अदालत ख़्वाही व इंसाफ़ पसंदी को देख कर दंग रह जाते हैं, ख़िदमते ख़ल्क़ करने वाले इंसान, आपकी यतीम परवरी व ग़रीब नवाज़ी से सबक़ हासिल करते हैं दुनिया के मारूफ़ हुक्मरान व सियासत मदार कूफ़ा के गवर्नर मालिके अश्तर के नाम आपके लिखे हुए ख़त को आदिलाना और मुन्सेफ़ाना सियासी निज़ाम का मंशूर समझते हैं दुनिया ए क़ज़ावत आज भी आपके मख़सूस तरीक़ ए कार की क़ज़ावत और मसाएल को हल व फ़सल के अंदाज़ से अंगुश्त ब दंदान है इंसान समाज के किसी भी तबक़े से जो भी फ़र्द आपके दर पर आया फ़ज़्ल व कमालात के एक अमीक़ दरिया से रूबरू हुआ और ज़बाने हाल से सबने ये शेर पढ़ा :

                  रन में ग़ाज़ी खेत में मज़दूर मिन्बर पर ख़तीब
                  अल्लाह अल्लाह कितने रुख़ हैं एक ही तस्वीर में ।

जार्ज जुरदाक़ है एक मसीही साहेबे क़लम और अदीब अली (अ) की ज़ात से इस क़द्र मुतअस्सिर है कि ज़माने से एक और अली (अ) पैदा करने की यूँ फ़रयाद करता है  “ऐ ज़माने ! तेरा क्या बिगड़ता अगर तू अपनी पूरी तवानाई को बरू ए कार लाता और हर अस्र व ज़माने में अली (अ) जैसा वह अज़ीम इंसान आलमें बशरियत को अता करता जो अली (अ) के जैसी अक़्ल अली (अ) जैसा दिल अली (अ) के जैसी ज़बान और अली (अ) के जैसी शम्शीर रखने वाला होता ” (1)
और ये शकीब अरसलान है अस्रे हाज़िर में दुनिया ए अरब का एक मारूफ़ मुसन्निफ़ व साहिबे क़लम लक़ब भी “अमीरुल बयान” है मिस्र में उनके एज़ाज़ में एक सीमेनार बुलाया गया स्टेज पर एक साहब ने ये कहा कि तारीख़े इस्लाम में दो शख़्स इस बात के लायक़ हैं कि उनको “अमीरे सुख़न” कहा जाये एक अली इब्ने अबी तालिब (अ) और दूसरे शकीब अरसलान शकीब अरसलान ये सुनकर ग़ुस्सा हो गये और फ़ौरन खड़े होकर स्टेज पर आते हैं और उस शख़्स पर एतराज़ करते हुए कहते हैं

“मैं कहाँ और अली इब्ने अबी तालिब (अ) की ज़ात कहाँ मैं तो अली (अ) के बंदे कफ़्श भी शुमार नही हो सकता ” (2)

शहीदे मुतह्हरी जो कि अस्रे हाज़िर में आलमे इस्लाम के फ़िक्री, इल्मी और इस्लाही मफ़ाख़िर में से एक क़ीमती सरमाया शुमार होते हैं आपने अपने तमाम आसार व कुतुब में एक मुन्फ़रिद और नये अंदाज़ में अली (अ) की शख़्सियत के बारे में बहुत कुछ लिखा है आपने  तमाम मबाहिस और मौज़ूआत में चाहे वह फ़लसफ़ी हों या इरफ़ानी अख़्लाक़ी हों या इज्तेमाई, सियासी हों या सक़ाफ़ती, तरबियत से मुतअल्लिक़ हों या तालीम, से कलाम हो या फ़िक़्ह, जामिआ शिनासी हो या इल्मे नफ़सियात, हर मौज़ू के सिलसिले में अली (अ) की ज़ात, शख़्सियत गुफ़तार व किरदार को बतौरे मिसाल पेश किया और अली (अ) की ज़िन्दगी के उन पहलुओं को उजागर किया है जिनके बारे में किसी ने आज तक न कुछ लिख़ा है और न कुछ कहा है ।

कड़वी सच्चाई

आपने अपने आसार व कुतुब में जा बजा इस बात का अफ़सोस किया है कि वह क़ौम जो कि अली (अ) की पैरवी करने का दम भरती है न वह ख़ुद अली (अ) की शख़्सियत से आशना है और न वह दूसरों को अली (अ) से आशना करा सकती है आप फ़रमाते हैं “हम शियों को एतिराफ़ करना चाहिये कि हम जिस शख़्सियत की पैरवी करते पर इफ़्तेख़ार करते हैं उसके बारे में हमने दूसरों से ज़्यादा ज़ुल्म या कम से कम कोताही ज़रूर की है हक़ीक़त ये है कि हमारी कोताही भी एक ज़ुल्म है हमने अली (अ) की मारिफ़त और पहचान या नही करना चाहिये या हम पहचान नही कर सकते हमारा सबसे बड़ा कारनामा ये है कि उन अहादीस व नुसूस को दोहराते हैं जो पैग़म्बर ने आपके बारे में इरशाद फ़रमाये हैं और उन लोगों को सब व श्तम करते हैं जो उन अहादीस का इंकार करते हैं हमने इमामे अली (अ) हक़ीक़ी शख़्सियत पहचानने के बारे में कोई कोशिश नही की (3)

इस मज़मून में हम इमामे अली (अ) की ज़िन्दगी के बाज़ अहमतरीन पहलुओं और गोशों का ज़क्र करेगें जिन पर शहीद मुतह्हरी ने एक ख़ास और जदीद अंदाज़ में बहस की है कहा जा सकता है कि इन गोशों पर बहस करना आपकी फ़िक्र का इब्तेकार है।

इमामे अली (अ) इंसान कामिल 

दुनिया के तक़रीबन तमाम मकातिबे फ़िक्र में इंसाने कामिल का तसव्वुर पाया जाता है और सबने ज़माने क़दीम से लेकर आज तक इस मौज़ू के बारे में बहस की है फ़लसफ़ी मकातिब हों या इरफ़ानी, इज्तेमाई हों या सियासी, इक़तिसादी हों या दूसरे दीगर मकातिब सबने इंसाने कामिल का अपना अपना एक ख़ास तसव्वुर पेश किया है इंसाने कामिल यानी मिसाली इंसान, नमूना और आइडियल इंसान। इस बहस की ज़रूरत इसलिये है कि इंसान एक आइडियल का मोहताज है और इंसाने कामिल उसके लिये एक बेहतरीन नमूना और मिसाल है जिसको सामने रख कर ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती है। ये इंसाने कामिल कौन है? उसकी ख़ुसुसियात और सिफ़ात क्या हैं? उसकी तारीफ़ क्या है? इन सवालात का जवाब मुख़्तलिफ़ मकातिबे फ़िक्र ने दिया है :

फ़लासिफ़ा कहते हैं इंसाने कामिल वह इंसान है  जिसकी अक़्ल कमाल तक पहुँची हो।

मकतबे इरफ़ान कहता है इंसाने कामिल वह इंसान है जो आशिक़े महज़ हो।     (आशिक़े ज़ाते हक़)

सूफ़िसताई करते हैं कि जिसके पास ज़्यादा ताक़त हो वह इंसाने कामिल है।

सोशलिज़्म में उस इंसान को इंसाने कामिल कहा गया है जो किसी तबक़े से वाबस्ता न हो ख़ास कर ऊँचे तबक़े से वाबस्ता न हो।

एक और मकतब बनामे मकतब ज़ोफ़ ये लोग कहते हैं कि इंसाने कामिल यानी वह इंसान जिसके पास क़ुदरत व ताक़त न हो इसलिये कि क़ुदरत व ताक़त तजावुज़गरी का मूजिब बनती है।

शहीद मुतह्हरी फ़रमाते हैं इन मकातिब में इंसान के सिर्फ़ एक पहलू को मद्दे नज़र रखा गया है और इसी पहलू में कमाल और रुश्द हासिल करने को इंसान नाम और का कमाल समझा गया है जब्कि इंसान मुख़्तलिफ़ अबआद व पहलू का नाम है । इंसान में बहुत सी ख़ुसुसियात पाई जाती हैं जिन तमाम पहलुओं और ख़ुसुसियात का नाम इंसाम है लिहाज़ा सिर्फ़ एक पहलू को नज़र में रख़ना इन सब मकातिब का मुश्तरिका ऐब और नक़्स है।

शहीद मुतहरी की नज़र में इंसाने कामिल 


आप इंसाने कामिल की तारीफ़ यूँ करते हैं कि “इंसाने कामिल यानी वह इंसान जिसमें तमाम इंसानी कमालात और ख़ुसूसियात ने ब हद्दे आला और तनासुब व तवाज़ुन के साथ रुश्द पाया हो। ” ।(4)

“इंसाने कामिल यानी वह इंसान जो तमाम इंसानी क़दरों का  हीरो हो, वह इंसान जो इंसानियत के तमाम मैदानों में मर्दे मैदान और हीरो हो।” (5)

“इंसाने कामिल यानी वह इंसान जिस पर हालात व वाक़िआत आसर अंदाज़ न हों।” (6)

इमामे अली (अ) क्यों इंसाने कामिल हैं ?

शहीद मुतहरी इस बात की ताकीद करते हैं कि अली इब्ने अबी तालिब (अ) पैग़म्बरे अकरम (स0 के बाद इंसाने कामिल हैं आप बयान करते हैं कि : “इमामे अली (अ) इंसाने कामिल हैं इस लिये कि आप मे इंसानी कमालात व ख़ुसुसियात ने ब हद्दे आला और तनासुब व तवाज़ुन के साथ रुश्द पाया है। ” ।(7)

दूसरी जगह आपने फ़रमाया :

“इमामे अली (अ) क़ब्ल इसके कि दूसरे के लिये इमामे आदिल हों और दूसरों के साथ अदल से काम लें ख़ुद आप शख़्सन एक मुतआदिल और मुतवाज़िन इंसान थे आपने तमाम इंसानी कमालात को एक साथ जमा किया था आप के अंदर अमीक़ और गहरा फ़िक्र व अंदेशा भी था और लुत्फ़ नर्म इंसानी जज़्बात भी थे कमाले रूह व कमाले जिस्म दोनो आप के अंदर पाये जाते थे, रात को इबादते परवरदिगार में यूँ मशग़ूल हो जाते थे कि मा सिवल्लाह सबसे कट जाते थे और फिर दिन में समाज के अंदर रह कर मेहनत व मशक़्क़त किया करते थे दिन में लोगों कि निगाहें आपकी ख़िदमते ख़ल्क़, ईसार व फ़िदाकारी देखती थीं और उनके कान आपके मौएज़े, नसीहत और हकीमाना कलाम को सुनते थे रात को सितारे आपके आबिदाना आँसुओं का मुशाहिदा करते थे। और आसमान के कान आपके आशिक़ाना अंदाज़ के मुनाजात सुना करते थे। आप मुफ़्ती भी थे और हकीम भी, आरिफ़ भी थे और समाज के रहबर भी, ज़ाहिद भी थे और एक बेहतरीन सियासत मदार भी, क़ाज़ी भी थे और मज़दूर भी ख़तीब भी थे और मुसन्निफ़ भी ख़ुलासा ये कि आप पर एक जिहत से एक इंसाने कामिल थे अपनी तमाम ख़ूबसूरती और हुस्न के साथ।” (8)

आप ने इमामे अली (अ) के इंसाने कामिल होने पर बहुत सी जगहों पर बहस की है और मुतअद्दिद दलीलें पेश की हैं आप एक जगह पर लिखते हैं कि “हम लोग इमामे अली (अ) को इंसाने कामिल क्यों समझते हैं? इसलिये कि आप की “मैं” “हम” में बदल गयी थी इसलिये कि आप अपनी ज़ात में तमाम इंसानों को जज़ब करते थे आप एक ऐसी फ़र्दे इंसान नही थे जो दूसरे इंसानो से जुदा हो, नही! बल्कि आप अपने को एक बदन का एक जुज़, एक उँगली, एक उज़व की तरह महसूस करते थे कि जब बदन के किसी उज़्व में दर्द या कोई मुश्किल आती है तो ये उज़्व भी दर्द का एहसास करता है। (9)

“जब आप को ख़बर दी गयी कि आप के एक गवर्नर ने एक दावत और मेहमानी में शिरकत की तो आपने एक तेज़ ख़त उसके नाम लिखा ये गवर्नर किस क़िस्म की दावत में गया था ? क्या ऐसी मेहमानी में गया था जहाँ शराब थी? या जहाँ नाच गाना था? या वहाँ कोई हराम काम हो रहा थी नही तो फिर आपने उस गवर्नर को ख़त में क्यो इतनी मलामत की आप लिखते है

गवर्नर का गुनाह ये था कि उसने ऐसी दावत में शिरकत की थी जिसमे सिर्फ़ अमीर और मालदार लोगों को बुलाया गया था और फ़क़ीर व ग़रीब लोगों को महरूम रखा गया था (10)

शहीद मुतहरी मुख़्तलिफ़ इंहेराफ़ी और गुमराह फ़िरक़ों के ख़िलाफ़ जंग को भी आपके इंसाने कामिल होने का एक नमूना समझते हैं आप फ़रमाते हैं :

“इमामे अली (अ) की जामईयत और इंसाने कामिल होने के नमूनो में से एक आपका इल्मी मैदान में मुख़तलिफ़ फ़िरक़ो और इन्हिराफ़ात के मुक़ाबले में खड़ा होना और उनके ख़िलाफ़ बर सरे पैकार होना भी है हम कभी आपको माल परस्त दुनिया परस्त और अय्याश इंसानों के ख़िलाफ़ मैदान में देखते हैं और कभी उन सियासत मदारों के ख़िलाफ़ नबर्द आज़मा जिनके दसियों बल्कि सैकड़ों चेहरे थे और कभी आप जाहिल मुनहरिफ़ और मुक़द्दस मआब लोगों से जंग करते हुये नज़र आते है।” (11)

इंमामे अली (अ) में क़ुव्वते कशिश भी और क़ुव्वते दिफ़ा भी :

शहीद मुतह्हरी इंसानों को दूसरे इंसानो को जज़्ब या दूर करने के एतिबार से चार क़िस्मों में तक़सीम करते है :

1. वह इंसान जिनमें न क़ुव्वते कशिश है और न क़ुव्वते दिफ़ा, न ही किसी को अपना दोस्त बना सकता है और न ही दुश्मन, न लोगों के इश्क व मोहब्बत को उभारते हैं और न ही कीना व नफ़रत को ये लोग इंसानी समाज में पत्थर की तरह हैं किसी से कोई मतलब नही है ।

2. वह इंसान जिनमें क़ुव्वते कशिश है लेकिन क़ुव्वते दिफ़ा नही है तमाम लोगों को अपना दोस्त व मुरीद बना लेते हैं ज़ालिम को भी मज़लूम को भी नेक इंसान को भी और बद इंसान को भी और कोई उनकी दुश्मन नही है.......आप फ़रमाते : हैं ऐसे लोग मुनाफ़िक़ होते हैं जो हर एक से उसके मैल के मुताबिक़ पेश आते हैं और सबको राज़ी करते हैं लेकिन मज़हबी इंसान ऐसा नही बन सकता है वह नेक व बद, ज़ालिम व मज़लूम दोनों को राज़ी नही रख सकता है ।

3. कुछ लोग वह हैं जिनमें लोगों को अपने से दूर करने की सलाहियत है लेकिन जज़्ब करने की सलाहियत नही है ये लोग, लोगों को सिर्फ़ अपना मुख़ालिफ़ व दुश्मन बनाना जानते हैं और बस शहीद मुतह्हरी फ़रमाते हैं ये गिरोह भी नाक़िस है इस क़िस्म के लोग इंसानी और अख़्लाक़ी कमालात से ख़ाली होते हैं इस लिये कि अगर उनमें इंसानी फ़ज़ीलत होती तो कोई वलौ कितने की कम तादाद में उनका हामी और दोस्त होता इस लिये कि समाज कितना ही बुरी क्यों न हो बहर हाल हमेशा उसमें कुछ अच्छे लोग होते हैं ।

4. वह इंसान जिनमें क़ुव्वते कशिश भी होती है और क़ुव्वते दिफ़ा भी कुछ लोगो को अपना दोस्त व हामी, महबूब व आशिक़ बनाते हैं और कुछ लोगों को अपना मुख़ालिफ़ और दुश्मन भी, मसलन वह लोग जो मज़हब और अक़ीदे की राह में जद्दो जहद  करते हैं वह बाज़ लोगों को अपनी तरफ़ खीचते हैं और बीज़ को अपने से दूर करते हैं। (12)

अब आप फ़रमाते हैं कि इनकी भी चंद क़िस्में हैं कभी क़ुव्वते कशिश व दिफ़ा दोनो क़वी हैं और कभी दोनो ज़ईफ़, कभी मुस्बत अनासिर को अपनी तरफ़ खीचते हैं और कभी मनफ़ी व बातिल अनासिर को अपने से दूर करते हैं और कभी इसके बरअक्स अच्छे लोगों को दूर करते हैं और बातिल लोगों को जज़्ब करते हैं। फिर आप हज़रत अली (अ) के बारे में फ़रमाते हैं कि अली इब्ने अबी तालिब (अ) किस क़िस्म के इंसान थे आया वह पहले गिरोह की तरह थे या दूसरे गिरोह की तरह, आप में सिर्फ़ क़ुव्वते दिफ़ा थी क़ुव्वते कशिश व दिफ़ा दोनों आपके अंदर मौजूद थीं। “इमामे अली (अ) वह कामिल इंसान हैं जिसमें क़ुव्वते कशिश भी है और क़ुव्वते दिफ़ा भी और आपकी दोनों क़ुव्वतें बहुत क़वी हैं शायद किसी भी सदी में इमामे अली (अ) जैसी क़ुव्वते कशिश व दिफ़ा रखने वाली शख़्सियत मौजूद न रही हों । (13)

इसलिये कि आपने हक़ परस्त और अदालत व इंसानियत के दोस्तदारों को अपना गरवीदा बना लिया और बातिल परस्तों अदालत के दुश्मनों और मक्कार सियासत के पुजारियों और मुक़द्दस मआब जैसे लोगों के मुक़ाबले में खड़े होकर उनको अपना दुश्मन बना लिया।

हज़रत अली (अ) की आकर्षण क्षमता

आप हज़रते अली (अ) की क़ुव्वते कशिश के ज़िम्न में फ़रमाते हैं “इमामे अली (अ) के दोस्त व हामी बड़े अजीब, फ़िदाकार, तारीख़ी, क़ुर्बानी देने वाले, आपके इश्क में गोया आग के शोले की तरह सूज़ान व पुर फ़रोग़, आपकी राह में जान देने को इफ़्तेख़ार समझते हैं और आपकी हिमायत में हर चीज़ को फ़रामोश करते हैं आपकी शहादत से आज तक आपकी क़ुव्वते कशिश काम कर रही है और लोगो को हैरत में डाल रही है।” (14)

“आपके गिर्द शरीफ़, नजीब, ख़ुदा परस्त व फ़िदाकार, आदिल व ख़िदमत गुज़ार, मेहरबान व आसारगर अनासिर, परवाने की तरह चक्कर लगाते हैं एसे इंसान जिनमें हर एक की अपनी अपनी मख़सूस तारीख़ है मोआविया और अमवियों के ज़माने में आपके आशिक़ो और हामियों को सख़्त शिकंजों का सामना करना पड़ा लेकिन उन लोगों ने ज़र्रा बराबर भी आपकी हिमायत व दोस्ती मे कोताही नही की और मरते दम तक आपकी दोस्ती पर क़ायम रहे। (15)

हज़रत अली (अ) की आकर्षण क्षमता का एक नमूना

आपके बा ईमान व बा फ़ज़ीलत असहाब में से एक ने एक दिन कोई ख़ता की जिसकी बिना पर उस पर हद जारी होनी थी आपने उस साथी का दायाँ हाथ काटा, उसने बायें हाथ में उस कटे हुये हाथ को उठाया इस हालत में कि उसके हाथ से ख़ून जारी था अपने घर की तरफ़ जा रहा था रास्ते में एक ख़ारजी (हज़रत अली (अ) का दुश्मन) मिला जिसका नाम अबुल कवा था उसने चाहा कि इस वाक़ए से अपने गिरोह के फ़ायदे और अली (अ) की मुख़ालिफ़त में फ़ायदा उठाए वह बड़ी नर्मी के साथ आगे बढ़ा और कहने लगा अरे क्या हुआ ? तुम्हारा हाथ किसने काटा ? आशिक़े अली (अ) ने इस नामुराद शख़्स का यूँ जावाब दिया : (..................................) यानी मेरे हाथ को उस शख़्स ने काटा है जो पैग़म्बरों का जानशीन है, क़यामत में सफ़ेद रू इंसानों का पेशवा और मोमिनीन के लिये सबसे हक़दार है यानी अली इब्ने अबी तालिब (अ) ने, जो हिदायत का इमाम, जन्नत कि नेमतों की तरफ़ सबसे पेश क़दम और जाहिलों से इन्तेक़ाम लेने वाला है…. (बिहारुल अनवार जिल्द 40 पेज 282)

इब्ने कवा ने जब ये सुना तो कहा वाय हो तुम पर उसने तुम्हारे हाथ को भी काटा और फिर उसकी तारीफ़ भी कर रहे हो! इमाम (अ) के इस आशिक़ ने जवाब दिया “मैं क्यों उसकी तारीफ़ न करूँ उसकी दोस्ती व मोहब्बत तो मेरे गोश्त व ख़ून में जा मिली है ख़ुदा की क़सम उन्होने मेरा हाथ नही काटा मगर उस हक़ की वजह से जो कि ख़ुदा ने मोअय्यन किया है।” तारीख़ में इमामे अली (अ) की क़ुव्वते कशिश के बारे में इस तरह के बहुत से वाक़ेआत मौजूद हैं आपकी ज़िन्दगी में भी और आपकी शहादत के बाद भी ।

हज़रत अली (अ) की प्रतिरोधक शक्ति

हज़रत अली (अ) जिस तरह लोगों को अपनी तरफ़ जज़्ब करते हैं उसी तरह बातिल, मुनाफ़िक़, अदल व इंसाफ़ के दुश्मनों को अपने से दूर और नाराज़ भी करते हैं। शहीद मुतहरी फ़रमाते हैं :

“इमामे अली (अ) वह इंसान है जो दुश्मन साज़ भी है और नाराज़ साज़ भी और ये आपके अज़ीम इफ़्तेख़ारात में से एक है।” (16)

इसलिये कि जिन लोगों के मफ़ादात ना इंसाफ़ और ग़ैर आदिलाना निज़ाम के ज़रिये हासिल होते थे वह कभी भी आपकी अदालत व इंसाफ़ पसंदी से ख़ुश नही हुए।

“लिहाज़ा आपके दुश्मन आपकी ज़िन्दगी में अगर दोस्तों से ज़्यादा नही तो कम भी नही थे।” (17)

आप इस सिलसिले में मज़ीद लिखते हैं :

“ना आपके जैसे ग़ैरत मंद दोस्त किसी के थे और न आपके जैसे दुश्मन किसी के थे आपने लोगों को इस क़दर दुश्मन बनाया कि आपकी शहादत के बाद आपके जनाज़े पर हमला होने का एहतिमाल था आपने ख़ुद भी इस हमले का एहतिमाल दिया था लिहाज़ा अपने वसीयत की थी कि आपकी क़ब्र मख़फ़ी रखी जाय और आपके फ़रज़न्दों के अलावा कोई इस से बा ख़बर न हो एक सदी गुज़रने के बाद इमामे सादिक़ (अ) ने आपकी क़ब्र का पता बताया।” (18)

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हवाले


1.      सदा ए अदालते इंसानी जिल्द 3 पेज 247

2.      सैरी दर नहजुल बलागा पेज 19 व 20

3.      सैरी दर नहजुल बलागा पेज 38 व 39

4.      इंसाने कामिल पेज 15

5.      इंसाने कामिल पेज 59

6.      वही, सफ़ा 754

7.      वही, सफ़ा 43

8.      जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 10

9.      गुफ़्तारहा ए मानवी पेज 228

10.  गुफ़्तारहा ए मानवी पेज 228  

11.  जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 113

12.  जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 21 व 28

13.  वही मदरक पेज 31

14.  वही मदरक पेज 31

15.  वही मदरक पेज 31

16.  जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 108

17.  जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 108

18.  जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 110


नजफ़ ऐ हिन्द जोगीपुरा के मुआज्ज़ात और जियारत और क्या मिलता है वहाँ जानिए |

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हर सच्चे मुसलमान की ख्वाहिश हुआ करती है की उसे अल्लाह के नेक बन्दों की जियारत करने का मौक़ा  मिले और इसी को अल्लाह से  मुहब्बत कहा जाता है | अल्लाह के नेक बन्दे  अपनी ज़िन्दगी में भी अल्लाह के नेक बन्दों के आस पास रहना पसंद करते हैं और मौत के बाद उनके रोजों , क़ब्रों पे जा के अकीदत पेश किया करते हैं और उनकी ज़िन्दगी से ,उनके कौल और अमल से अपनी ज़िन्दगी संवारा करते हैं |


इस बार जब मैं लखनऊ आया तो मुझसे मेरे परिवार वालों ,भाई बहनों ने कहा चलो इस बार मौला अली (अ.स) के दरबार नजफ़ ऐ हिन्द जोगीपुरा जियारत को चला जाए | बस आनन फानन में ये तय हो गया और हम सभी चल पड़े मौला के दरबार जोगी पूरा की तरफ अपनी अकीदत पेश करने और अपने दिल में अपनी मुरादें लिए |
 



जोगीपुरा जाने के लिए सबसे बेहतरीन दिन होता है शब् ऐ जुमा और जायरीन के लिए जितना बेहतरीन इंतज़ाम मैंने वहाँ देखा शायद कहीं नहीं देखा था | जोगीपुरा जाने के लिए आपको उत्तेर प्रदेश वेस्ट के नजीबाबाद रेलवे स्टेशन पे उतरना होता है |

अगरआपकेपास जोगीपुरा दरगाह का फ़ोन नंबर है तो वहाँ से आप टैक्सी भी बुला सकते हैं और अगर नहीं है तो आप ३००/- रुपये दे के स्टेशन के बाहर टैक्सी मिलती है उस से १५मिन में रौज़ा ऐ मौला अली (अ.स ) पे पहुँच जाते हैं | कुछ बस की सुविधाएं भी हैं लेकिन उनका वक़्त तय नहीं होने के कारन नए जायरीन को मुश्किल हो जाया करती है |

नजीबाबाद रेलवे स्टेशन स्टेशन से जोगीपुरा ७-८ किलोमीटर की दूरी पे है | जैसे ही टैक्सी जोगीपुरा दरगाह के  गेट पे पहुंची तो दिल में एक ख़ुशी सी महसूस हुयी और ऐसा लगा दुनिया के सारे ग़मऔर मुश्किलात दूर हो गयीं क्यूँ हम पहुँच चुके थे मौला मुश्किल कुशा हज़रत अली (अ.स ) के दरबार में |

दरगाह के दफ्तर में पहुँचते ही वहाँ लोगों से जब कमरे के बारे में पुछा तो उन्होंने के कई कमरे दिखाए जिन्हें और १००-१५०-२०० जैसे हदिये पे ले सकते हैं | और मौला की तरफ से दो  वक़्त आप को बेहतरीन साफ़ सफाई के साथ खाना भी मुफ्त में दिया जाता है |



क्यूँ जोगीपुरा को नजफ़ इ हिन्द कहा जाता है और यहाँ कौन सा मुआज्ज़ा हुआ था जानिये |

१६५७ सितम्बर के महीने में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ बीमार पड़ा तो ये मशहूरहोगयाकी शाहजहाँका इन्तेकाल हो गया | बादशाहत इस सेकमज़ोर होने लगी लेकिन उनका बेटा औरंगजेब तो सियासत में तेज़ था उसने अपने बड़े भाई जो वारिस था शाहजहाँ का उसे एकसाल के अंदर ही इस दौड़ से अलग कर दिया |

रौज़ा मौला अली (अ.स ), जोगी पूरा |

औरंगजेब ने शाहजहाँ के किले में ही क़ैद कर लिया और बादशाह बन बैठा | तख़्त पे बीतते ही उसने शाहजहाँ के वफादार कमांडर और गवर्नर को जान से मार दिए जाने का हुक्म सुना दिया |
ज़री मुबारक मौला अली (अस)

उन्हें कमांडर में से एक थे राजू दादा जिन्होंने ने औरंगजेब को पसंद नहीं किया | औरंगजेब से बचने के लिए राजू दादा अपने वतन जोगी राम पूरा , बिजनौर वापस चले आये | वहां उन्होंने अपने गाँव वालों को बता दिया की औरंगजेब के फ़ौज से उनकी जान को खतरा है | राजू दादा की इमानदारी और गरीब परवर मिज़ाज ने उन्हें गाँव में अच्छी इज्ज़त दे रखी थी| गाँव वाले उनकी हिफाज़त करने लगे और बहुत ही सावधान रहते थे की कहीं औरंगजेब के लोग राजू दादा का कोई नुकसान ना कर दें |


राजू दादा अपने गाँव के पास वाले जंगल में छुपे रहते थे | राजू दादा मौला अली (अ.स ) के चाहने वाले थे और उन्होंने मौला अली (अ.स) को मदद के लिए नाद ऐ अली और या अली अद्रिकनी पढ़ के बुलाना शुरू किया | एक दिन एक बूढ़े हिन्दू ब्राह्मण जो घास काट रहा था और इतना बुध था की ठीक से देख भी नहीं सकता था उसने एक आवाज़ सुनी और जब नज़र डाली तो उसे महसूस हुआ की कोई शख्स घोड़े पे सवार है और उस से कह रहा है कहा है राजू दादा जो मुझे बुलाया करता था ? जाओ उस से कह दो मैंने मिलने को बुलाया है | उस बूढ़े ने कहा मैं ठीक से देख नहीं सकता और कमज़ोर भी हूँ जंगले में कैसे जाऊं उन्हें बुलाने ?

