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Channel: हक और बातिल
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नजफ़ ऐ हिन्द जोगीपुरा के मुआज्ज़ात और जियारत और क्या मिलता है वहाँ जानिए |

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हर सच्चे मुसलमान की ख्वाहिश हुआ करती है की उसे अल्लाह के नेक बन्दों की जियारत करने का मौक़ा  मिले और इसी को अल्लाह से  मुहब्बत कहा जाता है | अल्लाह के नेक बन्दे  अपनी ज़िन्दगी में भी अल्लाह के नेक बन्दों के आस पास रहना पसंद करते हैं और मौत के बाद उनके रोजों , क़ब्रों पे जा के अकीदत पेश किया करते हैं और उनकी ज़िन्दगी से ,उनके कौल और अमल से अपनी ज़िन्दगी संवारा करते हैं |


इस बार जब मैं लखनऊ आया तो मुझसे मेरे परिवार वालों ,भाई बहनों ने कहा चलो इस बार मौला अली (अ.स) के दरबार नजफ़ ऐ हिन्द जोगीपुरा जियारत को चला जाए | बस आनन फानन में ये तय हो गया और हम सभी चल पड़े मौला के दरबार जोगी पूरा की तरफ अपनी अकीदत पेश करने और अपने दिल में अपनी मुरादें लिए |
 



जोगीपुरा जाने के लिए सबसे बेहतरीन दिन होता है शब् ऐ जुमा और जायरीन के लिए जितना बेहतरीन इंतज़ाम मैंने वहाँ देखा शायद कहीं नहीं देखा था | जोगीपुरा जाने के लिए आपको उत्तेर प्रदेश वेस्ट के नजीबाबाद रेलवे स्टेशन पे उतरना होता है |

अगरआपकेपास जोगीपुरा दरगाह का फ़ोन नंबर है तो वहाँ से आप टैक्सी भी बुला सकते हैं और अगर नहीं है तो आप ३००/- रुपये दे के स्टेशन के बाहर टैक्सी मिलती है उस से १५मिन में रौज़ा ऐ मौला अली (अ.स ) पे पहुँच जाते हैं | कुछ बस की सुविधाएं भी हैं लेकिन उनका वक़्त तय नहीं होने के कारन नए जायरीन को मुश्किल हो जाया करती है |

नजीबाबाद रेलवे स्टेशन स्टेशन से जोगीपुरा ७-८ किलोमीटर की दूरी पे है | जैसे ही टैक्सी जोगीपुरा दरगाह के  गेट पे पहुंची तो दिल में एक ख़ुशी सी महसूस हुयी और ऐसा लगा दुनिया के सारे ग़मऔर मुश्किलात दूर हो गयीं क्यूँ हम पहुँच चुके थे मौला मुश्किल कुशा हज़रत अली (अ.स ) के दरबार में |

दरगाह के दफ्तर में पहुँचते ही वहाँ लोगों से जब कमरे के बारे में पुछा तो उन्होंने के कई कमरे दिखाए जिन्हें और १००-१५०-२०० जैसे हदिये पे ले सकते हैं | और मौला की तरफ से दो  वक़्त आप को बेहतरीन साफ़ सफाई के साथ खाना भी मुफ्त में दिया जाता है |



क्यूँ जोगीपुरा को नजफ़ इ हिन्द कहा जाता है और यहाँ कौन सा मुआज्ज़ा हुआ था जानिये |

१६५७ सितम्बर के महीने में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ बीमार पड़ा तो ये मशहूरहोगयाकी शाहजहाँका इन्तेकाल हो गया | बादशाहत इस सेकमज़ोर होने लगी लेकिन उनका बेटा औरंगजेब तो सियासत में तेज़ था उसने अपने बड़े भाई जो वारिस था शाहजहाँ का उसे एकसाल के अंदर ही इस दौड़ से अलग कर दिया |

रौज़ा मौला अली (अ.स ), जोगी पूरा |

औरंगजेब ने शाहजहाँ के किले में ही क़ैद कर लिया और बादशाह बन बैठा | तख़्त पे बीतते ही उसने शाहजहाँ के वफादार कमांडर और गवर्नर को जान से मार दिए जाने का हुक्म सुना दिया |
ज़री मुबारक मौला अली (अस)

उन्हें कमांडर में से एक थे राजू दादा जिन्होंने ने औरंगजेब को पसंद नहीं किया | औरंगजेब से बचने के लिए राजू दादा अपने वतन जोगी राम पूरा , बिजनौर वापस चले आये | वहां उन्होंने अपने गाँव वालों को बता दिया की औरंगजेब के फ़ौज से उनकी जान को खतरा है | राजू दादा की इमानदारी और गरीब परवर मिज़ाज ने उन्हें गाँव में अच्छी इज्ज़त दे रखी थी| गाँव वाले उनकी हिफाज़त करने लगे और बहुत ही सावधान रहते थे की कहीं औरंगजेब के लोग राजू दादा का कोई नुकसान ना कर दें |


राजू दादा अपने गाँव के पास वाले जंगल में छुपे रहते थे | राजू दादा मौला अली (अ.स ) के चाहने वाले थे और उन्होंने मौला अली (अ.स) को मदद के लिए नाद ऐ अली और या अली अद्रिकनी पढ़ के बुलाना शुरू किया | एक दिन एक बूढ़े हिन्दू ब्राह्मण जो घास काट रहा था और इतना बुध था की ठीक से देख भी नहीं सकता था उसने एक आवाज़ सुनी और जब नज़र डाली तो उसे महसूस हुआ की कोई शख्स घोड़े पे सवार है और उस से कह रहा है कहा है राजू दादा जो मुझे बुलाया करता था ? जाओ उस से कह दो मैंने मिलने को बुलाया है | उस बूढ़े ने कहा मैं ठीक से देख नहीं सकता और कमज़ोर भी हूँ जंगले में कैसे जाऊं उन्हें बुलाने ?

अचानक उस बूढ़े को महसूस हुआ की उसे सब कुछ दिखाई देने लगा और उसके जिस्म में ताक़त भी आ गयी | फिर हजरत अली (अ.स ) ने कहा अब जाओ और राजू दादा से कहो मैं आया हूँ | जब राजू दादा ने उस किसान से सुना तो वो समझ गए कीहजरतअली (अ.स)आयेहैंऔर राजूदादा दौड़ के उस  मुकाम की तरफ चले | गाँव वालों ने  जब राजू दादा को दौड़ते देखा तो समझे औरंगजेब के सिपाही आये हैं और राजू दादा की मादा के लिए उनके पीछे भागने लगे |

राजू दादा जब उस जगह पे पहुंचे तो वहाँ कोई नहीं था लेकिन घोड़े के खड़े होने के निशाँ बाकी थे | लोगों से उस जगह को घेर दिया लेकिन राजू दादा उसी जगह पे  जहां मौला अली (अ.स ) आये थे वहाँ बिना कुछ खाए पिए सात दिन तक नाद ऐ अली पढ़ पढ़ के मौला अली (अ.स ) को बुलाने लगे |


मिटटी में यहाँ की शेफा है |

सातवें दिन मौला अली (अ.स० ) ने राजू दादा को बशारत दी और कहा मत घबराओ औरंगजेब तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता तुम्हे उस से डरने की ज़रुरत नहीं है | राजू दादा ने मौला अली (अ.स ) से कहा की वो चाहते हैं की आप ऐसी कोई चीज़ दे जायें जिस से कौम को शेफा हो उनका भला हो |

तो मौला मौला अली (अ.स ) के मुआज्ज़े से वहाँ एक पानी का चश्मा फूटा जो आज भी मौजूद है | जहां मौला अली (अ.स) खड़े थे वहाँ की मिटटी में आज भी शेफा है और वहाँ एक दूध का चश्मा निकला था जो अब नहीं है |

वो जगह जहाँ पानी का चश्मा फूटा था |
दरगाह के दफ्तर में पहुँचते ही वहाँ लोगों से जब कमरे के बारे में पुछा तो उन्होंने के कई कमरे दिखाए जिन्हें और 100-१५०-२०० जैसे हदिये पे ले सकते हैं | और मौला की तरफ से तो वक़्त आप को बेहतरीन साफ़ सफाई के साथ खाना भी मुफ्त में दिया जाता है |


ज़िन्दान बीबी सकीना

मश्क ज़िन्दान बीबी सकीना  के पास 
रौज़ा हज़रत अब्बास अलमदार


रौज़ा इमाम हुसैन ,राजू दादा के रौज़े के पास 
मस्जिद

रौज़ा हज़रात अब्बास अलमदार

मौला अली (अ.स)

दरगाह का दफ्तर

मौला अली (अस) के रौज़े का शेर दरवाज़ जहां से शेर सलाम करने आता था\

मौला अली (अस) का रौज़ा

दुआओं और मुरादों के बाद आराम और बेफिक्री के कुछ पल |

                                                             लेखक : एस एम् मासूम

इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की विलादत माह ऐ रजब में और उनकी ज़िन्दगी |

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इमाम  मुहम्मद बाकिर (अ.स) की विलादत एक रबीउल अव्वल रोज़ ऐ जुमा   सन ५७ हिजरी को मदीने में हुयी | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की माँ इमाम हसन (अ.स) की बेटी  थीं जिनका नाम फातिमा था और पिता इमाम जैनुल आबेदीन (अ.स) थे | यह वाहिद इमाम हैं जिनकी माँ और बाप दोनों हजरत अली (अ.स) और जनाब इ फातिमा की औलाद थे | रवायतों में मिलता है की इमाम मुहम्मद बाकिर (अ,स) की विलादत वाकये कर्बला से ३ -४ या 5 साल पहले हुयी | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) ऐसे इमाम हैं जिन्हें रसूल ऐ खुदा (स.अ.व) ने अपने सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी से सलाम भिजवाया था और इनका नाम मुहम्मद और लक़ब बाकिर रखने की हिदायत  दी थी | बाकिर का मतलब होता है कुशादा इल्म | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की शक्ल और सीरत रसूल ऐ खुदा (.स.अव० ) से मिलती थी और क़द दरमियाना ,गेन्हुवा रंग ,चेहरे में तिल था | इमाम के हाथों पे उनके दादा इमाम हुसैन (अ.स) की अंगूठी हुआ करती थी |इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) कर्बला  में मौजूद थे और उम्र २ से 5 साल के बीच में बताई जाती है | अबु हनीफा जो अहले सुन्नत के हनफी लोगों के इमाम हैं इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) के शागिर्द हुआ करते थे. सन 95 हिजरी में इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) इमामत मिली जो सिर्फ १९ साल रही जब उनकी वफात ज़हर देने से मदीने में सन ११४ में हो गयी | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) 5 साल तक इमाम हुसैन (अ.स) की गोद में खेले और बकी 34 साल अपने वलीद इमाम जैनुल आबेदीन (अ.स) के साथ रहे |

इमाम महम्मद बाकिर (अ.स) का अखलाक और नर्म दिली बहुत मशहूर थी और उन्होंने अपने शियों को समाज में किस तरह रहा जाए बार बार समझाया | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) ने अपने शियों को यह हिदायत दी की जितना   भी मुमकिन हो इल्म हासिल  करो और उसका इस्तेमाल खुद अपना किरदार बनाने में ओर लोगों में बांटने में करो | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) की अहादीस है की जो कोई दीन ऐ इस्लाम से मुताल्लिक कोई इल्म लोगों को बिना खुद इल्म हासिल किये देता है उसपे अल्लाह के फ़रिश्ते लानत भेजते हैं |

इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स)  ने कहा को जो इंसान किसी दुसरे इंसान के लिए अशब्दों का इस्तेमाल करे वो हममे से नहीं |  सुमा'आ कहता है कि इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) के पास जब वो गया तो हुज़ूर ने बगैर उस से कुछ पूछे कहा की तुम्हारे और ऊंट वाले के बीच यह क्या वाकेया हुआ और तुम खुद को चिलाने, गलियाँ देने, लानत मलामत करने से खुद को बचाओ | सुमा'आ ने कहा खुदा की क़सम उसने मुझपे ज़ुल्म किया था |इमाम ने कहा की अगर उसने तुम पे ज़ुल्म किया तो चिल्ला के गालियाँ देके तुमने भी उस पे ज़ुल्म किया है और यह हमारे चाहने वालों का तरीका नहीं और हम इस बात की इजाज़त किसी को नहीं देते ,जाओ और इस्तेगफार (अल्लाह से माफ़ी माँगो) करो | सुमा'आ कहता है उसने तौबा की और अल्लाह से माफी मांगी और फिर ऐसा ना करने का वादा किया | ...अल काफी वोल २ पेज ३२८

इमाम का कौल है की कोई भी ख़ुशी ऐसी दीवानगी के साथ ना मनाओ की तुम हराम और हलाल का फर्क ही भूल जाओ और कभी भी ऐसा गुस्सा ना करो की तो हलाल और हराम का फर्क ही भूल जाओ |

एक बार इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) अपने खजूर के बाग़ में जा रहे थे | यह गर्मी के दिन थे जब खजूर के पत्ते भी सूख जाते हैं ऐसे में सह्दीद गर्मी से इमाम का चेहरा लाल हो रहा था और पसीने से तर  बतर था | एक शख्स ने इमाम को देखा और इमाम से उसे हमदर्दी पैदा हुयी की यह कौन शख्स है जो इतनी शदीद गर्मी में भी कुछ पैसों के लिए इतनी म्हणत कर रहा है | वो शख्स जिसका नाम मुहम्मद था जब पास पहुंचा तो उसने पहचान लिया की यह इमाम हैं | उसने ताज्जुब से पुछा या इमाम आपके जैसा समझदार इंसान इतनी गर्मी में चाँद सिक्कों के लिए घर से बाहर इतनी म्हणत कर रहा है कहीं ऐसे में आपको मौत आ गयी तो अल्लाह को आप क्या जवाब देंगे ?

इमाम (अ.स) ने कहा तुमको लगता है की सिर्फ नमाज़ रोज़ा हज ज़कात ही इबादत है ? मैं इस वक़्त रोज़ी की तलाश में हूँ जिसका दर्जा इबादतों में सबसे ऊपर है क्यूँ की इसी से मैं अपने परिवार का पेट भरूँगा | ऐसे में अगर मुझे मौत आ गयी तो इबादत करते हुए दुनिया से गया अमाल नामे में लिखा जाएगा | इंसान को अपने गुनाहों को अंजाम देते वक़्त डरना चाहिए की कहीं ऐसे में उसे मौत आ गयी तो उसका क्या होगा ?

इमाम मुहम्मद बाकिर (अ. स.) ने फरमाया: एक ज़माना वह आयेगा कि जब लोगों का इमाम ग़ायब होगा, ख़ुश नसीब है वह इंसान जो उस ज़माने में हमारी दोस्ती पर साबित क़दम रहे | हज़रत इमाम मुहम्मद बाकिर (अ. स.) ने फरमाया :हज़रत इमाम महदी (अ. स.) और उनके मददगार अम्र बिल मअरुफ़ और नही अनिल मुनकर करने वाले होंगे।

अल अमाली में मुहम्मद इब्ने सुलेमान से रवायत है की उनके वलीद के ज़माने में एक सीरिया का रहने वाला ऐसा इंसान था जो अह्लेबय्त का दुश्मन था लेकिन इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) के इल्म और शराफत की कद्र करता था | एक बार वो बहुत बीमार पड़ गया तो उसने वसीयत करी की इमाम (अ.स) उसकी नमाज़ ऐ जनाज़ा पढाएं | दुसरे दिन जब उसका बदन ठंडा पद गया तो इमाम को बुलाया गया लेकिन इमाम ने दो रकत नमाज़ पढ़ी और उस बीमार को उसके नाम से पुकारा | वो शख्स उठ के बैठ गया | इमाम उसके बाद अपने घर चली आये लेकिन वो शख्स इमाम के घर पहुंचा और उसने कहा की जब वो आधी नींद में था की उसने एक आवाज़ सुनी “ लौटा दो इसकी रूह को क्यूँ की इमाम मुहम्मद बाकिर ने अल्लाह से इसे लौटाने की दुआ की है “ और वो शख्स ईमान ले आया |


हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर अ.स ने फ़रमाया :जो शख्स तस्बीह के बाद अस्ताग्फार करे ...उसके गुनाह माफ़ करदिये जाते है -और उसके दानो की अदद १०० है -और उसका सवाब मीज़ान-ऐ-अमल मै हज़ार दर्जा है-जो शख्स वाजिबी नमाज़ के बाद हज़रत फातिमा अ.स कि तस्बीह को बजा लाये और वोह उस हल मै हो के उसने अभी तक अपने दाये पाओ को बाये पाओ पर से उठाया भी न हो ...उसके तमाम gunah माफ़ करदिये जाते है -और इस तस्बीह का आगाज़ अल्लाहोअक्बर से किया जाये-(तहज़ीबुल अहकाम जिल्द २ पेज 105)

मुख़्तार अब्बास नक़वी ने ईरान की ओर से अजमेर दरगाह के लिए भेजे गए शिलालेख का अनावरण किया

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भारत के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ने अजमेर में ख़ाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के लिए ईरान की ओर से दिए गए तोहफ़े का अनावरण किया।

मुख़्तार अब्बास नक़वी ने रविवार को ख़ाजा चिश्ती के 805वें उर्स के अवसर पर ईरान की ओर से अजमेर दरगाह के लिए भेजे गए शिलालेख का अनावरण किया। टाइलों से बने डेढ़ मीटर लम्बे और एक मीटर चौड़े इस बोर्ड पर पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शान में ख़ाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की बेहद मशहूर रुबाई सुंदर अक्षरों में लिखी हुई है। ईरान के अलग़दीर फ़ाउंडेनशन की ओर से भेजे गए टाइलों के इस तुग़रे का अनावरण करते हुए भारत के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने कहा कि यह तोहफ़ा, भारत और ईरान के मज़बूत रिश्तों को अधिक ऊंचाई तक पहुंचाएगा। उन्होंने कहा कि यह केवल एक तुग़रा नहीं है बल्कि दोनों देशों को जोड़ने और शांति, इंसानियत और भाईचारे का संदेश है। उन्होंने भारत में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के श्रद्धालुओं की ओर संकेत करते हुए कहा कि इस प्रकार के सांस्कृतिक क़दमों से मुसलमानों की एकता मज़बूत होगी। नक़वी ने इसके लिए ईरान सरकार का आभार प्रकट किया।
इस अवसर पर भारत में ईरान के राजदूत ग़ुलाम रज़ा अंसारी ने भारत सरकार का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि इससे दोनों देशों के रिश्ते अधिक मज़बूत होंगे। उन्होंने कहा कि यह तुग़रा, भारत और ईरान के संबंधों में विस्तार का प्रतीक सिद्ध हो सकता है। अंसारी ने कहा कि भविष्य में ईरान की ओर से इस प्रकार के कई अन्य तुग़रे भारत भेजे जाएंगे। ईरान के राजदूत ने आशा जताई कि भारत और ईरान के संबंध पहले से अधिक विस्तृत होंगे। अजमेर दरगाह के लिए ईरान के इस तोहफ़े के अनावरण के अवसर पर ईरान और भारत की अनेक सरकारी व सांस्कृतिक हस्तियों ने भाग लिया। इमाम हुसैन की प्रशंसा में ख़ाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की इस रुबाई का अनुवाद हैः
हुसैन सम्राट हैं, हुसैन बादशाह हैं
हुसैन धर्म हैं, हुसैन धर्म की शरण हैं
उन्होंने सिर दे दिया लेकिन यज़ीद से हाथ नहीं मिलाया
ईश्वर की सौगंध कि हुसैन, ला इलाह (कलमे) का आधार हैं।


मशहूर शायर ऐ अह्लेबय्त जनाब वसी जौनपुरी का इंटरव्यू ,सलाम, नौहा ज़रूर सुनें |

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मशहूर शायर ऐ अह्लेबय्त जनाब वसी जौनपुरी Cont 7275787579

मशहूर शायर ऐ अह्लेबय्त जनाब वसी जौनपुरी का इंटरव्यू 

                                                             सलाम, नौहा ज़रूर सुनें |



वसी जौनपुरी का मशहूर नौहा


Aaj ke daur ko dekhte huye Maula Ali ki Hadison ka ek bada Collection. Roman

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Main JANNAT Ke Shaukh Me Ibadat Nahi Karta Kyunki Yeh Ibadat Nahi TIJARAT Hai. Main DOZAKH Ke Khauf Se Bhi Ibadat Nahi Karta Kyunki Yeh Ibadat Nahi GULAMI Hai. Main Ibadat Sirf Isliye Karta Hoon Kyunki Mera Rab IBADAT KE QABIL HAI Aur Koi Nahi.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Agar Raasta Khubsurat Hai Tu Pata Karo k Kis Manzil Ko Jata Hai, Lekin Agar Manzil Khubsurat Hai Tu Raste Ki Parwah Mat Karo.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Zindagi Ki Har Mod Pr Sulah Karna Sikho Kyu Ke Jhukta Wohi Hai Jis Mein Jaan Hoti Hai Aur Akadna To Murde Ki Pehchaan Hoti Hai.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Jis Shaks Me Wafadari Na Ho Uske Saath Dosti Karne Ka Matlab Khud Ko Zaleel Karna Hai. Zindagi ko is Tarah jiyo jaise hamesha zinda rehna hai. Aur Aakhirat ki fikr aise karo jaise Agle hi Pal Marr Jana hai.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Zindagi Ko Zaruriyat Ki Taraf Le Jao Khwahishat Ki Taraf Nahi. Kyunki Zaruriyat To Faqeeron Ki Bhi Poori Hoti Jati Hai Aur Khwahishat Baadshahon Ki Bhi Adhoori Reh Jati Hai.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Yeh Zindagi Do Din Ki Hai: Ek Din Tumhare Haq Me Aur Ek Din Tumhare Khilaf. Jis Din Tumhare Haq Me Ho Us Din Ghuroor Mat Karna Aur Jis Din Tumhare Khilaf Ho Us Din Sabr Karna.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Jis ka Rabita Allah Se ho Wo Nakam Nahi Hota, Nakam Wo Hota Hai Jis ki Ummidain Dunia Se Wabasta Ho.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Insan Zindagi Se Mayoos Ho To Kamyabi Bhi Naakami Nazar Aati Hai.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Daulat Milne Par Log Badalte Nahi, Balki Be-Naqaab Hote Hai.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Insan Bhi Kya Cheez Hai...
Daulat Kamane Ke Liye Apni Sehat Kho Deta Hai. Phir Sehat Ko Wapis Pane Ke Liye Apni Daulat Khota Hai.
Mustaqbil Ko Soch Kar Apna Haal Zaya Karta Hai, Phir Mustaqbil Me Apna Maazi Yaad Karke Rota Hai.
Jeeta Aise Hai Jaise Kabhi Marega Hi Nahi, Aur Marr Aise Jata Hai Jaise Kabhi Jiya Hi Nahi.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

Yeh Na Socho Ki ALLAH Dua Fauran Qabool Kyun Nahi Karta, Yeh Shukr Karo Ki ALLAH Hamare Gunahon Ki Saza Fauran Nahi Deta.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Insaan Gunah Karne Ki Wajah Se Jahannum Me Nahi Jata Balki Gunah Par Mutmaeen Rehne Aur Tauba Na Karne Ki Wajah Se Jahannum Me Jata Hai.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Sabse Bada Gunaah Wo Hai Ho Karne Wale Ki Nazar Me Chota Ho.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Mujhe Dua Qabool Hone Ki Fikr Nahi, Mujhe Sirf Dua Maangne Ki Fikr Hai. Kyunki Jab Mujhe Dua Maangne Ki Taufeeq Hogayi Hai To Qabooliyat Bhi Uske Sath Hasil Hojayegi.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Tabiyat ki Narmi aur Sakhawat,insan ko Dushmano ke dilon main bhi Mehboob bana deti hai.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Jis Darakht Ki Lakdi Narm Hogi, Uski Shakhein Zyada Hogi. Narm Tabiyat Ikhtiyar Karo Taaki Tumare Dost Zyada Ho.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Jis Tarah Shabnam Ke Qatre Murjhaye Hue Phool Ko Taazgi Dete Hai, Usi Tarah Acche Alfaz Mayus Dilon Me Roshni Bharte Hai.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Acche Logon Ki Ek Ya Nishani Bhi Hai Ki Unko Yaad Rakhna Nahi Padta Wo Yaad Reh Jate Hai.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Guftgoo Aisi Chez hy Jiski wajah se Insan :
1. Ya to Dil me Utar Jata hai.
2. Ya Phir Dil se Utar Jata hai.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

KHAMOSH Raho Ya Aesi Bat Kaho Jo KHAMOSHI Se Behtar Ho Ae Jawano: Adab k Zariye Apni izzat aur ILM Ke Zariye Apne Deen ki Hifazat karo.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Hazrat Ali Radiallahu Ta'ala Anhu Se Kisi Ne Poocha "ILM Kya Hai ? "
To Aap Radiallahu Ta'ala Anhu Ne Farmaya....
"Agar Koi Tum Pe Zulm Kare Tou Usey Mua'af Kar Do
Agar Ta'aluq Torey Tou Jod Lo
Agar Koi Tumhai'n Mehroom Karey Tou Usey Nawaz Do
Agar Kisi Se Intiqam Lena Ho To Dar-guzar Kardo
Ghussey Main Aisi Baat Na Karo K Baad Main Nadamat Ho "
Ye "ILM" Hai ...
- Imam Ali Quotes on Knowledge (Radiallahu Anhu)

Log Tumhari Aqal Se Tumhari Shaksiyat Ka Wazan Karte Hai. Lehaaza Tum Apni Aqal Ka Wazan Ilm Se Badhao.
- Imam Ali Quotes on Knowledge (Radiallahu Anhu)

Jab Insaan Ki Aqal Mukammal Ho Jati Hai, To Uski Guftagu Mukhtasar Ho Jati Hai.
- Imam Ali Quotes on Knowledge (Radiallahu Anhu)

Insan Ka Kirdar Us Ki Zuban K Niche Poshida He Agar Kisi Shakhs Ke Kirdar Ka Pata Lagana Ho To Usko Sakht Ghusse Ki Halat Main Dekho.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Insaan Apni Touheen Maaf To Kar Sakta Hai Par Bhool Nahi Sakta.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

beautiful shrine of hazrat ali the fourth khalifa of prophet muhammad located in najaf ashraf

Na Insaan Apni Marzi Se Paida Hua Aur Na Apni Marzi Se Marega. Phir Wo Inke Beech Ka Arsa Apni Marzi Se Kyun Guzarna Chahta Hai ??
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

Insan ke Aansu Us Waqt Muqaddas Hote Hai, Jab Wo Kisi Aur Ki Takleef Mehsus Kar Ke Nikle.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Duniya Me Kabhi Kisi Acche Insan Ko Talaash Mat Karo, Balki Khud Acche Ban Jao. Ho Sakta Hai Ki Tumhare Is Amal Se Kisi Aur Ki Talaash Khatam Ho Jaye.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Insan Ka Fuzool Shauq Me Waqt Kho Dena Is Baat Ki Daleel Hai Ki ALLAH Us Se Naraz Hai.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Agar Tum Pahaad Se Girey To Ye Tere Liye Itna Nuqsan-Deh Nahi Jitna Ke Tu Kisi Ki NAZRON Se Gir Jaye.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Agar Kisi ka Zarf Aazmana ho to use Zyada Izzat Do, Wo Aala Zarf Hua to Aap ko aur Zyada Izzat Dega. Aur Agar Kam Zarf hua to Khud ko Aala Samjhega.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Wo Log kisi k Nhi hoty Jo Dost or Rishty ko"Libas" ki tarha badlty hain.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

Jo Zara Si Baat Pe Dost Na Rahe. Samajh Lena Wo Dost Kabhi Tha Hi Nahi.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Bura Dost Aag Ki Tarah Hai, Agar Jalta Hai To Aapko Bhi Jala Dega Aur Agar Bujha Hai To Apke Haath Kale Kar Dega.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Khaas aur Aam Dost Me Itna hi Farq hota Hai; Aam Dost Sirf Tareef Karta Hai. Lekin Khaas Dost Tareef ke Saath-Saath Tanqeed bhi Karta Hai.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Dost Ki Koi Baat Buri Lage To Khamosh Hojao. Agar Wo Dost Hai To Use Us Baat Ka Ranj Hoga. Aur Agar Na Hua To Tum Samjh Lena Ki Wo Tumhara Dost Nahi.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Mujhe Wo Dost Pasand Hai Jo Mehfil Me Meri Ghalatiyan Chupaye Or Tanhai Me Meri Ghalatiyon Par Tanqeed Kare.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

3 Rishte 3 Waqt Main Be-Naqaab Hojate Hai.
Budhape Mein Aulaad,
Musibat Mein Dost
Aur Ghurbat Me Biwi.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Insan ke Bimaar Hone Ki Ek Badi Wajah Doston Ki Judai Hai.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Musibat Me Ho To Kabhi Yeh Na Socho Ki Kaunsa Dost Kaam Aayega Balki Yeh Socho Ki Ab Kaunsa Dost Chhod Ke Jayega.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Hargiz Aise Shakhs Ki Dosti Ikhtiyar Na Karo Jo Tumhari Buraiyon Ko Yaad Rakhe Aur Khoobiyon Ko Bhool Jaye.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Jahan Sadqat Aur Khuloos Nazar Aaye Waha Dosti Ka Haath Badhao Warna Tumhari Tanhai Tumhari Behtareen Saathi Hai.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Dosti Ki Zeenat Ek Doosre Ki Baat Ko Bardasht Karna Hai. Be-Aib Dost Talaash Mat Karo Warna Akele Reh Jaoge.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Lambi Dosti Ke Liye Do Cheezon Par Amal Karo. Apne Dost Se Gusse Me Baat Mat Karo Aur Apne Dost Ki Gusse Me Kahi Hui Baat Dil Pe Mat Lo.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Tum Accha Karo Aur Zamana Bura Samjhe Yeh Tumhare Haq Me Behtar Hai Bajaye Iske Tum Bura Karo Aur Zamana Tum Ko Accha Samjhe.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

Apno ko Hamesha Apne Hone ka Ehsaas Dilate Raho warna Waqt Aapke Apno Ko Aap ke Bina Jeena Sikha Dega.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu Se Pucha Gaya 'Dunia Ka Sab Se Ameer (Rich) Shakhs Kaun he ?
Jawab Mila, 'Dunia Ka Ameer Shakhs Woh he Jis Ke Dost Mukhlis Hain. Duniya Usko Yateem Samajhti Hai Jiske Maa Baap Na Ho, Lekin Main Yateem Usko Samajhta Hoon Jiske Acche Dost Na Ho.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Lakhon Ko Dost Banana Koi Badi Baat Nahi, Badi Baat Yeh Hai Ki Aisa Dost Banao Jo Tumhara Sath Us Waqt De Jab Lakhon Tumhare Dushman Ho.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Jab Bhi Farig Waqt Mile To Apni Maa Ke Paas Ja Ke Baitha Karo, Kyunki Maa Ke Saath Guzara Hua Waqt Qayamat Ke Din Nijat Ka Baa'is Banega.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Kabhi Apne Dost ki Sacchai ka Imtehan na lo, Kya Pata Us Waqt wo Majboor ho aur Tum Ek Accha Dost kho Baitho.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

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Agar Koi Accha Lage To Us Se Kam Mila Karo, Agar Koi Zyada Accha Lage To Us Se Sirf Dekha Karo Aur Agar Koi Dil Me Utar Jaye To Use Sirf Yaad Kiya Karo.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

4 Khaleefa ke 4 Aqwal:
"Aise Shakhs ko Dost rakho jo Naiki kar k Bhool jaye".
(Hazrat Abu Bakar Radiallahu Ta'ala Anhu)
"Maut ko humesha Yad rakho, magr Maut ki Arzoo kabhi na karo."
(Hazrat Umar Farooq Radiallahu Ta'ala Anhu)
"Insan Zuban k parde me Chupa ha"
(Hazrat Usman e Gani Radiallahu Ta'ala Anhu)
"Humesha Such bolo ta k Tumhe Qasam kane ki zarurat na pare"
(Maula e Kainaat Maula Ali Radiallahu Ta'ala Anhu)

Sab Se Badi Bahaduri Sabr Karna Hai.
Sab Se Badi Bala Na Umeedi Hai
Sab Se Badi Tafreeh Masrufiyat
Sab Se Bada Ustad Tajruba
Sab Bada Faida Naik Aulad
Sab Bada Tohfa Dar Guzar Karna
Sab Bada Sarmaya Khud Etmadi
Aur
Sab Se Bada Raaz Maut Hai ...!
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Gareeb Ki Madad Karo, Uska Dil Na Dukhao, Aur Uska Ehsas Karo. Kyu K Ghareeb Hone Mein Zyada Waqt Nai Lagta ..!
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Kisi Ki Madad Karte Waqt Uske Chehre Ki Jaanib Mat Dekho, Ho Sakta Hai Uski Sharminda Aankhein Tumhare Dil Me Ghuroor Ka Beej Bo De.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Kisi Ka Dil Mat Dukhao, Ho Sakta Hai Wo Tumhe Aise Chahta Ho Jaise Marne Wala Zindagi.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

Log Dukh Nahi Dete, Logon Se Waabasta Umeedein Dukh Deti Hai.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Akhlaq Aik Dukan Hai, Aur Zuban Uska Tala, Tala Khulta Hai To Pata Chalta Hai K Dukan Sonay Ki Hai Ya Ko'aly (Koila) Ki...
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Akhlaaq Ki Keemat Kuch Nahi Deni Padti Hai. Magar Us Se Har Cheez Khareedi Ja Sakti Hai.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Jab Tumhari Jaan Ko Khatra Ho To Sadqa De Kar Jaan Bachao Aur Jab Tumhare Deen Ko Khatra Ho To Jaan De Kar Deen Bachao..
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Jab Tum Duniya ki Muflisi say Tang Aa jao aur Rizq ka koi Rasta na Niklay to Sadqa diya karo aur ALLAH se Tijarat karo.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Apne Din Ka Aaghaz Sadqa Dene Se Shuru Karo. Us Din Tumhari Koi Dua Radd Nahi Ki Jayegi Aur Acchi Baat Batana Bhi Sadqa Hai.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Agar Log Namaz-e-Fajr Ka Sawab Aur Fazeelat Ko Jaan Le To Raat Ko Is Khauf Se Sona Chhod Denge Ki Kahi Neend Ki Wajah Se Namaz Na Choot Jaye.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

NAMAZ ki Fikr Apne Upar Farz Karlo, Khuda Ki Qasam Duniya Ki Fikr Se Azad Hojaoge Aur Kamyabi Tumhare QADAM Choomegi.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Apna Behatreen Waqt Namaz Ke Liye Muqarrar Kar Do, Kyunki Tumhare Sab Kaam Tumhari Namaz Ke Baa'is Qubool Honge.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Aye Insan Agar Tujhe Yeh Maloom Ho Jaye Ki Sajde Ke Dauran Tujh Par Kitni Rehmatein Nazil Hoti Hai To Tu Kabhi Sajde Se Sar Uthayega Hi Nahi.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Apni Kismat Pe Wo Rota Hai Jo Sajde Me Nahi Rota.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Namaz Padhne Ke Dauran Tumhari Kaifiyat In Do Me Se Ek Honi Chahiye. (TUM ALLAH KO DEKH RAHE HO YA PHIR ALLAH TUMHE DEKH RAHA HAI)
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Duniya Me Char Dafa Waqt Ruk Gaya Tha…
Jab Nabi-e-Kareem Sallallahu Alaihi Wasallam Mairaj Par Gaye The.
Jab Hazrat Bilal Radiallahu Ta’ala Anhu Ne Azan Nahi Di Thi.
Jab Bibi fatima-tuz-Zehra Radiallahu Ta’ala Anha ke Sir Se Dupatta Saraq Gaya Tha Aur Do Baal Nazar Aa Rahe The.
Jab Hazrat Ali Radiallahu Ta’ala Anhu Ki Namaz Qaza Ho Gayi Thi.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Jab Log Kisi Ko Pasand Karty Hain To Uski Buraiyan Bhol Jatay Hain Aur Jab Kisi Say Nafrat Karty Hain To Uski Achaiyan Bhool Jatay Hain.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Nafrat Gunah Se Karo, Gunah Karne Wale Se Nahi. Shayad! Tumhari Mohabbat Me Aa Kar Wo Gunah Karna Hi Chhod De.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Wo Gunah Jis Ka Tumhe Ranj Ho, ALLAH Ke Nazdeeq Us Neki Se Behtar Hai Jis Se Tum Me Ghuroor Paida Ho Jaye.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Gunaah Jawaan Ka Bad Hai Magar Budhe Ka Badtar.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Logon k Dilon Mein Apna Maqam is Tarah Bana Lo K Mar Jao to Tumhare Liye Royain or Zinda Ho To Tumhen Milna Pasand Karein.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Kisi Ke Khuloos Aur Pyar Ko Uski Bewakoofi Mat Samjho, Warna Kisi Din Tum Khuloos Aur Pyar Talaash Karoge Aur Log Tumhe Bewakoof Samjhenge.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

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Koi Tumse Bhalai Ki Umeed Rakhe To Use Mayus Mat Karo, Kyunki Logon Ki Zaruraton Ka Tumse Waabasta Hona Tum Par Allah Ki Inayat Hai.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Jo Shakhs Hamesha Tumhara Bhala Chahe, Uska Udas Hona Tumhare Liye Fikr Ki Baat Hai.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Koi GUNAH Lazzat k liye mat karna q k Lazzat khatam ho jayegi GUNAH baqi rah jaega, aur koi NEKI taklif ki waja se mat chodna q k taklif khatam ho jaegi NEKI baqi rahjayegi !
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Tanhai Me Gunaah Se Bacho, Kyunki Iska Gawah Khud Allah'taala Hota Hai.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Ibn-e-Aadam! Jab Gunahon ke Bawajood Allah ke Naimatain Musalsal Tujhe Milti Rahe to Hoshiyaar ho Jana, Ke Tera Hisaab Qareeb aur Sakht Tareen Hai.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Jisne Kisi Ko Akele Mai Nasihat Ki Usne Usse Sawar Diya aur Jis ne Kisi Ko Sab Ke Samne Nasihat Ki Usne Usko Mazeed Bigaad Diya.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Log Pyar Ke Liye Hote Hai Aur Cheezein Istemaal Ke Liye. Baat Us Waqt Bigadti Hai Jab Cheezon Se Pyaar Aur Logon Ko Istmaal Kiya Jaye.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Aitbaar Aur Pyar Do Aise Parindey Hai Agar In Me Se Ek Udd Jaye To Doosra Khud Hi Udd Jata Hai.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Apne Dushman Ko 1000 Dafa Moqa Do K Wo Tumhara Dost Ban Jaaye Par Apne Dost Ko 1 Bhi Moqa Na Do K Wo Tumhara Dushman Banay.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Agar Dost Banana Tumhari Kamzori Hai To Tum Duniya Ke Sabse Taqtwar Insaan ho.
- Hazrat Ali Quotes About Friendship (Radiallahu Anhu)

Yeh Duniya Kitni Ajeeb Hai Imaandar Ko Bewaqoof, Be-Imaan Ko Aqalmand, Aur Behaya Ko Khoobsurat Kehti Hai.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

Agar Duniya Me Sukoon Hota To ALLAH Ko Kaun Yaad Karta. Sukoon To Sirf Unlogon Ke Paas Hai Jo ALLAH Ki Raza Ko Apni Raza Samajhte Hai.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Koshish Karo Ki Tum Duniya Me Raho, Duniya Tum Me Na Rahe. Kyunki Kashti Jab Tak Pani Me Rehti Hai, Khoob Terti Hai. Lekin Jab Pani Kashti Me Aa Jata Hai To Wo Doob Jati Hai.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Duniya Mein Behtreen Insaan Wo Hai Jiske Liye Koi Roye Aur Badtareen Insaan Wo Hai Jiski Wajah Se Koi Roye.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Agar Tumhain Yaqeen Ho Jaye ke Tumhara Rizq ALLAH K Paas Hai to Phir Rizq Ki Nahi ALLAH ki Talash Karo Jis K Paas Tumhara Rizq Hai.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Rizq Ke Peeche Apna Imaan Kharab Mat Karo. Kyunki Naseeb Ka Rizq Insaan Ko Aise Talaash Karta Hai Jaise Marne Wale Ko Maut.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Din Ko Rizq Talaash Karo Aur Raat Ko Use Talaash Karo Jo Tumhe Rizq Deta Hai.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Agar Rizq Aqal-o-Danish Se Milta To Jaanwar Aur Bewakoof Zinda Hi Na Rehte.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Agar tum kisi ko dhokha dene mein kamyaab ho jate ho to ye mat socho ki wo kitna bewaqoof hai, balki ye socho ki usko tum par aitbaar kitna tha.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Jhoothe Ki Sabse Badi Saza Yeh Hai Ki Uske Sach Ka Bhi Aitbaar Koi Nahi Karte.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

ALLAH ke Nazdeek Sabse Zyada Gunahgar Cheez Jhoot Bolne Wali Zaban Hai.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Tumhara Nafs Bohot Keemti Hai. Ise Jannat Se Kam Kisi Keemat Pe Mat Bechna.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Tumhare Nafs ki Keemat Jannat he Apne Nafs Ko Kabhi isse Kam Keemat Main Na Bechna.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Jab Aankhein Nafs ki Pasandeeda Cheezein Dekhne Lage To Dil Anjaam Se Andha Ho Jata hai.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Kisi ko Tum Chaho Aur Woh Tumhe Thukra De To Yeh Uski Badnaseebi hai. Aur Agar Koi Tumhe Na Chahe aur Tum Use Zabardasti Apna Banana Chaho To yeh Tumhare Nafs Ki Zillat Hai.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

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Great Words :-
1 Khalis Dosti Ek Accha Rishta Hai.
2 Agar Tum Badshah ho Tab Bhi Apne Walid or Ustad Ke Taazeem k Liye Khade Ho Jao.
3 Na Umeedi Se Rooh Mar Jati Hai.
4 Zuban Esa Darinda Hai Jise Agar Khula Chod Diya Jaye To Phaad khaye.
5 Neki Ka Iradah Hashra Ki Aag ko Bujata Hai.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Zindagi Ustaad Se Bhi Zyada Sakht Hoti Hai, Ustad Sabaq De Kar Imtehan Leta Hai Aur Zindagi Imtehan Le Kar Sabaq Deti Hai.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Gusse ki haalat me koi faisla mat karo aur agar khush ho to koi vaada mat karo.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Insaan Ka Kirdaar Uski Zaban Ke Neeche Dafan Hota Hai. Agar Kisi Shakhs Ke Kirdaar Ka Pata Lagana Ho To Use Sakht Gusse Ki Haalat Me Dekho.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

5 Cheezon ki 5 Jagah Par Hifazat Karo:
1-Mehfil Me Zaban Ki
2-Bazar Me Aankh Ki.
3-Namaz Me Dil Ki
4-Dastarkhan Par Pet Ki.
5-Nigah Me Haya Ki
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Jab Insaan Narazgi Khatam Karne Me Pehl Karta Hai To Iska Yeh Matlab Nahi Ki Wo Ghalat Tha, Iska Matlab Hai Ki Use Aan Se Zyada Rishta Aziz Hai.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Hamesha Apni Choti Choti Ghaltiyon se Bachne ki Koshish karo, kyunki Insaan Pahadon se Nahi Balki Chote Chote Pattharon se Thokar Khata Hai.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Tumhari Niyyat ki Aazmaish us Waqt hoti hai? Jab tum kisi aise Insaan ki madad karo jis se tumhe koi cheez ki umeed na ho.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Insaan Ko Acchi Niyyat Pe Wo Inaam Milta Hai, Jo Use Acche Aamal Par Bhi Nahi Milta.
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Agar Tumhe Ek Doosre Ki Niyyaton Ka Pata Chal Jaye, To Tum Ek Doosre Ko Dafnana Hi Chhod Doge.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

A Wise Man First Thinks and Then Speaks and a Fool Speaks First and then Thinks.
- Imam Ali Quotes on Knowledge (Radiallahu Anhu)

Jab Main Dastarkhan Par Do Rang Ke Khane Dekhta Hoon to Main Mayus Ho Jata Hoon ki Aaj Phir kisi ka HAQ Mara Gaya.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Pareshani Khamosh Hone Se Kam, Sabr Karne Se Khatam Aur Shukr Karne Se Khushi Me Badal Jati Hai.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Sabr Ki Do Surtein Hai. Jo Na-Pasand Ho Use Bardasht Karna Aur Jo Pasand Ho Uska Intezar Karna.
- Sayings of Hazrat Ali (Radiallahu Anhu)

Kabhi Bhi Apni Jismaani Taaqat Aur Daulat Par Bharosa Na Karna Kyunki Bimaari Aur Ghurbat Aane Me Der Nahi Lagti.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Tum Gulaab Ka Phool Ban Jao, Kyunki Yeh Phool Uske Haathon Me Bhi Khushboo Chhod Jata Hai Jo Ise Masal Kar Phenk Deta Hai.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Momin Woh Nahi Jiski MEHFIL Paak Hai, Momin Woh Hai Jiski TANHAI Paak Hai.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Agar Kisi Ko Yeh Ghuroor Ho Ki Wo Tumse Jitni Martaba Naraz Ho To Tum Use Mana Loge To Behtar Hai Tum Uska Ghuroor Tootne Na Do.
- Imam Ali Quotes About Life (Radiallahu Anhu)

Jo Tumhe Khushi Me Yaad Aaye Samajhlo Tum Us Se Mohabbat Karte Ho. Aur Jo Tumko Gham Me Yaad Aaye Samajhlo Wo Tumse Mohabbat Karta Hai.
- Hazrat Ali AS Quotes (Radiallahu Anhu)

Jab Tum Kisi Se Mohabbat Karo To Us Se Zara Bhi Mohabbat Na Maango, Kyunki Tum Ne Mohabbat Ki Hai Tijarat Nahi.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Jo Apne Aap Ko Mohtaaj Banata Hai Wo Hamesha Mohtaaj Hi Rehta Hai.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Azaadi Ki Hifazat Na Karne Wala Ghulami Me Giraftar Ho Jata Hai.
- Imam Ali Radiallahu Anhu

Lambi Umeedon Se Parhez Kiya Karo, Kyunki Yeh Doosri Neimaton Ko Tumhari Nazar Me Chota Bana Deti Hai Aur Tum Unki Shukr Guzari Nahi Karte.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Agar Tum Kisi Ko Chota Dekh Rahethe Ho To Tum Use Door Se Dekh Rahe Ho Ya Phir Ghuroor Se.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

Hazrat Ali Radiallahu Ta’ala Anhu Ne Farmaya Ki: "Main Poori Zindagi Me Sirf Ek Raat Sukoon Se Soya Hoon".Poocha Gaya "Wo Kaunsi"? Hazrat Ali Radiallahu Ta’ala Anhu ne farmaya: "Jis Din Huzur Alyhis-Salam Ne Farmaya Ki Aye Ali! Kal tumhe (Amanate) Maal-e-Ghanimat Taqseem Kar Ke Aana Hai. Kyunki Sirf Us Raat Mujhe Yaqeen Tha Ki Main Subha Zinda Uthunga"

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Kisi Ko Paane ki Tamanna Mat Karo, Balki is Qabil Ho jao Log Aapko Paane Ki Tamanna Kare..
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Agar Kisi Par Ehsaan Karo To Use Doosron Se Bhi Chupaya Karo.
- Wise Sayings of Imam Ali Radiallahu Anhu

Tum Kala Libaas Mat Pehna Karo, Kyunki Beshak Yeh Fir’on Ka Libaas Hai.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Har Kisi Ko Itni Ehmiyat Do Jitni Wo Tumko Deta Hai. Agar Kam Doge Ghamandi Kehlaoge Aur Agar Zyada Doge Khud Ghir Jaoge.
- Wise Sayings of Imam Ali Radiallahu Anhu

Mushkilat Hamesha Behtareen Logon Ke Hisse Me Aate Hai. Kyunki Wo Usko Behatreen Tareeqe Se Anjaam Dene Ki Salahiyat Rakhte Hai.
- Wise Sayings of Imam Ali Radiallahu Anhu

Kisi Se Mohabbat Karne Se Pehle Apne Dil Me Qabristan Banalo, Ta Ki Uski Choti Choti Ghaltiyon Ko Dafna Sako.
- Wise Sayings of Imam Ali Radiallahu Anhu

Hazrat Ali (RadiAllahu Anhu) Farmate Hai...
» Uss Waqt Tak Koi Faisla Na Karo Jab Tak Tumhare Khoon Ki Gardish Aur Dil Ke Dharkan Pur-Sukuun Na Ho Jaye.
» Jisne Tujhe Tere Aib Bataye Agar Tujhe Aqal Ho Tou Beshak Usne Tujh Par Ehsaan Ki Inteha Kardi.
» Insan Ka Apne Dushman Se Inteqam Ka Sab Se Accha Tarika Ye Hai Ki Wo Apni Khubiyo Me Izafa Kare.
» Jo Shakhs Tumhara Ghussa Bardasht Kar Le Aur Sabit Qadam Rahe, Wohi Tumhara Sacha Dost Hai.

Kisi Per Ehsan Karo Tou Uss Ko Chupao Agar Tum Per Koi Ehsan Kare Tou Usey Jahir Karo.
- Hazrat Ali AS Quotes (Radiallahu Anhu)

‘Gunaho Se Taubah Ka Faida Ye Hai Ki Sazaa Se Najat Milti Hai,
Buri Aadato Se Paak Hone Ka Faida Ye Hai Ki Jannat Aur Usme Unche Darjat Milte Hai.
Mehboob (Huzoor) Ki Khushi Ke Sath Nazdiki Ka Faida Ye Hai Ki Khusi Ke Sath Allah Ta’ala Ke Didar Ki KhushKhabri Milti Hai, Farishto Ki Ziyarat Ka Mauka Milta Hai, Buzurgi Me Barkat Hoti Hai”
– (Tohfa-e-Najat, Part-9 Page-87)

Boori Aadat Ki Taaqat Ka Andaza Tab Hota Hai Jub Usey Chodney Ki Koshish Ki Jaati Hai.
- Imam Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

“Agar Log Subah Ki Namaz Ka Sawaab Aur Fazilat Ko Jaan Len Tou Raat Ko Iss Darr Se Sona Chhorh De Ke Kahi Neend Ki Wajah Se Namaz Na Reh Jaye.”
- Islamic Quotes by Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Hazrat Ali (RadiAllahu Anhu) Farmate Hai Ke :
“Jab Tumhe Mehsoos Ho Ke Tumhari Tabiyat Ko Zikr-e-Khuda Se Mohabbat Ho Gayi Hai, Tou Jaan Jao Woh (Allah Ta’ala) Tumhe Pasand Karta Hai”.

