क्या अली (अ ) के विचारों, अक़वाल और वसीयतों को सिर्फ इमामबाड़ों और मिम्बरों तक महदूद करके हम अली वाले और मोमिन कहलायेंगे ?एस एम् मासूम

आज हज़रत अली (अ ) की शहादत के १४०० साल हो गए और इन १४०० सालो से हज़रत अली के चाहने वाले उनका गम मना रहे हैं और अपने वक़्त ऐ इमाम मेहदी (AJ ) के ज़हूर की दुआ कर रहे हैं | अज़ादारी हम अली के चाहने वालों की पहचान बन चुकी है | इमामबाड़े मस्जिदें अंजुमने आबाद है और यह देख के ख़ुशी होती है की कम से कम हम आज भी यह तो पहचानते हैं की अली कौन थे उनके अक़वाल उनकी बातें उनपे हुए ज़ुल्म हमें सब याद है |
लेकिन
बात कड़वी है लेकिन फ़िक्र करने वाली है की क्या सिर्फ हज़रत अली के अक़वाल इमामबाड़ों , मस्जिदों और घरों में लगा के और मिम्बरों से बयान करके हम मोमिन बन जाएंगे ? क्या इस तरह हम उन लोगों में शुमार हो सकेंगे जिन्हे अली चाहते है ? जिन्हे अली अपना कहें |
आज किस दौर से हम गुज़र रहे हैं इस्पे गौर ओ फ़िक्र की ज़रुरत है | गोया हम जिन अक़्वालों को इमामबाड़ों में लटकाते हैं , जिन हदीसों को एक दुसरे को फॉरवर्ड किया करते हैं या जिन नसीहतों को हम मिम्बरों से सुना करते हैं उनपे खुद अमल भी करते हैं ? अगर अमल करते हैं तो यक़ीनन हम इस दुनिया में बेहतरीन मख्लूक़ में शुमार होंगे और उस दुनिया में भी हम कामयाब होंगे | जब मौत के बाद अपने इमाम ऐ वक़्त की ज़ियारत करेंगे तो शर्मिंदा नहीं होंगे |
आज हमारा जीने का तरीक़ा क्या बन गया है ?
आज हमने खुद को दौलत और झूटी शोहरत हासिल करने तक महदूद कर दिया है | रिश्तेदार , अपनी क़ौम वालों की तरक़्क़ी हमें पसंद नहीं आती | हमारा वक़्त इसी में गुज़रता रहता है की यह मेरी बीवी और यह मेरे बच्चे , यह मेरा घर यह मेरी दौलत की शान और बाज़ारों में झूटी शोहरत के लिए रियाकारियाँ | क्या इस्लाम यही था ? क्या हज़रत अली (ा.स ) का पैगाम यही था ?
दुनियवावी मामलात में आज हम अपनी ख्वाहिशों के गुलाम बन के रह गए हैं | उन्हें अंजाम देते वक़्त यह कभी नहीं सोंचते की जिस मौला अली का नाम ले ले के आंसू बहा रहे हैं , उसने भी कोई दुनिया में जीने का तरीक़ा बताया है | दुनिया से जाते वक़्त वसीयतें की है ? क्या हमारे लिए अपने दुनियवावी मामलात में उन नसीहतों हिदायतों वसीयतों पे अमल कहना ज़रूरी नहीं है ? यह सभी फ़ज़ीलतें सिर्फ इमामबाड़ों ,मिम्बरों और किताबों तक ही महदूद रहेंगी या कभी हमारे किरदार में भी नज़र आएंगी ?
याद रहे हम खुद को धोका दे रहे हैं अगर हम हज़रत अली अस की याद में आंसू बहते हैं, नसीहतों फ़ज़ीलतों को सुनते हैं स्वाब हासिल करते हैं वाह वाह करते हैं लेकिन उनपे अमल नहीं करते | अगर मक़सद ऐ विलायत पे हम कामयाब नहीं उतरे तो गोया हम अली से इंकार करने वालों में शुमार होंगे |
काश हमने मौला अली की बातों पे थोड़ा भी अमल दुनियावी मुमलात के वक़्त किया होता तो आज यह ग़ीबत तोहमत , जलन हसद , मेरा तेरा , रियाकारी , झूट फरेब ,ज़ुल्म और नाइंसाफी की दनिया से अलग मुहब्बत , अमन ,इन्साफ और भाईचारे की राह में चलते हुए एक दुसरे के मददगार होते और दुनिया और आख़िरत दोनों में कामयाब होते | गाफिल है की आज यह झूट फरेब ग़ीबत जैसे गुनाह बाज़ारों घरों से होते हुए मस्जिदों और इमामबाड़ों तक आ पहुंचे है | अगर अब भी नहीं सम्भले तो दुनिया और आख़िरत दोनों में नाकामयाब तो होंगे ही आने वाली नस्लें क़ुरआन और अहलेबैत की हिदायतों को इतने हलके में लेंगी की उन्हें हक़ और बातिल का फ़र्क़ भी समझ में नहीं आएगा और गुमराही के अँधेरे में खो जाएंगी |
1400 साल हो चुके मौला अली की शहादत के और देर तो कभी नहीं होती जब तक हमारी सांसें चल रहे हैं | आज यह तय कर लें हम अपनी ज़िन्दगी अपने मौला अली के बताय तरीके से गुज़रेंगे | दुनियावी मुआमलात में यह ज़रूर देखेंगे की मेरे मौला का क्या हुक्म है ? गुनाहं से खुद को बचाएंगे |
तय कर लें कोई मौला अली की बताये तरीके पे अमल करे या ना करे हमें करना है | कोई जहन्नम जाने की कोशिश इब्लीस की पैरवी करके जाता है तो जाय हम मुसलमान अपने मौला अली की पैरवी करके खुद को उनमे शुमार करवाने की कोशिश करे जिन्हे मौला अली कहें यह हमारा है |
यह कभी नहीं भूलियेगा की तारीफ मौला अली की और पैरवी इब्लीस की जहन्नम का सीधा रास्ता है |
लेखक एस एम् मासूम
