Quantcast
Channel: हक और बातिल
Viewing all 644 articles
Browse latest View live

माँ बाप का दर्जा

$
0
0

इस्लाम में वालिदैन का मक़ाम ,लेखक ..मौलानाः सैय्यद मज़हर अली नक़वी अमरोहवी


क़ुरआन माँ बाप के बारे में कहता हैः- तुम्हारे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि उस (अल्लाह) के सिवा किसी की बन्दगी न करो और माँ-बाप के साथ अच्छा बरताओ करो। अगर उनमें से कोई एक या दोनों ही तुम्हारे सामने बुढ़ापे की मंज़िल पर पहुँच जाएँ तो उन्हें 'उफ़' तक न कहो और न उन्हें झिड़को, बल्कि उनसे मेहरबानी से बात करो।
क़ुरआने मजीद का यह हुक्म हर मुसलमान के लिये वाजिब है अल्लाह अल्लाह ख़ुदा वन्दे आलम के नज़दीक वालिदैन की यह अज़मत व मंज़िलत है कि उन के सख़्त और तकलीफ़ वाले रवय्ये पर भी औलाद को लफ़्ज़े उफ़ भी कहना उन के मरतबे के ख़िलाफ़ है कहाँ कि उन के साथ बे अदबी और गुस्ताख़ी और बद सुलूकी से पैश आया जाये हालांकि लफ़्ज़े उफ़ कहना कोई बहुत बड़ी बेअहतेरामी नहीं है आम बात चीत में इस लफ़्ज़ को बुरा नहीं समझा जाता लेकिन इस लफ़्ज़ से मिज़ाज के ख़राब होने की बू आती है लिहाज़ा इस को भी ख़ुदा वन्दे आलम ने वालिदैन की शान के ख़िलाफ़ क़रार दिया है।
इस्लाम ने औलाद को माँ बाप के लिए कई हुक्म दिए हैं, जिनको मानना उनके लिए इतना ही ज़रूरी है, जितना कि खुदा के सिवा किसी ओर की इबादत न करना। इस्लाम कहता है, 'अपने माँ बाप के साथ अच्छा सुलूक करो। खुदा से उनके लिए दुआ करो कि वह उनपर वैसा ही करम करे जैसा बचपन मै उसके पेरेन्टस ने उस पर किया। अपने माँ बाप के अहतेराम में कुछ बातें शामिल हैः उनसे सच्चे दिल से मुहब्बत करें। हर वक़्त उन्हें खुश रखने की कोशिश करें। अपनी कमाई दौलत, माल उनसे न छुपाएँ। माँ बाप को उनका नाम लेकर न पुकारें। अल्लाह को खुश करना हो तो अपने माँ बाप को मुहब्बत भरी निगाह से देखो। अपने माँ बाप से अच्छा सुलूक करोगे तो तुम्हारे बेटे तुम्हारे साथ अच्छा सुलूक करेंगे। माँ बाप से अदब से बात करे, डांट डपट करना अदब के खिलाफ है। दुनिया में पूरी तरह उनका साथ दो। माँ बाप की नाफरमानी से बचो, क्योंकि माँ बाप की खुशनूदी में अल्लाह की खुशनूदी है और उनकी नाराज़गी में अल्लाह की नाराज़गी। अगर चाहते हो कि खुदा तुम्हारे काम में फायदा दे, तो अपने माँ बाप से रिश्तेदारों से अच्छा सुलूक बनाए रखे। कभी कभी कब्र पर जाया करे, और उनके लिए दुआ करो। दुआ करो कि 'ये अल्लाह उनपर वैसा ही रहम करना जैसा उन्होंने मेरे बचपन में मेरी परवरिश के वक़्त किया था। आज हम अपनी इन्हीं मज़हबी बातों से भटक गये है, हम अपने माँ बाप को अहतेराम देने के बजाय हम अपनी दुनियावी ख्वाहिशों के लिए उनसे लड़ते झगड़ते हैं, मरने के बाद उनके कब्र की ज्ञियारत तो बहुत दूर की बात है उनके लिए कोई सद्का खैरात तक नहीं करते। बुढापे में उनकी ख़िदमात के बजाय अपने दुनिया के फुजूल कामों में लगे रहते है। अल्लाह से मेरी ये दुआ है कि वो हमें इन गुनाहों से बचाए।


वालिदैन की फ़ज़ीलत रसूले ख़ुदा (स.) के नज़दीक
रसूले ख़ुदा (स.) ने इरशाद फ़रमायाः- माँ बाप की बद दुआ से बचो क्यों कि वोह बादलों को फाड़ कर मक़बूलियत के दरवाज़े तक पहुंचती है और क़बूल होती हैं और वालिदा की बद दुआ तो तलवार से ज़्यादा तेज़ होती है और वालिदा से बदतमीज़ी करने वाला गुनाहे कबीरा का मुरतकिब है जो ऐसा गुनाह है जो माफ़ नहीं किया जायेगा लिखा है कि एक मरतबा रसूले ख़ुदा (स.) से किसी ने मशवेरा किया तो आप ने उस से फ़रमाया कि क्या तेरी माँ ज़िन्दा है उसने कहा हाँ मेरी माँ ज़िन्दा है तो आप ने फ़रमाया उसका अहतेराम और इकराम करो क्यों कि उसके पैर के नीचे जन्नत है।
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि अपने माँ बाप के साछ ऐसा बरताओ करो जैसा अपने बच्चों के साथ करते हो और दूसरे की औरतों की हिफ़ाज़त करो ताकि वोह तुम्हारी औरतों की हिफ़ाज़त करें और वालिदैन की तरफ़ से आक़ होने से बचो जन्नत ने ख़ुशबू एक साल की दूरी से सूंगी जा सकती है लेकिन वालिदैन का आक़ होने वाला उसे किसी तरह सूंग न सकेगा और वालिदैन के आक़ होने के लिये लफ़्ज़े उफ़ कहना काफ़ी है।
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि जो लोग अपने वालिदैन की तरफ़ ग़ुस्से से देखें चाहे वोह उन पर ज़्यादती न कर रहे हों ख़ुदा वन्दे आलम उन की नमाज़ क़बूल नहीं करता।
रसूले ख़ुदा (स.) से मालूम किया गया कि माँ बाप के औलाद पर क्या हुक़ूक़ हैं तो आप ने फ़रमायाः उनका नाम न लो उनके आगे न चलो उनके आगे न बैठो उन से बदकलामी न करो।
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से किसी ने पूछा कि वालिदैन के साथ अहसान करने का क्या मतलब है आप ने फ़रमायाः माँ बाप से अच्छा सुलूक करो। मालूम किया गया कि क़ुरआन की इस आयत का क्या मतलब है तो आप ने फ़रमाया उन से अच्छा बरताओ करो उन को जिस चीज़ की ज़रूरत हो उन के बिना मांगे देदो चाहे वोह माल दार ही क्यों न हों फिर पूछ कि इस आयत का क्या मतलब है कि उन में से एक या दोनों बूढ़े हो जायें तो उन से उफ़ भी मत कहो और न कभी उन को डाटो और उनसे शरीफ़ाना बाच चीत करो और अगर वोह तुम को मारें तो तुम उन से यह कहो कि ख़ुदा तुम को बख़्शे और उन की आवाज़ पर अपनी आवाज़ बुलन्द न करो उनके आगे मत चलो और उन से हर हाल में नेक बरताओ करो अगर वोह मर जायें तो उनकी तरफ़ से नमाज़ पढ़ो उनके नाम पर ख़ैरात करो और उन की तरफ़ से हज करो और रोज़े रखो तब भी वालिदैन का हक़ अदा नहीं हो सकता इन तमाम कामों से अल्लाब बे हद ख़ुश होगा और ख़ुदा तुम को इसका अच्छा सिलाह देगा लिहाज़ा लिखा है कि रसूले ख़ुदा (स.) की ख़िदमत में एक शख़्स आया और उसने कहा कि या रसूल अल्लाह (अ.) मैं जेहाद में जाना चाहता हूँ और उसमें शहीद होना चाहता हूँ तो आप ने फ़रमाया जाओ और जेहाद में शहीद हो जाओ अगर जेहाद में शहीद हो गऐ तो गुनाहों से ऐसे पाक हो जाओगे जैसे माँ के पेट से पैदा हुऐ थे और अगर रास्ते में शहीद हो गऐ तो ख़ुदा उसका अज्र व सवाब देगायह सुन कर उस शख़्स ने कहा या रसूल अल्लाह (स.) मेरे माँ बाप बहुत बूढ़े हैं और मुझ से बहुत मौहब्बत करते हैं मेरे बाहार जाने पर बिल्कुल राज़ी नहीं हैं यह सुन कर रसूल अल्लाह (स.) ने इरशाद फ़रमायाः जाओ और अपने माँ बाप के पास रहो और उन की ख़िदमत करो ख़ुदा की क़सम उन की एक रात की ख़िदमत जेहाद से ज़्यादा सवाब रखती है।
रसूले ख़ुदा का इरशाद है कि औलाद का माँ बाप को मौहब्बत भरी नज़रों से देखना एक हज का सवाब रखता है फिर उस शख़्स ने कहा या रसूल अललाह (स.) अगर को शख़्स वालिदैन को एक सौ मरतबा मौहब्बत की निगाह से देखे तो एक सौ हज का सवाब मिलेगा तो आप ने फ़रमायाः उस की रेहमत के ख़ज़ाने में कोई कमी नहीं वोह सवाब को जितना चाहे बढ़ा सकता है। इमाम अली रज़ा असलैहिस्साल फ़रमाते हैः कि माँ बाप की इताअत करनी चाहिये और उन से इज़्ज़त और अहतेराम से पैश आना चाहिये और उन से नर्म लेहजे में बात करनी चाहिये क्यों कि उन की वजह से बैटा पैदा हुआ अगर वोह नहीं होते तो बैटा पैदा नहीं होता।
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम इरशाद फ़रमाते हैं कि माँ बाप से अच्छा सुलूक करो क्यों कि यह ख़ुदा को पहचानने की दलील है औलाद की कोई बात माँ बाप से अच्छा सुलूक करने से ज़्यादा ख़ुदा को पसन्द नहीं, इस लिये कि माँ बाप के हुक़ूक़ अल्लाह के हुक़ूक़ से जुड़े हुऐ हैं, फिर फ़रमाते हैं कि जिस शख़्स को यह ख़ाहिश हो कि मौत की मुशकिल से निजात मिले तो उसे वालिदैन के साथ नेक सुलूक करना चाहिये और हर वक़्त उन के साथ अच्छा बरताओ करे ऐसा करने से ख़ुदा वन्दे आलम मौत की सख़्ती आसान कर देता है और ज़िन्दगी में कभी इंसान पैसे से परेशान नहीं होता।
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमायाः तीन आदमी ऐसे हैं कि जिन को सज़ा दुनिया में भी मिलती है और आख़ेरत में भी मिलती है पहला वोह शख़्स जिस को वालिदैन ने आक़ कर दिया हो और दूसरा वोह शख़्स जो अपने वालिदैन को मारता पीटता है और तीसरा वोह शख़्स जो अपने ताअल्लुक़ात ख़त्म कर दे। इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि वालिदैन को मारने पीटने वाला शख़्स मलऊन है और वालिदैन का आक़ किया हुआ शख़्स भी मलऊन ने।
रसूले ख़ुदा (स.) ने इरशाद फ़रमायाः कि खुदा फ़रमाता है कि मैं वालिदैन के आक़ किये हुऐ शख़्स को माफ़ नहीं करूंगा चाहे वोह कितना ही अच्छा अमल अंजाम देदे लेकिन वालिदैन के साथ अच्छा बरताओ करने वाले को ज़रूर माफ़ करूँगा।
इमाम मौहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम इरशाद फ़रमाते हैं कि जो औलाद अपने वालिदैन के साथ नेकियां नहीं करती है उन की ज़िन्दगी में या उन के मरने के बाद उन के लिये न दुआ-ए-मग़फ़ेरत करे न रोज़े रखे न उनका क़र्ज़ अदा करे न उन के नाम पर ख़ैरात अदा करे तो ख़ुदा वन्दे आलम ऐसी औलाद को आक़ सुशा औलाद में दाख़िल करता है और अगर उनका क़र्ज़ अद करे और उन के नाम पर ख़ैरात करे तो ख़ुदा वन्दे आलम उन को आक़ शुदा औलाद से निकाल कर उन को माँ बाप का कहना मानने वालों और अच्छे बन्दों में शामिल करता है।
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से किसी ने पूछाः यब्ना रसूल अल्लाह वालिदैन के साथ नेकी करने का क्या मतलब है तो आप ने फ़रमायाः कि उन को किसी चीज़ के मांगने का मौक़ा न दो और उन के आगे न चलो उन की आवाज़ पर अपनी आवाज़ ऊँची न करो और उन को टेहड़निगाह से न देखो अगर वोह तुम को मारें भी तो कहो कि ख़ुदा तुम को माफ़ करे और जब उन के सामने जाओ तो आजिज़ और कमज़ोर शख़्स की तरह जाओ अगर वोह तुम को परेशान भी करें तो तुम उफ़ भी न कहो बस ख़ामौश हो जाओ। लिखा है कि एक शख़्स रसूले ख़ुदा (स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अर्ज़ करने लगा या रसूल अल्लाह मैं हद से ज़्यादा बदकार आदमी हूँ मेंने हर बुरा काम किया है मेरी तौबा क़बूल होने की कोई सूरत नहीं है आप ने फ़रमायाः अगर तेरी वालिदा ज़िन्दा हैं तो उन के साथ नेक बरताओ कर नेक सुलूक कर इस लिये कि वोह काम ख़ुदा की रेहमत के नाज़िल होने की वजह है ख़ुदा की रेहमत के नाज़िल होने का सब से बड़ा ज़रिया है फिर रसूल अल्लाह (स.) ने मालूम किया कि क्या तेरे माँ बाप ज़िन्दा हैं उस ने जवाब दिया मेरा बाप ज़िन्दा है लेकिन माँ मर चुकी हैं तो रसूल अल्लाह ने फ़रमायाः उन के साथ नेक बरताओ कर उस की ख़िदमत कर उसके जाने के बाद आप ने फ़रमाया काश इस की माँ ज़िन्दा होती!
लिखा है कि एक शख़्स रसूले ख़ुदा (स.) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और उसने अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह (स.) मुझे कोई अमल तालीम किजीये जिस से ख़ुदा की रेहमत के क़रीब हो जाऊँ तो आप ने फ़रमाया कि अगर तेरे माँ बाप ज़िन्दा हों तो उन के साथ अच्छा बरताओ करो और अच्छा सुलूक करो यही ख़ुदा की रेहमत के नाज़िल होने का बहतरीन ज़रीया है।
तारीख़ में लिखा है कि बनी इसराईल का एक लड़का अपने बाप का बहुत ही ख़िदमत गुज़ार था एक रोज़ एक शख़्स उस के पास आया और अपने साथ एक क़ीमती मौती बेचने को लाया उसने उस लड़के से कहा कि मैं इस मौती को बेचना चाहता हूँ उस लड़के ने वोह मौती पचास हज़ार दिरहम में ख़रीद लिया यह सोदा बहुत नफ़े का था उस लड़के ने बेचने वाले से कहा ज़रा थोड़ी देर ठहर जा क़ीमत अभी देता हूँ दुकान की चाबी मेरे बाप के पास है वोह सोया हुआ है उसे जागने दो उसने कहा कि उसे जगा दो और उस से चाबी लेलो उस लड़के ने कहा मैं उन्हें जगा कर तकलीफ़ देना नहीं चाहता तो मौती बेचने वाले ने कहा कि मुझे क़ीमत अभी चाहिये लड़के ने कहा कि मेरे बाप के जागने तक ठहरे रहो तो मैं दस हज़ार दिरहम ज़्यादा दूंगा लेकिन बाप को जगा कर तकलीफ़ नहीं दे सकता। तो बेचने वाले ने कहा कि अगर तुम अपने बाप को जगा दो तो मैं दस हज़ार दिरहम जो तुम ज़्यादा दे रहे हो वोह नहीं लूँगा और जो क़ीमत लगाई है उसी क़ीमत पर दे दूंगा फिर भी उस लड़के ने अपने बाप को नहीं जगाया मौती के इस नफ़े को छोड़ दिया मौती बेचने वाला अपना मौती लेकर चला गया जब उसका बाप उठा तो लड़के ने अपने बाप से सारा वाक़ेआ सुनाया तो लड़के को बाप ने दुआ-ए-ख़ैर दी और उस से कहा कि मैं तुझ को अपनी यह गाए देता हूँ अब तू इसका मालिक है।
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमाया यह वोही गाए थी जो बनी इसराईल को उसकी खाल में सोना भर क़ीमत पर बेची गई थी यह बाप की ख़िदमत का सिलाह है।
मनक़ूल है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में एक शख़्स यहया बिन इब्राहीम नामी आया और कहा यबना रसूल अल्लाह (स.) मेरे साथ मेरी बूढ़ी माँ है जिस की सारी ज़रूरतें में पूरी करता हूँ रात दिन उसकी ख़िदमत में लगा रहता हूँ उसे उठाना, बैठाना, धुलाना, खाना खिलाना, ख़ुलासा यह कि में उनकी हर ज़रूरत पूरी करता हूँ यह बताईये कि क्या मेंने उन की ख़िदमत का हक़ अदा कर दिया या नहीं तो आप ने फ़रमाया कि तूने उसका एक रात का भी हक़ अदा नहीं किया है।
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम अपने वालिद के साथ खाना खाते थे मगर अपना खाना अलग कर लेते थे लोगों ने उन से मालूम किया कि आप उनके साथ एक ही बरतन में क्यों नहीं खाते फ़रमाया इस बेअदबी से बचने के लिये कि अगर एक ही बरतन में खाऊँ तो मुमकिन है कि जो चीज़ में पसन्द कर के उठाऊँ तो उस को वोह उठाना चाहें तो उन की शान में मुझे यह बात पसन्द नहीं क्यों कि यह बात मेरे लिये उनके वास्ते बेअदबी और बदतमीज़ी हरकत होगी।



माँ की मर्ज़ी और नाराज़गीः-
इमाम मौहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम बयान करते हैं कि एक शख़्स जो बहुत ज़्यादा इबादत करने वाला और मुत्तक़ी और परहेज़गार जिसका नाम ज़रीह था जो हर वक़्त अपनी इबादत में मशग़ूल रहता था एक रोज़ उसकी माँ उसकी इबादत करने की जगह आई और उसको आवाज़ दी लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया और इबादत में ही मशग़ूल रहा फिर वोह वापस चली गई फिर वापस आई और आवाज़ दी मगर उसने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया और अपनी इबादत में मशग़ूल रहा फिर तीसरी मर्तबा वोह आई और उसने उसको आवाज़ दी फिर भी उसने कोई जवाब न दिया, माँ ने कहा कि मैं तेरी शिकायत ख़ुदा से करूंगी वोह तुझ को रुसवा करेगा दूसरे दिन एक फ़ाहेशा औरत (गन्दी औरत) उसकी इबादत करने वाली जगह आगई जो एक बच्चा अपनी गोद में लिये हुऐ कह रही थी कि ऐ ज़रीह अपने बच्चे को पाल यह बात तमाम बनी इस्राईल में फैल गई कि जो इबादत गुज़ार लोगों को ज़िना करने पर बुरा कहता था वोह ख़ुद ज़िना कार है। यह बात जब उस वक़्त के बादशाह को मालूम हुई तो उसने ज़िना कारी के जुर्म में उसको फांसी की सज़ा सुना दी बादशाह का हुक्म सुन कर उसकी माँ आबिद के पास आई और उसने उसके मुँह पर तमाचा मारा उसने कहा कि ऐ माँ यह तेरी दुआ का नतीजा है तू मुझे माफ़ कर दे जब बादशाह को यह मालूम हुआ और सारी हक़ीक़त मालूम हुई तो उस औरत को बुलाया और उस से पूछा कि सच बता कि यह बच्चा किस का है तो उस बच्चे ने कहा कि मेरा बाप एक चरवाहा है जो फ़लाँ जगह पर रहता है और फ़लाँ क़बीले का है उस आबिद की माँ के माफ़ करने की वजह से उसको माफ़ कर दिया गया उस आबिद ने क़सम खाई कि अब कभी माँ से बेरुख़ी और उन के हुक्म को नहीं टालूंगा और हमेशा उन के हुक्म की इताअत करूँगा।
बयान किया गया है कि एक नौजवान मौत और ज़िन्दगी के दर्मियान था और उसका दम नहीं निकल रहा था यह देख कर लोगों ने रसूल अल्लाह (स.) को ख़बर दी आप उसके पास तशरीफ़ लाए और उससे फ़रमायाः औकि कलमा पढ़ो लेकिन वोह कलमा नहीं पड़ सका जब रसूले ख़ुदा (स.) ने यह देखा तो कहा कि इस की माँ को बुलाओ लोगों ने कहा कि या रसूल अल्लाह (स.) वोह यह बैठी हुई है तो आप ने उसकी माँ से फ़रमायाः तुम क्या अपने बैटे से नाराज़ हो तो उसने कहा कि हाँ मैं इन से नाराज़ हूँ। आप ने फ़रमायाः इसको माफ़ कर दो और इस से राज़ी हो जाओ उसने जवाब दिया या रसूल अल्लाह (स.) आप के हुक्म को मानते हुऐ मैं इसको माफ़ करती हूँ और मैं इस से राज़ी हो गई माँ की रज़ा मन्दी से उसकी रूह निकल गई और उस जवान को मौत की सख़्ती से निजात मिल गई।




हज़रत यूसुफ़ (अ.) की नस्ल पैग़म्बरी से क्यों मेहरूम रह गईः-
इब्ने इब्राहीम बयान करते हैं कि हज़रत यूसुफ़ की क़मीज़ हज़रत याक़ूब (अ.) के चेहरे पर डालने और उन की आखों का नूर आने के बाद आप अपने बैटों को लेकर हज़रत यूसुफ़ से मुलाक़ात करने की वजह से मिस्र पहुंचे उस वक़्त हज़रत यूसुफ़ शाही ठाठ बाट में बादशाह वाले कपड़े पहने हुऐ अपने तख़्त पर बैठे हुऐ थे ताकि बाप उन को शाही लिबास में तख़्त पर बैठा हुआ देखें और अपने बैटे की शान व शौकत देख कर ख़ुश हों और उन के पास पहुंच कर बहुत अदब और अहतेराम से सलाम करें वोह क़रीब पहुंच कर अल्लाह का शुक्र अदा करने के लिये सज्दे के लिये झुक गऐ लेकिन हज़रत यूसुफ़ बाप की ताज़ीम को न उठे तो हज़रत जिब्राईल नाज़िल हुऐ और फ़रमाया ऐ यूसुफ़ अपना हाथ उठाओ जैसे ही हज़रत यूसुफ़ ने अपने हाथ को उठाया उन के हाथ से एक नूर निकला और ग़ायब हो गया यह देख कर हज़रत यूसुफ़ ने जिब्राईल से मालूम किया कि यह केसा नूर था जिब्राईल ने फ़रमायाः ऐ यूसुफ़ यह नूरे पैग़म्बरी थी जो तुम्हारी नस्ल से ले लिया गया इस लिये कि तुम ने अपने बाप की ताज़ीम में कोताही की है, बाप की ताज़ीम न करने की वजह से हज़रत यूसुफ़ की नस्ल को पैग़म्बरी से मेहरूम कर दिया गया।



असहाबे कैफ़ और अज़मते वालिदैनः-
ज़िक्र किया गया है कि असहाबे कैफ़ जब नींद से उठे तो बहुत से बादशाहों का ज़माना गुज़र चुका था अपने को बाहर निकालने की कोशिश में उन में से हर एक अपनी अपनी नेकियों का हवाला दे कर दरवाज़ा खोलने की दुआ कर रहा था उन में से एक ने इस तरह से दुआ की पालने वाले मेरे माँ बाप बहुत बूढ़े थे एक रोज़ मैं उन के लिये दूध ले कर गया तो उन को सोता हुआ पाया तो उन को तकलीफ़ न देने की वजह से उन को न जगाया और उन के जागने के इंतेज़ार में रात भर दरवाज़े पर खड़ा रहा और अपनी बकरियों की बरबादी का भी कुछ ख़याल न किया ऐ ख़ुदा अगर मेरा यह अमल तेरी बारगाह में क़बूल है तो दरवाज़ा खोल दे उसी वक़्त दरवाज़ा खुल गया और ग़ार (ग़ुफ़ा) में रौशनी फैल गई।




