मुसलमान उसे कहते हैं जो अल्लाह की मर्ज़ी को क़ुबूल करे समझे उसकी हिफाज़त करे और उसको दूसरों तक पहुंचाय जिससे सामाजिक ढांचा अमन पसंद ,इन्साफ पसंद हो | हज़रत मुहम्मद सव ने फ़रमाया की अगर आप समज में कुछ ऐसा खुलेआम होते हुए या किसी को करते हुए देखें जो अल्लाह के हुक्म के खिलाफ हो तो आप उसके खिलाफ अपनी सलाहियत भर आवाज़ उठाएं | सबसे पहले उसे जिस्मानी तौर पे उसे रोकिये और यह न कर तो ज़बानी तौर पे , यह भी न कर सकें तो नज़रों से नापसंदगी का एहसास उसको करवाएं और यह भी न कर सकें तो चुप रह के दिल ही दिल में कहें यह ग़लत हो रहा है और यह आखिरी तरीक़ा इमान का सबसे कमज़ोर इमाम का तरीक़ा है |
इसी तरह से अल्लाह फरमाता है जब किन्ही दो लोगों में आपसी झगड़ा हो जाय तो उनमे समझौता करवा दिया करो और इसी तरह 8|46|और ख़ुदा की और उसके रसूल की इताअत करो और आपस में झगड़ा न करो
हम आज के समाज में क्या होते देखते हैं ? कहाँ है हमारा ईमान ? यह हम कैसे मुसलमान हैं ?
हमारा तरीक़ा यह है की हम अगर किसी को कुछ खुलेआम ग़लत करते देखते हैं तो चुप रहते है की हमसे क्या मतलब जबकि हम खुद को मुसलमान और अल्लाह के हुक्म पे चलने वाला कहते हैं | और बात यही तक नहीं रूकती बल्कि अगर कोई उसके खिलाफ आवाज़ उठाता है तो हम उसका साथ नहीं देते और सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि दुनियवी फायदे के लिए लज़्ज़त ,कभी खौफ से के लिए अक्सर हम ऐसे खुलेआम गुनाह करने वाले का साथ देते नज़र आते हैं | साथ दे के हम ऐसे खुलेआम गुनहगार का मनोबल बढ़ाते है और समाज को एक भ्रष्ट करने में सयोगी होते है जो एक तरफ से अल्लाह की खुलेमाम नाफरमानी में शुमार होता है |
इसी तरह अल्लाह का हुक्म जब किन्ही दो लोगों में आपसी झगड़ा हो जाय तो उनमे समझौता करवा दिया करो | हमारी समझ में नहीं आता बस क़ुरआन में झूम झूम के पढ़ते नज़र आते हैं | क्यों की देखा यह गया है की समाज में रिश्तेदारों में अगर किसी का झगड़ा न इत्तेफ़ाक़ी हो जाय तो हम उसके बीच में नहीं बोलते और बात यही ख़त्म नहीं होती बल्कि अक्सर यह भी देखा गया है की दोनों तरफ हमदर्द बन के हम जाते हैं और आपस में झगडे को बोल के और बढ़ा देते हैं और लुत्फ़ उठाते हैं | और इसी के साथ साथ अल्लाह के मक़सद आपसी अमन शांति के खिलाफ अमल करते है |
इस्लाम ने हमें सामूहिक नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया है जिसमे इन्साफ ,निष्पक्षता,भाईचारा ,रहम ,दया ,एकजुटता इत्यादि मुख्य हैं लेकिन आज इन सब लव्ज़ों के मायने हमारे अमल में बे मायने होते जा रहे हैं | इस्लाम ने अलग अलग ज़िम्मेदारियाँ और सामूहिक जीवन की ज़िम्मेदारियों लो तफ्सील से क़ुरआन में समझाया है और हदीस , मासूमीन की सीरत में यह हमेशा नज़र आया जिसे ऐसा लगता है हम मुकम्मल तौर पे भूलते जा रहे हैं |
आज हमारी ज़िम्मेदारी सिर्फ यह नहीं की लोगों तक सिर्फ हदीस और क़ुरआन की आयतें पहुंचाते रहे और यह समझ लें की हमारी ज़िम्मेअरी पूरी हो गए बल्कि उसमे अमल कैसे किया जाय यह भी लोगों को समझाया जाय और इसकी कोशिश की जाय |
हमारे मुस्लिम समाज को ग़ैर इस्लामिक उसूलों पे चलने वाला समूह बनाने का ज़िम्मेदार कौन ? हमसे कहाँ ग़लती हो रही है की बावजूद अल्लाह की क़ुरान में दी गयी हिदायतों के , नबी पैग़म्बर इमाम की क़ुर्बानियों को के जिनका ज़िक्र हम आज भी झूम झूम के खुश हो हो के करते भी हैं हम अमली तौर पे इतने कमज़ोर है की मुसलमान लगते ही नहीं हैं |
