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Channel: हक और बातिल
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पैग़ाम ए इमाम हुसैन अ स अपने अज़ादारो के नाम ।।।।।

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पैग़ाम ए इमाम हुसैन अ स अपने अज़ादारो के नाम ।।।।।

मेरा पैग़ाम ज़माने को सुनाने वालो ।।
मेरे ज़ख्मो को कलेजे से लगाने वालो ।।

मेरे मातम से ज़माने को जगाने वालो
कर्बला क्या है ज़माने को बताने वालो ।।

दिल ए मुज़्तर के धड़कने की सदा भी सुन लो ।।
आज एक चाहने वाले का गिला भी सुनलो।।


याद तो होगा तुम्हे करबोबला का वह मुक़ाम ।।।
जिसके सन्नाटे में गुम हम हमा ए लश्कर ए शाम ।।

मैंने ज़ैनब को दिया था दम ए रुखसत ये पयाम ।।
लौट के जाना तो कहना मेरे शियों को सलाम ।।

दर्स ईसार ओ मोहब्बत का दिया था मैंने ।।
ज़ेर ए खंजर भी तुम्हे याद किया था मैंने ।।


अपनी अज़मत का कुछ एहसास तुम्हे है की नहीं ?
दिल को गरमाए जो वह प्यास तुम्हे है की नहीं ?

एहतेराम रहे अब्बास तुम्हे है की नहीं ?
मेरे मक़सद का भी कुछ पास तुम्हे है की नहीं ?

जाके मस्जिद में पयाम दिल ओ जान भी देते ।।
नौहा ख्वां मेरे बने थे तो अज़ान भी देते ।।


जिस चमन के लिए बहा था अली अकबर का लहू।।।
जिसपे टपका है गुलू ए अली असग़र का लहू।।

बह गया जिसके लिए मेरे भरे घर का लहू।।
काम जिस दीं पे आया बहत्तर का लहू।।।

तुम इस दीं की अज़मत का सबब भूल गए ।।
मेरी मजलिस तो पढ़ी और मेरा हक़ भूल गए ।।


दिलको तड़पा न सके जो वह मोहब्बत कैसी ।।
मेरे मक़सद की नहीं फ़िक्र तो उल्फत कैसी ।।

सर्द है जोश ए अज़ल गर तो इताअत कैसी ।।
जिससे सैराब न हो रूह वह पैमाना क्या।।

दूर मस्जिद से जो कर दे वह अज़खाना क्या ।।।
फर्श ए मजलिस में यह आपस में अदावत क्यू है ।।


मेरा ग़म जिसमे है इस दिल में कुदूरत क्यू है ।।
भाई भाई से है नाराज़ यह हिमाक़त क्यू है ।।

मेरे मातम में यह अग़यार की सीरत क्यू है ।।।
हुआ हमला कोई मक़सद पे तो रद कर न सके ।।

मेरा मातम तो किया मेरी मदद कर न सके ।।
हर ग़लत बात हर ग़लत फ़िक्र की तरदीद करो।।

मेरे असहाब के किरदार की तजदीद करो।।
अपने किरदार से उठकर मेरी ताईद करो।।

वरना अश्को की यह दौलत मुझे वापस कर दो।।।

मेरा ग़म मेरी मोहब्बत मुझे वापस कर दो ।।



हमें ज़िन्दगी कैसे गुज़ारनी है यह नमाज़ के दो जुम्लों से तय होती है।

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हमें ज़िन्दगी कैसे गुज़ारनी है यह  नमाज़ के दो जुम्लों  से तय होती है।

पहला ग़ैरिल मग़ज़ूबि अलैहिम वलज़्ज़ालीन (न उनका जिनपर ग़ज़ब (प्रकोप) हुआ और न बहके हुओं का) जिसका मतलब की हमें उन गुमराह लोगों में शुमार न करना और उस गलत राह से दूर रखना | 

और

अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन।(हम पर सलाम हो और अल्लाह के तमाम नेक बंदों पर सलाम हो।) 


अल्लाह के नेक बंदों पर सलाम हो। हर मुसलमान चाहे वह ज़मीन के किसी भी हिस्से पर रहता हो उसे चाहिए कि दिन मे पाँच बार अपने हम फ़िक्र अफ़राद को सलाम करे। जैसे कि नमाज़ मे है अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन।(हम पर सलाम हो और अल्लाह के तमाम नेक बंदों पर सलाम हो।)  

यहाँ पर मालदारों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।यहाँ पर हाकिमों और ताक़तवरों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।यहाँ पर रिश्तेदारों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी। यहाँ पर हम ज़बान हम क़ौम हम वतन लोगों को सलाम करने की तालीम नही दी गयी।

बल्कि यहाँ पर है अल्लाह के नेक बंदों को सलाम करने की तालीम दी जा रही है। यहाँ पर मकतबे हक़ के तरफ़दारो को सलाम करने की तालीम दी जा रही है।

जो इंसान दिन मे पाँच बार अल्लाह के बंदो को सलाम करता हो वह कभी भी न उनको धोका दे सकता है और न ही उनके साथ मक्कारी कर सकता है। 

इमामे जमाअत क़वानीन के दायरे मे इमाम है|

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नमाज़ की अस्ल यह है कि उसको जमाअत के साथ पढ़ा जाये। और जब इंसान नमाज़े जमाअत मे होता है तो वह एक इंसान की हैसियत से इंसानो के बीच और इंसानों के साथ होता है। नमाज़ का एक इम्तियाज़ यह भी है कि नमाज़े जमाअत मे सब इंसान नस्ली, मुल्की, मालदारी व ग़रीबी के भेद भाव को मिटा कर काँधे से काँधा मिलाकर एक ही सफ़ मे खड़े होते हैं। नमाज़े जमाअत इमाम के बग़ैर नही हो सकती क्योंकि कोई भी समाज रहबर के बग़ैर नही रह सकता। इमामे जमाअत जैसे ही मस्जिद मे दाखिल होता है वह किसी खास गिरोह के लिए नही बल्कि सब इंसानों के लिए इमामे जमाअत है।


इमामे जमाअत को चाहिए कि वह क़ुनूत मे सिर्फ़ अपने लिए ही दुआ न करे बल्कि तमाम इंसानों के लिए दुआ करे। इसी तरह समाज के रहबर को भी खुद ग़रज़ नही होना चाहिए। क्योंकि नमाज़े जमाअत मे किसी तरह का कोई भेद भाव नही होता ग़रीब,अमीर खूबसूरत, बद सूरत सब एक साथ मिल कर खड़े होते हैं। लिहाज़ा नमाज़े जमाअत को रिवाज देकर नमाज़ की तरह समाज से भी सब भेद भावों को दूर करना चाहिए। इमामे जमाअत का इंतिखाब लोगों की मर्ज़ी से होना चाहिए। लोगों की मर्ज़ी के खिलाफ़ किसी को इमामे जमाअत मुऐयन करना जायज़ नही है। अगर इमामे जमाअत से कोई ग़लती हो तो लोगों को चाहिए कि वह इमामे जमाअत को उससे आगाह करे। यानी इस्लामी निज़ाम के लिहाज़ से इमाम और मामूम दोनों को एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए।
इमामे जमाअत को चाहिए कि वह बूढ़े से बूढ़े इंसान का ख्याल रखते हुए नमाज़ को तूल न दे। और यह जिम्मेदार लोगों के लिए भी एक सबक़ है कि वह समाज के तमाम तबक़ों का ध्यान रखते हुए कोई क़दम उठायें या मंसूबा बनाऐं। मामूमीन(इमाम जमाअत के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले अफ़राद) को चाहिए कि वह कोई भी अमल इमाम से पहले अंजाम न दें। यह दूसरा सबक़ है जो अदब ऐहतिराम और नज़म को बाक़ी रखने की तरफ़ इशारा करता है।
अगर इमामे जमाअत से कोई ऐसा बड़ा गुनाह हो जाये जिससे दूसरे इंसान बा खबर हो जायें तो इमामे जमाअत को चाहिए कि वह फ़ौरन इमामे जमाअत की ज़िम्मेदारी से अलग हो जाये।यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि समाज की बाग डोर किसी फ़ासिक़ के हाथ मे नही होनी चाहिए। जिस तरह नमाज़ मे हम सब एक साथ ज़मीन पर सजदा करते हैं इसी तरह हमे समाज मे भी एक साथ घुल मिल कर रहना चाहिए।
इमामे जमाअत होना किसी खास इंसान का विरसा नही है। हर इंसान अपने इल्म तक़वे और महबूबियत की बिना पर इमामे जमाअत बन सकता है। क्योंकि जो इंसान भी कमालात मे आगे निकल गया वही समाज मे रहबर है।
इमामे जमाअत क़वानीन के दायरे मे इमाम है। इमामे जमाअत को यह हक़ नही है कि वह जो चाहे करे और जैसे चाहे नमाज़ पढ़ाये। रसूले अकरम ने एक पेश नमाज़ को जिसने नमाज़े जमाअत मे सूरए हम्द के बाद सूरए बक़रा की तिलावत की थी उसको तंबीह करते हुए फ़रमाया
कि तुम लोगों की हालत का ध्यान क्यों नही रखते बड़े बड़े सूरेह पढ़कर लोगों को नमाज़ और जमाअत से भागने पर मजबूर करते हो।
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ख्याल रहे औलाद को आक़ किया नहीं जाता वो हो जाता है |

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कल आज और कल |



बचपन में जब भाई बहन एक दुसरे के साथ ना इंसाफ़ी करते थे तो माँ बाप ना इंसाफ़ी करने वाले बच्चे को डांट के जिसका हक़ मारा वो दिला देते थे | बड़े होने पे जो लायक बच्चा होता है वो कभी अपने भाई बहनो के साथ ना इंसाफ़ी नहीं करता लेकिन जो नालायक़ होता है वो अपने भाई बहनो का हक़ मारता है और यह भी नहीं सोंचता की अगर माँ बाप ज़िंदा होते तो उससे नाराज़ होते |  इस तरह बाद मरने के अपने माँ बाप को तकलीफ पहुंचाता है | 

उसी तरह माँ बाप अपनी मेहनत  की कमाई को अपने बच्चों पे उनसे मुहब्बत होने की वजह से खर्च करते रहते हैं यहां तक की तकलीफ उठाते हैं | जो घर बनाते है माँ बाप अपनी मेहनत  की कमाई से बनाते हैं उसे बच्चे अपना घर माँ बाप की मुब्हब्बत की वजह से कहते है और उसपे अपना हक़ समझते हैं | 
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जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो वो अपने बीवी बच्चों पे खर्च करने को तो अपना फ़र्ज़ समझते हैं क्यों की मुहब्बत होती है और किसी से कहते भी नहीं  जैसे की उनके माँ बापनाहीं कहते थे | 

लेकिन 

माँ बाप पे अगर कोई बच्चा खर्चा करता है या उनकी खिदमत करता है तो उसे अपनी नेकी के ज़िक्र में शामिल  करता हुआ सबको  बताता फिरता है बिना यह सोंचे की उसके मा बाप ने उसके साथ जो किया वो कभी दुनिया को नहीं जताया | औलाद जो घर बनाती है उसे माँ बाप कभी अपना घर नहीं कह पाते अगर औलाद वो घर दे भी दे अपने माँ बाप को रहने तो एहसान करे में शुमार करते  है | 
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फिर वो औलाद बूढी हो जाती है और जब उसके बच्चे उसके साथ जो कर रहे हैं उसका ज़िक्र दुनिया से करते है एहसान जताते हैं तो  उन्हें एहसास होता है की उन्होंने अपने माँ बाप के साथ ज़्यादती की थी | लेकिन तब तक माँ बाप दुनिया से जा चुके होते हैं | 

कुछ औलाद तो इतनी एहसान फरामोश हुआ करती हैं की बाद माँ बाप के मरने के भी जगह जगह ज़िक्र करती है हमने उनकी ऐसे खिदमत की हमने उनकी वैसे खिदमत की | 


फ़िक्र का मक़ाम है | ख्याल रहे औलाद को आक़ किया नहीं जाता वो हो जाता है | 


ईरान में अमीर और ग़रीब के बीच फासले

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ईरान में अमीर और ग़रीब के बीच फासले को लेकर पहले काफी कुछ पढ़ा था। ईरान पहुंचकर भी मेरी दिलचस्पी क़रीब साढ़े आठ करोड़ आबादी वाले इस मुल्क के स्लम्स में थी। पूरे सफर में जिन आधा दर्जन शहर या क़स्बों से गुज़र हुआ उनमें न भिखारी मिले, न लेबर चौक, न बदहाल लोग, न टूटे-फूटे घर, न मलिन बस्तियां। ये सब कहां चले गए? क्या हमसे छिपाकर रखे गए हैं या कहीं दूर बयाबान में भेज दिए गए हैं। ये सवाल तब तक ज़हन में थे जब तक इमाम ख़ुमैनी रिलीफ फंड का हेडक्वार्टर न घूम लिया। यहां उन पीले डिब्बों का राज़ भी खुल गया जो हर सड़क, दफ्तर, मेट्रो और चौराहे पर लगे हैं।

 https://www.youtube.com/payameamn
सड़को पे लगे कलेक्शन बॉक्स 
ईरान में लोग मदरसे के मौलाना, ऐजेंट या एनजीओ को सदक़ा और ज़कात नहीं देते है और न ही भिखारी को भीख। इसके बदले लोग सार्वजनिक जगहों पर लगे कलेक्शन बाॅक्स में कुछ न कुछ डालते रहते हैं।ये रक़म रुपये के बराबर भी हो सकती है और दस लाख भी। ये तमाम रक़म इमाम ख़ुमैनी रिलीफ फंड के कर्मचारी इकट्ठा करते हैं। रक़म सीधे केंद्रीय ट्रेजरी में जाती है। ये दान ऑनलाइन भी किया जा सकता है। इसके अलावा मुल्क के क़रीब चार लाख सबसे अमीर लोगों पर कम से कम एक ग़रीब परिवार के बच्चों की पूरी पढ़ाई, ट्रेंनिंग और नौकरी लगने तक ख़र्च उठाने की ज़िम्मेदारी दी गयी है। इसमें विदेश में पढ़ाई का ख़र्च भी शामिल है। यानि ये अभ्यर्थी पर है कि वो क्या बनना चाहता है। कैसे बनाना है ये सरकार और स्पांसर देखते हैं। इस पूरी प्रक्रिया पर आईकेआरएफ के लोग और स्वयंसेवी कड़ी नज़र रखते हैं। मौजूदा समय में सात लाख परिवार इस तरह की स्पांसरशिप के दायरे में है। इसके लिए चुने जाने की पहली शर्त है परिवार की मुखिया का महिला होना। यानि प्राथमिकता उन्हें है जिनके परिवार में कमाने वाला पुरुष मुखिया ज़िंदा नहीं है। इसके अलावा युद्ध या सैन्य सेवा में शहीद हुए लोगों के परिवार स्पांसरशिप पाते हैं।

कलेक्शन बाॅक्स के पैसे में पहला अधिकार आपदा पीड़ितों और विस्थापितों का है। इसके अलावा यतीम और बेवा इस पैसे से हर महीने वज़ीफा और घर का ज़रूरी सामान हासिल करते हैं। आईकेआरएफ बेघर लोगों को घर बनाने के लिए ब्याज़मुक्त लोन देता है। इससे पढ़ाई और कारोबार के लिए ब्याज़मुक्त क़र्ज़े हसना यानि ऐसा लोन जो सहूलियत के हिसाब से लौटा दिया जाए, मिलता है। ईरान में मशहूर है कि अगर सरकार से कुछ न मिले तो आईकेआरएफ चले जाओ, कुछ न कुछ मिल जाएगा। इस सारे लेन-देन का हिसाब रखने के लिए आईकेआरएफ का अपना सचिवालय है। इसका सारा कामकाज सीधे सुप्रीम लीडर यानि आयतुल्लाह ख़ामेनेई की निगरानी में है। यानि सरकार का इसमें सीधे दख़ल नहीं है। आईकेआरएफ ईरान के अलावा पाकिस्तान, सोमालिया, सीरिया, लेबनान, म्यांमार और अफ्रीकी देशों में भी यूएन और रेड क्रास के साथ मिलकर सहायता कार्यक्रम चला रहा है।

ईरान में इस पैसे की चोरी गुनाहे अज़ीम है क्योंकि ये ग़रीबों का है। यही वजह है कोई सड़क पर लगी गुल्लक चोरी नहीं करता और न ही ग़रीबों के हक़ में बेईमानी करता है। आईकेआरएफ का दावा है कि उसने पिछले दस साल में ईरान के ग़रीब और अमीर के बीच की खाई को तीन से चार फीसदी तक कम किया है।


एक मज़ेदार बात बैंकिंग सेक्टर की भी पता लगी। यहां के बैंक कारोबार, घर बनाने और कार लेने के अलावा शादी करने के लिए भी लोन देते हैं। इनमें कार, घर और शादी लोन ब्याज़मुक्त है। कारोबारी लोन इस्लामिक बैंकिंग नियम के तहत दिए जाते हैं, यानि मुनाफे में हिस्सेदारी की शर्त पर। डिफाल्टर साबित करदे कि वो लोन लौटाने में मजबूर है तो लोन माफ और अगर न कर पाए तो सीधे जेल। इस दौरान बैंक को हुआ घाटा सरकार को पूरा करना होता है। ईरान में सैकड़ों बैंक हैं और इनमें कोई भी लोन की अर्ज़ी ठुकरा नहीं सकता। इसके चलते ये मुल्क ग़रीबी और बेरोज़गारी से निपटने में बहुत हद तक कामयाब रहा है।

लेखक Zaigham Murtaza


इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ .स ) ने कहा चार लोगों के साथ कभी नहीं रहना |

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इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ .स ) ने कहा चार लोगों के साथ कभी नहीं रहना |

 एक बार इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ .स )  ने अपने बेटे इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ .स ) से कहा बेटा ज़िंदगी में  क़िस्म के लोगों के साथ कभी मत रहना चाहे वो सफर में ही क्यों न मिल जाएँ | 
इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ .स ) ने पुछा बाबा वो कण से चार  लोग हैं ?

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ .स )  ने फ़रमाया 

१) बख़ील क्यों की यह तुम्हे ऐसे वक़्त में धोखा देगा जब तुम्हे उसकी ज़रुरत सबसे ज़्यादा हो गी | 

२) झूट बोलने वाला क्यों यह तुम्हे क़रीब की चीज़ दूर बताएगा और ओर की चीज़ क़रीब और तुम हकीकत समझ ना पाओगे और नुकसान उठाओगे | 
३) फासिक- यह तुम्हे  लुक़मे की  ख्वाहिश में बेच देगा | 
४) क़ता ऐ रहमी करने वाला क्यों की अल्लाह ने क़ुरआन में इस्पे लानत की है  | 

सच्चे दोस्त की पहचान मौला अली ने बताया |

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किसी ने मुसलमानो के खलीफा हज़रत अली (अ.स ) से पूछा की कोई शख्स उसका सच्चा दोस्त है या नहीं यह कैसे पता किया जाय तो हज़रत अली ने फ़रमाया उसके साथ किसी दावत में जाओ और देखो वो दस्तरख्वान पे कैसा बर्ताव करता है ?
अगर वो अपनी प्लेट में पहले अच्छे अच्छे आइटम निकाल ले बिना यह सोंचे की तुम्हारे लिए भी कुछ रह जाय तो समझ लो यह तुम्हारा दोस्त नहीं है और मौक़ा पड़ने पे धोखा देगा |
अगर वो इन्साफ से जितना खुद ले उतना ही आपके लिए रखे तो यह तुम्हारा दोस्त है लेकिन जैसा आप करेंगे वैसा ही वो भी दोस्ती निभाएगा |
और
अगर वो पहले आपको खिलाय और खुद बाद में खाय तो यह सच्चा दोस्त होगा और वक़्त पड़ने पे आपके लिए क़ुरबानी भी देगा |



ऐ अल्लाह! तू उसको दोस्त रखना जो अली को दोस्त रखे | ग़दीर

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ईद ऐ ग़दीर खुशियों का दिन है और मुसलमानों के आपसी भाईचारे और एकता का प्रतिक है | लेकिन यह दुआ हमेशा करते रहे की अल्लाह हम सबको इब्लीस के शर से महफूज़ रखे |

ग़दीर के दिन दुनिया के सभी मुसलमान एक थे और एक आवाज़ में कह रहे थे "जिस जिस के हजरत मुहम्मद (स.अ.व) मौला उसके अली मौला  लेकिन इब्लीस ने लोगों के दिलों में शोहरत ,ताक़त और दौलत की लालच डाली और मुसलमान बंट गया कोई इधर गया कोई उधर गया |

इसलिए ईद ऐ ग़दीर के रोज़ अपने मज़हबी भाइयों में भाईचारा कायम करो और दुआ करते रहो अल्लाह इब्लीस के शर से बचाय  जो हमें आपस में लडवाने  और बांटने की कोशिश किया करता है |..एस एम् मासूम

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।

1. रसूले इस्लाम (स.अ.) का ग़दीर के दिन उतरने वाली आयतों का प्रचार करना

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।
और वह सब गुट-गुट रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथ होते जा रहे थे। रसूले इस्लाम को मालूम था कि इस सफ़र के अंत में उन्हें एक महान काम को अंजाम देना है जिस पर दीन की इमारत तय्यार होगी और उस इमारत के ख़म्भे उँचे होंगे कि जिससे आपकी उम्मत सारी उम्मतों की सरदार बनेगी, पूरब और पश्चिम में उसकी हुकूमत होगी मगर इसकी शर्त यह है कि वह सब अपने सुधरने के बारे में सोच-विचार करें और अपने हिदायत के रास्ते को देख लें, लेकिन अफ़सोस कि ऐसा नहीं हो सका।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ऐलान के लिए उठ खड़े हुए जबकि अलग-अलग शहरों से लोगों के गुट गुट आपके पास जमा हो चुके थे जो आगे बढ़ गए थे उन्हें पीछे बुलाया, जो आ रहे थे उन्हें उसी जगह रोका गया, और सबको यहर बात बताई और याद कराई गई और यह कहा गया कि जो यहाँ हैं वह उन लोगों को बता देगें जो यहाँ नहीं हैं। ताकि यह सब के सब ग़दीर की हदीस के रावी (हदीस बयान करने वाले) हों जिनकी संख्या एक लाख से अधिक थी।

हाफ़िज़ अबू जाफ़र मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी “अलविलायतो फी तुरक़े हदीसे ग़दीर” नामक किताब में ज़ैद इब्ने अरक़मः से बयान करते हैं कि नबी-ए-अकरम ने अपने आख़री हज से वापसी पर कि जब आप ग़दीरे ख़ुम के स्थान पर पहुँचे हैं तो दोपहर का समय था, गर्मी बहुत तेज़ थी, आपके हुक्म से पेड़ों के नीचे की ज़मीनों को साफ़ किया गया, जमाअत से नमाज़ पढ़ने का ऐलान किया गया, हम सब जमा हुए तो रसूले इस्लाम (स.अ) ने एक ख़ुत्बे के बाद इरशाद फ़रमायाः ख़ुदा ने मुझ पर यह आयत उतारी है कि जो हुक्म आपको दिया गया है उसे लोगों तक पहुँचा दो अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो रिसालत का कोई काम अंजाम नहीं दिया और अल्लाह आपको दुश्मनों से बचाएगा।

जिबरईल (अ.) अल्लाह की तरफ़ से यह हुक्म लाए हैं कि मैं इस स्थान पर रुक कर हर एक को यह बता दूँ कि अली इब्ने अबी तालिब (अ.) मेरे भाई और मेरे बाद मेरे जानशीन (उत्तराधिकारी) और इमाम हैं। मैंने जिबरईल से कहा कि अल्लाह से मेरे लिए बख़्शिश (माफ़ी) की गारंटी लें क्योंकि मुझे मालूम है कि अच्छे लोग बहुत कम हैं और तकलीफ़ पहुँचाने वाले बहुत ज़यादा हैं। और ऐसे बहुत से लोग हैं जो अली (अ.) के साथ रहने के कारण मुझे बुरा भला कहते हैं यहाँ तक कि उन्होंने मुझे “ उज़ुन ” (यानी कान के कच्चे) तक कह दिया।
अल्लाह तआला क़ुर्आन में इरशाद फ़रमाता हैः उनमें से कुछ लोग नबी को तकलीफ़ पहुँचाते हैं और कहते हैं कि वह कान के कच्चे हैं, उनसे कह दीजिए मैं उनका नाम और निशानियाँ बता सकता था लेकिन मैंने उस पर पर्दा डाल दिया है इसलिए अली (अ.) के बारे में जो हुक्म अल्लाह ने दिया है उसको पहुँचाए बिना अल्लाह राज़ी नहीं होगा।

ऐ लोगो! इस संदेश को सुन लो, निःसंदेह अल्लाह ने अली (अ.) को तुम्हारे ऊपर वली और इमाम बनाया है। और उनकी इताअत (आज्ञापालन करना) सभी इंसानों पर वाजिब की है उनका हुक्म जारी है उनका विरोध करने वाले पर लानत और धिक्कार और जो उनको माने उस पर रहमत, यह सुन लो और इताअत करो।

निःसंदेह अली (अ.) तुम लोगों के इमाम और मौला हैं उनके बाद इमामत मेरे बेटों में उन्हीं की नस्ल से होगी, हलाल वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हलाल कर दिया, और हराम वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हराम कर दिया। कोई ऐसा इल्म नहीं जिसको ख़ुदा ने मुझे नहीं दिया हो और मैंने अली तक न पहुँचाया हो, इसलिए अली का साथ न छोड़ना। वही हैं जो हक़ की तरफ़ हिदायत (मार्गदर्शन) करते हैं और ख़ुद भी उस पर अमल करते हैं, जो उसका इंकार करे ख़ुदा कदापि उसकी तौबा क़बूल नहीं करेगा और उसको माफ़ नहीं करेगा। अल्लाह को चाहिए कि वो ऐसा ही करे और ऐसे इंसान को अज़ाब का मज़ा चखाए। जब तक ज़मीन पर लोग ज़िन्दा हैं अली मेरे बाद सब लोगों से अफ़ज़ल (सर्वश्रेष्ठ) हैं। जो उनका विरोध करे उस पर लानत होगी, और मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वो सब जिबरईल, अल्लाह की तरफ़ से लेकर आए हैं। हर इंसान यह देख लेगा कि उसने आगे क्या भेजा है।