माँ बाप और औलाद के हुक़ूक़ः-
इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैः कि अपनी औलाद को सात साल तक तरबीयत करो और अपने साथ रखो और उन को अच्छे बुरे की तमीज़ सिखाओ और उनको नेक रास्ते दिखाओ और अगर ऐसा न कर सको तो उन से अच्छाई की उम्मीद रखना बेकार है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैः कि बच्चों को सात साल तक अपने पास रख कर खूब खिलाओ पिलाओ और उसके बाद सात साल तक अच्छी तरह उन की तरबीयत करो 23 साल से 30 साल तक उन की अक़्ल पूरी तौर पर एक जगह हो जाऐगी उसके बाद की उम्र तजुर्बों में गुज़र जाऐगी फिर फ़रमाते हैं कि लड़के की उम्र के सात साल खैल कूद में और सात साल पढ़ाई लिखाई में और सात साल हलाल और हराम को जानने में गुज़र जाऐंगे।
रसूले ख़ुदा (स.) ने इरशाद फ़रमायाः कि एक शख़्स ने आप से मालूम किया माँ बाप पर औलाद के क्या हक़ हैं आप ने फ़रमाया कि उन के अच्छे नाम रखो और उन की खूब अच्छी तरह से तरबीयत करो, और फ़रमाया ख़ुदा उन वालिदैन पर रेहमत करे जो अपनी औलाद को नेक और दीन दार बनाते हैं। फिर फ़रमाया कि माँ बाप पर औलाद का यह हक़ है कि अगर लड़का है तो उसे अख़लाक़ और तेहज़ीब और अच्छा बरताओ करना सिखाऐं और उसका अच्छा नाम रखें और क़ुरआन की तालीम दें और अगर लड़की है तो उसे प्यार मौहब्बत से पालो और बहुत अच्छा नाम रखो और उसे सूर-ए-नूर पढ़ाओ मगर सूर-ए-यूयुफ़ मत पढ़ाओ और जो शख़्स अपने बच्चों को चूमता है (यानी प्यार करता है) ख़ुदा उस के आमाल में एक नेकी लिखता है और जो अपने बच्चों को ख़ुश रखता है ख़ुदा वन्दे आलम उसे क़याम में ख़ुश रखेगा और जो शख़्स उसे क़ुरआन पढ़ाऐगा क़यामत के दिन ख़ुदा उसे नूराई लिबास पहनाऐगा जिस से जन्नत वालों का चेहरा जगमगा जाऐगा।
फिर फ़रमाते हैं कि वालिदैन को चाहिये कि जब वोह बाज़ार जाऐं तो अपने बच्चों के लिये कोई तोहफ़ा ज़रूर लाऐं वोह क़यामत के दिन ऐसे लोगों में शामिल होंगे जो मोहताजों को सदक़ा देते हैं मगर लड़कों से पहले लड़कियों को दें। फिर फ़रमाते हैं कि जो शख़्स अपनी औलाद में लड़कियों को ख़ुश रखेगा वोह इस तरह की उसने जैसे हज़रत इसमाईल की एक औलाद को आज़ाद कर दिया है, फिर फ़रमाते हैं कि जब बच्चा एक साल का हो जाये तो उसे अलग बिस्तर पर सुलाओ फिर फ़रमाते हैं कि औलाद जिगर का टुकड़ा होती है जब बच्चे होते हैं तो हुकूमत करते हैं और जब बड़े हो जाते हैं तो दुश्मन बन जाते हैं और मर जाते हैं तो उम्र भर का ग़म दे जाते हैं, फिर फ़रमाते हैं कि जब तुम्हारे बच्चे दस साल के हो जायें तो उन्हें नमाज़ सिखाओ बल्कि नौ साल की उम्र में ही मार पीट कर नमाज़ सिखाओ मगर तीन बार से ज़्यादा मत मारना फ़रमाते हैं कि बच्चों का माँ बाप पर यह हक़ है कि उन का अच्छा नाम रखें उन की सही उम्र में शादी करें।
माँ बाप की इताअत अल्लाह की सबसे बड़ी इबादत है। माँ को प्यार से देखने से बड़ा सवाब मिलता है और औलाद के माँ बाप पर 84 हक हैं।
माँ की ममता एक बच्चे की ज़िन्दगी में उस बच्चे का विरसा होती है। माँ की ममता वो बुनियाद का पत्थर होती है जिस पर एक बच्चे के मुसतक़बिल की ईमारत खड़ी होती है । बच्चे की ज़िन्दगी का पहला अहसास ही माँ की ममता होती है । उसका माँ से सिर्फ़ पैदाऐशी ही नही बल्कि सासों का रिशता भी होता है । पहली साँस वो माँ की कोख में जब लेता है तभी से उसकी ज़िन्दगी की डोर माँ से बंध जाती है । माँ बच्चे की ज़िन्दगी की मुकम्मल कामयाबी का मरकज़ होती है।
जैसे बच्चा अपने माँ बाप के लिये सहारा बनता है वैसे ही माँ बच्चे के लिए प्यार की, सुख की वो छाँव होती है जिसके नीचे बच्चा ख़ुद को मेहफ़ूज़ महसूस करता है । सारे जहान के दुख तकलीफ एक पल में हवा बन कर उड़ जाते हैं जैसे ही बच्चा माँ की गोद में सिर रखता है ।माँ अल्लाह का बनाया वो तोहफा है जिसे उसने हर इंसान को दिया है।
मां बाप हैं अल्लाह की बख्शी हुई नेमत
मिल जाएं जो पीरी में तो मिल सकती है जन्नत
लाज़िम है ये हम पर कि करें उन की इताअत
जो हुक्म दें हम को वो बजा लाएं उसी वक्त
हम को वो कभी डांट दें हम सर को झुका लें
नज़रें हों झुकी और चेहरे पे नदामत
खि़दमत में कमी उन की कभी होने न पाए
है दोनों जहां में यही मिफ़्ताहे सआदत
भूले से भी दिल उन का कभी दुखने न पाए
दिल उन का दुखाया तो समझ लो कि है आफ़त
मां बाप को रखोगे हमा वक्त अगर ख़ुश
अल्लाह भी ख़ुश होगा, संवर जाएगी क़िस्मत
दूसरे मज़हबों की तरह इस्लाम में भी अल्लाह के बाद अगर किसी की इज्ज़त की बात की गयी है तो वोह हैं वालदैन (माँ बाप) बावजूद इन सबके यह बुढ़ापे का अकेलापन, सोचने पे मजबूर करता है कि हम कहा जा रहे हैं?
एक शख़्स कामयाबी की सीढियां चढ़ता हुआ कामयाबी की मंज़िल पर पहुंचा जब बहुत ऊंचाई पे पहुँच गया, तो उसको एक दिन अपनी माँ का ख़याल आया। उसने सोचा चलो माँ से पूछते हैं उसको क्या चहिये?उस शख़्स ने माँ से पुछा,ऐ माँ तूने मेरे लिए बहुत क़ुरबानियां दीं,मुझे बड़ी मुहब्बत दी,में तुम्हारा क़र्ज़ उतारना चाहता हूँ।
माँ ने हैरत से बेटे को देखा और कहा तू ऐसा क्यों सोंचता है?तेरी परवरिश तो मेरा फ़र्ज़ था और बेटा माँ का क़र्ज़ तो ऐसा है कि अगर चाहो तो भी उतारा नहीं जा सकता।
बेटे की जिद पे एक दिन माँ ने कहा ठीक है अगर तू यही चाहता है तो आज मेरे साथ जैसे बचपन में सोया करता था आज भी सो जा। बेटा ख़ुशी से तैयार हो गया।
जब बेटा सो गया तो माँ ने एक ग्लास पानी बिस्तर पे डाल दिया,बेटे ने करवट बदली और फिर सो गया,एक घंटे बाद माँ ने उस तरफ भी पानी डाल दिया। अब बेटे को गुस्सा आ गया,बोला माँ तुम यह कैसे सोच सकती हो की मैं इस गीले बिस्तर पे तुम्हारे साथ सो सकूं?
माँ ने कहा बेटा बात तो तुम्हारी सही है, लेकिन जब तू छोटा सा था तो रात भर बिस्तर गीला करता था और मैं तुझे सूखे में सुला के खुद गीले में सो जाया करती थी। तू 2 घंटे भी नहीं सो पाया?
बेटा अगर तू मेरा क़र्ज़ उतारना चाहता है ना,तो केवल एक रात भी इस गीले बिस्तर पे सो सका तो मैं समझूंगी तूने मेरा क़र्ज़ उतार दिया।
मेरी नज़र में माँ बाप की मुहब्बत का दर्जा सबसे ऊपर है। मैंने ज़्यादा माँ बाप को बुढ़ापे में अकेले पन में ही जीते देखा है। जबकि वही माँ बाप जवानी में औलाद के लिए जिया करते थे,जहां औलाद का मुसतक़बिल अच्छा हो वहीं रहा करते थे
माँ मुहब्बत की सबसे बेहतर मिसाल है।
मौत की आगोश में जब थक के सो जाती हैं माँ
तब कही जाकर सुकू थोडा सा पा जाती हैं माँ
फ़िक्र में बच्चों की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ।
नौजवान होते हुए बूढी नज़र आती है माँ॥
रूह के रिश्ते की ये गहराईयां तो देखिये।
चोट लगती है हमें और चिल्लाती है माँ॥
कब ज़रुरत हो मेरे बच्चों को इतना सोच कर।
जागती रहती हैं आखें और सो जाती है माँ॥
हुदीयों का रस पिला कर अपने दिल के चैन को।
कितनी ही रातों में खाली पेट सो जाती है माँ॥
जाने कितनी बर्फ़ सी रातों मे ऎसा भी हुआ।
बच्चा तो छाती पे है गीले में सो जाति है माँ॥
जब खिलौने को मचलता है कोई गुअल्लाहत का फूल।
आंसूओं के साज़ पर बच्चे को बहलाती है माँ॥
फ़िक्र के शमशान में आखिर चिताओं की तरह।
जैसी सूखी लकडीयां, इस तरह जल जाती है माँ॥
अपने आंचल से गुलाबी आंसुओं को पोंछ कर।
देर तक गुअल्लाहत पे अपने अश्क बरसाती है माँ॥
सामने बच्चों के खुश रहती है हर इक हाल में।
रात को छुप छुप के अश्क बरसाती है माँ॥
पहले बच्चों को खिलाती है सकूं-औ-चैन से।
बाद मे जो कुछ बचा हो शौक से खाती है माँ॥
माँगती ही कुछ नहीं अपने लिए अल्लाह से।
अपने बच्चों के लिए दामन को फ़ैलाती है माँ॥
गर जवाँ बेटी हो घर में और कोई रिश्ता न हो।
इक नए एहसास की सूलि पे चढ़ जाती है माँ॥
हर इबादत हर मोहब्बत में नहीं है इक ग़र्ज।
बे-ग़र्ज़, बे-लूस, हर खिदमत को कर जाति है माँ॥
बाज़ूओं में खींच के आ जाएगी जैसे कायनात।
अपने बच्चे के लिये बाहों को फैलाती है माँ॥
ज़िन्दगी के सफ़र में गर्दिशों की धूप में।
जब कोई साया नहीं मिलता तो याद आती है माँ॥
प्यार कहते हैं किसे और ममता क्या चीज़ है।
कोई उन बच्चों से पूछे जिनकी मर जाती है माँ॥
सफ़ा-ए-हस्ती पे लिखती है ऊसूल-ए-ज़िन्दगी।
इस लिये एक मक्ताब-ए-इस्लाम कहलाती है माँ॥
इस नई दुनिया को दिये मासूम रहबर इस लिये।
अज़्मतों में सानी-ए-कुरान कहलाती है माँ॥
घर से जब परदेस जाता है कोई नूर-ए-नज़र।
हाथ में कुरान ले कर दर पे आ जाती है माँ॥
दे कर बच्चे को ज़मानत में रज़ा-ए-पाक की।
पीछे पीछे सर झुकाए दूर तक जाती है माँ॥
कांपती आवाज़ से कहती है “बेटा अलविदा”।
सामने जब तक रहे हाथों को लहराती है माँ॥
जब परेशानी में घिर जाते हैं हम कभी परदेस में।
आंसुओं को पोछने ख्वाबों में आ जाती है माँ॥
देर हो जाती है घर आने में अक्सर जब हमें।
रेत पर मचले हो जैसे ऐसे घबराती है माँ॥
मरते दम तक आ सका बच्चा न गर परदेस से।
अपनी दोनों पुतलीयां चौखट पे रख जाती है माँ॥
रज़ा सिरसिवी

इस्लाम की हकीकत

$
0
0

इस्लाम एक ऐसा धर्म है जिसके बारे में समाज में तरह तरह की बातें फैली हुई हैं जिनमे से अधिकतर या तो इसे बदनाम करने के लिए फैलाई गयी हैं या कुछ खुद को पैदायशी मुसलमान कहने वालों की अज्ञानता के कारन फैली हैं | वैसे भी  अच्छे को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी  आदत है |

इस्लाम को बुरा साबित करने की कोशिश करने वालों का मुह बंद करने का आसान तरीका यह है कि इसके बताये कानून पे ईमानदारी से चलके दिखाओ |

इस्लाम धर्म आदम के साथ आया और इसके कानून पे चलने वाला मुसलमान कहलाया |अज्ञानी को ज्ञानी बनाने का काम इस्लाम ने किया | इंसान को अल्लाह ने बनाया और जब हज़रत आदम को दुनिया में भेजा तो कुछ कानून उन्हें बताये ,जैसे कि कैसे जीवन गुजारो ? ऐसे ही एक लाख चौबीस हज़ार पैगम्बर आय और अल्लाह उनके ज़रिये इंसानों को इंसानियत का पैगाम देता रहा | एक इंसान में इर्ष्या ,हसद,लालच,जैसी न जाने कितनी बुराईयाँ हुआ करती हैं और इनपे काबू करते हुई जो अपना जीवन गुज़ार देता है सही मायने में इंसान कहलाता है या कहलें की सही मायने में मुसलमान कहलाता है |

 यह तो कुछ मुल्लाओं ने समाज में फैला दिया है की नमाज़ ,रोज़ा ,हज्ज ,दाढ़ी,का नाम मुसलमान है |जबकि मुसलमान नाम है इस्लाम के बताये कानून पे चलने का और यह कानून बताते हैं की, लोगों पे ज़ुल्म न करो,इमानदार रहो,इर्ष्या ,हसद और लालच से बचो |इस्लाम अपराध करने वाले जालिमो का साथ देने,उनसे सहानभूति करने वालों और ज़ुल्म देख के चुप रहने वालों को भी अपराधी करार देता है |आप कह सकते हैं की इस्लाम न अपराध करने वालों को पसंद करता है और न ही अपराध को बढ़ावा देने वालों को पसंद करता है | यह फ़िक्र करने की बात है कि इंसानियत का सबक सिखाने वाला इस्लाम आज आतंकवादियों के शिकंजे में कैसे फँस गया ?

 इंसान की फितरत है की वो दौलत,शोहरत,ऐश ओ आराम के पीछे भागता है और अल्लाह कहता है की इसके पीछे न भागो वरना जीवन नरक बन जाएगा | हमें बात समझ नहीं आती और हम लगते हैं दूसरों का माल लूटने,दहशत फैलाने ,बलात्कार करने और नतीजे में इंसानियत का क़त्ल होता जाता है |

पैगम्बर इ इस्लाम हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) के इस दुनिया से जाने के बाद ऐसे बहुत से ताक़तवर लोग थे जिनका मकसद था दौलत,शोहरत,ऐश ओ आराम हासिल करना और वही लोग ताक़त और मक्कारी के दम पे बन बैठे इस्लाम के ठेकेदार | नतीजे में हक की राह पे चलने वाले मुसलमानों और गुमराह करने वाले मुसलमानों में आपस में जंग होने लगी | कर्बला की जंग इसकी बेहतरीन मिसाल है | जहां एक तरफ यजीद था जो मुसलमानों का खलीफा बना बैठा था और दुनिया में आतंक फैलता नज़र आता था| ज़ुल्म और आतंक की ऐसी मिसाल आज तक नहीं देखने को मिली | और दुसरी तरफ थे पैगम्बर इ इस्लाम के नवासे इमाम हुसैन (अ.स)जिन्होंने दुनिया को सही इस्लाम सिखाया, इंसानियत और सब्र का पैगाम दिया | नतीजे में उनको जालिमो ने शहीद कर दिया |

 आज भी इस समाज में खुद को मुसलमान कहने वाले दो तरह के लोग हुआ करते हैं | एक वो जो नाम से तो मुसलमान लगते हैं ,नामा,रोज़ा ,हाज ,ज़कात के पाबंद दिखते तो हैं लेकिन इस्लाम के बताये कानून पे नहीं चलते | यह वो लोग हैं जो इस्लाम का साथ तभी तक देते हैं जब तक इनका कोई नुकसान न हो | जैसे ही इनके सामने दौलत ,शोहरत ,औरत आती है यह इस्लाम के बताये कानून को भूल जाते हैं और जब्र से,मक्कारी से,झूट फरेब से दौलत,शोहरत को हासिल कर लिया करते हैं | कुरान में इन्हें मुनाफ़िक़ कहा गया है और इनसे दूर रहने का हुक्म है |ऐसे फरेबियों का हथियार होते हैं समाज के अज्ञानी लोग |

 एक उदाहरण है इस्लाम में परदे का हुक्म| यह सभी जानते हैं की औरत के शरीर की तरफ मर्द का और मर्द के शरीर की तरफ औरत का आकर्षित होना इन्सान की फितरत है | इसी वजह से इस्लाम में इसको उस वक़्त तक छुपाने का हुक्म दिया है जब तक की दोनों को एक दुसरे से शारीरिक सम्बन्ध न बनाना  हो | इस्लाम में शारीरिक सम्बन्ध बनाने  के भी कुछ कानून हैं | 

शायरों को भी कहते सुना जाता है की “चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में,जी चाहता है आग लगा दूँ नक़ाब में | इसका मतलब साफ़ है की पर्दा उसे बुरा लगता है जो औरत के शरीर को खुला देखना चाहता है ॥ इस्लाम में एक दुसरे का “महरम” उसे कहते हैं जिसके साथ शादी न हो सके .जैसे माँ ,बहन,बेटी,दादी,नानी इत्यादि | और जिसके साथ शादी हो सकती है उसे “नामहरम”कहते हैं और नामहरम का एक दुसरे से शरीर का छिपाना आवश्यक है | संसार की सभी सभ्यताओं में ऐसा ही कानून है बस इस परदे का अलग अलग तरीका है |


 वोह औरतें या मर्द जो जानवरों की तरह कहीं भी ,कभी भी, किसी से भी ,शारीरिक सम्बन्ध बना लेने को गलत नहीं समझते यदि अपने शरीर का प्रदर्शन करते दिखाई दें तो बात समझ में आती है लेकिन आश्चर्य तो उस समय होता है जब वो लोग जो इस्लाम के कानून को मानने का दावा करते हैं अपने शरीर का प्रदर्शन करते नजर आते हैं| 

कई बार तो महरम और नामहरम की परिभाषा भी यह बदल देते हैं |कभी किसी नामहरम के करीब जाते हैं तो कहते हैं बेटी जैसी है, कभी कहते हैं बहन जैसी है | वहीं इस्लाम कहता है यह नामहरम है इस से पर्दा करो | “अल्लाह ओ अकबर “ का नारा लगाने वाले ऐसे दो चेहरे वाले मुसलमानों के यहाँ होता वही है जो यह चाहते हैं या जो इनका खुद का बनाया कानून कहता है |क्योंकि सवाल नामहरम औरत की कुर्बत का है| अल्लाह कहता है दूर रहो ,इंसान का दिल कहता है औरत के करीब रहो |जीत इन्सान के दिल की गलत ख्वाहिशों की होती है और नतीजे में कभी बलात्कार होता है कभी व्यभिचार होता है |जब औरत के शरीर के करीब रहने की लालच इंसान को अल्लाह से दूर कर देती है,इस्लाम के कानून को भुला देता है तो दौलत और शोहरत की लालच के आड़े आने वाले इस इस्लाम के कानून को भुला देने में कितनी देर लगेगी | 

 यदि आप को यह पहचानना हो कि यह शख्स इस्लाम को मानने वाला है या नहीं |मुसलमान है या नहीं ? तो उसकेसजदों को न देखो,न ही उसकी नमाज़ों को देखो बल्कि देखो उसके किरदार को ,उसकी सीरत को ,और यदि वो हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) से मिलती हो,या वो शख्स समाज में अमन और शांति फैलाता दिखे या वो शख्स इंसानों मेंआपस में मुहब्बत पैदा करता दिखे तो समझ लेना मुसलमान है | 

ज़ालिम,नफरत का सौदागर कभी मुसमान नहीं हो सकता | 

बुरा इस्लाम नहीं बल्कि उसका इकरार करने के बाद भी उसके कानून को ना मानने वाला इंसान है |

धार्मिक प्रवचनों को केवल कहानियों की तरह न सुने|

$
0
0

इंसान को जीवन में यदि कुछ पाना है तो उसके लिए मेहनत अवश्य करनी होती है लेकिन इन्सान की इच्छा हमेशा यही रही है की उसे कम या बिना मेहनत के सबकुछ मिल जाए |अपनी कम मेहनत और अधिक लाभ की इच्छा को पूरी करने के लिए इन्सान शार्टकट के रास्ते तलाश करने लगता है | कभी छात्र और छात्राएं परीक्षा में नक़ल के रास्ते तलाशने लगते हैं और कभी अपना काम आसानी से करवाने के लिए लोग दफ्तरों में तो रिश्वत खोरों की तलाश करने लगते हैं | कभी हम लाटरी ,इनाम जैसे ईमेल और एस एम् एस के शिकार हो जाते हैं |संक्षेप में कहें तो हमारी यह शार्टकट की सोंच ही भ्रष्टाचार की जननी है |


इसी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए धर्म बने हैं जिसमे हमें सही और गलत की पहचान बताई गयी, पाप और पुण्य के बारे में बताया| हमें अच्छे संस्कार देने की कोशिश धर्म के द्वारा हमेशा से की जाती रही है |

इंसान का स्वभाव यह है कि जो काम उसे कष्ट न दे ,ऐश ओ आराम का जरिया बने उसी और भागता है| धर्म के बताए रास्ते में मेहनत है, कष्ट है इसी कारण हमें धर्म तो पसंद है लेकिन धर्म के बताए रास्ते पसंद नहीं आते | हम मंदिरों और मस्जिदों में जाकर, प्रसाद और चढ़ावे की रिश्वत देने की बात करके ,बिना मेहनत बहुत कुछ पाने की प्रार्थना करना तो पसंद करते हैं लेकिन उसी भगवन, इश्वर के बताये रास्ते पे चलना पसंद नहीं करते |

यही कारण है की हम दोस्तों के बीच बैठ के ,ईमानदारी, सत्यवचन, संस्कारों की बात कर के भगवान के अवतारों, पैगम्बरों के किस्से बयान कर के खुद को बड़ा धार्मिक तो साबित करते हैं लेकिन उन बैटन की अहमियत हमारे जीवन में कहानियों से अधिक कुछ नहीं होती | इस ब्लॉगजगत की ही बात ले लें ऐसे बहुत से ब्लॉग हैं जो संस्कारों की बातें करते हैं ,समाज के हित की बातें करते हैं पढने वाले उनकी तारीफ भी करते हैं लेकिन ऐसे ब्लॉग को पढने में मज़ा नहीं आता | करीबी दोस्तों में बैठते हैं तो कहते हैं भाई बात तो सही कहता है है लेकिन मज़ा नहीं आता रोज़ रोज़ वही संस्कार की बातें सुन के | मज़ा तो आता है उन ब्लॉग पे जहां किसी की टांग खींची जाए,कुछ गरमा गरम झगडे हो रहे हों या फिर शान और शौकत की बात हो |

हम खुद को धार्मिक साबित करने के लिए अपने धर्म के बताये रास्तों पे चलने की जगह धर्म के नाम पे झगडा करना अधिक पसंद करते हैं |हम सत्यवादी लोगो की बातें भी करते हैं ,त्योगारों और ख़ास जगहों पे उनको नमन भी करते हैं लेकिन अपने बच्चों को पूरा इमानदार और सत्यवादी नहीं बनाना चाहते | होता यही है की जीवन में खुद को धार्मिक माने वाले इंसान का भी जब खुद के धर्म के द्वारा दिखाए रास्तों पे चलने का समय आता है तो यह जानते और समझते हुए की इन अवतारों और पैगम्बरों का बताया तरीका ही सही है हम उन रास्तों से अलग हट के अपने फायदे का रास्ता चुन लेते हैं |

इंसान की यही गलती इस समाज में फैले भ्रष्टाचार की जड़ है और इसी के गलती के कारन आज का इंसान अपना सुकून और चैन खोता जा रहा है |
लेखक :एस एम् मासूम 

इस्लाम में इंसान की जान की कीमत

$
0
0

इस्लाम में इंसान की जान की कीमत का अंदाज़ा आप मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना क़ल्बे सादिक की इस विडियो में कही बातों से लगा सकते हैं | डॉ कल्बे सादिक़ फरमाते हैं कि यदि कोई मुस्लिम अपने घर से नहा-धो कर पवित्र होकर यहां तक कि नमाज़ से पहले किया जाने वाला वज़ू कर और रोज़ा रखकर हज करने की गरज़ से अपने घर से बाहर निकलता है और रास्ते में नमाज़ का वक़्त हो जाता है | वहाँ एक नदी किनारे वो नमाज़ पढने लगता है |वह मुसलमान अपने पास हज यात्रा का पासपोर्ट भी अपनी जेब में रखे होता है ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति जोकि ,हिंदू या गैर मुस्लिम है वह किसी नदी में डूब रहा है और उसके मुंह से डूबते वक्त यह आवाज़ भी निकल रही हो कि हे राम मुझे बचाओ। इस अवस्था में उस मुसलमान व्यक्ति पर पहले यह वाजिब है कि वह नमाज़ तोड़ दे और उस डूबते हुए गैर मुस्लिम व्यक्ति की जान बचाने की कोशिश करे। अब यदि वह मुसलमान पानी में कूद कर उसकी जान बचाता है तो पानी में तैरने की वजह से या डुबकी लगाने के कारण उसका रोज़ा भी टूट जाएगा, उसकी जेब में रखा पासपोर्ट भी भीगकर खराब हो जाएगा और वह व्यक्ति हज भी नहीं कर सकेगा। परंतु इस्लाम की नज़र में नमाज़, रोज़ा और हज से ज़्यादा ज़रूरी है किसी इंसान की जान की रक्षा करना। मौलवी कल्बे सादिक़ साहब यह उदाहरण देने के बाद नीम-हकीम मौलवियों व इस्लाम विरोधी दुष्प्रचार करने वालों से एक सवाल यह पूछते हैं कि जो धर्म इंसान की जान की कीमत को सबसे ज़्यादा यहां तक कि हज,रोज़ा व नमाज़ से भी ज़्यादा अहमियत देता हो वह इस्लाम बेगुनाहों की हत्याएं किए जाने, आत्मघाती बम बनाने या इस्लाम के नाम पर दहशत फैलाए जाने की इजाज़त आखिर कैसे दे सकता है?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है की ऐसे मोलवियों के बैटन को मिडिया वाले भी अहमियत कम देते हैं लेकिन नीम हाकिम लालची मुल्लाओं की विवादित व्याख्याओं को सोशल मीडिया द्वारा हाथों-हाथ लिया जाता है |

यह बहुत से लोग  नहीं जानते के हकीकत मैं कुरान मैं क्या है… और यकीनन जो कुरान है वही इस्लाम है…..आज इस बात की ज़रुरत है की इस्लाम को मुहम्मद (स.अव० और उनके घराने की सीरत, किरदार और कुरान की हिदायत से पहचनवाया जाए.

राजशाही और तानाशाही का नाम इस्लाम नहीं है. और आज जो इस्लाम का चेहरा दिखाई  देता है, वो  नकली मुल्लाओं और निरंकुश शासकों के बीच नापाक गठजोड़ का नतीजा है.  जबकि इस इस्लाम के बिगड़े चेहरे का पूरा असर केवल १०% मुसलमानों पे हुआ है और पश्चिमी हुक्मरान ने जाती फायदे  के लिए , इस्लाम मैं आयी उन बुराईयों का , इस्तेमाल इस्लाम और मुस्लमान को बदनाम करने के लिए बखूबी किया.
इस्लाम और आतंकवाद यह दोनों एक दुसरे के विपरीत हैं , लिकिन  आज अफ़सोस की बात है की  मुसलमान के साथ आतंकवाद का  नाम जोड़ा जाता है. यह और बात है की समाज के पढ़े लिखे लोग अब समझने लगे हैं, की आतंकवाद का किसी धर्म विशेष से लेना देता नहीं.

यह शब्द ‘इस्लाम’ शब्द असल मैं शब्द तस्लीम है, जो शांति  से संबंधित है. आज इस्लाम नकली मुल्लाओं की व्याख्या का कैदी बन के रह गया है. नकली मुल्लाओं सम्राटों के हाथ की  कठपुतली हमेशा से रहे हैं. आज यह नेताओं और सियासी पार्टिओं के हाथ की कठपुतली हैं.  अरबी भाषा में अर्थ है मुल्ला जो ज्ञानी, एक उच्च शिक्षित विद्वान है. लेकिन, जो धार्मिक पोशाक पहन ले  और धर्म और शासकों के बीचविद्वानों की तरह  मध्यस्थ के रूप में कार्य करे  , कठमुल्ला   या नकली मुल्ला  कहलाता है. ऐसे लोगों को इस्लाम के बारे में उचित जानकारी नहीं है हालांकि वे दावा करते हैं.

नकली मुल्लाओं को इस्लाम के संदेश को प्रतिबंधित करने की कोशिश की. अल्लाह सिर्फ मुसलमानों का पालने वाला  नहीं है, या फिर सिर्फ उनका पालने वाला  नहीं जो मस्जिदों  मैं नमाजें पढ़  करते हैं, बल्कि अल्लाह सारी कायनात  के हर एक मखलूक का पालने वाला  है. और अल्लाह के नबी मुहम्मद (स.अ.व) सारे इंसानों के लिए रहमत हैं. और इस दुनिया के हर इंसान का, एक दुसरे पे किसी ना किसी प्रकार का हक है.
दोस्तों! इस्लाम, सरकार भी नहीं है बल्कि धर्म है. अगर इस्लाम सरकारी सत्ता का मतलब है, तो पैगंबर मुहम्मद की सबसे बड़े  सम्राट के शीर्षक के साथ सम्मानित किया जाना था. लेकिन उन्हें यह  शीर्षक नहीं दिया गया. उनको पैग़म्बर इ इस्लाम , बन्दा  ऐ   खुदा,अल्लाह का रसूल का खिताब मिला .
सच्चा इस्लाम है जो कि कुरान में पढ़ाया जाता है, और जिसको  पैगंबर मुहम्मद (स) और उनके घराने ने समझाया   ने समझाया, क़ुरबानी दे के.

कुरान ५:३२ मैं कहा गया है की अगर किसी ने एक बेगुनाह इंसान की जन ली तो यह ऐसा हुआ जैसे पूरे इंसानियत का क़त्ल किया और अगर किसी ने एक इंसान की जान बचाई तो उसने पूरी इंसानियत की जान बचाई.

इमाम अली(अ.स) ने जब मालिक  इ अश्तर को मिस्र के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया तो हिदायत दी” मुस्लमान तुम्हारा धर्म भाई है और बाकी सब इंसानियत मैं भाई हैं. तुम दोनों  की मदद करना और फैसला मुसलमानों  का धर्म के आधार पे  करना और दूसरों  का फैसला  उनके, उनकी आम मानवता के आधार पे करना.


इस्लाम के दामन पे इन दुनिया परस्त मुल्लाओं की वजह से,  बहुत से बदनुमा दाग़ लग गए हैं. इनको आज कुरान की सही हिदायतों के ज़रिये धोने की ज़रुरत  है. सैयद ‘अबुल अला Maududi और डॉ. ताहा हुसैन के जैसे   विद्वानों द्वारा दर्ज किया  एक सत्य , की अबू सुफ़िआन ने इस्लाम का इस्तेमाल  राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए इस्लाम को ग़लत तरीके से पेश किया. जो खुल के कर्बला मैं आया जहां यजीद ने  जो की अबू सुफ़िआन का  पोता था और बनू उमीया काबिले से था , इमाम हुसैन (अ.स) को जो की रसूल इ खुदा (स.अव) के नवासे थे और बनुहाशिम  काबिले से थे,  घेर के भूखा प्यासा निर्दयता से शहीद कर दिया, उनके ६ महीने के बच्चे को भी पानी ना पिलाया और गर्दन पे तीर मारा . रसूल इ खुदा(स.अव) के घराने की ओरतों  को सरे बाज़ार घुमाया और यजीद के दरबार मैं ले जा के क़ैद खाने मैं दाल दिया.

यहीं से हक और बातिल का चेहरा खुल के सामने आ गया. क्यूंकि इस्लाम मैं ज़ुल्म करने वाला, उसको देख के चुप रहने वाला, ज़ालिम के हक मैं दुआ करने वाला और ज़ुल्म पे खुश होने वाला , सभी ज़ालिम हैं.  इस्लाम मैं जंग मैं भी, बूढ़े , बच्चे और औरतों को नुकसान पहुँचाने की इजाज़त नहीं है, यहाँ तक की अगर कोई पीठ दिखा जाए तो उसको भी नुकसान पहुँचाने की इजाज़त नहीं. इस्लाम मैं सिर्फ और सिर्फ सामने से हमला करने वाले पे ही हमला किया जा सकता है.

यजीद जिसने यह ज़ुल्म किया अगर खुद को बादशाह कहता तो कोई फर्क नहीं पड़ता था लेकिन अफ़सोस की वोह खुद को मुसलमानों का खलीफा कहता था. और लोगों तक यह पैग़ाम गया की यह ज़ुल्म ही इस्लाम है.
आज यह सच  है की ९०% मुसलमान अबुसुफियान, मुआविया , और यजीद जैसे जालिमों के इस्लाम पे नहीं हैं, और ना ही आज इनको खलीफा का दर्जा हासिल है. लेकिन इस्लाम के दामन पे जो ज़ुल्म के ज़रिये दाग़ लगाया ,उसका नुकसान आज सभी मुसलमान उठा रहे हैं.