अचानक उस बूढ़े को महसूस हुआ की उसे सब कुछ दिखाई देने लगा और उसके जिस्म में ताक़त भी आ गयी | फिर हजरत अली (अ.स ) ने कहा अब जाओ और राजू दादा से कहो मैं आया हूँ | जब राजू दादा ने उस किसान से सुना तो वो समझ गए कीहजरतअली (अ.स)आयेहैंऔर राजूदादा दौड़ के उस  मुकाम की तरफ चले | गाँव वालों ने  जब राजू दादा को दौड़ते देखा तो समझे औरंगजेब के सिपाही आये हैं और राजू दादा की मादा के लिए उनके पीछे भागने लगे |

राजू दादा जब उस जगह पे पहुंचे तो वहाँ कोई नहीं था लेकिन घोड़े के खड़े होने के निशाँ बाकी थे | लोगों से उस जगह को घेर दिया लेकिन राजू दादा उसी जगह पे  जहां मौला अली (अ.स ) आये थे वहाँ बिना कुछ खाए पिए सात दिन तक नाद ऐ अली पढ़ पढ़ के मौला अली (अ.स ) को बुलाने लगे |


मिटटी में यहाँ की शेफा है |

सातवें दिन मौला अली (अ.स० ) ने राजू दादा को बशारत दी और कहा मत घबराओ औरंगजेब तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता तुम्हे उस से डरने की ज़रुरत नहीं है | राजू दादा ने मौला अली (अ.स ) से कहा की वो चाहते हैं की आप ऐसी कोई चीज़ दे जायें जिस से कौम को शेफा हो उनका भला हो |

तो मौला मौला अली (अ.स ) के मुआज्ज़े से वहाँ एक पानी का चश्मा फूटा जो आज भी मौजूद है | जहां मौला अली (अ.स) खड़े थे वहाँ की मिटटी में आज भी शेफा है और वहाँ एक दूध का चश्मा निकला था जो अब नहीं है |

वो जगह जहाँ पानी का चश्मा फूटा था |
दरगाह के दफ्तर में पहुँचते ही वहाँ लोगों से जब कमरे के बारे में पुछा तो उन्होंने के कई कमरे दिखाए जिन्हें और 100-१५०-२०० जैसे हदिये पे ले सकते हैं | और मौला की तरफ से तो वक़्त आप को बेहतरीन साफ़ सफाई के साथ खाना भी मुफ्त में दिया जाता है |


ज़िन्दान बीबी सकीना

मश्क ज़िन्दान बीबी सकीना  के पास 
रौज़ा हज़रत अब्बास अलमदार


रौज़ा इमाम हुसैन ,राजू दादा के रौज़े के पास 
मस्जिद

रौज़ा हज़रात अब्बास अलमदार

मौला अली (अ.स)

दरगाह का दफ्तर

मौला अली (अस) के रौज़े का शेर दरवाज़ जहां से शेर सलाम करने आता था\

मौला अली (अस) का रौज़ा

दुआओं और मुरादों के बाद आराम और बेफिक्री के कुछ पल |

                                                             लेखक : एस एम् मासूम

मैं एक शिया मुसलमान नहीं हूँ

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टीवी शिया. शेख़ ज़कज़की की बेटी ने कहाः मैं एक शिया मुसलमान नहीं हूँ, मैं केवल एक मुसलमान हूँ, मुसलमान से पहले कुछ नहीं लगाना चाहिये, हम मुसलमानों को हर उस चीज़ का विरोध करना चाहिये जो हमको विभिन्न समुदायों में बांट दे, केवल एक इस्लाम है जो पैग़म्बर (स) लेकर आए थे।

हम मुसलमानों के शिया, सुन्नी, नाइजीरियाई, अमरीकाई ... आदि नामों को स्वीकार नहीं करना चाहिये।

अफ़सोस है कि हमारे कुछ भाई बहन ज़रेआ की हालिया घटना को शिया जनसंहार के तौर पर देखते हैं, ऐसा लगता है कि इन (नाइजीरियाई सरकार और सेना) सबने हम पर आक्रमण इसलिये किया है कि हम शिया है, जब हमारी यह क्रांति आरम्भ हुई थी तो इसके अधिकतर सदस्य सुन्नी थे और उस समय भी इसी प्रकार हमले किये जाते थे, वह भी जेल गए और उनकी भी धमकियाँ दी गईं। क्यों? क्यों कि हमने तै किया था कि नाइजीरिया में लोगों पर होने वाले अत्याचार के समाप्त कर सकें। अगर हम भी इस अत्याचार पर दूसरे लोगों की भाति चुप बैठ जाते तो हम भी शांति से रह सकते थे, जैसा कि आप भी किसी ऐसे देश में रह सकते हैं जिसमें आपको मूलभूत अधिकार भी न दिये जाते हों।

मेरे पिता ने कभी भी स्वंय को एक समुदाय के नेता के तौर पर पेश नहीं किया और इस इस्लामी आन्दोलन को किसी विशेष समुदाय का नहीं बताया। इस आन्दोलन का वास्तविक लक्ष्य यह था कि हम सरकार की तरफ़ से जानी नाइन्साफ़ियों का विरोध करें जिसमें हम जी रहे हैं। हर इन्सान चाहे वह किसी भी देश या धर्म का हो वह इस आन्दोलन में हमारा साथ दे सकता है। हम चाहे किसी भी समुदाय को हो अंत में हमारा लक्ष्य यही है कि उस चीज़ को सिद्ध करें जो पैग़म्बर (स) ले कर आए थे।

हमने एकता के कुछ ही सप्ताहों को देख है जब तमाम मुसलमान एक दूसरे के साथ खड़े होते थे, हमको उन सालों से मिले हुए सबक़ को भुलाना नहीं है।

जब मेरे तीनों भईयों की शहादत हुई वह उस फ़िलिस्तनी के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे थे जिसमें सुन्नी अधिक हैं, वह शियों होने के कारण नहीं शहीद हुए बल्कि उनको इसलिये मारा गया कि वह पीड़ितों को हक़ के लिये खड़े हुए थे, नाइजीरिया की सरकार इस प्रदर्शन से डर गई थी क्योंकि वह जानते थे कि स्वंय इस देश के लोग भी अत्याचार सह रहे हैं और कहीं ऐसा न हो कि वह अपने अधिकारों की आवाज़ उठा दें, वरना एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन को क्यों इस प्रकार सेना द्वारा हमले के शिकार बनाया जाता और घायलों को छोड़ दिया जाता ताकि वह ख़ून बह जाने के कारण मर जाएं?

नाइजीरिया में जो कुछ हुआ है वह शियों का जनसंहार नहीं था बल्कि क़त्लेआम की एक कड़ी थी, दुनिया में कोई भी कहीं भी अगर आज होने वाले अत्याचारों पर विरोध प्रकट करे चाहे वह ग़ैर मुसलमान हो विशष कर अगर नाइजीरियाई हो तो वह सरकार और वह लोग जिन्होंने उनकी सुरक्षा की शपथ ली है वही बेकार के बहाने बना कर जैसे रास्ते को बंद किया जाना एक क्लिप जारी करेंगे और सकड़ों बल्कि हज़ारों इन्सानों का ख़ून बहा देंगे आप सोंचें कि आपकी हत्या करने के लिये इससे (रास्ता बंद किया जाना) छोटा और क्या बहाना हो सकता है? अगर आज आप इस अत्याचार के विरुद्ध खड़े नहीं होंगे तो एक दिन यह आपके साथ भी होगा और उस दिन कौन आपके लिये आवाज़ उठाएगा?
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ख़ुत्बा और बानियाने मजलिस के नाम एक महत्वपूर्ण अनुरोध

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ख़ुत्बा और बानियाने मजलिस के नाम एक महत्वपूर्ण अनुरोध

यह वोह वक़्त है जब जनता सुनने के लिए तैयार होती है! कर्बला का वाक़िया एक मोएज्ज़ा है! और मुहर्रम वोह वक़्त है जब लोग दीने इस्लाम का पैगाम सुनते हैं! समाज के हर वर्ग और विभाग के लोग अपने मौला इमाम हुसैन (अ:स) की मुहब्बत के लिए मजलिस में शिरकत करते हैं! कोई और मौक़ा ऐसा नहीं होता की लोग मजलिस या धार्मिक व्याख्यान सुनने के लिए इतना वक़्त देते हैं! ज़्याराते अर'बईन में इमाम हुसैन (अ:स) की कुर्बानी का मकसद लोगों को जेहालत से निकालना पाया जाता है! यह हमारी ज़िम्मेदारी है की इस अज़ीम मकसद के हसूल के लिए हम अपनी कोशिशेंजारी  सारी रखें!

ज़्यादातर  लोग ज़िम्मेदारी उठाना नहीं चाहतेबल्कि दुश्मनों की निंदा सुनने में दिलचस्पी लेते हैं और मज़ा उठाते हैं!

यह एक ऐसी मानव प्रकृति है की वो ऐसा कुछ नहीं सुनना चाहते हैं जहाँ इसे सोचने और इसके बाद अपने मिज़ाज के खिलाफ अमल करने की ज़रुरत पड़े! लोग अपने ऊपर ज़िम्मेदारी लेना पसंद नहीं करते हैंखासकर उस वक़्त जिसमे कारवाई करने या परिवर्तन लाने की मांग हो!  दूसरों की निंदा और अपने अकीदे और मान्याताओं की पुष्ठी को सुनना बहुत ही आसान और सुकूँ का काम है!  अलबत्ता इस बात का भी ख्याल रख़ा जाए की किसी भी तरह अनुचित भाषा का उपयोग जबकि वो किसी व्यक्ति विशेष या किसी ख़ास गिरोह के लिए इस्तेमाल की जाती हैवोह समाज में नफरत और हिंसा के इंधन का काम करती है!  यह बात इस्लाम के कमज़ोर होने का कारण भी बनती है! वर्तमान काल में यह आवश्यक है की इस्लाम में मुसलमानों के बीच आपस में शांती एवं एकता  हो! इसके अतिरिक्त बहुत सारे उलटे सीधे तर्क को आसानी से तार्किक चर्चा में मुकाबला करके रद किया जा सकता है! यह बता भी काफी गंभीरता से सोचनी चाहिए की बहुत सारी जगहों पर हमारी बहस नहीं बल्कि हमारी क्रिया और अमल लोगों को प्रभावित करती है! निंदा और ताना देने वाली बातों से  ही किसी अकेले इंसान में और न ही किसी समाज में सुधार लाया जा सकता है! लोग अपने आप को इस्लामी अध्यन करने में अपने वक़्त की बर्बादी समझते हैं! समय की पुकार है की हम अपने आप को और अपने समाज को बदलने की पुरो कोशिश करें! यह शायद संभव हो की अगर कोई खतीब (ज़ाकिर) केवल दूसरों की निंदा करे और लोगों को बदलने या अपना कर्त्तव्य निभाने पर ज़ोर न दे तो उसके मजलिस में मजमा (लोग) भी ज़्यादा होंगे और उसकी तारीफ भी बहुत होगी! परन्तु ईन सब बातों से वो मकसदे अहलेबैत को बढ़ावा देने में सहायक नहीं होगा! 

 अहलेबैत जो हम से चाहते है और उम्मीद रखते हैं - इसका क्या होगा?
इस में कोई शक नहीं है की हम अहलेबैत (अ:स) के माध्यम से ही अपने मोक्ष की उम्मीद करते हैं! अज़ादारी स्वयं अपने आप में एक ज़बरदस्त और बड़ी इबादत है! हमारी मजलिसों में हमारे विश्वास (अकीदा) और अहलेबैत (अ:स) का ज़िक्र होना चाहिए! एतिहासिक बातें भी होनी ज़रूरी हैं ताकि हमारी कौम और हमारे बच्चे अपने प्रशंसनीय इतिहास  को जान सकें और यह समझ सकें की किसी घटनायुद्ध और व्यक्ति विशेष का महत्त्व इस्लाम को बढाने और फैलाने और उजागर करने में क्या रहा है! यह तमाम बातें इस समय लाभदायक होंगी जब हम यह जाँ लेंगे की मजलिस के लिए हमारी जिम्मेदारियां क्या क्या हैं!
हमें मजलिस में अहलेबैत (अ:स) का पैगाम पहुंचाना है! अहलेबैत ने अपना सब कुछ इस्लाम की हिफाज़त में खर्च किया/लुटाया है! ईन की हर समय ताहि कोशिश रही की शरियते इस्लाम यानी सही अकीदे और अहकाम (नियम) जैसे हरामहलालमुस्तहबमकरूह और मोबाह की हिफाज़त हो सके! इन्हों ने हमेशा लोगों के सामने सही इस्लाम का प्रचार और प्रसार किया! तमाम अंबिया और इमामों की यही कोशिश रही है की तमाम मानवजाति अल्लाह की मर्ज़ी को पहचाने और इसके सामने अपनी इच्छाओं को झुकाए और शीश को नमन करे! 
अहलेबैत (अ:स) से मुहब्बत का तरीका है की हम उनका कहना मानेउनके बताये हुए रास्ते पर चलें जो की वास्तविकता में अल्लाह का बताया हुआ रास्ता है! इसके लिए ज़रूरी है की हम इनकी दी हुई शिक्षाओं को समझें! अगर हम अपनी ज़िंदगी इस तरह गुजारेंगे जैसे हम से इस्लाम चाहता है तो यकीनन हमारी दुन्या और आखेरत दोनों कामयाब हो जायेंगी! इसी कारणवश हमारी मजलिसें इस वक़्त कामयाब और लाभदायक होंगी जब हम ज़िक्रे विलायत के साथ साथ आइम्माए-मासूमीन (अ:स) की हम से आशाओं और उम्मीदों का भी तज़किरा करें!

मजलिसों में क्या होना चाहिए ?
हमें अपने आप को और समाज को बेहतर बनाना होगा! इस्लाम ने हमें वो तमाम तरीक़े बताएं हैंजिस से हम अपनी और समाज की संहिता  को बेहतर कर सकते हैं! जैसे बेहतर घरेलू ज़िंदगीगुनाहों से बचनादूसरों की मदद  और इस्लामी दुन्या के हालत से बाखबर रहना इत्यादि! परिवर्तन के लिए कुछ दिनों की मजलिस नाकाफी हैइसलिए मजलिस में आने वालों को यह याद दिलाना ज़रूरी है की इल्म हासिल करने का कार्य साल भर जारी रहना चाहिए! इस सिलसिले में इन्हें चाहिए की किताबोंकैसेटोंसीडीइन्टरनेट इत्यादि का प्रयोग करेंइस से लाभ उठायें जो आजकल आसानी से मिल जाती हैं! इस से निजी व्यक्तित्व और समाज की बढ़ोतरी होती है! जब हमारे इमाम-ज़माना (अ:त:फ) ज़हूर फरमाएंगे तो आप को ऐसे पाक लोगों की ज़रुरत होगी जो बाखबर भी हों और इस्लामी इल्म भी रखते हों! यह एक इस्लामी ज़िम्मेदारी है जाकिरों की भी और समाज का बा-असर लोगों की भी की वो मजलिस के ज़रिये लोगों में यह सारी सलाहियत और खूबी पैदा कर सकें!  यह ज़िम्मेदारी मजलिस में जाने वालों की भी है की वो किस किस्म की मजलिसों को बढ़ावा देते हैं और सराहते हैं!

हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का अख़लाक़

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मुआविया बिन वहब कहते हैं: मैं मदीना में हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के साथ था, आप अपनी सवारी पर सवार थे, अचानक सवारी से उतर गए, हम बाजार जाने का इरादा रखते थे लेकिन इमाम अलैहिस्सलाम सज्दा में गये और आपने एक लंबा सज्दा किया, मैं इंतजार करता रहा जब तक आपने सज्दा से सिर उठाया, मैंने कहा: मैं आप पर कुर्बान! मैंने आपको देखा कि सवारी से उतरे और सज्दे में चले गए? आपने फ़रमाया: मैं अपने ख़ुदा की नेअमतों को याद करके सज्दा कर रहा था
नेअमत का शुक्र
विलायत पोर्टलः मुआविया बिन वहब कहते हैं: मैं मदीना में हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के साथ था, आप अपनी सवारी पर सवार थे, अचानक सवारी से उतर गए, हम बाजार जाने का इरादा रखते थे लेकिन इमाम अलैहिस्सलाम सज्दा में गये और आपने एक लंबा सज्दा किया, मैं इंतजार करता रहा जब तक आपने सज्दा से सिर उठाया, मैंने कहा: मैं आप पर कुर्बान! मैंने आपको देखा कि सवारी से उतरे और सज्दे में चले गए? आपने फ़रमाया: मैं अपने ख़ुदा की नेअमतों को याद करके सज्दा कर रहा था।
गैर शियों की मदद
मुअल्ला बिन ख़ुनैस कहते हैं: हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम एक रात कि जिसमें हलकी हलकी बारिश हो रखी थी बनी साएदा के सायबान में जाने के लिए बैतुश शरफ़ से बाहर निकले, मैं आपके पीछे पीछे रवाना हुआ, अचानक आपके हाथ से कोई चीज़ गिरी, बिस्मिल्लाह, कहने के बाद आपने फरमाया: ख़ुदाया! इसको हमारी तरफ़ पलटा दे, मैं आगे बढ़ा और आपको सलाम किया, इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया मुअल्ला! मैंने कहा: जी हुज़ूर, मैं आप पर क़ुर्बान, कहा: तुम भी इस चीज़ को ढ़ूंढ़ो और अगर मिल जाए तो मुझे दे दो।
अचानक मैंने देखा कि कुछ रोटियाँ हैं जो ज़मीन पर बिखरी हुई हैं, मैंने उन्हें उठाया और इमाम अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में पेश किया, उस समय मैंने इमाम अलैहिस्सलाम के हाथों में रोटी का भरा हुआ एक बैग देखा, मैंने कहा: लाइये मुझे दे दीजिए मैं इसे लेकर चलता हूँ, इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया नहीं, मैं इसे ले चलूंगा, लेकिन मेरे साथ चलो।
बनी साएदा के सायबान में पहुंचे, यहां कुछ लोगों को देखा जो सोए हुये थे, इमाम अलैहिस्सलाम ने हर आदमी के कपड़ों के नीचे एक या दो रोटियाँ रखीं और जब सब तक रोटियाँ पहुंच गईं तो आप वापस पलट आए, मैं ने कहा: मैं आप पर कुर्बान! क्या यह लोग हक़ को पहचानते हैं? कहा: अगर वह हक़ को पहचानते होते तो बेशक नमक द्वारा (भी) उनकी मदद करता है।
रिश्तेदारों की मदद
अबू जअफ़र बिन खसअमी कहते हैं कि हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मुझे पैसों की एक थैली दी और कहा: उसे बनी हाशिम के परिवार के फ़लाँ आदमी तक पहुंचा दो, लेकिन यह न बताना कि मैंने भेजी है।
अबू जाफर कहते हैं: मैंने वह थैली उस आदमी तक पहुंचा दी, उसने वह थैली लेकर कहा: अल्लाह इस थैली के भेजने वाले को अच्छा बदला दे, हर साल यह पैसे मेरे लिए भेजता है और साल के आख़िर तक खर्च चलाता हूँ, लेकिन जाफ़र सादिक़ (अ) इतनी माल व दौलत रखने के बावजूद भी मेरी कोई मदद नहीं करते।!
अख़लाक़ की बुलंदी
हाजियों में से एक आदमी मदीने में सो गया और जब जागा तो उसने यह गुमान किया कि किसी ने उसकी थैली चुरा ली है, उस थैली की तलाश में दौड़ा, हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम को नमाज़ पढ़ते देखा और वह इमाम अ. को नहीं पहचानता था, इसलिए वह इमाम अलैहिस्सलाम से उलझ गया और कहने लगा: मेरी थैली तुमने उठाई है! इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि उसमें क्या था? उसने कहा: एक हजार दीनार, इमाम अलैहिस्सलाम उसे अपने घर ले आए और उसे हजार दीनार दे दिये।
लेकिन जब वह आदमी अपनी जगह पलट कर आया तो उसकी थैली उसे मिल गई, शर्मिंदा होकर हजार दीनार के साथ इमाम अलैहिस्सलाम का माल वापस करने के लिए आया, लेकिन इमाम अलैहिस्सलाम ने वह माल लेने से इंकार कर दिया और कहा कि जो कुछ हम दे दिया करते हैं उसे वापस नहीं लेते, उसने लोगों से सवाल किया कि यह आदमी ऐसे करम व एहसान वाला कौन है? तो उसे बताया गया कि यह जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम हैं, उसने कहा: यह करामत ऐसे ही इंसान के लिए सज़ावार है।



माँ बाप और अह्लेबय्त

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अमीरूल मोमेनीन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: बाप का अधिकार है कि सन्तान उसकी हर बात माने सिवाये उन बातों के जिनके अंजाम देने से अल्लाह तआला की अवज्ञा होती हो।

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इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: माँ बाप से नेकी करना वाजिब है चाहे वह दोनों मुशरिक ही क्यों न हों लेकिन अगर उनके आज्ञापालन से अल्लाह की अवज्ञा होती हो तो उनके हुक्म का पालन नहीं करना चाहिए क्योंकि अल्लाह की अवज्ञा करके बंदों का आज्ञापालन नहीं किया जा सकता है।

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इमाम रेज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: बेशक अल्लाह तआला ने माँ बाप का शुक्रिया अदा करने का आदेश दिया है और जिसने अपने माँ बाप का आभार व्यक्त किया उसने अल्लाह का शुक्र अदा किया है।

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इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से पूछा गया: अच्छे काम कौन से हैं? आपने कहा समय पर नमाज़ अदा करना, माँ बाप के साथ नेकी करना और खुदा की राह में जिहाद करना, अच्छे कामों में से हैं।

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रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम ने फ़रमाया: मां बाप की ओर प्यार से देखना इबादत है।

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रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम ने फ़रमाया: जो सन्तान मेहरबानी के साथ अपने माँ बाप की ओर देखेगी, हर निगाह के बदले उसे एक मक़बूल हज (ऐसा हज जिसे अल्लाह तआला ने क़बूल कर लिया हो) इनाम में दिया जाएगा। पूछा गया: ऐ रसूले ख़ुदा (स) अगर इंसान प्रतिदिन सौ बार अपने माँ बाप को प्यार भरी निगाहों से देखे क्या तब भी उसे हर निगाह के बदले एक मक़बूल हज इनाम में मिलेगा? रसूले ख़ुदा (स.अ) ने कहा: हाँ, अल्लाह सबसे बड़ा और से ज्यादा पाक है।

जब इमाम मेहदी (स.अ) का ज़हूर होगा तक क्या हालात होंगे ?

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हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के ज़हूर से पहले जो अलामतें ज़ाहिर होंगी उनकी तकमील के दौरान ईसाई दुनिया को फ़तह करने के इरादे से उठ खड़े होगें और बहुतसे मुल्कों पर क़ब्ज़ा कर लेंगे।

 उसी ज़माने में अबूसुफ़यान की नस्ल से एक ज़ालिम पैदा होगा जो अरब और शाम पर हुकूमत करेगा। उसकी दिली तमन्ना यह होगी कि दुनिया को सादात से ख़ाली कर दिया जाये और मुहम्मद (स.) की नस्ल का एक इंसान भी बाक़ी न रहे। लिहाज़ा वह सादात को बहुत बेदर्दी से क़त्ल करेगा।

इसी दौरान रोम के बादशाह को ईसाईयों के एक फ़िर्क़े से जंग करनी पड़ेगी। यह बादशाह एक फ़िरक़े को अपने साथ लेकर दूसरे फ़िरक़े से जंग करते हुए क़ुसतुनतुनिया शहर पर क़ब्ज़ा कर लेगा। क़ुसतुनतुनियाँ का बादशाह वहाँ से भाग कर शाम में पनाह लेगा और नसारा के दूसरे फ़िर्क़े की मदद से अपने मुख़ालिफ़ फ़िर्क़े से जंग करेगा। यहाँ तक कि इस्लाम को फ़तह हासिल होगी। इस्लाम की फ़तह के बावजूद ईसाई यह शोहरत देंगे कि सलीब ग़ालिब आ गई है।। इस पर ईसाईयों और मुसलमानों में जंग होगी और ईसाईयों को कामयाबी मिलेगी।


 मुसलमानों का बादशाह क़त्ल होगा, शाम पर ईसाईयों का झण्डा लहराने लगेगा और मुसलमानों का क़त्ले आम होगा। मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए मदीने की तरफ़ भागेगें और ईसाई अपनी हुकूमत को बढ़ाते हुए ख़ैबर तक पहुँच जायेंगे। मुसलमानों की कोई पनाहगाह न होगी और वह अपनी जान बचाने से आजिज़ होंगे। उस वक़्त वह पूरी दुनिया में महदी को तलाश करेंगे ताकि इस्लाम महफ़ूज़ रह सके और मुसलमानों की जान बच सके। इस काम में अवाम ही नही तमाम क़ुतब, अबदाल और औलिया भी इस जुसतूजू में मसरूफ़ रहेंगे। अचानक आप मक्क-ए-मोज़्ज़मा में रुक्न व मक़ाम से बरामद होंगे।.........(क़ियामत नामा, शाह रफ़ी उद्दीन देहलवी)

आप सफ़ा व मरवा के दरमियान से बरामद होंगे। उनके हाथ में हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम की अंगूठी और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का असा होगा। आप का काम यह होगा कि आप अल्लाह के मुख़ालिफ़ और उसकी आयतों पर यक़ीन न रखने वलाले लोगों की तसदीक़ नही करेंगे। जब क़ियामत क़रीब होगी तो आप असा व अंगुश्तरी से हर मोमिन व काफ़िर की पेशानी पर निशान लगायेंगे। मोमिन की पेशानी पर हाज़ा मोमिन हक़्क़ा व काफ़िर की पेशानी पर हाज़ा काफ़िर तहरीर हो जायेगा। ....(इरशाद उत तालेबीन  पेज न.400 व क़ियामत नामा )

शिया व सुन्नी दोनों मज़हबों के उलमा का कहना है कि आप क़रआ नामी क़रिये से रवाना होकर मक्क -ए- मोज़्ज़मा में ज़हूर फ़रमायेंगे।............(ग़ायत उल मक़सूद पेज न. 165 व नूर उल अबसार पेज न. 154)


अल्लामा कुन्जी शाफ़ई और अली बिन मुहम्मद साहिबे किफ़ायत उल अस्र अबू हुरैरा के हवाले से नक़्ल करते हैं कि हज़रत सरवरे काएनात ने फ़रमाया कि इमाम महदी क़रिया-ए- क़रआ (यह क़रिया मक्के और मदीने के दरमियान मदीने से तीस मील के फ़ासले पर वाक़े है।) से निकल कर मक्क -ए- मोज़्ज़मा में ज़हूर करेंगे। वह मेरी ज़िरह पहने होंगे, मेरी तलवार लिये होंगे और मेरा अम्मामा बाँधें होंगे। उनके सिर पर अब्र का साया होगा और एक फ़रिश्ता आवाज़ देता होगा कि यह इमाम महदी हैं इनकी इत्तबा करो। एक रिवायत में है कि जिब्राईल आवाज़ देंगे और हवा उसको पूरी काएनात में पहुँचा देगी और लोग आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो जायेंगे।