(Aye Ibne Aadam!) Zaahir Par Na Ja! Aag Dekhne Me Surkh(Lal) Lagti Hai Par Uska Jalaya Hua Sia Ho Jata Hai, Pus Duniya Bazaahir Khubsurat Aur Uska Jalaya Hua Badd’surat Hai.
- Wise Sayings of Imam Ali Radiallahu Anhu

Jab Tum Sukoon Ki Kami Mehsoos Karo Tou Apne Rabb Ki Bargaah Me Taubah Karo, Kyun Ke Insan Ke Gunaah Hii Hai Jo Dil Ko Bechain Rakhte Hain.
- Shere Khuda Hazrat Ali Radiallahu Anhu

Hazrat Ali (Radi’Allahu Anhu) Se Pucha Gaya Ke Allah Qayamat Ke Din Ek (1) Hee Waqt Saari Kainaat Se Hisaab Kaise Lega ?
Hazrate Ali (Radi’Allahu Anhu) Ne Farmaya – Jaise 1 Hee Waqt Me Saari Kainaat Ko Rizq De Raha Hai.

Jiski Nigahain Azad Ho Uss Ka Dil Ranjeeda Hota Hai, Jo Baar Baar Azadaana Nigaah Karta Hai Wo Hamesha Hasrato Me Mubtla Rehta Hai.
- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)

“Soorat” Aur “Seerat” Me Sab Se Bada Farq Yeh He Ke Soorat “Dhoka” Deti He Jab Ke Seerat “Pehchaan” Karaati He.
- Hazrat Ali Sayings (Radiallahu Anhu)

Jo ‘Khuda’ Ko Naraaz Kar Ke Logo’n Ki Khush-Nudi Haasil Karna Chaahey Tou ‘Khuda’ Uss Ko Logo’n Par Hi Chod Deta Hai.
- Wise Sayings of Imam Ali Radiallahu Anhu

(Aye Ibne Aadam)! Ilm Haasil Kar, Ilm Dil Ko Roshni Deta Hai, Doulat Ki Laalach Se Bach, Doulat Ki Laalach Andha Bana Deti Hai.
- Imam Ali Quotes on Knowledge (Radiallahu Anhu)

Doosron K "Mahel" Mein Gulami Karne Se Behtar Hai K Insan Apni Jhonpdi Main Hukumat Kare.
- Hazrat Ali Ibn Abi Talib Radiallahu Anhu

Insaniyat Bahot Bada Khazana Hai Usey "Libaas" Mein Nahi "Insan" Mein Talash Karo.

- Hazrat Ali Quotes (Radiallahu Anhu)


एलान ऐ विलायत ,हजरत अली (अ.स ) ,ग़दीर और कुरान |

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हे पैग़म्बर! आपके पालनहार की ओर से जो आदेश आप पर उतारा गया है उसे (लोगों तक) पहुंचा दीजिए और यदि आपने ऐसा न किया तो मानो आपने उसके संदेश को पहुंचाया ही नहीं और (जान लीजिए कि) ईश्वर आपको लोगों से सुरक्षित रखेगा। निसन्देह, ईश्वर काफ़िरों का मार्गदर्शन नहीं करता। (5:67)


इस आयत में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो इसे, पहले और बाद की आयतों से अलग करती हैं। इसकी पहली विशेषता यह है कि इसमें पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को या अय्योहर्रसूल कह कर संबोधित किया गया है। इस प्रकार का संबोधन पूरे क़ुरआन में केवल दो बार ही आया है और दोनों बार इसी सूरए माएदा में इसका उल्लेख है।


दूसरी विशेषता यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम को एक ऐसे विषय को पहुंचाने का दायित्व सौंपा गया है जिसे उनकी समस्त पैग़म्बरी के बराबर बताया गया है। इस प्रकार से कि यदि उन्होंने इस बात को लोगों तक नहीं पहुंचाया तो मानो उन्होंने ईश्वरीय दायित्व को पूरा ही नहीं किया।

तीसरी विशेषता यह है कि ईश्वर के निकट इस विषय का अत्यधिक महत्त्व होने के बावजूद, इसे पहुंचाने के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम चिन्तित हैं। उन्हें इस बात का भय है कि लोग इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

आयत के अंत में ईश्वर उन लोगों को, जो द्वेष और शत्रुता के कारण इस महत्त्वपूर्ण बात का इन्कार करें, धमकी देता है कि वे लोग ईश्वर के विशेष मार्गदर्शन से वंचित हो जाएंगे।


अब यह देखना चाहिए कि यह कौन सा महत्त्वपूर्ण विषय था जिसे बिना किसी डर के लोगों तक पहुंचाने का पैग़म्बर को दायित्व सौंपा गया था और कहा गया था कि इस बारे में वे लोगों के विरोध से न डरें?


पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के जीवन के अन्तिम वर्ष में इन आयतों के उतरने के दृष्टिगत स्पष्ट है कि यह विषय नमाज़, रोज़ा, हज, जेहाद या और कोई अन्य अनिवार्य धार्मिक कर्म नहीं था क्योंकि इन सब बातों के बारे में पहले के वर्षों में बयान किया जा चुका था और उन पर कार्य भी हो रहा था।
तो फिर पैग़म्बरे इस्लाम की पवित्र आयु के अन्तिम दिनों में यह कौन सा इतना महत्त्वपूर्ण विषय है जिस पर ईश्वर बल देता है और पैग़म्बर भी मिथ्याचारियों की ओर से उसके विरोध को लेकर चिन्तित हैं?



यह एकमात्र मामला, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी और इस्लाम व मुसलमानों के भविष्य का हो सकता है जिसमें यह सारी विशेषताएं हों। इसी कारण सुन्नी मुसलमानों में क़ुरआन के बड़े-बड़े व्याख्याकारों ने इस आयत की संभावनाओं के रूप में पैग़म्बर के उत्तराधिकार को स्वीकार किया है और इससे संबंधित घटनाओं तथा कथनों का अपनी तफ़सीरों में उल्लेख किया है।


अलबत्ता शीया मुसलमानों का, जो क़ुरआन की व्याख्या को पैग़म्बर के परिजनों के कथनों के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार करते हैं, यह मानना है कि यह आयत हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का उत्तराधिकारी बनाने के बारे में उतरी है। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने अंतिम हज से वापस होते समय ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर हाजियों को रोका और उसके पश्चात वे एक ऊंचे स्थान पर गए और उन्होंने अपने स्वर्गवास के निकट आने की घोषणा करने के पश्चात अपनी पैग़म्बरी के 23 वर्षों में अपने सबसे निकट अनुयायी अर्थात हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित किया और कहाः
मन कुंतो मौलाहो फ़हाज़ा अलीयुन मौलाहो अर्थात जिस-जिस का मैं स्वामी और अभिभावक था, मेरे पश्चात अली उसके स्वामी और अभिभावक हैं। फिर आपने कहा जो कोई इस समूह में उपस्थित है वह, अनुपस्थित लोगों तक यह समाचार पहुंचा दे।


पैग़म्बर के कथनों के समाप्त होते ही उस समय के बड़े-बड़े मुसलमानों तथा उपस्थित सभी लोगों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बर का उत्तराधिकारी बनने की बधाई दी और उन्हें पैग़म्बर के पश्चात अपना अभिभावक स्वीकार किया।

कुछ लोगों का कहना है कि पैग़म्बर का तात्पर्य हज़रत अली से मित्रता और प्रेम रखने से था न कि उनकी अभिभावकता तथा नेतृत्व से। स्पष्ट है कि किसी भी मुसलमान को हज़रत अली अलैहिस्सलाम से पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से प्रेम के बारे में कोई संदेह नहीं था कि पैग़म्बर उतने बड़े समूह में और वह भी अपनी आयु के अंतिम दिनों में इस बात पर बल देते तथा उनके बड़े-बड़े अनुयायी इसे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए एक बड़ी सफलता मानते।

प्रत्येक दशा में इस आयत का उतरना और इसकी विशेषताएं यह दर्शाती हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तरदायित्व, प्रेम और मित्रता की घोषणा से कहीं बढ़कर था। यह बात किसी भावनात्मक विजय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी। यह विषय इस्लामी समुदाय से संबंधित था और वह भी सबसे महत्वपूर्ण विषय अर्थात पैग़म्बर के पश्चात इस्लामी समाज के नेतृत्व और मार्गदर्शन का विषय।
इस आयत से हमने सीखा कि यदि इस्लामी समुदाय का नेतृत्व ऐसे भले लोगों के हाथों में न हो, जिन्हें ईश्वर ने निर्धारित किया हो, तो धर्म का आधार ख़तरे में है।


पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को जिस बात से चिंता थी वह बाहरी शत्रुओं का ख़तरा नहीं था बल्कि आंतरिक दंगों, विरोधों और उल्लंघनों का ख़तरा था।

हदीसे ग़दीर का वर्णन पैग़म्बर (स.) के एक सौ दस सहाबियों ने किया है।

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ग़दीर का नाम तो हम सभी ने सुना है। यह स्थान मक्के और मदीने के मध्य, मक्के शहर से तक़रीबन 200 किलोमीटर की दूरी पर जोहफ़े [1] के पास स्थित है। यह एक चौराहा है,यहाँ पहुँच कर विझिन्न क्षेत्रों से आये हाजी लोग एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।
उत्तर की ओर का रास्ता मदीने की तरफ़, दक्षिण की ओर का रास्ता यमन की तरफ़,पूरब की ओर का रास्ता इराक़ की तरफ़ और पश्चिम की ओर का रास्ता मिस्र की तरफ़ जाता है।
आज कल यह स्थान भले ही आकर्षण का केन्द्र न रहा हो परन्तु एक दिन यही स्थान इस्लामिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण धटना का साभी था। और यह घटना 18 ज़िलहिज्जा सन् 10 हिजरी की है, जिस दिन हजरत अली अलैहिस्सलाम को रसूले अकरम (स.) के उत्तराधिकारी के  पद पर नियुक्त  किया गया।.

पूर्व में तो विभिन्न खलिफ़ाओं ने सियासत के अन्तर्गत इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को मिटाने का प्रयास किया और आज कुछ मुतास्सिब लोग इसको मिटाने या कम रंग करने की कोशिशे कर रहे हैं। लेकिन यह घटना इतिहास,हदीस और अर्बी साहित्य में इतनी रच बस गई है कि इसको मिटाया या छुपाया नही जा सकता।
आप इस किताबचे में ग़दीर के सम्बन्ध में ऐसी ऐसी सनदें और हवाले पायेंगे कि उन को पढ़ कर अचम्भित रह जायेंगे। जिस घटना के लिए असंख्य दलीलें और सनदें हो भला उसको किस प्रकार भुलाया या छुपाया जा सकता है ?
उम्मीद है कि यह तर्क पूर्ण विवेचना व समस्त सनदें जो अहले सुन्नत की किताबों से ली गई हैं मुसलमानों के विभिन्न समुदायों को एक दूसरे से क़रीब करने का साधन बनेगी और पूर्व में लोग जिन वास्तविक्ताओं से सादगी के साथ गुज़र गये हैं, वह इस समय सबके आकर्षण का केन्द्र बनेंगी विशेष रूप से जवान नस्ल की।

हदीसे ग़दीर

हदीसे ग़दीर अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बिला फ़स्ल विलायत व खिलाफ़त के लिए एक रौशन दलील है और मुहक़्क़ेक़ीन इसको बहुत अधिक महत्व देते हैं।
लेकिन अफ़सोस है कि जो लोग आप की विलायत से बचना चाहते हैं वह कभी तो इस हदीस की सनद को निराधार बताते हैं और कभी इस की सनद को सही मानते हैं परन्तु इसकी दलालत से मना करते हैं।
इस हदीस की हक़ीक़त को प्रत्यक्ष करने के लिए ज़रूरी है कि सनद और दलालत के बारे में विशवसनीय किताबों के माध्यम से बात की जाये।

ग़दीरे ख़ुम का दृश्य

सन् दस हिजरी के आखिरी माह (ज़िलहिज्जा) में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपने जीवन का अन्तिम हज किया और मुसलमानों ने रसूले अकरम (स.) से इस्लामी हज के तरीक़े को सीखा। जब हज समाप्त हुआ तो रसूले अकरम (स.) ने मदीने जाने के उद्देश्य से मक्के को छोड़ने का इरादा किया और क़ाफ़िले को चलने का आदेश दिया। जब यह क़ाफ़िला जोहफ़े [2] से तीन मील के फ़ासले पर राबिग़ [3] नामी क्षेत्र में पहुँचा तो ग़दीरे खुम नामी स्थान पर जिब्राइले अमीन “वही” लेकर नाज़िल हुए और रसूले अकरम को इस आयत के द्वारा सम्बोधित किया ।
“ या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिक व इन लम् तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नास”[4]
ऐ रसूल उस संदेश को पहुँचा दीजिये जो आपके परवर दिगार की ओर से आप पर नाज़िल हो चुका है और अगर आप ने ऐसा न किया तो ऐसा है जैसे आपने रिसालत का कोई काम अंजाम नही दिया। अल्लाह, लोगों के शर से आप की रक्षा करेगा।
आयत के अंदाज़ से मालूम होता है कि अल्लाह ने एक ऐसा महान कार्य रसूल अकरम (स.) के सुपुर्द किया है जो पूरी रिसालत के पहुँचाने के बराबर और दुश्मनो की मायूसी का कारण भी है। इससे महान कार्य और क्या हो सकता है कि एक लाख से ज़्यादा लोगों के सामने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने खलीफ़ा व उत्तराधिकारी के पद पर नियुकित करें ?
अतः क़ाफ़िले को रूकने का आदेश दिया गया। इस आदेश को सुन कर जो लोग क़ाफ़िले से आगे चल रहे थे रुक गये और जो पीछे रह गये थे वह भी आकर क़ाफ़िले से मिल गये। ज़ोहर का वक़्त था और गर्मी अपने शबाब पर थी। हालत यह थी कि कुछ लोगों ने अपनी अबा(चादर) का एक हिस्सा सिर पर और दूसरा हिस्सा पैरों के नीचे दबा रखा था। पैगम्बर के लिए एक दरख्त पर चादर डाल कर सायबान तैयार किया गया। पैगम्बर ऊँटो के कजावों को जमा करके बनाये गये मिम्बर पर खड़े हुए और ऊँची आवाज़ मे एक खुत्बा (भाषण) दिया जिसका साराँश यह है।

ग़दीरे खुम में पैगम्बर का खुत्बा

“हम्दो सना (हर प्रकार की प्रशंसा) अल्लाह की ज़ात से समबन्धित है। हम उस पर ईमान रखते हैं और उसी पर भरौसा करते है तथा उसी से सहायता चाहते हैं। हम बुराई, और अपने बुरे कार्यों से बचने के लिए उसके यहाँ शरण चाहते हैं। वह अल्लाह जिसके अलावा कोई दूसरा मार्ग दर्शक नही है। मैं गवाही देता हूँ कि उसके अलावा कोई माबूद नही है और मुहम्मद उसका बंदा और पैगम्बर है।
हाँ! ऐ लोगो वह वक़्त क़रीब है कि मैं अल्लाह के बुलावे को स्वीकार करता हुआ तुम्हारे बीच से चला जाऊँ। उसके दरबार में तुम भी उत्तरदायी हो और मै भी। इसके बाद कहा कि मेरे बारे में तुम्हारा क्या विचार है? क्या मैनें तुम्हारे प्रति अपनी ज़िम्मेदारीयों को पूरा कर दिया है ?
यह सुन कर सभी लोगों ने रसूले अकरम (स.) की सेवाओं की पुष्टी की और कहा कि हम गवाही देते हैं कि आपने अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा किया और बहुत मेहनत की अल्लाह आपको इसका सबसे अच्छा बदला दे।
पैगम्बर ने कहा कि “क्या तुम गवाही देते हो कि इस पूरी दुनिया का माबूद एक है और मुहम्मद उसका बंदा व रसूल है और जन्नत, जहन्नम व परलोक के अमर जीवन में कोई शक नही है ?
सबने कहा कि “ सही है हम गवाही देते हैं।”
इसके बाद रसूले अकरम (स.) ने कहा कि “ऐ लोगो मैं तम्हारे मध्य दो महत्वपूर्ण चीज़े छोड़ रहा हूँ मैं देखूँगा कि तुम मेरे बाद मेरी इन दोनो यादगारों के साथ क्या सलूक करते हो।”
उस वक़्त एक इंसान खड़ा हुआ और ऊँची आवाज़ मे सवाल किया कि इन दो महत्वपूर्ण चीज़ों से क्या अभिप्रायः है ?
पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा कि “एक अल्लाह की किताब है जिसका एक सिरा अल्लाह की क़ुदरत में है और दूसरा सिरा तुम्हारे हाथों में और दूसरे मेरी इतरत और अहले बैत हैं अल्लाह ने मुझे खबर दी है कि यह कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं  होंगे।”
हाँ! ऐ लोगो क़ुरआन व मेरी इतरत से आगे न बढ़ना और दोनो के आदेशों के पालन में किसी प्रकार की कमी न करना, वरना हलाक हो जाओगे।
उस वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम का हाथ पकड़ इतना ऊँचा उठाया कि दोनो की बग़ल की सफ़ैदी सबको नज़र आने लगी और सब लोगों को हज़रत अली   (अ.) से परिचित कराया।
इसके बाद कहा “मोमेनीन पर स्वयं उनसे ज़्यादा कौन अधिकार रखता है ?
सब ने कहा कि “अल्लाह और उसका रसूल अधिक जानते हैं।”
पैगम्बर स. ने कहा कि-
“अल्लाह मेरा मौला है और मैं मोमेनीन का मौला हूँ और मैं उनके ऊपर उनसे ज़्यादा अधिकार रखता हूँ, हाँ! ऐ लोगो “मनकुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा अलीयुन मौलाहु [5] अल्लाहुम्मा वालि मन वालाहु व आदि मन आदाहु व अहिब्बा मन अहिब्बहु व अबग़िज़ मन अबग़ज़हु व अनसुर मन नसरहु व अख़ज़ुल मन ख़ज़लहु व अदरिल हक़्क़ा मआहु हैसो दारा। ”
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के यह अली मौला हैं। ऐ अल्लाह उसको दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे और उसको दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, उस से मुहब्बत कर जो अली से मुहब्बत करे और उस पर ग़ज़बनाक (परकोपित) हो जो अली पर ग़ज़बनाक हो, उसकी मदद कर जो अली की मदद करे और उसको रुसवा कर जो अली को रुसवा करे और हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़ें।” [6] ऊपर लिखे खुत्बे[7]को अगर इंसाफ़ के साथ देखा जाये तो जगह जगह पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम की इमामत की दलीलें मौजूद हैं।(हम इस कथन की व्याख्या का वर्णन आगे करेंगे।)

हदीसे ग़दीर की अमरता

अल्लाह का यह हकीमाना इरादा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना एक ज़िन्दा हक़ीक़त के रूप मे हर ज़माने में बाक़ी रहे, लोगों के दिल इसकी ओर आकर्षित होते रहें और इस्लामी लेखक तफ़्सीर, हदीस, कलाम और इतिहास की किताबों में इसके बारे में हर ज़माने में लिखते रहें, मज़हबी वक्ता इसको वाज़ो नसीहत की मजालिस में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अविस्मर्णीय फ़ज़ायल की सूरत में बयान करते रहें। और केवल वक्ता ही नही बल्कि शाईर भी अपने साहित्यिक भाव, चिंतन और इखलास के द्वारा इस घटना को चार चाँद लगायें और विभिन्न भाषाओं में अलग अलग तरीक़ों से बेहतरीन शेर कह कर अपनी यादगार के तौर पर छोड़ें।(मरहूम अल्लामा अमीनी ने विभिन्न सदियों में ग़दीर के बारे में कहे गये महत्वपूर्ण शेरों को शाइर के जीवन के हालात के साथ ईस्लाम की प्रसिद्ध किताबों से नक़्ल करके अपनी किताब “अल ग़दीर” में जो कि 11 जिल्दों पर आधारित है, बयान किया है।)
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दुनिया में ऐसी ऐतिहासिक घटनायें बहुत कम हैं जो ग़दीर की तरह मुहद्दिसों, मुफ़स्सिरों, मुतकल्लिमों, फलसफ़ियों, खतीबों, शाइरों, इतिहासकारों और सीरत लिखने वालों की तवज्जौह का केन्द्र बनी हों।
इस हदीस के अमर होने का एक कारण यह है कि इस घटना से सम्बन्धित दो आयतें क़ुराने करीम में मौजूद हैं।[8] अतः जब तक क़ुरआन बाक़ी रहेगा यह ऐतिहासिक घटना भी ज़िन्दा रहेगी।
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दिलचस्प बात यह है कि इतिहास को ध्यान पूर्वक पढ़ने से यह मालूम होता है कि अठ्ठारहवी ज़िलहिज्जातुल हराम   मुसलमानों के मध्य रोज़े ईदे ग़दीर के नाम से मशहूर थी। यहाँ तक कि इब्ने ख़लकान अलमुस्ताली इब्ने अलमुस्तनसर के बारे में लिखता है कि “ सन् 487 हिजरी में ईदे ग़दीरे खुम के दिन जो कि अठ्ठारह ज़िलहिज्जातुल हराम है लोगों ने उसकी बैअत की।”[9] और अल मुस्तनसर बिल्लाह के बारे में लिखता है कि “सन् 487 हिजरी में जब ज़िलहिज्जा माह की आखरी बारह रातें बाक़ी रह गयी तो वह इस दुनिया से गया और जिस रात में वह दुनिया से गया वह ज़िलहिज्जा मास की अठ्ठारवी रात थी जो कि शबे ईदे ग़दीर है।”[10]
यह बात भी दिलचस्प है कि अबुरिहाने बैरूनी ने अपनी किताब आसारूल बाक़िया में ईदे ग़दीर को उन ईदों में गिना है जिनका आयोजन सभी मुसलमान किया करते थे और खुशिया मनातें थे।[11]
सिर्फ़ इब्ने खलकान और अबुरिहाने बैरूनी ने ही इस दिन को ईद का दिन नही कहा है बल्कि अहले सुन्नत के प्रसिद्ध आलिम सआलबी ने भी शबे ग़दीर को मुस्लिम समाज के मध्य मशहूर मानी जाने वाली शबों में गिना है।[12]
इस इस्लामी ईद की बुनियाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही पड़ गई थी। क्योंकि आप ने इस दिन तमाम मुहाजिर, अंसार और अपनी पत्नियों को आदेश दिया था, कि हज़रत अली (अ.) के पास जा कर उन को इमामत व विलायत के सम्बन्ध में मुबारक बाद दें।
 ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं कि अबु बकर, उमर उस्मान, तलहा व ज़ुबैर मुहाजेरीन में से वह पहले इंसान थे जिन्होनें हज़रत अली (अ.) के हाथ पर बैअत कर के मुबारकबाद दी। बैअत व मुबारक बादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा।[13]
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इस हदीस का वर्णन पैग़म्बर (स.) के एक सौ दस सहाबियों ने किया है।

इस ऐतिहासिक घटना के महत्व के लिए इतना ही काफ़ी है कि इसका वर्णन पैगम्बरे अकरम (स.) के 110 सहाबियों ने किया है।[14]
लेकिन इस वाक्य का अर्थ यह नही है कि सहाबियों की इतनी बड़ी सँख्यां में से केवल इन्हीं सहाबियों ने इस घटना का वर्णन किया है। बल्कि इससे यह अभिप्रायः है कि अहले सुन्नत के उलमा ने जो किताबें लिखी हैं उनमें सिर्फ़ इन्हीं 110 सहाबियों का वर्णन मिलता है।
दूसरी सदी में जिसको ताबेआन का दौर कहा गया है इनमें से 89 इंसानों ने इस हदीस का वर्णन किया है।
बाद की सदीयों में भी अहले सुन्नत के 360 विद्वानो ने इस हदीस का उल्लेख अपनी किताबों में किया है तथा विद्वानों के एक बड़े गिरोह ने इस हदीस की सनद को सही स्वीकार किया है।
विद्वानों के इस गिरोह ने केवल इस हदीस का उल्लेख ही नही किया, बल्कि इस हदीस की सनद और दलालत के सम्बन्ध में विशेष रूप से किताबें भी लिखी हैं।
अजीब बात यह है कि इस्लामी समाज के सबसे बड़े इतिहासकार तबरी ने “अल विलायतु फ़ी तुरुक़ि हदीसिल ग़दीर” नामी किताब लिखी और पैगम्बर (स.) की इस हदीस का 75 प्रकार से उल्लेख किया।
इब्ने उक़दह कूफ़ी ने अपने रिसाले “विलाय़त” में इस हदीस का उल्लेख  105 व्यक्तियों के माध्यम से किया है।
अबु बकर मुहम्मद बिन उमर बग़दादी ने जो कि जमआनी के नाम से मशहूर हैं, इस हदीस का वर्णन 25 तरीक़ों से किया है।
* * *
अहले सुन्नत के वह मशहूर विद्वान जिन्होनें इस हदीस का उल्लेख बहुतसी सनदों के साथ किया है।[15]
इब्ने हंबल शेबानी
इब्ने हज्रे अस्क़लानी
जज़री शाफ़ेई
अबु सईदे सजिस्तानी
अमीर मुहम्मद यमनी
निसाई
अबुल आला हमदानी
अबुल इरफ़ान हब्बान
शिया विद्वानों ने भी इस ऐतिहासिक घटना के बारे में अहले सुन्नत की मुख्य किताबों के हवालों के साथ बहुत सी महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। इनमें से एक विस्तृत किताब “अलग़दीर” है जो इस्लामी समाज के मशहूर लेखक स्वर्गीय अल्लामा आयतुल्लाह अमीनी की लेखनी का चमत्कार है। (इस लेख को लिखने के लिए इस किताब से बहुत अधिक सहायता ली गई है।)
परिणाम स्वरूप पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अमीरूल मोमेनीन अली (अ.) को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद कहा “ कि ऐ लोगो अभी जिब्राईल मुझ पर नाज़िल हुए और यह आयत लाये हैं कि (( अलयौम अकमलतु लकुम दीनाकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुमुल इस्लामा दीना))[16] आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।”
उस वक़्त पैगम्बर ने तकबीर कही और कहा “ अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि उसने अपने विधान व नेअमतों को पूर्ण किया और अली (अ.) से मेरे उत्तराधिकारी के रूप में प्रसन्न हुआ।”
इसके बाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) मिम्बर से नीचे तशरीफ़ लाये और हज़रत अली (अ.) से कहा  कि “ आप खेमें (शिविर) में लशरीफ़ ले जायें ताकि इस्लाम की बुज़ुर्ग व्यक्ति और सरदार आपकी बैअत कर के आप को मुबारक बाद दे सकें। ”
सबसे पहले शेख़ैन (अबु बकर व उमर) ने अली अलैहिस्सलाम को को मुबारक बाद दी और उनको अपना मौला स्वीकार किया।
हस्सान बिन साबित ने मौक़े से फ़ायदा उठाया और पैगम्बरे इस्लाम (स.) से आज्ञा प्राप्त कर के एक क़सीदा (पद्य की वह पंक्तियाँ जो किसी की प्रशंसा में कही गई हों) कहा और पैगम्बरे अकरम (स.) के सामने उसको पढ़ा। यहाँ पर हम उस क़सीदे के केवल दो महत्वपूर्ण शेरों का ही वर्णन कर रहें हैं।
फ़ाक़ाला लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बअदी इमामन व हादीयन।।
फ़मन कुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा वलीय्युहु।
फ़कूनू लहु अतबाआ सिदक़िन मवालियन।।
अर्थात अली (अ.) से कहा कि उठो कि मैंनें आपको अपने उत्तराधिकारी और अपने बाद लोगों के मार्ग दर्शक के रूप में टुन लिया है।
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। तुम उनको दिल से दोस्त रखते हो बस उनका अनुसरन करो।[17]
यह हदीस इमाम अली अलैहिस्सलाम के, तमाम सहाबा से श्रेष्ठ होने को सिद्ध करती है।
यहाँ तक कि अमीरूल मोमेनीन ने मजलिसे शूरा-ए-खिलाफ़त में (जो कि दूसरे खलीफ़ा के मरने के बाद बनी),[18]
उसमान की खिलाफ़त के ज़माने में और स्वयं अपनी खिलाफ़त के समय में भी इस पर विरोध प्रकट किया है।[19]
इसके अलावा हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जैसी महान शख्सियत नें हज़रत अली अलैहिस्सलाम की श्रेष्ठता से इंकार करने वालों के सामने इसी हदीस को तर्क के रूप में प्रस्तुत किया।[20]
* * *

मौला से क्या अभिप्रायः है ?

यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण मसअला मौला के अर्थ की व्याख्या है। जिस की ओर से बहुत अधिक लापरवाही बरती जाती है। क्योंकि इस हदीस के बारे में जो कुछ बयान किया गया है उससे इस हदीस की सनद के सही होने के सम्बन्ध में कोई शक बाक़ी नही रह जाता। अतः बहाना बाज़ लोग इस हदीस के अर्थ व उद्देश्य में शक पैदा करने में जुट जाते हैं, विशेष रूप से मौला शब्द के अर्थ में। परन्तु वह इसमें भी सफल नही हो पाते।
विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मौला शब्द इस हदीस में बल्कि अधिकाँश स्थानों पर एक से ज़्यादा अर्थ नही देता और वह “ औलवियत ” है। क़ुरआन की बहुतसी आयतों में मौला शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है।
क़ुरआने करीम में मौला शब्द 18 आयतों में प्रयोग हुआ है जिनमें से 10 स्थानों पर यह शब्द अल्लाह के लिए प्रयोग हुआ है ज़ाहिर है कि अल्लाह का मौला होना उसकी औलवियत के अर्थ में है। याद रहे कि मौला शब्द बहुत कम स्थानों पर ही दोस्त के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
इस आधार पर “मौला” के प्रथम अर्थ औला में किसी प्रकार का कोई शक नही करना चाहिए। हदीसे ग़दीर में भी “ मौला” शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है। इसके अलावा इस हदीस के साथ बहुत से ऐसे क़रीने मौजूद हैं जो इस बात को साबित करते हैं कि यहाँ पर मौला से अभिप्रायः औला ही है।
* * *
इस दावे की दलीलें
अगर यह भी मान लिया जाये कि अरबी भाषा में “मौला” शब्द के बहुत से अर्थ हैं, फिर भी ग़दीर की इस महान ऐतिहासिक घटना व हदीस के बारे में बहुत से ऐसे तथ्य मौजूद हैं जो हर प्रकार के संदेह को दूर कर के वास्तविक्ता को सिद्ध करते हैं।

पहली दलील

जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना के दिन रसूले अकरम (स.) के शाइर हस्सान बिन साबित ने रसूले अकरम (स.) से इजाज़ लेकर आप के वक्तव्य को काव्य के रूप में परिवर्तित किया। इस फ़सीह, बलीग़ व अर्बी भषा के रहस्यों के ज्ञाता इंसान ने “मौला” शब्द के स्थान पर इमाम व हादी शब्दों का प्रयोग किया और कहा कि
फ़क़ुल लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बादी इमामन व हादियन।।[21]
अर्थात पैगम्बर (स.) ने अली (अ.) से कहा कि ऐ अली उठो कि मैनें तमको अपने बाद इमाम व हादी के रूप में चुन लिया है।
ज़ाहिर है कि शाइर ने मौला शब्द को जिसे पैगम्बर (स.) ने अपने वक्तव्य में प्रयोग किया था, इमाम, पेशवा, हादी के अलावा किसी अन्य अर्थ में प्रयोग नही किया है। जबकि कि यह शाइर अरब के फ़सीह व अहले लुग़त[22] व्यक्तियों में गिना जाता है।
और अरब के केवल इस महान शाइर हस्सान ने ही मौला शब्द को इमामत के अर्थ में प्रयोग नही किया है बल्कि उसके बाद आने वाले तमाम इस्लामी शाइरों ने जिनमें से अधिकाँश अरब के मशहूर शाइर व साहित्यकार माने जाते हैं और इनमें से कुछ को तो अरबी भषा का उस्ताद भी समझे जाते हैं उन्होंने भी मौला शब्द से वही अर्थ लिया हैं जो हस्सान ने लिया था। अर्थात इमामत।
* * *

दूसरी दलील

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जो शेर मुआविया को लिखे उनमें हदीसे ग़दीर के बारे में यह कहा कि
व औजबा ली विलायतहु अलैकुम।
रसूलुल्लाहि यौमा ग़दीरि खुम्मिन।।[23] 
अर्थात अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने मेरी विलायत को तुम्हारे ऊपर ग़दीर के दिन वाजिब किया है।
इमाम से बेहतर कौन शख्स है जो हमारे लिए इस हदीस की व्याख्या कर सके और बताये कि ग़दीर के दिन अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने विलायत को किस अर्थ में प्रयोग किया है ? क्या यह व्याख्या यह नही बताती कि ग़दीर की घटना में मौजूद समस्त लोगों ने (मौला शब्द से) इमामत के अतिरिक्त कोई अन्य अर्थ नही समझा था ?
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तीसरी दलील

पैगम्बर (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु कहने से पहले यह सवाल किया कि “ आलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम ?”  क्या मैं तुम्हारे ऊपर तुम से  ज़्यादा अधिकार नही रखता हूँ ?
पैगम्बर के इस सवाल में लफ़्ज़े औवला बि नफ़सिन का प्रयोग हुआ है। पहले सब लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लिया और उसके बाद निरन्तर कहा कि “ मन कुन्तु मौलाहु फ़ाहाज़ा अलीयुन मौलाहु ” अर्थात जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।
इन दो वाक्यों को आपस में मिलाने से पैग़म्बरे इस्लाम (स.) क्या उद्देश्य है ? क्या इसके अलावा और कोई उद्देश्य हो सकता है कि कुरआन के अनुसार जो स्थान पैगम्बरे अकरम (स.) को प्राप्त है वही अली (अ.) के लिए भी साबित करें ? सिर्फ़ इस फ़र्क़ के साथ कि वह पैगम्बर हैं और अली इमाम, नतीजे में हदीसे ग़दीर का अर्थ यह हों जाता हैं कि जिस जिस से मुझे औलवियत की निस्बत है उस उस से अली (अ.) को भी औलवियत की निस्बत है।[24] अगर पैगम्बर (स.) का इसके अलावा और कोई उद्देश्य होता तो लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लेने की ज़रूरत नही थी। यह इंसाफ़ से कितनी गिरी हुई बात है कि इंसान पैगम्बर इस्लाम (स.) के इस पैग़ाम को नज़र अंदाज़ करे दे और हज़रत अली (अ.) की विलायत की ओर से आँखें बन्द कर के ग़ुज़र जाये।
* * *

चौथी दलील

पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने कलाम के आग़ाज़ में लोगों से इस्लाम की तीन आधार भूत मान्यताओं का इक़रार लिया और कहा “ आलस्तुम तश्हदूना अन ला इलाहा इल्ला अल्लाह व अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु व अन्नल जन्नता हक़्क़ुन व अन्नारा हक़्क़ुन ? ” अर्थात क्या तुम गवाही देते हो कि अल्लाह के अलावा और कोई माअबूद नही है, मुहम्मद उसके बंदे व रसूल हैं और जन्नत व दोज़ख़ हक़ हैं ?
इन सब का इक़रार कराने से क्या उद्देश्य था ? क्या इसके अलावा कोई दूसरा उद्देश्य था कि वह अली (अ.) के लिए जिस स्थान को साबित करना चाहते थे उसके लिए लोगों के ज़हन को तैयार कर रहे थे ताकि वह अच्छी तरह समझलें कि विलायत व खिलाफ़त का इक़रार दीन के उन तीनो उसूलों के समान है जिनका तुम सब इक़रार करते हो ? अगर “मौला” का अर्थ दोस्त या मददगार मान लें तो इन वाक्यों का आपसी ताल मेल ख़त्म हो जायेगा और कलाम की कोई अहमियत नही रह जायेगी। क्या ऐसा नही है ?
* * *

पाँचवी दलील

पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने ख़ुत्बे (भाषण) के शुरू में अपनी रेहलत (मृत्यु) के बारे में ख़बर देते हुए कहा हैं कि “ इन्नी औशकु अन उदआ फ़उजीबा” अर्थात क़रीब है कि मुझे बुलाया जाये और मैं चला जाऊँ।[25]
यह जुमला इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि पैगम्बर यह चाहते हैं कि अपने बाद के लिए कोई इंतेज़ाम करें और अपनी रेहलत (मृत्यु) के बाद पैदा होने वाले ख़ाली स्थान पर किसी को नियुक्त करें। जो रसूले अकरम (स.) की रेहलत के बाद तमाम कार्यों की बाग डोर अपने हाथों मे संभाल ले।
जब भी हम विलायत की तफ़्सीर खिलाफ़त के अलावा किसी दूसरी चीज़ से करेंगे तो पैगम्बरे अकरम (स.) के जुमलों में पाया जाने वाला मनतक़ी राब्त टूट जायेगा। जबकि वह सबसे ज़्यादा फ़सीह व बलीग़ कलाम करने वाले हैं। मसल-ए- विलायत के लिए इससे रौशनतर क़रीना और क्या हो सकता है।
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छटी दलील

पैगम्बरे अकरम (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु....... जुमले के बाद कहा कि “ अल्लाहु अकबरु अला इकमालिद्दीन व इतमामि अन्नेअमत व रज़िया रब्बी बिरिसालति व अल विलायति लिअलीयिन मिन बअदी ”
अगर मौला से अभिप्रायः दोस्ती या मुसलमानों की मदद है तो फिर अली (अ.) की दोस्ती, मवद्दत व मदद से दीन किस तरह कामिल हो गया और उसकी नेअमतें किस तरह पूरी हो गईँ ? यह बात सबसे रौशन है कि आप ने कहा कि अल्लाह मेरी रिसालत और मेरे बाद अली  (अ.) की विलायत से राज़ी हो गया।[26] क्या यह सब खिलाफ़त के अर्थ पर गवाही नही है ?
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सातवी दलील

इससे बढ़कर और क्या गवाही हो सकती है कि शेखैन (अबु बकर व उमर) और रसूले अकरम (स.) के असहाब ने हज़रत के मिम्बर से नीचे आने के बाद अली (अ.) को मुबारक बाद पेश की और मुबारकबादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा शैखैन (अबु बकर व उमर) वह पहले लोग थे जिन्होंने इमाम को इन शब्दों में मुबारक बाद दी “ हनीयन लका या अली इबनि अबितालिब असबहता व अमसैता मौलाया व मौला कुल्लि मुमिनिन व मुमिनतिन”[27]
अर्थात ऐ अली इब्ने अबितालिब आपको मुबारक हो कि सुबह शाम मेरे और हर मोमिन मर्द और औरत के मौला हो गये।
अली (अ.) ने उस दिन ऐसा कौनसा स्थान प्राप्त किया था जिस पर  इन लोगों ने मुबारक बादी दी? क्या मक़ामे खिलाफ़त और उम्मत की रहबरी (जिसका उस दिन तक रसमी तौर पर ऐलान नही हुआ था) इस मुबारकबादी की वजह नही थी ? मुहब्बत और दोस्ती कोई नई बात नही थी।
आठवी दलील
अगर इससे हज़रत अली (अ.) की दोस्ती मुराद थी तो इसके लिए लाज़िम नही था कि झुलसा देने वाली गर्मी में इस मसअले को बयान किया जाता, एक लाख से ज़्यादा लोगो पर आधारित चलते हुए क़ाफ़िले को रोका जाता, और तेज़ धूप में लोगों को चटयल मैदान के तपते हुए पत्थरों पर बैठाकर एक विस्तृत ख़ुत्बा बयान किया जाता।
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क्या क़ुरआन ने तमाम मोमिनों को एक दूसरे का भाई नही कहा है ? जैसा कि इरशाद होता है “इन्नमा अल मुमिनूना इख़वातुन।”[28] मोमिन आपस में एक दूसरे के भाई हैं।
क्या क़ुरआन ने अन्य आयतों में मोमेनीन को एक दूसरे के दोस्त के रूप में परिचिच नही कराया है ?  और अली अलैहिस्सलाम भी उसी मोमिन समाज के एक सदस्य थे। अतः उनकी दोस्ती के ऐलान की क्या ज़रूरत थी? और अगर यह मान भी लिया जाये कि इस ऐलान में दोस्ती ही मद्दे नज़र थी, तो फ़िर इसके लिए अनुकूल परिस्थिति में इन इन्तेज़ामात की ज़रूरत नही थी, यह काम मदीने में भी किया जा सकता था। यक़ीनन किसी महत्वपूर्ण मसअला का वर्णन   करना था जिसके लिए इस विशेष प्रबंध की ज़रूरत थी। इस तरह के इन्तज़ामात पैगम्बर की ज़िन्दगी में न कभी पहले देखे गये और न ही इस घटना के बाद देखने को मिले।
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अब आप फ़ैसला करें

अगर इन रौशन क़राइन की मौजूदगी में भी कोई शक करे कि पैगम्बर अकरम (स.) का मक़सद इमामत व खिलाफ़त नही था तो क्या यह ताज्जुब वाली बात नही है ? वह लोग जो इसमें शक करते हैं अपने दिल को किस तरह संतुष्ट करेंगे और महशर के दिन अल्लाह को क्या जवाब देंगे ?
यक़ीनन अगर तमाम मुसलमान ताअस्सुब को छोड़ कर हदीसे ग़दीर पर तहक़ीक़ करें तो दिल खवाह नतीजों पर पहुँचेंगे। जहाँ यह काम मुसलमानों के विभिन्न फ़िर्क़ों में एकता का सबब बनेगा वहीँ इस से   इस्लामी समाज एक नयी शक्ल हासिल कर लेगा।
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तीन महत्वपूर्ण हदीसें

इस लेख के अन्त में इन तीन महत्वपूर्ण हदीसों पर भी ध्यान दीजियेगा।
1- हक़ किसके साथ है ?
पैगम्बरे इस्लाम (स.) की पत्नियाँ उम्मे सलमा और आइशा कहती हैं कि हमने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से सुना है कि उन्हो कहा “अलीयुन मअल हक़्क़ि व हक़्क़ु माअ अलीयिन लन यफ़तरिक़ा हत्ता यरदा अलय्यल हौज़”
अनुवाद– अली हक़ के साथ है और हक़ अली के साथ है। और यह हर गिज़ एक दूसरे से जुदा नही हो सकते जब तक होज़े कौसर पर मेरे पास न पहुँच जाये।
यह हदीस अहले सुन्नत की बहुत सी मशहूर किताबों में मौजूद है। अल्लामा अमीनी ने इन किताबों का ज़िक्र अलग़दीर की तीसरी जिल्द में किया है।[29]
अहले सुन्नत के मशहूर मुफ़स्सिर फ़ख़रे राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में सूरए हम्द की तफ़सीर के अन्तर्गत लिखा है कि “हज़रत अली अलैहिस्सलाम बिस्मिल्लाह को बलन्द आवाज़ से पढ़ते थे और यह बात तवातुर से साबित है कि जो दीन में अली की इक़्तदा करता है वह हिदायत याफ़्ता है। इसकी दलील पैगम्बर (स.) की यह हदीस है कि आपने कहा “अल्लाहुम्मा अदरिल हक़्क़ा मअ अलीयिन हैसु दार।”   अनुवाद – ऐ अल्लाह तू हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़े।[30]
यह हदीस काबिले तवज्जोह है जो यह कह रही है कि अली की ज़ात हक़ का मरकज़ (केन्द्र बिन्दु) है
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2- भाई बनाना
पैगम्बरे अकरम (स.) के असहाब के एक मशहूर गिरोह ने इस हदीस को पैगम्बर (स.) नक़्ल किया है।
“ अख़ा रसूलुल्लाहि (स.) बैना असहाबिहि फ़अख़ा बैना अबिबक्र व उमर व फ़ुलानुन व फ़ुलानुन फ़जआ अली (रज़ियाल्लहु अन्हु) फ़क़ाला अख़ीता बैना असहाबिक व लम तुवाख़ बैनी व बैना अहद ? फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) अन्ता अख़ी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति।”
अनुवाद- “ पैगम्बर (स.) ने अपने असहाब के बीच भाई का रिश्ता स्थापित किया अबुबकर को उमर का भाई बनाया और इसी तरह सबको एक दूसरे का भाई बनाया। उसी वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम हज़रत की ख़िदमत में तशरीफ़ लाये और अर्ज़ किया कि आपने सबके दरमियान बरादरी का रिश्ता स्थापित कर दिया लेकिन मुझे किसी का भाई नही बनाया। पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा आप दुनिया और आख़ेरत में मेरे भाई हैं।”
इसी से मिलता जुलता मज़मून अहले सुन्नत की किताबों में 49 जगहों पर ज़िक्र हुआ है।[31]
क्या हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैगम्बरे अकरम (स.) के दरमियान बरादरी का रिश्ता इस बात की दलील नही है कि वह उम्मत में सबसे अफ़ज़लो आला हैं ? क्या अफ़ज़ल के होते हुए मफ़ज़ूल के पास जाना चाहिए ?
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3- निजात का केवल एक ज़रिया
अबुज़र ने खाना-ए-काबा के दर को पकड़ कर कहा कि जो मुझे जानता है, वह जानता है और जो नही जानता वह जान ले कि मैं अबुज़र हूँ, मैंने पैगम्बरे अकरम (स.) से सुना है कि उन्होनें कहा “ मसलु अहलुबैती फ़ी कुम मसलु सफ़ीनति नूह मन रकबहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।”
“तुम्हारे दरमियान मेरे अहले बैत की मिसाल किश्ती-ए-नूह जैसी हैं जो इस पर सवार होगा वह निजात पायेगा और जो इससे रूगरदानी करेगा वह हलाक होगा।[32]
जिस दिन तूफ़ाने नूह ने ज़मीन को अपनी गिरफ़्त में लिया था उस दिन नूह अलैहिस्सलाम की किश्ती के अलावा निजात का कोई दूसरा ज़रिया नही था। यहाँ तक कि वह ऊँचा पहाड़ भी जिसकी चौटी पर नूह (अ.) का बेटा बैठा हुआ था उसको निजात न दे सका।
क्या पैगम्बर के फ़रमान के मुताबिक़ उनके बाद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के दामन से वाबस्ता होने के अलावा निजात का कोई दूसरा रास्ता है ?

Ref
[1] एक स्थान का नाम

[2] यह जगह अहराम के मीक़ात की है और माज़ी में यहाँ से इराक़ मिस्र और मदीने के रास्ते जुदा हो जाते थे।

[3] राबिग अब भी मक्के और मदीने के बीच में है।

[4] सूरए मायदा आयत न.67

[5] पैगम्बर ने इतमिनान के लिए इस जुम्ले को तीन बार कहा ताकि बाद मे कोई मुग़ालता न हो।

[6] यह पूरी हदीसे ग़दीर या फ़क़त इसका पहला हिस्सा या प़क़त दूसरा हिस्सा इन मुसनदों में आया है।     क-मुसनद ऊब्ने हंबल जिल्द 1 पेज न. 256 ख- तारीखे दमिश्क़ जिल्द42 पेज न. 207, 208, 448 ग- खसाइसे निसाई पेज न. 181 घ- अल मोजमुल कबीर जिल्द 17 पेज न. 39 ङ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 च- अल मुसतदरक अलल सहीहैन जिल्द 13 पेज न. 135 छ- अल मोजमुल औसत जिल्द 6 पेज न. 95 ज- मुसनदे अबी यअली जिल्द 1 पेज न. 280 अल महासिन वल मसावी पेज न. 41 झ- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 104 व दूसरी किताबें। 

[7] इस खुत्बे को अहले सुन्नत के बहुत से   मशहूर उलमा ने अपनी किताबों में ज़िक्र किया है। जैसे क- मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 84,88,118,119,152,332,281,331 व 370 ख- सुनने इब्ने माजह जिल्द 1 पेज न. 55 व 58 ग- अल मुस्तदरक अलल सहीहैन हाकिम नेशापुरी जिल्द 3 पेज न. 118 व 613 घ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 ङ- फ़तहुलबारी जिल्द 79 पेज न. 74 च- तारीख़े ख़तीबे बग़दादी जिल्द 8 पेज न.290 छ-तारीखुल खुलफ़ा व सयूती 114 व दूसरी किताबें।

[8] सूरए माइदह आयत 3व 67

[9] वफ़ायातुल आयान 1/60

[10] वफ़ायातुल आयान 2/223

[11] तरजमा आसारूल बाक़िया पेज 395 व अलग़दीर 1/267

[12] समारूल क़ुलूब511

[13] उमर इब्ने खत्ताब की मुबारक बादी का वाक़िआ अहले सुन्नत की बहुतसी किताबों में ज़िक्र हुआ है। इनमें से खास खास यह हैं-क-मुसनद इब्ने हंबल जिल्द6 पेज न.401 ख-अलबिदाया वन निहाया जिल्द 5 पेज न.209 ग-अलफ़सूलुल मुहिम्माह इब्ने सब्बाग़ पेज न.40 घ- फराइदुस् सिमतैन जिल्द 1 पेज न.71 इसी तरह अबु बकर उमर उस्मान तलहा व ज़ुबैर की मुबारक बादी का माजरा बहुत सी दूसरी किताबों में बयान हुआ है। जैसे मनाक़िबे अली इब्ने अबी तालिब   तालीफ़ अहमद बिन मुहम्मद तबरी अल ग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270)

[14] इस अहम सनद का ज़िक्र एक दूसरी जगह पर करेंगे।

[15] सनदों का यह मजमुआ अलग़दीर की पहली जिल्द में मौजूद है जो अहले सुन्नत की मशहूर किताबों से जमा किया गया है।

[16] सूरए माइदा आयत न.3

[17] हस्सान के अशआर बहुत सी किताबों में नक़्ल हुए हैं इनमें से कुछ यह हैं क- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न.135 ख-मक़तलुल हुसैन खवारज़मी जिल्द 1पेज़ न.47 ग- फ़राइदुस्समतैन जिल्द1 पेज़ न. 73 व 74 घ-अन्नूरूल मुशतअल पेज न.56 ङ-अलमनाक़िबे कौसर जिल्द 1 पेज न. 118 व 362.

[18] यह एहतेजाज जिसको इस्तलाह में मुनाशेदह कहा जाता है हस्बे ज़ैल किताबों में बयान हुआ है। क-मनाक़िबे अखतब खवारज़मी हनफ़ी पेज न. 217 ख- फ़राइदुस्समतैन हमवीनी बाबे 58 ग- वद्दुर्रुन्नज़ीम इब्ने हातम शामी घ-अस्सवाएक़ुल मुहर्रेक़ा इब्ने हज्रे अस्क़लानी पेज़ न.75 ङ-अमाली इब्ने उक़दह पेज न. 7 व 212 च- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 61 छ- अल इस्तिआब इब्ने अब्दुल बर्र जिल्द 3 पेज न. 35 ज- तफ़सीरे तबरी जिल्द 3 पेज न.417 सूरए माइदा की 55वी आयत के तहत।

[19] क- फ़राइदुस्समतैन सम्ते अव्वल बाब 58 ख-शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 1 पेज न. 362 ग-असदुलग़ाब्बा जिल्द 3पेज न.307 व जिल्द 5 पेज न.205 घ- अल असाबा इब्ने हज्रे अस्क़लानी जिल्द 2 पेज न. 408 व जिल्द 4 पेज न.80 ङ-मुसनदे अहमदजिल्द 1 पेज 84 व 88      च- अलबिदाया वन्निहाया इब्ने कसीर शामी जिल्द 5 पेज न. 210 व जिल्द 7 पेज न. 348 छ-मजमउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द 9 पेज न. 106 ज-ज़ख़ाइरिल उक़बा पेज न.67( अलग़दीर जिल्द 1 पेज न.163व 164.