लेखक : एस एम् मासूम

मज़हबी साजिशों का शिकार यह समाज|

$
0
0
इधर मैंने कुछ लेख इस्लाम और आज का मुसलमान जैसे विषयों पे लिखे जैसे इस्लाम के दामन में लगा दाग़ ,धर्म और भ्रष्टाचार ,इस्लाम की हकीकत" बहुत से लोगों ने सवाल भी पूछे| कुछ के सवाल इस बात की ओर इशारा करते थे की उनका ज्ञान इस्लाम के बारे में कुरान और सीरत इ रसूल (स.अ.व) की जगह सुनी सुनायी कहानियों पे आधारित है और कुछ को मैंने आज कल की राजनीती का शिकार पाया| कुछ ने तो खुल के यह बात कही की हम दूसरों के धर्म की कमियां निकालते रहेंगे चाहे इसका असर समाज में सही पड़े या गलत पड़े और यह सोंच एक चिंता का विषय है | लेकिन सभी के सवाल अपनी जगह जाएज़ हैं, हकीकत यही है कि आज के युग में किसी भी इंसान को देख के उसके किरदार को देख के यह पता ही नहीं लगता है कि किसी धर्म से इसका कोई ताल्लुक भी है | उनकी धार्मिक किताबें कुछ और कहती हैं और उनका आचरण ,व्यवहार या किरदार कुछ और कहता है | यही हाल मुसलमान का भी है|गुज़रे कुछ सालों से इस्लाम के खिलाफ राजनितिक साजिशें विश्वस्तर पे दखी गयीं और तालिबान ,आतंकवाद जैसे शब्द अधिक सुनने में आने लगे | ज़िया उल हक के पहले तालिबानी कहाँ थे आज कोई नहीं बता सकता | केवल हिंदुस्तान के ही नहीं पूरे विश्व में इस्लाम के खिलाफ फैलाई अफवाहों का असर हुआ और आज आम इंसान को सच में ऐसा लगता है की मुसलमान का मतलब आतंकवादी |

यह एक अफ़सोस की बात है की अधिकतर मुसलमान अमन और शांति से जीना चाहते हैं लेकिन उनकी छवि अमन और शांति को भंग करने वाली बनाई जा रही है | यह भी सत्य है की आज धर्म के नाम पे इंसानों को एक दुसरे का दुश्मन बनाने की साजिश विश्वस्तर पे चलाई जा रही है |हिंदुस्तान में तो मुसलमान विश्व के किसी दुसरे मुल्क के मुकाबले अधिक ख़ुशी से रहता आया है | ऐसे में भारवासियों की यह कोशिश होनी चाहिए एक इन साजिशों से खुद को बचाते हुए अपने भाईचारे को काएम रखें |

मेरी कोशिश यही रहती है की औरों के सामने इस्लाम की सही तस्वीर पेश करूँ और मुसलमानों को भी आइना दिखाओं की देखो गुमराह न हो जाना, किसी के बहकावे में न आना |क्यूंकि अज्ञानता ही सभी झगड़ो और नफरतों की जड़ है |कुरान में तो साफ़ साफ़ कहा है की मुसलमान शक्ल से या नमाज़ों से नहीं सीरत से अच्छे किरदार से बनता है और पहचाना जाता है | इमाम मुहम्मद बाकिर (अ.स) ने कहा की किसी को उसकी नमाज़ों या बड़े बड़े सजदो से न पहचानो बल्कि उसकी सीरत से पहचानो | वैसे भी सूरत अक्सर झूट बोल जाती है |

हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) के वक़्त का एक वाकेया है की एक इंसान उनके पास रोज़ बैठता था और इस्लाम के बारे में जानकारी हासिल करता था | अपने घर जा के कुरान पढता और समझने की कोशिश किया करता था | क्यूंकि उसका बाप इस्लाम पे नहीं था वो उसे रोकता था कभी कभी बुरा भला भी कह देता था | एक दिन जब वो शख्स रसूल इ खुदा (सव) की बज़्म में पहुंचा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था और कुछ परेशां नज़र आ रह था | रसूल ऐ खुदा (स.अ.व) ने उससे इसका कारन पुछा तो उसने कहा | कल जब उसका बाप उसे कुरान पढने से मन कर रह था तो उसे गुस्सा आ गया और उसने अपने बाप पे हाथ उठा दिया |

इतना सुनना था की रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने कहा मेरी बज़्म से चले जाओ और जा के अपने बाप से माफी मांगो |उस शख्स ने कहा अरे रसूल ऐ खुदा (स.अ.व) वो तो काफ़िर है ,इस्लाम पे भी नहीं है मुझे कुरान पढने पे मारता भी है |उस से क्यूँ माफी मांगू |रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने जवाब दिया " वो इस्लाम पे हो या किसी और मज़हब पे इस से तुझे कोई फर्क नही पड़ना चाहिए ,क्यूंकि वो तुम्हारा बाप है और उसे तकलीफ पहुँचाना इस्लाम के कानून के खिलाफ है | अब ज़रा गौर करें उनके बारे में रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) का क्या ख्याल होगा जो खुद को मुसलमान भी कहते हैं और अपने वालेदैन (मा-बाप) को तकलीफ भी पहुंचाते हैं |

एक दूसरा वाकेया भी याद आ रह है जो उस वाकये से मिलता जुलता है जिसे बचपन में स्कूल की किताबों में पढ़ा था | कूड़ा फेकने वाली बुढिया और रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) का |एक बूढी औरत थी जो मक्के में उस दौर में रहती थी जब रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने लोगों को इस्लाम की बातें बतानी शुरू की | उस बूढी औरत को लोगों ने कहा यह कोई जादूगर है ,उससे दूर रहना क्यूँ की वो जिससे बात करता है या जो उससे मिलता है वो उसकी बातों में आ जाता है और इस्लाम को अपना धर्म मान लेता है |वो औरत इस बात से डर गयी और उसने मक्का छोड़ने का फैसला कर लिया | वो अपना सामान ले कर सफ़र पे निकल पडी | सामान वजनी था और औरत बूढी | बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ पा रही थी | उसे रास्ते में एक ख़ूबसूरत शख्स मिला जिसने उसका सामान उठा लिया और बोला कहाँ जाना है बता दो और उस बूढी औरत को उस इलाके के बहार पहुँच दिया |
रास्ते में वो औरत बताए जा रही थी की एक शख्स मक्के में हैं, जादूगर है ,लोगों को गुमराह कर रहा है, इसीलिए वो उस शख्स की पहुँच से दूर जा रही है | जब वो बूढी उस ख़ूबसूरत शख्स की मदद से मंजिल पे पहुँच गयी तो उस औरत ने कहा बेटा  तुमने अपना नाम नहीं बताया ? कौन हो और कहाँ के हो ? उस ख़ूबसूरत शख्स ने जवाब दिया मैं वही मुहम्मद हूँ जिसके बारे में तुम रास्ते में मुझे बता रही थी और जिससे दूर तुम जाना चाह रही हो | उस औरत को बड़ा ताज्जुब हुआ और उसने पुछा की तुम सब कुछ जानते थे फिर भी मुझे मंजिल पे पहुंचा दिया और मेरी इतनी मदद की | क्यूँ ?

रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने कहा इस्लाम में अल्लाह का हुक्म है कि कमज़ोर ,बूढों और मजबूर की मदद करो ,इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो किस धर्म को मानने वाला है |
वो बूढी औरत रसूल ऐ खुदा हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के क़दमो पे गिर पड़ी और कहने लगी जिस धर्म के कानून इतने अच्छे हैं उसे बताने वाला जादूगर या गलत कैसे हो सकता है ?

इन उदाहरण से यह बात साफ़ है की मुसलमान अपनी सीरत से पहचाना जाता है और जिसकी सीरत पैग़म्बर ऐ इस्लाम हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) से जुदा हो वो कुछ भी हो सकता है मुसलमान नहीं हो सकता |
आज के मुसलामो को समझना चाहिए की जैसे वो बूढी औरत लोगों के बहकाने में आ के गुमराह हो गयी और इस्लाम को खराब मज़हब और हज़रात मुहम्मद(स.अ.व) को जादूगर समझने लगी थी वैसे ही आज का आम इंसान भी इस्लाम को गलत समझने लगा है |तुम केवल अपने अच्छे किरदार से और हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) की सीरत पे चल के ही दूसरों की ग़लतफ़हमी को दूर कर सकते हो |धर्म कोई भी हो इंसानियत का पैगाम देता है फिर आज का इंसान नफरतों के बीज बो के क्यों अपने  ही धर्म को बदनाम करता है ?
अमन पसंद इंसान किसी भी धर्म का हो सभी को अच्छा लगता है |



आज अपने एक ब्लॉगर मित्र के शब्द भी यहाँ शामिल कर रहा हूँ आप भी पढ़ें और सुने |
अ-मन अर्थात अपने मन के पूर्वाग्रहों से उत्पन्न वैमनस्य के दमन से ही समाज में अमन की बयार बह सकती है. अपने मन के विचारों को ही उत्कृष्ट मानकर समाज से अपेक्षा करना की पूरा समाज हमारे मनोअनुकूल चले, आपसी द्वेष को बढ़ाने वाला होता है. अमन वहीँ पनपता है जहाँ सभी सच्चे मन से सबके विचारों का आदर करते हुए जीवन जीए, ना की समाज में अपनी अपनी मान्यताओं को थोपने का दुराग्रह रखें...अमित शर्मा

लेखक :एस.एम्.मासूम

मुसलमान आज भी इन साजिशों का शिकार नहीं है|

$
0
0
इस्लाम के सिलसिले में  इन दो लव्जों  फतवा और जिहाद का सबसे अधिक  ग़लत इस्तेमाल हुआ है | इसके ज्यादा ज़िम्मेदार हम मुस्लिम खुद ही हैं| हमने अपनी कौम के नीम हाकिम और बिकाऊ मुल्लाओं को न पहचान के उनका साथ दे के दूसरों को इस बात का मौक़ा दिया की वो इन दो लव्जों जिहाद और फतवा का इस्तेमाल करके इस्लाम का मज़ाक बनाएं | इस्लाम को बदनाम करने के लिए जो साजिश की गयी उसमें इस लव्ज़ जिहाद का इस्तेमाल शायद सबसे अधिक हुआ है | यहाँ आप को बताता चलूँ की यह आतंकवाद और आतंकवादी शब्द और यह तालिबान शब्द का इस्तेमाल पिछले कुछ सालों में सबसे अधिक हुआ है | पाकिस्तान में जिया उल हक के समय में यह तालिबान का वजूद सामने आया |यह सवाल आम इंसान की दिमाग में अवश्य आएगा कि यह तालिबान या कट्टरपंथी पहले कहाँ थे और पहले क्यों नहीं इतने हमले किया करते थे ? जबकि इस्लाम को मुक़म्मल हुए आज १४३३ वर्ष हो चुके हैं |
जिस तरह दुनिया भर में कुछ इंसान किसी भी धर्म के  हो बिक जाया करते हैं और अपने धर्म ,देश को नुकसान पहुँचाया करते हैं | ऐसे लोगों का ईमान सिर्फ पैसा हुआ करता है | इसी तरह मुसलमानों में भी कुछ मुल्ला हैं जो अपना ईमान बेच के पैसे और शोहरत की लालच में ऐसे फतवे दिया करते हैं जिनका इस्लाम के कानून से कुछ लेना देना नहीं हुआ करता |फतवे का आसान सा मतलब है निर्देश | जब कोई मुश्किल मुसलमानों के पास आती है और वो जानना चाहता है की इस्लाम का इस बारे में क्या हुक्म है तो वो किसी इस्लाम के जानकार के पास जाता है और फतवा (निर्देश) लेता है |यह बात मुसलमानों को मालूम होनी चाहिए की इस्लाम में फतवा देने का हक उसी को हुआ करता है जिसके पास इस्लाम के कानून का मुकम्मल ज्ञान हो या कहलें जो मुजतहिद हो और इस्लाम की बारीकियां समझता हो | ऐसे लोग दुनिया में बहुत ही कम हैं और हर मुसलमान को चाहिए की उनकी पहचान करे और इस्लामिक मसलों का हल उन्ही से निकले | हर गली या हर जुमा मस्जिद के मौलवी या सऊदी बादशाहों ,अमीरों को यह हक नहीं की वो इस्लाम के मसलो में फतवे जारी किया करें|यदि ऐसे लोग फतवा जारी किया करते हैं किसी जाती मकसद को पूरा करने के लिए तो मुसलमानों को चाहिए की उसे ना माने और मुजतहिद से संपर्क करें |यदि मुसलमान इस बात को ध्यान में रखेंगे तो कभी गुमराह नहीं होंगे | और इस्लाम भी बदनाम न होगा |

दूसरी बात यह भी ध्यान देने वाली है की इस्लाम में ज़ोर और ज़बरदस्ती नहीं है | कौम के ज्ञानी मुल्ला और मुजतहिद को यह हक है कि आवश्यकता पड़ने पे फतवे जारी करें लेकिन उनको यह हक नहीं की उसे मनवाने के लिए कौम के लोगों पे ज़ोर ज़बरदस्ती करें |क्योंकि इस्लाम में जब्र नहीं बल्कि आज़ादी है | अल्लाह चाहता है की इंसान खुद अपनी मर्ज़ी से इस्लाम को कुबूल करते हुए उसके बताये कानून पे चले क्यूंकि अगर कोई ज़बरदस्ती इस्लाम को कुबूल करता है या उसके कानून को अपनाता है तो यह सही मायने में बंदगी नहीं हुई |

उदाहरण के तौर पे इस्लाम में औरत के लिए ज़रूरी है की वोह मर्दों से पर्दा करे और अपने शरीर की नुमाईश न करे | इस्लाम में ऐसी म्युज़िक जो मदहोश कर दे सुनना और गाना मना है| इस्लाम में अनैतिक संबंधों को बनाने पे सख्त सजा का प्राविधान है | इसी प्रकार से मातापिता की इज्ज़त करना, पड़ोसियों की मदद करना इत्यादि भी इस्लाम में बड़ी अहमियत रखता है | कौम को गुमराही से बचाने के लिए इस्लाम के रहबर मौलवी हजरात फतवे दे या बता सकते हैं लेकिन यदि कोई गुमराह है और उनको नहीं मानता तो इसकी सजा अल्लाह देगा कोई मुल्ला या इंसान आज के युग में ज़ोर ज़बरदस्ती कर के इसे मनवाने की जिद नहीं कर सकता | ईश्वर ने संसार के सभी मनुष्यों को चयन शक्ति दी है। अर्थात हर मनुष्य को यह अधिकार दिया है कि वह सही या गलत मार्ग में से किसी एक मार्ग का चयन करे|यदि ईश्वर लोगों को विवश करता तो फिर भले को भलाई का इनाम और बुरे को बुराई का दंड देना अर्थहीन हो जाता | हाँ यह अवश्य है की इस्लाम में गुमराह और न फरमानों का साथ देने की मनाही है क्यूंकि ऐसा करने पे उनके गुनाह में तुम भी शरीक माने जाओगे | इश्वर ने मनुष्य को बुद्धि जैसा उपहार दिया है जिसकी सहायता से वह भले बुरे की पहचान कर सकता है और यह हर इंसान का फ़र्ज़ है की वो अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए इस्लाम को समझे और सही रहबर ,मुल्ला को चुने |
यहाँ यह भी बताता चलूँ की इस्लाम इस बात पे अधिक जोर देता है की तुम जिस देश में भी रहो वहाँ इस बात का ध्यान रखो कि तुम्हारा ईमान बचा रहे और तुम्हे अपने धर्म के वाजिबात पे चलने में कोई मुश्किल न हो |लेकिन जब किसी अपराध की सजा का मसला आये तो अपने देश के कानून को मानो |जैसे इस्लाम में चोर की सजा कुछ मसलो में हाथ की उँगलियाँ काट देने का भी है या बलात्कारी की सजा मौत भी है लेकिन आपके देश का कानून यदि इसकी सजा केवल जेल भेजना तय करता है तो आप को इस सजा को ही मानना होगा |

इस्लाम के खिलाफ साजिशो में इस फतवे देने का बहुत ही अहम् रोल रहा है | इसकी दलील यह है की कोई इस बात पे फतवा नहीं देता की अपने वतन के प्रति इमानदार रहो वरना इस्लाम से ख़ारिज हो जाओगे | कोई यह फतवा नहीं देता की अपने माता पिता की बेईज्ज़ती न करो वरना वाजिब ऐ क़त्ल हो जाओगे | बस फतवा आपको मिलेगा जिहाद का क्यूंकि मुसलामो को दहशतगर्द साबित करना है और औरतों के परदे पे क्यूंकि इस्लाम को ज़ालिम और औरतों पे ज़ुल्म करने वाला मज़हब करार देना है | आज यह फतवे भी एक साजिश का हिस्सा बनते जा रहे हैं और इन साजिशों का शिकार होता है कम अक्ल और अज्ञानी मुसलमान|

जिहाद को भी यहाँ संछेप में समझाना आवश्यक है |जिहाद दो तरह का होता है पहला जेहाद अल अकबर जो एक अहिंसात्मक संघर्ष है जिसमें आदमी अपने सुधार के लिए प्रयास करता है और इसका उद्देश्य है अपने अंदर की बुरी सोच या बुरी ख़्वाहिशों को दबाना और कुचलना | दूसरा है जेहाद अल असग़र जिसका का उद्देश्य इस्लाम के संरक्षण के लिए संघर्ष करना होता है| जब इस्लाम के अनुपालन की आज़ादी न दी जाए, उसमें रुकावट डाली जाए तो इस जिहाद का इस्तेमाल होता है| लेकिन आज के दौर में इस्लाम के हालत को देखते हुए इस जेहाद अल असग़र का फतवा नहीं दिया जा सकता |और यदि कोई ऐसा फतवा देता है तो वो झूठा है | मुसलमान को केवल इस बात की इजाज़त है की यदि उनपे कोई हमला करे तो उसका जवाब दे सकते हैं |

यह भी एक हकीकत है की आम मुसलमान आज भी इन साजिशों का शिकार नहीं है और समाज में अमन और शांति से रहना चाहता है लेकिन यह ज़हर धीरे धीरे गंभीर रूप न लेने पाए इसलिए जागरूक रहना आवश्यक है | इन साजिशों का मकसद दो हुआ करता है एक तो मुसलमानों के बीच आंतरिक विभाजन और मतभेद को बढ़ाना और गैर मुसलमानों के बीच इस्लाम को दहशतगर्द और ज़ालिम मज़हब करा दे के इंसानों के बीच नफरत के बीज बोना |
आज आवश्यकता है इस बार की के हर इंसान जागरूक रहे और इन शांति और एकता को खंडित करने की कोशिशों को नाकाम बनाये |

युवाओं को सही उम्र में जीवन साथी कैसे मिले?

$
0
0

युवा अवस्था में आते ही एक नयी दुनिया से आमना सामना होने लगता है और ऐसे उत्सुकता वश और अज्ञानता वश युवा गलत राहों पे चल पड़ते हैं | सवाल यह फितरती है की जब किसी युवा में सेक्स की इच्छा कुदरती तौर पे पैदा होने लगी तो उसी पूरा करने का भी कोई साधन होना चाहिए | अल्लाह ने औरत और मर्द के जोड़े बनाये और बालिग़ होते ही उनको आपस में शारीरिक सम्बन्ध बनाने की इजाज़त दे दी और इसके लिए कानून बनाये की कैसे शादी की जाए ?

अल्लाह ने इंसान को इच्छाएं दी और उन्हें पूरा करने का आसान सा शादी का रास्ता भी दिया |हमने अपने सामाजिक तौर तरीकों और अपनी न मुकम्मल सोंच को शामिल कर के इस आसान से रास्ते को मुश्किल बना दिया और आज हाल यह है की एक युवा के दिल में १५-१६ वर्ष से सेक्स की इच्छा आने लगती है और १७-१८ के बाद तो इस्पे काबू करना मुश्किल होने लगता है |और तब शुरू होती है युवा का अपनी शारीरिक ज़रुरत सेक्स को काबू में रखने की जंग | कुछ इस पे काबू रख पते हैं ,कुछ हराम और बुरी आदतों जैसे हस्त मैथुन, समलिंगी सेक्स इत्यादि का शिकार हो जाते हैं |कुछ अनैतिक संबंधो के चक्कर में फँस जाते हैं और बहुतेरे बलात्कार जैसे पाप तक को अंजाम दे डालते हैं |

ऐसा नहीं की जवानी के दिनों में लगी इन बुरी आदतों का सिलसिला शादी के बाद रुक जाता है बल्कि यह एक बीमारी की तरफ शादी शुदा ज़िंदगी को भी बर्बाद कर जाता है | इन पापो का सिलसिला शादी के बाद केवल ३०% लोगों में ही रुक पता है बाकी बीमार बन के हस्त मैथुन, समलिंगी सेक्स और अनैतिक संबंधो के जाल से नहीं निकल पाते और इन्हें इलाज की आवश्यकता पड़ने लगती है |

सेक्स की इच्छा शुरू होती है १५-१६ वर्ष से और शादी आज के सामाजिक बन्धनों के कारन २५-३० वर्ष के बीच होती है और यह १० से १५ वर्ष युवा को बीमार बना जाते हैं और ऐसे गुनाहों में दाल देते हैं जिनका बोझ वो युवा जीवन भर लिए घूमता और अल्लाह से तौबा करता रहता है |

याद रहे ऐसे युवा जिनकी शादी सही उम्र में नहीं हो पाती और गुनाहों में पड़ जाते हैं उसके गुनाहगार उनके माता पिता भी होते हैं और अल्लाह के यहाँ उनको भी जवाब देना होगा |

मेहमान का एहतिराम और इस्लाम

$
0
0

आज मेहमान नवाजी का दस्तूर ख़त्म सा होता जा रहा है और इसका अंदाज़ भी बदलता जा रहा है | मेहमान किसी के घर जब आता था तो वो या तो मुसाफिर हुआ करता था या फिर मुहब्बत या दोस्ती के रिश्ते से बंधा नेक इंसान होता था | आज मेहमान उसे बनाया जाता है जिससे कोई काम फंसा हो या जिसे खुश करना हो और वो भी एकदिन के नाश्ते या खाने का मेहमान | इस्लाम में मेहमान नवाजी की बड़ी अहमियत है और इसका शुमार इखलाक में होता है | आज इस बात की आवश्यकता महसूस की जा रही है लोग मेहमान की अहमियत को समझें और उसके आने को अल्लाह की भेजी नेमत समझें | इस बात को समझाने के लिए पेश करता हूँ इस्लाम के पैगम्बरों और रहबर इमाम (अ.स) के कथन |
  • मेहमान का एहतिराम करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हो।
  • · तुम्हारी दुनियों से तीन चीज़ों को दोस्त रखता हँ, लोगों को मेहमान करना, ख़ुदा की राह में तलवार चलाना और गर्मियों में रोज़ा रखना। (हज़रत अली अ0)
  • ·इख़्लाक़ क्या है : हया, सच बोलना, दिलेरी, साएल को अता करना, खुश गुफ्तारी, नेकी का बदला नेकी से देना, लोगों के साथ रहम करना, पड़ोसी की हिमायत करना, दोस्त का हक़ पहुँचाना और मेहमान की ख़ातिर करना। (इमाम हसन अ0)
  • पैग़म्बरे इस्लाम स0 ने फ़रमाया कि जब अल्लाह किसी बन्दे के साथ नेकी करना चाहता है तो उसे तोहफ़ा भेजता है। लोगों ने सवाल किया कि वह तोहफ़ा क्या है? फ़रमाया : मेहमान, जब आता है तो अपनी रोज़ी लेकर आता है और जब जाता है तो अहले ख़ाना के गुनाहों को लेकर जाता है।
  • · मेहमान राहे बेहिश्त का राहनुमा है। (रसूले ख़ुदा स0)
  • · खाना खिलाना मग़फ़िरते परवरदिगार है। (रसूले ख़ुदा स0)
  • · परवरदिगार खाना खिलाने को पसन्द करता है। (इमाम मो0 बाक़िर अ0)
  • · जो भी ख़ुदा और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखता है उसे चाहिये कि मेहमान का एहतिराम करे। (हदीस)
  • · तुम्हारे घर की अच्छाई यह है कि वह तुम्हारे तन्गदस्त रिश्तादारों और बेचारे लोगों की मेहमानसरा हो। (रसूले ख़ुदा स0)
  • · वो मोमिन नहीं है जो की मेहमान के क़दमों की आवाज़ सुन कर ख़ुश न हों क्यूंकि कि ख़ुदा उसके तमाम गुनाह माफ़ कर देता है जिसके घर मेहमान अआता है चाहे वो गुनाह ज़मीनो-आसमान के दरमियान पुर हों। (हज़रत अली अ0)
  • · अजसाम की कुव्वत खाने में है और अरवाह की कुव्वत खिलाने में है। (हज़रत अली अ0)
  • · (तुम्हारा फ़र्ज़ है) कि नेकी और परहेज़गारी में एक दूसरे की मदद किया करो (सूर-ए-अल माएदा ः 2)

मोमिन की पहचान

$
0
0

अक़वाले मासूमीन (अ0स0) मोमिन की सिफ़त :हदीस — पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि) ने अमीरल मोमेनीन अली (अलाहिस्सलाम ) से फ़रमाया कि मोमिने कामिल में 103 सिफ़तें होती हैं|

और यह तमाम सिफ़ात पाँच हिस्सों में तक़सीम होती हैं,
  • सिफ़ाते फेली,
  • सिफ़ाते अमली,
  • सिफ़ाते नियती और
  • सिफ़ाते ज़ाहिरी व
  • सिफ़ाते बातिनी

इसके बाद अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल वह यह 103 सिफ़ात क्या हैं? हज़रत ने फ़रमाया कि ऐ अली मोमिन के सिफ़ात यह हैं कि वह हमेशा फ़िक्र करता है और खुलेआम अल्लाह का ज़िक्र करता है, उसका इल्म, होसला और तहम्मुल ज़्यादा होता है और दुश्मन के साथ भी अच्छा बर्ताव करता है................।
हदीस की शरह—- यह हदीस हक़ीक़त में इस्लामी अख़लाक़ का एक दौरा है, जिसको रसूले अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम) हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) से ख़िताब करते हुए बयान फ़रमा रहे हैं। जिसका ख़ुलासा पाँच हिस्सों होता है जो यह हैं फ़ेल, अमल, नियत,ज़ाहिर और बातिन।