क़ुर्आन को समझो किसी और  की इताअत ना करो, तुम्हारे लिए क़ुर्आन की तफ़सीर वही करेगा जिसका हाथ मैं पकड़ने वाला हूँ उसे बुलंद करके मैं तुम्हारे सामने ऐलान करने वाला हूँ कि जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं। और अली की विलायत का यह ऐलान अल्लाह की तरफ़ से है जिसको उसने मुझ पर उतारा है।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने अदा कर दिया।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने पहुँचा दिया।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने सुना दिया।
ख़बरदार हो जाओ! मैंने विस्तार से बयान कर दिया।

मेरे बाद अली के सिवा कोई भी मोमिनों का मालिक नहीं है, फ़िर आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को इतना उठाया कि मौला के पैर रसूले इस्लाम (स.अ.) के घुटनों तक पहुँच गए और फिर फ़रमायाः
ऐ लोगो ! यह मेरा भाई, मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी), मेरे इल्म का वारिस, और जिसका मुझ पर और अल्लाह की किताब की तफ़सीर पर ईमान है उसके लिए यह अली मेरे बाद मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी) है।


ऐ अल्लाह! तू उसको दोस्त रखना जो अली को दोस्त रखे और उसे दुश्मन रखना जो उसको दुश्मन रखे और उस इंसान पर लानत कर जो उसको ना माने, और उस पर अज़ाब करना जो अली के हक़ का इन्कार करे।
ऐ अल्लाह ! इस बात में कोई शंका नहीं है कि तू ने अली की ख़िलाफ़त के ऐलान के बाद यह आयत नाज़िल कीः
आज मैंने दीन को अली की इमामत के माध्यम से मुकम्मल (पूरा) कर दिया।
अब जो लोग अली और उनकी नस्ल से पैदा होने वाले मेरे बेटों को क़यामत तक इमाम न माने तो यही वह लोग होंगे जिनके सारे नेक आमाल बेकार हो जाएँगे और वो हमेशा जहन्नम में रहेंगे।
इब्लीस ने जनाबे आदम को ईर्ष्या के कारण जन्नत से निकलवा दिया, इस लिए तुम लोग ईर्ष्या से बचो वरना तुम्हारे आमाल बरबाद हो जाएँगे और तुम्हारे क़दम लड़खड़ा जाएँगे, क़ुर्आन में सूरए वलअस्र अली ही की शान में उतरा है।


ऐ लोगो ! ख़ुदा, उसके रसूल और वो नूर जो नबी के साथ उतरा उस पर ईमान ले आओ इस से पहले कि तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दिए जाएँ, या उन्हें पीठ की तरफ़ मोड़ दिया जाए, या तुम पर हम ऐसी लानत करें जैसी असहाबे सब्त पर लानत की थी। ख़ुदा का नूर मुझ में है फिर अली की नस्ल में इमाम मेहदी तक।
ऐ लोगो ! बहुत जल्दी ऐसे इमाम पैदा होंगे जो तुम को जहन्नम की तरफ़ बुलाएँगे। लेकिन क़यामत के दिन उनकी कोई मदद नहीं की जाएगी, अल्लाह और मैं दोनो उनसे नफ़रत करते हैं, वह और उनके साथी जहन्नम के सबसे नीचे वाले भाग में होंगे। जल्दी ही यह लोग ख़िलाफ़त को छीन कर उसे अपना बना लेंगे, उस समय ऐ गिरोहे इंसान और जिन्नात तुम पर मुसीबत आएगी, और तुम पर आग बरसाई जाएगी और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं होगा।


 2. ग़दीर का दिन “ ईद ” का दिन
एक चीज़ जिससे ग़दीर की हदीस मशहूर और हमेशा बाक़ी रही वह है ग़दीर का दिन ईद का दिन, और इस दिन को जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने ईद का दिन बनाया। जिसमें जश्न मनाया जाता है। रात इबादत में बिताई जाती है। मोमेनीन ख़ुम्स और ज़कात निकालते हैं। ग़रीब लोगों की मदद करते हैं। अपने लिए और अपने घर वालों के लिए नयी-नयी चीज़ें ख़रीदते हैं, और नऐ-नऐ कपड़े पहनते हैं।
इसलिए जब मोमिनों की एक बड़ी संख्या उस दिन जश्न और ख़ुशियाँ मनाएगी तो यह बात यक़ीनी है कि इंसान उस घटना के कारणों और उसके रावियों को ढ़ूंढ़ता है या वह घटना जिसकी विशेषता ऐसी हो वह रावियों और शायरों (कवियों) के बारे में पता देता है और यह चीज़ कारण होती है कि उसके लिए और नयी नस्लों के लिए हर साल इस घटना की याद ताज़ा हो जाती है और फ़िर कड़ी, कड़ी से मिल जाती है, इस घटना को पढ़ा जाता है और उसकी ख़बरों को दोहराया जाता है।

सत्य (हक़) की खोज करने वालों को दो चीज़ें आकर्षित करती हैं।
पहली चीज़ः यह ईद केवल शियों से विशेष नहीं है, यह और बात है कि शियों को इस से एक ख़ास लगाव है, बल्कि मुसलमानों के दूसरे फ़िर्क़े (समुदाय) भी इस दिन शियों के साथ मिल कर ईद मनाते हैं।
इसी लिए बैरूनी ने “ अल-आसारुल बाक़िया अन क़ोरूनिल ख़ालिया” नामक किताब में ग़दीर के दिन को मुसलमानों की ईदों में से एक ईद बताया है।


और इब्ने तलहा शाफ़ेई की किताब मुतालेबुस्सवाल में हैः
ग़दीर के दिन उसने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपनी पंक्तियों में बयान किया है कि यह दिन ईद, और ख़ुशी का दिन है, इस लिए की उसी दिन रसूले इस्लाम (स.अ.) ने उन्हें यह महान पद दिया जो किसी और के लिए नहीं था। यह भी लिखा है कि मौला शब्द का जो अर्थ रसूले इस्लाम (स.अ.) के लिए है वही अर्थ हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए भी है और हुज़ूर ने उसी अर्थ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भी मौला बनाया है यह महान पद केवल हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मख़सूस है किसी और से नहीं। इसी लिए आप के चाहने वालों के लिए वह दिन ईद का दिन कहा गया है।


सारे मुसलमान हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वाले हैं, कुछ लोग पहला ख़लीफ़ा मानते हैं और कुछ चौथा मगर मानते सब हैं और मुसलमानों में कोई ऐसा नहीं है जो उनसे दुश्मनी रखता हो, कुछ गिने-चुने ख़वारिज (ख़वारिज वह लोग हैं जिन्होंने जंगे सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का साथ छोड़ दिया) के अलावा, जो दीने इस्लाम से मुँह मोड़ चुके हैं, और गुमराह हैं।

इतिहास की किताबों से हमें इस ईद के बारे में पूरब और पश्चिम के सारे मुसलमानों का एक होना, मिस्रियों, मुग़लों, और इराक़ियों के इतिहास में इस ईद के बारे में एक विशेष ईद का पता चलता है, उस दिन उनके यहाँ जमाअत से नमाज़, महफ़िलें (जश्न) और दुआओं का प्रोग्राम होता है, जिनको दुआवों की किताबों में विस्तार से बयान किया गया है।
इब्ने ख़लकान की किताबों में कई जगह मिलता है कि इस दिन ईद मनाने पर दुनिया के सारे मुसलमान सहमत हैं, इसी लिए इब्ने मुसतंसिर के हालात में यह लिखा है कि ग़दीरे ख़ुम की ईद के दिन ही उसकी बैयत की गई और वह 18 ज़िलहिज्जा 487 हिजरी का दिन था।
मुसतंसिर बिल्लाह उबैदी के बारे मिलता है कि जब वह इस दुनिया से गया तो वह 487 हिजरी में जब 12 रातें बाक़ी रह गयी थीं जुमेरात की रात थी। वही रात ईदे ग़दीर की रात थी यानी ज़िलहिज्जा की अठ्ठराहवीं रात और वह ग़दीरे ख़ुम है। मैंने देखा कि बहुत से लोग उस रात के बारे में पूछा करते थे कि ज़िलहिज्जा की वह रात कब आएगी, यह स्थान मक्का और मदीना के बीच में है, जिसमें पानी का एक स्रोत (चशमा) है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ ज़मीन दलदल है।
जिस साल नबी-ए-अकरम (स.अ.) आख़री हज करके मक्के से वापस चले और ख़ुम के स्थान पर पहुँचे, हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना भाई बनाया और फ़रमायाः
अली मेरे लिए ऐसे ही हैं जैसे हारून मूसा के लिए थे। ऐ ख़ुदा उसे दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे, और उसे दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, मदद कर उसकी जो अली की मदद करे और छोड़ दे उसको जो अली को छोड़ दे।
शियों को इससे बड़ा लगाव है। हाज़मी लिखते हैः
ग़दीर मक्का और मदीना के बीच जोहफ़ा नाम की जगह के नज़दीक एक वादी है जहाँ नबी ने ख़ुतबा इरशाद फ़रमाया था यह जगह तेज़ गर्मी और ऊबड़-खाबड़ इलाक़े से मशहूर है।
वह चीज़ जिसके बारे में इब्ने ख़लकान कहते है कि शियों को इससे बड़ा लगाव है। उसके बारे में मसऊदी हदीसे ग़दीर को बयान करने के बाद कहते हैः
हज़रत अली अलैहिस्सलाम की संतान और उनके शिया उस दिन का बहुत सम्मान करते हैं।
इसी तरह सालबी भी ग़दीर की रात को उम्मत के प्रति मशहूर और मुबारक रातों में से जानते हुए लिखते हैः
यही वह रात है जिसकी सुबह को रसूले इस्लाम (स.अ.) ने ग़दीरे ख़ुम में ऊँटों के कजावों पर खड़े होकर ख़ुत्बा दिया और इरशाद फ़रमायाः
जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं ऐ अल्लाह जो अली को दोस्त रखे तू उसे दोस्त रख और जो अली को दुश्मन रखे तू उसे दुश्मन रख, जो अली की मदद करे तू उसकी मदद करना और जो अली को छोड़ दे तू उसे छोड़ दे। शिया इस रात का बहुत सम्मान करते हैं और उसे इबादत में गुज़ारते हैं।
और शियों के विश्वास से यही नस (नस कहते हैं उस आयत या रिवायत को जिसमें किसी तरह का कोई शक न है और वह यक़ीनी हो।) है जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त के बारे में है, जो ग़दीर के दिन नाज़िल हुई इस अक़ीदे में अगरचे वह दूसरों से अलग है लेकिन हमेशा से इसी उम्मत का हिस्सा हैं, ग़दीर की रात केवल इसी महान काम के लिए मशहूर है जिसकी सुबह में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मौला बनाया गया और जिसको अल्लाह तआला ने ईद का दिन कहा है। इसी लिए ग़दीर के दिन और रात दोनों को हुस्न (यानी सुन्दरता) कहा जाता है।
तमीम बिन मअज़ अपने एक क़सीदे में कहते हैः
ग़दीर का दिन ईद का दिन है इसकी दलील यह है कि उमर, अबू बकर, और रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथियों ने, रसूले इस्लाम (स.) के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मुबारक बाद दी। और मुबारक बाद केवल ईद और ख़ुशियों के समय ही दी जाती है।
यह ईद रसूले इस्लाम (स.अ.) के समय से चली आ रही है यानी उसको उस समय से मनाया जा रहा है। जो रसूल के आख़री हज के समय शुरू हुई। जब रसूले इस्लाम ने अपने नबी होने का ऐलान किया और सारे मुसलमानों पर उनकी महानता उजागर हो गयी तो आपने दीन के महत्वपूर्ण कामों की चार दीवारी बना दी, इस्लाम धर्म से प्यार करने वाले सारे मुसलमान बहुत ही ख़ुश थे इस लिए कि रसूले इस्लाम (स.अ.) ने शरीयत के सारे मामलों को विस्तार से बता दिया था बिल्कुल ऐसे ही जैसे सूरज दिन में प्रकट होता है ताकि फ़िर कोई इस्लाम धर्म को बदल न सके, जाहिल और अनपढ़, इस्लाम धर्म को अंधेरे में न ढ़केल सकें, इसलिए क्या इस महान दिन से बढ़ कर कोई और दिन हो सकता है? जब्कि इस दिन इस्लाम का सीधा और रौशन रास्ता ज़ाहिर हो गया, दीन और नेमतें मुकम्मल (पूर्ण) हो गयीं, और उसकी ख़ुशख़बरी क़ुर्आन ने दी, जिस दिन कोई बादशाह तख़्त पर बैठा हो उसकी याद में अगर ख़ुशियाँ मनाई जाएं, जश्न किया जाए, महफ़िल की जाए, दीप जलाए जाएँ, दावतें की जाएँ, जैसा की हर धर्म और क़ौम में होता चला आ रहा है, तो वह दिन जिस दिन इस्लाम की बादशाहत और दीन की महान विलायत का ऐलैन हुआ हो, जिसके बारे में उस इंसान ने बयान किया हो जिसने अल्लाह तआला के हुक्म के बिना कभी कोई बात ही नहीं की हो, तो उस दिन को ईद की तरह मनाना सबसे ज़्यादा अच्छा होगा, और चूँकि यह दिन, दीने इस्लाम की ईद का दिन है इसलिए इस दिन ऐसे कामों को अंजाम देना ज़रूरी है जो बन्दों को ख़ुदा से नज़दीक कर दें, जैसे नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना, दुआएँ करना, इत्यादि.......
इन्हीं सब बातों के कारण हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने अपनी उम्मत के तमाम लोगों को जो वहाँ मौजूद थे जैसे अबू बकर, उमर, क़ुरैश के सरदार, अंसार के बड़े-बड़े लोग, और इसी तरह अपनी अज़वाज (पत्नियों) को हुक्म दिया कि वह सब अली अलैहिस्सलाम को दीन की बागडोर मिल जाने पर मुबारक बाद दें।
 मुबारकबाद की हदीस
इमाम मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी ने एक हदीस अपनी किताब “अलविलाया” में ज़ैद इब्ने अरक़म से बयान की है (जिसका अधिकतर हिस्सा हम बयान कर चुके हैं) उसी के आख़िर में है कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने फ़रमायाः
ऐ लोगो ! कहो कि हम दिल से आप को वचन देते हैं, ज़बानों से वादा करते हैं, और हाथों से बैयत (बैयत कहते हैं किसी के हाथ पर हाथ रख कर उसका साथ देने का वचन देना।) करते हैं कि हम इस वचन को अपनी आने वाली नस्लों तक पहुँचाएगे, और उसकी जगह किसी और को नहीं देगें, आप भी हम पर गवाह हैं और अल्लाह भी गवाही के लिए काफ़ी है, जो कुछ मैंने कहा है वह तुम सब भी कहो और अली को अमीरुल मोमनीन कह कर सलाम करो, और कहो ख़ुदा का शुक्र है कि उसने इस काम में हमें रास्ता दिखाया, और अगर वह हमारी हिदायत न करता तो हम कभी हिदायत न पाते इस लिए कि ख़ुदा हर आवाज़ और हर दिल की ख़ियानत (विश्वासघात) को जानता है बस इसके बाद जो भी अपना वचन तोड़ेगा वह ख़ुद घाटे में रहेगा और जो अल्लाह से किये हुए वचन को निभाएगा तो अल्लाह उसे अज्र (सवाब और इनाम) देगा, वह बात कहो जिससे ख़ुदा तुम से राज़ी और प्रसन्न हो और अगर तुम इंकार करोगे तो ख़ुदा तुम्हारा मोहताज नहीं है।
ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं यह सुनने के बाद लोग यह कहते हुए आगे बढ़ेः
हमने सुना और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करेंगे, और सबसे पहले रसूले ख़ुदा और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथों पर बैयत करने वाले अबू बकर, उमर, उस्मान, तलहा और ज़ुबैर थे। उनके बाद मुहाजेरीन और अंसार और फ़िर दूसरे लोगों ने बैयत की, यहाँ रसूले ख़ुदा ने ज़ुहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ीं (यानी इतने ज़्यादा लोग थे की बैयत करने में बहुत देर हो गयी) बैयत का सिलसिला जारी रहा और मग़रिब और इशा की नमाज़े भी एक साथ पढ़ी गयीं और इसी तरह तीन दिन तक बैयत होती रही।
और इस हदीस को अहमद इब्ने मुहम्मद तबरी ने जो ख़लील के नाम से मशहूर हैं अपनी किताब “मनाक़िबे अली इबने अबी तालिब” में जो 411 हिजरी में क़ाहेरा में लिखी गई थी, अपने उस्ताद मोहम्मद इब्ने अबी बक्र इब्ने अबदुर्रहमान से रिवायत की है जिसमें मिलता हैः लोग यह कहते हुए आपकी बैयत के लिए चलेः
हमने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल ने जो हमें हुक्म दिया है हम उसकी अपने दिल, अपनी जान, अपनी ज़बान, और अपने अंग अंग से पालन (इताअत) करते हैं, फिर सब लोग हाथ आगे बढ़ा कर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सामने आए, सबसे पहले अबू बकर, उमर, तलहा और ज़ुबैर ने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बैयत की, फिर मुहाजरीन ने और फिर दूसरे लोगों ने बैयत की यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र फिर मग़रिब और इशा की नमाजें पढ़ी गयीं और बैयत का यह सिलसिला तीन दिन तक जारी रहा, एक गुट के बाद जब दूसरा गुट बैयत करता था तो हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम फ़रमाते थेः
उस ख़ुदा का शुक्र जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत (वरीयता) दी।
उन दिन से बैयत सुन्नत (सुन्नतः वह काम जो नबी ने किया हो, या करने का हुक्म दिया हो, या नबी के सामने किया गया हो और नबी ने उस काम को करते हुए देखा हो और मना न किया हो।) और रस्म बन गई, और फिर ऐसे लोगों ने भी अपनी बैयत ली जो उसके लाएक़ भी नहीं थे।
और इसी तरह मिलता है किः
लोग यह कहते हुए आगे बढ़े, हाँ! हाँ! हम ने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल के हुक्म को दिल और जान से मान लिया, और दिल से उस पर ईमान ले आए हैं।
उसके बाद लोगो ने रसूल ख़ुदा (स.अ.) और हज़रत अली (अ.) के हाथों पर बैयत की, यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ी गयीं, फिर दिन के बाक़ी बचे हुए समय में भी बैयत होती रही और मग़रिब और इशा की नमाज़ें भी एक साथ पढ़ी गयीं, जब कोइ गुट रसूले ख़ुदा की बैयत के लिए आता तो आप अल्लाह से दुआ करतेः
उस ख़ुदा का शुक्र है जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत दी है।
और मौलाना वलीउल्लाह लखनवी अपनी किताब “ मेराअतुल मोमनीन ” में लिखते हैं
उसके बाद जनाब उमर ने हज़रत से मुलाक़ात की और कहाः
मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे, आप मेरे और तमाम मोमिन मर्द और मोमिन औरतों के मौला हो गए।
और हर सहाबी हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात के समय आपको मुबारक बाद देता था।
इब्ने ख़ावन्द शाह हदीसे ग़दीर के बारे में लिखते हुए कहते हैं
फिर रसूले ख़ुदा (स.) अपने ख़ैमे में गये और हज़रत अली अलैहिस्सलाम को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जाएँ और तमाम लोगों को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जा कर अली को मुबारक बाद दें, जब लोग मुबारक बाद दे चुके तो रसूले ख़ुदा (स.) ने अपनी बीवियों को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली को मुबारक बाद दें, उन लोगों ने आज्ञापालन किया, रसूले ख़ुदा (स.) के सहाबियों में सबसे पहले मुबारक बाद देने वाले जनाब उमर थे, जिनके शब्द यह थेः
मुबारक हो आप को ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात (यानीः मोमिन मर्द और औरतें) के मौला हो गए।
ग़ियासुद्दीन अपनी किताब हबीबुस्सैर में यूँ लिखते हैं
उसके बाद नबी के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने ख़ैमे में चले गये लोग आपकी ज़ियारत के लिए आते हैं और आपको मुबारक बाद देते हैं जिन में उमर भी थे और उनके शब्द यह थेः
मुबारक हो, मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात के मौला हो गए। फिर रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अपनी अज़वाज (बीवियों) को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली (अ.) को मुबारक बाद दें।
ख़ास कर जनाब अबू बकर और उमर की मुबारक बाद को इस घटना को लिखने वालों ने, मुफ़स्सेरीन, और हदीस लिखने वालों ने बयान किया है कि जिसे अंदेखा नहीं किया जा सकता है इनमें से कुछ लोगों ने उसको यक़ीनी माना है, और कुछ लोगों ने विश्वसनीय लोगों से रिवायत की है जिनका सिलसिला सहाबियों तक पहुँचता है जैसे इब्ने अब्बास, अबू हुरैरा, बर्रा इब्ने आज़िब और ज़ैद इब्ने अरक़म।


source : http://abna.ir



ग़दीर पर रसूले इस्लाम (स.अ.) का ऐलान |

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ग़दीर पर रसूले इस्लाम (स.अ.) का ऐलान  | 

 हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।

1. रसूले इस्लाम (स.अ.) का ग़दीर के दिन उतरने वाली आयतों का प्रचार करना

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।

और वह सब गुट-गुट रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथ होते जा रहे थे। रसूले इस्लाम को मालूम था कि इस सफ़र के अंत में उन्हें एक महान काम को अंजाम देना है जिस पर दीन की इमारत तय्यार होगी और उस इमारत के ख़म्भे उँचे होंगे कि जिससे आपकी उम्मत सारी उम्मतों की सरदार बनेगी, पूरब और पश्चिम में उसकी हुकूमत होगी मगर इसकी शर्त यह है कि वह सब अपने सुधरने के बारे में सोच-विचार करें और अपने हिदायत के रास्ते को देख लें, लेकिन अफ़सोस कि ऐसा नहीं हो सका।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ऐलान के लिए उठ खड़े हुए जबकि अलग-अलग शहरों से लोगों के गुट गुट आपके पास जमा हो चुके थे जो आगे बढ़ गए थे उन्हें पीछे बुलाया, जो आ रहे थे उन्हें उसी जगह रोका गया, और सबको यहर बात बताई और याद कराई गई और यह कहा गया कि जो यहाँ हैं वह उन लोगों को बता देगें जो यहाँ नहीं हैं। ताकि यह सब के सब ग़दीर की हदीस के रावी (हदीस बयान करने वाले) हों जिनकी संख्या एक लाख से अधिक थी।

हाफ़िज़ अबू जाफ़र मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी “अलविलायतो फी तुरक़े हदीसे ग़दीर” नामक किताब में ज़ैद इब्ने अरक़मः से बयान करते हैं कि नबी-ए-अकरम ने अपने आख़री हज से वापसी पर कि जब आप ग़दीरे ख़ुम के स्थान पर पहुँचे हैं तो दोपहर का समय था, गर्मी बहुत तेज़ थी, आपके हुक्म से पेड़ों के नीचे की ज़मीनों को साफ़ किया गया, जमाअत से नमाज़ पढ़ने का ऐलान किया गया, हम सब जमा हुए तो रसूले इस्लाम (स.अ) ने एक ख़ुत्बे के बाद इरशाद फ़रमायाः ख़ुदा ने मुझ पर यह आयत उतारी है कि जो हुक्म आपको दिया गया है उसे लोगों तक पहुँचा दो अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो रिसालत का कोई काम अंजाम नहीं दिया और अल्लाह आपको दुश्मनों से बचाएगा।

जिबरईल (अ.) अल्लाह की तरफ़ से यह हुक्म लाए हैं कि मैं इस स्थान पर रुक कर हर एक को यह बता दूँ कि अली इब्ने अबी तालिब (अ.) मेरे भाई और मेरे बाद मेरे जानशीन (उत्तराधिकारी) और इमाम हैं। मैंने जिबरईल से कहा कि अल्लाह से मेरे लिए बख़्शिश (माफ़ी) की गारंटी लें क्योंकि मुझे मालूम है कि अच्छे लोग बहुत कम हैं और तकलीफ़ पहुँचाने वाले बहुत ज़यादा हैं। और ऐसे बहुत से लोग हैं जो अली (अ.) के साथ रहने के कारण मुझे बुरा भला कहते हैं यहाँ तक कि उन्होंने मुझे “ उज़ुन ” (यानी कान के कच्चे) तक कह दिया।

अल्लाह तआला क़ुर्आन में इरशाद फ़रमाता हैः उनमें से कुछ लोग नबी को तकलीफ़ पहुँचाते हैं और कहते हैं कि वह कान के कच्चे हैं, उनसे कह दीजिए मैं उनका नाम और निशानियाँ बता सकता था लेकिन मैंने उस पर पर्दा डाल दिया है इसलिए अली (अ.) के बारे में जो हुक्म अल्लाह ने दिया है उसको पहुँचाए बिना अल्लाह राज़ी नहीं होगा।

ऐ लोगो! इस संदेश को सुन लो, निःसंदेह अल्लाह ने अली (अ.) को तुम्हारे ऊपर वली और इमाम बनाया है। और उनकी इताअत (आज्ञापालन करना) सभी इंसानों पर वाजिब की है उनका हुक्म जारी है उनका विरोध करने वाले पर लानत और धिक्कार और जो उनको माने उस पर रहमत, यह सुन लो और इताअत करो।