[20] क- अस्नल मतालिब शम्सुद्दीन शाफ़ेई तिब्क़े नख़ले सखावी फ़ी ज़ौइल्लामेए जिलेद 9 पेज 256 ख-अलबदरुत्तालेअ शौकानी जिल्द 2 पेज न.297 ग- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 273 घ- मनाक़िबे अल्लामा हनॉफ़ी पेज न. 130 ङ- बलाग़ातुन्नसा पेज न.72 च- अलअक़दुल फ़रीद जिल्द 1 पेज न.162 छ- सब्हुल अशा जिल्द 1 पेज न.259 ज-मरूजुज़्ज़हब इब्ने मसऊद शाफ़ई जिल्द 2 पेज न. 49 झ- यनाबी उल मवद्दत पेज न. 486.

[21] इन अशआर का हवाला पहले दिया जा चुका है।

[22] शब्दकोष का ज्ञाता

[23] मरहूम अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की दूसरी जिल्द में पेज न. 25-30 पर इस शेर को दूसरे अशआर के साथ 11 शिया उलमा और 26 सुन्नी उलमा के हवाले से नक़्ल किया है।

[24] “अलस्तु औला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम” इस जुम्ले को अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 371 पर आलमे इस्लाम के 64 महद्देसीन व मुवर्रेख़ीन से नक़्ल किया है।

[25] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 26,27,30,32,333,34,36,37,47 और 176 पर इस मतलब को अहले सुन्नत की किताबों जैसे सही तिरमिज़ी जिल्द 2 पेज न. 298, अलफ़सूलुल मुहिम्मह इब्ने सब्बाग़ पेज न. 25, अलमनाक़िब उस सलासह हाफ़िज़ अबिल फ़तूह पेज न. 19 अलबिदायह वन्निहायह इब्ने कसीर जिल्द 5 पेज न. 209 व जिल्द 7 पेज न. 347 , अस्सवाएक़ुल मुहर्रिकह पेज न. 25, मजमिउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द9 पेज न.165 के हवाले से बयान किया गया है।

[26] अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 43,165, 231, 232, 235 पर हदीस के इस हिस्से का हवाला इब्ने जरीर की किताब अलविलायत पेज न. 310, तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज न. 14, तफ़सीरे दुर्रे मनसूर जिल्द 2 पेज न. 259, अलइतक़ान जिल्द 1 पेज न. 31, मिफ़ताहुन्निजाह बदख़शी पेज न. 220, मा नज़लः मिनल क़ुरआन फ़ी अलियिन अबुनईमे इस्फ़हानी, तारीखे खतीबे बग़दादी जिल्द 4 पेज न. 290, मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 80, अल खसाइसुल अलविया अबुल फ़तह नतनज़ी पेज न. 43, तज़किराए सिब्ते इब्ने जोज़ी पेज न. 18, फ़राइदुस्समतैन बाब 12, से दिया है।

[27] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270, 283.

[28] सूरए हुजरात आयत न. 10

[29] इस हदीस को मुहम्मद बिन अबि बक्र व अबुज़र व अबु सईद ख़ुदरी व दूसरे लोगों ने पैगम्बर (स.) से नक़्ल किया है। (अल ग़दीर जिल्द 3)

[30] तफ़सीरे कबीर जिल्द 1/205

[31] अल्लामा अमीने अपनी किताब अलग़दीर की तीसरी जिल्द में   इन पचास की पचास हदीसों का ज़िक्र उनके हवालों के साथ किया है।

[32] मसतदरके हाकिम जिल्द 2/150 हैदराबाद से छपी हुई।   इसके अलावा अहले सुन्नत की कम से कम तीस मशहूर किताबों में इस हदीस को नक़्ल किया गया है।



ग़दीर का नाम तो हम सभी ने सुना है।

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1-Ali%20(as)%20Eng(023)ग़दीर का नाम तो हम सभी ने सुना है। यह स्थान मक्के और मदीने के मध्य, मक्के शहर से तक़रीबन 200 किलोमीटर की दूरी पर
जोहफ़े  के पास स्थित है। यह एक चौराहा है, यहाँ पहुँच कर विभिन्न क्षेत्रों से आये हाजी लोग एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।
उत्तर की ओर का रास्ता मदीने की तरफ़, दक्षिण की ओर का रास्ता यमन की तरफ़, पूरब की ओर का रास्ता इराक़ की तरफ़ और पश्चिम की ओर का रास्ता मिस्र की तरफ़ जाता है। आज कल यह स्थान भले ही आकर्षण का केन्द्र न रहा हो परन्तु एक दिन यही स्थान इस्लामिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण धटना का साक्षी था। 
 यह घटना 18 ज़िलहिज्जा सन् 10 हिजरी की है, जिस दिन हजरत अली अलैहिस्सलाम को रसूले अकरम (स.) के उत्तराधिकारी के  पद पर नियुक्त  किया गया।
 
पूर्व में तो विभिन्न खलिफ़ाओं ने सियासत के अन्तर्गत इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को मिटाने का प्रयास किया और आज कुछ मुतास्सिब लोग इसको मिटाने या कम रंग करने की कोशिशे कर रहे हैं। लेकिन यह घटना इतिहास, हदीस और अर्बी साहित्य में इतनी रच बस गई है कि इसको मिटाया या छुपाया नही जा सकता।आप इस किताबचे में ग़दीर के सम्बन्ध में ऐसी ऐसी सनदें और हवाले पायेंगे कि उन को पढ़ कर अचम्भित रह जायेंगे। जिस घटना के लिए असंख्य दलीलें और सनदें हो भला उसको किस प्रकार भुलाया या छुपाया जा सकता है ?
 
उम्मीद है कि यह तर्क पूर्ण विवेचना व समस्त सनदें जो अहले सुन्नत की किताबों से ली गई हैं मुसलमानों के विभिन्न समुदायों को एक दूसरे से क़रीब करने का साधन बनेगी और पूर्व में लोग जिन वास्तविक्ताओं से सादगी के साथ गुज़र गये हैं, वह इस समय सबके आकर्षण का केन्द्र बनेंगी विशेष रूप से जवान नस्ल की।
 
हदीसे ग़दीर
हदीसे ग़दीर अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बिला फ़स्ल विलायत व खिलाफ़त के लिए एक रौशन दलील है और मुहक़्क़ेक़ीन इसको बहुत अधिक महत्व देते हैं। लेकिन अफ़सोस है कि जो लोग आप की विलायत से बचना चाहते हैं वह कभी तो इस हदीस की सनद को निराधार बताते हैं और कभी इस की सनद को सही मानते हैं परन्तु इसकी दलालत से मना करते हैं।
इस हदीस की हक़ीक़त को प्रत्यक्ष करने के लिए ज़रूरी है कि सनद और दलालत के बारे में विशवसनीय किताबों के माध्यम से बात की जाये।
 
ग़दीरे ख़ुम का दृश्य
सन् दस हिजरी के आखिरी माह (ज़िलहिज्जा) में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपने जीवन का अन्तिम हज किया और मुसलमानों ने रसूले अकरम (स.) से इस्लामी हज के तरीक़े को सीखा। जब हज समाप्त हुआ तो रसूले अकरम (स.) ने मदीने जाने के उद्देश्य से मक्के को छोड़ने का इरादा किया और क़ाफ़िले को चलने का आदेश दिया। जब यह क़ाफ़िला जोहफ़े  से तीन मील के फ़ासले पर राबिग़  नामी क्षेत्र में पहुँचा तो ग़दीरे खुम नामी स्थान पर जिब्राइले अमीन “वही” लेकर नाज़िल हुए और रसूले अकरम को इस आयत के द्वारा सम्बोधित किया ।
“या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिक व इन लम् तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नास” सूरए मायदा आयत न.67

ऐ रसूल उस संदेश को पहुँचा दीजिये जो आपके परवर दिगार की ओर से आप पर नाज़िल हो चुका है और अगर आप ने ऐसा न किया तो ऐसा है जैसे आपने रिसालत का कोई काम अंजाम नही दिया। अल्लाह, लोगों के शर से आप की रक्षा करेगा।

आयत के अंदाज़ से मालूम होता है कि अल्लाह ने एक ऐसा महान कार्य रसूल अकरम (स.) के सुपुर्द किया है जो पूरी रिसालत के पहुँचाने के बराबर और दुश्मनो की मायूसी का कारण भी है। इससे महान कार्य और क्या हो सकता है कि एक लाख से ज़्यादा लोगों के सामने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने खलीफ़ा व उत्तराधिकारी के पद पर नियुकित करें ?
 
अतः क़ाफ़िले को रूकने का आदेश दिया गया। इस आदेश को सुन कर जो लोग क़ाफ़िले से आगे चल रहे थे रुक गये और जो पीछे रह गये थे वह भी आकर क़ाफ़िले से मिल गये। ज़ोहर का वक़्त था और गर्मी अपने शबाब पर थी। हालत यह थी कि कुछ लोगों ने अपनी अबा(चादर) का एक हिस्सा सिर पर और दूसरा हिस्सा पैरों के नीचे दबा रखा था। पैगम्बर के लिए एक दरख्त पर चादर डाल कर सायबान तैयार किया गया। पैगम्बर ऊँटो के कजावों को जमा करके बनाये गये मिम्बर पर खड़े हुए और ऊँची आवाज़ मे एक खुत्बा (भाषण) दिया जिसका साराँश यह है।
 
ग़दीरे खुम में पैगम्बर का खुत्बा
 
“हम्दो सना (हर प्रकार की प्रशंसा) अल्लाह की ज़ात से समबन्धित है। हम उस पर ईमान रखते हैं और उसी पर भरौसा करते है तथा उसी से सहायता चाहते हैं। हम बुराई, और अपने बुरे कार्यों से बचने के लिए उसके यहाँ शरण चाहते हैं। वह अल्लाह जिसके अलावा कोई दूसरा मार्ग दर्शक नही है। मैं गवाही देता हूँ कि उसके अलावा कोई माबूद नही है और मुहम्मद उसका बंदा और पैगम्बर है।
हाँ! ऐ लोगो वह वक़्त क़रीब है कि मैं अल्लाह के बुलावे को स्वीकार करता हुआ तुम्हारे बीच से चला जाऊँ। उसके दरबार में तुम भी उत्तरदायी हो और मै भी। इसके बाद कहा कि मेरे बारे में तुम्हारा क्या विचार है? क्या मैनें तुम्हारे प्रति अपनी ज़िम्मेदारीयों को पूरा कर दिया है ?
यह सुन कर सभी लोगों ने रसूले अकरम (स.) की सेवाओं की पुष्टी की और कहा कि हम गवाही देते हैं कि आपने अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा किया और बहुत मेहनत की अल्लाह आपको इसका सबसे अच्छा बदला दे।
पैगम्बर ने कहा कि “क्या तुम गवाही देते हो कि इस पूरी दुनिया का माबूद एक है और मुहम्मद उसका बंदा व रसूल है और जन्नत, जहन्नम व परलोक के अमर जीवन में कोई शक नही है ?
सबने कहा कि “ सही है हम गवाही देते हैं।”
इसके बाद रसूले अकरम (स.) ने कहा कि “ऐ लोगो मैं तम्हारे मध्य दो महत्वपूर्ण चीज़े छोड़ रहा हूँ मैं देखूँगा कि तुम मेरे बाद मेरी इन दोनो यादगारों के साथ क्या सलूक करते हो।”
उस वक़्त एक इंसान खड़ा हुआ और ऊँची आवाज़ मे सवाल किया कि इन दो महत्वपूर्ण चीज़ों से क्या अभिप्रायः है ?
पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा कि “एक अल्लाह की किताब है जिसका एक सिरा अल्लाह की क़ुदरत में है और दूसरा सिरा तुम्हारे हाथों में और दूसरे मेरी इतरत और अहले बैत हैं अल्लाह ने मुझे खबर दी है कि यह कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं  होंगे।”
हाँ! ऐ लोगो क़ुरआन व मेरी इतरत से आगे न बढ़ना और दोनो के आदेशों के पालन में किसी प्रकार की कमी न करना, वरना हलाक हो जाओगे।
उस वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम का हाथ पकड़ इतना ऊँचा उठाया कि दोनो की बग़ल की सफ़ैदी सबको नज़र आने लगी और सब लोगों को हज़रत अली (अ.) से परिचित कराया।
इसके बाद कहा “मोमेनीन पर स्वयं उनसे ज़्यादा कौन अधिकार रखता है ?
सब ने कहा कि “अल्लाह और उसका रसूल अधिक जानते हैं।”
पैगम्बर स. ने कहा कि-
“अल्लाह मेरा मौला है और मैं मोमेनीन का मौला हूँ और मैं उनके ऊपर उनसे ज़्यादा अधिकार रखता हूँ, हाँ! ऐ लोगो “मनकुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा अलीयुन मौलाहु  अल्लाहुम्मा वालि मन वालाहु व आदि मन आदाहु व अहिब्बा मन अहिब्बहु व अबग़िज़ मन अबग़ज़हु व अनसुर मन नसरहु व अख़ज़ुल मन ख़ज़लहु व अदरिल हक़्क़ा मआहु हैसो दारा। ”
 
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के यह अली मौला हैं। ऐ अल्लाह उसको दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे और उसको दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, उस से मुहब्बत कर जो अली से मुहब्बत करे और उस पर ग़ज़बनाक (परकोपित) हो जो अली पर ग़ज़बनाक हो, उसकी मदद कर जो अली की मदद करे और उसको रुसवा कर जो अली को रुसवा करे और हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़ें।”
यह पूरी हदीसे ग़दीर या फ़क़त इसका पहला हिस्सा या प़क़त दूसरा हिस्सा इन मुसनदों में आया है। क-मुसनद ऊब्ने हंबल जिल्द 1 पेज न. 256 ख- तारीखे दमिश्क़ जिल्द42 पेज न. 207, 208, 448 ग- खसाइसे निसाई पेज न. 181 घ- अल मोजमुल कबीर जिल्द 17 पेज न. 39 ङ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 च- अल मुसतदरक अलल सहीहैन जिल्द 13 पेज न. 135 छ- अल मोजमुल औसत जिल्द 6 पेज न. 95 ज- मुसनदे अबी यअली जिल्द 1 पेज न. 280 अल महासिन वल मसावी पेज न. 41 झ- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 104 व दूसरी किताबें।
 
ऊपर लिखे खुत्बे को अगर इंसाफ़ के साथ देखा जाये तो जगह जगह पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम की इमामत की दलीलें मौजूद हैं।
इस खुत्बे को अहले सुन्नत के बहुत से मशहूर उलमा ने अपनी किताबों में ज़िक्र किया है। जैसे क- मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 84,88,118,119,152,332,281,331 व 370 ख- सुनने इब्ने माजह जिल्द 1 पेज न. 55 व 58 ग- अल मुस्तदरक अलल सहीहैन हाकिम नेशापुरी जिल्द 3 पेज न. 118 व 613 घ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 ङ- फ़तहुलबारी जिल्द 79 पेज न. 74 च- तारीख़े ख़तीबे बग़दादी जिल्द 8 पेज न.290 छ-तारीखुल खुलफ़ा व सयूती 114 व दूसरी किताबें।

हदीसे ग़दीर की अमरता
अल्लाह का यह हकीमाना इरादा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना एक ज़िन्दा हक़ीक़त के रूप मे हर ज़माने में बाक़ी रहे, लोगों के दिल इसकी ओर आकर्षित होते रहें और इस्लामी लेखक तफ़्सीर, हदीस, कलाम और इतिहास की किताबों में इसके बारे में हर ज़माने में लिखते रहें, मज़हबी वक्ता इसको वाज़ो नसीहत की मजालिस में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अविस्मर्णीय फ़ज़ायल की सूरत में बयान करते रहें। और केवल वक्ता ही नही बल्कि शाईर भी अपने साहित्यिक भाव, चिंतन और इखलास के द्वारा इस घटना को चार चाँद लगायें और विभिन्न भाषाओं में अलग अलग तरीक़ों से बेहतरीन शेर कह कर अपनी यादगार के तौर पर छोड़ें।(मरहूम अल्लामा अमीनी ने विभिन्न सदियों में ग़दीर के बारे में कहे गये महत्वपूर्ण शेरों को शाइर के जीवन के हालात के साथ ईस्लाम की प्रसिद्ध किताबों से नक़्ल करके अपनी किताब “अल ग़दीर” में जो कि 11 जिल्दों पर आधारित है, बयान किया है।)

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दुनिया में ऐसी ऐतिहासिक घटनायें बहुत कम हैं जो ग़दीर की तरह मुहद्दिसों, मुफ़स्सिरों, मुतकल्लिमों, फलसफ़ियों, खतीबों, शाइरों, इतिहासकारों और सीरत लिखने वालों की तवज्जौह का केन्द्र बनी हों।
इस हदीस के अमर होने का एक कारण यह है कि इस घटना से सम्बन्धित दो आयतें क़ुराने करीम में मौजूद हैं।सूरए माइदह आयत 3व 67 अतः जब तक क़ुरआन बाक़ी रहेगा यह ऐतिहासिक घटना भी ज़िन्दा रहेगी।
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दिलचस्प बात यह है कि इतिहास को ध्यान पूर्वक पढ़ने से यह मालूम होता है कि अठ्ठारहवी ज़िलहिज्जातुल हराम मुसलमानों के मध्य रोज़े ईदे ग़दीर के नाम से मशहूर थी। यहाँ तक कि इब्ने ख़लकान अलमुस्ताली इब्ने अलमुस्तनसर के बारे में लिखता है कि “ सन् 487 हिजरी में ईदे ग़दीरे खुम के दिन जो कि अठ्ठारह ज़िलहिज्जातुल हराम है लोगों ने उसकी बैअत की।”वफ़ायातुल आयान 1/60 और अल मुस्तनसर बिल्लाह के बारे में लिखता है कि “सन् 487 हिजरी में जब ज़िलहिज्जा माह की आखरी बारह रातें बाक़ी रह गयी तो वह इस दुनिया से गया और जिस रात में वह दुनिया से गया वह ज़िलहिज्जा मास की अठ्ठारवी रात थी जो कि शबे ईदे ग़दीर है।”वफ़ायातुल आयान 2/223

यह बात भी दिलचस्प है कि अबुरिहाने बैरूनी ने अपनी किताब आसारूल बाक़िया में ईदे ग़दीर को उन ईदों में गिना है जिनका आयोजन सभी मुसलमान किया करते थे और खुशिया मनातें थे।तरजमा आसारूल बाक़िया पेज 395 व अलग़दीर 1/267

सिर्फ़ इब्ने खलकान और अबुरिहाने बैरूनी ने ही इस दिन को ईद का दिन नही कहा है बल्कि अहले सुन्नत के प्रसिद्ध आलिम सआलबी ने भी शबे ग़दीर को मुस्लिम समाज के मध्य मशहूर मानी जाने वाली शबों में गिना है। समारूल क़ुलूब511

इस इस्लामी ईद की बुनियाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही पड़ गई थी। क्योंकि आप ने इस दिन तमाम मुहाजिर, अंसार और अपनी पत्नियों को आदेश दिया था, कि हज़रत अली (अ.) के पास जा कर उन को इमामत व विलायत के सम्बन्ध में मुबारक बाद दें।
ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं कि अबु बकर, उमर उस्मान, तलहा व ज़ुबैर मुहाजेरीन में से वह पहले इंसान थे जिन्होनें हज़रत अली (अ.) के हाथ पर बैअत कर के मुबारकबाद दी। बैअत व मुबारक बादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा।
उमर इब्ने खत्ताब की मुबारक बादी का वाक़िआ अहले सुन्नत की बहुतसी किताबों में ज़िक्र हुआ है। इनमें से खास खास यह हैं-क-मुसनद इब्ने हंबल जिल्द6 पेज न.401 ख-अलबिदाया वन निहाया जिल्द 5 पेज न.209 ग-अलफ़सूलुल मुहिम्माह इब्ने सब्बाग़ पेज न.40 घ- फराइदुस् सिमतैन जिल्द 1 पेज न.71 इसी तरह अबु बकर उमर उस्मान तलहा व ज़ुबैर की मुबारक बादी का माजरा बहुत सी दूसरी किताबों में बयान हुआ है। जैसे मनाक़िबे अली इब्ने अबी तालिब तालीफ़ अहमद बिन मुहम्मद तबरी अल ग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270) 
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इस हदीस का वर्णन पैग़म्बर (स.) के एक सौ दस सहाबियों ने किया है।

इस ऐतिहासिक घटना के महत्व के लिए इतना ही काफ़ी है कि इसका वर्णन पैगम्बरे अकरम (स.) के 110 सहाबियों ने किया है।
लेकिन इस वाक्य का अर्थ यह नही है कि सहाबियों की इतनी बड़ी सँख्यां में से केवल इन्हीं सहाबियों ने इस घटना का वर्णन किया है। बल्कि इससे यह अभिप्रायः है कि अहले सुन्नत के उलमा ने जो किताबें लिखी हैं उनमें सिर्फ़ इन्हीं 110 सहाबियों का वर्णन मिलता है।
दूसरी सदी में जिसको ताबेआन का दौर कहा गया है इनमें से 89 इंसानों ने इस हदीस का वर्णन किया है।
बाद की सदीयों में भी अहले सुन्नत के 360 विद्वानो ने इस हदीस का उल्लेख अपनी किताबों में किया है तथा विद्वानों के एक बड़े गिरोह ने इस हदीस की सनद को सही स्वीकार किया है।
विद्वानों के इस गिरोह ने केवल इस हदीस का उल्लेख ही नही किया, बल्कि इस हदीस की सनद और दलालत के सम्बन्ध में विशेष रूप से किताबें भी लिखी हैं।
अजीब बात यह है कि इस्लामी समाज के सबसे बड़े इतिहासकार तबरी ने “अल विलायतु फ़ी तुरुक़ि हदीसिल ग़दीर” नामी किताब लिखी और पैगम्बर (स.) की इस हदीस का 75 प्रकार से उल्लेख किया।
इब्ने उक़दह कूफ़ी ने अपने रिसाले “विलाय़त” में इस हदीस का उल्लेख 105 व्यक्तियों के माध्यम से किया है।
अबु बकर मुहम्मद बिन उमर बग़दादी ने जो कि जमआनी के नाम से मशहूर हैं, इस हदीस का वर्णन 25 तरीक़ों से किया है।
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अहले सुन्नत के वह मशहूर विद्वान जिन्होनें इस हदीस का उल्लेख बहुतसी सनदोंके साथ किया है।सनदों का यह मजमुआ अलग़दीर की पहली जिल्द में मौजूद है जो अहले सुन्नत की मशहूर किताबों से जमा किया गया है
इब्ने हंबल शेबानी
इब्ने हज्रे अस्क़लानी
जज़री शाफ़ेई
अबु सईदे सजिस्तानी
अमीर मुहम्मद यमनी
निसाई
अबुल आला हमदानी
अबुल इरफ़ान हब्बान
शिया विद्वानों ने भी इस ऐतिहासिक घटना के बारे में अहले सुन्नत की मुख्य किताबों के हवालों के साथ बहुत सी महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। इनमें से एक विस्तृत किताब “अलग़दीर” है जो इस्लामी समाज के मशहूर लेखक स्वर्गीय अल्लामा आयतुल्लाह अमीनी की लेखनी का चमत्कार है। (इस लेख को लिखने के लिए इस किताब से बहुत अधिक सहायता ली गई है।)
परिणाम स्वरूप पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अमीरूल मोमेनीन अली (अ.) को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद कहा “ कि ऐ लोगो अभी जिब्राईल मुझ पर नाज़िल हुए और यह आयत लाये हैं कि (( अलयौम अकमलतु लकुम दीनाकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुमुल इस्लामा दीना))सूरए माइदा आयत न.3
आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।”
उस वक़्त पैगम्बर ने तकबीर कही और कहा “ अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि उसने अपने विधान व नेअमतों को पूर्ण किया और अली (अ.) से मेरे उत्तराधिकारी के रूप में प्रसन्न हुआ।”
इसके बाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) मिम्बर से नीचे तशरीफ़ लाये और हज़रत अली (अ.) से कहा  कि “ आप खेमें (शिविर) में लशरीफ़ ले जायें ताकि इस्लाम की बुज़ुर्ग व्यक्ति और सरदार आपकी बैअत कर के आप को मुबारक बाद दे सकें। ”
सबसे पहले शेख़ैन (अबु बकर व उमर) ने अली अलैहिस्सलाम को को मुबारक बाद दी और उनको अपना मौला स्वीकार किया।
हस्सान बिन साबित ने मौक़े से फ़ायदा उठाया और पैगम्बरे इस्लाम (स.) से आज्ञा प्राप्त कर के एक क़सीदा (पद्य की वह पंक्तियाँ जो किसी की प्रशंसा में कही गई हों) कहा और पैगम्बरे अकरम (स.) के सामने उसको पढ़ा। यहाँ पर हम उस क़सीदे के केवल दो महत्वपूर्ण शेरों का ही वर्णन कर रहें हैं।
फ़ाक़ाला लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बअदी इमामन व हादीयन।।
फ़मन कुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा वलीय्युहु।
फ़कूनू लहु अतबाआ सिदक़िन मवालियन।।
अर्थात अली (अ.) से कहा कि उठो कि मैंनें आपको अपने उत्तराधिकारी और अपने बाद लोगों के मार्ग दर्शक के रूप में टुन लिया है।
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। तुम उनको दिल से दोस्त रखते हो बस उनका अनुसरन करो। हस्सान के अशआर बहुत सी किताबों में नक़्ल हुए हैं इनमें से कुछ यह हैं क- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न.135 ख-मक़तलुल हुसैन खवारज़मी जिल्द 1पेज़ न.47 ग- फ़राइदुस्समतैन जिल्द1 पेज़ न. 73 व 74 घ-अन्नूरूल मुशतअल पेज न.56 ङ-अलमनाक़िबे कौसर जिल्द 1 पेज न. 118 व 362.

यह हदीस इमाम अली अलैहिस्सलाम के, तमाम सहाबा से श्रेष्ठ होने को सिद्ध करती है।
यहाँ तक कि अमीरूल मोमेनीन ने मजलिसे शूरा-ए-खिलाफ़त में (जो कि दूसरे खलीफ़ा के मरने के बाद बनी), यह एहतेजाज जिसको इस्तलाह में मुनाशेदह कहा जाता है हस्बे ज़ैल किताबों में बयान हुआ है। क-मनाक़िबे अखतब खवारज़मी हनफ़ी पेज न. 217 ख- फ़राइदुस्समतैन हमवीनी बाबे 58 ग- वद्दुर्रुन्नज़ीम इब्ने हातम शामी घ-अस्सवाएक़ुल मुहर्रेक़ा इब्ने हज्रे अस्क़लानी पेज़ न.75 ङ-अमाली इब्ने उक़दह पेज न. 7 व 212 च- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 61 छ- अल इस्तिआब इब्ने अब्दुल बर्र जिल्द 3 पेज न. 35 ज- तफ़सीरे तबरी जिल्द 3 पेज न.417 सूरए माइदा की 55वी आयत के तहत।


उसमान की खिलाफ़त के ज़माने में और स्वयं अपनी खिलाफ़त के समय में भी इस पर विरोध प्रकट किया है।…क- फ़राइदुस्समतैन सम्ते अव्वल बाब 58 ख-शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 1 पेज न. 362 ग-असदुलग़ाब्बा जिल्द 3पेज न.307 व जिल्द 5 पेज न.205 घ- अल असाबा इब्ने हज्रे अस्क़लानी जिल्द 2 पेज न. 408 व जिल्द 4 पेज न.80 ङ-मुसनदे अहमदजिल्द 1 पेज 84 व 88 च- अलबिदाया वन्निहाया इब्ने कसीर शामी जिल्द 5 पेज न. 210 व जिल्द 7 पेज न. 348 छ-मजमउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द 9 पेज न. 106 ज-ज़ख़ाइरिल उक़बा पेज न.67( अलग़दीर जिल्द 1 पेज न.163व 164.

इसके अलावा हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जैसी महान शख्सियत नें हज़रत अली अलैहिस्सलाम की श्रेष्ठता से इंकार करने वालों के सामने इसी हदीस को तर्क के रूप में प्रस्तुत किया। क- अस्नल मतालिब शम्सुद्दीन शाफ़ेई तिब्क़े नख़ले सखावी फ़ी ज़ौइल्लामेए जिलेद 9 पेज 256 ख-अलबदरुत्तालेअ शौकानी जिल्द 2 पेज न.297 ग- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 273 घ- मनाक़िबे अल्लामा हनॉफ़ी पेज न. 130 ङ- बलाग़ातुन्नसा पेज न.72 च- अलअक़दुल फ़रीद जिल्द 1 पेज न.162 छ- सब्हुल अशा जिल्द 1 पेज न.259 ज-मरूजुज़्ज़हब इब्ने मसऊद शाफ़ई जिल्द 2 पेज न. 49 झ- यनाबी उल मवद्दत पेज न. 486.
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मौला से क्या अभिप्रायः है ?
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण मसअला मौला के अर्थ की व्याख्या है। जिस की ओर से बहुत अधिक लापरवाही बरती जाती है। क्योंकि इस हदीस के बारे में जो कुछ बयान किया गया है उससे इस हदीस की सनद के सही होने के सम्बन्ध में कोई शक बाक़ी नही रह जाता। अतः बहाना बाज़ लोग इस हदीस के अर्थ व उद्देश्य में शक पैदा करने में जुट जाते हैं, विशेष रूप से मौला शब्द के अर्थ में। परन्तु वह इसमें भी सफल नही हो पाते।
विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मौला शब्द इस हदीस में बल्कि अधिकाँश स्थानों पर एक से ज़्यादा अर्थ नही देता और वह “ औलवियत ” है। क़ुरआन की बहुतसी आयतों में मौला शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है।
क़ुरआने करीम में मौला शब्द 18 आयतों में प्रयोग हुआ है जिनमें से 10 स्थानों पर यह शब्द अल्लाह के लिए प्रयोग हुआ है ज़ाहिर है कि अल्लाह का मौला होना उसकी औलवियत के अर्थ में है। याद रहे कि मौला शब्द बहुत कम स्थानों पर ही दोस्त के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
इस आधार पर “मौला” के प्रथम अर्थ औला में किसी प्रकार का कोई शक नही करना चाहिए। हदीसे ग़दीर में भी “ मौला” शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है। इसके अलावा इस हदीस के साथ बहुत से ऐसे क़रीने मौजूद हैं जो इस बात को साबित करते हैं कि यहाँ पर मौला से अभिप्रायः औला ही है।
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इस दावे की दलीलें
अगर यह भी मान लिया जाये कि अरबी भाषा में “मौला” शब्द के बहुत से अर्थ हैं, फिर भी ग़दीर की इस महान ऐतिहासिक घटना व हदीस के बारे में बहुत से ऐसे तथ्य मौजूद हैं जो हर प्रकार के संदेह को दूर कर के वास्तविक्ता को सिद्ध करते हैं।
पहली दलील
जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना के दिन रसूले अकरम (स.) के शाइर हस्सान बिन साबित ने रसूले अकरम (स.) से इजाज़ लेकर आप के वक्तव्य को काव्य के रूप में परिवर्तित किया। इस फ़सीह, बलीग़ व अर्बी भषा के रहस्यों के ज्ञाता इंसान ने “मौला” शब्द के स्थान पर इमाम व हादी शब्दों का प्रयोग किया और कहा कि
फ़क़ुल लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बादी इमामन व हादियन।।
अर्थात पैगम्बर (स.) ने अली (अ.) से कहा कि ऐ अली उठो कि मैनें तमको अपने बाद इमाम व हादी के रूप में चुन लिया है।
ज़ाहिर है कि शाइर ने मौला शब्द को जिसे पैगम्बर (स.) ने अपने वक्तव्य में प्रयोग किया था, इमाम, पेशवा, हादी के अलावा किसी अन्य अर्थ में प्रयोग नही किया है। जबकि कि यह शाइर अरब के फ़सीह व अहले लुग़त  व्यक्तियों में गिना जाता है।
और अरब के केवल इस महान शाइर हस्सान ने ही मौला शब्द को इमामत के अर्थ में प्रयोग नही किया है बल्कि उसके बाद आने वाले तमाम इस्लामी शाइरों ने जिनमें से अधिकाँश अरब के मशहूर शाइर व साहित्यकार माने जाते हैं और इनमें से कुछ को तो अरबी भषा का उस्ताद भी समझे जाते हैं उन्होंने भी मौला शब्द से वही अर्थ लिया हैं जो हस्सान ने लिया था। अर्थात इमामत।
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दूसरी दलील
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जो शेर मुआविया को लिखे उनमें हदीसे ग़दीर के बारे में यह कहा कि
व औजबा ली विलायतहु अलैकुम।
रसूलुल्लाहि यौमा ग़दीरि खुम्मिन।।
अर्थात अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने मेरी विलायत को तुम्हारे ऊपर ग़दीर के दिन वाजिब किया है।
इमाम से बेहतर कौन शख्स है जो हमारे लिए इस हदीस की व्याख्या कर सके और बताये कि ग़दीर के दिन अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने विलायत को किस अर्थ में प्रयोग किया है ? क्या यह व्याख्या यह नही बताती कि ग़दीर की घटना में मौजूद समस्त लोगों ने (मौला शब्द से) इमामत के अतिरिक्त कोई अन्य अर्थ नही समझा था ?
* * *
तीसरी दलील
पैगम्बर (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु कहने से पहले यह सवाल किया कि “ आलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम ?” क्या मैं तुम्हारे ऊपर तुम से  ज़्यादा अधिकार नही रखता हूँ ?
पैगम्बर के इस सवाल में लफ़्ज़े औवला बि नफ़सिन का प्रयोग हुआ है। पहले सब लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लिया और उसके बाद निरन्तर कहा कि “ मन कुन्तु मौलाहु फ़ाहाज़ा अलीयुन मौलाहु ” अर्थात जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।
इन दो वाक्यों को आपस में मिलाने से पैग़म्बरे इस्लाम (स.) क्या उद्देश्य है ? क्या इसके अलावा और कोई उद्देश्य हो सकता है कि कुरआन के अनुसार जो स्थान पैगम्बरे अकरम (स.) को प्राप्त है वही अली (अ.) के लिए भी साबित करें ? सिर्फ़ इस फ़र्क़ के साथ कि वह पैगम्बर हैं और अली इमाम, नतीजे में हदीसे ग़दीर का अर्थ यह हों जाता हैं कि जिस जिस से मुझे औलवियत की निस्बत है उस उस से अली (अ.) को भी औलवियत की निस्बत है। अगर पैगम्बर (स.) का इसके अलावा और कोई उद्देश्य होता तो लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लेने की ज़रूरत नही थी। यह इंसाफ़ से कितनी गिरी हुई बात है कि इंसान पैगम्बर इस्लाम (स.) के इस पैग़ाम को नज़र अंदाज़ करे दे और हज़रत अली (अ.) की विलायत की ओर से आँखें बन्द कर के ग़ुज़र जाये।
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चौथी दलील
पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने कलाम के आग़ाज़ में लोगों से इस्लाम की तीन आधार भूत मान्यताओं का इक़रार लिया और कहा “ आलस्तुम तश्हदूना अन ला इलाहा इल्ला अल्लाह व अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु व अन्नल जन्नता हक़्क़ुन व अन्नारा हक़्क़ुन ? ” अर्थात क्या तुम गवाही देते हो कि अल्लाह के अलावा और कोई माअबूद नही है, मुहम्मद उसके बंदे व रसूल हैं और जन्नत व दोज़ख़ हक़ हैं ?
इन सब का इक़रार कराने से क्या उद्देश्य था ? क्या इसके अलावा कोई दूसरा उद्देश्य था कि वह अली (अ.) के लिए जिस स्थान को साबित करना चाहते थे उसके लिए लोगों के ज़हन को तैयार कर रहे थे ताकि वह अच्छी तरह समझलें कि विलायत व खिलाफ़त का इक़रार दीन के उन तीनो उसूलों के समान है जिनका तुम सब इक़रार करते हो ? अगर “मौला” का अर्थ दोस्त या मददगार मान लें तो इन वाक्यों का आपसी ताल मेल ख़त्म हो जायेगा और कलाम की कोई अहमियत नही रह जायेगी। क्या ऐसा नही है ?
* * *
पाँचवी दलील
पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने ख़ुत्बे (भाषण) के शुरू में अपनी रेहलत (मृत्यु) के बारे में ख़बर देते हुए कहा हैं कि “ इन्नी औशकु अन उदआ फ़उजीबा” अर्थात क़रीब है कि मुझे बुलाया जाये और मैं चला जाऊँ। यह जुमला इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि पैगम्बर यह चाहते हैं कि अपने बाद के लिए कोई इंतेज़ाम करें और अपनी रेहलत (मृत्यु) के बाद पैदा होने वाले ख़ाली स्थान पर किसी को नियुक्त करें। जो रसूले अकरम (स.) की रेहलत के बाद तमाम कार्यों की बाग डोर अपने हाथों मे संभाल ले।
जब भी हम विलायत की तफ़्सीर खिलाफ़त के अलावा किसी दूसरी चीज़ से करेंगे तो पैगम्बरे अकरम (स.) के जुमलों में पाया जाने वाला मनतक़ी राब्त टूट जायेगा। जबकि वह सबसे ज़्यादा फ़सीह व बलीग़ कलाम करने वाले हैं। मसल-ए- विलायत के लिए इससे रौशनतर क़रीना और क्या हो सकता है।
* * *
छटी दलील
पैगम्बरे अकरम (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु....... जुमले के बाद कहा कि “ अल्लाहु अकबरु अला इकमालिद्दीन व इतमामि अन्नेअमत व रज़िया रब्बी बिरिसालति व अल विलायति लिअलीयिन मिन बअदी ”
अगर मौला से अभिप्रायः दोस्ती या मुसलमानों की मदद है तो फिर अली (अ.) की दोस्ती, मवद्दत व मदद से दीन किस तरह कामिल हो गया और उसकी नेअमतें किस तरह पूरी हो गईँ ? यह बात सबसे रौशन है कि आप ने कहा कि अल्लाह मेरी रिसालत और मेरे बाद अली (अ.) की विलायत से राज़ी हो गया। क्या यह सब खिलाफ़त के अर्थ पर गवाही नही है ?
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सातवी दलील
इससे बढ़कर और क्या गवाही हो सकती है कि शेखैन (अबु बकर व उमर) और रसूले अकरम (स.) के असहाब ने हज़रत के मिम्बर से नीचे आने के बाद अली (अ.) को मुबारक बाद पेश की और मुबारकबादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा शैखैन (अबु बकर व उमर) वह पहले लोग थे जिन्होंने इमाम को इन शब्दों में मुबारक बाद दी “ हनीयन लका या अली इबनि अबितालिब असबहता व अमसैता मौलाया व मौला कुल्लि मुमिनिन व मुमिनतिन” अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270, 283.
अर्थात ऐ अली इब्ने अबितालिब आपको मुबारक हो कि सुबह शाम मेरे और हर मोमिन मर्द और औरत के मौला हो गये।
अली (अ.) ने उस दिन ऐसा कौनसा स्थान प्राप्त किया था जिस पर  इन लोगों ने मुबारक बादी दी? क्या मक़ामे खिलाफ़त और उम्मत की रहबरी (जिसका उस दिन तक रसमी तौर पर ऐलान नही हुआ था) इस मुबारकबादी की वजह नही थी ? मुहब्बत और दोस्ती कोई नई बात नही थी।
आठवी दलील
अगर इससे हज़रत अली (अ.) की दोस्ती मुराद थी तो इसके लिए लाज़िम नही था कि झुलसा देने वाली गर्मी में इस मसअले को बयान किया जाता, एक लाख से ज़्यादा लोगो पर आधारित चलते हुए क़ाफ़िले को रोका जाता, और तेज़ धूप में लोगों को चटयल मैदान के तपते हुए पत्थरों पर बैठाकर एक विस्तृत ख़ुत्बा बयान किया जाता।
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क्या क़ुरआन ने तमाम मोमिनों को एक दूसरे का भाई नही कहा है ? जैसा कि इरशाद होता है “इन्नमा अल मुमिनूना इख़वातुन। सूरए हुजरात आयत न. 10 ….मोमिन आपस में एक दूसरे के भाई हैं।
क्या क़ुरआन ने अन्य आयतों में मोमेनीन को एक दूसरे के दोस्त के रूप में परिचिच नही कराया है ? और अली अलैहिस्सलाम भी उसी मोमिन समाज के एक सदस्य थे। अतः उनकी दोस्ती के ऐलान की क्या ज़रूरत थी? और अगर यह मान भी लिया जाये कि इस ऐलान में दोस्ती ही मद्दे नज़र थी, तो फ़िर इसके लिए अनुकूल परिस्थिति में इन इन्तेज़ामात की ज़रूरत नही थी, यह काम मदीने में भी किया जा सकता था। यक़ीनन किसी महत्वपूर्ण मसअला का वर्णन करना था जिसके लिए इस विशेष प्रबंध की ज़रूरत थी। इस तरह के इन्तज़ामात पैगम्बर की ज़िन्दगी में न कभी पहले देखे गये और न ही इस घटना के बाद देखने को मिले।
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अब आप फ़ैसला करें
अगर इन रौशन क़राइन की मौजूदगी में भी कोई शक करे कि पैगम्बर अकरम (स.) का मक़सद इमामत व खिलाफ़त नही था तो क्या यह ताज्जुब वाली बात नही है ? वह लोग जो इसमें शक करते हैं अपने दिल को किस तरह संतुष्ट करेंगे और महशर के दिन अल्लाह को क्या जवाब देंगे ?
यक़ीनन अगर तमाम मुसलमान ताअस्सुब को छोड़ कर हदीसे ग़दीर पर तहक़ीक़ करें तो दिल खवाह नतीजों पर पहुँचेंगे। जहाँ यह काम मुसलमानों के विभिन्न फ़िर्क़ों में एकता का सबब बनेगा वहीँ इस से इस्लामी समाज एक नयी शक्ल हासिल कर लेगा।
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तीन महत्वपूर्ण हदीसें
इस लेख के अन्त में इन तीन महत्वपूर्ण हदीसों पर भी ध्यान दीजियेगा।
1- हक़ किसके साथ है ?
पैगम्बरे इस्लाम (स.) की पत्नियाँ उम्मे सलमा और आइशा कहती हैं कि हमने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से सुना है कि उन्हो कहा “अलीयुन मअल हक़्क़ि व हक़्क़ु माअ अलीयिन लन यफ़तरिक़ा हत्ता यरदा अलय्यल हौज़”
अनुवादअली हक़ के साथ है और हक़ अली के साथ है। और यह हर गिज़ एक दूसरे से जुदा नही हो सकते जब तक होज़े कौसर पर मेरे पास न पहुँच जाये।
यह हदीस अहले सुन्नत की बहुत सी मशहूर किताबों में मौजूद है। अल्लामा अमीनी ने इन किताबों का ज़िक्र अलग़दीर की तीसरी जिल्द में किया है। ….इस हदीस को मुहम्मद बिन अबि बक्र व अबुज़र व अबु सईद ख़ुदरी व दूसरे लोगों ने पैगम्बर (स.) से नक़्ल किया है। (अल ग़दीर जिल्द 3)

अहले सुन्नत के मशहूर मुफ़स्सिर फ़ख़रे राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में सूरए हम्द की तफ़सीर के अन्तर्गत लिखा है कि “हज़रत अली अलैहिस्सलाम बिस्मिल्लाह को बलन्द आवाज़ से पढ़ते थे और यह बात तवातुर से साबित है कि जो दीन में अली की इक़्तदा करता है वह हिदायत याफ़्ता है। इसकी दलील पैगम्बर (स.) की यह हदीस है कि आपने कहा “अल्लाहुम्मा अदरिल हक़्क़ा मअ अलीयिन हैसु दार।” अनुवाद – ऐ अल्लाह तू हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़े।[30]
यह हदीस काबिले तवज्जोह है जो यह कह रही है कि अली की ज़ात हक़ का मरकज़ (केन्द्र बिन्दु) है
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2- भाई बनाना
पैगम्बरे अकरम (स.) के असहाब के एक मशहूर गिरोह ने इस हदीस को पैगम्बर (स.) नक़्ल किया है।
“ अख़ा रसूलुल्लाहि (स.) बैना असहाबिहि फ़अख़ा बैना अबिबक्र व उमर व फ़ुलानुन व फ़ुलानुन फ़जआ अली (रज़ियाल्लहु अन्हु) फ़क़ाला अख़ीता बैना असहाबिक व लम तुवाख़ बैनी व बैना अहद ? फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) अन्ता अख़ी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति।”
अनुवाद-“ पैगम्बर (स.) ने अपने असहाब के बीच भाई का रिश्ता स्थापित किया अबुबकर को उमर का भाई बनाया और इसी तरह सबको एक दूसरे का भाई बनाया। उसी वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम हज़रत की ख़िदमत में तशरीफ़ लाये और अर्ज़ किया कि आपने सबके दरमियान बरादरी का रिश्ता स्थापित कर दिया लेकिन मुझे किसी का भाई नही बनाया। पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा आप दुनिया और आख़ेरत में मेरे भाई हैं।”
इसी से मिलता जुलता मज़मून अहले सुन्नत की किताबों में 49 जगहों पर ज़िक्र हुआ है।
क्या हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैगम्बरे अकरम (स.) के दरमियान बरादरी का रिश्ता इस बात की दलील नही है कि वह उम्मत में सबसे अफ़ज़लो आला हैं ? क्या अफ़ज़ल के होते हुए मफ़ज़ूल के पास जाना चाहिए ?
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3- निजात का केवल एक ज़रिया
अबुज़र ने खाना-ए-काबा के दर को पकड़ कर कहा कि जो मुझे जानता है, वह जानता है और जो नही जानता वह जान ले कि मैं अबुज़र हूँ, मैंने पैगम्बरे अकरम (स.) से सुना है कि उन्होनें कहा “ मसलु अहलुबैती फ़ी कुम मसलु सफ़ीनति नूह मन रकबहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।”
“तुम्हारे दरमियान मेरे अहले बैत की मिसाल किश्ती-ए-नूह जैसी हैं जो इस पर सवार होगा वह निजात पायेगा और जो इससे रूगरदानी करेगा वह हलाक होगा।   …मसतदरके हाकिम जिल्द 2/150 हैदराबाद से छपी हुई। इसके अलावा अहले सुन्नत की कम से कम तीस मशहूर किताबों में इस हदीस को नक़्ल किया गया है।

जिस दिन तूफ़ाने नूह ने ज़मीन को अपनी गिरफ़्त में लिया था उस दिन नूह अलैहिस्सलाम की किश्ती के अलावा निजात का कोई दूसरा ज़रिया नही था। यहाँ तक कि वह ऊँचा पहाड़ भी जिसकी चौटी पर नूह (अ.) का बेटा बैठा हुआ था उसको निजात न दे सका।
क्या पैगम्बर के फ़रमान के मुताबिक़ उनके बाद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के दामन से वाबस्ता होने के अलावा निजात का कोई दूसरा रास्ता है ?

