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Channel: हक और बातिल
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Days of Muharram

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Taboot of Imam Hussainयह इस्लामी महीना अपने साथ जो यादें लेकर आता है यदि उनको समझा जाए तो मुहर्रम की विशेष मजलिसों अर्थात सभाओं व जुलूसों आदि का कारण समझ में आ जाता है। आइए पहले मुहर्रम की पृष्ठभूमि को समझते हैं।  सन ६१ हिजरी क़मरी में इतिहास में एक ऐसी  ही महान घटना घटी जो शताब्दियां बीतने  के बावजूद अब भी बहुत से सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है।  मुहर्रम के आरंभ में हम करबला की महान घटना की याद दिलाते हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर सलाम भेजते हैं।  ईश्वर का सलाम हो उस महान इमाम पर जो, सम्मान और महानता के शिखर पर चमकता रहा और जिसने मानवता को अमिट तथा अमर पाठ सिखाया।  सलाम हो इमाम हुसैन और उनके उन निष्ठावान साथियों पर जिन्होंने इस्लाम की बुलंदी के लिए निःसंकोच अपनी जानें न्योछावर कर दीं।
 
 
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने ऐसी परिस्थितियों  में अपना पवित्र आन्दोलन आरंभ किया कि जब इस्लाम की शुद्ध एवं मूल शिक्षाओं के लिए गंभीर ख़तरे उत्पन्न हो गए थे और उसके पतन का भय आरंभ हो चुका था।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम देख रहे थे कि पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को धीरे-धीरे भुलाया जा रहा है और बनी उम्मैया के शासक धन, बल तथा अत्याचार के सहारे लोगों पर शासन कर रहे थे।  इस बात के दृष्टिगत कि इस्लाम में नेतृत्व के महत्वपूर्ण दायित्वों में से एक, लोगों का स्पष्ट मार्ग की ओर मार्गदर्शन करना है, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने काल में व्याप्त बुराइयों और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठ खड़े होने का संकल्प किया।  यही कारण है कि उन्होंने कहा था कि हे लोगो! जान लो कि बनी उमय्या सदैव शैतान के साथ हैं।  इन्होंने ईश्वर के आदेशों को छोड़ दिया है और वे भ्रष्टाचार को सार्वजनिक कर रहे है।  वे ईश्वरी नियमों को भुला बैठे हैं तथा जनकोष को उन्होंने स्वयं से विशेष कर लिया है अर्थात उसका दुरूपयोग कर रहे हैं।  बनी उमय्या ने ईश्वर की हलाल चीज़ों को हराम और हराम चीज़ों को हलाल कर दिया है। 
 
बनी उमय्या के शासनकाल में घुटन के वातावरण ने आम लोगों के दिलों में भय व्याप्त कर दिया था।  यह भय इतना अधिक था कि कोई भी उस काल में अपना अधिकार लेने का साहस ही नहीं कर पाता था और यदि कोई बहुत साहस करके अपना अधिकार लेने का कोई प्रयास करता भी तो उसका कोई परिणाम नहीं निकलता था।  उस काल की बहुत सी जानीमानी धार्मिक हस्तियों ने बनी उमय्या की तानाशाही और उसके अत्याचारपूर्ण व्यवहार के कारण मौन धारण कर रखा था और वे इमाम हुसैन को भी सांठगांठ करने का निमंत्रण देते थे।  विदित रूप से तो सभी नमाज़ पढ़ते, रोज़ा रखते, हज करते और अन्य धार्मिक कार्य किया करते थे किंतु उनकी उपासनाएं खोखली थीं।  इसका कारण यह था कि इस प्रकार के मुसलमान अपने इर्दगिर्द की सामाजिक और राजनैतिक घटनाओं से निश्चेत थे।  इस बात को एक वाक्य में इस प्रकार कहा जा सकता है कि वे धर्म की वास्तविकता से बहुत दूर हो गए थे।  उनकी अज्ञानता तथा सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं के प्रति उनकी निश्चेतना ने, उन्हें सच और झूठ में अंतर को समझने के लिए कठिनाई में डाल दिया था।  लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि वे किस ओर जाएं?  लोगों में मायामोह इतना अधिक हो गया था कि इस बारे में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कहते हैं कि तुम देख रहे हो कि अल्लाह के वचनों को तोड़ा जा रहा है किंतु तुम कुछ नहीं कह रहे हो और डर नहीं रहे हो।  जबकि इसके विपरीत अपने पूर्वजों की कुछ मान्यताओं के उल्लंघन के कारण तुम रोते हो।  पैग़म्बरे इस्लाम के वचनों को अनदेखा करने में तुमको कोई शर्म नहीं है।
 
