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मक्का हो गया सूना कोरोना के खौफ से | नयी तसवीरें वायरल आप भी देखिये |

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मक्का हो गया सूना कोरोना के खौफ से | नयी तसवीरें वायरल आप भी देखिये |



कोरोना वायरस (Coronavirus) महामारी चीन के वुहान शहर से फैलना शुरू हुई. इससे दुनियाभर में अब तक 4,600 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है. जबकि 1,26,000 से अधिक लोग इससे पीड़ित हैं. कोरोना वायरस महामारी के चलते विभिन्न देशों ने यात्रा प्रतिबंध भी लगा दिए हैं. सीएनबीसी की खबर के मुताबिक, मुसलमानों के सबसे बड़े धार्मिक स्थल मक्का (Mecca) का काबा (Kaaba) भी सूना हो गया है. वायरल हो रहीं तस्वीरों में धार्मिक स्थल खाली नजर आ रहा है| 






क्या केवल दुआओं से कोरोना जैसी महामारी से लड़ना इस्लाम का पैगाम है ?

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कोरोना वायरस ने आज पूरी दुनिया को ख़ौफ़ज़दा कर दिया है और हर इंसान एक ऐसे दुश्मन से लड़ने को तैयार दिखता है जो नज़र तो नहीं आता बल्कि इस बात का डर बना रहता है की ना जाने किस तरफ से उनके शिकार  हो जाएं | यक़ीनन कोरोना नाम के इन अनजान दुश्मन से लड़ने के लिए एक ही रास्ता दुनिया के डॉक्टरों को नज़रा आया की इसको फैलने से बचाया जाय | डॉक्टरों ने अपने अपने तरीके से इसे समझाया किसी ने कहा बार बार हाथ धोया जाय किसी ने मास्क की सलाह दी तो किसी ने एकांतवास का मश्विरा दिया | 

धार्मिक जानकारों ने भी अपने अपने तजुर्बे के अनुसार राह बतायी कोई बोलै दुआ करो तो कोई इस बात के लिए नहीं तैयार दिखता की महफ़िलों में ना जाय जाय और कोई महफ़िलों से भीड़ से बचने की सलाह देता नज़र आया | किसी ने दुआ बताई किसी अन्य तरीके बताय | 

अब यह तो संभव नहीं की हर की बात सही हो और हर एक की बात मानी भी जाय | ऐसे में हर धर्म का इंसान यह सोंच रहा की क्या किया जाय और क्या न किया जाय ? इस लेख में कोशिश करता हूँ उन मुसलमानो को समझाने की जो धर्म के प्रति अधिक झुके हुए हैं | 

इस्लाम की नज़र में कोई भी काम हो सबसे पहले इस बात का हुक्म है की आप लापरवाही न करें और खुद से कोशिश करें उस समस्या से बचने की और उसके बाद अल्लाह से दुआ करें | केवल मस्जिदों में बैठ के दुआ करने से किसी भी समस्या का हल संभव नहीं | 

अल तिर्मिज़ी ने एक रवायत नक़ल की है क़ि एक बार हज़रत मुहम्मद (स) ने देखा की एक खानाबदोश अपने ऊँट को खुला छोड़ के कही जा रहा था तो हज़रत ने उस से पुछा भाई क्यों अपने ऊँट को बांधते नहीं या कही चला गया तो क्या करोगे ? उस शख्स का जवाब था मुझे अल्लाह पे भरोसा है | 

हज़रत मुहम्मद (स) ने कहा तुम पहले अपने ऊँट को बाँध के रखो और उसके बाद अल्लाह पे भरोसा रखो वो इसकी हिफाज़त करेगा |  इस से साफ़ है की हज़रत मुहम्मद स ने इस बात को ज़ाहिर किया की पहले तुम खुद सावधानियां करो उसके बाद अल्लाह से दुआ करो तो ही वो मदद करेगा |  ऐसे ही कोरोना वायरस के लिए है की यह हमारी ज़िम्मेदारी है की पहले हम सावधानिया जाने और डॉक्टर जैसे जैसे इस से बचने के लिए कहता है उसे माने और फिर अल्लाह से दुआ करें | यक़ीनन अल्लाह मदगार है वो आपको इस से बचाएगा | 

डॉक्टर यही सलाह दे रहे हैं की कोरोना का शक होते ही उस इंसान को जो  हो चूका है समाज से अलग करो उसे लोगों से माइन जुलने से रोको , हाथ बार बार धोया करो इत्यादि | अब इन मशविरों को भी इस्लाम की नज़र से देखना शुरू किया तो मालूम हुआ की हज़रात मुहम्मद स ने इस बार बार स्वच्छता के बारे में बताया | 

एक बार हज़रत मुहम्मद (स) के समय में महारी प्लेग फैल गयी तो हज़रत ने फ़रमाया जिस गाँव में यह महामारी फैले वहाँ ना जाना और अगर यह महामारी उस इलाक़े में है जहां तुम रहते हो तो उस इलाक़े को छोड़ के दुसरी जगह ना जाना क्यों की ऐसा करने से तुम उसे स्वस्त लोगों तक पहुंचा दोगे | 

आज कोरोना के मामले में भी यही सावधानी बतायी जा रही है जिसे हमको सख्ती से मानना चाहिए की आप अगर ऐसे इलाके में हैं जहा यह फैली है तो अन्य इलाक़ों में जहां यह नहीं पहुंची ना जाएँ और दूसरों तक इसके फैलने से रोके और अगर आप ऐसे इलाक़े में हैं जहा लोग स्वस्थ है तो ऐसे इलाक़े से ऐसी महफ़िलों में ना जाएँ जहां से इसके आपको या आपसे दूसरों को लग जाने का खतरा हो | 

हदीस में साफ़ साफ़ लिखा है की हज़रत मुहम्मद स ने फ़रमाया "सफाई ईमान का एक हिस्सा है "सुबह सो के उठते ही सबसे पहले अपने हाथों को धोया करो और रिज़्क़ में इज़ाफ़ा चाहते हो तो खाने के पहले और बाद में हाथों को धोया करो | हदीस में साफ़ साफ़ कहा गया है बेहतर हैं की कोई शख्स पूरे दिन वज़ू से रहे तो वो हज़ारों मुसीबतों से बचेगा | यह वज़ू क्या है ? सिर्फ गन्दगी से दूर रहने स्वछता के साथ अल्लाह की क़ुरबत अख्तियार करने का एक तरीक़ा है | 

इसलिए हम सबको यह समझ लेना चाहिए की अल्लाह और उसके रसूल के बताय रास्ते पे चलते हुए कोरोना जैसे दुश्मन से लड़िये \ पहले खुद इसे फैलने से रोकिये सफाई पे ध्यान दीजे और आवश्यकता पड़ने पे दवाओं का इस्तेमाल करें और उसके साथ साथ अल्लाह से दुआ करें | 

केवल अल्लाह से दुआ करते रहना और इस्लामिक महफ़िलों इत्यादी की भीड़ में चले जाना बिना किसी सावधानी के उचित नहीं और इस्लाम के उसूलों के खिलाफ है | 

...  एस एम् मासूम 



इस्लाम में खुद खुशी हराम है सूरह ४: अन निसा

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यदि आपको यह मालूम हो चूका है की अगर आप सावधान न रहे तो आपको ऐसी बीमारी लग सकती है जो जानलेवा है और फिर भी  सावधानी नहीं बरत रहे तो यह खुद खुशी कहलाएगी | हाँ आपने सावधानी बरती फिर भी लग जाय तो मसला अलग है और यह ख़ुदकुशी में नहीं शामिल किया जा सकता |

इस्लाम में खुद खुशी हराम है और इसका ज़िक्र क़ुरआन की सूरह ४: अन निसा: आयत 29 में  मौजूद है  “(ऐ इंसानों !) अपने आप को क़त्ल मत करो” – (सूरह ४: अन निसा: आयत 29)

सहीह बुखारी में भी हदीस है की  मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः “जिसने अपने आप को पहाड़ से गिरा कर आत्म-हत्या की वह नरक की आग में भी इसी तरह हमेशा गिरता रहेगा और जिस व्यक्ति ने लोहे की हथियार से खुद को मारा वह नरक में भी हमेशा अपने पेट में हथियार घोंपता रहेगा।

खुदखुशी से बचिए सावधानी रखिये |

खौफ (डर ), नफरत , मानसिक अशांति , ईर्ष्या इत्यादि से बचें और कोरोना को दूर भगाएं

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कोरोना का शिकार वो आसानी से नहीं हो सकता जिसके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) मज़बूत होता है | खौफ (डर ), नफरत , मानसिक अशांति , ईर्ष्या इत्यादि प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर करते हैं | भरपूर नींद लेना , मानसिक शांति , फल फ्रूट खाना जिसमे ख़ास कर के विटामिन सी होता है इस प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने में सहायक होते हैं | अधिक जानकारी के लिए अपने डॉक्टर से मश्विरा लें |

इसलिए अपने शरीर  की प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करे और स्वस्थ रहे |



सेहत और बिमारियों के बारे में मासूमीन (अ) के क़ीमती अक़वाल|

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सेहते चश्म (आँख की देख रेख और इलाज )

१) अगर आँख में तकलीफ़ हो तो जब तक ठीक न हो जाये बायीं करवट सो। (रसूले ख़ुदा स0)

२) तीन चीज़ें आँख की रोशनी में इज़ाफ़ा करती हैं। सब्ज़े (हरियाली ) पर, बहते पानी पर और नेक चेहरे पर निगाह करना। ( इमाम मूसा काज़िम अ0)

३) मिसवाक करने से आँख की रौशनी में इज़ाफ़ा होता है। (हज़रत अली अ0)

४) खाने के बाद हाथ धो कर भीगे हाथ आँख पर फेरे दर्द नहीं करेगी। (इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)

५) जब भी तुम में से किसी की आँख दर्द करे तो चाहिये कि उस पर हाथ रख कर आयतल कुर्सी की तिलावत करे इस यक़ीन के साथ कि इस आयत की तिलावत से दर्दे चश्म ठीक हो जायेगा। (इमाम अली अ0)

६) जो सूर-ए-दहर की तीसरी आयत हर रोज़ पढ़े आँख की तकलीफ़ से महफ़ूज़ रहेगा। (इमाम अली अ0)

पेशाब की ज़्यादतीः
१) इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से एक शख़्स ने पेशाब की ज़्यादती की शिकायत की तो आप अ0 ने फ़रमाया  काले तिल खा लिया करो।
दस्तूराते उमूमी आइम्मा-ए-ताहिरीन अ0
सफेद दाग़ (बरस) का इलाज :-  

१) किसी ने इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से सफ़ेद दाग़ की शिकायत की। आपने फ़रमाया नहाने से पहले मेहदी को नूरा में मिला कर बदन पर मलो।

२) एक शख़्स ने इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 से बीमारी बरस की शिकायत की, आपने फ़रमाया तुरबते इमामे हुसैन अ0 की ख़ाक बारिश के पानी में मिलाकर इस्तेफ़ादा करो।

३) सहाबी इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 के बदन पर सफ़ेद दाग़ पैदा हो गए। आपने फ़रमाया सूर-ए-या-सीन को पाक बरतन पर शहद से लिख कर धो कर पियो।
४) इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0 ने फ़रमाया बनी इस्राईल में कुछ लोग सफ़ेद दाग़ में मुब्तिला हुए, जनाबे मूसा को वही हुई कि उन लोगों को दस्तूर दो कि गाय के गोश्त को चुक़न्दर के साथ पका कर खायें।

५) जो खाने के पहले लुक़्मे पर थोड़ा सा नमक छिड़क कर खाये, चेहरे के धब्बे ख़त्म हो जाएंगे।
कुछ आम हिदायतें सेहत के लिए |

१) बीमारी में जहाँ तक चल सको चलो। (इमाम अली अ0)
२) खड़े होकर पानी पीना दिनमें ग़िज़ा को हज़म करता है और रात में बलग़म पैदा करता है। ( इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)
३) हज़रत अली अ0 फ़रमाते हैं कि जनाबे हसने मुज्तबा अ0 सख़्त बीमार हुए। जनाबे फ़ातेमा ज़हरा स0 बाबा की खि़दमत में आयीं और ख़्वाहिश की कि फ़रज़न्द की शिफ़ा के लिये दुआ फ़रमायें उस वक़्त जिबराईल अ0 नाज़िल हुए और फ़रमाया ‘‘या रसूलल्लाह स0 परवरदिगार ने आप अ0 पर कोई सूरा नाज़िल नहीं किया मगर यह कि उसमें हरफ़े ‘फ़े'न हो और हर ‘फ़े'आफ़त से है ब-जुज़ सूर-ए-हम्द के कि उसमें ‘फ़े'नहीं है। पस एक बर्तन में पानी लेकर चालीस बार सूर-ए-हम्द पढ़ कर फूकिये और उस पानी को इमाम हसन अ0 पर डालें इन्शाअल्लाह ख़ुदा शिफ़ा अता फ़रमाएगा।''

४) अपने बच्चों को अनार खिलाओ कि जल्द जवान करता है। (इमाम जाफ़रे सादिक़ अ0)
५) रसूले ख़ुदा को अनार से ज़्यादा रूए ज़मीन का कोई फल पसन्द नहीं था। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
६) गाय का ताज़ा दूध पीना संगे कुलिया में फ़ायदा करता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
७) ख़रबूज़ा मसाने को साफ़ करता है और संग-मसाना को पानी करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
८) चुक़न्दर में हर दर्द की दवा है आसाब को क़वी करता है ख़ून की गर्मी को पुरसुकून करता है और हड्डियों को मज़बूत करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
९) जिस ग़िज़ा को तुम पसन्द नहीं करते उसको न खाना वरना उससे हिमाक़त पैदा होगी। (इमाम सादिक़ अ0)
१०) खजूर खाओ कि उस में बीमारियों का इलाज है।
११) दूध से गोश्त में रूइदगी और हड्डियों में कुव्वत पैदा होती है। (इमाम सादिक़ अ0)
१२) अन्जीर से हड्डियों में इस्तेक़ामत और बालों में नमू पैदा होती है और बहुत से अमराज़ बग़ैर इलाज के ही ख़त्म हो जाते हैं। (इमाम सादिक़ अ0)
१३) जो उम्र ज़्यादा चाहता है वह सुबह जल्दी नाश्ता खाये। (इमाम अली अ0)

खाना खाने के आदाब

१) तन्हा खाने वाले के साथ शैतान शरीक होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
२) जब खाने के लिये चार चीज़ें जमा हो जायें तो उसकी तकमील हो जाती है। 1. हलाल से हो 2. उसमें ज़्यादा हाथ शामिल हों 3. उसमें अव्वल में अल्लाह का नाम लिया जाये और 4. उसके आखि़र में हम्दे ख़ुदा की जाये। (रसूले ख़ुदा स0)
३) सब मिल कर खाओ क्योंकि बरकत जमाअत में है। (रसूले ख़ुदा स0)
४) जिस दस्तरख़्वान पर शराब पी जाये उस पर न बैठो। (रसूले ख़ुदा स0)
५) चार चीज़ें बरबाद होती हैंः शोराज़ार ज़मीन में बीज, चांदनी में चिराग़, पेट भरे में खाना और न एहल के साथ नेकी। (इमाम सादिक़ अ0)
६) जो शख़्स ग़िज़ा कम खाये जिस्म उसका सही और क़ल्ब उसका नूरानी होगा। (रसूले ख़ुदा स0)
७) जो शख़्स क़ब्ल व बाद ग़िज़ा हाथ धोए ताहयात तन्गदस्त न होए और बीमारी से महफ़ूज़ रहे। (इमाम सादिक़ अ0)
८) क़ब्ल तआम खाने के दोनों हाथ धोए अगर चे एक हाथ से खाना खाये और हाथ धोने के बाद कपड़े से ख़ुश्क न करे कि जब तक हाथ में तरी रहे तआम में बरकत रहती है। (इमाम सादिक़ अ0)

हज़रत अली अ0 फ़रमाते हैंः

१) कोई ग़िज़ा न खाओ मगर यह कि अव्वल उस तआम में से सदक़ा दो।
२) ज़्यादा ग़िज़ा न खाओ कि क़ल्ब को सख़्त करता है, आज़ा व जवारेह को सुस्त करता है नेक बातें सुनने से दिल को रोकता है और जिस्म बीमार रहता है।
३) ज़िन्दा रहने के लिये खाओ, खाने के लिये ज़िन्दा न रहो।
४) जो ग़िज़ा (लुक़्मे) को ख़ूब चबाकर खाता है फ़रिश्ते उसके हक़ में दुआ करते हैं, रोज़ी में इज़ाफ़ा होता है और नेकियों का सवाब दो गुना कर दिया जाता है।
५) जो शख़्स वक़्ते तआम खाने के बिस्मिल्लाह कहे तो मैं ज़ामिन हूँ कि वह खाना उसको नुक़्सान न करेगा।
वक़्त खाना खाने के शुक्रे खुदा और याद उसकी और हम्द उसकी करो।
६) जिस शख्स को यह पसन्द है कि उसके घर में खैर व बरकत ज़्यादा हो तो उसे चाहिये कि खाना जब हाजिर हो तो वज़ू करे।
७) जो कोई नाम ख़ुदा का अव्वल तआम में और शुक्र ख़ुदा का आखि़र तआम पर करे हरगिज़ उस खाने का हिसाब न होगा।
८) जो ज़र्रा दस्तरख्वान पर गिरे उनका खाना फक्ऱ को दूर करता है और दिल को इल्म व हिल्म और नूरे ईमान से मुनव्वर करता है।
९) जनाबे अमीरूल मोमेनीन अ0 ने फ़रमाया के ऐ फ़रज़न्द! मैं तुमको चार बातें ऐसी बता दूँ जिसके बाद कभी दवा की ज़रूरत न पड़े- 1.जब तक १०) भूख न हो न खाओ। 2. जब भूख बाक़ी हो तो खाना छोड़ दो। 3. खूब चबा कर खाओ। 4. सोने से पहले पेशाब करो।
११) रौग़ने ज़ैतून ज़्यादतीए हिकमत का सबब है। (इ0 ज़माना अ0)
१२) भरे पेट कुछ खाना बाएस कोढ़ और जुज़ाम का होता है।