विलादत अमीरुल मोमिनीन हजरत अली (अ.स) मुबारक

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विलादत अमीरुल मोमिनीन हजरत अली (अ.स) मुबारक 

अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के  दामाद हजरत अली (अ.स) का जन्म 17 मार्च 600 ,13 रज्जब शुक्रवार को 599 ईसा पूर्व , मक्का में और हदीसों के आधार पर मस्जिदुल हराम और काबे अंदर हुआ था| काबे की दीवार का वो हिस्सा जिसे आज रुक्न ऐ यमनी कहते हैं वो दो हिस्से मैं हो गयी और उसी रास्ते से हज़रत अली (अ.स) की माँ काबे के अंदर गयीं | आज भी वो दीवार बार बार बनाने के बाद भी वहीं से टूटी हुई है |  इस रोज़ दुनिया भर के मुसलमान खुशियाँ मानते हैं | इस वर्ष १३व रजब २४ मई २०१३ को पड़ेगा और उत्तर प्रदेश में इस दिन पब्लिक हॉलिडे घोषित है |

मुसलमानों के खलीफा और हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के उत्तराधिकारी हज़रत अली (अ.स) का दर्जा बहुत बुलंद है | हजरत अली के जन्म दिवस को पूरी दुनिया में हर्ष व उल्लास के साथ मनाया जाता है |मुसलमान इस दिन मिठाइयाँ बांटते और एक दुसरे को बधाइयाँ देते हैं |हज़रत अली अलैहिस्सलाम बड़ी ही कोमल प्रवृत्ति के स्वामी थे। उनकी यह विशेषता उनके कथन और व्यवहार दोनों में देखने को मिलती है। हजरत अली ने वैज्ञानिक जानकारियों को बहुत ही रोचक ढंग से आम आदमी तक पहुँचाया। एक प्रश्नकर्ता ने उनसे सूर्य की पृथ्वी से दूरी पूछी तो जवाब में बताया की एक अरबी घोड़ा पांच सौ सालों में जितनी दूरी तय करेगा वही सूर्य की पृथ्वी से दूरी है. उनके इस कथन के चौदह  सौ सालों बाद वैज्ञानिकों ने जब यह दूरी नापी तो 149600000 किलोमीटर पाई गई। अगर अरबी घोडे की औसत चाल 35 किमी/घंटा ली जाए तो यही दूरी निकलती है।


हजरत अली (अ.स) ने अपनी खिलाफत के समय अद्धितीय जनतांत्रिक सरकार की स्थापना की। उनके शासन का आधार न्याय था। समाज में असत्य पर आधारित या किसी अनुचति कार्य को वे कभी भी सहन नहीं करते थे। उनके समाज में जनता की भूमिका ही मुख्य होती थी और वे कभी भी धनवानों और शक्तिशालियों पर जनहित को प्राथमिक्ता नहीं देते थे। जिस समय उनके भाई अक़ील ने जनक्रोष से अपने भाग से कुछ अधिक धन लेना चाहा तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने पास रखे दीपक की लौ अपने भाई के हाथों के निकट लाकर उन्हें नरक की आग के प्रति सचेत किया। वे न्याय बरतने को इतना आवश्यक मानते थे कि अपने शासन के एक कर्मचारी से उन्होंने कहा था कि लोगों के बीच बैठो तो यहां तक कि लोगों पर दृष्टि डालने और संकेत करने और सलाम करने में भी समान व्यवहार करो। यह न हो कि शक्तिशाली लोगों के मन में अत्याचार का रूझान उत्पन्न होने लगे और निर्बल लोग उनके मुक़ाबिले में न्याय प्राप्ति की ओर से निराश हो जाएं।

उनकी दृष्टि में दरिद्रता से बढ़कर आत्म-सम्मान को क्षति पहुंचाने उनकी दृष्टि वाली कोई चीज़ नहीं होती। वे कहते हैं कि दरिद्रता मनुष्य की सबसे बड़ी मौत है। यही कारण था कि अपने शासनकाल में जब बहुत बड़ा जनकोष उनके हाथ में था तब भी वे अरब की गर्मी में अपने हाथों से खजूर के बाग़ लगाने में व्यस्त रहते और उससे होने वाली आय को दरिद्रों में वितरित कर दिया करते थे ताकि समाज में दरिद्रता और दुख का अंत हो सके।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम सदा ही कहा करते थे कि मेरी रचना केवल इसलिए नहीं की गई है कि चौपायों की भांति अच्छी खाद्य सामग्री मुझे अपने में व्यस्त कर ले या सांसारिक चमक-दमक की ओर मैं आकर्षित हो जाऊं और उसके जाल में फंस जाऊं। मानव जीवन का मूल्य अमर स्वर्ग के अतिरिक्त नहीं है अतः उसे सस्ते दामों पर न बेचें। हज़रत अली का यह कथन इतिहास के पन्ने पर एक स्वर्णिम समृति के रूप में जगमगा रहा है कि ज्ञानी वह है जो अपने मूल्य को समझे और मनुष्य की अज्ञानता के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह स्वयं अपने ही मूल्य को न पहचाने।

हज़रात  अली की सबसे मशहूर व उपलब्ध किताब नहजुल बलागा है, जो उनके खुत्बों (भाषणों) का संग्रह है. इसमें भी बहुत से वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन है। हजरत अली (अ.स) को मस्जिद ऐ कुफा में इब्न ऐ मुलजिम नाम के गद्दार व्यक्ति ने शहीद कर दिया और वहीं नजफ़ में उनका रौज़ा आज भी मौजूद है |हज़रत इमाम अली सन् 40 हिजरी के रमज़ान मास की 19 वी तिथि को जब सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए गये तो सजदा करते समय अब्दुर्रहमानपुत्र मुलजिम ने आप के ऊपर तलवार से हमला किया जिस से आप का सर बहुत अधिक घायल हो गया तथा दो दिन पश्चात रमज़ान मास की  21 वी रात्री मे नमाज़े सुबह से पूर्व आपने इस संसार को त्याग दिया।
समाधि: आपकी शहादत के समय स्थिति बहुत भयंकर थी। चारो ओर शत्रुता व्याप्त थी तथा यह भय था कि शत्रु कब्र खोदकर लाश को निकाल सकते हैं। अतः इस लिए आप को बहुत ही गुप्त रूप से दफ़्न कर दिया गया। एक लम्बे समय तक आपके परिवार व घनिष्ठ मित्रों के अतिरिक्त कोई भी आपकी समाधि से परिचित नही था। परन्तु एक लम्बे अन्तराल के बाद अब्बासी ख़लीफ़ा हारून रशीद के समय मे यह भेद खुल गया कि इमाम अली की समाधि नजफ़ नामक स्थान पर है। बाद मे आप के अनुयाईयों ने आपकी समाधि का विशाल व वैभव पूर्ण निर्माण कराया। वर्तमान समय मे प्रतिवर्ष लाखों दर्शनार्थी आपकी समाधि पर जाकर सलाम करते हैं।
वतन  से मोहब्बत ईमान की निशानी है : हज़रत अली(अ.स.).
सभी इंसान या तो तुम्हारे धर्म भाई हैं या फिर इंसानियत के रिश्ते से भाई हैं | हजरत अली (अ.स)

तीन तलाक , खुला ,हलाला यह सब है केवल शब्दों का माया जाल |

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शरीयत के जानकार जानते  हैं की तीन तलाक ,खुला या हलाला शब्द हों इनके कोई मायने नहीं हैं बल्कि यह शब्द किसी ख़ास समय में ख़ास तरीके को अपनाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं वरना तलाक शब्द काफी है और अगर इसके तरीके में कोई बुराई आती जा रही हैं तो यह सामाजिक समस्या है शरीयत का इसमें कोई दखल नहीं |

तलाक देने का तरीका कुरान में है और तलाक एक बार ही दिया जाता है और अगर पति पत्नी एक बार तलाक के बाद समझौता नहीं करते तो तलाक हो जायगा और आप सोंचते रह जायेंगे की तीन तलाक का क्या हुआ ?

अब तीन तलाक शब्द कहाँ से आया ?

अब यदि पति पत्नी कुरान के हुक्म को माते हुए तलाक दिए जाने के बाद तीन महीने के अन्दर फिर से समझौता कर लेते हैं तो तलाक ख़त्म लेकिन समझौते के बाद फिर से तलाक देने तक उनके रिश्ते आ जाते हैं तो दूसरा तलाक गिना जाता है और ऐसे ही शरीयत उन्हें तीन मौक़ा देती है क्यूँ की अल्लाह चाहता है की पति पत्नी में तलाक ना हो और इन्हें इतना मौक़ा दो ही यह एक हो जाए ,समझौता हो जाय और तलाक ना हो | इसलिए तलाक की प्रक्रिया में तीन तलाक शब्द का इस्तेमाल पति पत्नी को समझौते के लोए दियी जाने वाले तीन अवसर के लिए इस्तेमाल हुआ है न की तलाक देने को आसान करने के लिए |

 अल्लाह कुरआन में फरमाता है – “और जब तुम औरतों को तलाक दो और वो अपनी इद्दत के खात्मे पर पहुँच जाएँ तो या तो उन्हें भले तरीक़े से रोक लो या भले तरीक़े से रुखसत कर दो, और उन्हें नुक्सान पहुँचाने के इरादे से ना रोको के उनपर ज़ुल्म करो, और याद रखो के जो कोई ऐसा करेगा वो दर हकीकत अपने ही ऊपर ज़ुल्म ढाएगा, और अल्लाह की आयातों को मज़ाक ना बनाओ और अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद रखो और उस कानून और हिकमत को याद रखो जो अल्लाह ने उतारी है जिसकी वो तुम्हे नसीहत करता है, और अल्लाह से डरते रहो और ध्यान रहे के अल्लाह हर चीज़ से वाकिफ है” – (सूरेह बक्राह-231)

लेकिन अगर उन्होंने इद्दत के दौरान रुजू नहीं किया और इद्दत का वक़्त ख़त्म हो गया तो अब उनका रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, अब उन्हें जुदा होना है|

इसलिए रोक तलाक पे नहीं बल्कि गाँव इत्यादि में जहाँ लोग अधिक अनपढ़ हैं वहां कुछ कठमुल्लों की मिली भगत से इसे "तलाक तलाक तलाक "कर के आसान बनाया जाता है जो शरीयत के साथ छेड़ छाड़ है और इस पर रोक लगनी चाहिए |

अब दूसरा शब्द है जिसका सबसे अधिक मज़ाक बनाया जाता है या बुरा समझा जाता है वो है "हलाला"जिसे इस प्रकार समझाया जाता है की तलाक तीन बार देने के बाद यदि पति पत्नी फिर से शादी करना चाहें तो लड़की को किसी और की पत्नी बनना होगा और फिर उस से तलाक ले के अपने पहले पति के पास आ सकती है जो की पूर्णतया गलत परिभाषा है |

हलाला है क्या ?

हलाला का तलाक की प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं है क्यूँ की तलाक पूरा हो जाने के बाद पति पत्नी आज़ाद होते हैं और वो जहां चाहें शादी कर सकते है  | ऐसे कि अपनी आज़ाद मर्ज़ी से वो औरत किसी दुसरे मर्द से शादी करे और इत्तिफाक़ से उनका भी निभा ना हो सके और वो दूसरा शोहर भी उसे तलाक देदे या मर जाए तो ही वो औरत पहले मर्द से निकाह कर सकती है, इसी को कानून में ”हलाला” कहते हैं|  लेकिन याद रहे यह इत्तिफ़ाक से हो तो जायज़ है जान बूझ कर या प्लान बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ इस लिए तलाक लेना ताकि पहले शोहर से निकाह जायज़ हो सके यह साजिश सरासर नाजायज़ है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसी साजिश करने वालों पर लानत फरमाई है.

लेकिन तीनबार तलाक और समझौता करने के बाद पत्नी यदि किसी से विवाह नहीं  करती और अपने पति से फिर निकाह चाहती है तो ये मना है और इसका कारण केवल ये है की  तलाक को लोग मज़ाक न बना लें और इसका गलत इस्तेमाल न हो सके |

खुला क्या है ?
अगर सिर्फ बीवी तलाक चाहे तो उसे शोहर से तलाक मांगना होगी, अगर शोहर नेक इंसान होगा तो ज़ाहिर है वो बीवी को समझाने की कोशिश करेगा और फिर उसे एक तलाक दे देगा, लेकिन अगर शोहर मांगने के बावजूद भी तलाक नहीं देता तो बीवी के लिए इस्लाम में यह आसानी रखी गई है कि वो शहर काज़ी (जज) के पास जाए और उससे शोहर से तलाक दिलवाने के लिए कहे, इस्लाम ने काज़ी को यह हक़ दे रखा है कि वो उनका रिश्ता ख़त्म करने का ऐलान कर दे, जिससे उनकी तलाक हो जाएगी, कानून में इसे ”खुला” कहा जाता है.

यही तलाक का सही तरीका है लेकिन अफ़सोस की बात है कि हमारे यहाँ इस तरीके की खिलाफ वर्जी भी होती है और कुछ लोग बिना सोचे समझे इस्लाम के खिलाफ तरीके से तलाक देते हैं जिससे खुद भी परेशानी उठाते हैं और इस्लाम की भी बदनामी होती है.

हाँ यह कोशिश हर मुसलमान को करनी चाहिए की शरीयत के खिलाफ कोई काम न हो और अगर सामाजिक बुराई के रूप में ऐसी कोई समस्या आती जा रही है तो इस् पे रोक लगाने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए |


जानिये अज़ान का इतिहास और मस्जिद से अज़ान देने का कारण |

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आज कल अज़ान बहुत चर्चा में है क्यूँ की ये अज़ान आज हर मस्जिद से पांच वक़्त या तीन वक़्त दी जाती है और बहुत सी मस्जिद में ये अज़ान लाउड स्पीकर के इस्तेमाल से दी जाती है जिसे हर धर्म के लोग सुनते हैं इसलिए इसपे चर्चा भी होनी है जो की उचित भी  है |

सबसे पहले तो ये समझना पड़ेगा की अज़ान क्यूँ दी जाती है और अज़ान में क्या कहा जाता है ?

मदीना में जब सामूहिक नमाज़ पढ़ने के मस्जिद बनाई गई तो इस बात की जरूरत महसूस हुई कि लोगों को नमाज़ के लिए किस तरह बुलाया जाए, उन्हें कैसे सूचित किया जाए कि नमाज़ का समय हो गया है। मोहम्मद साहब ने जब इस बारे में अपने साथियों सहाबा से राय मश्वरा किया तो सभी ने अलग अलग राय दी। किसी ने कहा कि प्रार्थना के समय कोई झंडा बुलंद किया जाए। किसी ने राय दी कि किसी उच्च स्थान पर आग जला दी जाए। बिगुल बजाने और घंटियाँ बजाने का भी प्रस्ताव दिया गया, लेकिन मोहम्मद साहब को ये सभी तरीके पसंद नहीं आए।

रवायतों के अनुसार जिब्रील द्वारा अल्लाह ने इस अज़ान को हज़रत मुहम्मद (स.अ.व ) को एक वही के द्वारा सिखाया और कुछ जगह यह भी मिलता है की जब हज़रत मुहम्मद (स.अ.व ) मीराज पे गए तो रास्ते में एक जगह अल बेत अल मामूर जगह पडी जहां नमाज़ का वक़्त हो गया था तो फरिश्तों के सरदार जिब्रील ने यह अज़ान दी और उसके बाद नमाज़  हज़रत मुहम्मद (स.अ.व ) ने पढ़ी और उनके पीछे फरिश्तों ने पढ़ी |

इस अज़ान को सीखने के बाद  हज़रत मुहम्मद (स.अ.व )  ने हुक्म  दिया की  हज़रत बिलाल को अज़ान इन्ही  शब्‍दों में पढ़ने की हिदायत कर दो, उनकी आवाज़ बुलंद है इसलिए वह हर नमाज़ के लिए इसी तरह अज़ान दिया करेंगे। इस तरह हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु इस्लाम की पहली अज़ान कही। यह अज़ान मदीने में मस्जिद ऐ नबवी की मीनार से और मक्का में खान ऐ काबा की छत से हज़रत बिलाल दिया करते थे |

अज़ान एक घोषणा है जिसमे कहा जाता है की अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर -ईश्वर सब से महान है।

अश-हदू अल्ला-इलाहा इल्लल्लाह-मैं गवाही देता हूं कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा इबादत के योग्य नहीं।

अश-हदू अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह-मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद सल्ल. ईश्वर के अन्तिम संदेष्टा हैं।

ह्या 'अलास्सलाह, ह्या 'अलास्सलाह-आओ नमाज़ की तरफ़। और इसी प्रकार अज़ान की अह्मियात को बताते हुए यह अज़ान ईश्वर सब से महान है और ईश्वर के सिवाए कोई माबूद (पालने वाला ) नहीं। के साजो थ ख़त्म हो जाती है |

इस अज़ान को सुन के लोगों को यह पता चलता है की अल्लाह की इबादत (पांच वक़्त की नमाज़ ) का समय हो गया है चलो नमाज़ पढ़ी जाय | आप कह सकते हैं की 


मस्जिद में लोगों को नमाज़ के लिए बुलाने के लिए अज़ान दी जाती है। अज़ान का भावार्थ है ‘पुकारना या घोषणा करना‘ और यह अल्लाह के पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (स.अ.व ) द्वारा सिखाई गयी और हज़रत बिलाल द्वारा सबसे पहले पढ़ी गयी |

आज यही अज़ान लाउड स्पीकर से इसलिए दी जाती है की इतना शोर रहता है सब तरफ की अगर लाउड स्पीकर से ना दी जाय तो लोगों तक यह आवाज़ नहीं पहुँच पायगी | हमारे भारतवर्ष में लाउड स्पीकर के इस्तेमाल की आजादी हर धर्म के लोगों को दी गयी है और कुछ जगहों पे रात १० बजे के बाद इसकी इजाज़त नहीं है | पहली अज़ान सुबह ५ से  ६ बजे होती है और अंतिम शाम ५-६ बजे तक हुआ करती है |
लेकिन यदि किसी देश के कानून में लाउड स्पीकर के इस्तेमाल पे पाबन्दी है तो इस्लाम कहता है देश के कानून को मानते हुए जीवन गुजारो |

अज़ान के बारे में एक बात और कहता चलूँ की एक दोहा कबीर के नाम से मशहूर है जो कबीर का कहाँ हुआ नहीं है | कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय । ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ॥
अज़ान नमाज़ पढने वालों को बुलाने के लिए की गयी घोषणा का नाम है अल्लाह को सुनाने के लिए नहीं dee जाती और यह बात कबीर दास जैसा ग्यानी जानता था इसलिए यह दोहा उनका नहीं हो सकता |

एक अज़ान का समाज केवल २-३ मिनट का हुआ करता है इसलिए इस्पे किसी तरह की आपत्ति का कोई अर्थ नहीं है उस समय तक जब तक अपने देश में लाउड स्पीकर की इजाज़त है | जिस देश में लाउड स्पीकर पे दिन भर गाने और क़वालियाँ, भजन कीर्तन, हर धर्म वालों के प्रवचन की इजाज़त आराम से dee जाय वहाँ 2-३ मिनट की अज़ान पे आपत्ति का कोई अर्थ नहीं है |

नोइस पोल्लुशन अपने आप में एक समस्या है जिस पे चर्चा होनी चाहिए |

ध्वनि प्रदूषण पे चर्चा की जगह केवल अज़ान पे चर्चा समस्या का हल नहीं |



सृष्टि, ईश्वरीय प्रकाश का एक प्रतिबिंबन है सूरए नूर, आयतें 35-38,

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सूरए नूर, आयतें 35-38,


ईश्वर, आकाशों और धरती का प्रकाश है। उसके प्रकाश की उपमा ऐसी है जैसे एक ताक़ है, जिसमें एक चिराग़ है, वह चिराग़ एक फ़ानूस में है। वह फ़ानूस ऐसा है मानो चमकता हुआ कोई तारा है, वह चिराग़ ज़ैतून के एक बरकत वाले वृक्ष के तेल से जलाया जाता है, जो न पूर्वी है न पश्चिमी। उसका तेल (इतना शुद्ध है कि) निकट है कि अपने आप जल पड़े यद्यपि आग उसे छुए भी नहीं। एक प्रकाश पर दूसरा प्रकाश! ईश्वर जिसे चाहता है अपने प्रकाश से मार्ग दिखा देता है। ईश्वर लोगों के लिए उपमाएं प्रस्तुत करता है और ईश्वर तो हर चीज़ का ज्ञान रखता है। (24:35)


यह आयत, जो आयते नूर के नाम से विख्यात है और इस सूरे का नाम सूरए नूर रखे जाने का एक कारण है, ईश्वर को सृष्टि और जीवन का स्रोत व प्रकाश बताती है। इस आयत में ईश्वर की उपमा प्रकाश से दी गई है। मनुष्य जिन भौतिक वस्तुओं को पहचानता है और जो उसके लिए समझने योग्य हैं, उनमें प्रकाश सबसे उत्कृष्ट है और सभी सौंदर्यों का स्रोत है।

प्रकाश, हर प्रकार की अच्छाई का स्रोत है और उसकी ओर से कोई बुराई या हानि नहीं होती। सभी वनस्पतियों, पशुओं और मनुष्यों का जीवन, सूर्य के प्रकाश पर निर्भर है और प्रकाश के बिना जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है। प्रकाश स्वयं भी उज्ज्वल होता है और अन्य वस्तुओं को भी प्रज्वलित करता है। ईश्वर स्वयं भी प्रकाश है और सभी रचनाओं एवं संपूर्ण सृष्टि के अस्तित्व में आने का कारण भी है।

ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है और सृष्टि उसी के कारण अपने स्थान पर बाक़ी है। इसके अतिरिक्त ईश्वर आकाश, धरती और सभी रचनाओं का मार्गदर्शक भी है। जैसा कि सूरए ताहा की पचासवीं आयत में कहा गया है कि ईश्वर ने हर वस्तु की रचना की और फिर उसका मार्गदर्शन किया।

आयत आगे चल कर ईश्वरीय मार्गदर्शन को एक प्रकाशमान दीपक की उपमा देती है जो हर घर में प्रकाश फैलाता है और घर वालों को अंधकार से सुरक्षित रखता है। वह दीपक भी ऐसा है जो उचित स्थान पर रखा हुआ है और शीशे के फ़ानूस के भीतर होने के कारण उसे बुझने का भी कोई भय नहीं है। उस दीपक का ईंधन एक शुद्ध तेल है। स्पष्ट है कि इस प्रकार के दीपक का प्रकाश बहुत अधिक होगा, वह सदा प्रकाशमान रहेगा और कभी भी बुझेगा नहीं। जी हां, ईश्वरीय मार्गदर्शन कि जो आसमानी किताबों, पैग़म्बरों और ईश्वर के विशेष संदेश द्वारा मनुष्य तक पहुंचता है और ईमान वालों के हृदय में समा जाता है, सदैव उन्हें प्रकाश देता रहेगा और उन्हें अत्याचार व अज्ञान के अंधकारों से बाहर निकालता रहेगा।

इस आयत से हमने सीखा कि सृष्टि, ईश्वरीय प्रकाश का एक प्रतिबिंबन है जो इस भौतिक संसार में दिखाई पड़ता है।

ईश्वरीय मार्गदर्शन, आकाश और धरती को भी एक निर्धारित मंज़िल की ओर बढ़ा रहा है और मनुष्य को भी वांछित परिपूर्णता की ओर ले जा रहा है।

सच्चे ईमान का पोषण उस मार्गदर्शन से होता है जो उसे सीधे रास्ते पर ले जाता है और हर प्रकार की पथभ्रष्टता से सुरक्षित रखता है।

सूरए नूर की आयत क्रमांक 36

(मार्गदर्शन का यह प्रकाश) उन घरों में है जिन्हें ऊँचा करने और जिनमें अपने नाम के सुबह शाम याद करने की ईश्वर ने अनुमति दी है। (24:36)
यह आयत कहती है कि धरती पर ईश्वरीय मार्गदर्शन के दीपक उन घरों में जल रहे हैं और दूसरों को प्रकाश प्रदान कर रहे जिनमें रहने वाले, नमाज़ पढ़ते हैं और ईश्वर को याद करते रहते हैं। ये ऐसे घर हैं जिन्हें ईश्वर ने दूसरे घरों से उच्च बनाया है और ईमान वालों के बीच भी उनका स्थान उच्च होना चाहिए।
स्पष्ट है कि मक्का नगर में स्थित काबे और संसार की सभी मस्जिदों एवं अन्य धार्मिक स्थानों को इसी प्रकार की विशेषता प्राप्त है और लोगों को ईश्वरीय मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए इन्हीं स्थानों की और जाना चाहिए।
इस आयत से हमने सीखा कि मस्जिदों को अन्य घरों की तुलना में विशिष्ट और हर प्रकार से बेहतर होना चाहिए।
ईश्वर की याद जिस घर में भी होती है उस घर का मूल्य बढ़ जाता है और वह घर अन्य घरों से अलग हो जाता है।
सूरए नूर की आयत क्रमांक 37 और 38



वे पुरुष जिन्हें व्यापार और क्रय-विक्रय ईश्वर की याद, नमाज क़ायम करने और ज़कात देने से निश्चेत नहीं करता। वे उस दिन से डरते रहते है जिसमें हृदय और आँखें पलट जाएँगी। (24:37) ताकि ईश्वर उन्हें उनके अच्छे से अच्छे कर्मों का बदला प्रदान करे।और अपने उदार अनुग्रह से उन्हें और अधिक प्रदान करे। और ईश्वर जिसे चाहता है बेहिसाब प्रदान करता है। (24:38)



ईश्वरीय मार्गदर्शन से लाभान्वित होने वाले लोग, अपनी भौतिक एवं सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयास करते हैं और काम व व्यापार करते हैं किंतु ये चीज़ें उन्हें आध्यात्मिक कार्यों व धार्मिक दायित्वों के पालन से नहीं रोकतीं और वे सदैव अपने अंजाम के बारे में विचार करते हैं। वे इस बात पर ध्यान रखते हैं कि उन्हें ईश्वरीय न्यायालय में उपस्थित होना है और अपने कर्मों का जवाब देना है। यही बात एक मज़बूत कारक के रूप में ईमान वालों को बुराइयों से रोकती है और अच्छे व भले कर्मों की ओर उन्मुख करती है।

अलबत्ता ईश्वर, भले लोगों के साथ दया व कृपा का जबकि बुरे कर्म करने वालों के साथ न्याय का व्यवहार करता है। वह सद्कर्मों का कई गुना और कभी कभी तो सात सौ गुना पारितोषिक देता है किंतु बुरे कर्म का उसकी बुराई के अनुपात में दंड देता है।

भले कर्म करने वाले बंदों पर ईश्वर की कृपा यह है कि वह उनके कर्मों की कमी की भरपाई करके उन्हें कर्म का पूरा बदला देता है। इसके अतिरिक्त प्रलय में उसने उनके पारितोषिक को अत्यंत व्यापक व अपेक्षा से कहीं अधिक रखा है और वह उन्हें इतना प्रदान कर देगा कि संसार के अनुसार उसका हिसाब नहीं किया जा सकेगा।

पैग़म्बर व उनके परिजनों के कथनों के अनुसार ईश्वर के अच्छे बंदे जब भी अज़ान की आवाज़ सुनते हैं, जो भी काम वे कर रहे होते हैं उसे छोड़ कर नमाज़ की ओर चले जाते हैं। नमाज़ पढ़ते समय ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी बात उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं करती।


इन आयतों से हमने सीखा कि धन-दौलत और भौतिक मामलों का आकर्षण इतना अधिक है कि यदि मनुष्य ध्यान न दे तो वे उसे ईश्वर की याद से रोक देते हैं।

वही व्यापार मूल्यवान है जो ईश्वर की याद, नमाज़ और ज़कात के साथ हो। ईश्वर के प्रिय बंदे अपने भौतिक जीवन के लिए प्रयत्न करते हैं किंतु वे प्रलय की ओर से भी निश्चेत नहीं रहते। दूसरे शब्दों में ईश्वर की याद को छोड़ कर किया जाने वाला व्यापार मूल्यहीन व पतन का कारण है। वस्तुतः यह नमाज़ और ईश्वर की याद है जो व्यापार में बरकत लाती है और समाज की प्रगति का कारण बनती है।

प्रलय में हर चीज़ पलट जाएगी। जो वस्तु संसार में बहुत मूल्यवान प्रतीत होती थी वह मूल्यहीन हो जाएगी और जो वस्तु संसार में मूल्यहीन लगती थी वह मूल्यवान हो जाएगी।


जो लोग ईश्वर के लिए व्यापार के लाभ से आंखें मूंद लेते हैं ईश्वर उन्हें बेहिसाब लाभ प्रदान करता है।




महिलाओं के लिए श्रृंगार प्रदर्शन पर पुरुषो के बीच उचित नहीं है सूरए नूर, आयतें 43-60

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सूरए नूर, आयतें 43-47


क्या तुमने देखा नहीं कि ईश्वर (ही पहले हवाओं के सहारे) बादलों को चलाता है? फिर उनको आपस में मिला देता है। फिर उन्हें (एक दूसरे पर) तह ब तह कर देता है। फिर तुम देखते हो कि उसके बीच से वर्षा होती है।और वह आकाश से पहाड़ जैसे बादलों से ओले बरसाता है। फिर जिस पर चाहता है, उन ओलों को गिराता है और जिस पर से चाहता है उस (के नुक़सान) को हटा देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस (बादल) की बिजली की चमक आंखों (की रोशनी) को उचक ले जाएगी। (24:43) ईश्वर ही रात और दिन को (एक दूसरे पर) पलटता रहता है। निश्चय ही इसमें बुद्धि वालों के लिए एक पाठ है। (24:44)



ये आयतें सृष्टि के संचालन मे ईश्वर की भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि रात दिन की आवाजाही जो धरती, चंद्रमा व सूर्य की व्यवस्थित चाल का परिणाम है, ईश्वर का काम है और यह संयोगवश नहीं है। क्या बुद्धि इस बात को स्वीकार करती है कि किसी संयोग से इतनी सुव्यवस्थित, सटीक एवं आश्चर्यजनक व्यवस्था निकल कर आए? यह ऐसा ही है जैसे कोई यह दावा करे कि उसने अक्षरों को एक दूसरे में गडमड करने के बाद उन्हें इतना हिलाया कि उनसे सुंदर कविताओं की एक किताब तैयार हो गई! क्या कोई इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार होगा?

न केवल धरती की परिक्रमा और दिन व रात की आवाजाही बल्कि आकाश में बादलों का इधर से उधर होना भी ईश्वरीय युक्ति के आधार पर है। हवाओं का चलना और बड़े-बड़े बादलों का बनना कि जो वर्षा और कभी कभी ओले गिरने का कारण बनते हैं, यद्यपि एक प्राकृतिक क्रिया है किंतु यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है यही कारण है कि कभी किसी क्षेत्र में वर्षा होती है तो दूसरे क्षेत्र में नहीं होती।

रात दिन की आवाजाही के विपरीत कि जो सदा एक स्थायी एवं समीकरण योग्य बात है, धरती के विभिन्न क्षेत्रों में बादलों का चलना और बारिश या ओलों का गिरना, एक समान नहीं होता अतः संभव है कि किसी क्षेत्र में एक या कई वर्ष तक बहुत अधिक वर्षा हो और अगले वर्षों में उसी क्षेत्र में सूखा व अकाल पड़ जाए।

इन आयतों से हमने सीखा कि सृष्टि की व्यवस्था में प्राकृतिक कारक, ईश्वर की इच्छा और उसकी शक्ति के अंतर्गत हैं और ईश्वर अपनी तत्वदर्शिता के आधार पर उन्हें प्रयोग करता है।

वर्षा, ओले और बर्फ़बारी, लाभदायक भी हो सकती है और हानिकारक भी और ये दोनों बातें ईश्वर की इच्छा पर निर्भर हैं।


 सूरए नूर की आयत क्रमांक 45 


और ईश्वर ने हर जीव को पानी से पैदा किया, तो उनमें से कोई अपने पेट के बल चलता है और कोई दो टाँगों पर चलता है और कोई चार (टाँगों) पर चलता है। ईश्वर जो चाहता है, पैदा करता है क्योंकि निश्चय ही ईश्वर को हर चीज़ पर सामर्थ्य प्राप्त है। (24:45)



पिछली आयतों में वर्षा और दिन रात की आवाजाही की शैली के बारे में संकेत करने के बाद ईश्वर इन आयतों में विभिन्न प्रकार के जीवों के जीवन के बारे में कहता है कि ज़मीन, आकाश या समुद्र में पाए जाने वाले सभी पशु-पक्षी ईश्वरीय युक्ति के आधार पर पानी से बनाए गए हैं और उन्हें अपने जीवन को जारी रखने के लिए भी पानी की आवश्यकता होती है।

धरती में जीवों की विविधता और अनेक प्रकार के प्राणियों का अस्तित्व जिनमें से कुछ की ओर इस आयत में संकेत किया गया है, ईश्वर की असीम शक्ति का चिन्ह है जिसने इसी पानी व मिट्टी से इतने प्रकार के जीव जंतु और पशु पक्षी बनाए।

इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर द्वारा जीवों की सृष्टि समाप्त नहीं हुई है और अब भी जारी है।

हर जीव का मूल तत्व पानी है। यह ईश्वर की शक्ति की निशानी है कि उसने इतनी सरल सी चीज़ से इतने विविध जीवों की रचना की है।

यदि मनुष्य में आध्यात्मिक गतिशीलता न हो तो फिर वह भौतिक गतिशीलता में अन्य जीवों की क़तार में आ जाएगा और एक पशु से आगे नहीं बढ़ सकेगा।



 सूरए नूर की आयत क्रमांक 46 और 47 



निश्चय ही हमने (सत्य) प्रकट कर देने वाली आयतें उतार दी हैं। और ईश्वर जिसे चाहता है उसका सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन करता है। (24:46) वे कहते हैं कि हम ईश्वर और उसके पैग़म्बर पर ईमान लाए और (उनका) आज्ञापालन कर रहे हैं। फिर इस (स्वीकारोक्ति) के बाद उनमें से एक गुट मुंह मोड़ लेता है। और वे कदापि वास्तविक ईमान वाले नहीं हैं। (24:47)



सृष्टि की व्यवस्था में ईश्वरीय निशानियों के वर्णन के पश्चात ये आयतें लोगों के मार्गदर्शन के लिए ईश्वर की ओर से अपना विशेष संदेश वहि भेजे जाने की ओर संकेत करती हैं और कहती हैं कि आसमानी किताब की तथ्य उजागर करने वाली आयतें लोगों को जीवन के सही मार्ग की ओर आमंत्रित करती हैं कि जो हर प्रकार के टेढ़ेपन और कमी व बेशी से दूरी पर आधारित है। यही वह मार्ग है जो ईश्वर ने, गंतव्य तक पहुंचने के लिए मनुष्य के समक्ष रखा है और अपने पैग़म्बरों को इसी सीधे रास्ते की ओर उसका मार्गदर्शन करने का दायित्व सौंपा है।

अलबत्ता सदैव लोगों के कुछ गुट झूठ बोल कर स्वयं को पैग़म्बरों तक उनके बताए हुए मार्ग का अनुयाई कहते हैं और ज़बान से उस बात का दावा करते हैं जिसे न तो वे दिल से स्वीकार करते हैं और जो न उनके कर्म में दिखाई देती है।

इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर ने पैग़म्बरों को भेज कर तथा तथ्यों को स्पष्ट करने वाली आयतें उतार कर लोगों के मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध करा दिए हैं और अब उनके पास ईमान न लाने का कोई बहाना नहीं रह गया है।


इस्लामी समाजों के समक्ष मिथ्या एक बहुत बड़ा ख़तरा है और वह उन्हें क्षति पहुंचाती है।

किसी भी बात पर बहुत जल्दी भरोसा नहीं करना चाहिए और सुंदर नारों के धोखे में नहीं आना चाहिए।



सूरए नूर, आयतें 48-52,


और जब उन्हें ईश्वर और उसके पैग़म्बर की ओर बुलाया जाता हैताकि पैग़म्बर उनके बीच फ़ैसला करे तो अचानक उनमें से एक गुट मुंह मोड़ लेता है। (24:48) और यदि हक़ उन्हें मिलने वाला हो तो वे उनकी ओर आज्ञाकारी बन कर आ जाते हैं। (24:49) क्या उनके हृदयों में रोग है या वे सन्देह में पड़े हुए हैं या उन्हें यह डर है कि ईश्वर और उसका पैग़म्बर उनके साथ अन्याय करेंगे? (ऐसा नहीं है) बल्कि वे स्वयं ही अत्याचारी हैं। (24:50)



पिछली आयतों में इस्लामी समाज में मिथ्या के ख़तरे की ओर संकेत किया गया था। ये आयतें ईमान के कमज़ोर होने और मिथ्या में ग्रस्त होने की एक निशानी का वर्णन करते हुए कहती हैं कि जब कभी उनके और मुसलमानों के बीच मतभेद होता है और हक़ उनकी ओर हो तो वे पैग़म्बर के फ़ैसले को स्वीकार कर लेते हैं और अपने आपको पैग़म्बर का आज्ञापालक बताते हैं किंतु यदि पैग़म्बर का फ़ैसला उनके विरुद्ध होता है तो वे मुंह मोड़ लेते हैं और उस फ़ैसले को स्वीकार नहीं करते जबकि वे जान रहे होते हैं कि पैग़म्बर, ईश्वर का आदेश बयान कर रहे हैं।

आज भी ईमान के बहुत से दावेदारों के लिए कार्यों के सही या ग़लत होने की कसौटी सत्य या असत्य नहीं बल्कि व्यक्तिगत या दलगत हित है। जो भी उनके हित में हो वह सही है और जो भी उनके हित में न हो वह असत्य है। इस प्रकार की भावना, ईमान से मेल नहीं खाती।

आगे चल कर आयतें इस दोहरे मानदंड के मुख्य कारणों का उल्लेख करती हैं और कहती हैं कि संसार प्रेम और स्वार्थ की भावना कभी कभी इस सीमा तक पहुंच जाती है कि मनुष्य हर उस बात को नकार देता है जो उसके हित में न हो चाहे वह पैग़म्बर का आदेश ही क्यों न हो। और कभी कुछ लोग इतने निर्लज्ज हो जाते हैं कि वे अपने ऊपर होने वाले तथाकथित अत्याचार को ईश्वर व पैग़म्बर से संबंधित कर देते हैं और सोचते हैं कि जो कुछ उनकी इच्छा व हितों के अनुसार हो वही न्याय है।

इन आयतों से हमने सीखा कि सच्चे ईमान की निशानी ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आदेश के समक्ष नतमस्तक रहना है चाहे वह आदेश हमारी इच्छा के विपरीत ही क्यों न हो।

न्यायपूर्ण फ़ैसला कुछ लोगों को नहीं भाता, इस प्रकार से कि यदि वह फ़ैसला पैग़म्बर ने भी किया हो तो वे उसे अत्याचारपूर्ण बता कर स्वीकार करने से इन्कार कर देते हैं।

ईश्वर पर संदेह और उसके संबंध में बुरा विचार रखना अत्याचार है।



 सूरए नूर की आयत नंबर 51 और 52



जब ईमान वालों को ईश्वर और उसके पैग़म्बर की ओर बुलाया जाता है ताकि वे उनके बीच फ़ैसला करेंतो उनका कथन इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं होता कि हमने सुना और आज्ञापालन किया और यही लोग तो कल्याण प्राप्त करने वाले हैं। (24:51) और जो कोई ईश्वर और उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन करे, ईश्वर से डरे और उसकी उद्दंडता से बचे, तो ऐसे ही लोग कल्याण प्राप्त करने वाले हैं। (24:52)



पिछली आयतों में ईश्वर व पैग़म्बर के आदेश के प्रति ईमान के कुछ दावेदारों के अनुचित व्यवहार का वर्णन किया गया और हमने देखा कि वे किस प्रकार असत्य को सत्य समझते थे और कहते थे कि पैग़म्बर ने उनके संबंध में सही फ़ैसला नहीं किया। ये आयतें इस प्रकार के लोगों के जवाब में पैग़म्बर के सच्चे अनुयाइयों की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि सच्चा मोमिन वही है जो ज़बान से भी पैग़म्बर के आदेश को स्वीकार करे और व्यवहारिक रूप से भी उनका आज्ञापालन करे, न ज़बान से उनका विरोध करे और न ही व्यवहार में ढिलाई बरते।

स्पष्ट है कि मनुष्य में इस प्रकार की भावना केवल ईश्वर के भय और उसकी उद्दंडता से डर की छाया में ही पैदा होती है और मोक्ष व कल्याण की मंज़िल तक पहुंचा देती है।

चूंकि कुछ ईमान वाले यद्यपि ईश्वर के आज्ञापालक हैं किंतु उनका आज्ञापालन एक प्रकार की अप्रसन्नता के साथ होता है इस लिए आगे चल कर आयतें कहती हैं कि यदि सत्य का अनुसरण, पालनहार के समक्ष नतमस्तक और उससे भयभीत रहने की भावना के साथ हो तो मनुष्य जीवन की कठिन परीक्षाओं से सफल हो कर निकलेगा और उसे लोक-परलोक में कल्याण प्राप्त होगा।



हदीसों के अनुसार हज़रत अली अलैहिस्सलाम जो सदैव ईश्वर एवं उसके पैग़म्बर के आदेश के समक्ष नतमस्तक रहे, इन आयतों के सबसे बड़े उदाहरण माने जाते हैं जिन्हें महान सफलता प्राप्त हुई।

इन आयतों से हमने सीखा कि मोक्ष व कल्याण, ईश्वर के आदेशों के समक्ष सिर झुकाने से प्राप्त होता है। यदि हम अपने ईमान को परखना चाहें तो यह देखें कि हम ईश्वर व उसके पैग़म्बर के आदेशों के समक्ष किस सीमा तक नतमस्तक रहते हैं।


ईमान वाले व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण बात अपने दायित्व का पालन है चाहे वह उसके हित में हो या उसके लिए हानिकारक हो।

ईश्वर के मुक़ाबले में आंतरिक लज्जा और उसकी उद्दंडता से भय, मनुष्य को जीवन के विभिन्न मंचों पर बुराइयों से सुरक्षित रखता है और उसे गंतव्य तक पहुंचाता है।

सूरए नूर, आयतें 53-57



और उन्होंने अल्लाह की कड़ी क़सम खाई कि यदि आप उन्हें आदेश दें तो वे अवश्य ही (जेहाद के लिए अपने घरों से) निकल पड़ेंगे। कह दीजिए कि क़सम न खाओ कि उचित आज्ञापालन (बड़े बड़े दावे करने से बेहतर) है। निःसंदेह जो कुछ तुम करते हो, ईश्वर उससे अवगत है। (24:53) कह दीजिए कि ईश्वर का आज्ञापालन करो और उसके पैग़म्बर का भी आज्ञापालन करो। तो यदि तुम मुँह मोड़ते हो तो (उससे पैग़म्बर को कोई हानि नहीं होगी क्योंकि) उन पर तो बस वही दायित्व है जिसका बोझ उन पर डाला गया है, और तुम लोग उसके उत्तरदायी हो जो दायित्व तुम पर डाला गया है। और यदि तुम उनका आज्ञापालन करोगे तो मार्गदर्शन पा जाओगे। और पैग़म्बर पर तो स्पष्ट रूप से (ईश्वर का संदेश) पहुँचा देने के अतिरिक्त कोई दायित्व नहीं है। (24:54)



मुनाफ़िक़ या मिथ्याचारी वे लोग हैं जो विदित रूप से तो ईमान का दावा करते हैं किंतु मन से ईमान नहीं लाते। उनकी एक शैली यह है कि वे बहुत अधिक क़सम खाते हैं। जब भी उन्हें आभास होता है कि इस्लामी समाज ने उन्हें पहचान लिया है और उन्हें अलग थलग करने का प्रयास कर रहा है तो वे बड़ी बड़ी क़सम खा कर कहते हैं कि हम ईश्वर के मार्ग में अपनी जान व माल न्योछावर करने के लिए तैयार हैं और ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आज्ञापालन में तनिक भी ढिलाई नहीं करेंगे। किंतु अनुभवों से पता चलता है कि जो लोग इस प्रकार की बातें करते हैं वे कर्म के समय विभिन्न बहानों से अनुपस्थित रहते हैं और कठिनाइयों से दूर भागते हैं।

ईश्वर इस प्रकार के दोहरे व्यवहार के जवाब में कहता है कि सौगंध की आवश्यकता नहीं है बल्कि तुम व्यवहार और कर्म में यह दिखाओं की तुम आज्ञापालक हो और ईमान के अपने दावे में सच्चे हो। यह मत सोचो कि तुम लोगों को धोखा देकर स्वयं को ईमान वाला दर्शा सकोगे क्योंकि तुम्हारा सामना उस ईश्वर से है जो तुम्हारे अंतर्मन से अवगत है और उससे कोई भी बात छिपी हुई नहीं है।


आगे चलकर आयतें इस बात पर बल देती हैं कि पैग़म्बर का आज्ञापालन या उनके आदेशों की अवज्ञा, स्वयं उनके लिए लाभदायक या हानिकारक नहीं है बल्कि इसका लाभ या हानि स्वयं तुम्हारे लिए है। यदि तुम उनका आज्ञापालन करोगे तो तुम्हें मार्गदर्शन प्राप्त होगा और तुम जीवन में पथभ्रष्टताओं से बचे रहोगे किंतु यदि तुमने उनके आदेशों का पालन नहीं किया तो तुम्हारे संबंध में पैग़म्बर का कोई दायित्व नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी है और ईश्वर के आदेश को स्पष्ट रूप से सबके पास पहुंचा दिया है मगर तुमने ईश्वर की शिक्षाओं और आदेशों के पालन के अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया है।

इन आयतों से हमने सीखा कि कुछ लोगों की बड़ी बड़ी क़समों के धोखे में नहीं आना चाहिए क्योंकि यह ईमान वालों की नहीं बल्कि मिथ्याचारियों की निशानी है।

पैग़म्बर का दायित्व लोगों तक ईश्वर का आदेश पहुंचाना है, उन्हें उन आदेशों को स्वीकार करने के लिए बाध्य करना नहीं।

पैग़म्बर के आदेशों का पालन भी ईश्वर के आदेशों के पालन के समान आवश्यक है और उनके आदेशों की अवज्ञा, ईश्वर के आदेशों की अवज्ञा के समान है।



 सूरए नूर की आयत नंबर 55 



ईश्वर ने तुममें से उन लोगों से, जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए, वादा किया है कि वह उन्हें धरती में अवश्य ही उत्तराधिकार प्रदान करेगा, जैसे उसने उनसे पहले वाले लोगों को उत्तराधिकार प्रदान किया था। और उनके लिए अवश्य ही उनके उस धर्म को सुदृढ़ बना देगा जिसे उसने उनके लिए पसन्द किया है। और निश्चय ही उनके वर्तमान भय के पश्चात उसे उनके लिए शान्ति और निश्चिन्तता में बदल देगा। वे मेरी बन्दगी करते हैं, किसी को मेरा समकक्ष नहीं ठहराते। और जो कोई इसके पश्चात इन्कार करे, तो ऐसे ही लोग अवज्ञाकारी हैं। (24:55)


पिछली आयतों में ईश्वर व पैग़म्बर के समक्ष नतमस्तक रहने और उनके संपूर्ण आज्ञापालन को वास्तविक ईमान की निशानी बताया गया था। यह आयत कहती है कि ईश्वर के आज्ञापालन का परिणाम केवल प्रलय में ही सामने नहीं आएगा बल्कि इस संसार में उसका परिणाम एक स्वस्थ एवं न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना है जो समाज को हर प्रकार के अत्याचार व असुरक्षा से मुक्ति दिलाती है और वास्तविक शांति व सुरक्षा स्थापित करती है।

यह सद्कर्मी ईमान वालों से ईश्वर का वादा है और यह वादा भले कर्म करने वाले पिछले समुदायों के संबंध में भी पूरा हो चुका है। इसके बाद भी जो भी समुदाय ईश्वर पर ईमान रखेगा तथा भले कर्म करेगा, ईश्वर अपने इस वादे को पूरा करेगा तथा उसे शक्ति व सत्ता प्रदान करेगा। हदीसों के अनुसार यह आयत अंतिम काल में पूर्ण रूप से चरितार्थ होगी जब इमाम महदी की वैश्विक सरकार स्थापित होगी।

इस आयत से हमने सीखा कि संसार में एकेश्वरवाद की स्थापना के लिए सत्ता हाथ में लेना, शांति व सुरक्षा स्थापित करना तथा अनेकेश्वरवाद के चिन्हों को समाप्त करना ईमान वालों की आकांक्षा है और ईश्वर ने इसे पूरा करने का वचन दिया है।

धर्म, राजनीति से अलग नहीं है बल्कि सत्ता व राजनीति धर्म व धर्म का पालन करने वालों की सुरक्षा के लिए है।

ईमान वालों की विजय, भले कर्म करने वालों की वैश्विक सरकार की स्थापना और काफ़िरों के प्रभुत्व की समाप्ति, उन निश्चित घटनाओं में से हैं जो ईश्वरीय वचन के अनुसार भविष्य में हो कर रहेंगी।



  सूरए नूर की आयत नंबर 56 और 57 



और नमाज़ स्थापित करो, ज़कात दो और पैग़म्बर का आज्ञापालन करोकि शायद तुम पर दया की जाए। (24:56) कदापि यह न समझो कि कुफ़्र अपनाने वाले हमें, धरती में असहाय बना देने वाले हैं। उनका ठिकाना (नरक की) आग हैऔर वह बहुत ही बुरा ठिकाना है। (24:57)



पिछली आयतों का क्रम जारी रखते हुए इन आयतों में भी ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आदेशों के पालन पर एक बार फिर बल दिया गया है। आयतें कहती हैं कि नमाज़ पढ़ कर ईश्वर से संबंध मज़बूत बनाना, ज़कात दे कर दरिद्रों से निकट संबंध स्थापित करना और ईश्वरीय दूत के आदेशों का पालन करके उसके साथ सुदृढ़ संबंध स्थापित करना हर वास्तविक ईमान वाले व्यक्ति का दायित्व है। स्पष्ट है कि ईमान वाले इन्हीं संबंधों की रक्षा से, इस्लामी सरकार के बाक़ी व सुदृढ़ रहने के संबंध में ईश्वर की दया व कृपा के पात्र बन सकते हैं।

निश्चित रूप से ईमान वालों द्वारा उठाए गए क़दमों के मुक़ाबले में इस्लाम के शत्रु भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहेंगे और अपने हाथ से सत्ता नहीं जाने देंगे, इसी लिए आगे चल कर आयतें कहती हैं कि उनकी इच्छा, ईश्वर की इच्छा के मुक़ाबले में कुछ नहीं है और सत्य के पक्षधर लोगों की अंतिम विजय के संबंध में ईश्वरीय इच्छा के व्यवहारिक होने को नहीं रोक सकती।



इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम की दृष्टि में उपासना, अर्थव्यवस्था और राजनैतिक, सामाजिक व सरकारी मामले एक दूसरे से अलग नहीं हैं।

काफ़िर चाहे जितने भी सशक्त हों, संसार में इस्लाम के प्रसार को रोकने के उनके प्रयास सफल नहीं हो सकेंगे और एक दिन इस्लाम की सरकार स्थापित हो कर रहेगी।



सूरए नूर, आयतें 58-61,




हे ईमान वालो! तुम्हारे दास-दासियों और तुममें जो अभी वयस्कता को नहीं पहुँचे हैं,उन्हें चाहिए कि तीन समयों में तुमसे अनुमति लेकर तुम्हारे पास आएँ, भोर समय की नमाज़ से पहले और जब दोपहर को जब तुम (आराम के लिए) अपने कपड़े उतार देते हो और रात की नमाज़ के बाद, ये तीन समय तुम्हारे (आराम के) लिए परदे व एकांत के हैं। इनके अतिरिक्त (बिना अनुमति के प्रवेश करने पर) न तो तुम पर कोई पाप है और न उन पर क्योंकि वे तुम्हारे पास अधिक चक्कर लगाते हैं अर्थात अधिक आते जाते रहते हैं और तुम्हें एक दूसरे के पास बार-बार आना ही होता है। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है और ईश्वर ज्ञानी (व) तत्वदर्शी है। (24:58) और जब तुम्हारे बच्चे वयस्कता को पहुँच जाएँ तो उन्हें (भी) चाहिए कि (माता-पिता के कमरे में जाने से पहले) अनुमति ले लिया करें जैसे कि उनसे पहले के लोग अनुमति लेते रहे हैं। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है और ईश्वर ज्ञानी (भी है और) तत्वदर्शी भी। (24:59)



सूरए नूर जो व्यभिचारी पुरुषों व महिलाओं को दंडित किए जाने के आदेश से आरंभ हुआ था, अपनी अंतिम आयतों में बच्चों के बीच अनैतिकता को रोकने और परिवार में पवित्रता की रक्षा के लिए कहता है कि घर के दास-दासियों और छोटे-बड़े बच्चों को जो स्वाभाविक रूप से घर के हर कोने में आते जाते रहते हैं, माता-पिता की निजता का ध्यान रखना चाहिए और बिना अनुमति लिए उनके कमरे में नहीं जाना चाहिए।

अलबत्ता चूंकि बहुत छोटे बच्चे माता-पिता से अधिक जुड़े होते हैं और प्रायः उन्हीं के साथ रहते हैं इस लिए ये आयतें विशेष रूप से उनके बारे में कहती हैं कि छोटे बच्चों को भी माता-पिता के आराम के समय उनके कमरे में जाने से पूर्व अनुमति लेनी चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों को बचपन से ही यह आदेश सिखा दें और इस प्रकार उन्हें पवित्र प्रशिक्षित करें।

इन आयतों से हमने सीखा कि दांपत्य संबंध इस प्रकार होने चाहिए कि बच्चों की पवित्रता और माता-पिता की निजता दोनों की रक्षा हो।

बच्चों को अपने घर और परिवार से पवित्रता का पाठ सीखना चाहिए।

पति को चाहिए कि अपनी दिनचर्या में से कुछ समय पत्नी के लिए विशेष करे और बच्चों को ऐसे समय में उनके बीच रुकावट नहीं बनना चाहिए।


 सूरए नूर की आयत नंबर 60 



और जो वृद्ध स्त्रियाँ जिन्हें विवाह की आशा न रह गई हो, उन पर कोई दोष नहीं कि वे अपने कपड़े (अर्थात आवरण) उतार कर रख दें, इस शर्त के साथ कि वे अपने श्रृंगार का प्रदर्शन न करें। फिर भी यदि वे इससे बचें तो यह उनके लिए बेहतर है। और ईश्वर सुनने वाला और जानकार है। (24:60)


