
यक़ीनन इमामबाड़ों में मिम्बर से ज़ाकिर को सुनने की अपनी ही एक अहमियत है लेकिन अगर कोरोना की मज़बूरी से यह बंद हुआ तो इसके कुछ फायदे भी हुए | जैसे की हमारे उलेमा जिनके पास इल्म है और सोशल मीडिया के जानकार है आज सोशल मीडिया के ज़रिये अपनी बात पूरी दुनिया तक पहुंचाना सीख गए जिनकी आवाज़ कल तक इमामबाड़ों में सिर्फ कुछ सौ अफ़राद तक ही महदूद थी | आज हमारे उलेमा यह सीखना चाहते हैं की कैसे वे मजलिस ऑनलाइन पढ़ सकते हैं जो की एक अच्छी शुरुआत है |
उसी तरह दूसरा बड़ा फायदा यह हुआ की सोशल मीडिया के इस्तेमाल से सिर्फ वे ज़ाकिर या उलेमा ही अपनी बात या मजलिसें दुनिया तक पहुंचाने की हिम्मत करेंगे जिनके पास इल्म है और जिनके पास इल्म नहीं है वे इसका इस्तेमाल करते हुए डरेंगे क्यों की सोशल मीडिया पे उन्हें पूरी दुनिया सुनेगी और एक सुबूत के तौर पे इनकी मजलिसें मौजूद रहेगी इसलिए वे इसका इस्तेमाल करने की हिम्मत नहीं कर सकेंगे या करते हुए डरेंगे | आप यह भी कह सकते हैं की वे लोग जो अब तक कुछ लोगों के बीच मिम्बर का ग़लत इस्तेमाल कर रहे थे और उलटी सीधी हदीस हवाले और ज़िक्र लोगो तक पहुंचा के उनका ईमान खराब कर रहे थे अब वे ऐसा सोशल मीडिया पे करने की हिम्मत नहीं करेंगे और क़ौम को इन जाहिल ज़ाकिरों से नजात मिल सकेगी |
ऐसे ज़ाकिर जो अल्लाह से मिम्बर पे बैठते हुए नहीं डरते अब क़ौम के दुनिया वालों के डर से अपने घरों में ही बैठेंगे | क़ौम को चाहिए की वे ऐसे ज़किरो को पहचान लें और आइंदा से सिर्फ उसी ज़ाकिर को मिम्बर पे बैठने दें जिसे इस बात का खौफ ना हो की कोई उनकी मजलिस रिकॉर्ड कर के सोशल मीडिया पे डाल देगा जो उनकी जहालत का सुबूत बनेगा |
यहां यह कहता चलूँ की इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं की जो उलेमा अभी तक ऑनलाइन मजलिस पढ़ना नहीं जानते या नहीं कर सके वे जाहिल हैं | यक़ीनन वक़्त के साथ साथ वे भी इस हुनर को सीख जाएँगे क्यों अपनी बात हज़ारों करोड़ों दुनिया के लोगों तक एक बार में पहुंचा देने का सवाब हमरे उलेमा से ज़्यादा कौन जानता है |
अल्लाह से दुआ करता हूँ की ऐ खुदा कम सा कम मुहर्रम में इमामबाड़े खुल जाएँ और मजलिसों का सिलसिला शुरू हो जाय और यह भी दुआ करता हूँ की क़ौम इतनी बेदार हो जाय की मिम्बर पे किसी ना अहल को ना बैठने दें जो आपका ईमान कब ले के चला जायगा पता ही नहीं चलेगा |