ग़ुस्ल और सेहत

१) नहाना इन्सानी बदन के लिये इन्तेहायी मुफीद है। ग़ुस्ल इन्सानी जिस्म को मोतदिल करता है, मैल कुचैल को जिस्म से दूर करता है आसाब और रगों को नरम करता है और जिस्मानी आ़ा को ताक़त अता करता है। गन्दगी को ख़त्म करता है और जिस्म की जिल्द से बदबू को दूर करता है। (इमाम रिज़ा अ0)
२) ख़ाली या भरे हुए पेट में हरगिज़ नहीं नहाना चाहिये, बल्कि नहाते वक़्त कुछ ग़िज़ा मेदे में मौजूद होना चाहिए। ताकि मेदा उसे हज़म करने में मशग़ूल रहे, इस तरह मेदे को सुकून मिलता है। (इमाम सादिक़ अ0)
३) एक रोज़ दरमियान नहाना गोश्त बदन में इज़ाफ़ा का सबब है। (इमाम मूसा काज़िम अ0)
४) नहाने से पहले सर पर सात चुल्लू गरम पानी डालो कि सर दर्द में शिफ़ा हासिल होगी। (इमाम सादिक़ अ0)
५) अगर चाहते हो कि खाल दाने, आबले, जलन से महफ़ूज़ रहे तो नहाने से पहले रौग़ने बनफ़शा बदन पर मलो। (इमाम रिज़ा अ0)
६) नहार मुँह ग़ुस्ल करने से बलग़म का ख़ात्मा होता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)

 दूध की अहमियत

बतौर ग़िज़ा दूध की एहमियत से कौन इनकार कर सकता है, दूध ऐसी मुतावाज़िन ग़िज़ा है जिसमें ग़िज़ा के तमाम अजज़ा (कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फैट, विटामिन, मिनीरल और पानी) पाया जाता है। यही सबब है कि दूध बीमारी, सेहत और हर उम्र के अफ़राद के लिये मुफ़ीद है। अगर किसी का जिस्म दूध क़ुबूल न करता हो तो उबालते वक़्त चन्द दाने इलाइची के डाल दें।

क़ुरआन दूध की अहमियत को इस तरह बयान करता है और चैपायों के वजूद में तुम्हारे पीने के लिये हज़मशुदा ग़िज़ा (फ़रस) और ख़ून में से ख़ालिस और पसन्दीदा दूध फ़राहम करते हैं (सूर-ए-हिजर आयत 66) यानी माँ जो कुछ खाती है उससे फरस बनता है और फिर उससे ख़ून बनता है और उन दोनों के दरमिया में से दूध वुजूद में आता है। मतलब यह कि दूध में हज़म शुदा ग़िज़ा के अजज़ा के साथ ख़ून के अनासिर भी शामिल होते हैं। आयत में दूध को ख़ालिस और मुफ़ीद क़रार दिया गया है।

दूध के बाज़ अनासिर ख़ून में नही होते और पिसतान के गुदूद में बनते हैं मसलन काज़ईन, ख़ून के कुछ अनासिर बग़ैर किसी तग़य्युर के ख़ून के प्लाज़मा से तुरशह होकर दूध में दाखि़ल होते हैं मसलन मुख़तलिफ़ विटामिन, खूरदनी नामक और मुखतलिफ फासफेट। कुछ और मवाद तबदील हो कर खून से मिलते हैं जैसे दूध में मौजूद लेकटोज़ शकर।

माहिरीन कहते हैं कि पिसतान में एक लीटर दूध पैदा होने के लिये कम अज़ कम पाँच सौ लीटर ख़ून को उस हिस्से से गुज़रना पड़ता है ताकि दूध के लिये ज़रूरी मवाद ख़ून से हासिल किया जा सके। बच्चा जब पैदा होता है तो उसका दिफ़ाई निज़ाम बहुत कमज़ोर होता है इसलिये माँ के ख़ून में पाये जाने वाले दिफ़ाई अनासिर दूध में मुन्तक़िल होते हैं। तहक़ीक़ात में पाया गया है कि माँ के पहले दूध में कोलेस्ट्रम की मिक़दार बहुत ज़्यादा होती है। चूँकि नव मौलूद का माहौल तबदील होता है इसलिये माँ के पहले दूध में कोलेस्ट्रम की इज़ाफ़ी मिक़दार बच्चे के तहफ़्फ़ुज़ के लिये मुआविन साबित होती है। माँ का दूध बच्चे के लिये सिर्फ़ ग़िज़ा नहीं बल्कि दवा है। क़ुरआन में जनाबे मूसा अ0 की विलादत के बाद इरशाद होता है ‘‘हमने मूसा की माँ को वही की कि उसे दूध पिलाओ और जब तुम्हें उस के बारे में ख़ौफ़ लाहक़ हो तो उसे दरया की मौजों के सिपुर्द कर दो''सूर-ए-कसस आयत 7 ।

दूध में सोडियम, पोटेशियम, कैलशियम, मैगनीशियम, काँसा, ताँबा, आएरन, फासफोरस, आयोडीन और गन्धक वग़ैरा मौजूद होते हैं। इसके अलावा दूध में कारबोनिक ऐसिड, लैक्टोज़ शकर, विटामिन ए, बी, सी मौजूद होते हैं। दूध में कैलशियम काफ़ी मिक़दार में होता है जो पुट्ठों और हड्डियों की नशवोनुमा के लिये बहुत ज़रूरी है यानी दूध एक मुकम्मल ग़िज़ा है इसीलिये रसूले ख़ुदा स0 की हदीस है कि ‘‘दूध के सिवा कोई चीज़ खाने पीने का नेमुल बदल नहीं है''। हामेला औरत दूध पीयें कि बच्चे की अक़्ल में ज़्यादती का सबब है, मज़ीद फ़रमाया कि दूध पियो कि दूध पीने से ईमान ख़ालिस होता है।

रवायत में है कि दूध आँखों की बीनाई में इज़ाफ़े का सबब है, निसयान को ख़त्म करता है, दिल को तक़वीयत देता है, और कमर को मज़बूत करता है, शरीअत का हुक्म है कि बच्चे के लिये तमाम दूधों में सबसे बेहतर माँ का दूध है।

जदीद तहक़ीक़ से आज यह बात साबित हो चुकी है कि माँ का दूध बच्चे के लिये न सिर्फ़ मुकम्मल ग़िज़ा है बल्कि बच्चे को मुख़तलिफ़ बीमारियों से भी महफ़ूज़ रखता है हत्ता पाया गया है कि ऐसे बच्चे जो बचपन में माँ का दूध पीते हैं बड़े होकर भी ज़्यादा फ़अआल ज़हीन, तन्दरूस्त और बहुत सी बीमारियों से बचे रहते हैं।

क़ुरआन में इरशादे परवरदिगार होता है ‘‘माँयें अपनी औलाद को पूरे दो साल दूध पिलायेंगी''सूर-ए-बक़रा अ0 224
और हमने इन्सान को उसके माँ बा पके बारे में वसीयत की, उसकी माँ ज़हमत पर ज़हमत उठा कर हामेला हुई और उसके दूध पिलाने की मुद्दत 2 साल में मुकम्मल हुई है। सूर-ए-अनकबूत आयत 14

अनार की अहमियत 

अनार का नाम प्यूनिका ग्रैन्टम है। यूँ तो अनार बहुत से मुल्कों में पाया जाता है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के क़न्धारी अनार मज़े के लिये सबसे ज़्यादा मशहूर हैं। अनार के वह दरख़्त जिनमें फल नहीं आते उसके फूल गुलेनार के नाम से दवाओं में इस्तेमाल होते हैं।

तहक़ीक़ से यह बात साबित हो चुकी है कि अनार में शकर, कैलशियम, फ़ासफ़ोरस, लोहा, विटामिन सी पायी जाती है। जो ख़ून के बनने और जिस्म की परवरिश में मदद देते हैं इसलिये अनार का फल बीमारी के बाद कमज़ोरी को दूर करने और तन्दरूस्ती को बाक़ी रखने के लिये बहुत मुफ़ीद है।
रसूले ख़ुदा स0 ने फ़रमाया कि अनारी को बीज के छिलके के साथ खाओ कि पेट को सही करता है, दिल को रौशन करता है और इन्सान को शैतानी वसवसों से बचाता है।

तिब में अनार का मिज़ाज सर्द तर बताया गया है और दवा के तौर पर मसकन सफ़रा, कातिल करमे शिकम, क़ै, प्यास की ज़्यादती, यरक़ान और ख़ारिश वग़ैरा में इसका इस्तेमाल होता है। बतौर दवा अनार की अफ़ादीयत के बारे में उर्दू का यह मुहावरा ही काफ़ी है। ‘‘एक अनार .......... सौ बीमार'''
इस्लामी रिवायत में अनार को सय्यदुल फ़कीहा (फलों का सरदार) कहा गया है। क़ुरआन में भी अनार का ज़िक्र होता है ‘‘इन (जन्नत) में फल कसरत से हैं और खजूर और अनार के दरख़्त हैं'' (सूर-ए-रहमान आ0 68)

अहादीस में भी अनार का ज़िक्र हैः ‘‘जो एक पूरा अनार खाये ख़ुदा चालीस रोज़ तक उसके क़ल्ब को नूरानी करता है। शैतान दूर होता है, पेट और ख़ून साफ़ करता है। बदन में फ़ुरती आतीहै और बीमारियों से मुक़ाबले की ताक़त पैदा होती है। (रसूले ख़ुदा स0)

शहद की अहमियत 

ख़ालिक़े कायनात ने इन्सान को जितनी नेअमतें दी हैं उनका शुमार करना भी इन्सान के लिये मुम्किन नहीं है। उन नेअमतों में शहद को एक बुलन्द मुक़ाम हासिल है।

क़ुरआन (सूर-ए-नहल आयत 49) में शहद को इन्सान के लिये शिफ़ा बताया गया है। इन्जील में 21 मरतबा इसका ज़िक्र किया गया है। जदीद साइंसी तहक़ीक़ात से यह बात साबित हो चुकी है कि शहद निस्फ़ हज़्म शुदा ग़िज़ा है जिसका मेदे पर बोझ नहीं पड़ता है इसीलिये नौ ज़ाएदा बच्चे को बतौर घुट्टी शहद घटाया जाता है और जाँ-बलब मरीज़ के लिये तबीब आखि़री वक़्त में शहद ही तजवीज़ करता है। अहादीस में भी दवा की हैसियत से शहद की ख़ासियत का बहुत ज़िक्र आया है। ‘‘लोगों के लिये शहद की सी शिफ़ा किसी चीज़ में नहीं है'' (इमाम सादिक़ अ0)। ‘‘जो शख़्स महीने में कम अज़ कम एक मरतबा शहद पिये और ख़ुदा से उस शिफ़ा का तक़ाज़ा करे कि जिस का क़ुरआन में ज़िक्र है तो वह उसे सत्तर क़िस्म की बीमारियों से शिफ़ा बख़्शेगा''। (रसूले ख़ुदा स0)

फवाएदे आबे नैसाँ

ज़ादुल मसाल में सय्यद जलील अली इब्ने ताऊस रहमतुल्लाह अलैह ने रिवायत की है कि असहाब का एक गिरोह बैठा हुआ था जनाबे रसूले ख़ुदा स0 वहाँ तशरीफ लाए और सलाम किया असहाब ने जवाबे सलाम दिया। आपने फ़रमाया कि क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें वह दवा बतला दूँ जो जिबराईल अ0 ने मुझे तालीम दी है कि जिसके बाद हकीमों की दवा के मोहताज न रहो। जनाबे अमीरूल मोमेनीन अ0 और जनाबे सलमाने फ़ारसी वग़ैरा ने सवाल किया कि वह दवा कौन सी है तो हज़रत रसूले ख़ुदा स0 ने हज़रत अमीर अ0 से मुख़ातिब होकर फ़रमाया माह नैसान रूमी में बारिश हो तो बारिश का पानी किसी पाक बरतन में ले और सूर-ए-अलहम्द, आयतल कुर्सी, क़ुल हो वल्लाह, कु़ल आऊज़ो बिरब्बिन नास, कु़ल आऊज़ो बिरब्बिल फ़लक़ और क़ुल या अय्योहल काफ़िरून सत्तर मरतबा पढ़ो और दूसरी रिवायत में है सत्तर मरतबा इन्ना अनज़लनाह, अल्लाहो अकबर, ला इलाहा इल्लल्लाह और सलवात मोहम्मद स0 व आले मोहम्मद अ0 भी इस पर पढ़ें। किसी शीशे के पाक बरतन में रखें और सात दिन तक हर रोज़ सुब्ह व वक़्ते अस्र इस पानी को पिये।मुझे क़सम है उस ज़ाते अक़दस की जिसने मुझे मबऊस ब-रिसालत किया कि जिबराईल अ0 ने कहा कि ख़ुदाए तआला ने दूर किया उस शख़्स का हर दर्द कि जो उसके बदन में है। अगर फ़रज़न्द न रखता हो तो फ़रज़न्द पैदा हो। अगर औरत बांझ हो और पिये तो फ़रज़न्द पैदा होगा। अगर नामर्द हो और पानी बशर्ते एतेक़ाद पिये तो क़ादिर हो मुबाशिरत पर। अगर दर्दे सर या दर्दे चश्म हो तो एक क़तरा आँख में डाले और पिये और मले सेहत होगी और जड़ें दाँतों की मज़बूत होंगी और मुंह ख़ुशबूदार होगा, बलग़म को दूर करेगा। दर्दे पुश्त, दर्दे शिकम और ज़ुकाम को दफ़ा करेगा। नासूर, खारिश, फ़ोड़े दीवानगी, जज़ाम, सफ़ेद दाग़, नकसीर और क़ै से बे ख़तर होगा। अंधा, बहरा गूँगा न होगा। वसवसा-ए-शैतान और जिन से अज़ीयत न होगी। दिल को रौशन करेगा, ज़ुबान से हिकमत जारी करेगा और उसे बसीरत व फ़हम अता करेगा। माहे नौरोज़ के 23 दिन बाद माह-ए-नैसाँ रूमी शुरू होता है।

इबादत व आदाबे इस्लामी और सेहत

रोज़ाः रोज़ा रखो सेहतमन्द हो जाओ। रोज़ा सेहत के दो असबाब में से एक सबब है इसलिये कि इससे बलग़म छटता है, भूल ज़ाएल होती है, अक़्ल व फ़िक्र में जिला पैदा होती है और इन्सान का ज़ेहन तेज़ होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
नमाज़े शब ः तुम लोग नमाज़े शब पढ़ा करो क्योंकि वह तुम्हारे पैग़म्बर की सुन्नते मोअक्केदा सालेहीन का शिआर और तुम्हारे जिस्मानी दुख व दर्द को दूर करने वाली है। ऐ अली अ0 नमाज़े शब हमेशा पढ़ा करो जो शख़्स कसरत से नमाज़े शब पढ़ता है उसका चेहरा मुनव्वर होता है। (रसूले ख़ुदा स0)
नमाज़े शब चेहरे को नूरानी, मुंह को ख़ुशबूदार करती है और रिज़्क़ में वुसअत होती है। (हदीस)
नमाज़े शब से अक़्ल में इज़ाफ़ा होता है। (इमाम सादिक़ अ0)
मुतफ़र्रिक़
सदक़े के ज़रिये अपने मरीज़ों का इलाज करो, दुआओं के ज़रिये बलाओं के दरवाज़े को बन्द करो और ज़कात के ज़रिये अपने माल की हिफ़ाज़त करो। (रसूले ख़ुदा स0)
बिस्मिल्लाह हर मर्ज़ के लिये शिफ़ा और हर दवा के लिये मददगार है। (हज़रत अली0 अ0)
बेशक ख़ुदा की याद, दिल को पुर सूकून करती है। (क़ुरआन)
दुनिया में हर चीज़ की ज़ीनत है और तन्दरूस्ती की ज़ीनत चार चीज़ेंह ैंः कम खाना, कम सोना, कम गुफ़्तगू और कम शहवत करना। (रसूले ख़ुदा स0)
दुनिया से रग़बत करना हुज़्न व मलाल का सबब है और दुनिया से किनारा-कशी क़ल्ब व बदन के आराम व राहत का सबब है। (रसूले ख़ुदा स0)
शफ़ाए अमराज़ के लिये शबे जुमा ब-वज़ू दुआए मशलूल पढ़ें।
किनाअत बदन की राहत है। (इमाम हुसैन अ0)
हर जुमे को नाख़ून काटो कि हर नाख़ून के नीचे से एक मर्ज़ निकलता है। (इमाम सादिक़ अ0)
जो शख़्स हर पंजशम्बे को नाख़ून काटेगा उसकी आँखें नहीं दुखेंगी (अगर पंजशम्बे को नाख़ून काटो तो एक नाख़ून जुमे के लिये छोड़ दो)। (इमामे रिज़ा अ0)
याक़ूत की अंगूठी पहनो कि परेशानी ज़ाएल होती है ग़म दूर होता है, दुश्मन मरग़ूब रहते है और बीमारी से हिफ़ाज़त करता है। (इमामे रिज़ा अ0)
जो शख़्स सोते वक़्त आयतल कुर्सी पढ़ ले वह फ़ालिज से महफ़ूज़ रहेगा। (इमामे रिज़ा अ0)
जब लोग गुनाहे जदीद अन्जाम देते हैं तो ख़ुदा उनको नयी बीमारियों में मुबतिला करता है। (इमामे रिज़ा अ0)
हुसूले शिफ़ा के लिये क़ुरआन पढ़ो। (इमामे रिज़ा अ0)
अपने बच्चों का सातवें दिन ख़त्ना करो इससे सेहत ठीक होती है और जिस्म पर गोश्त बढ़ता है। (इमामे रिज़ा अ0)
पजामा बैठ कर पहनो, खड़े होकर न पहनो क्योंकि यह ग़म व अलम का सबब होता है।
सियाह जूता पहनने से बीनायी कमज़ोर हो जाती है। (इमामे रिज़ा अ0)
फ़ीरोज़े की अंगूठी पहनो कि फ़ीरोज़ा चश्म को क़ुव्वत देता है सीने को कुशादा करता है और दिल की क़ुव्वत को ज़्यादा करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
चाहिये कि ज़र्द जूते पहनो कि इस में तीन खासियतें पायी जाती हैं, कुव्वते बीनायी में इज़ाफ़ा, ज़िक्रे ख़ुदा में तक़वीयत का सबब और हुज़्न व ग़म को दूर करता है। (इमाम सादिक़ अ0)
रोज़ा, नमाज़े शब, नाख़ून का काटना इस तरह कि बायें हाथ की छुंगलिया से शुरू करके दाहिने हाथ की छुंगलिया पर तमाम करना असबाबे तन्दरूस्ती इन्सान है।
अज़ीज़ों के साथ नेकी करने से आमाल क़ुबूल होते हैं माल ज़्यादा होता है बलायें दफ़़ा होती हैं, उम्र बढ़ती है और क़ियामत के दिन हिसाब में आसानी होगी। (हदीस)
जो क़ब्ल और बाद तआम खाने के हाथ धोये तो ज़िन्दगी भर तंगदस्त न होये और बीमारी से महफ़ूज़ रहे। (रसूले ख़ुदा स0)
एक शख़्स ने इमाम अली रिज़ा अ0 से अज़ किया कि मैं बीमार व परेशान रहता हूँ और मेरे औलाद नहीं होती, आप अ0 ने फ़रमाया कि अपने मकान में अज़ान कहो। रावी कहता है कि ऐसा ही किया, बीमारी ख़त्म हुई और औलाद बहुत हुई।