महिलाओं के हिजाब या आवरण के संबंध में मूल आदेश इस सूरे की 31वीं आयत में बयान किया गया है। यह आयत वृद्ध महिलाओं को उस आदेश से अलग करते हुए कहती है कि जो महिलाओं अधिक आयु के कारण विवाह में रुचि नहीं रखतीं और इसी प्रकार कोई पुरुष भी उनसे विवाह नहीं करना चाहता उन्हें इस बात की अनुमति है कि वे नामहरम अर्थात परपुरुष के सामने भी अपना आवरण या चादर उतार दें। अल्बत्ता यह केवल उसी स्थिति में वैध है जब उनके सिर या गर्दन में कोई आभूषण न हो और उन्होंने श्रृंगार न कर रखा हो।



स्वाभाविक है कि इस प्रकार की महिलाओं में यौन आकर्षण नहीं रह जाता और उनके द्वारा पर्दा न करने से समाज में किसी प्रकार की बुराई फैलने की आशंका नहीं होती। अलबत्ता यदि ये महिलाएं भी, हिजाब के क़ानून का सम्मान करते हुए, अन्य महिलाओं की भांति ही पर्दा करें तो यह पवित्रता के अधिक निकट है और स्वयं उनके लिए भी अधिक प्रिय है।

यह आयत भली भांति यह दर्शाती है कि हिजाब का वास्तविक तर्क, महिलाओं की नैतिक पवित्रता की रक्षा करना है और निश्चित रूप से यह स्वयं उनके ही हित में है। इस्लाम की दृष्टि में उसी पहनावे को हिजाब समझा जाता है जो पुरुषों को उत्तेजित न करता हो।

इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम के क़ानून लचकदार और वास्तविकताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल हैं अतः लोगों की स्थितियों के परिवर्तित होने के साथ उनमें भी परिवर्तन आता है जैसा कि यह आयत, वृद्ध महिलाओं के लिए हिजाब को सरल बनाती है।


महिलाओं के लिए श्रृंगार किए हुए चेहरे के साथ परपुरुषों के बीच उपस्थित होना वैध नहीं है।




हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)

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हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद (स. अ.) के चोथे जां नशीन, हमारे चौथे इमाम और चाहरदा मासूमीन (अ.स.) की छटे मोहतरम फ़र्द हैं। आपके वालिदे माजिद शहीदे करबला हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) थे और वालेदा माजेदा जनाबे शाहे ज़नान उर्फ़ शहर बानो थीं। आप अपने आबाओ अजदाद की तरह इमामे मन्सूस, मासूम, आलमे ज़माना और अफ़ज़ले कायनात थे। उलेमा का बयान है कि आप इल्म, ज़ोहद, इबादत में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की जीती जागती तस्वीर थे। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 119)

इमाम ज़हरी इब्ने अयनिया और इब्ने मुसय्यब का बयान है कि हम ने आपसे ज़्यादा किसी को अफ़ज़ले इबादत ग़ुज़ार और फ़क़ीह नहीं देखा। (नूरूल अबसार सफ़ा 126)

एक शख़्स ने सईद बिन मुसय्यब से किसी का ज़िक्र करते हुए कहा कि वह बड़ा मुत्तक़ी है। इब्ने मुसय्यब ने पूछा, तुम ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को देखा है? उसने कहा नहीं। उन्होंने जवाब दिया ‘‘ मा रायता अहदन अवरा मिनहा ’’ मैंने उनसे ज़्यादा मुत्तक़ी और परहेज़गार किसी को नहीं देखा। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 267)

इब्ने अबी शेबा का कहना है कि ‘‘ असहा इलासा नीद ’’ वह रवायत है जो ज़हरी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मन्सूब करे। (तबक़ात अल हफ़्फ़ाज़ ज़हबी अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 435) अल्लामा दमीरी फ़रमाते हैं कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) हदीस बयान करने में निहायत मोतमिद इलैहे और सादिक़ुल रवायत थे। आप बहुत बड़े आलिम और फ़िक़हे अहलेबैत में बे मिस्ल व बे नजी़र थे। (हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 121 तारीख़ इब्ने ख़ल्कान जिल्द 1 सफ़ा 320) आप ऐसे पुर जलाल व जमाल थे कि जो भी आपको देखता था ताज़ीम करने पर मजबूर हो जाता था। (वसीलतुन नजात सफ़ा 319)



आपकी विलादत बा सआदत
आप बतारीख़ 15 जमादिउस सानी 38 हिजरी यौमे जुमा बक़ौले 15 जमादिल अव्वल 38 हिजरी यौमे पन्चशम्बा बा मक़ाम मदीनाए मुनव्वरा पैदा हुए। (आलाम अल वरा सफ़ा 141 व मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 131)

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि जब जनाबे शहर बानो ईरान से मदीने के लिये रवाना हो रही थीं तो जनाबे रिसालत मआब (स. अ.) ने आलमे ख़्वाब में उनका अक़्द हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ में पढ़ दिया था। (जिलाउल उयून सफ़ा 256) और जबा आप वारिदे मदीना हुईं तो हज़रत अली (अ.स.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) के सिपुर्द कर के फ़रमाया कि वह असमत परवर बीवी है कि जिसके बतन से तुम्हारे बाद अफ़ज़ले अवसिया और अफ़ज़ले कायनात होने वाला बच्चा पैदा होगा। चुनान्चे हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पैदा हुए लेकिन अफ़सोस यह है कि आप अपनी मां की आग़ोश में परवरिश पाने का लुत्फ़ उठा न सके। ‘‘ मातत फ़ी नफ़ासहा बेही ’’ आपके पैदा होते ही ‘‘ मुद्दते नेफ़ास ’’ में जनाबे शहर बानो की वफ़ात हो गई। (क़मक़ाम जलाल अल अयून, अयून अख़्बारे रज़ा, दमए साकेबा जिल्द 1 सफ़ा 426)

कामिल मुबरद में है कि जनाबे शहर बानो, मारूफ़तुल नसब और बेहतरीन औरतों में थीं।

शेख़ मुफी़द तहरीर फ़रमाते हैं कि जनाबे शहर बानो, बादशाहे ईरान यज़द जरद बिन शहरयार बिन शेरविया इब्ने परवेज़ बिन हरमज़ बिन नौशेरवाने आदिल ‘‘ किसरा ’’ की बेटी थीं। (इरशाद सफ़ा 391 व फ़ज़लुल ख़त्ताब)

अल्लामा तरयिही तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने शहर बानो से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है तो उन्होंने कहा ‘‘ शाहे जहां ’’ हज़रत ने फ़रमाया नहीं अब ‘‘ शहर बानो ’’ है। (मजमउल बहरैन सफ़ा 570)



नाम, कुन्नियत, अल्क़ाब
आपका इस्मे गेरामी ‘‘ अली ’’ कुन्नियत ‘‘ अबू मोहम्मद ’’ ‘‘ अबुल हसन ’’ और ‘‘ अबुल क़ासिब ’’ था।

आपके अल्का़ब बेशुमार थे जिनमें ज़ैनुल आबेदीन, सय्यदुस साजेदीन, जुल शफ़नात, सज्जाद व आबिद ज़्यादा मशहूर हैं। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 261, शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 176, नूरूल अबसार सफ़ा 126, अल फ़रा अल नामी, नवाब सिद्दीक़ हसन सफ़ा 158)



लक़ब ज़ैनुल आबेदीन की तौज़ीह
अल्लामा शिब्लन्जी का बयान है कि इमाम मालिक का कहना है कि आपको ज़ैनुल आबेदीन कसरते इबादत की वजह से कहा जाता है। नूरूल अबसार सफ़ा 126 उलेमाए फ़रीक़ैन का इरशाद है कि हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) एक शब नमाज़े तहज्जुद में मशग़ूल थे कि शैतान अज़दहे की शक्ल में आपके क़रीब आ गया और आपके पाए मुबारक के अंगूठे को मुंह में ले कर काटना शुरू किया, इमाम जो अमातन मशग़ूले इबादत थे और आपका रूजहाने कामिल बारगाहे ईज़दी की तरफ़ था। वह ज़रा भी उसके अमल से मुताअस्सिर न हुए और बदस्तूर नमाज़ में मुन्हमिक व मसरूफ़ व मशग़ूल रहे बिल आखि़र वह आजिज़ आ गया और इमाम ने अपनी नमाज़ भी तमाम कर ली। उसके बाद आपने शैतान मलऊन को तमाचा मार कर दूर हटा दिया। उस वक़्त हातिफ़े गै़बी ने अनतः ज़ैनुल आबेदीन की तीन बार आवाज़ दी और कहा बे शक तुम इबादत गुज़रों की जी़नत हो। उसी वक़्त से आपका यह लक़ब हो गया। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 262 शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 177)

अल्लामा शहरे आशोब लिखते हैं कि इस अजदहे के दस सर थे और उसके दांत बहुत तेज़ और उसकी आंखें सुखऱ् थीं और वह मुसल्ले के क़रीब से ज़मीन फाड़ के निकला था। (मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 108)

एक रवायत में इसकी वजह यह भी बयान कि गई है कि क़यामत में आपको इसी नाम से पुकारा जायेगा। (दएम साकेबा सफ़ा 426)



लक़ब सज्जाद की तौजीह
ज़हबी ने तबक़ात उल हफ़ाज़ में इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के हवाले से लिखा है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को सज्जाद इस लिये कहा जाता है कि आप तक़रीबन हर कारे ख़ैर पर सजदा फ़रमाया करते थे। जब आप ख़ुदा की किसी नेमत का ज़िक्र करते थे तो सजदा करते। जब कलामे खुदा की आयते ‘‘ सजदा ’’ पढ़ते तो सजदा करते। जब दो शख़्सों में सुलह कराते तो सजदा करते इसी का नतीजा था आपके मवाज़े सुजूद पर ऊंट के घट्टों की तरह घट्टे पड़ जाते थे फिर उन्हें कटवाना पड़ता था। इसी लिये आपका लक़ब ‘‘ ज़ुल शफ़नास ’’ यानी घट्टे वाले भी था। (अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 434)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की नसब बलन्दी
नसब और नस्ल बाप और मां की तरफ़ से देखे जाते हैं। इमाम (अ.स.) के वालिदे माजिद हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और दादा हज़रत अली (अ.स.) और दादी फ़ात्मातुज़ ज़हरा बिन्ते रसूले ख़ुदा (स. अ.) हैं और आपकी वालेदा जनाबे शहर बानो बिन्ते यज़द जर्द इब्ने शहरयार इब्ने किसरा हैं। आप पैग़म्बरे इस्लाम (स. अ.) के पोते और नौशेरवाने आदिल के नवासे हैं। यह वह बादशाह है जिसके अहद में पैदा होने पर सरवरे कायनात (स. अ.) ने इज़हारे मसर्रत फ़रमाया है। इस सिलसिलाए नसब के मुताअल्लिक़ अबुल असवद दवाएली ने अपने अशआर में उसकी वज़ाहत की है कि इस से बेहतर और सिलसिला नामुम्किन है। उसका एक शेर यह है वा अन ग़ुलामन , बैन क़िसरा व हाशिम

 ला करम मन यनतत, अलैहे अल तमाएम

इस फ़रज़न्द से बलन्द नसब कोई और नहीं हो सकता जो नौशेरवाने आदिल और फ़ख़्रे कायनात हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) के दादा हाशिम की नसल से हो। (उसूले काफ़ी सफ़ा 255)

शेख़ सुलैमान कन्दूज़ी और दीगर उलेमाए इस्लाम लिखते हैं कि नौशेरवां आदिल की बरकत तो देखो कि उसी नस्ल को आले मोहम्मद (स. अ.) के नूर की हामिल क़रार दिया और आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) की एक अज़ीम फ़र्द को उस लड़की से पैदा किया जो नौशेरवां की तरफ़ मन्सूब है। फिर तहरीर करते हैं कि इमाम हुसैन (अ.स.) की तमाम बीवीयों में यह शरफ़ सिर्फ़ जनाबे शहर बानो को नसीब हुआ जो हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की वालेदा माजेदा हैं। (नियाबुल मोअद्दता सफ़ा 315 व फ़स्ल अल ख़ताब सफ़ा 261)

अल्लामा अबीदुल्लाह बा हवाला इब्ने ख़लक़ान लिखते हैं कि जनाब शहर बानो शाहाने फ़ारस के आख़री बादशाह ‘‘ यज़द जर्द ’’ की बेटी थीं और आप ही से इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पैदा हुए हैं । जिनको ‘‘ अल ख़ैरतैन ’’ कहा जाता है क्यों कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) फ़रमाया करते थे कि खुदा वन्दे आलम ने अपने बन्दों में से दो गिरोह अरब और अजम को बेहतरीन क़रार दिया है और मैंने अरब से क़ुरैश और आजम से फ़ारस को मुन्तख़ब कर लिया है चूंकि अरब और अजम का इज्तेमा इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) में है इसी लिये आपको इब्नल ख़ैरतैन से याद किया जाता है। (अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 434)

अल्लामा शहरे आशोब लिखते हैं कि जनाबे शहर बानों को ‘‘ सय्यदुन निसां ’’ कहा जाता है। (मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 131)



जनाबे शहर बानों की तशरीफ़ आवरी की बहस
कहा जाता है कि अहदे उमरी में फ़तेह मदाएन के मौक़े पर जनाबे शहर बानों लशकरे इस्लाम के हाथ लगी थीं और वहां से अपनी दीगर बहनों के साथ मदीने पहुँच कर हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ौजियत से मुशर्रफ़ हुईं। (रबीउल अबरार, ज़मख़्शरी) लेकिन मेरे नज़दीक यह बिल्कुल ग़लत है क्यों कि फ़तेह मदाएन सफ़र 16, 17 हिजरी में हुई है जैसा कि तारीख़ अबुल फ़िदा, जिल्द 1 सफ़ा 116, तारीख़े कामिल जिल्द 2 सफ़ा 197, मोअज़्ज़मुल बलदान जिल्द 7 सफ़ा 413 व फ़तहुल आज़म सफ़ा 160, तारीख़े इब्ने ख़ल्दून जिल्द 2 सफ़ा 100 मंे है और यज़द जर्द जनाबे शहर बानों का बाप था 14 हिजरी के शुरू में एनाने हुक्मरानीका मालिक हुआ। जैसा कि तारीख़े तबरी जिल्द 2 सफ़ा 169, तारीख़े कामिल जिल्द 1 सफ़ा 178 व तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द अव्वल सफ़ा 56 में है और तख़्त नशीनी के वक़्त उसकी उम्र 21 साल की थी। जैसा कि तारीख़े तबरी जिल्द 3 सफ़ा 81 तारीख़े कामिल जिल्द 2 सफ़ा 172 तारीख़ इब्ने ख़ल्दून जिल्द 2 सफ़ा 91, फ़तूहात इस्लामिया जिल्द 1 सफ़ा 66 में है इस हिसाब से फ़तेह मदाइन के वक़्त उसकी उम्र ज़्यादा से ज़्यादा 22 साल की हो सकती है। मेरी समझ में नहीं आता कि एक अजमी जो गरम मुल्क का बाशिन्दा न हो वह ग़रीबों की तरह इतनी थोड़ी उम्र में क्यों कर मुबाशेरत के का़बिल बन सकता है यानी यह मुम्किन है कि एक इतने कम सिन शख़्स से ऐसी लड़की पैदा हो सके जो 16 हिजरी में फ़तेह मदाईन के वक़्त शादी के क़ाबिल हो। इस लिये लामोहाला यह मानना पड़ेगा यज़द जर्द की शादी 18, 19 साल की उम्र में हुई होगी। अब ऐसी सूरत में इसकी शादी 18, 19 साल की उम्र में तसलीम की जाए और यह भी मान लिया जाए कि जनाबे शहर बानों उसकी पहली औलाद थीं मदाएन के वक़्त जनाबे शहर बानों की उम्र 5, 6 साल से ज़्यादा नहीं हो सकती। इसके अलावा हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) जो 4 हिजरी में पैदा हुए हैं उनकी शादी कम सिनी में बाहालते नाबालीग़ फिर ऐसी सूरत में जब कि इमाम हसन (अ.स.) की शादी न हुई हो जो इमाम हुसैन (अ.स.) से बडे़ थे, 16 हिजरी में फ़तेह मदाएन के बाद हज़रत अली (अ.स.) क्यों कर सकते हैं।

मुवर्रिख़ शहरी शमसुल उलमा, शिबली नोमानी हज़रत उमर का हाल लिखते हुए तहरीर फ़रमाते हैं कि इस मौक़े पर हज़रत शहर बानो का क़िस्सा जो ग़लत तौर पर मशहूर हो गया है इसे ज़िक्र करना ज़रूरी है। आम तौर पर मशहूर है कि जब फ़ारस फ़तेह हुआ तो यज़द जर्द शहनशाहे फ़ारस की बेटियां गिरफ़्तार हो कर मदीने में आईं हज़रत उमर ने आम लौंड़ियों की तरह बाज़ार में उनके बेचने का हुक्म दिया लेकिन हज़रत अली (अ.स.) ने मना किया कि ख़ानदाने शाही के साथ ऐसा सुलूक जाइज़ नहीं। इन लड़कियों की की़मत का अन्दाज़ा कराया जाए। फिर यह लड़कियां किस के एहतिमाम और सुपुर्दगी में दी जायं और उससे उनकी की़मत आला से आला शरह पर लगवा ली जाए। चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने ख़ुद उनको अपने एहतिमाम में लिया और एक इमाम हुसैन (अ.स.) को एक मोहम्मद बिन अबू बक्र को एक अब्दुल्लाह बिन उमर को इनाएत की। इस ग़लत क़िस्से की हक़ीक़त यह है कि ज़ैहमख़शरी ने जिसको फ़ने तारीख़ से कुछ वास्ता नहीं रबीउल अबरार में इसको लिखा और इब्ने ख़ल्का़न कने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के हाल में यह रवायत उसके हवाले से नक़ल कर दी लेकिन यह महज़ ग़लत है। अव्वलन तो ज़ैहमख़शरी के सिवा तबरी इब्ने असीर, याकू़बी बिलाज़री इब्ने क़तीबा वग़ैरा किसी ने इस वाक़िया को नहीं लिखा और ज़हमख़शरी का फ़न तारीख़ी में जो पाया है वह ज़ाहिर है। इसके अलावा तारीख़ी क़रायन इसके बिल्कुल खि़लाफ़ हैं। हज़रत उमर के अहद में यज़दो जरद और ख़ानदाने शाही पर मुसलमानों को मुतलक़ क़ाबू हासिल नहीं हुआ। मदाएन के मारके में यज़दो जर्द मय तमाम अहलो अयाल के दारूल सलतनत से निकला और हवान पहुँचा। जब मुसलमान हवान पर चढ़े तो वह असफ़हान भाग गया और फिर करमान वग़ैरा से टकराता फिरा। मरू में पहुँच कर 30- 31 हिजरी में जो हज़रत उस्मान की खि़लाफ़त का ज़माना था मारा गया। मुझको शुब्हा है कि ज़ैमख़शरी को यह भी मालूम था या नहीं कि यज़दो जर्द का क़त्ल किस अहद में हुआ। इसके अलावा जिस वक़्त का यह वाक़ेया बयान किया जाता है उस वक़्त इमाम हुसैन (अ.स.) की उम्र 12 साल थी क्यों कि जनाबे मम्दुह हिजरत के पांचवे साल पैदा हुए और फ़ारस 17 हिजरी में फ़तह हुआ इस लिये यह उम्र भी किसी क़दर मुस्तबअद है कि हज़रत अली (अ.स.) ने उनके नागालगी़ में उन पर इस क़िस्म की इनायत की होगी इसके अलावा वह एक शहनशाह की अवलाद की क़ीमत निहायत गरां क़रार पाई होगी और हज़रत अली (अ.स.) निहायत ज़ाहिदाना और फ़क़ीराना ज़िन्दगी बसर करते थे। ग़रज़ कि किसी हैसीयत से इस वाक़िये की सेहत पे गुमान नहीं हो सकता। (अल फ़ारूक़ सफ़ा 172)

मैंने तवारीख़ से जो इस्तेमबात किया है वह यह है कि अहदे उसमानी में अहले फ़ारस ने बग़ावत कर के अबीद उल्ला बिन उमर ‘‘ वाली फ़ारस ’’ फ़ारस को मार डाला और हुदूदे फ़ारस से लश्कर भी निकाल दिया। इस वक़्त फ़ारस की लशकरी छावनी का मुक़ाम ‘‘ अस्तख़र ’’ था। ईरान का आख़री बादशाह ‘‘यज़द जर्द ’’ अहले फ़ारस के साथ था। हज़रत उस्मान ने अब्दुल्लाह बिन आमिर को हुक्म दिया बसरा और अम्मान में लशकर को मिला कर फ़ारस पर चढ़ाई कर दो। चुनान्चे ऐसा ही किया गया। हुदूदे अस्तख़र में ज़बरदस्त और घमासान की जंग हुई और मुसलमान कामयाब हुए। अस्तख़र फ़तेह होने के बाद 31 हिजरी में यज़द जर्द ‘‘ रै ’’ वहां से ख़ुरासान और फिर ख़ुरासान से मरोजा पहुँचा। उसके हमराह चार हज़ार जर्रार सिपाही भी थे। मरोजा में वह ख़ाकान चीन की साज़िशी इमदाद की वजह से मारा गया और शहान अजम के गोरिस्तान ‘‘ अस्तख़र ’’ में दफ़्न हुआ। इसके बाद अहदे उस्मानी बदल गया और हज़रत अली (अ.स.) शेरे ख़ुदा का ज़माना आ गया।

जंगे जमल के बाद ईरान ख़ुरासान के मक़ाम ‘‘ मरौ ’’ में सख़्त बग़ावत हुई। उस वक़्त ईरान में बरावायत इरशाद मुफ़ीद व रौज़ातुल सफ़ा हरीस इब्ने वजअफ़ी गर्वनर थे। हज़रत अली (अ.स.) ने मरौ के क़ज़िया नामरज़िया को ख़त्म करने के लिये इमदादी तौर पर खुलीद इब्ने क़ुर्रा यरबोई को रवाना किया, वहां जंग हुई और लशकरे इस्लाम कामयाब हुआ। हरीस इब्ने जाबिर जाअफ़ी ने यज़द जर्द इब्ने शहरयार इब्ने क़िसरा जो अहदे उस्मानी में मारा जा चुका था कि दो बेटियो शहर बानों और गीहान बानों को आम असीरों के साथ हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में भेजा। शेरे ख़ुदा अली (अ.स.) ने शहर बानों को इमाम हुसैन (अ.स.) और गीहान बानों को मोहम्मद बिन अबी बक्र की ज़ौजियत में दे दिया। जैसा कि रौज़तुल सफ़ा जिल्द 3 सफ़ा 9 तबा निवल किशोर, इरशादे मुफ़ीद जिल्द 2 सफ़ा 292, आलाम अल वरा सफ़ा 101, उम्दतुल तालिब सफ़ा 171, जामेउल तवारीख़ सफ़ा 149, कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 89, मतालेबुल सुवेल सफ़ा 261, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120, नूरूल अबसार सफ़ा 126, तोहफ़ाए सुलैमानिया, शरए इरशाद सफ़ा 391 में मौजूद है उस वक़्त इमाम हुसैन (अ.स.) की उम्र और जनाबे शहर बानों की उम्र काफ़ी हो चुकि थी और इमाम हसन (अ.स.) की शादी हुये अरसा गुज़र चुका था। हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त 35 हिजरी से 40 हिजरी तक रही। जनाबे शहर बानों से 38 हिजरी में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और गिहान बानों से क़ासिम बिन मोहम्मद पैदा हुए।



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के बचपन का एक वाके़या
अल्लामा मजलिसी रक़मतराज़ है कि एक दिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) जब कि आपका बचपन था बीमार हुये। हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) ने फ़रमाया, बेटा ! अब तुम्हारी तबीयत कैसी है और तुम कोई चीज़ चाहते हो तो बयान करो ताकि मैं तुम्हारी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उसे फ़राहम करने की कोशिश करूँ। आप ने अर्ज़ कि बाबा जान अब ख़ुदा के फ़ज़ल से अच्छा हूँ। मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ यह है कि ख़ुदा वन्दे आलम मेरा शुमार उन लोगों में करे जो परवरदिगारे आलम के क़ज़ा व क़दर के खि़लाफ़ कोई ख़्वाहिश नहीं रखते। यह सुन कर इमाम हुसैन (अ.स.) खु़श व मसरूर हो गये और फ़रमाने लगे बेटा तुम ने बड़ा मसर्रत अफ़ज़ा और मारेफ़त ख़ेज़ जवाब दिया है। तुम्हारा जवाब बिल्कुल हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के जवाब से मिलता जुलता है। हज़रत इब्राहीम (अ.स.) को जब मिनजनीक़ में रख कर आग की तरफ़ फेंका गया था और आप फ़ज़ां में होते हुए आग की तरफ़ जा रहे थे तो हज़रत जिब्राईल (अ.स.) ने आप से पूछा था ‘‘ हल्लक हाजतः ’’ आपकी कोई हाजत व ख़्वाहिश है? उस वक़्त उन्होंने जवाब दिया था, ‘‘ नाअम इमा इलैका फ़ला ’’ बेशक मुझे हाजत है लेकिन तुम से नहीं, अपने पालने वाले से है। (बेहारूल अनवार जिल्द 11 सफ़ा 21 तबा ईरान)



आपके अहदे हयात के बादशाहाने वक़्त
आपकी विलादत बादशाहे दीनो ईमान हज़रत अली (अ.स.) के अहदे असमत में हुई। फिर इमाम हसन (अ.स.) का ज़माना रहा, फिर बनी उमय्या की ख़ालिस दुनियावी हुकूमत हो गई। सुलेह इमाम हसन (अ.स.) के बाद फिर 60 हिजरी तक माविया बिन अबी सुफ़ियान बादशाह रहा। उसके बाद उसका फ़ासिक़ व फ़ाजिर बेटा यज़ीद 64 हिजरी तक हुक्मरां रहा। 64 हिजरी में माविया बिन यज़ीद बिन माविया और मरवान बिन हकम हाकिम रहे। 64 हिजरी में वलीद बिन अब्दुल मलिक ने हुक्मरानी की और उसी ने 94 हिजरी में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को ज़हरे दग़ा से शहीद कर दिया। (तारीखे़ आइम्मा सफ़ा 392 व सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 12 व नूरूल अबसार सफ़ा 128)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का अहदे तफ़ूलियत और हज्जे बैतुल्लाह
अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि इब्राहीम बिन अदहम का बयान है कि मैं एक मरतबा हज के लिये जाता हुआ क़ज़ाए हाजत की ख़ातिर क़ाफ़िले से पीछे रह गया। अभी थोड़ी ही देर गुज़री थी कि मैंने एक नौ उम्र लड़के को इस जंगल में सफ़रे पामा देखा। उसे देख कर फिर ऐसी हालत में कि वह पैदल चल रहा था और उसके साथ कोई सामान न था और न उसका कोई साथी था। मैं हैरान हो गया फ़ौरन उसकी खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ। ‘‘ साहब ज़ादे ’’ यह लक़ो दक़ सहरा और तुम बिल्कुल तने तन्हा, यह मामेला क्या है ज़रा मुझे बताओ? तो सही कि तुम्हारा ज़ादे राह और तुम्हारा राहेला कहां है और तुम कहां जा रहे हो?  इस नौ ख़ेज़ ने जवाब दिया।

ज़ादी तक़वा व राहलती रजाली व क़सादी मौलाया

मेरा ज़ादे राह तक़वा और परहेज़गारी है मेरी सवारी मेरे दोनों पैर हैं और मेरा मक़सूद मेरा पालने वाला है और मैं हज के लिये जा रहा हूँ। मैंने कहा कि आप तो बिल्कुल कमसिन हैं, हज आप पर वाजिब नहीं है। उस नौ ख़ेज़ ने जवाब दिया। बेशक तुम्हारा कहना दुरूस्त है लेकिन ऐ शेख़ मैं देखता हूँ कि मुझसे छोटे छोटे बच्चे भी मर जाते हैं इस लिये हज को ज़रूरी समझता हूँ कि कहीं ऐसा न हो कि इस फ़रीज़े की अदाएगी से पहले मर जाऊँ। मैंने पूछा ऐ साहब ज़ादे तुम ने खाने का क्या इंतेज़ाम किया है देख रहा हूँ कि तुम्हारे साथ खाने का कोई इन्तेज़ाम नहीं है। उसने जवाब दिया। ऐ शेख़ जब तुम किसी के यहां मेहमान जाते हो तो खाना अपने हमराह ले जाते हो? मैंने कहा नहीं। फिर उसने फ़रमाया सुनो, मैं तो ख़ुदा का मेहमान हो कर जा रहा हूँ खाने का इन्तेज़ाम उसके ज़िम्मे है। मैंने कहा इतने लम्बे सफ़र को पैदल क्यो कर तय करोगे। उसने जवाब दिया कि मेरा काम कोशिश करना है और ख़ुदा का काम मंज़िले मक़सूद तक पहुँचाना है।

हम अभी बाहमी गुफ़्तुगू में ही मसरूफ़ थे कि नागाह एक ख़ूब सूरत जवान सफ़ैद लिबास पहने हुये आ पहुँचा और उसने इस नौ ख़ेज़ को गले से लगा लिया। यह देख कर मैंने उस जवाने राना से दरयाफ़्त किया यह नौ उम्र फ़रज़न्द कौन है? उस नौजवान ने कहा कि यह हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बिन इमाम हुसैन (अ.स.) बिन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) हैं। यह सुन कर मैं उस जवाने राना के पास से इमाम की खि़दमत में हाज़िर हुआ और माज़ेरत ख़्वाही के बाद उनसे पूछा कि यह खूब सूरत जवान जिन्होंने आपको गले से लगाया यह कौन हैं? उन्होंने फ़रमाया यह हज़रते खि़ज्र नबी (अ.स.) हैं। उनका फ़र्ज़ है कि रोज़ाना हमारी ज़्यारत के लिये आया करें। उसके बाद मैंने फिर सवाल किया और कहा कि आखि़र आप इस अज़ीम और तवील सफ़र को बिला ज़ाद और राहेला क्यों कर तय करेंगे। तो आपने फ़रमाया कि मैं ज़ाद और राहेला सब कुछ रखता हूँ और वह यह चार चीज़े हैं। 1. दुनिया अपनी तमाम मौजूदात समेत खुदा की ममलेकत है। 2. सारी मख़्लूक़ अल्लाह के बन्दे हैं। 3. असबाब और अरज़ाक़ ख़ुदा के हाथ में हैं। 4. क़ज़ाए खुदा हर ज़मीन में नाफ़िज़ है। यह सुन कर मैंने कहा ख़ुदा की क़सम आप ही का ज़ाद व राहेला सही तौर पर मुक़द्दस हस्तियों का सामाने सफ़र है। (दमए साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 437)

उलेमा का बयान है कि आपने सारी उम्र में 25 (पच्चीस) हज पा पियादा किये हैं। आपने सवारी पर जब भी सफ़र किया है अपने जानवर को एक कोड़ा भी नहीं मारा।



आपका हुलिया ए मुबारक
इमाम शिब्लंजी लिखते हैं कि आपका रंग गन्दुम गूँ (सांवला) और क़द मियाना था। आप दुबले पतले क़िस्म के इंसान थे। (नूरूल अबसार सफ़ा 126 व अख़बारूल अव्वल सफ़ा 109)

मुल्ला मुबीन तहरीर फ़रमाते हैं कि आप हुसनो जमाल, सूरतो कमाल में निहायत ही मुम्ताज़ थे। आपके चेहरे मुबारक पर जब किसी की नज़र पड़ती थी तो वह आपका एहतेराम करने और आपकी ताज़ीम करने पर मजबूर हो जाता था। (वसीलतुन नजात सफ़ा 219)

मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई रक़मतराज़ हैं कि आप साफ़ कपड़े पहनते थे और जब रास्ता चलते थे तो निहायत ख़ुशू के साथ राह रवी में आपके हाथ ज़ानू से बाहर नहीं जाते थे। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 226 व सफ़ा 264)



हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की शाने इबादत
जिस तरह आपकी इबादत गुज़ारी में पैरवी ना मुम्किन है इसी तरह आपकी शाने इबादत की रक़मतराजी़ भी दुश्वार है। एक वह हस्ती जिसका मक़सद माबूद की इबादत और ख़ालिक की मारेफ़त हो और जो अपनी हयात का मक़सद इताअते ख़ुदा वन्दी ही को समझता हो और इल्मो मारेफ़त में हद दरजा कमाल रखता हो उसकी शाने इबादत को सतेह क़िरतास (क़लम से नहीं लिखा जा सकता) पर क्यांे कर लाया जा सकता है और ज़बाने क़लम इसकी तरजुमानी में किस तरह कामयाबी हासिल कर सकती है। यही वजह है कि उलेमा की बे इन्तेहा काहिशो काविश के बा वजूद आपकी शाने इबादत का मुज़ाहेरा नहीं हो सका। ‘‘ क़द बलिग़ मिनल इबादतः मअलम बलीग़ः अहादो ’’ आप इबादत की उस मंज़िल पर फ़ायज़ थे जिस पर कोई भी फ़ायज़ नहीं हुआ। (दमए साकेबा सफ़ा 439)

इस लिससिले में अरबाबे इल्म और साहेबाने क़लम जो कुछ कह और लिख सके हैं उनमें से बाज़ वाके़यात व हालात यह हैं।



आपकी हालत वज़ू के वक़्त
वज़ू नमाज़ के लिये मुक़द्दमे की हैसियत रखता है और इसी पर नमाज़ का दारो मदार होता है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) जिस वक़्त वज़ू का इरादा फ़रमाते थे आपके रगो पै में ख़ौफ़े ख़ुदा के असरात नुमायां हो जाते थे। अल्लामा मोहम्मद तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि जब आप वज़ू का क़ज़्द फ़रमाते थे और वज़ू के लिये बैेठते थे तो आपके चेहरे मुबारक का रंग ज़र्द हो जाया करता था। यह हालत बार बार देखने के बाद उनके घर वालों ने पूछा कि वज़ू के वक़्त आपके चेहरे का रंग ज़र्द क्यों पड़ जाता है तो आपने फ़रमाया कि उस वक़्त मेरा तसव्वुरे कामिल अपने ख़ालिक़ व माबूद की तरफ़ होता है। इस लिये उसकी जलालत के रोब से मेरा यह हाल हो जाया करता है। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 262)



आलमे नमाज़ में आपकी हालत
अल्लामा तबरेसी लिखते हैं कि आपको इबादत गुज़ारी में इम्तियाज़े कामिज हासिल था। रात भर जागने की वजह से आपका सारा बदन ज़र्द रहा करता था और ख़ौफ़े ख़ुदा में रोते रोते आपकी आंखें फूल जाया करती थीं और नमाज़ मंे ख़ड़े ख़ड़े आपके पांव सूज जाया करते थे। (आलाम अल वरा सफ़ा 153) और पेशानी पर घट्टे रहा करते थे और आपकी नाक का सिरा ज़ख़्मी रहा करता था। (दमए साकेबा सफ़ा 439)

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि जब आप नमाज़ के लिये मुसल्ले पर खड़े हुआ करते थे तो लरज़ा बर अन्दाम हो जाया करते थे। लोगों ने बदन में कपकपी और जिस्म में थरथरी का सबब पूछा तो इरशाद फ़रमाया कि मैं उस वक़्त ख़ुदा की बारगाह में होता हूँ और उसकी जलालत मुझ़े अज़ खुद रफ़ता कर देती और मुझ पर ऐसी हालत तारी कर देती है। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 226)

एक मरतबा आपके घर में आग लग गई और आप नमाज़ में मशगू़ल थे। अहले महल्ला और घर वालों ने बे हद शोर मचाया और हज़रत को पुकारा ‘‘ हुज़ूर आग लगी हुई है ’’ मगर आपने सरे नियाज़ सजदे बे नियाज़ से न उठाया। आग बुझा दी गई। नमाज़ ख़त्म होने पर लोगों ने आप से पूछा कि हुज़ूर आग का मामेला था, हम ने इतना शोर मचाया लेकिन आपने कोई तवज्जो न फ़रमाई। आपने इरशाद फ़रमाया ‘‘ हाँ ’’ मगर जहन्नम की आग के डर से नमाज़ तोड़ कर उस आग की तरफ़ मुतवज्जे न हो सका। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 177)

अल्लामा शेख़ सब्बान मालकी लिखते हैं कि जब आप वज़ू के लिये बैठते थे तब की से कांपने लगते थे और जब तेज़ हवा चलती थी तो आप ख़ौफ़े ख़ुदा से लाग़र हो जाने की वजह से गिर कर बेहोश हो जाया करते थे। (असआफ़ अल राग़ेबीन बर हाशिया ए नुरूल अबसार सफ़ा 200)

इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि हज़रत इमाम जै़नुल आबेदीन (अ.स.) नमाज़े शब सफ़र व हज़र दोनों में पढ़ा करते थे और कभी उसे क़ज़ा नहीं होने देते थे। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 263)

अल्लामा मोहम्मद बाक़र बेहारूल अनवार के हवाले से तहरीर फ़रमाते हैं कि इमाम जै़नुल आबेदीन (अ.स.) एक दिन नमाज़ में मसरूफ़ व मशग़ूल थे कि इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) कुएं में गिर पड़े। बच्चे के गेहरे कुएं में गिरने से उनकी मां बेचैन हो कर रोने लगीं और कुएं के गिर्द पीट पीट कर चक्कर लगाने लगीं और कहने लगीं इब्ने रसूल (अ.स.) मोहम्मद बाक़र (अ.स.) ग़र्क़ हो गये हैं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने बच्चे के कुएं में गिरने की कोई परवाह न की और इतमीनान से नमाज़ तमाम फ़रमाई। उसके बाद आप कुएं के क़रीब आए और पानी की तरफ़ देखा फिर हाथ बढ़ा कर बिला रस्सी के गहरे कुएं से बच्चे को निकाल लिया। बच्चा हंसता हुआ बरामद हुआ। कु़दरते ख़ुदा वन्दी देखिये उस वक़्त न बच्चे के कपड़े भीगे थे और न बदन तर था। (दमए साकेबा सफ़ा 430, मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 109)

इमाम शिब्लन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि ताऊस रावी का बयान है कि मैंने एक शब हजरे असवद के क़रीब जा कर देखा कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बारगाहे ख़ालिक़ में मुसलसल सजदा रेज़ी कर रहे हैं। मैं उसी जगह ख़डा़ हो गया। मैंने देखा कि आपने एक सजदे को बे हद तूल दे दिया है, यह देख कर मैंने कान लगाया तो सुना कि आप सजदे में फ़रमा रहे हैं, ‘‘ अब्देका बे फ़सनाएक मिसकीनेका बेफ़ासनाएक़ साएलेका बेफ़नाएक फ़क़ीरेका बेफ़नाएक ’’ यह सुन कर मैंने भी इन्ही कलेमात के ज़रिए ये दुआ माँगनी शुरू कर दी, फ़वा अल्लाह। ख़ुदा की क़सम मैंने जब भी उन कलामात के ज़रिये से दुआ मांगी फ़ौरन क़ुबूल हुई। (नूरूल अबसार सफ़ा 126 तबा मिस्र इरशाद मुफ़ीद सफ़ा 296)






इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की शबाना रोज़ एक हज़ार रकअतें
उलेमा का बयान है कि आप शबो रोज़ में एक हज़ार रकअतें अदा फ़रमाया करते थे। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 119 मतालेबुल सुवेल सफ़ा 267)े चूंकि आपके सजदों का कोई शुमार न था इसी लिये आपके आज़ाए सुजूद ‘‘ सफ़ना बईर ’’ ऊँट के घट्टे की तरह हो जाया करते थे और साल में कई मरतबा काटे जाते थे। (अल फ़रआ अल नामी सफ़ा 158 व दमए साकेबा, कशफ़ल ग़म सफ़ा 90)

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि आपके मक़ामाते सुजूद के घट्टे साल में दो बार काटे जाते थे हर मरतबा पांच तह निकलती थीं। (बेहारूल अनवार जिल्द 2 सफ़ा 3)

अल्लामा दमीरी मुवर्रिख़ इब्ने असाकर के हवाले से लिखते हैं कि दमिशक़ में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के नाम से मौसूम एक मस्जिद है जिसे ‘‘ जामेए दमिशक़ ’’ कहते हैं। (हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 121)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मन्सबे इमामत पर फ़ाएज़ होने से पहले
अगरचे हमारा अक़ीदा यह है कि इमाम बतने मादर से इमामत की तमाम सलाहियतों से भर पूर आता है। ताहम फ़राएज़ की अदाएगी की ज़िम्मेदारी इसी वक़्त होती है जब वह इमामे ज़माना की हैसियत से काम शुरू करें, यानी ऐसा वक़्त आजाए जब काएनाती अरज़ी पर कोई भी उस से अफ़ज़ल व इल्म में बरतर व अकमल न हो। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अगरचे वक़्ते विलादत ही से इमाम थे लेकिन फ़राएज़ की अदाएगी की ज़िम्मेदारी आप पर उस वक़्त आएद हुई जब आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) दर्जए शहादत पर फ़ाएज़ हो कर हयाते ज़ाहेरी से महरूम हो गए।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की विलादत 38 हिजरी में हुई जब कि हज़रत अली (अ.स.) इमामे ज़माना थे। दो साल उनकी ज़ाहिरी ज़िन्दगी में आपने हालते तफ़ूलियत में अय्यामे हयात गुज़ारे फिर 50 हिजरी तक इमामे हसन (अ.स.) का ज़माना रहा फिर आशुरा 61 हिजरी तक इमाम हुसैन (अ.स.) फ़राएज़े इमामत की अंजाम देही फ़रमाते रहे। आशूर की दो पहर के बाद सारी ज़िम्मेदारी आप पर आएद हो गईं। इस अज़ीम ज़िम्मेदारी से क़ब्ल के वाक़ेयात का पता सराहत के साथ नहीं मिलता अलबत्ता आपकी इबादत गुज़ारी और आपके इख़्लाक़ी कार नामे बाज़ किताबों में मिलते हैं बहर सूरत हज़रत अली (अ.स.) के आख़री अय्यामे हयात के वाक़ेयात और इमाम हसन (अ.स.) के हालात से मुताअस्सिर होता एक लाज़मी अमर है। फिर इमाम हसन (अ.स.) के साथ तो 22- 23 साल गुज़ारे थे यक़ीनन इमाम हसन (अ.स.) के जुमला मामलात में आप ने बड़े बेटे की हैसियत से साथ दिया ही होगा लेकिन मक़सदे हुसैन (अ.स.) के फ़रोग़ देने में आपने अपने अहदे इमामत के आगा़ज़ होने पर इन्तेहाई कमाल कर दिया।



वाक़ेए करबला के सिलसिले में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का शानदार किरदार
28 रज़ब 60 हिजरी को आप हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के हमराह मदीने से रवाना हो कर मक्का मोअज़्ज़मा पहुँचे चार माह क़याम के बाद वहां से रवाना हो कर 2 मोहर्रमुल हराम को वारिदे करबला हुए। वहां पहुँचते ही या पहुँचने से पहले आप अलील हो गए और आपकी अलालत ने इतनी शिद्दत एख़तियार की आप इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के वक़्त इस क़ाबिल न हो सके कि मैदान में जा कर दर्जए शहादत हासिल करते। ताहम हर अहम मौक़े पर आपने जज़बाते नुसरत को बरूए कार लाने की सई की। जब कोई आवाज़े इस्तेग़ासा कान में आई आप उठ बैठे और मैदाने में कारज़ार में शिद्दते मर्ज़ के बावजूद जा पहुचने की सईए बलीग़ की। इमाम हुसैन (अ.स.) के इस्तेग़ासा पर तो आप ख़ेमे से बाहर निकल आए एक चोबा ए खे़मा ले कर मैदान का अजम कर दिया नागाह इमाम हुसैन (अ.स.) की नज़र आप पर पड़ गई और उन्होंने जंगाह से बक़ौले हज़रते ज़ैनब (स. अ.) को आवाज़ दी ‘‘ बहन सय्यदे सज्जाद को रोको वरना नस्ले मोहम्मद (स. अ.) का ख़ातमा हो जाएगा ’’ हुक्मे इमाम से ज़ैनब (स. अ.) ने सय्यदे सज्जाद (अ.स.) को मैदान में जाने से रोक लिया। यही वजह है कि सय्यदों का वजूद नज़र आ रहा है। अगर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अलील हो कर शहीद होने से न बच जाते तो नस्ले रसूल (स. अ.) सिर्फ़ इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) में महदूद रह जाती। इमाम सालबी लिखते हैं कि मर्ज़ और अलालत की वजह से आप दर्जए शहादत पर फ़ाएज़ न हो सके। (नूरूल अबसार सफ़ा 126)

शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) के बाद जब खेमों में आग लगाई तो आप उन्हीं ख़ेमों में से एक ख़ेमे में बदस्तूर पड़े हुए थे। हमारी हज़ार जानें क़ुर्बान हो जायें हज़रत ज़ैनब बिन्ते अली (अ.स.) पर कि उन्होंने अहद फ़राएज़ की अदाएगी के सिलसिले में सब से पहला फ़रीज़ा इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के तहफ़्फ़ुज़ का अदा फ़रमाया और इमाम को बचा लिया। अलग़रज़ रात गुज़री और सुबह नमूदार हुई, दुश्मनों ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को इस तरह झिंझोड़ा कि आप अपनी बिमारी भूल गये। आपसे कहा गया कि नाक़ों पर सब को सवार करो और इब्ने ज़्याद के दरबार में चलो। सब को सवार करने के बाद आले मोहम्मद (अ.स.) का सारेबान फूफियों, बहनों और तमाम मुख़द्देरात को लिये दाखि़ले दरबार हुआ। हालत यह थी कि औरतें और बच्चे रस्सीयों में बंधे हुए और इमाम लोहे में जकड़े हुए दरबार में पहुँच गये। आप चूंकि नाक़े की बरैहना पुश्त पर संभल न सकते थे इस लिये आपके पैरों को नाक़े की पुश्त से बांध दिया गया था। दरबारे कूफ़ा में दाखि़ल होने के बाद आप और मुख़द्देराते अस्मत क़ैद ख़ाने में बन्द कर दिये गये। सात रोज़ के बाद आप सब को लिये हुए शाम की तरफ़ रवाना हुए और 19 मंज़िले तय कर के तक़रीबन 36 यौम (दिनों) में वहां पहुँचे।

कामिल बहाई में है कि 16 रबीउल अव्वल 61 हिजरी को आप दमिश्क़ पहुँचे हैं। अल्लाह रे सब्रे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बहनों और फुफियों का साथ और लबे शिकवा पर सकूत की मोहर हुदूदे शाम का एक वाक़ेया यह है आपके हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी और गले मे ख़ारदार तौक़े आहनी पड़ा हुआ था, इस पर मुस्तज़ाद यह कि लोग आप पर आग बरसा रहे थे। इसी लिये आपने बाद वाक़ेय करबला एक सवाल के जवाब में ‘‘ अश्शाम, अश्शाम, अश्शाम ’’ फ़रमाया था। (तहफ़्फ़ुज़े हुसैनिया अल्लामा बसतामी)

शाम पहुँचने के कई घन्टों या दिनों के बाद आप आले मोहम्मद (अ.स.) को लिये हुए सरहाय शोहदा समेत दाखि़ले दरबार हुए फिर क़ैद ख़ाने में बन्द कर दिये गये। तक़रीबन एक साल क़ैद की मशक़्क़तें झेलीं। क़ैद खा़ना भी ऐसा था कि जिसमें तमाज़ते आफ़ताबी की वजह से इन लोगों के चेहरों की खालें मुताग़य्यर हो गई थी। लहूफ़ मुद्दते क़ैद के बाद आप सब को लिये हुए 20 सफ़र 62 हिजरी को वारिदे करबला हुए। आपके हमराह सरे हुसैन (अ.स.) भी कर दिया गया था।

 आपने उसे पदरे बुजु़र्गवार के जिस्में मुबारक से मुलहक़ किया (नासिख़ुल तवारीख़) 8 रबीउल अव्वल 62 हिजरी को आप इमाम हुसैन (अ.स.) का लुटा हुआ काफ़िला लिए हुए, मदीने मुनव्वरा पहुँचे, वहां के लोगों ने आहो जा़री और कमालो रंज से आपका इस्तेक़बाल किया। 15 शाबाना रोज़ नौहा व मातम होता रहा। (तफ़सीली वाक़ेआत के लिये कुतुब मक़ातिल व सैर मुलाहेज़ा किजिए)

इस अज़ीम वाक़ेया का असर यह हुआ की ज़ैनब (अ.स.) के बाल इस तरह सफ़ेद हो गये थे कि जानने वाले उन्हें पहचान न सके। (अहसन अलक़सस सफ़ा 182 तबा नजफ़) रूबाब ने साय में बैठना छोड़ दिया, इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) गिरया फ़रमाते रहे। (जलालुल ऐन सफ़ा 256) अहले मदीना यज़ीद की बैअत से अलाहेदा हो कर बाग़ी हुए बिल आखि़र वाक़ेए हर्रा की नौबत आ गई।



वाक़ेए करबला और हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के ख़ुतबात
मारकाए करबला की ग़मगीन दास्तान तारीख़े इस्लाम ही नहीं तारीख़े आलम का अफ़सोस नाक सानेहा है। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अव्वल से आखि़र तक इस होशरूबा और रूह फ़रसा वाक़ेए में अपने बाप के साथ रहे और बाप की शहादत के बाद खु़द इस अलमिया के हीरो बनेे और फिर जब तक ज़िन्दा रहे इस सानेहा का मातम करते रहे। 10 मोहर्रम 61 हिजरी का यह अन्दोह नाक हादसा जिसमें 18 बनी हाशिम और 72 असहाब व अनसार काम आए। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मुदतुल उम्र घुलता रहा और मरते दम तक इसकी याद फ़रामोश न हुई और इसका सदमाए जां काह दूर न हुआ। आप यूं तो इस वाक़ेए के बाद चालिस साल ज़िन्दा रहे मगर लुत्फ़े ज़िन्दगी से महरूम रहे और किसी ने आपको बशशाशा और फ़रहानाक न देखा। इस जान का वाक़ेए करबला के सिलसिले में आपने जो जाबजा ख़ुत्बे इरशाद फ़रमाये हैं उनका तरजुमा दर्जे ज़ैल है।