 
ऐसी  खेदजनक एवं दयनीय स्थिति में वह कौन सी चीज़ थी जो धर्म को अत्याचारियों के चुंगल से निकालती?  एसे घुटन भरे वातावरण और इन विषम परिस्थितियों के दृष्टिगत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने लोगों को बुराई से मुक्त कराने के लिए कमर कस ली थी।  इमाम हुसैन का मानना था कि न केवल आस्था एवं आध्यात्म संबन्धी विषयों में बल्कि उस काल में समाज के राजनैतिक एवं सामाजिक विषयों में भी मूलभूत सुधार की नितांत आवश्यकता है।  उस काल की स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उसके सुधार के लिए यदि कोई शुद्ध नैतिक या सांस्कृतिक आन्दोलन आरंभ करते तो वे सफल नहीं हो पाते।  एसी स्थिति में जटिल समस्याओं से धर्म को निकालने के लिए उनके पास एकमात्र मार्ग यह था कि पहले तो वे यज़ीद की अत्याचारी सरकार को मान्यता न दें और दूसरे, इस भविष्य निर्धारक विरोध का मूल्य चुकाएं।
 
 
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अत्याचारी शासक के अन्यायपूर्ण व्यवहार की भर्तसना करते हुए न्यायप्रिय ईश्वरीय मार्गदर्शक के आदेश पर आधारित सही ईश्वरीय व्यवस्था के नियमों को इस प्रकार पेश किया कि पहले चरण में तो उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के कथन को प्रस्तुत करते हुए कहा, जो भी अत्याचारी शासक को देखे कि वह ईश्वर के आदेशों में फेर-बदल कर रहा है और हराम को हलाल तथा हलाल को हराम कर रहा है तथा इसपर वह मौन धारण कर ले और अपनी कोई प्रतिक्रिया न दिखाए तो उचित यह है कि ईश्वर उसको उसी अत्याचारी शासक के स्थान पर रखे अर्थात नरक की आग में डाले।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह वक्तव्य, इस्लामी राष्ट्र की आस्था और उसके वैचारिक नियमों का प्रतीक है।  यद्धपि ओमवी शासकों का राजनैतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व, मुसलमानों के बीच इन शिक्षाओं के पहुंचने में बाधा बना हुआ था और यही रुकावट, जनता की अज्ञानता का मुख्य कारण थी।  इसी विषय ने उमवी शासकों के लिए इस्लामी समाज के विरुद्ध अत्याचारों और उसके विरूद्ध कठोर नीति अपनाने की भूमि प्रशस्त कर दी थी।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस वास्तविकता से भलिभांति अवगत थे कि अत्याचारी शासक, धर्म के नाम पर लोगों पर शासन कर रहे हैं और इस बात के प्रयास में है कि इस्लाम से पूर्व के अज्ञानता काल को इस्लाम की आड़ में पुनर्जीवित किया जाए।  उन्होंने हलाल बातों को हराम और हराम बातों को हलाल कर दिया था।  यही कारण है कि यज़ीद के विरोध में अपना उद्देश्य बयान करते हुए इमाम हुसैन कहते हैं कि मैं अपने नाना की उम्मत में सुधार के लिए उठा हूं और मैं लोगों को अच्छाइयों का आदेश देना और बुराइयों से रोकना चाहता हूं और अपने नाना की शिक्षाओं और उनकी परंपराओं के अनुसार व्यवहार करना चाहता हूं।  वास्तव में यह बात कहकर इमाम हुसैन यह बताना चाहते हैं कि लोगो, जान लो वर्तमान समय में इस्लामी जगत की समस्या का मुख्य कारण पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं और उनकी परंपराओं से दूरी है।  इमाम हुसैन अच्छी तरह से जानते थे कि वर्तमान पथभ्रष्टता ने इस्लाम की मूल विचारधारा को ख़तरे में डाल दिया है और यदि यही स्थिति जारी रही तो धर्म की बहुत सी शिक्षाएं भुला दी जाएंगी और फिर केवल खोखला और तथाकथित इस्लाम ही बच जाएगा।  एसी स्थिति में कि जब यज़ीद जैसा भ्रष्ट व्यक्ति ईश्वरीय उत्तराधिकार के पद पर ज़बरदस्ती विराजमान है, जिसका भ्रष्टाचार सर्वविदित है तो एसे में इमाम की दृष्टि से किसी भी प्रकार की सुस्ती ठीक नहीं है क्योंकि एसी स्थिति के चलते इस बात की संभावना पाई जाती है कि निकट भविष्य में पैग़म्बरे इस्लाम के समस्त प्रयास विफल हो जाएं।
इमाम हुसैन का आन्दोलन वास्तव में एक चेतावनी था।  एसी चेतावनी जो हर काल के लिए थी और यही हुआ भी कि उनका आन्दोलन हर काल में इस्लाम प्रेमियों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया।  अतः यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि उन संकटग्रस्त एवं विषम परिस्थितियों में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन का मुख्य और महत्वपूर्ण उद्देश्य, लोगों को इस्लाम की वास्तविकता से अवगत करवाना था।  इस आधार पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन की समीक्षा करके यह बात पूरे विशवास के साथ कही जा सकती है कि उन्होंने इस्लाम को पुनर्जीवित किया है।


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