निःसंदेह अली (अ.) तुम लोगों के इमाम और मौला हैं उनके बाद इमामत मेरे बेटों में उन्हीं की नस्ल से होगी, हलाल वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हलाल कर दिया, और हराम वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हराम कर दिया। कोई ऐसा इल्म नहीं जिसको ख़ुदा ने मुझे नहीं दिया हो और मैंने अली तक न पहुँचाया हो, इसलिए अली का साथ न छोड़ना। वही हैं जो हक़ की तरफ़ हिदायत (मार्गदर्शन) करते हैं और ख़ुद भी उस पर अमल करते हैं, जो उसका इंकार करे ख़ुदा कदापि उसकी तौबा क़बूल नहीं करेगा और उसको माफ़ नहीं करेगा। अल्लाह को चाहिए कि वो ऐसा ही करे और ऐसे इंसान को अज़ाब का मज़ा चखाए। जब तक ज़मीन पर लोग ज़िन्दा हैं अली मेरे बाद सब लोगों से अफ़ज़ल (सर्वश्रेष्ठ) हैं। जो उनका विरोध करे उस पर लानत होगी, और मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वो सब जिबरईल, अल्लाह की तरफ़ से लेकर आए हैं। हर इंसान यह देख लेगा कि उसने आगे क्या भेजा है।

क़ुर्आन को समझो और अंजान की इताअत ना करो, तुम्हारे लिए क़ुर्आन की तफ़सीर वही करेगा जिसका हाथ मैं पकड़ने वाला हूँ उसे बुलंद करके मैं तुम्हारे सामने ऐलान करने वाला हूँ कि जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं। और अली की विलायत का यह ऐलान अल्लाह की तरफ़ से है जिसको उसने मुझ पर उतारा है।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने अदा कर दिया।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने पहुँचा दिया।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने सुना दिया।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने विस्तार से बयान कर दिया।

मेरे बाद अली के सिवा कोई भी मोमिनों का मालिक नहीं है, फ़िर आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को इतना उठाया कि मौला के पैर रसूले इस्लाम (स.अ.) के घुटनों तक पहुँच गए और फिर फ़रमायाः

ऐ लोगो ! यह मेरा भाई, मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी), मेरे इल्म का वारिस, और जिसका मुझ पर और अल्लाह की किताब की तफ़सीर पर ईमान है उसके लिए यह अली मेरे बाद मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी) है।

ऐ अल्लाह! तू उसको दोस्त रखना जो अली को दोस्त रखे और उसे दुश्मन रखना जो उसको दुश्मन रखे और उस इंसान पर लानत कर जो उसको ना माने, और उस पर अज़ाब करना जो अली के हक़ का इन्कार करे।

ऐ अल्लाह ! इस बात में कोई शंका नहीं है कि तू ने अली की ख़िलाफ़त के ऐलान के बाद यह आयत नाज़िल कीः

आज मैंने दीन को अली की इमामत के माध्यम से मुकम्मल (पूरा) कर दिया।

अब जो लोग अली और उनकी नस्ल से पैदा होने वाले मेरे बेटों को क़यामत तक इमाम न माने तो यही वह लोग होंगे जिनके सारे नेक आमाल बेकार हो जाएँगे और वो हमेशा जहन्नम में रहेंगे।

इब्लीस ने जनाबे आदम को ईर्ष्या के कारण जन्नत से निकलवा दिया, इस लिए तुम लोग ईर्ष्या से बचो वरना तुम्हारे आमाल बरबाद हो जाएँगे और तुम्हारे क़दम लड़खड़ा जाएँगे, क़ुर्आन में सूरए वलअस्र अली ही की शान में उतरा है।

ऐ लोगो ! ख़ुदा, उसके रसूल और वो नूर जो नबी के साथ उतरा उस पर ईमान ले आओ इस से पहले कि तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दिए जाएँ, या उन्हें पीठ की तरफ़ मोड़ दिया जाए, या तुम पर हम ऐसी लानत करें जैसी असहाबे सब्त पर लानत की थी। ख़ुदा का नूर मुझ में है फिर अली की नस्ल में इमाम मेहदी तक।

ऐ लोगो ! बहुत जल्दी ऐसे इमाम पैदा होंगे जो तुम को जहन्नम की तरफ़ बुलाएँगे। लेकिन क़यामत के दिन उनकी कोई मदद नहीं की जाएगी, अल्लाह और मैं दोनो उनसे नफ़रत करते हैं, वह और उनके साथी जहन्नम के सबसे नीचे वाले भाग में होंगे। जल्दी ही यह लोग ख़िलाफ़त को छीन कर उसे अपना बना लेंगे, उस समय ऐ गिरोहे इंसान और जिन्नात तुम पर मुसीबत आएगी, और तुम पर आग बरसाई जाएगी और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं होगा।

 2. ग़दीर का दिन “ ईद ” का दिन

एक चीज़ जिससे ग़दीर की हदीस मशहूर और हमेशा बाक़ी रही वह है ग़दीर का दिन ईद का दिन, और इस दिन को जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने ईद का दिन बनाया। जिसमें जश्न मनाया जाता है। रात इबादत में बिताई जाती है। मोमेनीन ख़ुम्स और ज़कात निकालते हैं। ग़रीब लोगों की मदद करते हैं। अपने लिए और अपने घर वालों के लिए नयी-नयी चीज़ें ख़रीदते हैं, और नऐ-नऐ कपड़े पहनते हैं।

इसलिए जब मोमिनों की एक बड़ी संख्या उस दिन जश्न और ख़ुशियाँ मनाएगी तो यह बात यक़ीनी है कि इंसान उस घटना के कारणों और उसके रावियों को ढ़ूंढ़ता है या वह घटना जिसकी विशेषता ऐसी हो वह रावियों और शायरों (कवियों) के बारे में पता देता है और यह चीज़ कारण होती है कि उसके लिए और नयी नस्लों के लिए हर साल इस घटना की याद ताज़ा हो जाती है और फ़िर कड़ी, कड़ी से मिल जाती है, इस घटना को पढ़ा जाता है और उसकी ख़बरों को दोहराया जाता है।

सत्य (हक़) की खोज करने वालों को दो चीज़ें आकर्षित करती हैं।

पहली चीज़ः यह ईद केवल शियों से विशेष नहीं है, यह और बात है कि शियों को इस से एक ख़ास लगाव है, बल्कि मुसलमानों के दूसरे फ़िर्क़े (समुदाय) भी इस दिन शियों के साथ मिल कर ईद मनाते हैं।

इसी लिए बैरूनी ने “ अल-आसारुल बाक़िया अन क़ोरूनिल ख़ालिया” नामक किताब में ग़दीर के दिन को मुसलमानों की ईदों में से एक ईद बताया है।

और इब्ने तलहा शाफ़ेई की किताब मुतालेबुस्सवाल में हैः

ग़दीर के दिन उसने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपनी पंक्तियों में बयान किया है कि यह दिन ईद, और ख़ुशी का दिन है, इस लिए की उसी दिन रसूले इस्लाम (स.अ.) ने उन्हें यह महान पद दिया जो किसी और के लिए नहीं था। यह भी लिखा है कि मौला शब्द का जो अर्थ रसूले इस्लाम (स.अ.) के लिए है वही अर्थ हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए भी है और हुज़ूर ने उसी अर्थ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भी मौला बनाया है यह महान पद केवल हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मख़सूस है किसी और से नहीं। इसी लिए आप के चाहने वालों के लिए वह दिन ईद का दिन कहा गया है।

सारे मुसलमान हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वाले हैं, कुछ लोग पहला ख़लीफ़ा मानते हैं और कुछ चौथा मगर मानते सब हैं और मुसलमानों में कोई ऐसा नहीं है जो उनसे दुश्मनी रखता हो, कुछ गिने-चुने ख़वारिज (ख़वारिज वह लोग हैं जिन्होंने जंगे सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का साथ छोड़ दिया) के अलावा, जो दीने इस्लाम से मुँह मोड़ चुके हैं, और गुमराह हैं।

इतिहास की किताबों से हमें इस ईद के बारे में पूरब और पश्चिम के सारे मुसलमानों का एक होना, मिस्रियों, मुग़लों, और इराक़ियों के इतिहास में इस ईद के बारे में एक विशेष ईद का पता चलता है, उस दिन उनके यहाँ जमाअत से नमाज़, महफ़िलें (जश्न) और दुआओं का प्रोग्राम होता है, जिनको दुआवों की किताबों में विस्तार से बयान किया गया है।

इब्ने ख़लकान की किताबों में कई जगह मिलता है कि इस दिन ईद मनाने पर दुनिया के सारे मुसलमान सहमत हैं, इसी लिए इब्ने मुसतंसिर के हालात में यह लिखा है कि ग़दीरे ख़ुम की ईद के दिन ही उसकी बैयत की गई और वह 18 ज़िलहिज्जा 487 हिजरी का दिन था।

मुसतंसिर बिल्लाह उबैदी के बारे मिलता है कि जब वह इस दुनिया से गया तो वह 487 हिजरी में जब 12 रातें बाक़ी रह गयी थीं जुमेरात की रात थी। वही रात ईदे ग़दीर की रात थी यानी ज़िलहिज्जा की अठ्ठराहवीं रात और वह ग़दीरे ख़ुम है। मैंने देखा कि बहुत से लोग उस रात के बारे में पूछा करते थे कि ज़िलहिज्जा की वह रात कब आएगी, यह स्थान मक्का और मदीना के बीच में है, जिसमें पानी का एक स्रोत (चशमा) है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ ज़मीन दलदल है।

जिस साल नबी-ए-अकरम (स.अ.) आख़री हज करके मक्के से वापस चले और ख़ुम के स्थान पर पहुँचे, हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना भाई बनाया और फ़रमायाः

अली मेरे लिए ऐसे ही हैं जैसे हारून मूसा के लिए थे। ऐ ख़ुदा उसे दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे, और उसे दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, मदद कर उसकी जो अली की मदद करे और छोड़ दे उसको जो अली को छोड़ दे।

शियों को इससे बड़ा लगाव है। हाज़मी लिखते हैः

ग़दीर मक्का और मदीना के बीच जोहफ़ा नाम की जगह के नज़दीक एक वादी है जहाँ नबी ने ख़ुतबा इरशाद फ़रमाया था यह जगह तेज़ गर्मी और ऊबड़-खाबड़ इलाक़े से मशहूर है।

वह चीज़ जिसके बारे में इब्ने ख़लकान कहते है कि शियों को इससे बड़ा लगाव है। उसके बारे में मसऊदी हदीसे ग़दीर को बयान करने के बाद कहते हैः

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की संतान और उनके शिया उस दिन का बहुत सम्मान करते हैं।

इसी तरह सालबी भी ग़दीर की रात को उम्मत के प्रति मशहूर और मुबारक रातों में से जानते हुए लिखते हैः

यही वह रात है जिसकी सुबह को रसूले इस्लाम (स.अ.) ने ग़दीरे ख़ुम में ऊँटों के कजावों पर खड़े होकर ख़ुत्बा दिया और इरशाद फ़रमायाः

जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं ऐ अल्लाह जो अली को दोस्त रखे तू उसे दोस्त रख और जो अली को दुश्मन रखे तू उसे दुश्मन रख, जो अली की मदद करे तू उसकी मदद करना और जो अली को छोड़ दे तू उसे छोड़ दे। शिया इस रात का बहुत सम्मान करते हैं और उसे इबादत में गुज़ारते हैं।

और शियों के विश्वास से यही नस (नस कहते हैं उस आयत या रिवायत को जिसमें किसी तरह का कोई शक न है और वह यक़ीनी हो।) है जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त के बारे में है, जो ग़दीर के दिन नाज़िल हुई इस अक़ीदे में अगरचे वह दूसरों से अलग है लेकिन हमेशा से इसी उम्मत का हिस्सा हैं, ग़दीर की रात केवल इसी महान काम के लिए मशहूर है जिसकी सुबह में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मौला बनाया गया और जिसको अल्लाह तआला ने ईद का दिन कहा है। इसी लिए ग़दीर के दिन और रात दोनों को हुस्न (यानी सुन्दरता) कहा जाता है।

तमीम बिन मअज़ अपने एक क़सीदे में कहते हैः

ग़दीर का दिन ईद का दिन है इसकी दलील यह है कि उमर, अबू बकर, और रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथियों ने, रसूले इस्लाम (स.) के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मुबारक बाद दी। और मुबारक बाद केवल ईद और ख़ुशियों के समय ही दी जाती है।

यह ईद रसूले इस्लाम (स.अ.) के समय से चली आ रही है यानी उसको उस समय से मनाया जा रहा है। जो रसूल के आख़री हज के समय शुरू हुई। जब रसूले इस्लाम ने अपने नबी होने का ऐलान किया और सारे मुसलमानों पर उनकी महानता उजागर हो गयी तो आपने दीन के महत्वपूर्ण कामों की चार दीवारी बना दी, इस्लाम धर्म से प्यार करने वाले सारे मुसलमान बहुत ही ख़ुश थे इस लिए कि रसूले इस्लाम (स.अ.) ने शरीयत के सारे मामलों को विस्तार से बता दिया था बिल्कुल ऐसे ही जैसे सूरज दिन में प्रकट होता है ताकि फ़िर कोई इस्लाम धर्म को बदल न सके, जाहिल और अनपढ़, इस्लाम धर्म को अंधेरे में न ढ़केल सकें, इसलिए क्या इस महान दिन से बढ़ कर कोई और दिन हो सकता है? जब्कि इस दिन इस्लाम का सीधा और रौशन रास्ता ज़ाहिर हो गया, दीन और नेमतें मुकम्मल (पूर्ण) हो गयीं, और उसकी ख़ुशख़बरी क़ुर्आन ने दी, जिस दिन कोई बादशाह तख़्त पर बैठा हो उसकी याद में अगर ख़ुशियाँ मनाई जाएं, जश्न किया जाए, महफ़िल की जाए, दीप जलाए जाएँ, दावतें की जाएँ, जैसा की हर धर्म और क़ौम में होता चला आ रहा है, तो वह दिन जिस दिन इस्लाम की बादशाहत और दीन की महान विलायत का ऐलैन हुआ हो, जिसके बारे में उस इंसान ने बयान किया हो जिसने अल्लाह तआला के हुक्म के बिना कभी कोई बात ही नहीं की हो, तो उस दिन को ईद की तरह मनाना सबसे ज़्यादा अच्छा होगा, और चूँकि यह दिन, दीने इस्लाम की ईद का दिन है इसलिए इस दिन ऐसे कामों को अंजाम देना ज़रूरी है जो बन्दों को ख़ुदा से नज़दीक कर दें, जैसे नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना, दुआएँ करना, इत्यादि.......

इन्हीं सब बातों के कारण हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने अपनी उम्मत के तमाम लोगों को जो वहाँ मौजूद थे जैसे अबू बकर, उमर, क़ुरैश के सरदार, अंसार के बड़े-बड़े लोग, और इसी तरह अपनी अज़वाज (पत्नियों) को हुक्म दिया कि वह सब अली अलैहिस्सलाम को दीन की बागडोर मिल जाने पर मुबारक बाद दें।

 मुबारकबाद की हदीस

इमाम मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी ने एक हदीस अपनी किताब “अलविलाया” में ज़ैद इब्ने अरक़म से बयान की है (जिसका अधिकतर हिस्सा हम बयान कर चुके हैं) उसी के आख़िर में है कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने फ़रमायाः

ऐ लोगो ! कहो कि हम दिल से आप को वचन देते हैं, ज़बानों से वादा करते हैं, और हाथों से बैयत (बैयत कहते हैं किसी के हाथ पर हाथ रख कर उसका साथ देने का वचन देना।) करते हैं कि हम इस वचन को अपनी आने वाली नस्लों तक पहुँचाएगे, और उसकी जगह किसी और को नहीं देगें, आप भी हम पर गवाह हैं और अल्लाह भी गवाही के लिए काफ़ी है, जो कुछ मैंने कहा है वह तुम सब भी कहो और अली को अमीरुल मोमनीन कह कर सलाम करो, और कहो ख़ुदा का शुक्र है कि उसने इस काम में हमें रास्ता दिखाया, और अगर वह हमारी हिदायत न करता तो हम कभी हिदायत न पाते इस लिए कि ख़ुदा हर आवाज़ और हर दिल की ख़ियानत (विश्वासघात) को जानता है बस इसके बाद जो भी अपना वचन तोड़ेगा वह ख़ुद घाटे में रहेगा और जो अल्लाह से किये हुए वचन को निभाएगा तो अल्लाह उसे अज्र (सवाब और इनाम) देगा, वह बात कहो जिससे ख़ुदा तुम से राज़ी और प्रसन्न हो और अगर तुम इंकार करोगे तो ख़ुदा तुम्हारा मोहताज नहीं है।

ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं यह सुनने के बाद लोग यह कहते हुए आगे बढ़ेः

हमने सुना और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करेंगे, और सबसे पहले रसूले ख़ुदा और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथों पर बैयत करने वाले अबू बकर, उमर, उस्मान, तलहा और ज़ुबैर थे। उनके बाद मुहाजेरीन और अंसार और फ़िर दूसरे लोगों ने बैयत की, यहाँ रसूले ख़ुदा ने ज़ुहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ीं (यानी इतने ज़्यादा लोग थे की बैयत करने में बहुत देर हो गयी) बैयत का सिलसिला जारी रहा और मग़रिब और इशा की नमाज़े भी एक साथ पढ़ी गयीं और इसी तरह तीन दिन तक बैयत होती रही।

और इस हदीस को अहमद इब्ने मुहम्मद तबरी ने जो ख़लील के नाम से मशहूर हैं अपनी किताब “मनाक़िबे अली इबने अबी तालिब” में जो 411 हिजरी में क़ाहेरा में लिखी गई थी, अपने उस्ताद मोहम्मद इब्ने अबी बक्र इब्ने अबदुर्रहमान से रिवायत की है जिसमें मिलता हैः लोग यह कहते हुए आपकी बैयत के लिए चलेः

हमने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल ने जो हमें हुक्म दिया है हम उसकी अपने दिल, अपनी जान, अपनी ज़बान, और अपने अंग अंग से पालन (इताअत) करते हैं, फिर सब लोग हाथ आगे बढ़ा कर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सामने आए, सबसे पहले अबू बकर, उमर, तलहा और ज़ुबैर ने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बैयत की, फिर मुहाजरीन ने और फिर दूसरे लोगों ने बैयत की यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र फिर मग़रिब और इशा की नमाजें पढ़ी गयीं और बैयत का यह सिलसिला तीन दिन तक जारी रहा, एक गुट के बाद जब दूसरा गुट बैयत करता था तो हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम फ़रमाते थेः

उस ख़ुदा का शुक्र जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत (वरीयता) दी।

उन दिन से बैयत सुन्नत (सुन्नतः वह काम जो नबी ने किया हो, या करने का हुक्म दिया हो, या नबी के सामने किया गया हो और नबी ने उस काम को करते हुए देखा हो और मना न किया हो।) और रस्म बन गई, और फिर ऐसे लोगों ने भी अपनी बैयत ली जो उसके लाएक़ भी नहीं थे।

और इसी तरह मिलता है किः

लोग यह कहते हुए आगे बढ़े, हाँ! हाँ! हम ने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल के हुक्म को दिल और जान से मान लिया, और दिल से उस पर ईमान ले आए हैं।

उसके बाद लोगो ने रसूल ख़ुदा (स.अ.) और हज़रत अली (अ.) के हाथों पर बैयत की, यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ी गयीं, फिर दिन के बाक़ी बचे हुए समय में भी बैयत होती रही और मग़रिब और इशा की नमाज़ें भी एक साथ पढ़ी गयीं, जब कोइ गुट रसूले ख़ुदा की बैयत के लिए आता तो आप अल्लाह से दुआ करतेः

उस ख़ुदा का शुक्र है जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत दी है।

और मौलाना वलीउल्लाह लखनवी अपनी किताब “ मेराअतुल मोमनीन ” में लिखते हैं

उसके बाद जनाब उमर ने हज़रत से मुलाक़ात की और कहाः

मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे, आप मेरे और तमाम मोमिन मर्द और मोमिन औरतों के मौला हो गए।

और हर सहाबी हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात के समय आपको मुबारक बाद देता था।

इब्ने ख़ावन्द शाह हदीसे ग़दीर के बारे में लिखते हुए कहते हैं

फिर रसूले ख़ुदा (स.) अपने ख़ैमे में गये और हज़रत अली अलैहिस्सलाम को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जाएँ और तमाम लोगों को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जा कर अली को मुबारक बाद दें, जब लोग मुबारक बाद दे चुके तो रसूले ख़ुदा (स.) ने अपनी बीवियों को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली को मुबारक बाद दें, उन लोगों ने आज्ञापालन किया, रसूले ख़ुदा (स.) के सहाबियों में सबसे पहले मुबारक बाद देने वाले जनाब उमर थे, जिनके शब्द यह थेः

मुबारक हो आप को ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात (यानीः मोमिन मर्द और औरतें) के मौला हो गए।

ग़ियासुद्दीन अपनी किताब हबीबुस्सैर में यूँ लिखते हैं

उसके बाद नबी के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने ख़ैमे में चले गये लोग आपकी ज़ियारत के लिए आते हैं और आपको मुबारक बाद देते हैं जिन में उमर भी थे और उनके शब्द यह थेः

मुबारक हो, मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात के मौला हो गए। फिर रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अपनी अज़वाज (बीवियों) को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली (अ.) को मुबारक बाद दें।

ख़ास कर जनाब अबू बकर और उमर की मुबारक बाद को इस घटना को लिखने वालों ने, मुफ़स्सेरीन, और हदीस लिखने वालों ने बयान किया है कि जिसे अंदेखा नहीं किया जा सकता है इनमें से कुछ लोगों ने उसको यक़ीनी माना है, और कुछ लोगों ने विश्वसनीय लोगों से रिवायत की है जिनका सिलसिला सहाबियों तक पहुँचता है जैसे इब्ने अब्बास, अबू हुरैरा, बर्रा इब्ने आज़िब और ज़ैद इब्ने अरक़म।



source : http://abna.ir



पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स.) की सौ हदीसें |

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पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स.) 