कूफ़े में आपका ख़ुत्बा
किताब लहूफ़ सफ़ा 68 में है कि कूूफ़ा पहुँचने के बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने लोगों को ख़ामोश रहने का इशारा किया, सब ख़ामोश हो गये, आप खड़े हुए ख़ुदा की हम्दो सना की। हज़रत बनी सालिम का ज़िक्र किया उन पर सलवात भेजी फिर इरशाद फ़रमाया, ऐ लोगों ! जो मुझे पहचानता है वह तो पहचानता ही है, जो नहीं पहचानता उसे मैं बताता हूँ। मैं अली इब्नुल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब (अ.स.) हूँ। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसकी बेहुरमती की गई, जिसका सामान लूट लिया गया, जिसके अहलो अयाल क़ैद कर दिये गये। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो साहिले फ़ुरात पर ज़ब्हा कर दिया गया और बग़ैर कफ़न व दफ़न छोड़ दिया गया और शहादते हुसैन (अ.स.) हमारे फ़ख़्र के लिये काफ़ी है। ऐ लोगों ! मैं तुम्हे ख़ुदा की क़सम देता हूँ ज़रा सोचो तुम ने ही मेरे पदरे बुज़ुर्गवार को ख़त लिखा और फिर तुम ने ही उनको धोखा दिया, तुम ने ही उनके साथ अहदो पैमान किया और उनकी बैअत की और फिर तुम ने ही उनको शहीद कर दिया। तुम्हारा बुरा हो कि तुम ने अपने लिये हलाकत का सामान इकठ्ठा कर लिया, तुम्हारी राहें किस क़द्र बुरी हैं, तुम किन आख़ों से रसूल (स. अ.) को देखोगे। जब रसूल बाज़ पुर्स करेंगे कि तुम लोगों ने मेरी इतरत को क़त्ल किया और मेरे अहले हरम को ज़लील किया ‘‘ इस लिये तुम मेरी उम्मत से नहीं ’’।



मस्जिदे दमिश्क़ (शाम) में आपका ख़ुत्बा
मक़तल अबी मख़नफ़ सफ़ा 135, बेहारूल अनवार जिल्द 10 सफ़ा 233, रियाज़ुल कु़द्स जिल्द 2 सफ़ा 328 और रौज़ातुल अहबाब वग़ैरा में है कि जब हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)  अहले हरम समेत दरबारे यज़ीद में दाखिल किये गये और उनको मिम्बर पर जाने का मौक़ा मिला तो आप मिम्बर पर तशरीफ़ ले गये और अम्बिया की तरह शीरी ज़बान में निहायत फ़साहत व बलाग़त के साथ ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया। ऐ लोगों ! जो मुझे पहचानता है वह तो पहचानता ही है, जो नहीं पहचानता उसे मैं बताता हूँ कि मैं कौन हूँ सुनो मैं अली बिन हुसैन बिन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) हूँ। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसने हज किये हैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसने तवाफ़े काबा किया है और सई की है। मैं पिसरे ज़मज़म व सफ़ा हूँ मैं फ़रज़न्दे फ़ात्मा ज़हरा (स. अ.) हूँ मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो पसे गरदन से ज़िब्हा किया गया। मैं उस प्यासे का फ़रज़न्द हूँ जो प्यासा ही दुनिया से उठा। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिस पर लोगों ने पानी बन्द कर दिया हालां कि तमाम मख़लूक़ात पर पानी जायज़ क़रार दिया। मैं मोहम्मदे मुस्तफ़ा (स. अ.) का फ़रज़न्द हूँ। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो करबला में शहीद किया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके अनसार ज़मीन में आराम की निन्द सो गये मैं उसका पिसर हूँ जिसके अहले हरम क़ैद कर दिये गये। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके बच्चे बग़ैर जुर्मों ख़ता ज़िब्हा कर डाले गये। मैं उसका बेटा हूँ जिसके ख़ेमों में आग लगा दी गई। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो ज़मीने करबला पर शहीद कर दिया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसको न ग़ुस्ल दिया गया और न कफ़न। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसका सर नोके नैज़ा पर बुलन्द किया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके अहले हरम की करबला में बेहुरमी की गई। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसका जिस्म ज़मीने करबला पर छोड़ दिया गया और सर दूसरे मक़ामात पर नोके नैज़ा पर बुलन्द कर के फिराया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके इर्द गिर्द सिवाए दुश्मन के कोई और न था। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जिसके अहले हरम को क़ैद कर के शाम तक फिराया गया। मैं उसका फ़रज़न्द हूँ जो बे यारो मददगार था। फिर इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया लोगों ख़ुदा ने हम को पाँच चीजो से फ़ज़ीलत बख़्शी है। 1. ख़ुदा की क़सम हमारे ही घर से फ़रिश्तों की आमदो रफ़्त रही और हम ही मादने नबूवत व रिसालत हैं। 2. हमारी ही शान में क़ुरआन की आयतें नाज़िल कीं और हम ने लोगों की हिदायत की। 3. शुजाअत हमारे ही घर की कनीज़ है, हम कभी किसी की क़ुव्वत व ताक़त से नहीं डरे और फ़साहत हमारा ही हिस्सा है। जब फ़सहा (ज्ञानी) फ़क़रो मुबाहात करे। 4. हम ही सिरातल मुस्तक़ीम और हिदायत का मरकज़ हैं और इसके लिये इल्म का सर चश्मा हैं जो इल्म हासिल करना चाहे और दुनियां के मोमेनीन के दिलों में हमरी मोहब्बत है। 5. हमारे ही मरतबे आसमानों और ज़मीनों में बुलन्द हैं। अगर हम न होते तो ख़ुदा दुनिया ही को पैदा न करता। हर फ़ख़्र हमारे फ़़ख़्र के सामने पस्त है। हमारे दोस्त रोज़े क़यामत सेरो सेराब होंगे और हमारे दुश्मन रोज़े क़यामत बद बख़्ती में होंगे। जब लोगों ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का कलाम सुना तो चीख़ मार कर रोने और पीटने लगे और उनकी आवाज़ें बे साख़्ता बुलन्द होने लगीं। यह हाल देख कर यज़ीद घबरा उठा कि कहीं कोई फ़ितना न खडा़ हो जाये। इसके लिये उसने रद्दे अमल में फ़ौरन मोअजि़्ज़न को हुक्म दिया कि अज़ान शुरू कर के इमाम के ख़ुत्बे को मुन्क़ता कर दे। जब मोअजि़्ज़न गुलदस्ता ए अज़ान पर गया और कहा ‘‘ अल्लाहो अकबर ’’ (ख़ुदा की ज़ात सब से बुज़ुर्ग व बरतर है) इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया तुने एक बड़ी ज़ात की बढ़ाई बयान की एक अज़ीमुश्शान ज़ात की अज़मत का इज़हार किया और जो कुछ कहा हक़ कहा । फिर मोअजि़्ज़न ने काह ‘‘ अश हदोअन ला इलाहा अल्लल्लाह ’’ (मैं गवाही देता हूँ कि नहीं कोई माबूद सिवाए अल्ला के) इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैं भी इस मक़सद की हर गवाह के साथ गवाही देता हूँ और हर इन्कार करने वाले के खि़लाफ़ इक़रार करता हूँ। फिर मोअजि़्ज़न ने कहा ‘‘ अश हदो अन्ना मोहम्मदन रसूल अल्लाह ’’ (मैं गवाही देता हूँ कि मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) अल्लाह के रसूल हैं) ‘‘ फ़बका अलीउन ’’ यह सुन कर हज़रत अली बिन हुसैन (अ.स.) रो पड़े और फ़रमाया ऐ यज़ीद मैं तुझे ख़ुदा का वास्ता दे कर पूछता हूँ बता हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) मेरे नाना थे या तेरे? यज़ीद ने कहा आपके। आपने फ़रमाया, फिर क्यों तूने उनके अहले बैत को शहीद किया? यज़ीद ने कोई जवाब नहीं दिया और अपने महल में यह कहता हुआ चला गया ‘‘ ला हाजतः ली बिल सलवातः ’’ मुझे नमाज़ से कोई वास्ता नहीं है। इसके बाद मिन्हाल बिन उमर खड़े हुए और कहा ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.)  आपका क्या हाल है? फ़रमाया ऐ मिन्हाल ऐसे शख़्स का क्या हाल पूछते हो जिसका बाप निहायत बे दर्दी से शहीद कर दिया गया। जिसके मद्दगार ख़त्म कर दिये गये हों, जो अपने चारों तरफ़ अहले हरम को क़ैद देख रहा हो जिनका न परदा रह गया न चादरें रह गई, जिनका न कोई मद्दगार है। तुम तो देख ही रहे हो कि मैं मुक़य्यद हूँ, ज़लील रूसवा किया गया हूँ, ना कोई मेरा नासिर है न मद्दगार मैं और मेरे अहले बैत लिबासे कुहना में मलबूस हैं, हम पर नये लिबास हराम कर दिये गये हैं। अब जो मेरा हाल पूछते हो तो मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूँ तुम देख ही रहे हो हमारे दुश्मन हमंे बुरा भला कहते हैं और हम सुब्हो शाम मौत का इन्तेज़ार करते हैं। फिर फ़रमाया अरब व अजम इस पर फ़ख्र करते हैं कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) इन में से थे और क़ुरैश अरब पर इस लिये फ़ख़्र करते हैं कि आं हज़रत (स.अ.) क़ुरैश थे और हम इन के अहले बैत हैं लेकिन हम को क़त्ल किया गया, हम पर ज़ुल्म किया गया, हम पर मुसीबतों के पहाड़ टूट गये और हम को क़ैद कर के दर बदर फिराया गया गोया हमारा हसब बहुत गिरा हुआ है और बहुत ज़लील है, गोया हम इज़्ज़तों की बुलन्दी पर नहीं चढ़े और बुज़ुर्गियों के फ़रश पर जलवा अफ़रोज़ नहीं हुए। आज गोया तमाम यज़ीद और इसके लशकर का हो गया आले मुस्तफ़ा (स.अ.) यज़ीद की अदना ग़ुलाम हो गई है। यह सुनना था कि हर तरफ़ से रोने पीटने की सदाए बुलन्द हो गईं। यज़ीद बहुत ख़ाएफ़ हुआ कि कोई फ़ितना न खड़ा हो जाए इसने इस शख़्स से कहा जिसने इमाम को मिम्बर पर तशरीफ़ ले जाने को गया था, ‘‘ वयहका अरदत बसअव दह ज़वाली मलकी ’’ तेरा बुरा हो तू इनको मिम्बर पर बिठा कर मेरी सलतनत ख़त्म करना चाहता है। इसने जवाब दिया, ब खु़दा मैं यह न जानता था कि यह लड़का इतनी बुलन्द गुफ़्तुगू करेगा। यज़ीद ने कहा ‘‘ क्या तू नहीं जानता कि यह अहले बैते नबूवत और मादने रिसालत की एक फ़रद है ’’ यह सुन कर मोअजि़्ज़न से न रहा गया और उसने कहा कि ऐ यज़ीद ! ‘‘ अज़कान कज़ालका फ़लम्मा क़लत अबाह ’’ जब तू यह जानता था तो तूने इनके पदरे बुज़ुर्गवार को क्यों शहीद किया? मोअजि़्ज़न की गुफ़्तुगू सुन कर यज़ीद बरहम हो गया ‘‘ फ़मर बज़र अनक़ह ’’ और मोअजि़्ज़न की गरदन मार देने का हुक्म दिया।



मदीने के क़रीब पहुँच कर आपका ख़ुत्बा
मक़तल अबी मख़नफ़ सफ़ा 88 में है कि एक साल तक क़ैद खा़ने शाम की सऊबत बरदाश्त करने के बाद जब अहले बैते रसूल (अ.स.) की रिहाई हुई और यह काफ़ला करबला होता हुआ मदीना की तरफ़ चला तो क़रीबे मदीना पहुँच कर इमाम (अ.स.) ने लोगों को ख़ामोश हो जाने का इशारा किया सब के सब ख़ामोश हो गये, आपने फ़रमाया:

हम्द उस ख़ुदा की जो तमाम दुनिया का परवरदिगार है, रोज़े जज़ा का मालिक है। तमाम मख़्लूक़ात का पैदा करने वाला है जो इतना दूर है बुलन्द आसमान से भी बुलन्द है और इतना क़रीब है कि सामने मौजूद है और हमारी बातों को सुनता है। हम ख़ुदा की तारीफ़ करते हैं और उसका शुक्र बजा लाते हैं। अज़ीम हादसों, ज़माने की हौलनांक गरदिशों, दर्द नाक ग़मों, ख़तरनाक आफ़तों शदीद तकलीफ़ों और क़ल्बो जिगर को हिला देने वाली मुसीबतों के नाज़िल होने के वक़्त ऐ लोगों ! खु़दा और सिर्फ़ खु़दा के लिये हम्द है। हम बड़े बड़े मसाएब में मुबतिला किए गए, दीवारे इस्लाम में बहुत बड़ा रखना (शिग़ाफ़) पड़ गया। हज़रत अबू अब्दुल्लाह हुसैन (अ.स.) और उनके अहले बैत शहीद कर दिये गये। इनकी औरतें और बच्चे क़ैद कर दिये गये और लशकरे यज़ीद ने इनके सर हाय मुबारक को बुलन्द नैज़ों पर रख कर शहरों में फिराया। यह वह मुसीबत है जिसके बराबर कोई मुसीबत नहीं। ऐ लोगों ! तुम में से कौन मर्द है जो शहादते हुसैन (अ.स.) के बाद खु़श रहे या कौन सा दिल है जो शहादते हुसैन (अ.स.) से ग़मगीन न हो या कौन सी आंख है जो आंसू को रोक सके। शहादते हुसैन (अ.स.) पर सातों आसमान रोए। समन्दर और उसकी मौजे रोईं, आसमान और उसके अरकान रोए, ज़मीन और उसके अतराफ़ रोए। दरख़्त और उसकी शाख़ें रोईं, मछलियां और समन्दर के गिरदाब रोए। मलाएक मुक़रेबीन और तमाम आसमान वाले रोए। ऐ लोगों ! कौन सा क़ल्ब है जो शहादते हुसैन (अ.स.) की ख़बर सुन कर फट न जाए। कौन सा क़ल्ब है जो महज़ून न हो। कौन सा कान है जो इस मुसीबत को सुन कर जिससे दीवारे इस्लाम में रखना पड़ा, बहरा न हो। ऐ लोगों ! हमारी यह हालत थी कि हम कशाँ कशाँ फिराये जाते थे। दर बदर ठुकराए जाते थे। ज़लील किए गये शहरों से दूर थे गोया हम को औलादे तुर्क दकाबिल समझ लिया गया था हालां कि न हम ने कोई जुर्म किया था न किसी की बुराई का इरतेक़ाब किया था न दीवारे इस्लाम में कोई रखना डाला था और न इन चीज़ों के खि़लाफ़ किया था जो हम ने अपने आबाओ अजदाद से सुना था, ख़ुदा की क़सम अगर हज़रत नबी (स. अ.) भी इन लोगों (लशकरे यज़ीद) को हम से जंग करने के लिये मना करते तो यह न मानते जैसे कि हज़रत नबी (स. अ.) ने हमारी वसीअत का ऐलान किया और इन लोगों ने न माना बल्कि जितना उन्होंने किया है इस से ज़्यादा सुलूक करते । हम ख़ुदा के लिये हैं और खुदा की तरफ़ हमारी बशाग़त है।



रौज़ा ए रसूल (स. अ.) पर इमाम (अ.स.) की फ़रयाद
मक़तल अबी मख़नफ़ सफ़ा 143 में है कि यह लुटा हुआ काफ़िला मदीने में दाखि़ल हुआ तो हज़रत उम्मे कुलसूम (अ.स.) गिरयाओ बुका करती हुई मस्जिदे नबवी में दाखि़ल हुईं और अर्ज़ कि, ऐ नाना आप पर मेरा सलाम हो ‘‘ अनी नाऐतहू अलैका वलदक अल हुसैन ’’ मैं आपको आपके फ़रज़न्द हुसैन (अ.स.) की ख़बरे शहादत सुनाती हूँ। यह कहना था कि क़ब्रे रसूल (स. अ.) गिरये की सदा बुलन्द हुई और तमाम लोग रोने लगे फिर हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अपने नाना की क़बे्र मुबारक पर तशरीफ़ लाए और अपने रूख़सार क़बे्र मुताहर से रगड़ते हुए यूँ फ़रयाद करने लगे।



اناجیک یاجداہ یاخیرمرسل

اناجیک محزوناعلیک موجلا



سبیناکماتسبی الاماء ومسنا

حبیبک مقتول ونسلک ضائع



اسیرا ومالی حامیا ومدافع

من الضرمالاتحملہ الاصابع



तरजुमा:

मैं आपसे फ़रयाद करता हूँ ऐ नाना, ऐ तमाम रसूलों में सब से बेहतर आपका महबूब हुसैन (अ.स.) शहीद कर दिया गया और आपकी नस्ल तबाह व बरबाद कर दी गई। ऐ नाना हम सब को इस तरह क़ैद किया गया जिस तरह लावारिस कनीज़ों को कै़द किया जाता है। ऐ नाना हम पर इतने मसाएब ढाए गए जो उंगलियों पर गिने नहीं जा सकते।



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और ख़ाके शिफ़ा
मिसबाह उल मुजतहिद में है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास एक कपड़े में बंधी हुई थोड़ी सी ख़ाके शिफ़ा रहा करती थी। (मुनाक़िब जिल्द 2 सफ़ा 329 तबा मुलतान)

हज़रत के हमराह ख़ाके शिफ़ा का हमेशा रहना तीन हाल से ख़ाली न था या उसे तबर्रूक समझते थे या उस पर नमाज़ में सजदा करते थे या उसे ब हैसीयत मुहाफ़िज़ रखते थे और लोगों को बताना मक़सूद रहता था कि जिसके पास ख़ाके शिफ़ा हो वह जुमला मसाएब व अलाम से महफ़ूज़ रहता है और इसका माल चोरी नहीं होता जैसा कि अहादीस से वाज़े है।



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और मोहम्मदे हनफ़िया के दरमियान हजरे असवद का फ़ैसला
आले मोहम्मद (अ.स.) के मदीने पहुँचने के बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के चचा मोहम्मद हनफ़िया ने बरावयते अहले इस्लाम से ख़्वाहिश की कि मुझे तबर्रूकाते इमामत दे दो कि मैं बुर्ज़ग ख़ानदान और इमामत का अहल व हक़दार हूँ। आपने फ़रमाया कि हजरे असवद के पास चलो वह फ़ैसला कर देगा। जब यह हज़रत उसके पास पहुँचे तो वह ब हुक्मे ख़ुदा यूं बोला, ‘‘ इमामत ज़ैनुल आबेदीन का हक़ है ’’ इस फ़ैसले को दोनों ने तसलीम कर लिया। (शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 176)

कामिल मबरद में है कि इस वाक़िये के बाद से मोहम्मद हनफ़िया इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की बड़ी इज़्ज़त करते थे। एक दिन अबू ख़ालिद काबली ने उनसे इसकी वजह पूछी तो कहा हजरे असवद ने खि़लाफ़त का इनके हक़ में फ़ैसला दे दिया है और यह इमामे ज़माना हैं यह सुन कर वह मज़हबे इमाम का क़ाएल हो गया। (मुनाक़िब जिल्द 2 सफ़ा 326)



सुबूते इमामत में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का कन्करी पर मुहर लगाना
उसूले काफ़ी में है कि एक औरत जिसकी उम्र 113 साल की हो चुकी थी एक दिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास आई उसके पास वह कन्करी थी जिस पर हज़रत अली (अ.स.) इमाम हसन (अ.स.) इमाम हुसैन (अ.स.) की मोहरे इमामत लगी हुई थी। उसके आते ही बिला कहे हुये आपने फ़रमाया कि वह कन्करी ला जिस पर मेरे आबाओ अजदाद की मोहरें लगी हुई हैं उस पर मैं भी मोहर कर दूँ। चुनान्चे उस ने कन्करी दे दी। आपने उसे मोहर कर के वापस कर दी और उसकी जवानी भी पलटा दी। वह ख़ुश व खुर्रम वापस चली गई। (दमए साकेबा जिल्द 2 सफ़ा 436)



वाक़ेए हुर्रा और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)
मुस्तनद तवारीख़ में है कि करबला के बेगुनाह क़त्ल ने इस्लाम में एक तहलका डाल दिया। ख़ुसूसन ईरान में एक कौमी जोश पैदा कर दिया जिसने बाद में बनी अब्बास को बनी उमय्या के ग़ारत करने में बड़ी मद्द दी चुंकि यज़ीद तारेकुस्सलात और शराबी था और बेटी बहन से निकाह करता और कुत्तों से खेलता था, उसकी मुलहिदाना हरकतों और इमाम हुसैन (अ.स.) के शहीद करने से मदीने में इस क़द्र जोश फैला कि 62 हिजरी में अहले मदीना ने यज़ीद की मोअत्तली का ऐलान कर दिया और अब्दुल्लाह बिन हनज़ला को अपना सरदार बना कर यजी़द के गर्वनर उस्मान बिन मोहम्मद बिन अबी सुफ़ियान को मदीने से निकाल दिया। सियोती तारीख़ अल ख़ुलफ़ा में लिखता है कि ग़सील उल मलायका (हनज़ला) कहते हैं कि हम ने उस वक़्त तक यज़ीद की खि़लाफ़त से इन्कार नहीं किया जब तक हमें यह यक़ीन नहीं हो गया कि आसमान से पत्थर बरस पड़ेंगे। ग़ज़ब है कि लोग मां बहनों और बेटियांे से निकाह करें, ऐलानियां शराब पियें और नमाज़ छोड़ बैठें।

यज़ीद ने मुस्लिम बिन अक़बा को जो ख़ूं रेज़ी की कसरत के सबब (मुसरिफ़) के नाम से मशहूर है फ़ौजे कसीर दे कर अहले मदीना की सरकोबी को रवाना किया। अहले मदीना ने बाब अल तैबा के क़रीब मक़ामे ‘‘ हुर्रा ’’ पर शामियों का मुक़ाबला किया। घमासान का रन पड़ा, मुसलमानों की तादाद शामियों से बहुत कम थी इस के बावजूद उन्होंने दादे मरदानगी दी मगर आखि़र शिकस्त खाई। मदीने के चीदा चीदा बहादुर रसूल अल्लाह (स. अ.) के बड़े बड़े सहाबी, अन्सार व महाजिर इस हंगामे आफ़त में शहीद हुए। शामी घरों में घुस गये। मज़ारात को उनकी ज़ीनत और आराईश की ख़ातिर मिसमार कर दिया। हज़ारों औरतों से बदकारी की। हज़ारों बाकरा लड़कियों का बकारत (बलात्कार) कर डाला। शहर को लूट लिया। तीन दिन क़त्ले आम कराया दस हज़ार से ज़्यादा बाशिन्दगाने मदीना जिन में सात सौ महाजिर और अन्सार और इतने ही हामेलान व हाफ़ेज़ाने क़ुरआन व उलेमा व सुलोहा मोहद्दिस थे इस वाक़िये में मक़्तूल हुए। हज़ारों लड़के लड़कियां गु़लाम बनाई गईं और बाक़ी लोगों से बशर्ते क़ुबूले ग़ुलामी यज़ीद की बैयत ली गई। मस्जिदे नबवी और हज़रत के हरमे मोहतरम में घोड़े बंधवाये गए। यहां तक कि लीद का अम्बार लग गए। यह वाक़िया जो तारीख़े इस्लाम में वाक़ेए हर्रा के नाम से मशहूर है 27 ज़िलहिज 63 हिजरी को हुआ था। इस वाक़िये पर मौलवी अमीर अली लिखते हैं कि कुफ़्र व बुत परस्ती ने फिर ग़लबा पाया। एक फ़िरंगी मोवरिख़ लिखता है कि कुफ्ऱ का दोबारा जन्म लेना इस्लाम के लिये सख़्त ख़ौफ़ नाक और तबाही बख़्श साबित हुआ। बक़ीया तमाम मदीने को यज़ीद का ग़ुलाम बनाया गया। जिसने इन्कार किया उसका सर उतार लिया। इस रूसवाई से सिर्फ़ दो आदमी बचे ‘‘ अली बिन हुसैन (अ.स.) और अली बिन अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास ’’ इन से यज़ीद की बैयत भी नहीं ली गई। मदारिस शिफ़ाख़ाने और दीगर रेफ़ाहे आम की इमारतें जो ख़ुल्फ़ा के ज़माने में बनाई गईं थीं बन्द कर दी गईं या मिस्मार कर दी गईं और अरब फिर एक वीराना बन गया। इसके चन्द मुद्दत बाद अली बिन हुसैन (अ.स.) के पोते जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने अपने जद्दे माजिद अली ए मुर्तुज़ा (अ.स.) का मक़तब फिर मदीना में जारी किया मगर यह सहरा में सिर्फ़ एक ही सच्चा नख़लिस्तान था इसके चारों तरफ़ जु़ल्मत व ज़लालत छाई हुई थी। मदीना फिर कभी न संभला। बनी उमय्या के अहद में मदीना ऐसी उजडी़ बस्ती हो गया कि जब मन्सूरे अब्बासी ज़्यारत को मदीने में आया तो उसे एक रहनुमा की ज़रूरत पड़ी। हवास को वह मकानात बताए जहां इब्तेदाई ज़माने के बुर्ज़ुगाने इस्लाम रहा करते थे। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 36, तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 1 सफ़ा 191, तारीख़ फ़ख़्री सफ़ा 86, तारीख़े कामिल जिल्द 4 सफ़ा 49, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 132)



वाक़ेए हुर्रा और आपकी क़याम गाह
तवारीख़ से मालूम होता है कि आपकी एक छोटी सी जगह ‘‘मुन्बा’’ नामी थी जहां खेती बाड़ी का काम होता था। वाक़ेए हुर्रा के मौक़े पर शहरे मदीना से निकल कर अपने गाँव चले गये थे। (तारीख़े कामिल जिल्द 4 सफ़ा 45) यह वही जगह है, जहाँ हज़रत अली (अ.स.) ख़लीफ़ा उस्मान के अहद में क़याम पज़ीर थे। (अक़दे फ़रीद जिल्द 2 सफ़ा 216)



ख़ानदानी दुश्मन मरवान के साथ आपकी करम गुस्तरी
वाक़ेए हुर्रा के मौक़े पर जब मरवान ने अपनी और अपने अहलो अयाल की तबाही और बरबादी का यक़ीन कर लिया तो अब्दुल्लाह इब्ने उमर के पास जा कर कहने लगा कि हमारी मुहाफ़ज़त करो। हुकूमत की नज़र मेरी तरफ़ से भी फिरी हुई है मैं जान और औरतों की बेहुरमती से डरता हूँ। उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया। उस वह इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास आया और उसने अपनी और अपने बच्चों की तबाही व बरबादी का हवाला दे कर हिफ़ाज़त की दरख़्वास्त की हज़रत ने यह ख़्याल किए बग़ैर कि यह ख़ानदानी हमारा दुश्मन है और इसने वाक़ेए करबला के सिलसिले में पूरी दुश्मनी का मुज़ाहेरा किया है। आपने फ़रमाया बेहतर है कि अपने बच्चों को मेेरे पास बमुक़ाम मुनबा भेज दो, जहां पर मेेरे बच्चे रहेंगे तुम्हारे भी रहेंगे। चुनान्चे वह अपने बाल बच्चों को जिन में हज़रत उसमान की बेटी आयशा भी थी आपके पास पहुँचा गया और आपने सब की मुकम्मल हिफ़ाज़त फ़रमाई। (तारीख़े कामिल जिल्द 4 सफ़ा 45)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और मुस्लिम बिन अक़बा
अल्लामा मसूदी लिखते हैं कि मदीने के इन हंगामी हालात में एक दिन मुस्लिम बिन अक़बा ने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को बुला भेजा। अभी वह पहुँचे न थे कि उसने अपने पास के बैठने वालों से आपकी ख़ानदानी बुराई शुरू की और न जाने क्या क्या कह डाला लेकिन अल्लाह रे आपका रोब व जलाल कि ज्यों ही आप उसके पास पहुँचे वह ब सरो क़द ताज़ीम के लिये खड़ा हो गया। बात चीत के बाद जब आप तशरीफ़ ले गये तो किसी ने मुस्लिम से कहा कि तूने इतनी शानदार ताज़ीम क्यो कि उसने जवाब दिया, मैं क़सदन व इरादतन ऐसा नहीं किया बल्कि उनके रोब व जलाल की वजह से मजबूरन ऐसा किया है।

(मरूजुल ज़हब मसउदी बर हाशिया तारीख़े कामिल जिल्द 6 सफ़ा 106)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से बैअत का सवाल न करने की वजह
मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि वाक़ेए हर्रा में मदीने का कोई शख़्स ऐसा न था जो यज़ीद की बैअत न करे और क़त्ल होने से बच जाए लेकिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बैअत न करने के बावजूद महफ़ूज़ रहे, बल्कि उसे यूं कहा जाए कि आप से बैअत तलब ही नहीं की गई। अल्लामा जलालउद्दीन हुसैनी मिसरी अपनी किताब ‘‘ अल हुसैन ’’ में लिखते हैं कि यज़ीद का हुक्म था कि सब से बैअत लेना। अली इब्नुल हुसैन को (अ.स.) को न छेड़ना वरना वह भी सवाले बैअत पर हुसैनी किरदार पेश करेंगे और एक नया हंगामा खड़ा हो जायेगा।



दुश्मने अज़ली हसीन बिन नमीर के साथ आपकी करम नवाज़ी
मदीने को तबाह बरबाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बह इब्तिदाए 64 हिजरी में मदीने से मक्का को रवाना हो गया। इत्तेफ़ाक़न राह में बीमार हो कर वह गुमराह, राहिए जहन्नम हो गया मरते वक़्त उस ने हसीन बिन नमीर को अपना जा नशीन मुक़र्रर कर दिया। उसने वहां पहुँच कर ख़ाना ए काबा पर संग बारी की और उस में आग लगा दी, उसके बाद मुकम्मिल मुहासरा कर के अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को क़त्ल करना चाहा। इस मुहासरे को चालीस दिन गुज़रे थे कि यज़ीद पलीद वासिले जहन्नम हो गया। उसके मरने की ख़बर से इब्ने ज़ुबैर ने ग़लबा हासिल कर लिया और यह वहां से भाग कर मदीना जा पहुँचा।

मदीने के दौरान क़याम में इस मलऊन ने एक दिन ब वक़्ते शब चन्द सवारों को ले कर फ़ौज के ग़िज़ाई सामान की फ़राहमी के लिये एक गाँव की राह पकड़ी। रास्ते में उसकी मुलाक़ात हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से हो गई, आपके हमराह कुछ ऊटँ थे जिन पर ग़िज़ाई सामान लदा हुआ था। उसने आप से वह ग़ल्ला ख़रीदना चाहा, आपने फ़रमाया कि अगर तुझे ज़रूरत है तो यूं ही ले ले हम इसे फ़रोख़्त नहीं कर सकते (क्यों कि मैं इसे फ़ुक़राए मदीना के लाया हूँ) उसने पूछा की आपका नाम क्या है? आपने फ़रमाया ‘‘ अली इब्नुल हुसैन ’’ कहते हैं। फिर आपने उससे नाम दरयाफ़्त किया तो उसने कहा मैं हसीन बिन नमीर हूँ। अल्लाह रे आपकी करम नवाज़ी, आपने यह जानने के बावजूद कि यह मेरे बाप के क़ातिलों में से है उसे सारा ग़ल्ला दे दिया (और फ़ुक़रा के लिये दूसरा बन्दो बस्त फ़रमाया) उसने जब आपकी यह करम गुस्तरी देखी और अच्छी तरह पहचान भी लिया तो कहने लगा कि यज़ीद का इन्तेक़ाल हो चुका है आपसे ज़्यादा मुस्तहक़े खि़लाफ़त कोई नहीं। आप मेरे साथ तशरीफ़ ले चलें मैं आपको तख़्ते खि़लाफ़त पर बैठा दूंगा। आप ने फ़रमाया कि मैं ख़ुदा वन्दे आलम से अहद कर चुका हूँ कि ज़ाहिरी खि़लाफ़त क़बूल न करूंगा। यह फ़रमा कर आप अपने दौलत सरा को तशरीफ़ ले गये। (तरीख़े तबरी फ़ारसी सफ़ा 644)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और फ़ुक़राऐ मदीना की किफ़ालत
अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) फ़ुक़राए मदीना के 100 घरों की किफ़ालत फ़रमाते थे और सारा सामान उन के घर पहुँचाया करते थे। उनमे बहुत ज़्यादा ऐसे घराने थे जिनमें आप यह भी मालम न होने देते थे कि यह सामान ख़ुरदोनोश रात को कौन दे जाता है। आपका उसूल यह था कि बोरियाँ पुश्त पर लाद कर घरों में रोटी और आटा वग़ैरा पहुँचाते थे और यह सिलसिला ता बहयात जारी रहा। बाज़ मोअज़्ज़ेज़ीन का कहना है कि हमने अहले मदीना को यह कहते सुना है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ज़िन्दगी तक हम ख़ुफ़िया ग़िज़ाई रसद से महरूम नहीं हुए। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 265, नुरूल अबसार सफ़ा 126)



हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और खेती
अहादीस में है कि ज़राअत (खेती) व काश्त कारी सुन्नत है। हज़रत इदरीस के अलावा कि वह ख़य्याती करते थे। तक़रीबन जुमला अम्बिया ज़राअत किया करते थे। हज़रात आइम्माए ताहेरीन (अ.स.) का भी यही पेशा रहा है लेकिन यह हज़रात इस काश्त कारी से ख़ुद फ़ायदा नहीं उठाते थे बल्कि इस से ग़ुरबा, फ़ुक़रा और तयूर के लिये रोज़ी फ़राहम किया करते थे। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) फ़रमाते हैं ‘‘ माअजरा अलज़रा लतालब अलफ़ज़ल फ़ीह वमाअज़रा अलालैतना वलहू अल फ़क़ीरो जुल हाजता वलैतना वल मना अलक़बरता ख़सता मन अल तैर ’’ मैं अपना फ़ायदा हासिल करते के लिये ज़राअत नहीं किया करता बल्कि मैं इस लिये ज़राअत करता हूँ कि इस से ग़रीबों , फ़क़ीरों मोहताजों और ताएरों ख़ुसूसन कु़बर्रहू को रोज़ी फ़राहम करूँ। (सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 1 सफ़ा 549)

वाज़े हो कि कु़बरहू वह ताएर हैं जो अपने महले इबादत में कहा करता है ‘‘ अल्लाह हुम्मा लाअन मबग़ज़ी आले मोहम्मद ’’ ख़ुदाया उन लोगों पर लानत कर जो आले मोहम्मद (स.अ.) से बुग़्ज़ रखते हैं। (लबाब अल तावील बग़वी)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और फ़ित्नाए इब्ने ज़ुबैर

मुवर्रिख़ मि0 ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर जो आले मोहम्मद (स. अ.) का शदीद दुश्मन था 3 हिजरी में हज़रत अबू बकर की बड़ी साहब ज़ादी असमा के बतन से पैदा हुआ, इसे खि़लाफ़त की बड़ी फ़िक्र थी। इसी लिये जंगे जमल में मैदान गरम करने में उसने पूरी सई से काम लिया था। यह शख़्स इन्तेहाई कन्जूस और बनी हाशिम का सख़्त दुश्मन था और उन्हें बहुत सताता था। बरवाएते मसूदी उसने जाफ़र बिन अब्बास से कहा कि मैं चालीस बरस से तुम बनी हाशिम से दुश्मनी रखता हूँ। इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद 61 हिजरी में मक्का में और रजब 64 हिजरी में मुल्के शाम के बाज़ इलाक़ों के अलावा तमाम मुमालिके इस्लाम में इसकी बैअत कर ली गई। अक़दुल फ़रीद और मरूज उज़ ज़हब में है कि जब इसकी कु़व्वत बहुत बढ़ गई तो उसने ख़ुतबे में हज़रत अली (अ.स.) की मज़म्मत की और चालीस रोज़ तक ख़ुत्बे में दुरूद नहीं पढ़ा और मोहम्मद हनफ़िया और इब्ने अब्बास और दीगर बनी हाशिम को बैअत के लिये बुलाया उन्होंने इन्कार किया तो बरसरे मिम्बर उनको गालियां दीं और ख़ुत्बे से रसूल अल्लाह (स. अ.) का नाम निकाल डाला और जब इसके बारे में इस पर एतिराज़ किया गया तो जवाब दिया कि इस से बनी हाशिम बहुत फ़ुलते हैं, मैं दिल में कह लिया करता हूँ। इसके बाद उस ने मोहम्मद हनफ़िया और इब्ने अब्बास को हब्से बेजा में मय 15 बनी हाशिम के क़ैद कर दिया और लकड़िया क़ैद ख़ाने के दरवाज़े पर चिन दीं और कहा कि अगर बैअत न करोगे तो मैं आग लगा दूंगा। जिस तरह बनी हाशिम के इन्कारे बैअत पर लकड़िया चिनवा दी गई थीं। इतने में वह फ़ौज वहां पहुँच गई जिसे मुख़्तार ने उनकी मदद के लिये अब्दुल्लाह जदली की सर करदगी में भेजी थी और उसने इन मोहतरम लोगों को बचा लिया और वहां से ताएफ़ पहुँचा दिया। (अक़दे फ़रीद व मसूदी)

उन्हीं हालात की बिना पर हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अकसर फ़ित्नाए इब्ने ज़ुबैर का ज़िक्र फ़रमाते थे। आलिमे अहले सुन्न्त अल्लामा शिबली लिखते हैं कि अबू हमज़ा शुमाली का बयान है कि एक दिन हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हुआ और चाहा कि आपसे मुलाक़ात करूँ लेकिन चूंकि आप घर के अन्दर थे, इस लिये सुए अदब समझते हुए मैंने आवाज़ न दी। थोड़ी देर के बाद ख़ुद बाहर तशरीफ़ लाए और मुझे हमराह ले कर एक जानिब रवाना हो गए। रास्ते में आपने एक दिवार की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया, ऐ अबू हमज़ा ! मैं एक दिन सख़्त रंजो अलम में इस दीवार से टेक लगाए खड़ा था और सोच रहा था कि इब्ने ज़ुबैर के फ़ितने से बनी हाशिम को क्यों कर बचाया जाए। इतने में एक शरीफ़ और मुकद्दस बुज़ुर्ग साफ़ सुथरे कपड़े पहने हुए मेरे पास आए और कहने लगे आखि़र क्यों परेशान खड़े हैं? मैंने कहा मुझे फ़ितनाए इब्ने ज़ुबैर का ग़म और उसकी फ़िक्र है। वह बोले, ऐ अली इब्नुल हुसैन (अ.स.) ! घबराओ नहीं जो ख़ुदा से डरता है, ख़ुदा उसकी मद्द करता है। जो उससे तलब करता है वह उसे देता है। यह कह कर वह मुक़द्दस शख़्स मेरी नज़रों से ग़ाएब हो गये और हातिफ़े ग़ैबी ने आवाज़ दी। ‘‘ हाज़ल खि़ज़्र ना हबाक़ा ’’ कि यह जो आपसे बातें कर रहे थे वह जनाबे खि़ज्ऱ (अ.स.) थे। (नुरूल अबसार सफ़ा 129, मतालेबुल सुवेल सफ़ा 264, शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 178) वाज़े हो कि यह रवायत बरादराने अहले सुन्नत की है। हमारे नज़दीक इमाम कायनात की हर चीज़ से वाक़िफ़ होता है।



हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की अपने पदरे बुज़ुर्गवार के क़र्ज़े से सुबुक दोशी
उलेमा का बयान है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) क़ैद ख़ाना ए शाम से छूट कर मदीने पहुँचने के बाद से अपने पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के क़र्ज़े की अदाएगी की फ़िक्र में रहा करते थे और चाहते थे कि किसी न किसी सूरत से 75 हज़ार दीनार जो हज़रत सय्यदुश शोहदा का क़र्ज़ा है मैं अदा कर दूं। बिल आखि़र आपने ‘‘ चश्मए तहनस ’’ को जो कि इमाम हुसैन (अ.स.) का बामक़ाम ‘‘ ज़ी ख़शब ’’ बनवाया हुआ था फ़रोख़्त कर के क़रज़े की अदाएगी से सुबुक दोशी हासिल फ़रमाई। चशमे के बेचने में यह शर्त थी कि शबे शम्बा को पानी लेने का हक़ ख़रीदने वाले को न होगा बल्कि उसकी हक़दार सिर्फ़ इमाम (अ.स.) की हमशीरा होंगी।

(बेहारूल अनवार, वफ़ा अल वफ़ा जिल्द 2 सफ़ा 249 व मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 114)



माविया इब्ने यज़ीद की तख़्त नशीनी और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)
यज़ीद के मरने के बाद उसका बेटा अबू लैला, माविया बिन यज़ीद ख़लीफ़ा ए वक़्त बना दिया गया। वह इस ओहदे को क़बूल करने पर राज़ी न था क्यों कि वह फ़ितरतन हज़रत अली (अ.स.) की मोहब्बत पर पैदा हुआ था और उनकी औलाद को दोस्त रखता था। बा रवायत हबीब अल सैर उसने लोगों से कहा कि मेरे लिये खि़लाफ़त सज़ावार और मुनासिब नहीं है मैं ज़रूरी समझता हूँ कि इस मामले में तुम्हारी रहबरी करूँ और बता दूं कि यह मन्सब किस के लिये ज़ेबा है, सुनो ! इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मौजूद हैं उन में किसी तरह का कोई ऐब निकाला नहीं जा सकता। वह इस के हक़ दार और मुस्तहक़ हैं, तुम लोग उनसे मिलो और उन्हें राज़ी करो अगरचे मैं जानता हूँ कि वह इसे क़ुबूल न करेंगे।

मिस्टर ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि 64 हिजरी में यज़ीद के मरते ही माविया बिन यज़ीद की बैअत शाम में, अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर की हिजाज़ और यमन में हो गई और अब्दुल्लाह इब्ने ज़ियाद ईराक़ में ख़लीफ़ा बन गया।

माविया इब्ने यज़ीद हिल्म व सलीम अल बतआ जवाने सालेह था। वह अपने ख़ानदान की ख़ताओं और बुराईयों को नफ़रत की नज़र से देखता और अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) को मुस्तहक़े खि़लाफ़त समझता था। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 37) अल्लामा मआसिर रक़म तराज़ हैं कि 64 हिजरी में यज़ीद मरा तो उसका बेटा माविया ख़लीफ़ा बनाया गया। उसने चालीस रोज़ और बाज़ क़ौल के मुताबिक़ 5 माह खि़लाफ़त की। उसके बाद ख़ुद खि़लाफ़त छोड़ दी और अपने को खि़लाफ़त से अलग कर लिया। इस तरह कि एक रोज़ मिम्बर पर चढ़ कर देर तक ख़ामोश बैठा रहा फिर कहा, ‘‘ लोगों ! ’’ मुझे तुम लोगों पर हुकूमत करने की ख़्वाहिश नहीं है क्यों कि मैं तुम लोगों की जिस बात (गुमराही और बे ईमानी) को ना पसन्द करता हूँ वह मामूली दरजे की नहीं बल्कि बहुत बड़ी है और यह भी जानता हूँ कि तुम लोग भी मुझे ना पसन्द करते हो इस लिये कि मैं तुम लोगों की खि़लाफ़त से बड़े अज़ाब में मुब्तिला और गिरफ़्तार हूँ और तुम लोग भी मेरी हुकूमत के सबब मुमराही की सख़्त मुसीबत में पड़े हो। ‘‘ सुन लो ’’ कि मेरे दादा माविया ने इस खि़लाफ़त के लिये उस बुज़ुर्ग से जंगो जदल की जो इस खि़लाफ़त के लिये उस से कहीं ज़्यादा सज़ावार और मुस्तहक़ थे और वह हज़रत इस खि़लाफ़त के लिये सिर्फ़ माविया ही नहीं बल्कि दूसरे लोगों से भी अफ़ज़ल थे इस सबब से कि हज़रत को हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) से क़राबते क़रीबिया हासिल थी। हज़रत के फ़जा़एल बहुत थे। ख़ुदा के यहां हज़रत को सब से ज़्यादा तक़र्रूब हासिल था। हज़रत तमाम सहाबा, महाजेरीन से ज़्यादा अज़ीम उल क़द्र, सब से ज़्यादा बहादुर, सब से ज़्यादा साहेबे इल्म, सब से पहले ईमान लोने वाले, सब से आला अशरफ़ दर्जा रखने वाले और सब से पहले हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) की सोहबत का फ़ख्ऱ हासिल करने वाले थे। अलावा इन फ़ज़ाएल व मनाक़िब के वह जनाबे हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) के चचा ज़ाद भाई, हज़रत के दामाद और हज़रत के दीनी भाई थे जिनसे हज़रत ने कई बार मवाख़ात फ़रमाई। जनाबे हसनैन (अ.स.) जवानाने अहले बेहिश्त के सरदार और इस उम्मत में सब से अफ़ज़ल और परवरदए रसूल (स. अ.) और फ़ात्मा बुतूल (स. अ.) के दो लाल यानी पाको पाकीज़ा दरख़ते रिसालत के फूल थे। उनके पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत अली (अ.स.) ही थे। ऐसे बुज़ुर्ग से मेरा दादा जिस तरह सरकशी पर आमादा हुआ उसको तुम लोग ख़ूब जानते हो और मेरे दादा की वजह से तुम लोग जिस गुमराही में पड़े उस से भी तुम लोग बे ख़बर नहीं हो। यहां तक कि मेरे दादा को उसके इरादे में कामयाबी हुई और उसके दुनिया के सब काम बन गए मगर जब उसकी अजल उसके क़रीब पहुँच गई और मौत के पंजों ने उसको अपने शिकंजे में कस लिया तो वह अपने आमाल में इस तरह गिरफ़्तार हो कर रह गया कि अपनी क़ब्र में अकेला पड़ा है और जो ज़ुल्म कर चुका था उन सब को अपने सामने पा रहा है और जो शैतनत व फ़िरऔनियत उसने इख़्तेयार कर रखी थी उन सब को अपनी आख़ों से देख रहा है। फिर यह खि़लाफ़त मेरे बाप यज़ीद के सिपुर्द हुई तो जिस गुमराही में मेरा दादा था उसी ज़लालत में पड़ कर मेरा बाप भी ख़लीफ़ा बन बैठा और तुम लोगों की हुकूमत अपने हाथ में ले ली हालां कि मेरा बाप यज़ीद भी इस्लाम कुश बातों दीन सोज़ हरकतों और अपनी रूसियाहियो की वजह से किसी तरह उसका अहल न था कि हज़रत रसूले करीम (स. अ.) की उम्मत का ख़लीफ़ा और उनका सरदार बन सके, मगर वह अपनी नफ़्स परस्ती की वजह से इस गुमराही पर आमादा हो गया और उसने अपने ग़लत कामों को अच्छा समझा जिसके बाद उसने दुनियां में जो अंधेरा किया उस से ज़माना वाक़िफ़ है कि अल्लाह से मुक़ाबला और सरकशी करने तक पर आमादा हो गया और हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) से इतनी बग़ावत की कि हज़रत की औलाद का ख़ून बहाने पर कमर बांध ली, मगर उसकी मुद्दत कर रही और उसका ज़ुल्म ख़त्म हो गया। वह अपने आमाल के मज़े चख रहा है और अपने गढ़े (क़ब्र्र) से लिपटा हुआ और अपने गुनाहांे की बलाओं में फंसा हुआ पड़ा है। अलबत्ता उसकी सफ़ाकियों के नतीजे जारी और उसकी ख़ूं रेज़ियों की अलामतें बाक़ी हैं। अब वह भी वहां पहुँच गया जहां के लिये अपने करतूतों का ज़ख़ीरा मोहय्या किया था और अब किये पर नादिम हो रहा है। मगर कब? जब किसी निदामत का कोई फ़ायदा नहीं और वह इस अज़ाब में पड़ गया कि हम लोग उसकी मौत को भूल गये और उसकी जुदाई पर हमें अफ़सोस नहीं होता बल्कि उसका ग़म है कि अब वह किस आफ़त में गिरफ़्तार है, काश मालूम हो जाता कि वहां उसने क्या उज़्र तराशा और फिर उससे क्या कहा गया, क्या वह अपने गुनाहों के अज़ाब में डाल दिया गया और अपने आमाल की सज़ा भुगत रहा है? मेरा गुमान तो यही है कि ऐसा ही होगा। उसके बाद गिरया उसके गुलूगीर हो गया और वह देर तक रोता रहा और ज़ोर ज़ोर से चीख़ता रहा।

फिर बोला, अब मैं अपने ज़ालिम ख़ानदान बनी उमय्या का तीसरा ख़लीफ़ा बनाया गया हूँ हालां कि जो लोग मुझ पर मेरे दादा और बाप के ज़ुल्मों की वजह से ग़ज़ब नाक हैं उनकी तादाद उन लोगों से कहीं ज़्यादा है जो मुझ से राज़ी हैं।

भाईयों मैं तुम लोगों के गुनाहों के बार उठाने की ताक़त नहीं रखता और ख़ुदा वह दिन भी मुझे न दिखाए कि मैं तुम लोगों की गुमराहियांे और बुराईयों के बार से लदा हुआ उसकी दरगाह में पहुँचूँ। अब तुम लोगों को अपनी हुकूमत के बारे में इख़्तेयार है उसे मुझ से ले लो और जिसे पसन्द करो अपना बादशाह बना लो कि मैंने तुम लोगों की गरदनों से अपनी बैअत उठा ली । वस्सलाम । जिस मिम्बर पर माविया इब्ने यज़ीद ख़ुत्बा दे रहा था उसके नीचे मरवान बिन हकम भी बैठा हुआ था। ख़ुत्बा ख़त्म होने पर वह बोला, क्या हज़रत उमर की सुन्नत जारी करने का इरादा है कि जिस तरह उन्होंने अपने बाद खि़लाफ़त को ‘‘ शूरा ’’ के हवाले किया था तुम भी इसे शूरा के सिपुर्द करते हो। इस पर माविया बोला, आप मेरे पास से तशरीफ़ ले जायें, क्या आप मुझे भी मेरे दीन मंे धोखा देना चाहते हैं। ख़ुदा की क़सम मैं तुम लोगों की खि़लाफ़त का कोई मज़ा नहीं पाता अलबत्ता इसकी तलखि़यां बराबर चख रहा हूँ। जैसे लोग उमर के ज़माने में थे, वैसे ही लोगों को मेरे पास भी लाओ। इसके अलावा जिस तारीख़ से उन्होंने खि़लाफ़त को शूरा के सिपुर्द किया और जिस बुज़ुर्ग हज़रत अली (अ.स.) की अदालत में किसी क़िस्म का शुब्हा किसी को हो भी नहीं सकता, इसको उस से हटा दिया। उस वक़्त से वह भी ऐसा करने की वजह से क्या ज़ालिम नहीं समझे गये। ख़ुदा की क़सम अगर खि़लाफ़त कोई नफ़े की चीज़ है तो मेरे बाप ने उस से नुक़सान उठाया और गुनाह ही का ज़ख़ीरा मोहय्या किया और अगर खि़लाफ़त कोई और वबाल की चीज़ है तो मेरे बाप को उस से जिस क़द्र बुराई हासिल हुई वही काफ़ी है।