फ़ेल व अमल में क्या फ़र्क़ है ? फ़ेल एक गुज़रने वाली चीज़ है, जिसको इंसान कभी कभी अंजाम देता है, इसके मुकाबले में अमल है जिसमें इस्तमरार (निरन्तरता) पाया जाता है।
पैगम्बरे अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम) फ़रमाते हैं किः
मोमिन की पहली सिफ़त‘जवालुल फ़िक्र’ है यानी मोमिन की फ़िक्र कभी जामिद व राकिद(रुकना) नही होती बल्कि वह हमेशा फ़िक्र करता रहता है और नये मक़ामात पर पहुँचता रहता है और थोड़े से इल्म से क़ाने नही होता। यहाँ पर हज़रत ने पहली सिफ़त फ़िक्र को क़रार दिया है जो फ़िक्र की अहमियत को वाज़ेह करती है।मोमिन का सबसे बेहतरीन अमल तफ़क्कुर (फ़िक्र करना) है और अबुज़र की बेशतर इबादात तफ़क्कुर थी। अगर हम कामों के नतीजे के बारे में फ़िक्र करें, तो उन मुश्किलात में न घिरें जिन में आज घिरे हुए हैं।
मोमिन की दूसरी सिफ़त‘जवहरियु अज़्ज़िक्र’ है कुछ जगहों पर जहवरियु अज़्ज़िक्र भी आया है हमारी नज़र में दोनों ज़िक्र को ज़ाहिर करने के माआना में हैं। ज़िक्र को ज़ाहिरी तौर पर अंजाम देना क़सदे क़ुरबत के मुनाफ़ी नही है, क्योंकि इस्लामी अहकामात में ज़िक्र जली (ज़ाहिर) और ज़िक्र ख़फ़ी( पोशीदा) दोनो हैं या सदक़ा व ज़कात मख़फ़ी भी है और ज़ाहिरी भी। इनमें से हर एक का अपना ख़ास फ़ायदा है जहाँ पर ज़ाहिरी हैं वहाँ तबलीग़ है और जहाँ पर मख़फ़ी है वह अपना मख़सूस असर रखती है।
मोमिन की तीसरी सिफ़त‘कसीरन इल्मुहु ’ यानी मोमिन के पास इल्म ज़्यादा होता है। हदीस में है कि सवाब अक़्ल और इल्म के मुताबिक़ है।यानी मुमकिन है कि एक इंसान दो रकत नमाज़ पढ़े और उसके मुक़ाबिल दूसरा इंसान सौ रकत मगर इन दो रकत का सवाब उससे ज़्यादा हो, वाकियत यह है कि इबादत के लिए ज़रीब है और इबादत की इस ज़रीब का नाम इल्म और अक़्ल है।
मोमिन की चौथी सिफ़त’अज़ीमन हिल्मुहु ’ है यानी मोमिन का इल्म जितना ज़्यादा होता जाता है उतना ही उसका हिल्म ज़्यादा होता जाता है। एक आलिम इंसान को समाज में मुख़तलिफ़ लोगों से रूबरू होना पड़ता है अगर उसके पास हिल्म नही होगा तो मुश्किलात में घिर जायेगा। मिसाल के तौर पर हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के हिल्म की तरफ़ इशारा किया जा सकता है। ग़ुज़िश्ता अक़वाम में क़ौमे लूत से ज़्यादा ख़राब कोई क़ौम नही मिलती। और उनका अज़ाब भी सबसे ज़ायादा दर्दनाक था। ’ फलम्मा जाआ अमरुना जअलना आलियाहा साफ़िलहा व अमतरना अलैहा हिजारतन मिन सिज्जीलिन मनज़ूद। ‘[2] इस तरह के उनके शहर ऊपर नीचे हो गये और बाद में उन पर पत्थरों की बारिश हुई। इस सब के बावजूद जब फ़रिश्ते इस क़ौम पर अज़ाब नाज़िल करने के लिए आये तो पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में पहुँचे और उनको बेटे की पैदाइश की खुश ख़बरी दी जिससे वह ख़ुश हो गये, बाद में क़ौमें लूत की शिफ़ाअत की। ‘फ़लम्मा ज़हबा अन इब्राहीमा अर्रवउ व जाअतहु अलबुशरा युजादिलुना फ़ी क़ौमि लूतिन0 इन्ना इब्राहीमा लहलीमुन अव्वाहुन मुनीब’ [4] ऐसी क़ौम की शिफ़ाअत के लिए इंसान को बहुत ज़्यादा हिल्म की ज़रूरत है। यह हज़रत इब्राहीम की बुज़ुर्गी, हिल्म और उनके दिल के बड़े होने की निशानी है। बस आलिम को चाहिए कि अपने हिल्म को बढ़ाये और जहाँ तक हो सके इस्लाह करे न यह कि उसको छोड़ दे।
मोमिन की पाँचवी सिफ़त‘जमीलुल मनाज़िअतुन’ है यानी अगर किसी से कोई बहस या बात-चीत करनी होती है तो उसको अच्छे अन्दाज में करता है जंगो जिदाल नही करता। आज हमारे समाज की हालत बहुत हस्सास है। ख़तरा हम से सिर्फ़ एक क़दम के फ़ासले पर है इन हालात में अक़्ल क्या कहती है ? क्या अक़्ल यह कहती है कि हम किसी भी मोज़ू को बहाना बना कर, जंग के एक नये मैदान की बुनियाद डाल दें या यह कि यह वक़्त एक दूसरे की मदद करने और आपस में मुत्तहिद होने का ‘वक़्त’ है ?
सिफ़ाते मोमिन
((वह करीमाना अन्दाज़ में मिलता है, उसका सीना सबसे ज़्यादा कुशादा होता है, वह बहुत ज़्यादा मुतवाज़े होता है, वह ऊँची आवाज़ में नही हसता और जब वह लोगों के दरमियान होता है तो तालीम व ताल्लुम करता))
मोमिन की छटी सिफ़त‘करीमुल मुराजिअः ’ है यानी वह करीमाना अनदाज़ में मिलता जुलता है। इस में दो एहतेमाल पाये जाते हैं।
1- जब लोग उससे मिलने आते हैं तो वह उन के साथ करीमाना बर्ताव करता है। यानी अगर वह उन कामों पर क़ादिर होता है जिन की वह फ़रमाइश करते हैं तो या उसी वक़्त उसको अंजाम दे देता है या यह कि उसको आइंदा अंजाम देने का वादा कर लेता है और अगर क़ादिर नही होता तो माअज़ेरत कर लेता है। क़ुरआन कहता है कि ‘क़ौलुन माअरूफ़ुन व मग़िफ़िरतुन ख़ैरुन मिन सदक़तिन यतबउहा अज़न’[5]
2- या यह कि जब वह लोगों से मिलने जाता है तो उसका अन्दाज़ करीमाना होता है। यानी अगर किसी से कोई चीज़ चाहता है तो उसका अन्दाज़ मोद्देबाना होता है, उस चीज़ को हासिल करने के लिए इसरार नही करता, और सामने वाले को शरमिन्दा नही करता।
मोमिन की सातवी सिफ़त‘औसाउ अन्नासि सदरन ’ है यानी उसका सीना सबसे ज़्यादा कुशादा होता है। क़ुरआन सीने की कुशादगी के बारे में फ़रमाता है कि ‘फ़मन युरिदि अल्लाहु अन यहदियाहु यशरह सदरहु लिल इस्लामि व मन युरिद अन युज़िल्लाहुयजअल सदरहु ज़य्यिक़न हरजन...। ‘[6] अल्लाह जिसकी हिदायत करना चाहता है(यानी जिसको क़ाबिले हिदायत समझता है) इस्लाम क़बूल करने के लिए उसके सीने को कुशादा कर देता है और जिसको गुमराह करना चाहता है(यानी जिसको क़ाबिले हिदायत नही समझता) उसके सीने को तंग कर देता है।
‘सीने की कुशादगी’ के क्या माअना है ? जिन लोगों का सीना कुशादा होता है वह सब बातों को(नामुवाफ़िक़ हालात, मुश्किलात, सख़्त हादसात..) बर्दाश्त करते हैं। बुराई उन में असर अन्दाज़ नही होती है,वह जल्दी नाउम्मीद नही होते, इल्म, हवादिस, व माअरेफ़त को अपने अन्दर समा लेते हैं, अगर कोई उनके साथ कोई बुराई करता है तो वह उसको अपने ज़हन के एक गोशे में रख लेते हैं और उसको उपने पूरे वजूद पर हावी नही होने देते। लेकिन जिन लोगों के सीने तंग हैं अगर उनके सामने कोई छोटीसी भी नामुवाफ़िक़ बात हो जाती है तो उनका होसला और तहम्मुल जवाब दे जाते है।
मोमिन का आठवी सिफ़त‘अज़ल्लाहुम नफ़्सन’ है अर्बी ज़बान में ‘ज़िल्लत’ के माअना फ़रोतनी व ‘ज़लूल’ के माअना राम व मुतीअ के हैं। लेकिन फ़ारसी में ज़िल्लत के माअना रुसवाई के हैं बस यहाँ पर यह सिफ़त फ़रोतनी के माअना में है। यानी मोमिन के यहाँ फ़रोतनी बहुत ज़्यादा पाई जाती है और वह लोगों से फ़रोतनी के साथ मिलता है। सब छोटों बड़ो का एहतेराम करता है और दूसरों से यह उम्मीद नही रख़ता कि वह उसका एहतेराम करें।
मोमिन की नौवी सिफ़त‘ज़हकाहु तबस्सुमन’ है। मोमिन बलन्द आवाज़ में नही हँसता है। रिवायात में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.) कभी भी बलन्द आवाज़ में नही हँसे। बस मोमिन का हँसना भी मोद्देबाना होता है।
मोमिन की दसवी सिफ़त‘इजतमाउहु तल्लुमन ’ है। यानी मोमिन जब लोगों के दरमियान बैठता है तो कोशिश करता है कि तालाम व ताल्लुम में मशग़ूल रहे और वह ग़ीबत व बेहूदा बात चीत से जिसमें उसके लिए कोई फ़ायदा नही होता परहेज़ करता है।
(( मोमिन वह इंसान है जो ग़ाफ़िल लोगों को आगाह() करता है, जाहिलों को तालीम देता है, जो लोग उसे अज़ीयत पहुँचाते हैं वह उनको नुक़्सान नही पहुँचाता, जो चीज़ उससे मरबूत नही होती उसमें दख़ल नही देता, अगर उसको नुक़्सान पहुँचाने वाला किसी मुसिबत में घिर जाता है तो वह उसके दुख से खुश नही होता और ग़ीबत नही करता। ))
मोमिन की ग्यारहवी सिफ़त‘मुज़क्किरु अलग़ाफ़िल’ है। यानी मोमिन ग़ाफ़िल (अचेत) लोगों को मतवज्जेह करता है। ग़ाफ़िल उसे कहा जाता है जो किसी बात को जानता हो मगर उसकी तरफ़ मुतवज्जह न हो। जैसे जानता हो कि शराब हराम है मगर उसकी तरफ़ मुतवज्जेह न हो।
मोमिन की बारहवी सिफ़त‘मुअल्लिमु अलजाहिलि ’ है। यानी मोमिन जाहिलों को तालीम देता है। जाहिल, ना जानने वाले को कहा जाता है। ग़ाफिल को मुतवज्जेह करने, जाहिल को तालीम देने और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर में क्या फ़र्क़ है ?
इन तीनों वाजिबों को एक नही समझना चाहिए। ‘ग़ाफ़िल’ उसको कहते हैं जो हुक्म को जानता है मगर मुतवज्जेह नही है( मोज़ू को भूल गया है) मसलन जानता है कि ग़ीबत करना गुनाह है लेकिन इससे ग़ाफ़िल हो कर ग़ीबत में मशग़ूल हो गया है।’जाहिल’ वह है जो हुक्म को ही नही जानता और हम चाहते हैं कि उसे हुक्म के बारे में बतायें। जैसे – वह यह ही नही जानता कि ग़ीबत हराम है। अम्र बिल मारूफ़ नही अनिल मुनकर वहाँ पर है जहाँ मोज़ू और हुक्म के बारे में जानता हो यानी न ग़ाफ़िल हो न जाहिल। इन सब का हुक्म क्या है ?
‘ग़ाफ़िल’ यानी अगर कोई मोज़ू से ग़ाफ़िल हो और वह मोज़ू मुहिम न हो तो वाजिब नही है कि हम उसको मुतवज्जेह करें। जैसे- नजिस चीज़ का खाना। लेकिन अगर मोज़ू मुहिम हो तो मुतवज्जेह करना वाजिब है जैसे- अगर कोई किसी बेगुनाह इंसान का खून उसको गुनाहगार समझते हुए बहा रहा हो तो इस मक़ाम पर मुतवज्जेह करना वाजिब है। ‘जाहिल’ जो अहकाम से जाहिल हो उसको तालीम देनी चाहिए और यह वाजिब काम है।
‘अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर’ अगर कोई इंसान किसी हुक्म के बारे में जानता हो व ग़ाफिल भी न हो और फिर भी गुनाह अंजाम दे तो हमें चाहिए कि उसको नर्म ज़बान में अम्र व नही करें।
यह तीनों वाजिब हैं मगर तीनों के दायरों में फ़र्क़ पाया जाता है। और अवाम में जो यह कहने की रस्म हो गई है कि ‘मूसा अपने दीन पर, ईसा अपने दीन पर’ या यह कि ’ मुझे और तुझे एक कब्र में नही दफ़नाया जायेगा’ बेबुनियाद बात है। हमें चाहिए कि आपस में एक दूसरे को मुतवज्जेह करें और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर से ग़ाफ़िल न रहें। यह दूसरों का काम नही है। रिवायात में मिलता है कि समाज में गुनाहगार इंसान की मिसाल ऐसी है जैसे कोई किश्ती में बैठ कर अपने बैठने की जगह पर सुराख करे और जब उसके इस काम पर एतराज़ किया जाये तो कहे कि मैं तो अपनी जगह पर सुराख कर रहा हूँ। तो उसके जवाब में कहा जाता है कि इसके नतीजे में हम सब मुश्तरक (सम्मिलित) हैं अगर किश्ति में सुराख़ होगा तो हम सब डूब जायेंगे। रिवायात में इसकी दूसरी मिसाल यह है कि अगर बाज़ार में एक दुकान में आग लग जाये और बाज़ार के तमाम लोग उसको बुझाने के लिए इक़दाम करें तो वह दुकानदार यह नही कह सकता कि तुम्हे क्या मतलब यह मेरी अपनी दुकान है, क्योँकि उसको फौरन सुन ने को मिलेगा कि हमारी दुकानें भी इसी बाज़ार में हैं मुमकिन है कि आग हमारी दुकान तक भी पहुँच जाये। यह दोनों मिसालें अम्र बिल मारूफ व नही अनिल मुनकर के फ़लसफ़े की सही ताबीर हैं। और इस बात की दलील, कि यह सब का फ़रीज़ा है यह है कि समाज में हम सबकी सरनविश्त मुश्तरक है।
मोमिन की तेरहवी सिफ़त-‘ला युज़ी मन युज़ीहु’ है। यानी जो उसको अज़ीयत देते हैं वह उनको अज़ीयत नही देता। दीनी मफ़ाहीम में दो मफ़हूम पाये जाते हैं जो आपस में एक दूसरे से जुदा है।।
1- अदालत- अदालत के माअना यह हैं कि ‘मन ऐतदा अलैकुम फ़अतदू अलैहि बिमिसलिन मा ऐतदा अलैकुम’ यानी तुम पर जितना ज़ुल्म किया है तुम उससे उसी मिक़दार में तलाफ़ी करो।
2- फ़ज़ीलत- यह अदल से अलग एक चीज़ है जो वाक़ियत में माफ़ी है। यानी बुराई के बदले भलाई और यह एक बेहतरीन सिफ़त है जिसके बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि ‘युअती मन हरूमहु व यअफ़ु मन ज़लमहु युसिल मन क़तअहु’ जो उसे किसी चीज़ के देने में दरेग़ करता है उसको अता करता है, जो उस पर ज़ुल्म करता है उसे माफ़ करता है, जो उससे क़तअ ताल्लुक़ करता है उससे मिलता है। यानी जो मोमिने कामिल है वह अदालत को नही बल्कि फ़ज़ीलत को इख़्तियार करता है। (अपनाता है।)
मोमिन की चौदहवी सिफ़त-‘वला यख़ुज़ु फ़ी मा ला युअनीहु ‘है यानी मोमिने वाक़ई उस चीज़ में दख़ालत नही करता जो उससे मरबूत न हो। ‘मा ला युअनीहु’ ‘मा ला युक़सिदुहु’ के माअना में है यानी वह चीज़ आप से मरबूत नही है। एक अहम मुश्किल यह है कि लोग उन कामों में दख़ालत करते हैं जो उनसे मरबूत नही है।हुकुमती सतह पर भी ऐसा ही है। कुछ हुकुमतें दूसरों के मामलात में दख़ालत करती हैं।
मोमिन की पन्दरहवी सिफ़त-‘व ला युश्मितु बिमुसिबतिन’ है। ज़िन्दगी में अच्छे और बुरे सभी तरह के दिन आते हैं। मोमिन किसी को परेशानी में घिरा देख कर उसको शमातत नही करता यानी यह नही कहता कि’ देखा अल्लाह ने तुझ को किस तरह मुसिबत में फसाया मैं पहले ही नही कहता था कि ऐसा न कर’ क्योंकि इस तरह बातें जहाँ इंसान की शुजाअत के ख़िलाफ़ हैं वहीँ ज़ख्म पर नमक छिड़कने के मुतरादिफ़ भी। अगरचे मुमकिन है कि वह मुसिबत उसके उन बुरे आमाल का नतीजा ही हों जो उसने अंजाम दिये हैं लेकिन फिर भी शमातत नही करनी चाहिए, क्योंकि हर इंसान की ज़िन्दगी में सख़्त दिन आते हैं क्या पता आप खुद ही कल किसी मुसीबत में घिर जाओ।
मोमिन की सौलहवी सिफ़त-’व ला युज़करु अहदन बिग़िबतिन’ है। यानी वह किसी का ज़िक्र भी ग़िबत के साथ नही करता। ग़ीबत की अहमियत के बारे में इतना ही काफ़ी है कि मरहूम शेख मकासिब में फ़रमाते हैं कि अगर ग़ीबत करने वाला तौबा न करे तो दोज़ख में जाने वाला पहला नफ़र होगा, और अगर तौबा करले और तौबा क़बूल हो जाये तब भी सबसे आख़िर में जन्नत में वारिद होगा। ग़ीबत मुसलमान की आबरू रेज़ी करती है और इंसान की आबरू उसके खून की तरह मोहतरम है और कभी कभी आबरू खून से भी ज़्यादा अहम होती है।
——————————————————————-हवाले————————————————————————
[1] बिहारुल अनवार जिल्द 64 बाब अलामातुल मोमिन हदीस 45पेज न. 310 [2] सूरए हूद /82 [3] सूरए हूद/ 74-75
[4] बिहारूल अनवार जिल्द 64/310 [5] सूरए बक़रः/263 [6] सूरए अनआम/125 [7] बिहारुल अनवार जिल्द 46/310
——————————————————————————————————————————————
((मोमिन हराम चीज़ों से बेज़ार रहता है, शुबहात की मंज़िल पर तवक़्क़ुफ़ करता है और उनका मुरतकिब नही होता, उसकी अता बहुत ज़्यादा होती है, वह लोगों को बहुत कम अज़ीयत देता है, मुसाफ़िरों की मदद करता है और यतीमों का बाप होता है।))
हदीस की शरह-
मोमिन की सतरहवी सिफ़त-’ बरीअन मिन अलमुहर्रिमात’ है, यानी मोमिन वह है जो हराम से बरी और गुनाहसे बेज़ार है। गुनाह अंजाम न देना और गुनाह से बेज़ार रहना इन दोनों बातों में फ़र्क़ पाया जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो गुनाह में लज़्ज़त तो महसूस करते हैं मगर अल्लाह की वजह से गुनाह को अंजाम नही देते। यह हुआ गुनाह अंजाम न देना, मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो तहज़ीबे नफ़्स के ज़रिये इस मक़ाम पर पहुँच जाते हैं कि उनको गुनाह से नफ़रत हो जाती है और वह गुनाह से हरगिज़ लज़्ज़त नही लेते बस यही गुनाह से बेज़ारी है। और इंसान को उस मक़ाम पर पहुँचने के लिए जहाँ पर अल्लाह की इताअत से लज़्ज़त और गुनाह से तनफ़्फ़ुर पैदा हो बहुत ज़्यादा जहमतों का सामना करना पड़ता है।
मोमिन की अठ्ठारहवी सिफ़त-’ वाक़िफ़न इन्दा अश्शुबहात’ है। यानी मोमिन वह है जो शुबहात के सामने तवक़्क़ुफ़ करता है। शुबहात मुहर्रेमात का दालान है और जो भी शुबहात का मुर्तकिब हो जाता है वह मुहर्रेमात में फ़स जाता है। शुबहात बचना चाहिए क्योंकि शुबहात उस ठलान मानिन्द है जो किसी दर्रे के किनारे वाक़ेअ हो। दर वाक़ेअ शुबहात मुहर्रेमात का हरीम (किसी इमारत के अतराफ़ का हिस्सा) हैं लिहाज़ा उनसे इसी तरह बचना चाहिए जिस तरह ज़्यादा वोल्टेज़ वाली बिजली से क्योंकि अगर इंसान मुऐय्यन फ़ासले की हद से आगे बढ़ जाये तो वह अपनी तरफ़ खैंच कर जला डालती है इसी लिए उसके लिए हरीम(अतराफ़ के फासले) के क़ाइल हैं। कुछ रिवायतों में बहुत अच्छी ताबीर मिलती है जो बताती हैं कि लोगों के हरीम में दाखिल न हो ताकि उनके ग़ज़ब का शिकार न बन सको। बहुत से लोग ऐसे हैं जो मंशियात का शिकार हो गये हैं शुरू में उन्होंने तफ़रीह में नशा किया लेकिन बाद में बात यहाँ तक पहुँची कि वह उसके बहुत ज़्यादा आदि हो गये।

मोमिन की उन्नीसवी सिफ़त-‘कसीरुल अता ’ है। यानी मोमिन वह है जो कसरत से अता करता है यहाँ पर कसरत निस्बी है(यानी अपने माल के मुताबिक़ देना) मसलन अगर एक बड़ा अस्पताल बनवाने के लिए कोई बहुत मालदार आदमी एक लाख रुपिये दे तो यह रक़म उसके माल की निस्बत कम है लेकिन अगर एक मामूली सा मुंशी एक हज़ार रूपिये दे तो सब उसकी तारीफ़ करते हैं क्योकि यह रक़म उसके माल की निस्बत ज़्यादा है। जंगे तबूक के मौक़े पर पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने इस्लामी फ़ौज की तैय्यारी के लिए लोगों से मदद चाही लोगों ने बहुत मदद की इसी दौरान एक कारीगर ने इस्लामी फ़ौज की मदद करने के लिए रात में इज़ाफ़ी काम किया और उससे जो पैसा मिला वह पैग़म्बर (स.) की खिदमत में पेश किया उस कम रक़म को देख कर मुनाफ़ेक़ीन ने मज़ाक़ करना शुरू कर दिया फौरन आयत नाज़िल हुई
‘अल्लज़ीना यलमिज़ूना अलमुत्तव्विईना मिनल मुमिनीना फ़ी अस्सदक़ाति व अल्लज़ीना ला यजिदूना इल्ला जुह्दा हुम फ़यसख़रूना मिन हुम सख़िरा अल्लाहु मिन हुम व लहुम अज़ाबुन अलीमुन।’[2] जो लोग उन पाक दिल मोमेनीन का मज़ाक़ उड़ाते है जो अपनी हैसियत के मुताबिक़ कुमक करते हैं, तो अल्लाह उन का मज़ाक़ उड़ाने वालों का मज़ाक़ उड़ाता है। पैग़म्बर (स.) ने फरमाया अबु अक़ील अपनी खजूर इन खजूरों पर डाल दो ताकि तुम्हारी खजूरों की वजह से इन खजूकरों में बरकत हो जाये।

मोमिन की बीसवी सिफ़त-’ क़लीलुल अज़ा ’ है यानी मोमिन कामिलुल ईमान की तरफ़ से अज़ीयत कम होती है इस मस्अले को वाज़ेह करने के लिए एक मिसाल अर्ज़ करता हूँ । हमारी समाजी ज़िन्दगीं ऐसी है अज़यतों से भरी हुई है। नमूने के तौर पर घर की तामीर जिसकी सबको ज़रूरत पड़ती है, मकान की तामीर के वक़्त लोग तामीर के सामान ( जैसे ईंट, पत्थर, रेत, सरिया...) को रास्तों में फैला कर रास्तों को घेर लेते हैं जिससे आने जाने वालों को अज़ियत होती है। और यह सभी के साथ पेश आता है लेकिन अहम बात यह है कि समाजी ज़िन्दगी में जो यह अज़ियतें पायी जाती हैं इन को जहाँ तक मुमकिन हो कम करना चाहिए। बस मोमिन की तरफ़ से नोगों को बहुत कम अज़ियत होती है।
मोमिन की इक्कीसवी सिफ़त-‘औनन लिल ग़रीब’ है। यानी मोमिन मुसाफ़िरों की मदद करता है। अपने पड़ौसियों और रिश्तेदारों की मदद करना बहुत अच्छा है लेकिन दर वाक़ेअ यह एक बदला है यानी आज मैं अपने पड़ौसी की मदद करता हूँ कल वह पड़ौसी मेरी मेरी मदद करेगा। अहम बात यह है कि उसकी मदद की जाये जिससे बदले की उम्मीद न हो लिहाज़ा मुसाफ़िर की मदद करना सबसे अच्छा है।
मोमिन की बाइसवी सिफ़त-‘अबन लिल यतीम’ है। यानी मोमिन यतीम के लिए बाप की तरह होता है। पैग़म्बर ने यहाँ पर यह नही फरमाया कि मोमिन
यतीमों को खाना खिलाता है, उनसे मुहब्बत करता है बल्कि फरमाया मोमिन यतीम के लिए बाप होता है। यानी वह तमाम काम जो एक बाप अपने बच्चे के लिए अंजाम देता है, मोमिन यतीम के लिए अंजाम देता है। यह तमाम अख़लाक़ी दस्तूर सख़्त मैहौल में बयान हुए और इन्होंने अपना असर दिखाया। हम उम्मीदवार हैं कि अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ाक़ दे और हम इन सिफ़ात पर तवज्जुह देते हुए कामिलुल ईमान बन जायें।
((मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा औक पत्थर से ज़यादा सख़्त होता है, जो लोग उसको अपने राज़ बता देते हैं वह उन राज़ो को आशकार नही करता और अगर ख़ुद से किसी के राज़ को जान लेता है तो उसे भी ज़ाहिर नही करता है।))
हदीस की शरह-मोमिन की तेइसवी सिफ़त-‘अहला मिन अश्शहद’ है। मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा होता है यानी दूसरों के साथ उसका सलूक बहुत अच्छा होता है। आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम और ख़ास तौर पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बारे में मशहूर है कि आपकी नशिस्त और मुलाक़ातें बहुत शीरीन हुआ करती थीं, आप अहले मीज़ाह और लतीफ़ बातें करने वाले थे। कुछ लोग यह ख़्याल हैं कि इंसान जितना ज़्यादा मुक़द्दस हो उसे उतना ही ज़्यादा तुर्शरू होना चाहिए। जबकि वाक़ियत यह है कि इंसान के समाजी, सियासी, तहज़ीबी व दिगर पहलुओं में तरक़्क़ी के लिए जो चीज़ सबसे ज़्यादा असर अंदाज़ है वह नेक सलूक ही है। कभी-कभी सख्त से सख्त मुश्किल को भी नेक सलूक, मुहब्बत भरी बातों और ख़न्दा पेशानी के ज़रिये हल किया जासकता है। नेक सलूक के ज़रिये जहाँ उक़्दों को हल और कदूरत को पाक किया जासकता है, वहीँ ग़ुस्से की आग को ठंडा कर आपसी तनाज़ों को भी ख़त्म किया जा सकता है। पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि ‘अक्सरु मा तलिजु बिहि उम्मती अलजन्नति तक़वा अल्लाहि व हुसनुल ख़ुल्क़ि।’ [4] मेरी उम्मत के बहुत से लोग जिसके ज़रिये जन्नत में जायेंगे वह तक़वा और अच्छा अखलाक़ है।
मोमिन की चौबीसवी सिफ़त- ‘अस्लदा मिन अस्सलदि ‘है यानी मोमिन पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है। कुछ लोग ‘अहला मिन अश्शहद’ मंज़िल में हद से बढ़ गये हैं और ख़्याल करते हैं कि खुश अखलाक़ होने का मतलब यह है कि इंसान दुश्मन के मुक़ाबले में भी सख़्ती न बरते। लेकिन पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि मोमिन शदह से ज़्यादा शीरीन तो होता है लेकिन सुस्त नही होता, वह दुश्मन के मुक़ाबले में पहाड़ से ज़्यादा सख़्त होता है। रिवायत में मिलता है कि मोमिन दोस्तों में रहमाउ बैनाहुम और दुश्मन के सामने अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार का मिसदाक़ होता है। मोमिन लोहे से भी ज़्यादा सख़्त होता है (अशद्दु मिन ज़बरिल हदीद व अशद्दु मिनल जबलि) चूँकि लोहे और पहाड़ को तराशा जा सकता है लेकिन मोमिन को तराशा नही जा सकता। जिस तरह हज़रत अली (अ.) थे,लेकिन एक गिरोह ने यह बहाना बनाया कि क्योंकि वह शौख़ मिज़ाज है इस लिए ख़लीफ़ा नही बन सकते जबकि वह मज़बूत और सख़्त थे। लेकिन जहाँ पर हालात इजाज़त दें इंसान को ख़ुश्क और सख़्त नही होना चाहिए, क्यों कि जो दुनिया में सख़्ती करेगा अल्लाह उस पर आख़िरत में सख़्ती करेगा।

मोमिन की पच्चीसवी सिफ़त-’ला यकशिफ़ु सिर्रन ’ है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता , राज़ों को फ़ाश करने के क्या माअना हैं ? हर इंसान की ख़सूसी ज़िन्दगी में कुछ राज़ पाये जाते हैं जिनके बारे में वह यह चाहता है कि वह खुलने न पाये होते हैं । क्योंकि अगर वह राज़ खुल जायेगें तो उसको ज़िन्दगी में बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अगर कोई इंसान अपने राज़ को किसी दूसरे से बयान करदे तो और कहे कि ‘अल मजालिसु अमानात’ यानी यह बाते जो यहाँ पर हुई हैं अपके पास अमानत हैं, तो यह राज़ है और इसको किसी दूसरे के सामने बयान नही करना चाहिए। रिवायात में तो यहाँ तक आया है कि अगर कोई आप से बात करते हुए इधर उधर इस वजह से देखता रहे कि कोई दूसरा न सुन ले, तो यह राज़ की मिस्ल है चाहे वह न कहे कि यह राज़ है। मोमिन का राज़ मोमिन के खून की तरह मोहतरम है लिहाज़ा किसी मोमिन के राज़ को ज़ाहिर नही करना चाहिए।

मोमिन की छब्बीसवी सिफ़त-‘ला युहतकु सितरन ’ है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता। हतके सित्र (राज़ो का फ़ाश करना) कहाँ पर इस्तेमाल होता है इसकी वज़ाहत इस तरह की जासकती है कि अगर कोई इंसान अपना राज़ मुझ से न कहे बल्कि मैं खुद किसी तरह उसके राज़ के बारे में पता लगालूँ तो यह हतके सित्र है। लिहाज़ा ऐसे राज़ को फ़ाश नही करना चाहिए, क्यों कि हतके सित्र और उसका ज़ाहिर करना ग़ीबत की एक क़िस्म है। और आज कल ऐसे राज़ों को फ़ाश करना एक मामूलसा बन गया है। लेकिन हमको इस से होशियार रहना चाहिए अगर वह राज़ दूसरों के लिए नुक़्सान देह न हो और ख़ुद उसकी ज़ात से वाबस्ता हो तो उसको ज़ाहिर नही करना चाहिए। लेकिन अगर किसी ने निज़ाम, समाज, नामूस, जवानो, लोगों के ईमान... के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है तो उस राज़ को ज़ाहिर करने में कोई इशकाल नही है। जिस तरह अगर ग़ीबत मोमिन के राज़ की हिफ़ाज़ से अहम है तो विला मानेअ है इसी तरह हतके सित्र में भी अहम और मुहिम का लिहाज़ ज़रूरी है। अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
((मोमिन की हरकतें लतीफ़, उसका दीदार शीरीन और उसकी इबादत ज़्यादा होती हैं, उससे सुबुक हरकतें सरज़द नहीं होती और उसमें मोहब्बत व आतिफ़त पायी जाती है।))
हदीस की शरह-
मोमिन की सत्ताइसवी सिफ़त-’लतीफ़ुल हरकात’ होना है। यानी मोमिन के हरकातो सकनात बहुत लतीफ़ होते हैं और वह अल्लाह की मख़लूक़ के साथ मुहब्बत आमेज़ सलूक करता है।

मोमिन की अठ्ठाइसवी सिफ़त-‘हुलुवुल मुशाहिदह ’ होना है। यानी मोमिन हमेशा शाद होता है वह कभी भी तुर्श रू नही होता।