1.       आदमी जैसे जैसे बूढ़ा होता जाता है उसकी हिरस व तमन्नाएं जवान होती जाती हैं।
2.       अगर मेरी उम्मत के आलिम व हाकिम फ़ासिद होंगे तो उम्मत फ़ासिद हो जायेगी और अगर यह नेक होंगें तो उम्मत नेक होगी। 
3.       तुम सब, आपस में एक दूसरे की देख रेख के ज़िम्मेदार हो।
4.       माल के ज़रिये सबको राज़ी नही किया जा सकता, मगर अच्छे अख़लाक़ के ज़रिये सबको ख़ुश रखा जा सकता है।
5.       नादारी एक बला है, जिस्म की बीमारी उससे बड़ी बला है और दिल की बीमारी (कुफ़्र व शिर्क) सबसे बड़ी बला है।
6.       मोमिन हमेशा हिकमत की तलाश में रहता है। 
7.       इल्म को बढ़ने से नही रोका जा सकता।
8.       इंसान का दिल, उस “ पर ” की तरह है जो बयाबान में किसी दरख़्त की शाख़ पर लटका हुआ हवा के झोंकों से ऊपर नीचे होता रहता है। 
9.       मुसलमान, वह है, जिसके हाथ व ज़बान से मुसलमान महफ़ूज़ रहें। 
10.   किसी की नेक काम के लिए राहनुमाई करना भी ऐसा ही है, जैसे उसने वह नेक काम ख़ुद किया हो।
12.   माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है। 
13.   औरतों के साथ बुरा बर्ताव करने में अल्लाह से डरों और जो नेकी उनके शायाने शान हो उससे न बचो।
14.   तमाम इंसानों का रब एक है और सबका बाप भी एक ही है, सब आदम की औलाद हैं और आदम मिट्टी से पैदा हुए है लिहाज़ तुम में अल्लाह के नज़दीक सबसे ज़्यादा अज़ीज़ वह है जो तक़वे में ज़्यादा है।
15.   ज़िद, से बचो क्योंकि इसकी बुनियाद जिहालत है और इसकी वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ती है।
16.   सबसे बुरा इंसान वह है, जो न दूसरों की ग़लतियों को माफ़ करता हो और न ही दूसरों की बुराई को नज़र अंदाज़ करता हो, और उससे भी बुरा इंसान वह है जिससे दूसरे इंसान न अमान में हो और न उससे नेकी की उम्मीद रखते हों।
17     ग़ुस्सा न करो और अगर ग़ुस्सा आ जाये, तो अल्लाह की क़ुदरत के बारे में ग़ौर करो। 
18     जब तुम्हारी तारीफ़ की जाये, तो कहो, ऐ अल्लाह ! तू मुझे उससे अच्छा बना दे जो ये गुमान करते है और जो यह मेरे बारे में नही जानते उसको माफ़ कर दे और जो यह कहते हैं मुझे उसका मसऊल क़रार न दे। 
19     चापलूस लोगों के मूँह पर मिट्टी मल दो। (यानी उनको मुँह न लगाओ)
20     अगर अल्लाह किसी बंदे के साथ नेकी करना चाहता है, तो उसके नफ़्स को उसके लिए रहबर व वाइज़ बना देता है। 
21     मोमिन हर सुबह व शाम अपनी ग़लतियों का गुमान करता है। 
22     आपका सबसे बड़ा दुश्मन नफ़्से अम्मारह है, जो ख़ुद आपके अन्दर छुपा रहता है।
23     सबसे बहादुर इंसान वह हैं जो नफ़्स की हवा व हवस पर ग़ालिब रहते हैं। 
24     अपने नफ़्स की हवा व हवस से लड़ो, ताकि अपने वुजूद के मालिक बने रहो।
25     ख़ुश क़िस्मत हैं, वह लोग, जो दूसरों की बुराई तलाश करने के बजाये अपनी बुराईयों की तरफ़ मुतवज्जेह रहते हैं। 
26     सच, से दिल को सकून मिलता है और झूट से शक व परेशानियाँ बढ़ती है।
27     मोमिन दूसरों से मुहब्बत करता है और दूसरे उससे मुहब्बत करते हैं।
28     मोमेनीन आपस में एक दूसरे इसी तरह वाबस्ता रहते हैं जिस तरह किसी इमारत के तमाम हिस्से आपस में एक दूसरे से वाबस्ता रहते हैं। 
29     मोमेनीन की आपसी दोस्ती व मुब्बत की मिसाल जिस्म जैसी है जब ज़िस्म के एक हिस्से में दर्द होता है तो पर बाक़ी हिस्से भी बे आरामी महसूस करते हैं। 
30     तमाम इंसान कंघें के दाँतों की तरह आपस में बराबर हैं। 
31     इल्म हासिल करना तमाम मुसलमानों पर वाजिब है।
32     फ़कीरी, जिहालत से, दौलत, अक़्लमंदी से और इबादत, फ़िक्र से बढ़ कर नही है।
33     झूले से कब्र तक इल्म हासिल करो।
34     इल्म हासिल करो चाहे वह चीन में ही क्योँ न हो।
35     मोमिन की शराफ़त रात की इबादत में और उसकी इज़्ज़त दूसरों के सामने हाथ न फैलाने में है।
36     साहिबाने इल्म, इल्म के प्यासे होते है। 
37     लालच इंसान को अंधा व बहरा बना देता है। 
39     परहेज़गारी, इंसान के ज़िस्म व रूह को आराम पहुँचाती है। 
40     अगर कोई इंसान चालीस दिन तक सिर्फ़ अल्लाह के लिए ज़िन्दा रहे, तो उसकी ज़बान से हिकमत के चश्मे जारी होंगे। 
41     मस्जिद के गोशे में तन्हाई में बैठने से ज़्यादा अल्लाह को यह पसंद है, कि इंसान अपने ख़ानदान के साथ रहे।
42     आपका सबसे अच्छा दोस्त वह है, जो आपको आपकी बुराईयों की तरफ़ तवज्जोह दिलाये। 
43     इल्म को लिख कर महफ़ूज़ करो।
44     जब तक दिल सही न होगा, ईमान सही नही हो सकता और जब तक ज़बान सही नही होगी दिल सही नही हो सकता। 
46     तन्हा अक़्ल के ज़रिये ही नेकी तक पहुँचा जा सकता है लिहाज़ा जिनके पास अक़्ल नही है उनके पास दीन भी नही हैं। 
47     नादान इंसान, दीन को, उसे तबाह करने वाले से ज़्यादा नुक़्सान पहुँचाते हैं।
48     मेरी उम्मत के हर अक़्लमंद इंसान पर चार चीज़ें वाजिब हैं। इल्म हासिल करना, उस पर अमल करना, उसकी हिफ़ाज़त करना और उसे फैलाना।
49     मोमिन एक सुराख़ से दो बार नही डसा जाता।
50     मैं अपनी उम्मत की फ़क़ीरी से नही, बल्कि बेतदबीरी से डरता हूँ। 
51     अल्लाह ज़ेबा है और हर ज़ेबाई को पसंद करता है।
52     अल्लाह, हर साहिबे फ़न मोमिन को पसंद करता।
53     मोमिन, चापलूस नही होता।
54     ताक़तवर वह नही,जिसके बाज़ू मज़बूत हों, बल्कि ताक़तवर वह है जो अपने ग़ुस्से पर ग़ालिब आ जाये। 
56     सबसे अच्छा घर वह है, जिसमें कोई यतीम इज़्ज़त के साथ रहता हो। 
57     कितना अच्छा हो, अगर हलाल दौलत, किसी नेक इंसान के हाथ में हो।
58     मरने के बाद अमल का दरवाज़ा बंद हो जाता है,मगर तीन चीज़े ऐसी हैं जिनसे सवाब मिलता रहता है, सदक़-ए-जारिया, वह इल्म जो हमेशा फ़ायदा पहुँचाता रहे और नेक औलाद जो माँ बाप के लिए दुआ करती रहे।
59     अल्लाह की इबादत करने वाले तीन गिरोह में तक़सीम हैं। पहला गिरोह वह है जो अल्लाह की इबादत डर से करता है और यह ग़ुलामों वाली इबादत है। दूसरा गिरोह वह जोअल्लाह की इबादत इनाम के लालच में करता है और यह ताजिरों वाली इबादत है। तीसरा गिरोह वह है जो अल्लाह की इबादत उसकी मुहब्बत में करता है और यह इबादत आज़ाद इंसानों की इबादत है।
60     ईमान की तीन निशानियाँ हैं, तंगदस्त होते हुए दूसरों को सहारा देना, दूसरों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए अपना हक़ छोड़ देना और साहिबाने इल्म से इल्म हासिल करना। 
61     अपने दोस्त से दोस्ती का इज़हार करो ताकि मुब्बत मज़बूत हो जाये।
62     तीन गिरोह दीन के लिए ख़तरा हैं, बदकार आलिम, ज़ालिम इमाम और नादान मुक़द्दस।
63     इंसानों को उनके दोस्तों के ज़रिये पहचानों, क्योँकि हर इंसान अपने हम मिज़ाज़ इंसान को दोस्त बनाता है। 
64     गुनहाने पिनहनी (छुप कर गुनाह करना) से सिर्फ़ गुनाह करने वाले को नुक़्सान पहुँचाता है लेकिन गुनाहाने ज़ाहिरी (खुले आम किये जाने वाले गुनाह) पूरे समाज को नुक़्सान पहुँचाते है। 
65     दुनिया के कामों में कामयाबी के लिए कोशिश करो मगर आख़ेरत के लिए इस तरह कोशिश करो कि जैसे हमें कल ही इस दुनिया से जाना है। 
66     रिज़्क़ को ज़मीन की तह में तलाश करो। 
67     अपनी बड़ाई आप बयान करने से इंसान की क़द्र कम हो जाती है और इनकेसारी से इंसान की इज़्ज़त बढ़ती है।
68     ऐ अल्लाह ! मेरी ज़्यादा रोज़ी मुझे बुढ़ापे में अता फ़रमाना।
69     बाप पर बेटे के जो हक़ हैं उनमें से यह भी हैं कि उसका अच्छा नाम रखे, उसे इल्म सिखाये और जब वह बालिग़ हो जाये तो उसकी शादी करे। 
70     जिसके पास क़ुदरत होती है, वह उसे अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करता है। 
71     सबसे वज़नी चीज़ जो आमाल के तराज़ू में रखी जायेगी वह ख़ुश अखलाक़ी है। 
72     अक़्लमंद इंसान जिन तीन चीज़ों की तरफ़ तवज्जोह देते हैं, वह यह हैं ज़िंदगी का सुख, आखेरत का तोशा (सफ़र में काम आने वाले सामान) और हलाल ऐश।
73     ख़ुश क़िसमत हैं, वह इंसान, जो ज़्यादा माल को दूसरों में तक़सीम कर देते हैं और ज़्यादा बातों को अपने पास महफ़ूज़ कर लेते हैं। 
74     मौत हमको हर ग़लत चीज़ से बे नियाज़ कर देती है।
75     इंसान हुकूमत व मक़ाम के लिए कितनी हिर्स करता है और आक़िबत में कितने रंज व परेशानियाँ बर्दाश्त करता है। 
76     सबसे बुरा इंसान, बदकार आलिम होता है।
77     जहाँ पर बदकार हाकिम होंगे और जाहिलों को इज़्ज़त दी जायेगी वहाँ पर बलायें नाज़िल होगी। 
78     लानत हो उन लोगों पर जो अपने कामों को दूसरों पर थोपते हैं।
79     इंसान की ख़ूबसूरती उसकी गुफ़्तुगू में है। 
80     इबादत की सात क़िस्में हैं और इनमें सबसे अज़ीम इबादत रिज़्क़े हलाल हासिल करना है।
81     समाज में आदिल हुकूमत का पाया जाना और क़ीमतों का कम होना, इंसानों से अल्लाह के ख़ुश होने की निशानी है। 
82     हर क़ौम उसी हुकूमत के काबिल है जो उनके दरमियान पायी जाती है।
83     ग़लत बात कहने से कीनाह के अलावा कुछ हासिल नही होता। 
85     जो काम बग़ैर सोचे समझे किया जाता है उसमें नुक़्सान का एहतेमाल पाया जाता है।
87     दूसरों से कोई चीज़ न माँगो, चाहे वह मिस्वाक करने वाली लकड़ी ही क्योँ न हो। 
88     अल्लाह को यह पसंद नही है कि कोई अपने दोस्तों के दरमियान कोई खास फ़र्क़ रखे। 
89     अगर किसी चीज़ को फाले बद समझो, तो अपने काम को पूरा करो, अगर कोई किसी बुरी चीज़ का ख़्याल आये तो उसे भूल जाओ और अगर हसद पैदा हो तो उससे बचो। 
90     एक दूसरे की तरफ़ मुहब्बत से हाथ बढ़ाओ क्योँकि इससे कीनह दूर होता है।
91     जो सुबह उठ कर मुसलमानों के कामों की इस्लाह के बारे में न सोचे वह मुसलमान नही है। 
92     ख़ुश अख़लाकी दिल से कीनह को दूर करती है। 
93     हक़ीक़त कहने में, लोगों से नही डरना चाहिए। 
94     अक़लमंद इंसान वह है जो दूसरों के साथ मिल जुल कर रहे। 
95     एक सतह पर ज़िंदगी करो ताकि तुम्हारा दिल भी एक सतह पर रहे। एक दूसरे से मिलो जुलो ताकि आपस में मुहब्बत रहे। 
96     मौत के वक़्त, लोग पूछते हैं कि क्या माल छोड़ा और फ़रिश्ते पूछते हैं कि क्या नेक काम किये। 
97     वह हलाल काम जिससे अल्लाह को नफ़रत है, तलाक़ है। 
98     सबसे बड़ा नेक काम, लोगों के दरमियान सुलह कराना। 
99     ऐ अल्लाह तू मुझे इल्म के ज़रिये बड़ा बना, बुर्दुबारी के ज़रिये ज़ीनत दे, परहेज़गारी से मोहतरम बना और तंदरुस्ती के ज़रिये खूबसूरती अता कर। 


माह ऐ मुहर्रम में अज़ादारी बिना नीयत की पाकीज़गी के नहीं हो सकती|

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 इस्लाम की निगाह में वह अमल सही है जो अल्लाह उसके रसूल स.अ. और इमामों के हुक्म के मुताबिक़ हों क्योंकि यही सेराते मुस्तक़ीम है, और जितना इंसान इस रास्ते से दूर होता जाएगा उतना ही गुमराही से क़रीब होता जाएगा। 

 https://www.youtube.com/payameamnइंसान को शरीयत के हिसाब से अमल करना चाहिए और ख़ुदा के अहकाम पर हर हाल में अमल करना चाहिए और इसी तरह दीनी अख़लाक़ पर अमल करना भी हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है, तभी उसको पता चलेगा कि उसके आमाल कहां तक अल्लाह के लिए हैं, और इसी तरह पैग़म्बर स.अ. और मासूमीन अ.स. की सीरत को अपनी ज़िंदगी के लिए आइडियल बनाना चाहिए ताकि अल्लाह हमें जिस रास्ते पर चलते हुए देखना चाहता है हम उस पर चल सकें, और सबसे ज़्यादा अहम बात यह कि अगर इंसान अपने आमाल को अल्लाह का पसंदीदा देखना चाहता है तो उसे आमाल में ख़ुलूस लाना पड़ेगा। ख़ुलूस, बंदगी की रूह का नाम है, ख़ुलूस के बिना इबादत किसी काम की नहीं है जैसाकि इमाम सादिक़ अ.स. ने फ़रमाया कि नीयत अमल से बेहतर है और याद रखना कि अमल की हक़ीक़त का नाम नीयत ही है। (उसूले काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16) इसलिए अगर नीयत में ख़ुलूस नहीं पाया गया तो नीयत बेकार और जब नीयत बेकार तो अमल किसी क़ाबिल नहीं रह जाएगा। 
ख़ुलूस का मतलब नीयत का शिर्क और दिखावे से पाक रखना है, हदीसों में बयान हुआ है कि ख़ुलूस का संबंध दिल से है उसके बारे में किसी सामने की चीज़ के जैसा फ़ैसला नहीं किया जा सकता जैसाकि पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि अल्लाह तुम्हारी दौलत और तुम्हारे चेहरों का नहीं देखता बल्कि उसकी निगाहें तुम लोगों के दिल और तुम्हारे आमाल पर रहती हैं। (मीज़ानुल-हिकमह, जिल्द 2, पेज 16) 

इंसान का अपने को ख़ुलूस की उस मंज़िल तक पहुंचाना कि उसका हर काम केवल अल्लाह के लिए हो यह बहुत सख़्त काम है और हर कोई आसानी से इस मंज़िल तक पहुंचने का दावा नहीं कर सकता, हालांकि इंसान को मायूस नहीं होना चाहिए बल्कि जितना हो सके अपनी नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए, ज़ाहिर है कि जिस तरह इंसान अपने बदन को सही आकार में लाने के लिए पसीना बहाता है रोज़ दौड़ता है और दूसरे बहुत से काम करता है तब कहीं जा कर धीरे धीरे उसका बदन सही शेप में आता है उसी तरह अपनी रूह की पाकीज़गी और नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने के लिए धीरे धीरे क़दम उठाना होगा, और जिस तरह अपने जिस्म को सही शेप में लाने के लिए हम कम मेहनत से शुरू करते हैं और फिर घंटों मेहनत करते और पसीना बहाते हैं उसी तरह ख़ुलूस पैदा करने के लिए शुरू में अपनी नीयत और अमल में ख़ुलूस लाने के लिए धीरे धीरे अपने दिल और दिमाग़ से शिर्क और दिखावे को दूर करें और फिर पूरे ध्यान के साथ हर छोटे बड़े काम में ख़ुलूस लाने की कोशिश करें, जो लोग ख़ुलूस की ऊंचाईयों तक पहुंचे हैं उन्होंने कड़ी मेहनत की है अपने नफ़्स के साथ जेहाद किया है अपनी ख़्वाहिशों को मारा है तब जा कर अपनी नीयत को ख़ालिस कर सके हैं और तब कहीं जा कर उनके अमल अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ हुए हैं। 

इंसान को हमेशा अल्लाह से दुआ करना चाहिए कि वह काम के आख़िर तक ख़ुलूस बाक़ी रखने की तौफ़ीक़ दे, क्योंकि कभी कभी बीच रास्ते में कुछ ऐसी मुश्किलें आ जाती हैं जिनसे इंसान का ख़ुलूस को आख़िर तक बाक़ी रख पाना मुमकिन नहीं होता। हदीसों की किताबों में नीयत और अमल में ख़ुलूस पैदा करने के कुछ तरीक़े बताए हैं जिनमें से कुछ की तरफ़ इशारा किया जा रहा है ताकि उनको पहचान के और उन पर अमल कर के पता चल सके कि ख़ुलूस वाले काम किस के तरह होते हैं। 

1- पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस वाले इंसान की चार तरीक़े की पहचान हैं, पहले यह कि उसका दिल पाक साफ़ होता है, दूसरे यह कि उसके हाथ पैर और दूसरे बदन के हिस्से सही और सालिम होते हैं, तीसरे यह कि लोग उनके नेक कामों से फ़ायदा हासिल करते हैं, चौथे यह कि उनसे लोगों को किसी तरह का कोई ख़तरा नहीं होता। (तोहफ़ुल-ओक़ूल, पेज 16) 

2- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि जिसका ज़ाहिर और बातिन एक जैसा हो और सामने और पीठ पीछे की बातें एक जैसी हों हक़ीक़त में उसने अमानत को अदा कर दिया और अपनी इबादतों में ख़ुलूस पैदा कर लिया है। (नहजुल बलाग़ा, ख़त न. 26) 

3- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस की आख़िरी हद गुनाहों से बचना है। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 213) 

4- एक दूसरी रिवायत में मौला अमीर अ.स. ही का फ़रमान है कि ख़ालिस इबादत उसे कहते हैं कि जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और से थोड़ी भी उम्मीद न रखता हो और अपने गुनाहों के अलावा किसी से न डरता हो। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 229) 

5- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ालिस अमल वही है जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ़ का इंतेज़ार न करे।
 (उसूल काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16) 

6- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि कोई भी बंदा उस समय तक ख़ुलूस तक नहीं पहुंच सकता जब तक लोगों की तारीफ़ की चाहत ख़त्म न कर दे। (मिश्कातुल अनवार, पेज 11, अख़लाक़े अमली, आयतुल्लाह महदवी कनी, पेज 421) 

7- हदीस में यह भी ज़िक्र हुआ है कि ख़ुलूस की शुरूआत अल्लाह के अलावा हर किसी से उम्मीद का तोड़ना है। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 430) 

इन सभी हदीसों की रौशनी में यह बात साफ़ हो जाती है कि इबादत की बुनियाद ख़ुलूस है और आमाल को इबादत उसी समय कहा जा सकता है जब उसमें ख़ुलूस पाया जाता होगा, इस्लाम ने हमेशा अच्छे अमल को सराहा है , कभी अमल की भरमार के चलते अमल की रूह यानी ख़ुलूस और नीयत का साफ़ होना छूट जाए इसे इस्लाम सपोर्ट नहीं करता, अगर आप अपने अमल में ख़ुलूस का पता लगाना चाहते हैं तो आप कुछ समय तक अपने अमल और रोज़ाना के कामों पर ध्यान दीजिए और अपने दिल की गहराईयों में जा कर देखिए उसका हिसाब किताब कीजिए, अगर किसी वाजिब को सबके सामने ख़ुलूस से अंजाम नहीं दे सकते तो उसे भी तंहाई में अंजाम दीजिए, हालांकि बहुत कम होता है कि वाजिब अहकाम को अदा करने में दिखावा हो लेकिन अगर किसी को ऐसा लगता है कि वाजिब में भी दिखावा हो सकता है तो उसे भी अकेले में छिप कर अंजाम देना चाहिए क्योंकि ज़्यादातर दिखावे की मुश्किल लोगों के लिए मुस्तहब कामों में होती है, हमें केवल इस बात का ध्यान रखना है कि अमल वाजिब हो या मुस्तहब उसके अंदर दिखावा नहीं आना चाहिए और उसकी पहचान के लिए एक तरीक़ा यह भी है कि अमल अंजाम देने के बाद अपने नफ़्स की जांच पड़ताल करें अगर दुनिया की मोहब्बत और अल्लाह के अलावा किसी और को ख़ुश करने का इरादा और नीयत मिले तो समझ लीजिए उस अमल में ख़ुलूस नहीं है और अगर अमल के अंजाम के बाद अल्लाह से क़रीब होने का एहसास और उसको ख़ुश करने जैसा तसव्वुर पैदा हो तो समझ लीजिए आपने ख़ुलूस से अंजाम दिया है। 

ध्यान रहे कभी कभी इंसान सवाब को हासिल करने और जन्नत में जाने के लिए अमल अंजाम देता है, ऐसा करने का बिल्कुल यह मतलब नहीं कि उस अमल में ख़ुलूस नहीं पाया जाता, और आख़िर में अपने इस लेख को को इस अहम हदीस पर ख़त्म कर रहे हैं कि जिसमें इमाम अ.स. ने फ़रमाया कि अपनी उम्मीदों को कम करो ताकि तुम्हारे अमल में ख़ुलूस पैदा हो। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 91, मेराजुस्-सआदह, पेज 491, चेहेल हदीस, इमाम ख़ुमैनी र.ह., पेज 51-55) 
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अमल में ख़ुलूस ज़रूरी है |

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इंसान अपनी ज़िंदगी में अल्लाह से क़रीब होने के लिए बहुत से अमल अंजाम देता है लेकिन कभी कभी महसूस करता है कि इतने सारे आमाल के बावजूद वह ख़ुद को अल्लाह से क़रीब नहीं पा रहा है, आख़िर क्या वजह है कि इतने सारे आमाल के बाद भी वह ख़ुद को अल्लाह से क़रीब नहीं पा रहा है? तो सबसे पहले इस सवाल का जवाब जो उलमा ने आयतों और हदीसों की रौशनी में दिया है वह यह कि ऐसे शख़्स के अमल में ख़ुलूस नहीं पाया जाता। 
अब यहां एक और सवाल पैदा होता है वह यह कि आख़िर अपने अमल में ख़ुलूस कैसे पैदा करें जिससे अल्लाह के क़रीब हो सकें? कैसे अपने अमल को पाक करें जिससे अल्लाह की बारगाह में ख़ुद को उसके क़रीब महसूस कर सकें? पहले इस सवाल का जवाब हम संक्षेप में पेश करेंगे फिर विस्तार से बयान करेंगे.... 
 https://www.youtube.com/payameamnख़ुलूस का मतलब अमल का पाक करना, अमल में ख़ुलूस का मतलब अमल को अंजाम देते समय हमारे ध्यान में केवल अल्लाह की मर्ज़ी और और उसकी बंदगी होनी चाहिए, किसी और का थोड़ा भी ध्यान अमल के अंजाम देते समय नहीं होना चाहिए, साथ ही वह सारी चीज़ें जो ख़ुलूस के लिए रुकावट हैं उनसे ख़ुद को दूर रखना चाहिए जैसे दुनियावी दिखावा, दुनिया की चकाचौंध से मोहब्बत और शैतानी ख़्यालात वग़ैरह, और इसी तरह ईमान की मज़बूती, अल्लाह की मारेफ़त और अल्लाह की बंदगी में अपनी कमियों पर ध्यान देना इंसान के ख़ुलूस को और बढ़ा देता है। इस सवाल का विस्तार से जवाब कुछ इस तरह है कि.... 
ख़ुलूस का मतलब ऊपर बयान किया गया है यहां पर हम आयतों और हदीसों की मदद से अपने अंदर ख़ुलूस पैदा किए जाने वाले रास्तों को बयान करेंगे... 
1- ईमान की मज़बूती और ख़ुदा की मारेफ़त को बढ़ाना: अल्लाह पर ईमान ख़ास कर उसके उन सिफ़ात पर जिनसे यह ज़ाहिर होता है कि तारीफ़ और इबादत केवल अल्लाह के लिए होना चाहिए, शिर्क, कुफ़्र, नेफ़ाक़ और उनसे जुड़ी किसी तरह की कोई क़िस्म भी दिल में नहीं होनी चाहिए, अल्लाह और उसके सारे सिफ़ात की मारेफ़त इंसान के वुजूद में विनम्रता पैदा करती है और उसके दिल में सवाब की उम्मीद और अज़ाब का ख़ौफ़ दोनों ही बराबर से हमेशा साथ साथ बनाए रखती है ताकि कहीं ऐसा न हो कि इंसान केवल सवाब की उम्मीद लगाए बैठा रहे और अल्लाह के अज़ाब से ग़ाफ़िल हो जाए और नतीजे में क़यामत में अल्लाह के दीदार से महरूम हो जाए, यही वजह है कि जितना इंसान का ध्यान अल्लाह और उसके सिफ़ात में बढ़ता जाता है उतना ही लोगों से घटता जाता है। 
2- अमल में ख़ुलूस की अहमियत को समझना: अमल में ख़ुलूस अल्लाह का ऐसा हुक्म है जो सभी शरीयत में पाया जाता है, यह एक अल्लाह की नेमत है जो वह अपने पसंदीदा बंदों को देता है और यही वजह बनता है कि क़यामत में बंदा अल्लाह का दीदार कर सके और क़यामत के हिसाब किताब से ख़ुद को आज़ाद करा सके और आख़ेरत में ज़्यादा से ज़्यादा सवाब अपने नाम कर सके, और यही शैतान को अपने ऊपर हावी न होने देने का सबसे अहम कारण है। 
3- ख़ुलूस न होने के नुक़सान को ध्यान में रखना: दिखावा और रियाकारी करने के सिलसिले में जो हदीसें नक़्ल हुई हैं उनमें से बहुत सी हदीसों ने ख़ुलूस के न होने और दिखावा करने के नुक़सान बयान किए हैं जैसाकि नक़्ल हुआ है कि दिखावा और रियाकारी एक तरह का कुफ़्र, शिर्क, नेफ़ाक़, अल्लाह से धोखा, अल्लाह की नाराज़गी का कारण और आमाल, शफ़ाअत और दुआ के क़ुबूल न होने का कारण है। 
4- सबके सामने और छिप कर की जाने वाली इबादत एक जैसी हो: हमारी इबादत चाहे सबके सामने हो या तंहाई में दोनों में समानता होनी चाहिए और यह समानता केवल नमाज़ ही नहीं बल्कि हर इबादत में होनी चाहिए चाहे सदक़ा देना ही क्यों न हो। 
5- मुकम्मल बंदगी: अल्लाह की बंदगी सभी वाजिब मुस्तहब को अंजाम दे कर और हराम और मकरूह को छोड़ कर के उसकी बंदगी की जाए यहां तक कि मुबाह कामों को अंजाम दे कर भी उसकी बंदगी का सबूत देना चाहिए, ऐसा न हो कि नमाज़ पढ़ कर वाजिब को अदा किया जाए और साथ ही ईर्ष्या (हसद), ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई) वग़ैरह भी हो, इसी तरह और दूसरे सारे अक़ीदती और दीनी मामलात में भी ऐसे ही होना चाहिए। 
6- हमेशा बंदगी में कमी का एहसास: इंसान की कोशिश हमेशा यह होनी चाहिए कि बंदगी का हक़ पूरे ख़ुलूस से अदा करने की पूरी कोशिश के साथ साथ अपने आमाल को अल्लाह की दी हुई नेमतों के सामने कम समझे और ख़ुद को हमेशा उसकी इबादतों में कमी करने वाला समझे ताकि बंदगी और ख़ुलूस का हक़ अदा करने की कोशिश हमेशा बाक़ी रहे, आप नबियों और इमामों की ज़िंदगी को देखिए वह सभी ख़ुलूस की आख़िरी मंज़िल पर थे लेकिन अल्लाह से मुनाजात के समय ख़ुद को हमेशा इबादत में कमी करने वाला ही कहते थे, पैग़म्बर स.अ. हमेशा फ़रमाते थे कि ख़ुदाया मैं तेरी बंदगी का हक़ अदा न कर सका। 
7- दुआ: दुआ दीन और दुनिया दोनों ही की मुश्किल के हल करने का बेहतरीन रास्ता है, कुछ इंसान की बुनियादी ज़रूरतें बंदगी और दुआ के बिना पूरी नहीं हो सकती और ज़ाहिर है बंदगी में ख़ुलूस से ज़्यादा ज़रूरत किस चीज़ की हो सकती है... यही वजह है कि इमाम सज्जाद अ.स. पूरी विनम्रता के साथ अल्लाह से अपनी बंदगी में ख़ुलूस की दुआ करते थे और आप दुआ करते थे कि ख़ुदाया हमारे आमाल को रियाकारी और दिखावे से पाक कर दे ताकि तू और तेरी मर्ज़ी के अलावा मेरे अमल में कोई शामिल न हो सके।source 