मेहमान नवाज़ी
तुम्हारी दुनियों से तीन चीज़ों को दोस्त रखता हँ, लोगों को मेहमान करना, ख़ुदा की राह में तलवार चलाना और गर्मियों में रोज़ा रखना। (हज़रत अली अ0)
मकारिमे इख़्लाक़ दस हैंः हया, सच बोलना, दिलेरी, साएल को अता करना, खुश गुफ्तारी, नेकी का बदला नेकी से देना, लोगों के साथ रहम करना, पड़ोसी की हिमायत करना, दोस्त का हक़ पहुँचाना और मेहमान की ख़ातिर करना। (इमाम हसन अ0)
मेहमान का एहतिराम करो अगरचे वह काफ़िर ही क्यों न हो। (रसूले ख़ुदा स0)
पैग़म्बरे इस्लाम स0 ने फ़रमाया कि जब अल्लाह किसी बन्दे के साथ नेकी करना चाहता है तो उसे तोहफ़ा भेजता है। लोगों ने सवाल किया कि वह तोहफ़ा क्या है? फ़रमाया ः मेहमान, कि जब आता है तो अपनी रोज़ी लेकर आता है और जब जाता है तो अहले ख़ाना के गुनाहों को लेकर जाता है।
मेहमान राहे बेहिश्त का राहनुमा है। (रसूले ख़ुदा स0)
खाना खिलाना मग़फ़िरते परवरदिगार है। (रसूले ख़ुदा स0)
परवरदिगार खाना खिलाने को पसन्द करता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
जो भी ख़ुदा और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखता है उसे चाहिये कि मेहमान का एहतिराम करे। (हदीस)
तुम्हारे घर की अच्छाई यह है कि वह तुम्हारे तन्गदस्त रिश्तादारों और बेचारे लोगों की मेहमानसरा हो। (रसूले ख़ुदा स0)
कोई मोमिन नहीं है कि मेहमान के क़दमों की आवाज़ सुन कर ख़ुशहाल हों मगर यह कि ख़ुदा उसके तमाम गुनाह माफ़ कर देता है अगर चे ज़मीनो-आसमान के दरमियान पुर हों। (हज़रत अली अ0)
अजसाम की कुव्वत खाने में है और अरवाह की कुव्वत खिलाने में है। (हज़रत अली अ0)
(तुम्हारा फ़र्ज़ है) कि नेकी और परहेज़गारी में एक दूसरे की मदद किया करो (सूर-ए-अल माएदा ः 2)
ऐ ईमानदारों ख़ुदा से डरो और हर शख़्स को ग़ौर करना चाहिए कि कल (क़ियामत) के वास्ते उस ने पहले से क्या भेजा है? (सूर-ए-अल हश्र ः 18)
ऐ ईमानदारों क्या मै। तुम्हें ऐसी तिजारत बता दूँ जो तुमको (आखि़रत के) दर्दनाक अज़ाब से नजात दे (यह कि) ख़ुदा और उसके रसूल स0 पर ईमान लाओ और अपने माल और जान से ख़ुदा की राह में जेहाद करो। (सूर-ए-अस सफ़ः 11)
और अगर तुम पूरे मोमिन हो तो तुम ही गालिब होगे। (सूर-ए-आले इमरान ः 139)

वे मसाएल जिनका जानना ज़रूरी है |

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तक़लीद
सवाल: क्या तक़लीद के बाद पूरी तौज़ीहुल मसाइल का पढ़ना ज़रुरी है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: उन मसाइल का जानना ज़रूरी है जिस से इंसान हमेशा दोचार है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: ज़रूरी नही है बल्कि सिर्फ़ दर पेश आने वाले मसाइल का जानना ज़रूरी है।
सवाल: अगर किसी मसले में मुजतहिद का फ़तवा न हो तो क्या दूसरे की तक़लीद की जा सकती है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: अगर किसी मसले में किसी मरजअ ने फ़तवा न दिया हो तो रूतबे के ऐतेबार से उस के बाद वाले मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करना वाजिब है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: किसी दूसरे मुसावी मुजतहिद के फ़तवे पर अमल किया जा सकता है।

ग़ुस्ल
सवाल: अगर इंसान मसला न जानने या बे तवज्जोही की बेना पर वाजिब ग़ुस्लों को अंजाम न दे तो उस की इबादात का क्या हुक्म है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: ऐसी सूरत में नमाज़े बातिल हैं और अगर ग़ुस्ले जनाबत, हैज़, निफ़ास जान बूझ कर अंजाम नही दिया है तो उस का रोज़ा भी बातिल है लेकिन अगर मसला न जानने की वजह से ऐसा किया है तो रोज़ा सही है।
आयतुल्लाह ख़ामेंनई: अगर बे तवज्जोही की वजह से वाजिब ग़ुस्लों को अंजाम न दे तो नमाज़ और रोज़े की क़ज़ा के साथ साथ रोज़े का कफ़्फ़ारा भी वाजिब है लेकिन अगर मसला न जानने की वजह से ऐसा किया है तो सिर्फ़ नमाज़ों की क़ज़ा करेगा और अगर मसला जानने में कोताही न की हो तो फ़क़त रोज़ों की क़ज़ा करेगा।
सवाल: जिस शख़्स पर कई ग़ुस्ल हों क्या वह एक ही ग़ुस्ल में तमाम ग़ुस्लों का नीयत कर सकता है?
जवाब:  आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: हाँ एक ग़ुस्ल सब के लिये काफ़ी है लेकिन तमाम ग़ुस्लों की नीयत ज़रुरी है।


नमाज़ और उस में पर्दा:
सवाल:  नमाज़ की हालत में एक औरत पर कितना पर्दा वाजिब है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: तमाम बदन का छिपाना वाजिब है सिवाए चेहरे का इतना हिस्सा जो वुज़ू में धोया जाता है, कलाई से उंगलियों के सिरे तक और पैरों को उंगलियों से टख़ने तक अलबत्ता वाजिब मिक़दार के यक़ीन के लिये चेहरा, कलाई और टख़ने के अतराफ़ में थोड़ा बढ़ा कर छिपाये।
सवाल:   अगर नमाज़ के दौरान ख़ातून मुतवज्जे हो जाये कि उस के बाल दिखाई दे रहे हैं तो उस की क्या ज़िम्मेदारी क्या है और अगर नमाज़ के बाद मालूम हो तो उस की नमाज़ का क्या हुक्म है?
जवाब:  आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: नमाज़ के दौरान जैसे मुतवज्जे हो फ़ौरन उसे छुपाये और अगर नमाज़ के बाद मालूम हो तो उस की नमाज़ सही है।

ग़ुस्ल
सवाल:    क्या वह रुतूबत जो औरत की शर्मगाह से ख़ारिज होती है, पाक है?
जवाब:   तमाम मराजे ए केराम:  रुतूबत पाक है ग़ुस्त की ज़रुरत नही है लेकिन अगर यक़ीन हो कि पेशाब या मनी है तो ऐसी सूरत में नजिस है।
सवाल:     किन गुस्लों को अंजाम देने के बाद उससे नमाज़ पढ़ सकते हैं?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी: तमाम वाजिब और मुसतहब ग़ुस्लों (ग़ुस्ले इस्तेहाज़ ए मुतवस्सिता के अलावा के साथ नमाज़ पढ़ सकते हैं लेकिन ऐहतेयाते मुसतहब यह है कि वुज़ू भी करे।)
आयतुल्लाह ख़ामेनई: सिर्फ़ ग़ुस्ले जनाबत के साथ नमाज़ पढ़ी जा सकती है दूसरे ग़ुस्लों के बाद वुज़ू भी ज़रुरी है।

नमाज़
सवाल:   अगर किसी इंसान के ज़िम्मे वाजिब नमाज़ और रोज़ा क़ज़ा हों तो क्या वह मुसतहब्बी नमाज़ और रोज़े अंजाम दे सकता है?
जवाब:  तमाम मराजे ए केराम: मुसतहब्बी नमाज़ पढ़ सकता है लेकिन मुसतहब्बी रोज़े नही रख सकता।
सवाल:   अगर कमरे का फ़र्श नजिस हो तो ऐसी सूरत में क्या उस पर नमाज़ सही है?
जवाब:   तमाम मराजे ए केराम: अगर नजिस फ़र्श ख़ुश्क हो और उस की रुतूबत पढ़ने वाले के बदन या लिबास तक न पहुचे तो कोई हरज नही है लेकिन सजदे की जगह (सजदा गाह) पाक होनी चाहिये।
सवाल:  अगर नमाज़ी नमाज़ की हालत में दूसरी रकअत में तशह्हुद भूल जाये तो क्या उस की नमाज़ बातिल है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी:  नही बल्कि ऐसी सूरत में नमाज़ तमाम होने के बाद दो सजद ए सहव अंजाम देगा। सजद ए सहव का तरीक़ा यह है कि नमाज़ ख़त्म होने के फ़ौरन बाद सजदे में जाये और कहे: बिस्मिल्लाहि व बिल्लाह अल्ला हुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आलि मुहम्मद, और फिर दूसरे सजदे में भी यही कहे और फिर तशह्हुद व सलाम बजा लाये और सलाम में सिर्फ़ अस सलामों अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू कहना काफ़ी है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई:    ऐसी सूरत में नमाज़ तमाम होने के बाद तशह्हुद की कज़ा करेगा और सजद ए सहव अंजाम देगा।
सवाल:   अगर नमाज के दौरान नमाज़ी को याद आ जाये कि ग़ैर शरई तरीक़े से ज़िबह शुदा जानवर के चमड़े का बेल्ट लगाये हुए है उस की घड़ी का पट्टा उस चमड़े से बना है तो उसे क्या करना चाहिये?
आयतुल्लाह सीस्तानी:  अगर नमाज़ के दौरान याद आ जाये तो उसे फ़ौरन उतार दे और उस की नमाज़ सही है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई नमाज़ बातिल है लिहाज़ा दोबारा पढ़नी पढ़ेगी।

पर्दा व हेजाब
सवाल:   क्या हेजाब ज़रूरियाते दीन यानी उन चीज़ों में से है जिन के वाजिब होने पर अक़ीदा न होने से इंसान दीन से ख़ारिज हो जाता है और वह लोग जो हेजाब से मुतअल्लिक़ ला परवाही करते हैं, उन का क्या हुक्म है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई:   हेजाब ज़रूरियाते दीन में से है और लापरवाही करने वाले लोग गुनाहगार हैं।
सवाल:    क्या ऐसी दुकानों पर काम करना जायज़ है जहाँ नंगी तस्वीरों पर मुश्तमिल रिसाले बिकते हों और क्या ऐसे रिसालों की तिजारत व तबाअत जायज़ है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई:  यह तमाम काम जायज़ नही हैं क्यों कि फ़ेअले हराम की तरवीज और फ़ह्हाशी का प्रचार है।
सवाल:    क्या औरतें शादी बियाह में मेकअप और आराइश के साथ जा सकती हैं जबकि ना महरम मर्द उन्हे देख रहे हैं?
जवाब:  आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई:   औरतों पर हेजाब वाजिब है और वह अपने महासिन को किसी ना महरम के सामने ज़ाहिर नही कर सकती हैं।
सवाल:   वह ग़ैर मुस्लिम औरतें जो मोहतरम भी नही हैं और पर्दे की क़ायल भी नही है, क्या उन्हे लज़्ज़त की निगाह से देखा जा सकता है?
जवाब:     लज़्ज़त की निगाह से देखना जायज़ नही है।

ग़ीबत
सवाल:    ग़ीबत किसे कहते हैं और इस का क्या हुक्म है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई:   गीबत यानी किसी शख़्स की बुरी आदत या काम को उस की ग़ैर मौजूदगी में दूसरे के सामने बयान करना। ग़ीबत करना और सुनना दोनो हराम और गुनाहाने कबीरा में से है।
सवाल:    अगर कोई शख़्स बे नमाज़ी है लेकिन खुले आम गुनाह नही करता तो क्या उस की ग़ीबत करना जायज़ है?
जवाब:    नही जायज़ नही है।

सिगरेट
सवाल:     अवामी जगहों (Public Place) पर सिगरेट पीने का क्या हुक्म है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी:   अगर दूसरों को कोई ख़ास नुक़सान पहुच रहा हो या आईन्दा नुक़सान पहुचने का अंदेशा हो तो जायज़ नही है। इसी तरह अपने बारे में भी अगर मालूम है कि नुक़सान देह है तो पीना जायज़ नही है।

शादी बियाह
सवाल:   लहवो लअब वाली शादी बियाह की महफ़िलों में शिरकत न करना ख़ानदान और रिश्तेदारोंमें आपसी रंजिश का सबब बनता है ऐसी सूरत में क्या ज़िम्मेदारी है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी:     अगर हराम में मुब्तला हो रहा है तो जायज़ नही है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई:    हराम महफिलों में शिरकत करना किसी भी सूरत में जायज़ नही है और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुन्कर हर शख़्स पर वाजिब है।
सवाल:   शादी बियाह की ऐसी महफ़िलों में शिरकत करना कैसा है जिन में नाच गाना और म्यूज़िक (Music) हो?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी:    अगर गाना बजाना और म्यूज़िक लह व लअब और अय्याशी जैसी महफ़िलों की तरह हो तो शिरकत करना जायज़ नही है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई:   इस क़िस्म के प्रोग्राम में शिरकत करने की सूरत में अगर गुनहगारों की ताइद हो रही हो तो जायज़ नही है।

ख़ुम्स
सवाल:   ख़ुम्स किन लोगों पर वाजिब है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई:    नमाज़ और रोज़े की तरह हर बालिग़ो आक़िल इंसान पर सालाना बचत का पाचवां हिस्सा बतौरे ख़ुम्स निकालना वाजिब है।
सवाल:   क्या बेटी के जहेज़ के पैसों और सामान या वाजिब हज के लिये जमा किये गये पैसों पर ख़ुम्स वाजिब है?
जवाब:   आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई:   बेटी के (शायाने शान) ख़रीदे गये जहेज़ के सामान और वाजिब हज के लिये जमा किये गये पैसे पर ख़ुम्स वाजिब नही है लेकिन अगर जहेज़ वग़ैरह के लिये रक़्म जमा की है तो उस पर ख़ुम्स वाजिब है।

फ़ितरा
सवाल: क्या शबे ईद किसी को इफ़तार कराने से उस का फ़ितरा भी वाजिब हो जाता है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: सिर्फ़ इफ़तार कराने से फ़ितरा वाजिब नही होता बल्कि मेयार यह है कि इफ़तार करने वाला उस के यहाँ खाने वाला (नान ख़ोर) शुमार हो।
सवाल: फ़ासिक़ या बे नमाज़ी फ़क़ीर को सदक़ा, फ़ितरा या कफ़्फारा देने का क्या हुक्म है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: ऐहतेयाते वाजिब की बेना पर इस क़िस्म के अफ़राद को फ़ितरा और कफ़्फ़ारा नही देना चाहिये और दीनदार अफ़राद के होते हुए ऐसे अफ़राद को सदक़ा देने से भी परहेज़ करना चाहिये।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: अगर अलानिया फ़िस्क़ व फ़ुजूर में मुब्तला नही है और माल को फ़िस्क़ व फ़ुजूर की राह में ख़र्च नही करता तो कोई हरज नही है।

चांद
सवाल: क्या नुजूमी क़वायद व ज़वाबित के ज़रिये चांद साबित किया जा सकता है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: नही, साबित नही होगा सिर्फ़ उस वक़्त साबित हो सकता है जब इंसान को उस के ज़रिये यक़ीन हासिल हो जाये।
सवाल: अगर चंद आदिल अफ़राद गवाही दें कि दो आदिलों ने चांद देखा है तो क्या उससे चांद साबित हो जायेगा?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: नहीं, बल्कि दो आदिल शख़्स ख़ुद इंसान के लिये गवाही दें कि उन्होने चांद देखा है और वास्ते से नक़्ल करें तो काफ़ी नही है अलबत्ता अगर उन के कहने से यक़ीन हासिल हो रहा हो तो काफ़ी है।

क़सम खाना
सवाल: क़सम खाना कैसा है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: क़सम खाने वाली की बात अगर सही हो तो क़सम खाना मकरुह है और अगर झूट हो तो क़सम खाना हराम और गुनाहाने कबीरा में से है।
सवाल: क्या क़सम पर अमल करना ज़रूरी है और क़सम का कफ़्फ़ारा क्या है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: अगर ख़ुदा के नामों में से किसी एक नाम की क़सम खाई जाये तो उस पर अमल करना वाजिब है और अमल न करने की सूरत में कफ़्फ़ारा वाजिब है।
क़सम का कफ़्फारा दस मिसकीनों को पेट भर खाना खिलाये या उन्हे लिबास मुहय्या करे और अगर यह नही कर सकता हो तो तीन दिन लगातार रोज़ा रखे।

अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुन्कर
सवाल: अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुन्कर के क्या शरायत हैं?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुन्कर करने वाले के लिये ज़रूरी है कि वह मारूफ़ व मुन्कर को जानता हो, तासीर का ऐहतेमाल हो, मफ़सदा न हो और बदकारी पर इसरार न हो।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: मारुफ़ व मुन्कर को जानता हो, तासीर का ऐहतेमाल हो, शख़्स अपने काम पर मुसिर न हो और अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुन्कर करने से मफ़सदा न हो। (यानी उसको या दूसरे को नुक़सान न पहुचे)
सवाल: क्या अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुन्कर (नेकी की हिदायत और बुराई से रोकना) सिर्फ़ उलामा पर वाजिब है या सब पर?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: शरायत के मौजूद होने पर हर मुसलमान पर वाजिब है।


ख़ुम्स
सवाल: क्या ईनाम या तोहफ़े में मिलने वाली चीज़ पर ख़ुम्स वाजिब है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: अगर ख़ुम्स की तारीख़ आने पर उस में से कुछ बचा है तो उस पर ख़ुम्स है
आयतुल्लाह ख़ामेनई: उस पर ख़ुम्स वाजिब नही है।
सवाल: अगर एक घर में मर्द व औरत दोनो कमाते हों तो क्या दोनो पर ख़ुम्स वाजिब है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: दोनो पर ख़ुम्स वाजिब है।