लुग़ाते सरवरी में है कि आप ख़ैरवाँ नामी क़स्बे से ज़हूर फ़रमायेंगे।

मासूमीन का क़ौल है कि इमाम  महदी के ज़हूर का वक़्त मुऐय्यन करना अपने आपको अल्लाह के इल्मे ग़ैब में शरीक करना है। वह मक्के में बे ख़बर ज़हूर करेंगे, उनके सिर पर ज़र्द रंग का अम्मामा होगा, बदन पर रसूल की चादर और पैरे में उन्हीं के जूते होंगे। वह अपने सामने कुछ भेड़ें रखेंगे, कोई उन्हें पहचान न सकेगा और वह इसी तरह बग़ैर किसी दोस्त के तन्हे तन्हा ख़ाना -ए- काबा में आ जायेंगे। जब रात का अंधेरा छा जायेगा और लोग सो जायेंगे, उस वक़्त आसमान से फ़रिश्ते सफ़ बा सफ़ उतरेंगे और जिब्राईल व मिकाईल उन्हें अल्लाह का यह पैग़ाम सुनायेंगे कि अब सारी दुनिया पर उनका हुक्म जारी है। यह पैग़ाम सुनते ही इमाम अल्लाह का शुक्र अदा करेंगे और रुकने हजरे असवद व मक़ामें इब्राहीम के बीच ख़ड़े हो कर बलंद आवाज़ से फ़रमायेंगे कि ऐ वह लोगो ! जो मेरे मख़सूसो और बुज़ुर्गों से हो और ऐ वह लोगो ! जिन्हें अल्लाह ने मेरे ज़हूर से पहले ही मेरी मदद करने के लिए ज़मीन पर जमा किया है आजाओ ! आपकी यह आवाज़ उन लोगों के कानों तक पहुँचेंगी चाहे वह मशरिक में रहते हों या मग़रिब में। वह लोग हज़रत की यह आवाज़ सुनते ही पल भर में हज़रत के पास जमा हो जायेंगे। इन लोगों की तादाद 313 होगी और यह नक़ीबे इमाम कहलायेंगे। उस वक़्त एक नूर ज़मीन से आसमान तक बलंद होगा जो पूरी दुनिया में हर मोमिन के घर में दाख़िल हो जायेगा और इससे उनके दिल ख़ुश हो जायेंगे लेकिन मोमेनीन को यह मालूम न हो सकेगा कि इमाम का ज़हूर हो चुका है।


सुबह को इमाम अपने उन 313 साथियों के हमराह जो रात में उनके पास जमा हो चुके होंगे काबे में खड़े होंगे और दीवार से तकिया लगा कर अपना हाथ खोलेंगे। आपका यह हाथ मूसा के यदे बैज़ा की तरह होगा और आप फ़रमायेंगे कि जो इस हाथ पर बैअत करेगा ऐसा है जैसे उसने यदुल्लाह पर बैअत की हो। सबसे पहले आपके हाथ पर जिब्राईल बैअत करेंगे और उनके बाद दूसरे फ़रिश्ते बैअत करेंगे। फ़रिश्तों के बाद आपके 313 नक़ीब आपकी बैअत करेंगे। इस हलचल से मक्के में तहलका मच जायेगा और लोग हर तरफ़ यही पूछ ताछ करेंगे कि यह कौन शख़्स है ? यह तमाम वाक़ियात सूरज निकलने से पहले अंजाम पायेंगे।

सूरज निकलने के बाद सूरज के सामने एक मुनादी करने वाला बलंद आवाज़ में कहेगा कि ऐ लोगो ! यह महदी- ए- आले मुहम्मद हैं, इनकी बैअत करो। इस आवाज़ को ज़मीन व आसमान पर रहने वाले सभी जानदार सुनेगें। इस आवाज़ के बाद फ़रिश्ते और आपके 313 साथी इसकी तसदीक़ करेंगे। तब दुनिया के हर गोशे से लोग आपकी ज़ियारत के लिए जूक़ दर जूक़ रवाना होंगे और आलम पर हुज्जत क़ायम हो जायेगी। इसके बाद दस हज़ार अफराद आपकी बैअत करेंगे और कोई यहूदी व नसरानी बाक़ी न छोड़ा जयेगा। बस अल्लाह का नाम होगा और इमाम महदी अलैहिस्सलाम का काम होगा। मुख़लेफ़त करने वालों पर आसमान से आग बरसेगी जो जला कर राख कर देगी।
(नूर उल अबसार इमाम सिबलंजी शाफ़ेई सफ़ा नम्बर 155 व आलाम उल वरा सफ़ा न. 264)


उलमा ने लिखा है कि कूफ़े से 27 ऐसे मुख़लिस आपकी ख़िदमत में पहुँचेंगे, जो हाकिम बनायें जायेंगे। किताब मुनतख़ब उल बसाइर में उनके नामों की तफ़्सील इस तरह दी गई है। यूशा बिन नून, सलमाने फ़ारसी, अबू दज्जाना अंसारी, मिक़दाद बिन असवद, मालिके अशतर, सात असहाबे कहफ़ और पन्द्रह लोग जनाबे मूसा की क़ौम से।
(आलाम उल वरा, सफ़ा न. 264 व इरशादे मुफ़ीद सफ़ा न. 536)


अल्लामा अब्दुर रहमान जामी का कहना है कि कुतब, अबदाल, उरफ़ा सब आपकी बैअत करेंगे। आप जानवरों की ज़बान से भी वाक़िफ़ होंगे और जिन्नो इंस में अद्ल व इंसाफ़ करेंगे।
(शवाहेदुन नबूवत सफ़ा न. 216)

अल्लामा तबरसी का कहना है कि आप हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम के उसूल पर अहकाम जारी करेंगे। आपको गवाहों की ज़रूरत न होगी। आप हर एक के अमल से अल्लाह के इल्हाम के ज़रिये वाक़िफ़ होंगे।
(आलाम उल वरा सफ़ा न. 264)


इमाम शिबलंजी शषाफ़ेई का बयान है कि जब इमाम महदी अलैहिस्सलाम का ज़हूर होगा तो तमाम् मुसलमान अवाम व ख़वास ख़ुश हो जायेंगे। उनके कुछ वज़ीर होंगे जो आपके अहकाम पर लोगों से अमल करायेंगे।
(नूर उल अबसार सफ़ा न. 153)


अल्लामा हल्बी का कहना है कि असहाबे कहफ़ आपके वज़ीर होंगे। ........(सीरते हल्बिया)

हमूयनी का बयान है कि आपके जिस्म का साया न होगा।...(ग़ायत उल मक़सूद जिल्द न. 2 सफ़ा न. 150)

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का फ़रमान है कि इमाम महदी अलैहिस्सलाम के असहाब व अंसार ख़ालिस अल्लाह वाले होंगे। आपके गिर्द लोग इस तरह जमा होंगे जिस तरह शहद की मक्खियाँ अपने यासूब  बादशाह के पास जमा हो जाती हैं।.....(अरजेह उल मतालिब सफ़ा न. 469)


एक रिवायत में है कि ज़हूर के बाद आप सबसे पहले कूफ़े तशरीफ़ ले जायेंगे और वहां पर कसीर अफ़राद को क़त्ल करेंगे।



हज़रत फातिमा ज़हरा स.अ की तस्बीह की फ़ज़ीलत |

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हज़रत फातिमा ज़हरा स.अ की तस्बीह की फ़ज़ीलत |

तस्बीह के बारे मै अयातुल्लाह सय्यद अली नकी नकवी (नक्कन साहब)फरमाते है :कहीं से माले गनीमत में कुछ कनीज़े आई और वोह असहाब को तकसीम की जा रही थी -तो रिवायत बताती है के हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अ.स ने घर मै आकर फ़रमाया :तुम्हारे वालिद बुज़ुर्गवार स.अ.व.व के पास कनीज़े आयी है और मुख्तलिफ सहाबा को दे रहे हैं तो जितना सबको हक है उतना तो तुम्हे भी है -लिहाज़ा अपने अपने वालिद के पास आप जाइए और खुआहिश करिए के एक कनीज़ तुम्हारे सुपुर्द करदें -अब किन लफ्जों मै कहाँ होगा वोह रिवायत ने नहीं बताया |

मैं समझता हूँ कि हाथ दिखा दिए होंगें यही काफी है -हज़रत मोहम्मद स.अ.व.व ने फ़रमाया बेटी हाँ ठीक है  मुतालेबा तुम्हारा ठीक है -मगर तुम खुद बताओ कनीज़ लोगी या एक ऐसी तस्बीह सिखादूं जो आस्मां के मालिक  को बहुत पसंद है  -हज़रत फातिमा अ.स कहने लगी बाबाजान बस तस्बीह सिखा दीजिये -और वोह तस्बीह थी ३४ बार अल्लाहो अकबर ,३३ बार अल्हम्दोलिल्लाह ,३३ बार सुभान अल्लाह -इसलिए इस तस्बीह का नाम तस्बीह-ऐ-फातिमा ज़हर स.अ पढ़ गया -

हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर अ.स का फरमान :
हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह से बढ़ कर कोई इबादत नहीं है इस लिए के अगर के अगर उससे बढ़ कर कोई और शै(चीज़ ) होती तो रसूल स.अ.व.व हज़रत फातिमा अ.स वही चीज़ अता फरमाते -
इमाम जफ़र सादिक अ.स का फरमान :


जो शख्स वाजिबी नमाज़ के बाद हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह को बजा लाये और वोह उस हल मै हो के उसने अभी तक अपने दाये पाओ को बाये पाओ पर से उठाया भी न हो ...उसके तमाम gunah माफ़ करदिये जाते है -और इस तस्बीह का आगाज़ अल्लाहोअक्बर से किया जाये-(तहज़ीबुल अहकाम जिल्द २ पेज 105)
हर रोज़ हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह का हर नमाज़ के बाद बजालाना मेरे नजदीक रोजाना एक हज़ार रकत नमाज़ अदा करने से ज़्येदा महबूब है- (फुरु-ऐ-काफी किताब सलत पेज ३४३ हदीस 15)
रात को सोने से पहले तस्बीह पढ़ने कि फ़ज़ीलत
हज़रत इमाम जफ़र सादिक अ.स ने फ़रमाया :जो शख्स रात को सोने से पहले हज़रत फातिमा अ.स की तस्बीह को पढ़े तो वोह उन मर्दों और औरतो मै शुमार होगा जो अल्लाह को ज्यादा याद करते है -(वासिल उष शिया जिल्द ४ पेज 1026).
हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर अ.स ने फ़रमाया :जो शख्स तस्बीह के बाद अस्ताग्फार करे ...उसके गुनाह माफ़ करदिये जाते है -और उसके दानो की अदद १०० है -और उसका सवाब मीज़ान-ऐ-अमल मै हज़ार दर्जा है



ख़ुदा की इबादत की क़िस्में

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ख़ुदा की इबादत की क़िस्में

इमाम अली अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा में इबादत और उपासना करने वालों के तीन प्रकार बयान फ़रमाते हैं:

इन्ना क़ौमन अबदुल्लाहा रग़बतन फ़ तिलका इबादतुत तुज्जार.......। (1)

कुछ लोग ख़ुदा की इबादत ईनाम के लालच में करते हैं यह ताजिरों की इबादत है और कुछ लोग ख़ुदा की इबादत ख़ौफ़ की वजह से करते हैं यह ग़ुलामों की इबादत है और कुछ लोग ख़ुदा की इबादत उस का शुक्र बजा लाने के लिये करते हैं यह आज़ाद और ज़िन्दा दिल लोगों की इबादत हैं।

इस फ़रमान में इमाम अली अलैहिस सलाम ने इबादत को तीन क़िस्मों में बांटा है।

1. ताजिरों की इबादत

यानी कुछ लोग रग़बत औक ईनाम की लालच में ख़ुदा की इबादत करते हैं। इमाम (अ) फ़रमाते हैं कि यह हक़ीक़ी इबादत नही है बल्कि यह ताजिरों की तरह ख़ुदा से मामला चाहता है जैसे ताजिर हज़रात का हम्म व ग़म फ़कत नफ़ा और फ़ायदा होता है किसी की अहमियत उस की नज़र में नही होती। उसी तरह से यह आबिद जो इस नीयत से ख़ुदा के सामने झुकता है दर अस्ल ख़ुदा की अज़मत का इक़रार नही करता बल्कि फ़क़त अपने ईनाम के पेशे नज़र झुक रहा होता है।

2.  ग़ुलामों की इबादत

इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि कुछ लोग ख़ुदा के ख़ौफ़ से उस की बंदगी करते हैं यह भी हक़ीक़ इबादत नही है बल्कि ग़ुलामों की इबादत है जैसे एक ग़ुलाम मजबूरन अपने मालिक की इताअत करता है उस की अज़मत उस की नज़र में नही होती। यह आबिद भी गोया ख़ुदा की अज़मत का मोअतरिफ़ नही है बल्कि मजबूरन ख़ुदा के सामने झुक रहा है।

3. हक़ीक़ी इबादत

इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं जो ख़ुदा की इबादत और बंदगी उस की नेंमतों का शुक्रिया अदा करने के लिये बजा लाते हैं, फ़रमाया कि यह हक़ीक़ी इबादत है। चूँ कि यहाँ इबादत करने वाला अपने मोहसिन व मुनईमे हकी़क़ी को पहचान कर और उस की अज़मत की मोअतरिफ़ हो कर उस के सामने झुक जाता है जैसा कि कोई अतिया और नेमत देने वाला वाजिबुल इकराम समझा जाता है और तमाम दुनिया के ग़ाफ़िल इंसान उस की अज़मत को तसलीम करते हैं। इसी अक़ली क़ानून की बेना पर इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि जो शख़्स उस मुनईमे हक़ीक़ी को पहचान कर उस के सामने झुक जाये। उसी को आबिदे हक़ीक़ी कहा जायेगा और यह इबादत की आला क़िस्म है।

नुक्ता

ऐसा नही है कि पहली दो क़िस्म की इबादत बेकार है और उस का कोई फ़ायदा नही है हरगिज़ ऐसा नही है बल्कि इमाम अलैहिस सलाम मरातिबे इबादत को बयान फ़रमाना चाहते हैं। अगर कोई पहली दो क़िस्म की इबादत बजा लाता है तो उस को उस इबादत का सवाब ज़रुर मिलेगा। फ़क़त आला मरतबे की इबादत से वह शख़्स महरुम रह जाता है। चूँ कि बयान हुआ कि आला इबादत तीसरी क़िस्म की इबादत है।


(1) नहजुल बलाग़ा हिकमत 237

सूरए नूर, आयतें 1-16 व्यभिचार और लांछन लगाने का दंड |

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सूरए नूर, आयतें 1-5


 
अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। यह एक सूरा है, जिसे हमने उतारा है और इस (के आदेशों के पालन) को अनिवार्य किया है, और हमने इसमें स्पष्ट आयतें उतारी हैं कि शायद तुम शिक्षा प्राप्त करो। (24:1)


क़ुरआने मजीद के चौबीसवें सूरे अर्थात सूरए नूर की चौंसठ आयतें हैं और यह मदीना नगर में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर उतारा गया। इस सूरे की पैंतीसवीं आयत में ईश्वर को आकाशों व धरती का नूर अर्थात प्रकाश बताया गया है और इसी लिए इस सूरे का नाम नूर रखा गया है। इस सूरे की पैंतीसवीं आयत तक ईमान वालों को विवाह करने, गृहस्ती बसाने, नैतिक पवित्रता, अवैध संबंधों से दूरी और इसी प्रकार की बातों की सिफ़ारिश की गई है।



इसके बाद के भाग में ईश्वर की पहचान के बारे में धार्मिक शिक्षाओं, ईश्वरीय पैग़म्बरों के अनुसरण, भले लोगों के शासन की स्थापना, कुछ पारिवारिक मामलों और इसी प्रकार की कुछ अन्य बातों का उल्लेख किया गया है। यद्यपि क़ुरआने मजीद के सभी सूरे और आयतें, ईश्वर की ओर से ही आई हैं किंतु इस सूरे के आरंभ में इस बात को याद दिलाए जाने से उन आयतों और बातों के महत्व का पता चलता है जो सूरए नूर में वर्णित हैं। इनमें से कुछ बातें एकेश्वरवाद से संबंधित हैं जबकि कुछ अन्य पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के बारे में ईमान वाले पुरुषों व महिलाओं से संबंधित हैं।

स्वाभाविक है कि ईश्वर पर ईमान की सुदृढ़ता, सामाजिक स्तर पर पथभ्रष्ट व्यवहार में कमी का मार्ग प्रशस्त करती है और जीवन के मामलों में सुधार का कारण बनती है।

इस आयत से हमने सीखा कि क़ुरआने मजीद, मुसलमानों के क़ानून की किताब है और उसके आदेशों व शिक्षाओं का पालन अनिवार्य है।

क़ुरआनी शिक्षाएं, निश्चेतना के पर्दों को हटा देती हैं और मनुष्य को उन बातों की याद दिलाती हैं जो उसकी बुद्धि व प्रवृत्ति के अनुकूल होती हैं।



 सूरए नूर की दूसरी और तीसरी आयत



व्यभिचारी महिला और व्यभिचारी पुरुष दोनों में से प्रत्येक को सौ कोड़े मारो और यदि तुम ईश्वर और प्रलय पर ईमान रखते हो तो अल्लाह के धर्म (के क़ानून) के पालन में तुम्हें उन पर तरस न आए। और उन्हें दंड देते समय मोमिनों में से कुछ लोग उपस्थित रहें। (24:2) व्यभिचारी पुरुष किसी व्यभिचारी स्त्री या अनेकेश्वरवादी स्त्री से ही निकाह करे और (इसी प्रकार) व्यभिचारी महिला, किसी व्यभिचारी या अनेकेश्वरवादी पुरुष से ही विवाह करे और (उनसे) यह (विवाह) ईमान वालों के लिए वर्जित है। (24:3)



इस्लाम में दंड व पारितोषिक का आधार प्रलय है और सभी को उनके कर्मों का बदला प्रलय में ही दिया जाएगा किंतु ईश्वर ने समाज को पथभ्रष्टताओं व बुराइयों से सुरक्षित रखने हेतु संसार में भी अपराधियों के लिए कुछ दंड निर्धारित कर रखे हैं ताकि समाज में बुराइयों व अराजकता को फैलने से रोका जा सके। इन आदेशों में हत्यारे की जान लेना और चोर की उंगलियां काटना इत्यादि शामिल हैं।

ये आयतें उन लोगों को, जो अवैध यौन संबंधों से दूषित हो चुके हैं, सचेत करती है कि यद्यपि इस अपराध पर उनको प्रलय में दंड दिया जाएगा किंतु ईश्वर ने आदेश दिया है कि इस संसार में भी लोगों के सामने उन्हें कड़ा दंड दिया जाए ताकि अन्य लोगों के लिए पाठ रहे।

अलबत्ता जब तक पाप खुल कर सामने नहीं आ जाता तब तक ईश्वर किसी की बदनामी का इच्छुक नहीं है और वह किसी की टोह में रहने की भी अनुमति नहीं देता किंतु उन लोगों को, जिन्हें अवैध संबंधों पर किसी प्रकार की शर्म नहीं आती, दंडित न किया जाए तो फिर वे समाज में बुराई और अनैतिकता फैलाने लगते हैं। यही कारण है कि ईश्वर ने इस प्रकार के लोगों के लिए कड़ा दंड निर्धारित किया है ताकि यह दंड उनके लिए भी और अन्य लोगों के लिए भी पाठ बन जाए।

आगे चल कर आयतों में व्यभिचारी पुरुषों व स्त्रियों से भले व पवित्र पुरुषों व महिलाओं के विवाह से रोका गया है। इसका कारण यह है कि पवित्र लोग, व्यभिचारी लोगों की संगत से पथभ्रष्ट और पापों से दूषित हो सकते हैं। एक अन्य कारण यह है कि अवैध संबंधों के कारण अस्तित्व में आने वाले विभिन्न रोगों को समाज में फैलने से रोका जा सके।

इस बात पर ध्यान रहना चाहिए कि इस आयत में व्यभिचारियों को जो सौ कोड़े मारने का आदेश है वह उन महिलाओं व पुरुषों के लिए है जिनके पति अथवा पत्नी नहीं हैं अन्यथा पति या पत्नी होने के बावजूद व्यभिचार करने वालों को मृत्युदंड देने का आदेश है। जिस प्रकार से कि कोई किसी से बलात्कार करे या अपने निकट परिजन से अवैध संबंध स्थापित करे तो उसे भी मृत्युदंड दिया जाता है।

इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम की दृष्टि में अवैध यौन संबंध, बहुत बड़ा पाप है जिसकी सज़ा मृत्युदंड भी हो सकती है।

समाज में अनैतिकता, अश्लीलता व व्यभिचार का प्रचार करने वालों को कड़ा दंड दिया जाना चाहिए और इस संबंध में दया व कृपा की भावनाओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

अपराधी को दिया जाने वाला दंड उसे पाठ सिखाने और समाज में सार्वजनिक पवित्रता की रक्षा के लिए होता है।

व्यभिचार, किसी को ईश्वर का समकक्ष ठहराने के समान है और मनुष्य को ईमान के मार्ग से हटा देता है।

पति या पत्नी के चयन में उसकी नैतिक पवित्रता मूल शर्तों में से एक है।



 सूरए नूर की चौथी और पांचवीं आयत


और जो लोग पतिव्रता महिलाओं पर (व्यभिचार का) लांछन लगाएँ, (और) फिर चार गवाह (भी) न लाएँ, तो उन्हें अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी भी स्वीकार न करो कि यही लोग वास्तविक अवज्ञाकारी हैं। (24:4) सिवाय उन लोगों के जो इसके पश्चात तौबा कर लें और (अपने आपको) सुधार लें। तो निश्चित रूप से ईश्वर अत्यंत क्षमाशील वदयावान है। (24:5)


व्यभिचारी पुरुषों व महिलाओं को दिए जाने वाले दंड के उल्लेख के बाद संभव था कि यह आदेश कुछ लोगों के हाथों बहाना बन जाए और वे लोगों के निजी जीवन में खोज-बीन करते तथा केवल कल्पना व पूर्वाग्रह के आधार पर पवित्र महिलाओं व पुरुषों पर व्यभिचार का आरोप लगाते, इसी लिए ये आयतें, इस आदेश का दुरुपयोग करके दूसरों पर व्यभिचार का लांछन लगाने वालों के लिए कड़े दंड का उल्लेख करती हैं। इन आयतों में कहा गया है कि इस प्रकार के आरोप को सिद्ध करने के लिए ऐसे चार लोगों की गवाही आवश्यक है जिनका न्यायवादी होना सिद्ध हो अन्यथा आरोप लगाने वाले लोगों को अस्सी कोड़े लगाए जाएंगे।

कुल मिला कर यह कि इस प्रकार के लोगों की बातें मूल्यहीन हैं और भविष्य में भी किसी भी मामले में उनकी गवाही स्वीकार नहीं की जाएगी सिवाय यह कि वे अपने बुरे कर्म को छोड़ दें, ईश्वर के समक्ष तौबा करें और अतीत के पापों का प्रायश्चित करें।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से पूछा गया कि हत्या की गवाही के लिए दो लोग ही काफ़ी हैं किंतु व्यभिचार की गवाही के लिए चार लोगों की आवश्यकता क्यों है? तो उन्होंने कहा कि हत्या का गवाह, एक व्यक्ति को दंडित करने के लिए गवाही देता है जबकि व्यभिचार का गवाह दो लोगों अर्थात व्यभिचारी महिला व पुरुष को दंडित करने के लिए गवाही देता है।

इन आयतों से हमने सीखा कि पतिव्रता महिलाओं पर लांछन लगाने का अधिक कड़ा दंड है।



पवित्र लोगों पर व्यभिचार का आरोप लगाने वाले का दंड अर्थात अस्सी कोड़े, व्यभिचारी को दिए जाने वाले दंड अर्थात सौ कोड़े से बहुत कम नहीं है।


ईश्वर के निकट लोगों का सम्मान इतना मूल्यवान है कि जब तक किसी की नैतिक बुराई के चार गवाह न हों, ईश्वर तीन लोगों को उसके पाप को सामने लाने की अनुमति नहीं देता बल्कि स्वयं इन लोगों को दंडित करने का आदेश देता है।

सूरए नूर की आयत क्रमांक छः से दस


और जो लोग अपनी पत्नियों पर (व्यभिचार का) लांछन लगाएं और उनके पास स्वयं के अतिरिक्त गवाह न हों, तो उनमें से प्रत्येक चार बार अल्लाह की क़सम खाकर यह गवाही दे कि वह सच्चों में से है। (24:6) और पाँचवी बार यह कहे कि यदि वह झूठा हो तो उस पर अल्लाह की लानत अर्थात धिक्कार हो। (24:7) और पत्नी का दंड इस प्रकार टल सकता है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खा कर गवाही दे कि वह (उस पर लांछन लगाने में) झूठा है। (24:8) और पाँचवी बार यह कहे कि (स्वयं) उस पर ईश्वर का प्रकोप हो, यदि वह सच्चा हो। (24:9) और यदि तुम पर  ईश्वर की कृपा और उसकी दया न होती (तो तुममें से अनेक कड़े ईश्वरीय दंड में ग्रस्त हो जाते) और यह कि ईश्वर बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला और अत्यन्त तत्वदर्शी है। (24:10)




पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि यदि कोई किसी पर व्यभिचार का आरोप लगाए और चार गवाह न ला सके तो स्वयं उसे लांछन लगाने के अपराध में अस्सी कोड़े मारे जाएंगे। ये आयतें इस आदेश में एक अपवाद का उल्लेख करते हुए कहती हैं कि यदि कोई पति अपनी पत्नी को किसी दूसरे मर्द के साथ देख ले और क़ाज़ी के पास जा कर गवाही दे तो उसे दूसरे गवाह लाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि यही पर्याप्त है कि वह चार बार ईश्वर की सौगंध खा कर कहे कि वह सच बोल रहा है और एक बार यह कहे कि यदि मैं झूठ बोल रहा हूं तो मुझ पर ईश्वर की धिक्कार हो।

पति की इन सौगंधों के मुक़ाबले में पत्नी या तो अपने ग़लत कार्य को स्वीकार करके पति के दावे की पुष्टि करेगी या फिर उस कार्य का इन्कार कर देगी। इस स्थिति में उसे अपने बचाव में पुरुष की ही भांति पांच बार सौगंध खानी होगी। इस प्रकार से कि चार बार यह कहे कि ईश्वर की सौगंध! मेरा पति झूठ बोल रहा है और पांचवी बार कहे कि यदि मेरा पति सच बोल रहा हो तो मुझ पर ईश्वर की ओर से कोप आए।

पति व पत्नी की सौगंधों के बाद पति पर से लांछन लगाने का दंड समाप्त हो जाएगा तथा पत्नी पर से व्यभिचार की सज़ा ख़त्म हो जाएगी। अलबत्ता इन सौगंधों के कुछ परिणाम भी हैं, जैसे यह कि वे तलाक़ के बिना ही सदा के लिए एक दूसरे से अलग हो जाएंगे और फिर कभी वे एक दूसरे से विवाह नहीं कर सकेंगे। इस आधार पर जिस मामले में गवाह मौजूद न हो उसमें केवल ईश्वर की सौगंध ही दावे के सिद्ध या रद्द होने का आधार बन सकती है और इसमें महिला व पुरुष में कोई अंतर नहीं है।

इन आयतों से हमने सीखा कि पारिवारिक मामलों में महिला व पुरुष के सम्मान की रक्षा और समाज में अश्लीलता के प्रचलन को रोकने के लिए, स्वयं उन्हीं की बात उनके संबंध में तर्क का दर्जा रखती है और बाहरी गवाहों की आवश्यकता नहीं है।

सौगंधों के बारे में इस्लाम के नियम लोगों के नियंत्रण के लिए हैं ताकि वे एक दूसरे को अपमानित न कर सकें।

इस्लामी समाज में ईश्वर की सौगंध बहुत अधिक पावन होनी चाहिए ताकि कोई अकारण सौगंध खाने या उसे झुठलाने का दुस्साहस न कर सके।



सूरए नूर की आयत क्रमांक ग्यारह



निःसंदेह जिन लोगों ने वह लांछन लगाया वे स्वयं तुम्हारे ही भीतर का एक गुट था। उसे तुम अपने लिए बुरा मत समझो, बल्कि वह तुम्हारे लिए अच्छा ही है (क्योंकि यह पवित्र लोगों की विरक्तता और झूठों के अपमान का कारण है।) उनमें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए उतना ही भाग है जितना पाप उसने कमायाऔर उनमें से जिसने उसके एक बड़े भाग का दायित्व अपने सिर लिया उसके लिए बड़ी यातना है। (24:11)




पिछली आयतों में पतिव्रता महिलाओं पर लांछन लगाने के दंड का उल्लेख करने के पश्चात यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल में उनकी एक पत्नी के संबंध में घटने वाली घटना की ओर संकेत करती है। इतिहास की किताबों में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम एक यात्रा में अपनी पत्नी हज़रत आयशा को भी अपने साथ ले गए। मदीना वापसी के समय वे एक निजी काम से कारवां से अलग हो गईं और उससे थोड़ा पीछे रह गईं। पैग़म्बरे इस्लाम के एक साथी ने, जो कारवां से पिछड़ गए थे, आयशा को कारवां तक पहुंचा दिया। कुछ लोगों ने आयशा और पैग़म्बर के उस साथी पर अनुचित आरोप लगाया और यह झूठ, लोगों के बीच फैल गया।

ईश्वर ने यह आयत भेजी और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा उनके साथियों को, जो इस घटना से अत्यंत दुःखी थे, सांत्वना दी कि इस घटना में उनके लिए भलाई निहित है और वह यह कि इससे कुछ मिथ्याचारियों के चेहरे सामने आ गए हैं जिन्हें इस झूठ और अफ़वाह के कारण लोगों ने पहचान लिया है। यह अफ़वाह फैलाने में उनमें से जिसकी, जितनी भी भूमिका होगी उसी के अनुपात से उसे दंडित किया जाएगा। इन मिथ्याचारियों में अब्दुल्लाह इब्ने उबय को, जो मदीने के मिथ्याचारियों का सरग़ना था, यह झूठ और आरोप फैलाने के कारण कड़ा दंड दिया जाएगा।

इस आयत से हमने सीखा कि शत्रु सदैव बाहर से ही वार नहीं करता बल्कि कभी-2 घर के मिथ्याचारी भी अफ़वाह फैला कर चोट पहुंचाते हैं और इस्लामी समाज को अनेक समस्याओं में ग्रस्त कर देते हैं।

सार्वजनिक पापों और अपराधों में हर कोई अपनी भागीदारी के हिसाब से अपराधी होता है। निश्चित रूप से उन लोगों का दंड दूसरों से अधिक कड़ा होता है जो अपराधों और षड्यंत्रों में मुख्य भूमिका निभाते हैं।



सूरए नूर की आयत क्रमांक 12, 13, और 14 



ऐसा क्यों न हुआ कि जब तुम लोगों ने उस (आरोप) को सुना था, तब मोमिन पुरुष और महिलाएं अपने आपसे अच्छी सोच रखते और कहते कि यह तो खुला हुआ लांछन है? (24:12) वे इस पर चार गवाह क्यों न लाए? अब जबकि वे गवाह नहीं लाए, तो ईश्वर के निकट वही झूठे हैं। (24:13) और यदि लोक-परलोक में तुम पर ईश्वर की कृपा और उसकी दया न होती तो जिस बात में तुम पड़ गए उसके कारण निश्चय ही एक बड़ा दंड तुम्हें आ लेता। (24:14)


 ये आयतें उन ईमान वालों को संबोधित करती हैं जो अपने भोलेपन के कारण प्रभावित हो गए और उन्होंने बिना किसी जांच के आरोप की यह अफ़वाह दूसरों तक पहुंचा दी। आयत कहती है कि जब उन्होंने ईमान वालों के बारे में मिथ्याचारियों की बात सुनी तो ईमान वालों के बारे में भला विचार क्यों न रखा और क्यों नहीं कहा कि यह खुला हुआ झूठ है? तुम लोगों को पैग़म्बर की पत्नी की पवित्रता व सतीत्व का विश्वास था और मिथ्याचारियों द्वारा अफ़वाहें फैलाए जाने की बात भी तुम्हारे लिए नई नहीं थी तो तुमने क्यों इस बात को स्वीकार कर लिया? क्यों तुमने उन लोगों से चार गवाह प्रस्तुत करने के लिए नहीं कहा ताकि यदि वे चार गवाह प्रस्तुत न कर पाते तो तुम पवित्र लोगों पर आरोप लगाने के दोष में उन्हें दंडित करते?