यक़ीनन हमारी क़ौम के पास या तो आज बेहतरीन लीडर नहीं है , उलेमा नहीं हैं या फिर हम दुनिया परस्ती की वजह से अपना सही लीडर और सही रहबर चुन नहीं पा रहे हैं | हर वो शख्स जो किसी मुजतहिद की तक़लीद करता है उसे भी आप देख सकते हैं की उसने अपने अपने पसंदीदा मौलवियों का समूह बना लिया है और उनकी आपस में ही नहीं बनती |
मुश्किल यह हुयी की हमारे समाज में कुछ मौलवियों ने पूरी क़ौम को मस्जिद और इमामबाड़ों के इर्द गिर्द इबादत और सवाब के नाम पे क़ैद कर लिया जिस से ईमानवालों में यह पैग़ाम गया की नमाज़ , रोज़ा ,मजलिस वगैरह बस यह सवाब है यही इबादत और यही जन्नत का सीधा रास्ता जब की यह इबादतों का एक छोटा सा हिस्सा है | इन्तहा तो यह हो गयी की वाजिब नमाज़ों की तो जाने दीजे मुस्तहब नमाज़ों के लिए भी मस्जिद में लोगों को जमा किया जाने लगा जिसके लिए हज़रत मुहम्मद सॅ ने फ़रमाया की बेहतर है मुस्तहब नमाज़ें घरो में अदा की जाएँ जिस से बच्चों की तरबियत हो सके |
आज क़ौम की ग़लत सोंच की मिसाल यह है की की हमें इसमें बड़ा मज़ा आता है की कैसे खुद को मोमिन और दूसरे को मुनाफ़िक़ होने का ऐलान कर दिया जाय | और खुद के मोमिन होने की दलील में अपने किरदार को पेश नहीं करते बल्कि अपनी मस्जिदों में बैठ के तूलानी नमाज़ों, पेशानी के गट्टों और मजलिस बार बार करने को दलील बनाते हैं | जबकि मुनाफ़िक़ उसी को कहते हैं जो नमाज़ पढ़े और हुक्म ऐ खुदा के खिलाफ समाज में चलता नज़र आय | हम मौला अली का क़ौल भूल गए की किसी के नमाज़ के गट्टों नमाज़ रोज़े पे न जाओ बल्कि इमां वाला है की नहीं यह समझने के लिए उसके किरदार को देखो उससे मुआमलात कर के देखो |
हमारी इस छोटी से ग़लती ने समाज को गुमराह कर दिया और वो सिर्फ मस्जिदों में जमा होने को मोमिन की पहचान और दलील समझ बैठा |
मैंने खुद देखा एक बार की एक साहब ने छोटे से क़स्बे के इमामबाड़े में माह ऐ रमजान में खुद रोज़ा रखा फिर मस्जिद में इफ्तार करवाया फिर मजलिस भी करवाई लेकिन इन सबके बाद मिम्बर से उतर के किसी से झगड़ा हो गया और गली गलौंच करने लगे उसकी बीवी पे तोहमतें लगाने लगे | रोज़ेदार मजमा सुनता रहा लुत्फ़ लेता रहा | ताज्जुब तो तब हुआ की उस इलाक़े के मौलाना ने जो उस वक़्त मजूद नहीं थे आने के बाद उसी शख्स को सहयोग किया और इज़्ज़त बक्शी |
ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ की उन सबको यह तो यक़ीन था की नमाज़ रोज़ा इफ्तार मजलिस उनके इमां की पहचान है और इसे छोड़ने वाला सच्चा मुसलमान नहीं लेकिन यह यक़ीन नहीं था की इस्लाम के क़ानून पे वाजिब नमाज़ों वगैरह के साथ साथ क़ुरान पे अमल ही सही मायने में इमां की दलील है एक मुसलमान में इन्साफ ,निष्पक्षता,भाईचारा ,रहम ,दया ,एकजुटता इत्यादि होनी ही चाहिए वरना वो मुसलमान नहीं और न ही उस मजमे को मालूम था की अम्र बिल मारुफ़ (अच्छाई की तरफ बुलाना) और नहीं अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) ही सही मायने में सच्चे मुसलमान होने की दलील हैं |
एक बार हज़रत मुहम्मद सव ने देखा की एक शख्स मस्जिद ऐ नबवी में दिन रात नमाज़ें पढता रहता है तो उन्होंने लोगों से पुछा की यह दिन भर मस्जिद में रहता है तो इसके खाने पीने का कौन इंतज़ाम करता है | लोगों ने बताया ी एक व्यापारी है जो इसका ख्याल रखता हैं | हज़रत मुहम्मद सव ने कहा अल्लाह की क़सम वो व्यापारी इस नमाज़ी बड़ा आबिद है |
अगर आप गौर करेंगे तो देखेंगे कि इस्लाम ने अपने बन्दों के लिए कोई ऐसी रस्म नहीं रखी जिसको अंजाम देने के लिए उलेमा, पुरुहितों, राहिबों या रब्बाइयों की जरूरत पड़ेl असल में इस्लाम तो चाहता ही यह था कि पुरोहितवाद, रहबानियत, रब्बाइयत और धार्मिक रस्मों की अदायगी करने वालों के हाथों आम आदमी का शोषण ना होl