फ़ितरा
सवाल: जिस लड़की का अक़्द हो गया है उस का फ़ितरा किस पर वाजिब है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: अगर बाप की किफ़ालत में है तो बाप पर वाजिब है।
सवाल: क्या बेटे के मोहताज होने की सूरत में बाप उसे फ़ितरा दे सकता है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: अगर बेटे मोहताज हों तो मां बाप पर उन की किफ़ालत वाजिब है लेकिन उन्हे फ़ितरा नही दिया जा सकता।

ना महरम
सवाल: क्या ख़्वातीन उन मर्दों का बदन देख सकती हैं जो अज़ादारी के  दौरान अपना लिबास उतार देते हैं?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: ऐहतेयाते वाजिब की बेना पर ऐसा नही करना चाहिये।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: जायज़ नही है।
सवाल: ज़नानी महफ़िलों में औरतों का कुछ पढ़ना कैसा है जब कि उन की आवाज़ ना महरम भी सुन रहें हों और उस में फ़साद का भी शायबा पाया जाता हो?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: जायज़ नही है।

सजदा
सवाल: किन चीज़ों पर सजदा सही है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: ज़मीन और ज़मीन से उगने वाली वह तमाम चीज़ें जो खाई या पहनी नही जाती हैं लेकिन मअदनियात में से न हो जैसे सोना, चांदी, अक़ीक़ वग़ैरह। अलबत्ता मजबूरी की सूरत में इंसान अतक़तरे से बनी ज़मीन को दूसरी चीज़ों पर तरजीह दे।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: ज़मीन और ज़मीन से उगने वाली वह तमाम चीज़ें जो खाई या पहनी नही जाती हैं लेकिन मअदनियात में से न हो जैसे सोना, चांदी और अक़ीक़ वग़ैरह।
सवाल: बाज़ औक़ात कैसेट के ज़रिये से आयते सजदा सुनी जाती है तो क्या ऐसी सूरत में सजदा वाजिब है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: इस सूरत में सजदा वाजिब नही है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: अगर तिलावते क़ुरआने क़रीम को ख़ुद बाक़ायदा सुन रहा है तो सजदा वाजिब नही है और अगर तिलावते क़ुरआन की आवाज़ अचानक उस के कान में पड़ गई तो सजदा वाजिब नही है।

दाड़ी
सवाल: दाड़ी मूढ़ने की उजरत लेना कैसा है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: हराम है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: हराम काम के लिये उजरत लेना हराम है।
सवाल: क्या फेरेन्च कट (French style) दाड़ी रखना जायज़ नही है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: जायज़ नही है ऐहतेयाते वाजिब की बेना पर पूरी दाड़ी रखनी चाहिये।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: हराम है, दाड़ी का कुछ हिस्सा मुढ़वाना पूरी दाड़ी मुढ़वाने के हुक्म में है।

रोज़ा
सवाल: जो शख़्स ज़ोहर से पहले सफ़र पर जाना चाहता है उस के रोज़े का क्या हुक्म है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: अगर ज़ोहर से पहले सफ़र करे तो ऐहतेयाते वाजिब की बेना पर उस का रोज़ा सही नही है लेकिन हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुचने से पहले कोई भी ऐसा काम नही कर सकता जो रोज़े को बातिल करता है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: अगर ज़ोहर से पहले सफ़र करे तो उस का रोज़ा सही नही है लेकिन हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुचने से पहले कोई भी ऐसा काम नही कर सकता जो रोज़े को बातिल करता है।
सवाल: नौ साल की लड़की के लिये रोज़ा रखना सख़्त होता है तो क्या वह कमज़ोरी, ना तवानी की वजह से रोज़ा छोड़ सकती है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: सिर्फ़ कमज़ोरी व ना तवानी की वजह से रोज़ा नही छोड़ सकती, हां अगर तकलीफ़ ना क़ाबिले बर्दाश्त हो तो रोज़ा छोड़ सकती है। (अलबत्ता उसकी क़ज़ा वाजिब है।)
सवाल: पढ़ाई और इम्तेहानात की वजह से कमज़ोरी व सुस्ती हो जाती है तो क्या रोज़ा छोड़ा जा सकता है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: कमज़ोरी और सुस्ती आम तौर पर हर रोज़ेदार को पेश आती है लिहाज़ा इस सूरत में रोज़ा नही छोड़ा जा सकता लेकिन अगर ना क़ाबिले बर्दाश्त कमज़ोरी हो तो रोज़ा छोड़ा जा सकता है। (अलबत्ता क़ज़ा वाजिब है।)
सवाल: अगर कोई रमज़ान में जान बूझ कर अपना रोज़ा इस्तिमना के ज़रिये बातिल करे तो उस का क्या हुक्म है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: इस्तिमना (जान बूझ कर मनी निकालना) हर सूरत में हराम है और रोज़े की हालत में ऐसा करने से क़ज़ा के अलावा कफ़्फ़ारा (ऐहतेयाते मुसतहब की बेना पर साठ रोज़े रखे और साठ मिसकीनों को खाना खिलाये) भी वाजिब है।
सवाल: किसी शख़्स को शक या यक़ीन हो कि अगर रोज़े की हालत में सो गया तो मनी ख़ारिज हो जायेगी तो उस के सोने का क्या हुक्म है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: सोने में कोई हरज नही है और अगर मनी ख़ारिज भी हो जाये तब भी रोज़ा सही है।

बीमारी में रोज़ा
सवाल: अगर डाक्टर ने रोज़ा रखने से मना किया हो लेकिन वह ख़ुद जानता हो कि रोज़ा उस के लिये नुक़सानदेह नही है तो क्या वह रोज़ा रख सकता है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: अगर जानता है कि रोज़ा उस के लिये ज़रर नही रखता तो रोज़ा रखना ज़रुरी है।
सवाल: अगर रोज़ा रखने की वजह से मरज़ देर में ठीक हो तो रोज़ा रख सकता है या नही?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: रोज़ा नही रख सकता।

वुज़ू
सवाल: क्या करते वक़्त कोई चीज़ खाने से वुज़ू बातिल हो जाता है?
जवाब: तमाम मराजे ए केराम वुज़ू बातिल नही होता लेकिन बेहतर है कि वुज़ू करते वक़्त ऐसे कामों से परहेज़ किया जाये।
सवाल: क्या अब्दुल्लाह व हबीबुल्लाह जैसे नामों को बग़ैर वुज़ू के मस किया जा सकता है?
जवाब: आयततुल्लाह सीस्तानी: कोई हरज नही है लेकिन बेहतर है कि मस न करे।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: अल्लाह के नाम को बग़ैर वुज़ू के मस करना जायज़ नही है चाहे किसी का नाम ही क्यों न हो।

नमाज़े जुमा
सवाल: क्या नमाज़े जुमा में सूर ए जुमा पढ़ना वाजिब है?
जवाब:  आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: नही, वाजिब नही है बल्कि कोई दूसरा सूरह भी पढ़ा जा सकता है  अगर चे मुसतहब है कि नमाज़े जुमा में सूर ए जुमा पढ़ा जाये।
सवाल: अगर एक इलाक़े में शरई फ़ासले से कम पर दो नमाज़े जुमा हो रही हों तो कौन सी नमाज़ सही है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: अगर एक साथ शुरू हों तो दोनो बातिल हैं लेकिन अगर एक की तकबीर पहले हुई हो तो दूसरी बातिल है।
आयतुल्लाह ख़़ामेनई: पहले शुरु होने वाली सही और दूसरी बातिल है।
सवाल: नमाज़े जुमा के लिये कम से कम कितने लोगों को होना शर्त है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़़ामेनई: कम से कम पांच अफ़राद का होना ज़रूरी है।
सवाल: नमाज़े जुमा के ख़ुतबों के दरमियान बात करना कैसा है और अगर कोई ख़ुतबों के बाद नमाज़ में पहुचे तो नमाज़ का क्या हुक्म है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी: नमाज़ सही है और ज़ोहर पढ़ने की ज़रुरत नही है लेकिन नमाज़ में हाज़िर होने की सूरत में ऐहतेयात की बेना पर ख़ुतबा सुनना वाजिब है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई: नमाज़े जुमा, नमाज़े ज़ोहर से किफ़ायत करती है चाहे नमाज़ के ख़ुतबों के दरमियान बात की हो या ख़ुतबों में न पहुचा हो, लेकिन ख़ुतबों के दरमियान बात करने से अगर ख़ुतबे का फ़ायदा ख़त्म हो रहा हो तो जायज़ नही है।

रोज़ा
सवाल: वह लोग जो बग़ैर किसी शरई उज़्र के जान बूझ कर रोज़ा नही रखते उन का क्या हुक्म है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: ऐसे लोगों पर क़ज़ा के साथ कफ़्फ़ारा भी वाजिब है और वह कफ़्फ़ारा यह है दो महीने रोज़ा रखे जिन में से इकतीस दिन लगातार रोज़ा रखे और बाक़ी उनतीस दिन का रोज़ा फ़ासले के साथ रख सकता है या साठ फ़क़ीरों को खाना खिलाये या उन सब को एक मुद तआम दे यानी खाने की जगह हर फ़क़ीर को सात सौ पचास ग्राम गेंहू, रोटी या जौ या इस तरह की चीज़ें भी दे सकता है और अगर दूसरे साल के रमज़ानुल मुबारक तक क़ज़ा नही की तो ऐहतेयाते वाजिब की बेना पर हर रोज़ के बदले एक मुद तआम दे।
सवाल:  अगर किसी को याद न रहे कि कितने रोज़े रमज़ान में छूटे हैं तो उस का क्या फ़रीज़ा है?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: सबसे कम मिक़दार पर इकतेफ़ा कर सकता है यानी जितने रोज़े के छूटने का यक़ीन है उस की क़ज़ा की जाये और उस से ज़्यादा ज़रूरी नही है।
सवाल: माहे मुबारके रमज़ान में सफ़र की वजह से रोज़े छोड़ने वाला क्या क़ज़ा के साथ कफ़्फ़ारा भी देगा?
जवाब: आयतुल्लाह सीस्तानी व ख़ामेनई: सिर्फ़ रोज़े की क़ज़ा वाजिब है कफ़्फ़ारा नही है अलबत्ता अगर रोज़ों की क़ज़ा को आईन्दा साल रमज़ान तक न बजा लाये तो ताख़ीर की वजह से हर दिन के बदले एक मुद (750 ग्राम) तआम कफ्फ़ारे के तौर पर देगा।



आयतल कुर्सी हदीस के आईने में

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1. Rasule Khuda (saww)
se J. Abuzar Gaffari (ra) ne sawaal kiya ke "Allah Ta'ala ki jaanib se naazil ki huwi Aayaat mein se  kaun si Aayat sab se buzurg (Aazam) hai.
Aap (saww) ne farmaya "Ayatul Kursi".
(Nawaadirul Ahadees, v1, p160)

2. Imam Baqir (as):
Jo koi ek baar Ayatul Kursi padhe to Khuda uski har buraayi duniya ki aur 1000 buraayi Aakherat ki mitaa dega aur duniya ki mushkilaat mein se aasaan-tareen Faqr (ghareebi) hai aur Aakherat ki mushkilaat mein se aasaan-tareen Azaab e Qabr hai.
(Amaali - Shaikh Sadooq, p102)

3. Imam Ali (as):
Jis ne 100 martaba Ayatul Kursi padhi to wo uske jaisa hai jisne poori zindagi Allah ki Ibadat ki ho.
(Uyoon Akhbaar ar Reza, v2, p149)

4. Imam Ali (as):
Apni haajat ke liye ghar se nikalte waqt Surah Aal e Imran ki aakhri aayat aur Ayatul Kursi aur Surah Qadr aur Surah Fatiha padh kar niklo. Is se Duniya aur Aakherat ki haajaat poori hongi.
(Hadiyat ush Shia, p608)

5. Imam Sadiq (as):
Jab bhi tum safar par jaane ka iraada karo to nikalne se pehle Saqda do aur Ayat ul Kursi ki tilawat karo.
(Awaaz e Deene Haq, Jul ’05)

6. Rasule Khuda (saww):
Jo Surah Baqarah ki pehli 4 Aayaat, Ayatul Kursi aur uske baad waali 2 Aayaat aur is Surah ki aakhri 3 Aayaat ki tilawat karega to wo khud aur uska Maal har aafat se bacha rahega, Shaitan oos se duur rahega aur wo kabhi Quran ko faramosh nahi karega.
(Sawaabul Aamaal o Iqaabul Aaamal, p221)

7. Imam Ali (as):
Jab tum mein se kisi ko aa'nkho'n mein dard ki shikaayat ho to dil mein shifa ki niyyat karo aur phir Ayatul Kursi ki tilawat karo, Insha Allah shifa paaoge.
(Nawaadirul Ahadees, v1, p109)

8. Imam Reza (as):
Jo shakhs sotey waqt Ayatul Kursi padh le wo faalij (paralysis / laqwe) se mehfooz rahega.
(Tibb e Imam Reza (as), p50)
(Sawaabul Aamaal o Iqaabul Aaamal, p223)

9. Imam Ali (as):
Jo shakhs suraj tuloo hone (suryoday / sunrise) se pehle Surah Ikhlaas, Surah Qadr aur Ayatul Kursi 11 - 11 martaba padhe to uska Maal har khatre se mehfooz rahega aur jo shakhs suraj tuloo hone se pehle Surah Ikhlaas, Surah Qadr ki tilawat karega wo poora din gunaho'n se mehfooz rahega agar che Shaitan jitna bhi zor lagaaye.
(Hadiyat ush Shia, p606)

10. Imam Sadiq (as):
Agar tumhara saamna kisi darinde (junglee jaanwar) se ho jaaye to uske saamne pehle Aayatul Kursi padho, phir ye kaho, "Tujh ko main qasam deta hoon Allah ki, qasam deta hoon Muhammad Rasulullah (saww) ki, qasam deta hoon Sulaiman bin Dawood (as) ki, qasam deta hoon Ameerul Momeneen Ali ibne Abi Talib (as) aur unke baad 11 Aimma (as) ki", to wo tumhare saamne se hatt jayega.
(Bihaar ul Anwaar, v8, ch39)

11. Imam Baqir (as):
Jo koi ek baar Ayatul Kursi padhe to Khuda uski har buraayi duniya ki aur 1000 buraayi Aakherat ki mitaa dega aur duniya ki mushkilaat mein se aasaan-tareen Faqr (ghareebi) hai aur Aakherat ki mushkilaat mein se aasaan-tareen Azaab e Qabr hai.
(Amaali - Shaikh Sadooq, p102)

12. Rasule Khuda (saww):
Jab koi Momin Ayatul Kursi padhta hai aur uska sawaab Qabrastan ke murdo’n ko hadiya karta hai to Allah Azz wa Jall, har ek harf (akshar) ke balde ek Farishta khalq karega aur Roz e Qayamat tak ye Farishte Allah ki Tasbeeh karenge aur is tasbeeh ka sawaab is Ayatul Kursi padhne wale ko milega.
(Al-Haqq Newsletter, Oct – Dec 2010)


रमज़ान का महीना, सेयाम का महीना, इस्लाम का महीना, पाकीज़गी का महीना | सहीफ़ा कामेलह

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रमज़ान के महीने के इस्तेक़बाल करने की दुआ
सहीफ़ा कामेलह



शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है 


तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने अपनी हम्द व सेपास की तरफ़ हमारी रहनुमाई की और हमें हम्दगुज़ारों में से क़रार दिया ताके हम उसके एहसानात पर शुक्र करने वालों में महसूब हों और हमें इस शुक्र के बदले में नेकोकारों का अज्र दे। उस अल्लाह तआला के लिये हम्द व सताइश है जिसने हमें अपना दीन अता किया और अपनी मिल्लत में से क़रार देकर इम्तियाज़ बख़्शा और अपने लुत्फ़ व एहसान की राहों पर चलाया। ताके हम उसके फ़ज़्ल व करम से उन रास्तों पर चल कर उसकी ख़ुशनूदी तक पहुंचें। 

ऐसी हम्द जिसे वह क़ुबूल फ़रमाए और जिसकी वजह से हम से वह राज़ी हो जाएं। तमाम तारीफ़ें उस अल्लाह के लिये है जिसने अपने लुत्फ़ व एहसान के रास्तों में से एक रास्ता अपने महीने को क़रार दिया। यानी रमज़ानका महीनासेयाम का महीनाइस्लाम का महीनापाकीज़गी का महीनातसफ़ीह और ततहीर का महीनाइबादत व क़याम का महीनावह महीना जिसमें क़ुरान नाज़िल हुआ। जो लोगों के लिये रहनुमा है। हिदायत और हक़ व बातिल के इम्तियाज़ की रौशन सदाक़तें रखता है। चुनांचे तमाम महीनों पर इसकी फ़ज़ीलत व बरतरी को आशकारा किया। इन फ़रावां इज़्ज़तों और नुमायां फ़ज़ीलतों की वजह से जो इसके लिये क़रार दीं। और इसकी अज़मत के इज़हार के लिये जो चीज़ें दूसरे महीनों में जाएज़ की थें इसमें हराम कर दीें और इसके एहतेराम के पेशे नज़र खाने-पीने की चीज़ों से मना कर दिया और एक वाज़ेअ ज़माना इसके लिये मुअय्यन कर दिया।