वस्तुतः ईमान वालों के लिए इस आयत का संदेश यह है कि न केवल यह कि उन्हें दूसरों के बारे में बुरे विचार नहीं रखने चाहिए बल्कि यदि वे कोई आरोप सुनें भी तो उसे स्वीकार न करें और पवित्र लोगों का बचाव करें। हां, यदि स्पष्ट तर्कों और प्रमाणों से किसी का दोषी होना सिद्ध हो जाए तो बात अलग है।

इन आयतों से हमने सीखा कि समाज में फैलने वाली अफ़वाहों के संबंध में उचित प्रतिक्रिया प्रकट करनी चाहिए, इस संबंध में न तो मौन ही सही है और न ही अफ़वाह को फैलने देना।

समाज के किसी भी सदस्य पर आरोप, बाक़ी सभी सदस्यों पर आरोप के समान है।

ईमान वालों के संबंध में भले विचार रखना, ऐसा सिद्धांत है जो इस्लामी समाज के सभी लोगों के संबंध में अपनाया जाना चाहिए।


पैग़म्बर तथा उनके परिजनों के सम्मान की रक्षा सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य है और जो भी जिस प्रकार भी उन पर प्रश्न चिन्ह लगाने का प्रयास करे उसे गंभीरता से रोका जाना चाहिए।




पत्नियों पे तोहमत लगाने का दंड |... सूरए नूर, आयतें 15-23

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सूरए नूर, आयतें 15-23, 


सूरए नूर की आयत क्रमांक 15 और 16



जब तुम उस (झूठ बात) को एक दूसरे से (सुन कर) अपनी ज़बानों पर लाते रहे और अपने मुँह से वह कुछ कहते रहेजिसके विषय में तुम्हें कोई ज्ञान ही न था और तुम उसे एक साधारण बात समझ रहे थेजबकि ईश्वर के निकट वह एक भारी बात है। (24:15) और क्यों जब तुमने उस (आरोप) को सुना तो यह नहीं कहा किहमारे लिए उचित नहीं कि हम ऐसी बात ज़बान पर लाएँ। (प्रभुवर!) तू (हर त्रुटि से) पवित्र है। यह तो एक बड़ा लांछन है? (24:16)







इससे पहले हमने कहा था कि मदीने के मिथ्याचारियों के एक गुट ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक पत्नी पर बड़ा आरोप लगाया और मुसलमानों ने भी इस प्रकार का आरोप लगाने और अफ़वाह फैलाने वालों के साथ कड़ा व्यवहार करने के बजाए, इस बात को दूसरों तक स्थानांतरित किया। इससे पैग़म्बर और उनकी पत्नी को बहुत अधिक दुख हुआ।

ईश्वर इन आयतों में कहता है कि जब तुम्हें उस बात पर विश्वास नहीं था तो तुमने क्यों उसे एक दूसरे को बताया और दूसरों के सम्मान के साथ खिलवाड़ किया? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं था कि दूसरों के बारे में जो बातें तुम सुनते हो उन्हें अकारण दूसरों को नहीं बताना चाहिए और वह भी इतना बड़ा लांछन जो तुम्हारे पैग़म्बर की पत्नी पर लगाया जा रहा था?

यह आयत दो महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्वों की ओर संकेत करती है, प्रथम तो यह कि जो कुछ तुम सुनते हो उसे अकारण स्वीकार न कर लिया करो ताकि समाज में अफ़वाहें फैलाने वालों को रोका जा सके क्योंकि संभव है कि इससे कुछ लोगों की इज़्ज़त ख़तरे में पड़ जाए कि यह इस्लाम की दृष्टि में बड़ा निंदनीय कार्य है।

इन आयतों से हमने सीखा कि जो बात लोगों की ज़बान पर होती है उसे बिना जांचे परखे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए।

आरोपों को दूसरों तक पहुंचना और किसी के सम्मान को मिट्टी में मिलाना बड़ा सरल कार्य है किंतु ईश्वर की दृष्टि में यह अत्यंत बुरा व निंदनीय है।

दूसरों के सम्मान की रक्षा, समाज के सभी सदस्यों का दायित्व है। सुनी हुई बातों को फैलाने के बजाए, अफ़वाह फैलाने वाले के साथ कड़ा व्यवहार करना चाहिए।




सूरए नूर की आयत क्रमांक 17 और 18


ईश्वर तुम्हें नसीहत करता है कि यदि तुम मोमिन हो तो फिर कभी ऐसा न करना।(24:17) और ईश्वर अपनी आयतों को तुम्हारे लिए स्पष्ट रूप से बयान करता है। और ईश्वर तो अत्यंत ज्ञानी वतत्वदर्शी है। (24:18)







चूंकि ईश्वर के निकट दूसरों पर आरोप लगाना और वह भी नैतिक मामलों में, अत्यंत महत्वपूर्ण बात है इस लिए यह आयत एक बार फिर उसकी ओर संकेत करते हुए कहती है कि ईश्वर एक दयालु व कृपालु पिता की भांति, जो अपने बच्चे को समझाता है ताकि वह पुनः ग़लती न कर बैठे, तुम्हें नसीहत करता है कि ध्यान रखो कि इस्लामी समाज में इस प्रकार की ग़लती पुनः न होने पाए क्योंकि यह कार्य ईमान के प्रतिकूल है।

यदि अतीत में तुमने अज्ञानता या निश्चेतना के चलते इस प्रकार की ग़लती कर दी तो अब जबकि तुम्हें उसका पता चल गया है तो न केवल उससे तौबा करो बल्कि यह संकल्प भी करो कि अब भविष्य में कभी ऐसी ग़लती नहीं करोगे और जान लो कि ईश्वर तुम्हारे कार्यों, विचारों और नीयत से अवगत है।

इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य को नसीहत व उपदेश की आवश्यकता होती है और क़ुरआने मजीद उपदेश की सबसे अच्छी किताब है अतः हमें उसे पढ़ना चाहिए और उसकी आयतों से नसीहत लेनी चाहिए।

दूसरों पर आरोप लगाना, जिसका मुख्य कारण उनके बारे में बुरे विचार हैं, ईमान की कमज़ोरी का चिन्ह है।

सबसे अच्छी नसीहत, पापों से तौबा करना है कि जो पिछले पापों को भी धो देती है और भविष्य में भी पापों को दोहराने से मनुष्य को रोक देती है।



सूरए नूर की आयत क्रमांक 19 और 20


निःसंदेह जो लोग यह चाहते है कि ईमान वालों के बीच अश्लीलता फैल जाए, उनके लिए लोक परलोक में पीड़ादायक दंड है और (इसे) ईश्वर जानता है और तुम नहीं जानते। (24:19) और यदि तुम पर ईश्वर का अनुग्रह और उसकी दया न होती और यह कि ईश्वर बड़ा करुणामयव अत्यन्त दयावान है (तो अवश्य ही तुम इसी संसार में कड़े दंड में ग्रस्त हो जाते।) (24:20)







इन आयतों में ईश्वर दूसरों पर आरोप लगाने की बुराई को बहुत बड़ा पाप बताते हुए कहता है कि न केवल यह कि दूसरों पर आरोप लगाना और समाज में इस आरोप को प्रचलित करना बड़ा पाप है बल्कि यदि कोई दिल से यह चाहता हो कि किसी ईमान वाले का अनादर करे ताकि लोगों के बीच उसे बुराई के साथ याद किया जाए तो यह आंतरिक इच्छा भी पाप है, चाहे वह इसके लिए व्यवहारिक रूप से कुछ भी न करे।

यद्यपि इस्लामी संस्कृति में पाप करने के इरादे को पाप नहीं समझा जाता किंतु दो मामलों में क़ुरआने मजीद ने आंतरिक इच्छा और इरादे को भी पाप बताया है। प्रथम दूसरों के बारे में बुरे विचार रखना कि इस संबंध में वह कहता है कि निश्चित रूप से कुछ बुरे विचार, पाप हैं। और दूसरे, अन्य लोगों के अनादर पर मन से राज़ी रहना कि यदि व्यक्ति इस संबंध में कुछ न भी करे तब भी उसने पाप किया है।

स्वाभाविक है कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी लोगों के आंतरिक इरादों से अवगत नहीं है और हम उन लोगों को नहीं पहचानते जो दूसरों का अपमान व अनादर करना चाहते हैं किंतु ईश्वर अपनी दया व कृपा के चलते उन्हें दंडित करने में जल्दी नहीं करता कि शायद वे तौबा करके सुधर जाएं।

अलबत्ता जो लोग व्यवहारिक क़दम उठाते हुए दूसरों का अपमान करते हैं और उन पर व्यभिचार का आरोप लगाते हैं उन्हें इस संसार में भी दंडित किया जाता है और अस्सी कोड़े मारे जाते हैं तथा प्रलय में भी अत्यंत कड़ा दंड उनकी प्रतीक्षा में है।





इन आयतों से हमने सीखा कि पाप की इच्छा रखना, पाप की भूमिका है। सभी पापों के बीच वह एकमात्र पाप जिसकी इच्छा रखना भी बड़ा पाप है, दूसरों पर व्यभिचार का आरोप लगाना और उनका अपमान करना है।


इस्लामी समाज में बुराइयों का प्रसार, चाहे वह कथन द्वारा हो या व्यवहार द्वारा, मनुष्य के लोक-परलोक दोनों को तबाह कर देता है।






सूरए नूर, आयतें 21-23,



हे ईमान वालो! शैतान के पद चिन्हों पर न चलो और जो कोई शैतान के पद चिन्हों पर चलेगा तो वह उसे अश्लीलता और बुराई का ही आदेश देगा। और यदि तुम पर ईश्वर की कृपा और उसकी दया न होती तो तुममें से कोई भी (पाप में ग्रस्त होने से) पवित्र नहीं रह सकता था किन्तु ईश्वर जिसे चाहता है, पवित्र बना देता है और ईश्वर सब कुछ सुनने वाला औरजानकार है। (24:21)







पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक पत्नी पर अनुचित आरोप लगाए जाने की घटना से संबंधित आयतों की समाप्ति के बाद यह आयत एक मूल विषय की ओर संकेत करते हुए कहती है कि शैतान की ओर से सदैव सचेत रहना चाहिए क्योंकि वह धीरे-धीरे पथभ्रष्टता और पतन की ओर ले जाता है।

इस आयत में प्रयोग होने वाला ख़ुतुवाते शैतान अर्थात शैतान के पद चिन्ह का शब्द क़ुरआने मजीद की चार आयतों में आया है ताकि लोगों को इस बड़े ख़तरे की ओर से सावधान करे कि शैतान, मनुष्य को क़दम-क़दम पाप के लिए उकसाता है। हर पाप, मनुष्य के विचार व उसकी आत्मा में पथभ्रष्टता पैदा करता है और उसे दोहराए जाने से अधिक बड़े पाप का मार्ग प्रशस्त होता है यहां तक कि मनुष्य पतन की खाई में गिर पड़ता है।

क़ुरआने मजीद, शैतान के बहकावों और उसके कार्यों की पहचान के लिए एक स्पष्ट मानदंड प्रस्तुत करता है और वह यह कि हर वह कार्य बुरा है जिसकी बुराई को, स्वस्थ बुद्धि वाला व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के आधार पर समझ लेता है, जैसे विश्वास घात, झूठा आरोप लगाना, चोरी, हत्या और इसी प्रकार के अन्य बुरे कर्म।

अलबत्ता तत्वदर्शी एवं दयालु ईश्वर ने, शैतान के बहकावों और आंतरिक उकसावों को नियंत्रित करने के लिए मनुष्य को आंतरिक व बाहरी साधन प्रदान किए हैं। बुद्धि व प्रवृत्ति भीतर से और पैग़म्बर तथा ईश्वरीय किताब बाहर से निरंतर मनुष्य को सावधान करते रहते हैं और उसे जीवन का सही मार्ग दिखाते हैं। यदि ये न होते तो आंतरिक इच्छाएं भीतर से और शैतान के बहकावे बाहर से सदैव मनुष्य को बुरे कर्मों की ओर धकेलते रहते और सभी को पापों व अपराधों में ग्रस्त कर देते।

इस आयत से हमने सीखा कि ईमान वाले अपने ईमान पर कभी भी घमंड न करें और स्वयं को मुक्ति प्राप्त न समझें क्योंकि मनुष्य सदैव ही शैतान के उकसावों और पथभ्रष्टता के ख़तरे में ग्रस्त रहता है।

शैतान धीरे-2, क्रमशः और क़दम क़दम करके मनुष्य की आत्मा में पैठ बनाता है अतः हमें उसके प्रभाव के सभी मार्गों की ओर से सावधान रहना चाहिए और पहले ही क़दम से उसकी ओर से सचेत हो जाना चाहिए।




 सूरए नूर की आयत क्रमांक 22



और तुममें जो संपन्न और सामर्थ्यवान हैं, वे यह सौगंध न खाएं कि नातेदारों, ग़रीबों और ईश्वर के मार्ग में पलायन करने वालों को धन नहीं देंगे (बल्कि) उन्हें चाहिए कि (उनकी ग़लतियों को) क्षमा कर दें और उन्हें माफ़ कर दें। क्या तुम यह नहीं चाहते कि ईश्वर तुम्हें क्षमा करे? और ईश्वर तो बहुत क्षमाशील और अत्यन्त दयावान है। (24:22)








पिछली आयतों में उन लोगों की कड़ी आलोचना की गई थी कि जिन्होंने पैग़म्बर की एक पत्नी पर अनुचित आरोप लगाया था और ईश्वर ने इस मामले में ढिलाई के कारण मुसलमानों के साथ कड़ा व्यवहार किया था। इसके बाद कुछ धन संपन्न लोगों ने यह निर्णय किया कि वे पैग़म्बर की पत्नी पर लगे आरोप को फैलाने वालों की किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं करेंगे चाहे वे उनके अपने परिजन ही क्यों न हों। ईश्वर ने यह आयत भेजी और उन्हें इस कार्य से रोका। शायद इसका कारण यह था कि ग़रीबों और वंचितों की सहायता रोकना, चाहे वे अपराधी ही क्यों न हों, उन्हें दंडित करने की सही शैली नहीं है बल्कि उनकी सहायता जारी रख कर और उनसे सामाजिक संबंधों को बनाए रख कर ऐसा कार्य करना चाहिए कि उन्हें अपनी ग़लती का आभास हो जाए और वे इस्लामी समाज की क्षमा के पात्र बन जाएं।

आगे चल कर आयत एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत करती है और कहती है कि क्या अब तक तुमने कोई ग़लती नहीं की है? इस स्थिति में तुम्हें ईश्वर से क्या अपेक्षा है? तौबा व प्रायश्चित के लिए समय व मोहलत देने की अपेक्षा या शीघ्र ही कोप व दंड भेजने की अपेक्षा? यदि तुम्हें ईश्वर से क्षमा की आशा है तो तुम भी उसके ग़लती करने वाले बंदों को क्षमा करो।

इस आयत से हमने सीखा कि जो दूसरों की ग़लतियों को क्षमा करता है और अपने धन से उनकी सहायता भी करता है, वह ईश्वरीय दया व क्षमा का पात्र बनता है।

ग़लती करने वालों के संबंध में अत्यधिक कड़ाई से काम नहीं लेना चाहिए और उन पर सभी दरवाज़े नहीं बंद कर देने चाहिए।

किसी का वंचित होना, उसकी आर्थिक सहायता के लिए पर्याप्त शर्त है, उसका सदकर्मी होना आवश्यक नहीं है।





सूरए नूर की आयत क्रमांक 23




निःसंदेह जो लोग पतिव्रता, (बुराई से पूर्णतः) अनभिज्ञ और ईमान वाली महिलाओं पर (व्यभिचार का) लांछन लगाते है उन पर लोक-परलोक में धिक्कार की गई है और उनके लिए बहुत बड़ा दंड (तैयार) है। (24:23)









पैग़म्बर की एक पत्नी पर अनुचित आरोप लगाए जाने संबंधी आयतों के अंत में यह आयत सभी पतिव्रता व पाक दामन महिलाओं के संबंध में एक मूल सिद्धांत के रूप में कहती है कि किसी को भी इस बात का अधिकार नहीं है कि अनैतिक बुराई से दूर किसी ईमान वाली महिला पर अपने ग़लत विचारों या दूसरों से सुनी हुई निराधार बातों के आधार पर व्यभिचार का आरोप लगाए और उसे बेइज़्ज़त कर दे। इस प्रकार के व्यक्ति को जानना चाहिए कि उसका सामना ईश्वर से है और ईश्वर अत्याचाग्रस्त का समर्थन करते हुए उसे अत्यंत कड़ा दंड देगा। उसे लोक-परलोक में अपनी असीम दया से वंचित कर देगा और प्रलय में उसे स्थायी रूप से नरक में डाल देगा।

इस आयत से हमने सीखा कि पतिव्रता महिलाओं के अधिकारों की रक्षा क़ुरआने मजीद और इस्लाम की शिक्षाओं में से है।

महिलाओं को अपने पारिवारिक व सामाजिक संबंधों में ऐसे हर व्यवहार से दूर रहना चाहिए जो उन पर लांछन लगने का मार्ग प्रशस्त करे।



नहजुल बलाग़ा और अम्र बिल मारूफ और नही अनिलमुन्कर|

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हम अम्र बिलमारूफ अर्थात अच्छाई का आदेश देना

नमाज़, रोज़ा, हज, और जेहाद की भांति अम्र बिलमारूफ को भी धार्मिक आदेशों में समझा जाता है और उनके मध्य इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुसार अम्र बिलमारूफ और नही अनिलमुन्कर का दायेरा विस्तृत है और इसमें सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र सभी शामिल हैं।

हर वह कार्य जिसे धर्म और बुद्धि अच्छा समझते हैं उसे मारूफ कहते हैं जैसे महान ईश्वर की उपासना, माता पिता के साथ भलाई, निकट संबंधियों के साथ उपकार, दीन दुखियों की सहायता, निर्धन व दरिद्रों की मदद, वादे को पूरा करना और अत्याचार व अन्याय से संघर्ष आदि।


हर वह कार्य जिसे बुद्धि और धर्म पसंद नहीं करते हैं उसे मुन्कर कहते हैं। जैसे अनेकेश्वरवाद, बलात्कार, गाली गलौज, चोरी, सूद, अनाथों का माल खाना, घमंड, और दुर्व्यवहार आदि। पवित्र कुरआन की संस्कृति में अम्र बिलमारूफ और नही अनिल मुन्कर अनिवार्य दायित्वों में से है जो समाज के सुधार का कारण बनता है। पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की १०४ वीं आयत में आया है” तुममे से कुछ लोगों को अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने वाला होना चाहिये और वही मुक्ति पाने वाले हैं”

पैग़म्बरे इस्लाम अम्र बिल मारूफ और नही अनिलमुन्कर के बारे में फरमाते हैं” हमारे अनुयाइ उस समय तक सुरक्षित रहेंगे जब तक वे अम्र बिलमारूफ और नही अनिलमुन्कर करते रहेंगे और भलाई तथा तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय में एक दूसरे की सहायता करेंगे और जब उसे छोड़ देगें तो बरकत उन्हें छोड़कर चली जायेगी” हज़रत अली अलैहिस्सलाम भी फरमाते हैं” अम्र बिलमारूफ अर्थात अच्छाई का आदेश देना ईश्वर की सृष्टि का सर्वोत्तम कार्य है” एक अन्य स्थान पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अम्र बिलमारूफ को धर्म का अंतिम उद्देश्य बताया है। वे फरमाते हैं धर्म का उद्देश्य अच्छाई का आदेश देना, बुराई से रोकना और सीमा निर्धारित करना है” हज़रत अली अलैहिस्सलाम सत्ता को इसी दृष्टि से देखते हैं और इसी दृष्टि से वे सरकार को स्वीकार करते हैं ताकि व समाज के मामलों का सुधार करें और समाज से बुराई का अंत करें। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने शासन के अंतिम दिनों में एक भाषण में इस वास्तविकता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं” हे ईश्वर! तू जानता है कि जो चीज़ हमसे चली गयी वह सत्ता में हमारी रूचि के कारण नहीं थी और न तुच्छ दुनिया से अधिक चाहत के कारण बल्कि मैंने चाहा कि धर्म के चिन्हों को उसके स्थान पर करार दूं और तेरे शहरों में सुधार करूं ताकि तेरे अत्याचारग्रस्त बंदों के लिए सुरक्षा उपलब्ध हो सके और तेरी बर्बाद हुई सीमा लागू हो जाये”


इस्लामी सरकार का एक दायित्व समस्त नागरिकों की सुरक्षा की आपूर्ति है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुसार इस्लामी सरकार का एक दायित्व यह है कि हर पात्र व हक़दार को उसका अधिकार मिले । इसी कारण अम्र बिलमारूफ और नही अनिल मुन्कर के उद्देश्यों में से है कि शासक, लोगों के अधिकारों के बारे में ढिलाई से काम न लें और उनके अधिकारों की रक्षा करें।
भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना इस्लाम के सार्वजनिक कार्यक्रमों में से एक है और हर मुसलमान का दायित्व है कि वह इस दिशा में प्रयास करे। यह वह कार्य है जो किसी एक व्यक्ति से विशेष नहीं है और इसे समाज के हर व्यक्ति को यहां तक कि शासकों को भी अंजाम देना चाहिये। यानी समाज के समस्त लोगों को चाहिये कि वे समाज के प्रबंधकों एवं अधिकारियों के कार्यों पर दृष्टि रखें और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें अच्छे कार्यों के लिए प्रोत्साहित करें और गलत व बुरे कार्यों से रोकें। हज़रत अली अलैहिस्सलाम मिस्र में अपने गवर्नर मालिके अश्तर को सिफारिश करते हुए फरमाते हैं” उन लोगों का चयन करो जो सत्य कहने में सबसे प्रखर हों।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम न  केवल अपने गवर्नरों को सिफारिश करते हैं कि वे टीका -टिप्पणी व आलोचना करने वालों की बात सुनें बल्कि इस दिशा में स्वयं अग्रणी थे और लोगों का आह्वान करते थे कि वे हक कहने या न्याय के बारे में परामर्श करने से परहेज़ न करें।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का मानना है कि जो भी सत्ता के सिंहासन पर बैठे उसे इस बात की आवश्यकता है कि दूसरे उसकी रचनात्मक आलोचना करके भलाई की ओर उसका मार्गदर्शन करें क्योंकि गुमराही का आरंभिक बिन्दु उस समय शुरू होता है जब समाज के शक्तिशाली व सत्ताधारी लोग स्वयं को गलती से सुरक्षित और भलाई की ओर मार्गदर्शन की आवश्यकता न समझें और इस बात की अनुमति न दें कि दूसरे उनके क्रिया- कलापों पर टीका- टिप्पणी करें। इस आधार पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम मालिके अश्तर से सिफारिश करते हैं” यह न कहो कि हमने सत्ता प्राप्त कर ली है तो मैं आदेश दूंगा और लोगों को चाहिये कि वे मेरा आदेशापालन करें कि यह कार्य दिल के काला होने, धर्म के तबाह व बर्बाद होने और अनुकंपा के हाथ से चले जाने का कारण बनेगा।


भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के कार्यक्रम को सही तरह से लागू करने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले भलाई और बुराई को सही तरह से पहचाना जाये पंरतु कुछ अवसरों पर एसा होता है कि इंसान भलाई और बुराई को अच्छी तरह से नहीं जानता है इसलिए वह ग़लती कर बैठता है। कभी कभी एसा भी होता है कि इंसान भलाई को बुराई और बुराई को अच्छाई समझने लगता है। हां यह चीज़ उस समय होती है जब इंसान पवित्र कुरआन और धार्मिक शिक्षाओं की पहचान के बिना अपने व्यक्तिगत निष्कर्षों पर अमल करना आरंभ कर देता है और अपने दृष्टिकोणों को सही समझ बैठता है।
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हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ज्ञान का स्रोत वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश था और वे सत्य व असत्य को भली भांति समझते थे फिर भी वे दूसरों पर अपने दृष्टिकोणों को नहीं थोपते थे और अपने अधीनस्थ लोगों के हाथ को खुला रखते थे। हां जहां इस कार्य से समाज को हानि होने वाली होती थी वहां आवश्यकता के अनुसार लोगों पर कड़ाई और उन्हें नियंत्रित करते थे। सिफ्फीन नामक युद्ध को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भलिभांति ज्ञात था कि मोआविया पूरी तरह धर्मभ्रष्ठ है और समस्त मुसलमानों का दायित्व है कि वे उसका मुकाबला करें परंतु जब कुछ मुसलमान मोआविया के विरुद्ध युद्ध करने में संदेह व असमंजस का शिकार हो गये और तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उन्हें वास्तविकता को समझने का अवसर दिया और कहा कि वे अपने दृष्टिकोणों को बयान करें। रबीअ बिन खैसम इस प्रकार के व्यक्तियों में से एक था। वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम और मोआविया के मध्य होने वाले युद्ध के बारे में असमंजस में था। वह अपने कुछ साथियों के साथ हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पास आया और कहा हे अमीरूल मोमिनीन हम आपकी श्रेष्ठता को जानते हैं फिर भी इस युद्ध के बारे में मुझे संदेह हो गया है। हम एसे लोगों के अस्तित्व से आवश्यकतामुक्त नहीं हैं जो बाहरी शत्रुओं से लड़ें। तो हमें सीमाओं पर तैनात कर दें ताकि मैं वहां रहूं और वहां के लोगों की रक्षा के लिए लड़ूं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी सच्चाई पर आग्रह करने के बजाये उसकी बात स्वीकार कर ली और उसे बड़े ही अच्छे अंदाज़ से एक सीमावर्ती क्षेत्र में भेज दिया ताकि वह वहां पर अपने दायित्व का निर्वाह करे।


इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जो इंसान दूसरों को भलाई का आदेश देता है और बुराई से रोकता है उसे चाहिये कि वह स्वयं इन बातों के प्रति वचनबद्ध रहे और जो कहता है उस पर स्वयं अमल करे।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उस इंसान की निंदा की है जो दूसरों को अच्छाई का आदेश देता है और बुराई से रोकता है और स्वयं उस पर अमल नहीं करता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम एसी महान हस्ती थे जिनके कथन और कर्म में लेशमात्र का भी अंतर नहीं था। वे अपने एक भाषण में कहते हैं हे लोगों ईश्वर की सौगन्ध मैं तुम्हें उस चीज़ के लिए प्रोत्साहित नहीं करता जिसे मैं तुमसे पहले स्वयं अंजाम न दे दूं। तुम्हें पाप से नहीं रोकना मगर यह कि तुमसे पहले मैं स्वयं उसे दूर रहना हूं”

अच्छाई का आदेश और बुराई से रोकना इस प्रकार से हो कि समाज को नुकसान न पहुंचे। इसके अतिरिक्त जब तक कोई खुलकर पाप नहीं करता तब तक किसी को भी उसके व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करने या दूसरों के मामलों के बारे में जासूसी करने का कोई अधिकार नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” जब कोई बंदा गुप्त रूप से कोई पाप करे तो उसके अलावा किसी और को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा और जब वह उसी पाप को खुल्लम खुल्ला अंजाम दे और लोग उस पर आपत्ति न जतायें तो उससे आम लोगों को नुकसान पहुंचेगा। एक अन्य स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम इसी संबंध में फरमाते हैं” ईश्वर उस पाप के कारण लोगों को दंड नहीं देगा जिसे विशेष लोग गुप्तरूप से अंजाम दें और उससे लोग अनभिज्ञ हों” हां यहां पर एक अपवाद है और वह सार्वजनिक एवं  सरकारी संस्था व संगठनों की निगरानी है। क्योंकि इस प्रकार के संगठन व संस्थाएं लोगों के धन से अस्तित्व में आती हैं और उन्हें चाहिये कि वे सदैव इस मार्ग में रहें। अतः सदैव उनकी निगरानी की जानी चाहिये। इस प्रकार इन संगठनों व संस्थाओं को चलाने वाले और उनमें काम करने वाले अधिकारी निगरानी में शामिल हैं। इसी कारण हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने गवर्नर मालिके अश्तर से सिफारिश करते हैं कि वे अपने अधीनस्थ लोगों और सरकारी कर्मचारियों के क्रिया कलापों की निगरानी करें और विशेष निरक्षकों को भेज कर संभावित उल्लंघन की रोकथाम करें।  





रिश्तेदारों के अधिकार ..सूरए नूर की आयत नंबर 60 -64

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 सूरए नूर की आयत नंबर 60 



और जो वृद्ध स्त्रियाँ जिन्हें विवाह की आशा न रह गई हो, उन पर कोई दोष नहीं कि वे अपने कपड़े (अर्थात आवरण) उतार कर रख दें, इस शर्त के साथ कि वे अपने श्रृंगार का प्रदर्शन न करें। फिर भी यदि वे इससे बचें तो यह उनके लिए बेहतर है। और ईश्वर सुनने वाला और जानकार है। (24:60)



महिलाओं के हिजाब या आवरण के संबंध में मूल आदेश इस सूरे की 31वीं आयत में बयान किया गया है। यह आयत वृद्ध महिलाओं को उस आदेश से अलग करते हुए कहती है कि जो महिलाओं अधिक आयु के कारण विवाह में रुचि नहीं रखतीं और इसी प्रकार कोई पुरुष भी उनसे विवाह नहीं करना चाहता उन्हें इस बात की अनुमति है कि वे नामहरम अर्थात परपुरुष के सामने भी अपना आवरण या चादर उतार दें। अल्बत्ता यह केवल उसी स्थिति में वैध है जब उनके सिर या गर्दन में कोई आभूषण न हो और उन्होंने श्रृंगार न कर रखा हो।


स्वाभाविक है कि इस प्रकार की महिलाओं में यौन आकर्षण नहीं रह जाता और उनके द्वारा पर्दा न करने से समाज में किसी प्रकार की बुराई फैलने की आशंका नहीं होती। अलबत्ता यदि ये महिलाएं भी, हिजाब के क़ानून का सम्मान करते हुए, अन्य महिलाओं की भांति ही पर्दा करें तो यह पवित्रता के अधिक निकट है और स्वयं उनके लिए भी अधिक प्रिय है।

यह आयत भली भांति यह दर्शाती है कि हिजाब का वास्तविक तर्क, महिलाओं की नैतिक पवित्रता की रक्षा करना है और निश्चित रूप से यह स्वयं उनके ही हित में है। इस्लाम की दृष्टि में उसी पहनावे को हिजाब समझा जाता है जो पुरुषों को उत्तेजित न करता हो।

इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम के क़ानून लचकदार और वास्तविकताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल हैं अतः लोगों की स्थितियों के परिवर्तित होने के साथ उनमें भी परिवर्तन आता है जैसा कि यह आयत, वृद्ध महिलाओं के लिए हिजाब को सरल बनाती है।

महिलाओं के लिए श्रृंगार किए हुए चेहरे के साथ परपुरुषों के बीच उपस्थित होना वैध नहीं है।



 सूरए नूर की आयत नंबर 61 



अंधे, लँगड़े और रोगी के लिए कोई हरज नहीं है और स्वयं तुम्हारे लिए इस बात में कोई हरज नहीं है कि तुम अपने घरों में से खाओ या अपने पिताओं के घरों से या अपनी माताओं के घरों से या अपने भाइयों के घरों से या अपनी बहनों के घरों से या अपने चाचाओं के घरों से या अपनी फूफियों के घरों से या अपने मामाओं के घरों से या अपनी मौसियों के घरों से या जिन घरों की कुंजियां तुम्हारे अधिकार में हों या अपने मित्र के घर से। तुम्हारे लिए इसमें भी कोई हरज नहीं कि तुम मिल कर खाओ या अलग-अलग और अकेले। तो जब भी किसी घर में जाया करो तो एक दूसरे को सलाम किया करो, ईश्वर की ओर सेबरकत वाला और अत्यधिक पवित्र अभिवादन। ईश्वर इस प्रकार अपनी आयतों को तुम्हारे लिए स्पष्ट करता है कि शायद तुम बुद्धि से काम लो। (24:61)



इस आयत के तीन भाग हैं, पहला भाग साधारण रोगियों और अंधे व लंगड़े जैसे शारीरिक रूप से अपंग लोगों के बारे में है। इसमें कहा गया है कि ईश्वर ने उन्हें हर उस कार्य से माफ़ कर दिया है जो उनके लिए कठिन हो तथा नमाज़, रोज़े, हज व जेहाद जैसी अनिवार्य उपासनाओं में भी उन्हें छूट दी है अतः पारिवारिक एवं सामाजिक मामलों में भी उन्हें विशेष छूट दी जानी चाहिए।




आयत का दूसरा भाग ख़ूनी रिश्तेदारों के बारे में है। आयत कहती है कि माता-पिता, बहन-भाई, फूफी, चाचा, मौसी व मामा इत्यादि के घर से खाने पीने के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं है और यदि वे घर में न हों तब भी तुम उनके घर में मौजूद खाना खा सकते हो, इसके लिए अनुमति लेना आवश्यक नहीं है और ईश्वर ने तुम्हें इस बात की इजाज़त दे रखी है कि तुम प्रचलित ढंग से उनके घर में मौजूद भोजन में से खा सकते हो। मित्र व परिचित लोग जिनके यहां तुम्हारा आना जाना है या जिन्होंने अपने घर की चाबी तुम्हें दे रखी है ताकि उनकी अनुपस्थिति में तुम उनके घरों की देख भाल करो, इस आदेश में शामिल हैं और उनके घर से भी खाने पीने के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं है।




आयत का तीसरा भाग, घर में प्रविष्ट होने के संबंध में एक मूल एवं सार्वजनिक आदेश है, चाहे वह अपना घर हो या दूसरों का। आदेश यह है कि घर में प्रविष्ट होते समय घर वालों को पूरी आत्मीयता से सलाम किया जाए क्योंकि ईश्वर ने मुसलमानों का अभिनंदन एक दूसरे को सलाम करने में रखा है कि जो शांति व सुरक्षा की कामना है और इससे घर वालों पर से कठिनाइयाँ व संकट दूर होते हैं।



इस आयत से हमने सीखा कि लोगों और इस्लामी सरकार के अधिकारियों को हर उस चीज़ को समाप्त करना चाहिए जो रोगियों और अपंगों के लिए कठिनाई का कारण हो, चाहे वह उपचार व उसके ख़र्चों से संबंधित हो, चाहे कार्यस्थल व उसकी परिस्थितियों के बारे में हो या फिर जीवन व उसकी संभावनाओं के बारे में हो।

ख़ूनी रिश्तेदारों के एक दूसरे पर कुछ अधिकार होते हैं जिनमें से एक यह है कि वे प्रचलित मात्रा में एक दूसरे का खाना खा सकते हैं।

इस्लाम में मित्रों के अधिकारों को परिजनों के अधिकारों के समान ही रखा गया है।

सलाम करना, एक पवित्र शिष्टाचार है तथा जीवन में विभूति और बरकत का कारण बनता है।

सूरए नूर, आयतें 62-64,


ईमान वाले तो बस वही हैं जो ईश्वर और उसके पैग़म्बर पर पूरा ईमान रखते हैं और जब भी किसी सामूहिक मामले में उनके साथ हों तो जब तक कि उनसे (जाने की) अनुमति न ले लें, नहीं जाते। (हे पैग़म्बर!) जो लोग (आवश्यकता पड़ने पर) आपसे अनुमति ले लेते है, वही लोग ईश्वर और उसके पैग़म्बर पर ईमान रखते हैं, तो जब वे किसी काम के लिए आपसे अनुमति चाहें तो उनमें से जिसे चाहिए (आवश्यकता के अनुसार) अनुमति दे दिया कीजिएऔर उन लोगों के लिए ईश्वर से क्षमा की प्रार्थना कीजिए कि निःसंदेह ईश्वर अत्यंत क्षमाशील औरदयावान है। (24:62)


इससे पहले मुसलमानों के बीच एक दूसरे से मेलजोल की शैली का वर्णन किया गया। यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के साथ मुसलमानों के व्यवहार की शैली के बारे में कहती है कि ईश्वर पर ईमान की एक निशानी उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन है। समाज के महत्वपूर्ण मामलों में उनकी अनुमति के बिना कोई काम नहीं किया जाना चाहिए और यदि महत्वपूर्ण मामलों में सार्वजनिक उपस्थिति आवश्यक हो और तुम उनके साथ हो तो जब तक वे अनुमति न दे दें कहीं न जाओ।

अलबत्ता यह आयत केवल पैग़म्बर के काल से विशेष नहीं है बल्कि जो कोई भी अपनी योग्यता के आधार पर इस्लामी समाज का नेतृत्व कर रहा हो, ईमान वालों को उसका अनुसरण करना चाहिए तथा सामाजिक मामलों में लोगों की ओर से उसकी इच्छा के बिना कोई काम नहीं होना चाहिए।

स्वाभाविक है कि धर्म के नेता व्यक्ति व समाज के हितों के आधार पर निर्णय करते हैं और उनका आदेश या अनुमति, ईश्वरीय दायित्वों के पालन के परिप्रेक्ष्य में होती है। अतः जो लोग उनसे कहीं जाने की अनुमति चाहते हैं वे उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह उनके पापों को क्षमा कर दे।

क़ुरआने मजीद की तफ़सीर अर्थात व्याख्या की किताबों में वर्णित है कि हन्ज़ला नामक एक व्यक्ति की शादी की रात ही पैग़म्बरे इस्लाम व मुसलमानों को उहद नामक युद्ध के लिए मदीना नगर से निकलना था। उसने पैग़म्बर से अनुमति ली कि वह विवाह के समारोह में भाग लेकर सुबह मुसलमानों के साथ आ मिलेगा। शादी की अगली सुबह वह जेहाद में भाग लेने के लिए इतना आतुर था कि बिना नहाए हुए ही घर से निकल पड़ा। उहद नामक स्थान पर जहां युद्ध हो रहा था वह मुसलमानों से जा मिला और फिर जेहाद में शामिल हो गया। अंततः उस युद्ध में वह शहीद हुआ जिसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा कि आकाश के फ़रिश्तों ने उसे नहलाया और स्वर्ग में ले गए।

इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक ज़िम्मेदारियों में, एकजुटता बनाए रखने और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संगठनात्मक अनुशासन का पालन आवश्यक है।

सार्वजनिक कार्यों में जो समरसता व परामर्श के आधार पर किए जाते हैं, एकपक्षीय फ़ैसले नहीं किए जाने चाहिए।

इस्लामी समाज को सदैव ही अपने नेता के आदेशों का पालन करना चाहिए और उसकी अनुमति के बिना कोई दायित्व नहीं छोड़ना चाहिए।

इस्लामी समाज के नेताओं को अपनी नीतियों को लागू करते समय लचक का प्रदर्शन करना चाहिए और लोगों की कठिनाइयों को समझते हुए दया से काम लेना चाहिए।


 सूरए नूर की आयत नंबर 63 और 64



(हे ईमान वालो!) अपने बीच पैग़म्बर के बुलाने को तुम आपस में एक दूसरे को बुलाने जैसा न समझना। ईश्वर उन लोगों को भली-भाँति जानता है जो तुममें से ऐसे हैं कि (एक-दूसरे की) आड़ लेकर चुपके से (उनके पास से) हट जाते है। तो उन्हें,जो उनके आदेश की अवहेलना करते हैं, डरना चाहिए कि कहीं (संसार में ही) उन पर कोई परीक्षा आ पड़े या उन पर कोई कड़ा दंड ही आ जाए। (24:63) जान लो! आकाशों और धरती में जो कुछ भी है, ईश्वर ही का है। वह जानता है तुम जिस (नीति) पर हो। और जिस दिन वे उसकी ओर पलटेंगे, तो जो कुछ उन्होंने किया होगा, वह उन्हें बता देगा। ईश्वर तो हर चीज़ का ज्ञानी है। (24:64)



पिछली आयत के क्रम को जारी रखते हुए, जिसमें कहा गया है कि ईमान वालों को, पैग़म्बर की अनुमति के बिना कोई कार्य नहीं छोड़ना चाहिए, यह आयत कहती है कि जब भी पैग़म्बर तुम्हें किसी काम के लिए बुलाएं तो उससे बचने के लिए स्वयं को उनकी नज़रों से छिपाने का प्रयास न करो और वहां से धीरे से हट न जाओ। जान लो कि पैग़म्बर की बात का विरोध और उनके आदेश की अवहेलना का लोक परलोक में तुम्हारे लिए बड़ा बुरा परिणाम निकलेगा। संसार में व्यक्तिगत व सामाजिक समस्याएं व कठिनाइयां तुम पर आ पड़ेंगी और तुम कड़ी परीक्षाओं में ग्रस्त हो जाओगे जबकि पैग़म्बर के विरोध के कारण प्रलय में कड़ा दंड तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होगा।

आगे चल कर आयत कहती है कि तुम लोग पैग़म्बर के आदेश को अन्य लोगों के आदेशों की भांति क्यों समझते हो और उसका विरोध करते हो या उससे बचने का प्रयास करते हो? यदि तुम अपनी चालों के माध्यम से स्वयं को पैग़म्बर की नज़रों से छिपा भी लो तो, ईश्वर से किस प्रकार बच पाओगे जो हर चीज़ का जानने वाला है? ईश्वर सदैव तुम पर दृष्टि रखता है और वह तुम्हारे भीतर व बाहर की हर बात से अवगत है। वह न केवल तुम पर बल्कि संपूर्ण सृष्टि पर प्रभुत्व रखता है और कोई भी चीज़ उसकी नज़रों से ओझल नहीं है। वही ईश्वर प्रलय में न्याय करने वाला है और तुम्हारा कर्मपत्र तुम्हारे हवाले करके तुम्हारी स्थिति को स्पष्ट कर देगा।




सूरए नूर की अंतिम आयत मनुष्यों के कर्मों के संबंध में ईश्वर के ज्ञान पर तीन बार बल देती है ताकि कोई यह न सोचे कि वह गुप्त रूप से कोई काम कर सकता है या ऐसे स्थान पर जा सकता है जो ईश्वर की नज़रों से ओझल हो। स्वाभाविक है कि जिसे इस बात पर विश्वास हो कि ईश्वर, सृष्टि को अपने घेरे में लिए हुए है तथा वह अपने बंदों के सभी कर्मों को देख रहा है तो वह कभी भी पाप नहीं करेगा क्योंकि यह आस्था एक मज़बूत प्रतिरोधक के रूप में उसे पापों व पथभ्रष्टताओं से रोके रखती है।

इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर के पैग़म्बर और अन्य प्रिय बंदे, पवित्र और सम्मानीय हस्तियां हैं जिनके सम्मान की रक्षा हर स्थिति में होनी चाहिए। उनका नाम सम्मान से लिया जाना चाहिए, उनके निमंत्रण को अन्य लोगों के निमंत्रण के समान नहीं समझना चाहिए बल्कि उत्तम ढंग से उनका उत्तर देना चाहिए।

ईश्वर के आदेश या पैग़म्बर की इच्छा के विरोध का परिणाम लोक-परलोक में समस्याओं के रूप में सामने आता है। संसार और प्रलय में शांति व संतोष, धार्मिक आदेशों के पालन में निहित है।

इस बात पर ईमान कि ईश्वर, मनुष्य के विचारों व कर्मों से अवगत है, व्यक्ति को बुराइयों व पापों से रोके |





सूरए नूर, आयतें 32-34..शादी करने के हिदायत |

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और तुम में जो (युवा व युवतियां) अविवाहित हों और तुम्हारे दासों व दासियों में जो भले व योग्य हों, उनका विवाह कर दो (और दरिद्रता से न डरो कि) यदि वे ग़रीब होंगे तो ईश्वर अपने अनुग्रह से उन्हें आवश्यकता मुक्त कर देगा और ईश्वर तो समाई वाला और ज्ञानी है। (24:32)

यह आयत विवाह के विषय की ओर संकेत करती है जिसकी समाज को नैतिक बुराइयों से दूर रखने में मूल भूमिका है। यौन संबंधी आवश्यकता, ऐसी आवश्यकता है जिसे ईश्वर ने मानव जाति को बाक़ी रखने हेतु मनुष्य के भीतर रखा है और आवश्यकता की पूर्ति का स्वाभाविक एवं क़ानूनी मार्ग, विवाह को बताया है।

चर्च के कुछ दृष्टिकोणों के विपरीत, जिनमें यौन भावनाओं को, शैतानी इच्छाएं और विवाह को अप्रिय कार्य बताया जाता है तथा पादरियों व ननों को विवाह की अनुमति नहीं दी जाती, इस्लाम विवाह को एक प्रिय व वांछित कार्य बताता है। चूंकि विवाह से बचने और परिवार गठन से दूर रहने के लिए एक आम बहाना आर्थिक समस्याओं और ग़रीबी को बनाया जाता है इस लिए क़ुरआने मजीद इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देता है। वह माता-पिता को सिफ़ारिश करता है कि जब उनके बच्चे विवाह के योग्य हो जाएं तो उनका विवाह कर दें और जीवन के आरंभ में उनकी निर्धनता से न डरें और इस बहाने से उनके विवाह को विलंबित न करें।

दूसरी ओर घर में काम करने वाले दासों व दासियों में भी स्वाभाविक रूप से यौन भावनाएं होती हैं और यदि उन पर ध्यान न दिया जाए तो स्वयं उनके या परिवार के सदस्यों के लिए समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। यही कारण है कि आयत घर के बड़े लोगों से कहती है कि वे इस प्रकार के लोगों के विवाह के विचार में भी रहें और उनकी इस आवश्यकता की ओर से निश्चेत न रहें।

इस आयत से हमने सीखा कि इस्लामी व्यवस्था के संचालनकर्ताओं को नैतिक बुराइयों व अपराधों तथा अश्लीलता को रोकने के लिए युवाओं के विवाह का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

इस्लाम में विवाह पर एक पवित्र कार्य के रूप में बल दिया गया है।


ईश्वर ने वचन दिया है कि वह विवाह करने वालों के जीवन को संपन्न बनाएगा और विवाह को उनके लिए विभूति का साधन बनाएगा अतः दरिद्रता को, विवाह में बाधा नहीं बनना चाहिए

सूरए नूर की आयत क्रमांक 33

और जो लोग विवाह (की संभावना) न पा रहे हों उन्हें पवित्रता अपनानी चाहिएयहाँ तक कि ईश्वर अपने अनुग्रह से उन्हें आवश्यकता मुक्त कर दे। और तुम्हारे स्वामित्व में मौजूद (दास-दासियों) में से जो लोग लिखा-पढ़ी (अर्थात कुछ कमा कर देने की शर्त पर स्वतंत्रता) के इच्छुक हों, तो यदि उनमें भलाई हो तो उनके साथ लिखा-पढ़ी कर लोऔर (उनकी रिहाई में सहायता के लिए) उन्हें ईश्वर के उस माल में से दो, जो उसने तुम्हें प्रदान किया है। और अपनी दासियों को (नश्वर) सांसारिक माल की चाह में व्यभिचार के लिए बाध्य न करो, जबकि वे पवित्र रहना भी चाहती हों। और जो कोई इसके लिए उन्हें बाध्य करेगा, तो निश्चय ही ईश्वर (व्यभिचार के लिए) उन्हें बाध्य किए जाने के पश्चात अत्यन्त क्षमाशील वदयावान है (24:33)


मनुष्य और पशु में अंतर यह है कि जब भूखा जानवर खाने तक पहुंचता है तो अपने आपको रोक नहीं सकता और अपनी स्वाभाविक इच्छा के अनुसार उस खाने को खा लेता है किंतु मनुष्य, जिसमें वही इच्छा है वह अत्यंत भूखा व प्यासा होने के बावजूद अपने आपको रोक सकता है जिस प्रकार से कि रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ेदार कई घंटों तक भूख और प्यास को सहन करते हैं।
यौन इच्छाएं भी कभी भी मनुष्य को पाप पर विवश नहीं करतीं जैसा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने, भरपूर युवा होने के बावजूद ज़ुलैख़ा की अनैतिक इच्छा की पूर्ति नहीं की जबकि वे उसके दास भी थे और उसका आज्ञापालन उनके लिए अनिवार्य भी था किंतु वे उसके जाल से निकल भागे और उन्होंने ईश्वर से शरण मांगी। ईश्वर ने बंद दरवाज़े उनके लिए खोल दिए और इस प्रकार उनकी पवित्रता ने उन्हें सम्मान एवं सत्ता के शिखर पर पहुंचा दिया।
 आगे चल कर आयत उन लोगों को संबोधित करते हुए जिनके पास दास व दासियां हुआ करती थीं दो सिफ़ारिश करती है। प्रथम यह कि यदि रिहाई उनके हित में हो और वे इस बात की क्षमता रखते हैं कि अपने जीवन का संचालन कर सकें तो उनकी सहायता करो और अपने धन में से भी उन्हें दो ताकि वे स्वतंत्र जीवन बिता सकें। दूसरे यह कि दासियों को अपनी कमाई का साधन न बनाओ और उन्हें व्यभिचार के लिए विवश न करो कि इसके लिए तुम्हें अत्यंत कड़ा दंड मिलेगा जबकि वे ईश्वर की क्षमा का पात्र बनेंगी क्योंकि उन्हें इस कार्य के लिए विवश किया गया था।
इस आयत से हमने सीखा कि जो लोग अविवाहित हैं या जिनका जीवन साथी उनके पास नहीं है, उन्हें पाप करने की छूट नहीं है। उन्हें संयम से काम लेकर अपनी आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित करना चाहिए।
अपने अधीनस्थ लोगों के साथ व्यवहार में सदैव उनके हित में क़दम उठाना चाहिए ताकि वे भी हमारे साथ भलाई करें। अपने लाभ के लिए उन्हें ऐसे कार्य पर विवश नहीं करना चाहिए जो उनका दायित्व नहीं है।
इस्लाम के क़ानूनों से दासों की रिहाई का मार्ग प्रशस्त होता है। दासों द्वारा एक निर्धारित मात्रा में धन कमा कर देने के बदले में उनकी स्वतंत्रता का समझौता, इन्हीं में से एक है।
अवैध मार्गों से धन एकत्रित करना वैध नहीं है।

सूरए नूर की आयत क्रमांक 34


और निश्चय ही हमने तुम्हारी ओर खुली हुई आयतें उतार दी हैं और उन लोगों के उदाहरण भी प्रस्तुत कर दिए हैंजो तुमसे पहले गुज़रे हैं, और (ईश्वर से) डरने वालों के लिए नसीहत भी (भेजी है)। (24:34)


सूरए नूर की इन आयतों के अंतिम भाग में ईश्वर कहता है कि जो आयतें हमने भेजी हैं वह तुम्हारे लिए जीवन का मार्ग स्पष्ट करती हैं और अतीत के लोगों के साथ जो कुछ हुआ है उसे तुम्हारे समक्ष बयान करती हैं ताकि तुम उनके अनुभवों से पाठ सीखो। अलबत्ता केवल ईश्वर से डरने वाले ही क़ुरआने मजीद की नसीहतें सुनते और उन्हें स्वीकार करते हैं जबकि अन्य लोग इस ईश्वरीय उपदेश से लाभ नहीं उठा पाते।




हे ईमान लाने वालो! अपने घरों के अतिरिक्त दूसरे घरों में बिना अनुमति प्रवेश ना करो |सूरए नूर, आयतें 24-29,

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सूरए नूर, आयतें 24-29, 


जिस दिन कि उनकी ज़बानें, उनके हाथ और उनके पाँव उनके विरुद्ध उन (कर्मों) की गवाही देंगे, जो वे करते रहे थे। (24:24) उस दिन ईश्वर उन्हें उनका ठीक-ठीक बदला पूर्ण रूप से दे देगा और वे जान लेंगे कि निःसंदेह ईश्वर ही खुला हुआ सत्य है।(24:25)


इससे पहले कहा गया कि जो लोग इस संसार में दूसरों पर ग़लत आरोप लगाते हैं, उस संसार में उनका ठिकाना नरक है। ये आयतें कहती हैं कि प्रलय के न्यायालय में न केवल ज़बान, पापों को स्वीकार नहीं करेगी बल्कि ईश्वर की इच्छा से अपराधियों के शरीर के अंग भी बोलने लगेंगे और स्वयं द्वारा किए गए पापों को स्वीकार करेंगे मानो उन्होंने संसार में जो कुछ भी किया था उसे अपने भीतर संजो कर रख लिया था और आज ईश्वर की इच्छा पर उन्हें सुना रहे हैं।

अपराधियों की इच्छा के विपरीत, उनके अंगों द्वारा पापों की इसी स्वीकारोक्ति के आधार पर ही ईश्वर के न्यायालय में उन्हें दंडित किया जाएगा और वे अपने किए की पूरी-2 सज़ा भुगतेंगे, उनको दिए जाने वाले दंड में तनिक भी कमी या बेशी नहीं होगी। यहीं पर अपराधी, उस वास्तविकता को, जिसका वे संसार में इन्कार किया करते थे या जिसकी ओर से निश्चेत थे, स्पष्ट रूप से समझ जाएंगे किंतु इसका कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि तौबा व प्रायश्चित का समय बीत चुका होगा।

इन आयतों से हमने सीखा कि प्रलय में मनुष्य अपने शरीर के अंगों का भी स्वामी नहीं होगा बल्कि संभव है कि वे अंग स्वयं उसी के विरुद्ध गवाही दें।

संपूर्ण सृष्टि यहां तक कि जड़ वस्तुओं में भी एक प्रकार का विवेक पाया जाता है और वे अपने आस-पास घटित होने वाली बातों को समझती हैं।