अमीरूल मोमेनीन अली (अ0) का खत मालिक ऐ अश्तर के नाम |

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(जिसे मालिक बिन अश्तर नग़मी के नाम तहरीर फ़रमाया है, उस वक़्त जब उन्हें मोहम्मद बिन अबीबक्र के हालात के ख़राब हो जाने के बाद मिस्र और उसके एतराफ़ का गवर्नर मुक़र्रर फ़रमाया और यह अहदनामा हज़रत के तमाम सरकारी ख़ुतूत में सबसे ज़्यादा मुफ़स्सिल और महासिन कलाम का जामा है)
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम
यह वह क़ुरान है जो बन्दए ख़ुदा, अमीरूल मोमेनीन अली (अ0) ने मालिक बिन अश्तर नग़मी के नाम लिखा है जब उन्हें ख़ेराज जमा करने , दुश्मन से जेहाद करने, हालात की इस्लाह करने और शहरों की आबादकारी के लिये मिस्र का गवर्नर क़रार देकर रवाना किया।
सबसे पहला अम्र यह है के अल्लाह से डरो, उसकी इताअत को इख़्तेयार करो और जिन फ़राएज़ व सुन्ना का अपनी किताब में हुक्म दिया गया है उनका इत्तेबाअ करो के कोई शख़्स उनके इत्तेबाअ के बग़ैर नेक बख़्त नहीं हो सकता है और कोई शख़्स उनके इन्कार और बरबादी के बग़ैर बदबख़्त नहीं क़रार दिया जा सकता है, अपने दिल, हाथ और ज़बान से दीने ख़ुदा की मदद करते रहना के ख़ुदाए “इज़्ज़्समहू”ने यह ज़िम्मेदारी ली है के अपने मददगारों की मदद करेगा और अपने दीन की हिमायत करने वालों को इज़्ज़त व शरफ़ इनायत करेगा।
दूसरा हुक्म यह है के अपने नफ़्स के ख़्वाहिशात को कुचल दो और उसे मुंह ज़ोरियों से रोके रहो के नफ़्स बुराइयों का हुक्म देने वाला है जब तक परवरदिगार का रहम शामिल न हो जाए इसके बाद मालिक यह याद रखना के मैंने तुमको ऐसे इलाक़े की तरफ़ भेजा है जहां अद्ल व ज़ुल्म की मुख़्तलिफ़ हुकूमतें गुज़र चुकी हैं और लोग तुम्हारे मामलात को इस नज़र से देख रहे हैं जिस नज़र से तुम उनके आमाल को देख रहे थे और तुम्हारे बारे में वही कहेंगे जो तुम दूसरों के बारे में कह रहे थे, नेक किरदार बन्दों की शिनाख़्त इस ज़िक्रे ख़ैर से होती है जो उनके लिये लोगों की ज़बानों पर जारी होता है लेहाज़ा तुम्हारा महबूबतरीन ज़ख़ीराए अमले स्वालेह को होना चाहिये, ख़्वाहिशात को रोक कर रखो और जो चीज़ हलाल न हो उसके बारे में नफ़्स को सर्फ़ करने से कंजूसी करो के यही कंजूसी इसके हक़ में इन्साफ़ है चाहे उसे अच्छा लगे या बुरा, रिआया के साथ मेहरबानी और मोहब्बतत व रहमत को अपने दिल का शोआर बना लो और ख़बरदार इनके हक़ में फाड़ खाने वाले दरिन्दे के मिस्ल न हो जाना के उन्हें खा जाने ही को ग़नीमत समझने लगो। के मख़लूक़ाते ख़ुदा की दो क़िस्में हैं, बाज़ तुम्हारे दीनी भाई हैं और बाज़ खि़लक़त में तुम्हारे जैसे बशर हैं जिनसे लग़्ज़िशें भी हो जाती हैं और उन्हें ख़ताओं का सामना भी करना पड़ता है और जान बूझकर या धोके से उनसे ग़लतियां भी हो जाती हैं। लेहाज़ा उन्हें वैसे ही माफ़ कर देना जिस तरह तुम चाहते हो के परवरदिगार तुम्हारी ग़लतियों से दरगुज़र करे के तुम उनसे बालातर हो और तुम्हारा वलीए अम्र तुमसे बालातर है और परवरदिगार तुम्हारे वाली से भी बालातर है और उसने तुमसे उनके मामलात की अन्जामदही का मुतालबा किया है और उसे तुम्हारे लिये ज़रियाए आज़माइश बना दिया है और ख़बरदार अपने नफ़्स को अल्लाह के मुक़ाबले पर न उतार देना। (((-यह इस्लामी निज़ाम का इम्तेयाज़ी नुक्ता है के इस निज़ाम में मज़हबी तास्सुब से काम नहीं लिया जाता है बल्कि हर शख़्स को बराबर के हुक़ूक़ दिये जाते हैं। मुसलमान का एहतेराम उसके इस्लाम की बिना पर होता है और ग़ैर मुस्लिम के बारे में इन्सानी हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़ किया जाता है और उन हुक़ूक़ में बुनियादी नुक्ता यह है के हाकिम हर ग़लती का मवाख़ेज़ा न करे बल्कि उन्हें इन्सान समझ कर उनकी ग़लतियों को बरदाश्त करे और उनकी ख़ताओं से दरगुज़र करे और यह ख़याल रखे के मज़हब का एक मुस्तक़िल निज़ाम है “रहम करो ताके तुम पर रहम किया जाए’अगर इन्सान अपने से कमज़ोर अफ़राद पर रहम नहीं करता है तो उसे जब्बार समावात व अर्ज़ से तवक़्क़ो नहीं करनी चाहिये, क़ुदरत का अटल क़ानून है के तुम अपने से कमज़ोर पर रहम करो ताके परवरदिगार तुम पर रहम करे और तुम्हारी ख़ताओं को माफ़ कर दे जिस पर तुम्हारी आक़ेबत और बख़्शिश का दारोमदार है-)))
इसलिये के लोगों में बहरहाल कमज़ोरियां पाई जाती हैं और उनकी परदापोशी की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी वाली पर है लेहाज़ा ख़बरदार जो ऐब तुम्हारे सामने नहीं है उसका इन्केशाफ़ न करना, तुम्हारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उयूब की इस्लाह कर देना है और ग़ायबात का फ़ैसला करने वाला परवरदिगार है जहां तक मुमकिन हो लोगों के उन तमाम उयूब की परदा पोशी करते रहो जिन अपने उयूब की परदापोशी की परवरदिगार से तमन्ना करते हो, लोगों की तरफ़ से कीना की कर गिरह को खोल दो और दुश्मनी की हर रस्सी को काट दो और जो बात तुम्हारे लिये वाज़ेह न हो उससे अन्जान बन जाओ और हर चुग़लख़ोर की तस्दीक़ में उजलत से काम न लो के चुग़लख़ोर हमेशा ख़यानततकार होता है चाहे वह मुख़लेसीन ही के भेस में क्यों न आए।
(मशावेरत) देखो अपने मशविरे में किसी कंजूसी को शामिल न करना के वह तुमको फ़ज़्ल व करम के रास्ते से हटा देगा और फ़क़्र व फ़ाक़े का ख़ौफ़ दिलाता रहेगा और इसी तरह बुज़दिल से मशविरा न करना के वसह हर मामले में कमज़ोर बना देगा, और हरीस से भी मशविरा न करना के वह ज़ालिमाना तरीक़े से माल जमा करने को भी तुम्हारी निगाहों में आरास्ता कर देगा, यह कंजूसी, बुज़दिली और लालच अगरचे अलग-अलग जज़्बात व ख़साएल हैं लेकिन इन सबका क़द्रे मुश्तर्क परवरदिगार से सूए ज़न है जिसके बाद इन ख़सलतों का ज़हूर होता है।
(वोज़रात): और देखो तुम्हारे वज़ीरो में सबसे ज़्यादा बदतर वह है जो तुमसे पहले अशरार का वज़ीर रह चुका हो और उनके गुनाहों में शरीक रह चुका हो, लेहाज़ा ख़बरदार! ऐसे अफ़राद को अपने ख़्वास में शामिल न करना के यह ज़ालिमों के मददगार और ख़यानत कारों के भाई बन्द हैं और तुम्हें इनके बदले बेहतरीन अफ़राद मिल सकते हैं जिनके पास उन्हीं की जैसी अक़्ल और कारकर्दगी हो और उनके जैसे गुनाहों के बोझ और ख़ताओं के अम्बार न हों, न उन्होंने किसी ज़ालिम की उसके ज़ुल्म में मदद की हो और न किसी गुनाहगार का उसके गुनाह में साथ दिया हो, यह वह लोग हैं जिनका बोझ तुम्हारे लिये हल्का होगा और यह तुम्हारे बेहतरीन मददगार होंगे और तुम्हारी तरफ़ मोहब्बत का झुकाव भी रखते होंगे और अग़यार से मुहब्बत भी न रखते होंगे। उन्हीं को अपने मख़सूस जलसो में अपना मुसाहब क़रार देना और फिर उनमें भी सबसें ज़्यादा हैसियत उसे देना जो हक़ के हर्फे तल्ख़ को कहने की ज़्यादा हिम्मत रखता हो और तुम्हारे किसी ऐसे अमल में तुम्हारा साथ न दे जिसे परवरदिगार अपने औलिया के लिये न पसन्द करता हो चाहे वह तुम्हारी ख़्वाहिशात से कितनी ज़्यादा मेल क्यों न खाती हो।
मसाहेबत: अपना क़रीबी राबेता अहले तक़वा और अहले सदाक़त से रखना और उन्हें भी इस अम्र की तरबीयत देना के बिला सबब तुम्हारी तारीफ़ न करें और किसी ऐसे बेबुनियाद अमल का ग़ुरूर न पैदा कराएं जो तुमने अन्जाम न दिया हो के ज़्यादा तारीफ़ से ग़ुरूर पैदा होता है और ग़ुरूरे इन्सान को सरकशी से क़रीबतर बना देता है।
देखो ख़बरदार! नेक किरदार और बदकिरदार तुम्हारे नज़दीक एक जैसे न होने पाएं के इस तरह नेक किरदारों में नेकी से बददिली पैदा होगी और बदकिरदारों में बदकिरदारी का हौसला पैदा होगा। हर शख़्स के साथ वैसा ही बरताव करना जिसके क़ाबिल उसने अपने को बनाया है और याद रखना के हाकिम में जनता से हुस्ने ज़न की उसी क़द्र तवक़्क़ो करनी चाहिये जिस क़द्र उनके साथ एहसान किया है और उनके बोझ को हलका बनाया है और उनको किसी ऐसे काम पर मजबूर नहीं किया है जो उनके इमकान में न हो, लेहाज़ा तुम्हारा बरताव इस सिलसिले में ऐसा ही होना चाहिये जिससे तुम जनता से ज़्यादा से ज़्यादा हुस्ने ज़न पैदा कर सको के यह हुस्ने ज़न बहुत सी अन्दरूनी ज़हमतों को खत्म कर देता है और तुम्हारे हुस्ने ज़न का भी सबसे ज़्यादा हक़दार वह है जिसके साथ तुमने बेहतरीन सलूक किया है। (((-इन बातो में ज़िन्दगी के मुख़तलिफ़ हिस्सो के बारे में हिदायत का ज़िक्र किया गया है और इस नुक्ते की तरफ़ तवज्जो दिलाई गई है के हाकिम को ज़िंदगी के किसी भी हिस्से से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिये और किसी मोक़े पर भी कोई ऐसा क़दम नहीं उठाना चाहिये जो हुकूमत को तबाह व बरबाद कर दे और आम जनता के फ़ायदे को ग़फलत की नज़र करके उन्हें ज़ुल्म व सितम का निशाना बना दे-)))
सबसे ज़्यादा बदज़नी का हक़दार वह है जिस का बरताव तुम्हारे साथ ख़राब रहा हो, देखो किसी ऐसी नेक सुन्नत को मत तोड़़ देना जिस पर इस उम्मत के बुज़ुर्गों ने अमल किया है और उसी के ज़रिये समाज में उलफ़त क़ायम होती है और जनता के हालात की इस्लाह हुई है और किसी ऐसी सुन्नत को ईजाद न करना जो गुज़िश्ता सुन्नतों के हक़ में नुक़सानदेह हो के इस तरह अज्र उसके लिये होगा जिसने सुन्नत को ईजाद किया है और गुनाह तुम्हारी गर्दन पर होगा के तुमने उसे तोड़ दिया है।
ओलमा के साथ इल्मी मुबाहेसे और हुकमा के साथ सन्जीदा बहस जारी रखना उन मसाएल के बारे में जिनसे इलाक़े के काम की इस्लाह होती है और काम क़ायम रहते हैं जिनसे गुज़िश्ता अफ़राद के हालात की इस्लाह हुई है। और याद रखो के जनता के बहुत से तबक़ात होते हैं जिनमें किसी की इस्लाह दूसरे के बग़ैर नहीं हो सकती है और कोई दूसरे से मुस्तग़नी नहीं हो सकता है। उन्हीं में अल्लाह के लशकर के सिपाही हैं और उन्हीं में आम व ख़ास काम के कातिब हैं उन्हीं में अदालत से फ़ैसले करने वाले हैं और उन्हीं में इन्साफ़ और नर्मी क़ायम करने वाले गवर्नर हैं उन्हीं में मुसलमान अहले ख़ेराज और काफ़िर अहले ज़िम्मा हैं और उन्हीं में तिजारत और सनअत (तिजारत पेशा व अहले हरफ़ा) वाले अफ़राद हैं और फिर उन्हीं में फ़ोक़रा और मसाकीन का पस्त तरीन तबक़ा भी शामिल है और सबके लिये परवरदिगार ने एक हिस्सा मुअय्यन कर दिया है। और अपनी किताब के फ़राएज़ या अपने पैग़म्बर की सुन्नत में इसकी हदें क़ायम कर दी हैं और यह वह अहद है जो हमारे पास महफ़ूज़ है। फ़ौजी दस्ते बहुक्मे ख़ुदा से जनता के मुहाफ़िज़ और वालियों की ज़ीनत हैं, उन्हीं से दीन की इज़्ज़त है और यही अम्न व अमान के वसाएल हैं। रईयत का (नज़्म व नस्क़) काम का क़याम उनके बग़ैर नहीं हो सकता है और यह दस्ते भी क़ायम नहीं रह सकते हैं। जब ततक वह ख़ेराज न निकाल दिया जाए जिसके ज़रिये से दुश्मन से जेहाद की ताक़त फ़राहम होती है और जिसपर हालात की इस्लाह में एतमाद किया जाता है और वही इनके हालात के दुरूस्त करने का ज़रिया है और इसके बाद इन दोनों सनफ़ों (तबक़ों) का क़याम काज़ियों आमिलों और कातिबों के तबक़े के बग़ैर नहीं हो सकता है के यह सब अहद व पैमान को मुस्तहकम बनाते हैं मामूली और ग़ैर मामूली मामलात में उनपपर एतमाद किया जाता है, इसके बाद उन सबका क़याम सौदागरों और सनअतकारों पर होता है के वह वसाएले हयात को फ़राहम करते हैं, बाज़ारों को क़ायम रखते हैं और लोगों की ज़रूरत का सामान उनकी ज़हमत के बग़ैर फ़राहम कर देते हैं। इसके बाद फ़ोक़रा व मसाकीन का पस्त तबक़ा है जो मदद का हक़दार है और अल्लाह के यहां हर एक के लिये सामाने हयात मुक़र्रर है और हर तबक़े का वाली पर इतनी मिकदार में हक़ है जिससे इसके अम्र की इस्लाह हो सके और वाली इस फ़रीज़े से ओहदा बरआ नहीं हो सकता है जब तक इन मसाएल का एहतेमाम न करे और अल्लाह से मदद तलब न करे और अपने नफ़्स को हुक़क़ की अदाएगी और इस राह के ख़फ़ीफ़ व सक़ील पर सब्र करने के लिये आमादा न करे लेहाज़ा लशकर का सरदार उसे क़रार देना जो अल्लाह, रसूल और इमाम का सबसे ज़्यादा मुख़लिस, सबसे ज़्यादा पाकदामन और सबसे ज़्यादा बरदाश्त करने वाला हो। (((-इस मुक़ाम पर अमीरूलमोमेनीन (अ0) ने समाज को 9 हिस्सों पर तक़सीम किया है और सबके ख़ुसूसियात , फ़राएज़, अहमियत और ज़िम्मेदारियों का तज़किरा फ़रमाया है और यह वाज़ेह कर दिया है के एक काम दूसरे के बग़ैर नहीं हो सकता है लेहाज़ा हर एक का फ़र्ज़ है के दूसरे की मदद करे ताके समाज की मुकम्मल इस्लाह हो सके और मुआशरा चैन और सुकून की ज़िन्दगी जी सके वरना इसके बगै़र समाज तबाह व बरबाद हो जाएगा और इसकी ज़िम्मेदारी तमाम तबक़ात पर यकसां तौर पर आयद होगी।-)))
फ़ौज का सरदार उसको बनाना जो अपने अल्लाह का और अपने रसूल (स0) का और तुम्हारे इमाम का सबसे ज़्यादा ख़ैरख़्वाह हो सबसे ज़्यादा पाक दामन हो , और बुर्दबारी में नुमायां हो, जल्द ग़ुस्से में न आ जाता हो, उज़्र माज़ेरत पर मुतमइन हो जाता हो, कमज़ोरों पर रहम खाता हो और ताक़तवरों के सामने अकड़ जाता हो न बदख़ोई उसे जोश में ले आती हो और न पस्त हिम्मती उसे बिठा देती हो, फिर ऐसा होना चाहिये के तुम बलन्द ख़ानदान, नेक घराने और उमदा रिवायात रखने वालों और हिम्मत व शुजाअत और जूद व सख़ावत के मालिकों से अपना रब्त व ज़ब्त बढ़ाओ क्योंके यही लोग बुज़ुर्गियों का सरमाया और नेकियों का सरचश्मा होते हैं फिर उनके हालात की इस तरह देख भाल करना, जिस तरह माँ बाप अपनी औलाद की देखभाल करते हैं, अगर उनके साथ कोई ऐसा सलूक करो के जो उनकी तक़वीयत का सबब हो तो उसे बड़ा न समझना और अपने किसी मामूली सुलूक को भी ग़ैर अहम न समझ लेना (के उसे छोड़ बैठो) क्योंके इस हुस्ने सुलूक से उनकी ख़ैरख़्वाही का जज़्बा उभरेगा और हुस्ने एतमाद में इज़ाफ़ा होगा और इस ख़याल से के तुमने उनकी बड़ी ज़रूरतों को पूरा कर दिया है, कहीं उनकी छोटी ज़रूरतों से आंख बन्द न कर लेना, क्योंके यह छोटी क़िस्म की मेहरबानी की बात भी अपनी जगह फ़ायदाबख़्श होती है और वह बड़ी ज़रूरतें अपनी जगह अहमियत रखती हैं और फ़ौजी सरदारों में तुम्हारे यहां वह बुलन्द मन्ज़िलत समझा जाए, जो फ़ौजियों की एआनत में बराबर का हिस्सा लेता हो और अपने रूप्ये पैसे से इतना सलूक करता हो जिससे उनका और उनके पीछे रह जाने वाले बाल-बच्चों का बख़ूबी गुज़ारा हो सकता हो। ताके वह सारी फ़िक्रों से बेफ़िक्र होकर पूरी यकसूई के साथ दुश्मन से जेहाद करें इसलिये के फ़ौजी सरदारों के साथ तुम्हारा मेहरबानी से पेश आना इनके दिलों को तुम्हारी तरफ़ मोड़ देगा।
हुक्मरानों के लिये सबसे बड़ी आंखों की ठण्डक इसमें है के शहरों में अद्ल व इन्साफ़ बरक़रार रहे और जनता की मोहब्बत ज़ाहिर होती रहे और उनकी मोहब्बत उसी वक़्त ज़ाहिर हुआ करती है के जब उनके दिलों में मैल न हो, और उनकी ख़ैर ख़्वाही उसी सूरत में साबित होती है के ववह अपने हुक्मरानों के गिर्द हिफ़ाज़त के लिये घेरा डाले रहें। इनका इक़्तेदार सर पड़ा बोझ न समझें और न उनकी हुकूमत के ख़ात्मे के लिये घड़ियां गिनें, लेहाज़ा उनकी उम्मीदों में वुसअत व कशाइश रखना, उन्हें अच्छे लफ़्ज़ों से सराहते रहना और उनमें के अच्छी कारकर्दगी दिखाने वालों के कारनामों का तज़किरा करते रहना, इसलिये के इनके अच्छे कारनामों का ज़िक्र बहादुरों को जोश में ले आता है और पस्त हिम्मतों को उभारता है, इन्शाअल्लाह जो शख़्स जिस कारनामे को अन्जाम दे उसे पहचानते रहना और एक का कारनामा दूसरे की तरफ़ मन्सूब न कर देना और उसकी हुस्ने कारकर्दगी का सिला देने में कमी न करना और कभी ऐसा न करना के किसी शख़्स की बलन्दी व रफ़अत की वजह से उसके मामूली काम को बढ़ा समझ लो और किसी के बड़े काम को उसके ख़ुद पस्त होने की वजह से मामूली क़रार दे लो। जब ऐसी मुश्किलें तुम्हें पेश आएं के जिनका हल न हो सके और ऐसे मुआमलात के जो मुश्तबा हो जाएं तो उनमें अल्लाह और रसूल (स0) की तरफ़ रूजू करो क्योंके ख़ुदा ने जिन लोगों को हिदायत करना चाही है उनके लिये फ़रमाया है - “ऐ ईमान दारों अल्लाह की इताअत करो, और उसके रसूल (स0) की और उनकी जो तुम में साहेबाने अम्र हों ”तो अल्लाह की तरफ़ रूजू करने का मतलब यह है के उसकी किताब की मोहकम आयतों पर अमल किया जाए और रसूल की तरफ़ रूजु करने का मतलब यह है कि आपके उन मुत्तफ़िक़ अलिया इरशादात पर अमल किया जाए जिनमें कोई इख़्तेलाफ़ नहीं (मक़सद उनकी सुन्नत की तरफ़ पलटाना है, जो उम्मत को जमा करने वाली हो तफ़रिक़ा डालने वाली न हो)।
क़ज़ावतः फिर उसके बाद तुम ख़ुद भी उनके फ़ैसलों की निगरानी करते रहना और उनके अताया में इतनी वुसअत पैदा कर देना के उनकी ज़रूरत ख़त्म हो जाए और फिर लोगों के मोहताज न रह जाएं उन्हें अपने पास ऐसा मरतबा और मुक़ाम अता करना जिसकी तुम्हारे ख़्वास भी लालच न करते हों के इस तरह वह लोगों के ज़रर पहुंचाने से महफ़ूज़ हो जाएंगे। मगर इस मामले पर भी गहरी निगाह रखना के यह दीन बहुत दिनों अशरार के हाथों में क़ैदी रह चुका है जहां ख़्वाहिशात की बुनियाद पर काम होता था और मक़सद सिर्फ़ दुनिया तलबी था।
उम्मालः इसके बाद अपने आमिलों के मामलात पर भी निगाह रखना और उन्हें इम्तेहान के बाद काम सिपुर्द करना और ख़बरदार ताल्लुक़ात या जानिबदारी की बिना पर ओहदा न दे देना के यह बातें ज़ुल्म और ख़यानत के असरात में शामिल हैं और देखो इनमें भी जो मुख़लिस और ग़ैरतमन्द हों उनको तलाश करना जो अच्छे घराने के अफ़राद हों और उनके इस्लाम में साबिक़ जज़्बात रह चुके हों के ऐसे लोग ख़ुश इख़लाक़ और बेदाग़ इज़्ज़त वाले होते हैं, इनके अन्दर फ़िज़ूल ख़र्ची की लालच कम होती है और यह अन्जामकार पर ज़्यादा नज़र रखते हैं। इसके बाद इनके भी तमाम एख़राजात का इन्तेज़ाम कर देना के इससे उन्हें अपने नफ़्स की इस्लाह का भी मौक़ा मिलता है और दूसरों के अमवाल पर क़ब्ज़ा करने से भी बेनियाज़ हो जाते हैं और फिर तुम्हारे अम्र की मुख़ालेफ़त करें या अमानत में रख़ना पैदा करें तो उन पर हुज्जत तमाम हो जाती है। इसके बाद उन गवर्नरो के आमाल की भी तफ़तीश करते रहना और निहायत मोतबर क़िस्म के अहले सिद्क़ व सफ़ा को उन पर जासूसी के लिये मुक़र्रर कर देना के यह तर्ज़े अमल (((-इस मुक़ाम पर क़ाज़ियों के हस्बेज़ैल सिफ़ात का तज़किरा किया गया है-
1.ख़ुद हाकिम की निगाह में क़ज़ावत करने के क़ाबिल हो।
2.तमाम जनता से अफ़ज़लीयत की बुनियाद पर मुन्तख़ब किया गया हो।
3.मसाएल में उलझ न जाता हो बल्कि साहेबे नज़र व स्तमबात हो।
4.फ़रीक़ैन के झगड़ों पर ग़ुस्सा न करता हो।
5.ग़लती हो जाए तो उस पर अकड़ता न हो।
6.लालची न हो।
7.मुआमलात की मुकम्मल तहक़ीक़ करता हो और काहेली का शिकार न हो।
8.शुबहात के मौक़े पर जल्दबाज़ी से काम न लेता हो बल्कि दीगर मुक़र्ररा क़वानीन की बुनियाद पर फ़ैसला करता हो।
9.दलाएल को क़ुबूल करने वाला हो।
10.फ़रीक़ैन की तरफ़ मराजअ करने से उकताता न हो बल्कि पूरी बहस सुनने की सलाहियत रखता हो।
11.तहक़ीक़ातत में बेपनाह क़ूवते सब्र व तहम्मुल का मालिक हो।
12.बात वाज़ेह हो जाए तो क़तई फ़ैसला करने में तकल्लुफ़ न करता हो।
13.तारीफ़ से मग़रूर न होता हो ।
14.लोगों के उभारने से किसी तरफ़ झुकाव न पैदा करता हो।-)))
उन्हें अमानतदारी के इस्तेमाल पर और जनता के साथ नर्मी के बरताव पर आमादा करेगा और देखो अपने मददगारों से भी अपने को बचाकर रखना के अगर उनमें कोई एक भी ख़यानत की तरफ़ हाथ बढ़ाए और तुम्हारे जासूस मुत्तफ़िक़ा तौर पर यह ख़बर दें तो इस शहादत को काफ़ी समझ लेना और इसे जिस्मानी एतबार से भी सज़ा देना और जो माल हासिल किया है उसे छीन भी लेना और समाज में ज़िल्लत के मक़ाम पर रख कर ख़यानतकारी के मुजरिम की हैसियत से रू शिनास कराना और ज़ंग व रूसवाई का तौक़ उसके गले में डाल देना।
ख़ेराजः ख़ेराज और मालगुज़ारी के बारे में वह तरीक़ा इख़्तेयार करो जो मालगुज़ारों के हक़ में ज़्यादा मुनासिब हो के ख़ेराज और अहले ख़ेराज के सलाह ही में सारे तुम्हारे सारे मुआशरे की सलाह है और किसी के हालात की इस्लाह ख़ेराज की इस्लाह के बग़ैर नहीं हो सकती है, लोग सबके सब इसी ख़ेराज के भरोसे ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, ख़ेराज में तुम्हारी नज़र माल जमा करने से ज़्यादा ज़मीन की आबादकारी पर होनी चाहिये के माल की जमाआवरी ज़मीन की आबादकारी के बग़ैर मुमकिन नहीं है और जिसने आबादकारी के बग़ैर मालगुज़ारी का मुतालेबा किया उसने शहरों को बरबाद कर दिया और बन्दों को तबाह कर दिया और उसकी हुकूमत चन्द दिनों से ज़्यादा क़ायम नहीं रह सकती है। इसके बाद अगर लोग गरांबारी, आफ़ते नागहानी, नहरों की ख़ुश्की, बारिश की कमी, ज़मीन की ग़रक़ाबी की बिना पर तबाही और ख़ुश्की की बिना पर बरबादी की कोई फ़रियाद करें तो उनके ख़ेराज में इस क़द्र तख़फ़ीफ़ कर देना के उनके काम की इस्लाह हो सके और हख़बरदार यह तख़फ़ीफ़ तुम्हारे नफ़्स पर गरां न गुज़रे इसलिये के तख़फ़ीफ़ और सहूलत एक ज़ख़ीरा है जिसका असर शहरों की आबादी और हुक्काम की ज़ेब व ज़ीनत की शक्ल में तुम्हारी ही तरफ़ वापस आएगा और इसके अलावा तुम्हें बेहतरीन तारीफ़ भी हासिल होगी और अद्ल व इन्साफ़ के फैल जाने से मसर्रत भी हासिल होगी, फिर उनकी राहत व रफ़ाहियत और अद्ल व इन्साफ़, नरमी व सहूलत की बिना पर जो एतमाद हासिल किया है उससे एक इन्सानी ताक़त भी हासिल होगी जो बवक़्ते ज़रूरत काम आ सकती है। इसलिये के बसा औक़ात ऐसे हालात पेश आ जाते हैं के जिसमें एतमाद व हुस्ने ज़न के क़द्रदान पर एतमाद करो तो निहायत ख़ुशी से मुसीबत को बरदाश्त कर लेते हैं और इसका सबब ज़मीनों की आबादकारी ही होता है। ज़मीनों की बरबादी अहले ज़मीन की तंगदस्ती से पैदा होती है और तंगदस्ती का सबब हुक्काम के नफ़्स का जमाआवरी की तरफ़ रूझान होता है और उनकी यह बदज़नी होती है के हुकूमत बाक़ी रहने वाली नहीं है और वह दूसरे लोगों के हालात से इबरत हासिल नहीं करते हैं।
कातिबः इसके बाद अपने मुन्शियों के हालात पर नज़र रखना और अपने काम को बेहतरीन अफ़राद के हवाले करना और फिर वह ख़ुतूत जिनमें रमूज़े (राज़) सल्तनत और इसरारे ममलेकत हों उन अफ़राद के हवाले करना जो बेहतरीन अख़लाक़ व किरदार के मालिक हों और इज़्ज़त पाकर अकड़ न जाते हों के एक दिन लोगों के सामने तुम्हारी मुख़ालेफ़त की जराअत पैदा कर लें और ग़फ़लत की बिना पर लेन-देन के मामलात में तुम्हारे अमाल के ख़ुतूत के पेश करने (((‘-यह इस्लामी निज़ाम का नुक्तए इम्तेयाज़ है के इसने ज़मीनों पर टैक्स ज़रूर रखा है के पैदावार में अगर एक हिस्सा मालिके ज़मीन की मेहनत और आबादकारी का है तो एक हिस्सा मालिके कायनातत के करम का भी है जिसने ज़मीन में पैदावार की सलाहियत दी है और वह पूरी कायनात का मालिक है वह अपने हिस्से को पूरे समाज पर तक़सीम करना चाहता है और उसे निज़ाम की तकमील का बुनियादी अनासिर क़रार देना चाहता है, लेकिन इस टैक्स को हाकिम की सवाबदीदा और उसकी ख़्वाहिश पर नहीं रखा है जो दुनिया के तमाम ज़ालिम और अय्याश हुक्काम का तरीक़ाए कार है बल्कि उसे ज़मीन के हालात से वाबस्तता कर दिया है ताके टैक्स और पैदावार में राबेता रहे और मालिकाने ज़मीन के दिलों में हाकिम से हमदर्दी पैदा हो, पुरसूकून हालात में जी लगाकर काश्त करें और हादसाती मवाक़े पर ममलेकत के काम आ सकें वरना अगर अवाम में बददिली और बदज़नी पैदा हो गई तो निज़ाम और समाज को बरबादी से बचाने वाला कोई न होगा।-)))