मोमिन की उनत्तीसवी सिफ़त-‘कसीरुल इबादत ’ है। यानी मोमिन बहुत ज़्यादा इबादत करता है। यहाँ पर एक सवाल पैदा होता है और वह यह कि इबादत से रोज़ा नमाज़ मुराद है या इसके कोई और माअना हैं? इबादत की दो क़िस्में हैं- इबादत अपने खास माअना में- यह वह इबादत है कि अगर इसमें क़स्द क़ुरबत न किया जाये तो बातिल हो जाती है। इबादत अपने आम माअना में- हर वह काम कि अगर उसको क़स्द क़ुरबत के साथ किया जाये तो सवाब रखता हो मगर क़स्दे क़ुरबत उसके सही होने के लिए शर्त न हो। इस सूरत में तमाम कामों को इबादत का लिबास पहनाया जा सकता है। इबादत रिवायत में इसी माअना में हो सकती है।
मोमिन की तीसवीं सिफ़त- ‘हुस्नुल वक़ार’ है। यानी मोमिन छोटी और नीची हरकतें अंजाम नही देता। विक़ार या वक़ार का माद्दा वक़र है जिसके माअना संगीनी के हैं।
मोमिन की इकत्तीसवीं सिफ़त- ‘लय्यिनुल जानिब ’ है। यानी मोमिन में मुहब्बत व आतेफ़त पायी जाती है। ऊपर ज़िक्र की गईं पाँच सिफ़तों में से चार सिफ़तें लोगों के साथ मिलने जुलने से मरबूत हैं।लोगों से अच्छी तरह मिलना और उनसे नेक सलूक करना बहुत ज़्यादा अहमियत का हामिल है। इससे मुख़ातेबीन मुतास्सिर होते हैं चाहे दीनी अफ़राद हों या दुनियावी। दुश्मन हमारे माथे पर तुन्द ख़ुई का कलंक लगाने के लिए कोशा है लिहाज़ा हमें यह साबित करना चाहिए कि हम जहाँ ’ अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार है ‘वहीँ ‘रहमाउ बैनाहुम’ भी हैं। आइम्मा-ए- मासूमान अलैहिमुस्सलाम की सीरत में मिलता है कि वह उन ग़ैर मुस्लिम अफ़राद से भी मुहब्बत के साथ मिलते थे जो दर पैये क़िताल नही थे। नमूने के तौर पर, तारीख़ में मिलता है कि एक मर्तबा हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक यहूदी के हम सफ़र थे। और आपने उससे फ़रमा दिया था कि दो राहे पर पहुँच कर तुझ से जुदा हो जाऊँगा। लेकिन दो राहे पर पहुँच कर भी जब हज़रत उसके साथ चलते रहे तो उस यहूदी ने कहा कि आप ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं, हज़रत ने उसके जवाब में फ़रमाया कि अपने दीन के हुक्म के मुताबिक हमसफ़र के हक़ को अदा करने के लिए थोड़ी दूर तेरे साथ चल रहा हूँ। आपका यह अमल देख कर उसने ताज्जुब किया और मुस्लमान हो गया। इस्लाम के एक सादे से हुक्म पर अमल करना बहुत से लोगों के मुसलमान बनने इस बात का सबब बनता है। (यदख़ुलु फ़ी दीनि अल्लाहि अफ़वाजन) लेकिन अफ़सोस है कि कुछ मुक़द्दस लोग बहुत ख़ुश्क इंसान हैं और वह अपने इस अमल से दुश्मन को बोलने का मौक़ा देते हैं जबकि हमारे दीन की बुनियाद तुन्दखुई पर नही है। क़ुरआने करीम में 114 सूरेह हैं जिनमें से 113 सूरेह अर्रहमान अर्रहीम से शुरू होते हैं। यानी 1/114 तुन्दी और 113में रहमत है।
दुनिया में दो तरीक़े के अच्छे अखलाक़ पाये जाते हैं। रियाकाराना अखलाक़ (दुनियावी फ़ायदे हासिल करने के लिए) मुख़लेसाना अखलाक़ (जो दिल की गहराईयों से होता है) पहली क़िस्म का अख़लाक यूरोप में पाया जाता है जैसे वह लोग हवाई जहाज़ में अपने गाहकों को खुश करने के लिए उनसे बहुत मुहब्बत के साथ पेश आते हैं, क्योंकि यह काम आमदनी का ज़रिया है। वह जानते हैं कि अच्छा सलूक गाहकों को मुतास्सिर करता है।
दूसरी क़िस्म का अख़लाक़ मोमिन की सिफ़त है। जब हम कहते हैं कि मोमिन का अखलाक बहुत अच्छा है तो इसका मतलब यह है कि मोमिन दुनयावी फ़ायदे हासिल करने के लिए नही बल्कि आपस में मेल मुहब्बत बढ़ाने के लिए अख़लाक़ के साथ पेश आता है। क़ुरआने करीम में हकीम लुक़मान के क़िस्से में उनकी नसीहतों के तहत ज़िक्र हुआ है ‘व ला तुसाअइर ख़द्दका लिन्नासि व ला तमशि फ़िल अरज़े मरहन...’[6] ‘तुसाअइर’ का माद्दा ‘सअर’ है और यह एक बीमारी है जो ऊँटों में पाई जाती है । इस बीमारी की वजह से ऊँटो की गर्दन दाहिनी या बाईँ तरफ़ मुड़ जाती है। आयत फ़रमा रही है कि गर्दन मुड़े बीमार ऊँट की तरह न रहो और लोगों की तरफ़ से अपने चेहरे को न मोड़ो । इस ताबीर से मालूम होता है कि बद अख़लाक़ अफ़राद एक क़िस्म की बीमारी में मुबतला हैं। आयत के आख़िर में बयान हुआ है कि तकब्बुर के साथ राह न चलो।
——————————————————————-हवाले————————————————————————
[1] बिहारूल अनवार जिल्द 64/310 [2] सूरए तौबा आयत न. 79 [3] बिहारूल अनवार जिल्द 64 पोज न. 310 [4] बिहारूल अनवार जिल्द 68 बाब हुस्नुल ख़ुल्क़ पोज न. 375 [5]बिहारुल अनवार जिल्द 64 पेज न. 310 [6] सूरए लुक़मान आयत न. 18
——————————————————————————————————————————————
कुछ अहादीस के मुताबिक़ 25 ज़ीक़ादह रोज़े ’ दहुल अर्ज़ ’ और इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के मदीने से तूस की तरफ़ सफ़र की तारीख़ है। ‘दह्व’के माअना फैलाने के हैं। कुरआन की आयत ’ व अलअर्ज़ा बअदा ज़ालिका दहाहा ‘[1] इसी क़बील से है। ज़मीन के फैलाव से क्या मुराद हैं ? और इल्मे रोज़ से किस तरह साज़गार है जिसमें यह अक़ीदह पाया जाता है कि ज़मीन निज़ामे शम्सी का जुज़ है और सूरज से जुदा हुई है? जब ज़मीन सूरज से जुदा हुई थी तो आग का एक दहकता हुआ गोला थी, बाद में इसकी भाप से इसके चारों तरफ़ पानी वजूद में आया जिससे सैलाबी बारिशों का सिलसिला शुरू हुआ और नतीजे में ज़मीन की पूरी सतह पानी में पौशीदा हो गई। फिर आहिस्ता आहिस्ता यह पानी ज़मीन में समा ने लगा और ज़मीन पर जगह जगह खुशकी नज़र आने लगी। बस ’ दहुल अर्ज़ ’ पानी के नीचे से ज़मीन के ज़ाहिर होने का दिन है। कुछ रिवायतों की बिना पर सबसे पहले खाना-ए- काबा का हिस्सा जाहिर हुआ। आज का जदीद इल्म भी इसके ख़िलाफ़ कोई बात साबित नही हुई है। यह दिन हक़ीक़त में अल्लाह की एक बड़ी नेअमत हासिल होने का दिन है कि इस दिन अल्लाह ने ज़मीन को पानी के नीचे से ज़ाहिर कर के इंसान की ज़िंदगी के लिए आमादह किया। कुछ तवारीख़ के मुताबिक़ इस दिन इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने मदीने से तूस की तरफ़ सफर शुरू किया और यह भी हम ईरानियों के लिए अल्लाह एक बड़ी नेअमत है। क्योंकि आपके क़दमों की बरकत से यह मुल्क आबादी, मानवियत, रूहानियत और अल्लाह की बरकतों के सर चशमे में तबदील हो गया। अगर हमारे मुल्क में इमाम की बारगाह न होती तो शियों के लिए कोई पनाहगाह न थी। हर साल तक़रीबन 1,5000000 अफ़राद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम से तजदीदे बैअत के लिए आपके रोज़े पर जाकर ज़ियारत से शरफयाब होते हैं। आप की मानवियत हमारे पूरे मुल्क पर साया फ़िगन है और हम से बलाओं को दूर करती है। बहर हाल आज का दिन कई वजहों से एक मुबारक दिन है। मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि वह हमको इस दिन की बरकतों से फ़ायदा उठाने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।

((मोमिने कामिलुल ईमान जाहिलों के जहल के मुक़ाबिल बुरदुबार और बुराईयों के मुक़ाबिल बहुत ज़्यादा सब्र करने वाला होता है, वह बुज़ुर्गों का एहतराम करता है और छोटों के साथ मुहब्बत से पेश आता है।))
हदीस की शरह- मोमिन की बत्तीसवीं सिफ़त-’हलीमन इज़ा जहला इलैह’ है। यानी वह जाहिलों के जहल के सामने बुरदुबारी से काम लेता है अगर कोई उसके साथ बुराई करता है तो वह उसकी बुराई का जवाब बुराई से नही देता।
मोमिन की तैंतीससवीं सिफ़त-‘सबूरन अला मन असा इलैह ’ है। यानी अगर कोई मोमिन के साथ अमदन बुरा सलूक करता है तो वह उस पर सब्र करता है। पहली सिफ़त में और इस सिफ़त में यह फ़र्क़ पाया जाता है कि पहली सिफ़त में ज़बान की बुराई मुराद है और इस सिफ़त में अमली बुराई मुराद है।
इस्लाम में एक क़ानून पाया जाता है और एक अखलाक़, क़ानून यह है कि अगर कोई आपके साथ बुराई करे तो आप उसके साथ उसी अन्दाज़े में बुराई करो। क़ुरआन में इरशाद होता है कि ‘फ़मन एतदा अलैकुम फ़आतदू अलैहि बिमिसलि मा आतदा अलैकुम..।’[3] यानी जो तुम पर ज़्यादती करे तुम उस पर उतनी ही ज़्यादती करो जितनी उसने तुम पर की है। यह क़ानून इस लिए है ताकि बुरे लोग बुरे काम अंजाम न दें। लेकिन अख़लाक़ यह है कि न सिर्फ़ यह कि बुराई के बदले में बुराई न करो बल्कि बुराई का बदला भलाई से दो। क़ुरआन फ़रमाता है कि ‘इज़ा मर्रु बिल लग़वि मर्रु किरामन’[4] या ‘इदफ़अ बिल्लति हिया अहसनु सय्यिअता’[5] यानी आप बुराई को अच्छाई के ज़रिये ख़त्म कीजिये। या ‘व इज़ा ख़ातबा हुम अल जाहिलूना क़ालू सलामन’[6] जब जाहल उन से ख़िताब करते हैं तो वह उन्हें सलामती की दुआ देते हैं।
मोमिन की चौंतीसवीं सिफ़त-’युबज्जिलुल कबीरा’ है। यानी मोमिन बुज़ुर्गों की ताज़ीम करता है। बुज़ुर्गों के एहतराम के मस्अले को बहुतसी रिवायात में बयान किया गया है। मरहूम शेख़ अब्बासे क़ुम्मी ने ‘सफ़ीनतुल बिहार’ में एक रिवायत नक़्ल की है कि ‘मन वक़्क़रा शैबतिन लि शैबतिहि आमनुहु अल्लाहु तआला मन फ़ज़ाअ यौमिल क़ियामति ‘[7] जो किसी बुज़ुर्ग का एहतराम उसकी बुज़ुर्गी की वजह से करे तो अल्लाह उसे रोज़े क़ियामत के अज़ाब से महफ़ूज़ करेगा। एक दूसरी रिवायत में मिलता है कि ‘इन्ना मिन इजलालि अल्लाहि तआला इकरामु ज़ी शीबतिल मुस्लिम ‘[8] यानी अल्लाह तआला की ताअज़ीम में से एक यह है कि बुज़ुर्गों का एहतराम करो।
मोमिन की पैंतीसवीं सिफ़त-‘युराह्हिमु अस्सग़ीरा ’ है। यानी मोमिन छोटों पर रहम करता है। यानी मुहब्बत के साथ पेश आता है।
मशहूर है कि जब बुज़ुर्गों के पास जाओ तो उनकी बुज़ुर्गी की वजह से उनका एहतराम करो और जब बच्चो के पास जाओ तो उनका एहतराम इस वजह से करो कि उन्होंने कम गुनाह अंजाम दिये हैं। (हदीस अन इब्ने उमर क़ाला ‘ख़तबना रसूलुल्लाहि ख़ुतबतन ज़रफ़त मिनहा अलअयूनु व वजिलत मिनहा अलक़ुलूबु फ़काना मिम्मा ज़बत्तु मिन्हा:अय्युहन्नासु,इन्ना अफ़ज़ला अन्नास अब्दा मन तवाज़अ अन रफ़अति ,व ज़हिदा अन रग़बति, व अनसफ़ा अन क़ुव्वति व हलुमा अन क़ुदरति……।’[1])
(((तर्जमा — इब्ने उमर से रिवायत है कि पैगम्बर (स.) ने हमारे लिए एक ख़ुत्बा दिया उस ख़ुत्बे से आँखों मे आँसू आगये और दिल लरज़ गये। उस ख़ुत्बे का कुछ हिस्सा मैंने याद कर लिया जो यह है ‘ऐ लोगो अल्लाह का बोहतरीन बन्दा वह है जो बलन्दी पर होते हुए इन्केसारी बरते, दुनिया से लगाव होते हुए भी ज़ोह्ज इख़्तियार करे, क़ुवत के होते हुए इंसाफ़ करे और क़ुदरत के होते हुए हिल्मो बुरदुबारी से काम ले।)))
हदीस के इस हिस्से से जो अहम मस्ला उभर कर सामने आता है वह यह है कि तर्के गुनाह कभी क़ुदरत न होने की बिना पर होता है और कभी गुनाह में दिलचस्पी न होने की वजह से। जैसे- किसी को शराब असलन पसंद न हो या पसंद तो करता हो मगर उसके पीने पर क़ादिर न हो या शराब नोशी के मुक़द्दमात उसे मुहय्या न हो या उसके नुक़्सानात की वजह से न पीता हो। जिस चीज़ को क़ुदरत न होने की बिना पर छोड़ दिया जाये उसकी कोई अहमियत नही है बल्कि अहमियत इस बात की है कि इंसान क़ुदरत के होते हुए गुनाह न करे। और पैगम्बर (स.) के फ़रमान के मुताबिक़ समाज में उँचे मक़ाम पर होते हुए भी इन्केसार हो।[2]
तर्के गुनाह के सिलसिले में लोगों की कई क़िस्में हैं। लोगों का एक गिरोह ऐसा हैं जो कुछ गुनाहों से ज़ाती तौर पर नफ़रत करता हैं और उनको अंजाम नही देता। लिहाज़ा हर इंसान को अपने मक़ाम पर ख़ुद सोचना चाहिए की वह किस हराम की तरफ़ मायल है ताकि उसको तर्क कर सके। अलबत्ता अपने आप को पहचानना कोई आसान काम नही है। कभी कभी ऐसा होता है कि इंसान में कुछ सिफ़ात पाये जाते हैं मगर साठ साल का सिन हो जाने पर भी इंसान उनसे बेख़बर रहता है क्योंकि कोई भी अपने आप को तनक़ीद की निगाह से नही देखता। अगर कोई यह चाहता है कि मानवी कामों के मैदान में तरक़्क़ी करे और ऊँचे मक़ाम पर पहुँचे तो उसे चाहिए कि अपने आप को तनक़ीद की निगाह से देखे ताकि अपनी कमज़ोरियों को जान सके।इसी वजह से कहा जाता है कि अपनी कमज़ोरियों को जान ने के लिए दुश्मन और तनक़ीद करने वाले (न कि ऐबों को छुपाने वाले) दिल सोज़ दोस्त का सहारा लो। और इन सबसे बेहतर यह है कि इंसान अपनी ऊपर ख़ुद तनक़ीद करे। अगर इंसान यह जान ले कि वह किन गुनाहों की तरफ़ मायल होता है, उसमें कहाँ लग़ज़िश पायी जाती है और शैतान किन वसाइल व जज़बात के ज़रिये उसके वजूद से फ़ायदा उठाता है तो वह कभी भी शैतान के जाल में नही फस सकता। इसी वजह से पैगम्बर (स) ने फरमाया है कि ‘सबसे बरतर वह इंसान है जो रग़बत रखते हुए भी ज़ाहिद हो, क़ुदरत के होते हुए भी मुंसिफ़ हो और अज़मत के साथ मुतावाज़ेअ हो।’
यह पैग़ाम सब के लिए, खास तौर पर अहले इल्म अफ़राद के लिए, इस लिए कि आलिम अफ़राद अवाम के पेशवा होते हैं और पेशवा को चाहिए कि दूसरों लोगों को तालीम देने से पहले अपनी तरबीयत आप करे। इंसान का मक़ाम जितना ज़्यादा बलन्द होता है उसकी लग़ज़िशें भी उतनी ही बड़ी होती हैं। और जो काम जितना ज़्यादा हस्सास होता है उसमें ख़तरे भी उतने ही ज़्यादा होता है। ‘अलमुख़लिसूना फ़ी ख़तरिन अज़ीमिन।’ मुख़लिस अफ़राद के लिए बहुत बड़े ख़तरे हैं। इंसान जब तक जवान रहता है हर गुनाह करता रहता है और कहता है कि बुढ़ापे में तौबा कर लेंगे। यह तौबा का टालना और तौबा में देर करना नफ़्स और शैतान का बहाना है। या यह कि इंसान अपने नफ़ेस से वादा करता है कि जब रमज़ान आयेगा तो तौबा कर लूगाँ। जबकि बेहतर यह है कि अगर कोई अल्लाह का मेहमान बनना चाहे तो उसे चाहिए कि पहले अपने आप को (बुराईयों) से धो डाले और बदन पर (तक़वे) का लिबास पहने और फिर मेहमान बनने के लिए क़दम बढ़ाये, न यह कि अपने गंदे लिबास(बुराईयों) के साथ शरीक हो।[3]
——————————————————————-हवाले————————————————————————
[1] बिहारूल अनवार जिल्द 74/179 [2] क़ुरआने मजीद ने सच्चे मोमिन की एक सिफ़त तवाज़ोअ (इन्केसारी) के होने और हर क़िस्म के तकब्बुर से ख़ाली होने को माना है। क्योंकि किब्र व ग़रूर कुफ़्र और बेईमानी की सीढ़ी का पहला ज़ीना है। और तवाज़ोअ व इन्केसारी हक़ और हक़ीक़त की राह में पहला क़दम है। [3] आलिमे बुज़ुर्गवार शेख बहाई से इस तरह नक़्ल हुआ है कि ‘तौबा’ नाम का एक आदमी था जो अक्सर अपने नफ़्स का मुहासबा किया करता था। जब उसका सिन साठ साल का हुआ तो उसने एक दिन अपनी गुज़री हुआ ज़िन्दगी का हिसाब लगाया तो पाया कि उसकी उम्र 21500 दिन हो चुकी है उसने कहा कि: वाय हो मुझ पर अगर मैंने हर रोज़ एक गुनाह ही अंजाम दिया हो तो भी इक्कीस हज़ार से ज़्यादा गुनाह अंजाम दे चुका हूँ। क्या मुझे अल्लाह से इक्कीस हजार से ज़्यादा गुनाहों के साथ मुलाक़ात करनी चाहिए? यह कह कर एक चीख़ मारी और ज़मीन पर गिर कर दम तोड़ दिया। (तफ़्सीरे नमूना जिल्द/24 /465)

कुरान क्या है ?

$
0
0

हमें ज्ञात है कि वर्तमान विकसित और औद्योगिक जगत में जो वस्तु भी बनाई जाती है उसके साथ उसे बनाने वाली कंपनी द्वारा एक पुस्तिका भी दी जाती है जिसमें उस वस्तु की तकनीकी विशेषताओं और उसके सही प्रयोग की शैली का उल्लेख होता है। इसके साथ ही उसमें उन बातों का उल्लेख भी किया गया होता है जिनसे उस वस्तु को क्षति पहुंचने की आशंका होती है।

 हम और आप ही नहीं बल्कि सारे ही मनुष्य, वास्तव में एक अत्यधिक जटिल व विकसित मशीन है जिसे सक्षम व शक्तिशाली ईश्वर ने बनाया है और हम अपने शरीर व आत्मा की जटिलताओं और कमज़ोरियों के कारण सम्पूर्ण आत्मबोध और कल्याण के मार्ग के चयन में सक्षम नहीं है। तो क्या हम एक टीवी या फ़्रिज से भी कम महत्व रखते हैं? टीवी और फ़्रिज बनाने वाले तो उसके साथ मार्ग दर्शक पुस्तिका देते हैं किंतु हमारे लिए कोई ऐसी किताब नहीं है? क्या हम मनुष्यों को किसी प्रकार की मार्गदर्शक पुस्तिका की आवश्यकता नहीं है कि जो हमारे शरीर और आत्मा की निहित व प्रकट विशेषताओं को उजागर कर सके या जिसमें उसके सही प्रयोग के मार्गों का उल्लेख किया गया हो और यह बताया गया हो कि कौन सी वस्तु मनुष्य के शरीर और उसकी आत्मा के विनाश का कारण बनती है?

 क्या यह माना जा सकता है कि ज्ञान व प्रेम के आधार पर हमें बनाने वाले ईश्वर ने हमें अपने हाल पर छोड़ दिया है और हमें सफलता व कल्याण का मार्ग नहीं दिखाया है?

 पवित्र क़ुरआन वह अंतिम किताब है जिसे ईश्वर ने मार्गदर्शन पुस्तक के रूप में भेजा है। इसमें कल्याण व मोक्ष और इसी प्रकार से विनाश व असफलता के कारणों का उल्लेख किया गया है।
 पवित्र क़ुरआन में सही पारिवारिक व सामाजिक संबंधों, क़ानूनी व नैतिक मुद्दों, शारीरिक व आत्मिक आवश्यकताओं, व्यक्तिगत व सामाजिक कर्तव्यों, विभिन्न समाजों की रीतियों व कुरीतियों, आर्थिक व व्यापारिक सिद्धान्तों तथा बहुत से ऐसे विषयों का वर्णन किया गया है जो व्यक्ति या समाज के कल्याण या विनाश में प्रभावी हो सकते हैं।

 यद्यपि क़ुरआन में युद्धों, लड़ाइयों और अतीत की बहुत सी जातियों के रहन-सहन के बारे में बहुत सी बातों का उल्लेख किया गया है किंतु क़ुरआन कोई कथा की किताब नहीं है बल्कि हमारे जीवन के लिए एक शिक्षाप्रद किताब है।

 इसीलिए इस किताब का नाम क़ुरआन है अर्थात पाठ्य पुस्तक। ऐसी किताब जिसे पढ़ना चाहिए। अलबत्ता केवल ज़बान द्वारा नहीं क्योंकि यह तो पहली कक्षा के छात्रों की पढ़ाई की शैली है बल्कि इसे चिन्तन व विचार के साथ पढ़ना चाहिए क्योंकि क़ुरआन में भी इसी का निमंत्रण दिया गया है।
 एक बात या एक वाक्य को आयत कहते हैं और इसी प्रकार कई आयतों के समूह को एक सूरा कहते हैं। पवित्र क़ुरआन में ११४ सूरे हैं।

जेहाद की आयात ८:६०-६४ को जानिए |

$
0
0

इस्लाम के बारे में साजिशों के तहत बहुत सी अफवाहें उडाई गयी औत झूटी बातें समाज में फैलाई गयी |  ८:६०-६४  आयतें कुरान के सूरए अन्फ़ाल की हैं |और इनमे यह होदायत दी जा रही है की दुश्मन के मुकाबले खुद को मज़बूत बनाओ और पहले से तैयारी कर के रखो | इस बात का इंतज़ार मत करो की दुश्मन हमला करेगा तब हम तैयारी करेंगे | ध्यान रही यह आयतें हमले के पहले तैयारी के लिए कह रही हैं हमले के पहले दुश्मन पे हमला करने को नहीं कह रही हैं |

आसान से शब्दों में यह समझ लें की यह आयतें वैसी ही हिदायत दे रही हैं जैसे कोई भी देश अपनी सुरछा के लिए पहले से तैयार रहता है | आज बहुत से मुल्क अपनी ताक़त का इज़हार अपनी फ़ौज की ताक़त और उनके हथियार दिखा के करते हैं क्यूंकि उनकी ताक़त देख के दुश्मन उनपे हमला करने की हिम्मत न करे | यही तरीका इस्लाम में भी है की खुद को इतना निडर मज़बूत बना के रखो की दुश्मन हमला करने की सोंचे ही नहीं और यदि कोई दुश्मन हमला कर दे तो अवश्य उसका जवाब बहादुरी से दो |

किसी भी आयात को समझने के लिए यह आवश्यक है की उस पूरे सूरा को पढ़ा जाए जिसकी आयात (एक वाक्य )का जिक्र किया जा रहा है | केवल एक वाक्य का जिक्र गुमराह करने के लिए किया जाया करता है क्योंकि उस से उस आयात के मायने ही बदल जाते हैं |

अब सीधे आयातों के तर्जुमे  और उसकी तफसील  को देखें |

और तुम लोग शत्रुओं से मुक़ाबले के लिए जहां तक हो सके, शक्ति और सवारी के घोड़े तैयार रखो ताकि इसके द्वारा ईश्वर के शत्रुओं, अपने शत्रुओं और इसके अतिरिक्त उन (शत्रुओं) को (भी) भयभीत कर सको। जिन्हें तुम नहीं जानते (किन्तु) ईश्वर जानता है। और ईश्वर के मार्ग में तुम जो कुछ भी ख़र्च करोगे उसका (पूरा पूरा) बदला तुम्हें मिलेगा और तुम पर कोई अत्याचार नहीं होगा। (8:60)

यह आयात किस का जिक्र कर रही है |
मदीना नगर के यहूदियों ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम से की गई संधि को तोड़ दिया था और मक्के के अनेकेश्वरवादियों से मिलकर उन्होंने मुसलमानों के विरुद्ध षड्यंत्र रचा। इसी कारण पैग़म्बरे इस्लाम ने भी घोषणा कर दी कि जब तुम ने संधि को तोड़ दिया है तो हम भी उसका पालन नहीं करेंगे।यह आयत पैग़म्बर और मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है कि इस्लामी जगत की सामरिक तैयारी ऐसी होनी चाहिए कि शत्रु भयभीत हो जाए और मुसलमानों पर आक्रमण का विचार भी न करे। इसी कारण यह आयत मुसलमानों को आदेश देती है कि वे इस्लाम की रक्षा के लिए जिनता संभव हो सके शक्ति से संसाधन जुटाएं। उन्हें जान लेना चाहिए कि इस्लाम की प्रतिरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए वे जितना धन ख़र्च करेंगे ईश्वर उतना ही, बल्कि उससे अधिक पारितोषिक उन्हें देगा।
इस आयत से हमने सीखा कि हमें शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा में नहीं रहना चाहिए कि उसके पश्चात स्वयं को सशक्त बनाने का प्रयास करें बल्कि इससे पूर्व ही हमें इस प्रकार तैयार रहना चाहिए कि शत्रु आक्रमण का विचार ही मन में न लाए।


यदि वे शांति की ओर झुकाव रखते हों तो आज भी (इसके लिए) झुक जाएं और ईश्वर पर भरोसा रखें कि निसंदेह, वह (सब कुछ) सुनने वाला और जानकार है। (8:61) और यदि वे आपको धोखा देना चाहें तो ईश्वर आप (की रक्षा) के लिए पर्याप्त है। वही तो है जिसने अपनी सहायता और ईमान वालों (के समर्थन) द्वारा आपकी सहायता की। (8:62)

पिछली आयत में शत्रु के हर प्रकार के षड्यंत्र के मुक़ाबले में तैयार रहने हेतु मुसलमानों को आदेश देने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि यह मत सोचो कि हम तुम्हें युद्ध का निमंत्रण दे रहे हैं। यह सब शत्रु को आक्रमण से रोकने के उपाय हैं न कि उस पर आक्रमण करने के, अतः यदि शत्रु आक्रमण के विचार से बाहर निकले किन्तु शांति और संधि में रूचि प्रकट करे तो तुम भी ईश्वर पर भरोसा करते हुए उसे स्वीकार कर लो और शांति के समझौते पर हस्ताक्षर कर दो। तुम इस बात से कदापि भयभीत न हो कि शत्रु तुम्हें धोखा दे सकता है क्योंकि ईश्वर तुम्हारा समर्थक है और वह जहां कहीं ये देखेगा कि शत्रु धोखा देना चाहता है उसे विफल बना देगा। अलबत्ता मनुष्य को भोला नहीं होना चाहिए और बिना समीक्षा के किसी भी शांति समझौते को स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए। दूसरी बात यह है कि सीमा से अधिक कड़ाई भी नहीं करनी चाहिए कि धोखे की संभावना के चलते शांति के हर प्रस्ताव को रद्द कर दिया जाए। ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए कि जो ईमान वालों का वास्तविक समर्थक है।

इन आयतों से हमने सीखा कि प्रतिरक्षा की शक्ति इतनी अधिक होनी चाहिए कि शत्रु मुसलमानों पर आक्रमण के स्थान पर उनसे शांति और संधि का प्रयास करे।
इस्लाम युद्ध प्रेमी नहीं है और बल्कि शक्तिशाली होने के बावजूद शांति प्रस्ताव स्वीकार करने की सिफ़ारिश करता है।


और ईश्वर ने ईमान वालों के हृदयों में (एक दूसरे के प्रति) प्रेम उत्पन्न कर दिया और यदि जो कुछ धरती में है सब कुछ आप ख़र्च कर देते तो भी इनके हृदयों में ऐसा प्रेम उत्पन्न नहीं कर सकते थे किन्तु ईश्वर ने इनके बीच प्रेम उत्पन्न कर दिया है कि निसंदेह, वह प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (8:63) हे पैग़म्बर! आपके लिए ईश्वर और ईमान वाले अनुयाई पर्याप्त हैं। (8:64)

पैग़म्बरे इस्लाम को ईश्वरीय सहायताएं देने के विषय को आगे बढ़ाते हुए यह आयत उन्हें संबोधित करते हुए कहती है कि यह मुसलमान जो आज आप के साथ हैं, इस्लाम से पूर्व इनके बीच इतना द्वेष और इतनी शत्रुता थी कि यदि आप धरती की समस्त संपत्ति ख़र्च कर देते तब भी इनकी शत्रुता को समाप्त करके इनके बीच प्रेम उत्पन्न नहीं कर सकते थे। किन्तु ईश्वर, इस्लाम की छत्रछाया में इनके हृदयों को निकट ले आया और उन्होंने आपसी शत्रुता को छोड़ दिया और सबके सब आपके अनुयाई बन गए। तो हे पैग़म्बर आप शत्रु के धोखे की ओर से चिंतित न हों कि ईश्वर और यह एकजुट ईमान वाले आपके सहायक और समर्थक हैं।इन आयतों से हमने सीख कि ईमान की छाया में ईश्वर सभी दिलों को आपस में जोड़ देता है और द्वेष को उनके बीच से समाप्त कर देता है।
प्रेम और एकता ईश्वर की अनुकंपाओं में से और ईमान वालों की निशानियों में से है। इस्लामी समुदाय को इस्लामी समाज के नेता का समर्थक और सहायक होना चाहिए ताकि शत्रु को दोनों के बीच दराड़ का आभास न होने पाए।


हे पैग़म्बर, आप ईमान वालों को जेहाद के लिए तैयार करें। यदि आप में से बीस लोग भी धैर्यवान हुए तो दो सौ लोगों पर विजयी हो जाएंगे और यदि सौ होंगे तो काफ़िरों के हज़ार लोगों पर विजयी हो जाएंगे क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो (ईमान की शक्ति को) नहीं समझते। (8:65)

पिछले आयतों में हमने बताया था कि ईश्वर ने पैग़म्बर और ईमान वालों को काफ़िरों की ओर से प्रस्तावित शांति संधि को स्वीकार करने का निमंत्रण देते हुए कहा था कि यदि शत्रु ने शांति का प्रस्ताव दिया तो उसे स्वीकार कर लो और उसके परिणामों से न घबराओ कि ईश्वर तुम्हारा समर्थक है। यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहती है कि किन्तु यदि शत्रु शांति न चाहता हो बल्कि अपने षड्यंत्रों द्वारा इस्लामी व्यवस्था का तख़्ता पलटना चाहता हो तो ईमान वालों को उसके साथ जेहाद का निमंत्रण दो और उनसे कह दो कि वे संख्या की कमी से न घबराएं क्योंकि ईश्वर ने वचन दिया है कि यदि तुम धैर्य के साथ डटे रहोगे तो तुम में से प्रत्येक, शत्रु के दस सैनिकों से प्रतिरोध की क्षमता रखता है और यह सब ईमान का फल है जो शत्रु को प्राप्त नहीं है बल्कि वह उसके बारे में समझता ही नहीं है।

इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम इंसान को दुश्मन से मुकाबले के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए लेकिन हमला तब तक नहीं करना चाहिए जब तक दुश्मन खुद युद्ध न करे और यदि दुश्मन संधि करे और शांति चाहे तो उसे फ़ौरन कुबूल कर लेना चाहिए |

Article 0

$
0
0


दुनिया भर के सभी सत्यप्रेमी मानवता के पुजारियों ने कर्बला में इमाम हुसैन के बेजोड़ बलिदान को सराहा और श्रद्धांजलि अर्पित की है| कभी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को कहते पाया की  "मैंने  हुसैन से सीखा है अत्याचार पर विजय कैसे प्राप्त होती  है तो  कभी डॉ राजेंद्र प्रसाद को कहते पाया "शहादत ए इमाम हुसैन (अस) पूरे विश्व के लिए इंसानियत का पैग़ाम है|कभी डॉ . राधा  कृष्णन को कहते पाया " इमाम हुसैन की शहादत १३०० साल पुरानी है लेकिन  हुसैन आज भी इंसानों के दिलों पे राज करते हैं|  रबिन्द्रनाथ  टगोर ने कहासत्य की जंग अहिंसा से कैसी जीती जा सकती है इसकी मिसाल इमाम हुसैन हैं |इमाम  ए  हुसैन  (ए .स .) की  ज़ात न किसी धर्म से बंधी है और न किसी फिरके से | यह तो बस इंसानियत का पैगाम देती है और ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ को बलंद करती है | 

कर्बला  के  बाद  से  आज तक यह  शहीद  ए  इंसानियत  पूरी दुनिया में सराहा जा रहा है और हमेशा जिंदा रहेगा | हिन्दू भाइयों की   इमाम  हुसैन  (ए .स .) से  अकीदत  कोई  नई  बात  नहीं  है. |कितनी जगहों पर ग़ैर मुस्लिम भी इसको अपने रंग में मनाते हैं. मुहर्रम  का  चाँद  देखते  ही , ना  सिर्फ  मुसलमानों  के  दिल  और  आँखें  ग़म  ऐ हुसैन  से  छलक  उठती  हैं , बल्कि हिन्दुओं  की  बड़ी   बड़ी   शख्सियतें  भी  बारगाहे  हुस्सैनी  में  ख़ेराज ए अक़ीदत पेश  किये  बग़ैर  नहीं  रहतीं. हमारे हिन्दू भाई भी हेर साल यह मुहर्रम, ग़म ए हुसैन बड़ी अकीदत से मानते हैं. 