केवल प्रलय में ही मनुष्य के अच्छे व बुरे कर्मों का संपूर्ण बदला दिया जाएगा।


सूरए नूर की आयत क्रमांक 26

बुरी महिलाएं, बुरे पुरुषों के लिए हैं और बुरे पुरुष, बुरी महिलाओं के लिए हैंऔर पवित्र महिलाएं, पवित्र पुरुषों के लिए हैं और पवित्र पुरुष, पवित्र महिलाओं के लिए हैं। ये (पवित्र) लोग उन बातों से विरक्त हैं, जो वे (बुरे) लोग उनके बारे में कह रहे हैं। इनके लिए क्षमा और सम्मानित आजीविका है। (24:26)



यह आयत एक स्वाभाविक एवं प्राकृतिक परंपरा की ओर जिसकी पुष्टि ईश्वरीय शिक्षाएं भी करती हैं, संकेत करते हुए कहती है कि सभी लोग स्वाभाविक रूप से दंपति के चयन में समान विचार और समान प्रवृत्ति के व्यक्ति की खोज करते हैं। पवित्र लोगों की प्रवृत्ति इस प्रकार की है कि वे पवित्र व भली वस्तुओं की ओर उन्मुख होते हैं और पवित्र लोगों की ही कामना करते हैं जबकि इसके विपरीत बुरे लोग, बुराइयों और भ्रष्ट लोगों की ओर आकर्षित होते हैं। धार्मिक क़ानूनों के अनुसार भी ईश्वर ने इस बात की अनुमति नहीं दी है कि पवित्र प्रवृत्ति वाले, अपवित्र व बुरे लोगों को अपना जीवन साथी बनाएं और बुराइयों में ग्रस्त हो जाएं। उसने बुरे व अपवित्र लोगों को उनकी स्थिति पर छोड़ दिया है जब तक कि वे तौबा व प्रायश्चित नहीं कर लेते।


रोचक बात यह है कि इस आयत में जीवन साथी के चयन का सबसे महत्वपूर्ण मानदंड, हर प्रकार की बुराई व अपवित्रता से दूरी बताते हुए विचार व व्यवहार की पवित्रता पर बल दिया गया है। कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद की बुराई से पवित्रता, बुरी व ग़लत बातों से पवित्रता और ईमान वालों को शोभा न देने वाले हर प्रकार के अभद्र व्यवहार से पवित्रता।

स्वाभाविक है कि ईश्वर की दया व कृपा और सम्मानित आजीविका के पात्र भी इसी प्रकार के पवित्र लोग हैं जिन्होंने अपने परिवार की आधारशिला पवित्रता पर रखी है और इसी आधार पर अपना दांपत्य जीवन आरंभ किया है।

इस आयत से हमने सीखा कि हमें अपनी विदित पवित्रता के साथ ही आंतरिक पवित्रता के लिए भी प्रयास करना चाहिए कि जीवन के मार्ग में जीवन साथी एवं मित्र इत्यादि का चयन हमारी प्रवृत्ति को अपवित्र लोगों की ओर उन्मुख और पवित्र लोगों से दूर न कर दे।


पवित्र वंश, पवित्र जीवन साथी के चयन पर निर्भर है और पवित्र लोगों को अपने वंश की पवित्रता को बाक़ी रखने के लिए व्यापक कार्यक्रम बनाने चाहिए।

सूरए नूर की आयत क्रमांक 27, 28 और 29



हे ईमान लाने वालो! अपने घरों के अतिरिक्त दूसरे घरों में (तब तक) प्रवेश न करो, जब तक कि अनुमति प्राप्त न कर लो और उनमें रहने वालों को सलाम न कर लो। यही तुम्हारे लिए उत्तम है, शायद तुम ध्यान रखो। (24:27) फिर यदि उनमें किसी (व्यक्ति) को न पाओ, तो उनमें प्रवेश न करो जब तक कि तुम्हें अनुमति प्राप्त न हो जाए। और यदि तुमसे कहा जाए कि वापस हो जाओ, तो वापस लौट जाओ, यही तुम्हारे लिए अधिक पवित्र बात है। और जो कुछ तुम करते हो, उसे ईश्वर भली-भाँति जानता है। (24:28) (अलबत्ता) इसमें तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं है कि तुम ऐसे घरों में प्रवेश करो जिनमें कोई न रहता हो, (और)जिनमें तुम्हारी कोई चीज़ हो। और ईश्वर जानता है जो कुछ तुम प्रकट करते हो और जो कुछ छिपाते हो। (24:29)


यह आयतें, अन्य लोगों की निजता के सम्मान के संबंध में इस्लाम के सामाजिक आदेशों के एक भाग का वर्णन करते हुए कहती हैं कि अचानक और बिना सूचना के दूसरों के घरों में प्रवेश न करो कि यह कार्य लोगों व उनके परिवारों के व्यक्तिगत अधिकारों का भी हनन है और सामाजिक सुरक्षा व नैतिक पवित्रता से भी विरोधाभास रखता है। दरवाज़ा खुला होने का अर्थ, घर में प्रवेश की अनुमति होना नहीं है बल्कि घर में प्रवेश से पहले घर वालों से अनुमति लेना ही चाहिए।
इस्लामी संस्कारों के अनुसार घर वालों के लिए आवश्यक नहीं है कि वे किसी को भी घर में प्रवेश की अनुमति दें बल्कि यदि वे तैयार न हों तो आने वाले को नकारात्मक उत्तर दे सकते हैं क्योंकि घर आराम का स्थान है और दूसरों को इस बात का अधिकार नहीं है कि वे घर वालों से यह हक़ छीनें किंतु यदि उन्होंने प्रवेश की अनुमति दे दी तो इस्लामी सभ्यता आदेश देती है कि व्यक्ति, किसी भी घर में प्रवेश करते समय घर वालों को सलाम करे और प्रेम व स्नेह के साथ प्रवेश करे।
इन आयतों में कई बार बल देकर कहा गया है कि ईश्वर तुम्हारे गुप्त व स्पष्ट कार्यों से अवगत है। शायद इसका कारण यह हो कि कोई अन्य लोगों की बातों की टोह में उनके घरों में जाए और यदि मिलने जुलने के लिए जाए तो घर के भीतर जो कुछ हो रहा है उसे जानने का प्रयास न करे क्योंकि यह बुरा व अनैतिक कार्य है और कई स्थानों पर तो यह अवैध और हराम भी है। अलबत्ता ख़रीदारी के केंद्रों और होटलों इत्यादि जैसे सार्वजनिक स्थानों का मामला अलग है जो किसी का घर नहीं होता और वहां अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है।
इन आयतों से हमने सीखा कि घर, रहने और आराम करने का स्थान है। किसी को भी घर वालों की सुरक्षा और आराम में रुकावट डालने का अधिकार नहीं है।
घर, लोगों की निजता की सीमा है और किसी को भी बिना अनुमति के उसके भीतर जाने का हक़ नहीं है। यदि घर वालों ने अनुमति नहीं दी तो हमें उनकी बात मान लेनी चाहिए और अपनी इच्छा उन पर नहीं थोपनी चाहिए।
अन्य लोगों से भेंट के समय उन्हें सलाम करना, इस्लामी संस्कारों में से एक है।



इमाम अली बिन हुसैन की बहुत सी उपाधियां हैं जिनमें ज़ैनुल आबेदीन और सज्जाद बहुत मशहूर हैं

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शाबान की पांच तारीख है। ३८ हिजरी कमरी में शाबान महीने की पांच तारीख को ही पवित्र नगर मदीना में इमाम अली बिन हुसैन अर्थात हुसैन के बेटे अली का जन्म हुआ। ईरानी राजकुमारी शहरबानो आपकी माता हैं।
इमाम अली बिन हुसैन की बहुत सी उपाधियां हैं जिनमें ज़ैनुल आबेदीन और सज्जाद बहुत मशहूर हैं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के जन्म से संसार ज्ञान और अध्यात्म से प्रकाशमयी व ओत प्रोत हो गया।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के काल में राजनीतिक परिस्थितियां बहुत ही संवेदनशील और जटिल थीं। जब इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के पिता हजरत इमाम हुसैन ने अत्याचारी व धर्मभ्रष्ठ शासक यज़ीद की सरकार के विरुद्ध महाआंदोल किया और अपने ७२ साथियों साहियों के साथ कर्बला में शहीद हो गये और उनके परिजनों को बंदी बना लिया गया तो समाज में भय व आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया था। पैग़म्बरे इस्लाम के नाती को शहीद करना और उनके परिजनों को बंदी बना लेना एसा अभूतपूर्व अपराध था जिसे देख व सुनकर लोग हतप्रभ एवं भयभीत हो गये थे।


इसी प्रकार इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का काल सामाजिक परिवर्तन का काल भी था। क्योंकि मुसलमानों ने बहुत से क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की थी और इन क्षेत्रों से मुसलमान शासकों को बहुत धन सम्पत्ति मिली थी जिसके कारण ये शासक एश्वर्य एवं विलासतापूर्ण जीवन व्यतीत करने में लीन हो गये थे। इसी मध्य ईश्वरीय धर्म इस्लाम की वास्तविक शिक्षाओं को परिवर्तित किया जा रहा था और बनी उमय्या की सरकार ने बहुत से लोगों को किराये पर रख रखा था। इन लोगों का काम झूठी हदीसें गढ कर इस्लाम को परिवर्तित करना और उन्हें लोगों के मध्य प्रचलित करना था। इसका एक अन्य उद्देश्य लोगों को ईश्वरीय धर्म इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं से दूर कराना था। क्योंकि जब लोग धर्म से दूर हो जायेंगे तो उनसे हर प्रकार का गलत कार्य कराके अपने अवैध हितों की पूर्ति बड़ी सरलता से की जा सकती है।

विदित में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का व्यवहार लचक व नर्मी का सूचक था इस प्रकार से कि कुछ लोग यह सोचते थे कि इमाम सज्जाद के पास उपासना के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं है और वे सामाजिक एवं सांसारिक कार्यों से दूर हैं। यह उस स्थिति में था जब बनी उमय्या ने घुटन का वातावरण उत्पन्न कर रखा था जिससे लोग इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं से दूर हो गये थे। उस समय की परिस्थिति इस बात की कारण बनी कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं को पुनर्जीवित करने के लिए दूसरी पद्धति अपनाई। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने आध्यात्मिक एवं इस्लामी उद्देश्यों व आकांक्षाओं को प्राप्त करने के लिए उपदेश और दुआ का मार्ग अपनाया। वास्तव में इमाम ने सही विश्वासों, आस्थाओं और विचारों को स्थानांतरित करने के लिए सर्वोत्तम मार्ग का चयन किया।

इस प्रकार की दुआ व नसीहत का एक उदाहरण वह दुआ है जिसे इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम प्रायः शुक्रवार को पढ़ा करते थे।


बर्ज़ख अर्थात मरने के बाद दो फरिश्ते मुन्किर और नकीर जिन आरंभिक चीज़ों के बारे में सवाल करेंगे वे यह हैं कि तुम्हारा ईश्वर कौन है जिसकी उपासना करते हो, वह पैग़म्बर कौन जिसे तुम्हारे पास भेजा गया है, वह धर्म क्या है जिसका तुम अनुसरण करते हो और वह कौन सी आसमानी किताब है जिसकी तुम तिलावत करते हो और तुम्हारा इमाम कौन है जिसकी विलायत तुमने स्वीकार की है यानी उसे ईश्वरीय प्रतिनिधि मानते हो"
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने अपनी दुआ के अंदर एकेश्वरवाद, नबुअत, अर्थात पैग़म्बरी , इमामत और प्रलय जैसे महत्वपूर्ण विषयों को बयान कर दिया। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि इमामों की भाषा में इमामत का अर्थ सरकार होता है।


इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की दुआ में जिस इमाम का वर्णन किया गया वह वही इमाम है जो पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी है। दूसरे शब्दों में उस पर लोगों के सांसारिक और धार्मिक मामलों के मार्गदर्शन की जिम्मेदारी है और उसके अनुसरण व उसके आदेशों का मानना पैग़म्बरे इस्लाम के आदेशों के मानने जैसा अनिवार्य है। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के काल के लोग इस्लाम से इस सीमा तक दूर हो गये थे कि वे सोचते थे कि एक व्यक्ति उनके सांसारिक मामलों में उन पर शासन कर रहा है और दूसरा व्यक्ति उनके धार्मिक मामलों में उनका जिम्मेदार है। वास्तव में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने दुआ और उपदेशों के परिप्रेक्ष्य में इमामत के मामले को बयान कर दिया, लोगों को इस्लामी सरकार एवं समाज के नेतृत्व के मामले से अवगत करा दिया और यह वह चीज़ है जिसके बारे में बनी उमय्या की सरकार बात करना व सुनना तक पसंद नहीं करती थी।


अबु हमज़ा सोमाली नाम के इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के एक बहुत अच्छे व निष्ठावान अनुयायी थे। वे इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के निकटवर्ती लोगों के लिए बयान करते और कहते हैं कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम झूठे आराम से लोगों को दूर रहने को कहते हैं क्योंकि यह झूठा आराम दूसरों पर अत्याचार किये बिना प्राप्त नहीं हो सकता। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपने अनुयाइयों का ध्यान इस बिन्दु की ओर खींचते हैं कि अमवी सरकार अगर लोगों को आराम देती है तो उसका कारण यह है कि वह लोगों का ईमान ले लेना चाहती है और अगर उन्हें कोई विशिष्टता देती है तो इसकी वजह यह है कि वह अपनी अत्याचारी सरकार के प्रति लोगों के विरोध को कम करना चाहती है।


इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम नसीहत करते हुए इस प्रकार फरमाते हैं"हे मोमिनो! तुम्हें अत्याचारी और दुनिया से प्रेम करने वाले अत्याचारी धोखा न दें जो अपना दिल दुनिया से लगा बैठे हैं, उसके प्रेमी हो गये हैं और संसार के क्षणिक आनंदों के पीछे भाग रहे हैं। इसके बाद इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपने अनुयाइयों को अत्याचार से संघर्ष के मार्ग में मज़बूती से बाक़ी व जमे रहने के लिए पहले के लोगों के अनुभवों और उन दबावों को बयान करते हैं जो मोआविया और उसके बेटे यज़ीद तथा मरवान के काल में पैग़म्बरे इस्लाम एवं उनके पवित्र परिजनों से प्रेम करने वालों के साथ हुए हैं। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम फरमाते हैं"मेरी जान की क़सम आप लोग अतीत की उस बुराई व फितने से सही सलामत बाह आ गये हैं जो बीत गये हैं जबकि तुम लोग सदैव पथभ्रष्ठ लोगों, धर्म में नई चीज़ उत्पन्न करने वालों और ज़मीन में बुराई फैलाने वालों से दूरी करते थे। तो अब भी ईश्वर से सहायता मांगो और ईश्वर तथा उसके प्रतिनिधि के आदेशों का पालन करो कि वह वर्तमान शासकों से योग्य व बेहतर है"


अबु हमज़ा सोमाली नाम की प्रसिद्ध दुआ में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम इस बात को स्पष्ट शब्दों में बयान करते हैं कि ईश्वर, उसके पैग़म्बर के बाद किसके आदेशों का पालन करना चाहिये। इमाम अपने चाहने वालों और अनुयाइयों के मस्तिष्क में संदेह उत्पन्न होने से रोकने के लिए फरमाते हैं"ईश्वर ने जिसके अनुसरण को अनिवार्य करार दिया है उसे हर चीज़ पर प्राथमिकता दो और कभी भी मामलों में अत्याचारियों के अनुसरण को ईश्वर और उसके प्रतिनिधियों के अनुसरण पर प्राथमिकता न दो। पापी लोगों के साथ उठने बैठने तथा फासिक, फाजिर और भ्रष्ठ लोगों के साथ सहकारिता करने से दूरी करो और उनके फितनों व बुराइयों से बचो, उनसे दूरी करो। जान लो कि जो भी ईश्वरीय प्रतिनिधि का विरोध करेगा और ईश्वर के धर्म के अतिरिक्त किसी और धर्म का पालन करेगा और ईश्वरीय मार्गदर्शन के मुकाबले में अपनी मनमानी करेगा तो वह नरक की आग में गिरफ्तार होगा"


संघर्ष और प्रचार की इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की एक शैली दुआ थी। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने दुआ के परिप्रेक्ष्य में बहुत से इस्लामी ज्ञानों व विषयों को बयान किया और उन सबको सहीफये सज्जादिया नाम की किताब में एकत्रित किया गया है। इस किताब को अहले बैत की इंजील और आले मोहम्मद की तौरात कहा जाता है। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपनी दुआओं के माध्यम से लोगों के मन में इस्लामी जीवन शैली के कारणों को उत्पन्न करते हैं। इमाम ने दुआ को महान व सर्वसमर्थ ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने का सबसे उत्तम साधन बताया वह भी उस काल में जब लोग दुनिया के पीछे भाग रहे थे। रोचक बात यह है कि इमाम जगह जगह पर इमामत और अहलेबैत की सत्यता को बयान करते थे। जैसाकि हम सहीफए सज्जादिया की ४६वीं दुआ में पढ़ते हैं"हे ईश्वर यह खिलाफत तेरे प्रतिनिधियों, तेरे चुने हुए और तेरे अमानतदारों का स्थान है कि जिसमें ऊंचे दर्जे हैं जो इनसे विशेष कर दिये गये हैं परंतु दूसरों ने अवैध ढंग से उस पर कब्ज़ा कर लिया है यहां तक कि तेरे प्रतिनिधियों से अधिकार छीन लिया गया है और अब वे देख रहे हैं कि तेरे आदेश को परिवर्तित कर दिया गया है और तेरी किताब को कोने में डाल दी गयी है और तेरे वाजिबात अर्थात जिसे तूने निर्धारित किया है, इधर उधर हो गये हैं और तेरे पैग़म्बर की परम्परा व शैली को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है"

इमाम सज्जाद अलैहिस्लाम अपनी दुआओं में बारम्बार पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों पर दुरुद व सलाम की पुनरावृत्ति करते हैं और इससे उनका उद्देश्य पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के स्थान को स्पष्ट करना था। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर एक बार फिर आप सबकी सेवा में हार्दिक बधाई प्रस्तुत करते हैं और आज के कार्यक्रम का समापन उनकी दुआ के एक स्वर्णिम वाक्य से कर रहे हैं। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम फरमाते हैं"हे ईश्वर हम सब के कार्यों का अंत अच्छा कर"

मज़हबी साजिशों का शिकार यह समाज|

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इधर मैंने कुछ लेख इस्लाम और आज का मुसलमान जैसे विषयों पे लिखे जैसे इस्लाम के दामन में लगा दाग़ ,धर्म और भ्रष्टाचार ,इस्लाम की हकीकत"बहुत से लोगों ने सवाल भी पूछे| कुछ के सवाल इस बात की ओर इशारा करते थे की उनका ज्ञान इस्लाम के बारे में कुरान और सीरत इ रसूल (स.अ.व) की जगह सुनी सुनायी कहानियों पे आधारित है और कुछ को मैंने आज कल की राजनीती का शिकार पाया| कुछ ने तो खुल के यह बात कही की हम दूसरों के धर्म की कमियां निकालते रहेंगे चाहे इसका असर समाज में सही पड़े या गलत पड़े और यह सोंच एक चिंता का विषय है | लेकिन सभी के सवाल अपनी जगह जाएज़ हैं, हकीकत यही है कि आज के युग में किसी भी इंसान को देख के उसके किरदार को देख के यह पता ही नहीं लगता है कि किसी धर्म से इसका कोई ताल्लुक भी है | उनकी धार्मिक किताबें कुछ और कहती हैं और उनका आचरण ,व्यवहार या किरदार कुछ और कहता है | यही हाल मुसलमान का भी है|गुज़रे कुछ सालों से इस्लाम के खिलाफ राजनितिक साजिशें विश्वस्तर पे दखी गयीं और तालिबान ,आतंकवाद जैसे शब्द अधिक सुनने में आने लगे | ज़िया उल हक के पहले तालिबानी कहाँ थे आज कोई नहीं बता सकता | केवल हिंदुस्तान के ही नहीं पूरे विश्व में इस्लाम के खिलाफ फैलाई अफवाहों का असर हुआ और आज आम इंसान को सच में ऐसा लगता है की मुसलमान का मतलब आतंकवादी |

यह एक अफ़सोस की बात है की अधिकतर मुसलमान अमन और शांति से जीना चाहते हैं लेकिन उनकी छवि अमन और शांति को भंग करने वाली बनाई जा रही है | यह भी सत्य है की आज धर्म के नाम पे इंसानों को एक दुसरे का दुश्मन बनाने की साजिश विश्वस्तर पे चलाई जा रही है |हिंदुस्तान में तो मुसलमान विश्व के किसी दुसरे मुल्क के मुकाबले अधिक ख़ुशी से रहता आया है | ऐसे में भारवासियों की यह कोशिश होनी चाहिए एक इन साजिशों से खुद को बचाते हुए अपने भाईचारे को काएम रखें |

मेरी कोशिश यही रहती है की औरों के सामने इस्लाम की सही तस्वीर पेश करूँ और मुसलमानों को भी आइना दिखाओं की देखो गुमराह न हो जाना, किसी के बहकावे में न आना |क्यूंकि अज्ञानता ही सभी झगड़ो और नफरतों की जड़ है |कुरान में तो साफ़ साफ़ कहा है की मुसलमान शक्ल से या नमाज़ों से नहीं सीरत से अच्छे किरदार से बनता है और पहचाना जाता है | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) ने कहा की किसी को उसकी नमाज़ों या बड़े बड़े सजदो से न पहचानो बल्कि उसकी सीरत से पहचानो | वैसे भी सूरत अक्सर झूट बोल जाती है |

हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) के वक़्त का एक वाकेया है की एक इंसान उनके पास रोज़ बैठता था और इस्लाम के बारे में जानकारी हासिल करता था | अपने घर जा के कुरान पढता और समझने की कोशिश किया करता था | क्यूंकि उसका बाप इस्लाम पे नहीं था वो उसे रोकता था कभी कभी बुरा भला भी कह देता था | एक दिन जब वो शख्स रसूल इ खुदा (सव) की बज़्म में पहुंचा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था और कुछ परेशां नज़र आ रह था | रसूल ऐ खुदा (स.अ.व) ने उससे इसका कारन पुछा तो उसने कहा | कल जब उसका बाप उसे कुरान पढने से मन कर रह था तो उसे गुस्सा आ गया और उसने अपने बाप पे हाथ उठा दिया |

इतना सुनना था की रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने कहा मेरी बज़्म से चले जाओ और जा के अपने बाप से माफी मांगो |उस शख्स ने कहा अरे रसूल ऐ खुदा (स.अ.व) वो तो काफ़िर है ,इस्लाम पे भी नहीं है मुझे कुरान पढने पे मारता भी है |उस से क्यूँ माफी मांगू |रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने जवाब दिया "वो इस्लाम पे हो या किसी और मज़हब पे इस से तुझे कोई फर्क नही पड़ना चाहिए ,क्यूंकि वो तुम्हारा बाप है और उसे तकलीफ पहुँचाना इस्लाम के कानून के खिलाफ है | अब ज़रा गौर करें उनके बारे में रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) का क्या ख्याल होगा जो खुद को मुसलमान भी कहते हैं और अपने वालेदैन (मा-बाप) को तकलीफ भी पहुंचाते हैं |

एक दूसरा वाकेया भी याद आ रह है जो उस वाकये से मिलता जुलता है जिसे बचपन में स्कूल की किताबों में पढ़ा था | कूड़ा फेकने वाली बुढिया और रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) का |एक बूढी औरत थी जो मक्के में उस दौर में रहती थी जब रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने लोगों को इस्लाम की बातें बतानी शुरू की | उस बूढी औरत को लोगों ने कहा यह कोई जादूगर है ,उससे दूर रहना क्यूँ की वो जिससे बात करता है या जो उससे मिलता है वो उसकी बातों में आ जाता है और इस्लाम को अपना धर्म मान लेता है |वो औरत इस बात से डर गयी और उसने मक्का छोड़ने का फैसला कर लिया | वो अपना सामान ले कर सफ़र पे निकल पडी | सामान वजनी था और औरत बूढी | बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ पा रही थी | उसे रास्ते में एक ख़ूबसूरत शख्स मिला जिसने उसका सामान उठा लिया और बोला कहाँ जाना है बता दो और उस बूढी औरत को उस इलाके के बहार पहुँच दिया |
रास्ते में वो औरत बताए जा रही थी की एक शख्स मक्के में हैं, जादूगर है ,लोगों को गुमराह कर रहा है, इसीलिए वो उस शख्स की पहुँच से दूर जा रही है | जब वो बूढी उस ख़ूबसूरत शख्स की मदद से मंजिल पे पहुँच गयी तो उस औरत ने कहा बेटा  तुमने अपना नाम नहीं बताया ? कौन हो और कहाँ के हो ? उस ख़ूबसूरत शख्स ने जवाब दिया मैं वही मुहम्मद हूँ जिसके बारे में तुम रास्ते में मुझे बता रही थी और जिससे दूर तुम जाना चाह रही हो | उस औरत को बड़ा ताज्जुब हुआ और उसने पुछा की तुम सब कुछ जानते थे फिर भी मुझे मंजिल पे पहुंचा दिया और मेरी इतनी मदद की | क्यूँ ?

रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने कहा इस्लाम में अल्लाह का हुक्म है कि कमज़ोर ,बूढों और मजबूर की मदद करो ,इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो किस धर्म को मानने वाला है |
वो बूढी औरत रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के क़दमो पे गिर पड़ी और कहने लगी जिस धर्म के कानून इतने अच्छे हैं उसे बताने वाला जादूगर या गलत कैसे हो सकता है ?