 ख़ुदाए बुज़ुर्ग व बरतर यह इजाज़त नहीं देता के इसे उसके मुअय्यना वक़्त से आगे बढ़ाया जाए और न क़ुबूल करता है के इससे मोहर कर दिया जाए। फिर यह के इसकी रातों में से एक रात को हज़ार महीनों की रातों नी फज़ीलत दी और इसका नाम शबे क़द्र रखा। इस रात में फ़रिश्ते और रूह अलक़ुद्स हर उस अम्र के साथ जो उसका क़तई फ़ैसला होता है। इसके बन्दों में से जिसपर वह चाहता है नाज़िल होते हैं। वोह रात सरासर सलामती की रात है जिसकी बरकते तुलूए फ़ज्र तक दाएम व बरक़रार है। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें हिदायत फ़रमा के हम इस महीने के फ़ज़्ल व शरफ़ को पहचानेंइसकी इज़्ज़त व हुरमत को बलन्द जानें और इसमें इन चीज़ों से जिनसे तूने मना किया है इज्तेनाब करें और इसके रोज़े रखने में हमारे आज़ा को नाफ़रमानियों से रोकने और कामों में मसरूफ रखने से जो तेरी ख़ुशनूदी का बाएस हों हमारी एआनत फ़रमाताके हम न बेहूदा बातों की तरफ़ कान लगाएं न फ़िज़ूल ख़र्ची की तरफ़ बे महाबा निगाहें उठाएंन हराम की तरफ़ हाथ बढ़ाएं न अम्रे ममनूअ की तरफ़ पेश क़दमी करें न तेरी हलाल की हुई चीज़ों के अलावा किसी चीज़ को हमारे शिकम क़ुबूल करें और न तेरी बयान की हुई बातों के सिवा हमारी ज़बानें गोया हों। सिर्फ़ उन चीज़ों के बजा लाने का बार उठाएं जो तेरे सवाब से क़रीब करें और सिर्फ़ उन कामों को अन्जाम दें जो तेरे अज़ाब से बचा ले जाएं फिर उन तमाम आमाल को रियाकारों की रियाकारी और शोहरत पसन्दों की शोहरत पसन्दी से पाक कर दे इस तरह के तेरे अलावा किसी को इनमें शरीक न करें और तेरे सिवा किसी से कोई मतलब न रखें। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें इसमें नमाज़हाए पन्जगाना के औक़ात से इन हुदूद के साथ जो तूने मुअय्यन किये हैं और उन वाजेबात के साथ जो तूने क़रार दिये हैं और उन लम्हात के साथ जो तूने मुक़र्रर किये हैं आगाह फ़रमा और हमें उन नमाज़ों में उन लोगों के मरतबे पर फ़ाएज़ कर जो इन नमाज़ों के दरजाते आलिया हासिल करने वालेइनके वाजेबात की निगेहदाश्त करने वाले और उन्हें इनके औक़ात में इसी तरीक़े पर जो तेरे अब्दे ख़ास और रसूल सल्लल्लाहो अलैह वालेही वसल्लम ने रूकूअ व सुजूद और उनके तमाम फ़ज़ीलत व बरतरी के पहलुओं में जारी किया थाकामिल और पूरी पाकीज़गी और नुमायां व मुकम्मल ख़ुशू व फ़रवतनी के साथ अदा करने वाले हैं। और हमें इस महीने में तौफ़ीक़ दे के नेकी व एहसान के ज़रिये अज़ीज़ों के साथ सिलाए रहमी और इनआम व बख़्शिश से हमसायों की ख़बरगीरी करें और अपने अमवाल को मज़लूमों से पाक व साफ़ करें और ज़कात देकर उन्हें पाकीज़ा तय्यब बना लें और यह के जो हमसे अलाहेदगी इख़्तियार करे उसकी तरफ़ दस्ते मसालेहत बढ़ाएंजो हम पर ज़ुल्म करे उस से इन्साफ़ बरतें जो हमसे दुश्मनी करे उससे सुलह व सफ़ाई करें सिवाए उसके जिससे तेरे लिये और तेरी ख़ातिर दुश्मनी की गयी हो। 

क्योंके वह ऐसा दुश्मन है जिसे हम दोस्त नहीं रख सकते और ऐसे गिरोह का (फ़र्द) है जिससे हम साफ़ नहीं हो सकते। और हमें इस महीने में ऐसे पाक व पाकीज़ा आमाल के वसीले से तक़र्रूब हासिल करने की तौफ़ीक़ दे जिनके ज़रिये तू हमें गुनाहों से पाक कर दे और अज़ सरे नौ बुराइयों के इरतेकाब से बचा ले जाए। यहां तक के फ़रिश्ते तेरे तेरी बारगाह में जो आमाल नामे पेश करें वह हमारी हर क़िस्म की इताअतों और हर नौअ की इबादत के मुक़ाबले में सुबुक हों। ऐ अल्लाह मैं तुझसे इस महीने के हक़ व हुरमत और नीज़ उन लोगों का वास्ता देकर सवाल करता हूं जिन्होंने इस महीने में शुरू से लेकर इसके ख़त्म होने तक तेरी इबादत की हो वह मुक़र्रब बारगाह फ़रिश्ता हो या नबी मुरसल  या कोई मर्द सालेह व बरगुज़ीदा के तू  मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमाए और जिस इज़्ज़त व करामत का तूने अपने दोस्तों से वादा किया है उसका हमें अहल बना और जो इन्तेहाई इताअत करने वालों के लिये तूने अज्र मुक़र्रर किया है वह हमारे लिये मुक़र्रर फ़रमा और हमें अपनी रहमत से उन लोगों में शामिल कर जिन्होंने बलन्दतरीन मर्तबे का इस्तेहक़ाक़ पैदा किया। ऐ अल्लाह। मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें इस चीज़ से बचाए रख के हम तौहीद में कज अन्देशी तेरी तमजीद व बुज़ुर्गी में कोताहीतेरे दीन में शकतेरे रास्ते से बे राहरवी और तेरी हुरमत से लापरवाही करें और तेरे दुश्मन शैतान मरदूद से फ़रेबख़ोर्दगी का शिकार हों। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और जब के इस महीने की रातों में हर रात में तेरे कुछ ऐसे बन्दे होते हैं जिन्हें तेरा अफ़ो व करम आज़ाद करता है या तेरी बख़्शिश व दरगुज़र उन्हें बख़्श देती है। तू हमें भी उन्हीं बन्दों में दाखि़ल कर और इस महीने के बेहतरीन एहल व असहाब में क़रार दे। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और इस चान्द के घटने के साथ हमारे गुनाहों को भी महो कर दे और जब इसके दिन ख़त्म होने पर आएं तो हमारे गुनाहों का वबाल हमसे दूर कर दे ताके यह महीना इस तरह तमाम हो के तू हमें ख़ताओं से पाक और गुनाहों से बरी कर चुका हो। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और इस महीने में अगर हम हक़ से मुंह मोड़े ंतो हमें सीधा रास्ते पर लगा दे और कजरवी इख़्तियार करें तो हमारी इस्लाह व दुरूस्तगी फ़रमा और अगर तेरा दुश्मन शैतान हमारे गिर्द एहाता करे तो उसके पन्जे से छुड़ा ले। 


बारे इलाहा! इस महीने का दामन हमारी इबादतों से जो तेरे लिये बजा लाई गई होंभर दे और इसके लम्हात को हमारी इताअतों से सजा दे और इसके दिनों में रोज़े रखने और इसकी रातों में नमाज़ें पढ़नेतेरे हुज़ूर गिड़गिड़ाने तेरे सामने अज्ज़ व इलहाह करने और तेरे रू बरू ज़िल्लत व ख़्वारी का मुज़ाहेरा करनेइन सबमें हमारी मदद फ़रमा। ताके इसके दिन हमारे खि़लाफ़ ग़फ़लत की और इसकी रातें कोताही व तक़स्बर की गवाही न दें। ऐ अल्लाह! तमाम महीनों और दिनों में जब तक तू हमें ज़िन्दा रखेऐसा ही क़रार दे। और हमें उन बन्दों में शामिल फ़रमा जो फ़िरदौसे बरीं की ज़िन्दगी के हमेशा हमेशा के लिये वारिस होंगे। और व हके जो कुछ वह ख़ुदा की राह में दे सकते हैंदेते हैं। फिर भी उनके दिलों को यह खटका लगा रहता है के उन्हें अपने परवरदिगार की तरफ़ पलट कर जाना है। और उन लोगों में से जो नेकियों में जल्दी करते हैं और वोही तो वह लोग हैं जो भलाइयों में आगे निकल जाने वाले हैं। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर हर वक़्त और हर घड़ी और हर हाल में इस क़द्र रहमत नाज़िल फ़रमा जितनी तूने किसी पर नाज़िल की हो और उन सब रहमतों से दोगुनी चौगनी के जिसे तेरे अलावा कोई शुमार न कर सके। बेशक तू जो चाहता है वही करने वाला है।

सुने 




जानिए माह ऐ रमज़ान में कौन से तारिख किस काम के लिए अच्छी या बुरी है |

रोजे में उपवास और जल के त्याग का मक़सद यह है कि आप दुनिया के भूखे और प्यासे लोगों का दर्द महसूस कर सकें। पूर्व आईपीएस ध्रुव गुप्त

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माह-ए-रमज़ान मुबारक !
 

इस्लामी कैलेंडर का सबसे पवित्र महीना माह-ए-रमज़ान शुरू हो रहा है। यह क़ुरआन शरीफ के दुनिया में नाजिल होने का महीना है। यह महीना इस्लाम के अनुयायियों को ही नहीं, समूची मानव जाति को प्रेम, करुणा और भाईचारे का संदेश देता है। नफ़रत और हिंसा से भरे इस दौर में रमजान का संदेश ज्यादा प्रासंगिक हो चला है। मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम के मुताबिक 'रोजा बन्दों को जब्ते नफ्स या आत्मनियंत्रण की सीख भी देता है और उनमें परहेजगारी या आत्मसंयम भी पैदा करता है।'हम सब जिस्म और रूह दोनों के समन्वय के नतीजें हैं। आम तौर पर हमारा जीवन जिस्म की ज़रूरतों - भूख, प्यास, सेक्स आदि के गिर्द ही घूमता रहता है। रमजान का महीना दुनियावी चीजों पर नियंत्रण रखने की साधना है। जिस रूह को हम साल भर भुलाए रहते हैं, माहे रमज़ान उसी को पहचानने और जाग्रत करने का आयोजन है।

 रोजे में उपवास और जल के त्याग का मक़सद यह है कि आप दुनिया के भूखे और प्यासे लोगों का दर्द महसूस कर सकें। परहेज, आत्मसंयम और ज़कात का मक़सद यह है कि आप अपनी ज़रूरतों में थोड़ी-बहुत कटौती कर समाज के कुछ अभावग्रस्त लोगों की कुछ ज़रूरतें पूरी कर सकें। रोज़ा सिर्फ मुंह और पेट का ही नहीं, आंख, कान, नाक और ज़ुबान का भी होता है। यह पाकीज़गी की शर्त है ! रमज़ान रोज़ादारों को आत्मावलोकन और ख़ुद में सुधार का भी मौक़ा है। दूसरों को नसीहत देने के बजाय अगर हम अपनी कमियों को पहचान कर उन्हें दूर कर लें तो हमारी दुनिया ज्यादा खूबसूरत, ज्यादा मानवीय होगी। रमज़ान के महीने को तीन हिस्सों या अशरा में बांटा गया है। महीने के पहले दस दिन 'रहमत'के हैं जिसमें अल्लाह रोजेदारों पर रहमतों की बारिश करता है। दूसरा अशरा 'बरकत'का है जब अल्लाह उनपर बरकत नाजिल करता है। रमज़ान का तीसरा अशरा मगफिरत का होता है जब अल्लाह अपने बंदों को उनके तमाम गुनाहों से पाक़ कर देता है। विश्वव्यापी संकट के इस कोरोना काल में सामाजिक फ़ासले रखते हुए घरों में ही इबादत और इफ़्तार करने वाले सभी मित्रों को माह-ए-रमज़ान की बधाई और शुभकामनाएं, मेरे एक शेर के साथ ! कौन कहता है ख़ुदा भूल गया है हमको ग़ैर का दर्द किसी दिल में अगर बाकी है !

पूर्व आईपीएस ध्रुव गुप्त

वालेदैन की अहमियत इमाम सज्जाद अ.स. की निगाह में

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इमाम सज्जाद अ.स. जिस समय पैदा हुए उस समय आपके दादा इमाम अली अ.स. की इमामत थी, आपने इमाम अली अ.स. की ख़ेलाफ़त के तीन साल और इमाम हसन अ.स. की ख़ेलाफ़त के कुछ महीने देखे हैं, आप 61 हिजरी में आशूर के दिन कर्बला में भी मौजूद थे और इमाम हुसैन अ.स. की शहादत के बाद आपने शियों की सरपरस्ती को क़ुबूल करते हुए अल्लाह की ओर से सबसे उच्च पद यानी इमामत की ज़िम्मेदारी संभाली।
जिस दौर में इमाम सज्जाद अ.स. ज़िंदगी गुज़ार रहे थे उसमें मज़हब की बुनियोदों को बदलने की कोशिश की जा रही थी और इस्लामी अहकाम इब्ने ज़ियाद, हज्जाज और मरवान जैसे बे दीनों के हाथ का खिलौना बनते जा रहे थे, ऐसे माहौल में अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि लोगों की नैतिकता कितनी गिर चुकी होगी और जेहालत कितनी बढ़ चुकी होगी, बनी उमय्या के इन बे दीन हाकिमों ने मदीने और आस पास के इस्लामी शहरों के दीनी माहौल को इतना गंदा कर दिया था कि दो अहम ख़तरे सामने खड़े दिखाई दे रहे थे, पहला इस्लामी माहौल और संस्कृति की जगह ग़ैर इस्लामी माहौल और संस्कृति, दूसरे ऐश और आराम की ज़िंदगी।
जिस समय अत्याचार अपनी सारी सीमाओं को पार कर चुका था, बनी उमय्या के बे दीन हाकिम शराफ़त और आज़ादी को पैग़म्बर स.अ. के शहर से छीन रहे थे, हक़ की आवाज़ उठाने वालों और पैग़म्बर स.अ. की सुन्नत को ज़िंदा रखने वालों को मिटाने की हर मुमकिन कोशिश जारी थी ऐसे हालात और ऐसे माहौल में इमाम सज्जाद अ.स. ने अपनी दुआओं द्वारा दीनी मआरिफ़ को मिटने से बचाया और दोबारा समाज जो लगभग मुर्दा हो चुका था उसमें फिर से रूह फूक दी और एक बार फिर लोग नमाज़ इबादत और अल्लाह से क़रीब होने लगे।
हदीस विशेषज्ञों के अनुसार इमाम सज्जाद अ.स. ने नक़्ल होने वाली 254 दुआएं मौजूद हैं जिसमें सहीफ़ए सज्जादिया के अलावा हुक़ूक़ नामी रिसाला और ज़ोह्द नामी रिसाला भी मौजूद है।
मां का हक़
क़ुर्आन और हदीस में वालेदैन के साथ नेक बर्ताव करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, जिसकी ओर इमाम सज्जाद अ.स. ने भी हुक़ूक़ नामी रिसाले में इशारा किया है, आपने रिश्तेदारों के हुक़ूक़ को जहां बयान कि वहां मां के हक़ को इस तरह बयान किया है कि तुम पर मां का हक़ यह है कि उसने तुम को 9 महीने पेट में इस तरह रखा कि कोई दूसरा इस काम पर तैय्यार नहीं हो सकता, मां ही वह है जिसने तुमको दिल का लहू दूध की शक्ल में पिलाया यह भी केवल मां ही है जो अपने बच्चे के लिए कर सकती है, उसने पूरे ध्यान से अपनी आंख, कान, नाक, हाथ, पैर और बदन के हर हिस्से से तुम्हारा ख़्याल रखा, और ऐसा भी नहीं कि इस काम के लिए उसको किसी तरह की लालच या ज़ोर ज़बर्दस्ती हो बल्कि हंसी ख़ुशी शौक़ के साथ ऐसा किया, उसने जब तुम पेट में थे हर तरह के दर्द, तकलीफ़, मुश्किल और बीमारी को केवल तुम्हारे लिए सहन किया तब कहीं अल्लाह ने तुम्हें मां के पेट से निकाल कर इस दुनिया में भेजा।
यही मां थी जो ख़ुद भूखी रही लेकिन तुमको कभी भूखा नहीं रखा, ख़ुद प्यासी रही लेकिन तुझे जब जब प्यास लगी उसने तेरी प्यास बुझाई, वह ख़ुद तो धूप में बैठी लेकिन तुमको हमेशा चिलचिलाती गर्मी से बचाया, उसने हर वह काम किया जिससे तुम्हारी ज़िंदगी में ख़ुशियां और आराम आ सके, उसकी भरपूर कोशिशों से तुमको चैन की नींद आती रही है।
उसका पेट तुम्हारा घर उसकी गोद तुम्हारा झूला उसका वजूद तुम्हें हर परेशानी और कठिनाइयों से बचाने का में मददगार था, उसने दुनिया की सर्दी और गर्मी को बर्दाश्त किया ताकि तुम सुकून सो जी सको, इसलिए तुम हमेशा मां का उतना ही शुक्रिया अदा करो जितना उसने तुम्हारे लिए तकलीफ़ें और कठिनाइयां झेली हैं, और याद रहे तुम अल्लाह की मदद और तौफ़ीक़ के बिना मां का शुक्रिया नहीं अदा कर सकते।
बाप का हक़
आपने बाप के हक़ के बारे में फ़रमाया, ध्यान रहे कि तुम बाप ही की वजह से दुनिया में हो अगर वह न होते तो तुम भी न होते, इसलिए हमेशा ख़्याल रहे जब भी किसी नेमत और अच्छाई के मिलते समय दिल में घमंड पैदा हो तो तुरंत यह सोंचना कि इस नेमत और अच्छाई में तुम्हारे वालिद का हाथ है क्योंकि तुम उनकी वजह से ही दुनिया में हो, और फिर ख़ुदा की बारगाह में बाप जैसी नेमत मिलने पर उसका शुक्रिया अदा करो।
वालेदैन के हक़ में दुआ
इस बारे में सहीफ़ए सज्जादिया की 24वीं दुआ में मिलता है कि ख़ुदाया हमारे वालेदैन को विशेष सम्मान दे और अपनी ख़ास रहमत हमेशा उन पर नाज़िल कर....
ख़ुदाया! वालेदैन का सम्मान करना जैसा तू चाहता है वैसे ही करने की तौफ़ीक़ दे, हमें हमेशा वालेदैन के हक़ को अदा करने की तौफ़ीक़ दे.....
ख़ुदाया! मेरे दिल में मेरे वालेदैन की वैसी ही हैबत तारी कर दे जैसे बादशाहों की हैबत लोगों के दिलों में होती है, और मुझे तौफ़ीक़ दे कि मैं उनके साथ ऐसा रवैया अपनी सकूं जैसा एक मां अपने बच्चे के साथ अपनाती है.....
ख़ुदाया! अगर मेरे वालेदैन मुझ पर कम मेहेरबान हों तो तू उसे मेरी निगाह में ज़्यादा कर दे, और अगर उनके लिए मेरे अधिक सम्मान को मेरी निगाह में हमेशा कम दिखा.....
ख़ुदाया! मेरी मदद कर ताकि उनके सामने मैं हमेशा धीमी आवाज़ में बात करूं और हमेशा उनके लिए मेरा दिल नर्म रहे......
ख़ुदाया! मेरे बचपन में जिस तरह उन्होंने मेरी तरबियत की और मुझे सम्मान दिया तू उन्हें सम्मान दे और इसका उनको बेहतरीन सवाब दे, और जिस तरह उन्होंने मेरे बचपन में मुझे हर तकलीफ़ से बचाया तू उन्हें पूरी उम्र हर तकलीफ़ और मुसीबत से महफ़ूज़ रख.....
ख़ुदाया! अगर मेरे वालेदैन ने कभी मेरे साथ बुरा बर्ताव किया हो या मेरा हक़ पूरा न किया हो या मेरी तरबियत में कोई कमी की हो तो मैंने उनको माफ़ किया क्योंकि मैं इनमें से किसी काम के लिए उनको दोष नहीं दूंगा बल्कि इन सब में मेरी ही कमी है उनके एहसान और उनके हक़ मुझ पर बहुत अधिक है, मैं उनके बर्ताव को ले कर तेरी बारगाह में शिकायत कर ही नहीं सकता, ख़ुदाया तू उनके साथ नर्मी और मोहब्बत के साथ बर्ताव कर......
ख़ुदाया! अगर तू ने मुझसे पहले मेरे वालेदैन के गुनाहों को माफ़ कर दिया तो उनको मेरी शफ़ाअत की अनुमति देना और अगर मुझे उन से पहले माफ़ कर दिया तो मुझे उनकी शफ़ाअत की अनुमति देना, ताकि हम साथ में तेरी रहमत, करम और मोहब्बत को हासिल कर सकें इसलिए कि तू बड़ा मेहेरबान है और तू ही नेमतें देने वाला और रहम व करम वाला है।