    अल्लाह को पहचानो कुरान से |

    $
    0
    0

    अल्लाह को पहचानो कुरान से |

    ईश्वर एक ऐसा शब्द है जो जहन में आते ही एक बहूत ही महान वक्तित्व की कल्पना जहन में आता है जो हर वस्तु का स्वामी और पालणपोषक हो। उसने हर वस्तु को एकेले ही उत्पन्न किया हो,  पूरे संसार को चलाने वाला वही हो, धरती और आकाश की हर चीज़ उसके आज्ञा का पालन करती हो, अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं और गूनों में पूर्ण हो, जिसे खाने पीने की आवशक्ता न हो, विवाह और वंश तथा संतान की ज़रूरत न हो  तो केवल वही ज़ात उपासना के योग्य होगी और केवल वही इबादत की हक्दार होगी।अल्लाह तआला ही केवल वह ज़ात है जो सब गूनों और विशेषताओं में पूर्ण है। अल्लाह तआला की कुछ महत्वपूर्ण विशेषता पवित्र क़ुरआन की इन आयतों में बयान की गई हैं।
    • अल्लाह अकेला है, सबसे बेनियाझ (बेपरवाह) है, न उसकी कोई औलाद है और न वह किसीकी औलाद है, कोई उसके जैसाभी नहीं (इखलास:१-४)
    • वह (अल्लाह) हंमेशा जिन्दा रहेनेवाला है. कायम है, सबका थामने वाला है. वह न ऊँघता है और नाही उसे नींद आती है. आसमानों और जमीन में जो कुछ है सब अल्लाह ही का है. कोई उसकी इजाजत के बगैर उसके सामने सिफ़ारिश भी नहीं कर सकता. उसे हर चीजका इल्म (ज्ञान) है. उसकी खुर्सी (सिंहासन) ने सब आसमानों और जमीनोंको अपने घेरेमें ले रखा है. कायनातका निझाम चलानेमें उसे थकान भी नहीं होती. (बकराह:२५५)
    • उसीने हमें पैदा किया है, वोही हमारा खालिक (पैदा करनेवाला) है. (जुखरुफ़:८७)
    • उसीने सातो आसमान और जमीनोंको पैदा किया, वोही सब पर ग़ालिब है और सबसे ज्यादा इल्म (ज्ञान) वाला है. (लुकमान:२५, झूमर:३८)
    • वही आसमानसे पानी बरसाता है (अनकबूत:६३)
    • रात और दिन, सूरज और चंद उसीकी निशानियोमें से है (फुसिलत:३७)
    • वही जमीन और आसमानसे रोजी देनेवाला है और वोही हमारी आँखों और कानो का मालिक है (युनुस:३१)
    • जमीन और जो कुछ जमीनमे है सबका वही मालिक है. सातो आसमानों और अर्श का भी वही मालिक है. कोई उसके मुकाबलेमें पनाह (शरण) नहीं दे सकता. (मुअमिन:८५-८९)
    • उसीने हमें एक जान आदम (अ.स.)से पैदा किया, उसीसे उसका जोड़ा भी बना दिया फिर उनदोनो से बहुतसे मर्द और औरतें बना कर दुनियामें फैला दिए. (निशा:१, नहल:७२)
    • उसीने हमें एक मर्द और औरतसे पैदा किया, फिर खानदान और कबीलेवाला बना दिया ताकि हम एक दूसरेको पहेचान सके. उसके नदजिक हममे ज्यादा इज्जतवाला वोह है जो उससे ज्यादा डरनेवाला है. (हुजुरात:१३)
    •  उसीने हमें मिट्टीसे पैदा किया और जमीनमें फैला दिया (रूम:२०)
    • उसीने मिट्टी, फिर मनी (वीर्य) से लोथड़ा, फिर गोश्त व हड्डी और फिर सूरत बनायी (मुअमिनुम:१२-१४,   गाफिर:६७, कयामा:३७-३९)
    • उसीने हर जानदारको हकीर पानीसे पैदा किया (नूर:४५,फुरकान:५४, सजदा:८, यासीन:७७)
    • उसीने इंसान को सनसनाते सड़े हुए सादे गारे से पैदा किया (हिज्र:२६, हज्ज:५, सजदा:७)
    • उसीने हमारी सूरते बनायीं (अच्छी और जैसी चाही) (आले इमरान:६, गाफिर: ६४, हश्र:२४, तगाबुन:३)
    • उसीने जिन्नो को आग से पैदा किया (आराफ:१२, हिज्र:२७, सुआद:७६, रहमान:१५)
    • उसीने हमारे जोड़े बनाने को औरते पैदा की ताकि उससें चैन और राहत पा सके (रूम:२१)
    • वही जिसे चाहता है बेटियाँ देता है और जिसे चाहता है बेटे देता है. जिसको चाहे बेटे-बेटियां मिलाकर देता है और जिसे चाहता है बाँझ रखता है. (शुरा:४९-५०)
    • उसी ने जमीं कि सारी चीजे हमारे लिए पैदा कि (बकरह:२९)
    • जब कोई पुकारने वाला उसे पुकारता है तो वह उसकी दुआ सुनता और कुबूल करता है (बकरह:१८६)
    • वही जिसे चाहे बादशाही दे और जिससे चाहे छीन ले. जिसको चाहे इज्जत दे और जिसे चाहे जलील करे. वह हर चीज पर कुदरत रखता है. (आले इमरान:२६)
    • उसका इल्म हर चीज को अपने घेरे में लिए हुए है (आराफ:८९, ताहा:९८)
    • सिर्फ उसी को आसमानों और जमीं कि छिपी चीजों (गैब) का इल्म है (हूद:१२३)
    • वोह हर एब से पाक है, उसी ने अपने बंदे मुहम्मद (स.अ.व.) को रातों-रात अदब वाली मस्जिद (मस्जिदे हराम) से मस्जिदे अक्सा तक सैर करा दी. वह सब कुछ देखने-सुनने वाला है. (इसरा:०१)
    • उसीने हर चलने-फिरने वाले जानदार को पानी से पैदा किया, जिनमे से कुछ दो पांवो पर तो कुछ चार पांवो पर चलते है (नूर:४५)
    • उसके सिवाए कोई नहीं जानता कि (क) क़यामत कब आएगी (वाकेअ होगी)? (ख) बारिश कब, कहाँ और कितनी होगी? (ग) औरत के पेट में क्या और कैसा है? (घ) कौन कब मरेगा और कहाँ किसे मौत आएगी? (च) कौन कल क्या करेगा? (लुकमान:३४)
    • उसी ने हर जानदार का जोड़ा बनाया (यासीन:३६, जरियात:४९, अनआम:३८)
    • वह जिसे चाहता है ज्यादा रोजी देता है और जिसके लिए चाहता है रोजी तंग कर देता है (बकरह:२४५, सबा:३६,३९, रूम:३७)
    • सच्ची तौबा करने पर वह सब गुनाहों को माफ़ कर देता है (जुमर:५३)
    • उसी ने आसमान व जमीन को हिक्मत से पैदा किया ताकि हर शख्स अपने आमाल का बदला पाए (जसिया:२२)
    • उसी ने मौत और जिन्दगी को पैदा किया ताकि हमारी आजमाइश करे कि कौन हम में अच्छे अमल करने वाला है. (हूद:७, कहफ़:७, मुल्क:२, इन्सान:२)
    • वही जानदार से बे-जान और बे-जान से जानदार को पैदा करने वाला है (आले-इमरान:२७, अनआम:९५, युनुस:३१, रूम:१९)
    • हमारे दिल में जो ख्यालात आते है, वह उन्हें भी जानता है (काहफ:१६)
    • उसीने हमारे कान, आँख और दिल बनाये (नहल:७८, मुअमिनून:७८, सजदा:९, मुल्क:२३)
    • उसी ने हमारी जुबानो और रंगों को जुदा जुदा बनाया (रूम:२०)
    • उसी ने आसमानों को सतूनो के बगैर गण्य और जमीन पर पहाडो को रख दिया फिर जमीन पर कई तरह के जानवरो को फैला दिया (लुकमान:१०)
    • उसीने चाँद को नूर और सूरज को चिराग बनाया (युनुस:५, नूह:१६)
    • वही रात को दिन में दाखिल करता है और दिन को रात में, चाँद और सूरज को उसीने हमारे लिए काम पर लगा रखा है (लुकमान:२९)
    • उसी ले हुक्म से रात और दिन बदल-बदल कर आते है (आले इमरान:१९०, जासिया:५)
    • उसी ने हमारे लिए चौपाए (जो चरने वाले है) खाने के लिए हलाल किये (माईदा:१, नहल:५, मुअमीनून:२१)
    • वही हमें खौफ़ और उम्मीद दिलाने के लिए बिजली चमकाता है. वही आसमान से पानी बरसाता है और मुर्दा जमीन को जिन्दा करता है (रूम:२४)
    • सबको फ़ना (खत्म) होना है सिवाय उस एक अकेले अल्लाह कि, उसी कि जात बाकी रहने वाली है (रहमान:२६-२७, कसस:८८)
    • वह सलामती के घर जन्नत कि तरफ बुलाता है, और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखाता है (युनुस:२५)
    • वह अगर चाहता तो सबको एक ही जमाअत कर देता लेकिन वह जनता है कि लोग हंमेशा इख्तिलाफ करते रहेंगे (हूद:११८)
    • जो उसकी तरफ रुजू करता है वह उसे अपनी तरफ का रास्ता दिखाता है (रअद:२७, शुरा:१३)
    • वह कभी वादा खिलाफी नहीं करता (रूम:६, जुमर:२०)
    • उस से भूल चूक भी नहीं होती (मरियम:६४, ताहा:५२)
    • वह हमेशा से है और हमेशा रहने वाला है (बकरह:२५५, आले इमरान:२)
    • वही जिन्दगी और मौत देने वाला है (मुअमिनूम:६८)
    • वही नफे और नुकसान का मालिक है (फतह:११)
    • उसी के इख्तियार (बस) में हिदायत देना है (कसस:५६)
    • वही सहत (तंदुरस्ती) और शिफा (बीमारी दूर करना) देनेवाला है (शोअरा:८०)
    • वही दिलो को फैरनेवाला है (अनफ़ाल:२४)
    • उसी के हाथ में दिन और दुनिया कि सारी भलाईया है (आले इमरान:२६)
    • वह हर जगह और जर वकत (अपनी कुदरत और इल्म के ऐतेबार से) हाजिर (मौजूद) होता है (हदीद:४)
    • उसी के हुक्म से क़यामत के दिन पहाड़ उसते फिरेंगे (नमल:८८, वाकिया:६, मुजम्मिल:१४)
    • वही क़यामत के दिन जजा या सजा देगा (तहरिम:१०)
    • उसका दीदार करना दुनिया (कि जंदगी में) किसी के लिए मुमकिन हाही (अनआम:१०३, आराफ:१४३)
    • सिर्फ उसी को गैब (छिपी बात) का इल्म है (माईदा:१०९,११६, अनआम:५९, आराफ:१८८, तौबा:७८, युनुस:२०, हूद:१२३, नमल:६५, सबा:३,४८, जिन्न:२६)
    • वह (हर जगह नहीं बल्कि) अर्श पर मुस्तवी (बिराजमान) है ( आराफ:५४, युनुस:३, रअद:२, ताहा:५, फुर्क़ान:५९, सजदा:४, हदीद:४)
    • क़यामत कब आएगी? यह भी सिर्फ वही जानता है ( आराफ:१८७, ताहा:१५, लुकमान:३४, अहजाब:६३, फुसिलत:६७, जुखरुफ़:८५, मुल्क:२६, जिन्न:२५, नाजिआत:४४)
    • शिफाअत (सिफ़ारिश) का हक उसके सिवाए किसी के पास नहीं (बकरह:२५५, रूम:१३, सजदा:४, जुमर:४४, जुखरुफ़:८६)
    • वह किसी शख्स को उसकी ताकत (बर्दाश्त) से ज्यादा तकलीफ नहीं देता (बकरह:२३३,२८६, अनआम:१५२, आराफ:४२, स्रुः मुअमिनून:६२)
    • उसके सिवाए कोई मुश्किल कुशा (दूर करने वाला) नहीं (बकरह:१०७, आले-इमरान:१६०, अनआम:१७, आराफ:३७, युनुस:१०६,१०७, रऊद:१४,३७, जिन्न:२०)
    • उसके सिवाए किसीको भी मदद के लिए पुकारना शिर्क है (नहल:८६, हज्ज:७३, फुर्क़ान:२,३, गाफिर:१२,२०, फुसिलत:४७,४८)
    • वह दिलो के भेद (राज) जानने वाला है (आले इमरान:१५४,१६७, निसा:६३, माइदा:७, अनफ़ाल:४३, हूद:५, लुकमान:२३, शुर:२४, हदीद:६, तगाबुन:४, मुल्क:१३)
    • कायनात कि हर चीज (आसमानों में हो या जमीन में या जमीन के निचे) सब उसी कि तस्बीह (पाकी) बयां करती है (नहल:४९, इसरा:४४, हज्ज:१८, नूर:४१, हशर:१, सफ्फ:१, जुमुआ:१)
    • वह अपने इल्म के ऐतेबार से हर जगह है (अनआम:८०, सुरहआराफ:८९, ताहा:९८, गाफिर:७, फुसिलत:५४, तलाक:१२)
    • वह हर बात (चीज) से बाखबर है (बकरह:२९,२३१, निसा:१७६, माइदा:९७, नूर:३५,६४)
    • वह हर शै (चीज) पर कादिर (कुदरत रखता ) है (बकरह:२०,१०६,१४८,२५९,२८४, आले इमरान:२६,२९,१६५,१८९, माइदा:१९,४०,१२०, अनआम:१७, अनफ़ाल:४१, तौबा:३९, हूद:४, नहल:७७, नूर:४५)
    • उसने कायनात छह (६) दिनों में बने (आराफ:५४, युनुस:३, हूद:७, फुर्क़ान:६९, सजदा:४, कॉफ:३८, हदीद:४)
    • उसीके हुक्म से चाँद और सूरज फ़िजा मै तैर (घूम) रहे है (रअद:२, इब्राहीम:३३, अम्बिया:३३, लुकमान:२९, फातिर:१३, यासीन:४०, जुमर:५, रहमान:५)
    • उसी ने जमीन को फर्श बनाया ( अम्बिया:५६, नूह:१९, नबअ:६, नाजिआत:३०)
    • उसी ने जमीन को बिछौना और आसमान को छत बनाया (बकरह:२२, गाफिर:६४)
    • उसने कायनात को तदबीर से पैदा किया ( रूम:८, सुआद:२७, जुमर:५, दुखान:३९, जासिया:२२,अह्काफ:३, तगाबुन:३)
    • उसी ने हुक्म दिया कि इबादत सिर्फ उसी कि की जाए (इसरा:२३, जुमर:२, जरियात:५६, बय्यिन:५)
    • उस कि दी हुई नेअमते वेशुमार है अगर हम उन्हें गिनना चाहे तो गिन ही नहीं सकते (इब्राहीम:३४, नहल:१८)

    शरीयत और फिकह दो अलग चीजें है

    $
    0
    0

    बाराबंकी कर्बला सिविल लाइन में नौचंदी जुमेरात पर एक मजलिस को खिताब करते हुए ऑल इण्डिया मुस्लिम लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना डा. सैयद कल्बे सादिक ने कहा हमें हर काम करने से पहले शैतान के शर के पनाह के लिए अल्लाह से दुआ करनी चाहिए |

    मौलाना डा0 कल्बे सादिक ने कहा शरीयत और फिकह दो अलग चीजें है हर अच्छे काम को बजा लाने व हर बुरे काम को रोकने को शरीयत कहते हैंलेकिन अच्छा लगना और है, अच्छा होना और है।

    मौलाना ने कहा इस्लाम बेवकूफों को मुंह नहीं लगाता। इस्लाम इल्म (ज्ञान) के साथ होता है जिसके पास इल्म (ज्ञान) नहीं होता उसके पास इस्लाम नहीं रहता। इस्लाम ने हमेशा अमन व भाई चारे का पैगाम दिया है। लोग अलग-अलग भाषाओं में उस पैदा करने वाले का नाम बताते हैं कोई गाड, ईश्वर, खुदा के नाम से पुकारते हैं। मौलाना ने कहा कि मगर मौला अली ने बताया उसका कोई नाम नहीं क्योंकि वह तब से है जब कोई भाषा का वजूद ही नहीं हुआ था। आगे मौलाना ने कहा मौला अली सही फरमाते हैं कि जिसको किसी ने पैदा ही नहीं किया वह पैदा होने वाली भाषाओं में कैसे हो सकता है। हर चीज परिभाषित की जा सकती है लेकिन उस पैदा करने वाले को परिभाषित नहीं कर सकते।



    मौलाना डा. कल्बे सादिक ने आगे कहा शरीयत यह है कि नमाज के बगैर कोई अमल पूरा नहीं होता यानी नमाज सबसे अच्छी इबादत है इसका पढ़ना हर हाल में जरूरी है लेकिन अगर किसी इंसान की जान खतरे में हो चाहे व दुश्मन ही क्यों न हो उसे बचाने के लिए अगर नमाज को तोड़ना पड़े तो तोड़ दो यह फिक्ह है।मौलाना ने यह भी कहा चाहे किसी भी धर्म या जाति का इन्सान हो ईश्वर अत्याचार करने वालों को इज्जत नहीं देता बल्कि उसे जलील व रूसवा कर देता है। इसलिए जिहालत से बचना चाहिए इल्म हासिल करना चाहिए। जो लोग अपने बच्चों को इल्म हासिल नहीं कराते वह भी जालिम होते हैं। अच्छा होना अक्ल से पहचाना जाता है और जजबात से अच्छा लगना शैतानी वसवसे का कारण होता है, इससे बचना चाहिए। इन्सान को जजबात अक्ल के कन्ट्रोल में रहे ये शरीयत बताती है। शरीयत हमको उस रसूल (स0अ0व0) से मिली जिसने दुनिया वालों से इल्म हासिल नहीं किया, बल्कि उस पैदा करने वाले के यहां से पढ़ा पढ़ाया इस दुनिया में आया। दुनिया में चाहे जितने अच्छे अमल किये हो वह सब तब तक नहीं पूंछे जायेंगे जब तक नमाज कुबूल नहीं होगी।


    अन्त में शहीदाने कर्बला के दर्दनाक मसायब पेश करते हुए कहा कि इमाम हुसैन (अ0स0) की शहादत हमें पैगाम देती है। इन्सानियत की राह पर चलने की और जालिम और जुल्म के खिलाफ लड़ने की। इमाम की शहादत का दर्दनाक मंजर बयान किया जिसे सुनकर अजादार रो पड़े।
    मजलिस से पूर्व हसनैन आब्दी ने हदीसे किसा पढ़कर मजलिस का आगाज किया। इसके बाद अब्बास व सरवर अली रिजवी ने पेशख्वानी कर नजरानये अकीदत पेश की। मजलिस के बाद अन्जुमन गुन्चये अब्बासिया ने नौहाख्वानी के साथ नौचंदी के अलम का गस्त किया। मजलिस की समाप्ति पर कर्बला के खादिम रिजवान मुस्तफा ने सबका शुक्रिया अदा किया।

    अल्लामा हिल्ली और नास्तिक

    $
    0
    0


    प्राचीन काल से ही मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि सृष्टि का आरंभ कब हुआ, कैसे हुआ, क्या यह संभव है कि मनुष्य कभी यह समझ सके कि चाँद, सितारे, आकाशगंगाएं, पुच्छलतारे, पृथ्वी, पर्वत, उसकी ऊँची ऊँची चोटियाँ, जंगल, कीड़े-मकोड़े, पशु, पक्षी, मनुष्य, जीव-जन्तु यह सब कहाँ से आए और कैसे बने? हमने और आपने हो सकता है न सोचा हो किन्तु हज़ारों वर्षों से इस पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों ने सोचा और यहीं से धर्म का जन्म हुआ। एक अरब ग्रामीण से पूछा गया कि तुमने अपने ईश्वर को कैसे पहचाना? तो उसने उत्तर दिया कि ऊँट की मेंगनियाँ, ऊँट का प्रमाण हैं, पद-चिन्ह किसी पथिक का प्रमाण हैं, तो क्या इतना बड़ा ब्रह्माण्ड, यह आकाश, और कई परतों में पृथ्वी, किसी रचयिता का प्रमाण नहीं हो सकती|



    अल्लामा हिल्ली एक बहुत प्रसिद्ध शीया बुद्धिजीवी थे। उनके काल में एक नास्तिक बहुत प्रसिद्ध हुआ। वह बड़े बड़े आस्तिकों को बहस में हरा देता था, उसने अल्लामा हिल्ली को भी चुनौती दी। बहस के लिए एक दिन निर्धारित हुआ और नगरवासी निर्धारित समय और निर्धारित स्थान पर इकट्ठा हो गए। वह नास्तिक भी समय पर पहुंच गया, किन्तु अल्लामा हिल्ली का कहीं पता नहीं था। काफ़ी समय बीत गया लोग बड़ी व्याकुलता से अल्लामा हिल्ली की प्रतीक्षा कर रहे थे कि अचानक अल्लामा हिल्ली आते दिखाई दिए। उस नास्तिक ने अल्लामा हिल्ली से विलंब का कारण पूछा तो उन्होंने विलंब के लिए क्षमा मांगने के पश्चात कहा कि वास्तव में मैं सही समय पर आ जाता, किन्तु हुआ यह कि मार्ग में जो नदी है उसका पुल टूटा हुआ था और मैं तैर कर नदी पार नहीं कर सकता था, इसलिए मैं परेशान होकर बैठा हुआ था कि अचानक मैंने देखा कि नदी के किनारे लगा पेड़ कट कर गिर गया और फिर उसमें से तख़्ते कटने लगे और फिर अचानक कहीं से कीलें आईं और उन्होंने तख़्तों को आपस में जोड़ दिया और फिर मैंने देखा तो एक नाव बनकर तैयार थी। मैं जल्दी से उसमें बैठ गया और नदी पार करके यहाँ आ गया। अल्लामा हिल्ली की यह बात सुनकर नास्तिक हंसने लगा और उसने वहाँ उपस्थित लोगों से कहाः "मैं किसी पागल से वाद-विवाद नहीं कर सकता, भला यह कैसे हो सकता है? कहीं नाव, ऐसे बनती है?" यह सुनकर अल्लामा हिल्ली ने कहाः "हे लोगो! तुम फ़ैसला करो। मैं पागल हूँ या यह, जो यह स्वीकार करने पर तैयार नहीं है कि एक नाव बिना किसी बनाने वाले के बन सकती है, किन्तु इसका कहना है कि यह पूरा संसार अपने ढेरों आश्चर्यों और इतनी सूक्ष्म व्यवस्था के साथ स्वयं ही अस्तित्व में आ गया है"। नास्तिक ने अपनी हार मान ली और उठकर चला गया।

    लोगों के बीच सुलह सफ़ाई कराने की अहमियत

    $
    0
    0

    आज के दौर में इंसानों के दिलों से अपने रिश्तेदारों और दोस्तों की मुहब्बत कम होती जा रही है और ज़रुरत के रिश्ते बनाने का रिवाज सा चल निकला है | इस समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं जो दो इंसानों का प्यार उनके अच्छे रिश्ते देख जल जाते हैं जो की इर्ष्या वश होता है और उन्हें फ़िक्र यह सताने लगती है की कैसे उनके रिश्ते खराब किये जाएं ? और पहला मौक़ा मिलते ही ऐसे लोग रिश्तों को ग़लतफ़हमी पैदा कर के बिगाड़ दिया करते हैं | ऐसा यदि कोई मुसलमान करे तो बहुत ही ताज्जुब होता है क्यूंकि इस्लाम में ऐसे इंसान के लिए जन्नत हराम करार दी गए हैं |हजरत मुहम्मद (स.अ.व) ने फ़रमाया जो शख्स किन्ही दो लोगों में झगडे करवाए या उनके रिश्ते ख़राब करे अल्लाह उसपे गज़बनाक होगा और दुनिया और आखिरत में लानत करेगा |

    इसका यह मतलब भी नहीं की अगर कोई आपके दोस्तों या रिश्तेदारों के रिश्ते खराब कर वादे या आपस में ग़लतफ़हमी पैदा कर दे तो पूरा इलज़ाम उसी पे रख दिया जाए | रिश्ते खराब करने के ज़िम्मेदार आप खुद भी उतने ही हैं क्यूंकि अल्लाह ने आपको अक्ल दी है और हिदायत की सुनी सुनायी बातों पे यकीन कर के अपने रिश्ते आपस में खराब न करो| और यदि कोई बात हो ही जाए तो कोशिश करो की रिश्ते को फिर से जोड़ने की | हज़रात अली (अ.स० ) ने फ़रमाया की ज़िन्दगी के हर मोड़ पे सुलह करना सीखो क्यूंकि झुकता वही है जिसमे जान होती है अकड़ना तो मुर्दों की पहचान है |

    इस्लाम की हिदायत यहीं पे ख़त्म नहीं हो जाती की रिश्ते किसी के कान भरने पे न बिगाड़ो या अगर बिगड़ जाए तो सुलह की कोशिश करो बल्कि इस से एक क़दम आगे जा के हिदया देता है की ऐ इंसानों अगर किन्ही दो लोगों में कोई शिकायत पैदा हो जाए और रिश्ते ख़राब हो जाएं तो उनके बीच में सुलह करवा दो और ऐसा करने का सवाब पूरे साल मुस्तहब नमाजें पढने से भी ज्यादा है | इस सवाब से भी इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है की किन्ही दो लोगों में रिश्ते खराब करवाने की सजा कितनी ज्यादा हो सकती है ?
    लोगों के बीच सुलह सफ़ाई कराने का अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है और अल्लाह के पैग़म्बरों की भी यह ज़िम्मेदारी दी थी कि समाज में मतभेदों को दूर करते हुए शांति बनाए रखें| अल्लाह तआला सूरा-ए-बक़रा की आयत नं 27 में उन लोगों के बारे में जो सम्बंध तोड़ते हैं, फ़रमाता हैः फ़ासिक़ (गुनहगार व भ्रष्ट) वह लोग हैं जो अल्लाह के वचन को पक्का हो जाने के बाद तोड़ते हैं और जिन रिश्तो कों अल्लाह ने मज़बूत बनाए रखने का हुक्म दिया है उन्हें तोड़ते हैं और ज़मीन पर उपद्रव करते हैं, निस्चित रूप से यह लोग घाटा उठाने वालों में से हैं।




    रसूले इस्लाम स.अ. लोगों के बीच सुलह सफ़ाई कराने के बारे में फ़रमाते हैं क्या में तुम्हें ऐसी चीज़ के बारे में न बताऊं जो नमाज़, रोज़े और ज़कात से ज़्यादा श्रेष्ठ है, और वह काम लोगों के बीच सुलह सफ़ाई कराना है, चूंकि लोगों के बीच रिश्तों में दूरी पैदा होना घातक, जानलेवा और दीन से दूरी का कारण बनता है। (कंज़ुलउम्माल 5480, मुंतख़ब मीज़ानुल हिक्मा 324)।

    इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि जब लोगों के बीच मतभेद पैदा हो जाये और आपस में दूरियां पैदा हो जाएं, ऐसा सदक़ा है जिसे अल्लाह तआला पसंद करता है।(अल-काफ़ी 2/209/1,मुंतख़ब मीज़ानुल हिक्मा 324)।
    अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम, अपने बेटे इमाम हसन अ. को सम्बोधित करते हुए फ़रमाते हैं कि मैंने रसूले इस्लाम स.अ. से सुना है कि लोगों के बीच सुलह सफ़ाई कराना एक साल की मुस्तहब नमाज़ों और रोज़ों से बेहतर है। (नहजुल बलाग़ा वसीयत 47)।

    हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम भी फ़रमाते हैं कि .........अल्लाह उस पर रहमत नाज़िल करे जो हमारे दो दोस्तो के बीच सुलह सफ़ाई कराए, ऐ मोमिनों आपस में दोस्त रहो और एक दूसरे से मुहब्बत करो। (उसूले काफ़ी, 72, पोज 187)।
    आशा है समाज में कैसे अमन और शांति से रहा जाए इन हदीसों से लोग सीखेंगे |
    लेखक : एस एम् मासूम

    हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) की इबादतों पर हक़्क़ानीयत को नाज़ है

    $
    0
    0
    अल्लाह  ने तमाम आलमें इंसानियत की  हिदायत के लिये इस्लाम में कई ऐसी हस्तियों को पैदा किया जिन्होने अपने आदात व अतवार, ज़ोहद व तक़वा, पाकीज़गी व इंकेसारी, जुरअतमंदी, इबादत, रियाज़त, सख़ावत और फ़साहत व बलाग़त से दुनिया ए इस्लाम पर अपने गहरे नक्श छोड़े हैं, उन में बिन्ते रसूल (स), ज़ौज ए अली और मादरे गिरामी शब्बर व शब्बीर अलैहिमुस सलाम भी उन ख़ुसूसियात की हामिल हैं, जिन पर दुनिया ए इस्लाम को फ़ख़्र है हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) की इबादतों पर हक़्क़ानीयत को नाज़ है, उन की पाकीज़गी पर इस्मत को नाज़ है, उन के किरदार पर मशीयत को नाज़ है और इंतेहा यह है कि उन की शख़्सियत पर रिसालत को नाज़ है और मुख़्तसर यह कि उन पर शीईयत को नाज़ है।




    फ़ातेमा ज़हरा (अ) वह ख़ातून है जिन के लिये ख़ुद रसूले ख़ुदा, ख़ातमुल अंबिया, अहमद मुजतबा हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा का फ़रमान है: फ़ातेमतो बज़अतुम मिन्नी, फ़ातेमा मेरे जिगर का टुकड़ा है। फ़ातेमा ज़हरा (स) जब कभी अपने बाबा की ख़िदमते अक़दस में हाज़िर हुईं तो एक कम एक लाख चौबीस हज़ार अंबिया के सरदार, बीबी की ताज़ीम के लिये खड़े हो जाते और उन्हे सफ़क़त से अपने पहलू में इनायत करते और निहायत ही मुहब्बत से उन से गुफ़तुगू फ़रमाते हैं। फ़ातेमा ज़हरा (स) की तारीख़े विलादत के बारे में मुवर्रेख़ीन की मुख़्तलिफ़ राय हैं कुछ मुवर्रेख़ीन ने रसूले ख़ुदा (स) की बेसत के एक साल बाद उन की पैदाईश दर्ज है।


    बहवाल ए इब्ने ख़शाब दर्ज है कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) की विलादत का वक़्ते बेसत के पांच साल बाद (यअनी 615 हिजरी) क़रीब आया तो क़बीले के दस्तूर के मुताबिक़ हज़रत ख़दीजतुल कुबरा ने मदद के लिये औरतों को बुलवाया मगर औरतों ने यह कर आने से इंकार कर दिया कि अब हमारी बिरादरी से तुम्हारा क्या वास्ता? तुम ने सब से पयाम को रद्द कर के मुहम्मद (स) से शादी की है और हमारे मअबूदों को बुरा भला कहा है, क़बीले की औरतों का यह जवाब सुन कर हज़रत ख़दीजा (स) परेशान हो गई मगर उसी वक़्त अल्लाह की रहमत नाज़िल हुई और ग़ैब से चार औरतें घर में नमूदार हुईं। यह ख़्वातीन हज़रत सारा, हज़रत कुलसूम, हज़रत आसिया और हज़रत मरियम थीं। विलादत के बाद हुज़ूर ने अपनी चहेती बेटी को गोद में ले कर फ़रमाया: ख़दीजा यह तुम्हारी मेहनतों का सिला है मेरी बेटी फ़ातेमा ब रोज़े क़यामत मेरी उम्मत की सिफ़ारिश करेगी और गुनाहगारों को दोज़ख़ की आग से बचायेगी।



    जैसे जैसे हज़रत फ़ातेमा (स) बड़ी होती गई उन के औसाफ़ व कमालात नुमायां होते चले गये, दुनिया ने हुस्न व हया और पाकीज़गी के पैकर को ख़ान ए रसूल (स) में बनते और सँवरते देखा। चुनाचे सुन्नी मुवर्रीख़ अपनी किताब फ़ातेमा ज़हरा में लिखता है कि अनस बिन मालिक से रिवायत है कि उन की वालिदा बयान करती थीं कि फ़ातेमा ज़हरा (स) चौदहवीं के चाँद और आफ़ताब के मानिन्द थीं। उस के अलावा ग़ैर मुस्लिम ख़्वातीन ने भी ऐतेराफ़ किया है। डाक्टर ऐथीनो कम, कनाडा की एक माहिर फ़लसफ़ी ख़ातून हैं वह अपने मज़मून में खा़तूने जन्नत फ़ातेमा ज़हरा (स) के बारे में लिखती हैं कि फ़ातेमा मुहम्मद की बेटी व आली शान ख़ातून हैं जिन के बारे में ख़ुद ख़ुदा ने बयान फ़रमाया कि आप पाकीज़ा ख़ातून हैं।


    मिस वरकन हौल, न्यूयार्क की एक ख़ातून हैं वह अपनी मशहूर व मारुफ़ किताब (the holy daughter of holy prophet) कि जिस का तर्जुमा मुक़द्दस पैग़म्बर (स) की मुक़द्दस बेटी में लिखती हैं कि वह पैग़म्बर (स) की महबूब बेटी थीं जिन के अंदर अपने बाप के तमाम औसाफ़ व कमालात जमा थे। फ़ातेमा ज़हरा वह आली मक़ाम ख़ातून थीं जिन के फ़रिश्ते भी नौकर थे, कभी फ़रिश्ते आप की चक्की चलाने आते, कभी आप के बेटों का झूला झुलाने आते। ख़ातूने जन्नत ने रिसालत के साये में परवरिश पाई। कई हज़रात ने आप से निकाह की ख़्वाहिश ज़ाहिर की मगर हुज़ूर अकरम (स) ने जवाब में ख़ामोशी ज़ाहिर की लेकिन जब हज़रत अली (अलैहिस सलाम) ने अपने ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो उस वक़्त आमँ हज़रत (स) ने इरशाद फ़रमाया कि ख़ुद मुझे ख़ुदा ने हुक्म दिया है कि हम ने फ़ातेमा की शादी आसमान पर अली से कर दी है लिहाज़ा तुम भी फ़ातेमा की शादी ज़मीन पर अली से कर दो। उस वक़्त रसूले ख़ुदा (स) ने यह भी इरशाद फ़रमाया कि अगर अली न होते तो फ़ातेमा का कोई हमसर (कुफ़्व) न होता।


    चुनाचे ब हुक्मे ख़ुदा वंदे आलम रसूले आज़म (स) ने अपनी बेटी का निकाह हज़रत अली (अ) से कर दिया, यह शादी जिस अंदाज़ में हुई उस की मिसाल सारे आलम में नहीं मिलती। आज हम अपने नाम व नमूद के लिये, अपनी शान व शौकत के लिये, अपने रोब व दबदबे के इज़हार के लिये अपनी बेटियों की शादी में हज़ारो लाखों रूपये नाच गाने, डेकोरेशन, मुख़्तलिफ़ खाने और न जाने कितनी ग़ैर इस्लामी रस्मो रिवाज पर बे धड़क ख़र्च कर देते हैं, लड़कियों के जहेज़ में अपनी शान व शौकत को मलहूज़े ख़ातिर रखते हैं, जब दीन व इस्लाम गवाह है कि दीन की सब से आली मकतबत शख़्सीयत ने अपनी बेटी को जहेज़ के नाम पर एक चक्की, एक चादर, एका चारपाई, खजूर के पत्तों से भरा हुआ एक गद्दा, मिट्टी के दो घड़े, एक मश्क, मिट्टी का कूज़ा, दो थैलियां और नमाज़ पढ़ने के लिये हिरन की खाल दी बस यह कुल असासा था जो बीबी ए दो आलम अपने जहेज़ में ले कर हज़रत अली (अ) के घर आईं।


    घर के सारे काम ख़ुद अपने कामों से अंजाम देतीं थी, हज़रत अली (अ) घर का पानी भरते और जंगल की लकड़ी वग़ैरह लाते थे और हज़रत ज़हरा (स) अपने हाथों से चक्की चला कर आटा पीसतीं, जारूब कशी करतीं, खाना पकाती, कपड़े धोती, शौहर की ख़िदमत अंजाम देतीं और बच्चों की हिफ़ाज़त व परवरिश करतीं मगर उस के बावजूद कभी अपने शौहर से शिकायत नही की, जब कि अगर वह चाहतीं तो सिर्फ़ एक इशारे की देर होती जन्नत की हूरें और ग़ुलामान, दस्त बस्ता उन की ख़िदमत में हाज़िर हो जाते मगर उन्होने कभी ऐसा नही किया क्यो कि उन्हे अपने बाबा के चमन की आबयारी करनी थी, अपने हर अमल को दीन के मानने वालों के लिये मशअले राह बनाना था। चुनाचे एक मरतबा हुज़ूर अक़दस की ख़िदमत में बहुत से जंग में असीर किये क़ैदी पेश किये जिन में कुछ औरतें भी शामिल थीं। हज़रत अली (अ) ने इस बात की इत्तेला हज़रत ज़हरा (स) को देते हुए फ़रमाया कि तुम भी अपने लिये एक कनीज़ मांग तो ता कि काम में आसानी हो जाये, बीबी ने पैग़म्बरे अकरम (स) की ख़िदमत में अपना मुद्दआ पेश किया तो हुज़ूर ने अपनी लाडली बेटी की बात सुन कर इरशाद फ़रमाया कि मैं तुम को वह बात बताना चाहता हूँ कि जो ग़ुलाम और कनीज़ से ज़्यादा नफ़अ बख़्श है तब हुज़ूर ने अपनी बेटी को एक तसबीह की तालीम फ़रमाई जो आज सारे आलमे इस्लाम में मशहूर है जिसे तसबीहे हज़रत फ़ातेमा ज़हरा कहते हैं। 


    अल्लाह के रसूल ख़ातमुल मुरसलीन (स) ने अपनी लाडली बेटी को बतूल, ताहिरा, ज़किय्या, मरज़िया, सैयदतुन निसा, उम्मुल हसन, उम्मे अबीहा, अफ़ज़लुन निसा और ख़ैरुन निसा के अलक़ाब से नवाज़ा। सुन्नी मुवर्रिख़ अपनी किताब में लिखता है कि अल्लाह के रसूल (स) ने इरशाद फ़रमाया कि फ़ातेमा क्या इस बात पर ख़ुश नही हो कि तुम जन्नत की औरतों की सरदार हो। आप की सख़ावत की मिसाल सारे जहान में ढ़ूढ़ने से नही मिलती। यह बात तो हदीसों की किताबों में नक़्ल हैं लेकिन ग़ैर मुस्लिम मुबल्लेग़ा, अंग़्रज़ी अदब की मशहूर किताब (GOLDE DEEDS) के सफ़हा नंबर 115 पर तहरीर करती हैं कि जिस की तर्जुमा यह है कि एक मर्तबा मैं यूरोप का तबलीग़ी दौरा कर रही थी जब मैं मानचेस्टर पहुचीं तो कुछ ईसाई औरतों ने मेरे सामने बाज़ मुख़य्यरा व सख़ी मसतूरात की तारीफ़ में मुबालेग़े से काम लिया तब मैं ने कहा कि यह ठीक है कि दुनिया में सख़ावत करने वालों की कमी नही है लेकिन मुझे तो रह रह कर एक अरबी करीमा याद आती है कि जिस का नाम फ़ातेमा है उस की सख़ावत का आलम यह था कि मांगने वाले दरे अक़दस पर हाज़िर होता तो जो कुछ घर में मौजूद होता उस आने वाले को दे देती और ख़ुद फ़ाक़े में ज़िन्दगी बसर करती, उस के हालात में सख़ावत व करीमी की ऐसी मिसालें हैं जिन को पढ़ कर इंसानी अक़्ल दंग रह जाती है। और मैं यह सोचने पर मजबूर हूँ कि जैसी ख़ैरात फ़ातेमा ज़हरा (स) ने की वह यक़ीनन बशरी ताक़त से बाहर है। एक जापानी ख़ातून चायचिन 1954 ईसवी में तमाम आलमी ख़्वातीन के हालत पर तबसेरा करते हुए अपनी किताब काले साचिन में कि जिस का अरबी और फ़ारसी ज़बान में भी तर्जुमा हो चुका है, लिखती है कि फ़ातेमा ज़हरा अरब के मुक़द्दस रसूल की इकलौती साहिबज़ादी थीं जो बहुत ही ज़ाहिदा, आबिदा, पाकीज़ा, ताहिरा और साबिरा थीं। उन के शौहर मालदार नही थे जो भी मुशक़्क़त कर के कमाते वह फ़ातेमा ख़ैरात कर देतीं और मासूम बच्चे भी इसी तरह ख़ैरात करते, ऐसा लगता है कि अली, फ़ातेमा और उन के बच्चों को ज़िन्दगी की ज़रुरियात की एहतियाज नही थी और यह नूरानी हस्तियां पोशाक व ख़ोराक भी ग़ैब से पातीं होगीं, वर्ना इंसानी लवाज़ेमात इस अम्र के मोहताज होते हैं कि जब भी माली मुश्किलात हायल हों तो सख़ावत से दस्त कशी की जाये। मगर फ़ातेमा के घर महीना महीना भर चूल्हा गर्म नही होता था अकसर सत्तू या चंद खजूरें खा कर और पानी पी कर घर के सारे लोगरह जाया करते थे, इसी लिये फ़ातेमा ने मख़दूम ए आलम का लक़्ब पाया।


    हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) फ़साहत व बलाग़त में भी आला दर्जे पर फ़ायज़ थीं। जैसा कि मशहूर है कि आप की कनीज़ जनाबे फ़िज़्ज़ा जो कि हबशी थीं, उन्होने क़ुरआन के लब व लहजे में बीस साल बात की, अब आप अंदाज़ा लगायें कि शहज़ादी की क्या मंज़िलत होगी। आप की पाँच औलाद थीं इमाम हसन, इमाम हुसैन, जनाबे मोहसिन, जनाबे उम्मे कुलसूम और जनाबे ज़ैनब। आप की इस्मत व तहारत का यह आलम था कि आप ने वक़्ते आख़िर वसीयत की थी मेरा जनाज़ा रात की तारीकी में उठाना। आप की इबादत का यह हाल था कि आप ने हुजर ए इबादत ही में इंतेक़ाल फ़रमाया। आप की वफ़ात यक शंबा 3 जमादिस सानिया 11 हिजरी को हुई। आप का किरदार तमाम आलमे इंसानियत की औरतों के लिये नमून ए अमल है और यह ऐसा अहसान है जो क़यामत तक उम्मत की तमाम औरतों पर रहेगा।

    कुरआन की चालीस ‘रब्बना’ दुआ

    $
    0
    0

    ४० कुरआन की ‘रब्बना’ दुआ

     
    क्रम
    अरबी
    Arebic – English
    हिंदी अनुवाद
    English Translation
    1
    رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا إِنَّكَ أَنْتَ السَّمِيعُ العَلِيمُ [البقرة :127]
    Rabbana taqabbal minna innaka antas Sameeaul Aleemऐ हमारे परवरदिगार हमारी (ये ख़िदमत) कुबूल कर बेशक तू ही (दूआ का) सुनने वाला (और उसका) जानने वाला है (सुरह बकरह:127)Our Lord! Accept (this service) from us: For Thou art the All-Hearing, the All-knowing [2:127]
    2
    رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ وَمِن ذُرِّيَّتِنَا أُمَّةً مُّسْلِمَةً لَّكَ وَأَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبْ عَلَيْنَآ إِنَّكَ أَنتَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ [البقرة :128]
    Rabbana wa-j’alna Muslimayni laka ma min Dhurriyatina ‘Ummatan Muslimatan laka wa ‘Arina Manasikana wa tub ‘alayna ‘innaka ‘antat-Tawwabu-Raheemऐ हमारे पालने वाले तू हमें अपना फरमाबरदार बन्दा बना हमारी औलाद से एक गिरोह (पैदा कर) जो तेरा फरमाबरदार होऔर हमको हमारे हज की जगहों दिखा दे और हमारी तौबा क़ुबूल करबेशक तू ही बड़ा तौबा कुबूल करने वाला मेहरबान है (सुरह बकरह:128)Our Lord! Make of us Muslims, bowing to Thy (Will), and of our progeny a people Muslim, bowing to Thy (will); and show us our place for the celebration of (due) rites; and turn unto us (in Mercy); for Thou art the Oft-Returning, Most Merciful [2:128]
    3
    رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَفِي الآخِرَةِ حَسَنَةً وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ [البقرة :201]
    Rabbana atina fid-dunya hasanatan wa fil ‘akhirati hasanatan waqina ‘adhaban-narऐ मेरे पालने वाले, मुझे दुनिया में नेअमत दे और आख़िरत में सवाब दे और दोज़ख़ की बाग से बचा (सुरह बकरह:201)Our Lord! Grant us good in this world and good in the hereafter, and save us from the chastisement of the fire [2:201]
    4
    رَبَّنَا أَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْراً وَثَبِّتْ أَقْدَامَنَا وَانصُرْنَا عَلَى القَوْمِ الكَافِرِينَ [البقرة :250]
    Rabbana afrigh ‘alayna sabran wa thabbit aqdamana wansurna ‘alal-qawmil-kafirinऐ मेरे परवरदिगार हमें कामिल सब्र अता फरमा और मैदाने जंग में हमारे क़दम जमाए रख और हमें काफिरों पर फतेह इनायत कर (सुरह बकरह:250)Our Lord! Bestow on us endurance, make our foothold sure, and give us help against the disbelieving folk [2:250]
    5
    رَبَّنَا لاَ تُؤَاخِذْنَا إِن نَّسِينَا أَوْ أَخْطَأْنَا [البقرة :286]
    Rabbana la tu’akhidhna in-nasina aw akhta’naऐ हमारे परवरदिगार अगर हम भूल जाऐं या ग़लती करें तो हमारी गिरफ्त न कर (सुरह बकरह:286)Our Lord! Condemn us not if we forget or fall into error [2:286]
    6
    رَبَّنَا وَلاَ تَحْمِلْ عَلَيْنَا إِصْرًا كَمَا حَمَلْتَهُ عَلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِنَا [البقرة :286]
    Rabbana wala tahmil alayna isran kama hamaltahu ‘alal-ladheena min qablinaऐ हमारे परवरदिगार हम पर वैसा बोझ न डाल जैसा हमसे अगले लोगों पर बोझा डाला था (सुरह बकरह:286)Our Lord! Lay not on us a burden Like that which Thou didst lay on those before us [2:286]
    7
    رَبَّنَا وَلاَ تُحَمِّلْنَا مَا لاَ طَاقَةَ لَنَا بِهِ وَاعْفُ عَنَّا وَاغْفِرْ لَنَا وَارْحَمْنَا أَنتَ مَوْلاَنَا فَانصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكَافِرِينَ [البقرة :286]
    Rabbana wala tuhammilna ma la taqata lana bihi wa’fu anna waghfir lana wairhamna anta mawlana fansurna ‘alal-qawmil kafireenऐ हमारे परवरदिगार इतना बोझ जिसके उठाने की हमें ताक़त न हो हमसे न उठवा और हमारे कुसूरों से दरगुज़र कर और हमारे गुनाहों को बख्श दे और हम पर रहम फ़रमा तू ही हमारा मालिक है तू ही काफ़िरों के मुक़ाबले में हमारी मदद कर (सुरह बकरह:286)Our Lord! Lay not on us a burden greater than we have strength to bear. Blot out our sins, and grant us forgiveness. Have mercy on us. Thou art our Protector; Help us against those who stand against faith [2:286]
    8
    رَبَّنَا لاَ تُزِغْ قُلُوبَنَا بَعْدَ إِذْ هَدَيْتَنَا وَهَبْ لَنَا مِن لَّدُنكَ رَحْمَةً إِنَّكَ أَنتَ الْوَهَّابُ [آل عمران:8]
    Rabbana la tuzigh quloobana ba’da idh hadaytana wa hab lana milladunka rahmah innaka antal Wahhabऐ हमारे पालने वाले हमारे दिल को हिदायत करने के बाद डॉवाडोल न कर और अपनी बारगाह से हमें रहमत अता फ़रमा इसमें तो शक ही नहीं कि तू बड़ा देने वाला है (सुरह आले इमरान:8)Our Lord! (they say), Let not our hearts deviate now after Thou hast guided us, but grant us mercy from Thine own Presence; for Thou art the Grantor of bounties without measure [3:8]
    9
    رَبَّنَا إِنَّكَ جَامِعُ النَّاسِ لِيَوْمٍ لاَّ رَيْبَ فِيهِ إِنَّ اللّهَ لاَ يُخْلِفُ الْمِيعَادَ [آل عمران :9]
    Rabbana innaka jami’unnasi li-Yawmil la rayba ri innAllaha la yukhliful mi’aadऐ हमारे परवरदिगार बेशक तू एक न एक दिन जिसके आने में शुबह नहीं लोगों को इक्ट्ठा करेगा (तो हम पर नज़रे इनायत रहे) बेशक अल्लाह अपने वायदे के ख़िलाफ़ नहीं करता (सुरह आले इमरान:9)Our Lord! Thou art He that will gather mankind Together against a day about which there is no doubt; for Allah never fails in His promise. [3:9]
    10
    رَبَّنَا إِنَّنَا آمَنَّا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ [آل عمران :16]
    Rabbana innana amanna faghfir lana dhunuubana wa qinna ‘adhaban-Naarहमारे पालने वाले हम तो (बेताम्मुल) ईमान लाए हैं पस तू भी हमारे गुनाहों को बख्श दे और हमको दोज़ख़ के अज़ाब से बचा (सुरह आले इमरान:16)Our Lord! We have indeed believed: forgive us, then, our sins, and save us from the agony of the Fire [3:16]
    11
    رَبَّنَا آمَنَّا بِمَا أَنزَلَتْ وَاتَّبَعْنَا الرَّسُولَ فَاكْتُبْنَا مَعَ الشَّاهِدِينَِ [آل عمران :53]
    Rabbana amanna bima anzalta wattaba ‘nar-Rusula fak-tubna ma’ash-Shahideenऐ हमारे पालने वाले जो कुछ तूने नाज़िल किया हम उसपर ईमान लाए और हमने तेरे रसूल की पैरवी इख्तेयार की पस तू हमें (अपने रसूल के) गवाहों के दफ्तर में लिख ले (सुरह आले इमरान:54)Our Lord! We believe in what Thou hast revealed, and we follow the Messenger. Then write us down among those who bear witness [3:54]
    12
    ربَّنَا اغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَإِسْرَافَنَا فِي أَمْرِنَا وَثَبِّتْ أَقْدَامَنَا وانصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكَافِرِينَِ [آل عمران :147]
    Rabbana-ghfir lana dhunuubana wa israfana fi amrina wa thabbit aqdamana wansurna ‘alal qawmil kafireenऐ हमारे पालने वाले हमारे गुनाह और अपने कामों में हमारी ज्यादतियॉ माफ़ कर और दुश्मनों के मुक़ाबले में हमको साबित क़दम रख और काफ़िरों के गिरोह पर हमको फ़तेह दे (सुरह आले इमरान:147)Our Lord! Forgive us our sins and anything We may have done that transgressed our duty: Establish our feet firmly, and help us against those that resist Faith [3:147]
    13
    رَبَّنَا مَا خَلَقْتَ هَذا بَاطِلاً سُبْحَانَكَ فَقِنَا عَذَابَ النَّارِ [آل عمران :191]
    Rabbana ma khalaqta hadha batila Subhanaka faqina ‘adhaban-Naarअल्लाहवन्दा तूने इसको बेकार पैदा नहीं किया तू (फेले अबस से) पाक व पाकीज़ा है बस हमको दोज़क के अज़ाब से बचा (सुरह आले इमरान:191)Our Lord! Not for naught Hast Thou created (all) this! Glory to Thee! Give us salvation from the penalty of the Fire [3:191]
    14
    رَبَّنَا إِنَّكَ مَن تُدْخِلِ النَّارَ فَقَدْ أَخْزَيْتَهُ وَمَا لِلظَّالِمِينَ مِنْ أَنصَارٍ [آل عمران :192]
    Rabbana innaka man tudkhilin nara faqad akhzaytah wa ma liDh-dhalimeena min ansarऐ हमारे पालने वाले जिसको तूने दोज़ख़ में डाला तो यक़ीनन उसे रूसवा कर डाला और जुल्म करने वाले का कोई मददगार नहीं (सुरह आले इमरान:192)Our Lord! Any whom Thou dost admit to the Fire, Truly Thou coverest with shame, and never will wrong-doers Find any helpers! [3:192]
    15
    رَّبَّنَا إِنَّنَا سَمِعْنَا مُنَادِيًا يُنَادِي لِلإِيمَانِ أَنْ آمِنُواْ بِرَبِّكُمْ فَآمَنَّا [آل عمران :193]
    Rabbana innana sami’na munadiyany-yunadi lil-imani an aminu bi Rabbikum fa’aamannaऐ हमारे पालने वाले (जब) हमने एक आवाज़ लगाने वाले (पैग़म्बर) को सुना कि वह (ईमान के वास्ते यूं पुकारता था) कि अपने परवरदिगार पर ईमान लाओ तो हम ईमान लाए (सुरह आले इमरान:193)Our Lord! We have heard the call of one calling (Us) to Faith, ‘Believe ye in the Lord,’ and we have believed. [3:193]
    16
    رَبَّنَا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَكَفِّرْ عَنَّا سَيِّئَاتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ الأبْرَارِ [آل عمران :193]
    Rabbana faghfir lana dhunoobana wa kaffir ‘ana sayyi’aatina wa tawaffana ma’al Abrarपस ऐ हमारे पालने वाले हमें हमारे गुनाह बख्श दे और हमारी बुराईयों को हमसे दूर करे दे और हमें नेकों के साथ (दुनिया से) उठा ले (सुरह आले इमरान:193)Our Lord! Forgive us our sins, blot out from us our iniquities, and take to Thyself our souls in the company of the righteous [3:193]
    17
    رَبَّنَا وَآتِنَا مَا وَعَدتَّنَا عَلَى رُسُلِكَ وَلاَ تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِنَّكَ لاَ تُخْلِفُ الْمِيعَاد [آل عمران :194]
    Rabbana wa ‘atina ma wa’adtana ‘ala rusulika wa la tukhzina yawmal-Qiyamah innaka la tukhliful mi’aadऐ पालने वाले अपने रसूलों की मार्फत जो कुछ हमसे वायदा किया है हमें दे और हमें क़यामत के दिन रूसवा न कर तू तो वायदा ख़िलाफ़ी करता ही नहीं (सुरह आले इमरान:194)Our Lord! Grant us what Thou didst promise unto us through Thine apostles, and save us from shame on the Day of Judgment: For Thou never breakest Thy promise [3:194]
    18
    رَبَّنَا آمَنَّا فَاكْتُبْنَا مَعَ الشَّاهِدِينَ [المائدة :83]
    Rabbana aamana faktubna ma’ ash-shahideenऐ मेरे पालने वाले हम तो ईमान ला चुके तो (रसूल की) तसदीक़ करने वालों के साथ हमें भी लिख रख (सुरह अल माइदा:83)Our Lord! We believe; write us down among the witnesses. [5:83]
    19
    رَبَّنَا أَنزِلْ عَلَيْنَا مَآئِدَةً مِّنَ السَّمَاء تَكُونُ لَنَا عِيداً لِّأَوَّلِنَا وَآخِرِنَا وَآيَةً مِّنكَ وَارْزُقْنَا وَأَنتَ خَيْرُ الرَّازِقِينَ [المائدة :114]
    Rabbana anzil ‘alayna ma’idatam minas-Samai tuknu lana ‘idal li-awwa-lina wa aakhirna wa ayatam-minka war-zuqna wa anta Khayrul-Raziqeenअल्लाह वन्दा ऐ हमारे पालने वाले हम पर आसमान से एक ख्वान (नेअमत) नाज़िल फरमा कि वह दिन हम लोगों के लिए हमारे अगलों के लिए और हमारे पिछलों के लिए ईद का करार पाए (और हमारे हक़ में) तेरी तरफ से एक बड़ी निशानी हो और तू हमें रोज़ी दे और तू सब रोज़ी देने वालो से बेहतर है (सुरह अल माइदा:114)O Allah our Lord! Send us from heaven a table set (with viands), that there may be for us – for the first and the last of us – a solemn festival and a sign from thee; and provide for our sustenance, for thou art the best Sustainer (of our needs) [5:114]
    20
    رَبَّنَا ظَلَمْنَا أَنفُسَنَا وَإِن لَّمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ الْخَاسِرِينَ [الأعراف :23]
    Rabbana zalamna anfusina wa il lam taghfir lana wa tarhamna lana kuna minal-khasireenऐ हमारे पालने वाले हमने अपना आप नुकसान किया और अगर तू हमें माफ न फरमाएगा और हम पर रहम न करेगा तो हम बिल्कुल घाटे में ही रहेगें (सुरह अल-आराफ़:23)Our Lord! We have wronged our own souls: If thou forgive us not and bestow not upon us Thy Mercy, we shall certainly be lost. [7:23]
    21
    رَبَّنَا لاَ تَجْعَلْنَا مَعَ الْقَوْمِ الظَّالِمِينَ [الأعراف :47]
    Rabbana la taj’alna ma’al qawwmi-dhalimeenऐ हमारे परवरदिगार हमें ज़ालिम लोगों का साथी न बनाना (सुरह अल-आराफ़:47)Our Lord! Send us not to the company of the wrong-doers [7:47]
    22
    رَبَّنَا افْتَحْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ قَوْمِنَا بِالْحَقِّ وَأَنتَ خَيْرُ الْفَاتِحِينَ [الأعراف :89]
    Rabbana afrigh bayana wa bayna qawmina bil haqqi wa anta Khayrul Fatiheenऐ हमारे परवरदिगार तू ही हमारे और हमारी क़ौम के दरमियान ठीक ठीक फैसला कर दे और तू सबसे बेहतर फ़ैसला करने वाला है (सुरह अल-आराफ़:89)Our Lord! Decide Thou between us and our people in truth, for Thou art the best to decide. [7:89]
    23
    رَبَّنَا أَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا وَتَوَفَّنَا مُسْلِمِينَ [الأعراف :126]
    Rabbana afrigh ‘alayna sabraw wa tawaffana Muslimeenऐ हमारे परवरदिगार हम पर सब्र (का मेंह बरसा) और हमने अपनी फरमाबरदारी की हालत में दुनिया से उठा ले (सुरह अल-आराफ़:126)Our Lord! Pour out on us patience and constancy, and take our souls unto thee as Muslims (who bow to thy will)! [7:126]
    24
    رَبَّنَا لاَ تَجْعَلْنَا فِتْنَةً لِّلْقَوْمِ الظَّالِمِينَ ; وَنَجِّنَا بِرَحْمَتِكَ مِنَ الْقَوْمِ الْكَافِرِينَ [يونس :85-86]
    Rabbana la taj’alna firnatal lil-qawmidh-Dhalimeen wa najjina bi-Rahmatika minal qawmil kafireenऐ हमारे पालने वाले तू हमें ज़ालिम लोगों का (ज़रिया) इम्तिहान न बना और अपनी रहमत से हमें इन काफ़िर लोगों (के नीचे) से नजात देOur Lord! Make us not a trial for those who practice oppression; And deliver us by Thy Mercy from those who reject (Thee) [10:85-86]
    25
    رَبَّنَا إِنَّكَ تَعْلَمُ مَا نُخْفِي وَمَا نُعْلِنُ وَمَا يَخْفَى عَلَى اللّهِ مِن شَيْءٍ فَي الأَرْضِ وَلاَ فِي السَّمَاء [إبرهيم :38]
    Rabbana innaka ta’iamu ma nukhfi wa ma nu’lin wa ma yakhfa ‘alal-lahi min shay’in fil-ardi wa la fis-Sama’ऐ हमारे पालने वाले जो कुछ हम छिपाते हैं और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं तू (सबसे) खूब वाक़िफ है और अल्लाह से तो कोई चीज़ छिपी नहीं (न) ज़मीन में और न आसमान में (सुरह इब्राहीम:38)O our Lord! Truly Thou dost know what we conceal and what we reveal: for nothing whatever is hidden from Allah, whether on earth or in heaven [14:38]
    26
    رَبَّنَا وَتَقَبَّلْ دُعَاء [إبرهيم :40]
    Rabbana wa taqabbal Du’aऐ मेरे पालने वाले मेरी दुआ क़ुबूल फरमा ((सुरह इब्राहीम:40)O our Lord! And accept my Prayer. [14:40]
    27
    رَبَّنَا اغْفِرْ لِي وَلِوَالِدَيَّ وَلِلْمُؤْمِنِينَ يَوْمَ يَقُومُ الْحِسَابُ [إبرهيم :41]
    Rabbana ghfir li wa li wallidayya wa lil Mu’mineena yawma yaqumul hisaabऐ हमारे पालने वाले जिस दिन (आमाल का) हिसाब होने लगे मुझको और मेरे माँ बाप को और सारे ईमानदारों को तू बख्श दे (सुरह इब्राहीम:41)O our Lord! Cover (us) with Thy Forgiveness – me, my parents, and (all) Believers, on the Day that the Reckoning will be established! [14:41]
    28
    رَبَّنَا آتِنَا مِن لَّدُنكَ رَحْمَةً وَهَيِّئْ لَنَا مِنْ أَمْرِنَا رَشَدًا [الكهف :10]
    Rabbana ‘atina mil-ladunka Rahmataw wa hayya lana min amrina rashadaऐ हमारे परवरदिगार हमें अपनी बारगाह से रहमत अता फरमा-और हमारे वास्ते हमारे काम में कामयाबी इनायत कर (सुरह अल-कहफ़:10)Our Lord! Bestow on us Mercy from Thyself, and dispose of our affair for us in the right way! [18:10]
    29
    رَبَّنَا إِنَّنَا نَخَافُ أَن يَفْرُطَ عَلَيْنَا أَوْ أَن يَطْغَى [طه :45]
    Rabbana innana nakhafu any-yafruta ‘alayna aw any-yatghaऐ हमारे पालने वाले हम डरते हैं कि कहीं वह हम पर ज्यादती (न) कर बैठे या ज्यादा सरकशी कर ले (सुरह ताःहाः45)Our Lord! We fear lest he hasten with insolence against us, or lest he transgress all bounds [20: 45]
    30
    رَبَّنَا آمَنَّا فَاغْفِرْ لَنَا وَارْحَمْنَا وَأَنتَ خَيْرُ الرَّاحِمِينَ [المؤمنون :109]
    Rabbana amanna faghfir lana warhamna wa anta khayrur Rahimiinऐ हमारे पालने वाले हम ईमान लाए तो तू हमको बख्श दे और हम पर रहम कर तू तो तमाम रहम करने वालों से बेहतर है (सुरह अल-मोमिनून:109)Our Lord! We believe; then do Thou forgive us, and have mercy upon us: For Thou art the Best of those who show mercy [23: 109]
    31
    رَبَّنَا اصْرِفْ عَنَّا عَذَابَ جَهَنَّمَ إِنَّ عَذَابَهَا كَانَ غَرَامًا إِنَّهَا سَاءتْ مُسْتَقَرًّا وَمُقَامًا [الفرقان :65-66]
    Rabbanas-rif ‘anna ‘adhaba jahannama inna ‘adhabaha kana gharama innaha sa’at musta-qarranw wa muqamaपरवरदिगारा हम से जहन्नुम का अज़ाब फेरे रहना क्योंकि उसका अज़ाब बहुत (सख्त और पाएदार होगा) बेशक वह बहुत बुरा ठिकाना और बुरा मक़ाम है (सुरह अल-फुर्क़ान:65-66)Our Lord! Avert from us the Wrath of Hell, for its Wrath is indeed an affliction grievous,- Evil indeed is it as an abode, and as a place to rest in. [25: 65-66]
    32
    رَبَّنَا هَبْ لَنَا مِنْ أَزْوَاجِنَا وَذُرِّيَّاتِنَا قُرَّةَ أَعْيُنٍ وَاجْعَلْنَا لِلْمُتَّقِينَ إِمَامًا [الفرقان :74]
    Rabbana Hablana min azwaajina wadhurriy-yatina, qurrata ‘ayioni wa-jalna lil-muttaqeena Imaamaपरवरदिगार हमें हमारी बीबियों और औलादों की तरफ से ऑंखों की ठन्डक अता फरमा और हमको परहेज़गारों का पेशवा बना (सुरह अल-फुर्क़ान:74)O my Lord! Grant unto us wives and offspring who will be the comfort of our eyes, and give us (the grace) to lead the righteous [25:74]
    33
    رَبَّنَا لَغَفُورٌ شَكُورٌ [فاطر :34]
    Rabbana la Ghafurun shakurबेशक हमारा परवरदिगार बड़ा बख्शने वाला (और) क़दरदान है (सुरह फ़ातिर:34)Our Lord is indeed Oft-Forgiving Ready to appreciate (service) [35: 34]
    34
    آمَنُوا رَبَّنَا وَسِعْتَ كُلَّ شَيْءٍ رَّحْمَةً وَعِلْمًا فَاغْفِرْ لِلَّذِينَ تَابُوا وَاتَّبَعُوا سَبِيلَكَ وَقِهِمْ عَذَابَ الْجَحِيمِ [غافر :7]
    Rabbana wasi’ta kulla sha’ir Rahmatanw wa ‘ilman faghfir lilladhina tabu wattaba’u sabilaka waqihim ‘adhabal-Jahiimपरवरदिगार तेरी रहमत और तेरा इल्म हर चीज़ पर अहाता किए हुए हैंतो जिन लोगों ने (सच्चे) दिल से तौबा कर ली और तेरे रास्ते पर चले उनको बख्श दे और उनको जहन्नुम के अज़ाब से बचा ले (सुरह अल-मोमिन:7)Our Lord! Thy Reach is over all things, in Mercy and Knowledge. Forgive, then, those who turn in Repentance, and follow Thy Path; and preserve them from the Penalty of the Blazing Fire! [40:7]
    35
    رَبَّنَا وَأَدْخِلْهُمْ جَنَّاتِ عَدْنٍ الَّتِي وَعَدتَّهُم وَمَن صَلَحَ مِنْ آبَائِهِمْ وَأَزْوَاجِهِمْ وَذُرِّيَّاتِهِمْ إِنَّكَ أَنتَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ وَقِهِمُ السَّيِّئَاتِ وَمَن تَقِ السَّيِّئَاتِ يَوْمَئِذٍ فَقَدْ رَحِمْتَهُ وَذَلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ [غافر :8-9]
    Rabbana wa adhkhilum Jannati ‘adninil-lati wa’attahum wa man salaha min aba’ihim wa azajihim wa dhuriyyatihim innaka antal ‘Azizul-Hakim, waqihimus sayyi’at wa man taqis-sayyi’ati yawma’idhin faqad rahimatahu wa dhalika huwal fawzul-’Adheemऐ हमारे पालने वाले इन को सदाबहार बाग़ों में जिनका तूने उन से वायदा किया है दाख़िल कर और उनके बाप दादाओं और उनकी बीवीयों और उनकी औलाद में से जो लोग नेक हो उनको (भी बख्श दें) बेशक तू ही ज़बरदस्त (और) हिकमत वाला है.
    और उनको हर किस्म की बुराइयों से महफूज़ रख और जिसको तूने उस दिन ( कयामत ) के अज़ाबों से बचा लिया उस पर तूने बड़ा रहम किया और यही तो बड़ी कामयाबी है (सुरह अल-मोमिन:8-9)
    And grant, our Lord! that they enter the Gardens of Eternity, which Thou hast promised to them, and to the righteous among their fathers, their wives, and their posterity! For Thou art (He), the Exalted in Might, Full of Wisdom. And preserve them from (all) ills; and any whom Thou dost preserve from ills that Day,- on them wilt Thou have bestowed Mercy indeed: and that will be truly (for them) the highest Achievement. [40:8-9]
    36
    رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا وَلِإِخْوَانِنَا الَّذِينَ سَبَقُونَا بِالْإِيمَانِ وَلَا تَجْعَلْ فِي قُلُوبِنَا غِلًّا لِّلَّذِينَ آمَنُوا [الحشر :10]
    Rabbana-ghfir lana wa li ‘ikhwani nalladhina sabaquna bil imani wa la taj’al fi qulubina ghillal-lilladhina amanuपरवरदिगारा हमारी और उन लोगों की जो हमसे पहले ईमान ला चुके मग़फेरत कर और मोमिनों की तरफ से हमारे दिलों में किसी तरह का कीना न आने दे (सुरह अल-हश्र:10)Our Lord! Forgive us, and our brethren who came before us into the Faith, and leave not, in our hearts, rancour (or sense of injury) against those who have believed. [59:10]
    37
    رَبَّنَا إِنَّكَ رَؤُوفٌ رَّحِيمٌ [الحشر :10]
    Rabbana innaka Ra’ufur Rahimपरवरदिगार बेशक तू बड़ा यफीक़ निहायत रहम वाला है (सुरह अल-हश्र:10)Our Lord! Thou art indeed Full of Kindness, Most Merciful. [59:10]
    38
    رَّبَّنَا عَلَيْكَ تَوَكَّلْنَا وَإِلَيْكَ أَنَبْنَا وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ [الممتحنة :4]
    Rabbana ‘alayka tawakkalna wa-ilayka anabna wa-ilaykal masirऐ हमारे पालने वालेहमने तुझी पर भरोसा कर लिया है और तेरी ही तरफ हम रूजू करते हैं (सुरह अल-मुम्तहीना:4)Our Lord! In Thee do we trust, and to Thee do we turn in repentance: to Thee is (our) Final Goal [60:4]
    39
    رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا فِتْنَةً لِّلَّذِينَ كَفَرُوا وَاغْفِرْ لَنَا رَبَّنَا إِنَّكَ أَنتَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ [الممتحنة :5]
    Rabbana la taj’alna fitnatal lilladhina kafaru waghfir lana Rabbana innaka antal ‘Azizul-Hakimऐ हमारे पालने वाले तू हम लोगों को काफ़िरों की आज़माइश (का ज़रिया) न क़रार दे और परवरदिगार तू हमें बख्श दे बेशक तू ग़ालिब (और) हिकमत वाला है (सुरह अल-मुम्तहीना:5)Our Lord! Make us not a (test and) trial for the Unbelievers, but forgive us, our Lord! for Thou art the Exalted in Might, the Wise. [60:5]
    40
    رَبَّنَا أَتْمِمْ لَنَا نُورَنَا وَاغْفِرْ لَنَا إِنَّكَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ [التحريم :8]
    Rabbana atmim lana nurana waighfir lana innaka ‘ala kulli shay-in qadirऐ परवरदिगार हमारे लिए हमारा नूर पूरा कर और हमें बख्य दे बेशक तू हर चीज़ पर कादिर है (सुरह अत-तहरीम:8)Our Lord! Perfect our Light for us, and grant us Forgiveness: for Thou hast power over all things. [66:8]