इन उदाहरण से यह बात साफ़ है की मुसलमान अपनी सीरत से पहचाना जाता है और जिसकी सीरत पैग़म्बर ऐ इस्लाम हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) से जुदा हो वो कुछ भी हो सकता है मुसलमान नहीं हो सकता |
आज के मुसलामो को समझना चाहिए की जैसे वो बूढी औरत लोगों के बहकाने में आ के गुमराह हो गयी और इस्लाम को खराब मज़हब और हज़रात मुहम्मद(स.अ.व) को जादूगर समझने लगी थी वैसे ही आज का आम इंसान भी इस्लाम को गलत समझने लगा है |तुम केवल अपने अच्छे किरदार से और हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) की सीरत पे चल के ही दूसरों की ग़लतफ़हमी को दूर कर सकते हो |धर्म कोई भी हो इंसानियत का पैगाम देता है फिर आज का इंसान नफरतों के बीज बो के क्यों अपने  ही धर्म को बदनाम करता है ?
अमन पसंद इंसान किसी भी धर्म का हो सभी को अच्छा लगता है |



आज अपने एक ब्लॉगर मित्र के शब्द भी यहाँ शामिल कर रहा हूँ आप भी पढ़ें और सुने |
अ-मन अर्थात अपने मन के पूर्वाग्रहों से उत्पन्न वैमनस्य के दमन से ही समाज में अमन की बयार बह सकती है. अपने मन के विचारों को ही उत्कृष्ट मानकर समाज से अपेक्षा करना की पूरा समाज हमारे मनोअनुकूल चले, आपसी द्वेष को बढ़ाने वाला होता है. अमन वहीँ पनपता है जहाँ सभी सच्चे मन से सबके विचारों का आदर करते हुए जीवन जीए, ना की समाज में अपनी अपनी मान्यताओं को थोपने का दुराग्रह रखें...अमित शर्मा

लेखक :एस.एम्.मासूम

कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:89-107, जादू टोना और यहूदी

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सूरए बक़रह की ८९ नवासीवीं आयत इस प्रकार है।

और जब ईश्वर की ओर से उनके लिए क़ुरआन नामक किताब आई (जो उन निशानियों के अनुकूल थी जो उनके पास थीं) और इससे पूर्व वे काफ़िरों पर विजय की शुभ सूचना दिया करते थे, तो जब उनके पास वे वस्तुएं आ गईं जिन्हें वे पहचान चुके थे, तो उन्होंने उनका इन्कार कर दिया तो इन्कार करने वालों पर ईश्वर की धिक्कार हो। (2:89)
 पिछले कार्यक्रमों में हम ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम तथा तौरेत के आदेशों के समक्ष बनी इस्राईल के इन्कार और हठ के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये थे। ये आयत इस्लाम के उदय के समय के यहूदियों से संबंधित है कि जो तौरेत में आने वाली पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की निशानियों के आधार पर उनके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे और इसी कारण वे अपना देश और अपनी धरती छोड़ कर हेजाज़ अर्थात आज के सऊदी अरब आ गए थे।
 मदीना नगर तथा उसके समीप रहने वाले यहूदी, मदीने के अनेकेश्वरवादियों से कहते थे कि शीघ्र ही मोहम्मद नाम का एक पैग़म्बर आएगा और हम उसपर ईमान लाएंगे और वो अपने शत्रुओं पर विजयी होगा।
 परन्तु जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मदीने की ओर हिजरत की तो वहां के अनेकेश्वरवादी उनपर ईमाल ने आए किन्तु यहूदियों ने संसारप्रेम और हठ के कारण उनका इन्कार कर किया और वास्तव मे उन्होंने तौरेत की भविष्यवाणियों का इन्कार किया।
 ये आयत बताती है कि केवल ज्ञान और पहचान पर्याप्त नहीं है बल्कि सत्य स्वीकार करने और उसके समक्ष झुकने की भावना भी आवश्यक है। यद्यपि यहूदी और विशेषकर उनके विद्वान, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को पहचान चुके थे परन्तु सत्य को स्वीकार करने और उसके समक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं थे।
सूरए बक़रह की ९०वीं आयत इस प्रकार है।
उन्होंने कितनी बुरी वस्तु के बदले में स्वयं को बेच दिया कि ईष्या के कारण उसका इन्कार करने पर तैयार हो गए जिसे ईश्वर ने उतारा था, क्योंकि ईश्वर अपनी दया से अपने बन्दों में से जिस पर भी चाहे अपनी आयतें उतारता है, तो वे ईश्वर के निरंतर प्रकोप में फंस गए और इन्कार करने वालों के लिए अपमानजनक दंड है। (2:90)
 यहूदियों को आशा थी कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम भी बनी इस्राईल के मूल से होंगे ताकि वे उन पर ईमान लाएं, परन्तु जब उन्होंने देखा कि ऐसा नहीं है तो वे जातीय द्वेष और ईर्ष्या के कारण इस्लाम नहीं लाए, यहां तक कि उन्होंने इस बात पर ईश्वर पर आपत्ति भी की।
 यहूदियों ने इस कार्य द्वारा घाटे का सौदा किया, क्योंकि वे पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लाने के लिए लम्बी यात्राओं की कठिनाइयां झेलकर मदीने आए थे, और वे स्वयं इस्लाम के प्रचारक थे, परन्तु केवल हठ और ईर्ष्या के कारण वे काफ़िर हो गए और स्वयं को ईर्ष्या के दामों बेच दिया और अपना लक्ष्य प्राप्त न कर सके।
सूरए बक़रह की इकानवेवीं आयत इस प्रकार है।
और जब उनसे कहा जाता कि जो कुछ ईश्वर ने उतारा है उसपर ईमान ले आओ तो वे कहते कि हम केवल उसी बात पर ईमान लाएंगे जो हमारे (पैग़म्बर) पर उतरी है। और उसके अतिरिक्त बातों का इन्कार कर देते। जबकि ये (क़ुरआन) सत्य है और उनके पास ईश्वरीय आयतों में से जो कुछ है, उसकी पुष्टि करता है। हे पैग़म्बर उनसे कह दो यदि तुम उन बातों पर ईमान रखते जो तुम पर उतारी गई हैं तो इससे पहले तुम लोगों ने पैग़म्बरों की हत्या क्यों की। (2:91)
 यह आयत यहूदियों को संबोधित करते हुए कहती है, यदि अपने भूल का न होने के कारण तुम मोहम्मद पर ईमान नहीं लाए तो तुम उन पैग़म्बरों को क्यों झुठलाते और उनकी हत्या करते थे, जो तुम्हारे ही मूल के थे?
 अतः तुम सत्य के विरोधी हो और इसमें कोई अंतर नहीं है कि सत्य को तुम्हारे पैग़म्बर प्रस्तुत करें या पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तुम्हारी तौरेत से आया हो या क़ुरआन में।
 मूल रूप से आसमानी किताबों में जो कुछ आया है वो एक ईश्वर की ओर से और सभी लोगों के लिए आया है तथा किसी भी जाति या मूल से विशेष नहीं है कि कोई ये कहे कि मैं केवल उसी बात पर ईमान रखता हूं जो हमारे पैग़म्बर लाए हैं और उसके अतिरिक्त किसी भी बात को नहीं मानता हूं।
क्योंकि आसमानी किताबों में जो बातें आई हैं वो सारी की सारी एक ही दिशा में है और एक दूसरे से समन्वित हैं, उनमें विपरीतता नहीं पाई जाती जैसा कि विश्व विद्यालय की पाठ्य पुस्तकें, कालेज की पाठ्य पुस्तकों से समन्वित और उनके अनुकूल होती हैं परन्तु अधिक परिपूर्ण रूप में।
सूरए बक़रह की बानवेवीं आयत इस प्रकार है।
निःसन्देह, मूसा तुम्हारे लिए अनके चमत्कार लाए, परन्तु तुम ने उनकी अनुपस्थिति में बछड़े को (ईश्वर के स्थान पर) मान लिया जबकि तुम अत्याचारी थे। (2:92)
 इस बात का दूसरा तर्क कि यहूदियों ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के अरब होने को, उनपर ईमान ल जाने का एक बहाना बना रखा था ये था कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम स्वयं उन्हीं के मूल के थे और उनके लिए अनेक स्पष्ट चमत्कार लाए थे।
 परन्तु जब हज़रत मूसा नूर नामक पहाड़ पर तौरेत लेने के लिए गए तो बनी इस्राईल ने बछड़े की पूजा आरंभ कर दी और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के सारे कष्टों पर पानी फेर दिया। वास्तव में उन्होंने स्वयं पर भी और अपने नेता पर भी अत्याचार किया।
अब सूरए बक़रह की ९३ तिरानवेवीं आयत इस प्रकार है।
और याद को उस समय को जब हम ने तुमसे प्रतिज्ञा ली थी और तूर पहाड़ की चोटियों को तुम्हारे ऊपर उठा दिया था और तुम से कहा था कि जो कुछ हमने तौरेत और उसके आदेशों में से तुम्हें दिया है उसको मज़बूती से पकड़ो और सुनो। परन्तु उन्होंने कहाः हमने सुना और अवज्ञा की। अपने कुफ़्र के कारण उन्होंने अपने हृदय में बछड़े को बसा लिया। हे पैग़म्बर उनसे कह दो कि तुम्हारा ईमान तुम्हें जिस बात का आदेश देता है वो कितनी बुरी बात है, यदि तुम ईमान रखते हो। (2:93)
 हमने कहा था कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर ईमान न लाने के लिए यहूदी जाति का एक बहाना ये था कि वो बनी इस्राईल से नहीं हैं और हम केवल उसी पैग़म्बर पर ईमान लाएंगे जो हमारी जाति का हो, और हम केवल मूसा की किताब तौरेत का पालन करेंगे।
 क़ुरआन ने पिछली आयतों में कुछ उदाहरण देकर ये सिद्ध कर दिया है कि ये अपने पैग़म्बर हज़रते मूसा और उनकी किताब तौरे पर भी ईमान नहीं रखते और उसके विपरीत काम करते हैं, इस आयत में भी ऐसे ही एक उदाहरण का वर्णन हुआ है।
 ईश्वर ने तूर नामक पहाड़ पर बनी इस्राईल से कुछ बातों की प्रतिज्ञा ली थी और उनसे कहा था कि उन प्रतिज्ञाओं पर प्रतिबद्ध रहें, परन्तु उन लोगों ने सुनने के बाद भी अवज्ञा की।
 क्योंकि अनेकेश्वरवाद तथा संसारप्रेम, जिसका एक उदाहरण सामरी के सोने के बछड़े की उपासना थी, उनके हृदय में इतना अधिक रच बस गया था कि सोच विचार और ईमान के लिए कोई स्थान नहीं बचा था और रोचक बात ये है कि इतनी सारी अवज्ञा से बाद भी उन्हें ईमान का दावा था।
 क़ुरआन उनके उत्तर में स्वयं उन्हीं से एक प्रश्न करता है कि क्या तुम्हारा ईमान तुम्हें आदेश देता है कि तुम ईश्वर की प्रतिज्ञा तोड़ो, बछड़े की पूजा करो और ईश्वरीय पैग़म्बरों की हत्या करो? यदि ऐसा ही है तो तुम्हारा ईमान तुम्हें बुरे आदेश देता है।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या बातें सीखीं।
 यदि हम देखते हैं कि आज यहूदी और ईसाई, इस्लाम स्वीकार नहीं करते तो हमें इस्लाम की सत्यता में सन्देह नहीं करना चाहिए, बल्कि उनमें से बहुत से ऐसे हैं जो सत्य को समझ चुके हैं परन्तु अहं और आत्मिक इच्छाओं के कारण उसे स्वीकार नहीं करते जैसा कि मदीने के यहूदी पैग़म्बरे इस्लाम को पहचान गए थे परन्तु उनपर ईमान नहीं लाए।
 ईर्ष्या कुफ़्र व इन्कार का कारण बनती है, बनी इस्राईल ने जब देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम उनमें से नहीं हैं तो उन्होंने ईर्ष्या के कारण उनका इन्कार कर दिया और उन्हें झुठलाया।
 ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी हद से अधिक प्रेम ख़तरनाक है क्योंकि वह मनुष्य को वास्तविकताएं देखने नहीं देता। जब एक बछड़े की सोने की प्रतिमा ने बनी इस्राईल के हृदय में स्थान बना लिया, तो उनकी दृष्टि में ईश्वर, मूसा तथा तौरेत के आदेशों का महत्व समाप्त हो गया तथा उसके स्थान पर अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा ने जड़ पकड़ ली।

सूरए बक़रह; आयतें 94-98 (कार्यक्रम 38)
सूरए बक़रह की ९४वीं और ९५वीं आयतें इस प्रकार हैं।
हे पैग़म्बर! उन यहूदियों से कह दीजिए कि यदि प्रलय का घर स्वर्ग ईश्वर के पास तुम्हारे ही लिए है न कि अन्य लोगों के लिए तो यदि तुम सच्चे हो तो मृत्यु की आशा करो। (2:94) परन्तु हे पैग़म्बर उन्होंने जो बुरे कर्म स्वयं से पहले भेज रखे हैं उनके कारण वे कदापि मृत्यु की आशा नहीं करेंगे। और ईश्वर अत्याचारियों के कर्मों से पूर्णतः अवगत है। (2:95)
 यहूदी स्वयं को उत्तम समुदाय समझते रहे थे और उनका विचार था कि स्वर्ग को उन्ही के लिए बनाया गया है, नरक की आग उनके लिए नहीं है, वे ईश्वर के बच्चे और मित्र हैं।
 इन ग़लत विचारों के कारण एक ओर तो वे स्वतंत्रतापूर्वक हर प्रकार के अपराध, अत्याचार, पाप और विद्रोह करते थे और दूसरी ओर घमंड, स्वाभिमान और अहंकार में ग्रस्त रहते थे।
 यह आयत उनकी अंतरात्मा को फ़ैसले के लिए झिंझोड़ती है और कहती है कि यदि वास्तव में ऐसा ही जैसा तुम दावा करते हो और स्वर्ग केवल तुम्हारे लिए ही है तो तुम लोग मृत्यु की कामना क्यों नहीं करते कि जल्दी से स्वर्ग में चले जाओ, क्यों तुम लोग मौत से डरते हो और उससे भागते हो?
 मृत्यु के भय, यात्रा से वाहन चालक के भय के समान है, यात्रा से वो चालक भयभीत रहता है जो मार्ग को नहीं पहचानता या जिसके पास पेट्रोल नहीं होता या जिसने ट्रैफ़िक के क़ानून को तोड़ा होता है, या तस्करी का माल लेकर जा रहा होता है, या जिसका गंतव्य में कोई आवास नहीं होता। जबकि वास्तविक मोमिन रास्तें को भी पहचानता है और अच्छे कर्मों द्वारा रास्ते का ईंधन भी अपने पास रखता है। वो तौबा अर्थात पश्चाताप और प्राइश्चित द्वारा अपने उल्लंघनों की क्षतिपूर्ति भी कर देता है और उसके पास तस्करी का माल अर्थात पाप और अत्याचार भी नहीं होता है। प्रलय में उसके पास रहने का ठिकाना भी होगा जो कि स्वर्ग है।
 अधिकांश लोग जो मृत्यु से डरते हैं उनके भय का कारण इन दो बातों में से एक है। या तो वो मृत्यु को अंत समझते हैं और प्राकृतिक रूप से हर जीव अपने अंत से भयभीत रहता है, या वो प्रलय पर विश्वास रखते हैं परन्तु अपने बुरे कर्मों के कारण मृत्यु से डरते हैं क्योंकि वे मृत्यु को अपने कर्मों के फ़ैसले का आरंभ समझते हैं, इसीलिए वे चाहते हैं कि उनकी मृत्यु देर से आए।
 परन्तु पैग़म्बर और ईश्वरी दूत कि जो एक ओर मृत्यु को अंत नहीं बल्कि एक नए जीवन का आरंभ समझते हैं और दूसरी ओर उन्होंने विचार और व्यवहार में केवल अच्छी बातें की हैं, वे न केवल ये कि मृत्यु से नहीं डरते बल्कि उससे मिलने को उत्सुक रहते हैं।
 जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने बारे में कहते हैं, ईश्वर की सौगंध अली को मृत्यु की चाह, दूध से शिशु की चाह से भी अधिक है।
सूरए बक़रह की ९६वीं आयत इस प्रकार है।
और (हे पैग़म्बर) तुम यहूदियों को सांसारिक जीवन के प्रति लोगों यहां तक कि अनेकेश्वरवादियों की तुलना में अधिक लोभी पाओगे, यहां तक कि उनमें से हर एक चाहता है कि हज़ार वर्ष की आयु बिताए, हलांकि यदि उन्हें ये लम्बी आयु दे भी दी जाए तो उन्हें दंड से नहीं रोक पाएगी और ईश्वर उनके कर्मों को देखने वाला है। (2:96)
 यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती है यहूदी जो ये दावा करते हैं कि स्वर्ग केवल उन्हीं के लिए है, न केवल ये कि मृत्यु की कामना नहीं करते कि शीघ्र ही स्वर्ग में चले जाएं बल्कि अन्य लोगों यहां तक कि अनेकेश्वरवादियों से भी अधिक इस संसार के जीवन का लोभ रखते हैं जबकि अनेकेश्वरवादी तो प्रलय को स्वीकार ही नहीं करते और मृत्यु को ही अपने जीवन का अंत समझते हैं।
 वे सांसारिक जीवन से इतना प्रेम करते हैं कि चाहते हैं इस संसार में हज़ार वर्षों तक जीवन व्यतीत करें, यहां तक कि वे दुर्भाग्य से पूर्ण अत्यंत तुच्छ जीवन व्यतीत करने के लिए भी तैयार हैं ताकि ईश्वरीय दंड और प्रकोप से भी बचे रहें और सांसारिक धन बटोरने का प्रयास भी करते रहें।
 परन्तु ईश्वर कहता है कि यदि उन्हें हज़ार वर्ष की आयु दे भी दी जाए तक भी वो ईश्वरीय दंड से उनकी मुक्ति का कारण नही बन सकती क्योंकि उनके सभी कर्म ईश्वर की दृष्टि में हैं और इन बचकाना आशाओं का कोई लाभ नहीं है।
सूरए बक़रह की ९७वीं और ९८वीं आयतें इस प्रकार हैं।
(हे पैग़म्बर उन लोगों से जो ये कहते हैं कि यिद जिब्रईल तुम्हारे लिए वहय अर्थात ईश्वरीय सन्देश लाते हैं, तो हम तुम पर ईमान नहीं लाएंगे क्योंकि हम जिब्रईल के शत्रु हैं) कह दो कि जो जिब्रईल का शत्रु है (वास्तव में वह ईश्वर का शत्रु है) क्योंकि जिब्रईल ने ईश्वर के आदेश से क़ुरआन को तुम्हारे हृदय पर उतारा है, वो क़ुरआन जो पहले की आस्मानी किताबों की पुष्टि करने वाला और ईमान वालों के लिए शुभ सूचना है। (2:97) और जो कोई भी ईश्वर, उसके फ़रिश्तों व पैग़म्बरों और जिब्रईल व मीकाईल का शत्रु है तो (वह जान ले कि) ईश्वर काफ़िरों का शत्रु है। (2:98)
 जब पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम मदीने आए तो यहूदियों का एक गुट अपने एक ज्ञानी के साथ उनके पास आया और उनसे कुछ प्रश्न किये, उन्होंने एक प्रश्न ये किया कि उस फ़रिश्ते का क्या नाम है जो आपके पास ईश्वरीय संदेश लेकर आता है। जब पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि उसका नाम जिब्रईल है तो उन्होंने कहा कि यदि वो मीकाईल होता तो हम ईमान ले आते क्योंकि जिब्रईल हमारा शत्रु है और जेहाद अर्थात धर्मयुद्ध जैसे कड़े आदेश लाता है। 
 जब मनुष्य सत्य को स्वीकार न करना चाहे तो वो बहाने ढूंढता है, यहां तक कि वो किसी फ़रिश्ते पर बेजा कड़ाई का आरोप लगाने पर ही तैयार हो जाता है कि शायद सत्य को स्वीकार न करने का कोई मार्ग बचा रहे। बिल्कुल उस नटखट विद्यार्थी की भांति जो गणित के अध्यापक को बुरा और खेल के अध्यापक को अच्छा समझता है।
 नैतिक रूप से ईश्वरीय फ़रिश्ते चाहे जिब्रईल हों या मीकाईल, अपनी ओर से कोई आदेश नहीं लाते कि उनसे मित्रता या शत्रुता की जाए। वे ईश्वर के आदेश के अतिरिक्त कुछ नहीं करते वे केवल ईश्वर और उसके पैग़म्बरों के बीच केवल एक माध्यम हैं अतः यहूदियों की बातें इस्लाम स्वीकार न करने के लिए केवल एक बहाना थीं न कि इस्लाम स्वीकार करने के लिए कोई स्वीकारीय तर्क।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
 मनुष्य को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि वो सदैव, हर पल मरने के लिए तैयार रहे। उसने अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन किया हो और पापों की प्राइश्चित द्वारा भरपाई कर ली हो, इस दशा में मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं है। 
 लम्बी आयु महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आयु की विभूति मूल्यवान है जो ईश्वर के सामिप्य में है। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम एक प्रार्थना में कहते हैं, प्रभुवर यदि मेरी आयु तेरे आज्ञापालन का साधन हो तो उसे लंबा कर दे परन्तु यदि वो शैतान की शिकारगाह हो तो उसे समाप्त कर दे।
 धर्म कई बातों के एक समूह का नामक है तथा उसकी हर बात पर आस्था रखना आवश्यक है, ये नहीं कहा जा सकता मैं ईश्वर पर ईमान रखता हूं परन्तु इस फ़रिश्ते को शत्रु समझता हूं या उस पैग़म्बर पर विश्वास नहीं रखता। सच्चा मोमिन ईश्वर और उसके सभी पैग़म्बरों और फ़रिश्तों पर ईमान रखता है। 


�सूरए बक़रह की ९९वीं आयत इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर) हमने तुम्हारी ओर स्पष्ट आयतें भेजीं हैं कि जिनका इन्कार अवज्ञाकारियों के अतिरिक्त कोई नहीं करता। (2:99)

  मदीना नगर के यहूदी इस्लाम स्वीकार न करने के लिए विभिन्न प्रकार के बहाने बनाते थे उदाहरण स्वरूप उन्होंने कहा कि चूंकि जिब्रईल ने ये आयतें तुम पर उतारी हैं अतः हम तुम पर ईमान नहीं लाएंगे। इस आयत में उनके एक अन्य बहाने का उल्लेख हुआ है।
 वे कहते हैं कि हम इस किताब से कुछ नहीं समझते और इसकी बातें हमारे लिए अस्पष्ट हैं अतः हम तुम पर ईमान नहीं लाएंगे और क़ुरआन को तुम्हारे चमत्कार के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे।
 जबकि क़ुरआन के अध्ययन तथा उसकी आयतों पर सोच विचार करके सरलता से पैग़म्बरे इस्लाम की नुबुव्वत अर्थात उनके ईश्वरीय दूत होने की सच्चाई और क़ुरआन की महानता को समझा जा सकता है, अलबत्ता इस वास्तविक्ता को केवल वही लोग समझ सकते हैं जिनके हृदय पाप के कारण अन्धकारमय न हो गए हों और जो सत्य को स्वीकार करने की योग्यता रखते हों।
 क्योंकि पाप, कुफ़्र का आधार है और मनुष्य अनुचित इच्छाओं के पालन द्वारा कुफ़्र की ओर झुकने लगता है और सत्य को छिपाने का प्रयास करता है, क्योंकि यदि वो सत्य को स्वीकार करले तो सरलता से पाप नहीं कर सकता। 
सूरए बक़रह की सौवीं आयत इस प्रकार है।
क्या ऐसा नहीं था कि हर बार जब उन यहूदियों ने ईश्वर से प्रतिज्ञा की तो उनमें एक गुट ने उसे तोड़ दिया और उसका विरोध किया, बल्कि इनमें से अधिकांश ईमान नहीं लाएंगे। (2:100)
 यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को सांत्वना देते हुए कहती है कि यदि यहूदी ईमान नहीं लाते तो तुम निराश मत हो क्योंकि ये वहीं समुदाय है जो अपने पैग़म्बर के प्रति भी वफ़ादार नहीं रहा है और इसने जब भी हज़रत मूसा से कोई प्रतिज्ञा की तो उसे अवश्य तोड़ दिया तथा बहाने बाज़ी और हठ में इनका बड़ा पुराना इतिहास है।
 जब पैग़म्बरे इस्लाम मदीने पहुंचे तो वहां के यहूदियों ने उनसे समझौता किया कि वे कम से कम उनके शत्रुओं की सहायता नहीं करेंगे परन्तु उन्होंने इस समझौते को भी तोड़ दिया और अहज़ाब नामक युद्ध में उन्होंने मुसलमानों के विरुद्ध मक्के के अनेकेश्वरवादियों का साथ दिया।
 आज भी ज़ायोनी इस्राईल में किसी भी अंतर्राष्ट्रीय समझौते या क़ानून पर प्रतिबद्ध नहीं हैं और यदि वे किसी समझौते पर हस्ताक्षर कर भी देते हैं तो शीघ्र ही उसका उल्लंघन कर देते हैं क्योंकि यहूदी एक जातिवादी और वशिष्टताप्रेमी समुदाय है।
अब सूरए बक़रह की आयत नंबर १०१ का अनुवाद प्रस्तुत करते हैं।
और जब (पैग़म्बरे इस्लाम) ईश्वरीय दूत के रूप में उनके पास आए, जिसकी निशानियां उनके पास मौजूद निशानियों के अनुकूल थीं तो उनमें से एक गुट ने, जिसके पास आस्मानी किताब थी, ईश्वर की किताब को इस प्रकार पीछे डाल दिया मानो उसके बारे में उन्हें कोई ख़बर ही न हो। (2:101)
 पैग़म्बरे इस्लाम के आगमन से पूर्व यहूदियों के धर्मगुरू लोगों को उनके आने की शुभ सूचना दिया करते थे और तौरेत में वर्णित उनकी निशानियों का उल्लेख करते थे परन्तु जब उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम को देखा तो इस प्रकार उनका इन्कार किया मानो उनके बारे में उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं हो।
 जी हां, पद प्रेम का ख़तरा, सभी लोगों विशेषकर ज्ञानियों को लगा रहता है। जब यहूदियों के ज्ञानियों और धर्मगुरूओं को ये आभास हुआ कि यदि वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की सत्यता को स्वीकार करलें तो उनका सांसारिक पद उनसे छिन जाएगा तो उन्होंने पैग़म्बर के ईश्वरीय दूत होने का इन्कार कर दिया।
 अलबत्ता पवित्र क़ुरआन जो न्याय के आधार पर इतिहास का वर्णन करता है, यहूदियों के अच्छे और पवित्र लोगों के अधिकारों को सुरक्षित रखता है और कहता है कि उनमें से अधिक्तर ने इन्कार किया, अर्थात उनके एक गुट ने सत्य को स्वीकार किया यद्यपि उनकी संख्या कम ही थी।
अब सूरए बक़रह की आयत नंबर १०२ का अनुवाद प्रस्तुत करते हैं।
यहूदियों ने तौरेत का अनुसरण करने के स्थान पर सुलैमान के काल में जो कुछ जादू टोने शैतान पढ़ा करते थे उसका अनुसरण किया जबकि सुलैमान ने कभी भी अपने हाथों को जादू टोने से दूषित नहीं किया और काफ़िर नहीं हुए बल्कि वो शैतान काफ़िर हुए जो लोगों को जादू टोना सिखाते थे। और यहूदियों ने शहर बाबिल के दो फ़रिश्तों हारूत और मारूत पर जो कुछ उतारा गया था उसका अनुसरण किया, यद्यपि वे दोनों लोगों को कुछ नहीं सिखाते थे, जब तक कि कह न देते थे कि हम तो बस तुम्हारी परीक्षा का माध्यम हैं तो तुम इसे सीख कर कुफ़्र में न पड़ता। तो ये लोग उनसे केवल वो चीज़ सीखते जिसके द्वारा पति पत्नी में फूट डाल सकें, यद्यपि यह लोग उससे ईश्वर के आदेश के बिना किसी को कोई हानि नहीं पहुंचा सकते थे, और ये वो चीज़ सीखते थे जो उनके लिए हानिकारक थी, लाभदायक नहीं थी। और वे भलि भांति जानते थे कि जो कोई इस चीज़ का ग्राहक हुआ उसका प्रलय में कोई भाग नहीं होगा, क्या ही बुरी चीज़ है जिसके बदले उन्होंने अपने प्राणों का सौदा किया, क्या ही अच्छा होता कि वे इसको जानते। (2:102)
 हज़रत सुलैमान पैग़म्बर के काल में जादू टोने का बहुत अधिक प्रचलन था अतः उन्होंने आदेश दिया कि सभी जादूगरों की पोथियों को एकत्रित किया जाए और उनकी देखभाल की जाए परन्तु उनके पश्चात एक गुट को वो पोथियां मिल गईं और उन्होंने समाज में जादू की शिक्षा और उसे फैलाना आरंभ किया।
 यह आयत कहती है कि बनी इस्राईल के कुछ लोगों ने तौरेत का अनुसरण करने के स्थान पर, जादू टोने की उन्ही किताबों का अनुसरण किया और अपने कार्य के औचित्य में कहा कि ये किताबें सुलैमान से संबंधित हैं और वे एक बहुत बड़े जादूगर थे।
 क़ुरआन उनके उत्तर में कहता है, सुलैमान कदापि जादूगर नहीं थे बल्कि वो ईश्वरीय दूत हैं और उन्होंने जो कुछ किया वो जादू नहीं चमत्कार था और तुम लोगों ने उन शैतानों का अनुसरण किया जो इन बातों को प्रचलित करते थे।
 अलबत्ता यहूदियों ने एक अन्य मार्ग से भी जादू सीखा था। वह इस प्रकार कि हारूत व मारूत नामक दो ईश्वरीय फ़रिश्ते मनुष्य के रूप में आकर बाबिल नगर के लोगों को जादू का तोड़ सिखाते थे।
 यद्यपि ये दो फ़रिश्ते लोगों को ये आदेश देते रहते थे कि उन्हें इस पद्धति का ग़लत प्रयोग नहीं करना चाहिए परन्तु वे लोग इस ज्ञान का दुरुपयोग करके अपने भौतिक हितों व लक्ष्यों की पूर्ति किया करते थे।
 बहरहाल यहूदियों ने इन दो मार्गों से जादू सीख लिया था और उसे अपने अनैतिक हितों के लिए प्रयोग कर रहे थे जबकि वे जानते थे कि जादू का परिणाम कुफ़्र के समान है और वो परिवार तथा समाज को नुक़सान पहुंचाता है।
 ये आयत बताती है कि जादू वास्तविक्ता रखता है और मानव जीवन में प्रभावशाली है, परन्तु चूंकि हर बात ईश्वर के हाथ में है अतः उससे शरण मांग कर तथा उसपर भरोसा करके और प्रार्थना और दान दक्षिणा द्वारा जादू के बुरे परिणामों से बचा जा सकता है।
 इसी प्रकार यह भी ज्ञात होता है कि ज्ञान सीखना भी सदैव लाभदायक नहीं होता यदि सीखने वाला अच्छा आदमी न हो तो वो ज्ञान द्वारा लोगों की सेवा के स्थान पर समाज में बुराई फैलाता है।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
 यदि हम देखते हैं कि बहुत से मनुष्य ईमान लाने के लिए तैयार नहीं हैं तो हमें ईश्वरीय धर्मों में सन्देह नहीं करना चाहिए बल्कि ये समझना चाहिए कि पाप और अपराध मनुष्य की आत्मा पर इतना प्रभाव डालता है कि वो सत्य को स्वीकार करने की तत्परता खो बैठता है।
 केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं है बल्कि सत्य को स्वीकार करने की भावना भी आवश्यक है। यहूदियों के ज्ञानियों को तौरेत के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम की सत्यता का ज्ञान था परन्तु न केवल ये कि वे स्वंय उनपर ईमान नहीं लाए बल्कि दूसरों को भी उनपर ईमान लाने से रोकते थे।
 ज्ञान सदैव लाभदायक नहीं है बल्कि वो एक तेज़ चाक़ू की भांति है कि यदि डाक्टर के हाथ में हो तो रोगी की मृत्यु से मुक्ति का कारण बनता है और यदि किसी हत्यारे के हाथ में हो तो स्वस्थ मनुष्य की मौत का कारण बनता है।
 शैतान, पति-पत्नी के बीच मतभेद उत्पन्न करने और समाज में फूट डालने का प्रयास करते हैं जबकि फ़रिश्ते पति-पत्नी के बीच सुधार व शांति चाहते हैं। मनुष्यों के भी दो गुट हैं एक गुट शैतान के मार्ग पर चलता है तथा दूसरा फ़रिश्तों के मार्ग पर।