यह कह कर माविया उतर आया, फिर उसकी माँ और दूसरे रिश्ते दार उसके पास गये तो देखा कि वह रो रहा है। उसकी मां ने कहा कि काश तू हैज़ ही में ख़त्म हो जाता और इस दिन की नौबत न आती । माविया ने कहा ख़ुदा की क़सम मैं भी यही तमन्ना करता हूँ फिर कहा मेरे रब ने मुझ पर रहम नहीं किया तो मेरी नजात किसी तरह नहीं हो सकती। उसके बाद बनी उमय्या उसके उस्ताद उमर मक़सूस से कहने लगे कि तू ही ने माविया को यह बातें सिखाई हैं और उसको खि़लाफ़त से अलग किया है और अली (अ.स.) व औलादे अली (अ.स.) की मोहब्बत उसके दिल में रासिख़ कर दी है। ग़र्ज़ उसने हम लोगों के जो अयूब व मज़ालिम बयान किये उन सब का बाएस तू ही है और तू ही ने इन बिदअतों को उसकी नज़र में पसंदीदा क़रार दे दिया है जिस पर उस ने यह ख़ुत्बा बयान किया है। मक़सूस ने जवाब दिया ख़ुदा की क़सम मुझ से उसका कोई वास्ता नहीं है बल्कि वह बचपन ही से हज़रत अली (अ.स.) की मोहब्बत पर पैदा हुआ है लेकिन उन लोगों ने बेचारे का कोई उज्ऱ नहीं सुना और क़ब्र खोद कर उसे ज़िन्दा दफ़्न कर दिया।

(तहरीर अल शहादतैन सफ़ा 102, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 122, हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 55, तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 सफ़ा 232, तारीख़े आइम्मा सफ़ा 391)

मुवर्रिख़ मिस्टर ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं, इसके बाद बनी उमय्या ने माविया बिन यज़ीद को भी ज़हर से शहीद कर दिया। उसकी उम्र 21 साल 18 दिन की थी। उसकी खि़लाफ़त का ज़माना चार महीने और बा रवायते चालीस यौम शुमार किया जाता है। माविया सानी के साथ बनी उमय्या की सुफ़यानी शाख़ की हुकूमत का ख़ात्मा हो गयाा और मरवानी शाख़ की दाग़ बेल पड़ गई। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 38) मुवर्रिख़ इब्नुल वरदी अपनी तारीख़ में लिखते हैं कि माविया इब्ने यज़ीद के मरने के बाद शाम में बनी उमय्या ने मुतफ़्फ़ेक़ा तौर पर मरवान बिन हकम को ख़लीफ़ा बना लिया।

मरवान की हुकूमत सिर्फ़ एक साल क़ायम रही फिर उसके इन्तेक़ाल के बाद उसका लड़का अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ख़लीफ़ाए वक़्त क़रार दिया गया।



अब्दुल मलिक इब्ने मरवान और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)
65 हिजरी में मरवान के मरने के बाद उसका बेटा अब्दुल मलिक मिस्त्र व शाम का बादशाह तसलीम किया गया। यह बनी उमय्या का असलन नमूना था चूंकि मुसतबद फ़रेबी और ईमान से दूर था। वह अजीब क़ाबलियत के साथ अपनी खि़लाफ़त को मुस्तहकम करने में मसरूफ़ हुआ। उसकी राह में मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फी और अब्दुल्ला इब्ने ज़ुबैर रूकावट थे। उनके बाद जमादुस्सानिया 73 हिजरी में अब्दुल मलिक इब्ने मरवान तमाम मुमालिके इस्लाम का अकेला बादशाह बन गया। इब्ने ज़ुबैर से लड़ने में चूंकि हज्जाज बिन यूसुफ़ अमवी जरनल ने नुमायां किरदार अदा किया था इस लिये अब्दुल मलिक बिन मरवान ने उसे हिजाज़ का गर्वनर बना दिया था।

75 हिजरी में अब्दुल मलिक ने इसे अपनी मशरिक़ी सलतनत, ईराक़, फ़ारस और सिस्तान, किरमान और ख़ुरासान का जिसमें काबुल और कुछ हिस्सा मावरा अल नहर का भी शामिल था वायस राय बना दिया।

हज्जाज ने अपनी हिजाज़ की गर्वनरी के ज़माने में मदीने के लोगों पर जिनमें असहाबे रसूल (स. अ.) भी थे बड़े बड़े ज़ुल्म किये। ईराक़ में अपनी बीस बरस की गर्वनरी के दौरान में उसने तक़रीबन डेढ़ लाख (1,50000 और बा रवायत मिशक़ात 5,00000 पांच लाख) बन्दगाने ख़ुदा का ख़ून बहाया था। जिनमें से बहुत लोगों पर झूठे इल्ज़ाम और बोहतान लगाये गये थे। उसकी वफ़ात के वक़्त 50,000 (पचास हज़ार) मर्द व ज़न क़ैद ख़ानों में पड़े हुए उसकी जान को रो रहे थे। बे सख़फ़ (बग़ैर छत) क़ैद ख़ाना उसी की ईजाद है।

इब्ने ख़ल्क़ान लिखता है कि अब्दुल मलिक बड़ा ज़ालिम और सफ़्फ़ाक था और ऐसे ही उसके गवरनर, हज्जाज ईराक़ में, मेहरबान ख़ुरासान में, हश्शाम इब्ने इस्माईल हिजाज़ और मग़रेबी अरब में और उसका बेटा अब्दुल्लाह मिस्त्र में, हस्सान बिन नोमान मग़रिब में, हज्जाज का भाई मोहम्मद बिन यूसुफ़ यमन में, मोहम्मद बिन मरवान जज़ीरे में, यह सब के सब ज़ालिम और सफ़्फ़ाक थे। और मसूदी लिखता है कि बे परवाही से ख़ून बहाने में अब्दुल मलिक के आमिल इसी के नक़्शे क़दम पर चलते थे मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि यह कंजूस, बे रहम, सफ़्फ़ाक, वायदा खि़लाफ़, दग़ा बाज़ बे ईमान था। यह मतलब बरारी के लिये सब कुछ किया करता था। अख़तल इसके दरबार का मशहूर शायर और ज़हरी मशहूर मोहद्दिस था जिसने सब से अव्वल हदीस की किताब लिखी। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 42)

ज़हरी का असल नाम इमाम अबू बकर मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अबीद उल्ला इब्ने शहाब ज़हरी मदनी शामी था। यह ताबई फ़क़ीह और मोहद्दिस था। 51 हिजरी में पैदा हो कर 124 हिजरी में फ़ौत हुआ। मदीने के नामी मोहद्दिसों और फ़की़हो में था, अब्दुल मलक और हश्शाम ख़ुल्फ़ा बनी उमय्या की सोहबत में रहा। इमाम मालिक का उस्ताद और इल्मे हदीस का मदून था।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 5 सफ़ा 79 सफ़ा 19, 20)

 बहुत से उलमा ने लिखा है कि अब्दुल मलक बिन मरवान ने हुक्म दे दिया था कि अली इब्ने हुसैन (अ.स.) को गिरफ़्तार कर के शाम पहुँचा दिया जाए। चुनांचे आप को जंजीरों में जकड़ कर मदीने से बाहर एक ख़ेमें में ठहरा दिया गया।

ज़हरी का बयान है कि मैं उन्हें रूख़सत करने के लिये उनकी खि़दमत में हाज़िर हुआ। जब मेरी नज़र हथकड़ी और बेड़ियों पर पड़ी तो मेरी आंखांे से आंसू निकल पड़े और मैं अर्ज़ परदाज़ हुआ कि काश आपके बजाए लोहे के ज़ेवरात मैं पहन लेता और आप इससे बरी हो जाते। आपने फ़रमाया ज़हरी तुम मेरी हथकड़ियां, बेड़ी और मेरे तौक़े गरां बार को देख कर घबरा रहे हो सुनों ! मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 177 व अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 422 हयातुल औलिया जिल्द 3 सफ़ा 135 तबा मिस्त्र)

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई बा हवाला ज़हरी लिखते हैं कि इस वाक़ेए के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के पास गया मैंने कहा कि ‘‘ ऐ अमीर , लैयसा अली इब्नुल हुसैन हैस तज़न अन्दा मशगू़ल बे रब्बेही ’’ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पर किसी क़िस्म का कोई इल्ज़ाम नहीं है। वह तेरी हुकूमत के मामेलात से कोई दिलचस्पी नहीं रखते वह ख़ालिस अल्लाह वाले हैं। कि ज़हरी के तज़किरे ख़ुसूसी के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ने हज्जाज बिन यूसुफ़ को लिखा कि ‘‘ अन यजूतनेबा देमा बनी अब्दुल मुत्तलिब ’’ बनी हाशिम को सताने और उनके ख़ून बहाने से इज्तेनाब करें। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 119)

अल्लामा शिबली लिखते हैं कि बादशाह ने हज्जाज को इज्तेनाब की वजह भी लिखी थी और वह यह थी कि बनी उमय्या के अकसर बादशाह उन्हें सताकर जल्द तबाह हो गए हैं। (नूरूल अबसार सफ़ा 127) ग़रज़ अब्दुल मलिक के ज़माने में इस वाक़िये के बाद से औलादे अबु तालिब हज्जाज के हाथों से अमान में रही। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 141)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और बुनियादे काबा ए मोहतरम व नसबे हजरे असवद
71 हिजरी में अब्दुल मलिक बिन मरवान ने ईराक़ पर लशकर कशी कर के मसअब बिन ज़ुबैर को क़त्ल किया फिर 72 हिजरी में हज्जाज बिन यूसुफ़ को एक अज़ीम लशकर के साथ अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को क़त्ल करने के लिये मक्के मोअज़्ज़मा रवाना किया। (अबुल फ़िदा) वहीं पहुँच कर हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर से जंग की इब्ने ज़ुबैर ने ज़बर दस्त मुक़ाबला किया और बहुत सी लड़ाईयां हुईं, आखि़र में इब्ने ज़ुबैर महसूर हो गए, और हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर को काबे से निकालने के लिये काबे पर संग बारी शुरू कर दी यही नहीं बल्कि उसे खुदवा डाला। इब्नु ज़ुबैर जमादिल आखि़र 73 हिजरी में क़त्ल हुआ। (तारीख़ इब्नुल वरदी) और हज्जाज जो ख़ाना ए काबा की बुनियाद तक ख़राब कर चुका था, इसकी तामीर की तरफ़ मुतवज्जे हुआ।

अल्लामा सद्दूक़ किताब एललुश शराए में लिखते हैं कि हज्जाज के हदमे काबा के मौक़े पर लोग उसकी मिट्टी तक उठा कर ले गए और काबा को इस तरह लूट लिया कि इसकी कोई पुरानी चीज़ बाक़ी न रही। फिर हज्जाज को ख़्याल पैदा हुआ कि इसकी तामीर करानी चाहिए। चुनान्चे उस ने तामीर का प्रोग्राम मुरत्तब कर लिया और काम शुरू करा दिया। काम की अभी बिल्कुल इब्तेदाई मंज़िल थी कि एक अज़दहा बरामद हो कर ऐसी जगह बैठ गया जिसके हटे बग़ैर काम आगे नहीं बढ़ सकता था। लोगों ने इस वाक़िए की इत्तेला हज्जाज को दी, हज्जाज घबरा उठा और लोगों को जमा कर के उन से मशविरा किया कि अब क्या करना चाहिए। जब लोग इसका हल निकालने से का़सिर रहे तो एक शख़्स ने खड़े हो कर कहा कि आज कर फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) यहां आए हुए हैं बेहतर होगा कि उन से दरयाफ़्त कराया जाए यह मसला उनके अलावा कोई हल नहीं कर सकता। चुनान्चे हज्जाज ने आपको ज़हमते तशरीफ़ आवरी दी। आपने फ़रमाया हज्जाज तूने ख़ाना ए काबा को अपनी मीरास समझ लिया । तूने तो बेनाए इब्राहीम (अ.स.) उखड़वा कर रास्ते में डलवा दिया। ‘‘ सुन ! तुझे ख़ुदा उस वक़्त तक काबे की तामीर में कामयाब न होने देगा जब तक तू काबे का लूटा हुआ सामान वापस न मंगाएगा। यह सुन कर ऐलान किया कि काबे से मुतअल्लिक़ जो शय भी किसी के पास हो वह जल्द अज़ जल्द वापस करें चुनान्चे लोगों ने पत्थर मिट्टी वग़ैरा जमा कर दी। जब सब कुछ जमा हो गया तो आप उस अज़दहे के क़रीब गए और वह हट कर एक तरफ़ हो गया। आपने उसकी बुनियाद इस्तेवार की और हज्जाज से फ़रमाया कि इसके ऊपर तामीर करो ‘‘ फ़ल ज़ालिक सार अल बैत मरतफ़अन ’’ फिर इसी बुनियाद पर ख़ाना ए काबा की तामीर बुलन्द हुई। किताब अल ख़राएज वल हराए में अल्लामा कुतब रावन्दी लिखते हैं कि जब तामीरे काबा उस मक़ाम तक पहुँची जिस जगह हजरे असवद नसब करना था यह दुशवारी पैदा हुई कि जब कोई आलिम, ज़ाहिद, क़ाजी़ उसे नस्ब करता था तो ‘‘ यताज़ल ज़लव यज़तरब वला यसतक़र ’’ हजरे असवद मुताज़लज़िल और मुज़तरिब रहता और अपने मुक़ाम पर ठहरता न था बिल आखि़र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बुलाए गए और आपने बिस्मिल्लाह कह कर उसे नसब कर दिया, यह देख कर लोगों ने अल्लाहो अकबर का नारा लगाया। (दमए साकेबा जिल्द 2 सफ़ा 437) उल्मा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि हज्जाज बिन यूसुफ़ ने यज़ीद बिन माविया ही की तरह ख़ाना ए काबा पर मिनज़नीक़ से पत्थर वग़ैरा फिकवाए थे।






इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और अब्दुल मलिक बिन मरवान का हज
बादशाहे दुनिया अब्दुल मलिक बिन मरवान अपने अहदे हुकूमत में अपने पाये तख़्त से हज के लिये रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचा और बादशाहे दीन हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) भी मदीना ए मुनव्वरा से रवाना हो कर पहुँच गए। मनासिके हज के सिलसिले में दोनों का साथ हो गया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) आगे आगे चल रहे थे और बादशाह पीछे पीछे चल रहे था। अब्दुल मलिक को यह बात नागवार हुई और उसने आपसे कहा क्या मैंने आप के बाप को क़त्ल किया है जो आप मेरी तरफ़ मुतवज्जे नहीं होते? आपने फ़रमाया कि जिसने मेरे बाप को क़त्ल किया है उसने अपनी दुनिया व आख़ेरत ख़राब कर ली ह,ै क्या तू भी यही हौसला रखता है? उसने कहा नहीं। मेरा मतलब यह है कि आप मेरे पास आयें ताकि मैं आपसे कुछ माली सुलूक करूँ। आपने इरशाद फ़रमाया, मुझे तेरे माले दुनिया की ज़रूरत नहीं है, मुझे देने वाला ख़ुदा है। यह कह कर आपने उसी जगह ज़मीन पर रिदाए मुबारक डाल दी और काबे की तरफ़ इशारा कर के कहा, मेरे मालिक इसे भर दे। इमाम (अ.स.) की ज़बान से अल्फ़ाज़ का निकलना था कि रिदाए मुबारक मोतियों से भर गई। आपने उसे राहे ख़ुदा में दे दिया। (दमए साकेबा, जन्नातुल ख़ुलूद सफ़ा 23)



बद किरदार और रिया कार हाजियों की शक्ल
इमामुल हदीस ज़हरी का बयान है कि मैं हज के मौक़े पर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास मक़ामे अराफ़ात में खड़ा हाजियों को देख रहा था। दफ़तन मेरे मुहं से निकला कि मौला कितने लाख हाजी हैं और कितना ज़बरदस्त शोर मचा हुआ है। हज़रत ने फ़रमाया कि मेरे क़रीब आओ। जब मैं बिल्कुल नज़ीद हुआ तो आपने मेरे चेहरे पर हाथ फेर कर फ़रमाया, ‘‘ अब देखो ’’ जब मैं ने फिर नज़र की तो मुझे लाखों आदमियों में दस हज़ार के एक के तनासुब से इन्सान दिखाई दिये बाक़ी सब के सब बन्दर , कुत्ते, सुअर, भेड़िये और इसी तरह के जानवर नज़र आये। यह देख कर मैं हैरान रह गया। आपने फ़रमाया कि सुनो ! जो सही नियत और सही अक़ीदे के बग़ैर हज करते हैं उनका यही हश्र होता है। ऐ ज़हरी नेक नियत और हमारी मोवद्दत व मोहब्बत के बग़ैर सारे आमाल बेकार हैं। (तफ़सीरे इमाम हसन असकरी व दमए साकेबा, जिल्द 2 सफ़ा 438)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और एक मर्दे बल्ख़ी
अल्लामा शेख़ तरही और अल्लामा मजलिसी रक़म तराज़ हैं कि बलख़ का रहने वाला एक दोस्त दारे आले मोहम्मद (अ.स.)  हमेशा हज किया करता था और जब हज को आता था तो मदीने जा कर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ज़ियारत का शरफ़ भी हासिल किया करता था। एक मरतबा हज से लौटा तो उसकी बीवी ने कहा कि तुम हमेशा अपने इमाम की खि़दमत मे तोहफ़े ले जाते हो मगर उन्होंने आज तक तुम को कुछ न दिया। उसने कहा तौबा करो तुम्हारे लिये यह कहना सज़ावार नहीं है, वह इमामे ज़माना हैं। वह मालिके दीनो दुनियां हैं। वह फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हैं। वह तुम्हारी बातें सुन रहे हैं। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गई। अगले साल जब वह हज से फ़राग़त कर के इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की खि़दमत में पहुँचा और सलाम व दस्त बोसी के बाद आपके पास बैठा तो आप ने खाना तलब फ़रमाया। हुक्मे इमाम (अ.स.) से मजबूर हो कर उसने इमाम (अ.स.) के साथ खाना खाया। जब दोनों खाना खा चुके तो इमाम के दोस्त बलख़ी ने हाथ धुलाना चाहा। आपने फ़रमाया तू महमान है, यह तेरा काम नहीं। उसने इसरार किया और हाथ धुलाना शुरू कर दिया। जब तश्त भर गया तो आपने पूछा यह क्या है। उसने कहा ‘‘ पानी ’’ हज़रत ने फ़रमाया नहीं ‘‘ याक़ूते अहमर ’’ हैं। जब उसने ग़ौर से देखा तो वह तश्त ‘‘ याकूते सुर्ख ’’ से भरा हुआ था। इसी तरह ‘‘ ज़मुर्रदे सब्ज़ ’’ और ‘‘ दुरे बैज़ ’’ से भर गया। यानी तीन बार ऐसा ही हुआ यह देख कर वह हैरान हो गया और आपके हाथों का बोसा देने लगा। हज़रत ने फ़रमाया इसे लेते जाओ और अपनी बीवी को दे देना और कहना कि हमारे पास और कुछ माले दुनिया से नहीं है। वह शख़्स शरमिन्दा हो कर बोला, मौला आपको हमारी बीवी की बात किसने बता दी? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया हमें सब मालूम हो जाता है। उसके बाद वह इमाम (अ.स.) से रूख़सत हो कर बीवी के पास पहुँचा। जवाहेरात दे कर सारा वाक़ेया बयान किया। बीवी ने कहा आइन्दा साल मैं भी चल कर ज़ियारत करूँगी। जब दूसरे साल बीवी हमराह रवाना हुई, तो रास्ते में इन्तेक़ाल कर गई। वह शख़्स हज़रत की खि़दमत में रोता पीटता हाज़िर हुआ। हज़रत ने दो रकअत नमाज़ पढ़ कर फ़रमाया, जाओ तुम्हारी बीवी भी ज़िन्दा हो गई है। उस ने क़याम गाह पर लौट कर बीवी को ज़िन्दा पाया। जब वह हाज़िरे खि़दमत हुई तो कहने लगी, ख़ुदा की क़सम इन्होंने मुझे मलकुल मौत से कह कर ज़िन्दा किया था और उस से कहा था कि यह मेरी ज़ायरा है। मैंने इसकी उम्र तीस साल बढ़वा ली है।

(अल मुन्तखि़ब वल बिहार)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अख़लाख की दुनियां मे
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) चूंकि फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) थे इस लिये आप में सीरते मोहम्मदिया का होना लाज़मी था। अल्लामा मोहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपको बुरा भला कहा, आपने फ़रमाया , भाई मैंने तो तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा अगर कोई हाजत रखता हो तो बता ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर आपके अख़लाख का कलमा पढ़ने लगा।

(मतालेबुल सुवेल सफ़ा 267)

अल्लामा हजरे मक्की लिखते हैं, एक शख़्स ने आपकी बुराई आपके मुंह पर की, आपने उस से बे तवज्जीही बरती। उसने मुख़ातिब कर के कहा मैं तुम को कह रह हूँ। आप ने फ़रमाया मैं हुक्मे ख़ुदा ‘‘ वा अर्ज़ अनालन जाहेलीन ’’ जाहिलों की बात की परवाह न करो, पर अमल कर रहा हूँ। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आप से आ कर कहा कि फ़लां शख़्स आपकी बुराई कर रहा था। आपने फ़रमाया कि मुझे उसके पास ले चलो, जब वहां पहुँचे, तो उस से फ़रमाया भाई जो बात तूने मेरे लिये कही है, अगर मैंने ऐसा किया हो तो खु़दा मुझे बख़्शे और अगर नहीं किया तो ख़ुदा तुझे बख़्शे कि तूने बोहतान लगाया।

एक रवायत में है कि आप मस्जिद से निकल कर चले तो एक शख़्श आपको सख़्त अल्फ़ाज़ में गालियां देने लगा। आपने फ़रमाया कि अगर कोई हाजत रखता है तो मैं पूरी करूँ, ‘‘ अच्छा ले ’’ यह पांच हज़ार दिरहम। वह शरमिन्दा हो गया।

एक रवायत में है कि एक शख़्स ने आप पर बोहतान बांधा। आपने फ़रमाया मेरे और जहन्नम के दरमियान एक खाई है अगर मैंने उसे तय कर लिया तो परवाह नहीं, जो जी चाहे कहो और अगर उसे पार न कर सकूं तो मैं इस से ज़्यादा बुराई का मुस्तहक़ हूँ जो तुमने की। (नूरूल अबसार सफ़ा 126- 127)

अल्लामा दमीरी लिखते हैं कि एक शामी हज़रत अली (अ.स.) को गालियां दे रहा था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने फ़रमाया, भाई तुम मुसाफ़िर मालूम होते हो, अच्छा मेरे साथ चलो, मेरे यहां क़याम करो और जो हाजत रखते हो बताओ ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर चला गया। (हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 121)

अल्लामा तबरिसी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपसे बयान किया कि फ़लां शख़्स आपको गुमराह और बिदअती कहता है। आपने फ़रमाया अफ़सोस है कि तुम ने उसकी हम नशीनी और दोस्ती का कोई ख़्याल न रखा और उसकी बुराई मुझसे बयान कर दी। देखो यह ग़ीबत है अब ऐसा कभी न करना। (एहतेजाज सफ़ा 304)

जब कोई सायल आपके पास आता तो ख़ुश व मसरूर हो जाते थे और फ़रमाते थे कि ख़ुदा तेरा भला करे कि तू मेरा ज़ादे राहे आख़ेरत उठाने के लिये आ गया है। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 263)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) सहीफ़ा ए कामेला में इरशाद फ़रमाते हंै, ख़ुदा वन्दा मेरा कोई दरजा न बढ़ा, मगर यह कि इतना ही खुद मेरे नज़दीक मुझको घटा और मेरे लिये कोई ज़ाहिरी इज़्ज़त न पैदा कर मगर यह कि ख़ुद मेरे नज़दीक इतनी ही बातनी लज़्ज़त पैदा कर दे।



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और सहीफ़ा ए कामेला
किताब सहीफ़ा ए कामेला आपकी दुआओं का मजमूआ है। इसमें बेशुमार उलूम व फ़ुनून के जौहर मौजूद हैं। यह पहली सदी की तसनीफ़ है। (मआलिम अल उलेमा सफ़ा 1 तबआ ईरान) इसे उलेमा ए इस्लाम ने ज़ुबूरे आले मोहम्मद (स.अ.) और इन्जीले अहलेबैत (अ.स.) कहा है। (नेयाबुल मोअद्दता सफ़ा 499 व फ़ेहरिस्त कुतुब ख़ाना ए तेहरान सफ़ा 36) और उसकी फ़साहत व बलाग़त मआनी को देख कर उसे कुतुबे समाविया और सहफ़े लौहिया व अरशिया का दरजा दिया गया है। (रियाज़ुल सालीक़ैन सफ़ा 1) इसकी चालीस हज़ार शरहें हैं जिनमें मेरे नज़दीक रियाज़ुल सालीकैन को फ़ौकी़यत हासिल है।



हश्शाम बिन अब्दुल मलिक और क़सीदा ए फ़रज़दक़
अब्दुल मलिक इब्ने मरवान का सन् 105 में ख़लीफ़ा होने वाला बेटा हश्शाम बिन अब्दुल मलिक अपने बा पके अहदे हुकूमत में एक मरतबा हज्जे बैतुल्लाह के लिये मक्के मोअज़्ज़मा गया। मनासिके हज बजा लाने के सिलसिले में तवाफ़ से फ़राग़त के बाद हजरे असवद का बोसा देने आगे बढ़ा और पूरी कोशिश के बवजूद हाजियों की कसरत की वजह से हजरे असवद के पास न पहुँच सका। आखि़र कार एक कुर्सी पर बैठ कर मजमे के छटने का इन्तेज़ार करने लगा। हश्शाम के गिर्द उसके मानने वालों का अम्बोह कसीर था। यह बैठा हुआ इन्तेज़ार ही कर रहा था कि नागाह एक तरफ़ से फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बरामद हुए। आपने तवाफ़ के बाद ज्यों ही हजरे असवद की तरफ़ रूख़ किया मजमा फटना लगा, हाजी हटने लगे, रास्ता साफ़ हो गया और आप क़रीब पहुँच कर तक़बील फ़रमाने लगे। हश्शाम जो कुर्सी पर बैठा हुआ था हालात का मुतालेआ कर रहा था जल भुन कर ख़ाक हो गया और उसके साथी बहरे हैरत में ग़र्क़ हो गये। एक मुंह चढ़े ने हश्शाम से पूछा, हुज़ूर यह कौन हैं? हश्शाम ने यह समझते हुए कि अगर तअर्रूफ़ करा दिया और इन्हें बता दिया कि यह ख़ानदाने रिसालत के चश्मों चिराग़ हैं तो कहीं मेरे मानने वालों की निगाह मेरी तरफ़ से फिर कर उनकी तरफ़ मुड़ न जाये। तजाहुले आरोफ़ाना के तौर पर कहने लगा, ‘‘ मआ अरफ़ा ’’ मैं नहीं पहचानता। यह सुन कर शायरे दरबार जनाब फ़रज़दक़ से न रहा गया और उन्होंने शामियों की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा, ‘‘ अना अराफ़ा ’’ इसे मैं जानता हूँ कि यह कौन हैं, ‘‘ मुझ से सुनो ’’ यह कह कर उन्होंने इरतेजालन और फ़िल बदीहा एक अज़ीम उश्शान क़सीदा पढ़ना शुरू कर दिया जिसका पहला शेर यह है तरजुमा यह वह शख़्स है जिस को खाना ए काबा हिल्लो हरम सब पहचानते हैं और उसके क़दम रखने की जगह, क़दम की चाप को ज़मीन बतहा भी महसूस कर लेती है। मैं इस रदीफ़ में इस क़सीदे का उर्दू मनजूम तरजुमा र्दजे ज़ैल करता हूँ।

यह वह है जानता है मक्का जिसके नक़्शे क़दम

ख़ुदा का घर भी है, आगाह और हिल्लो हरम

जो बेहतरीन ख़लाएक़ है उस का है फ़रज़न्द

है पाक व ज़ाहिद व पाकीज़ा व बुलन्द हशम

कु़रैश लिखते हैं जब , इसे तू कहते हैं

बुर्ज़ुगियों पे हुई इसकी इन्तेहाए करम

इस क़सीदे के तमाम नाक़ेलीन ने पहला शेर यह लिखा है।

हाज़ल लज़ी ताअररूफ अल बतहा व तातहू

वाअल बैतया अरफ़हू वाअलहलव अलहरम

लेकिन यह मालूम होने के बाद कि क़सीदे के लिये मतला ज़रूरी होता है। उसे पहला शेर क़रार नहीं दिया जा सकता, अल बत्ता यह मुम्किन है कि यह समझा जाए कि शायर ने मौक़े के लेहाज़ से अपने क़सीदे की इस वक़्त पढ़ने की इब्तेदा इसी शेर से की थी और मुवर्रेख़ीन ने इसी शेर को पहला शेर क़रार दे दिया। अल्लामा अब्दुल्लाह इब्ने मोहम्मद इब्ने यूसुफ़ ज़ाज़नी अल मौतूफ़ी 231 हिजरी शरहे सबहे मुअल्लेक़ात में लिखते हैं कि इस क़सीदे का पहला शेर यह है।

या साएली एन हल अलजदू व अल करम

अन्दी बयान अज़ा, तलाबहा क़दम



क़सीदाऐ फ़रज़दक़ के मुतालिक़ एक ग़लत फ़हमी और उसका इज़ाला
इमामे अहले सुन्नत मोहम्मद अब्दुल क़ादिर सईद अलराफ़ई ने 1927 ई0 में शाएर अरब अबू अलतमाम हबीब अदस बिन हारस ताई आमली शामी बग़दाद के कीवान ‘‘ हमासह ’’ के मिस्र तबा कराया है। इसकी जिल्द 2 सफ़ा 284 पर इस क़सीदे के इब्तेदाई 6 अश्आर को नक़ल कर के लिखा है कि यह अश्आर ‘‘ हज़ीन अल कनानी ’’ के हैं। इसने उन्हें अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मलिक बिन मरवान की मदह में कहे थे, साथ ही साथ यह भी लिखा है ‘‘व अलनास यरोदन हाज़ह अल बयात अलप फ़रज़ोक़ यमदह बहा अली इबनुल हुसैन बिन अबी तालिब व हैग़लतमन रदहाफ़ह लान हाज़ा लेस ममायदहा बेही मिस्ल अली बिन अल हुसैन व लहमन अल फ़ज़ल अलबा हरमालैसा ला हद फ़ी वक़तहू ’’ और लोेग जो इन अबयात के मुताअल्लिक़ यह रवायत करते हैं कि यह फ़रज़दक़ के हैं और उसने उन्हें मदहे ‘‘ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ‘‘ में कहा है ग़लत है क्यों कि यह अशआर उनके शायाने शान नहीं हैं वह तो अपने वक़्त के सब से बड़े साहेबे फ़ज़ीलत थे। मैं कहता हूँ कि यह अशआर फ़रज़दक ही के हैं क्यों कि इसे बेशुमार फ़हूल उलमा व मुवर्रेख़ीन ने उन्हीं के अश्आर तसलीम किए हैं जिनमें इमाम अल मोहक़ेक़ीन अल्लामा शेख़ मुफ़ीद अलै हिर रहमा मौतूफ़ी 413 हिजरी व इमाम ज़दज़नी अल मौतूफ़ी 431 हिजरी व अल्लामा इब्ने हजर मक्की व हाफ़िज़ अबू नईम और साहेबे मज़ा फिल अदब शामिल हैं। मुलाहेज़ा हो इरशाद मुफ़ीद सफ़ा 399 तबा ईरान 1303 इन उलमा के तसलीम करने के बाद किसी फ़रदे वाहिद के इनकार से कोई असर नहीं पड़ा।

पहुँच गया है यह इज़्ज़त की उस बुलन्दी पर

जहां पर जा सके इस्लाम के अरब व अजम

                 यह चाहता है कि ले हाथों हाथ रूकने हतीम

                 जो चूमने हजरे असवद , आए निज़्दे हरम

छड़ी है हाथ में , जिसके महकती है ख़ुशबू

व्ह हाथ जो नहीं इज़्ज़त में और शान में कम

                 नज़र झुकाए हैं सब यह हया है रोब से लोग

                 जो मुस्कुराए तो आजाए, बात करने का दम

जबीं के नूरे हिदायत से , कुफ्ऱ घटता है यूँ

ज़ियाए महर से तारीकियाँ,  हों जैसे कम

                 फ़ज़ीलत और नबीयो की इसके जद से है पस्त

                 तमाम उम्मतें, उम्मत से इसके रूतबे में कम

यह वह दरख़्त है जिसकी है जड़ खुदा का रसूल

इसी से फ़ितरत व आदात भी हैं पाक बहम

                 यह फ़ात्मा का है , फ़रज़न्द ‘‘ तू नहीं वाक़िफ़ ’’

                 इसी के जद से नबियों का बढ़ सका न क़दम

अज़ल से लिखी है , हक़ ने शराफ़तों अज़्ज़त

चला इसी के लिये लौह पर खु़दा का क़लम

                 जो कोई ग़ैज़ दिला दे , तो शेर से बढ़ जाए

                 सितम करे कोई इस पर तो मौत का नहीं ग़म

ज़र्र न होगा उसे तू , बने हज़ार अन्जान

इसे तो जानते हैं सब अरब तमाम अजम

                 बरसते हब्र हैं हाथ इसके जिनका फ़ैज़ है आम

                 वह बरसा करते हैं , यकसाँ कभी नहीं हुए कम

वह नरम है, कि डर जल्द बाज़ियों का नहीं

है हुसने ख़ुल्क, इसी की तो ज़ीनते बाहम

                 मुसिबतों में क़बीलों के , बार उठाता है

                 हैं जितने खूब शमाएल, हैं इतने खूब करम

कभी न उसने कहा ‘‘ ला ’’ बजुज़ तशहुद के

अगर न होता तशहुद तो होता ‘‘ ला ’’ भी नअम

                 खि़लाफ़े वादा नहीं करता , यह मुबारक ज़ात

                 है मेज़ बान भी, अक़ल व इरादह भी है बहम

तमाम ख़लक़ पे एहसाने आम है इसका

इसी से उठ गया अफ़लासो रंजो फ़क्रा क़दम

                 मोहब्बत इसकी है ‘‘ दीन ’’ और अदावत इसकी है कुफ़्र

है क़ुरबा इसका , निजातो पनाह का आलम

शुमार ज़ाहिदों का हो , तो पेशवा यहा हो

कि बेहतरीन ख़लाएक़ , इसीको कहते है हम

                 पहुँचना इसकी सख़ावत , ग़ैर मुम्किन है

                 सख़ी हों लाख न पांएगे इसकी गरदे क़दम

जो क़हत की हो  यह अबरे बारां हैं

जो भड़के जंग की आतिश यह शेर से नहीं कम

                 न मुफ़लिसी का असर है , फ़राग़ दस्ती पर

                 कि इसको ज़र की ख़ुशी है न बेज़री का अलम

इसी की चाह से जाती है आफ़त और बदी

इसी की वजह से आती है नेकी और करम

                 इसी का ज़िक्र मुक़द्दम है बाद ज़िक्रे खु़दा

                 इसी के नाम से हर बात ख़त्म करते हैं हम

मज़म्मत आने से इसके क़रीब भागती है

करीमे ख़लक़ हैं होती नहीं सख़ावत कम

                 ख़ुदा बन्दों में है कौन ऐसा जिसका सर

                 इसी घराने के एहसान से हुआ न हो ख़म

ख़ुदा को जानता है जो इसे भी जानता है

इसी के घर से मिला उम्मतों को दीन बहम

इस क़सीदे को सुन कर हश्शाम ग़ैज़ो ग़ज़ब से पेचो ताब खाने लगा और उसका नाम दरबारी शोअरा की फ़ेहरीस्त से निकाल कर उसे बमुक़ाम असफ़ान क़ैद कर दिया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को जब इसकी क़ैद का हाल मालूम हुआ तो आपने बारह हज़ार दिरहम उसके पास भेजा। फ़रज़दक़ ने यह कह कर वापिस कर दिया कि मैंने दुनियावी उजरत के लिये क़सीदा नहीं कहा है इस से मैं क़सदे सवाब का इरादा रखता हूँ। हज़रत ने फ़रमाया कि हम आले मोहम्मद (अ.स.) का यह उसूल है कि जो चीज़ दे देते हैं फिर उसे वापस नहीं लेते। तुम इसे ले लो। खुदा तुम्हारी नियत का अजरे अज़ीम देगा, वह सब कुछ जानता है। ‘‘ फ़ा क़बलहल फ़रज़दक़ ’’ फ़रज़दक़ ने उसे क़ुबूल कर लिया। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120 मतालेबुल सुवेल सफ़ा 226, अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 403, मजालिसे अदब, जिल्द 6 सफ़ा 254, वसीलतुन नजात सफ़ा 320, तारीख़े अहमदी सफ़ा 328, तारीख़े आइम्मा सफ़ा 369, हुलयतुल अवलिया हाफ़िज़ अबू नईम रिसाला हक़ाएक लख़नऊ)

अल्लामा इब्ने हसन जारचवी लिखते हैं कि ‘‘ हश्शाम उनको एक हज़ार दीनार सालाना दिया करता था जब उसने यह रक़म बन्द कर दी तो यह बहुत परेशान हुए। माविया बिने अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़रे तय्यार ने कहा, फ़रज़दक़ घबराते क्यों हो , कितने साल ज़िन्दा रहने की उम्मीद है? उन्होंने कहा यही बीस साल। फ़रमाया कि यह बीस हज़ार दीनार ले लो और हश्शाम का ख़्याल छोड़ दो। उन्होंने कहा मुझे अबू मोहम्मद अली इब्नुल हुसैन (अ.स.) ने भी रक़म इनायत फ़रमाने का इरादा किया था मगर मैंने क़बूल नहीं किया। मैं दुनिया का नहीं आख़ेरत के अज्र का उम्मीदवार हूँ।

बेहारूल अनवार में है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने चालीस दीनार अता फ़रमाये और हुआ भी ऐसी ही कि फ़रज़दक़ उसके बाद चालीस साल और ज़िन्दा रहे। (तज़किरा मोहम्मद (स. .अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) जिल्द 2 सफ़ा 190)



फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और मुख़्तार आले मोहम्मद
अब्दुल मलिक बिन मरवान के अहदे खि़लाफ़त में हज़रते मुख़्तार बिन अबू उबैदा सक़फी क़ातेलाने हुसैन से बदला लेने के लिये मैदान में निकल आये।

अल्लामा मसूदी लिखते हैं कि इस मक़सद में कामयाबी हासिल करने के लिये उन्होंने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की बैअत करनी चाही मगर आपने बैअत लेने से इन्कार कर दिया। (मरूजुल ज़हब जिल्द 3 सफ़ा 155) अल्लामा नुरूल्लाह शूस्तरी शहीदे सालिस तहरीर फ़रमाते हैं कि अल्लामा हिल्ली ने मुख़्तार को मक़बूल लोगों में शुमार किया है। इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) ने उन पर नुक़ता चीनी करने से रोका है और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने उनके लिये रहमत की दुआ की है। (मजालेसुल मोमेनीन जिल्द 346)

 अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने उनकी कार गुज़ारी के लिससिले में ख़ुदा का शुक्र अदा किया है।

(जिलाउल उयून)

आप कूफ़े के रहने वाले थे। जनाबे मुस्लिम इब्ने अक़ील को आप ही ने सब से पहले मेहमान रखा था। आपको इब्ने ज़ियाद ने आले मोहम्मद (अ.स.) से मोहब्बत के जुर्म में कै़द कर दिया था। वहां से छूटने के बाद आप ने ख़ूने हुसैन (अ.स.) का बदला लेने का अज़मे बिल जज़म कर लिया था। चुनान्चे 26 हिजरी में एक बड़ी जमाअत के साथ बरामद हो कर कूफ़े के हाकिम बन बैठे और आपने किताब, सुन्नत और इन्तेक़ामे ख़ूने हुसैन (अ.स.) पर बैअत ले कर बड़ी मुस्तैदी से इन्तेक़ाम लेना शुरू कर दिया। शिम्र को क़त्ल कर दिया, ख़ूली को क़त्ल कर के आग में जला दिया, उमर बिन सअद और उसके बेटे हफ़स को क़त्ल किया। (तारीख़ अबुल फ़िदा)

मुल्ला मुबीन लिखते हैं कि शिम्र को क़त्ल कर के उसकी लाश को उसी तरह घोड़ों की टापों से पामाल कर दिया जिस तरह उसने इमाम हुसैन (अ.स.) की लाशे मुबारक को पामाल किया था। (वसीलतुन नजात) 67 हिजरी मंे इब्ने ज़ियाद को गिरफ़्तार करने के लिये इब्राहीम इब्ने मालिके अशतर की सरकरदगी में एक बड़ा लशकर मूसल भेजा जहां का वह उस वक़्त गर्वनर था। शदीद जंग के बाद इब्राहीम ने उसे क़त्ल किया और उसका सर मुख़्तार के पास भेज कर बाक़ी बदन नज़रे आतश कर दिया। (अबुल फ़िदा) फिर मुख़्तार के हुक्म से कै़स इब्ने अशअस की गरदन मारी गई। बजदल इब्ने सलीम (जिसने इमाम हुसैन (अ.स.) की उंगली एक अंगूठी के लिये काटी थी) के हाथ पाओं काटे गये। फिर हकीम इब्ने तुफ़ैल पर तीर बारानी की गई। उसने अलमदारे करबला हज़रत अब्बास (अ.स.) को शहीद किया था। इसी के साथ यज़ीद इब्ने सालिक, इमरान बिन ख़ालिद, अब्दुल्लाह बिजली, अब्दुल्लाह इब्ने क़ैस ज़रआ इब्ने शरीक, सबीह शामी और सनान बिन अनस तलवार के घाट उतारे गये। (हबीब उल सैर) उमर बिन हज्जाज भी गिरफ़्तार हो कर क़त्ल हुआ। (रौज़तुल सफ़ा)

मिन्हाल बिन उमर का कहना है कि मैं इसी दौरान में हज के लिये गया तो हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) से मुलाक़ात हुई। आपने पूछा हुरमुला बिन काहिल असदी का क्या हश्र हुआ? मैंने कहा वह तो सालिम था। आपने आसमान की तरफ़ हाथ उठा कर फ़रमाया, ख़ुदाया उसे आतशे तेग़ का मज़ा चखा। जब मैं कूफ़े वापस आया और मुख़्तार से मिला और उन से वाक़ेया बयान किया तो वह इमाम (अ.स.) की बद दुआ की तकमील पर सजदा ए शुक्र अदा करने लगे।ग़र्ज़ कि आपने बेशुमार क़ातेलाने हुसैन (अ.स.) को तलवार के घाट उतार दिया।

क़ाज़ी मेबज़ी ने शरहे दीवाने मुतर्ज़वी में लिखा है कि मुख़्तारे आले मोहम्मद (स. अ.) के हाथों से क़त्ल होने वालों की तादाद अस्सी हज़ार तीन सौ तीन (80,303) थी।

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जनाबे मुख़्तार के सामने जिस वक़्त इब्ने ज़ियाद मलऊन का सर रखा गया था तो एक सांप आ कर उसके मुंह में घुस कर नाक से निकलने लगा। इसी तरह देर तक आता जाता रहा। वह यह भी लिखते हैं कि हज़रते मुख़्तार ने इब्ने ज़ियाद का सर हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की खि़दमत में मदीना ए मुनव्वरा भेज दिया। जिस वक़्त वह सर पहुँचा तो आपने शुक्रे ख़ुदा अदा किया और मुख़्तार को दुआएं दीं। मुवर्रेखी़न का यह भी बयान है कि उसी वक़्त औरतों ने बालों में कंघी करनी और सर में तेल डालना और आंखों में सुरमा लगाना शुरू किया जो वाक़ेए करबला के बाद से इन चीज़ों को छोड़े हुये थीं । (अक़दे फ़रीद जिल्द 2 सफ़ा 251, नुरूल अबसार सफ़ा 124, मजालिसे मोमेनीन, बेहारूल अनवार) ग़र्ज़ कि जनाबे मुख़्तार ने इन्तेक़ामे ख़ूने शोहदा लेने के सिलसिले में कारहाय नुमायां किये। बिल आखि़र 14 रमज़ान 67 हिजरी को आप कूफ़े के दारूल इमाराह के बाहर शहीद कर दीये गये। ‘‘ इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन ’’ (तफ़सील के लिये मुलाहेज़ा हो किताब मुख़्तार आले मोहम्मद (स. अ.) मोअल्लेफ़ा हक़ीर मतबूआ लाहौर)



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ की निगाह में
86 हिजरी में अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के इन्तेक़ाल के बाद उसका बेटा वलीद बिन अब्दुल मलिक ख़लीफ़ा बनाया गया। यह हज्जाज बिन यूसुफ़ की तरह निहायत ज़ालिमों जाबिर था। इसके अहदे ज़ुल्मत में उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ जो कि चचा ज़ाद भाई था, हिजाज़ का गर्वनर मुक़र्रर हुआ। यह बड़ा मुनसिफ़ मिजाज़ और फ़य्याज़ था। उसी के अहदे गर्वनरी का एक वाक़ेया यह है कि 87 हिजरी में सरवरे कायनात के रौज़े की एक दीवार गिर गई थी। जब उसकी मरम्मत का सवाल पैदा हुआ और उसकी ज़रूरत महसूस हुई कि किसी मुक़द्दस हस्ती के हाथ से इसकी इब्तेदा की जाय तो उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ही को सब पर तरजीह दी। (वफ़ा अल वफ़ा जिल्द 1 सफ़ा 386) इसी ने फ़िदक वापस किया था और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) पर से तबर्रा की वह बिदअत जो माविया ने जारी की थी बन्द कराई थी।



इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की शहादत
आप अगर चे गोशा नशीनी की ज़िन्दगी बसर फ़रमा रहे थे लेकिन आप के रूहानी इक़तेदार की वजह से बादशाहे वक़्त वलीद बिन अब्दुल मलिक ने आपको ज़हर दिया और आप बतारीख़ 25 मोहर्रमुल हराम 95 हिजरी मुताबिक़ 714 ई0 को दरजा ए शहादत पर फ़ाएज़ हो गये। इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने नमाज़े जनाज़े पढ़ाई और आप मदीने के जन्नतुल बक़ी मंे दफ़्न कर दिये गये।

अल्लामा शिब्लन्जी, अल्लामा इब्ने सबाग़ मालेकी, अल्लामा सिब्ते इब्ने जोज़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ व अनल लज़ी समआ अल वलीद बिन अब्दुल मलिक ’’ जिसने आपको ज़हर दे कर शहीद किया वह वलीद बिन अब्दुल मलिक ख़लीफ़ा ए वक़्त है। (नूरूल अबसार सफ़ा 128, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120, फ़ुसूल अल महमा, तज़किराए सिब्ते जौज़ी, अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 444, मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 121) मुल्ला जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि आपकी शहादीन के बाद आपका नाक़ा क़ब्र पार नाला व फ़रियाद करता हुआ तीन रोज़ में मर गया। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 179) शहादत के वक़्त आपकी उम्र 57 साल की थी।



आपकी औलाद
उलेमा ए फ़रीक़ैन का इत्तेफ़ाक़ है कि आपने ग्यारह लड़के और चार लड़कियां छोड़ीं। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120 व अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 444)

अल्लामा शेख़ मुफ़ीद फ़रमाते हैं कि उन 15 अवलादों के नाम यह हैं।

1.  हज़रत इमाम मोहम्मद (अ.स.) आपकी वालेदा हज़रत इमाम हसन (अ.स.) की बेटी अम्मे अब्दुल्लाह जनाबे फ़ात्मा थीं।

2. अब्दुल्लाह,

3. हसन,

4. ज़ैद,

5. उमर,

6. हुसैन,

7. अब्दुल रहमान,

8. सुलैमान,

9. अली,

10. मोहम्मद असग़र,

11. हुसैन असग़र

12. ख़दीजा,

13. फ़ात्मा,

14. आलीया

15. उम्मे कुल्सूम।

(इरशाद मुफ़ीद फ़ारसी सफ़ा 401)



जनाबे ज़ैद शहीद
आपकी औलाद में हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) के बाद सब से नुमाया हैसियत जनाबे ज़ैद शहीद की है। आप 80 हिजरी में पैदा हुये। 121 हिजरी में हश्शाम बिन अब्दुल मलिक से तंग आ कर आप अपने हम नवा तलाश करने लगे और यकुम सफ़र 122 हिजरी को चालीस हज़ार (40000) कूफ़ीयों समैत मैदान में निकल आये। ऐन मौक़ा ए जंग में कूफ़ीयों ने साथ छोड़ दिया। बाज़ मआसरीन लिखते हैं कि कूफ़ीयों के साथ छोड़ने का सबब इमाम अबू हनीफ़ा की नकस बैअत है क्यों कि उन्होंने पहले जनाबे ज़ैद की बैअत की थी फिर जब हश्शाम ने आपको दरबार में बुला कर इमामे आज़म का खि़ताब दिया तो यह हुकूमत के साथ हो गये और उन्होंने ज़ैद की बैअत तोड़ दी। इसी वजह से उनके तमाम मानने वाले उन्हें छोड़ कर अलग हो गये। उस वक़्त आपने फ़रमाया ‘‘ रफ़ज़त मूनी ’’ ऐ कूफी़यों ! तुम ने मेरा साथ छोड़ दिया। इसी फ़रमाने की वजह से कूफ़ीयों को राफ़ज़ी कहा जाता है। जहां उस वक़्त चंद अफ़राद के सिवा कोई भी शिया न था सब हज़रते उस्मान और अमीरे माविया के मानने वाले थे। ग़रज़ के दौराने जंग में आपकी पेशानी पर एक तीर लगा जिसकी वजह से आप ज़मीन पर तशरीफ़ लाये यह देख कर आपका एक ख़ादिम आगे बढ़ा और उसने आपको उठा कर एक मकान में पहुँचा दिया। ज़ख़्म कारी था, काफ़ी इलाज के बवजूद जां बर न हो सके फिर आपके ख़ादिमों ने ख़ुफ़िया तौर पर आप को दफ़्न कर दिया और क़ब्र पर से पानी गुज़ार दिया ताकि क़ब्र का पता न चल सके लेकिन दुश्मानांे ने सुराग लगा कर लाश क़ब्र से निकाल ली और सर काट कर हश्शाम के पास भेजने के बाद आपके बदन को सूली पर लटका दिया। चार साल तक यह जिस्म सूली पर लटका रहा। ख़ुदा की क़ुदरत तो देखिये उसने मकड़ी को हुक्म दिया और उसने आपके औरतैन (पोशीदा मक़ामात) पर घना जाला तान दिया। (ख़मीस जिल्द 2 सफ़ा 357 व हैवातुल हैवान) चार साल के बाद आपके जिस्म को नज़रे आतश कर के राख दरियाए फ़रात में बहा दी गई। (उमदतुल मतालिब सफ़ा 248)