क़ुरान की नज़र से वालेदैन के लिए औलाद की ज़िम्मेदारियाँ

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क़ुर्आन और मासूमीन अ.स. की हदीसों में वालेदैन के साथ नेक बर्ताव और अच्छे अख़लाक़ से पेश आने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, अल्लाह ने कई जगहों पर अपनी वहदानियत, इबादत और शुक्र अदा करने के हुक्म के साथ वालेदैन के साथ नेक बर्ताव करने और उनका शुक्रिया अदा करने का हुक्म दिया है।

इंसान एक सामाजिक मख़लूक़ है इसलिए अल्लाह ने उसे अलग अलग रिश्तों में पिरोया है और हर एक पर दूसरों के कुछ हक़ और कुछ ज़िम्मेदारियां हैं जिसको अदा करना हर एक के लिए ज़रूरी है, इन सारे रिश्तों में सबसे अहम और पहला रिश्ता हर इंसान का अपने वालेदैन से है, क्योंकि अल्लाह के बाद वही हैं जिनके वुजूद की बरकत से हर इंसान इस दुनिया में वुजूद की नेमत पाता है, यानी वालेदैन की वजह से ही इंसान जिसका कोई वुजूद नहीं था उसे वुजूद मिला और वह इस दुनिया में आया ताकि इंसानी कमाल के दर्जों को तय कर के ऊंचे मक़ाम हासिल करे, हक़ीक़त में इंसान में पाई जाने वाली सारी ख़ूबियों, अच्छाईयों और नेक आदतों की बुनियाद उसके वालेदैन ही हैं, यही वजह है कि अल्लाह ने क़ुर्आन में अपनी बंदगी और इताअत के बाद वालेदैन के साथ एहसान और नेकी करने का हुक्म दिया है, और जिस तरह इबादत के बिना बंदगी का हक़ अदा नहीं हो सकता उसी तरह वालेदैन के साथ नेकी और एहसान के बिना उनका हक़ भी अदा नहीं हो सकता।
क़ुर्आन और मासूमीन अ.स. की हदीसों में वालेदैन के साथ नेक बर्ताव और अच्छे अख़लाक़ से पेश आने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, अल्लाह ने कई जगहों पर अपनी वहदानियत, इबादत और शुक्र अदा करने के हुक्म के साथ वालेदैन के साथ नेक बर्ताव करने और उनका शुक्रिया अदा करने का हुक्म दिया है। (वालेदैन को नेकी और एहसान करने का हुक्म- सूरए बक़रह, आयत 83, सूरए निसा, आयत 36, सूरए इसरा, आयत 23, 24, सूरए अनकबूत, आयत 8, और वालेदैन का शुक्रिया अदा करने का हुक्म सूरए लुक़मान आयत 14 में, और वालेदैन के हक़ में दुआ करने का हुक्म सूरए इब्राहीम आयत 41 और सूरए नूह आयत 28 में)
इसी तरह हदीसों में भी वालेदैन की ख़िदमत की अहमियत पर ताकीद और उसकी फ़ज़ीलत बयान की गई है।
अल्लाह का इरशाद है कि, और तुम्हारे रब ने हुक्म दिया है कि तुम उनके अलावा किसी की इबादत नहीं करोगे और अपने वालेदैन के साथ नेक रवैये से पेश आओगे, अगर उनमें से कोई एक या वह दोनों तुम्हारे सामने बूढ़े हो जाएं (और तुम्हें उनकी कोई बात बुरी लगे) तो उनको उफ़ तक मत कहना और न ही उन्हें झिड़कना और उनसे नर्म लहजे में बात करना और उनसे मेहेरबानी, मोहब्बत, विनम्रता और झुक कर पेश आना और कहना ऐ परवरदिगार तू उन पर उसी तरह रहम फ़रमा जिस तरह उन्होंने मुझे पाला है। (सूरए इसरा, आयत 23, 24)
इस आयत में अल्लाह ने ख़ास तौर से वालेदैन के बुढ़ापे का ज़िक्र फ़रमाया है कि अगर वालेदैन में से कोई एक या वह दोनों तुम्हारी ज़िंदगी में बूढ़े हो जाएं तो उनके सामने उफ़ तक मत कहो, बुढ़ापे की हालत को ख़ास तौर इसलिए ज़िक्र फ़रमाया ताकि वालेदैन की जवानी में औलाद को उफ़ कहने की हिम्मत नहीं होती और न ही वह उन्हें झिड़क सकते हैं, अधिकतर वालेदैन की जवानी में उनके साथ बदतमीज़ी और गुस्ताख़ी का ख़्याल कम ही होता है, हालांकि बुढ़ापे में जब वह कमज़ोर और औलाद के मोहताज होते हैं तो उस समय इस ख़तरे की संभावना बढ़ जाती है और दूसरी तरफ़ बुढ़ापे में आम तौर से कमज़ोरी और मजबूरी की वजह से इंसान के मिजाज़ और रवैये में चिड़चिड़ापन और झुंझलाहट पैदा हो जाती है, तो यह एक तरह का औलाद का इम्तेहान है कि वह अपने वालेदैन के साथ अच्छा सुलूक करे, जैसे वह औलाद के बचपन में हर तरह की तकलीफ़ और सख़्तियों को हंसी ख़ुशी बर्दाश्त करते थे, इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं अगर वालेदैन की बे अदबी और बदतमीज़ी में उफ़ से कम दर्जे की कोई चीज़ होती तो परवरदिगार उसे भी हराम क़रार दे देता। (दुर्रुल मंसूर, जलालुद्दीन सियूती, जिल्द 5, पेज 224, वसाएलुश-शिया में शैख़ हुर्रे आमुली र.अ. ने जिल्द 1 पेज 500 पर इसी मज़मून की हदीस इमाम सादिक़ अ.स. से नक़्ल हुई है)
सूरए अनकबूत आयत न. 8 में अल्लाह का इरशाद है, हमने इंसानों को अपने वालेदैन के साथ नेक रवैया रखने की नसीहत की है और अगर वह कोशिश करें कि तुम मेरे साथ उसे शरीक क़रार दो जिसका तुम्हें कोई इल्म नहीं तो कभी भी उनका कहना मत मानना, तुम सबके मेरी तरफ़ पलट कर आना है फिर मैं हर उस चीज़ से बा ख़बर करूंगा जो तुम करते रहे हो।
वालेदैन का हक़ कभी ख़त्म नहीं होता, इसलिए उनके साथ हमेशा नेकी और भलाई से पेश आना वाजिब है चाहे वह काफ़िर ही हों, इसलिए उनके साथ नेकी करना, उनके मुसलमान होने के साथ ख़ास नहीं है बल्कि उनके साथ हर हालत में अच्छा बर्ताव ज़रूरी है चाहे वह काफ़िर ही हों, यही वजह है कि इस्लाम ने बड़ी सख़्ती से उनके विरोध और नाफ़रमानी से डराया है और वालेदैन की नाफ़रमानी और विरोध को शिर्क के बाद सबसे बड़ा गुनाह क़रार दिया है।
मासूमीन अ.स. की हदीसों और रिवायतों में भी वालेदैन की बहुत ज़्यादा अहमियत बयान हुई है और उनके साथ नेक रवैये से पेश आने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, हम इस लेख में बस कुछ हदीसों का ज़िक्र कर रहे हैं।
** पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि मां बाप की इताअत करो चाहे वह काफ़िर क्यों न हो। (अहादीसुत-तुल्लाब, शाकिर फ़रीद, पेज 251)
** पैग़म्बर स.अ. फ़रममाते हैं कि वालेदैन की तरफ़ देखना भी इबादत है। (बिहारुल अनवार, अल्लामा मजलिसी र.अ., जिल्द 1, पेज 204)
** इमाम अली अ.स. ने फ़रमाया कि अपने वालिद और अपने उस्ताद के सम्मान में अपनी जगह से खड़े हो जाओ चाहे तुम अमीर और ऊंचे पद पर ही क्यों न हो। (मुस्तदरकुल वसाएल, मिर्ज़ा हुसैन नूरी र.अ., जिल्द 15, पेज 203)
मां की दुआ का असर
मां की दुआ का असर इतना ज़्यादा है कि अल्लाह उसकी दुआ के नतीजे में न केवल यह कि औलाद को बख़्श देता है बल्कि मां की दुआ औलाद को नबियों का हमनशीं (साथी) बना देती है, जैसाकि हज़रत मूसा अ.स. की मशहूर दास्तान है....
एक दिन हज़रत मूसा अ.स. ने मुनाजात करते हुए अल्लाह की बारगाह में कहा, ख़ुदाया तुझसे मेरा एक सवाल है कि जन्नत में सेरा हमनशीं और साथी कौन होगा? जिब्रईल नाज़िल हुए और कहा, ऐ मूसा (अ.स.) अल्लाह ने तुम्हें सलाम भेजा है और फ़रमाया है कि तुम्हारा साथी जन्नत में फ़लां क़साई होगा, हज़रत मूसा अ.स. उस क़साई की दुकाम पर पहुंचे, देखा एक जवान क़साई अपने काम में मसरूफ़ है और लोगों के हाथों गोश्त बेच रहा है, कुछ देर तक हज़रत मूसा अ.स. देखते रहे लेकिन उसका कोई ख़ास अमल दिखाई नहीं दिया, जब रात हुई तो क़साई ने अपनी दुकान बंद की और घर की तरफ़ चल पड़ा, हज़रत मूसा अ.स. उसके साथ उसके घर तक आए, जब घर के दरवाज़े पर पहुंचे तो हज़रत मूसा अ.स. ने कहा, ऐ जवान, मेहमान चाहिए? 
उस शख़्स ने कहा, मेहमान तो अल्लाह का हबीब होता है, आप घर तशरीफ़ लाइए, उस जवान ने इस अंजान शख़्स को घर के अंदर बुलाया और खाना तैयार करने लगा, फिर उसने एक गहवारे जैसी टोकरी जो छत से नीचे लटकी हुई थी उसे नीचे उतारा जिसमें एक बूढ़ी औरत लेटी हुई थी, उस जवान ने उस औरत का हाथ मुंह धुलाया और उसके बाद अपने हाथों से खाना खिलाया, जब वह खा चुकी तो उसे दोबारा उस गहवारे जैसी टोकरी में लिटा कर दोबारा छत से लटका दिया, हज़रत मूसा अ.स. ने देखा कि उस बूढ़ी औरत में होंटों को हिलाते हुए कुछ कहा, लेकिन हज़रत मूसा अ.स. सुन न सके कि उसने क्या कहा, जिस समय वह जवान और हज़रत मूसा अ.स. खाना खाने लगे तो हज़रत मूसा अ.स. ने पूछा कि यह बूढ़ी औरत कौन है?
उस जवान ने कहा कि यह मेरी मां है, मेरी माली हालत ऐसी नहीं है कि मैं किसी ख़िदमत करने वाली को रख सकूं जो इनकी देख भाल कर सके इसलिए उसके सारे काम मैं ख़ुद अंजाम देता हूं, हज़रत मूसा अ.स. ने पूछा, ऐ जवान, जब तुम खाना खिला रहे थे तो वह क्या कह रही थीं? जवान ने कहा कि जब मैं उनके हाथ पैर धुलाता हूं और उन्हें खाना खिलाता हूं तो वह मेरे हक़ में दुआ करती हैं और कहती हैं कि अल्लाह तेरी मग़फ़ेरत फ़रमाए और तुझे जन्नत में हज़रत मूसा अ.स. का साथी क़रार दे, हज़रत मूसा अ.स. ने फ़रमाया, ऐ जवान, मैं तुझे बशारत देता हूं कि अल्लाह ने तेरे हक़ में तेरी मां की दुआ क़ुबूल कर ली है क्योंकि मैं मूसा हूं और जिब्रईल ने मुझे यह बात बताई है कि जन्नत में तुम मेरे साथी होगे। (गंजीनए-मआरिफ़, मोहम्मद रहमती, जिल्द 1, पेज 196)


हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत और वसीयत |

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हजरत अली अलैहिस्सलाम की वसीयत की कुछ अहम् बातें |

1. तक्वा अखियार करो और अल्लाह से डरते रहो |
२. ज़िन्दगी में अनुशासन पे ध्यान दो और अपने कामो को आसान बनाओ |
३. लोगो के बीच मतभेदों को दूर करो |
४. लोगों की समस्याओं का संधान किया करो |
५. पड़ोसियों से अच्छे ताल्लुक रखो और यतीमो की मदद किया करो |
६.क़ुरआन पर अमल करने को न भूलना और इसे अपनी ज़िन्दगी में उतारो |आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी कहते हैं कि एसा न हो कि हम केवल पवित्र क़ुरआन के पढ़ने तक सीमित रह जाएं और उसके मूल संदेश अर्थात उसकी बातें अपनाने को भूल जाएं
७.अम्र बे मारुफ़ और नहअनिल  मुनकर को न छोड़ों अर्थात लोगों को बुरे काम करने से रोको और अच्छ काम करने का आदेश दो
८. इस्लाम की राह में अपनी जान माल से जिहाद करो |


हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत 21 रमज़ान सन 40 हिजरी क़मरी को मस्जिद ऐ कूफा में हुयी | हजरत अली में उस वक़्त जब वे सुबह की नमाज़ पढ़ा रहे थे दुष्ट इब्ने मुल्जिम ने  ज़हर से बुझी तलवार से  उनपे वार किया और उन्हें इतना ज़ख़्मी क्र दिया की तीन दिन के बाद २१ रमजान को वे दुनिया से रुखसत हो गए | उन्होंने अपने परिजनों को इकट्ठा करके वसीयत की और शांत हृदय से वे अपने पालनहार से जा मिले।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक इस्लामी शिक्षाओं के प्रचार एवं प्रसार के लिए प्रयास करते रहे। अपने जीवन के अन्तिम महत्वपूर्ण क्षणों में उन्होंने जो वसीयत की है वह आने वाली पीढ़ियों के लिए पाठ है जिससे लाभ उठाना चाहिए।

अपनी वसीयत में वे कहते हैं कि हे मेरे सुपुत्र हसन! तुम और मेरी अन्य संतानों, मेरे परिजनों और जिस-जिस तक मेरा यह संदेश पहुंचे उनसब से मैं सिफ़ारिश करता हूं कि अपने जीवन में कभी भी तक़वे अर्थात ईश्वरीय भय को हाथ से न जाने दो।  इस बात का प्रयास करो कि जीवन के अन्तिम समय तक ईश्वर के धर्म पर बाक़ी रहो।

  तुमसब मिलकर ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से थाम लो।  ईमान और ईश्वरीय पहचान के आधार पर तुम एकजुट रहो।  मतभेदों से सदैव बचो क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि लोगों के मतभेदों को दूर करना और उन्हें सही मार्ग पर लाने जैसे कार्य को नमाज़ और रोज़े पर वरीयता प्राप्त है।  जो चीज़ धर्म के लिए ख़तरनाक और हानिकारक है वह आपसी मतभेद हैं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इन वाक्यों की तफसील बयान  करते हुए आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी लिखते हैं कि अपनी वसीयत के पहले भाग में इमाम अली ने पुनःतक़वे और  अल्लाह से डरते रहने  पर बल देते हुए समझाया है कि यह सफलता की कुजी है और परलोक की यात्रा में मनुष्य का अच्छा साथी भी यही है।  वे कहते हैं कि तक़वे से ही मनुष्य अपने जीवन में सफलताएं अर्जित कर सकता है।  वे कहते हैं कि इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अनुशासन की ओर संकेत किया है।  आयतुल्लाह शीराज़ी कहते हैं कि जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन की आवश्यकता होती है।  उनका कहना है कि अनुशासनहीनता से सारे काम बिगड़ जाते हैं।  अनुशासन के पालन से हर क्षेत्र में विकास और प्रगति संभव है।  हमारी सृष्टि की व्यवस्था पूर्ण से अनुशासन पर ही निर्भर है।  जिस प्रकार से अनुशासन का पालन न करने से व्यक्ति अपने जीवन में सफलता से वंचित रह जाता है उसी प्रकार से यदि किसी समाज में अनुशासन की कमी पाई जाएगी तो उसे भी नाना प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।


आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी कहते हैं कि हज़रत अली ने अपनी वसीयत में जो यह कहा है कि लोगों के मतभेदों को दूर करना और उनकी सेवा किसी भी इबादत से  बढ़कर है तो उसका मुख्य कारण यह है कि यदि लोगों के मन में पाई जाने वाली शत्रुता और उनके मतभेदों को दूर नहीं किया जाएगा तो समाज बटने लगेगा जो  पूरे समाज के लिए नुकसानदेह होगा ।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि लोगों के बीच सुधार या उनकी समस्याओं का समाधान करना अच्छा काम है।

इसके बाद इमाम अली अलैहिस्सलाम सामाजिक, नैतिक और उपासना संबन्धी विषयों के बारे में कहते हैं कि अनाथों के अधिकारों का ध्यान रखो।  एसा न हो कि वे भूखे रहें और अभिभावक के बिना रह जाएं।  इसके बाद वे पड़ोसियों के संबन्ध में कहते हैं कि उनके साथ अच्छा व्यवहार करोऔर भलाई से पेश आओ क्योंकि स्वंय पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनके ध्यान रखने पर विशेष बल दिया है।  पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि इस्लाम में पड़ोसियों के अधिकारों का इतना अधिक ध्यान रखा गया है कि मुझको यह शक होने लगा कि संभवतः “इर्स” में भी वे भागीदार हैं।  वास्तव में इस्लाम में पड़ोसी को विशेष महत्व प्राप्त है।  इस्लाम में पड़ोसियों का ध्यान रखने और उनके अधिकारों को अदा करने पर बहुत बल दिया गया है।


इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि क़ुरआन पर अमल करने को न भूलना। कहीं एसा न हो कि क़ुरआन पर अमल करने में दूसरे तुमसे आगे निकल जाएं अर्थात तुम क़ुरआन की शिक्षाओं को व्यवहारिक बनाओ।

इस विषय को स्पष्ट करते हुए आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी कहते हैं कि एसा न हो कि हम केवल पवित्र क़ुरआन के पढ़ने तक सीमित रह जाएं और उसके मूल संदेश अर्थात उसकी बातें अपनाने को भूल जाएं और दूसरे उससे पाठ लेकर हमसे आगे निकल जाएं।  उदाहरण स्वरूप दूसरे तो शिक्षा प्राप्त करके नए-नए अविष्कार करें और उससे लाभ उठाएं जबकि हम निरक्षरता का शिकार हो जाएं।  वे अपने कामों में ईमानदारी से काम लें और हम एसा न कर सकें।  दूसरे पढ़लिखकर आर्थिक दृष्टि से संपन्न हों और हम पिछड़पन तथा बेरोज़गारी का शिकार बनें।  बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस प्रकार की बहुत सी समस्याएं वर्तमान समय में इस्लामी समाजों में पाई जाती हैं और विडंबना यह है कि इन समस्याओं के समाधान के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।

आप फ़रमाते हैं किअम्र बे मारुफ़ और नहअनिल  मुनकर को न छोड़ों अर्थात लोगों को बुरे काम करने से रोको और अच्छ काम करने का आदेश दो। इसे त्याग करने का परिणाम यह निकलेगा कि तुमपर अत्याचारी शासन करेंगे जो तुमपर हर प्रकार के अत्याचार करेंगे।  एसे में तुम्हारे अच्छे भी यदि दुआ करेंगे तो उनकी दुआ नहीं सुनी जाएगी।  अपने इस कथन के माध्यम से इमाम अली अलैहिस्सलाम यह समझाना चाहते हैं कि भले कामों का आदेश देना और बुराइयों से रोकना, एसे कार्य हैं जिनको छोड़ने से व्यक्ति और समाज दोनों को क्षति पहुंचती है।  इस्लाम के इस अनिवार्य आदेश की अवहेला के दुष्परिणामों को वर्तमान काल में बहुत ही स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।  चारों ओर फैला भ्रष्ट्चार इसका स्पष्टतम उदाहरण है।

अपनी वसीयत में हज़रत अली अलैहिस्सलाम आगे कहते हैं कि जान, माल और ज़बान से तुम ईश्वर के मार्ग में जेहाद करो और इसमे तनिक भी लापरवाही न करो।  जान से जेहाद करने से तात्पर्य इस्लाम की रक्षा के लिए रणक्षेत्र में उपस्थित होना है।  माल से जेहाद का अर्थ इस्लाम की रक्षा के लिए पैसा ख़र्च करना और आवश्यकता रखने वालों की आर्थिक सहायता करना है।  दान-दक्षिणा भी इसी सूचि में आती है।  ज़बान से जेहाद का अर्थ इस्लाम के प्रचार व प्रसार के लिए प्रयास करना है।  यहां पर इस बात को स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि जेहाद के नाम का दुरूपयोग किसी भी स्थिति में और किसी भी स्थान पर वैध नहीं है।  जेहाद बहुत पवित्र शब्द है और इसका अर्थ बहुत व्यापक है किंतु इसकों केवल मार-काट तक सीमित रखना और इस नाम से लोगों की हत्याएं करना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है बल्कि यह इस्लामी शिक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है।  वर्तमान समय में कुछ आतंकवादी गुट इस्लाम के नाम पर जो जनसंहार कर रहे हैं और निर्दोष लोगों की हत्याएं कर रहे हैं उसे किसी भी रूप में जेहाद नहीं कहा जा सकता बल्कि यह जेहाद के नाम पर कलंक है।


इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम आपस में प्रेम और मित्रता की सिफ़ारिश करते हैं।  इस्लाम में दोस्ती और प्रेम को बहुत महत्व प्राप्त है।  इसके विपरीत मतभेदों और परस्पर दूरियों से बचने को कहा गया है।  आपसी वैमनस्य को समाप्त करने को प्रेरित किया गया  है।  इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जब दो मुसलमान आपस में एक दूसरे से नाराज़ होते हैं तो शैतान बहुत प्रसन्न होता है।  किंतु जब वे दोनों फिर मिलते हैं तो वह अपने पैर पटकता है और क्रोधित होता है।

यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि यदि उनकी वसीयत को पूरे ढंग से अपने जीवन में उतार लिया जाए तो हम एक सफल जीवन व्यतीत कर सकेंगे बल्कि एक आदर्श जीवन गुज़ारेंगे।  इमाम अली की वसीयत को अपनाकर लोक-परलोक दोनों में कल्याण प्राप्त किया जा सकता है।  खेद की बात यह है कि अली जैसे महान व्यक्ति को पहचाना नहीं गया।


हे ईश्वर! रमज़ान के पवित्र महीने में तू हमें हज़रत अली अलैहिस्सलाम को उचित ढंग से पहचानने और उनकी शिक्षाओं को व्यवहारिक बनाने की शक्ति व सामर्थ्य प्रदान कर।    



मैं बंदा खुदा का और अली का गुलाम हूँ |

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मैं क़ाएल ऐ खुदा औ इमाम हूँ

बंदा खुदा का और अली का गुलाम हूँ |
हज़रत अली अस का मशहूर कथन है की मुसलमान तुम्हारा धर्म से भाई है और गैर मुसलमान तुम्हारा इंसानियत के रिश्ते से भाई है |

आज सभी मुसलमानो के लिए दुःख का दिन है क्यों की आज के ही दिन हज़रत मुहम्मद के दामाद और उनके उनके वसी ,इमाम हुसैन अस के पिता और मुसलमानों के खलीफा हज़रत अली ( अस ) पे दुष्ट इब्ने मुल्जिम ने ज़हर से बुझी तलवार से उनपे वार किया और उन्हें इतना ज़ख़्मी क्र दिया की तीन दिन के बाद २१ रमजान को वे दुनिया से रुखसत हो गए | 19 रमज़ान को हजरत अली जब सुबह की नमाज़ पढ़ा रहे थे तो लानती इब्ने मुल्जिम ने पीछे से उनपे वार करके उन्हें ज़ख़्मी किया | इस दुःख की घड़ी में सभी शांतिप्रिय मुसलमान उनकी बातों को उनकी हिदायतों और क़ुर्बानियों को याद करते हैं और दुःख में सभाएं करते और जुलुस निकलते हैं | इस वर्ष लॉक डाउन के कारन शांतिप्रिय मुसलमानो ने यह दुःख घरों में बैठ के मनाया और दुखी रहे अफ़्सोसो रहा कीहम उस तरह से यह ग़म न मना सके जैसे मनाना चाहिए था | हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक इस्लामी शिक्षाओं के द्वारा इंसानियत और भाईचारे का पैगाम लोगों तक पहुंचाते रहे । अपने जीवन के अन्तिम महत्वपूर्ण क्षणों में उन्होंने जो वसीयत की है वह आने वाली पीढ़ियों के लिए पाठ है जिससे लाभ उठाना चाहिए हजरत अली अलैहिस्सलाम की वसीयत की कुछ अहम् बातें | 1. तक्वा अखियार करो और अल्लाह से डरते रहो | २. ज़िन्दगी में अनुशासन पे ध्यान दो और अपने कामो को आसान बनाओ | ३. लोगो के बीच मतभेदों को दूर करो | ४. लोगों की समस्याओं का समाधान किया करो | ५. पड़ोसियों से अच्छे ताल्लुक रखो और यतीमो की मदद किया करो | ६.क़ुरआन पर अमल करने को न भूलना और इसे अपनी ज़िन्दगी में उतारो |आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी कहते हैं कि एसा न हो कि हम केवल पवित्र क़ुरआन के पढ़ने तक सीमित रह जाएं और उसके मूल संदेश अर्थात उसकी बातें अपनाने को भूल जाएं ७. लोगों को बुरे काम करने से रोको और अच्छ काम करने का आदेश दो

हज़रत अली अ0 की वसीयत पे अमल ही अली की विलायत पे यक़ीन की दलील है |

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अपने पड़ोसियों के बारे में अल्लाह से डरते रहना..... क्योंकि उनके बारे में पैग़म्बर स0 ने बराबर हिदायत की है और आप इस हद तक उनके लिए सिफ़ारिश फऱमाते रहे कि हम लोगों को ये गुमान होने लगा कि आप उन्हें भी विरासत दिलाएँगे


बिस्मिल्लाह हिर्रहमानिर्हीम


हज़रत अली अ0 की वसीयत


जब आप पर इबने मुल्जिम ज़रबत लगा चुका तो आपने इमाम हसन अ0 और इमाम हुसैन अ0 से फ़रमायाः
• मैं तुम दोनो को वसीयत करता हूँ कि अल्लाह से डरते रहना।
• दुनिया के इच्छुक ना होना, अगरचे वह तुम्हारे पीछे लगे।
• और दुनिया की किसी ऐसी चीज़ पर न कुढ़ना जो तुमसे रोक ली जाए।
• जो कहना हक़ के लिए कहना।
• और जो करना सवाब के लिए करना।
• ज़ालिम के दुश्मन और मज़लूम के मददगार बने रहना।
• मैं तुमको (इमाम हसन अ0 और इमाम हुसैन अ0 को)....अपनी तमाम संतानों को....अपने परिवार को....और जिन जिन तक (रहती दुनिया तक) मेरी यह वसीयत पहुँचे सब को वसीयत करता हुँ कि अल्लाह से डरते रहना।
• अपने मामलात दुरुस्त और आपस के सम्बंध सुलझाए रखना क्योंकि मैंने तुम्हारे नाना रसूल अल्लाह स0 को फ़रमाते सुना है कि आपस की दूरियों को मिटाना आम नमाज़ रोज़े से अफ़ज़ल है।
• देखो यतीमों के बारे में अल्लाह से डरते रहना, उनके फ़ाक़े की नौबत न आये......और तुम्हारी मौजूदगी में.....वह तबाह व बरबाद न हो जाएँ।
• अपने पड़ोसियों के बारे में अल्लाह से डरते रहना..... क्योंकि उनके बारे में पैग़म्बर स0 ने बराबर हिदायत की है और आप इस हद तक उनके लिए सिफ़ारिश फऱमाते रहे कि हम लोगों को ये गुमान होने लगा कि आप उन्हें भी विरासत दिलाएँगे।
• क़ुर्आन के बारे में अल्लाह से डरते रहना..... ऐसा ना हो दूसरे इस पर अमल करने में तुम पर सबक़त ले जाएँ।
• नमाज़ के बारे में अल्लाह से डरते रहना।
• क्योंकि ये तुम्हारे दीन का सुतून है।
• अपने परवरदिगार के घर के बारे में अल्लाह से डरते रहना.....और उसे जीते जी ख़ाली न छोड़ना।
• क्योंकि अगर ये ख़ाली छोड़ दिया गया, तो फिर (अज़ाब से) मोहलत ना पाओगे।
• जान व माल और ज़बान से अल्लाह की राह में जिहाद को न भूलना।
• और तुम पर लाज़िम है कि आपस में मेल मुलाक़ात रखना।
• और एक दूसरे की तरफ़ से पीठ फेरने और तअल्लुक़ात तोड़ने से परहेज़ करना।


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तब्लीगी जमात के लोग कभी लड़ाई झगड़े की बात नहीं करते- डॉ कल्बे सादिक़

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लखनऊ । तब्लीगी जमात के समर्थन मे आये शिया धर्मगुरु मौलाना डॉ कल्बे सादिक़

तब्लीगी जमात को मीडिया ने बदनाम करके मुल्क का माहौल ख़राब किया- डॉ कल्बे सादिक़

तब्लीगी जमात मुल्क के वफादार है- डॉ कल्बे सादिक़ 

तब्लीगी जमात के लोग कभी लड़ाई झगड़े की बात नहीं करते- डॉ कल्बे सादिक़ 

तब्लीगी जमात का काम लोगो की अच्छाई-भलाई के लिए होता है- डॉ कल्बे सादिक़

कोरोना को किसी समुदाय विशेष से जोड़ना गलत है- डॉ कल्बे सादिक़

देश सबका है, हिन्दू- मुसलमान को मिलकर इस महामारी से लड़ना होगा- डॉ कल्बे सादिक़

प्रेसवार्ता मे मेराज हैदर, कल्बे हुसैन भी मौजूद रहे ।


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लोगों को धर्म के नाम पे एक जगह जमा ना करें और ना जाएँ क्यों की कोरोना के खतरे के कारण यह ख़ुदकुशी है |

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मुंबई से आया मेरा दोस्त "दूर "से सलाम करो | साथ में न घूमो फिरो बोलो घर में आराम करो | 


कोरोना को हलके में न लीजे और ना जज़्बात से काम लीजे यह हर मुसलमान का फ़र्ज़ है की अक़्ल का इस्तेमाल करे क्यों आपकी हलकी सी लापरवाही आप की और आपके परिवार आस पदों जान पहचान वालों की जान ले सकती है | 

जिस तरह से अब कोरोना के मामले तेज़ी से आने लगे हैं उसमे आपके पास बस एक तरीक़ा है की आप मास्क पहनिए और एक दूसरे से दूरी बना के रखिये और अति आवश्यक होने पे ही आप घरों से बाहर निकालिये | मुश्किल उस समय होती है की जब हम सभी एहतियात करने के बावजूद दूसरों की लापरवाही के कारण हमें इस बीमारी के शिकार हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है या फिर हम धर्म के नाम पे जज़्बाती हो के बेवकूफी करने लगते हैं | 

कुछ लोग बिना सोंचे समझे ऐसे समय में भी किसी के घर आ धमकते हैं और यक़ीनन मेहमान की इज़्ज़त करने के कारण हम कुछ बोल भी नहीं पाते लेकिन आज जिन हालत में हम गुज़र रहे हैं उसमे आपको किसी के घर आना जाना भी नहीं चाहिए और अगर कोई आ जाय तो उससे साफ़ साफ़ कह दें दूर रह के घर के बाहर से बात कर दोनों के हित में होगा | रिश्ते और ताल्लुक़ात तो फिर भी बन जाएंगे लेकिन जान इस बिमारी से चली गयी तो वापस नहीं आएगी | 

मनोविज्ञानी बताते हैं की आज के इंसान की मानसिकता यह है की अगर मेरा कोई नुकसान हो रहा है तो दूसरे भी बचने ना पाएं और इस्लामी जज़रीये से यह सोंच जहन्नम का सीधा रास्ता है क्यों की अगर आपकी वजह से किसी को बिमारी लग गयी या जान चली गयी तो आप की सजा वही है जो किसी बेगुनाह का क़त्ल करने की सजा हुआ करती है | 

अब दुष्ट इंसानो की मासिकता जिस समाज में ऐसी हो उस समाज में अगर जीना है तो आपको खुद यह एहतियात करना होगा और न खुद किसी के घर आये जाए और अगर कोई आपके  तो साफ़ साफ़ मना कर दें और ज़रूरी होने पे दूर से ही बात करें , हाथ ना मिलाये और लें दें ना करे | 

अब दूसरा मसला है धर्म के  जज़्बाती होने का तो भाई धर्म के नाम पे किसी जगह लोग जमा नहीं हों इस बात का ध्यान रखें | मस्जिदों में कोई एक शख्स जा के अज़ान दें और अगर नमाज़ पढ़नी है तो अपना मुसल्ला तस्बीह सिजदेगाः अलग रखें क्यों की एक ही मुसल्ले पे हर शख्स नमाज़ अगर पढ़ेगा तो संक्रमण का खतरा बहुत अधिक बढ़ जायगा | यह बात कभी ना भूलियेगा की अल्लाह उसकी मदद करता है जो खुद अपनी मदद करता है | नमाज़ ऐ जमात, अमाल , मजलिस या  ईद की नमाज़ के नाम पे  लोगों को किसी जगह जमा ना करें  क्यों की अगर संक्रमण का जान का खतरा है तो इस्लाम इसकी इजाज़त नहीं देता और यह वो इबादतें है जिन्हे आप घरों से उस वक़्त तक अंजाम दे सकते हैं जब तक करों का खतरा टल ना जाय | 

अल तिर्मिज़ी ने एक रवायत नक़ल की है क़ि एक बार हज़रत मुहम्मद (स) ने देखा की एक खानाबदोश अपने ऊँट को खुला छोड़ के उमरा करने  जा रहा है  तो हज़रत ने उस से पुछा भाई क्यों अपने ऊँट को बांधते नहीं या कही चला गया तो क्या करोगे ? उस शख्स का जवाब था मैं उम्र करने जा रहा हूँ मुझे अल्लाह पे भरोसा है | 

हज़रत मुहम्मद (स) ने कहा तुम पहले अपने ऊँट को बाँध के रखो और उसके बाद अल्लाह पे भरोसा रखो वो इसकी हिफाज़त करेगा |  इस से साफ़ है की हज़रत मुहम्मद (स) ने इस बात को ज़ाहिर किया की पहले तुम खुद सावधानियां करो उसके बाद अल्लाह से दुआ करो तो ही वो मदद करेगा | 

एक बार हज़रत मुहम्मद (स) के समय में महारी प्लेग फैल गयी तो हज़रत ने फ़रमाया जिस गाँव में यह महामारी फैले वहाँ ना जाना और अगर यह महामारी उस इलाक़े में है जहां तुम रहते हो तो उस इलाक़े को छोड़ के दुसरी जगह ना जाना क्यों की ऐसा करने से तुम उसे स्वस्थ  लोगों तक पहुंचा दोगे | 


आज कोरोना के मामले में भी यही सावधानी बतायी जा रही है जिसे हमको सख्ती से मानना चाहिए की आप अगर ऐसे इलाके में हैं जहा यह फैली है तो अन्य इलाक़ों में जहां यह नहीं पहुंची ना जाएँ और दूसरों तक इसके फैलने से रोके और अगर आप ऐसे इलाक़े में हैं जहा लोग स्वस्थ है तो ऐसे इलाक़े से ऐसी महफ़िलों में ना जाएँ जहां से इसके आपको या आपसे दूसरों को लग जाने का खतरा हो | 