सूरए बक़रह की आयत नंबर १०३ इस प्रकार है। 
यदि वे ईमान लाते और ईश्वर से भयभीत रहते तो निःसन्देह, उनके लिए ईश्वर के पास जो बदला है वो बेहतर था, यदि वे जानते होते। (2:103)
 पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि यहूदी जाति, तौरेत व अन्य आस्मानी किताबों का अनुसरण करने के स्थान पर जादू टोने से संबन्धित किताबों की ओर आकृष्ट हुई। अपने इस कार्य के औचित्य के लिए वे हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम को जादू टोने का स्रोत बताते थे, परन्तु क़ुरआन ने हज़रत सुलैमान को इस लांछन से दूर और पवित्र बताया।
 यह आयत कहती है कि यदि यहूदी वास्तविक ईमान रखते और इस प्रकार के अनुचित कार्यों और निराधार आरोपों से दूर रहते तो उनके लिए बेहतर था क्योंकि केवल ईमान ही पर्याप्त नहीं है बल्कि अपने कार्यों की देख-रेख और पवित्रता भी आवश्यक है।
 ईश्वर से भयभीत रहना केवल बुरे कार्यों से बचने का नाम नहीं है बल्कि ये एक आंतरिक शक्ति है जो मनुष्य को झूठ जैसे बुरे कार्य से भी रोकती है और नमाज़ जैसे अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करती है।
आइए अब सूरए बक़रह की आयत क्रमांक १०४ इस प्रकार है।
हे ईमान लाने वालो, पैग़म्बर से मोहलत मांगने के लिए "राएना"शब्द मत कहो (क्योंकि यहूदियों के समीप ये एक प्रकार का अपशब्द है) बल्कि कहो, "उन्ज़ुरना" (अर्थात हमें समय या मोहलत दीजिए) इस बात को सुनो और जान लो कि काफ़िरों के लिए ख़तरनाक दण्ड है। (2:104)
 जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम भाषण कर रहे होते या ईश्वरीय आयतों की तिलावत कर रहे होते तो इस्लाम के उदय के समय के मुसलमान उनकी बातों को अच्छे ढंग से समझने के लिए, उनसे निवेदन करते कि वे उनकी स्थिति के अनुसार बात करें।
 अपना यह निवेदन वे "राएना"शब्द कहकर करते जिसका अर्थ है हमारा भी ध्यान रखें परन्तु इब्रानी या हिब्रू भाषा में इस शब्द का अर्थ मूर्खता है और यहूदी, मुसलमानों का परिहास करते थे कि तुम अपने पैग़म्बर से निवेदन करते हो कि वे तुम्हें मूर्ख बनाएं।
 अतः आयत आई कि "राएना"शब्द के स्थान पर "उन्ज़ुरना"शब्द कहो जिसका अर्थ भी वही है जो राएना का है ताकि शत्रु दुरुपयोग न कर सकें और इसे तुम्हारे और पैग़म्बर के परिहास का साधन न बनाएं, और मूल रूप से तुम्हें हर उस शब्द और कार्य से बचना चाहिए जो शत्रु के हाथ कोई बहाना दे।
 यह आयत बताती है कि इस्लाम, बड़े लोगों और अध्यापकों से बात करते समय उचित शब्दों का चयन और उनके सम्मान पर ध्यान देता है और मुसलमानों को हर उस कार्य से रोकता है जो पवित्र चीज़ों के अपमान या परिहास और शत्रु के द्वारा दुरूपयोग का कारण बनता हो।
आइए अब सूरए बक़रह की १०५वीं आयत है।
आसमानी किताब रखने वाले काफ़िर और इसी प्रकार अनेकेश्वरवादी नहीं चाहते कि तुम्हारे पालनहार की ओर से तुम्हारे लिए विभूति भेजी जाए जबकि ईश्वर जिसको चाहता है अपनी दया को उसके लिए विशेष कर देता है और वो महान कृपालु है। (2:105)
 यह आयत मोमिनों के प्रति काफ़िरों और अनेकेश्वरवादियों की शत्रुता और द्वेष का उल्लेख करती है कि वे ईर्ष्या के कारण ये नहीं देख सकते कि मुसलमानों के पास कोई आस्मानी किताब और पैग़म्बर हो और वे अन्य आसमानी किताब वालों की ग़लत बातों और उनके द्वारा की गई उलटफेर के विरुद्ध संघर्ष करें।
 इस आयत में ईश्वर कहता है कि वे अपनी दया व कृपा के आधार पर, जिसे बेहतर समझता है पैग़म्बर बनाता है और उसे लोगों की इन इच्छाओं से कुछ लेना- देना नहीं कि वो पैग़म्बर इस जाति का हो या उस जाति का, इस क़बीले का हो या उस क़बीले का।
सूरए बक़रह की आयत नंबर १०६ इस प्रकार है।
हम जिस आदेश या आयत को स्थगित करते हैं या उसके उतारने में विलंब करते हैं तो उस से बेहतर या उसी के समान ले आते हैं क्या तुम नहीं जानते कि ईश्वर इस बात की शक्ति व क्षमता रखता है। (2:106)
 आरंभ में मुसलमानों का क़िबला बैतुलमुक़द्दस की दिशा में था परन्तु चूंकि यहूदी इस बात को बहाना बनाकर कहते थे कि तुम मुसलमानों का कोई स्वाधीन धर्म नहीं है इसी कारण तुम लोग हमारे क़िबले की दिशा में खड़े होते हो, अतः ईश्वर के आदेश पर बैतुल मुक़द्दस के स्थान पर काबे को मुसलमानों का क़िबला बना दिया गया।
 इस बार यहूदियों ने दूसरी आपत्ति की कि यदि पहला क़िबला ठीक था तो उसे क्यों बदला गया? और दूसरा ठीक है तो तुम्हारे पहले के सारे कर्म बेकार हो गए।
 क़ुरआन उनकी इन आपत्तियों के उत्तर में कहता है कि हम किसी भी आदेश को स्थगित नहीं करते या उसमें विलंब नहीं करते सिवाए इसके कि उससे बेहतर या उसी के समान कोई विकल्प लाएं। क़िबले का परिवर्तन या काबे की मुसलमानों के क़िबले के रूप में घोषणा में विलंब के विभिन्न तर्क और लक्ष्य हैं जिनसे तुम अनभिज्ञ हो।
 चूंकि इस्लामी आदेश तर्क और युक्ति के अधीन हैं अतः समय, स्थान या परिस्थितियों के बदलने से संभावित रूप से कार्यों की युक्ति परिवर्तित हो सकती है तथा पिछला आदेश रद्द और उसके स्थान पर अन्य आदेश आ सकता है। अलबत्ता ईश्वरीय आदेशों की मूल नीतियां स्थिर हैं और उनमें परिवर्तन नहीं हो सकता परन्तु आंशिक बातों विशेषकर प्रशासनिक मामलों में ये कार्य स्वीकारीय है।
 यह आयत बताती है इस्लाम में कोई बंद गली नहीं है अर्थात इसमें हर समस्या का समाधान मौजूद है क्योंकि वो एक विश्वव्यापी और स्थाई धर्म है, स्थिर आदेशों के साथ ही इस्लाम के हितों के अनुकूल उसमें परिवर्तित होने वाले क़ानून भी हो सकते हैं।
सूरए बक़रह की आयत नंबर १०७ इस प्रकार है।
क्या तुम्हें नहीं मालूम कि धरती व आकाशों पर ईश्वर का राज्य व स्वामित्व है? और उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई भी सहायक और अभिभावक नहीं है? (2:107)
 पिछली आयत के पश्चात जिसमें कुछ ईश्वरीय आदेशों के स्थगन का उल्लेख हुआ था, यह आयत कहती है कि जो लोग ईश्वरीय आदेशों में परिवर्तन पर आपत्ति करते हैं क्या वे ईश्वर के संपूर्ण राज्य व स्वामित्व पर ध्यान नहीं देते? क्या वे नहीं जानते कि ईश्वर मनुष्य सहित सृष्टि की हर वस्तु का स्वामी है और उसे ये अधिकार प्राप्त है कि वो अपनी इच्छा और सलाह के अनुसार आदेशों और क़ानूनों में परिवर्तन करे।
 बनी इस्राईल के मन में ईश्वर के स्वामित्व और राज्य की ग़लत कल्पना थी और समझते थे कि ईश्वर अपने राज को लागू करने में अक्षम है, जबकि ईश्वर हर बात की क्षमता रखता है चाहे सृष्टि व रचना का मामला हो, चाहे क़ानून बनाने का या उन क़ानूनों में परिवर्तन का।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
 केवल ईमान ही पर्याप्त नहीं है बल्कि अपने कर्मों की देखभाल और ईश्वर से भयभीत रहना भी आवश्यक है ताकि ईमान के वृक्ष को हर प्रकार की मुसीबत और ख़तरे से बचाया जा सके।
 शत्रु हमारी गतिविधियों यहां तक कि हमारे शब्दों पर भी दृष्टि रखे हुए है अतः हमें हर उस कार्य या बात से बचना चाहिए जो शत्रु के हाथ कोई ऐसा बहाना दे दे जिसे वह इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध प्रयोग करे।
 इस्लाम के शत्रु चाहते हैं कि हर प्रकार की प्रगति और उन्नति उनके हाथ में रहे, उन्हें यह बात पसंद नहीं है कि कोई भी प्रगति या विभूति मुसलमानों को प्राप्त हो अतः उनपर भरोसा नहीं करना चाहिए और न ही उनमें कोई आशा रखनी चाहिए बल्कि केवल ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए।
 आदेश बनाना या उनमें परिवर्तन और विलंब ईश्वर के हाथ में है और वह मानवता की स्थाई और परिवर्तनशील आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर, विवेक और मानव हितों के अनुसार कोई क़ानून बनाता या उसे परिवर्तित करता है।

हजरत अली की कीर्ति और प्रेमचंद |

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“कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका प्रभा में सन 1923 में प्रेमचंद का एक लेख हजरत अली शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
हजरत अली की कीर्ति जितनी उज्ज्वल और चरित्र जितना आदर्श है उतना और किसी का न होगा। वह फकीर, औलिया नहीं थे। उनकी गणना राजनीतिज्ञों या विजेताओं में भी नहीं की जा सकती। लेकिन उन पर जितनी श्रद्धा है, चाहे शिया हो चाहे सुन्नी, उतनी और किसी पर नहीं। उन्हें सर्वसम्मति ने 'शेरे खुदा’, 'मुश्किल कुशा’ की उपाधियां दे रखी हैं। समरभूमि में मुस्लिम सेना धावा करती है तो 'या अली’ कह कर। उनकी दीन-वत्सलता की सहस्त्रों किवदंतियां प्रचलित हैं। इस सर्वप्रियता, भक्ति का कारण यही है कि अली शांत प्रकृति, गंभीर,  धैर्यशील और उदार थे।

हजरत अली हजरत मुहम्मद के दामाद थे। विदुषी फातिमा का विवाह अली से हुआ था। वह हजरत मुहम्मद के चचेरे भाई थे। मरदों में सबसे पहले वही हजरत मुहम्मद पर विश्वास लाए थे। इतना ही नहीं मुहम्मद का पालन-पोषण उन्हीं के पिता अबूतालिब ने किया था। मुहम्मद साहब को उनसे बहुत प्रेम था और उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनके बाद अली ही खिलाफत की मसनद पर बिठाए जाएं। पर नियम से बंधे होने के कारण वह इसे स्पष्ट रूप से न कह सकते थे। अली में अमर, अधिकार-भोग की लालसा होती तो वह मुहम्मद के बाद अपना हक अवश्य पेश करते, लेकिन वह तटस्थ रहे और जनता ने अबूबक्र को खलीफा चुन लिया। अबूबक्र के बाद उमर फारूक खलीफा हुए, तब भी अली ने अपना संतोष-व्रत न छोड़ा। फारूक के बाद उस्मान की बारी आई। उस वक्त अली के खलीफा चुने जाने की बहुत संभावना थी, किंतु यह अवसर भी निकल गया, पक्ष बहुत बलवान होने पर भी खिलाफत न मिल सकी। इस घटना का स्पष्टीकरण इतिहासकारों ने यों किया कि जब निर्वाचक मंडल के मध्यस्थ ने अली से पूछा, 'आप पर खलीफा होकर शास्त्रानुसार शासन करेंगे न?’ अली ने कहा, 'यथासाध्य।’ मध्यस्थ ने यही प्रश्न उस्मान से भी किया। उस्मान ने कहा,  'ईश्वर की इच्छा से, अवश्य करूंगा।’ मध्यस्थ ने उस्मान को खलीफा बना दिया। मगर अली को अपने असफल होने का लेशमात्र भी दु:ख नहीं हुआ। वह राज्य कार्य से पृथक रहकर पठन पाठन में प्रवृत्ति हो गए। इतिहास और धर्मशास्त्र में वह पारंगत थे। साहित्य के केवल प्रेमी ही नहीं, स्वयं अच्छे कवि थे। उनकी कविता का अरबी भाषा में आज भी बड़ा मान है किंतु राज्यकार्य से अलग रहते हुए भी वह खलीफा उस्मान को कठिन अवसरों पर उचित परामर्श देते रहते थे।

अरब जाति को इस बात का गौरव है कि उसने जिस देश की विजय की सबसे पहले कृषकों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया। ईराक, शाम, ईरान सभी देशों में कृषकों पर भूपतियों के अत्याचार होते थे। मुसलमानों ने इन देशों में पदार्पण करते ही प्रजा को भूपतियों की निरकुंशता से निवृत्त किया। यही कारण था कि प्रजा मुसलमान विजेताओं को अपना उद्धारक समझती थी और सहर्ष उनका स्वागत करती थी। यही लोग पहुंचते ही नहरे बनवाते थे, कुएं खुदवाते थे, भूमि कर घटाते थे और भांति-भांति की बेगारों की प्रथा को मिटा देते थे। यह नीति खलीफा अबूबक्र और खलीफा उमर दोनों ही के शासनकाल में होती रही। यह सब अली के ही सत्परामर्शों का फल था। वह पशुबल से प्रजा पर शासन करना पाप समझते थे। उनके हृदयों पर राज्य की भित्ति बनाना ही उन्हें श्रेयस्कर जान पड़ता था।

खलीफा उसमान धर्मपरायण पुरुष थे, किंतु उनमें दृढ़ता का अभाव था। वह निष्पक्षभाव से शासन करने में समर्थ न थे। वह शीघ्र ही अपने कुल वालों के हाथ की कठपुतली बन गए। विशेषत: मेहवान नाम के एक पुरुष ने उन पर अधिपत्य जमा लिया। उस्मान उसके हाथों में हो गए। सूबेदारों ने प्रांतों में प्रजा पर अत्याचार करने शुरू किए। उन दिनों शाम (सीरिया) की सूबेदारी पर मुआविया नियत थे जो आगे चलकर अली के बाद खलीफा हुए। मुआविया के कर्मचारियों ने प्रजा को इतना सताया कि समस्त प्रांत में हाहाकार मच गया। प्रजावर्ग के नेताओं ने खलीफा के यहां आकर शिकायत की। मेहवान ने इन लोगों का अपमान किया और उन पर राज-विद्रोह का लांछन लगाया। लेकिन दूतों ने कहा कि जब तक हमारी फरियाद न सुनी जाएगी और हमको अत्याचारों से बचाने का वचन न दिया जाएगा हम यहां से कदापि न जाएंगे। खलीफा उस्मान को भी ज्ञात हो गया कि समस्या इतनी सरल नहीं है, दूतगंग असंतुष्ट होकर लौटेंगे तो संभव है, समस्त देश में कोई भीषण स्थिति उत्पन्न हो जाए। उन्होंने हजरत अली से इस विषय में सलाह पूछी। हजरत अली ने दूतों का पक्ष लिया और खलीफा को समझाया कि इन लोगों की विनय-प्रार्थना को सुनकर वास्तविक स्थिति का अन्वेषण करना चाहिए और यदि सूबेदार और उस के कर्मचारियों का अपराध सिद्ध हो जाए तो धर्मशास्त्र के अनुसार उन्हें दंड देना चाहिए। हम यह कहना भूल गए कि उस्मान बनू उस्मानिया वंश के पूर्व पुरुष थे। इस वंश में चिरकाल तक खिलाफत रही। लेकिन यह वंश बनू हाशिमिया का सदैव से प्रतिद्वंद्वी था जिसमें हजरत मुहम्मद उमर अली आदि थे। अतएव उस्मान के अधिकांश सूबेदार सेनानायक बनू उस्मिाया वंश के ही थे और वह सब हजरत अली को सशंक नेत्रों से देखते थे और मन ही मन द्वेष भी रखते थे। हजरत अली की सलाह इन लोगों को पक्षपातपूर्ण मालूम हुई और वह इस की अवहेलना करना चाहते थे किंतु खलीफा को अली पर विश्वास था, उनकी सलाह मान ली, नेताओं को आश्वासन दिया कि हम शीघ्र ही सूबेदार के अत्याचारों की तहकीकात करेंगे और तुम्हारी शिकायतें दूर कर दी जाएंगी। उस्मान के बाद हजरत अली खलीफा चुने गए। यद्यपि उन्हें हजरत मुहम्मद के बाद ही चुना जाना चाहिए था।

खिलाफत की बागडोर हाथ में लेते ही अली ने स्वर्गवासी उस्मान के नियत किए हुए सूबेदारों को जो प्रजा पर अभी तक अत्याचार कर रहे थे, पदच्यूत कर दिया और उनकी जगह पर धर्मपरायण पुरुषों को नियुक्त किया। कितनों की ही जागीरें जबरदस्ती कर प्रजा को दे दीं, कई कर्मचारियों के वेतन घटा दिए।

मुआविया ने शाम में बहुत बड़ी शक्ति संचित कर ली थी। इसके उपरांत वह सभी आदमी जो परलोकवासी खलीफा उस्मान के खून का बदला लेना चाहते थे और हजरत अली को इस हत्या का प्रेरक समझते थे, मुआविया के पास चले गए थे। 'आस’ का पुत्र 'अमरो’ इन्हीं द्वेषियों में था। अतएव जब अली शाम की तरफ बढ़े तो मुआविया एक बड़ी सेना से उनका प्रतिकार करने को तैयार था। हजरत अली की सेना में कुल 8 हजार योद्धा थे। जब दोनों सेनाएं निकट पहुंच गई तो खलीफा ने फिर 'मुआविया’ से समझौता करने की बातचीत की। पर जब विश्वास हो गया कि लड़ाई के बगैर कुछ निश्चय न होगा तो उनने 'अशतर’ को अपनी सेना का नायक बना कर लड़ाई की घोषणा कर दी। यह शत्रुओं की लड़ाई नहीं, बंधुओं की लड़ाई थी। मुआविया की सेना ने फरात नदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और खलीफा की सेना को प्यासा मार डालने की ठानी। अशतर ने देखा पानी के बिना सब हताश हो रहे हैं तो उसने कहला भेजा, 'पानी रोकना युद्ध के नियमों के अनुकूल नहीं है, तुम नदी किनारे से सेना हटा लो।’ मुआविया की भी राय थी कि इतनी क्रूरता न्याय विहीन है, पर उसके दरबारियों ने जिनमें 'आस’ का बेटा 'अमरो’ प्रधान था, उस का विरोध किया। अंत में अशतर ने विकट संग्राम के बाद शत्रुओं को जल तट से हटा कर अपना अधिकार जमा लिया। अब इन लोगों की भी इच्छा हुई कि शत्रुओं को पानी न लेने दें पर हजरत अली ने इस पाशविक रणनीति का तिरस्कार किया और अशतर को जल तट से हटने की आज्ञा दी।

इसके बाद मुहर्रम का पवित्र मास आ गया। इस महीने में मुसलमान जाति के लड़ाई करना निषिद्ध है। हजरत अली ने तीन बार अपने दूत भेजे लेकिन मुआविया ने हर बार यही जवाब दिया कि अली ने उस्मान की हत्या कराई है। वह खिलाफत छोड़ दे और उस्मान के घातकों को मेरे सुपुर्द कर दें। मुआविया वास्तव में इस बहाने से स्वयं खलीफा बनना चाहता था। वह अली के मित्रों को भांति-भांति के प्रलोभनों से फोडऩे की चेष्टा किया करता था। जब मुहर्रम का महीना यों ही गुजर गया तो खलीफा ने रिसालों की तैयारी की अज्ञा दी और सेना को उपदेश किया कि जब तक वे  लोग तुम से न लड़े तुम उन पर कदापि आक्रमण न करना। जब वह पराजित हो जाए तो भागने वालों का पीछा न करना और न ही उनका वध करना। घायलों का धन न छीनना, किसी को नग्न मत करना और न किसी स्त्री का सतीत्व भ्रष्ट करना, चाहे वे तुम लोगों को गालिया भी दें। दूसरे ही दिन लड़ाई शुरू हुई और 20 दिनों तक जारी रही। एक बार वह शाम की सेना की सफों को चीरते हुए मुआविया के पास जा पहुंचे और उसे ललकार कर कहा, ञ्चयों व्यर्थ दोनों तरफ के वीरों का रक्त बहाते हो, आओ हम और तुम अकेले आपस में निपट लें। पर मुआविया अली के बाहुबल को खूब जानता था। अकेले निकलने का साहस न हुआ।

दसवें दिन सारी रात लड़ाई होती रही। शुक्र का दिन था। मध्याह्न काल बीत गया, किंतु दोनों सेनाएं युद्धस्थल में अचल खड़ी थीं। सहसा अशतर ने अपनी समग्र शक्ति को एकत्र करके ऐसा धावा किया कि शामी सेना के कदम उखड़ गए। इतने में आस के बेटे अमरो को एक उपाय सूझा। उसने मुआविया से कहा अब क्या देखते हो, मैदान तुम्हारे हाथ से जाना चाहता है, लोगों को हुक्म दो कि कुरान शरीफ अपने भालों पर उठाएं और उच्च स्वर से कहें, 'हमारे और तुक्वहारे बीच में कुरान है।’ अगर वह लोग कुरान की मर्यादा रखेंगे तो यह मारकाट इसी दम बंद हो जाएगी। अगर न मानेंगे तो उनमें मतभेद अवश्य हो जाएगा। इसमें भी हमारा ही फायदा है। कुरान नेजों पर उठाए गए। अली समझ गए कि शत्रुओं ने चाल चली। सिपाहियों ने आगे बढ़ने से इनकार किया और कहने लगे हमको हार जीत की चिंता नहीं है हम तो केवल न्याय चाहते हैं यदि वह लोग न्याय करना चाहते हैं तो हम तैयार हैं। अशतर ने सेना को समझाया, मित्रों, यह शत्रुओं की कपटनीति है, इनमें से एक भी कुरान का व्यवहार नहीं करता, इन्होंने केवल अपनी प्राण रक्षा के लिए यह उपाय किया है। किंतु कौन सुनता।

जब चारों ओर शांति छा गई तो कीस के बेटे 'आशअस’ ने हजरत अली से कहा कि अब मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं जाकर मुआविया से पूछूं कि तुमने क्यों शरण मांगी है। जब वह मुआविया के पास आए तो उसने कहा, मैंने इसलिए शरण मांगी है कि हम और तुम दोनों अल्लाहताला से न्याय की प्रार्थना करें। दोनों तरफ से एक-एक मध्यस्थ चुन लिया जाए। लोगों ने 'अबूमूसा अशअरी’ को चुना। अली ने इस निर्वाचन को अस्वीकार किया और कहा मुझे उन पर विश्वास नहीं है, वह पहले कई बार मेरी अमंगल कामना कर चुके हैं। पर लोगों ने एक स्वर से अबूमूसा को ही चुना। निदान अली को भी मानना पड़ा। दोनों मध्यस्थों में बड़ा अंतर था। आस का बेटा अमरो बड़ा राज-नीति कुशल दांव-पेंच जानने वाला आदमी था। इसके प्रतिकूल अबूमूसा सीधे-सादे मौलवी थे और मन में अली से द्वेष भी रखते थे। अभी यहां यह विवाद हो ही रहा था कि अमरो ने आकर पंचायतनामें की लिखा-पढ़ी कर ली। फैसला सुनाने का समय और स्थान निश्चित कर दिया गया और हजरत अली अपनी सेना के साथ कूफा को चले। इस अवसर पर एक विचित्र समस्या आ खड़ी हुई जिसने अली की कठिनाईयों को द्विगुण कर दिया। वही लोग लड़ाई बंद करने के पक्ष में थे अब कुछ सोच-समझ कर लड़ाई जारी रखने पर आग्रह करने लगे। पंचों की नियुक्ति भी उन्हें सिद्धांतों के विरुद्ध जान पड़ती थी। लेकिन खलीफा अपने वचन पर दृढ़ रहे। उन्होंने निश्चय रूप से कहा कि जब लड़ाई बंद कर दी गई तो वह किसी प्रकार जारी नहीं रखी जा सकती। इस पर उनकी सेना के कितने ही योद्धा रुष्ट होकर अलग हो गए। उन्हें 'खारिजी’ कहते हैं। इन खारिजियों ने आगे चलकर बड़ा उपद्रव किया और हजरत अली की हत्या के मुख्य कारण हुए।

इधर खारीजीन ने इतना सिर उठाया कि खलीफा ने जिन महानुभावों को उनको समझाने-बुझाने भेजा उन्हें कत्ल कर दिया। इस पर अली ने उन्हें दंड देना आवश्यक समझा। नहरवां की लड़ाई में उनके सरदार मारे गए और बचे हुए लोग खलीफा के प्रति कट्टïर बैर भाव लेकर इधर-उधर जा छिपे। अब अली ने शाम पर आक्रमण करने की तैयारी की लेकिन सेना लड़ते-लड़ते हतोत्साहित हो रही थी। कोई साथ देने पर तैयार न हुआ। उधर मुआविया ने मिस्र देश पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया। खलीफा की तरफ से 'मुहक्वमद बिन अबी बक्र’ नियुक्त थे। मआविया ने पहले उसे रिश्वत देकर मिलाना चाहा लेकिन जब इस तरह दाल न गली तो अमरो को एक सेना देकर मिस्र की ओर भेजा। अमरो ने मिस्र के स्थायी सूबेदार को निर्दयता से मरवा डाला।

अली की सत्यप्रियता ने उनके कितने ही मित्रों और अनुगामियों को उनका शत्रु बना दिया। यहां तक कि इस महासंकट के समय उनके चचेरे भाई 'अबदुल्लाह’ के बेटे भी जो उनके दाहिने हाथ बने रहते थे उनसे नाराज होकर मक्का चले गए। अबदुल्लाह के चले जाने के थोड़े ही दिन बाद खारीजियों ने अली की हत्या करने के लिए एक षड्यंत्र रचा। मिस्र निवासी एक व्यक्ति जिसे मलजम कहते थे, अली को मारने का बीड़ा उठाया। इनका इरादा अली और मुआविया दोनों को समाप्त कर कोई दूसरा खलीफा चुनने का था।

शुक्र का दिन दोनों हत्याओं के लिए निश्चित किया गया। थोड़ी रात गई थी। अली मस्जिद में नियमानुसार निमाज पढ़ाने आए। मलजम मसजिद के द्वार पर छिपा बैठा था। अली को देखते ही उन पर तलवार चलाई। माथे पर चोट लगी। वहीं गिर पड़े। मलजम पकड़ लिया गया। खलीफा को लोग उठाकर मकान पर लाए। मलजम उनके सम्मुख लाया गया। अली ने पूछा तुमने किस अपराध के लिए मुझे मारा? मलजम ने कहा, तुमने बहुत से निरपराध मनुष्यों को मारा है। तब अली ने लोगों से कहा कि यदि मैं मर जाऊं तो तुम भी इसे मार डालना लेकिन इसी की तलवार से और एक ही वार करना। इसके सिवा और किसी को क्रोध के वश होकर मत मारना। इसके बाद उन्होंने अपने दोनों पुत्रों हसन और हुसेन को सदुपदेश दिया और थोड़ी देर बाद परलोक सिधारे। उन्होंने अपने पुत्रों में से किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने की चेष्टा तक न की। 



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