    फिरका परस्ती एक नासूर

    $
    0
    0

    बिस्मिल्लाह अर् रहमान अर् रहीम
    अल्लाह के नाम से जो बड़ा महेरबान और बहुत रहेमवाला है.
    सब तारीफे अल्लाह के लिए है जो तमाम जहाँ का पालनेवाला है, हम उसीकी तारीफ़ करते है और उसी का शुक्र अदा करते है. अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक (पूजनीय) नहीं है, वह अकेला है और उसका कोई साझी और शरीक (भागीदार) नहीं है. मुहम्मद (स.अ.व.) अल्लाह के बंदे (गुलाम) और रसूल (पयगम्बर / संदेशवाहक) है.
    अल्लाह कि बेशुमार रहेमते और सलामती नाझिल जो उनके रसूल (स.अ.व.) पर और उनकी आल-औलाद और उनके साथियो पर.
    अम्मा बाद,

    फिरकाबंदी क्या है?

    फिरकाबंदी का मतलब है कि किसीकी सोच, राय, बात या आमाल कि बुनियाद पर सबसे अलग होकर अपना एक गिरोह या जमात बना लेना.
    आजके इस माहोलमें अगर आप नजर करे तो आपको मुस्लिम उम्महमें बहोत सारे फिरके मिलेंगे. कोई अपने आपको सुन्नी कहता है, कोई शिया, हनफ़ी, हम्बली, मालिकी, शाफई, देवबंदी, बरेलवी, कादरियाह, चिश्तियाह, अहमदिया, जाफरियाह, वगैरह वगैरह. हर एक फिरका एक दूसरे से मुहं मोड़कर अपना अपना मझहब बना लिया है. जबके उनके मझहब के सिद्धांत और आमाल देखे तो वह एक दूसरे से बिलकुल अलग है फिरभी अपने आपको मुसलमान कहते है. हर एक ने अपने अपने इमाम, किताबें, मस्जिदे, मदरसे, और मुसल्ली (नमाजी) बाँट लिए है और यहाँ तक कि अपनी पहेचान के लिए पहनावेमें कुछ ना कुछ खास बातें रख ली है जिसकी बुनियाद पर वह फिरका लोगो से अलग पहेचान लिया जाए. बड़े हैरत कि बात यह है कि हर एक फिरका अपने आपको सिराते मुस्तकीम (सीधे रास्ते) पर जनता है और कहेता है. उनके पास जो इस्लामी सोच है उससे वह खुश है. इस बात को अल्लाहताला ने कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है, “जिन्हों ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरको) में बंट गए, हर गिरोह (फिरका) उसीसे खुश है जो उसके पास है” (सुरह अर् रूम:३२) हर फिरका दूसरे को गुमराह मानता है और अपने आपको सीधे रह पर जानता है. येही बात यहूद और नसारा में भी थी जिसे अल्लाहताला ने कुरआन में बताया है, “यहूद ने कहा ‘नसारा किसी बुनियाद पर नहीं’ और नसारा ने कहा ‘यहूद किसी बुनियाद पर नहीं’ हालाकि वे दोनों अल्लाहताला कि किताब पढते है” (सुरह बकरह:११३)

    फिरकाबंदी कि वजह (सबब)

    मुस्लिम उम्महमें जो फिरकाबंदी पैदा हुई उसकी तहकिक अगर कि जाए तो यह बुनियादी वजह मिलती है कि हमने अल्लाहताला के कुरआन को और रसूल (स.अ.व.) के फरमान को छोड दिया है. इन दोनों चीजों को छोडकर हमने अपने अपने इमाम, आलिम, मौलवी कि बातों को अपना लिया है और उनके कॉल और हुक्मो को उस हद तक का दरज्जा दिया है कि उनकी तमाम बातो को सच समझ लिया है. आम मुसलमानने कभी यह कोशिश नहीं कि के इन बातो को कुरआन और हदीस के मुकाबलेमें रखे या उसकी तहेकिक करे. अगर दूसरे अल्फाजमें कहा जाए तो हमने अपने आलिमो को ‘रब’ बना लिया है. अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है, “उन्होंने अपने आलिमो और दरवेशों (संतो) को ‘रब’ बना लिया है.(सुरह तौबा:३१) यह आयत का साफ़ मतलब होता है कि किसी शख्श को इज्जतमें वोह मक़ाम देना के उसके हर कौल (शब्द) को आखरी कौल माना जाए तो वह उसकी इबादत करने के बराबर हुआ. क्योकि आखरी कौल तो सिर्फ अल्लाहतालाका कौल होता है और उसीकी इबादत की जाती है. जब अल्लाहताला कोई फैसला कर देता है और उसे अपने रसूल (स.अ.व.) के जरिये उम्मतमें उतरता है तो उसमे तबदील (बदलने) करने और शरई हद कायम करने का किसी और को हक नहीं.
    अरब के अइम्मा इमाम अबू हनीफा (र.अ.), इमाम शाफई (र.अ.), इमाम मालिक (र.अ.) और इमाम इब्ने हम्बल (र.अ.) जिनकी ओर हम अपनी निस्बत करते है उन्होंने क्या इस्लाम को छोडकर अपना अलग मजहब बनाया था या बनाने का हुक्म दिया था? हरगिज नहीं बल्कि सभी इमामों का येही कौल था कि अगर हमारी बात कुरआन या हदीस कि बात से टकराये तो हमारी बातो को छोडकर कुरआन या हदीस कि बातों को सीने से लगा लेना. फिर हम उम्मत को क्या हुआ है कि हमें कुरआन कि आयत या सहीह हदीस मिलने के बावजूद सिर्फ अपनी जिद कि वजह से अपने इमामों और आलिमो कि बातों को अपनाये हुए है.

    फिरकाबंदी के नुक्शानात

    फिरकाबंदी का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि हम अल्लाहताला और उसके रसूल(स.अ.व.) से दूर हो जायेंगे. इस बात को कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है.
    “जिन लोगो ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरकों) में बंट गए, (अय नबी) तुमको उनसे कुछ काम नहीं. उनका मामला बस अल्लाह के हवाले है. वही उन्हें बतलायेगा कि वे क्या कुछ करते थे.” (सुरह अल अनाम:१५९)
     तो कुरआन कि इस आयत से मालुम हुआ कि अगर हम फिरके बनायेंगे तो अल्लाहताला और उसके रसूल(स.अ.व.) से दूर होकर गुमराह हो जायेंगे और गुमराही का मतलब है हंमेशा के लिए जहन्नम.
    फिरकाबंदी कि वजह से हमारे अंदर हक(सच) को तलाश करने का जझबा(तमन्ना) खतम हो जाता है और हम अपने इमाम, पीर या आलिम की बातो को बिना कुरआन और हदीस कि दलाइल के बगैर हक(सच) मानने लगते है. फिर ना हम कुरआन समजने के लिए तैयार होते है और नाही हदीस समजकर उस पर अमल करेने के लिए.
    लोग फिरकाबंदी के घरों में अपने आप को बन्द करके अपने इमाम, पीर साहब या आलिम के कौल कि कुंडी लगा लेते है, फिर चाहे आप बाहर से उन्हें कितनी भी कुरआन कि आयत सुनाये या फरमाने रसूल(स.अ.व.) सुनाओ मगर वह उसको मानने के लिए तैयार नहीं होता और अपने बडो के कौल कि कुंडी खोलकर फिरकाबंदी के घर से बाहर निकलना ही नहीं चाहता.
    फिरकाबंदी की वजह से हम मुसलमान लोग आपस में एक दूसरे से नफ़रत करने लगते है और फिर शैतान अपनी चल चलकर हमें आपस में लड़ाता है. हालाकि हम मुसलमान एक उम्मत है और अल्लाहताला बे हमें एक दीन “इस्लाम” दिया है जो बिलकुल सीधासादा दीन है जिसे कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है,
    “तुम इब्राहीम के दीन को अपनाओ जो हर एक से अलग होकर एक (अल्लाहताला) के हो गए थे और मुशरिको में से ना थे” (सुरह आले इमरान:९५)और दूसरी जगह अल्लाहताला फरमाते है,
    “इब्राहीम न यहूदी थे न नसरानी बल्के सीदे सादे मुसलमान थे और मुशरिक भी न थे.”(सुरह आले इमरान:६७) 

    फिरकाबंदी का हल (उपाय)

    फिरकाबंदी का हल बताते हुए अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है,
     “अय एहले किताब, आओ एक ऐसी बात कि ओर जो तुममे और हम में एक सामान है. वह यह कि हम अल्लाहताला के सिवा किसी और कि इबादत ना करे और ना उसके साथ किसी चीज को शरीक करे और ना हममें से कोई एक दूसरे को अल्लाहताला के सिवा किसी को रब बनाये. फिर यदि वोह इससे मुंह मोड ले तो कह दो गवाह रहो हम तो ‘मुस्लिम’ है.” (सुरह आले इमरान:६४)
    दूसरी जगह अल्लाहताला फरमाते है, “सब मिलकर अल्लाहताला कि रस्सी को मजबूती से पकडो और आपसमे फूंट पैदा न करो” (सुरह आले इमरान:१०३)
    अल्लाहताला के रसूल(स.अ.व.) ने भी हमें एक रहने को कहा है और उनकी बुनियादी बात भी बतलाते हुए फरमाया है कि, “मै तुम्हारे दरमियान दो चीजे छोड़े जा रहा हू अगर तुम उनपर अमल करोगे तो कभी गुमराह नहीं होंगे, वह दो चीजे है अल्लाह कि किताब (कुरआन) और मेरी सुन्नत यानी मेरा तरीका (हदीस)” (मोत्ता मालिक:२२५१, रिवायात अबू हुरैरह(रदी.)
    अल्लाहताला ने हमें सिर्फ दो लोगो के हुक्म मानने के लिए कहा है, जिसे कुरआन में बताया है कि,
    “अल्लाहताला कि इताअत करो और उसके रसूल (स.अ.व.) कि इताअत करो ताकि तुमपर रहम किया जाए.”(सुरह आले इमरान:१३२)
    दूसरी जगह फरमाते है, “अय ईमानवालो, अल्लाहताला का हुक्म मानो और रसूल(स.अ.व.) का हुक्म मानो और तुममे जो अधिकारी (सत्ताधीश) है उनकी बात मानो. फिर अगर तुममे किसी बात पर इख्तिलाफ (मतभेद) हो जाए तो उसे अल्लाहताला और रसूल(स.अ.व.) कि ओर लौटा दो अगर तुम अल्लाहताला और आखिरत पर ईमान (यकीन) रखते हो. यह तरीका सर्वश्रेष्ठ है और इसका अंजाम बहेतर है (सुरह निशा:५९)
    कुरआन कि यह आयत हमारे बिच के गिरोहबंदी के हल का तरीका बयान करती है.

    फिरकाबंदी का अंजाम

     अल्लाहताला के  कुरआन कि यह आयतें और रसूल(स.अ.व.) के फरमान के बावजूद अगर हम फिरकाबंदी पर कायम रहे तो अल्लाहताला कुरआन में लोगो को डराते हुए कहते है,
    “उस वक़्त को ध्यान(याद) करो जब कि वे लोगो (पीर/इमाम/आलिमो) के पीछे चले थे अपने मुरीदो से अलग हो जायेंगे और अजाब उनके सामने होगा और उनके आपस के सारे नाते टूट जायेंगे. (सुरह अल बकरह:१६६)
    याद रखो ! क़यामत के दीन कोई किसी के काम न आएगा. सिर्फ जिद, अहम् और माहौल कि वजह से हक बात का इनकार ना करो और तुम खूब जानते हो कि हक बात सिर्फ कुरान और हदीस है.
    आज यह माहोल है कि अगर मैं कोई फिरके में सिर्फ इसलिए हू कि मैंने अपने बाप-दादा को येही करते और कहते देखा है तो जान लो अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है,
    “जब उनसे कहा जाता है कि अल्लाहताला ने जो कुछ उतारा (कुरआन और हदीस) है उसके मुताबिक चलो, तो कहेतें है, नहीं! हमतो उसीके मुताबिक चलेंगे जिस पर हमने बाप-दादा को पाया है, क्या इस हाल में भी के उनके बाप-दादा ना-समज और गुमराह हो? (सुरह अल बकरह:१७०)
    और दूसरी जगह अल्लाहताला फरमाते है, “जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज कि तरफ आओ जो अल्लाहताला ने उतारी है (कुरआन) और रसूल (स.अ.व.) कि ओर (हदीस) तो वह कहेते है ‘हमारे लिए वोही काफी है जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है. क्या यदि उनके बाप दादा कुछ भी ना जानते हो और ना रास्ते पर हो तब भी?” (सुरह अल माइदा:१०४)

    हमारी दावत

    उम्मत के हर फिरके को हमारी दावत है कि हम अपने बनाये हुए मजहब को छोडकर अल्लाहताला के उस दीन कि ओर लौट आए जिस दीन के सिद्धांत और नियम खालिस(सम्पूर्ण) है. जिसे कुरआन और हदीस कि शक्ल में महेफुझ किया गया है और हर फिरका उसे हक जनता है. इसलिए हम अपने आमाल सिर्फ और सिर्फ कुरआन और सुन्नह के कुताबिक बनाये. हरएक फिरका अपना अपना लेबल छोडकर अपने आपको सिर्फ “मुसलमान” कहे और हर एक फिरका अपना अपना बनाया हुआ मजहब छोडकर अल्लाहताला कॉ दीन जो कि इस्लाम है उसे अपनाए.
    दिन में पांच बार हम अल्लाहताला से हर नमाज में दुआ करते है कि “हमें सीधे रास्ते पर चला” (सुरह फातिहा:५) तो जब अल्लाहताला ने सीधा रास्ता दिखाया है उससे हटकर हम क्यों फिरकाबंदी करके अपने आपको गुमराह कर रहे है और सीधे राष्ट से दूर हो रहे है.
    अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है, “उस चीज (कुरआन) को मजबूती से पकडे रहो जो तुम्हारी ओर वही कि जाती है, बेशक तुम सीधे रास्ते पर हो.” (सुरह अज जुखरुफ़:४३)
    और दूसरी जगह, “बेशक तुम रसूलों में से हो, निहायत सीधे रास्ते पर.” (सुरह यासीन:३-४)
    जब अल्लाहताला ने अपने रसूल (स.अ.व.) को सीधे रास्ते पर होने कि गवाही दी है तो हमें चाहिए कि हम भी अपने आपको रसूल(स.अ.व.) के हुक्मों और आमालो के मुताबिक चलकर सीधे रास्ते पर रहने कि कोशिश करनी चाहिए. हमारे लिए यही बेहतर है, दुनिया और आखिरत में कामयाब होने के लिए. कुरआन को समजो जिसे अल्लाहताला ने आसान किया हुआ है. “हमने कुरआन को समजने के लिए आसान किया है, तो है कोई समजनेवाला?” (सुरह अल कमर:१७,२२,३२,४०) और अल्लाहताला के रसूल(स.अ.व.) के फरमानो को मानो जो हदीस कि शक्ल में है. इसे बुखारी शरीफ, मुस्लिम शरीफ, अबू दावूद शरीफ, तिरमिझी शरीफ, इब्ने माझा शरीफ कहेते है. अल्लाहताला ने हमें दो हाथ दिए और रसूल(स.अ.व.) ने उसी दो हाथों में दो चीजे (कुरआन और हदीस) दी है. अल्लाहताला ने न हमें तीसरा हाथ दिया और नाही रसूल(स.अ.व.) ने हमें तीसरी चीज दी है.
    • लौट आओ कुरआन और हदीस कि ओर अगर कामयाब होना चाहते हो.
    • तोड़ दो वोह तमाम बंदिशे जो हमें एक दूसरे से अलग करती है.
    • छोड़ दीजिए वोह तमाम बाते और अमल जो अल्लाहताला के कुरआन और रसूल(स.अ.व.) के फरमान के खिलाफ हो.
    • छोड़ दीजिए अपने-अपने आलिमों और मौलवियों कि किताबें और पकड़ लीजिए अल्लाहताला कि किताब (कुरआन)
    • हम इसी बुनियाद पर एक उम्माह बन सकते है और हमारे बिच मोहब्बत कायम हो सकती है.
    अल्लाहताला से दुआ करते है कि हमें इस उम्मत के बिच से फिरकाबंदी खत्म करने कि समज दे और दिने ‘इस्लाम’ पर हमें कायम रखे…. आमीन.
    अहले इल्म हजरात से गुजारिश है कि अगर वोह कई गलती पाए तो हमारी इस्लाह करे.
    आपका दीनी भाई.
    आरिफ मन्सूरी – अहमदाबाद
    फोन: +९१ ९८८ ६६५ ४२८०

    रद्द ऐ वहाबियअह : मौलाना अली नकी नकवी साहब

    Viewing all 644 articles
    Browse latest View live




    Latest Images

    <script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>
    <script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596344.js" async> </script>