शहादत के वक़्त आपकी उम्र 42 साल की थी। हज़रत ज़ैद शहीदे अज़ीम मनाक़िब व फ़ज़ाएल के मालिक थे। आपको ‘‘ हलीफ़ अल क़ुरआन ’’ कहा जाता था। आप ही की औलाद को ज़ैदी कहा जाता है और चूंकि आपका क़याम बा मक़ाम वासित था इस लिये बाज़ हज़रात अपने नाम के साथ ज़ैदी अल वास्ती लिखते हैं। तारीख़ इब्नुल वरदी में है कि 38 हिजरी में हज्जाज बिन यूसुफ़ ने शहरे वासित की बुनियाद डाली थी। जनाबे ज़ैद के चार बेटे थे जिनमें जनाबे याहया बिन ज़ैद की शुजाअत के कारनामे तारीख़ के अवराख़ में सोने के हुुरूफ़ से लिखे जाने के क़ाबिल हैं। आप दादहियाल की तरफ़ से हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और नानिहाल की तरफ़ से जनाबे मोहम्मद बिन हनफ़िया की यादगार थे। आपकी वालेदा का नाम ‘‘ रेता ’’ था जो मोहम्मद बिन हनफ़िया की पोती थीं। नसले रसूल (स. अ.) में होने की वजह से आपको क़त्ल करने की कोशिश की गई। आपने जान के तहफ़्फ़ुज़ के लिये यादगार जंग की। बिल आखि़र 125 हिजरी में आप शहीद हो गये। फिर वलीद बिन यज़ीद बिन अब्दुल मलिक के हुक्म से आपका सर काटा गया और हाथ पाओं काटे गये। उसके बाद लाशे मुबारक सूली पर लटका दी गई फिर एक अरसे के बाद उसे उतार कर जलाया गया और हथौड़े से कूट कूट कर रेज़ा रेज़ा किया गया फिर एक बोरे में रख कर कशती के ज़रिये से एक एक मुठ्ठी राख दरियाए फ़रात की सतह पर छिड़क दी गई। इस तरह इस फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) के साथ ज़ुल्मे अज़ीम किया गया।

1. उन्होंने सलतनते हश्शाम में दावा ए खि़लाफ़त किया था बहुत से लोगों ने बैअत कर ली थी। तदाएन, बसरा, वास्ता, मूसल, ख़ुरासान, रै, जरजान के अलावा सिर्फ़ कूफ़े ही के 15 हज़ार शख़्स थे। जब यूसुफ़ सक़फ़ी उनके मुक़ाबले में आया तो यह सब लोग उन्हें छोड़ कर भाग गये। ज़ैद शहीद ने फ़रमाया ‘‘ ज़फ़ज़र अल यौम ’’ उस दिन से राफ़ज़ी का लफ़्ज़ निकाला........... इनके चार फ़रज़न्द थे। 1. यहीया, 2. हुसैन, 3. ईसा, 4. मोहम्मद। सादाते बाराह व बिल गिराम का नसब मोहम्मद बिन ईसा तक पहुँचता है। (किताब रहमतुल आलेमीन जिल्द 2 सफ़ा 142)



ईसा बिन ज़ैद
यह भी जनाबे ज़ैद शहीद के निहायत बहादुर साहब ज़ादे थे। ख़लीफ़ा ए वक़्त आपके भी ख़ून का प्यासा था। आप अपना हसब नसब ज़ाहिर न कर सकते थे। ख़लीफ़ा ए जाबिर की वजह से रूपोशी की ज़िन्दगी गुज़ारते थे। कूफ़े में आब पाशी का काम शुरू कर दिया था और वहीं एक औरत से शादी कर ली थी और उस से भी अपना हसब नसब ज़ाहिर नहीं किया था। इस औरत से आपकी एक बेटी पैदा हुई जो बड़ी हो कर शादी के क़ाबिल हो गई। इसी दौरान में आपने एक मालदार बेहिश्ती के वहां मुलाज़ेमत कर ली जिसके एक लड़का था। मालदार बेहिश्ती ने जनाबे ईसा की बीवी से अपने लड़के का पैग़ाम दिया। जनाबे ईसा की बीवी बहुत ख़ुश हुई कि मालदार घराने से लड़की का रिश्ता आया है जब जनाबे ईसा घर तशरीफ़ लाये तो उनकी बीवी ने कहा कि मेरी लड़की की तक़दीर चमक उठी है क्यों कि मालदार घराने से पैग़ाम आया है यह सुनना था कि जनाबे ईसा सख़्त परेशान हुयें बिल आखि़र खुदा से दुआ की, बारे इलाहा सैदानी ग़ैरे सय्यद से बिहाई जा रही है मालिक मेरी लड़की को मौत दे दे। लड़की बीमार हुई और दफ़अतन उसी दिन इन्तेक़ाल कर गई। उसके इन्तेक़ाल पर आप रो रहे थे उनके एक दोस्त ने कहा कि इतने बहादुर हो कर आप रोते हैं उन्होंने फ़रमाया कि इसके मरने पर नहीं रो रहा हूँ मैं अपनी इस बे बसी पर रो रहा हूँ कि हालात ऐसे हैं कि मैं इस से यह तक नहीं बता सका कि मैं सय्यद हूँ और यह सय्यद ज़ादी है। (उमदतुल मतालिब सफ़ा 278, मिनहाज अल नदवा सफ़ा 57)


अल्लामा अबुल फ़रज़ असफ़हानी अल मतूफ़ी 356 हिजरी लिखते हैं कि जनाबे ईसा बिन ज़ैद ने अपने दोस्त से कहा था कि मैं इस हालत में नहीं हूँ कि इन लोगों को यह बता सकूं ‘‘ बाना ज़ालेका ग़ैर जाएज़ ’’ कि यह शादी जाएज़ नहीं है इस लिये कि यह लड़का हमारे कफ़ो का नहीं है। (मक़ातिल अल तालेबैन सफ़ा 271, मतबुआ नजफ़े अशरफ़ 1385 हिजरी)



ईमान वालों की विशेषताओं का वर्णन सूरए मोमिनून, आयतें 1-7,

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सूरए मोमिनून, आयतें 1-7,


अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। निश्चित रूप से ईश्वर पर ईमान रखने वाले सफल रहे।(23:1) कि जो अपनी नमाज़ों में विनम्र रहते हैं। (23:2)

 यह सूरा मक्के में उतरा है और इसकी एक सौ अट्ठारह आयतें हैं। इस सूरे की आरंभिक आयतों में ईमान वालों की विशेषताओं का वर्णन किया गया है और फिर हज़रत नूह, हूद, मूसा व ईसा अलैहिमुस्सलाम जैसे ईश्वरीय पैग़म्बरों और उनकी जातियों के बारे में संक्षेप में बयान किया गया है। पहली आयत एक संक्षिप्त वाक्य में स्पष्ट रूप से लोक-परलोक में ईमान वालों के निश्चित कल्याण व सफलता की सूचना देती है। आयत में प्रयोग होने वाले शब्द फ़लाह का अर्थ होता है सामने मौजूद रुकावटों को दूर करना और उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए समस्याओं को नियंत्रित करना जो विजय व सफलता का कारण बनता है।

ईमान वाले ईश्वर पर भरोसा करते हुए लक्ष्य तक पहुंचने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं और संसार की क्षमता के अनुसार सफलताएं प्राप्त करते हैं किंतु उनके प्रयासों का संपूर्ण पारितोषिक प्रलय में दिया जाएगा और वे ईश्वरीय दया की छाया में और पवित्र व भले लोगों के साथ स्वर्ग में सदा के लिए रहेंगे।

अगली आयतें उन विशेषताओं की ओर संकेत करती हैं जो ईमान वालों को सफलता व कल्याण तक पहुंचाती हैं। इस संबंध में नमाज़ में विनम्रता को सबसे पहले बयान किया गया है। जो व्यक्ति विनम्रता के साथ नमाज़ पढ़ता है वह उसे अपने लिए बोझ नहीं समझता बल्कि ईश्वर के साथ बात करना उसके अत्यंत आनंददायक होता है। सभी ईमान वाले नमाज़ पढ़ते हैं किंतु सफलता व कल्याण के लिए नमाज़ में विनम्रता आवश्यक है क्योंकि इस प्रकार पढ़ी जाने वाली नमाज़ मनुष्य के भीतर से घमंड व अहं को समाप्त करती है और उसके नैतिक गुणों व परिपूर्णताओं के उभरने का मार्ग प्रशस्त करती है।

इस आयत से हमने सीखा कि यद्यपि काफ़िर विदित रूप से संसार में सफल दिखाई देते हैं किंतु ईमान वाले ही लोक-परलोक में वास्तविक रूप में सफल होते हैं।

नमाज़ के बिना ईमान अधूरा होता है और सच्ची नमाज़, मनुष्य को विनम्रता के लिए प्रेरित करती है।

आइये अब सूरए मोमिनून की तीसरी और चौथी आयत की तिलावत सुनें।

وَالَّذِينَ هُمْ عَنِ اللَّغْوِ مُعْرِضُونَ (3) وَالَّذِينَ هُمْ لِلزَّكَاةِ فَاعِلُونَ (4)

और जो लोग व्यर्थ बातों व कार्यों से मुंह मोड़ लेते हैं।(23:3) और जो ज़कात अदा करते हैं। (23:4)

ईमान वाले केवल उपासना, नमाज, दुआ और प्रार्थना में व्यस्त नहीं होते। वे समाज के वंचित लोगों के बारे में भी सोचते हैं और अपनी संपत्ति का एक भाग उन्हें देते हैं चाहे वह ख़ुम्स व ज़कात जैसे अनिवार्य धार्मिक करों के रूप में हो या दान-दक्षिणा के रूप में।

स्वाभाविक है कि जो मनुष्य ईश्वर पर ईमान रखता है वह संसार को लक्ष्यपूर्ण समझता है और अनावश्यक एवं व्यर्थ कार्य नहीं करता क्योंकि ऐसे बहुत से वैध काम होते हैं जिनका व्यक्ति, उसके परिवार तथा समाज को कोई लाभ नहीं होता और इस प्रकार के काम से कवल समय व पूंजि नष्ट होती है। ईमान वाले व्यक्ति को ऐसे कामों से बचना चाहिए। यदि उसका सामना ऐसे लोगों से हो तो उसे बड़ी सज्जनता के साथ उनसे दूर हो जाना चाहिए।

इन आयतों से हमने सीखा कि ईमान वालों की बातें और उनके कार्य तर्कसंगत और लक्ष्यपूर्ण होने चाहिए और हर प्रकार के व्यर्थ कार्य से बचना चाहिए।

रचयिता की उपासना, उसके दासों व रचनाओं से दूरी का कारण नहीं बननी चाहिए। दूसरे शब्दों में वंचितों और दरिद्रों की सहायता, ईश्वर पर ईमान का अटूट अंग है।

आइये अब सूरए मोमिनून की आयत क्रमांक 5, 6 और सात की तिलावत सुनें।

وَالَّذِينَ هُمْ لِفُرُوجِهِمْ حَافِظُونَ (5) إِلَّا عَلَى أَزْوَاجِهِمْ أوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُمْ فَإِنَّهُمْ غَيْرُ مَلُومِينَ (6) فَمَنِ ابْتَغَى وَرَاءَ ذَلِكَ فَأُولَئِكَ هُمُ الْعَادُونَ (7)

और जो स्वयं को व्यभिचार से बचाते हैं।(23:5) सिवाय अपनी पत्नियों या (ख़रीदी हुई) दासियों के, कि इस पर वे निन्दनीय नहीं हैं। (23:6) तो जो कोई इसके अतिरिक्त कुछ और चाहे तो ऐसे ही लोग सीमा लांघने वाले है। (23:7)

नमाज़ में विनम्रता, ज़कात देने और व्यर्थ बातों व कार्यों से दूर रहने की सिफ़ारिश करने के बाद ये आयतें नैतिक पवित्रता को ईमान वालों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता बताते हुए कहती है कि वासना पर नियंत्रण और हर प्रकार के व्यभिचार से दूरी ईश्वर पर ईमान का भाग है। ईमान वाले लोग केवल विवाह और क़ानूनी दांपत्य जीवन से अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और इसके अतिरिक्त हर मार्ग से दूर रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यह मानवीय प्रवृत्ति और धार्मिक शिक्षाओं के विपरीत है।

ईसाइयों के एक गुट के विपरीत जो विवाह को निंदनीय कार्य मानता है और पादरियों तथा ननों को विवाह की अनुमति नहीं देता, इस्लाम व क़ुरआन मनुष्य की प्राकृतिक व यौन आवश्यकताओं के संबंध में संतुलित मार्ग प्रस्तुत करते हैं। इन आयतों में कहा गया है कि यदि कोई विवाह के माध्यम से अपनी यौन संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करे तो उसके लिए कोई निंदा नहीं है और किसी को यह अधिकार नहीं है कि उसकी आलोचना करे।

इन आयतों से हमने सीखा कि नैतिक पवित्रता ईश्वर पर ईमान का भाग है और हर प्रकार की उच्छृंखलता और व्यभिचार से ईमान कमज़ोर होता है।

इस्लाम, संतुलन का धर्म है, वह न तो यौन संबंधों में उच्छृंखलता को वैध मानता है और ही मूल रूप से शारीरिक संबंधों को अवैध कहता है बल्कि वह इस प्रकार के संबंधों को वैध दांपत्य जीवन तक सीमित करता है।





जन्नत किसे मिलेगी जानिए कुरान से | सूरए मोमिनून की 10वीं और 14वीं आयत

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सूरए मोमिनून, आयतें 8-14,  


और जो लोग अपनी अमानतों और अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हैं।(23:8) और जो सदैव अपनी नमाज़ों की रक्षा करते हैं। (23:9)

 ईमान वाले, अमानतदार होते हैं। वे ईश्वर की अमानतों और लोगों की अमानतों की रक्षा करते हैं। उल्लेखनीय है कि ईश्वर की किताब, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की सुन्नत या उनका चरित्र और उनके पवित्र परिजन भारी अमानतें हैं। इन अमानतों की रक्षा केवल धार्मिक कर्तव्यों के पालन द्वारा ही संभव है।



इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार लोगों की अमानत की रक्षा के मामले में ईमान वाले और काफ़िर में कोई अंतर नहीं है और अमानत, उसके मालिक तक पहुंचानी ही चाहिए चाहे वह सद्कर्मी हो या भ्रष्ट और अमानत मूल्यवान हो या मूल्यहीन। अमानत की रक्षा और सच्चाई इतनी महत्वपूर्ण है कि पैग़म्बर व उनके परिजनों ने कहा है कि लोगों के अच्छे या बुरे होने की कसौटी उनकी नमाज़, रोज़ा या हज नहीं बल्कि उनकी सच्चाई और अमानतदारी है।





पारिवारिक वचनों व प्रतिज्ञाओं और सामाजिक समझौतों का पालन, ईमान वालों की अन्य विशेषताओं में से है। वचन व प्रतिज्ञा का पालन भी अमानतदारी की भांति ईमान वालों से विशेष नहीं है और काफ़िरों के साथ किए गए समझौतों को एकपक्षीय ढंग से नहीं तोड़ा जा सकता।





ईमान वालों की कुछ विशेषताओं का वर्णन करने के बाद क़ुरआने मजीद आयत के अंत में एक बार फिर नमाज़ की ओर संकेत करता है कि जो सबसे प्रमुख उपासना है। क़ुरआन ईमान वालों से कहता है कि नमाज़, उसके समय और उसके आदेशों पर ध्यान दें। रोचक बात यह है कि ईमान वालों की विशेषताएं, नमाज़ में विनम्रता से आरंभ होती हैं और नमाज़ की रक्षा पर समाप्त होती हैं। इससे मनुष्य की प्रगति व प्रशिक्षण में नमाज़ की मूल भूमिका का पता चलता है।





इन आयतों से हमने सीखा कि धार्मिक क़ानूनों और सामाजिक समझौतों के प्रति कटिबद्धता, ईमान की निशानियों में से है।



धार्मिक आदेशों की रक्षा और उनका सही ढंग से पालन, ईमान की सुदृढ़ता और ईश्वर से मनुष्य के सामिप्य का कारण बनता है।



 सूरए मोमिनून की 10वीं और 11वीं आयत

यही लोग तो वारिस हैं।(23:10) जो स्वर्ग की विरासत पाएँगे (और) वे उसमें सदैव रहेंगे। (23:11)


ये आयतें कहती हैं कि सच्चे ईमान वालों का अंतिम ठिकाना ईश्वर का अमर स्वर्ग है कि जो केवल ईमान वालों को ही विरासत में मिलेगा। रोचक बात यह है कि इन आयतों में मीरास की बात कही गई है और उसे दोहराया भी गया है। शायद इसका कारण यह हो कि यद्यपि ईश्वरीय पारितोषिक मनुष्यों के कर्मों के आधार पर होता है किंतु यह पारितोषिक इतना बड़ा व अतुल्य है कि मनुष्य के तुच्छ कर्मों के मुक़ाबले में उस विरासत की भांति है कि जो बिना किसी कष्ट व प्रयास के मिल गई हो।



इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य की संपत्ति संसार में दूसरों के लिए विरासत के रूप में छोड़ दी जाती है जबकि उसके कर्म उस विरासत की भांति हैं जो स्वयं उसे प्रलय में मिलेगी।





स्वर्ग, ईमान वालों के लिए ऐसा अमर पारितोषिक है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।



 सूरए मोमिनून की 12वीं, 13वीं और 14वीं आयत


और निश्चय ही हमने मनुष्य की रचना मिट्टी के सत से की।(23:12) फिर हमने उसे (मां की कोख में) एक सुरक्षित स्थान पर टपकी हुई बूँद बना कर रखा। (23:13) फिर हमने उस बूँद को जमे हुए ख़ून का रूप दिया, फिर हमने जमे हुए ख़ून का लोथड़ा बनाया फिर उस लोथड़े से हड्डियों का ढांचा बनाया फिर हमने उन हड्डियों पर मांस चढ़ाया फिर हमने उसे सृष्टि का दूसरा रूप देकर खड़ा किया तो क्या ही बरकत वाला है ईश्वर जो सबसे उत्तम रचयिता है। (23:14)


सूरए मोमिनून की आरंभिक आयतों में ईमान वालों की विशेषताओं का उल्लेख करने के पश्चात इन आयतों में क़ुरआने मजीद मनुष्य को माता की कोख में अपने पलने बढ़ने के चरणों को समझने का निमंत्रण देता है और कहता है कि मनुष्य के अस्तित्व का आधार पानी व मिट्टी है और रचयिता ने अपनी शक्ति से उसमें इतनी योग्यताएं व क्षमताएं रखी हैं कि जिनके माध्यम से वह परिपूर्णता के उच्च चरणों तक पहुंच सकता है।



क़ुरआने मजीद के चमत्कारों में से एक, आज से चौदह शताब्दियों पूर्व माता की कोख में भ्रूण के पलने बढ़ने के चरणों का वर्णन है और जो कुछ उसने कहा है उसमें और नवीन युग की वैज्ञानिक खोजों में कोई अंतर नहीं है। यह ऐसी स्थिति में है कि जिस समय ईश्वर की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास क़ुरआने मजीद भेजा गया तब तक भ्रूण के विकास के चरणों के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का कोई साधन नहीं था। यह कार्य हालिया शताब्दियों में विकसित मशीनों के माध्यम से ही संभव हो पाया है और अब मनुष्य इन मशीनों द्वारा भ्रूण के विकास के चरणों के चित्र देख सकता है।



चौदहवीं आयत उस चरण की ओर संकेत करती है जिसे मनुष्य देख नहीं सकता। यह चरण है मानवीय शरीर में प्राण फूंके जाने का जिसे क़ुरआने मजीद ने सृष्टि का दूसरा रूप कहा है। इसी के कारण मनुष्य को अन्य रचनाओं पर प्राथमिकता प्राप्त हुई है और इसी लिए ईश्वर ने अपने आपको सबसे अच्छा रचयिता बताया है।



इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य की रचना में ईश्वर की शक्ति पर ध्यान देना, उसके सामर्थ्य और तत्वदर्शिता के बारे में सोच-विचार का एक मार्ग है और इससे ईमान सुदृढ़ होता है।



अपने आपको पहचानना, ईश्वर को पहचानने की भूमिका है।




सूरए मोमिनून, आयतें 15-18 क़यामत का ज़िक्र |

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 सूरए मोमिनून, आयतें 15-18


सूरए मोमिनून की 15वीं और 16वीं आयत  


फिर निश्चय ही तुम सब मरने वाले हो। (23:15) फिर प्रलय के दिन तुम अवश्य ही उठाए जाओगे। (23:16)

 ये आयतें कहती हैं कि उन चरणों का अंत, इस संसार में तुम्हारी आयु का समाप्त होना है। मृत्यु के साथ ही तुम इस संसार से दूसरे संसार में स्थानांतरित हो जाओगे और वहां तुम्हें पुनः जीवन प्राप्त होगा।



इससे पहले की आयतों में आत्मा की सृष्टि की ओर संकेत किया गया था जो मृत्यु से समाप्त नहीं होती बल्कि वह संसार और परलोक के बीच हर मनुष्य का माध्यम होती है।

मृत्यु का आना इतना निश्चित है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि कोई मृत्यु को रोकने और संसार में अमर होने के बारे में कोई उपाय सोच सकता था तो वे ईश्वरीय पैग़म्बर थे किंतु वे भी मृत्यु के साथ इस संसार से चले गए अतः कोई भी इस संसार में सदा रहने वाला नहीं है।



इन आयतों से हमने सीखा कि मृत्यु, अंत नहीं है बल्कि मानव जीवन के चरणों में से एक है कि जो उसे प्रलय तक स्थानांतरित करती है।



ईश्वर की दृष्टि में मानव जीवन केवल संसार के भौतिक जीवन तक सीमित नहीं है और ईमान वाले आध्यात्मिक जीवन में भी आस्था रखते हैं जिसका मुख्य प्रतिबिंबन प्रलय है।

 सूरए मोमिनून की 17वीं आयत

और हमने तुम्हारे ऊपर सात (आसमानी) रास्ते बनाए हैं और हम अपनी रचनाओं की ओर से निश्चेत नहीं हैं।(23:17)

 
पिछली आयतों में मनुष्य के अस्तित्व में ईश्वर की सृष्टि की निशानियों की ओर संकेत किया गया जिन्हें आयाते अन्फ़ुसी या भीतरी चिन्ह कहा जाता है। यह आयत इस व्यापक ब्रह्मांड में पाई जाने वाली ईश्वरीय निशानियों की ओर संकेत करती है जिन्हें आयाते आफ़ाक़ी या ब्रह्मांड की निशानियां कहा जाता है।



यह आयत सात आकाशों के बजाए सात रास्तों का शब्द प्रयोग करती है और विदित रूप से इसका आशय आकाश में सितारों की परिक्रमा की कक्षाएं हैं जिनकी संख्या बहुत अधिक है। सात शब्द अरबी भाषा में अधिक संख्या को व्यक्त करने के लिए भी प्रयोग होता है।



आगे चल कर आयत कहती है कि यह नहीं सोचना चाहिए कि धरती व आकाश में रचनाओं की अत्यधिक संख्या के कारण रचयिता उनके मामलों के संचालन की ओर से निश्चेत हो गया है और उसने उन्हें उनकी स्थिति पर छोड़ दिया है।

इस आयत से हमने सीखा कि मनुष्य, धरती व आकाश का रचयिता एक है और संपूर्ण सृष्टि का संचालन उसी की युक्ति से होता है।



ईश्वर, रचयिता भी है और देखने वाला भी है तथा कोई भी वस्तु उसके ज्ञान की परिधि से बाहर नहीं है।



सूरए मोमिनून की 18वीं आयत

औरहमने आकाश से एक निर्धारित मात्रा में पानी उतारा फिर हमने उसे धरती में ठहरादिया और निश्चित रूप से उसे विलुप्त करने में हम पूर्ण रूप से सक्षम हैं। (23:18)

 

यह आयत वर्षा को ईश्वर की एक महान अनुकंपा बताते हुए कहती है कि धरती के विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकता का पानी, वर्षा से पूरा होता है। यह पानी धरती के अंदर चला जाता है और फिर पूरे वर्ष पीने और खेती इत्यादि के लिए मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करता रहता है।



स्वाभाविक है कि जिस ईश्वर ने, मनुष्य, पशुओं और वनस्पतियों की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति के लिए इतनी महत्वपूर्ण युक्तियां की हैं वह उन्हें तबाह करने में भी सक्षम है और सभी जीवित वस्तुओं को समाप्त कर सकता है। किसी में भी इस बात की शक्ति व क्षमता नहीं है कि ईश्वर के कार्य में बाधा डाले या जलापूर्ति की इस शैली के स्थान पर कोई अन्य मार्ग खोज ले।

इस आयत से हमने सीखा कि पानी, जो मनुष्य सहित सभी जीवों के जीवन का आधार है, ईश्वरीय युक्ति से आकाश से, धरती के विभिन्न स्थानों पर बरसता है ताकि सभी उससे लाभान्वित हो सकें।



ईश्वरीय अनुकंपाओं का मूल्य उस समय स्पष्ट होता है जब वह थोड़ी देर के लिए भी हम से छिन जाएं। यदि वर्षा का बरसना रुक जाए तो अकाल आ जाता है और उसे रोकना मनुष्य के बस में नहीं है।




पानी, वनस्पतियों, पशुओं और मनुष्यों के जीवन का आधार है-सूरए मोमिनून, आयतें 19-24,

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सूरए मोमिनून, आयतें 19-24,

सूरए मोमिनून की 19वीं और 20वीं आयत



फिर हमने उस (पानी) के द्वारा तुम्हारे लिए खजूरों और अंगूरों के बाग़ पैदा किए जिनमें तुम्हारे लिए बहुत अधिक फल हैं और उनमें से तुम खाते हो। (23:19) और वह वृक्ष भी जो सैना पर्वत से उगता है (और) तेल युक्त होता है और खाने वालों के लिए सालन भी है। (23:20)



इससे पहले ईश्वर ने आकाश से वर्षा होने और धरती में पानी एकत्रित होने को अपनी एक मूल्यवान अनुकंपा बताया था। यह आयत उसी क्रम को जारी रखते हुए कहती है कि धरती के विभिन्न स्थानों में उगने वाले बाग़ और खजूर के बाग़ भी उसी वर्षा के पानी के कारण अस्तित्व में आते हैं जिसे ईश्वर भेजता है और इन बाग़ों के फल इतने अधिक हैं कि अपने मालिकों की खाने पीने की आवश्यकता की पूर्ति करने के अतिरिक्त उनकी आय का भी साधन बनते हैं।



जैसे कि ज़ैतून का पेड़, कि जिसके महत्वपूर्ण केंद्र इस समय सीरिया व फ़िलिस्तीन हैं, खाने के तेल की आपूर्ति का भी अच्छा स्रोत है और उसका फल दस्तरख़ान पर भोजन के साथ खाई जाने वाली वस्तुओं में से भी एक है। क़ुरआने मजीद में ईश्वर द्वारा पैदा किए गए फलों में खजूर, अंगूर और ज़ैतून पर विशेष ध्यान से, मानवीय शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति में इनके विशेष स्थान का पता चलता है। रोचक बात यह है कि आज पोषण विज्ञान के विशेषज्ञ भी अपनी खोजों में इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि ये तीन फल बहुत से रोगों की रोक थाम और उनके उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।



इन आयतों से हमने सीखा कि पानी, वनस्पतियों, पशुओं और मनुष्यों के जीवन का आधार है। ईश्वर ने प्रकृति में पानी के चक्र और आकाश से वर्षा बरसा कर इस जीवनदायक तत्व की आपूर्ति को सुनिश्चित बनाया है।

ईश्वर ने, जो मनुष्यों का रचयिता है, उनके खाने-पीने की आवश्यकताओं को स्वाभाविक रूप से पूरा किया है। इन अनुकंपाओं की अनदेखी करके खाने-पीने की अवैध वस्तुओं की ओर उन्मुख होना, ईश्वरीय अनुकंपाओं के प्रति कृतघ्नता है।



सूरए मोमिनून की 21वीं और 22वीं आयत
और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में (भी) एक पाठ है। उनके पेटों में जो(दूध) है उसमें से हम तुम्हें पिलाते हैं और उनमें तुम्हारे लिए बहुत से लाभ हैं और तुम उन (के मांस) में से खाते भी हो। (23:21) और उन पर और नौकाओं पर तुम सवार होते हो। (23:22)

 
ईश्वरीय अनुकंपाओं के वर्णन का क्रम जारी रखते हुए ये आयतें मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति में चौपायों की भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि भेड़, बकरी व गाए जैसे चौपायों के पेट के भीतर पाए जाने वाले रक्त और गंदगियों के बीच से ईश्वर मनुष्य को शुद्ध और अच्छा दूध उपलब्ध कराता है जिसमें न ख़ून का रंग होता है और न ही किसी प्रकार की दुर्गंध। यह ऐसा स्वादिष्ट पेय है जो स्वयं भी पिया जाता है और इससे दही, मक्खन, मलाई, पनीर और इसी प्रकार की अन्य महत्वपूर्ण खाद्य वस्तुएं भी प्राप्त होती हैं।



इनके ऊन और खाल से विभिन्न प्रकार के वस्त्र बनते हैं, इनके मांस से नाना प्रकार के व्यंजन तैयार होते हैं और इनकी पीठ को सवारी के लिए प्रयोग किया जाता है। यहां तक कि भेड़, बकरी और गाए के शरीर का कोई भाग भी व्यर्थ और लाभहीन नहीं होता और किसी न किसी प्रकार मानव जीवन में प्रयोग होता है।



यदि छोटी बड़ी नौकाएं समुद्र और नदियों में यात्रियों व उनके सामानों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए प्रयोग होती हैं तो घोड़े और ऊँट, धरती पर मनुष्य की सवारी बनते हैं और आज के विकसित संसार में भी विशेष कर ग्रामीण क्षेत्रों और कठिन पर्वतीय मार्गों पर उनका महत्व यथावत बाक़ी है।

इन आयतों से हमने सीखा कि पशुओं के अस्तित्व को व्यर्थ नहीं समझना चाहिए। यदि हम पशुओं और मानव जीवन में उनकी भूमिका के बारे में ध्यान से सोचें तो हमें ईश्वर की पहचान के बहुत से पाठ मिल जाएंगे।



सामान या यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए यात्रा, धरती पर मनुष्य की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है और ईश्वर ने जल और थल दोनों में उसके साधन उपलब्ध कराए हैं।

सूरए मोमिनून की 23वीं और 24वीं आयत

और हमने नूह को उनकी जाति की ओर भेजा तो उन्होंने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! ईश्वरकी उपासना करो कि उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई और पूज्य नहीं है तो क्या तुम उससे नहीं डरते? (23:23) तोउनकी जाति के सरदारों ने जो काफ़िर थे, कहाः यह तो बस तुम्हीं जैसा एक मनुष्य है जो तुम पर श्रेष्ठता प्राप्त करना चाहता है। और यदि ईश्वर चाहता तो कुछ फ़रिश्ते भेज देता। यह बात तो हमने अपने बाप-दादा से सुनी ही नहीं (कि मनुष्य को पैग़म्बर बना कर भेजा गया हो)। (23:24)





सृष्टि की व्यवस्था में ईश्वर की शक्ति व महानता के चिन्हों का वर्णन करने के पश्चात क़ुरआने मजीद इस आयत में मनुष्य के मार्गदर्शन के संबंध में ईश्वर की कृपा की ओर संकेत करता है और हज़रत नूह अलैहिस्सलाम द्वारा अपनी जाति के लोगों को ईमान लाने के प्रथम निमंत्रण की ओर संकेत करता है। उन्होंने अपनी जाति के लोगों को मूर्ति पूजा छोड़ने और एकेश्वरवाद की आस्था अपनाने का निमंत्रण दिया किंतु धनवान और सशक्त लोगों ने, जो उनके निमंत्रण को अपनी स्थिति के डांवाडोल होने का कारण समझ रहे थे, झूठे प्रचार द्वारा उन्हें एक ऐसा सत्ता लोलुप व्यक्ति दर्शाने का प्रयास किया जो लोगों को अपने अधीन बनाना चाहता है। उन्होंने कहा कि नूह, समाज के कल्याण और मार्गदर्शन के इच्छुक नहीं हैं।



उन्होंने कहा कि यदि ईश्वर लोगों का मार्गदर्शन करना चाहता तो वह फ़रिश्तों को भेजता जो हर प्रकार के भौतिक व सांसारिक मामलों से दूर हैं और लोगों तक ईश्वर की बातें पहुंचाते हैं।

जबकि ईश्वर की परंपरा फ़रिश्तों नहीं अपितु मनुष्यों द्वारा मानव जाति के मार्गदर्शन पर आधारित है क्योंकि मार्गदर्शन केवल मौखिक प्रचार नहीं है बल्कि मार्गदर्शक को अपने कर्म और व्यवहार द्वारा भी समाज के लिए आदर्श होना चाहिए ताकि लोग उसकी बात को स्वीकार कर सकें। फ़रिश्ते चूंकि मानव जाति के नहीं हैं इस लिए वे मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकते।



इन आयतों से हमने सीखा कि पैग़म्बर लोगों को मूर्ति पूजा छोड़ कर ईश्वर की उपासना करने का निमंत्रण देते थे, निश्चित रूप से वे लोगों को अपनी ओर नहीं बल्कि ईश्वर की ओर बुलाते थे।



पैग़म्बरों के विरोधी, वे धनवान, सत्ता प्रेमी और शक्तिशाली लोग थे जो लोगों पर अपना वर्चस्व बाक़ी रखना चाहते थे।




सांसारिक कार्यों और जीवन के मामलों में ईश्वरीय शिक्षाओं के अनुसार काम करें |सूरए मोमिनून, आयतें 25-30

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सूरए मोमिनून, आयतें 25-30



(विरोधियों ने कहाः) यह तो बस एक उन्माद ग्रस्त व्यक्ति है। तो कुछ समय तक इसकी प्रतीक्षा कर लो (कि यह मर जाए या उन्माद मुक्त हो जाए)। (23:25) नूह ने कहा हे मेरे पालनहार! इन्होंने जो मुझे झुठलाया है उस पर तू मेरी सहायता कर। (23:26)





इससे पहले हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के संबंध में काफ़िरों की अनुचित बातों का वर्णन किया गया था। यह आयत उसी क्रम को जारी रखते हुए कहती है कि उन्होंने केवल निराधार आरोप नहीं लगाया बल्कि उस ईश्वरीय पैग़म्बर को पागल भी बताया कि जिसकी बुद्धि समाप्त हो चुकी है और जो उलटी सीधी बातें करता है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार के व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए कि वह स्वयं ही थक हार कर इस प्रकार की बातें करना बंद कर दे।



उन्माद का आरोप, उन आरोपों में से है कि जो पैग़म्बरों के विरोधी उन पर लगाया करते थे और प्रयास करते थे कि इस हथकंडे के माध्यम से लोगों को उनसे दूर करके समाज में उन्हें अलग-थलग कर दें। अलबत्ता कई अवसरों पर वे अपने इस प्रयास में सफल भी रहे हैं।

आगे चल कर आयत कहती है कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम ने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह इस प्रकार के हठधर्मी लोगों के मुक़ाबले में जो किसी भी तर्क से सत्य को स्वीकार नहीं करते, उनकी सहायता करे और उनके लिए कोई मार्ग खोले।





इन आयतों से हमने सीखा कि मूर्तियों की पूजा करने वाले और अनेकेश्वरवादी, जिनका कार्य, बुद्धि और तर्क से मेल नहीं खाता, एकेश्वरवादियों और पैग़म्बरों को पागल और उन्मादी कहते हैं।

काफ़िरों के आरोपों के मुक़ाबले में ईमान वाले ईश्वर पर भरोसा करते हैं और उसी से सहायता चाहते हैं क्योंकि वह सभी शक्तियों से ऊपर है।

 सूरए मोमिनून की 27वीं आयत

तो हमने उनकी ओर वहि की कि हमारी आँखों के सामने और हमारी वहि के अनुसार नौका बनाओ और फिर जब हमारा आदेश आ जाए और तनूर (से तूफ़ान) उमड़ पड़े तो (पशुओं की) प्रत्येक प्रजाति में से एक-एक जोड़ा उसमें रख लो और अपने परिजनों को भी सवार कर लो सिवाए उनके जिनके विरुद्ध पहले बात हो चुकी है और अत्याचारियों (की मुक्ति) के बारे में मुझसे बात न करना कि वे तो डूब कर ही रहेंगे। (23:27)





क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार हज़रत नूह अलैहिस्सलाम ने साढ़े नौ सौ वर्षों तक लोगों को एकेश्वरवाद का निमंत्रण दिया किंतु केवल कुछ ही लोग उन पर ईमान लाए और अधिकांश लोगों ने उन्हें झुठलाया, उनका अनादर किया और उनका मज़ाक़ उड़ाया। स्थिति इस प्रकार की हो गई कि ईश्वर ने हज़रत नूह को सूचना दी कि अब कोई भी उन पर ईमान नहीं लाएगा और इस जाति की आगामी पीढ़ियां भी काफ़िर ही होंगी। तब हज़रत नूह ने ईश्वर से उस जाति को दंडित करने की प्रार्थना की और ईश्वर ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।



एक भयंकर तूफ़ान आया ताकि धरती को काफ़िरों के अस्तित्व से मुक्त करके उनका नाम व निशान तक मिटा दे किंतु ईश्वर ने उन थोड़े से ईमान वालों और पशुओं की रक्षा के लिए हज़रत नूह अलैहिस्सलाम को आदेश दिया कि वे एक बड़ा समुद्री जहाज़ तैयार करें और जब ईश्वर के आदेश से धरती से पानी उबलने लगे और आकाश से भयंकर बारिश होने लगे तो वे हर पशु का एक जोड़ा जहाज़ में ले आएं और फिर ईमान वालों को तथा अपनी पत्नी और एक पुत्र को छोड़ कर अपने समस्त परिजनों को सवार करें क्योंकि वे काफ़िरों के साथ हो गए थे अतः उन्हें इस जहाज़ में सवार होने का अधिकार नहीं था।



इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम अपने सांसारिक कार्यों और जीवन के मामलों में ईश्वरीय शिक्षाओं के अनुसार काम करें तो सफल रहेंगे।

मनुष्य, पशुओं के संबंध में भी उत्तरदायी है और उसे उनकी प्रजातियों को विलुप्त नहीं होने देना चाहिए।

धार्मिक संबंध, पारिवारिक संबंधों पर प्राथमिकता रखते हैं। यदि पैग़म्बर की पत्नी और पुत्र भी अयोग्य हों तो उनके साथ उनका कोई धार्मिक संबंध नहीं है और वे ईश्वरीय दंड से सुरक्षित नहीं हैं।





यदि ईश्वर चाहे तो वह पानी को, जो जीवनदायक है, अत्याचारियों की तबाही का कारण बना सकता है।

आइये अब सूरए मोमिनून की 28वीं, 29वीं और 30वीं आयत

फिर जब तुम और तुम्हारे साथी नौका पर सवार हो जाएं तो कहो कि समस्त प्रशंसा है उस ईश्वर के लिए जिसने हमें अत्याचारियों की जाति से मुक्ति दिलाई। (23:28) और कहो कि हे मेरे पालनहार! मुझे भले स्थान पर उतार और तू सबसे अच्छा मेज़बान है। (23:29) निःसंदेह इस (घटना) में कितनी ही निशानियाँ हैं और हम (अपने बंदों की) परीक्षा तो लेते ही हैं। (23:30)





ईश्वर इन आयतों में हज़रत नूह अलैहिस्सलाम को शुभ सूचना देता है कि जहाज़ के तैयार होने और तूफ़ान के आने के बाद सभी काफ़िर मर जाएंगे। अतः ईमान वालों को ईश्वर का आभार प्रकट करना चाहिए कि उसने उन्हें अत्याचारियों से मुक्ति दिलाई और यदि उसकी कृपा न होती तो ईमान वालों को कभी भी उनसे मुक्ति न मिलती।

आगे चल कर आयतें ईश्वर की एक अटल परंपरा की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि ईश्वरीय दंड केवल पिछली जातियों से विशेष नहीं था बल्कि ईश्वर सदैव ही अपने बंदों की परीक्षा लेता है और अत्याचारियों को उनके कर्मों का दंड देता है।





इन आयतों से हमने सीखा कि अत्याचारियों से मुक्ति के लिए ईश्वर पर भरोसा करके प्रयास करना चाहिए और उनसे दूर होने के लिए कोई मार्ग खोजना चाहिए।

क़ुरआने मजीद इतिहास से अवगत होने की किताब नहीं है। इस ईश्वरीय किताब में पिछली जातियों का वर्णन इस लिए किया गया है ताकि लोग उनसे पाठ सीख सकें।



हर काल और हर युग में लोगों की परीक्षा लेना ईश्वर की परंपरा है। सत्य और असत्य की पहचान, सत्य का पालन और असत्य से दूरी इस ईश्वरीय परीक्षा में सफलता का मार्ग है।




सूरए निसा; आयतें 24-25 मुताह और कुरान

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 सूरए निसा; आयतें 24-25 

और विवाहित महिलाएं भी तुम पर हराम हैं सिवाए उनके जो दासी के रूप में तुम्हारे स्वामित्व में हों। ये ईश्वर के आदेश हैं जो तुम पर लागू किये गये हैं और जिन महिलाओं का उल्लेख हो चुका उनके अतिरिक्त अन्य महिलाओं से विवाह करना तुम्हारे लिए वैध है कि तुम अपने माल द्वारा उन्हें प्राप्त करो। अलबत्ता पवित्रता के साथ न कि उनसे व्यभिचार करो और इसी प्रकार जिन महिलाओं से तुमने अस्थायी विवाह द्वारा आनंद उठाया है, उन्हें उनका मेहर एक कर्तव्य के रूप में दे दो और यदि कर्तव्य निर्धारण के पश्चात आपस में रज़ामंदी से कोई समझौता हो जाये तो इसमें तुम पर कोई पाप नहीं है। नि:संदेह ईश्वर जानने वाला और तत्वदर्शी है। (4:24)
पिछली आयतों के पश्चात यह आयत दो अन्य प्रकार के निकाहों का वर्णन करती है जो ईश्वर के आदेश से वैध हैं तथा यह आयत ईमान वालों को ईश्वरीय सीमाओं के पालन की सिफ़ारिश करती है। आरंभ से लेकर अब तक मानव समाजों की एक कटु वास्तविकता जातीय व धार्मिक युद्ध व झड़पें हैं जिनके कारण दोनों पक्षों के अनेक लोग हताहत और बेघर हो जाते हैं और चूंकि युद्धों का मुख्य भार पुरुषों पर होता है अत: दोनों पक्षों के अनेक परिवार बेसहारा हो जाते हैं। दूसरी ओर चूंकि प्राचीन युद्ध क़ानूनों में युद्धबंदियों की देखभाल के लिए कोई स्थान नहीं होता था अत: बंदी बनाये जाने वाले पुरुषों को दास और महिलाओं को दासी या लौंडी बना लिया जाता था। इस्लाम ने इस क़ानून को एकपक्षीय रूप से समाप्त नहीं किया बल्कि कफ़्फ़ारे अर्थात पाप के प्रायश्चित जैसे क़ानून बनाकर ग़ुलामों और दासियों की धीरे धीरे स्वतंत्रता की भूमि प्रशस्त कर दी। इसी प्रकार उसने बंदी बनाई गई महिलाओं से विवाह को वैध घोषित किया जिसके कारण पत्नी और माता के रूप में बंदी महिलाओं को सम्मान प्राप्त हो गया।
इसमें एकमात्र कठिनाई यह थी कि बंदी बनाई जाने वाली कुछ महिलाएं उस समय विवाहित होती थीं जिनके पति भी बंदी बनाये जा चुके होते थे। इस्लाम ने तलाक़ की भांति बंदी बनाये जाने को उनके बीच जुदाई का कारण बताया तथा महिलाओं के पुन: विवाह के लिए एक अवधि निर्धारित कर दी ताकि पता चल जाये कि वे गर्भवती नहीं हैं और पिछले पति से उनके पेट में कोई बच्चा नहीं है। स्वाभाविक है कि यह बात महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ देने और उनकी स्वाभाविक इच्छाओं की उपेक्षा से कहीं बेहतर व तर्कसंगत है।
इसी प्रकार आतंरिक मोर्चे पर भी अनेक मुसलमान शहीद होते थे और उनके परिवार बेसहारा हो जाया करते थे। इस्लाम ने इस समस्या के समाधान के लिए दो मार्ग सुझाए। एक बहुविवाह का क़ानून अर्थात एक विवाहित व्यक्ति चार विवाह कर सकता है और उसे अपनी पत्नियों के साथ भी पहली पत्नी की भांति व्यवहार करना चाहिये तथा उसकी दूसरी पत्नियां भी स्थायी रूप से उसके विवाह में आ जाती हैं। पिछली आयत में इस बात पर चर्चा की गई। इस आयत में दूसरा मार्ग अस्थायी विवाह का बताया गया है। अस्थायी विवाह भी स्थायी विवाह की भांति ही एक ऐसा संबंध है जो ईश्वर के आदेश से वैध है केवल इसकी अवधि सीमित परंतु वृद्धि योग्य है। रोचक बात यह है कि तथाकथित बुद्धिजीवी और पश्चिम से प्रभावित लोग इस्लाम की इस योजना का परिहास करते हुए इसे महिलाओं का अनादर बताते हैं जबकि पश्चिम में पुरुषों और महिलाओं के संबंधों की कोई सीमा नहीं है तथा वहां कई पुरुषों से एक महिला के खुले व गुप्त संबंधों को वैध माना जाता है। उनसे यह पूछना चाहिये कि किस प्रकार बिना किसी नियम के वासना पर आधारित स्त्री और पुरुष के संबंध वैध हैं और यह महिलाओं का अनादर नहीं है परंतु यदि यही संबंध एक निर्धारित और पूर्णत: पारदर्शी नियम के अंतर्गत बिल्कुल स्थायी विवाह की भांति हों तो इसमें महिलाओं का अनादर हो जाता है?
खेद के साथ कहना पड़ता है कि ईश्वरीय आदेशों तथा पैग़म्बरों की परम्परा के प्रति इस प्रकार के मनचाहे व्यवहार इस्लाम के आरंभिक काल में भी होते थे परंतु पैग़म्बर के पश्चात अस्थायी विवाह को प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया जिसके कारण गुप्त संबंधों और व्यभिचार की भूमि समतल हो गयी क्योंकि अस्थायी विवाह के आदेश को रोक देने से मानवीय इच्छायें और आवश्यकताएं तो समाप्त नहीं हो जातीं बल्कि ग़लत मार्गों से उनकी आपूर्ति होने लगती है।
इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक व पारिवारिक मामलों के संबंध में हमें वास्तविकतापूर्ण दृष्टि रखनी चाहिये न कि भावनाओं और अपने निजी या किसी गुट के विचारों का अनुसरण करना चाहिये। इस संबंध में सबसे अच्छा मार्ग मनुष्य के सृष्टिकर्ता और मानवीय तथा समाजिक आवश्यकताओं से पूर्णत: अवगत ईश्वर के आदेशों का पालन है।
विवाह, चाहे स्थायी हो या अस्थायी, स्त्री व पुरुष की पवित्रता और उनके सम्मान की रक्षा के लिए एक सुदृढ़ दुर्ग है।
विवाह के मेहर में स्त्री और पुरुष दोनों का राज़ी होना आवश्यक है न कि केवल पुरुष ही उसकी राशि का निर्धारण करे।
सूरए निसा की 25वीं आयत

और तुममें से जिसके पास इतनी आर्थिक क्षमता न हो कि पवित्र व ईमान वाली स्वतंत्र महिला से विवाह कर सके तो उसे उन ईमान वाली दासियों से विवाह करना चाहिये जिनके तुम मालिक हो और ईश्वर तुम्हारे ईमान से सबसे अधिक अवगत है कि तुम ईमान वाले सबके सब एक दूसरे से हो और तुम में कोई अंतर नहीं है तो ईमान वाली दासियों से उनके मालिक की अनुमति से विवाह करो और उनका जो बेहतर व प्रचलित मेहर हो वह उन्हें दो, अलबत्ता ऐसी दासियां जो पवित्र चरित्र की हों न कि व्यभिचारी और गुप्त रूप से अन्य पुरुषों से संबंध रखने वाली। तो जब वे विवाह कर लें और उसके पश्चात व्यभिचार करें तो स्वतंत्र महिला को दिये जाने वाले दंड का आधा दंड उन्हें दिया जायेगा। इस प्रकार का विवाह उन लोगों के लिए है जिन्हें पत्नी न होने के कारण पाप में पड़ने का भय हो परंतु यदि धैर्य रखो यहां तक कि आर्थिक क्षमता प्राप्त करके स्वतंत्र महिला से विवाह कर लो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है और ईश्वर क्षमाशील एवं दयावान है। (4:25)


पिछली आयत में दासियों और युद्ध में बंदी बनाई जाने वाली महिलाओं से विवाह को वैध बताने के पश्चात यह आयत मुस्लिम पुरुषों को, जो भारी मेहर के कारण स्वतंत्र महिलाओं से विवाह की आर्थिक क्षमता नहीं रखते, बंदी महिलाओं से विवाह के लिए प्रोत्साहित करती है ताकि वे सही मार्ग से अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पर्ति कर सकें और समाज में बुराई न फैलने पाये तथा वे महिलाएं भी बिना पति के न रहें। यहां रोचक बात यह है कि क़ुरआने मजीद विवाह की अस्ली शर्त ईमान बताता है चाहे दासी के साथ हो या स्वतंत्र महिला के साथ। इस बात से पता चलता है कि यदि युवा लड़के-लड़की में कोई जान पहचान न हो और सामाजिक दृष्टि से भी वे एक दूसरे के स्तर के न हों परंतु ईमान वाले और धार्मिक आदेशों पर प्रतिबद्ध हों तो सफल व शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं परंतु यदि उनमें ईमान न हों तो चाहे वे धन सम्पत्ति, पद और सुन्दरता के उच्च स्तर पर हों तब भी उनके वैवाहिक जीवन के सुखी होने की संभावना नहीं है क्योंकि ये सारी बातें समय के साथ-साथ समाप्त हो जाती हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि दासी से विवाह को सहन कर लेना चाहिये परंतु पाप की बेइज़्ज़ती की नहीं।
जो लोग भारी ख़र्चे के कारण विवाह करने में अक्षम हैं उनके लिए इस्लाम में कोई बंद गली नहीं है।
विवाह और उसे दृढ़तापूर्वक बाक़ी रखने की मूल शर्त अवैध संबंधों से दूर रहना तथा एक दूसरे से विश्वास घात न करना है।
बुरे चरित्र के लोगों को, जो समाज में बुराई फैलाते हैं, प्रलय के दण्ड के अतिरिक्त इस संसार में भी दंड देना चाहिये ताकि दूसरों को भी इससे पाठ मिले और स्वयं भी इस प्रकार का काम न करें।




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