और उनके जवाबात देने में कोताही से काम लेने लगें और तुम्हारे लिये जो अहद व पैमान बान्धें उसे कमज़ोर कर दें और तुम्हारे खि़लाफ़ साज़बाज़ के तोड़ने में आजिज़ी का मुज़ाहिरा करने लगे देखो यह लोग मामलात में अपने सही मक़ाम से नावाक़िफ़ न हों के अपनी क़द्र व मन्ज़िलत का न पहचानने वाला दूसरे के मुक़ाम व मरतबे से यक़ीनन ज़्यादा नावाक़िफ़ होगा। इसके बाद उनका तक़र्रूर भी सिर्फ़ ज़ाती होशियारी, ख़ुश एतमादी और हुस्ने ज़न की बिना पर न करना के अकसर लोग हुक्काम के सामने बनावटी किरदार और बेहतरीन खि़दमात के ज़रिये अपने को बेहतरीन बनाकर पेश करने की सलाहियत रखते हैं। जबके इसके पसे पुश्त न कोई इख़लास होता है और न अमानतदारी पहले इनका इम्तेहान लेना के तुमसे पहले वाले नेक किरदार हुक्काम के साथ इनका बरताव क्या रहा है फिर जो अवाम में अच्छे असरात रखते हों और अमानतदारी की बुनियाद पर पहचाने जाते हों उन्हीं का तक़र्रूर कर देना के यह इस अम्र की दलील होगा के तुम अपने परवरदिगार के बन्दए मुख़लिस और अपने इमाम के वफ़ादार हो अपने जुमला शोबों के लिये एक-एक अफ़सर मुक़र्रर कर देना जो बड़े से बड़े काम से मक़हूर न होता हो और कामों की ज़्यादती पर परागन्दा हवास न हो जाता हो, और यह याद रखना के इन मुन्शियों में जो भी ऐब होगा और तुम उससे चश्मपोशी करोगे इसका मवाख़ेज़ा तुम्हीं से किया जाएगा।
इसके बाद ताजिरों और सनअतकारों के बारे में नसीहत हासिल करो और दूसरों को उनके साथ नेक बरताव की नसीहत करो चाहे वह एक मुक़ाम पर काम करने वाले हों या जाबजा गर्दिश करने वाले हों और जिस्मानी मेहनत से रोज़ी कमाने वाले हों। इसलिये के यही अफ़राद मुनाफ़े का मरकबज़ और ज़रूरियाते ज़िन्दगी के मुहैया करने का वसीला होते हैं। यही दूर दराज़ मुक़ामात बर्रो बहर कोह व मैदान हर जगह से इन ज़ुरूरियात के फ़राहम करने वाले होते हैं जहां लोगों की रसाई नहीं होती है और जहांतक जाने की लोग हिम्मत नहीं करते हैं, यह वह अमन पसन्द लोग हैं जिनसे फ़साद का ख़तरा नहीं होता है और वह सुलह व आश्ती वाले होते हैं जिनसे किसी शोरिश का अन्देशा नहीं होता है।
अपने सामने और दूसरे शहरों में फैले हुए इनके मुआमलात की निगरानी करते रहना और यह ख़याल रखना के मैं बहुत से लोगों में इन्तेहाई तंग नज़री और बदतरीन क़िस्म की कन्जूसी पाई जाती है, यह मुनाफ़े की ज़खी़राअन्दोज़ी करते हैं और ऊंचे ऊंचे दाम ख़ुद ही मुअय्यन कर देते हैं जिससे अवाम को नुक़सान होता है और हुक्काम की बदनामी होती है, लोगों को ज़ख़ीराअन्दोज़ी से ममना करो के रसूले अकरम (स0) ने इससे मना फ़रमाया है। ख़रीद व फ़रोख़्त में सहूलत ज़रूरी है जहां आदिलाना मीज़ान हो और वह क़ीमत मुअय्यन हो जिससे ख़रीदार या बेचने वाले किसी फ़रीक़ पर ज़ुल्म न हो , इसके बाद तुम्हारे मना करने के बावजूद अगर कोई शख़्स ज़ख़ीराअन्दोज़ी करे तो उसे सज़ा दो लेकिन इसमें भी हद से तजावुज़ न होने पाए। (((-बाज़ शारेहीन की नज़र में इस हिस्से का ताल्लुक़ सिर्फ़ किताबत और अनशाए से नहीं है बल्कि हर शोबाए हयात से है जिसकी निगरानी के लिये एक ज़िम्मेदार का होना ज़रूरी है और जिसका इदराक अहले सियासत को सैकड़ों साल के बाद हुआ है और हकीमे उम्मत ने चैदह सदी क़ब्ल इसस नुक्ताए जहानबानी की तरफ़ इशारा कर दिया था। इसमें कोई शक नहीं है के तिजारत और सनअत का मुआसेरे की ज़िन्दगी में रीढ़ की हड्डी का काम करते हैं और उन्हीं के ज़रिये मुआशरे की ज़िन्दगी में इस्तेक़रार पैदा होता है, यही वजह है के मौलाए कायनात ने इनके बारे में ख़ुसूसी नसीहत फ़रमाई है और उनके मुफ़सेदीन की इस्लाह पर ख़ुसूसी ज़ोर दिया है। ताजिर में बाज़ इम्तेयाज़ी ख़ुसूसियात होते हैं जो दूसरी क़ौमों में नहीं पाए जाते हैं-1. यह लोग फ़ितरन सुलह पसन्द होते हैं के फ़साद और हंगामे में दुकान के बन्द हो जाने का ख़तरा होता है 2. इनकी निगाह किसी मालिक और अरबाब पर नहीं होती है बल्कि परवरदिगार से रिज़्क़ के तलबगार होते हैं 3. दूर दराज़ के ख़तरनाक मेवारिद तक सफ़र करने की बिना पर इनसे तबलीग़े मज़हब का काम भी लिया जा सकता है जिसके शवाहिद आज सारी दुनिया में पाए जा रहे हैं।-)))
इसके बाद अल्लाह से डरो उस पसमान्दा तबक़े के बारे में जो मसाकीन, मोहताज, फ़ोक़रा और माज़ूर अफ़राद का तबक़ा है जिनका कोई सहारा नहीं है इस तबक़े में मांगने वाले भी हैं और ग़ैरतदार भी हैं जिनकी सूरत सवाल है उनके जिस हक़ का अल्लाह ने तुम्हें मुहाफ़िज़ बनाया है उसकी हिफ़ाज़त करो और उनके लिये बैतुलमाल और अर्जे ग़नीमत के ग़ल्लात में से एक हिस्सा मख़सूस कर दो के उनके दूर इक़्तादा का भी वही हक़ है जो क़रीब वालों को है और तुम्हें सबका निगरां बनाया गया है लेहाज़ा ख़बरदार कहीं ग़ुरूर व तकब्बुर तुम्हें इनकी तरफ़ से ग़ाफ़िल न बना दे के तुम्हें बड़े कामों के मुस्तहकम कर देने से छोटे कामों की बरबादी से माफ़ न किया जाएगा लेहाज़ा न अपनी तवज्जो को इनकी तरफ़ से हटाना और न ग़ुरूर की बिना पर अपना मुंह मोड़ लेना जिन लोगों की रसाई तुम ततक नहीं है और उन्हें निगाहों न गिरा दिया है और शख़्सियतों ने हक़ीर बना दिया है उनके हालात की देखभाल भी तुम्हारा ही फ़रीज़ा है लेहाज़ा इनके लिये मुतवाज़ेह और ख़ौफ़े ख़ुदा रखने वाले मोतबर अफ़राद को मख़सूस कर दो जो तुम तक उनके मामलात को पहुंचाते रहें और तुम ऐसे आमाल अन्जाम देते रहो जिनकी बिना पर रोज़े क़यामत पेशे परवरदिगार माज़ेर कहे जा सको के यही लोग सबसे ज़्यादा इन्साफ़ के मोहताज हैं और फिर हर एक के हुक़ूक़ को अदा करने में पेशे परवरदिगार अपने को माज़ूर साबित करो।
और यतीमों और कबीरा सिन बूढ़ों के हालात की भी निगरानी करते रहना के इनका कोई वसीला नहीं है और यह सवाल करने के लिये खड़े भी नहीं होते हैं ज़ाहिर है के इनका ख़याल रखना हुक्काम के लिये बड़ा संगीन मसला होता है लेकिन क्या किया जाए हक़ तो सबका सब सक़ील ही है, अलबत्ता कभी कभी परवरदिगार इसे हल्का क़रार दे देता है इन अक़वाम के लिये जो आाक़ेबत की तलबगार होती हैं और इस राह में अपने नफ़्स को सब्र का ख़ूगर बनाती हैं और ख़ुदा के वादे पर एतमाद का मुज़ाहिरा करती हैं। और देखो साहेबाने ज़रूरत के लिये एक वक़्त मुअय्यन कर दो जिसमें अपने को उनके लिये ख़ाली कर लो और एक उमूमी मजलिस में बैठो उस ख़ुदा के सामने मुतवाज़ेह रहो जिसने पैदा किया है और अपने तमाम निगेहबान पोलिस, फ़ौज ऐवान व अन्सार सबको दूर बैठा दो ताके बोलने वाला आज़ादी से बोल सके और किसी तरह की लुकनत का शिकार न हो के मैंने रसूले अकरम (स0) से ख़ुद सुना है के आपने बार-बार फ़रमाया है के वह उम्मत पाकीज़ा किरदार नहीं हो सकती है जिसमें कमज़ोर को आज़ादी के साथ ताक़तवर से अपना हक़ लेने का मौक़ा न दिया जाए। ”
इसके बाद उनसे बदकलामी या आजिज़ी कलाम का मुज़ाहिरा हो तो उसे बरदाश्त करो और दिले तंगी और ग़ुरूर को दूर रखो ताके ख़ुदा तुम्हारे लिये रहमत के एतराफ़ कुशादा कर दे और इताअत के सवाब को लाज़िम क़रार दे दे, जिसे जो कुछ दो ख़ुशगवारी के साथ दो और जिसे मना करो उसे ख़ूबसूरती के साथ टाल दो। (((-मक़सद यह नहीं है के हाकिम जलसए आम में लावारिस होकर बैठ जाए और कोई भी मुफ़सिद, ज़ालिम फ़क़ीर के भेस में आकर उसका ख़ात्मा कर दे, मक़सद सिर्फ़ यह है के पोलिस, फ़ौज मुहाफ़िज़ दरबान लोगों के ज़रूरियात की राह में हाएल न होने पाएं के न उन्हें तुम्हारे पास आने दें और न खुलकर बात करने का मौक़ा दें, चाहे इससे पहले पचास मक़ामात पर तलाशी ली जाए के ग़ोरबा की हाजत रवाई के नाम पर हुक्काम की ज़िन्दगीयों को क़ुरबान नहीं किया जा सकता है और न मुफ़सेदीन को बेलगाम छोड़ा जा सकता है हाकिम के लिये बुनियादी मसले इसकी शराफ़त, दयानत, अमानतदारी का है इसके बाद इसका मरतबा आम मशविरे से बहरहाल बलन्दतर है और इसकी ज़िन्दगी अवामुन्नास से यक़ीनन ज़्यादा क़ीमती है और इसका तहफ़्फ़ुज़ अवामुन्नास पर उसी तरह वाजिब है जिस तरह वह ख़ुद इनके मफ़ादात का तहफ़्फ़ुज़ कर रहा है।-)))
इसके बाद तुम्हारे मामलात में बाज़ ऐसे मामलात भी हैं जिन्हें ख़ुद बराहे रास्त अन्जाम देना है जैसे हुक्काम के उन मसाएल के जवाबात जिनके जवाबात मोहर्रिर अफ़राद न दे सकें या लोगों के उन ज़रूिरयात को पूरा करना जिनके पूरा करने से तुम्हारे मददगार अफ़राद जी चुराते हों और देखो हर काम को उसी के दिन मुकम्मल कर देना के हर दिन का अपना एक काम होता है इसके बाद अपने और परवरदिगार के रवाबित के लिये बेहतरीन वक़्त का इन्तेख़ाब करना जो तमाम औक़ात से अफ़ज़ल और बेहतर हो अगरचे तमाम ही औक़ात अल्लाह के लिये शुमार हो सकते हैं अगर इन्सान की नीयत सालिम रहे और जनता इसके तुफ़ैल ख़ुशहाल हो जाए।
और तुम्हारे वह आमाल जिन्हें सिर्फ़ अल्लाह के लिये अन्जाम देते हो उनमें से सबसे अहम काम इन फ़राएज़ का क़याम हो जो सिर्फ़ परवरदिगार के लिये होते हैं अपनी जिस्मानी ताक़त में से रात और दिन दोनों वक़्त एक हिस्सा अल्लाह के लिये क़रार देना और जिस काम के ज़रिये इसकी क़ुरबत चाहते हो उसे मुकम्मल तौर से अन्जाम देना न कोई रख़ना पड़ने पाए और न कोई नुक़्स पैदा हो चाहे बदन काो किसी क़द्र ज़हमत क्यों न हो जाए, और जब लोगों के साथ जमाअत की नमाज़ अदा करो तो न इस तरह पढ़ो के लोग बेज़ार हो जाएं और न इस तरह के नमाज़ बरबाद हो जाए इसलिये के लोगों में बीमार और ज़रूरतमन्द अफ़राद भी होते हैं और मैंने यमन की मुहिम पर जाते हुए हुज़ूरे अकरम (स0) से दरयाफ़्त किया था के नमाज़े जमाअत का अन्दाज़ क्या होना चाहिये तो आपने फ़रमाया था के अपनी जनता से देर तक अलग न रहना के हुक्काम का जनता से पसे पर्दा रहना एक तरह की तंग दिली पैदा करता है और उनके मामलात की इत्तेलाअ नहीं हो पाती है और यह पर्दादारी उन्हें भी उन चीज़ों के जानने से रोक देती है जिनके सामने यह हेजाजात क़ायम हो गए हैं और इस तरह बड़ी चीज़ छोटी हो जाती है और छोटी चीज़ बड़ी हो जाती है। अच्छा बुरा बन जाता है और बुरा अच्छा बन जाता है और हक़ बातिल से मख़लूत हो जाता है और हाकिम भी बाला आखि़र एक बशर है वह पसे पर्दा काम की इत्तेलाअ नहीं रखता है और न हक़ की पेशानी पर ऐसे निशानात होते हैं जिनके ज़रिये सिदाक़त के इक़साम को ग़लत बयानी से अलग करके पहचाना जा सके। और फिर तुम दो में से एक क़िस्म के ज़रूर होगे , या वह शख़्स होगे जिसका नफ़स हक़ की राह में बज़ल व अता पर माएल है तो फिर तुम्हें वाजिब हक़ अता करने की राह में परवरदिगार हाएल करने की क्या ज़रूरत है और करीमों जैसा अमल क्यों नहीं अन्जाम देते हो, या तुम बुख़ल की बीमारी में मुब्तिला हो गे तो बहुत जल्दी लोग तुमसे मायूस होकर ख़ुद ही अपने हाथ खींच लेंगे और तुम्हें परदा डालने की ज़रूरत ही न पड़ेगी। हालांके लोगों के अकसर ज़रूरियात वह हैं जिनमें तुम्हें किसी तरह की ज़हमत नहीं है जैसे किसी ज़ुल्म की फ़रयाद या किसी मामले में इन्साफ़ का मुतालेबा। (((यह शायद उस अम्र की तरफ़ इशारा है के समाज और अवाम से अलग रहना वाली और हाकिम के ज़रूरियाते ज़िन्दगी में शामिल है वरना इसकी ज़िन्दगी24 घन्टे अवामुन्नास की नज़र हो गई तो न तन्हाइयों में अपने मालिक से मुनाजात कर सकता है और न ख़लवतों में अपने अहल व अयाल के हुक़ूक़ अदा कर सकता है। परदादारी एक इन्सानी ज़रूरत है जिससे कोई बेनियाज़ नहीं हो सकता है। असल मसला यह है के इस परदादारी को तूल न होने पाए के अवामुन्नास हाकिम की ज़ियारत से महरूम हो जाएं आौर इसका दीदार सिर्फ़ टेलीवीज़न के पर्दे पर नसीब हो जिससे न को ई फ़रयाद की जा सकती है और न किसी दर्दे दिल का इज़हार किया जा सकता है , ऐसे शख़्स को हाकिम बनने का क्या हक़ है जो अवाम के दुख दर्द में शरीक न हो सके और इनकी ज़िन्दगी की तलखियों को महसूस न कर सके, ऐसे शख़्स को दरबारे हुकूमत में बैठ कर “अना रब्बोकुमुल आला”का नारा लगाना चाहिये और आखि़र में किसी दरया में डूब मरना चाहिये इस्लामी हुकूमत इस तरह की लापरवाही को बरदाश्त नहीं कर सकती है। इसके लिये कूफ़े में बैठकर हज्जाज और यमामा के फ़ोक़रा को देखना पड़ता है और इनकी हालत के पेशे नज़र सूखी रोटी खाना पड़ती है-)))
इसके बाद भी ख़याल रहे के हर वाली के कुछ मख़सूस और राज़दार क़िस्म के अफ़राद होते हैं जिनमें ख़ुदग़र्ज़ी दस्ते दराज़ी और मुआमलात में बेइन्साफ़ी पाई जाती है लेहाज़ा ख़बरदार ऐसे अफ़राद के फ़साद का इलाज इन असबाब के ख़ातमे से करना जिनसे यह हालात पैदा होते हैं। अपने किसी भी हाशियानशीन और क़राबतदार को कोई जागीर मत बख़्श देना और उसे तुमसे कोई ऐसी तवक़्क़ो न होनी चाहिये के तुम किसी ऐसी ज़मीन पर क़ब्ज़ा दे दोगे, जिसके सबब आबपाशी या किसी मुशतर्क मामले में शिरकत रखने वाले अफ़राद को नुक़सान पहुंच जाए के अपने मसारिफ़ भी दूसरे के सर डाल दे और इस तरह इस मामले का मज़ा इसके हिस्से में आए और उसकी ज़िम्मेदारी दुनिया और आखि़रत में तुम्हारे ज़िम्मे रहे। और जिस पर कोई हक़ आएद हो उस पर इसके नाफ़िज़ करने की ज़िम्मेदारी डालो चाहे वह तुमसे नज़दीक हो या दूर और इस मसले में अल्लाह की राह में सब्र व तहम्मुल से काम लेना चाहिये इसकी ज़द तुम्हारे क़राबतदारों और ख़ास अफ़राद ही पर क्यों न पड़ती हो और इस सिलसिले में तुम्हारे मिज़ाज पर जो बार हो उसे आखि़रत की उम्मीद में बरदाश्त कर लेना के इसका अन्जाम बेहतर होगा।
और अगर कभी जनता को यह ख़याल हो जाए के तुमने उन पर ज़ुल्म किया है तो उनके लिये अपने बहाने का इज़हार करो और उसी ज़रिये से उनकी बदगुमानी का इलाज करो के इसमें तुम्हारे नफ़्स की तरबीयत भी है और जनता पर नर्मी का इज़हार भी है और वह उज्ऱख़्वाही भी है जिसके ज़रिये तुम जनता को राहे हक़ पर चलाने का मक़सद भी हासिल कर सकते हो। और ख़बरदार किसी ऐसी दावते सुलह का इन्कार न करना जिसकी तहरीक दुश्मन की तरफ़ से हो और जिसमें मालिक की रज़ामन्दी पाई जाती हो के सुलह के ज़रिये फ़ौजों को क़द्रे सुकून मिल जाता है और तुम्हारे नफ़्स को को भी उफ़्कार से निजात मिल जाएगी और शहरों में भी अम्न व अमान की फ़िज़ा क़ायम हो जाएगी, अलबत्ता सुलह के बाद दुश्मन की तरफ़ से मुकम्मल तौर पर होशियार रहना के कभी कभी वह तुम्हें ग़ाफ़िल बनाने के लिये तुमसे क़ुरबत इख़्तेयार करना चाहता है लेहाज़ा इस सिलसिले में मुकम्मल होशियारी से काम लेना और किसी हुस्ने ज़न से काम न लेना और अगर अपने और उसके दरम्यान कोई मुआहेदा करना या उसे किसी तरह की पनाह देना तो अपने अहद की पासदारी व वफ़ादारी के ज़रिये करना और अपने ज़िम्मे को अमानतदारी के ज़रिये महफ़ूज़ बनाना और अपने क़ौल व क़रार की राह में अपने नफ़्स को सिपर बना देना के अल्लाह के फ़राएज़ में ईफ़ाए अहद जैसा कोई फ़रीज़ा नहीं है जिस पर तमाम लोग ख़्वाहिशात के इख़्तेलाफ़ और उफ़कार के तज़ाद के बावजूद मुत्तहिद हैं और इसका मुशरेकीन ने भी अपने मुआमलात में लेहाज़ रखा है के अहद शिकनी के नतीजे में तबाहियों का अन्दाज़ा कर लिया है तो ख़बरदार तुम अपने अहद व पैमान से ग़द्दारी न करना और अपने क़ौल व क़रार में ख़यानत से काम न लेना और अपने दुश्मन पर अचानक हमला न कर देना। (((-इसमें कोई शक नहीं है के सुलह एक बेहतरीन तरीक़ाए कार है और क़ुरान मजीद ने इसे ख़ैर से ताबीर किया है लेकिन इसके मानी यहय नहीं हैं के जो शख़्स जिन हालात में जिस तरह की सुलह की दावत दे तुम क़ुबूल कर लो और उसके बाद मुतमईन होकर बैठ जाओ के ऐसे निज़ाम में हर ज़ालिम अपनी ज़ालिमाना हरकतों ही पर सुलह करना चाहेगा और तुम्हें उसे तस्लीम करना होगा, सुलह की बुनियादी शर्त यह है के उसे रिज़ाए इलाही के मुताबिक़ होना चाहिये और उसकी किसी दिफ़ा को भी मरज़ीए परवरदिगार के खि़लाफ़ नहीं होना चाहिये जिस तरह के सरकारे दो आलम (स0) की सुलह में देखा गया है के आपने जिस जिस लफ़्ज़ और जिस जिस दिफ़ाअ पर सुलह की है सब की सब मुताबिक़े हक़ीक़त और ऐन मर्ज़ीए परवरदिगार थीं और कोई हर्फ़ ग़लत दरमियान में नहीं था “बिस्मेका अल्लाहुम”भी एक कलमाए सही था, मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह भी एक हर्फ़े हक़ था और दुश्मन के अफ़राद का वापस कर देना भी कोई ग़लत एक़दाम नहीं था, इमामे हसन (अ0) मुज्तबा की सुलह में भी यही तमाम ख़ुसूसियात पाई जाती हैं जिनका मुशाहिदा सरकारे दो आलम (स0) की सुलह में किया जा चुका है। और यही मौलाए कायनात (अ0) की बुनियादी तालीम और इस्लाम का वाक़ई हदफ़ और मक़सद है-)))
इसलिये के अल्लाह के मुक़ाबले में जाहिल व बदबख़्त के अलावा कोई जराअत नहीं कर सकता है और अल्लाह ने अहद व पैमान को अम्न व अमान का वसीला क़रार दिया है जिसे अपनी रहमत से तमाम बन्दों के दरम्यान आम कर दिया है और ऐसी पनाहगाह बना दिया है जिसके दामने हिफ़ाज़त में पनाह लेने वाले पनाह लेते हैं और इसके जवार में मन्ज़िल करने के लिये तेज़ी से क़दम आगे बढ़ाते हैं लेहाज़ा इसमें कोई जालसाज़ी, फ़रेबकारी और मक्कारी न होनी चाहिये और कोई ऐसा मुआहेदा न करना जिसमें तावील की ज़रूरत पड़े और मुआहेदा के पुख़्ता हो जाने के बाद उसके किसी मुबहम लफ़्ज़ से फ़ायदा उठाने की कोशिश न करना और अहदे इलाही में तंगी का एहसास ग़ैर हक़ के साथ वुसअत की जुस्तजू पर आमादा न कर दे के किसी अम्र की तंगी पर सब्र कर लेना और कशाइश हाल और बेहतरीन आक़ेबत का इन्तेज़ार करना इस ग़द्दारी से बेहतर है जिसके असरात ख़तरनाक हों और तुम्हें अल्लाह की तरफ़ से जवाबदेही की मुसीबत घेर ले और दुनिया व आखि़रत दोनों तबाह हो जाएं।
देखो ख़बरदार! नाहक़ ख़ून बहाने से परहेज़ करना के इससे ज़्यादा अज़ाबे इलाही से क़रीबतर और पादाश के एतबार से शदीदतर और नेमतों के ज़वाल, ज़िन्दगी के ख़ात्मे के लिये मुनासिबतर कोई सबब नहीं है और परवरदिगार रोज़े क़यामत अपने फ़ैसले का आग़ाज़ ख़ूंरेज़ियों के मामले से करेगा, लेहाज़ा ख़बरदार अपनी हुकूमत का इस्तेहकाम नाहक़ ख़ूंरेज़ी के ज़रिये न पैदा करना के यह बात हुकूमत को कमज़ोर और बेजान बना देती है बल्के तबाह करके दूसरों की तरफ़ मुन्तक़िल कर देती है और तुम्हारे पास न ख़ुदा के सामने और न मेरे सामने अमदन क़त्ल करने का कोई बहाने नहीं है और इसमें ज़िन्दगी का क़सास भी साबित है अलबत्ता अगर धोके से इस ग़लती में मुब्तिला हो जाओ और तुम्हारा ताज़ियाना तलवार या हाथ सज़ा देने में अपनी हद से आगे बढ़ जाए के कभी कभी घूंसा वग़ैरा भी क़त्ल का सबब बन जाता है, तो ख़बरदार तुम्हें सलतनत का ग़ुरूर इतना ऊंचा न बना दे के तुम ख़ून के वारिसों को उनका हक़्क़े ख़ूं बहा भी अदा न करो।
और देखो अपने नफ़्स को ख़ुद पसन्दी से भी महफ़ूज़ रखना और अपनी पसन्द पर भरोसा भी न करना और ज़्यादा तारीफ़ का शौक़ भी न पैदा हो जाए के यह सब बातें शैतान की फ़ुरसत के बेहतरीन वसाएल हैं जिनके ज़रिये वह नेक किरदारों के अमल को ज़ाया और बरबाद कर दिया करता है।
और ख़बरदार जनता पर एहसान भी न जताना और जो सलूक किया है उसे ज़्यादा समझने की कोशिश भी न करना या उनसे कोई वादा करके उसके बाद वादा खि़लाफ़ी भी न करना के यह तर्ज़े अमल एहसान को बरबाद कर देता है और ज़्यादती अमल का ग़ुरूर हक़ की नूरानियत को फ़ना कर देता है और वादा खि़लाफ़ी ख़ुदा और बन्दगाने ख़ुदा दोनों के नज़दीक नाराज़गी का बाएस होती है जैसा के उसने इरशाद फ़रमाया है के “अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी नराज़गी की बात है के तुम कोई बात कहो और फिर उसके मुताबिक़ अमल न करो।” (((-वाज़ेह रहे के दुनिया में हुकूमतों का क़याम तो विरासत, जमहूरियत, असकरी इन्क़ेलाब और ज़ेहानत व फ़रासत तमाम असबाब से हो सकता है लेकिन हुकूमतों में इस्तेहकाम अवाम की ख़ुशी और मुल्क की ख़ुशहाली के बग़ैर मुमकिन नहीं है और जिन अफ़राद ने यह ख़याल किया के वह अपनी हुकूमतों को ख़ूँरेज़ी के ज़रिये मुस्तहकम बना सकते हैं उन्होंने जीतेजी अपनी ग़लत फ़हमी का अन्जाम देख लिया और हिटलर जैसे शख़्स को भी ख़ुदकुशी पर आमादा न होना पड़ा, इसीलिये कहा गया है के मुल्क कुफ्ऱ के साथ तो बाक़ी रह सकता है लेकिन ज़ुल्म के साथ बाक़ी नहीं रह सकता है और इन्सानियत का ख़ून बहाने से बड़ा कोई जुर्म क़ाबिले तसव्वुर नहीं है लेहाज़ा इससे परहेज़ हर साहबे इक़्तेदार और साहबे अक़्ल व होश का फ़रीज़ा है और ज़माने की गर्दिश के पलटते देर नहीं लगती है-)))
और ख़बरदार वक़्त से पहले कामों जल्दी न करना और वक़्त आजाने के बाद सुस्ती का मुज़ाहेरा न करना अैर बात समझ में न आए तो झगड़ा न करना और वाज़ेह हो जाए तो कमज़ोरी का इज़हार न करना हर बात को इसकी जगह रखो और हर अम्र को उसके महल पर क़रार दो।
देखो जिस चीज़ में तमाम लोग बराबर के शरीक हैं उसे अपने साथ मख़सूस न कर लेना और जो हक़ निगाहों के सामने वाज़ेह हो जाए उसके ग़फ़लत न बरतना के दूसरों के लिये यही तुम्हारी ज़िम्मादारी है और अनक़रीब तमाम काम से परदे उठ जाएंगे और तुमसे मज़लूम का बदला ले लिया जाएगा अपने ग़ज़ब की तेज़ी अपनी सरकशी के जोश अपने हाथ की जुम्बिश और अपनी ज़बान की काट पर क़ाबू रखना और उन तमाम चीज़ों से अपने को इस तरह महफ़ूज़ रखना के जल्दबाज़ी से काम न लेना और सज़ा देने में जल्दी न करना यहांतक के ग़ुस्सा ठहर जाए और अपने ऊपर क़ाबू हासिल हो जाए, और इस अम्र पर भी इख़्तेयार उस वक़्त तक हासिल नहीं हो सकता है जब तक परवरदिगार की बारगाह में वापसी का ख़याल ज़्यादा से ज़्यादा न हो जाए।
तुम्हारा फ़रीज़ा यह है के माज़ी में गुज़र जाने वाली आदिलाना हुकूमत और फ़ाज़िलाना सीरत को याद रखो रसूले अकरम (अ0) के आसार और किताबे ख़ुदा के एहकाम को निगाह में रखो और जिस तरह हमें अमल करते देखा है उसी तरह हमारे नक़्शे क़दम पर चलो और जो कुछ इस इस अहदनामे में हमने बताया है उस पर अमल करने की कोशिश करो के मैंने तुम्हारे ऊपर अपनी हुज्जत को मुस्तहकम कर दिया है ताके जब तुम्हारा नफ़्स ख़्वाहिशात की तरफ़ तेज़ी से बढ़े तो तुम्हारे पास कोई बहाना न रहे , और मैं परवरदिगार की वसीअ रहमत और हर मक़सद के अता करने की अज़ीम क़ुदरत के वसीले से यह सवाल करता हूँ के मुझे और तुम्हें इन कामों की तौफ़ीक़ दे जिनमें इसकी मर्ज़ी हो और हम दोनों इसकी बारगाह में और बन्दों के सामने बहाना पेश करने के क़ाबिल हो जाएं, बन्दों की बेहतरीन तारीफ़ के हक़दार हों और इलाक़ों में बेहतरीन आसार छोड़ कर जाएं, नेमत की फ़रावानी और इज़्ज़त के रोजाफ़ज़ों इज़ाफ़े को बरक़रार रख सकें और हम दोनों का ख़ात्मा सआदत और शहादत पर हो के हमस ब अल्लाह के लिये हैं और उसी की बारगाह में पलट कर जाने वाले हैं। सलाम हो रसूले ख़ुदा (स0) पर और उनकी तय्यब व ताहिर आल पर और सब पर सलाम बेहिसाब। वस्सलाम