इसलिए हम सबको यह समझ लेना चाहिए की अल्लाह और उसके रसूल के बताय रास्ते पे चलते हुए कोरोना जैसे दुश्मन से लड़िये |  पहले खुद इसे फैलने से रोकिये सफाई पे ध्यान दीजे और आवश्यकता पड़ने पे दवाओं का इस्तेमाल करें और उसके साथ साथ अल्लाह से दुआ करें | 

केवल अल्लाह से दुआ करते रहना और इस्लामिक महफ़िलों इत्यादी की भीड़ में चले जाना बिना किसी सावधानी के उचित नहीं और इस्लाम के उसूलों के खिलाफ है 
एस एम मासूम 

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तक़वा

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एक जाना पहचाना और बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला लफ़्ज़ (शब्द) है। कुर्आन में यह लफ़्ज़ noun और verb दोनों सूरतों में पचासों जगह पर आया है। यह लफ़्ज़ लगभग उतनी ही बार इस्तेमाल हुआ है जितनी बार मसलन ईमान या अमल का लफ़्ज़, या जितनी बार सलात (नमाज़) और ज़कात का लफ़्ज़। रोज़े के हवाले से कुर्आन में इसका तज़किरा बहुत ज़्यादा है।


एक जाना पहचाना और बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला लफ़्ज़ (शब्द) है। कुर्आन में यह लफ़्ज़ noun और verb दोनों सूरतों में पचासों जगह पर आया है। यह लफ़्ज़ लगभग उतनी ही बार इस्तेमाल हुआ है जितनी बार मसलन ईमान या अमल का लफ़्ज़, या जितनी बार सलात (नमाज़) और ज़कात का लफ़्ज़। रोज़े के हवाले से कुर्आन में इसका तज़किरा बहुत ज़्यादा है। नहजुल बलाग़ा में जिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल बार बार हुआ है उनमें से एक तक़वा भी है। नहजुल बलाग़ा में एक ख़ुत्बा (भाषण) है जिसका नाम ख़ुत-बए-मुत्तक़ीन है। यह ख़ुत्बा हज़रत अली (अ.) ने किसी शख़्स के जवाब में इरशाद फ़रमाया था जिसने यह कहा था कि आप मुत्तक़ी (तक़वे वाला) में पाई जाने वाली ऐसी ख़ास बातें बयान कीजिए कि जिससे हमें मालूम हो जाए कि मुत्तक़ी ऐसा होता है। शुरू में तो इमाम नें उसकी बात को नकार दिया सिर्फ़ तीन चार जुमले (वाक्य) ही बयान किए उसका नाम हम्माम बिन शुरैह था वह बहुत होशियार और तेज़ आदमी था वह मुतमइन न हुआ और इमाम से गुज़ारिश करता रहा तो आपने भी बहुत खुल कर मुत्तक़ी में पाई जाने वाली अच्छाइयों को बयान करना शुरू कर दिया 100 से ज़्यादा अच्छाइयाँ बताईं, एक मुत्तक़ी आदमी की सोच कैसी होती है उसका किरदार (चरित्र) कैसा होता है और वह क्या करता है।


 लिखा हुआ है कि जैसे ही हज़रत अली (अ.) की बात ख़त्म हुई हम्माम ने एक चीख़ मारी और वहीं मर गया। कहने का मतलब यह है कि तक़वा एक ऐसा लफ़्ज़ है जिसे सब जानते और पहचानते हैं। तक़वा अरबी के लफ़्ज़ वक़्यः से बना है जिसके अर्थ हैं किसी चीज़ का बचाव। इत्तिक़ा के मानि हैं बचाए रखना लेकिन आम तौर पर यह देखने में नहीं आया कि कहीं तक़वा का तर्जुमा (अनुवाद) हिफ़ाज़त, बचाव या देख रेख में किया गया हो। जब यह लफ़्ज़ इस्म (noun, संज्ञा) के तौर पर इस्तेमाल होता है तो इसका तर्जुमा परहेज़गारी और मुत्तक़ी का तर्जुमा परहेज़गार किया जाता है कि यह हिदायत है परहेज़गारों के लिए, यानि परहेज़गारों को सीधे रास्ते पर लाने वाला है। अगर यही लफ़्ज़ फ़ेअल (verb,क्रिया) के तौर पर इस्तेमाल होता है तो तक़वा ख़ौफ़ और डर के मानि में आता है मिसाल के तौर पर इत्तक़ुल्लाह का तर्जुमा होगा अल्लाह से डरो और इत्तक़ुन्नार का तर्जुमा होगा जहन्नम की आग से डरो। अल्लाह से डरने का मतलब क्या है? क्या अल्लाह कोई डरने वाली चीज़ है? वह तो ऐसा है कि उससे मुहब्बत की जाए, उसे दोस्त रखा जाए फिर उससे डरने के क्या मानी? जब हम यह कहते हैं कि अल्लाह से डरना चाहिए तो इसका मतलब यह होता है कि उसके अद्ल व इन्साफ़ (न्याय) वाले क़ानून से डरना चाहिए। जैसा कि एक दुआ में आया है कि ऐ वह जिसके फ़ज़्ल व करम (कृपा) ही से उम्मीदें और ख़ौफ़ सिर्फ़ उसके अद्ल (न्याय) का है। इसी तरह एक दूसरी दुआ में यह भी आया है कि तू इससे बहुत परे है .कि तुझसे सिवाए तेरे अद्ल के किसी और वजह से डरा जाए और तुझसे सिवाए तेरे लुत्फ़ व करम के कोई और उम्मीद रखी जाए। अद्ल व इन्साफ़ ब ज़ाते ख़ुद (स्वंय) कोई डरने और ख़ौफ़ खाने की चीज़ नहीं इन्सान अगर अद्ल से डरता है तो वह सचमुच अपने आपसे या अपने आमाल (कर्मों ) से डरता है कि कहीं उसने पीछे कोई ग़ल्ती न की हो या आगे कोई ग़ल्ती हो जाए और दूसरों का हक़ मार बैठे इसलिए ख़ौफ़ और उम्मीद के यह अर्थ हैं कि एक मोमिन बन्दे को ख़ौफ़ भी रखना चाहिए और उम्मीद भी। अपनी ग़लत चाहतों से डरता रहे कि कहीं अक़्ल व ईमान की डोर हाथ से न छूट जाए साथ ही अल्लाह पर भरोसा रखे और यह आस लगाए रहे कि अल्लाह की तरफ़ से हमेशा मदद होती रहेगी। चौथे इमाम हज़रत ज़ैनुल आबेदीन अ0 दुआए अबू हमज़ा सुमाली में फ़रमाते हैं कि मेरे आक़ा जब मैं अपनी ग़ल्तियाँ देखता हूँ तो डर जाता हूँ, लेकिन जब तेरा करम देखता हूँ तो उम्मीद बंध जाती है। 


सचमुच तक़वा क्या है और इसके क्या अर्थ हैं? अगर इन्सान यह चाहता है कि उसकी ज़िन्दगी का कोई उसूल हो तो वह उस उसूल पर चलता रहे । तक़वा हर उस आदमी की ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है जो यह चाहता है कि इन्सान बन कर रहे और अक़्ल के साथ ज़िन्दगी बसर करे और किसी ख़ास उसूल को अपना ले। दीन की दुनिया में तक़वा के मानि यह हैं कि इन्सान अपनी ज़िन्दगी में दीनी उसूलों को अपना लें और जो काम दीन के नुकतए नज़र (द्रष्टिकोण) से ग़लत और गुनाह है और नापाक व बुरे समझे गए हैं उनसे बचे। इसका मतलब यह है कि गुनाहों से अपने आप को बचाए रखने का नाम तक़वा है। यह तक़वा कभी कमज़ोर होता है और कभी ज़ेरदार। कमज़ोर तक़वा यह है कि हम गुनाहों से अपने आप को बचाए रखें और उन बातों से बचें जिन की वजह से गुनाह होते हैं और अपने आप को गुनाह के माहौल से दूर रखें, यह ऐसा ही है जैसे कोई आदमी अपने को बीमारी से बचाए रखने के लिए सेहत के उसूलों पर अमल करे मसलन उन जगह पर न जाऐ जहाँ छूत की , यह ऐसा ही है जैसे कोई आदमी अपने को बीमारी से बचाए रखने के लिए सेहत के उसूलों पर अमल करे मसलन उन जगह पर न जाऐ जहाँ छूत की बीमारियाँ फैली हुई हैं न चीज़ों का इस्तेमाल न करे जिन से ऐसी बीमारियाँ फैल जाती हैं। ताक़तवर और ज़ोरदार तक़वा यह है कि इन्सान में ऐसी रूहानी ताक़त पैदा हो जाए कि वह हर तरह से हर गुनाह से बचा रहे, अगर वह किसी ऐसे माहौल में पहुँच जाए जहाँ गुनाह के सारे सामान और ज़रिए मौजूद हों तब भी वह अपने को बचाए रखे और गुनाह न करे, यह बिल्कुल उसी तरह है कि जैसे कोई आदमी अपने को ऐसा बना ले कि उस पर बीमारी असर न डाल सके। आमतौर पर हम जैसे लोगों में जो तक़वा पाया जाता है वह पहली तरह वाला तक़वा है यानि कमज़ोर तक़वा। जब हम कहते हैं कि वह मुत्तक़ी है तो इसका मतलब यह है कि वह ऐहतियात करने वाला है और अपने को गुनाहों से बचाने वाला है। मुत्तकी होने का मतलब यह नहीं है कि इन्सान अपनी सोसाइटी और समाज से कट के रह जाए, दुनिया त्याग दे बल्कि मुत्तक़ी होने का मतलब सिर्फ़ यह है कि उसूल का पाबन्द हो।


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आदमी को आदमी से प्यार करना चाहिए, ईद क्या है एकता का एक हसीं पैगाम है।

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सभी लोगों को ईद की मुबारकबाद के साथ मैं सबसे पहले मशहूर शायर कामिल जौनपुरी के इन शब्दों को आप सभी तक पहुंचाना चाहूँगा |

मैखान-ए-इंसानियत की सरखुशी, ईद इंसानी मोहब्बत का छलकता जाम है।
आदमी को आदमी से प्यार करना चाहिए, ईद क्या है एकता का एक हसीं पैगाम है।

मशहूर शायर कामिल जौनपुरी

माहे रमजान में पूरे महीने हर मुसलमान रोज़े रखता है और इन रोजो में गुनाहों से खुद को दूर रखता है | पूरे महीने अल्लाह की इबादत के बाद जब ईद का चाँद नज़र आता है तो सारे मुसलमानों के चेहरे पे एक ख़ुशी नज़र आने लगती है | क्यूँ की यह ईद का चाँद बता रहा होता है की कल ईद की नमाज़ के बाद अल्लाह उनकी नेकियों को कुबूल करेगा और गुनाहों को धोने का एलान फरिश्तों से करवाएगा | चाँद देखते ही अल्लाह का हुक्म है ठहरो ख़ुशी की तैयारी करने से पहले गरीबों के बारे में सोंचो और सवा तीन किलो अन्न के बराबर रक़म परिवार के हर इंसान के नाम से निकालो और फ़ौरन गरीबों को दे दो जिस से उनके घरों में भी ईद वैसे ही मनाई जाए जैसे आपके घरों में मनाई जाएगी | यह रक़म निकाले बिना ईद की नमाज़ अल्लाह कुबूल नहीं करता | इस रक़म को फितरा कहते हैं जिसपे सबसे अहले आपके अपने गरीब रिश्तेदार , फिर पडोसी, फिर समाज का गरीब और फिर दूर के रोज़ेदार का हक़ होता है|

बच्चों की ईद इसलिए सबसे निराली होती है क्योंकि उन्हें नए-नए कपड़े पहनने और बड़ों से ईदी लेने की जल्दी होती है. बच्चे, चांद देख कर बड़ों को सलाम करते ही यह पूछने में लग जाते हैं कि रात कब कटेगी और मेहमान कब आना शुरू करेंगे. महिलाओं की ईद उनकी ज़िम्मेदारियां बढ़ा देती है. एक ओर सिवइयां और रंग-बिरंगे खाने तैयार करना तो दूसरी ओर उत्साह भरे बच्चों को नियंत्रित करना. इस प्रकार ईद विभिन्न विषयों और विभिन्न रंगों के साथ आती और लोगों को नए जीवन के लिए प्रेरित करती है| ईद यही पैगाम लेकर आता है कि हम इसे मिलजुल कर मनाएं और अपने दिलों से किसी भी इंसान के लिए हसद और नफरतों को निकाल फेंके और सच्चे दिल से हर अमीर गरीब ,हिन्दू मुसलमान , ईसाई से गले मिलें और समाज को खुशियों से भर दें |


शब्दकोष में ईद का अर्थ है लौटना और फ़ित्र का अर्थ है प्रवृत्ति |इस प्रकार ईदे फ़ित्र के विभिन्न अर्थों में से एक अर्थ, मानव प्रवृत्ति की ओर लौटना है| बहुत से जगहों पे इसे अल्लाह की और लौटना भी कहा गया है जिसका अर्थ है इंसानियत की तरफ अपने दिलों से नफरत, इर्ष्य ,द्वेष इत्यादि बुराईयों को निकालना |वास्वतविक्ता यह है कि मनुष्य अपनी अज्ञानता और लापरवाही के कारण धीरे-धीरे वास्तविक्ता और सच्चाई से दूर होता जाता है| वह स्वयं को भूलने लगता है और अपनी प्रवृत्ति को खो देता है. मनुष्य की यह उपेक्षा और असावधानी ईश्वर से उसके संबन्ध कोसमाप्त कर देती है| रमज़ान जैसे अवसर मनुष्य को जागृत करते और उसके मन तथा आत्मा पर जमी पापों की धूल को झाड़ देते हैं|इस स्थिति में मनुष्य अपनी प्रवृत्ति की ओर लौट सकता है और अपने मन को इस प्रकार पवित्र बना सकता है कि वह पुनः सत्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने लगे|


हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि हे लोगो, यह दिन आपके लिए ऐसा  दिन है कि जब भलाई करने वाले अल्लाह से अपना इनाम पाते  और घाटा उठाने वाले मायूस  होते हैं। इस तरह  यह दिन रोज़ महशर के दिन के समान होता है। इसलिए  अपने घरों से ईदगाह की ओर जाते समय तसव्वुर  कीजिए मानों आप क़ब्रों से निकल कर अल्लाह  की ओर जा रहे हैं। घर से नेकलने के  पहले  गुसल करे फिर नाश्ता कर के सर पे सफ़ेद रुमाल नंगे पैर ईद कि नमाज़ मैं जाए और दिल में यह ख्याल रहे की हमें जैसे अपनी क़ब्रों से उठाया गया है और रोज़ ऐ महशर है और हम अल्लाह के सामने अपने अपने अमाल पेश करने जा रहे हैं |

नमाज़ में अपने स्थान पर खड़े होकर अल्लाह के सामने खड़े हो के अपने अमाल  को पेश कर रहे हैं ऐसा ख्याल  कीजिए। 

ईद की नमाज़ होने के बाद एक फ़रिश्ता पुकार-पुकार कर कहता हैः शुभ सूचना है तुम्हारे लिए हे ईश्वर के दासों कि तुम्हारे पापों को क्षमा कर दिया गया है अतः बस अपने भविष्य के बारे में विचार करो कि बाक़ी दिन कैसे व्यतीत करोगे? इस शुभ सुन्चना को महसूस करने के बाद रोज़ेदार खुश हो जाता है और एक दुसरे को गले मिल के मुबारकबाद देता है | घरों की तरफ लौट के खुशियाँ मनाता है और अल्लाह से वादा करता है की अब पाप से बचूंगा और समाज में एकता और शांति के लिए ही काम करूँगा | 

घर लौटते समय, जन्नत की ओर लौटने की कल्पना कीजिए। 

इसीलिये यह बेहतर है कि नमाज़ ए ईद खुले मैदान मैं अदा कि जाए और सर पे सफ़ेद रुमाल नंगे पैर ईद कि नमाज़ मैं जाए. नमाज़ से पहले गुसल करे और सजदा नमाज़ के दौरान मिट्टी पे करे|




आप सभी पाठको को ईद मुबारक |--- एस एम् मासूम 

फितरे की रक़म शहर के बाहर नहीं जानी चाहिए यदि आपके शहर में गरीब हैं तो |

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ईद मे गरीबो का ख्याल अवश्य रखे |

  फ़ितरा उस धार्मिक कर को कहते हैं जो प्रत्येक मुस्लिम परिवार के मुखिया को अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य की ओर से निर्धनों को देना होता है|  रमज़ान में चरित्र और शिष्टाचार का प्रशिक्षण लिए हुए लोग इस अवसर पर फ़ितरा देने और अपने दरिद्र भाइयों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं|

इस्लाम इस बात का ख्याल रखता है कि हर वो शख्स जिसने रोज़ा रखा हो चाहे वो अमीर हो या ग़रीब उसके घर मैं ईद मनाई जाए| एक ग़रीब रोज़ा तो बग़ैर किसी कि मदद के रख सकता है और इफ्तार और सहरी किसी भी मस्जिद मैं जा के कर सकता है लेकिन ईद मनाने के लिए नए कपडे, और सिंवई बना के खुशिया मनाने के लिए पैसे कहाँ से लाये?

इस्लाम ने इस बात का ख्याल रखते हुए चाँद रात फितरा देना हर मुसलमान पे फ़र्ज़ किया है| फितरा की रक़म इस बात पे तय कि जाती है कि आप किस दाम का अन्न जैसे गेहूं या चावल खाते हैं ? उसका तीन किलो या सवा तीन सेर अन्न की कीमत आप निकाल के ग़रीबों मैं चाँद रात ही बाँट दें | यह रक़म घर का मुखिया अपने घर के हर एक फर्द की तरफ से अदा करेगा |

यदि आप के इलाके मैं , शहर मैं कोई ग़रीब है जिसके घर ईद ना मन पा रही हो तो फितरे की रक़म शहर के बाहर नहीं भेजी जा सकती| हाँ आप यह रक़म अगर कहीं दूर किसी गरीब को भेजना चाहते हैं तो आप इसे चाँद रात के पहले भी निकाल सकते हैं बस नियत यह होगी की उस शख्स को क़र्ज़ दिया और जैसे ही चाँद आप देखें आप निय्यत कर दें के जो रक़म बतौर क़र्ज़ दी थी वो फितरे मैं अदा किया| इस तरह से आप किसी दूर के ग़रीब रिश्तेदार, दोस्त या भाई तक यह रक़म पहुंचा सकते हैं | इस फितरे की रकम पे सबसे पहले आप के अपने गरीब रिश्तेदार , फिर पडोसी, फिर समाज का गरीब और फिर दूर के रोज़ेदार का हक़ होता है|

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