ज़ियारत ऐ आशूरा ,ज़ियारत ऐ वरिसा और दुआ ऐ अलक़मा

आमाल ऐ आशूरा


रतनसेन तीन हिजरी का हिन्दुस्तानी

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तारीखदानो ने हिन्दुस्तान मे इस्लाम की आमद हज्जाज बिन युसुफ के नौजवान कमांडर मौहम्मद बिन क़ासिम से मंसूब की है और ये ऐसी ज़हनीयत का नतीजा है कि जो इस्लाम को तलवार के फलता फूलता मानती है यहाँ भी यही जाहिर किया गया है कि मौहम्मद बिन कासिम ने हिन्दुस्तान पर हमला किया जिसके नतीजे मे हिन्दुस्तान मे इस्लाम की शूरूआत हुई।

लेकिन तहक़ीक़ ये साबित होता है कि रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) के शक्कुल क़मर (चाँद के दो टुकड़े करने) के मौजिज़े से हिन्दुस्तान इस्लाम की रोशनी से नूरानी हो गया था।
किताबे “बयानुल हक़ व सिदक़ुल मुतलक़” कि जो 1322 हिजरी मे तेहरान मे छपी है, मे फ़ख्रुल इस्लाम लिखते है कि हाफिज मुर्री ने इब्ने तीमीया से नक़्ल किया है कि बाज़ मुसाफिरो ने बताया कि हम ने हिन्दुस्तान मे ऐसे आसार देखे जो शक़्क़ुल क़मर के मोजिज़े से मुताल्लिक़ थे।
जिन मे से एक दरगाह ज़िला जे पी नगर (अमरोहा) की तहसील धनौरा मे नौगावाँ सादात से तक़रीबन 16 km के फासले पर गंगा नदी के किनारे पर मौजूद है।
जिसमे कुँवर सेन और हाजी रतन सेन दफ्न है और तहसील धनौरा के मालखाने मे इसका इंदराज दरगाह शक़्क़ुलक़मर के नाम से है इस दरगाह की 300 बीगा ज़मीन है जिस का बीश्तर हिस्सा खुर्द बुर्द हो चुका है, और उस दरगाह पर होली के बाद आने वाली जुमरात को उर्स और मेला भी लगता है।
13 शाबान क़ब्ल हिजरत पूरनमासी के मौक़े पर हिन्दुस्तान मे जब राजा महाराजाओ ने चाँद को दो हिस्सो मे देखा तो उन्हे बड़ी हैरत हुई, नुजुमियो से मालूम हुआ कि अरबीस्तान से मौहम्मद नाम पैग़म्बर ने ये मौजिज़ा दिखाया है, राजाओ ने अपने नुमाईन्दे तसदीक़ के लिए अरबीस्तान रवाना किऐ जिनमे मे शुमाली हिन्दुस्तान की छोटी –सी रियासत खाबड़ी के राजा कुँवर सेन ने भी अपने वज़ीर रतनसेन को मदीना मुनव्वरा के लिऐ रवाना किया।
खाबड़ी रियासत मौजूदा उत्तर प्रदेश के ज़िले जे.पी नगर (अमरोहा) और बिजनौर के गगां नदी से मुत्तसिल इलाक़ो पर मुहीत थी। इस रियासत मे पराकरत ज़बान बोली जाती थी।
रतनसेन के मदीना जाने और अपने साथीयो के हमराह ईमान लाने पर तो सब मुत्ताफिक़ है मगर इन से मुतालिक़ जो दासताने सुनाई जाती है उनसे ओलोमा ने इख़्तेलाफ किया है।
शम्सुद्दीन बिन मौहम्मद जज़री कहते है कि मैने अब्दुल वहाब बिन इस्माईल सूफी से सुना है कि जब हम 675 हिजरी मे वारिदे शीराज़ हुऐ तो हमारी मुलाक़ात एक बूढ़े शेख मौहम्मद बिन रतनसेन से हुई। उन्होने हमे बताया कि मेरे बाबा रतनसेन ने शक़्कुल कमर का मोजिज़ा देखा था और यही मौजिज़ा उनकी हिन्दुस्तान से अरब हिजरत का सबब (कारण) बना और जब रतन सेन मदीने पहुँचे तो मुसलमान (जंगे अहज़ाब के लिऐ) खंदक खोद रहे थे। रतनसेन ने रसूल अल्लाह की सोहबत इख्तियार की।(1)
रतनसेन के बारे मे अरब और अजम के तहकीक करने वाले और तमाम उलमा ने 600 साल से ज़्यादा उम्र बयान की है जिसका हवाला सुने सुनाऐ क़िस्से है।
कामूस ले कुल्ले इल्म वल फुनुन नामक इंसाईक्लो पीडीया की आठवी जिल्द (प्रकाशित लुबनान) मे र त और न के ज़ैल मे रतनसेन का तज़किरा करते हुऐ उस्ताद बतरस बस्तानी ने लिखा है कि रतन हिन्दी ने दो बार रसूल अल्लाह की ज़ियारत की और आपने उन्हे लम्बी उम्र की दुआ दी जिससे रतन की उम्र 600 साल से ज़्यादा हुई।
अल्लामा इब्ने हजर मक्की ने अलइसाबा फि मारेफते सहाबा नामक किताब मे और अल्लामा ज़हबी ने मिज़ानुल एतेदाल और लिसानुल अरब मे रतनसेन की इतनी लम्बी उम्र क़िस्से को झूठा करार दिया है।
हिन्दुस्तान मे जो दस्तावेज़ रतनसेन और उनके राजा कुँवरसेन के बारे मे मौजूद है उनसे रतनसेन की की उम्र 600 साल साबित नही होती है बल्कि 3 हिजरी मे रतनसेन इस्लाम लाऐ, तीन हिजरी से सात हिजरी तक मदीना मे रहे और 11 हिजरी मे वफात पाई इसलिऐ रतनसेन की 600 साल उम्र का क़िस्सा झूठा है।
मास्टर सैय्यद अख्तर अब्बास नौगाँवी (रिटायर्ड प्रंसिपल गर्वमेंट कालिज अमरोहा) की तहक़ीक़ के हिसाब से रतनसेन सेन के बारे मे मालूमात कुँवरसेन की क़ब्र पर लगे काले क़ीमती पत्थर (संगे मूसा) से रेलवे पुलिस इंस्पेक्टर सैय्यद सादिक़ हुसैन (नानौता, सहारनपुर यू.पी.) और मौलवी इर्तेज़ा हुसैन अमरोहवी (मुक़ीम रियासत रामपुर) को 1931 ईसवी मे हासिल हुई थी जिसका पता सैय्यद सादिक़ हुसैन नानौतवी को सैय्यद अहमद हुसैन रिज़वी हसनपुरी ने दिया था।
इंस्पेक्टर सैय्यद सादिक़ हुसैन और मौलवी इर्तेज़ा हुसैन ने इस पत्थर की इबारत को पढ़ने और तरजुमा करने के लिऐ मुरादाबाद के मौहल्ला कसरौल से पंडित ब्रह्मानंद को तलाश किया जिनकी उम्र उस वक्त 95 साल थी। पंडित ब्रह्मानंद ने इस पत्थर को देख कर बताया कि ये पराकरक ज़बान मे है।
बहरहाल पंडित ब्रह्मानंद पंडित ब्रह्मानंद तरजुमा करते रहे और ये लोग लिखते रहे और उस वक्त 1931 मे पंडित ब्रह्मानंद ने इस काम के 300 रू लिऐ थे।
राजा कुँवरसेन की कब्र के इस पत्थर पर ये इबारत हाजी रतनसेन ने 25 ज़ीक़ादा सन् 8 हिजरी को राजा के दफ्न के बाद लिखवाई थी।
रतनसेन ने इस पत्थर पर दूसरी अहम बातो के अलावा ये भी लिखा था कि हम ने 3 साल रसूल अल्लाह की खिदमत मे रह कर भुज पत्थर हालात लिखे जो किताब की शक्ल मे मुजाविर के पास है और इसको हिदायत कर दी है कि इसको खराब न होने दे।
जब सादिक़ हुसैन को इस बात का पता चला तो उन्होने इस मुजाविर शेख अब्दुर रज़्ज़ाक़ से कहा कि अगर आप वाक़ई इस दरगाह के मुजाविर है तो ज़रूर आपके पास भुज पत्थर पर लिखी किताब होगी वरना अस्ल मुजाविर कोई और है इस बात को सुन कर शेख अब्दुर रज़्ज़ाक़ घर मे गऐ और टीन के डिब्बे मे उस भुज पत्थर पर लिखी हुई किताब निकाल कर लाऐ और दूर से ही सादिक़ हुसैन साहब को दिखाई।
सादिक हुसैन साहब ने कहा कि ये किताब अमानत के तौर पर तरजुमे के लिऐ दे दो, इस पर मुजाविर शेख अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने कहा कि मैं इसे छूने भी नही दूँगा।
इसके बाद 1975 मे सदरूल उलामा मौलाना सैय्यद सलमान हैदर साहब किबला नौगाँवी नजफी, मौलाना रोशन अली साहब सुलतान पुरी नजफी, मौलाना मशकूर हुसैन साहब नौगाँवी और मौलाना नईम अब्बास साहब नौगाँवी वगैरा भी उस दरगाह पर पहुँचे और मुजाविर से किताब का तरजुमा कराने को कहा लेकिन उसने एक न सुनी।
अगर मुजाविर कोई समझदार मुसलमान होता तो खुद ही कोशीश करके इस किताब का दुनिया की सारी जबानो मे तरजुमा करा देता जिस से इतिहासकारो को बहुत मदद मिलती और ये किताब हक को साबित करने के लिऐ बेहतरीन दस्तावेज़ साबित होती।
मुजाविर और उसके घर वालो ने ये किताब तरजुमे के लिऐ नही दी बल्कि कब्र के पत्थर की इबारत का तरजुमा सुन कर रातो रात कब्र के पत्थर को उखाड़ कर ग़ायब करा दिया।
जब बेशऊर मुसलमानो की ये हालत है तो हम हुकुमत के आसारे क़दीमा (पुरातत्व विभाग) से क्या शिकायत करे कि अगर आसारे क़दीमा ने इस अहम दस्तावेज़ को खत्म होने से बचा लिया होता तो आज के मुहक्केकीन (रिसर्चर) को इस मे शक न होता कि हिन्दुस्तान नूरे इस्लाम से हज़रत मौहम्मदे मुस्तुफा (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी मे ही मुनव्वर हो गया था।
मुजाविर ने वो तमाम पत्थर भी हटवा दिये जिन पर तारीखे (दिनांक) लिखी थी और रतनसेन की क़ब्र का पत्थर भी ग़ायब करा दिया मगर इन कुत्बो और कब्र के पत्थरो की नक़ले माल के काग़ज़ात मे धनौरा तहसील मे मौजूद है। राजा कुँवरसेन की कब्र पर लगे पत्थर की इबारत के तरजुमे से चंद तारीखी हक़ीक़ते और वाज़ेह हो जाती है। पत्थर पर मौजिजा-ए-शक़्क़ुल क़मर की तारीख 13 शाबान कब्ले हिजरत पूरनमासी के मौक़े पर लिखी है।
आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी तफसीरे नमूना की  23वी जिल्द (क़ुम प्रकाशित) मे पेज न. 18 पर सूरा-ऐ-क़मर की पहली आयत की तफसीर मे लिखते है कि बाज रिवायात से पता चलता है कि ये मौजिज़ा हिजरत के नज़दीक रसूल अल्लाह की मक्की जिंदगी के आखरी दिनो मे हुआ था और अल्लाह के रसूल ने ये मौजिज़ा मदीने से आऐ हुऐ हकीक़त के तलाश करने वाले लोगो के कहने पर अंजाम दिया था और उक़बा मे उन लोगो ने रसूले अकरम की बैअत कर ली थी।
इस रिवायत को अल्लामा मजलिसी ने बिहारूल अनवार की 17वी जिल्द के पेज न. 35 पर दर्ज किया है।
लेकिन बाज उलामा ने शक़्क़ुल क़मर के मौजिज़े को हिजरत से आठ साल पहले बयान किया है जिसको हुज़ुर ने अबुजहल और अबुलहब के कहने पर अंजाम दिया था।
बहरहाल रतनसेन का ताल्लुक़ उसी मौजिज़े से है कि हुज़ुर ने अपनी मक्की ज़िंदगी के आखरी दिनो मे अंजाम दिया था।
रतनसेन की मदीना पहुँचने की तारीख 5 रमज़ान 3 हिजरी और खाबड़ी वापस आने की तारीख 12 सफर 8 हिजरी दर्ज है और रतनसेन की कब्र पर लगे पत्थर पर रतनसेन की तारीखे वफात 11 हिजरी दर्ज है रतनसेन ने राजा की कब्र पर ये लिखवाया था कि मदीना पहुँचने पर रतनसेन और उसके साथीयो को इमाम अली के घर मेहमान रखा गया और बहुत शानदार मेहमानदारी की गई।
रतनसेन के मदीना पहुँचने के 10 रोज़ बाद 15 रमज़ान 3 हिजरी को रसूले खुदा के पहले नवासे इमाम हसन पैदा हुऐ। रतनसेन ने इमाम हसन को सच्चे मोतीयो की माला पहनाई जो रंग बदल कर हरी हो गई इस पर रतनसेन को बड़ी हैरत हुई और रसूले खुदा से इस का कारण पूछा तो आपने फरमाया कि मेरा ये बेटा ज़हर से शहीद किया जाऐगा जिससे इसका बदन हरा हो जाऐगा और 3 शाबान सन् 4 हिजरी मे रसूले अकरम (स.अ.व.व) के दूसरे नवासे इमाम हुसैन पैदा हुऐ। इस बच्चे को देख कर रतनसेन बहुत खुश हुऐ और इनके गले मे भी सफेद सच्चे मोतीयो की माला पहनाई। रतनसेन के देखते ही देखते इस माला के मोती सुर्ख (लाल) हो गऐ। रसूल अल्लाह ने इसका कारण ये बताया कि करबला के मैदान मे ये मेरा बेटा तीन दिन का भूखा प्यासा अपने घर वालो समेत शहीद कर दिया जाऐगा और ये फरमा कर रसूल अल्लाह रोने लगे।
रतनसेन से तीन सौ हदीसे भी रिवायत की गई है जिन मे से चंद हदीसो को अलइसाबा फी मारेफते सहाबा नामक पुस्तक मे इब्ने हजर मक्की ने और लिसानुल अरब और मीज़ानुल ऐतेदाल मे ज़हबी ने रतनसेन की हदीसो को मिसाल के तौर पर लिखा है।  
रतनसेन से रिवायत की गई हदीसे ये हैः
रतनसेन कहते है कि हम पतझड़ के मौसम मे रसूल अल्लाह के साथ एक पेड़ के नीचे थे और हवा चल रही थी जिस से पत्ते गिर रहे थे यहाँ तक कि पेड़ पर एक भी पत्ता बाक़ी न रहा तो रसूले खुदा ने फरमायाः जब मोमीन वाजिब नमाज़ को जमाअत से पढ़ता है तो इसके के गुनाह इसी तरह खत्म हो जाते है जैसे इस पेड़ के पत्ते।
रतनसेन कहते है कि रसूल अल्लाह ने फरमायाः जिसने किसी मालदार की इज़्ज़त उसके माल की वजह से की और गरीब की उसकी गुरबत की वजह से बेइज़्ज़ती की तो उस पर हमेशा खुदा की लानत होगी जब तक की वो तौबा न कर ले।
रतनसेन कहते है कि रसूल अल्लाह ने फरमायाः जो शख्स आले मौहम्मद की दुश्मनी पर मरेगा वो काफिर की मौत मरेगा।
रतनसेन कहते है कि रसूल अल्लाह ने फरमायाः आलिम के लिबास पर उसकी दवात की सियाही का एक नुक्ता भी अल्लाह को शहीद के पसीने के सौ क़तरो (बूंद) से ज़्यादा पसंद है।
रतनसेन कहते है कि रसूल अल्लाह ने फरमायाः जो रोज़े आशूरा इमाम हुसैन पर रोऐगा वो कयामत के दिन साहिबे शरीअत पैग़म्बरो के साथ होगा।
रतनसेन कहते है कि रसूल अल्लाह ने फरमायाः रोज़े आशूरा का रोना कयामत मे नूरे ताम का बाएस होगा।
रतनसेन कहते है कि रसूल अल्लाह ने फरमायाः जिसने तारिकुस्सलात को एक लुक़्मे से मदद की गोया उसने तमाम अंबिया के क़त्ल मे मदद की।
अगर हम रतनसेन की हदीसो को सच्चा मान लिया जाऐ तो फिर रतनसेन मोहद्दीस, सहाबी-ऐ-रसूल, अहलैबेत के चाहने वाला और हिन्दुस्तान के पहले मुसलमान शुमार होंगे और इल्मे रिजाल के उलामा इब्ने हजर और अल्लामा ज़हबी के मुताबिक़ रतनसेन के सिकह न भी माने तो सहाबी-ऐ-रसूल, अहलैबेत के चाहने वाला और हिन्दुस्तान के पहले मुसलमान तो थे ही हालाकि मज़कूरा हदीसे भी किसी न किसी रावी के जरीये हम तक पहुँच चुकी है।
रतनसेन के अलावा मध्य प्रदेश के मालवा मे रियासत धार के राजा भूज भी शक्कुल क़मर (चाँद के दो टुकड़े करने) के मौजिज़े के बाद ईमान ले आऐ थे और उन्होने अपने दौर मे तीन ऐसी मसजिदे बनवाई कि जो आज तक सही सलामत है उन मे से एक मस्जिद धार मे है, दूसरी मस्जिद भोजपूर मे है और तीसरी मस्जिद मांडवा मे है।
जिन्हे देख कर ये साबित होता है कि हिन्दुस्तान मे इस्लाम की आमद मुहम्मद बिन कासिम के हमले से नही बल्कि मुहम्मद रसूल अल्लाह के शक्कुल क़मर (चाँद के दो टुकड़े करने) के मौजिज़े की बरकत से हुई थी।
इसके अलावा एक और हिन्दुस्तानी राजा के तज़किरा करते हुऐ अल्लामा मजलिसी ने बिहारूल अनवार की 51वी जिल्द मे पाठ संख्या 19 मे पेज न. 253 पर लिखा है कि याहिया बिन मंसूर कहा कि हमने सूह शहर मे एक हिन्दुस्तानी राजा को देखा जिसका नाम सरबातक(2) था और वह मुसलमान था।
वो राजा कहता था कि रसूल अल्लाह के दस सहाबी हुज़ैफा, उसामा बिन ज़ैद, अबुमूसा अशअरी, सुहैब रूमी और सफीना वग़ैरा ने मुझे इस्लाम की दावत दी और मैंने इस्लाम क़ुबुल कर लिया और अल्लाह की किताब को क़ुबुल कर लिया।
मुहक्केकीन (रिसर्चरर्स) को चाहिये कि इस विषय पर संजीदगी से तहकीक करे।
बेशुमार सुबुत मौजूद है जिनसे साबित होता है कि हिन्दुस्तान मे इस्लाम अपने इंक़ेलाब के शूरूआती दिनो मे ही आ गया था।


शहादत इमाम हुसैन मानव इतिहास की बहुत बड़ी त्रासदी

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शहादत इमाम हुसैन मानव इतिहास की बहुत बड़ी त्रासदी

प्रोफेसर अख्तरुल वासे
22 नवंबर, 2012
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
मोहर्रम का महीना इस्लामी महीनों में कई मायनों में बहुत अहम है। इतिहास की बहुत सी अहम घटनाएं इसी महीने में हुई हैं। लेकिन दो घटनाएं ऐसी हैं जो इस महीने के विचार से बुनियादी स्तर पर जुड़ी हैं: लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के मदीना हिजरत और रसूलुल्लाह के दूसरे नवासे हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की कर्बला में शहादत। हिजरत की घटना भी दुश्मनों से इस्लाम की रक्षा के लिए सामने आयी और कर्बला की घटना भी इस्लाम और इस्लामी व्यवस्था के कमज़ोर होने को जीवंत करने के लिए सच का साथ देने वालों के द्वारा उठाये गये क़दम के नतीजे में सामने आयी, इस प्रकार इन दोनों घटनाएं तर्क संगत पाई जाती हैं।
कर्बला की घटना न केवल इस्लामी बल्कि मानव इतिहास की एक बहुत बड़ी त्रासदी है। यही वजह है कि आज लगभग चौदह सौ साल गुज़रने के बावजूद ये घटना लोगों के मन में इस तरह ताज़ा है जैसे ये बस कल की बात है। मानव इतिहास की बहुत सी ऐसे घटनाएं हैं जो इंसानो के अक़्ल और ज़मीर को झिंझोड़  कर रख दिया। जो उसकी याददाश्त के अनमोल और अमिट हिस्सा बनकर रह गए। हजरत हुसैन बिन अली रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की ये घटना ऐसा ही है। ऐसी घटनाएं चाहे कितने ही दर्दनाक और दिल को दुखाने वाले ही क्यों न हों लेकिन वास्तविकता ये है कि वो ब्रह्मांड में खुदा की जारी सुन्नत और फितरत (प्रकृति) के तकाज़े के बिल्कुल मुताबिक होते हैं। अल्लाह की बनाई हुई प्राकृतिक व्यवस्था ये है कि जब भी उसके दीन को कोई खतरा होता है, अल्लाह किसी महान और पवित्र बंदे को दीन के मजबूत क़िले की सुरक्षा के लिए भेज देता है और उसके द्वारा उसकी रक्षा का काम अंजाम देता है।
एक हदीस में जो सुनन अबु दाऊद में शामिल है, बताया गया है कि अल्लाह ताला हर सदी के सिरे पर धर्म को अद्यतन करने और उसकी रक्षा के लिए किसी महान व्यक्ति को चुनता है। ये सिलसिला क़यामत तक बाक़ी रहेगा। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की गिनती इस्लाम धर्म की उन कुछ महान हस्तियों में होता है जिन्होंने अपने खून से इस्लाम के पौधे को सींचा और उसकी रक्षा  करने को अपना पहला कर्तव्य माना और हक़ीकत ये है कि क़यामत तक के लिए इस्लाम के किले की रक्षा के लिए अपनी जान को न्योछावर कर डालने की एक बेनज़ीर परंपरा स्थापित की।
हक़ीकत ये है कि दुनिया की कोई ऐसी क़ौम नहीं है जिसने इस घटना से प्रेरणा और आध्यात्मिक सीख न हासिल की हो और उसके विचारों और दृष्टिकोणों पर इसका कोई असर न पड़ा हो। महात्मा गांधी कहते हैं किः मैंने इस्लाम के शहीदे आज़म इमाम हुसैन के जीवन का अध्ययन किया है और कर्बला की घटनाओं पर मैंने विचार किया है। इन घटनाओं को पढ़कर मुझे ये स्पष्ट हुआ कि अगर हिंदुस्तान अज़ादी चाहता है तो उसे हज़रत हुसैन की शैली और चरित्र का पालन करना पड़ेगा।''

इस्लामी इतिहास में इस बात पर विद्वान लोग सहमत हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के नवासे की इस शहादत ने इस्लाम की रगों में ताज़ा खून को दौड़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चारों खलीफा के समय के बाद इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था जिस फसाद और बिगाड़ का शिकार हुआ। इस्लाम की सामूहिक व राजनीतिक आत्मा इस फसाद से हमेशा परहेज़ करती रही है। लेकिन इतिहास गवाह है कि सत्तावादी होने मिजाज़ किसी भी सिद्धांत और विचारधारा का पाबंद नहीं होता। इस सत्ता और शक्ति की चाहत ने जब इस बात की कोशिश की कि इस्लामी सिद्धांतों की अपनी मनमानी व्याख्या करे, इस्लामी व्यवस्था को उसके असल रुख से मोड़ दे तो हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू ने उम्मत की तरफ से अपना कर्तव्य समझकर इस व्यवस्था की रक्षा में अपनी कीमती जान कुर्बान कर दी। इस तरह शहादत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू सत्य के लिए आखरी हद तक खुद को लुटा देने और न्योछावर कर देने के ऐतिहासिक प्रतीक बन गये। उम्मत का शहीदे आज़म इस बात में यक़ीन रखता है कि हुसैन का क़त्ल वास्तव में यज़ीद की ही मौत है और ये कि इस्लाम की ज़िंदगी कर्बला जैसी घटनाओं में ही छिपी हैः
क़त्ल हुसैन असल में मरगे यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद
इसलिए हुसैनी रूह और जज़्बा, उम्मत में हमेशा बरकरार रहा। जब भी इस्लाम के कलमे को ऊंचा करने और सबसे बड़े जिहाद (सबसे बड़ा जिहाद ज़ालिम शासक के सामने कलमए हक़ को बुलंद करना है) के तहत वक़्त की जाबिर ताक़तों के खिलाफ मुकाबला करने की ज़रूरत आई, हुसैनी जज़्बे से भरपूर उम्मत की रक्षा करने वालों ने कभी इससे पीछे नहीं हटे। इसी शहादत की भावना की विरासत को संभाले हुए फ़िलिस्तीन के पीड़ितों ने आधी सदी से अधिक समय से अपने सीनों पर गोलियां खा रहे हैं। ज़ालिम व निर्मम यहूदी शक्तियां उनके अस्तित्व का एक एक कतरा निचोड़ लेने के लिए आमादा हैं लेकिन वो अपना सिर झुकाने और मैदान से पीछे हट जाने के लिए तैयार नहीं हैं। अभी पिछले दिनों आलम अरब दुनिया में जो महान क्रांति हुई और जिसने तानाशाहों की सरकारों के तख्ते पलट दिए और शोषण करने वालों और निरंकुशों के बीच बिखराव पैदा कर दिया, जिसकी गूंज और धमक विभिन्न देशों में अब भी सुनाई दे रही थी, निस्संदेह इस के पीछे यही हुसैनी भावना काम कर रही है। इस समय इस बात की भी कोशिश हो रही है कि कर्बला में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत को नये अर्थ दिये जायें और इसे ऐसे ऐसे अर्थ पहनाए जायें जिससे इस महान घटना के असल महत्व और उपादेयता बाक़ी न रहे। ये निस्संदेह अस्लाफ इकराम के नज़रिए और मसलक और उम्मत की सामूहिक अंतरात्मा से संघर्षरत है। उसे कभी भी उम्मेत का शहीदे आज़म कुबूल और बर्दाश्त नहीं कर सकता। शहादत इमाम हुसैन के सम्बंध में किसी बहस की नई बिसात बिछाने की जरूरत महसूस नहीं होती। बल्कि मेरी नज़र में ये बिल्कुल बकवास है। अलबत्ता, अल्लामा इब्ने तैमिया ने अपने फतवा में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत पर जो कुछ लिखा है वो यहाँ पेश कर देना मुनासिब होगा:
''जिन लोगों ने हज़रत हुसैन का क़त्ल किया या उसका समर्थन किया या उससे सहमत हुआ, उस पर अल्लाह की, मलाइका की और तमाम लोगों की लानत, अल्लाह ताला ने हज़रत हुसैन को इस दिन (यौमे आशूरा) शहादत से सरफ़राज़ किया और इसके ज़रिए उन लोगों को जिन्होंने उन्हें क़त्ल किया था या उनके क़त्ल में मदद की थी या इससे सहमत हुए थे, उन्हें इसके ज़रिए ज़लील (अपमानित) किया। उनकी ये शहादत इस्लाम के पहले के शहीदों की पैरवी में थी। वो और उनके भाई जन्नत में जाने वाले नौजवानों के सरदार हैं। दरअसल हिजरत, जिहाद और सब्र का वो हिस्सा उनको नहीं मिल सका था जो उनके अहले बैत को हासिल था। इसलिए अल्लाह ने उनकी इज़्ज़त व करामत को पूरा करने के लिए उन्हें शहादत से सरफ़राज़ किया। उनका क़त्ल उम्मत के लिए एक बड़ी मुसीबत थी और अल्लाह ताला ने बताया कि मुसीबत के वक्त इन्ना लिल्लाहे वइन्ना एलैहि राजेऊन पढ़ा जाए। कुरान कहता है: सब्र करने वालों को खुश खबरी सुना दो। जब उनको कोई मुसीबत पेश आती है तो वो कहते हैं कि हम अल्लाह के लिए हैं और हमें अल्लाह की तरफ़ ही लौटना है। अल्लाह की उन पर नवाज़िशें और रहमतें हैं और यही लोग हिदायत याफ्ता हैं।'' (फतावा इब्ने तैमिया जिल्द 4 , सफ्हा- 4835)
सल्फ़ सालेहीन के इससे मिलते जुलते बहुत से बयान हैं। जिनका अध्ययन इस विषय पर लिखी गई किताबों में किया जा सकता है। ये अंश इसलिए दिया गया है कि जो लोग इस दृष्टिकोण से हटकर सोचते हैं उन्हें अपने दृष्टिकोण की समीक्षा करनी चाहिए। विशेष रूप से अल्लामा इब्ने तैमिया का दृष्टिकोण ऐसे लोगों की ज़बानों को बंद कर देने के लिए काफी है।
बहरहाल इतिहास में शहादत की घटनाएं हमेशा पेश आती रही हैं और पेश आती रहेंगी, लेकिन हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना के कई पहलुओं से अपने अंदाज़ में अद्वितीय घटना है। रसूलुल्लाह स.अ.व. का नवासा जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. की पीठ पर सवारी का सौभाग्य प्राप्त हो, जिसके होंठों को रसूलुल्लाह स.अ.व. ने चूमा हो जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. ने जन्नत के लोगों का सरदार ठहराया हो, उसे अहयाए (पुनर्जीवन) इस्लाम के जुर्म में बहुत बेदर्दी और सफ्फ़ाकी से क़त्ल कर दी जाए। इस अत्याचार और बर्बर व्यवहार पर ज़मीन और आस्मान जितना भी मातम करें कम है। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना को उम्मत कभी भुला नहीं सकती। वो उसके मन और आत्मा का हिस्सा बन चुका है। कर्बला की घटना अपनी सभी पीड़ाओं के साथ इस्लाम और उम्मते इस्लाम की रक्षा के लिए समर्पण और बलिदान की प्रेरणा देता रहेगा।
प्रोफेसर अख्तरुल वासे, ज़ाकिर हुसैन इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक साइंसेज़, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली, के प्रमुख हैं।
22 नवंबर, 2012,  स्रोत: इंक़लाब, नई दिल्ली
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बेशर्म बेहया

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बे शर्म और बे हया लोगो की कभी उनकी नज़र में  बेइज्ज़ती नही होती ! क्यों की उन्हें इज़्ज़त के मायने ही पता नहीं होते | उन्हें तो बस इतना पता होता है हर हाल में जीतना है उसके लिए आख़िरत जाय या हुक्म ऐ खुदा के खिलाफ  जाना पड़े या बेहयाई करनी पड़े और इसी जीत के शौक में उनकी हार  हो जाती है और उन्हें पता भी नहीं चलता | मिसाल के तौर पे मुआविया और उसका बेटा यज़ीद जिसने इस्लाम के नाम का गलत  इस्तेमाल करते हुए अहलेबैत के  खिलाफ झूट फरेब और ज़ुल्म का इस्तेमाल किया और  हमेशा के लिए हार गया | अहलेबैत ने ज़ुल्म सहा और अल्लाह पे यक़ीन करते हुए सब्र  किया और हमेशा के लिए जीत गए |

आज उन ज़ालिमों की  ना दुनिया रही न आख़िरत | अहलेबैत का परचम पूरी दुनिया में लहरा रहा है और आख़िरत में तो जन्नत की सरदारी है ही | 



Apne maazi se jo virsay main mile hain hum ko By Iqbal Azeem

Apne maazi se jo virsay main mile hain hum ko
In asoolon ki tijarat nahin hogi hum se
Ehd-e-Hazir ki her ik baat humain dil se qabool
Sirf toheen-eriwayat nahin hogi hum se
Jhoot bhi bolain, sadaqat ke payambar bhi banain
Hum ko bakhsho, ye siyasat nahin hogi hum se
Zakhm bhi khayen, raqebon ko duain bhi dain
Itni makhdosh sharafat nahin hogi hum se
Surkh pathar ke sanam hon ke woh pathar ke sanam
But kadon main to ibadat nahin hogi hum se
Hai ita’at ke liye apna faqat aik khuda
Na-khudaon ki ita’at nahin hogi hum se
Gher mashroot rafaqat ke tarafdar hain hum
Shart ke saath rafaqat nahin hogi hum se
Fikr-o-Izhaar main hum hukm ke paband nahin
Shayari hasb-e-hidayat nahin hogi hum se
Sirf ye batain agar aap gawara karen
Aap ko koi shikayat nahin hogi hum se



मालिक यह तेरा घर है और सिर्फ़ तू ही बचाने वाला है --अब्दुल मुत्तलिब

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मुवर्रेख़ीन का कहना है कि अबरहातुल अशरम का ईसाई बादशाह था। उसमें मज़हबी ताअस्सुब बेहद था। ख़ाना ए काबा की अज़मत व हुरमत देख कर आतिशे हसद से भड़क उठा और इसके वेक़ार को घटाने के लिये मक़ामे सनआमें एक अज़ीमुश्शान गिरजा बनवाया। मगर इसकी लोगों की नज़र में ख़ाना ए काबा वाली अज़मत न पैदा हो सकी तो इसने काबे को ढाने का फ़ैसला किया और असवद बिन मक़सूद हबशी की ज़ेरे सर करदगी में एक अज़ीम लशकर मक्के की तरफ़ रवाना कर दिया। क़ुरैशकनानाख़ज़ाआ और हज़ील पहले तो लड़ने के लिये तैय्यार हुए लेकिन लशकर की कसरत देख कर हिम्मद हार बैठे और मक्के की पहाडि़यो में अहलो अयाल समेत जा छिपे।

अल बत्ता अब्दुल मुत्तलिब अपने चन्द साथियों समेत ख़ाना ए काबा के दरवाज़े में जा खडे़ हुए और कहा ! मालिक यह तेरा घर है और सिर्फ़ तू ही बचाने वाला है। इसी दौरान में लशकर के सरदार ने मक्के वालों के खेत से मवेशी पकड़े जिनमें अब्दुल मुत्तलिब के 200 ऊँट भी थे। अलग़रज़ अबराहा ने हनाते हमीरी को मक्के वालों के पास भेजा और कहा के हम तुम से लड़ने नहीं आये हमारा इरादा सिर्फ़ काबा ढाने का है। अब्दुल मुत्तलिब ने पैग़ाम का जवाब यह दिया कि हमें भी लड़ने से कोई ग़रज़ नहीं और इसके बाद अब्दुल मुत्तलिब ने अबराहा से मिलने की दरख़्वास्त की। उसने इजाज़त दी यह दाखि़ले दरबार हुए। अबराहा ने पुर तपाक ख़ैर मक़दम किया और इनके हमराह तख़्त से उतर कर फ़र्श पर बैठा। अब्दुल मुत्तलिब ने दौनाने गुफ्तुगू में अपने ऊँटों की रेहाई और वापसी का सवाल किया। उसने कहा तुम ने अपने आबाई मकान काबे के लिये कुछ नहीं कहा। उन्होंने जवाब दिया अना रब्बिल अब्ल वलिल बैत रब्बुन समीनाह मैं ऊँटों का मालिक हूँ अपने ऊँट मांगता हूँ जो काबे का मालिक है अपने घर को ख़ुद बचाऐगा। अब्दुल मुत्तलिब के ऊँट उन को मिल गये और वह वापस आ गये और क़ुरैश को पहाडि़यों पर भेज कर ख़ुद वहीं ठहर गये।



ग़रज़ कि अबराहा अजी़मुश्शान लश्कर ले कर ख़ाना ए काबा की तरफ़ बढ़ा और जब इसकी दीवारे नज़र आने लगीं तो धावा बोल देने का हुक्म दिया। ख़ुदा का करना देखिए कि जैसे ही ग़ुस्ताख़ व बेबाक लशकर ने क़दम बढ़ाया मक्के के ग़रबी सिमत से ख़ुदा वन्दे आलम का हवाई लशकर अबा बील की सूरत में नमूदार हुआ।



इन परिन्दों की चोंच और पन्जों में एक एक कंकरी थी। उन्होंने यह कंकरियां अबराहा के लशकर पर बरसाना शुरू कीं। छोटी छोटी कंकरयों ने बड़ी बड़ी गोलियों का काम कर के सारे लशकर का काम तमाम कर दिया। अबराहा जो महमूद नामी सुखऱ् हाथी पर सवार था ज़ख़्मी हो कर यमन की तरफ़ भागा लेकिन रास्ते ही में वासिले जहन्नम हो गया। यह वाक़ेया 570 ई0 का है। 1.सना यमन का दारूल हुकूमत है।



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उसे क़दीम ज़माने में उज़ाली भी कहते थे। तमाम अरब में सब से उम्दा और ख़ूब सूरत शहर है। अदन से 260 मील के फ़ासले पर एक ज़रख़ेज़ वादी में वाक़े है इसकी आबो हवा मोतादिल और ख़ुश गवार है। इसके जुनूब मशरिक़ में तीन दिन की मसाफ़त पर शहर क़रीब है जिसको सबा भी कहते हैं सना के शुमाल मग़रिब में 60 फ़रसख़ पर सुरह है यहां का चमड़ा दूर दराज़ मुल्कों में तिजारत को जाता है।



सना के मग़रिब में बहरे कुल्जुम से एक मन्जि़ल की मसाफ़त पर शहर ज़ुबैद वाक़े है जहां से तिजारत के वास्ते कहवा अतराफ़ में जाता है। ज़ुबैद से 4 मन्जि़ल और सना से 6 मन्जि़ल पर बैतुल फ़क़ीह वाक़े है। ज़ुबैद के शुमाल मशरिक़ में शहर मोहजिम है सना से 6 मन्जि़ल के फ़ासले पर ज़ुबैद के जुनूब में कि़ला ए तज़ है। सना के शुमाल में 10 मन्जि़ल की मुसाफ़त पर नज़रान है।


चूकि अबरहा हाथी पर सवार था और अरबों ने इस से क़ब्ल हाथी न देखा था नीज़ इस लिये कि बड़े बड़े हाथियों को छोटे छोटे परिन्दों की नन्हीं नन्हीं कंकरियों से बा हुक्मे ख़ुदा तबाह कर के ख़ुदा के घर को बचा लिया इस लिये इस वाक़ये को हाथी की तरफ़ से मन्सूब किया गया और इसी से सने आमूल फ़ील कहा गया।

सूरए फ़ील"में खुदा वन्दे कुदूस ने इस वाकिए का जिक्र करते हुए इरशाद फ़रमाया कि :

या'नी (ऐ महबूब) क्या आप ने न देखा कि आप के रब ने उन हाथी वालों का क्या हाल कर डाला क्या उन के दाउं को तबाही में न डाला और उन पर परन्दों
की टुकड़ियां भेजीं ताकि उन्हें कंकर के पथ्थरों से मारें तो उन्हें चबाए हुए भुस



आख़िरत में आपका दीं क्या इस्लाम रहेगा ?

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आख़िरत में हमारा दींन क्या दीन ऐ इस्लाम होगा क्यों की जन्नत तो  इन्ही लिए है ?

दुनिया में हम अपने अक़ीदे को बयान करके खुद को मुसलमान और अली की विलायत को मानने वाले  बताते हैं और जन्नत के दावेदार बन जाते हैं |  किसी भी इंसान  की बात कोई नहीं जानता इसलिए हमारे ऐलान पे यक़ीन रखते हुए सब हमें मुसलमान और हमारा दीन इस्लाम मानते हैं | 

आख़िरत में हमारा अमल और हमारे दिल की बातें अल्लाह के सामने होंगी ज़बानी ऐलान बे मायने हो जायगा | फैसला हमारे ऐलान के मुताबिक़ न होते हुए हमारे अमल से होगा की कौन किस दीन पे है ?

जन्नत उसी को मिलेगी जो अपने अमल से मुसलमान रहा सिर्फ ऐलान वाले घाटे में रहेंगे | 
एस एम् मासूम 




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